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नके शरणवरणतत्वका उपदेशामृतचुवाना एवम् भारतके कोने कोनेमें सनातन `
धमकी दु दुन्दु | भ बजाना सिवा जापकं आज ओर फिसका काय्यं हो १ सष द क 2?
` अखिल मानव समाजोपर दुष्टि डालकर देखलीजिए, आधृनिक ओौर प्राचीन सभ्यताओ-
पर पूरा विचार कर लीजिए, भूमण्डकके किसीभी छोरेमे छोटे ओर बडेसे बडे खण्डको ले लीजिए चाहें
असम्य केहृलानेवाक नरोकाही समूह् क्यो न हो ? कोई भी समुदाय एवं संप्रदाय व्रतो भौर उत्सवोसे खाली
नहीं है, अपने २ ढंगके सभी उत्सव मनाते है ओर त्रत करते हं ! ब्रतोकी महिमा वेदनेभी बडे ही आदरके
साथ माहे त्रत करनेवाला सुयोग्य पुरुष जमदीकसे प्राथना करता ह कि-“ अम्ने व्रतपते व्रतं चरिः `
ह तच्छकेयम्, तन्मे राध्यताम्, इवमहमनुतात्सत्यम्पेभि हे त्रतेके अधिपते! `
सबसे बडे परमात्मन् ! मेत्रत करूगा, एेसीमेरी इच्छा हैमे उस तव्रतको पूरा करसक्, यहु मु
शक्ति दीजिए । यहं तो त्रतकर्ताकी वब्तारम्भसे पदिका बीत है कि, वह् व्रतके पूरा करनेसे मेरा कल्याण
होगा इस भावनासे प्रेरित होकर उसकी सफकताके किए परमाल्मासे प्राथेना करता है । जब वहं व्रतनिष्ठ
होजाता है तो उस कालम सत्य मान्त है कि, में अपने जीवनके अमूल्य समयको वृथा ही नष्ट कर रहा था
उससे अब्र विरतहोकर सच्चे उपयोगकी ओर जाता हूं । जितना में बरतमे समय कगाऊंगा कही सच्वा समय
| है, बाकी तो अनृत यानी ज्जू उपयोग है । उससे जीचनक्ती कोई साथंकता नहीं होती । यह है ब्रतपर वदिं
कोका विर्वास कि व्रत ही सच्च जीवन बनाता हे यही कारण हे कि, कितनीहि ऋग्वेदकी ऋचाओमे अत्यन्त, ` ( 1
सम्मानके साथ व्रतं शब्दका उल्केख कि है- “ आद्त्य शिक्षत श्रतेन, ` वयमादित्य व्रते
जन्मनि व्रते, प्रत्नो अभिर्श्चति व्रतम्, ८५ + । प ब्रते “ ये ऋर्वेदके मच्व्ोके `
. वैथोडेसे दिये सब्दक्ता प्रयोम परिस्युट दीख रहा है । व्रत शब्दके अथं का विचार ¦ 1 |
चिशेष ही है । वृत्र-धातुसे उपरादि अतन प्रत्यय होकर त्रत शब्द बनता है ! निर्क्त
स्ण ˆ वृणोति ” पदसे किया है कि, जो कमं कर्ताको वृत्त करे वह् व्रत है । दूसरा चिव .
वारयति ” पदसे दिया है, कि जो अयनेमे प्रवृत्त हुए पुरुषको स्त्री आदि जपचारो से,
वेषिद्ध कमसि रोकता है; जिन्हँं कि, परिमाषाप्रकरणरमे ब्रत-
राजने गिन २ कर समञ्ञाया है । यदि किरार ाः स्के देखा जाय तो निरूक्तकारके दोनों अथे व्रतराजके व्रत- क ८८
पर घटते है । यह एक तरहके सकृल्प विशेषके क्रत कहता है, (0 इस ब्र रः दृष्टिसिे `
` विचार करिया जाय तो दोनोकि अथेका स्वास्स्य एकही हेता है । महषि यास्कके अर्थ॑से उसका न मो ईमी वास्त |
मेद नहीं रह॒जाता 1 का अथं क्के फदाथसे किसी भी अंगम बाहर नहीं जा सकता, व्रतियौ ।
धरमोमिं वरिस्तार्के साय बे पदाथं एिखे हए है; जो कि, उन्हे करने |
ष्टि देखनेवारे समदायमे उल्यवोको जन्मदैदैती
हू । समय पर उत्सवके रूयमं उन्हे वे यादकरक्िया करते हे । किन्तु उसका जन्म थोडे समयकाहौनेके
करण उन धटनाभकी संस्याके कम हौनसे उनके उत्सवे भौ कमह करतेहं ! यही कारणदै कि, चारं
ॐ : हजार वधं सात्र कौ जनमी हुई जातियोके उत्सव इतने ही कम है कि, उनकी संख्या उंगलियोपर ही जिनी
जा सकती है । अतएव उन जातियोको उनका जान अनायास ही है । उनके इतिहासका जान करनेके खि
उन्हे कोई कष्ट नहीं उखाना पडता । उनके अबोध वालक आपी आप अपने बडे बृढोसे वातो बातोमही `
मनकर जान जाते है ¡ पर जिस जातिको संसारकौ सभी जातिया अपनेमे प्राचीन पानकर नतमस्तक
पूणं घटनाओं मे ही होता है । वे घटनाएं ही सम्मानकी दपि
¡होती
है, जिसका इतिहास लाखों वर्षका पुराना माना जाता है, जो अपने को अनादि सनातन एवम् सारे `
मानवसमाजको सभ्यता सिखानेवाला गुर कहती है, जिसके अनेकों ही विशिष्ट पुरुषोकी घटना विशेवोसे
समे उत्सव ओर व्रत इतने कम नहीं हं जो किं आधृनिके जातियोके उत्सवो ओर व्रतीकी
ग तरह अंगुलियोपर्
संभार जासकं ! न वह एसी किसी साधारणकी बातको लेकर प्रचलति ही हुएहंजोकिं, बातौर्मेहीवता
दिये जायं } न वह् अगण्य या महत्वहीनही हँ जो किं, उपेश्नाके गद्ढेमं मरकर बूर देनेयोग्य हो । प्रत्येककी
स्मृति जातिमे नवीन जीवन लानेवांी है । हरएक के साथं जातिंके गौरवकी मात्राएं अत्यन्त प्रचुरतके `
साथ लगी हई ह । पूवं पुरूषोका गौरवास्पद इतिहास इनके साथ मिला हुआ है उनकी श्वद्धाकी अमूल्य कहानी `
मी हुई है जिस श्रद्धाको योगं भाष्यकारने साधककी माके तुल्यं कहा है । इनका) स्मृतियोने सादरस्मरण
किया है । इतिहास ग्रन्थोने इनका गौरवोकौ गरिमामे बो्निल हज पुरावृत्त विस्तारकेसाथ मायाह । पुरा- `
इनका हर जगह उल्लेखं करके इनकी प्राचीनत्ताकी दुन्दुभिं बजाई |
-तरह् उचित स्थलोपर पुेहुएु इन त्रतोत्सवोका अनेकों धर्मशास्त्रकारोनिं अपनी अपनी शक्तिके अनु- `
संग्रहं किया ५९ है । फिर भी उनसे बहृतसे वाकी वच गये ह ५ जो सुष्टिके आरंभकामी उत्सव ब्रत
उन्होने ने अ भपनेसे ज नेसे पीछे के उत्साहियोको अपनी 9 संग्रहकी हुई निचि देकर उन्हं गाडी डी ` बढ
उत्साहित किया दै } व्रतराजके रेखकेको इस पुराने संग्रहसे अच्छी सहायता भिरी
नूतन खोज ४. करके इस कमीको पूरां कर दिया रहै । हिन्दूषमेके
आजसे दोसौ वषेके लगभग पहिले
यह रख रहा हूं । इनका ८ |
कमलाकिरभदटरके धरममेनि्णंय अगण्यसे बन |जाते हँ । व्रत
अनेको प्राचीनं ग्रन्धे `
है तथा बहुतसी.' : |
| सभी संग्रह प्रन्थोसि
देवताओंका अनुसंधान कर ठीजिये ।वेदके भाष्यकारौका
करनेका प्रयत्न किया द । दूसरे स्थलों पर भी जहाँ हमने रिप्पणीसे ग्रन्थक विषयोकी ग्रन्थि मुल्लानेकी
पूणचेष्टाकी है । यह सव कुछ करके हम इसी परिणामपर पहंवे है कि, निर्णयसिन्धु आदि धर्मशास्वके
संग्रह ग्रन्थोका परिष्कारही व्रतराजके नामसे श्रीविरवनाथजीने करडाला है 1 इसके सभी निणेय वतंमानके _
से उच्च कोरिकेदैजो कि, आजतक के करिसी धर्मञ्ञास्त्रोकि संग्रहं करनेवाक्से नहींकिये
गये थे । वह् केवल ब्रतोत्सवोपरही रहा हो, दूसरे कल्याणकारी विषयोपर ध्यान न दिया हौ, यह भी वातत
नहीं दै; किन्तु उनके बहाने कर्मकाण्डके बहुत वड़े भागको कहडाला द । देवोपासनाके स्यि तो इसने अमृ- `
१५५
है । जिनके वैवप्रयोगसे उपासक इष्टदेवका साक्षात् करसकता दै, जिन जिन विरिष्ट पुरुपोने उन, विधियोसे |
इष्टदेवका साक्षात्कार करके अपने एेहलौकिक एवं पारलौकिक का्मोको पाया ह उनका पूरा इतिहास मान्य `
भ्रमाणोके साथ दिया है जिसके देखनेसे कलिय॒गके क्षित प्राणियों की भी श्रद्धा उनमें उत्पतन हो तया वह ५ |
भी सुखपूर्वैक अपना कल्याण कर सके । हवनादिका भी बहुतसा विषय आया है अनेक तरह की आहति ओर
भद्रोके भी विधान विस्तारके साथ अये हं । कोर भी लौकिक कर्मकाण्डका देवता बाकी न रहा होगा जिसका `
कि, पूजन हवन इसमे न आया हो 1 सवही की सब बातें विस्तारके साथ, आमर्द हें । ब्रत्चयकि वहने
| मानवीय धमेशास्त्रकाभी बहत वड़ा भाग कहं दिया है, जो परिभाषा आदि प्रकरणोमें इधर उधर सूत्रम
मणिकी तरह पिरोया हभ है । हविष्य वस्तुओकि नामपर खाद्याखाचकामी निणंय करदियाहै!
इस तरह इन्होने घमं शस्त्रके किसीभी उपयोगी सारवेजनीकं विषयको नही छोडा है । जिन्हें देलकर हम यह |
कह दे कि, ब्रतराजके नामपर मानवसमाजका जितनाभी कल्याणकारी उपदेश है, एवं जो भी कृ अत्या-
वयक कर्मकलाप है वह् सब उसको कहदिया है तौ कोई अत्युक्ति न होगी । आजकल्के कर्मकलापमेदेसे =
भी अये हं जिनका कि, अथं यकि विनियोगके अनुसारही हमने किया हैँ । जहा तकहोसकाहै यहनी
ध्यान रखाहै कि, किसी भी भाष्यकारसे विरोध न हो, यह योजना सिवा इस व्रतराजकी टीकाके दूसरी
जगह कम देलनेको मिरेगी । यह किया भी इसी उदश्यसे है कि, मन्त्रके अथंसे उसी देवताका परिपुणं अनु- ` `
` सन्धान करके कमेकलापको सर्वोत्कृष्ट गुणवाला बनाया जासके ; क्योकि, विना देवताका अनुसन्धान `
` किये उस कर्मको श्रुतियोने उत्तम नहीं बताया है । जो मंत्र यहाँ आये हँ वह् ही आजके कर्मकाण्डके ग्रन्थोमे > ६ र
कामम विनियुक्त ५४५ किये गये ह । इस अथं उनके ल्यं वहाँ भी पथ दिखादिया है कि, इस अथंसे सेउनके
देवतायकी स्तुति करने कग जाता था पर निरुक्तने इसे कोई महत्व नहीं र दिया
महपि पाणिनिने अपनी रिस्षामे अंके अनुसंधानके विना मंत्रपरयोगको निरर्थक बताया है । इस अर्थसे
प्रायदिचत्तोके उपवासोसे भी अगाड़ी बढगये हूं अनेको भव्य पुरुषोने भी अपनेको ब्रतोपवासंत्ि शुद्ध
रकेही सुखमय ईदवरीय साभ्राज्यमं क्सनेकी योग्यता पाई थी । ये आतत्मसोधने करकं पुरुपक कव्रल्यक्रा
धिकार वनादेतेहं । इस कारण मोक्ष कामीको मी सवेतोभावसे उपादेय हु । सकाम पुरूष इनको विधिके
7 साद्धेपाङ्ग पुरा करके अपनी कामनाओंको अनायास ही पाजाते हँ अतःएव मुक्िकें
ऋस्विधान वासिष्ठी लिक्षा आदि वैदिक ग्रन्थोमें भी तो यही वात टै । पतित प्राणियोको उच्चकोटिका `
नानेवाछे त्रतही तो हैँ एवं सभौ समाजोके शिष्ट पुरुषोमें देखा जात्ता टै । एमे भृक्तिमुक्तिसंपादक ब्र्तोका
मरण, हमने अपनी छेखनीसे अनवरत परिश्रमके साथ किया है कि, ब्रतराजके कहें हए सब्र ब्रत आदिकाको
ग गायद इस जीवनम न कर सक, उनके पापहारी परम पवित्र स्मरणसेही अपने पापोक्रो धोडालं
वब्रतराजमें आये हए संग्रह म्रन्थ- हंमाद्वि, कल्पतरु, मदनरत्त, पृथ्वीचन्दोदय, गौडनिव्न्ध, षट्- ॥ |
विशन्मत, सिद्धान्त दोखर, शारदातिकल, पदार्था, गोविन्दाणेव, भार्गवार्चनदीपिका, माधवीय, जान |
माला, नि्णयामृत, द्ैतनिणेय आचार मयूख, दु्गाभिक्तितरंगिणी, शिवरहस्य, कालाद, खद्रयामल, ब्रह्मयामल `
वाचस्पतिनिबन्ध, पुराणसमुच्वय आदि ग्रन्थ है । व्र्तराजकारने अपने म्रन्थमें इनका उल्लख कियादहै।
पुराण-ज्राह्य, पाद्य, दैष्णव, विष्णुधर्म, विष्णुधर्मोत्तिर, गेव, लिङ्क, गारुड, नारदीय, वृहन्नारदीय,
भागवत, आग्नेय, स्कान्द, भविष्य, भविष्योत्तर, ब्रह्मववैतं, माकंण्डेय, वामन, वाराह, मात्स्य, कौर्म, `
बह्याण्ड, देवी, भारत; आदित्यपंचरात्र, गणेश, कालिका, नृरसिह, अगस्त्यसंहिता आदि इतने पुरार्णौ- १.
व्रतो ओर उत्सर्वोको तथा ब्रत ओर उत्सवोमे संबन्ध रखनेवारू विशेष वचनोको व्रतराजमं र्वा =
है । स्कन्द ओर भविष्य तथा भविष्योत्तर ओर विष्णू धर्मोत्तिर के व्रत अधिक संख्याम अये हं
वसिष्ठ, वृद्धवसिष्ठ, सत्यव्रत, पेटीनसि क यले क, धायन मादि आई हं ।
१1 र कोई ग्रन्थ इससे नहीं बचा है । इसकी भाषाटीका करती वार हमे इन ग्न्थोमेसे जो मिलसके उन
ग्रन्थोको इकट्ठा करना पडा तथा इनके अलादा ओर भी बहते ग्रन्थ हमे इकट्ठे करने पड़ । इसग्रन्थ-
दिकः । कियाहैतथा `
्न्थोका भी उपयोग हा है । सवेदेवप्रतिष्ठप्रकाश, `
नवग्रहविधानपद्धति त ४ घानपद्धति, प्रतिष्ठासंग्रहु, मन्त्रसंहिता, प्रह-
चयि निणेयसिन्धु, धर्मसिन्धु, जयसिहकल्पदरुम आदिका उल्टेख ठि
क्तिके साधनभी येही `
` | स्मृतति-मनु, याज्ञवल्क्य, नारद, देवल, विष्णु, हारीत, यम, आपस्तंब, कात्यायन, वृहस्पति, व्यास, =
सहाराजको दैव मूसे वाणीद्रारा अगम्य पहाडी स्थानम मी रोगोमे श्रमिक जौवनकौ चः
लिये मजा । वही करयो ? सनातन
धर्मप्रचारके लिये जाते हुषएु प्रतिवादिभेयंकर मछ्के अधीदवर राजसम्मानित जगदगुरु श्रौमदनन्ताचायजौ |
¦ र मा दमक
कर विरिष्टः
` पृरुषके स्मृतिचिन्टोको देखनेके लि मेने पैदल यात्रा तक करते देखा दै । यदि धोड़े शब्दम केतो यह्
केह सकते ह कि, यह उन्हीं की घामिकं भावनाओं (५ मे ओतप्रोतत हुई चिर प्रेरणा है जिसे कि, म॑ व्रतराजकी `
इस भाषाटीककि शूपमे रख रहा हुं | (5 ५
पुस्तकके विषय-मंगचरण करते हुए अनुबन्धचतुष्टयके साथ प्रन्थकारने अपना परिचय दिया
है सामान्यपरिभाषाप्रकरणमं व्रतका खक्षण, देख, अधिकारी, धर्म, प्रायरिचन, उपवासधर्म, हविष्य, उप = `
(य
धमक लिये आपने समय समयपर अपूर्व त्याग कियाद । मारः
। ५ | ५ युक्त वस्तु, भद्रमंडल, उसके देवता, पुजन अग्निमुख आदि वें विषय हुं जिनका सभी ब्रतोमं उपयाग हृता ध । |
है) इसी कारण इस प्रकरणका नाम प्ररिभापाप्रकरण लिखा दिया है । इसके पी प्रतिपदि लेकर अमाव `
4 सतककी तिथियोकै
त्रत तथा होली आदि सव उत्सव, ब्रतोकी देव पुजा, कथा, उद्यापन तथा विधि भौर `
| उनकी तिथियोका निर्णय एवं अन्य एतिहासिक वृत्त है, इसके पीछे वाखव्रत है । इनमे प्रत्येक वारे सूर्यं आदि ` ।
देवोका पूजन ओरं उनकी कथाएं वणित ह । बध ओर बृहुस्पतिके त्रत हमने ओर भी दूरे प्रन्थोसे ककर ध ५
. जोड द्यि हें । कुछ प्रदोष आविकि ब्रतभीषएेसेहीगयेहं जो वार तिथि दोनो सेही सबन्ध रखते हं । व्यती-
पातके व्रत दान आदि आये हँ जिसके ताराके प्रकरणको ऊेकर् हमने एकं वैदिक रिप्पणी दी है । संक्रान्तिके |
भ्रकरणके पीछे लक्षपूजा आदिका प्रकरण आया है । पीठे मंगलागौरीके त्रत आदि आकर ओर मी बहुतसे `
` त्रत आदि अये है जौ कि, अनुक्रमणिकामें सब मिन्न भिन्न क्रिरके दिखा दिये गये हं ओर भी अनेकं ध्म-
` शास्त्के स्त्रके प्रयोजनीयं विषयं आये हैँ जिनका पृष्ठाङ्क अनृक्मणिकामे लिखा हज है पर मूरमे कहीं मासोके `
` मानोमिं हेरफेर हज है । हमने उसे अविरोषके पथसे लेजानेको चेष्टा की है फिर भी विवेकी पाठक उ
सुधारकर पठ कगे । यद्यपि शिकायन्त्रोसे कितनीहि बार मनमानी रीतिसे दूसरे दूसरे प्रेसोने इसका प्रकाडान
| .8 किया था, पर इतने बडे धाभिक मान्य प्रन्थका पदाथ विचार एवं धर्मशास्त्रके दूसरे दूसरे शर॑न्योको रख
` यह दुर्दशा देखकर अनेकों माननीय पूरुषोके मुखस उच्चस्वरपे येही शब्द निकठे कि, एेसा न होना चाहिये हवः 4
इस ग्रन्थका सुधारके साथ यथाथं रूपमं प्रकादान हौ 1 हिन्द संस्ृतिके पोषके एवं शास्त्रोके उद्धारका श ग
अनवरत ब्रत रखनेवाखे वैकुण्ठवासी सेठ श्रीक्षेमराजजीने खाडिलकर आत्मारामजी शस्त्री त्था
शस्त्रीको आमंत्रित करके इसका संशोधन करा, आवर्यक द्प्पणियोसे मूका परि
महाबल ङष्णशारत्र |
ष्कार कराके आजसे ४ वषं पहिरू अपने श्रीवेकटक्वरं प्रेस बंवरई से प्रकाशित र केया ! अवतकं यह ग्रन्थ
सकलशभगगालंकृतः सत्यरूप
श्रीभूषदमाविलासौ त्रिभुवनविजयी ब्रह्मरदेरपुज्यः '
` मिथ्याक्मन्धिरात्रिप्रमथनतरणिः ` प्रेमपूर्णान्तरङ्ध
स्वेषां नस्तनोतु प्रतिदिनमुदयं श्रीहरिः शान्तमूतिः ।। १।।
जगच्िवासस्य हरेः परतन्त्रो जनो भूवि 1 प्रेरणात््ाप्नूयादाशामाह्ादस्यतरस्य कवा ।। २।।
अस्माभिर्ेतराजस्य विद्वनाथकरतेः खल् ।। ग्रन्थस्यात्यनवद्स्य सर्वाङ्नि रनुसंभृतं १.
केखकानां पाठकानां प्रमादेनानवस्थितेः ।। सम्पुणविषयापूति दृष्ट्वा तत्सग्रहुण वे ।। ४
सारल्यं संविधात् च शास्त्रिमण्डलसमण्डनौ 1} आत्मारामाख्यङृष्णाख्यदास्त्रिणौ सुनिमन्तिततौ ।1 ५.।।
ताम्यां सहाप्रयत्नेन सवन््रन्थान्विलोडय च ।! स्थले स्थल टिप्पणीभिः संस्कार्यं विशदीकृतं
` स्वेन्प्िपूयं विषयान्पकारकरः कृतः । सो पयं ग्रन्थो मृद्रयित्वाऽसाघारण्यमनीयत् 11 ७1
लगारिनागधरणीमितीयनृप्ासने ।! आरोहणेन स्वातंत्यवन्धनेकनिवन्धनः ।\ ८ 1 1
परत्वस्य च ग्रन्थस्य कर्मणा स्वेन सूचितः ।। हगिष्ठे इत्युपाख्यो वै वैस्यवयंः सुबुद्धिमान् । ९1! `
मोरेवरो बापुजीजोऽविचायवाथ समुद्रणे ।। प्रवृत्तोऽसौ तदास्मामिः सूचितो “ नैव मूद्रघताम् || १०! `
इति ' तन्नोररीकृत्य यथाप्रति अमुद्रयत् ।। ततोऽ्स्मामिहौयकोर्टाख्यायां वे राजसंसदि |
धनीत्यधीरस्य पुरो वादः प्रवितः ।1 तत्र सक्ष्यादिभिवदि विपुलीकारिते सति 1! १२
वादेषा निर्गता वे सरस्वती ॥ प्रतिवादिसुद्रितोऽयं श्रन्यो वादग्ययक्च वे !। १३ 1
वादिने च सत्वरं प्रतिवादिना ।! इति त्निर्मतां
| देवीमनादुत्य सरस्वतीम् 1} १४)
ल्ष्मीनिगमरनधरं वा कुरवचिव पुनः स्वयम् 11 अपीराख्य वादशोधं जज्जात्रे समकारयत् ।। १५
सत्येतरभीशंकया सुविचक्षणौ । न्यायावीजौ दावपीदमनूचतुरमुष्य वं 1 १६।
(0 110
| अन्यकापरारम्भकाल `
आचमनसे शुदि
अभाव
प्रवणवका उपयोग
विदः ` ` : ॥ पृष्ठकः | ५ | “< विषः 4 ५ पृष्ठकः.
प
णतम मित
तोभद्र २९ चैं० शु आरोग्य प्रतिपदाका व्रत्त९९ | सतीदेवी ओर शिवपूजनं आदि ,
शलिगोद्धव ` ३५ [चं०गु° विद्या प्रतिपदाका त्रत , | इसीम गौरीके डोखाक्रा उत्सव ५
छोकि देव्ता ओर उनके |च० शु° तिरक व्रत + [इमीमें मनोरथ ततीयाका त्रत
वासनादिके मन्त्र ३१ साधारण स्त्रियोको वेदका | उसकी कथा 9
पूजनकी उद्यापनविधि ३७ | अधिकार नही 9. [अरनधतीका त. ~ ११६.
वाय्वेकावरण ,; [चत्र०्शु०प्र°नवरात्रकाप्रारभ , [ अरुन्धतीके पूजनकरी विधिः + ॥
त्वजोकी प्रार्थना „+ |चें० शु प्र° प्याऊकरादान [अरुन्धती ब्रतकी कंथा +» . : |
7 सस्योकी निष्कासनं ¢ | आर धमधटका दान .. । { इस्तका उद्यापत् ९ ५ १ १ |
,. | श्रावण शु° प्र० रोटकं व्रत „ |वेक्लाखशुक्.तुतीयाको अक्ष- `
यतृत्तीयाके व्रतं 4२६.
गव्यसे प्रोक्नम क उसी {
न्युतारणं ५ ध ध ~ {स्तत्र तोकी दिव पुजा ७४ वदाखस्नानं 4 9
+ | रौटक व्रतकी कथा ५ [परशुसमर्जयस्तीः ४
अक्षयतृतीयाकानिर्णय *
भप्रतिष्ठा | ध ५
| उपवासकी प्राथेनाके मन्त्र > |
षस॒क्तके म॑त्रोसे षोडशोप- ` । इसको वधि
तार प इसको युगादि कथन भौर कर्तव्य, `
कपर देवपुजन ` #
| स्थापन मौर पूजन 9
.{ उद्यापनं .:. 4.
४४ | आर्विन शु प्रतिपदा दौहित्र , | कथा ¢
4: अतप ७९ | ज्येऽ शु० तु° रंभाव्रत १२५
{इसमे नानाका श्राद्ध दौहिव करे , |श्रा० शु त° मधुस्रवाब्रत
५५ [ मामके जीतेभी,पितावालेको | इसीको स्वर्णगौरी त्रत
५७ स॒ण्डनका अभावं `: + | स्वणगौरीकी पूजा
| स्व्णगौरीकी कथा
++ | उद्यापन ५
[(सृक्रततुतीयाको ब्रतकी विधि
(0 {त | नवरात्रशब्दका अथं
^ ६ | घरस्थापनका समय, |
{निषेव -. -:: [कवा | ५
> [नवरात्रके घटकी स्थापना विधि » [भार शु° त° हर्तिलिकित्रत
>+ [नवरात्रकी दुर्गादूजा > 1 अंगोकी 1
| अगपूजा ५ 1 ८ र्जा
1 कूमारीपुजा 431 ॥ 1
कातिकशुक्काप्रतिपत् = ८८ | मा० शु° तृ° बृहद्गौरी
दर्वागणपतिन्रतं
परऽ दार बण सिद्धिविनायक
बरत ९4
व्रतकं विधिं
अंमपूजा
कथा
महिमा तथा इ
का निषेधं
दोषदान्तिका मंत्र
स्यमन्तकमणिकी कथा
माघ शु° च० गौरीचतुर्थीतरत २ २
“ वरदचतुर्थीब्रत 1
वृम्पाषष्टीकातव्रत
निधंनकोविधि ३०२|
वै° शु° गंगाजीकी उत्पत्ति° ३०७
श्रा० कर° शीतलासप्तमी `
भाद्र ङ० जन्माष्टमीका व्रते
दमक निर्णय
भाद्रपद शुऽ ज्येष्ठात्रत
| ज्येष्टदेवीकी पूजा
इसका स्त्रियोको नित्य
व्रतकी विधि गौर परजा
कथा
विषयः: : `. पृष्ठकिः
कथा याहमाहातम्य ५५८ `
ज्येष्ठ शुक्छा निजंखा एका- ` `
दशोकी कथा या माहात्म्य ५६० `
आषादकृष्णां योगिनी एका- ॥
दरीकी कथा या माहाटम्य ५६३
आ० शु० पद्मा एकादशीकी ` `
कथायामा० ५६९
विषयः = पृष्ठकः
-पलपुष्य्
तथा दूसरी वस्त्ूओके सम- | उपवास, आठ महाद्रादशी-
पणेकाफक ` + {| या, शुक्लकृष्ण दोनोका
आवरणपूजा. + | उद्यान, उसकी विधि ^
चौसठ देवी ओर माताएं ६ > [युजाकी , विधि
पांच मुख ओर आयुध , -[पूराणोकी केही दोनो एका- । £
का०शु° अक्षयनवमीके व्रेत- दरियोके उद्यापनकौ विधि „+;
४५४ | आषाढ शु गोपद्यव्रतकी |
उद्यापनविधि ४९० | इसीमं विष्णुशयन ओर चातु-
(८ प्नाविधिः ` + [्मास्यत्रत ग्रहण होता है इसका |
ध क 1. मादात्
श्रावण कृष्णा कामिका एका-
द्वादशीकी कथा या माहात्म्य ५८२
ओर उसके पाठ्की रीति ४६० |श्रा० शु° एकादशीको वामन | श्रावण बुक्छा पुत्रदाएका- `
आशादरमीका | काञवतार ४९९ |द्वादीकी कथाया माहात्म्य ५८४
४९५ [कात्तिक ० शु ° प्रबोधके उत्स- ` [भाद्रपद कृष्णा अजा एका- ` 1
क # ` "५०० [दक्लीकी कथाया माहात्म्य ५८७
0 [गि वदतं र सहिता: ९५
[आ बु° पाशकुशा एका
दरीकी कथा या माहात्म्य
ज्ये० शुण दकषहराका त्रत ४६० | पुरुषोत्तममासकी कमलाए्- `
दश्षहरानामका गंगास्तोत्र | कादशीका माहात्म्य ४९५
भा० शु
श्० विजयादकश्षमीका
४७२ | मागंसीषं कृष्णा एकादशीका
^ `| माहात्म्य
व विषयः = पष्मकः |
दुग्धत्रतका संकल्प ६९९ | अनन्त चतुदंशीका ब्रत ` ६९९} पूणिमाकेव्रत ¦
` दूधके धिकारकी त्यागात्याग- [व्रतकी विधि, पूजा ` » | पूणिमाका नियं । ७६४ |
व ध | नाम पूजा ५ | चैतरीको चित्रवस््रदानकाफङ , ।
0 यही भवणकत यमे रवणः [बन ध * '|दमनसे सबदेवोकीपुना + |
, द्वादली कंहाती है | ` पीठपूजा ध ` » [वैशाखी कातिकी ओौरमाधीके
9 इसीकी विष्णविक्षं लंखसन्ना. . अनन्तपूजा 0 $ 0 | दानकी प्रसा 3 1 4
(नौर् माही »„ | ग्रंथिपूजा, अंगपूजा, आव- ,„ |ज्ये० श॒० वटसावित्रीकाः ब्रत ७९५ `
} इसीपरहेमाद्रिओौरनिणेया- | रण पूजा [वतको विधिः ५८
` ` मृतक व्यवस्था ५ [पत्रपूजा, पृष्पपूना, एकसौ | पुजा विधि 11
ब्रतकी विधि 1 क: |: आठ. नामसि पूजा ~ वृणा प ८ 1
विष्णुधरमेका दूसरा विधान „ |डोरेकीप्राथेना,डोरकेवांध- | अंगपूजा ब्रह्मसत्यपूजा = +
। ब्रह्मवैवर्त, भविष्यओौरविष्णु | नेकेमंत्रओौरजीणेकेविस- |कथा ` 9
. सह्स्यका कटा विधानान्तर् ५ | जनके मन्त्र » [अब्द साध्यत्रत
कथ ध » | वायनेके मंत्र, पुराने डोरेकं ` [उद्यापनं 1
` इसीमं वामन जयन्तीकात्रत „ | दानकेमंत्रभौरकथा , | आषाढीको गोपश्चत्रत ओौर ७८७
वामन पूजा ओर उनके अंगो !अनन्तके ब्रतका उद्यापनं | ८ „| उसकी पजा 4
कीपूजा ` न विषलेर्कीविषि _ = |श्थो ७६
श्िक्यके दानका संकल्प „ |भाद्र°गु°कदलीव्रतकी विधि ७२५ | उद्यापन न
` पौ० ° सुरूप द्रादजीका त्रत रंभाकारोपण् =» | आषाढबु° पौर कोकिलात्र
ओर उसकीकथा ` ६३९ |कथा » [उसकी विधि
` ज्रयोरशीके व्रत 4 गृजरातियोके आचारसे प्राप्त {कृथा
` व्रतं क्था आदि ` ¦. ६४५ | क | 1 । । (६ 4: ध श्रावण पौ रक्षाबन्धतकी |
भा०शु० गोतिरात्रब्रत ओर. |. ८. <
गुजरातियोका गोतरिरात्रत्रत ६५२ | |
अशोक त्िरावव्रतं ६६१ च्ल मं प्रातःतिलके तेरे
` विषयः = पूष्ठंकः
क | तेनसंकरंतिके त्रत ओर विधि ९५५
„ | दूसरी रीतिसे
: 3. `
आ० क० अमा गजच्छायापवे ८४५ | मंगल्वारके व्रत ९१५ | सौभाग्यसंक्रान्तिका व्रत इस-
काति° अमा० रक्ष्मीत्रत ओर | व्रतकीविधि . क सोनेके कमरुका दान +
बिके राज्यका उत्सव विधि , |मंगरुका यंत्र इसके बनाने- ` [ ताम्बर संक्रान्तिकाव्रतओौर
भरविष्यपरीक्षा = की विधिं. गौर पूजनकीः :, ल [¦ विधानं: ९५६
राजाओके सिये विशेष २ | रीति ` ९१६ | अशोक संक्रान्तीका त्रत इस
मागे° अमा ० गौरीतपोव्रतका मंगरूका कवच „+ |. में सोनेके सूयेकी पूजा ९५१
विधातुः. ~ . ८४९ कथो ९१७ | क्पिखाकादान `
मागं ० इसको महाव्रत कहा है ८५२ | उद्यापन ` ` „ [आय् संक्रान्ती व्रत तथा धान्य
सोमवती अमावस्याका ब्रत ८५४ |टी° बृद्धका ब्रतादि ` ९२३| संक्रान्तिकी तरह उद्मापन
प्रज ६ ८५५ | बह॒स्पतिवारका त्रत ओर विधान ९५८
` अदवत्यकी पूजाका मंब „ |श्रावणमेः शुक्रवारे वरख-
प्रदक्षिणाका मंत्र = क्मीकातव्रत ` ५ ९४
0 पूजाकी विधि ॥ ५:२५
अमावस्या अधेदियं व्रत ८९६ |अंगपूजा ` - 1,
धन संक्रान्ति व्रतं पूववत् उद्या-
पन विधानं 1
सब संकान्तियोका उद्यापन ९५९
धनु संक्रान्तिकी विशेषता ९६०
रविका घत स्नान (य १
2
(बा 4" द
८७१ | श्रावण श० शनीचरका व्रत ९३० की महिमा
नका दान
पानके दाचका
0
` मानकी लाख प्रदक्षिणाओं
की विधिः ~
ब्रह्महत्यादि महापाप, उनके
समपाप, जातिभरंशकर पाप
` संकर करनेवाङे पाप, मलिन
८ उच्यापन
। . शिवकी नाना लक्ष पूजा
विधि ११२
करनेवाटे पाप ओर उप.
पातकोका उल्लेख ९९५ | यु
उ्यापन 1
लाख बेकूपत्रोसे पूजा ओर
उसका माहात्म्य
तुरुसीकी लक्ष पूजा विधि १००५
: थते मन्तं +
पत्र छेनेके मन्त्र $
विधि". ८
` अभित्वा देव सवित
अग्नि दूतं वृणीसहे
अदिवनावतिस्मदा 4 (1
. अभित्यं देवं सवितारम् ` + ‹ 8 1 |
ह उद्यापन । द 3.
| विष्ण् ओर सूर्यकी लाख नम-
उदयापनं | 1)
[गौरीकीष्ला `. 1
कधा १
+ [उद्यापन
७ मौन व्रत ओरकथा `
विषय
| उद्यापन
धाम्यपूजा
| उद्यापनं ध
शिवामुक्तित्रत १०४६
0: [उचापन: ~ 1
१०१६ | हस्तिगौरीत्रत १०४९
उयापन ५ ५4 कंथा क
त वत्ती त्रत १०२२ | कृष्माण्डी व्रतं तथा कथा
[1
कृकंटीका व्रत उदययापनसर्हितं १०५८
ककेटीका पुजन १०५९
[उद्यापनकी विधि |
१०२५ | कोटी दीपदानका उथ्यापन १०७१
| पाथिव लिङ्कका उथ्ापन १९७२
[व्रतराजमें जये हृष् विष्य |
विषय शकोकषद्ध याजन्-
कमणिकाध्यायं १०४७४
| सात घानोसे लक्ष पूजा विधि १०७५
लक्ष पूजाका उद्यापन् `
टीकाकारकी इष्ण प्र
भ्म
१०५५
१०२३
स्कार विधि
श्रा० भो० मंगला गौरीका
१०३९
अग्ने त्वं नो अन्तम
1 ५ | जद्वत्थे वो निषदम्
३२ |अस्वपूर्णाम्
`. | अभिस्व वृष्टिमद
4 „ | | अपत्ये प । यथा १
६ ।* ठ , ५ ४
८ {> ड {क ९
. ` (नि
भो मत कमय कन कम न माय भ मभक पं ०८५ भतम सकण न ४
उदन्लद्य मित्रमह + | त्वमं सोमाऽसिथारथ् ` ९११ | यदापो अध्या 2 ३3 ५
उदमादयमादित्यौ ` र +» | तदस्य प्रियमभिपायो ५७७ | यस्त्वा हृदा कीरिणा. = द
| | तामग्निवर्णां तपसा ज्वलन्तीम् २६ | यस्मै त्वं सुकृतो जातवेदः ५ ६
उद्बुध्यस्वाग्ने ` र ५ |
उभोभयाविन्नुपधेहि ८३८ [यानु क्षवियां जव ३२ | यतौ विष्णुषिचक्रमे
उतारब्धान् स्पणहि ८३९.। तामआावहु . ~ ~: `! 4२ | मनसा
उदग्ने तिष्ठ ` ८४० [ब्रीणि पदा विचक्रम ३३४ | यदौ देवा
उर््वोभवप्रति >» [च्रिदेवः पुथिवी ४७७|यः शुचिः प्रयतो भूत्वा
ऋषभं वा समानानाम् ` ३२ त्रिपादुष्वे . . ` ` ४२ |यतं इन्द्रभयामहे -
एष्यगन इह होता ` ` ४ ध ` ४४ | तीक्ष्णेनाग्ने चक्षुषा ८३९ [यत्रेदानीं पयसि
एषोहि देवः प्रदिलोन् ` ४५ | देवस्त्वा सविता पूनातु ` १८ | यजञैरिषूसंनममाना
एवा पित्रे ह ` ++ [दधिक्रान्णः » [याः फलिनीर्या अफला
एतावामस्य -महिमा ` ` ४२ | देवस्यत्वा सवितुः ३५४ |युबा सुवासा
ओमासर्चषेणीधूृतः ३१ | घामं ते विश्वं भुवनम् व ४९ [येभ्यो माता मधुमत् `
ओषधयः समवदन्त ` <२ | धाम्नो धाम्नो राजन् ३३ |यो वाः शिवतमो रसं
कटूद्राय प्रचेतसे ` ३२ धरुवा योः ध्रुवा पुथिवी ४७९ | रक्नोहणंवाजिनमा
कदमेन प्रजा भृता ८२ | धुवंतेराजावस्मौ ` „+ : [वायो इतं हरीणाम्
| विह्वानि वो दुगहा
स ८ | विष्णोनक ध
वति समुद्न्धम् ३२ | नृचक्षा रक्षः परिपाहि ८३९ | विद्यामेषि रजस्पुश्वहा
++ ` | निषुसीद गणपते गणेषु +. | विष्णोः कर्माणि परयत
विचक्रमे पृथिवी
| तयङ्गदेवाना ४. विश
३२ | पवित्रं ते ठि हंस शुचिषद् वपुरन्तरिक्षसद् २९
हिरण्यारूपा उषसो विरोके ८ र
दवान्कुरुते हि प्रन्थं देवज्ञश्र्मा जगतो ४२ हिताय ।\१। विष्ण्वचचेनं क दा
च उत्सगधमत्रतनिणेयक्ष्च ।। वेदात प |
कृपया युक्ताः कु वन्तु
ण्डताः ।। प्रचारणीयो
वावयोका भी उल्लेख ल्केल किया हे, मेरा इसकं बनानम निजी कोड् भी स्वाथे नहीं ह कंवल == सायं नदा हे केवल रोक कल्याणक कल्याणकी
कामनासे प्रेरित होकर ही इसे लिखनं बढा ह मेरी आन्तरिक इच्छा यह है किं यह् मरा भ्रन्य विद्वानोके
अनान्दके लिये हो \३।\ इस संसारम जितनं भी धर्यं शस्त्रके जाननेवाठे विद्वान् ब्रषह्यण हं वं सबकसलन 1
7 करके मेरे इस छोटेसे ग्न्थका संशोधन करनेको कृषा करेगे \१४।। मे गुण मण्डित सकल पंडित | |
नीत शर्थना करता हूं कि, जिस तरह माबाप बालकके अस्यष्ट तोतली बोलौका प्रचार आनन्दसे
करते है इसी तरह आएप अपने इसं बालकके ग्रन्थको भी प्रचलित करेगे \\५।। सवत् सन्रट् सौ तिरानरवेके
तथा शक सोलह सौ अठानवेकं मध सुदी पंचमीकं दिन \\६\ अनेको अ्रन्थको देखकर श्जज्ञ लोगोके लियं
लिखना घ्रारम्भ किया है । एेसेही लोगोको समक्ञानके कारण
विद्रान् तो सब कु जानतेही हं ।1७\\ मरा जन्त चिस्तपावनं जातिम हज हं शांडिल्य
स्थान रखता है, सुकं रोग संगमद्वर कहा करते हैं मेरे पिता श्रीका नाम गोपालजी हे मे ज्योतिषौ हू \\८\\
बनारसमे मेरा रहना दुर्गा चाट पर होता है बही को प्रणाम करके लासे विस्तारकं < ध
साथ व्रतराज नामके ग्रन्थको लिखता 5
प.
॥
५१
| रत्ना दधतकाल्विधाने-सिहस्थित | सुरणुरुयदि न्सदाथाः तं वजैयेत्सकःत ध
कर्मसु सौम्यभागे ।। विन्ध्यस्य दक्षिणदिशि प्रवदन्ति चार्था
पञ्चदले ।। व्याघाते वजकेऽडकाः पितमूतिदिवसोना-
तिथिखं (ल. ( ल तिथि व्युद्गमां दु
है" यहु अथं नहीं हं कि चष भरकं त्रतोकोही न करे यदि एेला न मानोगे तो शरदे तो लेकर ग्रीष्म तकके `
समयमे अगस्त्यका सम्बन्ध होनेसे इस कालमें कहे गये स्त्र व्रतोका सर्वथा निषेध हो जायगा । दिवोदास =
यम्रत्थमे अगस्त्यजीके उदयका काल गग आदिके वचनोको
दक्षिण दिशा में होता ह जब कि सिहकी संकांतिके इक्कीस अंश नीत जाते है तथा वृकी संक्रंतिके सात अंश `
व्यतीत हीने पर अस्त होते हं । हेमाव्रिमं सत्यत्रतने त्रतके आरंभ करने ओर समाप्ति करनेकी तिथिको बताया _ `
ह कि-सूय्यं नारायणकं उदयके समयमे तो जो तिथि हो पर मध्याह्नके समयमे बहन रहे उस खण्डातिथिमं |
नतो व्रतका प्रारंभ करना चाहिये तथा न व्रतकी समाप्ति ही करनी चाहिए । तहां ही वृद्ध वसिष्ठने खण्डासे `
` भिन्न जो जखण्डा तिथि है उसमें व्रतके प्रारभ करनेको कहा है कि जिस मध्याह्वकालमे भगवान् सुथेदेव ` (
आकाडको पणं व्याप्त करते हँ उस समय जो तिथि खण्डित नहो तथा शुक्र ओर गु दोनो हो तबव्रतका आरभ `
करना चाहिये \ यानी निसमें शुक्र ओर बृहस्पतिजी अस्त न हों उसमें ब्रतका प्रारम्मे करना चाहिये यह `
इस कथनका तातपयं हुआ । रत्नमालामे कहा ह कि -सोमवार बुधवार वृहस्पति वृहस्पति ओरं शुकवारको कोई भौ | .
को उद्धत करके कहा है कि, अगस्त्यजीका उद्य `
कौ अवश्य सिद्धि होगौ क्योकि कि
यज्ञियो देशो स्लेच्छदे स्ततः परः ।\ एतान्दरिजातयो देशाः प्रयत्नत
पि--यस्मिन्देशे मृगः कृष्णस्तस्मिन् धर्माचिबोधत ।! इति ।।
देश हं नैमिषारण्यं तो विदञेष करके हे । देवीपुराणमे कहा हे किः
स्कर, बनारस, कुरकषेतर, प्रयाग, जंबुकेडवर, केदार, वामपाद, कुडव, पृष्कर,महावुण्य, सोभेहवर, अमरकंटकः,
कि गुह् भगवान् विराजते हैँ \ गुहे स्वामिकातिकको कहते हं । ये सब पुण्य देश हं ।
परिभाषा
शै
` युक्तैम्लेच्छैरन्येच मानवेः । स्त्रीभिश्च कुरुदादृल तद्विधानि
दं रण् । वैक्य-
` श्रयोस्तु द्विरत्राधिकोपवासो न भवति । वेश्य: शद्रादच ये मोहादुपवासं `
प्रकुर्वते ।! त्रिरात्रं पञ्चरात्रं वा तेषां व्युष्टिनं विदयते ।। इति प्राच्यङ्िखित-
भार्या भतुमंतेनैव व्रतादीन्याचरेत्सदा ।! इतिकात्यायनोक्तेः । यततु-पत्यौ जीवति
॥ या नारी ह्यु पवासत्रतं चरेत् ।! आयुष्यं हरते भतः सा नारी नरकं व्रजेत् । इति
भ्ये +
योनिम पदा हुए जौव मी हं तथा
२ मं स्लेच्छोका अधिकारभी देखा जाताहं
म्कच्छ तथां अन्य मनुष्य स्तानि करक भ्रस्ता साय कर सकत ह इस त्रत्का यह् विधन ह जपि चुन
वैश्य ओर शदरोके लिये दो रात्रसे अधिक्र उपवासक विधि नहीं है कि-जो वैश्य ओर शूद्र मोहके वमे होकर
तीन रात व पांच रातका उपवासं कर बैठते हँ उन्हुं उसका फल नहीं मिता
मकम
अनुरोध हं । इलोकमे जो व्युष्टि शाब्द आया है उसका फल अथे है । सधवा
लता यह पहिलोका लिखा हुए
॥। तास्रपान्राद्यभान
स्थितः ।\ देवपुजा-यहैवत्यं
पुज्यदेवतोदेशेन : होम > 1. अवक्त 3 तच सप्तमीत्रते
` [ सामान्य
वा \\ व्रताद्यारम्भे वद्धिश्वाद्धं कायम् ।\ तदाह शातातपः-नानिष्टवा तु पित्- `
उ्छाद्धे कमं किचित्समारभेत् ।
व्रतधर्म-त्रतके संकल्पकी विधि महाभारतम लिखी हं किं, हाथमं भरा भराया तांबेका पात्र लेकर
| उत्तर दिक्राकौ ओर मुख कर संकल्य करके उयवासको ग्रहण करना चाहिये । यदि रातका कोई उपवास
`: करना हो तो उसमे भी इसी प्रकार संकल्प करना चाहिये \ अब ग्रन्थकार श्लोकको व्याख्या करते हं कि,
१ ` ग्रन्थमं ऊपरकं इलोकका अथं करते हुये लिखा हे किं दिनकी तरह रातके व्रतादिकोका 1.
` श्रीदत्तने तो कल्पतरुकारके मतके शलोकम आये हुए वाकारको ˆ च ` के अर्थम मानाहं चका ओर अथेहोता
द, यह् करनेसे इलोकका जो अथं होता हे कि दिनके ब्रतकी तरह रातके व्रतकोभी संकल्प पू्वेक ग्रहण करे `
ओौदुम्बर तांबेके पात्रको कहते ह क्योकि विह्वकोशषमं ओदुम्बर तांबेकं पात्रकं पर्य्यायमं आया हं \ कल्पतर्
1 वह पहिरही कहा जा चुका हं । इस तरह माने विना इलोकमं आये हुए वा जौर उपवास ये दोनों पद व्यथं |
` हयेजाते ह क्योकि, इनके विनाभी इनका तात्पयं वाको विकल्पार्थक मानने पर निकल आता है ! यदि तावका `
3 बतेन उपस्थित न हो तो हाथमे ही षानी लेकर संकल्प कर लेना चाहिये । यदा संकलत्पयेत्' कं स्थानम मदन- | ५५
` कारने यथा संकल्पयेत् एसा पाठ लिखा हं । थथाका तात्पयं यह ह कि जसौ कामना हो उसको कहकर संकल्प
चाहिये । इसी कारण माकण्डेयपुराणमे कहा हं कि जिन कामनाोको केकर त्रत करना चाहता
परिभाषा
ह 1 श्लोकम 'सर्वत्रतेषु' यह जो पद आया ह जिसका सब ब्रते, ठेसा अथं किया गया है इसमें बत भविष्य `
पुराणकं कहं हृए ही हँ उन्हीमे होम आदि कौ विधि ह ब्रत मात्रमे यह् व्यवस्था माननेसे ठीक नही होगा । =
पृथ्वीचनदरोदय ग्रन्थमें अग्निपुराणकं मतको केकर लिखा है कि-व्रतके समयमे भूमिपर हायन करनेवाङे `
ब्रतीको चाहिये कि सन ब्रतोमे स्नानके पीछे शक्तिके अनुसार सोने आदिकी बनाई हुई त्रतकी सूतिका पुजन `
करे फिर सामान्य जप होम करनाचाहिये ब्रतके अन्तमं दान भी देना चाहिये । ज्ञवितके अनुसार चौवीस या |
१२ या पांच था तीन ब्राह्मणोको भोजन करा, उन दक्षिणा देनी चाहिये \ जिस देवका व्रत हो व्रतके ल्यि , |
| बनाई गई उसको मूतिको व्रतमूति कहते हँ । देवलने लिखा है कि-जब कभी त्रत करे उस समय सदाही ` `
` ब्रह्मचयं अ्हिसा सत्य ओर निराभिष भोजन ये अवदय ही करे \ स्त्रियोके देखनेसे छनेसे तथा उनकेसाथ
बाते चीतं करनेसे ब्रह्मचय्यंका नाच होता. ह \ ऋतुकालमे अपनी स्त्रीके साथ समागम.करनेसे ब्रत नष्ट
नहीं होता । इलोकमें न दारेषु इसके स्थानमे स्वदारेषु एेसा पाठ मानते हँ । तब स्वदारमें ऋतुगामी होनेपरभी `
। | जरत नाञ्च हो जाता है यह पक्षातर अथं है । मांस, मुसकका पानी ओर गञको छोडकर बाको पशुभोके दूधको `
| आमिष कहते हँ सस्योमं ससुर आमिष तथा फलोमे जंभीरी आमिष है सीपीका चूरन भी इसी कोष्मिहै
| तथा कांजिक भी आमिषम ही संभाला हे" ये दूसरे २ स्मृतिकारोकं मतोसे आमिष गिनाये हे । ब्रतादिकोके `
गोहितः ।\ न जीवन्भवति चाण्डालो मृते इवाऽभिजायते । काममोहित इ
विषयषणाद्याध्यादिनाऽ्नाचरणे न दोषः ।। तथा च हेमाद्रौ स्कान्दे-सवभूतः
पं मतिहेमाद्विः । मदनरत्ने त॒ सवं च तभय
॥ भित यपरिचितत्वाद्याख्यातम् सवेमृतभयम्-सर्वेभ्यो भूतेभ्यः सकाशा
हिन्गेटीकासहित = (११)
सामान्य-
अथं यह किया ह कि किसी भी अपरिचित जीवके भयसे व्रतकर्तीफे भीत होनेषर यदि व्रतम चरुटिहो तो दोष
नहीं है । पर परिचित सयं आदिक भयसे कमं लोप हो तो अवह्यमेव व्रतकी हानि होतौ ह । सपं आदिक
होता हे । एकवार इस अथवाला सं |
वारंवार इन बातोसे व्रत कमंके लोप करनेमं प्रायश्चित होता ह । यही स्कन्द ओर गरुड पुराणम कहागया
हे किं कोष प्रमाद ओर लोभके कारण यदि ब्रतभेम हो जाय तो तीन दिन भोजन त कराना चाहिये । यदि
` यह न हौ सकं तो शिरका मुंडन ही करना चाहिए । इससे यहं बात नहीं है कि, जो व्रत बिगड़ गया हौ फिर
भ हन्द टाकासाहत
मौषध रूपमपि मासं त्रताहे व्जयेदित्यथेः ।\ विष्णुरहस्येः-स्मृत्यालोकनगन्धा-
दिस्वादनं परिकीतंनम् ।। अन्नस्य वजंयेत्सवं प्रासानां चाभिकांक्षणम् ।। `
गात्राभ्यद्खः क्िरोभ्यङ्खः ताम्बलं चानुखेपनम्।।त्रतस्थो वजयेत्सवं यच्चान्यहलराग- `
करत्।। इति ।\ हारीतः-“पतितपाखण्डादिनास्तिकादिस्तंभाषणान्ताहलीलादिकमुप- `
वासादिषु वजेयेत् इति अन्नादिपदेन य्पुरुषाथंतया स्वंदा निषिद्धं तदपि
ऋत्वथतया संगृह्यते । अत एव व्रताधिकारे सुमन्तः-विहितस्याननुष्टनसिन्ि-
याणामनिग्रहुः । निषिद्धसेवनं नित्यं बजेनीयं प्रयत्नतः ।। पतितादशेने तु विष्णु-
पुराणे--तस्थावलोकनात्सृर्यं पद्येत मतिमान्नरः ।। स्प्ञाद ।! विष्णुधमे-
संस्पर्शे च नरः स्नात्वा शुचिरादित्यदशेनात् ।। संभाष्य ताञ्छचिपदं चिन्तयैद-
|: 1 क.
स्वयंकुर्थादित्यर्थः ।\ पुसोण्येष विधि-
व स््ीभी रजो दशनेपि कायम) तथाच
है, सब प्राणियोपर दया, सहनं
. प्र्शिका 4 हिन्दी टीकासहित ^. (1 1
` चाहे व्रत हौ चाहे नं हौ \ व्यासस्मृतिमं कहा है कि, जिस दिन दातुन न मिलता हौ अथवा जिन तिथियोमे
` काठकी दातुन करनेका निषेध हौ उनमें पानीके १२ कुल्लो मुखशुद्धि कर छेनी चाहिये \ इन वचनोसे यह `
। सिद्ध हता है कि, पणं जादिसे जीभ तथा कल्लोसे गंतोको उस समय भी शुद्ध रखना चाहिये, जब किं दातुन
न मिल रही हौ अथवा दातुन करनेका निषेध कर दिया हो । देवलस्मृतिमं कहा है कि एकवारको छोडकर `
ज्यादा पानी पीनसे तथा एकवारके भौ पान खा ल्नेसे, दिनके सोने जौर मथुनसे उपवास नष्ट होजाताहै !
, पानी पिये विना न रहा जाय तो एकवार पानी पी लेना चाहिये, यह इसी वचनसे प्रतीत हो जाता है कष्टके
समय पानी पीनसे उपवास नष्ट नहीं होता, वो कष्टभी साधारण न हौ किन्तु सरणन्तसा प्रतीत हो यह `
(अत्यये) का ग्रन्थकारका आहय है । विष्णुधरमेमे लिखा है कि, वारंवार पानी पीना, दिनम सोना, मेथुन |
` करना, पानका चबाना ओर मासका खाना व्रतके दिन कभी न होना चाहिये । वार वार पानी पीनेकानिषेव = `
| किया गया है) इस कारण एक बार पानी पीनेका कोई दोष नहीं है । जब तक ब्रतकी पारणा नहो उसदिनि
| तक ब्रतका दिन समन्चा जाता है । ब्रतकी समाप्तिमे ब्राह्मणभोजन अवश्य होना चाहिये । जबतक पहिला `
` ब्रत परान होरे तबतक दुसरे ब्रतकरा प्रारंभ न करना चाहिये \ पारणाका दिन भी व्रतकाहीदिनहैःइस
कारण मांसं आदि निषिद्ध वस्तुभका सेवन पारणाके दिन भी न होना चाहिये । उयवासमे तो भोजनकी ` '
। ` प्राप्ति ही नहीं है । क्योकि; इस इलोकमं वतका संबन्ध है उपवासका संबन्ध ही नहीं है ! तबही निणेयमृतमे `
। व्यासजौका वचन है कि, व्रत ओर पारणा दोनों ही के दिन मांस अथवा शिनकी मांस सं्ञाकौ गयी हैएेसी ` |
ओषधि्योको ध । कभी भोजनके कायम न लाना चाहिये । जल, फक, पय, ब्राह्मण काम्या, हवि, गुरुके वचन भौर `
बधं ये आटो त्रतको नष्ट नहीं करते; इस स्कन्दाके वचनसे जो ओौषधिके रूपमे मांससंज्क ओषधोका = `
` सेवनं व न प्राप्त हुमा था उसकाभौ निराकरण उक्त निणेयामृतके वचनसे हो जाता है । विष्णुरहस्यमे लिखा
कि, अच्नका स्मरण, दलेन, गन्धोका आस्वादन, वर्णन ओर प्रासोकी चाह इन सबका त्याग बरतके दिन होना
प्राखण्डी जौर नास्तिकोसे बोलना, शूट बाते बनाना - १५ १ बाते क
` चाहिये ! अन्नका तात्पयं केवल भोजन वस्तुसे हौ नहीं
है । कोई श्रतदानादिकक्रमः' इसके स्थानपर ¶्रतदानादिकक्रियाः' एला पाठ रखता है उसके मतमे-त्रत =
दान आदिक क्रियां ठेसा अथं होगा कि ये सूर्योदयके विना न होनौ चाहिये । सूर्योदयशब्दसे उषःकालका `
। ग्रहण है. क्योकि, कल्पतस्ग्रन्थम लिखा है कि, उषःकालके विना रातमे स्नान आदि न करने चाहिये । छन्दोग
परिशिष्टमें लिला हु कि, उपवीतसे सदा रहना चाहिये
क तवका ८१9).
प स प शकः ५ 4 य ५ सः स प प = | । सथ ए त शर
( क्षणप्रसिद्धा ।। वास्तुकं दथवा इति स्यातः |!
अ हिल शुक्रं मोचयति इति क्षीरस्वाम्य॒क्तेः शुक्रासारी हिलसार इति प्रसिद्धाः
शाका जलोद्भवाः । गौडदेशे हेलंचले इति प्रतिद्धाः\।कार्काकमुत्तरदेशे कालिकि- `
ति प्रसिद्धम् ।! केमुकं केमुत्ा इतिपवेदक्षे प्रसिद्धम् ।। नागरङ्धकं नारिद्धम् ।॥ `
“एरावतो नागरद्खो नादेयी भूमिजबुकः" इत्यमरात् ।! नागरं चैवेति पाठे! `
` नागरं चुण्ठो । कवली रायञांवलीतिमहाराष्ट्माषयोच्यमानं फलम् । हर
फररेवड़ी इतिमध्यदेडाभाषथा ।\ अतंखपक्वमित्येतत्कथितहविष्याणामेवं विल्ञे- `
षणम् ।। मनुः-सुन्यन्नानि पयः सोभ मासं यच्चानुपस्कृदम् \\ अक्षारलवणं चैव
प्रकृत्या हविरुच्यते ।! अनुपस्कृतमपक्वम् । क
(0 अय व्रतको हविष्य चीजे -हेमादव ग्रन्थे छान्दोग्यपरिशिष्टमे कात्यायनके वचन कहे हँ कि, हविष्य `
अनलोम जौ मुख्य कहे ह, उनके पीछ ब्रीहिकी गणना है, चाहं कुछ भी न मिरे पर उडद, कोदो ओरसफेद |
सरसोको कभी ग्रहृण न करना चाहिये । इसी विषये अग्निपुराणमे कहा है कि, गाली, साडो चावल मूग |
तथा कलाय, पानी, दूष, इयामाक, नीवार ओर गेहं आदि पारणमें हितकारी हे । पेठा या काल्लीफल,घीया;, `
। बेगन, पाठ्कका साग, ज्योस्तिका इनका त्याग करना चाहिये । मीठा दधि, घृत, चतुभेकष्य, सामा, शाली
| चावल, नीवार, सत्त कण, क्ञाक, साधारणं चावल, यावक, ये सब रातके व्रतादिमे हविष्याच्न कहे गये ह
अग्निका्यमं 4. १
यमे भी इनका ब्रहुण हो सकता है ।पर किसी भी व्रतो पृरुषकोश्तवु मासका कभौ भीब्रतमे
र मटर इतिप्रसिडा टाणे इति दक्षिणर्भा
त ५ 1 न ति १५१५५ ५१ ६. 0
~ # नोट-य्यपि हमे कितने ही स्थखोमें मांसं शब्द मिलता दै, अथं भी सीधा मांस ही किया हुमा पाया जाता
| हैजो कि, मांस आज संसारमे प्रसिद्ध टै, मनुस्मृतिके श्राद्धपरकरणमें मांस दाघ्द अनेक विरोषणोके साथ दृष्टि
रहो जाता है सदं ग्रन्थौमे भी इसका कस-प्रसंग नहीं आया है, पूराणौमे भी इसकी पूरी कहानी मिरती है,
इसे देखकर प्रत्येकके हृदयम यहे रंका होनी स्वाभाविक है कि, क्या प्राचीन आय्योकि यहां मांसकी गिनर्त
हविष्या्रतकमें हु करती थी ? जब मनुस्मृति इसे प्रकृतिसे हनि कह गयी तो फिर इसके हविष्यान्नपनेमे 1
कौनसा सन्देहं साकी रहं जाता है । उचित तो यह् था कि जैसे ब्रतराजके छेखकने अग्निपुराणका ग्रह॒ वचन |
उद्धृत किया है कि“ मधु मांसं विहातव्यं सर्वेदव ब्रतिमिः सदा" सभी व्रतवालोको मधु मांसकास्वैथात्याग ` |
| करना चाद्ये, ओर इसी ग्रन्यमे पारणाके दिनको भी ब्रतका दिन संभाला है, इससे यह बात सि होती है कि, ` |
व्रत अथवा पारणाके दिन मधुमांसका ग्रहण न करना चाहिये । दसके पीछे इसी प्रकरणम रेखक मनका वचनं
इसके हविष्य होनेमें रखता है, तब इस ग्रन्थसे हविष्य ओर अहविष्यका निर्णय करनेवाखे लोग इसं विषयमे
` क्या समन्ञेगे ? यद्यपि टेखकने इसं विषयमे यहीं अच्छी व्यवस्था करदी थी पर ठेखककी व्यवस्था दुरूह् हुई
है, इस कारण यहाँ इसकी कु व्यवस्था करना अत्यावद्यक है । मनुस्मृतिकारने मांसादि न खानेको महाफल-
ध शाली बताया दैः तथा मांसकी निरुक्ति करतीवार यह भी कह् दिया हँ जो मृनने यहां खाते है मै उन्हं वहां बाङंगा, ॥
2
सेवन न करना चाहिये ! म्रन्थकारके यहां पारुको, पाथरी ओर ज्योस्निका, कोातकोको कहते हे ! भविष्यमे `
कहा है-हेषन्त ऋतु होनेवाखा हैमन्तिक, विना भौगे हुए सफेद धान, मूंग, जौ, तिमर, कगुनी, नीवार,
` बथुजा, हिरुमोचिका, सांठी चावल, कार शाक, कैबुकको छोडकर बाकी सूल, कंद, सेधा ओर समुद्र नोन, `
तथा गङके दधौ ओर घी, मलाई आदि नः निकाला हज दूष, कटहर, अम, हरीतकी, पीपल, जीरा, नारंगी, ` ॥
त ` इमी, केला, लवली, असला ये सभी हविष्याच्च हुं ! पर ईखका गुड हविष्य अन्न नहीं है । जो ब्रतग्राह्य वस्तु र | ८
तेलमें न पकार हौं वो व्रतम ग्रहण कर ठेनी चाहिये । ऋषियोने इन चीजोको हविष्य बताया है । जिनकी कि `
हेम मणना करुके हैँ \ कहीं २ गव्ये च दधिसपिषी' के स्थानम "क्वणे सधुसर्पिषी' एसा भौ पाठ है जिसका `
अथं होता है कि, दोनों नमक, सधु ओर सपि इत्यादि भौ हविष्यान्न है । हैमन्तिक धानका नास है कलसा, `
` बह भौ विना भीगी हई सितौर इवेत-हविष्य है । कलाय ओर सतीनक दोनो परय्यायवाची शब्द है ! यह `
भटर करके प्रसिद्ध है. इसे दक्षिण देशसं वाटाणे एसा बोलते ह्, वास्ुकं बथुञके नामसे प्रसि है । हिक
` शुक्र-हिल माहिने शुक्रको जो, मोचयति" छुडवादे उसे हिरुमोचिका कहते है, एेसी क्षीर स्वामीने व्युत्पत्ति `
कीहै। जिसे शुक्रासारी ओर हिलसार भी कहते है । यह् एक पानीमे होनेवाला शाक है, जिसे गोडदेदमें
हित्मंचर कहते हं । कालन्ञाके उत्तर देशमं कालिका करके प्रसिद्ध है । केमुक केमुत्रा करके पूरव देशम प्रसिद्ध॒ `
दै । वामर्ग-नारंमीका नाम है, क्योकि अभमरसिहने एेरावत, नागरंग, नादेयी, भूमिजम्बका. ये पर्यय
वाचकं शब्द रखे हे \ यदि नागरं चैव' एसा पाठ रखेंगे तो नागर शुंटी अथं होगा । लवली रायभांबलीको महा-
रष भाषामं कहते हं । जिसे मध्यदेशं हरफररेवडी कहते हं । अतल पक्वे यह् कहै हए हविष्य अघ्नोका 1
खारी नोनको छोडकर बाकी नमक ये स्वभावसे ही हविष्यान्न हँ । अनुपस्कृत अपक्व, यानी विना पकाया
हआ सांस भी हविष्यान्न है ।
विशेषण है । मनुस्मृतिमें कहा गया है कि, दूर सोम, मांस, जर विना उपस्कार किया हुमा मांस एवम
॥ कह १ # र ध ॥ ध 4 ^ ८ ५ ५ ५ (; † क ५ । 1 ‡ 1
कष सवव त „< {हलक स् हूत 0 । ( २.९ ) 1
12 ¢ प 44 0 0 ॥ ¦
। तथा मधुरत्रयमुच्यते ।। षड्साः ।। तत्रैव भविष्ये-मधुरोऽम्लज्चव ल्वणः कषाय- `
` स्तिक्त एव च ।\ कटुकश्चेति राजेनद्र रसषट्मुदाहूतम् ।। चतुःसमं तु \\गार्ड- `
| कस्तूरिकया द्वौ भागौ चत्वारदंचन्दनस्य च ।! कुकुमस्य त्रयश्चेकः शशिनः `
¦ स्याच्चतुःसमम् ।। कृकुभम् कलरम् ।। चन्म ।। कर्पूरः ।। सवेगन्धम् ।। कर्प्रःचन्दनं `
दपः कुंकुमं च समांशकम् \। सवेगन्वमिति प्रोक्तं समस्तचुरभूषणम् ।। दपेः क्स्तू- `
रिका ।\ यक्तकदमः ।। तथा-कस्त्री ह्यगुरदचव करपूरह्चन्दनं तथा \। ककोले च :
च भवेदेभिः पचभिर्यक्षक्दमः । अथ सवाषधय छन्दोगयरिक्िष्टे
` कुष्ठ मसी हरि दे सेलेयचन्दनम् । वचा चस्पकमुस्तं `
च सर्वोषध्यो दक्ष स्मता सोभाग्याष्टकम् । पादेदृक्षवस्तणराजं
च निष्पावाजाजिधान्यकम् ।। विकारवच्च गोक्षीरं कृथुमं कुंकुमं तथा| .
क्वणं चाष्टमं तत्र सौभाग्याष्टकमुच्यते ।\! तुणराजः ताकः। अजाजी
जीरकम् }) अर्ध्याष्टाङ्खानि ।। आपः क्षीरं कुशाश्राणि दध्यक्षततिलस्तथा ॥
यवाःसिद्धाथकाहचेति हयर्ध्योऽष्टाङ्कः प्रकीतितः ।। मण्डलाथम् पञ्चवर्णानि ।
पञ्चरत्र-रजांसि पञ्चवर्णानि मण्डलाथं हि काययेत् । शक्तिण्ड्ल्चूणन `
श शुः यवसंमवम् ।। रक्तं कुसुभसिन्दुरगेरिकादिसमुद्भवम् ।। हरितालेद्-
भवं पीतं रजनौसंभवं तथा ।। कृष्णं दग्धयनेहुरित्पीतङ्कष्णवीमिधितम् ।। रजनी `
` हरिद्रा 1! कौतुकसंज्ञानि \ भविष्य-दूर्बा य्वाकु राहचव वालक चूतपल्लवाः 11 |
हरिग्रादयसिदार्थश्िखिपत्रोरगत्वचः । कङडकणोषधयहचेताः कोतुकाख्या नव॒ `
स्मताः ! अय सप्तभदः ।\ मात्स्ये-गजार्वरथवल्मीकसंगमाद्धदगोकूलात् ॥ ` `
मृदमानीय कुंभेषु प्रक्षिपेच्चत्वरात्तथा ।। गोकूुलावधि सप्त, चत्वरेण सहाष्टौ |
मृदो भवन्ति ।। सप्तवातवः ।। हेमाद्रौ भविष्ये-सुवणंरजतं ताख्रमारकूटं
तथेव च \। लोहं त्रपु तथा सीसं धातवः सप्तं कीतिताः ।\ आरक्टं पित्तलम् ।! |
स् धानि ।। षट् वथवगोधमधान्यानिः किला क डःगुस्तथव च ।।
ं चीनकं चेव सप्तधान्यमुदाहूतम् । सप्तदश्ञधान्यानि ।। माकण्डेय-
ग-त्री वाचैव अणवस्तिलाः ।। प्रियद्धवः कोविदाराः
कल्ला उक्ताः विष्णुधर्मे-हमराजततास्बाइच सम॒न्मया लक्षणान्विताः 1) यात्नो-
1हुम्रतिष्ठादौ कुम्भाः स्युरभिषेचने ॥। तत्परिमाणं च । तत्रैव--पञ्चाशा-
डगलेवयुल्या उत्सेधे षोडशषाडगुलाः ।। दाद्ाडगुलम्लाः स्युमुखमष्टाङगुल
भवेत् ।। पंचगृणिता आशाश्च पंचाला आला दज्ञ । पंचाहादगलानि वेपुल्यमित्यथः। `
केचितु पञ्चदशशांगुल्वेपुल्या इत्याहुः ।! प्रतिमाद्रव्ययोः परिमाणम् ।। हेमाद्रौ
ष्ये-अनुक्तद्रव्यतत्संख्या देवता प्रतिमा नृप \\ सौवर्णां राजतौ तारी वृक्षजा
सादिक तथा ।। चित्रजा पिष्टलपोत्था निजवित्तानसारतः \ आमाषात्पल-
पयंन्ता कतव्या शक्तिखभवे \। अंगुष्ठ
४.
वेमारमभ्य वितस्यवधिका स्मृतां \। मात्स्ये
तु विश्षेबः-अंगृष्ठपर्वादारभ्य वितस्तिर्यावदेव तु ।। गृहे तु प्रतिमा कार्या नाधिका
शध्यते बधः ।। आःषोडशात्त् प्रासादं कर्तव्या नाधिका ततः ।। इति ।\ अधिकं
कल्पतरौ प्रतिष्ठाकाण्डे ज्ञेयम् ।। अनादेशे हौमसङ्कया ।। तथा -अनुक्तसस्या-
होमे तु ¦ शतमष्टोत्तरं स्मृतम् ।! मलत्स्ये--होमो ग्रहाधिपजायां रातमष्टोत्तरं
मुनीन्द्रः ।। सजेरसो राल इति प्रतिद्धः । मांसी जटामांसी ।। च्निलवं न्िभागम् |
घनः कपरः ।। पुरो गुग्गुलुः ।। युवणेमानमाह् ।। याज्ञवल्क्यः--जःलसू्य॑मरीचिस्थं ` स
त्रसरेणू रजः स्मृतम् ।! तेऽष्टौ विक्षास्तु तास्तिस्मे राजसर्षप उच्यते । गौरस्तु `
ते त्रयः षट् ते यवो मध्यस्तु ते चयः ।! कृष्णलः पंच ते माषस्ते सुवणेस्तु षोड ।।
| पलं सुवर्णाहचत्वारः पञ्च वापि प्रकोतितम् । रजतमानमाहः ।। द्वे कृष्णले |
` रुप्यमाषो धरणं षोडशेव ते ।। हातमानं त॒ दशभिधरणेः पलमैव त् ॥¦ निष्कः `
सुवणीहचत्वारः ।\ इति ।। ताख्रमानमाह--कातिकस्ताभिकःपणः इति पल- `
चतुर्थाशेन कषणोन्मितः का्षिकस्तास्मसम्बन्धी पणो भवति ।। कर्षसं्ञा च |
। निषण्टौ--ते षोडज्ञाक्षः कर्षोऽस्त्री पलं कषचतुष्टयम् \। इति ।। ते षोड माषा `
अक्षाः स च कर्षं इत्यर्थः ।! घरणस्यैव पुराण इति संज्ञान्तरम् । ते षोडश स्याद्धरणं `
स्मृतेः! लतमानपले पययि । युवर्ण- |
चतुष्टयसमभतोलितं रूप्यं राजतो निष्कइत्यर्थः । सुवणेनिष्कस्तु--चतुःसौर्बाणको |
॥ विज्ञेयस्तु प्रमाणतः ।। इतिमनूक्तेः, स च पठ समान एव ।। कोऽ कार्षापण
इत्यपेक्षायां प देशमेव कार्षापणो. \ मिन्त इत्याह, हेमाद्रौ नारदः -कार्षापिणो `
दक्षिणस्यां दिक्ि येप्यः प्रवर्तेते ।। पणेनिबद्धः पूर्वस्यां षोडक्षेव पणाः सं तु ।
षोडशपणाः अष्टौ उन्बूका कार्षापणः पूर्वास्यामित्यथेः ।। तावता लभ्यं रूप्यं
दक्षिणस्थां स इति द्रैतनिणेये । लोलावत्याम् --वराटकानां दश्चकद्रयं यत्सा `
काकिणी ताहच पणश्चतस्रः ।। ते षोडश द्रम्म इहावगम्यो दरम्मेस्तथा षोडशभिश्च `
` चांदी, मोती, संगा ओर लाजवदीं ये पांच रत्न कहं हँ । बाकी वस्तुंगाडी करगे । समयप्रदीप १ प्रन्थमं रखे
त हं । मू त ६ लो मे जो कुलिशदान्द आया है उसका हीरा अथं है । स्मृत्यन्तरमे ल्ल है कि, `
(द) तरो. : समान्य.
१ (0 य य 40 ध. 1111111 0
दही भौर शुक्रमसि, से घी ओर दैइस्य त्वा" से करका पानी भिखाना चाहिये ! ऊपर कही हुई पाचों चीजोके 1
योगसे पंचगव्य बनताहै। ` भ |
“ॐ गन्धद्वारां दुराधर्षा नित्यपुष्टां करोषिणीम् । ईइवरी सर्वभूतानां तामिहोपह्वये श्रियम् 1" यह `
= लक्ष्मीसुक्तका मंत्र है लक्ष्मीके विषयमे इसका अथं यह अथं होता है कि, अनेक तरहकौ स्वच्छ सुगन्धिकी ` |
द्वारभूत, किसीसे भी अभिभूत न होनेवाली तथा सदा सब तरहसे पुष्ट करनेवाली, दानमं चित्तकरनेवालौ |
अथवा हाधि्योकौ ईकनरी हाथी आदिः उत्तम सवारी देनेवाली संपुणं जगतकौ ईश्वरौ श्रीको बुला रहाहं ! |
` भोमयके विषयमे विविध तरहको सुगम्धि देनेवाङे तथा किसीसे न दबनेवाे, सदा ही पुष्टिके देनेवारे एवम् ५
शुष्क गोमय रूपमे आजानेवारे सब प्राणियों प्रशंसित तथा विविध छोभा संयुक्त मोमयको बुलाता हूं ।
निस संत्रका जिस विषयमे प्रयोग हो उसका उसी विषयमे अथं होना चाये ! “ओंजाप्यायस्व समेतुते विश्वतः `
` सोमवृष्ण्यम् ! भवा वाजस्य संगथे ।' हे सोम ! आपका बल्वर्धक सत्व चारों ओरसे अजाय मुके वाजके
संगमकेच्यिहौी\\ 1
, : “ओं दधिक्रान्णो अकारिषं जिष्णोरश्वस्य वाजिनः । सुरभिनो मुखाकरत् प्रण ायूंषि तारिषत् ।“ |
दषम शी घ्रही व्याप्त हो जानेवारे, बलञ्ञाली, व्यापन शील दहीको इनमें मिला रहा हुं \ अथवा प्रत्येक पाद |
| विक्षेषमें पुथ्वीको आक्रान्त करनेवाले, जयज्ञील तथा वेगवा अह्वका संस्कार कर दिया है । वो दधि जथवा `
अहव हमारे मुखम सुगन्धि कर दे एवम् हमारी आयुको बढा दे \ “ओं शुक्रमस्यमृतमसि धामनामासि प्रिय
देवानामनाघष्टं देव यजनमसि !" हे आज्य ! त् शुक्र-दीप्तिमान् अथवा वीय्ये रूप है । आप विना रहितहो
यानी जो अएपका सेवन करता है उसकी शीघ्रही अल्पायुमें मृत्यु नहीं होती \ आप शश्च विहृत होते हो आप
धामनाम है, आप देवोके प्यारे तथा नहीं तिरस्कृत होनेवाके देव यजन यानी देवताजोको यजन करनेको वस्तु
ओम् देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेऽशिवनो बाहुभ्यां पुष्णो हस्ताभ्याम् 1}” देव सविताकौ आज्ञां प्रवतेमान
हभ मे अद्विनीकी बाहु तथा पुषाके हाथोसे ग्रहण करता हूं । याज्लिक विनियोगादिके आधारपर ठिखे गये `
द भष्योमे इन संत्रोका वही अथं है जो इनके विनियोगके हिसाबसे होता है । एक काममें विनियोग कयि
गये मंत्रौका यह नियम नहं है कि, फिर दूसरे कामम उनका विनियोग ही न हो किन्तु दूसरेमं भो उनके
तथा शन्धद्रारामः इस मंचको बोलकर गोबर एवम् “आप्यायस्व इस संत्रसे दध तथा 'दधिकाव्णोः इस म॑त्रसे = |
|
स 9 2
परिभाषा] हिन्दी दीकासहित ` ` ` (रर) `
क्ास्त्रमं लिखा हृजा है कि, मण्डल बनानेके लिये पांच रंणके पांच चूणे तयार करना चाहिपे, श्वेतकते स्थानम
गहुः चावल तथा यवका चून वरतना चाहिये । कुसुम, सिन्दूर ओर गेरको लाके स्थानमें तथा हुरताल्के (
` ओर हल्दीके चनका पीलेरंगके स्थानम लेना चाहिये । जले हुये जोओसे काला तथा पीले ओर कल्येहसा `
बना रेना चाहिये । क्योकि इन दोनोको मिता देनसे हरा रंग बन जाता है ! इलोकमे रजनौ शब्द हरिद्राका
` ही पर्याप्त जाया है । कौतुकसंज्का-भविष्य पुराणमें लिखा हभ है कि, दूध, जौके अंकुर, खसकी जड, आसकौ 1
. शरः दोनों हदिया, सफद सरसो, मोर पंख, सांपकी कचली ये ककणकी ओषधि हुं इन्टं कौतुक कहते हँ । ~. 1
सप्तमद-मत्स्य पुराणमें लिला है कि निस स्थानम घोडा बधे जौर हाथी बेषे उन दोनों जगहोकी धूल, ८ |
स्थकी रेत, बामीकी सिद्री, नदियोके संगमकौ भिदटरी, तालाबकी भिद, गउमोके खिरक्की ओर चौराहेकी |
मिह ये सात मृत्तिकाए हे । इन्हुं घटम गेरे । जहां गेरना कहा हो वहां, अन्यत्र नहँ । इलोकमें गोकरुलतक = |
सात तथा एक चौराहेकी इस तरह आठ मिरी होती है ! सप्तधातु-हेमाद्रि्रन्थमे भविष्यका क्खिहैकि, ।
सुवणं, रजत, तार, आरकूट, लोह, घ्पु ओौर सीसा ये सात घातु हे ! आरकूट पौतलको कहतेहं । बहांहौ |
` सप्तधान, षट्तरिशद्ग्रन्थके मतसे-यव, गोधूम, त्रीहि, तिल, कंगु, श्यामाक ओर चीनक इन सातोंको सप्तधान्य `
` कहते हें । सत्रहधान-मार्कण्डेय पुराणमें कहे हे कि नीहि, यव, ग प्रियंगु, कोविदार,कोर्रूब, |
कज्ाक-हेमादवि ्रन्थमें क्षीरस्वामीके मतसे क्षाकमौ गिनाये है कि, शाक दज तरहफे होते है सबन्लाक (|
उन्हीके भीतर आजाते हं । कोई-जड कोई पत्ते तथा कोई कुला ओर कोई पल्लव एवम् कोई फल ओर कोई 2
छ अपने लक्षणके अनुसार सोने, चांदी, तांबे मौर मिट श भेके
निमित्त होते है । कलहाका परिमाणभी वहीं कहा
। जड्वाला ओर आठ अंगुलका मुंह होता है । दिशा दश है
` दहकोगुणाकर देनेपर ५० होते हं क जिसका यह मतः
अंगु ही विपुर मानते हेः ४ १ श १ 4 चौडा होता
पचाागुल विपुल, सोलह अगुरु उचा, १२ अगल ५
(ब) 1 त्रतराज र वुामात्य-
कही गयी बोन मिले तो उस जैसौ दूसरी वस्तुको खेलेना चाहिये \ जैसे-जौ नहो तो गेहुंगोसे तथाब्रहिनं +
हँ तो तण्डुलोसे काम कर ठेते है । जहां कोई हवन द्रव्य न लिखा हौ वहां बिधिके साथ घीकीही आहुतिदेनी
चाहिये । जहां कोई मंत्र देवता न कहा गया हो वहां प्रजापति समञ्चना चाहिये \ एेसौ स्थिति है । इसका प्रन्थ- =
करार अथं करते हे कि, मंत्र भौर देवतके अविधानमं प्रजापति देवता र समस्त व्याहृति ही संत्रहोताहै।
इसरो २ स्मृतिये मी लिखा हुभा है कि, व्याहृति्ोल हवन करनेके बराबर दूसरा कोई हवन नहीं है मथवा = |
व्याहूतियोके बराबर कोई हवन संत्र नहीं हे । गरुड पुराणम लिखा हेमा है किह सत्तम ! जिस देवताकामूल `
मंत्र बनाना हो उस देवताके नामको चतुर्थोका एक वचनान्त करके उसके आदिमं ओम् भौर अन्तम न॑मः
` लमानेसे सब देवताभके मल मंत्र बन जातेहं। 11 4 4 (>
। द्रव्याभावे प्रतिनिधि-हेमाद्रिमे विष्णुधरमको लेकर लिखा हुमा है कि, है राजन् यदिद्हीनमिलेतो
दष तथा मधुके अलाभमं गुडसे काम करना चाहिये \ यदि घी न होतो दही व दधसे काम लेना चाहिये । उसौ +
` ग्रन्थमें मेत्रायणीय परिश्िष्टका वचन है कि द्रुबके अभावमं काको रेलेना चाहिये \ पेटठीनसिने कहाहै कि, |
सबके बदले जौओंसे काम ठेना चाहिये । इस विषयमे बहां देवलका भी वाक्य है कि जहां कहीं आञ्यका `
`. होम है वहां सब जगह गौका ही घुत ठेना चाहिये ! यदि गोका न मिल तो भेसका. यदि भेसकामीनिमिके |
तो बकरी ओर बकरीकाभी नहो तो भेडका वतना चाहिये । यदि यह भो नहो तो तिलका तेल तथा तिलका |
तेलभी नहो तो जात्िलका तेल तथा इसके भौ अभावे कौसुभका तेल तथा इसकेभी अभावमे सरसोका |
तेल ठेना चाहिये । | 1 | | (५
`. पवित्र-हेमाद्वि्रन्थमे कात्यायन परिशिष्टके मतको केकर लिखा है कि, जिनके बीचमं कुछ दल नहो ` |
मर भाग साबित हो एेसी द्विदल कुशा लेनी चाहिये वो प्रदेश मात्र होनी चाहिये । जहां भी कहीं पवित्राका
प्रकरण भये बहु तथा जहां कहीं घतकी शुद्धिके लिये पवित्र आया है वहां भी एसा ही समन्नना चाहिये \\
इध्म-पलादा, अश्वत्थ, खदिर, वट, उदुम्बरये समिध हः । इनके अभावमें काटेदारोको छोड कर सब वन- `
स्पतियां लेलेनी चाहिये । धूप~अगुर, चन्दन, मुस्ता, सिद्धक, वृषण इन पांचो वस्तुजोको बराबर लेकर |
जो धूप बनाया जाता है उसे अमृत कहते ह । सिह्धकको सिह्वार कहते है, वृषण कस्तुरीको कहतेहँ । =
दशागधूप-दे भाग कुष्ठ, १२ भाग गुड़, ३ भाग लाक्षा, पांच भाग नख, हरीतकी, सजरस ओर मांसी `
याज्ञवल्वयने कहा क है कि, जालमे सूर्यकी किरणोमं जो कण उडते, चलते दीवते हे, इनमेसे
परिभाषा 1... हिली दीकासहितः -; (५)
रजत मान-दो कृष्णलोका एक रूप्यमाष होता है । सोलह मासोका एक धरण होता है, दस धरणोका
` एक तमानं पल होता है, याज्ञवल्क्यजीके कहे हुए चार * सुवर्णोकाही एक निष्क होता है ।
तास्रमान-चांदीके मानके पलक चौयाहिस्सा जो कषं है उत्तसे तोला हुमा कर्णीघक बनता है यह् तांबेका
-पण होता है । यह् याज्ञवक्ल्य स्मृतिसे ही लिखा गया है । वै्कके निषण्टुमे कषंका अथं क्रिया है कि-सोलह `
मा्षोका एक कषं तथा चार कर्षका एक पल होता है 1 सोलह माषका एक अक्ष होता है, उतनाही कष
` होता है, एेसा ग्रन्थकार कहते हं धरणका दूसरा नाम पुराण भी है-क्यों कि, सिताक्नषरासं लिखा है कि, सोलहका
४ ध धरण होता है जिसे चांदीके तोलमे पुराण भी कहते हँ । शतमान यह पलकाही पर्याय है । चार राजतसुदणेकि `
बराबर तुला हूञा रूप्य यानी राजत निष्क होता है एवम् चार सोनेके सुबणके बराबर सुवणं निष्क होता `
कार्षापण होता है । दक्षिणदिशामें उतनेहीमे
५ ४ है । एसा मननं कहा है बो पलके समान होता है । अब यहां यहं जाननेकौ अपेक्षा होती है कि, यहां काषपिण ` ।
८ ध क्या है ? देकभेदसे कार्षापण भिन्न है । इसी विषयमे हेमाद्विमे नारदजीका वाक्य है कि, दक्षिण देशमं रौप्य
कार्षपिणही प्रचलित है । पुरबमं सोलह पणोसे कार्षापण
हमें रूप्य मिल जाता हैभयह् दवैतनिणयमं लिखा हृ है । लौलावतीमे
पण निबद्ध है । सोलह पण या ञाठ दब्बूका पूरवमं
८ ॥ तो यहं लिखा हुआ है कि, २० कोडियोकौ एक काकिणी तथा चार काकिणीका एक पण होता है सोरह ` ५ 4
द्रोणैः षोडशभि खारी विहात्या कुंभ
(२६)... ^ (वज ^^ [ सामान्य-
र तोन १५७ ५
अ
माताम, ४५१५-१
करभ होता है इस पक्षसे भिच वीस द्वौणके बराबर कुंभ होता यह भो किसीका पक्षहै । पराश्रजीने द्रोण
ओर आढकका कख ओर ही परिणाय कहा. है कि, धमं शास्त्रौके अनुपालक वेद तथा वेदागोके जाननेनाल
ब्राह्मण ३२ प्रस्थोंक द्रोण सौर दो प्रस्थक। आढक सानतं हं ।यहं जो कहीं छोटा ओर कहीं उसके अधिक्का
` जो द्रौण तथा आढक तथा अन्य मान कहा है उसकी देशा ओर कालके अनुसार व्यवस्था जानन चाहिये कि, `
` उसं समय उस देशमं यह् व्यवस्था थी तथा उस देदमे उस समय बहु थी आज इनका व्यवहार नहीके बराबरहै।
५ । भथ होमद्रव्यमानम् |
सिडढान्तश्ेखर--होमद्रव्यप्रमाणानि वक्ष्यन्ते तु यथाक्रमम् ।! कषप्रमाण- =
माज्यं स्यान्मधुक्षीरं च तत्समम् 1; तण्डुलानां शुवितमात्रं पायसं प्रसूतेः समम् ॥ .
कर्षमात्राणि भक्ष्याणि लाजा मुष्टिमिता मताः \\ अन्तं ग्राससमं ग्राह्यं शाकं
म्रासादधंमात्रकम् \। मूलानां तु विभागः स्यात्कन्दानामष्टसोशकः ¦! इक्षुः पव- `
प्रमाणः स्यादडगरष्टितयं र्ता ।। प्रादेशमात्राः समिधो ब्रीहीणां चाञ्जलिः
समः ।। तिलसक्तुकणादीनां मगीसुद्राप्रमाणतः \। तत्रे पुष्पफलादीनां प्रमाणाहु- `
` तिरिष्यते ।॥ चन्रभीखण्डकस्त्रीकंकुमागुरुकदेमाः ।। हरिमन्यसमाः प्रोक्ता
गुगलबेदरोपमः ।। हरिमन्थः चणकः ।! आहुतौनामिदं मानं कथितं वेदवेदिभिः `
स्यात्त्रमुद्रा मुगीमुद्रा होमे सवेफलम्रदा ।\ भमानान्तरं शारदातिलकटीकायां
र्थादशं कर्षप्रमाणमाज्यं स्याच्छक्तिमात्रं पयः स्मृतस् ।। उक्तानि पञ्च- `
यानि शुदितमात्राणि "साधुभिः ।। तत्छमं मधु दुग्धान्नं प्रासमाद्रसुदाहूतम् ।
दधि प्रसृतिमातरं स्याल्लाजाः स्य॒मष्टिसंमिताः \! पथुकास्तत्प्रमाणाः स्यः सक्त-
बोपि तथाविधाः \\ पलाद्धं गुडतानं च शक॑रापि तथाविधा । प्रासाद्धेमात्र- `
तरानामिन्षुः पवेप्रमाणतः एकं स्थात्यन्रपुष्यं च तथा धूषादि कल्पयेत् ॥। मातु-
लिङ्क चतुः खण्डं पनसं दशधा कृतम् ।! अष्टधा नारिकेलं च चतुर्धा कदलीफलम् !\ `
तं फलं बैल्वं कापित्थं लण्डितं दविधा ॥। व्रीहयो मुष्टिमानाः स्यर्मुक्गा `
न ५ जिनो
क्षीरस्य मधुनस्तथा । 6
। होने चाहिये । साबित चावलको को:
चाहिये । यदित्रीहिभीन होतो गेहं केखेना चाहिये
हयै, चावल शुद्ति भर तथा खीरं प्रसृत्िके बराबर लेनी
` परिभाषा ] दी टीकासदित श
9६ म ५१५ क क
वि ति
पंचच ।। इणां पवेकं मानं लतानामडगुलद्रयम् ।) चन््रचद्धनकादमीरकस्त्री- `
` यक्षकदेमान् ।। कलाथसंसितानेतान् गुग्गुलं बदरास्थिवत् \! द्रवः सवेण होतव्यः
` पाणिना कठिनं हविः ।। सुवपूर्णा द्रवा प्रोक्ताः कठिना ग्रासमाघ्रेकाः ।। ब्रीहयो
यवगोधूमप्रियडगुतिलक्षाल्यः ।। स्वूपेणेव होतव्या इतरेषां च तण्डलाः !
होम द्रव्यमान-सिद्धान्त शेखरमं कटा है कि, एक कषं आज्य हो तथा मधु ओर द्धभी उसीके बराबर
५ नी चाहिये । जितने भी भक्षय हैँ वे सव करषमा्रलेने |
चाहिये, खीर मुट्लीभर होनी चाहिये \ ग्रासके बराबर अन्न तथा आधे प्रासके बराबर शाक होना चाहिये,
मूलका तीसरा ओर कन्दका आखवां हिस्सा एवम् ईख पोरुएके बराबर एवम् दो अंगुल लता तथा प्रदेय मात्रकी |
समिष ओर व्रीहियोकी अंजलि, तिल ओर सत्तुकण आदिकोको मृगम राके बराबर सेना चाहिये । पृष्पओर |
५ नसी आहति होनी चाहिये । चंदर, श्रौखण्ड, कस्तुरी, कुंकुम, अगुरु, करदेमये `
चनेके बराबर तथा गूगर बेरके बराबर होना चाहिये । ¦ |
आहृतिर्योका यहं मान कहा है । मध्यमा, अनामिका स र
तथा श शिः क हावितमात्र ही पंचगव्य लेना चाहिये एसा श्रेष्ठ
तावतिक ककी पदार्थादं ठीकामें छिखा हमा ..
१५. चाहिये ९. | ं ध, दरधका सन्न ग्रासके बराबर छना चाहिये | - 1 ॥ :
श बराबर लेने चाहिये } गड ओर शकरा आधे पल 1
जी 4. ति : . [414
५ ध ५
नि
भषणं चैव सणिबन्धस्य भूषणम् ।! एतानि चैव सर्वाणि प्रारस्भे धमंकसंणाम् ॥।
पुरोहिताय दत्वाथ ऋत्विग्भ्यः संप्रदापयेत् । पूर्वोक्तं भूषणं स्वं सोष्णीषं ५
वस्त्रसंयुतम् ।। दद्यादेतत्प्रयोक्तुभ्य जाच्छादनपटं तथा ।। व्रताङ्खमधुपकमाह
विदवामित्रः-संपृज्य मधुपकण ऋत्विजः कमंकारयत् ॥ अपुज्य कारयन् कमं
कित्बिषेणेव युज्यते ।। ऋत्विजां संख्यामाह ।। तन्व मात्स्य-हेमाक्ड.कारिण
` कार्याः पंचविंशति ऋत्विजः ।। येच्च समं सर्वानाचाये द्विगुणं भवेत् \। दक्षिणया `
` तोषयेदित्यथैः ।
ऋत्विक् संबरण-हेमाग्रिमे पदयपुराणका वचनं कहा है कि-अनेक सदगुणोसे युक्त परम सुन्दर छोटी `
| | उश्रसे अग्निहोत्र करनेवाले सपत्नीक विद्वान् ब्राह्मणक भली भाति पूजा कर फिर अनेक सरहके आभूषणोसे 9
अलंकृत करके मुख्य पुरोहित बनावे, पीछे दूसरे ऋत्विजोका वरण करे । वे ब्राह्मण मी सपत्नीक तथा चौवीस
गुणोसे युक्त, अहुतवस्त्र (अहत वस्वका लक्षण-"अहतं यन्त्रनि्ुक्तमुक्तं वासः स्वयम्भुवा । तच्छस्तं माद्ध-
चिक्येष्, तावत्कालं न स्वेदा ।" स्वयंभूने कटा है कि कोरे वस्त्रको अहत वस्त्र कहते हं वही माङ्गलिक कार्य्यो ` 4
शरेष्ठ नियतसमयको है) भौर माला पहिने हृए एवम् अनेक प्रकारके पवित्र भूषणोसे विभूषित हृए हो उन्हं
रसे छाप, छल्ले ओर कीडल देने चाहिये । वहा ही {गं धुराणका कचन रखा है कि जिन ब्राह्मणोका ५ |
किया हो उनमें सबसे पहिठे पुरोहितको दो वस्र, पाग, कानोफ़े दो कुण्डल, कंठका भूषण, अंग्ल्ियोके
। भूषण, मणि बन्धका भूषण ओर आच्छादन पट, सब कभक प्रारंभमे हौ देना चाहिये । पीछे अन्य ऋत्विजोको `
ही सब चीजें देनी चाहिये । व्रतांग मध् पकंविरवामिच्रजीने कहा है कि मधुपकंसे ऋत्विजोकी
करनेके पीछे उनसे कमं कराना चाहिये, विना पूजे क्म करानेसे करानेवालेको पाप लगता है \ ऋषित्विजोकी
ध तोषयेत् का मतलब ह कि दूनी दक्षिणासे तुष्ट करे ।
4 अथ सवेतोभद्रमण्डलम
1९१1111. ¢ १९५1112
कम
२० पदोकी परिषि होनी चाहिये, बीचमें सोलह कोष्ठोसे अष्टदल कमल बनाना चाहिये । उल उक्ीसं
आडी सीधौ लकीरोके बनेहुएु इन कोठो रग भरेते खण्ड चन्द्रमा आदि बन जाते है । सौ कंते बनत €“ =`
इसीपर लिलते ह कि, चन्द्रमा इवेत तथा ्टेवलाओंमे काला, सब वल्लि नौला रंगं भरन। चाहम 1:
भ्रमं लाट, बापीमें श्वेत, परिधिं पीला, दलम सफंद जौर कणिकाके कोष्ठकोमं पीला रग भरना बहि!
` मध्य कमलको परिधिसे परिवेष्टित करके बाहिर सत्व.रज-तम समञ्ने चाहिये । इसके मंडलम ब्रह्मादि . `
देवकी स्थापना करके उनका वेध पुजन करना चाहिये । (1
1 अथ लिगतोभद्रम् 0 1
चतुधिशचतिराेख्या, रेखाः प्रागदक्षिणायताः । कोणेषु शर्खलाः पच्च = |
पदा वल्ल्यस्त् पार्वतः ।। पदै्नवभिरालेख्याह्चतुि्टघुशरङ्कलाः ॥। लधुवल्त्याः =
पदैः षड्मिस्ततोऽष्टादक्षभिः पदैः कृत्वा लिङ्खानि वाप्यःस्युस्तरयोदश्षभिरन्तराः।॥ = ¦
। ततो बीथोदवयेनैव पीठं दरयाद्विचक्षणः ।। तस्य पादा: पञ्चपदा ्राराण्यपि तथव
। „ `च ।। एकाज्ीतिपदं मध्ये पद्यं स्वस्तिकमुच्यते ।। कोणेषु शर ङ्ला कार्याः पदस्त्रि- ८
। भिस्ततः परम् ।। पदेश्चतुभििक्षु स्युभैदराण्येषां समन्ततः ।। एकादशपदा वल्त्यो १
। मध्येऽष्टदलमालिखेत् ।\ पद्यं नवपदं ह्येव लिद्धतोभद्रमुच्यते ।। शर्धत का
वर्णेन वल्लीरनीलेन पुरयेत् ।! रक्तेन श्रङ्खला रघ्वीवल्लीः पीतेन पूरयत् ।।
` लिङ्खानि कृष्णवर्णानि शवेतेनाप्यथवापिकाः । पीठं सपादं इवेतेन पीतन 1 ५
पुरणम् ।! मध्ये स्थुः श्रुखला रक्ता वल्लीर्नोखिन परुरयेत् ।। भद्राणि पौतवण ते
` पीता पडकजकणिका ।। दलानि इवेतवर्णानि यद्रा चित्राणि कल्पयत् ।। तिला
ड व पः
व ङ ^ ~~ ८ = स 1 त
पाच पदकी भ्टखत्छा बनानो चाहिये, पारर्वमें नौ पदोसे वल्ली बनानी चाहिये । चारपदोसि द भीतर 1 |
| चाहिये, छः पदोसे लघुवल्ली बनानी चाहिये, फिर अठारह पदोसे {छग बनाना चाहिये, उसके कंचपदके
चापी नाना चरपहुये री ये, ययोसे पीठकी रचना होनी चाहिये । इसके पाद ओर हार १
॑ टक्यासं छी पोका ~ कः ग पद्य होता है जिसे स्वस्तिक भी कहते हं दसके बाद व कोनोम् न ५ नक
` लिङ्गानां स्कन्धतः कोष्ठा विश्षति रक्तवणकाः ।। परिधिः पीतवषेस्त् पदैः `
` षोडशभिः स्मृतः ।। पदेस्तु नवभिः पश्चा्रक्तं पदं सकणिकम् ।। ८
` चर्ुलिगतोभद्र-चरतुङगभद्रमे पूवकी तरह अठारह २ रेखाये होती हँ उनके कोणोमे सफेद रंगका तीन `
पदका चद्रमा बनावे, कारे रंगसे नरिषदकी बनी श्टुखलाको भरना चाहिये, सप्त पदकी वल्ली नीके रगसे
भरना एवम् चार पदका भद्र लाल रंगसे भरना चाहिये । अारहपदोके भद्रया मे कृष्णमहाखुढर तथा उनके `
` पा्वैमे पांच पदकौ वापी बनानी चाहिये । जिम हवेत रंग भरना चाहिये भद्र ओर वापीके बीचका पाद
पीके रंगका होना चाहिये तथा श्पुललाकफे शिरेके तीन पादभी पीले रंगके होने चाहिये । किगोके स्कन्धमें आये |
५ । कणिका सहित लाल रंगका कमल बनाना चाहिये । = = †
1 2 अथ दादशल्गद्धवम् ५
तत्रैव--श्रागुदीच्यायता रेखाः षट्ध्िशद्धि प्रकल्पयेत् । पदानि दादशरतं
कोष्ठ लाल रंगके होने चाहिये, सोलह पदोंकी परिषि पीले रंगकी होनी चाहिये । पीठे नौ दोसे `
पञ्चबिशतिरेव च ।\ खण्डेन्दुर्त्िपदः कोणे श्ंवलाः षट्पदैः स्मताः।। योदक्ष- ` | |
पदा बल्खी भद्रं तु नवभिः पदैः ।। त्रयोदश्चषदा वापी लिद्धमष्टाद्ञ स्मृतम् ।॥ ` `
द्धत्रयस्य पक्तौ तु ोभाकोष्ठाहचतुदंल्ञ ।। तेषामुपरि पक्तौ तु कोष्ठाः सप्त-
कोष्ठा दचद्ीतिसंस्थय। ।\ परिधिः स च विजेयो मण्डले ह्यन्तरा दयोः ।\ परिध्य- `
वसं तत्र इाराणि कारयेत् ॥ सितेन्दुः भ्रंवला `
५. व क नीता प्रकौतिता ! भद्रं चेवारुणं ज्ञेयं वापी स्याच्छ्वेतर्वणिका ।! `
„ वगतः 4. 1१द।८।क।८ह््। = ५२६९)
अ न क च
4 व
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सिरि 1 1 -------------------------------
एतर्हि) म
काले रंगकौ मंडक्के चारो ओर परिधि बनानी चाहिये । इनमे ह्ारभी बनाने चाहिये । उवेतरंगका चन्रमा"
कालेरंगकी भ्णलला, नीलेरंगकौ वल्ली बनानी चाहिये । लाल रंगका भद्र तथा इवेतवर्णकौ वापी बनानी `
५. चाहिये ! बगलमे कृष्णवणेके बारह च्गि बनाने चाहिये । पौतव्णैकौ परिधि होनी चाहिये, पचरंग कमल ५
बनाना चाहिये । भद्र मंडलोका सेमय विभाग-सारे व्रतोके उद्यायनोमें सर्वतोभद्र सण्डल बनाना चाहिये!
पर क्िवत्रतोके उद्यापनोमे क्गतोभद्र ल्िलना चाहिये, इस विषयमे यह कारिका प्रमाग है कि, विदरान्को `
बाहुके बराबर म्बी शुद्ध मिटीकौ वेदी बनानी चाहिये उस बेदीपर सर्वतोभद्र मंडल लिखना चाहिये ओर `
| क्षिवच्रतोमे लिगतो भद्र मंडल बनाना चाहिये, उसके बचें ब्रह्मादिक देवता तथा इन्द्रादि देवको स्थापित `
करना चाहिये \
अभ पण्डटदवता
। तन्मध्य ब्रह्माणम् ।। ब्रह्मजज्ञानं गोतमो वामदेवो ब्रह्मा त्रिष्टुप् । मध्ये
ब्रह्मावाहने विनियोगः ।! ॐ ब्रह्मजज्ञानं प्रथमं पुरस्ताद्विसीमतः सुरुचो वेन `
आवः ।। सबुध्न्या उपना अस्य विष्ठाः सतश््वयोनि मसंतश्च विवः | भो ब्ह्यन् = `
इहागच्छ इह तिष्ठ पूजां गृहाण मम संमुखः सूप्रसन्नो बरदो भव ।। इत्येवं प्रकारेण `
| सवेदेवतानामावाहनं जेयम् ।! तत् उदीचीमारमभ्य वायवीपयंन्तं सोमादयो `
स्थापनौया नीय 1: ।\१।। तत्र आप्यायस्व राहूगणो गौतमः 9
ओंडन्द्रं बो विर्वतस्परि हवामहे जनेभ्यः ।। आस्माकमस्तु केवलः ।\४। आ । अग्नि
दतं काण्वो मेधातिथिरग्निर्गायनी आगने्यामश्न्यावा० । ओम् अग्नि दतं `
४6004;
वृणीमहे होतारं विश्ववेदसम् ।। अस्य यज्ञस्य सुक्रतुम् ।\५॥। थमाय सोमं वेवस्ततो
[ सामान्थ-
` शरोता दूतस्य जग्मुषो नो अस्य ।\१०।। आसद्रासः श्यावाश्च एका दज्ञ स्रा जगती ।॥
सोमेश्ानयो्मध्ये एकादश्चरद्रावा० ।।! ोम् आरुद्रासं इन्द्रावन्त सजोषसो हिर- `
गण्यरथाः सुविताय गन्तन ।। इरं वो अस्मत्प्रति हर्यते मतिस्तृष्णजेन दिव उत्सा `
` उङ्न्यवें \\ ११॥ त्यां नु मत्स्यः सांमदो द्राद्लादित्या गायत्री ।। ईानेन््रयो- `
र्मध्ये द्रादशादित्यावा० ॥ ओम् त्यां नु क्षत्रियां अव आदित्यान्याचिषामहे \
. सुमृलीकां अभिष्टये ।\१२।\ अश्विना्दति राहूगणो गौतसोऽदिविनादुष्णिक् ।! `
इन्दरागन्योर्मध्ये अन्यावा० ।! ओम् अद्विनावतिरस्मदा गोमटख्राहिरण्यवत् ।॥ `
` अर्वाग्रथं समवसा नियच्छतम् ।।१३।। ओमासो सघुच्छन्दा विश्वेदेवा गायत्री ।॥ `
। अग्नि ययोर्मध्ये विहवेदेवावा० । ओम् ञोमासश्चषेणीधृतो विश्वेदेवास आगत! `
दाहवांसो दालुषः सुतस् ।११४।। अभि त्यं देवं गोतमो वामदेवः सम्तयक्षा जष्टी | `
यमनिकऋैत्योर्मध्ये सम्तयक्षावः० ।। ओम् अमि त्यं देवं सवितारमोण्योः कवि- `
करतुसर्चामि सत्यसवं रत्नधामभि प्रियं मति कविस् ।। ऊर्ध्वा यस्यामतिर्भा
` अदिद्युतत्सविमति हिरण्ययाणिरभिमीत सृत्ततुः कृपास्वः ।१५।। आयंगौ सा्- `
राज्ञो सर्पा गायजी ।। निऋतिवरूणयोमेध्ये सर्पावा० ।! ओम् पदिनरक्रमी दस-
दतन्मातरं पुरः ।\ पितरं च प्रयल्त्स्वः ।\१६।। अप्सरसामतछ् ऋष्यश्रुद्धो गन्ध
बप्सिरसोऽनुष्टुप् ।। वरुणवाय्वोमेध्ये गन्धर्वाप्सरसामान० । ओम् अप्सरसां
वाणां मृगाणां चरणे चरन् ।। केशी केतस्य विदवान्सखा स्वादुमदिन्तमः ।\ १७।।
यदक्रद ओचथ्यो दीघतमा स्कन्दस्न्रष्टुप् ।। ब्रह्मसोमयोमध्ये स्कवदावा० ॥। `
ओम् यदकन्दः प्रथमं जायमान उद्यन्त्समुद्रादुत वा पुरीषात् ॥! श्येनस्य पक्ष `
हरि १. बाहुः उपस्तुत्यं महि जातं ते अवन् ।(१८।\ तत्रैव ऋषभम् ! ऋषभं मां |
परिभाषा ]
__ हन्दीटीकासहित = (३३) .
ध्ये विष्ण्वावा० । ओम् इदं विष्णुविचक्रमे त्रेधा निदधे पदम
| परसुर ।२४:।। उदीरतां शंखः स्वधा चरिष्टप । ब्रह्मर्योमंमध्ये स्वधावा०
|` ओम् उदीरतामवर उत्परास उन्मध्यमाः पितरः सौम्यासः ।। असं य ईयर
| ब्रह्मयभयोमध्ये स॒त्यरोगावा ।॥ परं मृत्यो अनु परेहि पा
। समूलहमस्य `
ऋतन्ास्ते नोऽवन्तु तिरो हवेषु ।॥२५।। परं मल्यो सकुुको ूतयुरोगास्त्रिष्मय । = `
, देवयानात् ॥ चनुष्मत श्रुण्वते ते ब्रवीमि मा नः प्रजां रीरिषो मोत वीरान् ।।२ ६। क
गणाना त्वा शौनको गृत्समदो गणपतिजगती ।। ब्रह्मनिक्ऋत्योमं
ओम् गणानां त्वा गणर्पाति हवामह कवि कवीनामुपमश्रवस्तसः
ध्य गणपत्यावा०।। `
० ।। ज्येष्ठराजं
इ सिन्धु ठीष आपो गायत्री ।, बरह्मवरुणयोमं र म ध्ये अलावा ॥1. ओम् हनो :
1: | : भिष्टय 1 | योरि भिस्त भेसरवन्तनः ।1२८।।ञमर्तो यस्य रा
गौतमो मरुतो ° ।
। ` क्षये पाया ञ सुगोयातमोजनः ।\२९।। स्योनापृथिवौ का पी
पणः पा ४ | ठ दमूले कणिकाधः ` पृथिव्यावा० । । ; =
क उ तैव अंगादिनद्यावा० ।। ओम् हमं र
भ गङ्ग यनुन सरस्वती शुतुद्रि स्तोमं सचता परुष्ण्या ।। असिक्न्या मरुद्वधे ८
` वितस्तयार्जीकीये श्रुणु ह्या `
मरुदावा० ।। ओम् मरुतो यस्य ध हि ~
। . 9 "+ 4 ध ॥ 1 न त्रतराजं व्वा : # १६ 1 = वाता = 9
५८ ‡ † | ‡ ८ व < 45: 0111101.
. ` मण्डल देवता-सबते पहिले मण्डलके मध्यमे ब्रह्माजीको स्थापित करना चाहिये, “श्रह्म जज्ञानम्" . (
इस सं्रका गौतम वामदेव ऋषि है । ब्रह्यादेवता है त्रिष्टुप् छन्द है मध्यमे ब्रह्माके आवाहनमें इसका विनियोग `
` होता है । जिस वावयके अन्तम विनियोग आवे वहां सीघे हाथमे पानी लेकर विनियोगान्त पद समुदायको
बोलकर पानी भूमिपर छोड देना चाहिये \ यह सब जगह समदना चाहिये । ब्रह्म जज्ञानं प्रथमम् इस संत्रको `
बोलकर ब्रह्माकी स्थापना करनी चाहिये मंत्रका अर्थ-( १) पहिले सवं प्रथम ब्रह्माजी उत्यच्च हुए थे जब
इन्होने तपस्यासे भगवानके ददोन करके बेन पद पालिया उस सभयमें क्रान्तदर्शी होगये, पीछे उन्होने नियमित
रूपसे सुन्दर प्रका क्षीर देवता रचे तथा जो वस्तु हम देख रहे हू एवम् हमारे जो दृष्टि गोचर नहीं हँ उन
` सब वस्तुओंको ओर उनके कारणोका उघीने विस्तार किया था । ऊपरके भी लोक इसीने रचे हे इसकी
` बराबरीका कोई नहीं है \\ हे ब्रह्मन् ! यहां आभो यहां बैठो, मेरी पुजाकी ग्रहण करो, मेरे सन्मुख हो, भली `
अति प्रसन्न होकर वरदान देनेवाङे हो ।\ श्रीब्रह्माजीकी तरह ओर भी सब देवताओंका आवाहन करना ` ८
| चाहिये, इसके पीछे आलो लोकपालोको शास्त्रोक्त क्रमसे उत्तर, ईशान कोण, पूरव, वद्धि कोण, दक्षिमा र
. सैच्त्थकोण, परिचिम, वायव्य कोण; इन आठों दिश्ाओमं स्थापित कर देना चाहिये “अप्यायस्व इस
( मंत्रका राहुगणं गौतम ऋषि है, सोम देवता है, गायत्री छन्द है, उत्तरम सोमको अवाहनमं इस मत्रका ` ४
विक्लियोम् ॥॥ ग किया है. (२) म॑त्राथ-हे सोम । हमे बढ़ा आप भौ बो, आयक्ता जो अनेक कामनाओंका देने-
मधुच्छन्दा १ ऋषि हे, इनदर देवता है, गायत्री छन्द है, परव इनदरके आवाहनमे इनका ठि र वनियोग त हो होता १ द)
हमारे लिये इन्दर ही सवं जनोसे बडा है, हम इन्द्रको ही बुलते हे, वो हमारे च्वि केवल हों ।। “अगिनदूतं
मत्रका व मेधातिथि ऋषि है, अग्नि देवता है, गायत्री छन्द है, अग्नि कोणमें जग्निके आवाहन करनेमे
परिभाषा ५ | | ‡ हिन्दीरीकासहित (२३५) 1
थ +; 00 प
ति 01
` यह आषके विराजनेकी गह् है ! हे भूमिपर विघरनेवाले वसु देवो ! यहां रमण कसे । हे सुंदरो ! इस विस्तृत ` ८.
अन्तरिक्षम आएप विचरते हौ । आपने हमारे भेजे इतका बुलावा सुन लिया है, आनेकी इच्छसे केगके साथ `
चर्नैवाले आप, सामनेके रास्तेको तय करके आजाओ । “आख्रासः" इस मंत्रका श्वावाद्वं ऋषि है, ग्यारह
रद्र देवता है, जगती छन्द है, सोम ओर ईशानके बीचमे एकादज्ञ रद्रोके आवाहनमे इसका विनियोग होता =
है (११) इ््रवाले परस्पर प्रेम रखनेवाकत, सोनेके रथवाले ग्यारहों खर इस मेरे यजमें आनाभो, यह मेरी `
` - स्तुति जापको चाहती है, जसे कि, पानी चाहुनेवाखे, गौतमके लिये आपने मेघ भेजे थे उसी तरह हमे भमी. `
अभिमत द \\ ^त्यानु क्षत्रियान्" इस संत्रका मत्स्य सांमद ऋषि है, दरादश्च आदित्य देवता है, गायनी छन्द ` |
हैः उनके आवाहनमें इनका विनियोग होता है (१२) सुख देनेवाले पतनसे रक्षा करनेवाले जो आद्त्य `
ह उन जादित्योको याचता हूं कि वो मेरी रक्षाकरं तथा यह आकर मेरी प्राथना सुनेभेरी मनोकामनाकोपूरा =
। कर । “भरविनावति” इल भंत्रके राहुगण गौतम ऋषि ह । अश्विनी देवता हँ, उस्णि् छन्द है, इन्र ओर =
अग्निके बीचमें उनके आवाहने इसका विनियोग होता है (१३) है एक मनवा देखने योग्य अष्िनी ` |
कुमारो ! सोनेके क्चिलमित्यहट करनेवाले रथको सामने ठे आओ । “ओमाल'" इस मंत्रके मधुच्छन्दा ऋषि 1.
यजमानके सेवन करये हुए सोमको पीनेके लिये यहां आमो ओर जपने स्थानपरविराजमान होजाओ।\ भम् क
। अभित्यं देवं! का गौतम वामदेव ऋषि है, सप्त यक्ष देवता हे, अष्ट छन्द है, यम ओर नैत्यके नीचमं सात |
दशित्व आदि अनेक गुण हँ, जिसकौ कि मति प्रका शील है वो मेरे मनोरथोका पुरा करे ।\ “आयं
इस सत्रकी सराज्ञी ऋषिका है, सपं देवता हुःगायत्री छन्द है, निति ओर वरुणके बीचमें सं देवताके
आवाहनमें विनियोग होता है (१६) जो कि अपनी शी त्र गतिते जमीनमे धुसकर वैठ जाते तथा आसमानमें `
अव्याहत चङे जाते हँ एसे अनेक तरहके सपं देव मेरे सामने अपने स्थानपर पूजके लिये विराजमान हौ `
जाओ ।। “अप्तरसां गन्धर्वाणाम्” इस मंनेके ऋष्यभ्पुग ऋषि हः गषव ओर अप्सरा देवता है, अनुष्टुप `
छन्द है, वरुण ओर वायुके मध्यमं गन्धव ओर अप्सराओंके
. र त (9. ह ५ । # । च „ & ५७५ = श त ९.५ ।
ष द व 2 110 ध) ए
॥ | 1
ति है, दक्त देवता है, अनुष्टुप छन्द है, ह्या ओर दिवके बीचमें दक्षाद सप्त गणोके आवाहनमं इसका
` विनियोग होता है (२२) हे दश्च ! आयकौ दुहिता जो अदिति उत्पन्न हुई थी उसको सम्बन्धसे ही अमुत पीने- ` ध
. बाले भद्रदेव आदित्य उत्यन्च हए थे अथवा हे दक्ष ! अएपकौ रुड़की अदितिने जो आद्त्य पदा किये उनके
पीछे अमृत पीनेवाले सब देव पैदा हृए हँ ।। “तामग्निवर्णाम्”' इसका सोभरि ऋषि है, (यह गोच्रकार अंगि- `
सकी परंपरामे है, आदिसुरने इनके वंशोपवंशको भ बुलाया था, इनका ऋ्ेदें इतिहास है, ये एक विशिष्ट
. गौडवंहाके प्रधान हँ) इस मंत्रकी दुर्गा देवता है, चरिष्टुपु छन्द है, ब्रह्मा आर इनदरके बीचमं दुगकि जवाहनमं
` इसका विनियोग होता है (२३) कर्मं फलोके निमित्त पूजौजाने वाटी अग्निके वणंको तथा तपसे देदीप्यमान = `
हई वैरोचनी दुर्गा देवीके शरणको सै प्राप्तं हुभा हूं! अच्छे वेगवाल्म देवि ! तेरे वेगके लिये नमस्कारदहैःजाप
` हमें च्छीतरह पार छा देँ ।। “इदं विष्णु" इस सन्त्रका काण्व मेधातिथि ऋषि है, विष्णु देवता है, गायत्रौ `
~ -खन्द है, ब्रह्मा ओर इन्द्रके बीचमें विष्णु भगवान्के आवाहनमें इसका विनियोग होता है (२४) इनश्रीविष्णु
भगवान् महाराजने वामनावतार केकर बलिके दान लेनेके लिए तीन डंग भरे थे, तीसरा ङग धूरि घूषितं
बवक्तिके शिरपर रखा था, एसे ये विष्णु भगवान् हँ ! उदीरताम्" इस सन्त्रका शंख ऋषि है । स्वधादेवताहै
चिष्टुष् छन्द है पितृके आवाहनं इसका विनियोग होता है (२५) इस लोकमं परलोकमं जौर मध्य
लोकम जो पित्रेशवर स्थित स्वधा तथा सोम संपादक हें बे ॐंचेके लोगोमं चले जायं । जो निःसपत्न सत्यके `
तने भौ पित्रेदवर हे, बे सब हमारी हविको ग्रहण कर हमसे अनुकूल रहं । जो उत्यके जाननेवाके है बो
प्राणोके रक्षक हों ।} “परं मृत्यो इस मःत्रका संकुयुक ऋषि है, मृत्यु ओर रोग देवता है । ब्रह्य ओर यमके
बीचमं मृत्यु ओर रोग बिठानेमे इसका विनियोग होता है । (२६) है म॒त्यु ओर रोगो ? आपका जो रास्ता
देवयान पितुयान है, उसपर आएप जायं कान ओर आंखोवाले आपके किए मेँ कह रहा ह! आप
मेरो प्रजाको मौर बीरोको मारने की इच्छा मतं करना ।। “गगानन्त्वा'' इस सन्त्रे गृत्समद शौनक ऋषि
जाननेवाले ह, जिन्होने असुको पराप्त कर लिया है, वे होमे भेरी रक्षा करे । अथवा उत्तम मध्यम ओर अघम = `
(३७)
न पचाव तथा व्यापक भूके भी विध्नोसे मुशे वचालो ।। इसके पीछे मेरुका मेके नाम मन््रसे पूजन करना = `
चाहिये, (ओमूमेरवे नमः) मेरुके लिये नमस्कार है । मेरका आवाहन करता हुं । इसके पौरे मंडल्ते बाहिर `
सोमादिके पास उनके आयुधोकी स्थापना मसे करना चाहिये । सोमके पासं पाश, श्िवक्े पास लिश, `
इद्रके पास वचर, अग्निके पास शक्ति, यमके पास ण्ड, निकऋेतिके समीय तलवार, वरुणके पास पाड, वायुके
समीप अंकुश स्थापित करना चाहिये । इसके पीछे इनके बाहिर ऋषियोको स्थापित करना चाहिये जैसेकि. `
दैवताओंको स्थापित किया करते हं ।उत्तरमे गौतम, ईलानमें भरद्वाज, पुर्वमे विर्वामित्र,अग्िकोणमें कश्यय,
दक्षिणम जमदग्नि, नेऋत्यमे वसिष्ठ पर्चिममें अति ओर वायव्यकोणमे अरुन्धतीको स्थापित करना चाहिये! `
` इसके बाहिर इसी कमसे एरी, कौमारी, ब्राह्मी, वाराही, चामुण्डा, वैष्णवी, माहेश्वरो ओर वैनायकी इन `
आों महा शक्तियोकौ देवताओंकी तरह आवाहन प्रतिष्ठा करके चाहं तो एक एकका, चाहं सबका एकसाथ = `
` पजन करना चाहिये ।॥। 2
परिभाषा |
अथ लक्षपएननोचापनविधिरुच्यते ` |
अद्य पूर्वोच्चरितेवंगुणविशेषविश्िष्टायां पुण्यतिथौ मयां कृतस्याऽमुक-
` देवताप्रीत्यथमम्कलकापुजनकमणः साद्धतासिद्धचथम् तदुद्यापनं करिष्ये ।॥ `
तदंगत्वेन पञ्चवाक्येः पुण्याहवाचनमाचार्यादिवरणं च करिष्ये ॥ तत्रादौ `
निविघ्नतासिद्धच्ेम् गणपतिपुजनं करिष्ये ।। ततो गणपति संयुज्य पुण्याहं `
वाचयेत् । तदित्थम्--अस्य लक्षपुजननोद्यापनकर्मणः पुण्याहं भवन्तो ब्रुवन्त्व-
त्यक्तो ब्रवन्त् ।। कमं कऋध्यताम् ।। श्रीरस्त्विति भवन्तो ब्रवन्त् ।। अस्त श्रीः,
कल्याणं भवतो बरुवन्तो वृवन्तु ।\ अस्तु कल्याणम् ।\ कर्माद्धदेवता प्रीयताम् ! `
` ततो गोत्रनामोच्चारणपुवेकममुकगोत्रोऽमुकशर्माहं यजमानोऽमुकगोच्रममुक- `
सर्माणं स्व
। वृणे ।। आचायत्वेन
` श्लक्रादीनां बृहस्पतिः ।। तथा त्वं मम यज्ेस्मिन्नाचार्यो भव सुत्रत ।। इति संप्ाथ्यं
स्वशाखाध्यायिनं ब्राह्मणमस्मिल्लक्षपुजनोद्यापनाख्ये कर्मण्याचार्य त्वां
चा्यत्वेन वृतोस्मि ! यथाज्ञानं कमं करिष्यामि ।। आचार्यस्तु यथास्वगं
गन्धादिना आचायपूजनं कुर्यात् ॥। तथेव ब्रह्माणं वृणुयात् ।। यथा चतु
प्राणानायस्य यजमानेन वृतो ऽहुमस् सुकं कमं करि पे ।॥ कर्माधिकाराथेमात्मनः |
(८) ~ वतसज ~ “= कण
| अथ लक्ष पुजा ओर उद्यपनविधि-स्नानादिसे निवृत्त होकर हाथमे पानी लेकर संकल्प बोलना चाहिये
1 कि, आजं एसी २ पुण्य किथिमं इस सहीनाके इस पक्षम इस संवत्सरं इस देवताके प्रसन्न करनेके व्यि इस 4
` चक्ष कर्मकी सांगता सिद्धिके लिये यानौ यह् लक्ष कमं अंगोंसहित परा हो जाय इसके लिये उसका उद्यापन = `
करता हुं एवम् तदंग होनेसे पुण्याहवाचन ओर आचाय्यैवरण भी करता हं, । उसमे सबसे पटिठे गणयतिपुजन `
` करता हुं (इस इसकी जगह करती बार जो तिथि हौ कहना चाहिये तथा इस देवताका मवल्ब है कि, जो `
। वता हौ उसका नाम लेना चाहिये इसी तरह ओर भौ समश्नना) इसे पोछे गणपतिका पूजन करके पुण्याह `
५ १ वाचनं कराना चाहिये, चो पुण्याहवाचन इद प्रकार है-यजमान ब्राह्मणोसे प्रायना करता कि, अप इस | # (व
. लक्ष पुजनके उद्यापनका पुण्याह कहौ । यजमानके ठेसा कहनेषर ब्राह्यणोको कहना चाहिये कि पुण्याहे ! _ `
यजमान-जाप कं कि, ऋद्धि हो । पीछे ब्राह्यण-कम्मं ऋद्धिक प्राप्त हो । यजमान-धी हो एेसा जपक्हे, = `
ब्राह्मण-श्रौ हो । यजमान-कल्याण हौ एेसा आप कहे, ब्राह्मण-हो कल्याण । संस्कृतम जो वाक्य ज्सि `
बोलने कट हँ वे उसे संस्कृतम ही बोलने चाहिये) । कमके अंगभ्त देवता प्रसन्न हो जाओ ।। ८.1
1 आचाय्यं वरण~-यजमान आचायं वरण करती वार कहता है कि, इस गोका इस नामका मे, इस गोत्र `
` ओर इस नामके इस शाखके इस ब्राह्मणको, इस लक्ष पुजनणके उद्यापनमें आचायेके कूपमे वरण करताहं । = `
वरण होनेके पीछे आचाय कहता है कि, मं आचायेके रूपसे वरण किया गया हु, जसा मुषे ज्ञान है उसके
अनुसार क्म कराऊंगा ! पीछे यजमान आचार्यकी प्राथना करताहै कि, जसे स्वगेमे इन्द्रादिकोका आचाय `
बृहस्पति है, उसी तरह सुव्रत आप इस कमंमं मेरे आचायं होजावो । पीछे यजमान अपने अचायका पुजन किया `
करते । इसके बाद अन्य ब्राह्मणोका वरण करना चाहिये । हे द्विजोत्तम ! जसे स्व्गमें चतुर्मुख पितामह ब्रह्मा `
होते हँ उसी तरह आप मेरे इस कमेमे मह्या बन जावो । इसके बाद यजमानको ऋत्विजेसि प्राना करनी `
चाहिये कि, मेने इस यागकौ सिद्धिके लिये भआपका वरण किया है, आप भली भाति प्रसन्न होकर इस कर्म॑को मेको
विधिपूवेकं करे । पीर आचमन भ्राणायाम करणके आचा्यको कहना चाहिये कि सन्ने यजमानने अच्छी
तरह वर किय है । मं कमं करूगा तथा कमके जधिकारके लिये जत्मशुद्धचथं पुरषसुक्तका जपभी करूंगा `
पृथ्वी" देस मंत्रका मेरुपुष्ठऋषि है, सुतल छन्द है, कमं देवताहै, आसनपर बेखनेमे इसका विनियोग होताहै
पृथ्वित्वया धृता समोका देवि त्वंविष्णुना धृता । त्वं च धारय मां देवि पवित्रं कुर चासनम्" हे पृथिविदेवि!
आपने लोको घारण कर रखा है । हे देवि ! आपको विष्णुभगवान्ने धारण किया है, जप मृन्ने घारण करे `
द आसनो पवि इकत्तीसर्वीं ( ५ ` अध्यायके प्रारभसे लेकर सोलह मंत्रोको पुरुषसुक्त*
सरसों लेकर “जोम् यदत्र संस्थितं भूतं स्थानमाधित्य स्वेदा! `
स्वतो दिशम् । सर्वोषामविरोषेन `
स त 1 वा, (मं
; प्रितिषो
हन्दीटीकासहित = (३९) `
` , बनादे ! अथवा आपके उस रसस हम तप्त हो जायं जिसके निवासके लिये आप प्रसद्ध है, आप उस रका
स्वामी हमं बनादं । इन मंत्रोसे कुशाजोसे पंचगन्यसे प्रोक्षण करना चाहिये ! प्रोक्षण छीर देनेको कह्षेहे ! = `
इसके पीछे हाथ जोड़कर “ ओम् स्वस्त्ययनं ताक्षय॑मरिष्टनेमिम्, महदव व्यचसं देवतानाम् । अभुरघ्नमिद्दध॒
सलं समत्सु, बुहद् यश्चो नावमिवारुहेम ” तारनेमें समथं जो नाव है, उसकी तरह जिसके प्रवाहको कोई रोक
नहीं सकता एसे गरुड भगवानूके स्वस्त्ययनपर आरूढ होता है, संग्राममे हमारे वीरको न नष्ट होने देनेवाले `
देवताभके सबसे बड़े, अग्रणी प्रेमी यज्ञस्वी इन्दरका आश्रय लेता हूं ।\ “ ओम् जंहो मुञ्चमांगिरसोसंगयंच ` `
स्वस्त्या तरेयं मनसा च त्यम्, प्रयतपाणिः ईरणं प्रयये स्वस्ति सम्बाधे अभयं अभयं नो अस्तु ।" हि पयते |
इटानेवाले ! मुञ्चे पापोसे छडा दे, में वाणीसे अग्निकी स्वस्ति ओर मनसे ताक्येकी स्वस्ति प्रप्वहो गयाहूं।!
. मं हाथ जोडकर आपकी शरण प्रप्त हुआ हु विवादे कार्यमे हमारा कल्याण हो तथा किसी प्रकारकाभय
नप्रतीत हौ । इन दोनोको बोलना चाहिये । देवता आज्ये ओर राक्षस लोग यहासे चठे जायें । हे विष्णु भग- `
घन् ! देव यजन भूमिक रक्षा करो, एेसा.करकहकर कलशा पजन करना चाहिये 11 लिगतोभद्र बनायाहोय ` |
तो छिगतोभेव्रमे तथा सर्वातोभद्र बनाया होय तो सवेतोभदरमे बरह्मोदिक देवोंका आवाहन करके उनका पूजन `
करना चाहिये ! ` | 4
ततो मूर्तावग्युत्तारणम् ।। अस्यां मूती अवधातादिदोषपरिहाराथंमन्युत्तारणं `
देवतासाननिध्यार्थं प्राणप्रतिष्टां च करिष्ये ।। अग्निः सप्तिमिति सुक्तमग्निपदर- `
हितं सहितं च परन्प्रतिमायां जलं पातयेत् ।। सक्तं यथाञअन्निः सप्ति वाजं भरं
ददात्यग्निर्वोरं भरत्यं कमेनिष्ठाम् ।\ अग्नी रोदसी विचरत्समञ्जस्लग्निर्नारं
वीरकुक्ष पुरम्धिम् ।\१।। अग्ने रजसः समिदस्तु भद्राऽग्निमहौ रोदसी आवि-
वेश! अग्निरेकं चोदयत्समत्स्वग्निवृ्राणि दयते पुरूणि ।॥२।। अग्निं त्यं जरतः `
कणेमावाग्िरभ्यो निरद हज्जरूथम् । अग्निरत्र धमं उरुष्यदन्तरग्निन्मेधं `
प्रजया सुजत्सम् ।\३।। अग्निर्दा द्रविणं वीरपेशा अग्निक्रषियः सहस्रासनोति ।। |
अग्निदिविं हव्यमाततानानेर्धामानि बिभुता पुरुत्रा ।।४।। अग्निमुवथैऋषयं
ह्वयन्तेर्भग्न तनं नर नरोया ४ मनि बाधितासः । अग्नि वयो अन्तरिक्षे पतन्तोऽग्नि
अग्निर्गान्धर्वी पथ्यामृतस्यागनेगेव्यूतिधत आनिसत्ता ।\६।। अग्नये ५
श्षुरग्नि महामवोचामा सुवुक्तिम् ।\ अग्ने प्रावजरितारं य यवि-
©. ) त क | सामान्य
11111 ध ध प त
श्रोत्रजिह्ला्ाणपाणिपादपायूषस्थानीहागत्य सुखं चिरं तिष्ठन्तु स्वाहा .
असुनीते पु० या नः स्वस्ति ।। गर्भाधानादि पञ्चदङ्मसंस्कारसिद्धयथं पञ्चदहा `
प्रणवार्बात्त करिष्ये ।। प्रणवं पञ्चदशवार जपित्वा । रक्ताम्भोधिस्थपीतो- `
` ल्यसदरुणसरोजाधिरूढा करान्जैः पाशं कोडण्डमिक्षू-द्वमथ गुणमप्यंकुक्ञं पञ्च
बाणान् ।। विभराणासुक्कपालं त्रिनयनलसिता पीनवक्षोरुहाढ्या देवी बालकं-
ब्गभिवतु सुखकरी प्राणश्ञक्तिः परा नः ।॥ ततो मण्डलोपरि ब्रीह्यादिधन्यय- `
बतिरेस्तिक्टं कृत्वा तच महीद्यौरित्यादिना अत्रणं कलं संस्थाप्य कलशोपरि `
पूर्णपात्रं संस्थाप्य तस्योपरि व्यंबकमंत्रेणोमया सह व्यम्बकं वा, विष्णुमंत्रेण `
लक्ष्या सह विष्णु, सिदधिबुद्धिसहितं गणेन्ञं वा पलन्या सहितं सूर्यं वा भवानीं तत्त- `
५ | न्मत्रेणावाह्य शिवस्य दक्षिणे ठक््स्या सह् विष्णमावाहयेत् ।\ शिवस्योत्तरे सा- 1
साविश्या सह ब्रह्माणम् ।। एवं विष्ण्वादीनामपि । अथ षोडदोपचारपुजा । ततः
सहलशीर्ेत्यावाहनम्।पुरुष एवेदमित्यासनम्।।एतावानस्येति पादम् त्रिपाूध्व॑मि `
त्यथ्यंम्।।तस्माद्विराडित्याचमनीयम्।।यत्पुरुषेणेति स्नानम् ।। तं यज्ञमिति वस्त्रम्।। `
तस्मादयज्ञादित्युपवीतम् ।! तस्माद्न्नात्सवंहुत ऋच इति गन्धम् ।। तस्माददवेति
पुष्पम् ।। यत्पुरुषं व्यदधुरिति धूपम् ।। ब्राह्मणोऽस्येति दीपम् ।। चन्द्रमा मनस |
इति नैवेद्यम् ।! नाभ्या आसीदिति प्रदक्षिणाः ।। सप्तास्यंति नमस्कारान् ।। यज्ञेन
यज्ञमिति मंत्रपुष्पाञ्जलिम् ।। इति षोडश्ोपचारः पञ्चामृतङ्च वेदिकमन्त्रेः
` पुराणोक्तमंतरश्च स्थापितदेवताः संपुज्य रात्रौ जागरणं कुर्यात् ।, प्रातनित्यकृत्यं `
~ परिषा हिन्दीटीकासहितं ~ (४) 4
` एक हजार गरं दक्षिणाम दी थीं, अग्नि ही यजमानकी दी हुई हविको देवताओंमे षहुचाता है; यही अपने
अनेक रूप करके अनेक जगह विराजमान है, (५) अग्निको ही कृषि लोग स्तुतियोसे अनेक भति बुलाते
. हं, मनुष्योको जब युद्धम कष्ट होता है तो अग्निक ही शरण जाते ह, जआकाञ्लमे उडनेवाले पक्षी अग्तिकोही
देखते ह अगिनिही गञओकी रक्षके च्यि जाताहै।! (६) मनुषी प्रजा अग्निक ही प्रायेना करतीहैः
नहुषके वंशज भौ अग्निकी ही उपासना करते ह, अग्नि ही यज्ञकौ गन्धर्वी ( बागीहूपी ) पथ्याहै,जनिही
` घीका भरा हुआ रास्ता है ! (७) ऋभुओने अग्निके लिये ही वैदिक स्तुतिथोका अन्वेषण किया था हम |
क्गीघ्रही मनोरथोको पुराकर देनेवाखे अग्निकी स्तुति बोल रहे है, अग्नि स्तुति करनेवालेका रक्षण करताहुमा =
बड़ा भारी धन देता है ।। प्राणप्रतिष्ठा-इसके पीछे देवताओं प्राण प्रतिष्ठा करनी चाहिये इस प्राणप्रतिष्ठा |
भंत्रके ह्या विष्णु ओर महेश ऋषि हे, ऋग्, यज् साम ओर अथवंछन्द है, क्रियामय शरीरवाला प्राम नामक
देवताहै, आं नीजहै, हीं शक्ति है, कौ कौलक है, इस मतिम प्राणप्रतिष्ठा करनेमें इसक्रा विनियोगहोताहै! |
पीछे उल्टा हाथ मूतिपर रखकर~ ओम् आं हीं करौ अंयंरलंवंक्ंषंसंलक्षं अःकोंरीआंहंसःसोहम् |
इन बीजोका उच्छारण करते हुए यह भावना करते रहना चाहिये कि इस मूतिमें प्राण जग ग्येवे यहांहैं! |
। फिर दुबारा इन बीजोको बोलकर यह भावना करनी चाहिये कि, दस मू्तिमें यहां स्थितहै फिर तिषारादहृन्ही ॥
` . बीजोको बोलकर भावना करनी चाहिये कि इस मूतिमें ज्ञानेन्द्रिय ओर कर्मेन्द्रिय सुख पुवेक रहँ । ` ओभ् |
असुनीते ' यहांसे केकर, यानः स्वस्ति ' तक एक ऋग् ८-१-२३ का मंत्र हे । यह् पुरा-भष् अषुनीते पुन- |
रस्मासुचक्षुः पुनः प्राणमिह नो धेहि भोगम् । ज्योक् पदयेम सूर्यमुच्चरन्तम्, अनुमते न मृडया नःस्यस्ति। `
यहांतक है । हे असुनीते ! यहां हमारे इन देवोमें फिर ज्ञानेन्द्रिय ओर कर्मेन्द्रिय प्राण ओर भोगको स्थापित =.
कर, हम रोज ऊपर चते हए सूथ्यंको चिर काल तक देखें, इन मूतिरयोमें ये सब सदा बना रहे हे अनुमते ! हमे _
हमें सुखीकर हमारा कल्याण हो { गोबिन्दा्जन चंद्रिकामे तथा सवेदेवप्रतिष्ठा प्रकाश आदि ग्रन्थोमे प्राण-
` प्रतिष्ठाके विषयमे इस मंत्रको नही रखा है तथा भीमान् चौबे बनवारीलालजीने तो इसी मंत्रकी प्रतीकको
` प्रणवावृत्तिके संकल्पम ही साभिल कर बिया है न उक्तविषयमें पं° चतुर्थालालजीनेही उक्त मेत्रका उल्लेव `
किया है ) पूर्वोक्त ऋचाका पाठ करके गर्भाधान आदि पन्द्रह संस्कारोकौ सिद्धिके लिये पन््हवारप्रणवका
जपक्रता हं हस प्रकार संकल्प करके पन्द्रह वार प्रणवका जपकरना चाहिये । पीठे प्रणवशक्तिका ध्यान करना
चाहिये कि, लालरंगके समुद्रम सुन्दर जहाजपर लालकमलके आसनपर विराजमान हुई है, तथा हाथो
पाश, ईखका धनुष प्रत्यंचा अंकुश ओर पांच बा्णोको धारण किये हए है तथा रोहूते भरा हृभा कपाल मी
होमे चये हुए है, तीन नेतर ह, बड़ बड़े वक्षस्थल हे तया बालसुयेके समान अरुण रंगकौ परप्राणशक्तिदेवी |
हमे सुखकारी होवे । पीछे बनाये हए स्वेतोभद्र या लिगतोभद्र दोनेकि ही उपर त्रीहि जादिके तया धान्य यह् `
मौर तिलसे तीनकूटवाला पवेत बनाकर उसपर “ ओम् मही यौः पृथिवी च न इमं यज्ञस्मिमिक्षताम् पिपु-
तान्नो भरीमसि ” महती भू हमारे यज्ञको पु्णं करे तथा जो आवश्यकीय वस्तु हँ उने हमारे घरकोभरदे।! |
इस म॑त्रसे विना एूटे घडेको रख, उसके ऊपर पुणेपात्र रखकर पौ “भोम् त्यम्बकं यजामहे सुगंधिगृष्टिवध- `
नम् । उर्वारुकमिव बन्धनानमुत्ये म मृक्षीय मामृतात् ” हमारे यश्को बदानेवारे तथा हमारी पुष्क बढाने- `
बाले उयम्बकका यजन करता हूः चो ककडीके बन्धकी नण गै तरह मुञने मौतसे मुक्त करे पर, अभरत्वसे कभी मुक्त
(र) 2 वतरा... 1 पमल्व - (
बह परब्रह्म परमात्मा श्री विष्णु भगवान् अनेकों शिर आदि अंग तथा अनेकों ही ज्ञानेद्िय ओर कम-
` न्दियवाला है वो इस सुष्टिमे सब ओरसे ओत प्रोत होकर नाभिसे द्वादश अंगुख जो हृदय है उसमें विराजमान
` होता है । इस भंचरसे भगवान् का आवाहन करना चाहिये | 9 9
५ ॐ पुरुष एवदप$सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम्
उतामुतत्वस्येश्ानो यदघ्नेनाति रोहति व
जौ कुठ अनुभवे आ रहा है तथा जो हो चुका ओर होगा वह सव पुरुष ही है वो सोक्षका अधिपतिहै `
तथा जौवोको कर्मफल देनैक चये कारणावस्थासे का्यावस्था स्थूल जगत्के रूपमे आताहै । इस मंत्रसे
` आसन देना चाहिये । 4
` ॐ एतावानस्य महिमातोज्या्थाहच पुरुष
पादोऽस्य विहवा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ।। क
. इसकी इतनी तो महिमादै, इससे पुरुष वड़ा है, सबजीवं इसके अंश सात्र हं मौर अंशी चो नित्यधाम `
. वैकुष्ठमें विराजमान है । इस मंत्रसे पा्यका प्रतिपादन करना चाहिये । 1
( उत्रिपादृरध्वेऽउदेत्पुरुषः पादौऽस्येहाऽभवत्पुनः।
ततो विष्वडः व्यक्रामत्साशनानशनेऽभि ।॥ र
वो त्रिपाद पुरुष ऊध्वं उदित है, उसका अंश जीवर लिगदेहसे बारंबार आवागमन करता है । वो अंश 1
मनुष्यादि अनेक रूपमे होकर संसार में भ्रमता फिरता है तथा जङ् चेतनादि व्यवहारभाक् एवम् `
बद्ध सक्त होता रहता है \ इस मंत्रसे अध्यं देना चाहिये \ | 1.
ॐ ततो विराडजायत विराजो अधि पुरुष
स जातो अत्यरिच्यत पहचाद्ध् भिमथो पुर ~
। इसके पीछे इससे विराट् उत्यशच हृभा एवं उस विराद्मे विराट्का अभिमानी पुरुष हुमा वो देव मनुष्या `
दिभावसे भिल्ञ-भिन्न अनेक प्रकारका हो गया इसके पीछे क्रमदाः पुर ओर नगर रचे गये ।इस मंत्रसे आचमन- = `
सस्मिता]. हिन्दीदीकासदित = (४३) |
तस्माद्यज्ञत्सवहृतः सम्भूत पृषदाज्यम् । |
पञ् स्ताह्चक्र वायव्या सारण्या ग्रास्यास्चय।। ५
| उसी परमात्मासे पृषत ओर आज्य दोनों प्रकट हए तथा उसीने वायव्य एवम् ग्रामीण जौर वन्य ञ्चुः
ओको उपजाया । इस मंत्रसे उपवीतका सम्पणकरना चहिये! 1
ॐ तस्मादश्वा अजायन्त ये कं चोभयादतं
गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाता अजावयः ।। 1
उसीने अर्व तथा अव सरीख प्राणी एवम् जिनके ऊपर नीचे दोनों ओर दात है उनको उत्प क्या, |
` उसीने गऊ ओर मेड बकरी आदि बनायें । इसमे पृष्प समपित करने चाहिये । ‹ व
ॐ यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधान्यकत्पयन्
मुखं किमस्यासीत् किम्बाहूकिमुरूपादा उच्यते 1
। जब विराट् उत्पन्न हुआ था उस समय उसमे अनेक प्रकारकी कल्पना कौ गथीं वोही प्रष्नोत्तरकेस्पर्मे
भगवती ऋचा कहती है कि, उसका मुख बाहु उरू ओर पाद कौन कहे जते हँ ? इस मंत्रे धूप देनी चाहिये `
। ॐ ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहु राजन्यःकृत |
ऊहतदस्थ यद्वेश्यःपद्भ्या ११ शूद्रोऽजायत।। ध
मृखसे ब्राह्मण, बाहूसे क्षत्रिय, उरूसे वैश्य ओर पदोसे श्र उत्पन्च हुए \ इस मंत्रसे दीष देना चाहिषे `
ॐ चन्द्रमा मनसोजातश्चक्षोः सूर््योऽअजायत =
८ श्रोत्राद् वायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायत \।
| मनसे चन्रमा, नेत्रोसे सूरय, भो्रसे वायु ओर प्राण तथा मुखसे अग्नि उत्यञ्च हभ । इस सत्ते नैवे
निकेदन करना चाहिये) 4
॥ उत्नाभ्याआसीदन्तरिक्ष शीर्ष्णो यौः समवतंत ।
पद्भ्यां भूमिदिशः श्रोत्रात्तथा लोका अकल्पयन् ।
नाभीसे अन्तरिक्ष, शिरसे दिव, चरणोसे भूमि, शरोत्रसे दिशा उत्पन्न हुई । इसी प्रकार अन्य
५ भी कल्पना कौ गयी \ इसं मंत्रसे प्रदक्षिणा करनी चाहिये । |
८ असमप्तास्यासन् परिधयस्त्रिःसप्त समिधः कृताः !
„ देवा यद्यज्ञं तन्वाना अबध्नन् पुरुषं पशुम् ।॥
५ करना चाहिये \
५ (४) व्रतराज ` १ । ति ` [ सामान्य-
अश्षश्निमखम्
आचम्य प्राणानायम्य तिथ्यादिसंकौत्यं एवंगुणविश्ञेषणविषशिष्टायां पुष्य- `
तिथावमुककर्माद्धतया विहितामुकहवनमहं करिष्ये इति संकल्प्य गोमयादि- |
लिप्ते शद्धे देशे शुद्धमृदा ईश्ानीमारभ्य उदक्संस्थं चतुरड्गुलोद्नतं वा चतुद्क्षु
मिलित्वा द्विसप्तत्यंगुलपरिधिकं फलितमष्टादशांगुरविस्त॒तं होमानुसारेण तद- `
धिकंवानतु ततो न्यंनं मध्योन्नतं स्थण्डिलं कुर्यात् 1 तद्गोमयेन प्रदक्षिणम्प-
लिप्य दक्षिणेऽष्टावुदीच्यां हे प्रतीच्यां चत्वारि प्राच्यामर्धमित्यंगुलानि त्यक्त्वा
दक्षिणोपक्रमामुदक्संस्थां परादेहामात्रामेकां रेवां ( लिखित्वा ) तस्या दक्लिणो- `
त्तरयोः प्रागायते पवरेलयाऽखंसृष्टे प्रादेशसंमिते दे लिखित्वा तयोर्मध्ये
परस्परमसंसृष्टा उदकसंस्थाःप्रागायताः प्रादेशसंमितास्मिल इति षड् चेवा
यज्ञियश्चकलमूलेन दक्षिणहस्तेनोल्लिल्य रेखापु तच्छकलमुदगग्रं निधाय स्थण्डिल-
मब्दिरभ्यक्ष्य शकलसाग्ेय्यां निरस्य पर्णण प्रक्षाल्य वाग्यतो भवेत ।। तेजसपात्र- `
युग्मेन संपुटीकृत्य सुवासिन्या श्रोतियागारात्स्वगृहाद्रा समृद्धं निर्धूममाहूतमेग्नि `
स्थण्डिलादाग्नेथ्यां दिशति निधाय । जुष्टोदमूना सत्रष्ट्प् 1
ग्न्यावा० ।\ ॐ जुष्टोदमूना अतिथिदुरोण इमं नो यज्ञमुपयाहि विद्धान् ।! विर्वा
मग्ने अभियुजो विहव्या शत्रूयतामाभरा भोजनानि ।\९।1 एह्यग्न इत्यस्य मंत्रस्य
राहूगणो गौतम ऋषिः ।\ अग्निर्देवता ।! त्रिष्टुप्छन्दः \! अरन्यावा० !! ॐ एह्यग्न `
इह होता निषौदादब्धः सुपूर एता भवा नः ।! अवतां त्वा रोदसी विदवमिन्वे `
यजामहे सौमनसाय देवान् ।\२।१ इत्यक्षतेरावाह्य आच्छादनं दूरीकृत्य समस्त- ५
"वारण 1. -्सदाक्ासाह्त {४५}...
संकीत्यै श्रीपरमेश्वरभ्रीत्यरथं क्रियमाणेऽमुकव्रतोद्यापनहोमे देवतापरिग्रहाथंमन्वा- `
धानं करिष्ये । अस्मिच्न्वाहितऽग्नौ जातवेदसमग्निमिध्येन प्रजार्पाति, श्रजार्पात
चाधारदेवते आच्येनात्र प्रधानदेवताः अमुकहोम्यद्रव्येण परत्येकमसुकसंख्याका-
` भिराहृतिभिन्रह्याद्यावाहितदेवताह्च नाममंत्रेण प्रत्येक मेकंकयाऽऽज्याहूत्या यक्षये। |
` ज्ेषेण स्विष्टकृतमग्निमिध्मसच्रहनेन रद्रमयासर्माग्नदेवान्विष्णुर्माग्नि वायुं सूय्यं |
प्रजार्पाति चताः प्रायश्चित्तदेवता आज्यद्रवेण ज्ञाताज्ञातदोषनिदेहणाथं चन्रिवार- |
माग्नि मरतश्चाज्येन विहवान्देवान्त्संसावेणाद्धदेवताः प्रधानदेवताः सर्वाः स्ि-
हिताः सन्तु ! एवं साङ्खोपाङ्धेन कर्मणा सद्यो यक्ष्ये ।। व्याहूतीनां परमेष्ठी प्रना-
` पतिः प्रजापतिबृहती । अन्वाधानसमिद्धोमे विनियोगः !\ ॐ भूर्भुवः स्वः स्वाहा |
प्रजापतय इदं० ।! तत इध्माबहिषोः सन्नहनं कृत्वार्शग्न परिसमुह्य परस्तृणी- |
थात् ।! तच्चेत्थम् अग्न्यायतनादष्टाडगुलमिते देशे एेशानीं दिकमारभ्य प्रद- |
^
ं समन्तात्सोदकेन पाणिना त्रिः परिमृज्य षोडदादभेः परिस्तृणीयात् 1 |
। व्यपाणिभ्यां कमेण चरस्थालीप्ोक्षण्यो 1, नी व्रौवौ
इति द्रश्च उदगपवर्भ प्राक्संस्थं च न्युब्जानि 5 ५ | त पा
५ ( ॥ ) । ए ४ (9 “ त्॑तराजं श ह भिः , ५
1 | नतराज ० | सामान्य--
, च ध प र ॥
सुव्त्वातिसृजेत् ।\ ततः कर्ता तत्प्रणीतापात्रं दक्षिणोत्तराभ्यां पाणिभ्यां नासिका- `
समीपं तीत्वोत्तरतोग्नेनिधायान्येदंभेराच्छादयेत् । ते पवित्रे आज्यपात्रे निधय `
तत्पात्रं पुरतःसंस्थाप्य तस्मिच्चाज्यमासिच्य परिस्तरणाद्रहिरत्तरतोद्धारानपोह्य `
` तदुपर्याज्यपान्रं निधाय ज्वलता वर्भोल्मुकेनावज्वल्य दर्भग्रहयं निल्लिप्य पुनस्ते- `
नैवोल्मुकेन प्रधानद्रन्यसहितमाज्यं त्रिःपयंग्निङृत्वातदृल्मुकं निरस्यापः स्पृष्टा-
द्खारानम्नौ क्षिपेत् \। अंगुष्ठोपकनिष्ठिकाभ्यां पवित्रे गृहीत्वा।सवितुष्ट्वेति मन्त्रस्य `
हिरण्यस्यस्तूष ऋषिः । शविता देवता । पुर उष्णिक् छन्दः । आज्यस्योत्पवने- `
विनि० 11 ॐ सवितुष्टा प्रसव उत्पन्नास्यच्छिद्रेण पवित्रेण वसोः सूर्यस्य रद्मिभिः!। `
इति सत्रेण प्रायुत्पुनाति सङ्दुद्विस्तृष्णीम् । ते पवित्रे अद्धि: प्रोक्ष्याग्नौ प्रहरेत् । `
स्कन्दाय स्वाहा स्कन्दायेदं नममेति \\ तत आत्मनोऽग्रतो भूमि प्रोक्ष्य । तत्र बहिः- `
सन्नहनीं रज्जुमुदगग्रं प्रसाथं तस्यां बहिरास्तीयं तदुपरि आज्यपाच्रं निधाय कुशान् `
वामहस्तेन सुक्सुवौ च दक्षिणेहस्तेन गहीत्वाऽग्नौ प्रताप्य दर्वीं निधाय सुवं `
वामहस्ते गृहीत्वा दक्षिणहस्तेन लुबबिलं दभगिस्त्िः संमृज्य तथेव सुवपृष्ठं
दभप्रिरात्माभिमुखं त्रिः संमूज्य कुशमृलेदेण्डस्याधस्ताद्विलपुष्ठादारभ्य यावदुप- `
स्त १ ध सुबेणाज्यं गृहीत्वा होमद्रव्यसभिधायें उदगुदास्य अगन्याज्ययं गोमेधयेन
नी्वाऽन्यदृक्िणतो बहिषि सान्तरमासाद्य ततो, विस्वानि न_इति तिसृणां
परिभाषा |
` दिशसारभ्य ईलानदिक्पयेन्तं जुहयात् उभयत्र प्रजापतय इदं न ममेति त्यजेत् ।॥ `
तत उत्तरे । अग्नये स्वाहा ।। अग्नय इदं ०।। दक्षिणे सोमाय स्वाहा ¦ सोमायेदं
न ममेत्येतावाज्यभागौ हृत्वा प्रधानहोमं कुर्यात् \\ ततो बह्मादिदेवतानां मत्रेणे- `
केकया आहुत्या जृहुयात् । ब्रह्मणे स्वाहा ।। सोमाय स्वाह ।! ईशानाय स्वाहा ॥ `
इन्द्राय स्वाहा ।) अग्नये स्वाहा । यमाय स्वाहा ।\ निच्छतये स्वाहा । वरूणाय
, स्वाहा।।वायवेस्वाहा \\ अष्टवसुभ्यः स्वाहा।। एकादश्षर्द्रेभ्यः स्वाहा ॥ दादन्ञा-
` दित्येभ्यः स्वाहा।जध्विभ्यां स्वाहा ।\ विष्वेभ्यो देवेभ्यः स्वाहा ।\ सप्तयक्षेभ्यः `
` स्वहा 1) भूतनागेभ्यः स्वाहा । गंधवप्यिरोभ्यः स्वाहा \, स्कंदाय स्वाहा \। नन्दी-
| इवराय स्वाहा ॥! शूलाय स्वाहा ॥ महाकालायस्वाहा ।। दक्षादिसप्तगणेभ्य |
स्वाहा \ दुगयिस्वाहा । विष्णवे स्वाहा ।। स्वधायेस्वाहः ।। मूत्युरोगेभ्यः स्वाहा! |
। गणपतेय स्वाहा ।! अभ्स्वाहा । मरभ्दयः स्वाहा ।! पृथिव्ये स्वाहा । गंगादिन- |
` दीभ्यः स्वाहा ।। सप्तसागरेभ्यः स्वाहा ।। मेरवे स्वाहा ।। दाभ्यै स्वाहा ॥ च्रिषू- |
` काय स्वाहां ।॥ वच्राय स्वाहा ।। शक्तये स्वाहा ।। दण्डाय स्वाहा ।॥ खङ्काय- |
` स्वाहा 1। पाशायस्वाहाः।।अड्कुशाय स्वा ०।गौतमायस्वा० ।। भरद्वाजाय स्वा०।
विहवामित्राय स्वाहा ।! कद्यपायस्वाहा ।} जश्दग्नये स्वहा ।। वसिष्ठाय स्वाहा।
अत्रये स्वाहा ।\ अरुन्धत्ये स्वाहा ।\ एे्ये स्वाहां ।। कौमाय स्वाहा ।। ब्राम्द्ये
` स्वाहा \\ वाराह्यै स्वाहा \। चासुंायं स्वाहा \। वैष्णव्यै स्वा० माहेय स्वा० `
` वेनायक्यं स्वाहा ।! अथ स्विष्टकृद्ध स्य हिरण्यगभं
ऋषिः ।। अग्निः स्विष्टकृदेवता ।। 1 ६ न्दः ह दः ॥॥ (व स्वष्टकृद्धोम
द
( ४८ ) ५ स व्रृतराजं | | [ सामान्य-
१४. प द क प प 0 0 ५
देवेभ्य इदं न ०।। ॐ इदं विष्णुविचक्रमे त्रेधा निदधे पदम् ।! समूढहमस्यपांसुरे
स्वाहा । विष्णव इदं ० ।। व्यस्तसभस्तव्याहतीनां विहवामिच्रजमदग्निभरद्राज-
प्रजापतय ऋषयः ।! अग्निवायुसूर््रजापतंयो देवताः । गायच्युष्णिगनुष्ठुव्बहत्य-
इछन्दांसि ।। प्रायिचत्ताज्यहोमे वि ० ।! ॐ भूःस्वाहा अग्नयइदं ० ।! ॐ भुवः
वायवइदं ।। ॐ स्वः स्वा९ सुययिदं ० ।। ॐ भुर्भुवः स्वःस्वाहा प्रनापतयदहं ।। `
¦ ५ ततो रह्मा कर्तारं परीत्याग्नेवयिव्यदेशं तिष्ठस्चेता एव सप्ताहुतिनुंहयात् | त्यागं १ ५
| म नोऽत्र कुर्यात् अनाज्ञातमिति सन्रद्रयस्य हिरण्यगभ ऋषिः ।। अग्नि- < ध |
देवता त्रिष्टुप्छन्दः ।! ज्ञाताज्ञातदोषपरिहाराथं प्रायषचिताज्यहोमे वि० ।। ॐ
अनान्ञातं यदाज्ञातं यज्ञस्य कियते मिथु।।जरने तदस्य कल्पय त्व ‡ हि वेत्थ यथा-
तथ स्वाहा ।। अग्नयइ० ।। ॐ पुरुषसंमितो यज्ञो यज्ञ पुरुषसंमितः ।\! अग्ने `
पदस्य कल्पय त्वंहि वेत्य यथावथ' स्वाहा ।। अग्नयइ० ।। यात्पाकत्रेत्यस्य `
मंत्रस्य आप्त्यास्त्ित ऋषिः ।। अग्निर्देवता ।। तरिष्टुष्छंदः ।। ज्ञाताज्ञातदोष- `
` माजेयन्ताम् ।\ उदीच्यां दिष््याप ओषधयो मार्जयन्ताम् ।! ऊर्ध्वायां दिरि
यज्ञः संबत्वरः प्रजपतिम्जियतामिति -- तत॒ एकश्चुत्या पठन् कुश्रेः `
स्वशिरसि मार्जयेत् ।। तत्र मन्त्राः-आपो असमानित्यस्य देवा आपस्त्रस्टय् । 0
` ॥ माजेने वि° 1} ॐ आपो अस्मान्मातरः बुन्धयन्तु घृतेन नो घृतप्वः पुनन्तु | |
विष्वं हिरि प्रवहन्ति देवी रदिदाभ्यः शुचिरापूत एमि । इद मापः सिन्धुदरप
आपोऽनुष्टुष् ।\ माजन ।। वि० ।\! ॐ इदमापः प्रवहत यत्किच दुरितं मयि ।\ |
| यद्रा शेषं उतानृतम् \। सुमिन्या न जाप जोधयः सन्तु 1! योस्मन्दरेष्टियंच वयं |
द्विष्मस्तं हन्मीति निऋतिदेज्े कुशाग्रेरपः सिञ्चेत् ।। ततो ब्रह्मा कतुवामपा्वेस्ति
तपल््यञ्जलिस्थजलो पू्णेपात्रस्थं जलम्-ॐ माहं प्रजां परासिचं यानः स्या |
बरीस्थनः।। समुद्रे बो नियानि स्वं पाथो अपीथं ।। इति मंत्रमेकशुत्यां पल्या |
` वाचयन् स्वथं वा पठन् प्रत्यडमुखं निषिच्याञ्जलिस्थजलेः पापापनोदनार्थमात्मानं |
यजमानं पत्नीं च प्रोक्षेत् ।। पत्नौ तज्जलं ्बाहिषि निषिञ्चेत् ।। अथवा यजमान |
एव बहिष्यु्तानं स्ववामपाणि निधाय दक्षिणपाणिना पुणपात्रमादाय माहप्रनामिति |
तज्जलं तस्मिनप्रत्यङ्मृलं निषिच्य ता आपः समद्र गच्छन्तीति ध्यात्वा पाणिस्थ `
जलेरात्मानं पत्नीं च प्रोक्षेत् ।। ततः कर्ता वायव्यदेशे तिष्ठन्नग्निमुपतिष्ठेत् \। `
था-अग्ने त्वं न इति चतसृणां गोपायना रोपायना वा बन्धुः सुबन्धः श्रुत
` बन्धुविप्रबन्धुच्चेकंकर्चा ।। ऋषयः ।! अग्निदेवता ।। द्विपदा विराट्छन्द ।।
` अग्न्युपस्थाने वि० ।। ॐ अग्ने त्वं नो अंतम उत ताता शिवो भवावर्थ्यः ।॥
बसुरण्नर्वसुभवाअच्छानक्षिद्युमत्तमं रयि दाः । स नो बोधि शरुधी हवमुरुष्याणो
अघायतः । समस्मात् ।। तं त्वा शोचिष्ठ दीदिवः
आरोग्यं दहि मे हव्यवाहः क हन ।। मा नस्तोक इति मंत्रस्य कुत्स ऋषिः ।। दद्र ८५
जगतीछन्द दः ।। ।\ विभूतिग्रहणे वि° ।\ £ मानस्तोके तनये मा न आयौ गोषु
1 4 व 0.
देव तद्विष्णोः सम्पूरणं स्यादिति शरुतिः ।! इति विष्णुं नत्वा स्मृत्वाचानेन कर्मणा `
श्रीपरमेहवरः प्रीयतामित्युक्त्वा- गच्छ गच्छ सुरश्रेष्ठ स्वस्थानं परमंश्वर ।\
` यत्र ब्रह्मादयो देवास्तत्र गच्छ हृताशन ।। इर्त्यग्नि विसृजेत् ! एवं होमं संपाद्य
उत्तरपूजां कृत्वा आचार्यं संसज्य गां दद्यात्-यज्ञसाधनमूता या विदवस्याधौघना- `
शनी ।\ विद्वरूपधरो देवः प्रीयतामनया गवा ।। इति ।। ततो ब्राह्मणभोजनं
। संकल्प्य ।) यान्तु देवगणाः सवे पूजामादाय पाथिवीम् । इष्टकामप्रसिदचयथं
पुनरागमनाय च ।\ इति स्थापितदेवतां विसृज्य पीठमाचार्याय दद्याद् 1 इत्यनि- `
मुखम् ।। ध |
अथ अग्निमलम्-आचमन्, प्राणायाम करके संकल्प करना चाहिये कि, आन एसे एसे पवित्र दिनिमे `
इस कामके.अंग रूपमे कहे गये अमुक हवनको करता हुं । पीछे गोबरसे लोपे हुए शुद्ध स्थलमं शुद्ध मिहरीसे एक `
स्थण्डिल बनना चाहिये, ईशान फोणसे लेकर उत्तरकी तरफ बनाना प्रारंभ करना चाहिये, यह स्थण्डिल चार `
अंगुल ऊंचा होना चाहिये चारों दामे मिलकर बहत्तर अंगुली परिषि होनी चाहिये, अठारह अंगल्का `
विस्तार होना चाये । यदि होम अधिक करना हो तो बड़ा हो सकता है पर कम करनाहो तो छोटा नहींहौ `
र सकता किन्तु स्थण्डिल मध्यमे ऊंचा अवश्य होना चाहिये ! उस स्थण्डिलको गोबरसे प्रदक्षिणां क्रमसेलीप
देना चाहिये । पीछे दक्षिणमें आठ अंगुल तथा उत्तरकी तरफ दो अगुल, पश्चिमम चार अगुख ओर पूरवमं
आधा अंगुल छोडकर, यज्ञिय शकलके भूलसे दाये हाथसे स्थण्डिल्पर यज्ञिय शकलदारा दक्षिण दिशसे
कर उत्तरकी तरफ प्रादेकामात्र एक लकीर खींचकर, उस लकीर के दक्षिणोत्तरमं वैसी ही मध्यरेवसि `
छिपौ हई हो रेखाएं ओर खीचनी चाहिये । इस तरह तीन उत्तरकौ रेखाएं तथा तीन पूरवकी रेखाएं कुख
मिलाकर छः रेखाएं होनी चाहिये । उस शकलको उत्तरकी ओर अग्रभाग करके रख देना, पौरे पानीसे प्रोक्षण
(1 रके उस शकलको अग्निकोणमें तटककर हाथ धो, सौनी हो जाना चाहिये । एर किसी सौभाग्यवती युवा-
` . सिनी स्त्रीके हायसे, किसी भी धातुके बने हुए कटोरमे, कटोरेसे ठकी हुई दधकती हुई इतनी अग्नि म गवालेनी
चाहिये जो कि कुछ देरतक बुते नहीं तथा वेदी कमम सौम्य हो । यह अग्नि या तो किसी वेद पाठीके घरकी होनी
चाहिये 1 अथवा जपने ही घरकी होनी चाहिये \ जेसी आये, वैसी ही स्थण्डिलसे अग्निकोणमं रखदे । इसके
५१ र्भान। 4 ~ 0. ।६्ष्दा८।41ध।हत् (^ + ॥ ।
कः . 9
स
छन्द है, अग्तिकी मूतिके ध्यानम इसका विनियोग होता है । इस अग्नि देवके चार श्णंग, तीन पाद, दो क्षिर
ओर सात हाथ हु" तौन तरहसे अथवातीनजगहूरबेधा हआ है, बड़ा भारी देव है, सब कायो का पुरा करनेवाला 1
दहै, नो यहां मनुष्यो के बीच आविराजा है ।। भगवान् अन्ति देवके सात हाय चार श्युंग, सात जिह्वा दोक्लिर ओर `
तौन पाद ह, सदाही प्रसन्न मुख हःसुखसे बेठे सुन्दर स्मित कर रहै हँ, शई ओर स्वाहा ओर बाई ओर स्वधा
बेटी हुई हं" दायं हाथ मं शक्ति, अन्न, सरक्, ओर सुवा तथा बायें हाथमे तोमर व्यजन ओर धीका पात्रहि, `
एसे भव्य अग्नि देव मेरे सामने विराज रहे है । हे मनुष्यो ! सब प्रदिशाओंमें यही अग्नि देव है, सबसे पिके
` यही हुजा है, यही गभेके बीच मे ह, यही विश्ञेषरूपसेहो रहा है ओर यही होगा, है मनुष्यो ? यद्यपि स्वतो मख
है पर तो भौ आपके सामने विराजमान हो रहा है । हे शष्डिल्य मोत्री मेषकी ध्वजा वाके एवम् पूरवकी ओर `
भूख करके बेठे हुए आप मेरे समान मुद्ध वर देनेवाले हूजिये । अन्वाधान-आचमन प्राणायाम करके, देश्च- ध
कालका कौत्तेन करकेःकरनेवारेको कहना चाहिये कि परमेव रकी प्रसन्नताके लिये किये इस ब्रतके उद्यापनके
होममे, देवताके परिग्रहके लिये, अन्वाधान क्म करता हूँ । इस अन्वाहित अग्निमे जातवेदा अग्निको तथा
भ्रजापतिको इध्मसे, प्रजापति आधार देवता तथा अग्नि ओर सोम इन दोनोको एवम् नेको आल्यसे इस . ` ।
कमके प्रधान देवताओं को इस हव्य द्रभ्यसे इतनी आहूतियोसे
तथा ब्रह्मादिक आहृत देवताओं को नाममन््से ।
ह. एक-एक आज्यकी आहतिसे यजन करेगा, बाकी बचे शाकल्यसे स्विष्टकृत् अग्निको तथा समिधके बन्धनसे `
खको, एवम् अयासअग्निदेव विष्ण अग्नि वायु सूयं ओर प्रजापति ये जो प्रायश्चिच्के देवता हे इन सबको
आज्यसे तथा जाने ओर बे जाने हुए दोषोके निवारण के ल्यि अग्नि ओर मर्तको तीनवार आज्यते, विद्वे- =
, देवताओं को संस्नावसे एवम् जो अंडदेवता वा प्रधान देवता उपस्थित हों मे सबका सांगोपांग कमं विधिसहित =
। यजन करूंगा ! ग््राहूतियोके परमेष्ठी प्रजापति ऋषि ह ¦ प्रजापति देवता है बृहती छन्द है अन्वाघानकी समि- `
चाहिये \ इसके बाद अग्निको चेताकर उसका चारो ओरसे परिस्तरण करना चाहिये । परिस्तरण चारे ओर
` धाओंके होममे इनका विनियोग होता है ! फिर मूरभुवः स्वः स्वाहा प्रजापतय इदं न मम यह् कहकर अन्नम ` |
समिध हवनं कर देनी चाहिये । इसके पीछे समिध ओर कुशाओंको सञ्चहनकर अग्निके परिसम्हन करना
( कुशके विछ्ानेको कहते हे । उसका कम यह् है कि, वेदीके चारो ओरं ईशान कोणसे केकर प्रदक्षिणके क्रमसे वीत. `
उत्तरम प्रागग्र दभं होनी चाहिये । पुवं ओर पडचातूके होना
चाहिए । तथा उनके अगाडीके नीचे उत्तर परिस्तरण होना चाहिये । इसके पी अग्निसे दक्षिण ब्रह्याके जास-
नके चये तथा अग्निसे उत्तर पात्रोके आसनके लिए एक एक प्रागग्र दर्भोको बिखछाना चाहिये, पीछे अग्नि
1 सेकर ईंशानकोण तक दीनवार पानी छिडक कर उत्तर दिका को ओर बि हुई कुशाजोंपर दोनों
५ स्यम रखकर, उसे पानीसे भर, उसमे सुगंधित एूल ओर अक्षतोको
~, मर 4 द ~ : व
हआ बैठ जाता है । जिस समय यजमान उनका गंध अक्षत आदिसे पूजन करता है उस समय ब्रह्मा कहता हैष
कि “ इन्द्रके घरपर बहुस्यतिजी ब्रह्मा बनते हैँ वो ही बृहस्पति इस यज्ञकी रक्षा यज्ञपतिकौ रक्षा करे" मेरी
रक्षा करे, इस प्रकार जपता हुआ यज्ञम मन लगाकर बैठ जाय । यजमान ब्रह्मासे पुता है कि ब्रह्मन् जलका
प्रणयन करूंगा \ यहं सुनकर ब्रह्मा, “ ओम् भू: भुवः स्वः बृहस्पति प्रसुता तानो मुञ्चन्तु अंहसः 1" बृहस्पति- `
` जीसे आन्ञा पाये हृए बे पानी तुमे पापस छुडादे यह मंत्र धीरे तथा पानीकाप्रणयन करो यह उंच स्वरसे कहकर
पीछे मौन छोड दे, इसके पीछे कर्ता दोनों हाथोसे प्रणीता पाको नाकके समीप लाकर अग्निके उत्तरमें रब- `
कर दूसरी कुश्षाओसे ठक दे, उन दोनों पवित्रोको आज्य पात्र पर रखकर उस पात्रको सामने स्थापित करे
फिर उसमें घी करके उसे परिस्तरणके बाहिर उत्तरकौ जोर अंगारोपर रखकर जलते हए कुशोगो आज्य `
पात्रके चारो ओर धमाकर आगे पटक दे, पीछे दो उल्कोसे प्रधान द्रव्य सहित तीन वार पर्य्याग्नि कर उत्क्को
फक आचमन करके अंगारोको अग्निम छोड दे ! अंगुष्ठ ओर उपकनिष्ठिकोसे दो पवित्र लेकर, “ जम् सचि-
तुष्टा" इस मंत्रका हिरण्यस्तूप ऋषि है, सूर्यं देवता है, पुरउष्णिक् छन्द है, आज्यके उत्पवनमे इसका विनियोग . `
होता है । सविताकौ आज्ञामे चलता हुआ में निर्दोष पवित्रे ओर सबके वसानेवाखे सूयं देवको किरणोसितेरा ६
उत्पवन करता हूं । इस मंत्रको एकवार बोल कर तथा दोवार चुषचाप घीका उत्यवन करना चाहिये \ उन
दोनों पवित्रोका पाणीसे प्रोक्षण करके अग्निम डाल देना चाहिये ! उस समय यह् स्कन्दके लिये स्वाहा है । यह
मेरा नहीं है \ इस अर्थके ऊपर लिखे हुए मंत्रको मुखसे कहना वेध है । इसके पीछे जपने सामनेकौ भूमिका प्रोक्षण
करके वहां ही उत्तरकी तरफ अग्रभाग करके वहां बह्कि बधनेकौ रज्जुको बिचछाकर उसपर आज्य पत्र
` . रखकर वये हाथमे कुशा ओर दायें हाथमे लुक् ले अग्निे तथा दर्वीको रखकर पछ बयं हाथमे सुवाल
ओर दाये हाथमे कुञ्च लेकर उस सवके बिलको तीनवार शुद्ध करे । इसी तरह अपने सामने तीन वार सुवकौ `
पीठको शुद्ध करे, पीछे कुरशोकी जडोसे चछुवोके बिलकी पौठसे लेकर ऊपरके बिलतक तीनवार ुद्ध करके फिर `
नीसे उनका प्रोक्षणं करके पौछ उन्हुं अग्निसे तपाकर घृतके उत्तरम रख देना चाहिये, फिर इसी तरह सुचको `
करके पीछे उसका प्रोक्षण करके वासे उत्तरको ओर रख दे । दर्भोका पानो प्रक्षालन करके उन्हे भी
आगमं पटक दे । सुवसे घौ ठेकर होमकी चीनोमे मिला देः पौछ उसे उत्तरकौ ओर उद्वासन करके घी ओौर
गके बीचमें केजाकर घीसे दक्षिणकी ओर कुशासनके कुहामोपर रख दे 1“ जोम् विद्वान न ”' इत्यादि `
ऋचाओंका ष वसुश्रुत ऋषि है, अग्नि देवता है, त्रिष्टुप् छन्द है ! दोका पूजनम तथा एकका उपस्थानम
एसेपार खगा देते हैनैसे
परमाव हद कासि ५3
उत्तरम भी इसी तरह हवन करना चाहिये ।“ अग्नये स्वाहा ” इदमग्नये न मम, यह् सेने अग्निके लियि दिया
अब इसमे मेरा कछ नहीं है । दल्लिणमें “ ओम् सोमाय स्वाहा, इदं सोमाय नमम" ये सोमके व्य है इस पर
मेरा कोई सत्व नहीं है, इन दोनों आहुतियोके पीछे प्रधान होम करना चाहिये । इसके पौषे विना संत्रके ही
ब्रह्मादिक देवताओंको एक एक आहति दे “ ओम् ब्रह्मणे स्वाहा” यहांसे लेकर “ ओम् वैनायक्यै स्वाहा "
यहां तक आहुतियाँ हैँ एक एक पर एक एक आहूति देनी चाहिये । अथ स्विष्टकृद्धोम--"“भमयदस्य कर्मण |
इस मंत्रका हिरण्यगभं ऋषि है, स्विष्टकृत् अग्नि देव है, अतिधृति्न्द है, स्विष्टकृत् हममे इसका चिनियोग
होता है! इस कर्मका मुस कुछ बाकी रह गया हौ या उसमे मुञ्चते कुछ न्यूनता आ गयी हौ तो उसे संभालने-
` बाख ज्ञाता स्विष्टकृतं अग्निदेव, सबको अच्छा कर दे । यह् विधिके साथ किये गये हवनको प्रहुण करनेवाले
सभी प्रायदिचत्तकी आहूतियोके कामोका समर्थन करनेवाले एवम् अच्छी इष्टी करनेवाले अग्नि देवके ल्यि
` है! ह अग्ने! हमारी सब कामनाओंको पूरा करिये, यह अच्छी इष्टी करनेवाले अग्निकिल्यिंहै ।मेरेल्यि
नहीं है । इससे तीन बार सन्धान करके पीछे पश्ुपति खरके चये स्वाहा है यह् पञुपति करके च्यिहैमेरानहीं
है। इससे एक आहूति देकर पीछे हाथ पेर धो डाले । पीछे सुवेसे सात प्रायर्चित्तको आहुति्या दे । इन सातो
आहूतियोके भिन्न भिघ्च मंत्र हं । उन्हुं यही मूलम लिखा है । उनके जथ यहां च्खते हँ । “ मम अयाष्च
इस संत्रका विमद ऋरि वनियोग `
होता है । हे अयास् अग्ने, आप हमारी बुराईको दुर करना, कयोरि यो
कि आप वास्तवमे अयासं हो तथा आप वयस-
सभी अयास हौ परिपूर्णं हविको देवोमं पहुचाते हो : ।है अयास् । हमारे ल्म मेषजको धारण करो । ' ओमे
अतो देवा तथा ओम् इदं विष्णुधिचकमे “ इन दोनों मंत्रोके काण्व मेधातिथि ऋषि ह" पहिलेके देव तथा दरस- `
रेके विष्णु देव देवता हे, गायत्री छल्द है, प्रायदिचत्तके आज्य हममे इनका विनियोग होता है । हे देवताओं !
आप हमारी उससे रक्षा कर जिससे विष्णु भगवान् पुथिवीके सातो धामों पर चठे थे । यह देवोकीहै ।' मेरी
नहीं है, श्री विष्ण भगवान् अपने लोकसे चके ओर आहवनीय आदि तीनों कुण्डो अंहासे आ विराजे, बाकी `
नित्य घाममें रहे 1 थह विष्णु भगवान्की है मेरी नही है \ भूः, भुवः, स्वः इन तीनों व्याहृतियोमेसे एक
एकके करमज्ञः विदवाभित्र, जमदग्नि ओर भरद्राज ऋषि है, अग्नि वायु ओर सयं देवता ह, गायत्री उष्णुग् `
ओर अनष्टुष् छन्द हैँ तथा तीनोके एक साथ रहने पर प्रजापति ऋषि, प्रजापति देवता ओर बृहती छन्दहैः `
। | प्रायदिचत्तके आज्य हममे इनका विनियोग होता है । ओम् भूः स्वाहा अग्नये इदं न मम-~यह अग्निकिल्यि
| है मेरी नहीं है \ ओम् भुवः स्वाहा वायवे इदं न मम-यह् वायुके लिये है यह मेरौ नही है । स्वः स्वाहा, _ `
सूर्य्याय इदं न मम-यह् सूय्येके लिय है मेरी नहीं है । जम् मुभूवैः स्वः स्वाहा प्रजापतये इदं न मम-यह प्रजा- = `
. पिके लिये है मेरी नहीं है । इसके पीठे, बरह्मा कर्ताकौ प्रदक्षिणाकर अग्निसे वायव्य देशमें बैठकर इन सातो
` आहृति्योको हवन करे जौर यहां आहृति-त्याग यजमानही करे 1“ ओम् अनात्नातम् " इन दोनों मंतरोके हिरण्य- `
गर्भं ऋषि है अग्निदेवता है, त्रिष्टुप् छन्द है, जाने ओर बे जाने दोषके निवारणके लिये प्रायदिचत्तके आज्य
' हममे इनका विनियोग होता है । हे अग्ने ! इस यज्ञम जो जानके विनाजाने दोष हज हौ आप सबको यथा- `
बत् जानते है, इस कारण आप उसका निवारण करदे । यहं अग्निक लिये है, मेरी नहीं है, पुरुषसे ज्ञ तथा = `
यलञसे पुरुष होता है ! हे अग्ने ` यज्ञकी मेरी त्रुटियोको आप जानते हौ आप यज्ञको निर्दोष करदे । यह् अग्निके
नहीं है ।। ^. न् थ यत्पाकत्रा “ इस मंच्रके आष्त्य य त ऋषि है, अग्नि देवता है, त्रिष्टुप् छन्द है, `
( ५ | ५ | : ` नतस्जं- | 1 | | ९1१ न्ल्-~
००००७७०५
बाद पूर्णाहुति दे । पूर्णाहुति कैसे दी जाती है सो लिखते है-लुवासे बारह वार था चारवार धौ लेकर लुक्ूको'
भर लेना चाहिये फिर लक्के ऊपर सीधा सुवा रखकर फिर उसे ओंधा रख दे, पौ सुक्के अग्र भागसं
पुष्य अक्षत ओर ताम्बर रखकर सव्य हाथसेलुक् ओर सवके मूलको रखकर हाये हाथसे शंखमुद्रा पू्वेक
` सव लकको शे उसीपर दष्टि जमाकर देठ जाय ¦ “ ओम् धामं ते “ इस मंत्रका वाम्देव ऋषि है, अप देवता `
जगती छन्द है, पूर्णाहुतिके होममे विनियोग होता है । हे जल देव ! तेरा तेज अखिल विवमं फला हृभाहै, ५
समुरफे हृदये भीतर आपका आयु है मीठी जो तेरी रमि पानौके समुदायमें है, मे उसीका भोग करता हूं । `
इस संत्रको कहता हज जौके बराबर धारा तब तक अग्निम पडती रहे जबतक किं थोड़ासा बाको न रह जाय, = `
जल देवके व्ि बह है मेरा नहीं है, यह कहकर आहुति दे-दे-“ ओम् विष्वेभ्यो देवेभ्यः स्वाहा! ” इस मंत्रसे `
संलावका हवन कर वे, यह विश्वे देवाओके लिये हैँ । पीछे कुशाजपर पणं पात्रको रखकर, उसे दयि हासे
छते हए कहना चाहिये कि, तू पूणं है मेरा भी पुरा हो, तू सुपणं है मेरा भौ सुपण हो, तु सदृहै, मेराभीसद्
होः तुसबहै, मेरा भी सब हो, तु अक्षिति है, मुक्ते भौ अक्षय करदे, इस प्रकार जपकर पाच दिक्षाओमें उनके `
. मंसे कुश्च जर छिडकना चाहिये । वे मंत्र ये ह-प्राची दिक्ञामे सुयोग्य ऋत्विजो माजन करं । दक्षिण दिशामं
भास ओर पितर माजेन करे । परटिचम दिकामें ब्रह ओर पत्र मार्जन करे । उत्तर विदाम आप ओषधि ओर `
वनस्पति माजेन करं । ऊध्वं विक्षामे यज्ञ, संवत्सर ओर प्रजापति मार्जन करें । दिश्षाओके माजेनके बाद एक `
. स्वरसे नीचे लिखे “ आपो अस्मान् मातरः ” इत्यादि भंत्रोद्वारा कुशजलसे अपना साजेन करना चाहिये! `
“मम् मापो अस्मान् ” इस मंत्रका दवश्चवा ऋषि है, आप देवता हँ जिष्टुप् छन्द न, माजंनमं विनियोग होता = `
“1 संसारकी माकीसी पालन करनेवाङे आप हमे भोक्षणसे शद्ध करे । जरसे पवित्र करनेवाली जलसे पवित्र
मापः “ इस मंका सिन्धुदीप ऋषि है, आप देवतः है, अनुष्टप् चन्द है, माजेनमे इसका विनियोग होता हं । `
खो ! जो मी कुछ मेरेभे इरित हें उन्हे बहा लेजाभो, जो मेने कि सीसे स्ूढा वैर किया हैःतथा किसीको
गाली दी है मथवा जो मृक्षसे करते हो, इस पापसे म्न चुंडादे, हमे भाय ओर ओषधियां अच्छे मित्रवाली
दुखदायौ उसे हो जो हमसे वेर कररता है या जिससे मे वेर करता हुं । वे उसे मारता हूं । यह् सत्र कह कर `
नेशऋत्यकोणमें कुशाञोंसपानी छिड़क दे ! इसके पीछे ब्रह्माजी यजमानके बाये पादवंमे बेटी हुई यजमानपत्नीकी `
अंजलिमे पुणंपात्रके पानीकौ ^ ओम् माहं प्रजाम् “ इत्यादि मं्रको पूरव की ओर मुख करके कहता हुआ या
` कहुलाता हज भर दे ! मं्ाथे-मे अपनी उस प्रजाको परे न फक् जो कि, मूष्े प्राप्त हो रही है, हम तुम्हें समु-
मं सलेजायगे वहां भाप अपना पीना । इसके पौ ब्रह्माको चाहिये कि, उस जलसे पाप निवारणके ल्यि जपि _ |
पजमानपत्नीका प्रोक्षण मानपत्नी उस पानीको कुक्ञाओं पर छोड दे! अथवा यजमान- `
कुशाओपर रखकर सीषे हाथमे पुणे पात्र लेकर “ जोम् माहं प्रजां
1 करे, देवी आप, मेरे सब अनिष्टोको दूर कर रही हे, मे पानीसे पवित्र होकर ही स्वगं जागा ।\ “ ओम् इद- ` |
११.१४६ +}! 4 १ „५२ | ` १८९ चन ११२११९५.
हमारे क्रोधी बीरोकोही मारियेगा, क्योकि हम आपको सदा ही अपने धरपर बुलाते रहते है, “ ओम् श्र्यायुषं
जमदग्ने :” इस यंत्नसे ललाटमे “ ओम् कर्यपस्य त्यायुषम् ” इस मंन्रसे कंठमं “ ओम् अगस्त्यस्य व्यायुषम् ”
इस संत्रसे नाभिमं “ ओम् यदहेवानां च्यायुषम् ” इस मत्रसे दये कन्धेपर “ ओम तन्मे अस्तु व्यायुषम् ” इस्त
भंत्रसे वाये कन्धेपर एवम् “ ओम् सर्वमस्तु शतायुषम्” इस मंत्से श्िरपर विभूति लगाना चाहिये । अ्थ- |
. ओर पानका निवेदन करके भगवान्की प्राथना करनी चाहिये कि, जिसके स्मरणसेही यज्ञ दान तप आदिकी
.. जमदग्नि, कश्यप, अगस्त्य ओर देवोके तीनो आयुष्य हे बे सब मेरे भयुष्य हों सब शतायु हों । विभूति धारणके ` |
बाद उत्तरम परिस्तणोको छोड़कर तीनवार परिसम्हन ओर प्रोक्षण करके पीर एूोसे अल्कृत करि, नैवे
स्यूनता शीघ्र पुरी हो जाते है, मे उस अच्युतके लिये नमस्कार करता हूं । यज्ञमे कमं करके हुए हमसे प्रमादके ध |
वज्ञ होकर कोई गरती हौ तो वो विष्णु भगवान्के स्मरण से पुरौ हो जाय ) पीछे विष्णु भगवान्को नमस्कार |
। करके कहना चाहिय कि इस करमसे विपु भगवान् प्रसन्न हो जाओ । हे परमेदधर ! ह सुरमरेष्ठ ! आष अपने |
धामको पघारिये । हे हृताशन ! जहां बरह्मादिकं देवता गये हौ, वहां हौ आप भौ पधार जाइये । इसप्रकार |
अग्निका विजन करना चाहिये \ इस प्रकार होमका संपादन करके उत्तर पुजा कर तथा आचाय्यको पूजन करके |
उन गाय देनी चाहिये, “ यज्ञसाधनभूताया :" यह गो दानका सत्र ह कि, जो यत्तको साधनभूत है सरेपापों |
का नाञ्च करनेवाली है, एेसी गऊके दानसे विङ्वरूपधारी भगवान् प्रसन्न हो जाये । इसके बाद ब्राह्मण भोज- |
शिद्ध करलेके लिये तथा फिर आनेके लिये मेरौ पर्थवौ परजा लेकर अपने अपने लोकको जायं ! ( केवल गण `
पडकजप्रसूृतेव सा ।। पूर्वोक्ता सुकली या च प्रादेशे निःसृतांगुलिः । व्याको्मुद्रा `
` मुकुला पद्ममुद्रा प्रकीतिता। अगुष्ठो कुञ्चिता ५
उच्चावभिम्खौ हस्तौ योजयित्वा तु निष्ट्रा । तजन्यौ कुञ्चिते कृत्वा तथेव च॒
` कनीयसी ।\ अधोमुखी दृष्टनखा स्थिता मध्ये करस्य तु\। चतस्रह्चोत्थिताः पृष्ठे `
¢ अगुष्ठावेकतः कर ।\ नालं व्यवस्थितौ दौ तु व्योममुद्रा प्रकीतिता ता ।! तन्त्रान्तरे `
८ मका संकत्प करके “ यान्तु देवगणाः “ इससे देवोका विसंजेनं करना चाहिये कि, सब देवगणं मेरे इष्ट कामोको ` ~
| ८ पतिजी ओर लक्ष्मीजी रह जायं ) देवविसर्जन करनेके पीछे पोछ आचायके लिये दे देना चाहिये ।। यह् अग्नि- ` ५ ।
मुखका विधान पूराहुमा \ त
; अथ मुद्रालक्षणम् | 1 ५५
हेमाप्रो-संमुखीकृत्य हस्तौ हौ किचित्सकुचितांगुली ।। सुकली तु समाख्याता
कुञ्चितान्तौ तु स्वकी्यागुल्वििष्टितौ |
सवेदेवतापुलनसाधारण्येन षण्मुद्रा उच्यन्ते ।। देवताननसंतुष्टा प ष्ट श वेदा संमुखी
| भवेत् ।\ अगुष्ठो निक्षिपेत्सेयं मुद्रा त्वावाहनी
स्वासं ५ जनिका 1 अघं
५ ` क.
घोमुखी त्विय चेतस्यातस्थापनीमुद्रिका मता ।। उच्छितावुच्छि- `
संमुखीकरणी तथा । संकलोकरणी चव महामुद्रा तथैव च \\ दाङ्धचक्छगदापच्च-
` धेनुकौस्तुभगारुडाः ।। श्रीवत्सवनमाके च योनिमुद्राः प्रकोपिताः । एतामि
सप्तदाभिस॒द्राभिस्तु विचक्षणः ।॥ यो राममचयेन्चित्यं मोदयेत्स सुरश्वरम् ।।
द्रावयेदपि वि्रन्र ततः प्राथितमाप्तुयात् ॥। मलाधारादढादान्तमानीतः कुच +
` उजलिः । त्रिस्थानगततेजोभिविनीतः प्रतिमादिषु ।\ आवाहनी च सुद्रा स्याह
` चेनविधौ मुने । एषवाधोमुखी मुद्रा स्थापने स्यतं पुनः, उन्नतागुष्ठयोगेन मुष्टौ- `
कृतकरद्रया ।। सलिधीकरणी मद्रा देवाचनविधो सने ।। अंगुष्ठगभिणी सव कृत्न _
स्यात्सन्चिरोधिनी ।\ उत्तानमुष्टियुगला संमुखीकरणी सता !\ अङ्कैरेवाङ्धविन्यास
` संकलोकरणो भवेत् !। अन्योन्यागुष्ठसंलग्नविस्तारित करद्वया ।। महास?
माख्याता व्यनाधिकसमापनी।। कनिष्ठानामिकामध्यान्तः स्थागुष्ठात्तदग्रत्
गोपितांगुष्ठमूलेन सन्निधो मुकुलीकृता ।\ करदयेन मुद्रा स्याच्छ्भा्यय पेयं सुराचन ॥। _
अन्योन्याभिमुखस्पदाव्यत्ययेन तु वेष्टयेत् !। अंगुलीभिः प्रयत्नेन मण्डलीकरण |
सुनें \\ चक्रमुद्रेयमाखस्याता गदामुद्रा ततः परस् ।। अन्योन्याभिमखाषिलष्टा ५
ततः कोौस्तुभसंलिका ।\ कनिष्ठेन्योन्यसंलग्नेऽभिम्खं हि परस्परम् ॥ वामस्य ध
तजेनीमध्ये मध्यानामिकयोरपि ।। वामानामिकसंसष्टा तजेनीमध्यद्योभिता ।।
पययिणानतांगष्ठदयी कोस्तुभलक्षणा ।\ कनिष्ठान्योन्यसंलग्न विपरीतं तु योजिता।
1 त॒ ॥ तजम्यंगष्ठमध्यस्था मध्यमानामिका-
प्स्भाका | त - 4.1 हन्ता स्द्ु्त - ~. =. +
लोतो
करणी मुद्रा “ होगी \ दोनों हा्थोकी अगुलियां फैलाकर फिर उन दोनों को भिलाकर हदयपरः करनेसे
८ प्रार्थना मुद्रा ” हो जाती है । उन छं मुद्राओं को सब देवताओके पूजनम दिखाते ! शिवपूजनमे लिगमुदा ए
करनी चाहिये । उठे हृए दाये अंगूढेको बये अंगूठेसे बाध दे तथा बाँथे हाथको अंगुल्योको दपि हाथकौ
हाथ की अंगुलियोसे वेष्टित कर दे, उस समय “¶्गसुद्रा" होती है । यहं श्िवका सान्निध्य देनेवाल होती
है । श्रीकामवाला इस मुद्राको रपर तथा राज्यकामी नेत्रोपर, अघ्नादि चाहनेवाला मुलपर, रोगशन्ति |
चाहनेवाला ग्रीवापर, सब चाहनेवाला हृदथपर, ज्ञान चाहनेवाला नाभिमण्डल्पर, ज्यकामी गह्यपर |
ओर राष्टकामी पैरोपर इस मूद्रासे स्पज्ञे करे \ रामपुजनमं १७ मुद्राएं होती ह, एेसाही रामाचन चन्दिकामं
अगस्त्यजीने कहा है कि-आवाहनौ स्थापनी, सक्िधौकरणी, सुसंनिरोधिनौ, सन्मुखीकरणौ, संकलीकरणौ,
महामुद्रा, शंखम॒द्रा, चक्मुद्रा, प्यमुद्रा, गदामुदरा, धेनुमुद्रा, कौस्तुभमुद्रा, गरुडमुद्रा, श्रौवत्समुद्रा, बनमाला ` नि
अद्रा ओर योनिमुद्रा ये सत्रहमुदराये हँ \ जो बुद्धिमान इन सत्रहो मुद्राोसे देवाधिदेव भगवान् रामका अर्चन =
` करता है, एवम् उन्हं परस करता है, वा उनके हृदयको अपनेयर दयालुं बना जो चाहता है सोरे केताहें । ९
` मूलाधारसे लेकर द्वादशांततक लाई हई जो कुसुमांजलि है, उससे प्रतिमाके तेजको वृद्धि होतीहै, हैमने!
देवार्चनविधिमें “आवाहनीमुदरा” ही श्रेष्ठ है, फिर इसी मुद्राको स्थापनके समयम अधोमुखी मुद्रा कहते हँ ।
दोनों अगूोको ऊपर उठाकर मुट्ढौ कर लेनेसे “ सक्तिधीकरणी मुद्रा ” बन जाती है जो कि देवाचेनमे उपयुक्त `
है! उत्त किये हृए अंगूढोके साथ दोनों हाथोकी मुट्ठी करनेसे “संनिरोधिनी मुद्रा" बन जायगी, मुट्ठी `
ऊँचको दोनों मुट्ठी करनेपर “ सम्मुखी करणी ” बन जायगी, अंगोसे गोका विन्यास करने से ^ संकलीकरणौ ५
मुद्रा बनती है, अगरढोको आपसमे लगे रहते हृए भी हाथको फैला देनेसे “ महामुद्रा ” बन जाती है । वह कम `
वेश्षकी पुति करनेवाली होती है ।कनिष्ठिका ओौर अनाभिका ये दोनों अंगुलियां विचली अंगुलियोमेके अन्तम ` ५
। आ उपस्थित हुए अग्रभागमें छिपौ हुई हों एेसा ही जिसका संस्थापन हो तथा अंगूठेका अग्रभागं उनमें छिपा न
हभ हो इसे ^ मुक्ुलीकरण मुद्रा ” कहते हें । देवपुजामे दोनों हाथों मे “. शंखमुद्रा “ बनती है, इसमे अंगु- |
लियो कौ नोकोको आपसमे वेष्टित कर दे । अंगुलियोको प्रयत्नके साथ गोल करने पर, “चक्रमुद्रा" बन जाती
है । एक एक के सामने सामने करके मिलाने से “ गदा मृद्रा “ होती है । दोनों कनिष्ठिकां आमने सामने `
आपसमें भिलगयी हो तथा बे हाथकी तजंनीके बीचमे एवम् मध्य ओर अनामिकामे दूसरे हायकौ मध्या ` |
ओर अनांभिका मिल गयौ हों, तजेनी मध्यमे द्ोभित हो, रमसे दोनों अंगूठे जिसमे नमते हो उसे “कौस्तुभम `
मृद्रा कहते हं । कनिष्ठिका हो, अगे रुडमुद्रा त र्ते
ह 1 तजनी ओर अगुष्ठके बौचमें मध्यमा ओर अनामिका दोनों आजानी चाहिये ! कनिष्ठिका ओौर अः
निका त्जनीके मध्यमे आनी चाहिये, यह ' श्रीवत्समुद्रा” कहावेगौ, कनिष्ठा अनामिका ओर मध्याकी
एकमूटि बांधनी चाहिये जिसमं तजनी उदी । चाहिये |
मुद्रा“ बनजाती है । दोनों हा्थोकौ अनामिका दोनो हा्थोकी
| खः खडी हो, मध्यस्थलमं अंगृठे हो तो “ योनिमुद्रा ” बनतौ श है, यह् पजनमें अतिभरष्ठ ति त श्वेष्ठ मुद्राओके लक्षण
र्थ दिखाकर उनकी संख्या लिखो है, उसमे ज्यादा कम हो जाते हं तथा कं
+ (1 0120 म णा 4 ह 0 प 01 114 ५
` 9 2 ० ्
पृष्पदानं ततः पुनः ।\ गीतं वाद्यं तथा नृत्यं स्तुतिश्चेव प्रदक्षिणाः \। पुष्पाञ्जलि-
` नमस्कारावष्टत्रिञत्समीरिताः ।। इत्यष्टनि्ादुपचाराः ।। अन्यच्च-आसनं `
स्वागतं चाध्यं पाद्यमाचमनीयकम् \\ मधुपर्कासनस्नानवसनाभरणानि च
सुगन्धः सुमनो धूपो दीपमल्चेन भोजनम् ।। माल्यानुलपने चव नमस्कारविसजेनं ।। |
इति षोडशोपचाराः ।\ अर्ध्यं पाच्यं चाचमनं स्नानं वस्त्रनिवेदनम् ।। गन्धावयो
नैवे्यान्ता उपचारा दश्च कमात् \\ शारदातिल्के षोडशोपचारा उक्ताः ।\ ते च- `
आसनस्नानवस्तराणि भूषणं च विवर्जयेत् । रात्रौ देवाचेने तेश्च पदा्थदरद्हैः
कमात् \\ पूजनं कपिलेनोकतं तत्सर्वं च विसजजयेत् \\ गौन्धतेलमथो दद्याहेवस्या- `
प्रतिमं ततः ॥ अर्व्यादिद्रघ्याणि ।! दूर्वा च विष्णुक्रान्ता च इयामाकं पदमेव `
च|) पाद्याङ्धानि च चत्वारि कथितानि समासतः \) कप्रमगुरु पुष्पं द्रव्याण्या- ` ५
चमनीयके ।। सिद्धा्थ॑मक्षतं चे वदूर्वा च तिलमेव च ।। यवगन्धफलं पुष्पमष्टाद्धं `
` त्वर््यमुच्यते ।। स्नाने वस्त्रे तथा भध्ये द्यादाचमनीयकम् । उद्रतनपदार्थाः ॥
उद्तेनमपि तच्रैव-रजनी सहदेवी च शिरीषं लक्ष्मणापि च ।। सदाभदरा कुशग्राणि
उदतनमिहोच्यते ।। मन्त्रतन्रपरकाशे-अक्षता गन्धपुष्पाणि स्नानपात्रे तथा त्रयम् ।॥ `
उपचारदरव्याभावे प्रतिनिधिः ।\ तत्रैव-्रव्याभावे प्रदातव्याः क्षाल्तास्तण्डलाः `
तुलस्या कस्य गणाधिपम् ।। न दूवेया यजेदेवीं बिल्वपत्रश्च
विष्णोवज्यं सदा बुधं ५ । “अक्षतास्तु यवा ताः भो प्रोक्ता
: परिभाषा] हिन्दीदीकासहित, : (५९).
वक्तुमहंसि ।। श्रीकृष्ण अवाच ।। साधु साधु महाबाहो कुरुराज युधिष्ठिर 6
रहस्यानां रहस्यं ते कथयामि ब्रते तव ।। संपु्णता कृता यत्र तत्र सम्यक् फल-
` फलप्रदम् 1! यच्चीर्णं नरनारीभिभेवेत्संपणेकारकम् !। अवद्यं तच्च कर्तव्यं `
संयूणंफलकांकिभिः ।। किचिद्दुग्नं प्रमादेन यद्व्रतं त्रतिना स्थितम् ।\ तत्संपुणणं
भवेत्सवं त्रतेनानेन पाण्डव । उपद्रवे्बहुविधर्महामोहाच्च पाण्डवं \\ यद्भूग्नं |
किंचिदेव स्यादुव्रतं विघ्नविनारनम् ।! तत्संपुणं भवेत्पाथं सत्यं सत्यं न संशयः।!
काञ्चनं रूप्यकं रूपं शिल्पिना तु घटापयेत् \\ भग्नत्रतस्य यो देवस्तस्य सूपं
: विनि्दिशेत्।त्रतं स्त्रीपुंसयोः पाथं प्रारन्धं यदुबरतं किल । न च निष्पादितं किचि- |
। हैवात्सर्वं तथा स्थितम् ।। द्विभुजं पडकजारूढं सौम्यं प्रहसिताननम् ।। निष्पादितं |
क्िल्पिना च तस्मिन्नेव दिने पुनः।। तन्मानं तु मनःप्राप्तं ब्राह्मणेविधिना गृहे |
स्तापयेत्पयसा दध्ना धुतक्षौद्ररसाम्बुभिः।! वस्त्रचन्दनपुष्पेदच पूजां दुर्यात्स- |
| माहितः।\ तोयपुरणस्य कुम्भस्य सुने विन्यस्य देवताम् ।\ धूपदीपाक्षतेवेस्त्रे
रल्नर्बहुप्रकारकेः ।। अर्घ्यं प्रवदयात्तन्नाम्ना मन्त्रेणानेन पाण्डव । उपवासस्य `
दानस्य प्रायर्चत्तं कृतं सया ।! शरणं च प्रपन्नोऽस्मि कुरुष्वाद्य दयां मम ।\ `
। व्रतच्छिद्रं तपरिच्रं यच्छिद्रं त्रतक्मणि।सत्सर्दत्वत्मरसादेन संपूर्णं यतां मम ¦ प्रसन्नो `
। भव भीतस्य भिन्नचयंव्रतस्य च ।। कुर प्रसादं संपुर्ण वरतं संजायतां मम ।। पूर्वेदक्षिण-
। योः पदचादुत्तरे च बालि हरेत् ।। उषेयधस्तात्सरवेभ्यो दिक्पालेभ्यो नमो
। इदमध्यमिदं पाद्यं तेभ्यस्तेभ्यो नमो नमः ।। पादौ च जानुनी चेव कटी शीषेक- `
बक्षसी । कुक्षिं तु हदयं पृष्ठं वाक्" चक्षुद्च शिरोरुहान् ।। पूजयित्वा तु देवस्य `
ततः पश्चत्क्षमापयेत् ।। पुजितस्त्वं यथाशक्त्या नमस्तेऽस्तु सुरोत्तम ।! एेतिहिका- `
मुष्मिकीं देव कायेसिद्धि दिशस्व मे । एवं क्षमापयित्वा तु प्रणमेच्च प्रयत्नतः । `
तन्मूतिं च द्विजातिभ्यो विधिवत्प्रतिपादयेत् \। स्थित्वा पुवेमुखो "विप्रो गृही प
द र दरभेपाणिना ।। विप्रहस्ते प्रयच्छेच्च दाता च चैवोत्तरा कौन्तेय
नमस्कार ओर विसर्जन ये (सोलह) शोडडा उपचार ए काते
0 ब्रतराज [सामान्य
१ [नि ०111 11111 निवि धद क ^
‰# `
ष्ठाङ्किरसां तथा ।। वचनान्नार दादीनां पूणं भवतु ते त्रैतम् ।! एवं विधिविधानेनं
गृहीत्वा ब्राह्मणो बजेत् ।\ दाता तत्प्रषयेत्सवं ब्राह्मणस्य गृहे स्वयम् ।\ तत
पञ्चमहायज्ञान्कृत्वा वै भोजनादिकम् ।। एवं थः कुरुते भवत्या ब्रतमेतन्नरोत्तम ।॥
तस्य संपूणतां याति तद्व्रतं यत्पुरा कृतम्! खण्डं संपूर्णतां याति प्रस त्रतदैवते ।। `
भग्नानि यानि मदमोहवश्चाद्गृहीत्वा जन्मान्तरेष्वपि नरेण समत्सरेण ।। संपृणे-
प्रुजनपरस्य पुरो भवन्ति सवेत्रतानि परिपूणेफलप्रदानि ५
अथ उपचार-पदा्थदिन्नीमें ज्ानमालासे जेकर लिखा
लखा है कि ३८,१६,१० आर पांच (५) ये उपव्वार है `
१ इन्हें यहाँ मे अलग अलग दिखारंगा तथा इनके करनेसे क्या फल होता है सो भौ लिखूंगा \ अध्ये, पाद्य, ~ ५
` आचमन, "मधुकं, उवटन, स्नान , आरती, वस्त्र, आचमन, उपवीत, पुनराचमन, अलंकार, |
गंध, पुष्प, धूष, दीप, नैवेद्य, पानीय, तोय, आचमन, करोदरतन, पान, अनुप, पुष्यदान, गीत, वाद्य, नृत्य, |
: ४ स्तुति, दक्षिणा, पुष्पाजकि नमस्कार, ये अडतीस उपचार ह् ॥ अथ षोडशा उपचार-आासान, स्वागत, अध्य ४. | ॥ |
. . ८, ओर बस्त्रनिवेदन तथा गंधसे लेकर नवेद्यतक क्रमसे दहडपाचार हीते हं । शरदातिलकमं सोखह् उपचारं
ते हे । दश्लोपचार-अष्यं, पाद्य, आचमन, स्नान `
तिलकम बतायाहैकि, `
उदर्ततमे म ग्रहणकी ्णफी जातत है । स्नानपान्रके `
किये हृए तेडल लेने चाहिये, १ वहीं ही ह
परिभाषा] | हन्दीदीकासहित = ` ` (६१) -.
व स
नि
पाता है, अन्यथा नहीं पाता \ त्रत मंगमें संपू्णं करनेकी विधि-हेमाद्रिने भविष्य पुराणको केकर कही है ।
युधिष्ठिर महाराज श्रीकृष्ण परमात्मासे पुने लगे कि , ब्रत कंसे पूरे होते ह ? इस गुप्त विषयको मुञ्चे बत- `
लादय ! श्नीकृष्णजी बोले कि, हे महाबाह कुरुराज युधिष्ठिर ! यह् रहस्योका भौ रहस्य है, मं तेरे लिय
` कहा । जहाँ ब्रतकी संपु्ण॑ता करदी वह ही वहं अच्छे फलका देनेवाला होजाता है । जिसके कियेसे संपुणं-
` कारक हौ जाता है, सम्पणेताकोचाहुनेवाले स्त्रीपुरुषोको चाहिये उसे अवक्य करें । ब्रत करनेवाखोके प्रमादसे
जोव्रत भग्न हज पडादहो वौ त्रत, ह है पाण्डव ! इसके करनेसे पूरा हो जायगा । अनेक तरहके उपद्रवोसे `
तथा अज्ञानके कारण जो विघ्ननाक्षकं ब्रत भग्न होगया हो,वो इसके कियेसे परा होजायगा, इसमे कोई भी `
सन्देह नहीं है । जिस देवताका व्रत किया हो उसी देवताकी सोने चांदीकी मूति किसी कारीगरसे बनवाक्नौ
चाहिये, जिस किसीने इस ब्रतको किया हौ पर वो पूरा न कर सका हो दैवात् विघ्न उपस्थितहो गयेहैतो
समाधानभी उसौको करना चाहिये । उसी दिन किसौ शित्पीसे एेसी मूति बनवानी चाहिये, जो कमलासनपर =.
विराजमान हो, उसके दो भुजां हो, सुन्दर हंसता हृभा मुख हो, जितने प्रमाणकी मन चाहे उतने ही बनवाना . ।
चाहिये, फिर घर पर उसे ब्राह्यणोसे स्नान कराना चाहिये । स्नानके पानीमें दही, दूष, घत ओर सहद मिला ` |
. रहना चाहिये, स्नानके पीछे वस्त्र चन्दन ओर फूलोसे देवताकौ पूजा करनी चाहिये, हे पाण्डव ! निसा |
उद्यापन किया जारहा हौ पहिले पणंकुम्भके ऊपर उस देवताको स्थापित करके उसी देवताके नामसत्रसे
धृष, दीप, अक्षत ओर अनेक तरहके रत्नोसे अर्यं देना चाहिये, उपवासं ओर दानका प्रायष्चित मेने कर |
दाहः में जपके शरण ह, अब आप मृञ्षे पर दया करं । ब्रतका छिद्र, तपका छिद्र एवम् जो व्रतके कमम
छिद्र हो, वो सब आपकी कृपासे परे होजारं मं व्रतकी गलतीसे बडा डरा हुं मेने ब्रह्मच्चर्य्यकाभीपालननहीं
कियाहै, आपम् क्षपर कृपा करें जो मेरा त्रत पुरा होजाय । पुवं ओर दक्षिणके पीछे उत्तरम बलि देउत्तरमं
बलि दे, पीछे ऊपर ओर नीचे बलिदान करे, सब दिक्पालोको बलि देता हुजा उन्हं नमस्कार करके कहे कि,
ीजिये यहु आपका अर्यं है, यह आपका पाद है, जप सबके लिये मेरा वारंवार नमस्कार है । देवताके `
चरण, जानु, कटी, ्लीषक, वक्ष, कुक्लि, हदय, पृष्ठ, वाक्, चक्षु, ओर वालों को पुजकर क्षमापन करना चाहिये}!
हि सुरोत्तम ! जेसी मेरी शविति, थी, उसके अनुसार मेने आपका पुजन कर दिया, अब आप इस लोक ओर ` (1
। परलोक दोनोकी का्येसिद्धि करो \ इस प्रकार क्षमापन कराके प्रयत्नके साथ प्रणाम कर एवम् उस मूर्तिको = `
विधिके साथ ब्राह्मणको देदे.ब्राह्यण भी पुवं मुख करके कुशयुकत हाथसे छे । तथा दाताको देतेवार उत्तराभि- `
`: मुख होना चाहिये । मूतिदान करनेतकं यजमानको निराहार करना चाहिये, तथा मंत्र कहते हुए मूत्तिदान =
देना चाहिये कि, हे टज ! मेने पहिले इस व्रतको खण्डित किया था वो सब आपको मूरति देनेसे पुरा हो जाय, `
` है युधिष्ठिर ! भूति लेनेवाखे ब्राह्मण भी भूति हाथमे लकर व्रतखंडकृतं पजा” इस मंत्रको कहता हुमा ले
कि, जो तुमने अपने व्रतको खण्डित किया था सो इस मूतिके दाने पुरा हो गया, तुम्हारे मनोरथ पूरे होगे । `
जिस बातको ब्राह्मण कहते हँ, देवता उस बातको मानते ह । यह जो कहा जाता है कि, सब देवमय ब्राह्मण है
बात शटी नहीं है । इन महात्मा ब्राह्मणोने समुद्रको खारा, पावकको स्वेभक्षी ओर शक्को सहस्रनेत्र कर `
| डाला! ब्राह्मणोके आहीर्वादसे ब्रह्महत्या नष्ट होजाती है, समग्र अवमेधका फल मिल जाता है, इसमें सन्देह `
| नहीं है । व्यास, वाल्मीकि, पराशर, वसिष्ठ, गे, गौतम, धौम्य, अत्रि, वासिष्ठ, अंगिरस भौर नारदादिकोके
चनोसे आपका त्रत पुरा होजाय, इस विधिविधानसे ब्राह्मण मूर्ति लेकर अपने घरको चला जाय । तथा
देनेवाला स्वयं ही इस सब सामानको ब्राह्मणके घर पहुंचा दे । पंचमहायजञोको करके भोजन करना चाहिये
(१) 3 त्रत समिभ्यि
कार्तस्वरविभूषितम् ।\ आसनं देवदेवेश प्रीत्यथं प्रतिगृह्यताम् ।। एतावानस्येति
पाद्यम् ।। गङ्खादिसर्वतीरथेभ्यो मया प्रार्थनया हतम् ।। तोयमेतत्सुखस्यज्ञं
पाद्यार्थं प्रतिगृह्यताम् ।। न्निपाटू्घ्व इत्यध्येम् ।। नमस्ते देवदेव नमस्ते धरणीधर।। `
नमस्ते कमलाकान्त गृहाणार्ध्यं नमोऽस्तु ते \\ तस्माद्विराछेत्याचमनीयम् ।। `
कर्प॑रवासितं तोयं मन्दाकिन्याः समाहतम् ।! आचम्यतां जगच्याथ मयादत्तं हि
भवितितः\) यत्पुरुषेणेति स्नानम् ।1 गङ्खा च यमुना चेव नमंदा च सरस्वती ।\ |
छृष्णा च गौतमी वेणी क्षिप्रा सिन्धुस्तथैव च !1 तापी पयोष्णीरेवा च ताभ्यः |
स्नानार्थमाहृतम् ।। तोयमेतत्युखस्पं स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम् ।\ पञ्चामृतस्नानं ›
पञ्चामृतस्नानं पञ्चमन्त्रैः पृथक्कारयेत् ।! तं यज्ञमिति वस्त्रम् ।। सर्वेभूपाधिके
` सौम्ये लोकलज्जानिवारणे ! मयोपपादिते तुभ्यं वाससी प्रतिगृह्यताम् \\ वस्त्रे |
च होमदेवत्ये लज्जायाः सुनिवारणे !\ मयोपपादिते तुभ्यं वाससी प्रतिगृह्यताम् ।॥
तस्माद्यज्ञादिति यज्ञोपवीतम् ।! दामोदर नमस्तेऽस्तु त्राहि मां भवसागरात् ।॥ `
ब्रह्मसूत्रं सोत्तरीयं गृहाण पुरुषोत्तम।। तस्मादयज्ञात्स्वेहुत इति गन्धम् ।\ श्रौखण्डं `
चन्दनं दिव्यं गन्धाढ्यं सुमनोहरम् ।! विलेपनं सुरश्रेष्ठ चन्दनं प्रतिगृह्यताम् `
अक्षतास्तंड्लाः शुराः कुंकुमाक्ताः सुञ्ञोभनाः ।\ मया निवेदिता भक्त्या गृहाण |
परमेद्रवर ।! तस्मादश्वेति पुष्पम् ।। माल्यादीनि सुगन्धीनि मालत्यादीनि बं |
प्रभो 1! मयाहतानि पुष्पाणि पुजार्थ प्रतिगृह्यताम् 11 यत्पुरुषं व्यदधुरिति धूपम् !॥ |
बनस्पति रसोः्धूतो गन्धाढ्यो गन्ध उत्तमः !\ आघ्रेयः सर्वदेवानां धूपोऽयं प्रति- `
तिभिरा न म् । मरापहम् । चन्द्रमा मनस इति नैवेद्यम् ।। अन्न ष
: समन्वितम् ।। भक्ष्यभोज्यसमायुक्तं नव्यं प्रतिगृह्य-
परिभाषा] हन्दीटीकासहित (६३) `
अथ सब त्रतोकौ सामान्यपूजा विधि-“ ओम् सहखशीर्षा इस संत्रसे जष्वाहुन करना चाहिये ओर कहना
चाहिये कि, ह सुर सत्तम, हे देवेशा ! हे तेजके खजाने ! हे संसारके स्वामी ! आजाओ आजाजो, को हुई
मेरी पजाको ग्रहण करो ¦ “ ओम् पुरुष एेवदम् ” इस संत्रसे आसन देना चाहिये, कहना चाहिये कि, हे देवदेवेश! `
आपकी प्रसंन्नताके लिये अनेक रत्नोसे जडा हुभा सोनेका सुन्दर सहासन रखा हुञा है, आप इसे ग्रहण करं । _
“ओम् एतावानस्य इस संत्रसे पाद्य अर्पण करना चाहिये कि, मेने गंगा आदिक सब ती्थेपि प्राथना करके ,
यह क्ञीतर पानी चया है, आष पा्यके लिये इसे ग्रहण करं “ ओम् त्रिषादृध्वं ” इस म॑त्रसे अध्यं देना चाहिये
कि, हे धरणीधर ! हैं कमलाकान्त हे देवदेवेश ! आपके लिये बारंबार नमस्कार है, अय इस अध्यको `
ग्रहण करे, आपके लिये नमस्कार करता हुं \ "ओम् तस्माष्ठिराड् ” इस संत्रसे आचमन करावे कि, यह् कवूरसे
सुगन्धित हमा पानी मंदाकिनीसे लाया ह, हे जगन्नाथ ! मं भक्तिके साथ दे रहा हूं जप आचमन करं 1
“ओम् यत्पुरुषेण” इस मंत्रसे स्नान कराना चाहिये कि है देव ! यह् रण्डा पानी, गंगा, यमुना, नमंदा, सरस्वती
कृष्णा, गौतमी, वेणी, क्षिप्रा, सिन्धु, तापी, पयोष्णी ओर रेवा इन दिव्य नदियोसि लाया हु" आपस्नानके
लिये इसे ग्रहण करे, पंचामृतसे स्नान तो पांच मंत्रोसे पृथक् कराना चाहिये “ ओम् तं यक्तम् ” इस संत्रसे वस॒ `
समर्पण कराना चाहिये कि, मे आपको दो वर्त्र देता हूं, आप इन्हं ग्रहण करं ये सब भूषणोसे उत्तम सुन्दर `
है लोकलाजको निवारण करनेवाले ह मेने आपकेही लिये तैयार किये हे \ इन वस्त्रक सोम देवतादहै,
लज्जाके भके निवारक है , मै इन्हे आपके लिये लायाहुं “ओम् तस्मायन्नात्'' इस मंत्रसे यज्ञोपवीत देना चाहिये `
किं, हे दामोदर ! तेरे च्य नमस्कार है मेरी भवसागरसे रक्षा करिये, हे पुरुषोत्तम ! उत्तरीय सहित ब्रह्य-
सूत्रको ग्रहण करिये । “ ओम् तस्माद्ज्ञात्सर्वहुतः ” इस संत्र से गन्ध निवेदन करना चाहिये, कि, हे सुरभेष्ठ
यह् धिसा हुजा गन्धसे परिपूणं मनोहारी दिव्य-श्रीखण्ड चन्दन, आपकी प्रसन्नतके ल्यि तयार है, अपडसे `
ग्रहण करें । हे परमेश्वर ! कुंकुमसे सने हए सुन्दर अक्षत मैने भक्तिसे गापको निवेदन कर विये हं जाप ङइन्हं =
श्रहण करें! “ओम् तस्माददवा ” इस संत्रसे पुष्प निवेदन करने चाहिये \ है प्रभो ! मे आपकी पूजके ल्यि =
मालां मौर मार्तीके सुगन्धित पुष्य लाया हूँ आप उन्हं ग्रहण कर । “ ओम् यत् पुरुषं व्यदधु " इस स॑त्रसे
। धूपदेनी चाहिये, हे धूप ! तु वनस्पतिके रससे बना है, गन्धोसे भरा पडा है, उत्तम गन्ध है, सभीदेवेके सूधने `
लायक है, है परमेहवर ! इसे ग्रहण करिये ! “ ओम् ब्राह्मणोऽस्य ” इस मंत्रसे दीप देना चाहिये ! घीसेभरा `
। | हुमा है, सुन्दर बत्ती पडी हुई है जयादिया यह तीनों लोकों के अन्धरकारका नाशक है, हे देवेश ! ग्रहण करिये ।
“चन्द्रमा मनस ” इस संत्रसे तथा छओ रसो से युक्त भक्ष्य मौर भोज्य से संयुक्त, चारो रकार का अन्न डप
स्थित है, इस नैवे्यको आप ग्रहण करे । “ओम् इदं फलं मया देव इस मंत्रसे फल निवेदन करना चाहिये कि
है ३ेव आयके सामने जो फल रखा हुआ है, मे इसे लाया हे, इससे मुदे प्रत्येक जन्मे फलकी प्राप्ति होवे ।
. “जोम् नाभ्या आसीत् “ इस मंत्रसे ताम्बल निवेदन करना चाहिये कि, हे परमेकवर ! ! जिसमें सुन्दर सुपारी `
` पडी हुई है, नागवल्ली का दलभी है, क्पूरादिक भौ पड़ हुये है एसे पानको ग्रहण करो ! “ओम् सप्तस्य! `
इस मस्त्रसे दक्षिणा देनी चाहिये । हिरण्यगर्भे गर्भम अग्निका का हेम जीज है, वो अनन्त पुण्यका `
है, इससे आप मुने शान्ति दे । चाँद, सुरज, सवैज्योति है आरतीकं
(1 ( ब्रतराज [ सामान्य-'
अथ प्रतिप्रदादितिथिव्रतानि रिख्यन्ते
मात्स्थे-बजेयित्वा मधौ यस्तु दधिक्षोरघुतक्वम् ।\ दद्यास्त्राणि सूक्ष्माणि `
रसपातरर्य॑तानि च \) रस पात्रैः--द्ध्यादिपात्रैः \) संपुज्य विप्रमिथुनं गौरी मे
` म्रीयतामिति ।। हेमाद्रौ पाद्ये च-बजयेच्चत्रमासे तु यस्तु गन्धानुलेपनम् ।। शुक्ति
. गन्धभतां दद्याष्धिप्राय इवेतवाससी ।। भक्त्या तु दक्षिणां दद्यात्सवंकामाथेसिद्धये
` गन्धवस्त्रदानमंतरौ-नन्दनावासमन्दारसखे वृन्दारकाचित ।। चन्दन त्वं प्रसादेन
सखानद्रानन्दभ्रदो भव ।! रण्यं सर्वलोकानां लज्जाया रक्षणं परम् ।। सुवे्ाधारित्वं `
। | र यस्माद्र शान्ति प्रयच्छ मं) इति मन्राभ्या गन्धवासतस्ी दद्याद \) ए
प्रतिपदा तिथि कं व्रत लिखे जातेहं क
मत्स्य पुराणमे लिखा है कि, जो चैत्रके महीने मे दही, दूष, धृत ओर मीठेका त्याग करके रस पाच्रौसे (
युक्त सू्ष्मवस्त् देता है \ रस पात्रका अथे रेही आदिके पातर यह हता है । एवं देतीवार ब्राह्मण ॒ब्राह्मणीका ` ।
` पजन करके यह् कहता है कि, गौरो मुक् पर प्रसन्न हौ जाय तो वो ब्रतकरके कल्याणको पाता है । हेमाद्रिमे `
` यद्र पुराणको लेकर लिखा है कि, जो तो चैत्रके महीनेमें गंधका अनुलेपन छोड़ कर, ब्राह्मणके विये गंधसे `
पी ओर र ठ दो सफेद कपड़ा देता है, तथा सब कामोकी अर्थसिद्धिके लिये मक्तिभावसे दक्षिणा देता
वस्त्रदानके मंत्र-हे नन्दन बनमे वासकरनेवारे मन्दारके मित्र तथा 1
यथाक्रमम् ।। मंत्रं संपुजनाथे तु बहुरूपं परिस्पुशञेत् !। संत्रभिति जातावेकवचनम् ।\
` नमोऽस्तु
। १ परिभाषा | 6 हिन्दीटीकासदहित ` । १ (६५) ४
करी धनसौभाग्यर्बधिनी ।। मङ्खल्या च पवित्रा च लोकटयसुखावहा ।। तस्याभादो `
तु संपूज्यो ब्रह्मा कमलसंभवः! पाद्याघ्यं पुष्पधृपहच इ वस्त्रालकारभूषणेः ।।`
होमबेल्युषहारेश्च तथा ब्राह्मणभोजनेः । ततः क्रमेण देवेभ्यः पुजा कार्या पृथ-
क्पृथक् ।! कृत्वोऽङकारनमस्कारौ कुशोदकतिलाक्षतेः ।। पुष्पधपप्रदीपाद््भोजने्व `
बहुरूपं मत्र नानारूपान्मेत्रान्परिस्पक्षेत्परिगृह्णीयादित्य्थः ।। तेन ““उभ्नमो ब्रह्मण"
, इत्यादि “विष्णवे परमात्मने नमः इत्यन्तमंत्रवाक्यवृन्दोपात्ता देवताशब्दात्चतु `
ग्यन्ताः प्रणवादयो नमोऽन्ता मंत्रत्वेन ग्राह्याः \। प्राथनामंत्राः-ञ्भ्नमो ब्रह्यणे-
तुभ्यं कामाय च महात्मने ।। नमस्तेऽस्तु निमेषाय तरुटये च नमोस्तु ते\।
भ्र ५५९.
` लवाय च नमस्तुभ्यं नमस्तेऽस्तु क्षणाय च ।। नमो नमस्ते काष्ठायै कलायै ते `
स्तु ते ।। नाडिकायं सुसूक्ष्माय मुहूर्ताय नमो नमः ।। नसो निशाभ्यः पुष्येभ्यो ८
दिवसेभ्यश्व नित्यशः \। पक्षाभ्यां चाथ मासेभ्य ऋतुभ्यः षड्भ्य एव च\\
` अयनाभ्यां च पञ्चभ्यो वत्सरेभ्यद्च सर्वदा !। नमः कृतयुगादिभ्यो ग्रहेभ्यक्च `
` नमो नमः।। अष्टाविशतिसंख्येभ्यो नक्षत्रेभ्यो नमो नसः ।\ राक्षिभ्यः करणेभ्यदच |
व्यतीपातेभ्य एव च ।। प्रतिवर्षाधिपिभ्यइ्च विन्ञातेभ्यो नमः सदा ।\ नमोऽस्तु =
स्वदिग्म्यक््च दिक्पाकेभ्यो नमो नमः ।। नमश्चतुदक्भ्यक्च मनुभ्यस्तु नमो नमः।। `
नमः परन्दरभ्यश्च तत्संख्येभ्यो नमो नमः ।। पञ्चाशते नमो नित्यं दक्षकन्यामय ।
एव च ।। नमोऽदित्ये सुभद्रायै जयाये चाथ सवदा । सुशास्त्राय नमस्तुभ्यं सर्वा- `
_ वृद्धय निद्राय धनदाय च।\नसः १कुबेरपुत्र त -गृह्यकस्वार हय | र स स्वामिते नर
शङ्कपद्याम्यां निदिभ्यामथ नित्यशाः ।। भद्रकाल्यै नमस्तुभ्यं सुरम्ये च नमो नः
दद) वतरन... {सामान्यः
न । जक १ =-- न
नमो नमः ।। नमोस्त्वादि मुनिभ्यङ्च सप्तभ्यश्चाथ सवेदा ।! नमोस्तु
हमवत्प्रमखेभ्यश्च पर्वतेभ्यो नमस्त्वथ ।। पौराणीभ्यश््च ग्खाभ्यः सप्तभ्यशर्च
पुष्करावि-
भ्यस्तीर्थेम्यरच पुनःपुनः 1। निम्नगाभ्यो नसो नित्यं वितस्तादिभ्य एव च।।
चतुदंज्म्यो दीर्घाभ्यो धरणीभ्यो नमो नमः ।! नमो धातरेविधात्रे च च्छन्दोभ्यश्च
नमो नमः।। सुरमभ्यैरावणाभ्यां च नमो भूयोनमोनमः 11 नमस्तथोच्च श्रवसे
` ध्रुवाय च नमो नमः ।\ नमोस्तु धन्वन्तराय शस्त्रास्त्राभ्यां नमो नमः । विनायक- `
कुमाराभ्यां विष्नेभ्यश््च नमः सदा ।। शाखाय च विशाखाय नगमेयाय नें नमः।।
नमः स्कन्दग्रहेभ्यदचस्कन्दमातभ्य एव च ।। ज्वराय रोगपतये भस्मप्रहरणाय च ।\ `
ऋषिभ्यो बालखिल्येभ्यः केशवाय नमः सदा ।\ अगस्तये नारदाय व्यासादिभ्यो
नमो नमः । अप्सरोभ्यः सोमपेभ्यो देवेभ्यश्च नमो नमः \। असोसपेभ्यश्च
नमस्तुषितेभ्यो नमः सदा ।। दिभ्येभ्यो नमो नित्यं दादशभ्यङ्च सवेदा ।। एकाद-
क्ञभ्यो रुदरेभ्यस्तपस्विभ्यो नमो नमः ।! नमो नासत्यदलायामषिवभ्यां नित्यमेव `
न
परिभाषा] ८
अथ चेत शक्ष्ला प्रतिपदाको संवत्सरके श्रारभ कौ विधि
. ब्रह्म पुराणमें लिला है, इसमें सूर्योदय व्यापिनी प्रतिपद लेनी चाहिये । क्योकि, इसी पुराण से लिखा
हृ है कि चैत्रमासकी शुक्लप्रतिपदाको ब्रह्माजीने स॒ष्टि रचनाका आरम्भ किया था, उस दिन प्रतिपदा
उदय व्यापिनी थौ । भविष्योत्तरपुराणमे लिखा हुआ हे कि, मधुमास के प्रवतत होने पर, उदयव्यापिनो प्रति- `
पदाकौ सृष्टि रचनेका प्रारम्भ किया था, यदि दोनों दिनोकी प्रतिपदा उदयव्यापिनी हो, अथवा दोनों दिनों
उदयव्यापिनी न हो तो पहिली लेनी चाहिये । एेसा-संवत्सरके आरंभकी प्रतिपदा वसन्तके आदिक प्रतिपदा
` त्या कातिकौ शुक्ला प्रतिपदा सदा पूरवविद्धा ही करनी चाहिये । वुद्धवसिष्ठके वचनसे बहुतसे कहते हः
ध परन्तु दोनों दिन उदयव्यापिनी न मिली तो संवत्सरके आरंभमे जो काय्यं होताथावोतोहो न सकेगा इस |
कारण,पूवमिं कायंका विधान करनेवाला यह वचन युक्त ही है, दोनों दिन ही उदयव्यापिनी होगो, तब तो
पहिले दिन हौ उदयव्यापिनी मिल जानेके कारण पुर्वाका ही ग्रहण होगा क्योकि, उस समय कब करना |
चाहिये ग्रह आकांक्षा तो रहती ही नहीं तथा पक्षान्तरभे पूर्वयुतपनेका अभाव भी रहता ही है इस कारण,
` पूर्वाका ग्रहण होता है यह बात नहीं है कि, इस बचन से हौ पूर्वका ग्रहण हो रहा हो । ब्राह्म पुराणमं लला
हआ है कि, इसी दिनसे ब्रह्याजीने काकी गणनाका प्रारंभ किया था । ग्रह, अब्द, ऋतु, मास ओर पक्षोको
सब देवोका समागम होने पर संवत्सर आदिके अधिपोको
दे दिया । ब्रह्मा की सामं अनिर्देश्य तनुबाठे 9
` ब्रह्माजीकी सब देवता ओर मुनि आदिकों ने नमस्कार स्तुति करते हए उपासना कौ । इसके पीछे वें सब _ 9
ऋषि मुनि आदि ब्रह्माजीकौ शुश्रषा कर हिमालय चले गये, वहां जाकर दत्तचित्त होकर अपने अपने कसम |
कग गये, हे निष्पाप ! उस समय ब्रह्माकी सभा इच्छानुसार रूपं धारण करनेवाली थो, विज्ेष करके वो
मनोहर निर्दोष अनिरदेश्य रूप धारण किये रहती थौ, उस दिवसे लेकर पहर ओर उनसे भौ पहिलेतेजो
धमं पालन किया गया है अब भौ बही धम चला आता है, उसे प्रयत्नके साथ करना चाहिये । इस प्रतिपादके `
दिन सब पायोके नाक्ञ करनेवाली, सब उत्पातोको शान्त करनेवाली, कल्के दुःखोको नाद करनेवाखी, `
आयुको बढानेवाली, सौभाग्यके वर्धन करनेवाली मंगल्करनेवाली, दोनों लोकोमें सुख देनेवाली ओर परम |
पवित्र जो महाहान्ति है उसे कर देना चाहिये । चैत्रसुदी प्रतिषदाको पाच, अध्य, पुष्प, धूप, वस्त्र, अलंकार, = `
भूषणः, होम, बलि, उपहार भौर ब्राह्मणभोजनसे सबसे पहिले
चाहिय ब्रह्माजीकी पुजाके पीछे कमसे सब देवताजो की जुदी जुदी पुजा होनी चाहिये । पुजनके
| ५ ) र 9 विष्णवे परमात्मने नमः' यहाँ तक जो मंत्र वाक्योके चयोर
टे कमटलसे उत्पश्च होनेवाले ब्रह्माजोकी पुजा ५ होनी 1
समुदायम् जाय हए चतुध्यन्त् री ग र ६. ¦ १ 1
के कि, आदिमे ओम् भौर अन्ते नमः लगा हुभा है, बह सब मंत्ररूपसे ग्रहण किये जायेगे यान अ
(द) तयसः [ सामान्य `
तथा उनकी संर्याओकरे लिये नमस्कार है, दक्षकी पचासो कन्याओं के लिये नमस्कार है दिति सुभद्र ओर
जयाके लिये नमस्कार है । वुक्च सुशास्त्रके लिये नमस्कार है, सब अस्त्रोके जनक के लिये नमस्कार है, पियो
करिके सहित बहु पुत्रवाले तुचे नमस्कार है । बुद्धिके लिये, वृद्धिके लिये, निद्राके लिये ओर घनदाके लि `
नमस्कार है ¦ कुबेर जिसका पुत्र है एेसे महापुरुषके लिये नमस्कार है । गुह्यकोके स्वामीके लि नमस्कार `
है । क्षं ओर पद्म इन दोनों के खजानोके लिये सदा नमस्कार है । है भद्राकाली तेरे लिये नमस्कारहैषहे `
सुरभी ! तेरे लिये वारंवार नमस्कार है" बेद वेदांग जौर बेदान्तकी विद्या संस्थाके लिय नमस्कार है । नाग, `
यन्न, सुपणं जौर गर्डके लिये नमस्कार है, सातो समुद्र ओर सागरोके लिय नमस्कार है" उत्तर कुरके ल्यि `
ओर मेकूके रहनेवालोके लिये नमस्कार है । भेद्रादव ओर केतुमाल्के लिये सब जगह सदाहौ नमस्कारै,
इलावत्तके लिये, हरिवषेके लिये ओर किंपुरुष वर्षके लिय नमस्कार है । भारतदेशके बडे बडे भेदके ल्थि `
नमस्कार है, सातोपातार ओर सातो नरकोके लिये नमस्कार है, कालाग्निरुद्र भौर जिव दोनोके लिये नमस्कार |
है. बाराहरूपधारी भगवान् के लिये नमस्कार है, सातो लोकोके लिये ओर महाभूतोके लि नमस्कारै, `
संबद्धिके लिये ओर प्रकृतिके लिपिं नमस्कार है पुरुषके लिये ओर अभिमानके लियि एवम् अव्यक्त मूतिके ल्य |
नमस्कार है, हिमवान्से लेकर जो मुख्य पर्वत हैँ उनके लिये नमस्कार है,पुराणोमें आई हई सातो गंगाजके
लिये नमस्कार है \ सातो आदि मुनियोके लिये सवेदा नमस्कार है पुष्करादि तीथेकि लिये वारंवार नमस्कार |
है, वितस्ता आदिक नदियोके लियं वारंवार नमस्कार है, चौदह बडी बडी धरणियोके ल्य नमस्कारहैः
घाता विधाता ओर छन्दोके लि नमस्कार है, सुरभी ओर पैरावणके लिये वारंवार नमस्कार हैः उच्चैः
श्रवाके लिये ओर ध्रुवके लिये नमस्कार है, धन्वन्तरिजी एवम् शस्त्र अस्त्रोके लिये सावारंवार नमस्कार `
है 1 विनायक कुमार ओर विध्लेश्षोके लिये सदा नमस्कार है । शाख विकश्षाख भौर नैगमेयके लिये नमस्कार
स्कन्दग्रहो ओर स्कन्द मात्कोके लिये नमस्कार है ज्वर रोगपति ओर भेस्मश्रहरणके लिये नमस्कारदहै
वालखिल्य ऋषियों ओर केदाव भगवान् के लिये सदा नमस्कार है, अगस्त्यजी, नारजी ओर व्यासजौ
वारंवार नमस्कार है, अष्सराओके ल्य ओर सोम पीनेवाञे देवोके लिये वारंवार नमस्कार है असोम
पाके लिये एवम् तुषित देबोके लिये सदा नमस्कार है! बारहो आदित्योके लिये सदा स्वका नमस्कारहै,
तपस्वी ग्यारहो स्के लिये सदा स्वेदा नमस्कार है, नासत्य, दस्र, अरिवनीकुमारोके लिथे नित्य नमस्कार
पुराणोके कहे हुए बारहो साध्योके लिये सदा नमस्कार है । उनञ्चासों मसतोके लिये नमस्कार है, दिल्पा-
चायं देव विदवकमकि लिये नसस्कार है, अयने अनुयायियों सहित आलें लोकपालो के व्यि नमस्कार है, `
~ वरस्जिषाः +. - हिन्दीटीकासहित ` व (६९) ८.
५ चाहिये \ सब ब्राह्यणोको, मित्रोको, संबग्धियोको ओर बान्धवोको सानुःरोध भोजन कराके पीछे आप भोजनं
छ करना चाहिये, महोत्सव भौ होना चाहिये, यहं नये संदत्सरके आरंभकौ विधि सब सिद्धियों के देनेवाली ५0 ।
है इति संवत्सरारभ विधिः ।। ; 4 ६ ^ 1 ५ 0
आरोग्यप्रतिपद्त्रतम् अथावेत्रव विष्णुधर्मोत्तिरोक्तमारोग्यप्रति
` पदव्रतम् पुष्कर उवाच । संवत्सरावसानं तु पञ्चदक्यामु-
मपोषितः \। प्रातः प्रतिपदि स्नातः कुर्याद्व्रतमनन्यधोः ।। पुजये्धास्करं देवं `
` वर्णकः कमले कृते ।! वणेकेः-रक्तनीरशवेतपीतादिभिः ।\ शुद्धेन गन्धमाल्येन
चन्दनेन सितेन च ।\ तथा कुन्दुरुधूपेन घतदीपेन भागव ।। कृन्दुरः' शल्लकीनि- `
यसि: 1) अपूपैः सैकतैदेध्ना परमाचचेन भूरिणा । संकतेः शकंराविकारेः ।। ओदनेन =
च शुक्लेन सता क्वणसपिषा ।। सता उत्तमेन ।। क्षीरेण च फलः शुक्लबहुन्राह्यण- ५ ५ 4
त्पेणैः ।। पूजयित्वा जगद्धाम दिनभागेः चतुर्थके । आहारं प्रथमं कु्यत्सिध॒तं |
मनुजोत्तम घतहीनं | विवजयेत् ।। भक्त्वा च सक्ृदेवान्नमाहारं |
पानीयपानं च कुर्यादित्यथेः ।। ब्राह्यणानुमत्या भुञ्जानोपि धृतहीनं न भुज्जीत `
धुतहीनं त विवजेयेदिति निषेधात् \। संवत्सरमिदं कृत्वा ततः साक्नात्रयोदकम् ।!
पूजोपकरणं प्रतिमादि । ज्ञ
गति तथारथायशस्त 1्यान्विपुलाश्च जो भोग
स
न
(७०
[ सामान्य
करोति राजन् स वेदवित्स्यादभुवि धर्मनिष्ठः ।\ कृत्वा सदा द्वादकश्षवत्सराणि
विरिञ्चिलोकं पुरुषः प्रयाति । इति विद्याप्रतिषद्त्रतम् ।। तिलकव्रतम् ।\
अयात्रैव भविष्योक्तं तिलकव्रतम् ।। श्रीकृष्णउवाच ।। वसन्तं किुकाश्ोक-
शोभिते प्रतिपत्तिथिः ।। श्क्ला तस्यां प्रकुर्वंति स्नानं नियममाश्चितः ।। अनेन
सामान्यतो वसन्तसम्बन्धिश्ुक्लप्रतिपल्लाभेपि तया व्रतमिदं च्रे गहीतं द्विज
संनिधावित्यग्रिसवचनानुरोधाच्चत्रशुक्लप्रतिपदेव ग्राह्या नारो नरो वा
क; ङ्क
` राजेन्द्र संतप्य पितुदेवताः ।। नद्यास्तीरे तडागे वा गृहे बा तदलाभतः ।। पिष्टात- `
केन विलिखेद्त्सरं पुरुषाकृतिम् ।। पिष्टात्तकः पटचासको गन्धद्रव्यचूणंविशेषः ।\ `
ततह्चन्दनचूर्णेन पुष्पधूपादिनाऽ्चंयेत् । मासर्तुनामभिः पचाच्रमस्कारान्त-
योजितः ।। मासतुनामभिः-चेत्रवसन्तादिनामभिः ।। पजयेदब्रह्मणो विदान् मंत्रे
वेद् ४५०४ शुभैः ।\ संवत्सरोसीति पठन्मन्तरं वेदोदितं द्विजः ।। नमस्कारेण मंत्रेण
परिमाषा] _ _ हि्ीटीकासदित (७१)
न
नभमन ०५२
धक
पावे स्थितां चित्रलंलां तिलंकालकृताननाम् ।।दृष्ट्वा प्रनष्टसंकल्पाः परावृत्य `
गताः पुनः \! गतेषु तेषु स नृपः पुत्रेण सह भारत । नीरुजो बुभुजे भोगान् पूवं
कर्माजिताञ्दछभान् ।\ जक्रूरंण समाख्यातं मम पूवं युधिष्ठिर ।। एत्त्रिलोकीतिलका
` छ्यभूषणं पुण्यत्रतं सकलदुष्टहरं परं च ।। इत्थं समाचरति यः स सुखं विहृत्य
भत्यः प्रयाति पदमच्युतमिन्दुमोलेः ।। इति तिलकव्रतम् ।\ अस्यामेव नवरात्रारम्भः .
तत्र परायुता ग्राह्या ।॥ अमायुक्ता न कर्तव्या प्रतिपच्चण्डिकाचेने ।। मुहर्तमात्रा
कर्तव्या द्वितीयायां गुणान्विता ।। अत्रेव प्रपादानमुक्तम् ।। अतीते फाल्गुने मासि `
` प्राप्ते चव महोत्सवे ।। पुण्येऽद्भि विप्र कथितं प्रपादानं समारभेत् ।। ततश्चोत्स-
` जंयेद्िद्रान् मन्त्रेणानेन मानवः ।। प्रपेयं सवंसामान्यभतेभ्यः प्रतिपादिता ।। अस्याः
प्रदानात्पितरस्तुप्यन्तु हि पितामहाः ।! अनिर्वायं ततो देयं जलं मासचतुष्टयम् ष्टयम् ।!
ध # विनि
(५२). 1 तराजः 2 ध [ सामान्य- `
मतलब पहिले ग्राससे है, घत हीन चाहे पहिला ग्रास हो, चाहे दसरा हो, उसे छोड दे \ एकहीबार अच्को `
` खाकर यानी एकी ्रासको खाकर, चकौ को छोडदे ब्राह्यणोकी सलाहसे फिर बाकी आहारका भोजन करके `
पानी पीना चाहिये, ब्राह्मणों की आज्ञासे भोजन करता हुमा भी घत हीन वस्तुका भोजन न करना चाहिये । `
मयो कि ऽधृतहीनको न खाय, यह निषेध है ! हे भागेव ! एक साल तक इस त्रतको करते हृए तेरह प्रतिष-
. दाओंकी देव देवका जन् करना चाहिये । शुक्ला प्रतिपदका प्रतिमास संवत्सर ब्रत करना चाहिये । बयोकि, `
` च्रयोदहा यह् लिखा हु है \ इसके बाद वस्रसहित सोना ओर पुजन के उपकरण प्रतिमा आदिकों को ब्रह्मणको `
दे देना चाहिये, इस व्रतके प्रभाव से व्रती अपने सब रोगोको नष्टकर देता है" चाहे पुरष हो चहं स्वीहो इस
भ्रतसे जो जगत् प्रधानको पजता है वो आरोग्य प्राप्त करता है तथा उत्तम गति यश्च ओर अनेकं भोगं उसे
` ` श्राप्त होते हं । यहां जगत् प्रधान सर्थको कहते हे ! यह चेतर शुक्ल प्रतिपदाका आरोग्य दायक ब्रत पुराहं । |
॥ अथ विद्याप्रतिपद्ब्रतम्
इसी चत्रदुक्ला प्रतिपदाको विद्याब्रत. हीत है ! यह मदनरत्नमं विष्णुधमंमे सिखा हज है । भाकण्डेयजो |
` बोले कि, सुस्दर रंगोसे अष्टदलकमल बना, ब्रह्माजौफो उसकी कणिक्रार विठाकर उनका पूजन करना |
चाहिये । पूवं पत्रपर ऋग्वेद, दक्षिण पत्रेपर यजुवद, पदिचम पत्रपर सामवेद तथा उत्तर पन्नपर अथर्ववेद ।
` लिखना चाहिये ! केदाद्धोको जाग्नेयमे तथा धर्महास्त्रोको नैकस्य कोणके पत्रपर तथा वायव्यकोणक्ते प्रपर |
पराण मौर ईश्ानमे न्याथका चिस्तार लिख घर्मके जाननेवालोको चाहिये कि उपवास पूवकं पूजन करे!
हि यादव चेत्र शुक्ला प्रतिषदासे लेकर उपवास करता आौर जितेद्िय रहता हज प्रत्येक मासकी प्रतिपत्को `
ति । एक सालतक इस ब्रतको करे, सफेव गन्धोका अनुलेयन करे, आलस्यरहित भूषणोसे धूषदीषसे
मनाता रहे । संवत्सरके पीछे त्रत पूरा होजानेषर ब्राह्मणको गऊ दान करे, हे राजन् ! जो पुरुष इसं
व्रतको करता । है बो वेदोक्रा जाननेवाला धाभिक बनता है, बारह वषे इस् ब्रततको करके त्रह्मलोकमें चला जाता
तिलकव्रत-भविष्युराणमे कहा है ! भरी कृष्ण बोले कि डाक शुक ओर अकशोकसे कोभित हुए वसन्तमे `
त ३४ तिथि आती है, उसमें नियम ठेकर स्नान करना चाहिये । इस वाक्ते सामान्य रूप से वसन्तकी `
। परिभाषा ] इ हिन्दीदीकासहित ध 9 व (७३ ) ।
१ पा ण 90
१
आते जानेकषे लिये अपना संकोच ओर विका कर सेते हो } इस सृष्टिकी उत्पत्ति भौर प्रलय आप्ते |
ही होतेह । यहां चल रहौ मेरी रक्षा करो । नमस्कार मंत्रसे यानी ओम् संवत्सराय ते नमः इत्यादि मंत्ोसे +
` पजन करना चाहिये ! फिर वस्चोसे उसे वेष्टित कर देना चाहिये । फिर सामयिक मल फल नैके्य ओर
` भोदकोसे संवत्सरका पजन करना चाहिये । हे पाथं ! फिर सामने बैठ दोनो हाथ जोडकर करना चाहिये कि,
` है भगवन्, आपकी कृपासे यहं मेरा वषं भर क्षेम रहे, एवम् इस साल्के मेरे विष्न नाज्ञको प्रप्तहो जाये, ` क
. पीर अपनी शक्तिके अनुसार दान देना चाहिये । जैसे चन्द्रमासे नभस्तल सुशोभित रहता ह उसी तरह उसी
। दिनसे मुख भी चन्दुनसे अलंकृत रहना चाहिये प्रति दिन माथेयर चन्दनका तिलक करना चाहिये । हे पुरुष ` ॥
व्याघ्र स्त्री हौ, अथवा पुरुष हो, जौ इस त्रतको एक सार तक करता है, बो भूमंडलमं दिव्य भोर्गोकी भोगता = `
। | है भत, प्रेत, पिक्षाच ओर एसे वैरी तथा ग्रह जिनका निवारण ही न हौ सके वे इस तिलक को देवते ही
। तिरक दहो जाते हे! निरथेक यानी प्रयोजन शून्य, जो किसी तरह भौ अनिष्ट न केरसकं } पहिले एक शत्रुनय
नामक जयी राजा था उसको चित्ररेखा नामक स्त्री थौ, जो परम चरित्र ज्ञालिनी थौ । उसने यह् व्रत चेत्र" ` 1
मासमे ब्राह्मणों के सामने ग्रहण किया था तथा संबत्सरका पूजन करके भगवानृका ध्यान किया । जो कोई = ` (
। उसे भारनेके लिये भौ आता था वहं चि्ररेखाके तिलकको देखकर उसका शुभे चिन्तक बनकर जाताथा।
, इसके सामने सोतोका अभिमान चूण होता था, सब इसके वडा थे, यह् अपने पतिका मुख देखकर प्रसन्न रहती `
। द्मे कोई आकुरुता नहीं थी, जितने में मत्त हाथीने इसके पतिको मार डाला उतनेमें सुहदोका सुलदेवेवाखा =
पुत्र क्षिरकौ पीडासे मर गया, वहाँ सब भूतोको ठेजानेवाले धर्मराजे पुरसे प्राप्त हृए । हे महाराज ! उसी
ण धर्मराजके किकर चित्रलेखा द्वारपर आये ओर ज्र घर धुसगये ये काल मृत्युके अगाडी चलनेवाठेथे, `
शत्रुजयको लेनेकेलिये आये भे, पर उसके पाश्वमे तिलक गाये हुए चित्ररेखा बैठी हुई थी, उसे देखकर उनका `
संकल्य नष्ट हो गया आर वापिस चले गये । हे भारते ! उनके चरे जानेपर राजा पुत्रके साथ रोगरहितहोगया, `
तथा पू्वकर्मसे संग्रह क्रिये हुए पवित्र भोगोको भोगनें लगा, है युधिष्ठिर ! पहिले यह् मुने अक्रूरजीने कहा थाः. 1
यह् तिलक्र धिलोकी तिलकं है सकल दुष्टोका हंरनेवाङा परम पुण्यव्रत है, इस प्रकार जो कोई इस वतको ८
करता है बह इस लोकम सुखभोगकर अन्तम न नष्ट होनेवाले इन्दुमौलिक पदको चल जाता है, यह तिक्क- `
व्रतकौ कथा पूरी हूर । नवरात्र-इसीमे ही नवरात्रका आरंभ होता है, नवरात्रमं प्रतिपद् द्वितौयासे युक्त
इ १ मतरस प्याऊ दिवे कि-यह् प्याऊ स प्राणिमाच्रके ४ दानमे {
तृप्तही माहुतक हत उसका पानो न टूटने पाये, जौ प्याऊ देनेको तं शक्ति न
(७४)
[ सामान्य |
दो ब्राह्मण के लिये तथा एक देवके लिये देकर दोनोका स्वयम् भोजन करके इस प्रकार पाँच वषंकरके पी
वक्ष्यमाणं उद्यापनं विधिसे उद्यान करना चाहिये ,
अथ सवंशिववृतेषु पूजा
आयाहि भगवञ्छम्भौ शवं त्वं गिरिजापते ।! प्रसन्नो भव देवेश नमस्तुभ्यं हि
शंकर ।। त्रिपुरान्तकरं देवं चन्द्रचूडं महाद्युतिम् ।\ गजचमपरीधानं सोममावाह्- `
याम्यहम् ।। आवाहनम् ।। बन्धूकसलिभं देवं त्रिनेत्रं चन्द्रशेखरम् ॥\ चिशल्धारिणं
देवं चारुहासं सुनिमंलम् \\ कपालधारिणं देवं वरदाभयहस्तकम् ।। उमया सहितं `
शम्भं ध्यायेत्सोमेहवरं सदा । ध्यानम् 1! विषवेश्वर महादेव राजराजेश्वरप्रिय ! `
आसनं दिग्यमीश्ान दास्येऽहं तुभ्यमीरवर ।। आसनम् । महादेव महेशान `
` महादेवे परात्पर ।। पाद्यं गृहाण मट्त्तं पावेतीसहितेरवर ।। पाद्यम् ।। त्यंबकंश `
सदाचार जगदादिविधायक ।! अर्यं गृहाण देवेश साम्ब सवर्थिदायक ।। अर्ध्यम् ।,
परिभाषा । हिन्दीटीकासहित = (८५) `
हषीके सयाकारि व्रतं दानमनंकधा \\ ्नोतुमिच्छामिदेवेा तरतं सस्प
॥१॥। येन व्रतेन देवे पुना राज्यं लभामहे ।। तथा तरतं ठु. न नहि यादवानां
` कृपाकर । २। श्री भगवानुवाच ।\ वदामि शुभदं पाथ लक्ष्मीवृदधिप्रदायकम् ।। `
धर्मार्थिकाममोक्नाणां निदानं परमं ब्रतम् \। ३ \\ यधिष्ठिर उवाच ।। केन चाद
पुराचीर्णं मस्ये केन प्रकाशितम् ।। विधिना केन कतव्य तत्त! मूहि कंशव ॥\४।।
जसगवानवाच \। आसीत् सौम्यपुरे राजा सोमो नामेति विश्रुतः ।\ क्षात्रध्मेऽति-
कुशलः प्रजापालनतत्परः ।। ५.।। तस्य राज्यं प्रज सौम्याः सर्वधमेपरायणाः।। `
तस्य राज्ञस्तु चामात्यः सोऽपि सौम्यशुभावहः ।। ६।\ तस्मिन्सरस्तु सोम्यं च सदा
साम्याम्बना प्लुतम् 1 अभूत्सोमेश्वरो देवो लोकानां पालनान न ।। ७ ।। तत्रा 0
` भवत्सोमशार्मा ब्राहमणो वेदपारगः \ वेदार्थविच्छास्त्रविच्च शुद्धाचारोऽति-
दभः ॥\ ८ ।। तस्या भार्या ज्ुभाचारा पुरन्धी चारभाषिणी !। भतं शुश्रूषणरता `
कल्याणी प्रियवादिनी \1 ९ ।। सोऽकरोच्च कुटुम्बाथ कणयत दिनेदिने । नकेभे
| चाधिकं तेन धनधान्यं तथैव च ।\ १० ।। अतीव खेदलिन्नस्तु विचायं च पुनः
पुनः 1! क्व करोमि क्व गच्छामि सभार्योऽहं महीतले ।। ११ ।। कन कमेविपाकेन
इदं लभ्यते फलम् \। अथवा्थकरं धर्म देवपुजादिकं शुभम् ।\ १२ \। स सोमे-
` शओेऽकरो क्ति देन्यनाशाय पाथिव 1! ८ कदाचिदतिविन्नः सन् स जगाम सरोवरम्
तस्मिन्सं म्सौ तम्यसरोवरे ।। वृद्धनराह्यणरूपेण ! श कृपया
(द) ल व्रतत [ सामान्य-
1 ई ;; (1 1 त
मिति पिनि पिति तोम सि 5 ५
अद्यारभ्य व्रतं देव रोटकाख्यं मनोहरम् \\ करोमि परया भक्त्या पाहि मां जगतां
गुरो ।। २६ ।1दिनेदिने प्रकर्तव्या पूजा देवस्य शूलिनः \ कथां विना न मोक्तव्यं
प्रत्यहं च पुनः पुनः ।। २७ ।! उपोषणं चतुदंहयां कतंव्यं विधिपूवंकम् ।। शुचिर्भूत्वा
दिने तस्मिन् कतेव्यं रोटकव्रतम् ।। २८ ।¦! अथ उपोषणप्राथनामन्त्र :-चतुद्दयां `
` निराहारः स्थित्वा चैव परेऽहनि ।। मोक्षयामि पार्वतीनाथ सवेसिद्धि प्रदायक
॥ २९६) कृत्वा माध्याह्लि कं कर्मं स्थापयेदव्रणं घटम् \\ पञ्चरत्नसमायुक्तं `
पवित्रोदकमुरितम् । ३० ।। सर्वोषधिसमायुक्तं पुष्पादिभिरल्डकृतम् ।। वेष्टितं.
इवेतवस्परेण सर्वाभरणभूषितम् ।। ३१।। तस्योपरिन्यसेत्पात्रं तारं चैवाथ वैण- `
वम् ।! विरच्याष्टदलं तत्र पुजयेदरुमया शिवम् ।। ३२।। कत्वा सायाद्धिकं कम॑
नित्थपजादिकं तथा ! तस्यां रात्रौ तु क्तेव्या पूजा देवस्य शूखिनः ।1३३॥ शुभे `
चैव प्रदेशे तु कर्तव्यः पुष्पमण्डपः 1। पुज्यस्तत्र शिवो देवो धर्म॑कामार्थसिद्धये।
11३४1 क्षीरादिस्नापनं कुर्याच्चन्दनादि विलयनम् ।1 कृष्णागुरसकर्पूरमृगनाभि- `
विमिभितम् 1 ।३५।। पूष्ेर्नानाविधे रम्यैः पूज्यो देवो महेश्वरः । धनकामेन
कर्तव्या पूजा देवस्य शूलिनः ।\३६।। बिल्वपत्रेरखण्डेहच तुलसीपत्रकंस्तथा ।।
धनी ।! ३७ ।। कल्हारकमलैचैव कुमुदेश्चा- .
शोभनं मनेः ।॥ चस्पकर्मालतोपुष्पेम॑चुकुन्देः श्युभावहैः ।\ ३८ \\ समन्दारह्चाकं- `
व पुला्हर्च शिवप्रियैः \\ अन्येरननाविधैः पुष्यचछतुकाल्ोद्धुवेस्तथा ।३९॥
न
परिमाषा} _______हियीटीकासहित _______ (७७)
च शिषप्रियम् ।\५२।। दारिद्र्नाशानं पुष्यं लक्षमीवृदधिप्रदायकम् ।। कर्तव्यं विधि- `
बद्धक्त्था श्रोतव्यं तु कथानकम् ।। ५३।। गौतवाद्यादिसहितं कर्याञ्जागरणं `
निश्चि ।) ततः प्रभाते विमले. स्नात्वा पूजां समापयेत् ।। ५४।। परूवाक्तेविधिना
न = द न ~ = ` न=
चिप्र
पयेत् \\ ५६।। यन्न्यूनं कृतसंकल्पे ब्रतेऽस्मिन् ब्राह्मण प्रभो ।। तत्सवं पुणतां यातु |
युष्मद्दृष्टिविलोकनात् ।! ५७।। एवं यः कुरुते पाथे शास्त्रोक्तं रोटकव्रतम् । ||
| अनायासेन सिद्धयन्ति हृद्याः सर्वे मनोरथाः ।।५८।। सभतेका महानारी करोति ||
| विधिवद्द्रतम् ।। पतित्रता सा कल्याणी जायते नात्र संशयः ।\ ५९।। इति शिव-
लिये नमस्कार है, आप प्रसन्न हृजियेः। त्रिपुरका अन्त करनेवाे गजचमको पहिने हए महाचुति चन्द्रचूडदेब
श्रीसोभेश्वरकां आवाहन करता हं । इस मंत्रसे आवाहन करना चाहिये ।। बंधूक्षके समान कान्तिवाले तीन =
नेव्रधासी निसके कि, शिखरे चन्द्रमा है एेसे न्रिशुख धारण करनेवाले, सुन्दर हासवाले, अत्यन्तं स्त्र
` वराभय मुद्रा युक्त रहनेवाखे, कपाल्धारी जो उमासहित सोमेदवर शिव हे उनका मे ध्यान करता हुं । यह
` ध्यान है 1) हे महाराज ! विष्वेहवर ! हे राजेश्वर ! ह ईश्वर } हे प्रिय ! ईशान ! मे जापको दिष्य
` देता हं । इस सं्रसे आसन दे \। हे परसे भी षर ! हे महादेव ! हे महेशान ! हे ईदवर ! मेरे व्िहृए पा्यको
उमा सहित ग्रहण करिये । इससे पाचका प्रतिपादन करे 1! हे व्यंजकेश ! सदाचार ! हे जगतूके आदि विधायक
है देवेश ! हि शर्वंक ! हे प्रयोजनके सिद्धकरमेवाके! अंबासहित अरध्यको ग्रहण करिये । इस संत्रसे अर्घदेना =
आचभनीयको ग्रहण करिथे } इससे आचमनीय देनी लौ चा चाहिये हये
५१।। रात्रौ जगरणं कुयत्पुनज्यो देवो महुश््वरः ।। पणन विधिना विप्र कतव्य
तेनं कतव्य श्िवयपुजनम् ।। तत्सवं दापये-डुक्त्या ब्राह्मणाय कुटुम्बिने ॥\५५
य वेदविदुषे वस्त्रालंक्ारभोजनैः 1 सपत्नीकं गरं पुज्य ततो भक्त्या क्षमा- ||
अथ पूजा-हे भगवन् ! शंभो ! है गिरिजापते ! हे शवं ! आप आइये, हे देव देवेश ! हे शंकर { ! आपके
] हे शादवत ! पविन्र पानीसे तयार की हई `
मे ॥ क्षीर, आज्य, दधि, मयु, वराकंरा इः
चाहिये ।। हे तरिूरान्तक ! हे दौनोके वुःख नाशक ! हे श्रीकट
(०८) 4 {4 श्रतसजं त , सामान्य
प्राणिमात्र का पति हिरण्यगर्भं हुजा उसीसे जमौन आसमानको धारण किया, हेम उसी प्रजापतिके लिये
करते है । इससे दक्षिणा देनी चाहिये \ अग्नि रवि ओर विभु नारायण ये तीनों ज्योति हं) मेँइन दीपोतस्े
सुरेश्वर देवेश्को नीराजन करता हं । इससे नीराजित करना चाहिये । जगतके हैतु एवम् संसारसमुत्रकेसेतु `
तथा सज विद्याओं के प्रभव, गर शंभुके लिये नमस्कार है, इस मंत्रसे नमस्कार \) “~ यानि कानि च“ इससे
प्रदक्षिणा करनी चाहिये \! इसका अथ पहिले हौ लिख चुके है । हे हर ! है अखिल चिदवके आधार ! ओौर `
` स्वयं निराघार निराश्चय ईक सोमेवर ! पुष्पांजलि ग्रहुणकरः, तेरे ल्य नमस्कार है । इस मन्त्रसे पुष्पांजलि `
, निवेदन करना चाहिये ।\ सुव्णसे भली भोति बनाया हुभा निदयूलकेसे आकारवाला यह मेरा बिल्वपत्र
हे, हे शंभो! इसे ग्रहण करिये, ; इस संत्रसे बेलपत्र चढाना चाहिये ।\ अथ कथा-युधिष्ठिर बोले कि, है
हषीकेडा ! मेने अनेक तरहके वरत ओर दान किये हे देवेडा ! मे जापसे उस् व्रतको सुनना चाहता हूं जो संपत्ति
देनेवाला हौ) १\) हे देवेश! जिस व्रत. के करने से मुञ्चे फिरराज्यमिल जाय, हियादवों के `
कृपाकर ! उस ब्रत को सु किये ॥ २॥ भगवान् बोले कि, हे पार्थं ! भे अप्को एक
ब्रत कहता, जो श्रुभ का देनेवाला, लक्ष्मी की वृद्धि करनेवाला एवम् धमे, अथे, काम ओौरं मोक्ष का `
` परम कारण है \\३।1 युधिष्ठिर बोले कि, पहिले इसं ब्रतको किसने किया था, कौन इसे प्रकाशमे लाया भा, `
` एवम् किंसतरह इसे करना चाहिये, हे केशव ! सब कुछ मुञ्च किये !\ ४।\ श्रीभगवान् बोले कि-पहिले `
एक बडा अच्छा सोमनामका राजा था, वो क्षात्र धर्ममे कुराल था प्रजा पालनमें तत्पर था ।\५।। इसके राज्यम
। . उसकी प्रजा धमं परायण तथा सज्जन थी, उस राजाके जो संत्रीलोग थे वे भौ सोम्य भे ओर सुख देनेवाले 1
६।\ उसके नगरमे एक सुन्दर सरोवर था जिसमें बडा स्वच्छ पानी रहा करता था, वहाँ लोकोके पालनके `
लिय सोमेश्वर शिव विराजा करते थे \॥७।\ बह एक बेदवेदान्तों का जाननेवाला, सकल शास्त्रोकावेत्ता =
अत्यन्त सदाचारी वेसा कि कहीं दंढनेनेसे भी न मिल सके,एेसा एक सोमशर्मा नामका ब्राह्मण रहता था । `
उसकी स्त्री अत्यन्त सदाचारिणी, मिष्ट ओर भ्रियभाषिणी परमसुन्दरी पतिकी सेवा करनेवाली ओर कल्याणी,
५1 नही, इस कारण वो प्रत्यह् कुटुम्बके कण यज्ञ किया
करता था ।\१०।। एक दिन अत्यन्त चिन्न होकर विचारने लगा कि में क्या कर्, स्त्री समेत कहां चला जाऊ
1 कौनसे कर्मसे मुन्ञे ठेसा फल मिले अथवा देवपुजादिक ही शुभ अथं धमकर धमं है ।\१२।। हे पाथिव ! =
कंगाखीके नाश करनेके सिये सोमेदामे भक्ति करनेलगा, कभी अत्यन्त चिच्च होकर सरोवर पर पहुंचा ॥1१३।। `
सौम्य ! उस सुन्दर सरोवरपर परमकृपासे युक्त श्रौ सोमेहवर भगवान् वद्ध ब्राह्मणके रूपम उसे प्रत्यक्ष `
४।। उन्होने बो उत्तम आह्यण सोमन्स्माको अत्यन्त दुःखी देख बोले कि, आप इतने बड़े विद्यावान् `
हो रहे हे ।\१५५। सोमशर्मा बोरा कि, मेने पहिले कुछ दान नहीं किया था इस कारण मेरौ , `
तथा तुलसीदललोसे
पर्भिषा | 1 हि्वीदरीकासति 9
` उपोषणकी प्रा्थनाके मत््-हे सब सिद्धियोके देने हारे पार्वतीनाय ! चवु्दशीको निराहार रहकर दसरे दिन
भोजन करूंगा । २९१! मध्याह्न कारके सन कृत्य करके एक सावित घट स्थायन करना चाहिये, बो पंचरत्तेसे
य॒क्तहो तथा षवित्र पानीसे भरा हभ हौ ।\३०।। बा सब भौषधियोसे युक्त हो तथा ए्लोसे अलंकृत हो, श्वेत
चस्त्रसे वेष्टित हो तथा सज आभूषणोसे मूषित हो ।\३१।। उस कलकाके उपर तांतरेका अथवा वेणुका पत्र
हो तहँ अष्टदल कमरुको वनाकर पवेती सहितं शिवजीका पुजन करना चाहिये ।। ३२ ।\ सायंकालका `
नित्यकमं तथा नित्यपुजा करके उसी रातको शल्धारी हिवकी पूजा करे ।\ २३ ।। सुन्दर जगहमं पुष्य मंडप
करना चाहिये । वहाँ धमे, काम ओर अथेकौ ४
स्नान कराकर चन्दनादिका केप करना चाहिये, उसमें कृष्ण अगर कपुर जौर कस्तुरी मिली रहनी चाहिये = `
॥३५।। तथा अनेक तरहके कूलोसि धनकौ कामनावालेको पजा करनी चाहिये ।।३६।। अखण्ड विल्वपत्र |
५ सीदलोसे तथा नीके कमरोसे कौ हुई पुजा अत्यन्त पुण्य बढाती है । \\३७।) कल्हार, कमल एवम् |
सुन्दर कुमुद ओर शुभावह चंपक, चमेली ओर म् चुकुन्दके एूलोसे \।३८।। मन्दारके पुष्य तथा शिवजी के |
` प्यारे आकके फूलोसे तथा ऋतुकालके अनेक तरहके पुष्पोसे शिवाचन करना चाहिये ॥।३९॥। पुण्य वडानेके , |
साधन जो अनेक तरहके धूप हें, उन्हं पुनम लाना चाहिये तथा घीसे भरे हए सुन्दर दीपक करने चाहिये |
| रिवजीके भोज्यो तथा अनेक तरहके सुन्दर जन्य उपचारोसे ।*४१। |
नैवेद्य करना चाहिये, पर विशेषकरके तो रोटोकाही नैवे हो । पुरषके आहारक पांच रोट हो ।४२।१इन
रोटों में चावल ओर हका आटा बराबर हो, दो तो ब्राह्मणको देदे तथा रोका अपना भोजन हौ ।४३।। 1
समन्नदारको चाहिए कि, सदा एक रोट देवके लिये, नैवेद्ये देदे फिर शिवके लिए सुन्दर ताम्बूलदे ।४४।। |
त ` पीछे धनसंपत्ति देनेवाला अध्य दान करना चाहिये । जंबीर, नारियल, ऋमुक, बीजपूरक\\४५।) अखरोट, ` ¢
५ 9 खजूर अच्छी द्राक्षाएं ओर मनोहर मातुलिद्ध, अनार ओर सुन्दर नारंगियां ।\४६।। तथा सुंदर ककंटी मी
सिदिके लिये शिवका पुजन करना चाहिये \\३४।। क्षौरादिसे
1 ४०।। शिवं
के प्यारे स्वादिष्ठ लह्य, पेश ओर भोज्यो
(८ ०) 01 नेत राजं | [समान्य `
श्राद्धं मातामहं कुर्यात् सपिता सद्भवे सति 1! जतमाजोपि दोहित्रो जीवत्यपि हि `
मातुर \ प्रातः सद्धबयोमध्ये याऽदवयुक्प्रतिपःडूवेत् ।) अत्र सपिता इति विलेष-
णाञ्जीवत्पितक एवाधिकारी पिण्डरहितं कूर्यात् ।। मुण्डनं पिण्डदानं च प्रेतकमं
च सवशः \। न जीवत्पितृकः कृर्याद्गुविणीपतिरेव च ।\ इति पिण्डनिषेधात् । (
अनघ्रेव नवरात्रारम्भः \। तत्र परविद्धा ग्राह्या ।\ तदुक्तं गोविन्दाणवें माकण्डय-
देवीपुराणयोः-प्वेविद्धा तु या शुक्ला भवेत्मतिपदार्विनी ।। नवरात्रव्रतं तस्यां न॒
कार्यं ज्ुभमिच्छता \\ देशभङ्धो भवेत्तत्र दुभिक्षं चोपजायते ।! नन्दायां द्क्- `
य॒क्तायां यत्र स्यान्मम पूजन् ।। तया देवीपुराणं-न दश्कल्या यक्ता प्रतिपन्च- ` 1
. ण्डिकाच॑ने ।! उदये द्विमुहर्ताऽपि ग्राह्या सोदयकारिणी ।। यदा पूर्वदिने संपूर्णा `
शुद्धा भूत्वा परदिने वर्धते च तदा संयुणत्वादमायोगामावाच्च पूवव ॥। यानि तु `
दित्तीयायोगनिषधपराणि वचनानि श्रुतानि तानि शुद्ाधिकनिषेधपराण्येव ।॥ `
परदिने प्रतिपदसत्वे तु अमायुक्तापि ग्राह्या ।। तदाह लल्लः-तिथिः शरीरं
। तिथिरेव कारणं तिथिः प्रमाणं तिथिरेव साधनम् ।। इति ।। यानि त्वमायुक्ता
प्रकरतैग्येति नसिहप्रसादोदाहूतवचनानि तान्यप्येतद्विषयाण्येव ।! अत्र देवपूजा
धा अष्टम्यां ध । च नवम्यां च जगन्मातरमम्बिकाम् ।।
च च्चण्डिका्च॑ने ।। तयोरन्ते विधातव्यं कलशस्थापनं गुह ।। इति ।! यदा तु
ृत्यापि २ हिता प्रतिपन्न कभ्यतं तदोक्तं कात्यायनेन-प्रतिपद्यारिविनं मासि `
वेषर्ति चत्र योः ।। आच्चयादौ परित्यज्य प्रारभेन्नवरात्रकम् ।! इति ।! सद्रया- `
तपरेव चित्रायुक्ता यदा भवेत् ।। वेधत्वया वापि युक्ता स्यात्तदा
~ -- --- -- ~ क ~ -- = ~ र~ ८ = = <~ ठ घ 3 4 ध
ज्तानि) ह्ीदीकासहिति (८१) |
अथञआद्िवन शुक्ल प्रतिपदाको मातामहका श्राददौहित्रको करना चाहिये यह हैमाद्रिमे है किजन्म ठेतेही दौहित्र `
उचित है कि मामाके जिन्दे रहते हृए भौ आश्िवन शुक्ला प्रतिषदाको नानाका श्राद्धे करे ! यह् प्रतिपदा संगव `
कार्तक रहनेवाली लेनी चाहिये; यह निर्णय दीपमें कहा है कि पिताके जिन्दे रहते हए दौहितरको चाहिये; `
कि आद्िवन शुक्ला प्रतिपदाके संगव काल मं मातामहका श्राद्ध करे । जातमात्र भी दौहित्र मामकेजीवित `
रहते हए भी प्रातःकाल ओर संगवके मध्यमे जो आश्िवनक प्रतिपदा हो तो अवद्य श्राद्ध करे । यहां दौहि्रका ||
जो “ सपिता" यह् विकेषण किया है, इससे पिताके जिन्दे रहते ही अधिकारी हे 1 श्राद्धमी पिण्ड रहित करना ||
चाहिये, क्यो कि, जिसका |
स्त्रीके पतिकोहीये काम करने चाहिये ।। इसमें ही नवरा्रका आरंभ होता दै-दसमं द्वितीया- `
सेविद्धा प्रतिपदाखेनी ॥
` विद्धाजो आदिन प्रतिपदा हो तो, शुभ चाहनेवालेको उसमें नवरात्रका प्रारभत करना चाहियेएेता करनेसे =
अहां देश भंगभौ होता है तथा अकाल पडता है, जो दायुक्त नन्दाम मेरा पूजन होयतो । एसे ही देवौ पुराणम `
है \ षराउदय दय कालमें दो घडी भी प्रतिपदा हो तो बह उदय करनेवाी है उसमे दर्ग पूजन करना चाहिये! = `
भब प्रतिषदा पूवं दिनम सपुणं शुद्ध होकर द्वितीयामे बढती
चास्याका योग न होनेकेकारण पर्वाही करनी चाहिये ।
सका बाप जिन्दा हो, उसे मुण्डन, पिण्डदान ओर प्रेतकमं न करना चहिये न गभिणी ।
चाहिये येही सोविदाणेवमे देवोषुराण भौर माण्ड पुराणके बचन कहे है कि पूवस `
स
लिखा है कि, जिस प्रतिपदा अमावसकरी एक कला भौ मिलीगई हो वो चंडिकाके पूजनम उपयुक्त नही = `
१ हो तो उसं समय संपूणं होनेके कारण तथाजमा- =
"९ जं जो तो द्वितीयके योगम निषेध करनेवाले वाक्य ध । | | ॥
सुनेगये है वे शुद्धे अधिक के विषयमे निषेधपर है । पर दिन प्रतिपद् न हो तो अमा युक्तका भौ रहण कर `
कना । यहौ लल्ल कहते हं कि-तिथि ही शरीर है, तिथि कारण है भौर तिथि ही प्रमाण है । जो नररसिह् ` 1
भ्रसादने बचन उद्धत किये हँ कि अमायुक्ता करनी चाहिये वे भौ पर दिन प्रतिपद् न हो तो अमायुक्तमं ही
करो, इस विषयके ही हे \ इसमें देवौ पूजन प्रधान है, उपवास आदिक उसके अंग हँ । क्योकि, हेमागरिमं भवि-
(1 अन (तिप
ध
प
दुर्गापूजा कूमारीयूजादि करिष्ये ।इति संकल्प्य तद द्धः गणपतिपुजनं पुण्याहवाचनं `:
मातुकप्पूजनं नान्दीश्राद्धं च करिष्ये इति संकल्प्य गणपतिवुजादि कृत्वा ततो `
सहीद्यौरिति ममि स्पृष्ट्वा ओषधयः संवदंत इति यवालचिक्षिप्य आकलशेष्विति `
कुम्भं संस्थाप्य इमं मे द्धे इति जलेनापुये गन्धद्रारामिति गन्धम् ।। ओषधयइति `
सर्वोषधीः।\ काण्डात्काण्डादिति दूर्वाः \\ अश्वत्थे व इति पञ्चपल्लवान् ।\ `
स्थोनपृथिवीति सप्तमृदः ।। यः फलिनीरिति फलम् \ स हि रत्नानीति पंचर- `
त्नानि ।। हिरण्यरूप इति हिरण्यं क्षिप्त्वा ।। युवा सुवासना इति वस्त्रेण सूत्रेण `
वाऽ्वेष्टच पूर्णादर्वीति पुणेपात्रं कलशोपरि निधायतच्र वरणं संयुज्य जीर्णायां
नूनाधां वा प्रतिमायां दुर्गामावाह्य पूजयेत् ।। नू्तनमूतिकरणेऽन्नयुत्तारणं कुर्यात् `
अयं पूजा ।\ आगच्छ चरदं देवि देत्यदपकनिबदनी \\ पज; गृहण सुमुखि नमस्त ८
शंकरभ्रिये ।। स्वेती्मयं वारि सवेदेवसमन्वितम् ।\ इमं घटं समागच्छ तिष्ठ `
देवि गणैः सह \! दुगे देवि समागच्छ सान्निध्यमिह कलत्वय ।। बलिपूजां गृहाण `
त्वमष्टभिः शक्तिभिः सहं ।। शंखच र दाहस्ते शुभरवर्णे शुभासने ।॥ मम देवि
र क ध ॥ या प क प 1 2
एावयातायनाा----------------------------- , . ( ॥ त 5 स 0 1 9
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(८३)
ह | मनसः काम० पुष्पाणि \। अहिरिव भोगेः० ऋक् \ परिमलद्रव्य। णि }) अथाङ्घ-
पूजा ॥। दुगि नमः पादौ पूजयामि । महाकाल्ये° गुल्फो प्रु । मङ्गलाय ° जानु
नीपु० 1 कात्यायन्ये° ऊरू प° । भद्रकाल्यं० कटी पू० । कमलाय नाभि पू...
किवायै० उदरं पु० ! क्षमायै हदयं पु० \ स्कन्दाये० कंष्ठं प° । महिषामुर-
मदिस्ये० नेत्र पू० । उमाय श्चिरः पू० ¦ विन्ध्यवासिन्य० सर्वाद्धः प° । दशाद्ध
गग्गलं धपं चन्दनागरसंयतम् । सया निवेदितं भक्त्या गृहाण परमेश्वरि \॥\ `
यत्पुरुषंव्य० कदमेनधरनाभू० धूपम् । आज्यं च वतिसयुक्तं वह्धिना योजित लया ॥। |
। दषं गृहाण देवि स्वं त्रैलोक्यतिभिरापहे ।। ब्राह्मणोस्य ० आपः सुजन्तु° दीपम् ।॥
अन्नं चतुर्विधं स्वादु रसैः षड्भिः समन्वितम् ।। भक्ष्यभोज्यसमायुक्तं प्रीत्यथं
प्रतिगृह्यताम् ।। चन्द्रमा० आद्रा पुष्क० नेवम् । आचमनीयम् ।\ मलयाचल
संभूतं कस्तूर्या च समन्वितम् ।। करोद्र्तनकं देवि गृहाण परमेदवरि ॥! करो्- =
` तनम् ।। इदं फलं मया देवि स्थापितं पुरतस्तव ।! तेन से सफलावाप्तिभवेज्जन्सनि `
| जन्मनि । नाभ्याजा० आ्द्रायःकरि० फलम् ।।! पुगीफलम् महदहिव्यं नागवल्ल्या =
वलर्बुतन् \\ कर्प्रेलासमायक्तं ताम्बलं प्रतिगृह्यताम् ।! ताम्बूलम् हिरग्यगभेति `
दक्षिणाम् ।। यज्ञेनयज्ञं यः शुचिःप्र° 1! संत्रपृष्पाञ्जलिम् ।॥ अहवदाये गोदाय
इत्यादि प्राथयेत् ।। ॐ भ्ियेनातः नीराजनम् ।। श्रसुक्तं संपुर्ण पटित्वा पुष्पाञ्जन `
लिम् । मंवहीनं क्रियाहीनं भवितहीनं सुरेश्वरि ।\ यत्पुजितं सया देवि परिपुणं
तदस्तु मे \\ महिषध्नि सहामाये चामुण्डे मुण्डमालिनि \\ यशो देहि धनं देहि
सर्वान्कामांइच देहि मे ।! नमस्कारम् ।! अथ कुमारीपुना ।। ॥ एक्वर्षातुया |
न्या पूजार्थे तां विवजंयेत् ।\ गन्धपुष्पफल्गदीनां प्रौतिस्तस्या न विचय
सीं मातृणां रूपधारिणीम् ।। बनदुर्गात्मिकां साक्षात्कन्यामावाह- `
इति । तासां पृथंड नासान्याह-दिव्षकन्यासारम्य दशवर्षां + | ५
1 ब्रतराज प्रतिषद्-
जननीं नित्यां कल्याणो पूजयाम्यहम् ।।! ३ ॥ अणिमादिगुणाधारामकारा- `
चक्षरात्मिकाम् ।। अनन्तशक्तिभेदां तां रोहिणीं पजयाम्यहम् ।। ४ ।) कामचारी
कामरात्रीं कालचक्रस्वरूपिणीम् ।! कामदां करणाधारां कालिकां पूजयाम्यहम् `
॥५। उग्रध्यानां चोग्ररूपां दुष्टासुरनिब्हिणीम् ।। चार्वद्खी चण्डिकां लोके `
पुजितां पूजयाम्यहम् 1\ ६ 1 सदानन्दकरीं शान्तां सवेदेवनमस्कृताम् । सवै-
` भूतात्मिकां लक्ष्मीं ज्स्भवीं पुनयास्यहम् 11७ ।! दुर्गमे दुस्तरे युद्धे भयदुःखविना- `
किनीम् ।। पूजयामि सद्य भक्त्या दुर्गा दर्गात्िनाशिनीम् । ८ ।! सुन्दरीं स्वणे- `
क. =,
वर्णाभा सवेसौभाग्यदायिनीम् 1! सृुभद्रजननीं देवीं सुभद्रां पूजयाम्यहम् ॥९।॥ `
इति कुमारीपूजनम् ॥। प्रारम्भोत्तरं सूतकप्राप्तावाह ।। सूतके पुजन प्रोक्तं जपदानं `
विक्ञेषतः ।! देवीमुहिर्य कर्तव्यं तत्र दोषो न विद्यते ।\ इति ।\ अनारब्धे त्वन्येन
। ` कारयेत् \। रजस्वला तु ब्राह्मणैः पूजादिकं कारयेत् : सूतकवद्विशेषवचनाभावात्।। `
सभतं कस्त्रीणां नवरात्र गन्धादिसेवनं न दोषाय ।। तदुक्तं हेमाद्रौ गारुडे-गन्धा-
` कुंडकारताम्बलयुष्पमालानुलेपनम् \। उपवासे न दुष्यन्ति दन्तधावनमञ्जनम् \॥ `
अथ नौरा के धट स्थापन कौ (नतित के दिन प्रातःकाल उबटना करम
` कालको कहकर मेरे इसी जन्म मे दुर्गा के पुजन के प्रभाव से संगूणं आपत्तियों के
ब्रतानि] दिनदीं
तं भागं चित्रमीमहे" वे सर्वेश्वय्यंारी सूयं देव जयमानके लिये रत्न देते हँ, हम उनसे चाहने कायक भयको
मांगते हैं । इस मंत्रसे पंचरत्न डालकर “ओम् हिरण्यरूपा उषसो विरोक, उभाविन्रा उदिथः सूर्य॑श्च, आरोहतं
` वरुणमित्रगतं ततश्चक्षाथामरतिथि दिति च । मित्रोऽसि वरुणोऽसि !\--हे सुवणेके समान स्यवाले इन्र ओर `
सूयं, आप दोनो उषा कालके समाप्त होते ही प्रकट होते हो, आप दोनो इस कलमे विराजमान हं अदिति `
ओर दिति दोनोको देखो ! इस मंत्रसे उस कलश्चामं सुवणं डालना चाहिये । “ओम् युवा युवाकस्षाः परिवीत
1 | आगात् सड स्रेयान् भवति जाय भानः \! तं धीरासः कवय उच्यन्ति स्वाध्यो मनसा देव यन्तः |} यदि अच्छे ` | ।
` कपडे पहिननेवाला युवा परिवौती होकर आता है तो वो अच्छा ल्यता है उसको विचारलील कान्त दर्श ८
विदान् पवित्र मनसे विचार करते हुए उत्पन्न करते हँ । इस मत्रसे कश्च पर वस्त्र डाल सूत्रसे वेष्टित केर ौ
` “ओम् पूर्णां दि परापत, सुपूर्णा, पुनरापत, वस्नेव विक्रीणावहे इषमूजं ˆ शतक्रतो 1! हे पू्णयन्र ! त `
इक्छृष्ट होकर इस पर बैठ जा, सुपुणं होकर फिर ज, हे शतक्रतो ! मूल्य देकर खरीदके ने समान इस ओर ` `
(व है । इस मंत्रसे पूणपात्रको कल्ठा पर रखदे फिर उसपर वरुणका पुजन करके नूतन मू्िहो वा `
पुरानो मति हो, उसमें दुर्गाका आवाहन करना चाहिये । यदि नयौ मृति हो तो पूर्वकौ तरह अन्नयुत्तारण `
करना चाहिये । अथपुजा-हे वरकेदेनेवाली देवी ! हे दैत्योके अभिमानको नाराकरनेवाली आ, हे सुमुखि ! =:
समन्वितहैःहे |
लिये नमस्कार है । सब ती्थमय जल सब देवे २
वि! अपने ते गणोके साथ इस घरपर आकर बैडो । हे गदिवि ! यहाँ आकर मृञ्ने सन्निधि हो एवम् आोकषवित- = |
1 र साथं पूजा ओौर अक्िको ग्रहण करिये । हे शंखचक्र भर गदाको हाथमे लिये हुए, है सुन्दरवणं ओौरशुभ- |
` मुखवाली, हे सवं एहवर्योको देनेवाली देवौ, मुके वर दे “ओम् सहस्र शीर्षा" इस मंत्रसे तथा “हिरण्यवर्णं `
हरिणी सुवणंरनतस्रजाम,. ! चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मी जातवेदो ममावह \\" हे जात वेद ! तेजस्दल्पिणी, सब
` दुखोको हंरनेवाली, सोने चांदीको रचनेवाली एवम् सथको आत्हादिक करनेवाली, तेजामय लक्ष्मीक
॥ ५ ( लक्ष्मीमनपगाभिनीम् । यस्यां हिरण्यं विन्देयं गामद्वं पुरुषानहम् 1 हे जात वेद ! उस न जानेवाली लक्ष्मौको
। ५ सादे, जिसमें मै मो, अडव, हिरण्य आर पुरुषको पां, इससे आसन देना चाहिये \ गंपाआदिकि सब तीर्थे |
५ 4 0) वि “भ 9 4. ५ 01 ४ 01041 पप (भो ॥
(0 (0 2 | 4. ८ भ ध
(इसको पंचगव्य प्रकरणम सिख चुके है । तथा घूतम्मिलिक्षे घृतमस्य योनिधृते मिश्चतो घृतमस्य धाम, अनु
ष्वधमादह मादयस्व, स्वाहाङतं वृषभवक्षि हव्यम्” मं इस देवको घुतसे सीचनेको इच्छा रखता हूः इसकी `
धृतही योनि है, चृतमे ही भित है, घृतकी घाम है, तू पवित्रता ला, हमें परसच्च करदे, है कामोकेपुरे करनेवारे, = ।
स्वधके अनुसार स्वाहाकूत हव्यके तथा-ओम् मधुवाता ता ऋतायते मधु श्रन्ति सिन्धवः माध्वीर्नः सन्त्वौ- `
षधीः 1)" सत्य देवके लिये वायु मधु लारहा है, नदियों मधु बह रहीं ह, हमारे लिये भी जोषधी सघुमयहों।
` तथा “ओम् स्वदुः पवस्व दिव्याय जन्मने, स्वादु रिन्रायसुहवीत नाम्ने, स्वादुः मित्राय वरुगाय वायवे, `
४ बहस्पतये मधुमां अदाभ्यः \! आप् दिव्य उदयके लिये स्वादिष्ठ हो जायं तथा इन्रके लि स्वादिष्ठहोकर `
सुहव करे, भित्र वरुण वायु ओर बहस्पतिके लिये नहीं दब स्कनेनारीरे मीठे स्वाद्ष्ठिहो जायं, इन पचो
भंत्रों से पंचामृत स्नान कराना चाहिये । हे ज्ञानमूर्ते ! हे भद्रकालि ! हे दिव्य मूते ! हे सुरेष्वरि ! हैनारा-
` यणि! हे देवि! तेरे लिये नमस्कार है, स्नान ग्रहृणकर इससे, तथा-“ओम् यत्पुरुषेण" इस मंत्रसे तथा `
"आदित्यवर्णे तयसोऽधिजातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽथ बिल्वः ! तस्य फलानि तपसा नुदन्तु सायान्तरायश्च |
` बाह्या अलक्ष्मीः 1“ हे सूयेके समानवणेवाल आपके तपसे वनस्पति हुमा आयका फल तो बिल्व है, उसके ह
८ ` फल तपके फल तपके प्रभाव से मेरी बाहिर भीतरकौ अलक्ष्मीको नष्ट कर देँ । इस मंत्रसे उत्तरीय देना चाहिये । ` + ५
दे देव देवि ! अनेक प्रकारके रत्नों से जडे हए महादिव्य जलंकारोको ग्रहण कर ओर प्रसन्न हो । इसमंत्रते! |
अलंकार देने चाहिये \\ यह चन्दन मल्यगिरिका है कर्पूर भौर मगर इसमें डाले गये हं । मे परम भक्तिसे `
आपको निवेदन करता हु, आप इसे ग्रहण करिये, इस संत्रसे तथा “ओम् तस्माद्यज्ञा इस मंत्रसे तथा-'गन्ध- `
द्वारां दुराधर्षां नित्यपुष्टां करीषिणीम् \ ईङवरी सवभूतानां तामिहोपह्वये धियम् 11" जिसकी प्रप्तिका =`
हार सुगन्धि है, जिसको कोई डरा नही सकता, जो सदा पुष्ट करती है, जिसे अनेकों गाय मादि आजाती `
जो सन प्राणियों की स्वामिनी है, उसे म बुलाता हू, इस मंन्नसे गन्ध समर्पण करना चाहिये । हे सुरश्रेष्ठे
करने चाहिये ।। हे देवि 1 में जापक पुजाके लिय मंदार, पारिजात तथा पाटलो पंकज लाया हु, _
हण करिये । इस संत्रसे तथा-'ओस् तस्माददवा'' इस संत्रसे तथा-मनसः कासमाक्ति वाचः सत्य- `
व्रतानि]
है तीनों लोकों के अन्धकारको नष्ट केरनेवष्ली दीपकको ग्रहण कर ।! इस म॑त्रसे तथा^ओम् ्राह्ममोऽस्छ' =
मंसे तथा “आपः सृजन्तु स्निग्धानि चिल्कीत वसमे गृहे । निच देवीं सातरं भियं वासय े कुले)! ” हेसमुद्र ! = |
` आप लक्ष्मी जैसे ही पदार्थोको पैदा करे, हे लकष्मौके पुत्र चिक्लीद ! मेरे घरमे रह्, देवी मलताश्रौकोमेरे |
` .कुलमे वसा ।। इस मंतरसे दीप देना चाहिये॥चारो तरफका स्वादु अच्च जिसने छौं रस मिले हृएहेः भक्ष्यमौर =
` ममावह 1\" जिसका अभिषेक दिग्गज करते हैँ तथा सबको पुष्टि देती है, पिद्धल दर्घकी है, कमल्कौ मालये
पहने ह सबको प्रसन्न करनेयारी है, दथा्रेचित्त है स्वयं तेजोमय हैः एसी लक्ष्मीको हे जातवेद ! मुन्ने ला
` वे 11 इस मत्से नैवेद्य निवेदन करना चाहिये । पीछे आचमनके मंसे आचमन कराना चाहिये । यह सख्या- `
न पेदा हआ है, कस्तुरी इसमें भिली हई है,तुम्हारी प्रसन्नताके लिये यह् करोहतंन तयार हैः ग्रहण करयं !
इस मंत्र से करोर्तन देना चाहिये । । हे देवी ! यह फल मेने आपके सामने स्थापित किया है, इस्ये सुक्षे इस `
जन्मसे जन्ममे सफल प्राप्ति हो 11 इस मंत्रसे, तथा-भोम् ना भ्या आसीदन्त' इस संत्रसे । तथा- `
॥ ६ क करिणीं य्टि सुवर्णा हेममालिनीम् । सूर्या हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो ममावह ।1' भक्तोपर `
1 जिसका कि, दिग्गज अभिषेक करते रहते हें । जो स्वयम् सब प्रयत्न करती है, सुन्दर वणवासमी सोने की मालां ४
(६ पहिने हुई है, जो सूर्यके भीतर भी बिराजमान रहती है, एसी तेजोमयी लक्ष्मीक है जातवेद तूला} इश् |
भंत्रसे फल समपित करना चाहिये ।। बडा सुन्दर पान है । सुन्दर सुपारी, इलायची ओर कपुर पड़ा हुंजा 5
| हैः इसे आप ग्रहण करिये, इस मंत्रसे ताम्बूल देना चाहिये 1 ! ओम् हरिण्यगभ' इस मंत्से दक्षिणा दे, "मोम ल
|
यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः" इससे, तथा-'यः शुचिः प्रयतो भत्वा जृहुयादाभ्यमावहम् । श्रियः पञ्चदशर्चं
श्रीकामः सततं जपेत् ! जिसे धनकौ इच्छा हौ वह् पयित्रतपूर्वेक सोवाधन होकर रोज हैवन वरता हुमा
श्वीसुक्तकी प्रह ऋचाओंका निरन्तर ऊप करता रहे ।। इससे मंत्रपुष्पाञ्जलि दे । तथा-अइ्वदाथे गोदायै
` धनदात्रे महाधने \ धनं मे जुषतां देवि सर्वकामाश्च देहि मे ।“ अदव, गौ ओर घन देनेदालीके च्वि नम-
स्कार है) हि महाधनवाली देवि ! मेरे सब कामोको मुने दे तथा देनका भो सेवनकरे } अथवा है महाधनवाली
| देवी अश्व, गौ ओर धन देनेके लिये मुक्से प्रेम कर तथा धन ओर सब कामोको दे । इस मंत्रसे प्राना करनी
चाहिये । 1 ˆ ओम् श्रिये जतः धिय आनिरीयाय श्रियं बयो जरितृभ्यो ददाति शभ्ियं वसाना अमृतत्वमाय-
नभवन्ति सत्यासमिथामितद्रौ । श्रीके लिमे पैदा हुमा शरौके लि ही प्राप्त हृभा है स्तुति करनेवालोके च्वि.
` -शभीञरकः
मी ओर वयस देता है, भ्रौको रखनेवाले अमृतत्वको प्राप्त होते ह, बेह संप्रामके वीर, मित चलनेवाे, सत्यः र
साबित होते है । इस मत्रसे आरती करनी चाहिये \ संपुणं भरसूक्त पडढकर पुष्पांजलि देनी चाहिये वे ¦ ५ |
० कामको दे । इससे नमस्कार करला चाहिये । . ~
जब कुभारी पुजा-एकं वंको कन्याको पूजनम ग्रहण न करे, क्योकि उसको प्रीति गन्ध 4४ पुष्प ७ मौर फल `
भनी रण दो वषकीसे लेकर दशवष षं तक की ही पुज्या हु, अन्य नहं हु । सामान्य पजा
क (1 [ प्रतिपद्-
ह ।॥१॥ लेग जिसे त्रिपुरा कहते हँ, जो तीनों गुणोकी आधार है तीनों सा्गके ज्ञानको रूपवाली है, एेसी ` ॥
तीनों खोकोद्वारा बन्दित त्रिमूति देवीको मै पुजता हं \२।। जो कालात्मिक है कलासे अतीत है, करणा भरे क |
हदयकी है, शिवा है कल्याणकी जननी है, नित्य है, एेसी कल्याणी देवीको मे पुजता हें ।\३ ।। अगिमादिक `
- भु्ोकौ आधार है अकारादि अक्षरात्मिका है" जनन्त शव्तियोके भेदवाली है एसी रोहिणीका में पूजन करता
हं ॥\४।\ जो कामचारिणी कामरात्री तथा काल्चक्तके स्वरूपवाली है, कार्मोको देनेवाली है, जिसमे करुणा | | |
भरी हुई है, एसी कालिकाको मं पूजता हूं । ५1} उग्र ध्यानवाली । उग्र रूपवाली, दुष्ट असुरोको भारनेवाली, = |
सुंदर शरीरवाली तथा लोकम पूजिता श्रीचंडिका देवीजीकौ मे पजा करता हूं ।।६ ।\ जो सदा आनंद करने- | `
घाली, शान्त है, जिसे सब देवता नमस्कार करते हँ, जिसकी सब प्राणी आत्मा ह, एेसी लक्ष्मी श्ांभवीको भं 41
भै पूजता हं 1\७।\ जो दुगेम तथा दुस्तर युद्धमं भय ओर दुःखका नार करतो है, उस कठिन आपत्तियोका | `
नाह्यकरनेवालो दुर्गाको मेँ भवितके साथ सदाही पूजत हँ ।\८।। परम सुंदरो तथा सोनेके रंगकीसी आभा- ˆ `
वाली, सव सौभाग्योको देनेवाली, सुभद्रकौ जननी, देवौ सुभद्राको मेँ पुजता हं ।\९।। इति कमारी पुजनम्।। 1.
भ्रारंभे करने पर सूतक हौ जाय तो-उसमे कुछ विशेष कहते हें कि, सुतकमे देवीका उदे लेकर पूजन ओर ` 9
विक्ेष करके जप दान करने चाहिये । इनम कोई दोष नहीं है । पर प्रारम्भ न कियाहोतोदृसरोसिहीकरने | `
चाहिये । जो रजस्वला हो उसे तो ब्राह्मणोसे पजादिक कराने चाहिये । क्योकि, सुतककी तरह इसके ल्ि .
कोई विहेष वचन नहीं है । सुहागिन स्वरया यदि नवरात्रि गन्ध आदि सेवन करे तो उन्हं कोई दोव नहँ है,
ा हेमाद्विमं गरुडपुराणका वचन कहा है कि गंधः अलंकार, पान, फूलमाला, अनुलेपन, दंतधावनं ओर | 1
4 बलिरज्ये ८
बलिराज्ये तथेव च \। तलाभ्यज्मकुर्वाणो णं ` नरकं प्रतिपद्यते ।! इति वस्तिष्ठोक्तेः
अत्र कृत कतेव्यमाह् ॥ प्रातर्गोवद्धन पज्यो द्यत चापि समाचरेत \\ भूषणीयास्तथा
पुज्यारचावाहदोहनाः ! अथ द्यूतप्रतिपत्कथा ।। वालखिल्या ऊचुः ॥
चयुदयेऽभ्य्धः कृत्वा नीराजनं ततः \\ सुवेषः सत्कथागीतेदनिद्च दिवसं `
१।। शङ्कर स्तु तदा चूतं ससजं सुमनोहरम् ।। कार्तिके शुक्लपक्षे तु
सामदानादिकं कृत्वा आनय
‡ ५ | ता ४ न् [शि ह ४ [स „~ ४ ‰ ६५५ ट १8 ॥ ॥ ॥ ४ ॥ ॥
"तामि ` - ~ ह॒न्दाट गेकासहित म् {£ ) ५,
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तथेत्यक्तः क्वचिदगच्छाम्यहुं ततः ।। १२।। स्कन्द उवाच ।। मा गच्छ त्वं
महादेव चतमार्गं प्रदश्ञंय !। आनीयते मया जित्वा सवं तव धनाधिकम् ।1१३।। =
क्िवेनापि तथेत्युक्त्वा दयतमार्ग प्रदकितः \! स्कन्दोपि गृहमागत्य पार्वतीं वाक्य- |
मन्रवीत् ।। १४ 1! स्कन्द उवाच ।। देवि देवो गतः क्वाऽसौ वृषभोज््रव संस्थितः! = |
ज्ञीषे चन विधुः कस्मान्मातः सत्यं वदाद्य मे \\ १५ ।। देव्युवाच \। स्वयमेव कृतं
यतं स्वयमेव पराजितः ।। स्वयमेव गतः कोधासप्रा््य॑तां स कथं मया ।।१६॥ |
स्कन्द उवाच ।! मया सह ऋीडितन्यं कथं तत्कीडनं त्विति ।! देव्यक्रीडत्तेन सद्धं |
ततः स्कन्देन निजितम् 1! १७ \} मयूरेण वृषस्तस्याः शक्त्या पन्नगबन्धनस् ।॥ `
वृषेणेन्दुस्ततोऽर्धाद्धः तत्सवं तेन निजितम् \! १८ ।! कौपीनं निजितं चम॑ गृहीत्वा |
तदु ययौ ।। गद्धातीरे यत्र शिवस्तत्रागत्य न्यवेदयत् ! १९ ।। ततो देवीसमीपे `
तु विघ्नराजः समाययौ ।! किमर्थं स्लानवदना देवी जातासि तद्द ॥ २०।॥ `
देव्युवाच ।। मया जितो महादेवः स तु गोहाद्विनिगेतः ।! आयास्यति वृषादर्थमिति _ `
संचित्य संस्थितम. । २१।। तव भ्रात्रा तु तज्जित्वा सवं तस्म निवेदितम् ॥\
नायास्यत्यधुना देव इति चिन्तापरास्म्यहम् ।\ २२ । गणेश उवाच ।\ देवि शिक्षय
र इहि त् पुत्रवचः श्रुत्वा तस्म यतमशिक्षयत् ।! स गहीत्वा पायुं सारिकाः शीघ- 1.
माययोौ ।।२८६।। पृष्ट्वा पृष्ट्वा थत्र देवाः स्कन्दो यत्र व्यवस्थितः ।। गणेश उवाच ।। |
मयानीताविमौ पाश्लौ सारिकाः पट एव च ।। २५।। क्रीडात्वंतुमयासद्धं |
वस्याग्रे समा 1 ।। इति स्रातुवचः श्रुत्वा हचुभाभ्यां कोडितं तदवा २६) |
। मयुर लि स्य च तथैव
५ १ गणेशं वाक्यमब्रवीत् ।! २८ । सम्यक कृतं त्वः व्या पुत्र ते ना नीतोसौ महेश्वर ५.
1 ¦ यात्र महश्वरम् ।\२९ त्युक्त्व ऽस
र्ह्य च मूषकम् ।\ त्वरितं चाययो तत्र गृहं नेतुं महेश्वरम् ।
। (९०) । (1 त्रतराज 4 [ प्रतिपद्-
व
यथय
, महादेवं विनयानतकन्धरः \। ३९ ।। गणेश उवाच \\ आगम्यतां देव गेहं देवी
भानपुरःसरम् \ यदि नायासि गेहं त्वं प्रारणास्त्यक्ष्यति चाम्बिका) ३७ `
` त्वय्यागते पया सर्वं कायंमेतदुषायनम् ।। महादेव उवाचं ।। एषा त्यक्ता मावि-
व्याऽधुना गणपर्निमिता ।। ३८ ।। अनया क्रीडते देवी आगमिष्ये गृहं तदा \
गणक उवाच ।। सर्वथैव करीडातव्यं देव्या नास्त्यत्र संशयः ।। ३९ 11 आगम्यतां
गृहं देव भरात्रा सह् हि मा व्रज ।। इति तस्य वचः श्रुत्वा ईश्वरः सगणो ययौ 1४०११
नारदोष्यागतस्तत्र महोतुरपि चागतः \\ उपविष्टास्तु केलासे देवास्तत्र समागताः
॥४१।\ इष्ट्वा देवीं प्रहस्थादौ महेश्षो वाक्यमन्रवीत् ।। च्यक्षविद्या महादेवि
गङ्काष्टारे विनिर्मिता ।! ४२।। अनया जयसे त्वं चेत्तदा त्वं सत्यभाषिणी। `
देव्युवाच ¦} दषादि तव सामग्री मयेयं कापिता शिवा ।४३ 1! त्वया कि लाप्यते
बूहि क्शैयस्व सदोगतान् \\. इतिश्रुत्वां वचस्तस्याः प्रक्षताधोमुखं हरः ॥।४४।। ` इ
, ` तस्मिन् क्षणे नारदेन स्वकौपीनं समपितम् !। वीणादण्डदचोपवीतमनेन करीडता- `
भिति ।)४५।। सदाशिवः प्रसन्नोभूत्कीडनं संप्रचक्रतुः ।। यद्यद्याचयते स्रस्ता
विष्णुः प्रजायते ।\४६।। यद्यद्याचयते देवी विपरीतः पतत्यसौ ।। स्वकीया-
भरणादचं च महादेवेन निजितम् ।। ४७ ।। स्कन्द लड्कारिकं सर्वं पुनराप्तं हरेणच।।
ततो गणेशः प्रोवाच वाक्यं सदसि गवितः ।\४८ ।। न कीडितव्यं है मातः पाश्लो
लक्ष्मीपतिः स्वयम् ।। कृतो हरेण स्ेस्वं ते हरिष्यति मत्पिता ।। ४९।। इति
पुत्रवचः शरुत्वा पादेती कोधमू्िता ।! तथाविधां तामालोक्य रावणो वाक्यम न म~
~
यथोचितामृतिशष्वानङ
सर्वेषामादिमायेयं यथायोऽ्यफलभ्रदा \। नायं शाप इयं देवी स्मतेष्या तु विचक्षणैः
॥६१ गङ्ख सदा तिष्ठतु सद्रमस्तके बलमा बा नयतु क्षपाचरः ।। जायाहरस्याथ
ध तृष्मारहितः कुभारः ।। ६२ ॥! अहं असामि धरणी न |
स्थातव्यं तपोधनैः ।\ सध्यण्देवि त्वथ प्रोक्तं श्युण्विदानीं वचो सम \} ६३ |
सर्वक्रोधापनुत्पर्थं ननत॑मुनिपुद्धवः ।\ कक्षानष्दं चकारोच्चरहाहिहीहीति चह |
. वीत् ।६४।। तस्य चेष्टां विखोक्थाथ सवं हषेमवाप्नुयुः \। देव्युवाच भोभो ५
` विहूषकश्वेष्ठ कृतङृ्योति नारद । ६५ ।। वरं वरय भद्रं ते यद्यन्मनसि रोचते! = ,
नारद उवाच ।\। याचयन्तु वरं सर्वे कोकीं याचयिष्यति ।। ६६।। सर्वे तेयाच- |
| यिष्यन्ति यथाचेष्टं बरुवन्तु तत् ।। शिवं उवाच ।। सवं सक्षम्यतां देवि नितंय्द्र-
। षभादिकम् ।। ६७ ।! तन्ममास्तु चयूतश्नतेनं ग्राह्यं जगदम्बिके ।। देव्युवाच ॥ `
। मास्तु त्वया समेनाथ स्वप्नेपि मम चान्तरम् ।! ६८ ।! एतदेव वरं मन्ये कोधो `
भाभन्ममोपरि 1) कातिके शुक्लपक्षे तु प्रथमेऽहनि सत्यवत् ।। ६९ 11 जयो ल्न्धो
मया त्वत्तः सत्ये नैव महेश्वर ।। तस्माददयतं प्रकर्तव्यं प्रभाते तच्च मानवे: ।॥७०। =
` तस्मिन्दते जयो यस्थ तस्य संवत्सरं जयः । विष्णुरुवाच ।। अहं यं यं करिष्यामि
श्रेष्ठं वा लघुमेव वा ।\७१।। तथातथा भवतु तद रमेनं वदाम्यहम् ।। स्कन्द उवाच।।
| । सदा मनस्तपस्याथां मम तिष्ठतु देवताः ।। ७२।। कदापि विषये मास्तु
| एष वरो सम ।! गणेश उवाच ।। संसारे यानि कार्याणि तदादौ मम पजनात् ।।७३।!
[ प्रतिपद्
^-^ ~~ 1 9 श
कृते होमे ्विजेनद्रेश्व बध्नीयान्मागं पालिकाम् ।\ नमस्कारं ततः कुर्यान्मत्रेणानेन
सुव्रत ।। ८५।। मार्मपालि नमस्तेस्तु सवेलोकसुखप्रदे ।। विधेयैः पुत्रदाराद्यैः
पुरयेहां वृतस्य मे \! ८६।। नीराजनं च तत्रैव कार्यं राष्टूजयप्रदम् ।। मागेपालोत
तकेनाथ यान्ति गावो वृष गजाः \\ ८७।१ राजानो राजयपुत्रारच ब्राह्यणाः शूद्रजा- `
तयः \) मार्गपालीं समुल्लंघ्य नीर्नास्तु सुखान्विताः \1 ८८ ।। तस्मादेतत्प्रकुर्वोत
तादय विधिपूर्वकम् \। ८९।। इति सनत्कभारसंहितायां द्यूतविधिः ।\ ५
अथ कात्तिकश्ुक्लाम्रतिषदा-पुरवा ग्रहणकरनो क्योकि पदयपुराणमं लिखा हुभा हेःक्िवरात्रि ओर कातिकलुक्ला १
प्रतिपदा पू्वविद्धाही करनी चाहिये, इसमे उवटन करना जरूरी है, क्योकि वत्सरके आदिमं, वसंतके आदिमं ` ८
तथा बलिके राज्य मेंजो तैलाभ्यद्धः नहीं करता वो नरकमें जाता है यह वसिष्ठजीने कहा है ) इस तिथिम्
क्याकरना चाहिये ? सो कहते हे कि -प्रातःकाल गोवर्धन का पूजन करे तथा ज् भौ खेले तथा गऊओंका `
पूजन ओर शरुद्धपर भी करना चाहिये । अथ कथा-बालखिल्य बो कि, प्रतिपदाके दिन प्रातःकाल उबटन `
स्थान करके अपना श्युंगार करना चाहिये \ फिर अच्छी कथा वातं में इस दिनको पूरा करना चाहिये ।१॥\ `
श्रीमहादेवजीने का्तिकलशुक्ला प्रतिपदाको सत्यकी तरह सुंदर जूमा रचा था ।॥२।। सदारिव भगवातूने
देवीजीसे कहा किहे देवी! किसी के कालक्षेपके लिये तथा किसीको घन पानेकेछिए 11२! एवम् किसके `
धनके नाशके लिये मेने जमा बना दिया है,इस जुएके खेलको आप देखे मे एक भुवन को दावपर लगाता हुं ।\४।। `
` एकं भुवन दावपर रख दिया ओर दोनों ज॒मा खेलने लगे पर पाव॑तीजोने उस दावको जीत लिया । महादेवजीने `
दूसरा भुवन दावपर रखदिया श्रीसतीने वह भी जोत लिया ।\५।\ महादेवजौने तीसरा भुवन भी दावपर
रख दिया, उसे भी अम्बाने जीत लिया, फिर नादिया, इसके पीडे चमे, फिर साँप दावपर लगादिया ।\६
शशिलेखा, इसके पीछे डमरू दावपर रखा, इन सबोको पावंतीजीनें जीत चया } शिवजौ सन कुछ हारकर
वल्कल वसन पहनकर धघरसे चले गयं ।७।। शिवजी गंगाकिनारे चरे आये ओर गहरी चिन्तासे व्याकुल
. । ध | | व्रता नि 1
भह सुनकर गणेश बके कि, हे देवी ! मुकने जू खेलना सिखादे में भाई ओर वको जीतकर सबकुछ लादू ` क
तो तेरा बेटा, नहीं तो नहीं ।\२३।} पुत्रके एेसे वचन् सुनकर उन्हुं ज॒मा खेलना बतादिया, चो दो पासे ओर |
भ, क
भोर लेकर खेलने चलदिये ।।२४।। पृते युते वहाँ चङे आये, जहाँ स्वामिकातिकजी बेठेये । स्वामिकातिक- `
जीसे बोले कि, मे दो पासे गोट ओर कपडा केकर चला हूं ।\ २५।। हे बड़े भाई ! आयमेरे साथद्षिवजीके |
| सामने खेल, भाईके वचनसुनकर स्कन्द खेलनेको तयार होगये, फिर दोनो भादयोमे जञ मचा ॥२६।॥ ।
गणेहाजीने मूसेसे वृषभ ओर मयूरको भौ जीतलिया तथा शिवजी ओर स्कन्दकी सब कुछ ।२७ ।। जीतकी |
। चीजेलेकर गणे पार्वतौके पास अये पा्वतीजीभी जयी पुत्रसे बोलीं कि 11२८।1 पुत्र ! यह तोतनेटीक |
५ । | | किया पर शिवजीको न लाया । जाः सामि दामादिक करके हिवजोको यहु संञा ।\२९। गणेक्षजीने कंहा कि । | । | | |
अच्छी बात हैः अभी लाता क्ञट मूसेपर सवार हो श्री घ्रही शिवजौको धर लानेके च्वि चलदिये ।३०॥ = |
`. शिवजी वहसि उठकर हरिद्वार चङे आये, नारदजीने यह सब समाचार विष्णुभगवान्से कहा, विष्णुभगवान् ` |
0 शिवजीके पास पहूंचे ।।३१।! विष्णु भगवान् हिवजीसे बोले, कि शिव महाराज ! व्यक्न विद्याकरिये, मेँ ` । ध
एक अक्ष हो जाञंगा, रावण वहाँ सुनरहा था बोला कि अच्छी नात है, आप काने हो जाइये ।1३२।। यह सुन 1
देखते
@ ५ मन् गे तुम मेरे ओर विावकी तरह देखते हो इस कारण आप विल्ले होजाओ । नारदजी
`! अब बडा कायं सिद्ध होगया, वो गणेदवर आ रहा है ।\३३॥ आपका समाचार जाननेको ` `
५ हे रावण ! तुम उनके मूसेको डरा दो । श्रीदेवधिके एते वचन सुनकर रावण अगाडीसे ।।३४।। बिावकी `
तरह शब्द करने लगा, जिसको सुनकर मूसा भाग गया
ग, गणेशजी मूसेको छोड धीरे धीरे पैदर चे आये ॥1र५।॥ = ` |
गणेशजीने दूरसेही देवलिया कि, विष्णुभगवान पासा बन गये हँ, महादेवजीके सामने प्रणामकरके नस्रतासे = ` ध
अंबिका प्राणोको छोड देगो ।\३७।। आप जब धर चरू आवेगे तो म॑ वहां सब भेट कर दगा, यह् सुन कश्िवजी
बोले कि हे गणेशा ! इस समय मेने त्यक्ष महा विद्या निर्माण की ह ।\३८।। यदि इनसे मेरे साथ पावेतीजी
तो मं आ । यह् सुनगणेशजी बोले कि आपके साथ मां अवद्य खेरेगी, इसमे कोई सन्देह नहीं है \१३९। . `
| # भार्ईको साथ केकर आइये जाइये न गणेशके एसे वचन सुनकर गणोसहित शिवजौ घरको चरुदिये ।[४०। `
पवतीजीको वतै ह १ ह्पडे २५ स हे महादेवी ! मेने इस गरयक्ष विद्याको
भाष सृक्षे जीत लगौ तोभाप सच बोलनेवाली हे यह् सुनकर
हौ पडता थ, इस तरह किवजीने ५. > हारे हृष् सब
7 रावणभी आगया, वहाँ केलासपर सब देवता भी आये हृए
(1 क [ प्रतिषद्- `
पन कियाहै, इस कारण तु सदा बारूक ही रहेगा, न युवा होगा जौर न ब्ढाही होगा ।\५६।। तुके स्वप्नमे `
भी स्त्री सुख न मिलेगा यह् सुनकर गणेडाजी पावतौजीसे बोर कि, माँ ! इसने बिल्ला बनकर मेरे मूसेको `
` भगा दिया था 1५७11 इसने सेरे मागके बीचमं विघ्न किया था, इस कारण इस अधम राक्षघको तो शाप दे । ४ ॥
देवी बोली कि, है दृष्ट ! तूने मेरे पुत्रके सागेमं विघ्न किया था ।५८।।। इस कारण, यह् तेरा वरी विष्णु तुक्च `
मारेगा, देवीके एेसे वचन सुनकर सबको मनमें ऋोध आया ।\५९।} इन्होने देवीको शाप देनेका विचार
किया कि, नारदजी बोरे-हे देवो ! आष क्रोध न करो, यह् किसी तरह भी श्चाप देने योग्य नहीं है ॥\६०।॥ `
यहु दबकी आदिमाया है, यथा योग्य फलकौ देनेवाली है, यह ज्ञाप रहीं है, यह् तो सदा विद्रानोके यादकरने `
. योग्य है ।६१।। गंगा का सदाही क्िवके श्षिरपर रहना अच्छा है, बलात् भरे ही रमाको राक्षस हरेपर `
` चिष्णुके हाथसे इसकी मत्यु उचित ही है, कुमारका काम तुष्णासे अलग रहनः ही अच्छा है । ६२१ मे भूमिपर `
धूमता ही रह, क्योकि, तपोधर्नोको कभी एक जगह न रहना चाहिये, ह देव ! आपने ठीक ही कहा हैः जनमे
कर सो सुनो ।।६३।। यह कह मुनिपुंगव श्री नारदजी सबके कोधको दुर करनेके लिये नाचने लये, कक्षानाद . `
| करते लगे,हाहा हह आदि अनेक शब्द करने लगे ।\६४।। नारदजीकी चेष्टाओंको देखकर सब प्रसन्न होये, =
इतनेमे देवौ कहनेलगी कि, भो भो विदूषक श्रेष्ठ नारद ! आप कृतछृत्य हों \ तुम्हारा कल्यणहोः जो जापको `
` अच्छालगे वो वरदान मंगला, यह् सुन नारदजीौ बोखे किं, है देवो ! सब वरदान मग लो, कौन क्या मगिगा `
11६६1 जो वरदान मांगना चाहते है उनको जो मांगना हौ सो कहं । यह् सुन क्षिवजी बोले कि, जो वृषभे
लेकर जो भौ कुछ आपने जोता था, उसे जप क्षमा करिये ।\६७।} है जगदम्बिके ! मेरी वस्तु मुकषपर ही `
. रहनी चाहिये चाहं आप्र सौ बार जीती परमेरी चीजे मुक्ञे मिक, यहं सुन पाबेतीजी बोलो कि, मेरा आपसे
कभी स्वप्लमँं मी वियोग न हो ।\६८॥। मे यह् भी माँगती हं कि, आपका कोच मृज्ञपर कभी न हो । कर्यातिक
शुक्ला प्रतिपदाके दिन मेनं सत्यके समान ही ।\६९।। हें महेश्वर ! सत्यसे ही मं जायसे जीती हु" इस कारण
होनेपर होनेपर ।७२।) सिद्धि हो मेरी कृपाविना सिद्धि न हो । रावण बोला कि! वेदक क | र : सतनो ह
सामथ्यं हो जाए । तथा स ह ध सदाशिवमे मेरी सदा अव्यभिचारिणी भक्ति बनी रहे नारजी
६ ४) : ॥ मः
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॥ ् व क ५. ¢ धन ध द: ४ ५४१ क म्
| है, हे सब लोकोको सुख देनेवात्ठी ! विधेय, पुत्र, दार आदिकोमे मृञ्ञे परयुणे कर दे 11 ८६।\ वर्ह राष्टरको ५
| `. जयदेनेवाली आरती करे, मागेयालीके नीचेसे जो गञ, वष, गज आदि 1! ८७ ।। तथा राजा, राजपुत्र ब्राह्म `
| क ^ | । ओर श्र जातिके लोग निकल जाते हव नीरोग एवम् सुखी हो जाते हं । ८८।।।) इस कारण द्यूत आदिक ` | | ् । 6
। विचिपुरवंक करना चाहिये ।८९।। श |
` यह् सनत्करुमारसंहिताकौी द्यूतविधि समाप्त हुई । र
ह अथ बरिपूजागोक्रीडनवष्टिकाकषणानि ५५.
। तत्रैव-वार्खिल्या ऊचुः \) पूर्वेविद्धा प्रकर्तव्या प्रतिपद्रलिपुजने ।\ वधे ष ^
+ मानतिथिर्नन्दा यदा साद्धंत्रियासिका । द्वितीया वृद्धिगामित्वादृत्तरा पत्र चोच्यते! |
| बलिभालिर्य देत्येनरं वेकः पञ्चरङ्धकः ।। गृहमध्यमक्ञालायां विन््पावल्या
। समन्वितम् ।। जिह्वा च ताल्वक्िप्रान्तौ करयोः पादयोस्तले ।। रक्तव्णेनास्य `
, केज्ञान् कृष्णेनैव समालिखेत् 1 सर्वङ्खं पीतवर्णेन शस्त्रा्यं नील्वणेतः । क्सत्रं च
` इवेतवर्णेन यथाशोभं प्रकल्पयेत् ।। सर्वाभिरणक्लोभाठचं द्विभुजं नुपचिह्धितम् ।॥ |
लोकौ लिखेद् गृहस्यान्तः शय्यायां शुक्लतण्डुलैः । मन्त्रेणानेन संपूज्य षोडशेर |
पचारकैः ।! बलिराजनमस्तुभ्यं दैत्यदानवधुलित ।।इनद्रश्रोऽमराराते विष्णुसाल्नि `
` ध्यदो भव ।! बलिमुदिश्य दीयन्ते दानानिमुनि पुद्धवाः ।\ यानि तान्यक्षपाणि
स्युमयेतत्संप्रदशशितम् ।। कौमुत्प्रीतिबेलयस्माहीयतेऽस्यां युधिष्ठिर ।। पाथिवेद्ध-
भुनिवरास्तेनेयं कौमुदी स्मृता ! यो यादृशेन भावेन तिष्ठत्यस्यां युधिष्ठिर ।\
विल्याःअचुः \\ का्तिकस्य सिते पक्षे ह्यद्चकटं समाचरेत् ।। गोवद्धंनोत्सवङ्चेव
श्रीविष्णः प्रीयतामिति ।।१।। ऋषयं ऊचुः ।\ कोऽसौ गोवद्धंनो नाम कस्मात्तं
परिपृजयेत् \ कस्मात्तदुत्सवः काथः कृते किच फलं भवेत् ।।२।। वालखिल्या ऊचुः।।
एकदा भगवान् छृष्णो गतो गोपालकैः सह॒ । गृहीत्वा गाः प्रतिपदि कात्तिक्स्य
सिते बने ।\३।। तत्र नानाविधा लोका गोप्यहचापि सहस्रशः ।\ गोवद्धंनसमीपे `
वु दुर्वनतयुत्सवबमादरात् ।।४।। खाद्यं छेयं च चोष्यं च पेयं नानाविधं कृतम् ।। `
` कृता नगास्तथान्नानां नत्यन्ति च परे जनाः ।\५।। नानापताकाः संगरह्य केचि- `
दावन्ति चाग्रतः ।) केचिद्गोपाः प्रनत्यन्ति स्तुवन्ति च तथापरे ।\६।! तस्ततो
वितानानि तोरणानि सहस्रशः ।। दृष्ट्वेतत्कौतुकं कृष्णो वाक्यमेतदुवाच ह्।१७।१\ `
करुष्ण उवाच ।।! उत्सवः कियते कस्य देवता का च पुज्यते ।! पक्वान्रलादनार्थय
कल्पितो वोत्सवोऽधुना ।८।\ न भक्षयन्ति ये देवास्तेभ्योऽन्नं तु प्रदीयते ॥! प्रत्यक्ष `
भोजिनो देवास्तेभ्योऽच्रं न तु दीयते ।\९\ दृष्ट् वेदज्ञो भवदूर्बद्ध गोपाला वेधसा
` कृताः ।॥। गोपाला ऊचुः ।। एवं मां वद् कृष्ण त्वं वृत्रहन्तुमहोत्सवः । वार्षिकः
` क्रियतेऽस्मामिर्दवेन््रस्य च तुष्टये ।\ १०।। इन्द्रं जय भद्रं ते भविष्यति न संशयः ।\
अद्य कूर्वेति देवेन्द्र महोत्सवमिमं नयः ।\ ११।। दुभिक्षं च तथाऽवृष्टिदेशे तस्यन
जायते ।। तस्मात्त्वमपि कृष्णात्र कुरूत्सवमनेकधा ।\ १२।। कृष्ण उवाच ।\ अयं
व्रतानि]
(९७)
८ नः 0. ४
त नाता माामरनणि
शथः ।\२४।। गोवर्धन धराधार गोकूलत्राणक(रक ।। बहु- ५
भोक्तव्यं स्वेलश्नं न ३ ^
बाहूकृतच्छाथ गवां कोटिप्रदो भव ।। २५ ।। लक्ष्मीर्या लोकपालानां षेनुह्पेम |
संस्थित्ता ।। घतं वहति यज्ञाय मम पापं व्यपोहतु ।\२६।1 पटित्वैवं सन्त्रयुमं सवं `
मुद्रितलोचनाः ।\ कृष्णो गोवद्ध॑नं विद्व सर्वमन्नमभक्षयत् ।(२७।। भक्षणाव्सरं |
` कंटिचनज्जनेदेष्टो गिरिस्तथा !। अतीवाभूत्तदाश्चर्थं तच्चेतसि मुनीहवराः ।।२८।॥
` ततो नाडीदयात् कृष्णो गोपान्वाक्यमुवाच सः ।। अहो गोवद्धनेनात्र क्षणाद्मुक्त- |
भिदं स्फुटम् ॥२९।। पश्यन्तु सर्वे गोपालाः प्रत्यक्षोऽयं न संशयः ।। यथ्स्ति युल- |
वाञ्छा वः कु््वध्य महोत्सवम् ।।३०।। इति शरुत्वा वचस्तस्य सर्वे विस्मित. ` |
` मानसाः ।। गोवद्धनोत्सवं चक्ुरनराच्छतगुणं तथा ।\३१।। इनदरोत्सवं द्रष्टुकामः |
समागच्छत नारदः! गोवद्ध॑नोत्सवं दृष्ट्वा देवेस्य समां ययौ ।३२।। वेवेद्रेण
` छृतातिथ्यो वारंवारं प्रणोदितः 1} नोवाच वचनं किचिहैवेनरः प्रत्यभाषत ॥३३। |
इन्द्र उवाच ।। युष्माक कुशलं विभ्र वतते वा ननेति वा ।। मद्रे कथ्यतां दुःखंमुनी- |
` इवर हराम्यहम् ।।३४।। नारद उवाच ।! अस्माकं कर मुनीन्द्राणामिन्दर दुःखस्य |
कारणम् ।) परं गोवद्धंनः हलः शक्रो जातो विलोकितः ३५1} त्वहत्सवे पुज्य-
तेऽसौ गोषा लरगो्कुलस्थितैः ।! अतःपरं यज्ञभागान् ग्रहीष्यति स एव हि ।\३६
नदरासनं तथेन्ाणीं क्रमान्सवं हरिष्यति ।। यस्थ वीयं च शस्त्रं च तस्य राज्यं
प्रजायते 11३७1} किमस्माकं मुनीन्द्राणां य एवेन््रासने वसेत् ।\ वषा मास्रषट्-
` काद्र द्रष्टन्योऽसौ समागमः ।\३८।। इत्थमुक्त्वा च देवेन्द्र प्रययौ नारदो भुवि ॥ `
इत्थं नारदवाक्यं स शरुत्वा शक्रोऽभ्यभाषत ।\ ३९।। अहो जावर्तसंवर्ता द्रोणनौलक- `
पृष्कराः ।\ सवे मेधा जलं गृह्य करकाभिः समन्विताः ।\४०।। प्रयान्तु गोकुले
शीघ्रं मारयन्तु च गोपकान् \! गोबद्धेनं स्फोटयन्तु वजपातेरनेकशः.
। क्िमकाण्डमुपस्थितम् ।। ४३ हपानीयं करकास्मितदा
ज ॥ नना वी व
गोपालाः कुपितोऽयं हि बासवः नमौल्याक्षीणि भौ
सोवर्धनो भिरिः \॥ ४५ ।। रकाकं
८) ॥ ताज - -.{अतिषद्
नाम्नैव कृष्णो नित्यं प्रयच्छति ।। ४९ \। पक्वाच्नानि च गोपेभ्यस्त्र ते सुखमाव- `
सन् ।\इत्येवं कौतुकं दष्ट्वा सत्यलोकं थयो मुनिः ।\ ५० ।। ब्रह्यस्त्वं कि प्रर
जायते सुष्टिनाकनम् ।। तस्माच्छीघ्रं गोकुले त्वं गत्वा वृष्टि निवारय ।। ५१ `
ब्रह्मोवाच ।! किमथं जायते वृष्टिः कथं सूष्टिविनाशनम् ।।कच्चिहेत्यः समुत्पन्नः
स्वंमाख्याहि मे मुने ।! ५२ \। नारद उवाच ।। नोत्पन्नो देत्यराद् कष्िचिच्यव्तः `
प्तोऽसि `
श्क्रोत्सवो भुवि ।\ गोयकरिति संक इन्द्र एवं प्रवषति ।। ५३ ।। इति तस्य वचः `
श्रुत्वा हंसमारुह्य वे विधिः ।! आगतो यत्र शक्रोऽस्ति कोधदेव प्रवर्षति । ५४।।
ब्रह्मोवाच ।। कथं व्यवसिता बुद्धिरीदृशी ते सुरेहवर ।। त्रैलोक्यनाथो भगवाक्ि-
जंतव्य कथं त्वया ।। ५५ ।। एकयेव करागुल्या पद्य गोवद्धेनो धृतः ।। ईर्ष्या कथं
तेन साकं त्वया शक्र विधीयते । ५६ ।) इति ब्रह्मवचः श्रुत्वा मेघान्संस्तभ्य `
वासवः ॥ प्रणिपत्य च तं कृष्णं शक्रो वचनमब्रवीत् ।! ५७ ॥। इन्द्र उवाच ।॥ `
क्षन्तव्या मल्कृति्विष्णो दासोऽहं श्ञरणागतः ॥। यद्रोचते तत्प्रदेयमपराधापन्- `
0 लये । ५८ ।। कषण उवाच 1 जन्ञातत्वा कव्व चथथ्य गोपालरराचतं त्विदम् ।॥ | |
एषां दण्डस्तु योग्योऽयं सम्यगेव त्वया कृतः ।! ५९ ।। अहं कनीयांस्ते भराता `
तवाज्ञापरिपालकः ।\ शरणागतजातीनां रक्षणं तु मया कृतम् ।।! ६० ।! य
पसन्द देवेश उत्सवोऽ्यं भ्दयताम् गोवद्धनाय गिरये गोकुलं रल्ितं यतः.
नेचितानि
व्रतानि] हिन्दीटीकासहित ` (९९).
अथ बलियुजा, गोक्रीडन, वष्टिकाकषंण-बकिकी पूजा, गऊभोके साच खेल ओर वष्टिकाका कर्षण
(रस्सी लीचना) भी इसी दिन होता है, सनतकुमारसंहितामेही कहा है ! वारुखित्य ऋषि बो कि, बल्कि = |
` . पुजनमे पुवेविद्धा प्रतिपदा करनी चाहिये, यदि वधंमाना प्रतिपदा साढे तीनपहर को । द्वितीयामं वृद्धिगामी |
होनेके कारणं उत्तरा प्रतिपदा लेनी चाहिये ! पंचरंगके दैत्येन बक्िको विन्ध्यावलीके साथ घरके बीचकी |
` शालासे काठतीवार जीभ, तालू, आंख ओर हाथ, पावोके तङ लालरंगसे लिखने चाहिये तथा केश काले ही
रंगसे बनाने चाहिये । सारा श्रौर पौतबणेका ही शरस्त्रादिकं नीके रंगके बनाये जायं, वस्त्र हषेत रके जेषे 1 । | |
शोभित लगे वैसे ही बनाये जाये, सब आभरण पहिनाये जाये, जिनसे कि, सुन्दर लगे, दुमुज एवम् राज |
। विहवे वि्वित होना चाहिये ! घरके भीतरकी शग्यापर तंडलोसे इसके सोकको लिख दे, तथा इस निम्न |
` लिखित मंत्र समुद्यते सोलहो उपचारो सहित पूजे \ हे दैत्यदानवपुजित बिराज ! तेरे लिये नमस्कारहैषहे |
अमरोके अराते । एवम् इन्दरके शत्रु ! विष्णुके साक्निध्यको देनेवाला हो, है मुनिपुंगवो ! बक्ति उेकसे
जो दान दिये जाते हे वे अक्षय हो नाते हे \ यह् मैने तुम्हें बतादिया है । है मुनिवरो ! इस प्रतिपदके दिन इस |
भूमिपर राजालोगोद्वारा किये हुए पुजनसे बलिको प्रसत्नता होती है, इस कारण इसे कौमुदी कहते है, है |
~ 4 त युधिष्ठिर ! जो मनुष्य जिस भावसे इसमें रहेगा चाह उसे हषं हो बाहं उसे शोक हो बे ही सालभरतक बराबर
` चलता रहेगा गोक्रौडन करना चाहिये । जिस दिन कि, गोक्रौडनमें रातको
` चता रहेगा ।। इस प्रकार अलिपुजा करके पीछ गोक्रीड रं
चीदका प्रकशि ही तो सोमराजा उन पश्च तथा सुरभि
। £ ६ पदा भौर दके योगम गोक्रीडन होना चाहिये । जो द्वितीया युक्त प्रतियदाके दिनं गोक्रीडन ओर गोनर्तन ` ` 1 ।
- | ५4 कराता है उसके पुत्र शरका त्न होता है । गोक्रौडनके दिन गञओंको खिला पिलाकर सजाना चाहिये, गीतं प 1
नहीं लौ जाती । कुशकाशकी एक सुन्दर नई सुदृढ रस्सीको देवद्वारषर या नुपद्वारपर अथवा चौराहेपर म ५.
; | । तरफ राजकुमार आदिं उच्च वणक लोग खौं वथा एक ओर हीन वणेके लोग खच जसतक वत् धकः तबतक । | ।
खीचते ही रहं । लीचनेवालोकी दोनोही तरफ बराबरकी संख्या रहनी चाहिये, जो इसमे जीतेगा उसको `
` एक सालतक बराबर जीत रहती है । दोनों ही ओर हहकौ रेखाएं रहनौ चाहिये, जो अपनी ओर २ चकर
हहृतक लेजाये उसकौ जीत होती है, अन्यथा नहँ ।\ राजाको चाहिये, कि राजा इस जीते चिह्वको प्रयत्नके
साथ बनावे यह बलिगरजा, गोक्रीडन ओर वृण्टिकाकर्षणकी विधि पुरी हई! `
८ र नोल कि, कातिकके जुकलयक्षमं मन्कूट मौर गोव्षनोत्सव
ऋषि लोग बोले कि, यह् गोवधेन कौन हैः किस कतार उस पूजे, क्यो उसका उत्सव किया म द ¢ कियेपर र
होता प्त है १।।\२ त ।। बालखिल्य मोरे कि, एकसमय भगवान् ` ॥ कुष्ण कतिक हि श
¢ (४ । [प्रतिषद्- |
अनावृष्टि नहीं होती, इस कारण हे कृष्ण ! आप मी इस उत्सवको अनेक तरसे मनायें ।\ १२ ।\ यह सुन |
कृष्ण बोले कि, देखो यह साक्षात् देवता गोवधेन हैँ यह वृष्टि ओर सौभिक्ष्य करनेवाला है, मथुरावासी मौर `
` व्रजवासियोको प्रयत्लके साथ इसका पुजन करना चाहिए ।। १३ ।। इसके पुजनको छोडकर लोकमें इच्क्यो |
` वृथा पुना जाता है ! इसका उत्सव करो, यह् प्रत्यक्ष खायगा ।) १४ ।। खेती अच्छी करेगा, विघ्नोका नान्न `
करेगा, जबे जब मुश्चे कोई बडा भारी संकट आ जाता ह ।! १५ ।। तब तब मं इसी प्रत्यक्ष देव गोषर्धनको
परूजता हं यह् सुन गोष आपसमे काना एससी करने लगे कि, क्या करे 1} १६ 1\ उन गोपोमेसे कुछ्एक कहने
` लगे कि, कृष्णकी कही मानों, यदि यह खा रेगा तो इसे केवल पहाड न समश्च कर गोवर्धन देव समञ्चना ॥। १७ = `
त्ब जो कुछ कृष्णं करता है बो सत्य ही होगा, इस प्रकार सब्र सोय निष्िचित करके कृष्णसे बोले !\ १८ 1! `
। कि, जिससे हमें निशवय हो सो करिये ।\ तथा सबके आगाडी होकर गोवर्धनोत्सव सनवादये ।! १९! |
भगवानने भी उत्सवका निचय करके कहा करि, अच्छी बात है, फिर कृष्णजीने जो सामग्रियां कराना चाही |
गोपोने सब तयार करदी ।! २० ।! अनेक तरहके वस्त्र ओर बडे बडे पात्र गोवर्धन सामने रख दिये तथाबहां `
` एकं गोवर्धनके बराबरकासा अन्नपुञ्ज लगा दिया \! २१ ।। भात, कटी, दाल, श्चाक, कांजी, बडे, रोचयां,
परिया, लड्ड् ओर मांडे आदिक \\२२।। दुध, दही, घौ, सहद, चटनी, चूसनेकी चीज तथा विना मांसकी `
. संब चीजें देकर \\ २२ ।। कृष्ण बोले कि, हे गोपो ! मन््रको पठकरः आंखं मीचलो, इतनेमे ही गोवर्धन सब
खालेगा, इसमे कोई संदेह मत करना ।! २४ ।। हे गोवधेन ! हे धराधार ! हे गोकुले जाग एवम् ! अनेकों |
भुजाओंसे छाया करनेवाले ! हमे करोड ग दे \\ २५ \\ जो लोकपालोकी लक्ष्मी षेनुरूपसे स्थित हो यज्ञके ।
। लिये घृत देती है, वो मेरे पा्योका दूर कर !\ २६ \} इन दोनों मन्तरोको पठकर सबने आंखें मीचली, इतनेमे
गोपाल कुष्ण गोवर्धनमें प्रविष्ट होकर सब अन्न खा गये ।। २७ ।। कोई गोप जो आंख विना मिचे वैठेथे `
इसके दो नाडीके बाद, भगवान कृष्ण गोपोसे बः बो कि देलो-गोवधनने एक क्षण भरम हौ सब खा
२९ \ है गोपालो ! देखो यह प्रत्यक्ञ देव है, इसमें कोई सन्देह नहीं है, यदि आवको सुलकौ इच्छा `
तो सब मिलकर इसका उत्सव करिये \\ २० 1) भगवान् कृष्णके एसे बचन सुनकर सबने बडे ही आचयेके `
इद्रे उत्सवसे सौग् ना, गोवर्धन का उत्सव किया ।\ ३१।। नारदजी आये तो ये इन्द्रोत्सव को देखने पर
उत्सव देखकर इन््रकौ सभाम दाचिल जा हए ।! ३२ \\ वेवेन्ने आतिथ्य करके बार वार पृछा,
नारवजीने कछ न कहा तो इन्द्र बोला कि, \\ ३३ 1\ हे विप्र ! आप प्रसन्न हँ या नहीं कहे ? मेँ जापके
दुगा ।\ ३४ )। यह सुन नारद बोले कि, है-इनद्र ! इससे ज्यादा जौर मेरे दुःलका कारण क्या `
इको भी मने दूसरा इन्द्र बना देखा \\ ३५।। आज आपके उत्सवमे बह गोकुलके वालो
बाद वह यज्ञके भागको कभी न कभी र्गा ही ।३६।! धौरे धीरे व! ह इ न््रासन ओर `
| यह भौ गोवर्धनस्वरूप इृ्णके सिये दोनो मत्क अकूटे
शरीकष्णके लिये निवेकन करता है, वो विष्णु लोकको पाता है ।। ७२ 1। ये सनत्कुमारसंहिताके के हए भ्रति.
षदाके ब्रतादिक पूरे हृएु \ ~ ^
` वरतानि] 2 हिन्दीटीकासहित ` (१०६१) |
ने जगह देदौ ! यहां सब आ जासो ।! ४७ \} इस समयकौन स्थर दे सकता है,इसीने दिया है'यह् उत्तम नग `
श्रत्यक्ष देव है ! सात दिनतक मूसरधार पानी बरसा ।। ४८ ।\ उस समय बे अनेक देश नष्ट हो गये जिन्हने
क्षरणागति नहीं कौ थी, पर शरणगोप नष्ट न हुए, गोवर्धनके नामसे भगवान कृष्ण रोज देते थे ।! ४९ 11
गोपोके लिये पक्वालके दाता थे जिससे गोप वहां सुखुवेक रहे आये, नारदजी यह सब कौतुक देवकर सत्य-
चमक चलं गये ।। ५० ।\ वहां जा कर ब्रह्माजौ से बोले कि, हैवरहमन् ! आप सोरहै हे क्या { सष्टिका नाह हो
रहा है, इस कारण श्रीश्न गोकुलमें लाकर वष्टिका निवारण करिये ।\ ५१ ।। यह सुन ब्रह्माजी बोले किःकिस `
ल्व वृष्टिहोरहीहै, सुष्टिका नागकंसेहो रहा है ? है मुने ! क्या कोई दैत्य पैदा होगया ? मुन्ने सवबता `
दें ।। ५२ \) नारद बो कि, दैत्यरार् तो कोई नहीं हुआ है पर भूमिमंडलपर गोपोने इन््रोत्सव छोखदियाहै, `
इससे इन्र नाराज होकर वरस रहा है ।\ ५३ ॥ ब्रह्माजी यह सुनकर हंसपर चटे आर वहां
आये जह इन्र कोधित होकर सूसलाधार वरस रहा था ।। ५४ ॥ ब्रह्माजी इन्धते बोले कि, हे
इन्द्र! तेरी एसी बुद्धि कंसे होग्द, क्या तु त्रिलोकनाथ भगवान्को जीत सकता है? । ५५ 0
देख, एकी चिटली उंगलीसे इसने गोवधेन उठा रला है, दैदन्द ! तु उसके साथ व्यो ईर्ष्या कर रहाहै
1 ५६ \। इन्नेब्रह्माजौके एसे वचन सुनकर मेघोको रोक दिया, एवम् भगवान् कष्णके चरणोमे पडकर `
बोला \। ५७ ।) किं-भगवन् | मं आपका शरणागत दास हूं । मेरे कारनामं क्षमा किये जाये. यदि फेसीही `
` इच्छा हो तो अजपराधको दुर करनेके लिये दण्डही 1:
तेरी ताकतको जाने विना इन गोपात्मोने यह पुजडाला, इनको जो तुमने दण्ड दिया वह् ठीकहीदियाहै।।५९॥
` मं जापक आज्ञा माननेवाला, भायका छोटा भाई हुं, मेने शरण आपे हभोका रक्षण किया है ।। ६०।१ यदि |
आप् प्रसन्न हैँ तो आप इस िरिगोव्धनको अपना उत्सव देदे, जिससे कि, मेने गोकुलकी रक्षा की है।॥६१॥ `
५ ` उत्सव करना \। ६३ ।। इसी गोवर्धनने सारी भूमि धारण कर रखी है, पहिले आपने इसकी कदितको न जान,
कैसा खेल किया था । ६४ ।। यह् पर्वत सब कुछ मृद्से कह देता है, इसको सेवके प्रभावते ही इतनाभारी
बल मुकने मिला है ।। ६५ ॥। इससे आप हरसा अघ्नकूट करना, जिससे गौओंका कल्याणं होगा भौर ' त्र
| पौत्रादि सन्ततिं प्राप्त हंगो ।। ६६ ।\ गोव्नके उत्सवसे ेश्वय्यं भर सदा सौख्य भराप्त होगा, का्तिकके = `
` महीनामें जो भी कु जप होम अ्चेन किया हो ।६७। वो विना गोवर्धनके उत्सव किये, निष्फल हो जाता है ।
। भेगवानृने गोपोसे कहा तथा गोपने उसे सत्य मान लिया ।\ ६८ ।। नौमे दिन कृष्णादिक
। बारखिल्य बोरे कि, है मुनीक््वरो ! हमने सब आपको सुनादिया है !। ६९ ।। भगवान् कृष्णको | प्रसन्न
लिये अन्नकूद करना चाहिये, देशकारके अनुसार अनेक तरहके विततः
इही दे दीजिये ॥ ५८ ॥ भगवान् छृष्ण बोलते कि, हे इत्र
वारछिल्य बोर कि, इन्द्रभी एवमस्तु कहकर वह अन्तर्धान हो गया, इन्रके चले जानेपर भगवान पर्वतको
न तमु देवि,
तरहसे पक्वान्न बनाने चाहिये, सब अनोके पवेत बनाकर श्रौकृष्णके र के लि लिये निवेदन कर ० ६॥
ग पठकर निवेदन होता है, जो कोई इस प्रकार अनल्नकटको
भा्रपदे परा \! तृतीयाहवयुजे मासि चतुथी कातिकी भवेत् ।! श्रावणे कलषा
नाम्नी तथा भाद्रे च निमंला ।। आहवन प्रेतसंचारा कातिके याम्यतो मता।॥ `
` ॥ इति ।\ चतस्रो द्वितीया उपक्रम्य प्रथमायां किचित्प्रायदिचत्तं द्वितीयायां
सरस्वतीपूजा तृतीयायां श्राद्धमुक्त्वा चतुर्थ्या
तु हितीयायां युधिष्ठिर ।\ यसो यमुनया पुवं भोजितः स्वगृहेऽचतः \! अतो यम-
` द्वितीयेयं त्रिषु लोकेषु विश्नुता ।। अस्यां निजगृहे षाथं न भोक्तव्यमतो नरः ।।
यत्नेन भगिनीहस्ताडोक्तन्यं पुष्टिवद्धंनम् ।। दानानि च प्रदेयानि भगिनीभ्यो `
यमपुजनमुक्तम् ।। कार्तिके शुक्लपक्षे
वि्ञेषतः ॥! स्वर्णालंकारवस्त्रा्पूजासत्कारभोजनेः । सर्वा भगिन्यः संपूज्या `
अभावे प्रतिपन्नकाः \। प्रतिपत्नकाः-मित्रभगिन्य इति हेमाद्रिः ।। पितृव्यभगिनी
` हस्तात्रथमायां युधिष्ठिर ।। मातुलस्य सुता हस्ताद्द्वितीयायां युधिष्ठिर
हस्तत व परम् ।। सर्वासु भगिनीहस्ताड्धोक्तव्यं बलवर्धनम् ।\ धन्यं यक्ञस्यमायुष्यं ` |
धर्मकामाथसाधकम् ।! यस्यां तिथौ यमुनया यमराजदेवः संभोजितो निजकरा-
स्वसुश्चेव तृतीयायां तयोः करात् ।! भोक्तव्यं सहजायादच भगिन्या `
व व्रतानि ]
मदृदारं न स पश्यति भानुजं ।। १३ ।। वीरेशशानदिग्भागे यमतीथं प्रकीतितम् \\ `
तत्र स्नात्वा च विधिवत्संतप्यं पितृदेवताः । १४।। पठेदेतानि नामानि अआमध्याह्लं
नरोत्तमः ।। सूर्यस्याभिमुखो मौनी. दृढ चित्तः स्थिरासनः ।\ १५. ।। यमो निहन्ता = `
पितुधमंराजो ववस्वतो दण्दधरह्च कालः ।। भूताधिपो ठत्तकृतानुसारी कृतान्त
एतदृक्नेनामभिजेपेत् ।॥ १६ ।। एतानि च तानि दच्च तेः नामदह्केनेत्यथंः । ततो
। थमेहवरं पुज्य भगिनीगृहसात्रजेत् \। मन्त्रेणानेन च तया भोनितः;पुवेमादरात `
। ॥ १७ ।। मरातस्तवानुनाताहं भुंक्ष्व भक्ष्यमिदं श्रुभम् ।। प्रीतये यमराजस्य यमु-
नाया विशेषतः \ १८ ।\ सन्तोषयेचो भगिनीं वस्त्रालंकरणादिभिः ॥। स्वप्नेऽपि
यमलोकस्य भविष्यति न दश्ञेनम् ।। १९ ।! न॒पेः कारागृहं ये च स्थापितामम
वासरे \! अवश्यं ते प्रेषणीया भोजनार्थं स्वसुगृहे ।। २० ।। विमोक्तव्या मयापापा
नरकेभ्योऽद्य वासरे ।\ येऽद्य बन्दीकरिष्यन्ति ते दण्ड्या मम स्वेधा ।\ २१।॥
कनीयसौ स्वसा नास्ति तदा ज्येष्ठागृहं ब्रजेत् ।। तदभावे सपत्नीजां तदभावे `
पितुव्यजाम् ।। २२ ।। तदभावे मातृस्वसुर्मातुलस्यात्मजां तथा ।। सापत्नगोत्र- `
सम्बधैः कल्पयेत्तु यथाक्रमम् ।! २२३ ।। सर्वाभिवे माननीया भगिनी काचिदेव
हि ।। गोनद्याद्यथवा तस्या अभावे सति कारयेत् ।! २४ ।। तदभावेऽप्यरण्यानीं
` कल्पयेत्तु सहोदरीम् ।! अस्यां निजगृहे देवि न भोक्तव्यं कदाचन }। २५ ।। थे
| भुञ्जन्ति दुराचारा नरकं ते पतन्ति च ॥\ स्नेहेन भगिनीहस्ताद्धूोक्तव्यं पुष्टि- `
, बद्ंनम् ।। २६।। दानानि च प्रदेयानि भगिनीभ्यो विशेषतः ।। श्रावणे तु पितृव्यस्य `
कन्याहस्तेन भोजनम् ।! २७ ॥ मातुलस्य सुताहस्ताम्धोक्तव्यं भा्रमासके ।।
तकर म ममननम न
हि भाेण्डज षाहाहस्त यान्तकालोकधरामरेश \। भरातृषितीयाकृतदेवपजां `
` गृहाणं च्य भगवनत
£ (1)
५ न <लः ५१,
पा
ट , +. |
प ५५६४
मस्ते \ धर्मराजं नमस्तुभ्यं नमस्ते यसुनाग्रज ।। जाहिमां 4
करैः साद्धं सूयं पुत्र नमोऽस्तु ते ।\ लेद्धे-कातिके तु द्वितीयायां जुक्लायां
भ्मातयजनम्
या न कुर्याष्टिनद्यन्ति शरातरः सप्तजन्मसु ।। पाद्ये उ्तरखण्डे-भद्रे `
भगिनी भो जातस्त्वदंधिसरसीरुहम् ।। श्रेथसेऽ्य नमस्तुभ्यमागतोश्हं तवाल्यम् \\
भृदुवाक्यं ततः श्रुत्वा सत्वरं कियते तया ।) अद्य भ्रातुमती श्रातस्त्वया धन्यास्मि
मानद ।। भोक्तव्यं तेऽद्य मद्गेहे स्वायुषे मम मानद ।\ कातिके शुक्लपक्षस्य `
द्वितीयायां सहोदरः ।\ थमो यमुनया पूर्वं भोजितः स्वगृहेऽचतः ।! अस्मिन्दिने
यमेनात्र नारी बा पुरषोपि वा 1! अपविद्धाः कर्मपाक: स्वेच्छया ये पचन्तिहि ।॥
पापेभ्यो विप्रमुक्तास्ते मुक्ताः कर्मनिबन्धनात् ।! तेषां महोत्सवो वृत्तो थमराष्टू- `
सुखावहः ।। तस्माद्न्धोऽत्र मद्गेहे भोजनं कुर काके !। आशिषः प्रतिगृह्याथ `
नमर क थ समचंयेत् ।। सर्वा भगिन्यः संपूज्या ज्यष्टास्तत्र तु सस्मृताः ।। वस्क्रदिना ५
वरतानि 1
न ५ ४ त-प मौ ८3 (न 5 ५
' “जोन = मानतात मअ णाति जनाजा मो)" थोक
हसे तथा दूसरी द्वितीयाको मामाकौ बेरीके हाथसे खाना चाहिये तथा क्वार शुदीद्वितीयकेदिन भृआको
घा मौसौकी बेटीके हाथसे तथा कात्तिक शुक्ला दितीयाके दिन अपनी बहिनके, हाथसे सपत्नीक भोजन करना
चहिये, यदि एेसा न हये सके तो सभी द्वितीयामौको अपनी सगी बहिनके हाथसे धन्य एवम् यडाके देनेवाला,
अका बढानेबाला भौर धमं, अथं, कामका देनेवाला बलव्धक भोजन करना चाहिये ! जिस तिथिको भगिनी
ग्रमे इवी हई यमुनाजीने अपने हाथसे यमदेवको जिमाया था, उस दिन जो मनुष्य अपनी बहिन्फे हासे
जीमता है वो अपूर्वं रत्न तथा धनधात्योको प्राप्त होता है । यह हिमाद्रिमे भविष्यके अनुसार यमद्वितीयकी =
| यमष्ितीयाकी कथा-वालखिल्य ऋषि कटने लगे कि कासिकके शुक्लपक्षकी द्वितीयाको यमद्वितीया =
( ६ कहते है, उसमे सा्ंकारके समय यमका पुजन करना चाहिये \\ १।। प्रति दिन श्रीयमुना महारानी आकरयम- = `
देवकी प्राथेना करने लगीं कि, है माई ! अपने संब इष्ट मित्रों को लेकर मेरे घर भोजनके ल्यि आओ ।)२।॥
| ध यमका भरी यह काम रहता था कि कठ आगा या परसो आजासगा क्योकि हम कामम् लग रहत ह् दसं कारण . ॥ |
अवकाञ्च नहीं मिलता ।\३।) हे मुनीदवरो ! एक दिन जबरदस्ती निमन्त्रण दे दिया, तथा यह भी का्तिकिके `
शुक्छपश्षकी हिततीयाको ययुनाजीके घर भोजन करने गया ।।४।। जातसार रविसुत यममे अपने पाहासे सब `
लोगोकोम्वत कर दिया था एवम् अपने इष्ट गणोको लेकर यमूनाजीके घर गया था तथा यसुनाजौने यमका `
` । प्रियं आतिथ्य किया ओर पाकं भौ अनेके तरहके बनाये ।\५।। यमुनाजीने सुगन्धित वेले यमका अभ्यद्ध `
किया, पीछे उवटने करके स्वच्छ जलसे स्नान कराया ।1६।। पीछे यमके लिये अलंकार करनेके अनेक तरहके `
` सामान वस्त्र ओर चन्दन माला आदिकं दिये जो कि, मके नपानेके ही होते थे 1\७। अनेक तरहके पक्वाप्ोसे `
` सोनेके थालोको सजाकर अत्यन्त प्रसन्नताके साथ यमको भोजन कराया ।८।! भोजन करनेके पीठे यभनेभी, `
` अनेक तरहक वस्त्रालंकारोसे बहिनका पुजन करके बहिनसे कहा क्षि, ए बहिन ! आपकी जो इच्छा हौ सो
मांगो ।\९।! यमके एसे बचन सुनकर यमुनाजी कह्ने गीं कि, आप प्रतिवर्षं आजके दिन मेरे घरपर भोजनं `
करनेके लिये पधारा करे ।१०।) तथा जिन पापियोने आजके दिन आपकौ तरह जपनी बहिनके हाथसे भोजन `
किया हो, उन पापियोको आप अपने पासे तदा मुक्त करते रहे एवम् जो बहिनके हाथमे इस प्रकार भोजन `
` करे ॥\११।। आप उन्हँं सदा सुख पहुंचावे, यही मे आपसे वरदान मांगती हूं, इतनी सुनकर यम कहने लगा कि, =
जो तुक्षमे स्नान पर्पण करके ।१२।। बहिनके घर भोजन करे उसका पूजन करेगे हे सूरयपुत्रि ! बे मनुष्य क १
` भी मेरे दरवाजे कोन देखेगे ।) १२)! वीरे महादेवकी ईशानी दिशामें एक यमतीथं है, उनसमें स्नान करके
| विधिके साथं पितर ओर देवताओंका तर्पणं करके ।\ १४।। जो मनुष्य श्रेष्ठ, एकाग्र चित्तसे मौनपुवंक स्थिरा- `
| सनसे सू्येके सामने मध्याह्न कालमे इन नामको पड़ता है 1 १५।॥ वे नाम ये ह कि यथम, निहन्ता,
` पितुराज, धर्मराज, वैवस्वत, दण्डधर, काल, भूताधिप, त्तङृतानुसारे ओौर कृतान्त तथा इन द्य नामोका
जप करता है} १६॥। लोकम जो “एतदृश्ञभिः" यह् पद माया है, इसका ग्रन्थकार अथं करतेहैयेवेद्दा
नाम हुः इन दडच नामोके हारा यमका जप करता है ।। इन दशानामोसे यमेडवरका जप पुजन करके बहिनके = `
॥ ० धर आजायं तथा बहिन भी इस मंत्रसे ५ आदरके साथ भारईको के, हे तेरी
सम्बन्धकी भी वहां कोई न हो तो मानी हुई बहिनके घरही भोजनं करना चाहिये, नहीं तो गौ, नदी जादिकोही `
अहिन मानकर, उनके पास ही भोजन करना चाहिये \। २४ ।! यदियेभीनप्राप्त हों क्स वनीकोही
अपनी बहिन मान ले, हे देवि ! इसमे अपने घरपर कभी भौ भोजन न करना चाहिये ।। २५।।जो दुराचारी
लोग थम द्वितीयाके दिन अपने घरयर भोजन करते है, बे नरकमं पडते ह, इस दिन तो प्ेमके साथ बहिनके `
ही हासे पुष्टिकर पदाथ खाने चाहिये \। २६1। इस दिन बहिनको विरोषं रूपसे दान देने चाहिये, श्रावणकी `
द्वितीयाको तो चाचाकी बेटीके हाथसे भोजन करना चाहिये । २७ \\ भादोकी द्वितौयाको मामाकी बेटीके `
हसे, तथा कारकौ द्वितीयाको मौसीकी बेटी अथवा भूमाकी बेटीके हाथसे भोजन करना चाहिये ।\ २८॥
पर कािकलुकल द्वितीयाको जरूर ही अयनो बहिनके हाथसे भोजन करना चाहिये, ठेसा कहकर, धर्मराज
थम संयमनी नासकी अपनी पुरीको चले गये 1! २९ ।\ इस कारण हे कातिकके ब्रत करनेवले ऋषिवरो ! `
यमं द्वितयाके दिन बहिनके घर पहुंचकर, उनके हाथसे भोजन करो जो कुछ कहा गया है, इसमें सन्देह न `
करना, यह सत्य है ।\ ३० ।। श्रीसूय भगवानने तो यहांतक कहा है कि, जो मनुष्य यमद्वितीयाके दिन बहिनके `
हाथका भोजन नहीं करता, उसके सालभरके किये हुए सब सुकृत नष्ट हो जाते हे \। ३१ ॥\ जो कोर्दस्त्री
यम द्वितीयाके दिन भारईको अपने घरपर भोजन कराकर उसे पान लिलाती है बो कभी विधवा नहीं होती `
` ॥३२॥ न उसके भार्दकी आयुक्त ही क्षय होता है, अपराह्तक रहनेवाली जव द्वितीया हो तबही भाईको `
भोजन कराना चाहिये \। ३३ । यदि अन्ञानसे अथवा मोहुसे या विदेशमें रहनेके कारण वा बन्दी होनेसे `
सने बहिनके हाथसे भोजन नहीं किया हो वो यमद्वियाकी कथाको सुनकर बहिनके हाथसे भोजनका फल `
पाठेता है 1\ ३४॥ यह् सनत्कुमारसंहिताकी कही हई यम द्ितीयाकौ कथा पूरी हई ॥। भैया दौज-अब `
तिथितत्त्वके अनुसार. भैया दौजकौ विधि कहते हे । इस ग्न्थमें लिखा हु है करि, बहन ओर भाई दोनों मिलकर
चित्रगुप्त ओर यमके दु्तोका पूजन करं तथा सबको अघं दे । इस इत्मोकर्मे जो सहज दयेः' यह पद याहे
इसका बहिन भाई अथे है ! इसीमे अध्यंका मंत्र लिखा हभ है \ जिसका अथं होता है कि, हे सूयक सुत ! पाड
्थोमे रखनेवाठे अन्तकं ! सब लोगोके धारण करनेवारे यम ! आओ, आभो, इस भेया दजकी पूजा ओर
अर्धक ग्रहण करो, आपके ल्यि वारंवार नमस्कार है । हे धर्मराज ! तेरे च्वि नमस्कार है तथा हे यमुनाके `
बडे भाई ! तेरे लिये नमस्कार है अपने किकरोके साथ भेरी रक्षा करो, हे सूर्यसुत ! तेरे व्यि वारंवार नम- `
` स्कार है । लिगपुराणमें लिखा हुआ है कि, जो स्त्री इस् भैया दूनके दिन भाईका पूजन नहीं करती, वो सात
कमलोको प्राप्त हुआ हूं, अयने शरेयके प मे तेरेघरञआया `
वारमा ष सुनकर बहिनको भौ शी रहौ कह देना चाहिये कि, जज सें तेस भरईवाली
नमोऽस्त
| | 1 ( ५ ५4
(11 । ९२१९।८।५२।९11 ६५ 4.८0) +
४ मिनि नमिन न ् ८ ध ४ व 4 प ‡
अथ तृतीया्रतानि
ध क्लतृतीयायां सौभाग्यशयनव्रतम् । मस्स्ये
मत्स्य उवाच ।! वसन्तमासमासाद्य त॒तीयायां जनप्रिय \! सौभाग्याय सदास्त्रीभिः `
कायें पुत्रमुखेष्सुभिः ।\ शुक्लपक्षस्य पुर्वाह्ले तिलः स्नानं समाचरेत् ।। तस्मिघ्रहनि
सा देवी किल विष्वा्मना सती ।\ पाणिग्रहणिकेमन्त्ररुदढा बरर्बाणनी ।\ त्या `
भ (५
सहव देवेशं तृतीयायां समचयेत् \। फलर्नानाविधेधुपर्दपिनवेद्य संयुतः ।। प्रतिमां `
पञ्चगव्येन तथा गन्धोदकेन च ।! पञ्चामृतंः स्नापयित्वा गौरीं शंकरसंयुताम्।! |
तु पाटलायै च पादौ देव्याः शिवस्य तु ।। शिवायेति च संकीत्यं जयाये
गुल्फयोस्तथा ।। त्रिगुणायेति रुद्रस्य भवान्ये ज॑घयोर्युगम् ।! शिवं स्द्रेहवरायेति |
जयाय इति जानुनी
| संकीत्यं हरिकेशाय तथोरू वरदे नमः ।। ईशा
हंकरायेति शंकरम् ।। कुक्षिदयेच कोयं शूलिनं श्ुलपाणये ।। मङ्कलाये |
नभस्तुभ्यमुदरं चापि पुजयेत् ।। स्वत्मिने नमो रद्र मीशञान्ये च कुचढयम् । शिवं |
। वेदात्मने तद्रदुप्राण्ये कण्ठमचेयेत् ।। त्रिपुरष्नाय विदवेशमनम्तायै करद्यम् ।। ॥ 1
04. 4.7 ध 4 101
(1
पिनिम
भा्गहीषे गोमत्रं पौषे संप्रारयेदघतम् ।। साघे ङष्णतिलांस्तहत्पञ्चगव्यं ` ५
च फाल्गुने \ ललिता विजया भद्रा भवानी कुमुदा शिवा \! वासुदेवी तथा गौरी `
इ भङ्खला कसला सती ।\ उमा च दानकाले तु प्रीयतामिति कोतयेत् \\ सल्लिका- ` ध
श्लोक कमल्कदम्बोत्पलमालती ।! कृष्नकं करवीरं च बाणमल्लानकुंकूमम् ॥ `
सिन्दुवारं च सर्वेषु मासेषु करमशः स्मृतम् \। बाणस्-नीलकुरण्टकः ।। अम्ला-
` नम्-महासहापुष्पम् सिन्दुवारम्-निगुण्डोपुष्पम् जपाकुसुसकौसुंभमाल्ती-
क्ञतपत्रिकाः ।। यथालाभं प्रशस्तानि करवीरं च स्वंदा ।। एवं संवत्सरं थावदुपोष्य ` .
विधिवन्नरः \) स्त्री वा भवत्या कुमारी वा श्षिवावभ्यच्येशक्तितः । व्रतान्ते शयनं
दद्यात्सर्वोपस्करसंयुतम् ।। उमाममहेश्वर हेमं वृषभं च गवा सह ।। स्थापयित्या च 4
शयने ब्राह्मणाय निदेदयेत् ।\! अन्यान्यपि यथाशक्त्या मिथुनान्यम्बरादिभि
धान्यालंकारगोदानेरभ्यच्यं धनसञ्चयः ।। वित्तक्ाठयेन रहितः पूजयेद्गत-
पदमानन्त्यमदनते ।। फखस्यैकस्य च त्यागमेतत्कुवन् समाचरेत् ।} यत्रं कोति
सम प्नोति प्रतिमासं नराधिप ।\ सोभाग्यारोग्यरूपायुवस्त्रालकारभूषणः ।\ न
वयुक्ता भवेद्राजन्नब्दाबुदशषतत्रयम् \\ यस्तु दशवर्षाणि सौभाग्यशयनव्रतम् ।\
करोति सप्त चाष्टौ वा श्रीकण्ठभवनेऽ सरं: \! युज्यमानो वसेत्सम्यग्यावत्कत्पायु-
विस्मयः ।\ एदं करोति यः सम्यक्सौभाग्यशयनव्रतम् ।\ सर्वान्कामानवाप्नोति `
ध सर्वात्मने नमः इस मंत्रसे शिवके उदरको पुजे \।ओम् ईशान्ये नम : इस मंत्रसे पा्वेतीके कुचोको तथा “ओवे- -
` इस संत्रसे
(व्रता 4 य : : < हन्द कस्ादहत्
” इस संत्रसे क्षिक्की सोनो कोलोका पूजन करे ।।ओम् मंगलाय नमः" इस संत्रसे गौरीके तथा “ओम्
दात्मने नमः" इस मंत्रसे शिवके दुचोको पूजना चाहिये \ “जभ् खराण्ये नमः इस मत्से गौरीसे तथा आम् =
क्निषुरण्नाय नमः” इस मंसे शिवके कंठका पुजन करना चाहिये ¦ “ओम् अनन्तायै नमः इस मंत्रसे
श्री गौरीके तथा ''भोम् त्रिलोचनाय नमः इस मंत्रसे शिवके करोका पुजन होना चाहिये \ “ओोम् `
` कालानलप्रिये नसः" इस मंत्रसे गौरीके तथा “ओम सोभाग्यभुवनाय नमः” इस मंत्रसे शिवके दोनो
` बाहुभोकी पजा करनी चाहिये । “ओम् स्वाहा स्वधायै" इ स म॑त्रसे गौरीके तथा “ओम् ईदवराय नमः
इस मंत्रसे शिवके मुखकी पुजा करनी चाहिये । “ओम् जोक सथुवासिन्धे नमः इस मंत्रसे =
` गौरीके भौर “ओम् स्थाणवेनमः” इस मंज्से क्षिके होठोका एजन होना चाहिये “ओम् चन््मुखप्रियाय _
नमः” इस मंत्रसे गौरीके तथा “ओम् अर्धनारीडायनमः इस ॒संत्रसे शिवके मुखका दुबारा पूजन ` ` |
करना चाहिये । “भम् असिताङ्खाये नमः” इस मंत्रसे गौरीको तथा “जम् उग्राय नमः `
इस मंत्रसे शिवजीकी नासिकाका पुजन होना चाहिये) “ओम् ललितायै नमः” इस मंत्रसे गौरीकौ तथा = . |
“ओम् शर्वाय परहन्त्रे नमः इस मंतरसे शिवकी भोहोका पुजन करना चाहिये । “ओम् वासुदेव्यैः नमः = `
ध गौरीके तथा “ओम् श्रीकण्ठाय नमः इस मंत्रसे शिवके केगोका पजन करना चाहिये । “ओम् |
भीग्रसौम्यरूपिण्ये नमः” इस मंत्रसे गौरीके भौर “ओम् सर्वात्मने नमः” इस मंतरसे शिवके करका पूजन `
रना चाहिये । इस प्रकार दोनोका पूजन कर. लेनेके बाद, इनके सामने सोभाग्यकौ आठ वस्तुभोकानिवेदन = |
करर चाहिषे । मटर, कसम, दूध, जीरा, तालपत्र, ईखका गाडा, लघण जौर कस्तुम्बुर इदको सौभाग्याष्टक =
` करप) फयोङि, यें वस्तु सौभाग्यके करनेवाली हुं । अरिन्दम ! इस पकार दोनो के सामने सोभाग्याष्टकष्ा ` |
( चाहिये । इसके प्राशन ओर दान-मंत्रोमे जो कुछ विरोषताए ह उन्हे भौ कहते हँ । गोष्छगमात्नतो पानी पहिलीमें
`. श्रावणमे थोडासा दही, भादोमे कुदाका पानी, क्वार में दूध, कातिकमें गायका आव्य, सार्गशीषेमे
ध ५ निवेद वेदनं कर्के, पीठे गीष्पुगके परिमाणसात्र पानी पकर भूमिपर शयन करना चाहिये । दूसरे दिने प्रातःकाल 0 |
नेत्य क्मसे निवृत्त होकर साखा वस्त्रं जौर जभूषणोसे ब्राह्मण दम्पतियोका पजन करे, पौरे सौभाग्याष्टकके ` |
` साथ गौरी पार्दतीकी बनीहूई सोनेकौ त्रतसू्तिको उस ब्राह्मणको दे दे ओर कहे कि, इस दानसे कलिता देवौ
सुञ्षपर प्रसन्न हो जाय इसीतरह चैत्रदुक्ला तृतीयासे केकर प्रतिमासकी शुक्ला तृतीयाको यह ब्रत करना
तथा वैज्ञाखको थोडासा गोबर लाकरही रहूजाना चाहिये, च्येष्ठमे मल्दारके फूल तथा आषाढमे वेलपत्र
कलिता, विजया, भद्रा, भवानी, कुमुदा, क्षिवा, वासुदेवी, गोरी, मंगला, कमला, सती ये स देवियां याइ
उसीके लिये (४ कहना चाहिये । चैत्रमे मट्लिकाके, वैशाखमे अकषोकके उयेष्ठमे कमलके भ आषाढसें
पौन अम्लानके न कुकुमके, भर फागुनमं (9 ए्लोके फूलोको
र दानसे परमप्रसस्च होजाये, पीछे दान देना चाहिये । इन नामोमेसे हरएक नामको लेकर उसके पीछे ' प्रीयताम्” `
` लगाना चाहिये तथा पहिकेमे पहिली ओर इुसरेसे दूसरी देवीकी प्रसत्नतके लिये दान देना चाये, तथा
मे मारतीके, ववारमे कुक्जकके, कातिकरमे करवीरके, अगहनमे बाणके,"
नीले कुरटकका है ~ महासहाको भम्त्ानं कहते हँ । निर्गृण्डीकः सिन्धुवार कहते त अ
अवदयही बदन चाहिय \ सत्र हौ अथवा कुमारी हो, इस प्रकार एक सालतकं व्रत करती
श्िवपुजन करती रहे, ्रतकी समाप्तिपर सब उपकरणोके साथ शार
यनीका त्रत करेगी जथवा ७ वषं आठ वषेतक इस व्रतको करती रहेगी वौ देवतोसे पुजित हुई तीस हजार
कंस्य कलासमें निवास करेगी । है राजन् जो स्त्री वा कुमारी भवितके साथ इस व्रतकौ करती है बह भी भग- `
बतीके अनुग्रहसे पूर्वोक्त फलको पाती है । जो कोई इस त्रतको कथाको सुनेगा अथवा जो कोई इसत्रतके `
` करनेकी सलाहदेगा बहुभी विद्याधर होकर चिरकालतक् स्वगैमें वास करेगा ! गौरीके दोलाका उत्सव-इसी `
. ` तुतीयाको गौरीके ईहिडोलेका उत्सव होता है । इसौ विषयपर हेमाद्रिमे देवीभागवततको लेकर कहा है कि,
जिस स्त्रीको अपने शुभकी इच्छा हौ उत्ते चेत्शुक्ता तृतीयाके दिन गौरी पावेतीका पुजन करके डोलेका `
५ न उत्सव करना चाहिये | 1 ध
~ 1 =-= ~ ~ = ०
0 अत्रैव गौर्या दोरोत्सवः 1
तदुक्तं हेमाद्रौ देवीपुराणे-चेत्रशुक्लतुतीयायां गौरीमीहवरसंयुताम् ।। संपूज्य `
दोखोत्सवकं कुर्यान्नरो शुभेप्सुका ।। तथा च निणेयामृते-तृतीयायां यजेहेवी
शंकरेण समन्विताम् ।। कुंकुमागुरुकपूरमणिवस्त्रसर्गाचताम् \! सुगन्धिपुष्पधूपेक्च `
दमनेन विशेषतः ।। तत आगन्दोल्येदत्स लिवोमातुष्टये सदा ।। रात्रौ जागरणं `
_ कुर्यातप्ातर्देया तु दक्षिणा । सौभाग्याय सदा स्त्रीभिः कार्या पुत्रसुखेप्युभिः इय
च परा ग्राह्या ।। मुहूतेमात्र॑सत्वेपि दिने गौरीव्रतं परे । इति माधवोक्तेः ।! इय `
विङ्वभोक्तारो विदवमान्यास्त एव हि ॥ ये त्वां विदवभुजामत्र पूजयिष्यन्ति `
मानवाः ॥\२।। विशवे विदवभुजे विश्वस्थित्युत्पत्तिलयप्रदे \। नरास्त्वदचेकार्चात्र `
भविष्यन्त्यमलात्मकाः ।\ ३ ।। मनोरथतुयायां यस्ते भव्ति विधास्यति ।। तन्म- |
नोरथसंसिद्िभेवित्री मदनुग्रहात् ॥।४। नारौ वा परुषो वापि त्वदतरताचरणा-
त्परिये ।\ मनोरथानिह प्राप्य ज्ञानमन्ते च लप्स्यत ।\ ५ ।। देव्युवाच । मनोरथ
त्तं कोदृक्कथानकम् ।। किंफलं कंः कृतं नाथ कथयेतत्करृषां कुर ।\ ६ ।
॥ १२ ॥ सर्वदेवेषु यो मान्यः सर्वदेवेषु सुन्दरः ॥। यायजुकेषु सर्वेषु यः श्रेष्ठः |
सोस्तु मे पतिः ।॥ १३ ॥ यथाभिलषितं स्यं यथाभिलषितं सुखम् ।
यथाभिलषितं चायुः प्रसन्नो देहि भे भव । १४।। यडा यदा च पत्या मे स्कः
स्याद्धत्सुखेच्छया । तदा तदा च तं देहं त्यक्त्वाञन्यं देहमाप्तुयाम् ।। १५ ।।
संदा च लिङ्खपजायां मम भक्तिरनुत्तमा ।\ भव भूयाद्ूवहर जरामरणगहारिणी `
॥ १६॥।\ धर्तुव्येयेपि वैधव्यं क्षणमात्रमपीह न ।। मम भावि महादेव पातित्रत्यंच `
यातु मा \। १७ ॥ स्कन्द उवाच ।\ इमं मनोरथं तस्याः पौलोम्याः पुरसूदन ।॥ `
` समाकर्यं क्षणं स्थित्वा प्राहेश्षो विस्मयान्वितः ।} १८ ।\ ईक्वर उवाच ॥। पुलोम- `
कन्ये यश्चैष त्वयाऽकारि मनोरथः ।। लप्स्यसे ब्रतचर्यातस्तत्कुरष्व लितेन्दिया = `
॥ १९ ।। मनोरथतृतीयायाश्चरणेन भविष्यति ।\ तत्प्राप्तये द्रतं वक्ष्ये तद्विधेहि `
यथोदितम् ।\ २० ।) तेन व्रतेन चीणन महासौभाग्यदेन तु ।। अवश्यं भविता बाले `
तव चैवं मनोरथः ।! २१ ।। पुलोमकन्योवाच ।। कारुण्यवारिधे शम्भो प्रणत- `
भ्राणिसवंद ।। कनामा चाथ का शक्तिः का पज्या तत्र देवता ।\ २२॥ कदाच
` तद्धिधातव्यमितिकतेव्यता च का \। त्याहकण्यं शिवो वाक्यं तां तु प्रणिजगादह `
॥२३।।ईकबर उवाच ।। मनोरथततीयाया व्रतं पौलोमि तच्छुभम् ।। युज्या चिषव- `
भुजा गौरी भुजविशतिशालिनी।\ २४1) बरदाभयहस्तश्च साक्षसुत्रः समोदकः ।।
देव्याः पुरस्ताद्ब्रतिना पुज्य आश्ाविनायकः ।।२५।। चतुभृजइचारने्रः सवेसिद्धि-
। करः प्रभुः ।। चेत्रलुक्लद्धितीयायां कृत्वा वें दन्तधावनम् ।! २६ ॥। सायन्तनीं च
| नि्वेत्यं नातितृप्त्या भुजिक्रियाम् \। नियमं चेति गृह्णीयाञ्जितक्रोधो ? ष ५ ८
~
=
ब 1 = -
॥ २९ ॥। ज्ञौचमाचमनं कृत्वा दन्तकाष्ठं समाददेत् \। ३० ।! अशोक त
५ शुभ स्वंसोकनिशातनम् ।। नित्यन्तनं च निष्पाद्य विधि विधिविदां बर} ३१॥।
(११२) द्तरजि [ तृतीया- `
देव्याश्चापि शुभन्रते ।\ अन्नानि चेकभक्तस्य च्छम् तानि फलरप्तये ॥ ३७ ।-
जम्ब्वपमा्गखवदिर जातीचूतकदम्बकम् 1! प्लक्षोदुम्बरलनज्रीवीजपुरीसशडिमी
॥! ३८ ॥\ दन्तकष्ठद्रमा एते व्रतिनः समुदाहूताः ।! सिन्दूरागुरकस्तूरी चन्दनं
रवतचन्दनम् ।! ३९ ।! गोरोचनं देवडारं पद्याक्षं च निशायम् \। प्रीत्यानुलपन
बाले यक्षकर्हमसंभवम् ।! ४० 1) स्वेवामप्यलाभे च प्रज्ञस्तो यनललकद्मः ।। कस्त्- `
रिकायाह्नौ भागौ द्रौ मागो कुडडमस्य च \) ४१ ।। चन्दनस्य त्रयो भागाः किः `
नस्त्वेक एव हि ।\ यक्तकर्दम इत्येष समस्तयुरवल्छभः ।1 ४२ ।। अनुचव्वाथ = |
कुसुमेरचयेहच्मि तान्यपि \} पाटलामल्लिकपद्यकतकीकरबीरकः ॥! ४३ ॥ |
उत्यलेराजचंपैडच नन्यावतेश्च जातिभिः ।। कुमारीभिः कणिकारेरल मिं तच्छदैः `
सह ।॥ ४ \। सुगन्धिभिः प्रसुनोघेंः सर्वालाभेऽपि पूजयेत् ।! करम्मो दधिभक्तं `
च सचूतरसमण्डकाः ।\ ४५ ।। फेणीका वटकादचेव पायसं च सशकंरम् ।! समुद्गं `
सघृतं भक्तं कात्तिक विनिवेदयेत् ।! ४६ ।। इन्देरिकाहच लड्डका माघं ल्पसिका
शुभा ।\ मुष्टिका शकंरागर्भाः सपिषा परिसाधिताः ।\ ४७ ।। निवेद्याः फाल्गुने
व्यै सादं विष्नजिता मुडा ।1 निवेदयेदयक््ं हि एकभक्तेऽपि तत्स्मृतम् ।\ ४८ ।\
अन्यन्निवेद्य सम्मूढो भुञ्जानोत्पतेदध प्रतिमासं ततीयायामंबसाराध्य
म् ।। ४९ ।॥। व्रतसंपुर्तये कुर्थात्स्थण्डिलेऽग्निसमचेनम् ।! जातवेदससंत्रेण `
तिलाज्यद्रविणेन च !। ५० ।। दतमष्टाधिक होमं कारयेदिधिना व्रती । सदेव
नक्ते पजोक्ता सदा नक्ते तु भोजनम् ।! ५१ ।। नक्त एव हि हौमोऽयं
क्षमापनम् ।। गृहाण पुजां मे भक्त्या मातविष्नजिता सह् \\ ५२ ।। नमोस्तु ते.
` विश्वभुजे पूरयाश्ु मनोरथम् \\ नमो विच्नकृते तुभ्यं नम आशाविनायक ५ १ ३। ५। |
सुभगा स्याच्च धनाढचा स्याहरिद्रिणौ ।। ६५ ।\ विधवापि न वैधव्यं पुनराप्नोति ५
चिन्तितं लभते शरो व्रतस्यास्य निषेवणात् ॥ धर्माथौ धर्ममाप्नोति धनार्थी धन- |
व्रतानि | हिन्दीटीकासहित ` ् (१९) 1
अभ्यच्यं गन्धमाल्याचैर्ादशापि कुमारिकाः ।\ ६१ ।1 एदं संपूर्णतां याति ब्रतमेत-
` त्सुनिमलम् ।! काय मनोरथावप्त्ये सर्वेरेतद्व्रतं शुभम् \\ ६२ । पत्नीं मनोरमां |
कुल्यां मनोवृत्त्यनुसारिणीम् ।\ तारिणीं दुःखसंसारसागरस्य पतिव्रताम् ।\ ६३। |
कृर्वच्ेतद्ब्रतं वर्षं कुमारः प्राप्तुयास्स्फुटम् ।\ कुनारी पतिमाप्नोति स्वाठचं स्वं- |
गुणाधिकम् ।। ६४ ।। सुवासिनी लभेत्पुत्रान् पत्युः सौख्यमखण्डितम् ॥। दुर्भगा |
कुत्रचित् \! गुविणो च शुभं पुत्रं लभते सुचिरायुषम् ।\ ६६ \।्राह्मणो लभते विद्यां | ८;
स्वसोभाग्यदायिनी ।\ राज्य्मष्टो लभेद्राज्यं वश्यो लाभं च विस्दति | ६७ । ।
माप्नुयात् । ६८ ।\ कामी कामानवप्नोति मोक्षार्थी मोक्षमाप्नुयात् । योयो `
मनोरथो यस्य स तं तं विन्दते ध्रुवम् ।। ६९ ।। मनोरथतृतीयाया व्रतस्य चरणा- |
` इत्रती ।\७०।। इति श्रीस्कन्दपुराणे काशीखण्ड उत्तराधं अज्ञीतितमेऽध्याये चत्र- |
` श्ुक्लतीयायां मनोरथतृतीयाव्रतास्यानं सपुणम् ।। 0
निणेयामृतमे भी लिखा हमा है कि, चैत्र शुक्ला तृतीयाके विन, कुंकुम, अगर, कर्पर,
| ् मणि, वस्त्र, माला, सुगन्धित पुष्प, धूप ओर कस्तुरीसे गौरीसहित शिवका पूजन करना चाहिये, पीछे शिवके
सहित पा्वंतीजीका डोला निकालना चाहिये, इनकी भ्रसन्नताके लिये रातको जागरण करके भक्तिपूणं द
भाने चाहिये, प्रातःकाल दक्षिणा देनौ चाहिये, जो पूत्रसुखकी इच्छा करती हों अथवा जो सोभाग्य चाहं |
उन्हें अवश्य ही इस व्रतको करना चाहिये । यहां उदयव्यापिनी तूतीयाका ग्रहण है क्योकि, माघवाचा्यका |
एला मत है किं चौथमे; उदयकालमें यदि एक मुहूतं भी तृतीया हो तो, उसीमें ये सब कायं करने चाहिये
मन्वादि तिथि हे, इसके ल््यि लिखा हृञा है किं, मन्वादि जौर युगादि तिथिमे विधानके साथ किया हभ ध
( ` श्राद्ध दोहुजार वषंतक पिन्नीहवरोकी तप्ति करताहै अधिमासमें भौ इते करे, पर अधिमासः ` मासमे पिण्डदानका
भात्रा आदिसे परिपुणं था \। १० ॥। सें प्रसन्न होकर बोला कि, क्या मांगतौ है, मांग । मं तेरी ल्गयपुजा जौर |
इस गानेसे परम प्रसन्न हभ हं \\ १९१ \! पुलोमाकौ पुत्री बोली कि, ह पावतीके प्यारे महादेव { यदिञआप
मुञ्च पर प्रसन्न है तो मेरे मनोरथोको पुराकरो \\ १२ ।। सब देवोमें जो मान्य हो तथा सब देवों जो सुन्दर॒ ।
दह्ये तथा यज्ञ करनेवालोमें जो सर्वश्ेष्ठ हो, बो ही मेरा पति हो ।। १३ ॥ हे भव ! आप प्रसन्न होकरमृन्ने ,
जैसा मे चाहं वैसा रूप सुल ओर आयु प्रदान करं \। १४ । हदयके सुख पहुंचानेकौ इच्छासे, जब जबमेरा `
` पतिक साथ संम हो, तब तब मे, उस देहको छोडकर दुसरे देहको पाजाऊ ।। १५ ।। है भव हर ! ! जराञओर |
` भरणको नाञ्च करनेवाली मेरौ तो अलौकिक भक्ति, आपकी किगपुजामे हो ।। १६ ॥। हे महादेव ! पिके `
व्यय होजानेषर भी मे एकक्षण भरभौ विधवा न होऊं तथा भविष्यका मेरा पतिव्रतं भी अक्षुण्ण बनारहे ,
। ॥ १७ ॥। इतनी कथा सुना कर स्कन्द कहने लगे कि, पुरसरुदन शिबयुलोमजाके इन मनोरथोको सुनकर |
विस्मयके मारे एक क्षण तो रुकेरहे ।\ १८ ॥ फिर बोले-हे पुलोमजे ! जो तूने मनोरथ कियाहै वहु अवदय ।
हौ तुके प्राप्त होगा पर प्राप्त होगा ब्रतकरनेसे \! १९ ।! इस कारण तू जितेन्द्रिय होकर त्रत कर, मनोरथ
` तृतीयके ब्रत करनेसे वो होगा में उस त्रतकी विधि बतलाता हं, जैसी बताऊ वैसीही करना ।1 २० १ है |
` बा ! उस सौभाग्यके देनेवाले ब्रतके करनेषर तेरे मनोरथ अवश्य ही पुरे होजायंगे ।। २१ ।। यहं सुनकर
पुलोमाकी कन्या कहनेलगी कि, हे करुणाके खजने ! हे शरणोके रक्षक ! सवेस्वके दाता किव देव ! उस
ब्रतका क्या नाम है, उसमें व्या शवित है, उसमें किस देवताका पुजन होता है ।। २२ ।! कब उस ब्रतको एवम्
से करना चाहिये ? पुलोमजाके एसे वचन सुनकर शिव कहने खगे कि \! २३ ।। हे पुलोमजे ! मनोरथ
तीयाका व्रत बडा अच्छा है इसमे चारो ओर वीस भुजावाली गौरीका पुजन करना चाहिये ।। २४ ॥। ठीक `
देवीके सामने ही आशया विनायक गणेशका पूजन करना चाहिये, ये गणेश वरके देनेवाले, हाथमे अभय लिये
अक्षसूत्र पहने हए लड़. हाथमे लिये हृए आया विनायक ह इनका देवीसे पहिले पूजन करना चाहिये
२५ ।\ ये चार भुजावारे ओर सुन्दर नेत्रवाले हं एवम् सब सिद्धिके करनेवाले हू । चेत्र शुक्ला दितीयाको
वार दातुन करे \। २६।! तथा सायंकालको हल्का भोजन करके क्रोध रहित जितेन्द्रिय होकर, नियमको
ग्रहण करे ।। २७ ॥। द्वितीयाकी रातको ही अस्पृश्योके स्पर्शंको छोड़ पवित्रताके साथ भगवतीम मनको
लगाकर वः करे कि, हे अनघे ! विरवभुजे माता मे प्रातःकाल तेरा व्रत करगा 11 २८ ।\ आव मेरे मनोरथ सिदध `
भी सुगंधित फूल हौ उसीसे पुजन कर देना चाहिये ।। करंभ, दही, भात, मका रस, माड, 1} ४५ ।।फेमीका = ।
॥ सामनं निवेदन करना चाहिये, यही एकं मक्त्वा कभी ल्यं है ।} ४८}! जो व्रती अपने नवेयपे इतरका ८.
भोजन करता है तो उसका अषःपतन होता है. कही हई विधिसे प्रत्येक मासक तृतीयाका ब्रते करना चहिये `
ध सदा रातको पूजा ओर रातको ही भोजन करना चाहिये ।\ ५१ ।। रातको ही हुवन करना चाहिये
। काय प्रहुण कर ५२ ॥। हे विदवभूजे ! तेरे लिये नमस्कार है, मेरे मनोरथोको शी हौ पूरा कर, हे-विष्नेश
व्रतानि) 1 हिन्दीटीकासदहित र (११५)
बनजाता है, जिसे सब देवता प्यारा समन्ते हें \\ ४२ ।। इन वस्तुओंका लपन करके पुष्पको चवि उन
फूलोको भौ बताये देते ह-पाटल, चमेली, कमल, केतकी, करवीर \} ४२ ।; उत्यलराज, चम्पा, जुही, जातौ,
कुमारी ओर क्णिकारके कूलोसे चैत्रादि मासमे रमसे पुजन करे } यदि फूल न मिले तो उनके पत्रोसेहौ `
पूजन कर लेना चाहिए । \\ ४४ ।\ यदि बताये हये वृक्षोके न तो फूल ही मिलं ओर न पतते ही मिङं तो कोई
बडा, शक्कर पडी हुई खीर, मृग ओर घीसहित भात, ये सब कात्तिक मासके नैवेयं 11४६1) जलेबी, लडड् `
हृख्वा, तथा घीके मौमन दी हुई पेमा पडी ।\ ४७ ॥ यह् नेक्दयं फागुनके महीनेमं विनायक मौर मतके `
` इस प्रकार एक सालतक करना चाहिए ।। ४९ ।! व्रतकी पूतिके लिये तिल, आज्य आदिसे “ओम् जातवेक्से" |
इस मन्त्रसे स्थण्डिल पर अग्निहोत्र करना चाहिये \\ ५० ।\ “ओम् जातवेदसे सुनवाम सोमम्, अरातीयतो `
निदहाति बेदः \\ स नः पषदति दुर्गाणि विद्वा नावेव सिन्धु दुरितात्यग्निः ।\ मे जातवेदा अग्निक ल्यं |
सोमका सेवन करता हूं, वो मेरे वैरियोके धनको जला रहा हैःएवम् सृके मेरी आपत्तियोसे इसप्रकारपारलगा |
रहा है, जैसे चतुर मल्लाह समुदरमेसे नावको पार लेजाता है \। विधिक्े साय १०८ वार हवन करना चाहिये |
पे \ एवम् |
रातकोही क्षमापन करना चाहिये \। हे~मातः ! भक्तिके साथ जो मे तेरी पूजा कर रहा हु, उ [ताग ५
` है आदशाविनायक ! तेरे लिये बारम्बार नमस्कार है ।। ५३ ।। हे विनायक ! आप विद्वभुजके साथमेरे |
भनोरथोको पूरा करो । इन मन्त्रोको कहकर गौरी ओर विनायककी पूजा कर देनी चाहिये \! ५४ ।। ब्रतके
अपराधोको क्षमा करानेके लिये ब्रतीको चाहिये कि, सर्वोपरकरणसहित श्ग्यादान करे, जिसपर तकिया
दर्पण आदि सबकुछ हूं )। ५५ ।! यहभी ब्रतीका कतेव्य है किं, आचाय्ये ओर उनकी पत्नी दोनोको पलङ्कपर
| इष देनेवाली गौ ओर दक्षिणा ये सब चीजें आनन्दके साय व्रतकौ पूतिक लिए दे \। ५७ ॥। तैसे ही उपभोगकी ` ८
. अन्य वस्तुं छत्र, जूते, कमण्डल् इनको भौ जाचा्यको देना चाहिये, इसके पीछे आचाय्यपे पुना चहियेकि, `
मनोरथ तुतीयाका जो मेने व्रत किया है ।\ ५८ ।। इसमे जो कमी वेशी हुई हो वो जापके वचनो से पूरी होजाय । `
` बिठाकर, वस्त्र तया हाथ ओर कानोके आभूषणोसे उनका पुजन करे ।! ५६ । सुगन्ध चन्दन मारणं एवम `
| आचाय्यंको भी चाहिये कि, कह दे कि, आपका ब्रत सबतरहते पुरा होगया \\ ५९ \। अयनीसीमा तक आचा
कोविदा करने जाय, दूसरे जो याचक आदि बैठे हों उन्हं भी यथाशक्ति दान दे, पौरे अपने अनुजौवियोको
सुनिल ब्रत पुरा म 1 जिन्हुं मनोरथ पुरा करनेकी
॥ ६२ ॥ मनको ४ 7 अनन्द देनेवालो तथा मनके अनसार
ढक्र गन, माल्यस नन करके यन मोजन कराना चाहिये ॥ ९१ । इस भकार यह्
करनेकी इच्छा हो उन्हं चाहिये कि, वो इस शुभेव्रतको करे `
छी चल्नेवाल दुःलसंसारके समुद्रसे पार लमानेवालै = `
ता पतिद्रेताको वं ग.) ६३ \ (3) करभार प्राप्त करता है, जी एक साख तक इस व्रतको करता हैः तथा | ४
.. . - अथ अरन्धतीव्रतम् |
अथ चेत्रशुक्लतृतीयायां मध्याह्वव्यापिन्यामरन्धतीनत्रतम् । तच्र स्त्रीणामेवा- `
धिकारः-अवेधन्यादिफलश्रवणात् ।। तत्रादौ संकल्पः मम इह जन्मनि जन्मान्तरे
च बालदेधव्यनाक्ाथेमनेकसौ भाग्यपुत्ररूपसंपत्तिसमृदढचथेमरन्धतीव्रतमहं करिष्ये । `
देवेशि अरुन्धति नमोस्तु तें ।। वस्त्रम् ।। कञ्चुकौमुपवस्त्रं च नानारत्तेः सम-
न्वितम् ।\ गृहाण त्वं मया दत्तमरुन्धति नमोस्तु ते ।\ उपवस्त्रम् । कपूरकुडकुम- .
नम् ५ । हस्रा कुर्कुस् तव सिन्दूरं कजञ्जलान्वितम !\! मया निदेदितं भक्त्या गहाण
रमेक्वरि ।। सौभाग्यद्रव्यम् ।। माल्यादीनि सुगं ° पुष्पम् ।। वनस्पतिरसोद्भूतो ‹ १.
ध 1 निविध्नतासिद्धयथं गणपतिपूजनं करिष्ये इति संकल्प्य धान्योपरि कललस्थ- , ५
पुणपात्रे हैमीं वसिष्ठं ध्.वं च संस्थाप्य पुजयेत् ।! तद्यथा-अष्टकणिकया मुक्ते
मण्डले पजयेत्तु ताम् ।\ अरुन्धतीं महादेवीं बसिष्ठसहितां सतीम् ।। आवाहनम् ।॥ `
अरुन्धति महादेवि स्वसौभाग्यदायिनि ।! दिव्यं सुचारवेषं च आसनं प्रतिगृह्य- `
ताम् । आसनम् ।। सुचारू ज्ञीतलं दिव्यं नानागन्धसुवासितम् ।। पाद्यं गृहाण `
देवेशि अरुन्धति नमोस्तु ते ! पाद्यम् ।\ अरुन्धति महाभागे वसिष्ठत्रियवादिनि !॥
अर्घ्यं गृहाण कल्याणि भर्त्र सह पतिव्रते ।\ अर्घ्यम् \\ गङ्धातोयं समानीतं सुबणे- `
कलक स्थितम् ।! आचम्यतां महाभागे वसिष्ठसहितेऽनघे ।। आचमनीयम् । 1
` ` शङ्ख र ्ासरस्वतीरेवापयोप्णीनमंदाजलेः ।। स्नापितासि मया देवि तथा शान्ति ` |
== 1 ए
व्रतानि ल" दादीकासाहतः ८. (१२७. --
; | र मुलस् 9. . 1. सनवथ शिर षू 9 । सकटपियाय 9 लिखापु ० । वसिष्ठपरियाय © | । 0. |
वसिष्ठध् वसहितं सर्वद्धिं प° । नमो देव्ये इति नीराजनम् ।! पुष
पाञ्जलिम्
वायनं दद्यात्-वंशपात्रे स्थितं पूर्णं॑वाणकं घृतसंयुतम् ।। अरुन्धती प्रीयतां |
च ब्राह्मणाय ददाम्यहम् ।\ वायनम् ।! सुवणेमूतिसंयुक्तां बसिष्ठध् बसंयुताम् । |
अरुन्धतीं सोपचारां ब्राह्मणाय ददाम्यहम् ।। मूतिदानमंत्रः ।। गच्छ देवि यथास्थानं |
सर्वाठिंकारभूषिते ।। अरुन्धति नमस्तुभ्यं देहि सौभाग्यमुत्तमम् \) इति विसजेनम्।। |
अथकथा-स्कन्द उवाच ।। पुरावृत्तमिदं विप्राः श्युणुध्वं व्रतमुत्तमम् 1! आसीत्क- |
श्चत्पुरा विप्र सवेशास््रविशारदः ।\ १ \\ तस्यका कन्यका जाता रूपेणाप्रतिमा |
भुवि ।} ततो विवाहं सम्यग्वे पिता तस्थाकरोदद्विजः ।! २।। कुलकश्षील्वते दत्ता
साकन्या बरर्वाणिनौ ।! अचिरेणव कालेन भर्ता तस्या मृतो द्विजः | ३।। बाल
रण्डातु सा जाता निर्वेदादगमद्गृहात् ।। यमुनातीरमासाद्य चकार विपुलंतपः |
। ` ॥ ४ ।। एकभुक्त्यादिकंश्चेव कृच्छचान्द्रायणेस्तथा ।। मासोपवासनियमेरात्मानं `
| पावयत्सतौ 11 ५ ।। कदाचिदागतस्तत्र भ्रमन् गौर्या सदाशिवः ।। यमुनातीर-
: मासाद्य वनितां तां ददक्ञं सा।। ६ ।। कृषया च शिवा गौरी महादेवमुवाचसा।॥
देव केनेदृशी प्राप्ता बाल्वैधव्यताद्श्ाम् ।। ७ 1 वद मां कृषया देव कृपां कुर् `
दयानिधे \। महादेव उवाच \! अयं विप्रः पुरा गौरि कुलक्ञीलयुतो भुवि ॥ ८ ॥ ` |
` तेन कन्या परिणीता सुरूपा युवती सती \। स तां विवाह्य तरुणीं विदेशमगमदद्विजः
। ॥\९।। ततो बहुतिथं कालं सापदयूतुरागमम् ।। नागतस्तु तदा विप्रो यावज्जीवं ।
ठ म तेन कमंविपाकेन सा नारी विधवा भवेत् ।\ १५ ।। स्वपत्नीं कुल संभूत १ पति ५. ५
अनुकूलं परित्यज्य परां यो याति स्वेच्छया ॥। १६ \। स पापौ जाय
२१६) + ्रतरार्ज, [ ततीया-
0 निति
भवत् ।। पप्रच्छ तं महादेवं गौरी सा करुणान्विता । २० ॥। केनेदं महत्पापं
बालवेधव्यदायकम् ।। न्यते कर्मणा देव तन्मां वद कृपां कुर । २१ ।। महादेव
उवाच ।! श्युणु देवि प्रवक्ष्यामि बालवधव्यनारनम् । अरुन्धतीव्रतं पुण्यं नारी- ` |
सौभाग्यवायकम् ।\ २२ ।। यत्कृत्वा बाल्वेधव्यान्मच्यते ना संशयः ।! श्तमे- `
तत्तदा विप्रा गौर्या शंकरतो त्रतम् ।\ २३ ।\ यमुनातीरमासाद्य उपविष्टं तदा `
द्विजाः ॥ तस्यै नार्ये महादेव्या कारितं व्रतमुत्तमम् ।! २४ \ तेन पुण्येन महता
ब्रतजेन मुनीदवराः ।। सा नारौ चागमस्स्वगेमुक्ता वेधव्यतस्तदा । २५ ।। इत्थं `
तरतं शरुतं सम्यगुपदिष्टं मुनीहवराः । कृतमन्येर्च बहुभिस्तेऽपि मुक्ता म॒नी-
हवराः । २६ ।! अरुन्धतीव्रतमिदं सदा कायं मुनीडवराः ।। नारी वैधव्यतो `
मुच्येत्सोभाग्यं प्राप्नुयात्परम् ।। २७ ।\ इति श्रीस्कन्दपुराणे अरुन्धतोव्रतम् ।॥ `
अथ उच्चापनम् ।! युधिष्ठिर उवाच ।। उद्यापनवि्धि ब्रूहि अरुन्धत्याः सुरेश्वर ।॥ `
भक्तितः श्रोतुमिच्छामि व्रतसंु्तिहेतवे ।। कष्ण उवाच ।! अरुन्धतीव्रतं वक्ष्ये `
नारीसौभाग्यदायकम् ! येन चीर्णेन वे सम्यक् नारी सौभाग्यमाप्नुयात् ।\ जायते `
रूपसंपच्ना पुत्रपौत्रसमन्विता ।। वसन्ततुं समासाद्य तृतीयायां युधिष्ठिर ॥ माघे
7 माधवे चेव श्रावणे कातिकेऽथवा ।\ स्नानं कृत्वा तु वे सम्यक् त्रिरात्रोपोषिता
लवणानि लवणान्वितम् ।\ लोष्टकन समायुक्तं वस्त्रयुग्मेन वेष्टितम् ।। आावाहयेदरन्धतीं
सिष्ठप्राणसंमिताम् ।। पतिव्रतानां सर्वासां
चारल्वाङं कमण्डलुम् ।। प्रतिमां काञ्चनीं कृत्वा नामभिः परिपुन-
वं चैव "प्रतिमां पुजयेदृव्रती ।। देववन्द्ये नमः पादौ जानुनी |
देव्रभार्या यथा स्वगे ऋषिभार्या यथेव च ।। राजते च महाभागा सर्वकामसगृदधिभिः।। = |
अधिकार स्ति
भूषणच्छादनादिभिः ।। नानाविधोपचारङ्च चरतुवरातिसंख्यया ।\ आचाय रा ॐ
च गां दद्याटस्तण्याभरणानि च ।। शय्यां सोपस्करां दद्यात्कांस्यपात्रं सदीपकम् ।॥
आदं चामरं चेव अदवं दद्यात्सुशोभनम् ।\ यथाव दोजयित्वाथ स्त्रियः शूषात्स- |
मोदकान् ।। मोदकान्काञ्चनं चेव तथा वस्त्रं यथाविधि ।! पोलिका चतपुपांश्च `
पुरिकाऽ्च विशेषतः ।\ सोहालिकाषच दातव्या एकंकं द्विगुणं तथा ।! भोजनद्रय- `
पर्याप्तं दीनानाथांरच पूजयेत् ।\ अनेनैव विधानेन भामिनी कुरते व्रतम् ।! अवेध- =
व्यमवाप्नोति तथा जन्मसहस्रकम् ।! पुत्रपोत्रसमायुक्ता धनधान्यसमावृता ।॥
जीवेषशतं साग्रं सहभर््रा महाव्रता ॥। एवमभ्यचेयित्वा तु पदं गच्छेदतामयम् ।॥ = |
१ इति श्रीस्कन्दपुराणे अररन्धतीत्रतोद्यापनम ।।
अरंन्धतीका ब्रत-मध्याह्न व्यापिनी चेत्रशुक्ला तृतीयाको अरुन्धती व्रत होता है । इस ब्रतके करनेका ५
। स्त्रियोको ही है । क्योकि, इसके अवेधव्य आदिक फल सूने जाते है । व्रतक्रे आदिमे संकत्पहैकि, `
अपने इस जन्मके ओर जन्मान्तरोके वैधब्यको नाह करनेके लिये तथा अनेक सौभाग्य भौर पृर्रल्पसमृदधिके
। चये अरन्धतीके ब्रतको में करती हुं ।। यहं वरत निषिघ्न समाप्त हो जाय इस कारण गणपतिजोका प्रजन भौ |
करती हं ।। पीछे घान्योके ऊपर कला रखकर, उस कलक्ञपर पूरणमपात्रकौ स्थापना करके, उसपर सोके = ।
गौरी, वसिष्ठ ओर ध्रुवको स्थापित करके पुजन करना चाहिये । पुजनकी विधि यह् है कि आढ कर्णिकके
भण्डलपर वसिष्ठजीसहित सती अरुन्धतौको विराजमान करे पूजना चाहिये । देवी, अरुन्धतीके लिपि
५ नमस्कार है, मे अरुन्धतौका आवाहन करता हूं । इत्यादि आवाहनके मत्र है । हे महदेवी ! हि स सौभाप्योके `
। ` देनेहारी देवौ अरुन्धती ! आप इस मेरे सुन्दर सुहावने असनको ग्रहण करो । इसते आतस्तन देना चहिये ।1 (1
| है ३वोकी मालिका अरन्धती ! इस सुन्दर शीतक ओर अनेक सुगन्धोसे सुगन्धित पाद्यको ब्रहण करो । आपके
। | चये नमस्कार है। इससे पाद्य देना चाहिये । अधंका मंत्र है बसिष्ठको प्यारी बोलनेवाली महाभागकल्याणी `
` दैवि! अरुन्धति ! आप वसिष्ठजीके साथ आचमन करिये, मंगाया हुभा गंगाजल सोनेके
दहै ॥\ स्नानका संत्र-है देवि ! आपको, गंगा, सरस्वती, रेवा, पयोष्णो ओर नमेदाके जलसे मेने जैसे स्नान
| कराया है तेसेही आप भौ मुक्षे शान्ति दें । वस्त्रका मंत्र-है देवेशि ! अरुन्धति ! सुल्दर मनोहर दिव्य
¦ ४ हय करिये इसमें कपुर, कुंकुम, हलदी ओर कस्तुरी पडी हई हे । सोभाग्य द्रव्यका मंत्र-हलदौ कुकुम जौर
कज्जल समेत सिन्दूरको में भक्तिभावसे निवेदन करता हुं, है परमेवरि ! ग्रहणकरं । पुष्योका मंत्र- । माद्या
0; नि ८ (1 सुगन्धोनि मालन्यादीनि वेप्रभो । मयाऽऽ्हतानि पजार्थं पुष्पाणि प्रा ह (> नि
अपने पतिके साथ मेरे अधेको ग्रहण कर, तेरे लिये नमस्कार है ।\ आचमनका मंत्र-है निष्पाप
के कलमे रला हुआ
स अनेक ` गोका रंगा हा वस्त्र ग्रहण करिये, आपके लिये नमस्कार है \ उपचस्त्रका मंत्र-हे देवि ! अहन्धति ! `
` तेरे लिये नमस्कार है, अनेक रत्नोके साथ कंचुकी ओर उपवस्त्र देता हु ग्रहण करिये । चन्दनका मंत्र-चन्दन _ ।
1 2 |
इसमे कपुर इलायची सुपारी ओर नागवल्लीके पत्तं पडे हए हँ" इससे ताम्बलनिवेदन कर दे \ हे देवि ! यह 1
` फल मेने आपके सामने रखा है, इससे मुञ्चे जन्म जन्मभे सफला अवाप्ति हो । इससे फला० । अन्निकाहिम `
बीज हिरण्य गभके गभस्थ है अनन्त फलका देनेवाला हैः उससे मूक्ने शान्ति दे । इससे दक्षिणा० हे सुव्रते! = `
` मूषे सौभाग्य दे, धन दे ओौर पुत्रादिक दे तथा ओर भौ सब कामको दे, तेरे लिये नमस्कार है । इसमे प्रा्थना `
करे । हे बसिष्ठकी प्रियवादिनी महाभागे अरुन्धत देवि ! सौभाग्य दे ! ओर सदा धन तथा पुत्रादिकदे, |
इससे उत्तर अधं दे । सुन्दर शरीरवाली तथा अक्षसूत्र ओर कमण्डलृसे युक्त दो मूर्जोकी सोनेक प्रतिमा
बनाकर नाम मन्त्ोसे पूजन करना चाहिये । देववन्दके लिये नमस्कार है, चरणोको पुजता हूं । लोकवन्के `
` लिये नसस्कार है, जानुओंका पूजन करता हं ! संपत्तिदायिनीके चयि नमस्कार है, कटीको परुजता हं । गंभीर-
` नाभीबालीके लिय नमस्कार है, नाभिको पुजता हं । लोकधान्निके लिये नमस्कार है, स्तनोको पूजता हूं ।
` जगद्धात्रीके किये नमस्कार है । कंठको पुजता हूं \ शंतिके छे नमस्कार है, बाहुका पूजन करता हं । `
वरग्रदाके व्यि नमस्कार है, हाथोको पुजता है । धृतिके लिये नमस्कार है मुलको पुजता हुं ! अरन्धतीके `
ल्ि नमस्कार है शिरका पूजन करता हूं \ सकल प्रियाके लिये नमस्कार है, शिखाको पजता हूं ।। वसिष्ठ
भ्रुवके सहित सर्वाङ्कको पुनता हं । देवीको पजता हुं इससे नीराजन करना चाहिये । ऊपर “ओम् देव `
` बन्द्ाये नमः इत्यादि मन्त्रौसे छिखित अंगोका पूजन करे । सबके आदिमं ओंकार लगादे, अंग पुजनके पीछे `
पुष्पांजलि दे, पीछे वायन दे । “ वंश्षपात्रे स्थितम् ” यह इसका मन्त्र है कि, वंशपात्रमे रखे हए धृत संयुक्त
. वाणकको भें ब्राह्मणको देता हूं, इससे अरुन्धतौ श्रसन्न होजाय ? सुबणेकौ मूतिसे संयुक्त तथा वसिष्ठजी ओर `
धवके साथ अरुन्धतीकी सूतिका सोपचार दान करता हूं इससे मूतिदान करना चाहिये । हे सब अलंकारोसे `
विभूषित अरुन्धती ! तेरे ल्यि नमस्कार है, मुने उत्तम सौभाग्य दे ओर यथास्थान पधार, इस मंत्रसे विसजेन
गता है । अथ अरन्धतीके ब्रतकी कथा-स्कन्द बोरे कि, हे बराह्मण ! पुराने जमानेकी एक अच्छी बात सुनो ।
एकं ब्राह्मण जो सब शस्त्रोमे निष्णात था ।। १ ।। उसके एक अद्वितीय सुन्दरी लडकी थी, उस ब्राह्मणने
उसका बडी अच्छी तरह विवाह किया ।! २1! उस वरर्बाणनी कन्याको एक कुलीन पुरुषको दे दिया पर थोडेही
दिनमे उसका पति स्वरगवास कर गया \\ ३ ।! वो बारविधवा हौ गयी, इसी दुःखसे पिताके घर चली आई '
ओर यमुनाजीके किनारे घोर तपस्या करने लगी 1\ ४ ।। वहां उसने अनेकों एकभुक्तं अनेकों कच्छ तथा-
पावती सहित रसा हत महादेवजी घूमते हए प्च गये ओर ) र र यमुनाजोके किनारे तप करते हुए उस बाल्विधवाको
गौरीजौको दया आई वह शिवजीसे पुने लगीं कि, हे देव ! किस कारणते इसे बाल वैधव्य
कृपा करिये. मसे बताये । स बोले कि, हे गौरौ ! पहिले यह एक कुलीन ब्राह्मण
व्रतानि ।
(१२१) `
। कौनसे कमेसे यह बालवेधेन्य देनेवाला महापाप नष्ट हौ, यह कृपा करके बतादीजिपे ।। २१ ।। यह सुन
। महादेवजी बोरे कि, है देवि ! मे बालवेधन्यका नाक्ञ करनेवाला एक अरुन्धती त्रत कहता हुं । यह् सौभ्यका
देनेवाला भी है ।। २२।। इसको सुनकर बालवैधन्यके पापसे छट जाते ह, इसमे कोई सन्देह नहीं है \ हे ब्राह्यणो |
उस समय गौरीजीने इस ब्रतको शिवजीसे सुना धा ।। २३ \) हे ब्राह्मणो ! इस ब्रतको गौरीजीने क्िवजीसे `
सुनकर उस स्त्रीसे इस त्रतको कराया ।\ २४ ।। हे मुनौश्वरो ! इस व्रतकं पुण्ये वो स्त्री स्वगं चचली गई
ओर वैषव्यसे छटगरई ।\ २५।। हे मुनीहवरो ! मेने जेसे सुनाया वैसाही कर दिथा, इते दूसरे भी बहुतोन `
किया, वे भी सब आत्माएं मुक्त होगडं ।! २६ ॥। हे मुनीहवरो ! इस अरन्धतीके ब्रतको संका करना चाहिये,
इसके करनेसे स्त्री वेधव्य योगसे छूटकर परम सौभाग्यको प्रप्त होती है \। २७ \\ यह स्कन्द पुराणकीञअर- |
६ 1 ` न्धती व्रतकी कथा हुई \। भथ उद्यापनम्-युधिष्ठिरजी भगवान् कृष्णजीपे बोले कि, हे सुरे्र ! अरुन्धती |
ब्रतकी उद्यापन विधि किये, भें व्रतकी संयुते लि भक्तिसे युनना चाहता हूं ।। भगवान् इष्ण बोले कि, `
~ ५ | नारियोको सौभाग्य देनेवाठे अरुन्धतीके व्रतके उदयापनको कहूगाः जिसके मलोभाति करनेपे नारौ सौभाग्यको प ४ | ध
पाजाती है । रूपसे संपन्न भौर पुत्र पौत्रोपे समन्वित होतो है । हे पुधिष्ठिर ! वसन्त ऋतुरी तृतीयकोचाहु |
माघ हो, चाहें वैशाख हो, अथवा श्रावण ओर कतिक हो, स्नानादि कर तीन रात उपवास करके, ब्रत करने-
, बारी, चार दम्पतियोको बुलाकर पुष्प, तांबूल, चन्दन ओर अक्षतोंसे उनका पुजन करे तथाद्ुकम अगर,
कस्तूरी, कपुर आदिसे पुजे, शिलापटूपर लवण सहित जीरको लोके साय रलकर दो वस्त्रो वेष्ठितिकरदे।
वुसिष्ठजोके प्राणोकी प्यारी अरन्धतीक! आवाहन करे, जो संब पतिव्रताभोे मुस्य, देव भामिनी है । सर्वाद्ध- ` ।
। ुन्दरी दो मृजाकी, अक्ष सूत्र, कमंडल युक्त सोनेकी मति बनाके नामंतरसे पुने 1) व्रती, वसिष्ठजी ध्रुवजी ओर = |
प्रतिमा तौनोंको ही पूजे । “ओम् देववन््े नमः" इस मंत्रे चरण “ओम् लोकवन्दिते नमः” इससे जानु \ |
ओम् स्वेसंपत्तिदायिनी नमः" इससे कटि “ओम् गंभोरनाभ्यै नमः" इसमे नाभि “जोन् लोकधकत्चै नमः;
इससे स्तन “ओम् जगद्धाश्ये नमः" इससे स्कंद “ओम् शान्त्ये नमः” इससे बाहु “ओम् वरदाय नमः" इससे
हस्त “ओम् धृत्य नमः" इससे मुख “ओम् अरन्धत्ये नमः” इवसे शिर तथा “ओम् सकलप्रिये नमः इससे
सेर्वाङ्धका पुजन करना चाहिये । देववन्द्ा, लोकवन्दिता" सवं संपत्तिके देनेहारी, मोढीनाभिवाली.लोकधान्रौ- = ।
जगद्धात्री, शान्ती, वरदा, धृति, अरुन्धती भौर सेकल प्रिया जो तु है तेरे लिये नमस्कार है । इसप्रकार गन्धो, =
| पच्ारसे सती देवौ अरन्त का.पुजन करके अधं देना चाहिये । है महाभगे ! अद्न्धती]) है वपिष्ठकीप्यारी
। 4 बोलने वालो { है देवी ! हे सृत्रते मुके सदा सौभाग्य ओर घन पुत्र दे) पुत्रोको दे, घन ३ ओर सौभाग्य प ह ५
होम चस्त्राच्छादनोसे तथा अनेक तरहके उयचारोसे, चौवौस दम्पतियोका पुजन करके, आचय्यंको गः
ओर वस्त्राभरण दे! उपस्कर सहित शय्या दे तथा दीपक सहित कप्रेसका पात्र दे, वेण मौर
रचभरदेतथा |
सुशोभन अदव दे । स्त्रियोको यथावत् भोजन कराकर, लु. भरे हुए सुप एवं विधिकर साथ मोदक, काचन, 1 1
1 कसय, पोलिका घृत, पुष, पूरौ ओर सुहालिका देन चाहिये ये चोज एकः एकको दो दो दे दीन ओर अना्थोकोः
इतनादेदेजो दो दो भोजन करसके, जो भामिनी इस प्रकार व्रत करती है उसे हजार जन्मतक वैषनव्यनहीं |
प्राप्त होता । उसने यथेष्ठबेटा, नाती ओर धन, धान्य मिलता है वो महब्रता पतिके साय सौवर्षतक जिन्दी ।
रहती है, इस प्रकार पूजन करनेसे मोक्षपदकी प्राप्ति हो जाती है स्वमे देवभाय्या ओर ऋषि भारव्याएं
(१. ध व्रतराज ` + | [ त॒तीया-
त र > ५ 0 णा
(2 4 ६ ध 443 4144... प
मासि कुर्वति मधुसूदनतुष्टिदम् ॥ तुलामकरमेषेषु प्रातः स्नानं विधीयते !॥ `
हविष्यं ब्रह्मचर्य च महापातकनाशनम् । वलाखस्ताननियम ब्राह्यणानासनुज्ञया ।\
मधसूदनमभ्यच्यं कुर्यात्संकल्पपू्वकम् \! वेशाखं सकलं मासं मेषसंक्रमणं रेः! `
प्रातः सनियमः स्नास्ये प्रीयतां मधुसूदनः ।\ मधुसूदनसन्तोषाद्ब्राह्यणानामन्- `
५ €
ग्रहात् ।\ निविघ्नमस्तु मे पुण्यं वशाखस्नानमन्वहुम् ।! माधवे मेषगे भानौ मुरारे ८
मधुसूदन ।। प्रातः स्नानेन मे नाथ फलदः पषपहा भव ।। यदा न ज्ञायते नामतस्य
तीर्थस्य भो द्विजाः ।। तत्र चोच्चारणं कार्थं विष्णृती्थमिदं त्विति ।\ अपि सम्यग्वि-
धानेन नारी वा पुरुषोऽपि वा \ प्रातः स्नातः सनियनः सद॑पापेः प्रमुच्यते ।! `:
ष वेश्ाखे विधिवत्स्नात्वा भोजयेदूब्राह्यणान्दश् \। कृत्स्नशः सवेपपेभ्यो मुच्यते नत्र
संशयः ।) इति वेन्ञाखस्नानविधिभविष्येयं \। इयमेव तृतीया परशुरामजयन्ती ।\ `
साच प्रदोषव्यापिनी ग्राह्या ।। तदुक्तं भागंवाचनदीपिकायां स्कन्दभविष्य-
योः-वेशाखस्य सिते पक्षे तृतीयायां पुनवेसो ।।! निशायाः प्रथमे यामे रामाख्यः `
समये हरिः ।! स्वोच्चगे: षडग्रहूर्युक्ते मिथुने राहुसंस्थिते ।। रेणुकायस्तु यो
` गर्भाववतीर्णो विभुः स्वयम् ।! दिनद्रये तद्व्याप्तावंशतः समव्याप्तो च परा ॥।
रया ।) सा च पूर्वाह्वन्यापिनो ग्राह्या 1 दिने तदुव्याप्तौ तु परेवेति \\ इयं
दरपि । या मन्वाद्या युग(द्याश्च तिथयस्तासु मानवः ।। स्नात्वा हृत्वा च
| देवताः \।एकभुक्तं तदा कुर्यद्ासुदेवं प्रपुजयेत्।।तस्यां कार्यो यव्होमो यवरविष्णुं |
1 ४ समचयेत् ।\ यवान्दद्याद्हिजातिम्यः प्रयतः प्राक्षयेद्यवान्।। उदकुम्भान्सकनकान् । ५ |
सान्नान्सवेरसेः सह ।\ यवगोधूमचकान्सक्तु दध्योदनं तथा।। ग्रेष्मकं सर्वमेवात्र 1
सस्यं दाने प्रज्ञस्यते ।! तृतीयायां तु वेशाखे रोहिण्य॒क्षे प्रपूज्य च।। उदकुम्भप्रदानेन
श्जिबलोके महीयते ।। तत्र मन्त्ः-एष धर्मघटो दत्तो ब्रह्मविष्णु
८ अस्थ
व्रतानि] , :.: िन्वीटीकासहित (१२३)
तत्सर्वं स्यादिहाक्षयम् ।\ आदिः कृतयुगस्येयं य॒गादिस्तेन कथ्यते ।) सवेषापप्रशमनी
सवं सौख्यप्रदाथिनी ।\ पुरा महोदयः पाथं वणिगासीत्पुनिमेलः ।। प्रियंवदः सत्य- `
वृत्तिदेवन्राह्मणपुजकः ।। पुण्याख्यानेकचित्तोऽभृत् कुटुम्बव्याकुलोपि सन्. ॥ तेन
श्रुता वाच्यमाना तृतीया रोहिणीयुता ।। यदा स्याद बुधसंयुक्ता तदासातुमहा `
` फला ।। तस्यां यदीयते किचिदक्षयं स्यात्तदेव हि ।। इति श्रुत्वा च गङ्धायां सन्तप्यं |
पितुदेवताः ।! गृहसागत्य कारकान् साल्नानुदकसयुतान् ।\ अ्नपुणान्बहत्कुम्भा- =
ञ्जलेन विमलेन च \। यवगोधूमलवणान् सक्तु दध्योदनं तथा ।। इकूक्षीरविका- |
रांहच सहिरण्यांश्च शक्तितः।। शुचिः शुद्धेन मनसा बाह्यणेभ्यो ददौ वणिक् ॥ |
भायेया वाय्यमाणोऽपि कुटुम्बासक्तचित्तया ।। तावत्तस्थौ स्थिरे सत्त्वे मत्वा
स्वं विनहवरम् ।! धर्मासक्तमतिः पाथं कालेन बहुना ततः ।। जगाम पञ्चत्वमसौ ध |
वासुदेवमनुस्मरन् ।! ततः स क्षत्रियो जतः कुशावत्यां युधिष्ठिर।। बभूव चाक्षया- 0
तस्य समुद्धिधमसंयुता 1! ईजे स च महायज्ञः समाप्तवरदक्षिणेः ।।स ददौ गोहिर
ण्यानि दानान्यन्यान्यहनिशषम् ।। बुभुजे कामतो भोगान्दीनान्धांस्तंयज्छनैः ।॥ `
इत्येतत्ते समाख्यातं श्रूयतामत्र यो विधिः।। तृतीयां तु समासाद्य स्नात्वा संतप्य `
प्रदानात्तप्यन्तु
गोभूकाञ्चनवाससाम् ।। यद्यदिष्टं केशवस्य तदेयमविदंकया ।! एतत्ते सवं- `
माख्यातं किमन्यच्छोतुमिच्छसि । अनाख्येय न मे किञ्चिदस्ति स्वस्त्यस्तु
तेऽनघ ।। नास्थां तिथौ क्षयमुपैति हृतं च दत्तं तेनाक्षयेति कथिता मुनिभिस्तृतीया तीय या।॥
उद्य दैवतपिप्न् क्रियते मनुष्यस्तच्चाक्षयं भवति भारत सर्वमेव 1 इति भ-
तथाप्यक्षयमेवास्य क्षयं याति न तद्धनम् ॥\शनद्धापूर्वं तृतीयायां दृततं विभवं विना! |
वष्णुशिवात्मकः ॥ `
पितरोऽपि पितामहाः ।। गन्धोदकतिलमिधं सान्नं कुम्भं
सदक्षिणम् ।। पितृभ्यः संप्रदास्यामि अक्षय्यमुपतिष्ठतु ।\! छत्रोपानत््रदानं च॒ `
` संस्छृतां्चेव हत्वा चैव तथाक्षतान् । विप्रेषु दत्वा तानेव तथासक्तृन्सुसंस्कृ- `
तान् ।\ पक्वान्न॑तु महाभाग फलमन्नय्यमहनुते ।। एकामप्युक्तां यः कृर्यात्तितीयां
भृगुनन्दन ।। एतावत्तु तृतीयानां सर्वासां तु फलं लभेत् ।! इति अक्षय्यततीयातव्रतं `
संपूर्णम् ॥ | |
अथ अक्षय तुतीया बरतम्-वेसाख शुक्ला तृतीयाके दिन भविष्यपुराणमं अक्षय तृतीयाका ब्रत कहा है |
कि, इस दिन तीथं स्नान जौर तिलोसे पितरोका तपण करे, धमं घटादिकोका दान ओर मधुसुदनका पुजन `
करे, क्यो कि, वैसाखमें भगवान्क! तुष्टिदेनेवाला पूजन अवदय कर्तव्य है । तुत, मकर ओर मेषराहिमे `
_ प्रातः स्नानका विधान है, इसमें हविष्यान्न भोजन ओर ब्रह्मचय्यै, महापापोका नाकच करनेवाला है । भगवानूका `
` प्रजन करके संकल्पपुवैक ब्राह्मणोकी आन्न प्राप्त करके वेसाखके स्नानका नियम लेना चाहिये । हे मुरारे!
हे मधुसुदन ! वैसाखके मासमे मेषके सूर्यम हे नाथ ! इस प्राप्तः स्नानसे मुञ्चे फल देनेवारे हो जाओ ओर
पापोका नाह करो ! हे ब्राह्मणो ! जो तौथका नाम पता न हो तो उसको विष्णुतीर्थं कहना चाहिये । चाहे
स्त्री हो चाहे पुरुष हो जो नियमपू्वक प्रातः स्नान करता है । वो सब पापोसे छटा जाता है । वेसालमं विध्कि `
सच स्नान करके दह ब्राह्यणोको भोजने कराना चाहिये,वह् सब पापोसे छट जाता है ईसमं कोई सन्देह नहीं ॥
है, यह् भविष्यकी वैशाखस्नानकी विधि होगरई । परश्ुरामजयन्ती-इसीतृतीयाको कहते हं ! परशुरामजयंती `
व्यापिनी लेनी चाहिये । यही भागेवार्चनदीपिकामें स्कन्दं ओर भविष्यपुराणका प्रमाण दिया है क्रि,
४ दोनों दिन हो ते, परा ग्रहण करनी चाहिये, नहीं तो पूर्वाही चनी यही बात वहां ही भविष्यपुराणसे
हैकि, वेसाख शुक्ला त॒तीया शुद्धाको ब्रत करे, यदि दोनों दिन हौ तो, रातके पिरे पहरमं रहे तो इसरी
जो कुछ उसमें दान दिया जाता है उसका अक्षय फल होता है ! एेसा सुन वो वै्यगंगा किनारे पहुंचा. वहां
परानोके भरे हुए बडे २ घडे, यव गोधूम, लवण, सक्तु, दध्योदन, ईख ओर दुधके बने पदाथ, शुद्ध मनसे शक्तिके .
फल था । यह मे तेरे लिये कंहदिया यहां जो विधि है उसे सुन । तृतीयाके दिन स्नान तथा देवत्प॑ण
रतानि 1 ८ हिन्दीटीकासहित ` ५ | १ (१२५)
0 व (1 ध 1 ४.
रि
| ओर ब्राह्मणोका पूजक, सुनिल महोदय नामका बनिया था । उसकी पुण्याख्यान सुननेमं रचि रहती थी, यवि । ॥ ध
सबके कामम भौ वो व्याकुल होता था, तब भी उसका मन शस्त्रम ही रहता था । एक दिन उसने रोहिणी
नक्षत्र ज्ञालिनी अक्षय तृतीयाका माहात्म्य सुना कियदि बो बुध सयुक्त हौ तो महा फलवाली होती है । _
उस्ने पित देवताओंका तपण किया, पीर घर आकर, अन्न ओर पानीके साथ ओले,तथा अच्च ओर स्वच्छ
अनुसार सोनेके साथ ब्राह्मणोको दान दिये ¦ स्त्रीका चित्त कुटुम्बमं आसक्त था इस कारण उसे बहुत रोका |
पर जबतक वो वासुदेवका स्मरण करके मत्युको प्राप्त नहीं हुमा हे पाथं ! तब तक बो धमेमे आसक्त मतिवाला = `
क वैश्य बहुत कालतक सबको विनहवर मानकर स्थिर सत्वमं रहा \ है युधिष्ठिर । इसके पीछे वो कुशावतीपुरीमे ॥ : ।
क्षत्रिय हुमा, उसकी घर्मसंयुक्त अक्षय संपत्ति हुई, उसने बडी लंबी चौडी दक्षिणाके साथ बडे बडे यज्ञ पुरे |
` किये, तथा रात दिन गौओके सोनेके तथा अन्यभी अनेकों वस्तुओके बहुतसे दान दिये 1 उसने इच्छानुसार `
भोगोको भोगा तथा धीरे २ अनेकों दीन ओर अन्धोको तृप्त किया, इतना करने परभ इसका धन अक्षयं |
था, नष्ट नहीं होता था, क्योकि इसने अक्षय तृतीयाके दिन विभवको छोड कर श्रद्धापूवक जो दियाथाउसकाही `
` वार भोजन करता हुमा वासुदेवका पुजन करना चाहिये । इसमें यवोकरा होम ओर वासुदेवका पुनन होताहै। `
आह्यणोकि ख्ये जौओंको दे भौर पवित्र होकर जोओका ही भराह्यन करे । कनकसहित पानीके भरे हुए घडे,
, ` सब रस अन्न, यव, गोधूम, चणक, सतु ओर दध्योदनका दान [करना चाहिये । इसमे ग्रीष्म ऋतुके स्य॒ |
इसकोदानसे पितर ओर पितामहं तृप्त हो जायें । गन्धोदक मौर तिलके साथ तथा अन्न ओर दक्षिणासहित,
॥ ५ घट देता हु, यह दान पितरोके लिये अक्षय होय जाय । छत्र, जते, गो, जमीन, सोना ओर वस्त्र जो भी कोई ८
ध (1 | । भगवानकौ प्यार वस्तु श्रीकृष्णापंण की जायगी महू सब अक्षय होगी यहु सब मने करू दिया ओर क्या ५: 1
दान किया जाता है बो कभी नादाको प्राप्त नहीं होता । इस कारण इसे अक्षयतृतीया कहत है
दान कियेहुए् अच्छे होते है । वैसाख तृतीयके रोहिणी नक्षत्रम शिवपुजन करनेके बाद उदकरुभदान करके `
क्ििवलोकमे चखा जाता है । यह घट दानका मंत्र है कि, ब्रह्मा विष्णु ओर रिवरूप यह धर्मघट मेने देदिया हेः
घुनना चाहते हो ।.हे निष्याय ! तेरेसे मसे कुछ भी गोनीय नही है । हे भारत ! इस तियित्रको जो ५ भीहवन 1
अक्षय तृतीयाका ब्रत पुरा हुमा तथा-
दै कि वैशाल शुक्ला तृं १ यवास करके सब 1 सुङतका ता है
नकषत्रसे युक्त हो तो जधिकभेष्ठ है, इसमे जप, हवन किया सब अक्षय हो जाता है, इसीसे अक्षया तिथि कहते `
इसमे सुकृत इत जय होजाताहै, इसको अक्षय कहनेका एक जौर कारण भी है कि, इसमें अक्षतोसे `
यिति निमि
दिकं तु हेमाद्रौ संवत्सरकोस्तुभादो द्रष्टन्यम्।। इति रम्भाव्रतनिणयः ।। नवुलन। ।
अथ श्रावणदुक्छत॒तीयायां सधुसख्रवाख्य। गुजेरेषु प्रसिद्धा ।। तस्या अस्नहय-
प्रसिद्धत्वाष्विधिर्नक्ताः ।\ सा परयुता ग्राह्या ।। स्व्णगौरीत्रतम् \। जयत्वा रना
श्रावणशुक्लततीयां स्वर्णगौरीव्रतम् ।\ एतच्च कर्णाटकदेकञे ाद्रपदलुक्ल तृतीयाया
प्रसिद्धम् \! तत्र संकल्पः-मम इह जन्मनि जन्मान्तरे च अक्षय्यसौभा्यप्राप्तिका-
मायः पुत्रपोत्रादिधनघान्यश्वप्रायप्त्यथं श्रीपरसमेहवरप्रीत्यथ स्वं गेगोरीव्रतमहं
करिष्ये ।। तत्र पुजा-देवदेवि समागच्छ प्राथयेऽहुं जगत्पते।। इसा सया इता दूना `
गृहाण सुरसत्तमे ।! आवाहनम् ।\ भवानि त्वं महादेवि स्वसौभाग्यदाधिकं जनक
रत्नसंयुक्तमासनं प्रतिगृह्यताम् ।। आसनम् ।! सुचारु शीतलं दिव्यं नानागन्ध-
मुवासितम् । पाद्यं गृहाण देवेशि महादेवि नमोऽस्तुते ।। पाद्यम् ॥! श्रीपारव॑ति `
महाभागे शेकरग्रियवादिनि ।\ अर्घ्यं गहाण कल्याणि भर्व सह पतिन्रते\) अघ्यम् ।\ `
गङ्कातोयं समानीतं सुव्णकलज्ञे स्थितम् 1 आचम्यतां महाभोगे भवेन सहिते- `
गङ्धासरस्वतीरेवाकावेरीन्दाजलैः।। स्नापितासि मया `
तथा ज्ञाति कुरुष्व मे ।\ स्नानम्।\\ सवेभूषाधिके सौम्ये लोकल्ज्जानिवारणे 1}
नियममे तत्पर होकर रंभानामके उत्तम त्रतको करे ¦ इसमें पुर्वविद्धा तिथि ग्रहण करनीचाहिये । उसमें 1
न्नतभी करना चाहिये क्योकि, कृष्णाष्टमी बृहत्तपा, रंभा, भूता मौर वटपैतृकी सावित्रीके त्रतोमे पूवं समुखी
तिथि वं विद्धाः करनी चाहिये । यदि व्रतकी विधि तथा दूसरे विधान देखने होतो, हेमाद्रि तथा संवत्सर
कौस्तुभादिकमं देने । यह् रंभके व्रतका निणय हभ ।! |
८ अथ मधुलवः ब्रतम्-श्रावण शुक्ला तृतीयामें मधुलवा नामका त्रत गुनरातमे होता है पर वो व्रत हमारे |
देक्षमे प्रसिद्ध नहीं है इस कारण नहीं कहा । उसे जब तृतीया चौथे युक्त ह्ये तब ग्रहण करना चाहिये ।॥ = `
स्वर्ण, गौरीब्रत-अवब आचारसे प्राप्तं जो श्रावण शुक्ला तृतीयामें स्वणेगौरीव्रत होता है उसे कवते हँ । इसे `
` कर्णाटक देयम भाद्रपद शुक्ला तुतीयाको करते हे, इसका संकल्प तो मेरे इस जन्म ओर जन्मारतमं अक्षय
सौभाग्य ओर पुत्र पौत्रादि धन धान्य ओौर एेदवर्यकी प्राप्तके ल्यि तथा श्रौपरमेर्वरकी प्रसन्नताके ल्य
स्वर्णगौरीब्रत मे करता हू, यह् है । स्वणंगौरीकी एना कहते है-है देवि ! हे देवि ! आजा, हे सुरसत्तमे ! = |
मेरी की हई पूजाको ब्रहणकर ¦ इससे आवाहन । तथा-आाप भवानी ओर आही महादेवौ हँ जपही सब =`
सौभाग्यकी देनेवाली ह-इस अनेक र्नोसे जड हृषु जसनको माप ग्रहण कर, इस मन््रते जासन । तथा- = `
अच्छी तरह छण्डा एवम् अनेक तरहकी सुगन्धियोसे सुगन्धित हुमा पादय-ग्रहण करिये, हे देवेशि ! हे महा- = `
देवि! तेरे लिये नमस्कार है! इस मन्तरसे पाद्य । तथा शंकरकौ छ
कल्याणि ! पतिसमेत अर्ध्य ग्रहण करिये, इस मंत्से अध्यं ! तथा गङ्गानल लाया हं बो सोनेके कल्शमे रवा (श
हा है है महाभागे ! अनघे ! श्िवके साथ आचमन केर, इस मन्त्रसे आचमनीय । तथा गङ्ख, सरस्वती, | ४
| रेवा, कावेरी ओर नरम॑दाके पानौसे मेने आपको स्नान करायाहै तंसेही आयभी मृद्े शांतिदे, इस म॑त्रसेस्तान। ` `
तथा-ये युन्दर वस्त्र सब आभूषणोसे बढ़कर हैँ खोककी लल्जाका निवारण इनसे ही होता है मं इन्दं जापको ` (9
। दता हूं भाप ग्रहण करिये, इस मन्त्रसे वस्त्र देकर कंचुकी भौर आचमनीयको देना चाहिए ।। कर्पूर, कुंकुम, = `
हल्दी ओर कस्तूरी इसमे पडी हई हं एेसे चन्दनको ग्रहण करिये, इस म॑त्रसे चन्दन । तथा हरिद्रा, कुकुमर्िहुर = `
| ओर कज्जलको सौमाग्यद्रव्योकि साथ ग्रहण करिये । इसमे सौभाग्य द्रव्य । तथा-“माल्यादीनि" इस मनत्रसे
„पष्य । तथा-देवदरुमके रससे बनया गया, जिसमे कि, कालागुर मिले हए हं एसे घूपको सूधिये, हे भवानी ! 4
| इसमें बडी सुन्दर सुरभि आ रही है, इस मन्त्रसे धूप । तथा-“अज्यं च वतिसंयुक्तम्" इस मन्त्रसे दीय । = |
तथा-“अन्नं चरतुविधं स्वादु” इससे नैवे निवेदन कर, आचमन कराना चाहिये ।\ इसमे कुर, एला, लवंग, ॥
ताबूलीदल जौर सुपारी पडी हुई है पान लीजिये, इस संत्रसे पान । तथा-'“इदं फलं मया देवि" इसे फल । `
तथा-“मोम् हिरण्य गभः" इस सन्त्रसे दक्षिणा, पीछे नीराजन नमस्कार ओर “यानि कानि च पापानि
इस मन्त्रसे प्रदक्षिणा, तथा-पुष्पाञ्जलि; एवम् हे सुबरते ! पत्र दे, धन दे, सौभाग्य दे तथा भौर भौ सबं
कामनाये पूरी कर, तेरे लिये नमस्कार है । इस सन्त्रसे प्राथना करनी चाहिये तथा-त्रव संपतते व्यि जौर `
महादेवी भवानीकी प्रसन्नता के लिये, ब्राह्मणको वाणक देता हं । इस मन््से वाणक देकर, पीछे ब्रती पुरुषको
लह बेणपात्रोमे दरनदंपतियोको बलाकर, ब्रतके उद्यापनको सिद्धिके लिए उन्हं
ीवार यह् कहना चाषठिये-हे पातित्रत्यसे भूषित त स्वलक्ृत सुवासिनिथो ! मेरी मनोकामनाको
गात्रे सुहा भर, विनदंपतियोश
हिन्दीटीकासहित = (१२७)
प्यास बोलनेवाली महाभगे पावेति!
२ ॥
.
1 ;
ह {
बालमगेक्षणे \\५॥\ तयोः प्रियतरा ज्यष्ठा तस्यासीन्नपतेमेता ।\! स कदाचिनं
` भेजे म॒गयासक्तमानसः ॥। ६ ।। ततर शार्दल्वाराहवनमाहिषकुञ्जरान् \\ हत्वा
बभ्राम तष्णातः स तस्मिन् विपिने महत् ।\ ७ \ चको रचक्रकारण्डखञ्जरो
ठश्षताकुलम् ।! उत्फ्ल्लहल्लकोदमकुमुदोत्परुमण्डितम् । ८ । अपूवेमवनी
ज्ञोऽसौ ददाप्सरसां सरः । समासाच्च सरस्तीरं पीत्वा जलमनुत्तमम् ।\ ९ ।।
भक्त्या मौरीनचयन्तं ददर्घ्ण्सरसां गणम् \\ किमेतदिति पप्रच्छ राजा राजीव-
लोचनः ।\! १० 11 अप्सरस ऊचुः ।\) स्व्मगोरीब्रतमिदं क्रियतेऽस्मःभिरतमम्।। सव
संपत्करं नृणां तत्कुरुष्व तपोत्तम ।\ ११ 11 राजोवाच ।\ विधानं कोदुशं ब्रूत
[क्िफलं 'वरतचारणात् ।। ता अचुर्योषितः सर्वा नभोमासि तृतीयकं ।। १२ \\
प्ररन्धव्यं व्रतमिदं गौर्याः षोडजश्वत्सरान् ।\ तच्छत्वा सोऽपि जग्राह व्रत नियतः
मानसः ।। १३ ।। गुणे; षोडक्ञभिर्युक्तं दोरकं दश्िणं कर ।। बबर्धान॑न मन्नण
भक्त्या गोरी प्रपूज्य च ।\ १४ ।\ दोरक षोडशगुणं बध्नामि दक्षिण कर ।' त्वत्प्री
तथे महेशानि करिष्येऽहं व्रतं तव ॥1 १५ ।। ततः कृत्वा व्रतं देव्या अगमन्निज-
मन्दिरे \1 विालाक्ष्या ततो दृष्टो राजा गौय दोरकं
दष्टा च पतिकोपना ।! न कर्तव्यं न कर्तव्यमिति रा
ज्ञि वदत्यपि ।। १७ ।।
गतः ।। १८ । तदद्वितीया ततो दृष्ट्वा विस्मयाकुलिताभवत् ।\ तन्मूले दोरक
छन्नं गृहीत्वा सा बबन्ध ह् ।\१९।। ततस्तद्व्रतमाहात्म्यात्पतिप्रियतराभवत्।!
खिता वने ।\२०॥ प्रययौ सा महादेवीं ध्यायन्ती
हिन्दीदीकासहित
भान् \। अन्ते श्जिवपुरं प्राप्तः कान्ताभिः सहितो नृपः ।। ३० 1\ यच्छोभनं ततमिदं `
कथितं शिवायाः कुर्यान्मम प्रियतरो भवता च गौर्याः ॥। प्राप्य लियं समधिकां
भूवि शात्रसंघोिजित्य नि्मल्पदं सहसा प्रयाति । ३१ ।। इति श्रीस्कन्दपुराणे `
गौरीखण्डे सुवर्णणोरीब्रतकथा ।। अथोद्यापनम् ।।युधिष्ठिर उवाच।। उद्यापनर्विधि
ब्रूहि ततीयायाः सुरेश्वर ।। भक्तितः श्रोतुमिच्छामि ब्रतसंपुतिहेतवे ॥५१ ॥\ कृष्ण
उवाच ।। उश्यापनविधि वक्ष्ये सावधानेन वे श्णु ।) विादण्डम्रमाणेन प्रमितं `
दक्षिणोत्तरे ।\२ ॥। प्रत्यकप्रागपि राजेन्द्र नव गोचमं इष्यते ।। गोचमेमात्रं संक्ष्य ` 4
सोमयेनं विचक्षणः ।। २ ।। मण्डपं कारयेत्तत्र नानावणं सुशोभनम् ।।ग्रहमण्डल- `
पाडवं तु पद्ममष्टदलं लिखेत् ।! ४।! तन्मध्ये स्थापयेत्कुम्भमव्रणं मृन्मयं शुभम् ।॥।
तास्रपात्र ्रकुर्बौत पलैः षोडशाभिस्तथा ।। ५।। तदधर्धिन वा कुर्याद्ित्त लाव्यं |
विविर्जयेत् ।\ ववेतवस्त्रयुगच्छन्न श्वेतयज्ञोपवीति च ।।६।। भाजनं च तिलः पूर्णं |
कलज्लोपरि विन्यसेत् ।} क्षेमा्रसुवर्भन प्रतिमां कारयेद्बुधः ।।७ ।। तदधं मध्यमं _ |
प्रोक्तं,तदर्धं तु कनिष्ठकम् ।! कृत्वा रूपं प्रयत्नेन पावेत्याश्च हरस्य च ॥\८ ॥! `
वेदोक्तेन प्रतिष्ठा च कतंव्या तु यथाविधि ।। अथ तास्रमये पात्रे प्रतिमां तत्र॒
विन्यसेत् ।\९।। पावेत्यास्तु युगं+ दयादुपवीतं शिवस्य च ।। पञ्चामृतेन स्नपनं `
कृत्वा देवस्य चोत्तमम् 11 १०।। स्नानं च कारयेत्पश्चात्ततः पजां समाचरेत् । |
चन्दनेन सुगन्धेन सुपुष्येश्च प्रपूजयेत् ।॥११।। धूपं च कल्पयेद्गन्धं चन्दनागुस्स- = `
युतम् । नानाभ्रकारेनेवेचं तथा दीपं च कारयेत् ।॥१२ ।। अचंयेतपुजये इक्या ` स
गन्धपुष्पैः फलाक्षतेः ।। आवाहनादि कर्तव्यं पुराणागमसंभवः ।१३ । काथ ।
विधानतः पूजा भक्तिश्रद्धासमन्वितम् \\ देवदेव समागच्छ प्राथयेऽहं जगत्पते `
॥ १४ ॥। इमां मया कृतां पूजां गृहाण सुरसत्तम । एवं पुजा प्रकर्तव्या रत्रौ `
जागरणं ततः । १५।। गीतनत्यादिसंयुक्तं कथाश्ववणपूर्वकम् ।\ अचंयेत्पुववहेवं `
मं समाचरेत् ।\ गृह्योक्तविधानेन कृत्वाग्निस्थापनं ततः ।
कृताम ।। सवत्सं सवर्णां भद्रां धेनुं रद्यल्प्रयत्ततः \\२२ ।। बुवणन समायुक्ता-
भाचार्याय च साधवे ।! षोडक्भिः प्रकारंइच पक्वाघ्चः प्रीणयेच्च तस् ।\२३
षोडकप्रमिते्द्यादब्राह्मणेभ्यः प्रयत्नतः 11 वंकपात्रस्थितेः पचात्पक्वाल्र्वायनं
` शैः ।! २४।। अन्येभ्यो ब्राह्मणेभ्यश्च दक्लिणां च प्रयत्नतः ।।\ बन्धुभिः सह
भृञ्जीत नियतश्च परेऽहनि ।। एवं कृत्वा भवेत्पा्थं परिपुणत्रती यतः ।\२५
इति श्रीस्कन्दपुराणे कृष्णयुंधिष्ठिरसंवादे स्वणेगौरीव्रतोद्यापनम् ।\
व अथ कथा--पहिले समयमे सिद्ध यन्धरवेसि सेवित केलासके शिखरपर, उमा सहित अव्यय क्िवजीसे `
` श्रीस्कन्दजी पुने लगे \\ १ ।। है करूणाके सागर ईजान ! है-देवेश ! एक एसा त्रत किये जिससे कि, `
नातीयोकी वद्धि हो \! २१ शिवजी बोले कि, है महाभाग षडानन ! तुमने ठोक पुछा. नुरष्योको सवेसंपत् =`
देनेवाला स्वर्णगौरी व्रत है \\ ३ \। पहिले सरस्वती नदीके किनारे एक विमला नामकी महापुरी थौ वहां `
करवेरके समान चन्द्र्रभा नाम का राजा था ।1 ४ 1। उसकी महादेवी ओर शिवालाक्षी दो स्तनरयाँयींनोरूप . `
लावण्य सौन्दयं जौर स्मररविश्रममे अषितीया थी, आख हिरणके बच्चेको सी थं 1} ५! उसे बडी स्ते `
ज्यादा प्यारी थी, एक दिन वो दिकार खेलने गया 1 ६ ।। वहां वो शेर, शूकर, जद्धलीभेसे मौर हाथि- ` ^
शोको मारकर, प्यासका मारा बनमरं घमने र्या 11 ७ 1 सेकडों ही चकोर, चक कारंडव जौर खञ्जरीटोसे
आकुल तथा उत्पल ओर हल्लोसे व्याप्त एवम् कुमुद ओर उत्पलं से संडित ।\ ८ ।\ एक अपुवं जप्सरा्ओका ५
सर देवा, उसके पास पहुंचकर उत्तम पानी पिया ।! ९ \। वहां भक्तिभावके साथ गौरीका पुजन करते हुए
, अप्सराओके सम्हको देख राजाने उनसे युदा करि, आप व्याकर रही हें ? ।\ १० \\ अप्सरायें बोली कि, हम
` उत्तम स्व्णगौरी व्रतकर रही हँ इससे मनुष्योको सब संपत्तियां मिल जाती ह, हे नृपोत्तम जापभी करं ।! ११.।।
राजा बोला कि, उसका विवान कंसा है तथः व्रतके करनेसे क्या फल होता है ? कहूं तब वे स्त्रियां बोलीं कि
भाद्रपद शुक्ला तृतीयाके दिन ।१२। इस ब्रतका प्रारंभ करना चाहिये, यह् घोडा वत्सरका है, यह सुन
राजाने भौ उस त्रतको नियसके साय ग्रहण किया ।। १२ ।\ राजाने भक्तिभावसे गौरीजोकापूजन करके |
निम्नलिखित ंत्रके साथ सोलह तारका भागा बांधा 1\ १४ \। करिह महेशानि ! तरी प्रस्तके ल्एिमे
| दये हाथमे सोलह घागोका एकं वरन वांधता हूं, मे तेरा ब्रत करूंगा \! १५ ।! वो देवीका ब्रत करके जपने
मकान आया, विल्चालाक्षीने देखा कि, राजा गौरीका पुजन करता है 1! १६ \। हाथमे उस डोरेको बघा हुजा
देखकर पतियर नाराज हई राजा कहते ही रहे किं, न तोडिये न तोडियें 11 १७।। पर उसने उस डोरेको तोड,
क दिया, उस डोरेके च् जानेसे सुखा पेड हरा हो गया !! १८ \। दूसरी यह देल विस्मित हौ `
| ० ध 1 हिन्दोटीकासहित | । व ५ | (१३१) ५ (८ ध
यहु राजाकौ प्यारी स्त्री होकर एकदम प्रसन्न हुई ।। २९ ।। इस प्रकार, गौरीकी कुषासे, आराधन करते हृष्ट `
विह्ञालाक्षने एसे भोगोको भोगा जिनसे कोई उत्तम ही न हो, अन्तमं स्त्रियों सहित बो राजा शिवपुर चला
गया ।! ३० ।। यह मेने गौरीका सुन्दर व्रत कहा है, जो इस ब्रतको करता है वो मेरा जौर गौरीका प्यारा `
होता है तथा लोकोत्तरश्ीवाला हौ, वेरिथोके सम्दायोको जीत, सहसषही नि्मेरपदको पाजता है ।। ३१।४ `
` यह् स्कन्दपुराणमें गौरीखण्डके स्व० दलकी कथा पुरी हई ।। अथोद्यापनम्-युधिष्ठिरजौ भगवान् कृष्णजीसे
बोल कि, है सुरेदवर ! तृतीयाके उद्यापनकौ विधि कहिये, में व्रतकौ संमूतिके लिये भक्तिसे सुनना चाहता
हूं ।\ १ ॥। श्रौकृष्ण बोलते कि, मे तुकने उद्यापनकी विधि कहता हू, सावधान मन करके सुन, जो तीस दण्डके `
(१२० हाथके) प्रमाणसे दक्षिणोत्तरे नपी हई ।। २ ॥ तथा पूर्वसे पद्चिममें ३६ ह्य हो वो गोचमे नात्र ` 0
| कहाती है है राजेंद्र ! चतुर व्रती, कहे हए गोचमं मात्रको गौबरसे छीप कर ।! २३ ।। उसमे अनेक रगोसे
सुशोभित एकं मण्डप करा, ग्रहुमण्डलकी बगलमे एक अष्टदल कमर लिखाये ।! ४ ।! इसके बीचमें एक ` ५
४ साबित शुभ मिदटरीका कलश्ञ स्थापित कर दे, सोलहपलोका एक तामेका पात्र बनावे ।।५।।यह नहो सके तो ` |
इसके आधेका ही बनवाले, इसमं लोभ न करना चाहिये उसे दो सफेद कपडोसे ठककर सफेद ही जने उारुकर
॥1६।। उसमेतिल भर कर कलक्ाके ऊपर रख दे । समन्नदारको चाहिये कि, एक क्षभर सोनेकी मति बनवार ` ॥
कर्षकी ८.
1 ॥ ।। ७ ॥। आसे कषवं ४.
। ५ ८ ॥ वैदिकविधिसे उसकी यथावत् प्रतिष्ठा करके उसे ताबेके पात्रपर रख देना चाहिये ।! ९ ।\ पावतीजीको
दो चस्त्र तथा हिवजीको जनेय देकर, देवका पंचामृतसे उत्तम स्नान कराकर ।। १० ।। पीछे शुद्ध पानीसे
१ मूत्ति मध्यम तथा चोथाईकी कनिष्ठ कही है, वो हृवहू गौरी पावंतिकी होनी चाहिये
स्तान कराके परजा प्रारंभ करनी चाहिये, सुगन्धित चन्दन भौर अच्छे खिले हुए पुष्पो पुने ।॥ ११।। चन्दन
| । | ४ 2 जर अगर जिसमें पड हं एसी धप दे तथा अनेकं तरहुके नवके निवेदन करके दीपकः कराये ।। १२।४ | 1
गन्ध, पुष्प फल ओर अक्षतोसे वेदोक्त ओर पुराणोक्त मंत्रे आवाहनादिक करने चाहिये ।! १३ ॥ भदः | | ८
ओर भक्तिके साथ विघानसे पुजा करनी चाष्टिये कि, हे देव ! हे देव ! आयो, हे जगत्पते! मे आपकी प्रार्थना
। करता हूं १४1 ह सुरसत्तम ! मेने जो यह पुना कौ है इसे ग्रहण करिये पुजा करके रातको जागरण करना = |
चाहिये \\ १५ ।} उसमे गाने बजानेके साथ कथाका भी रवण करे, पहिकेकौ तरह देवका अर्चन करके पौः `
| होम करना चाहिये \! १६ । अपने गृहयसूतरके विधानके अनुसार नवग्रह पूजनके साथ अग्निस्यायन करके = |
। । हवनकरना चाहिये ।। १७ ॥। वेदका जानेवाला, घीसे भिगोये हुए तिल जोओंका
। मौकी दक्षिणासहित गक दे जो दूष देनेवाल हो, सु्ीलहो, जिसके
भौ देनी चाहिय, ह् कडा उदाई हई अचत होनी चाहिय ॥२२।॥ गऊकते साथ कुछ सोना भीदेना चाहिये,
यह सब साधु आचा्यको दे, उसे सोलह प्रकारके पक्वानोसे उत्पन्न करना चाहिये \\ २२ \\ सोलह सपत्नीक 0 व ८
तिल जौभका ख मंचोसे ओर गोरोमत्रसे = `
। हवन करे 1 १८ । एकसौ आठ आहति मथवा अट्ठाईस आहुति दे, होम समाप्त करके जचायंका पूजन
| करे ।॥। १९।। अघे दे, षएूल चढावे तथा ओर भी वस्त्रालंकार दे, गौसे अधिक मृल्यकी दक्षिणादे !\ २०।४
6 सोने मढे सींग जर खुरोमं वांदीहो अथवा
सोनेके सीम ओर चांदीके खुर भो उसके साथ दे, कासेका एक दोहना दे 1 २१।। रत्नोकी पृछ तविकी पीठ ` `
ब्रतराज
लोकानां हितकारम्।कथायामि ब्रतं दित्यं योषितां पलदायकम्।\२॥। कृष्णस्या-
वरजा साध्वी सुभद्रा नाम विश्रुता 11 रूपलावण्यसपच्रा सुभरा चारुहासिनी
।\ ३ ।। गाण्डीवधन्वनश्चासौ योषितां च वरा प्रिया ।\ चैलोक्याधिपतिः कष्णस्त
स्याहं भगिनी प्रिया ।। ४ ।\इति गर्वसमाविष्टा न किचिदकरोच्छभम् \\। कालेऽपि
यस्य चाज्ञा व क्षिरसा धारयेत्सदा । ५।! स मे माता सखा कृष्णो दनुजानां
नक्ृम्तनः ।। इति संचिन्त्य मनसि न किचित्साकरोत्तदा ।\६ ।\ सवं ज्ञात तदा
तेन देवबदेवेन शगाङ्धणा ।। इति संचिन्त्य मनसि भरातुत्वान्मम गौरवात् \)७ ।।
अवाल्धितारणं किचिन्मृढत्वान्न करिष्यति ए ध्यात्वा मुहूतं मनसि श्रीकृष्णो
भक्तवत्सलः ।! ८।\ सुभद्रानिकटे गत्वा वचनं चेदमन्रवीत् ।' परलोकनिगीषा्थ न
{चिदपि ते कृतम् ।। ९।। ब्रतं कुरुष्व मनसा सर्वान्कामानवाप्स्यसि ।' स्का
` संयक्षः \\ भुक्तिमुवितप्रदं चाप
सुृतस्य पलाप्तये ।\ कालो दोऽहं स |
| च मूलं हि ऋतवः स्कन्ध एव च।\ मासा दादशसंख्याकाश्चोपशाखा ह्यनुक्रमात्
५ वे ¶ दिवसास्तथा ।। पर्णानि घटिकाः
नतानि ^ हिन्दीरीकासहित ` (१३३)
तारं विधानेन समन्वितम् ॥।२८।1 पल्लवश्च हिरण्यंशच वस्त्रयुग्मेन वेष्टितम् ।\ `
तन्मध्ये मां प्रतिष्ठाप्य उपचारेः प्रपुजयेत् ।।२९।। ततः पुष्पार्जाल दचातक्षसप्य
च पुनः पुनः ।। वाणकं हि प्रदद्याच्च त्रतसंपूतिहेतवे ॥।३० ।॥। लक्ष्मीनारायणो
देवो ह्यस्मात्संसारसागरात् ।। रक्षेद सकलात् पापादिह सर्वं ददातुमे ॥३१।५
अच्युतः प्रतिगृह्णाति अच्युतो वे ददाति च ।\* अच्युतस्तारकोभाभ्यासच्युताय
नमो नमः ।। ३२।। रात्रौ जगरणं कर्याद्गीतवादि्रमङ्कलेः ।! पुराणश्रवणेनेैव
[चरिल्ेषं ततो नयेत् ।३३ \! प्रभाते विमले स्नात्वा नित्यकमं समाप्य च ।\
विष्णोर्नुकं सक्तुमिव होममन्त्रं स्मृतम् ।\३४ ।\ अष्टधिकदिहतं च तिल्होमं .
तु कारयेत् । कलशं प्रतिमायुक्तमाचार्याय निवदेयेत् ।३५ ।\ गां दद्यात्कपिलां
चैव सालंकारां सदल्लिणाम् ।\ आचार्यं पूजयेःडूक्त्या वस्त्रराभरणेरपि ।३६ ।।
` ब्राह्मणान्भोजयेत्पश्चाच्चतुविशतिसंस्यकान्।।आशिषो वे गृहीत्वाथ स्वयं भुञ्जीत
वाग्यतः ।॥\३७।। इति तस्य बचः रत्वा तत्सवं हि चकार सा ।\ मुक्त्वा भोगान्यथा-
काममन्ते स्वर्गं जगाम सा ।\ ३८।। इतिश्रीभविष्योत्तरपुराणे सुकृतन्रतकथा ।
अथ सृकृततृतीयाव्रतम्-अब सुकृत्य त॒तीयाके व्रतको कहते हं । श्रावण शुक्ला त॒तीयाको सुकृतव्रत
होता है, पर तृतीया मयाह्न व्यापिनी होनी चाहिये । अथ कथा । शौनकादिक ऋषि गण बोले कि, जयने सब ८
कामनाञंके देनेवाङे ब्रत तो कहदिये अब प्रयत्नके साथ उन ब्रलोको कहिये जिनसे हमं श्रेय मिक 1 १।४
ध ` सुतजी बोखे कि, हे महाभाग ! आपने अच्छा पूछा इससे लोकका हितहै कि एसे दिव्यत्रतको कर्हुगा जो ` 1
स्तियोको फरुदायकं है । २ \। भगवान् कृष्णको छोटी बहिन, सुभद्राके नामत प्रसिद्ध थो । वो स्प लावण्यसे = ५
। संपन्न, सुन्दर हसनेवार सुमुलौ थी 1\ ३ ।। गाण्डीवं धन्वा अजनकौ प्यारी पटरानी ओर तीनों रोकोके
स्वामी कृष्णकी में प्यारी छोटी बहिन हूं ।। ४ ।! इस अभिमानसे उसने शुभका कुछ भी संचय नहीं किया, `
| जिसकी आज्ञाको कार भौ अपने शिरपर सदा धारण करता हे \\ ५ ॥। वो मेरा भाई सखाङ्ष्ण हैजोरक्षसोका `
संहार करता है । एसा मनम शोचकर उस समय उसने कुछ भी नहीं किया ।\ ६ 1। देवदेव कृष्णने यह सब
जान लिया मौर यह श्लोचकर कि, मे इसका भाई हु, मेरे गौरवसे ।\ ७ ।। संसार सागरसे तरनेका कुछ भी ` ¢
उपाय न करेगी वयोकि
कि, पर लोकको जीतनेकी इच्छासे तेने कुछ भी नहीं किया है ।\ ९।) तू मनसे ब्रतकर सब कामोकोषाबेगी
गेकमे रक है, लोकोका व्रतको स करके सब पापोसे छट जाता है, इसमे
ह मूढहै यह थोडी देर शोच भक्तवत्सल शनो्ृष्ण 11 ८1 सुभद्ाके समीप जाकर बोले `
८ 1 पि ५ ५ : 1
(२४) ~ र 1 व्रतराज.- 4 , +, ततीया-
नितिन वे किति 0 0 0०00०000 ।०।०।।।।।।।।1।।0ििििििििेििििििििििििि ।
वीरि
४ भण ४ णी मीं तानक मा्. ०य क. क
-नेहुए तथा शकंरा भिले हुए, गृलरके फलके बराबर बनाले ।\ २१ ।। उन्हं बांसके पात्रमं सोना ओर पानके
` \प्नाथ रखकर, उस बाणकको विधिके साथ ब्राह्मणके च्य दान कर दे ।।२२॥। वायनका मंत्र-पुत्र पौ्नोकी
` समृद्धि तथा सौभाग्यकी प्राप्तिके लिये तथा व्रतकी संपुत्तिके लिये वाणकका दान करता हूं ।\ २२ 1 पिष्टकी
ओर फरोकी क्षीर बना श्रात॒स्वरूपी मुञ्षे भोजन कराकर 1} २४ ।4 इस् प्रकार विधिके साथ ब्रतको समाप्त `
` करके इसके बाद, तीसरे वषमे उद्यापनं करे ।! २५ ।\ वेदवेदान्तोके जाननेवाले, स वेधसंन्ञ, युश्ील, शान्त,
दान्त ओौर कुटुम्बी जआचाय्येका वरन भक्तिं भावके साथ करके }} २६ }) स्वस्तिवाचनयुवेक नान्दीश्राद्ध
करा, निष्ककी हौ, चाहं आधे निष्ककी हो, एकं सोनेकी प्रतिमा करावे ।\ २७ ।। वो मृति लक्ष्मीनारायणकौ
` दौ, ठकनेके साथ नया तोबेका कलक । २८ ।! जो पंचपतल्लवोसे हिरण्यसे जर दो वस्त्रोसे वेष्टित हौ, उसके
बीचमे मृष प्रतिष्ठित करके उपचारोसे भली प्रकार पूजना चाहिये ।। २९।। इसके पीछे पुष्पांजलि दे
यारंदार क्षमापन कर, व्रतकौ संपुतिके ल्यं वाणक देना चाहिये ।। ३० \। लक्ष्मीनारायण देव ही इस संसार
` सागर ओर सव पापोसे मेरी रश्नाकरें तथा यहां मुषे सब दं ।। ३१ ।। अच्युत ही देते लते हँ, दोनोसे अच्युतही
धार करते ह, अच्युतके लिये ही वारंवार नमस्कार है ।\ २३२ ।। इसके पीछे गाने बजानेके साथ रातको जागरण
करता चाहिये, बाकी रात तो पुराणकौ कथा सुनकर, बितानी चाये ।! ३३ ।। निमंल प्रभातमं स्नानकर, `
नित्यकमेसे निवृत्त हो “ओम् विष्णोर्नुकं वीर्य्याणि प्रवोचम् पाथिवानि विममे रजांसि ! यो अस्कमाय दुत्तरं `
` सधस्थे विचक्रमाणस्तरेधोरुगायः" भगवान् श्रीकृष्णन्नारायणके पुरुषार्थको कौन वर्णन करसकता है, जिस
ऋन्त दर्चोनि पंचतत्त्वके बने हुए, तथा शुद्ध सत्व अथवा अप्राकृत तत्त्वके बने हुए, खोकोका निर्माण कियाहै।! `
ओ तोन डगमें बलिका राज्य ले उपेन्द्र बनकर बेठ गया । तीनों विधानोसे जिसकौ बडी बडी स्तुतियाँ गायी `
-जाती हं । इस मंत्रसे तथा “ओम् सक्तमिव तितउना पुनन्तो यत्र घीराः मनसा वाचमक्रत ।। अत्रा सखाय
-सर्यानि जानते भद्रैषां लक्ष्मीनिहिताधिवाचि ।}“ इस संत्रका महषि यतंजलिजीने दूसरा ही अथं किया है
` थरं पहिला हवन विष्णु, भगवानका है तथा प्रयोगभौ लक्ष्मीनारायण मगवान्कौ पुजाके बाद हवनमं होता है
तन इस संत्रका लक्ष्मीपरक अथं होना अत्यावहयक है । जसे सतुओंको चालनीसे छानकर पवित्र वना
सेते इसी तरह धीर पुरुष मनसे लक्ष्मोके पवित्र मंत्रोको विशुद्ध कर ठेते ह । इस अवस्था एसे पुरुष लक्ष्मीका `
` -साक्षातुकार कर ठते है, एसे पुरुषोकी भद्रा लक्ष्मी वेदके मंत्रोसे यहां प्रतिष्ठित की गई है । दोनो मत्रोसे
|. जाति एक होती, पर ध्यान दोनोका किया जाता है ! चाहं दोनों मंत्रोके अन्तमं आहूति देतीवार यह भावना
. कर छेनौ चाहिये कि, यह् आहुति लक्ष्मीनारायण भगवानृकी है मेरी नहीं है \\ ३४ ॥। ४ कहे हुए मंत्रे दोसौ
हवे।१३५॥ `
पो ब्राह्मणों भोजन करा, उनके आक्तीवदि लेकर, आप मौन होकर भोजनं करे ।\ ध डे ७ ।
कृष्णक एते वचन सुनकर सुभद्राने वैसाही किया, इस लोकमे भोगोको भं |
£ ;
१;
व्रतानि, हिन्दीटीकासहित (१३५)
करिष्यं ।। तत्रादौ गणपतिपूजनं करिष्ये । इति संकल्प्य गौरीयुक्तं महेहवरं पूज-
येत् ।\ अथ पुजा\ पीतकोकञेय वसनां हेमाभां कमलासनाम् ।! भक्तानां वरदां
नित्यं पावंतीं चिन्तयाम्यहम् ।। मन्दारमालाकुलिताल्कये कपालमालाकितः `
` शेखराय।। दिव्याम्बरायै च दिगम्बराय नमः शिवाये च नमः शिवाय । उमामहे-
इवराभ्यां नमः ध्यायामि ।। देवि देवि समागच्छ प्रथयेऽहं जगन्मये।। इमां मया
कृतां पजा गृहाण सुरसत्तमे! उमामहुश््व राभ्यां नमः । जावाहुनम् ।। भवानि त्वं
महादेवि सवेसौभाग्यदाथिके ।। अनेकरत्नसंयुक्तमासनं प्रतिगृह्यताम्।। आसनम् ।।
सुचारू दीतलं दिव्यं नानागन्धसमन्वितम्।। पाद्यं गृहाण देकेश्नि महादेवि नमोऽस्तु
` ते?। पाद्यम् ।। श्रीपावेति महाभागे श्ञंकरभ्रियवादिनि।। अर्व्यं गृहाण कल्याणि
भर्त्रा सह पतिव्रते ।। अघ्यम् \। गद्धाजलं समानीतं सुवणेकलशे स्थितम् ।।
आचम्यतां महाभागे स्द्रेण सहितेऽनघे \! आचमनीयम् ।। गङ्धासरस्वतीरेवाप-
योष्णीनमदाजलेः \। स्नापितासि मया देवि तथा शन्ति कुरुष्व मे।। स्नानम् ।।
1 दध्याज्यमधसंयक्तं मधपर्क मयाऽनघ ।। दत्तं ग हण देवेशि भवपाशविम्क्तये ।।
` मधपर्कम ।! पयो दधि घतं चेव हाकंरामधसंयतमं ।, पञ्चामृतेन स्नपनं परीत्यथं
` म्रतिगृह्यताम् पञ्चामृतस्नानम् 11 किरणा धूतपापा च पुण्यतोया सरस्वती ।।
मणिकर्गोजलं शुद्धं स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम् ।! स्नानन् ।\ सर्वेभूषाधिके सोम्ये
खोकलज्जानिवारणे ।।! मयोपपादितं तुभ्यं वाससी प्रति गृह्यताम् ।। वस्त्रम् 1
मन्त्रमयं मयादत्तं परब्रह्ममयं शुभम् ।\ उपवीतमिदं सूत्रं गृहाण जगदम्बिके ।।
उपवीतम् \\ कंचुकीमुपवीतं च ननारत्नेः समन्वितम् ।। गहाण त्वं मया दत्तं पाव्य
च नमोऽस्तु ते ।। कंचुकीम् ।। कुकुमागुरुकपूरकस्तूरीचन्दनेर्युतम् 1 विलेपनं महा- `
देवि तुभ्यं दास्यामि भक्तितः ।। गन्धम् ।। रञ्जिताः कुंकुमोघेन अक्षताह्चाति- `
कुकुमं चेव सिन्दुरं कज्जलाचितम् ।\ सोभाग्यद्रव्यसंयुक्तं गृहाण परमेष्वरि ष ॥
शोभनाः ।। भक्त्या समपितास्तुभ्यं प्रसन्ना भव पार्वति ।। अक्षतान् । हरिद्रां `
तेजसां तेन उत्तमम् ।। आत्मज्योतिः परं धाम दीपोऽयं प्रतिगृह्यताम् ।। दीपम् ।1
अन्नं चतुविधं स्वादु रसेः षडभिः समन्वितम् ।। भक्ष्यभोज्यसमायुक्तं नवे प्रति-
करोदतनकं चारु गृह्यतां जगत १: पत ।। करोद्रतनम् ५ 1
फलम् । पगीफलं महदिन्यं ० । ताम्बूलम् ।। हिरण्यगभस्थं ° । दक्षिणाम् ।। वच्-
माणिक्यवेदूर्यमुक्ताविदरुममण्डितम् ।\ पुष्परागसमायुक्तं भूषणं प्रतिगृह्यताम् ॥
भूषणम् ।। चन्द्रादित्यौ च धरणी विद्युदग्निस्त्वमेव च ।। त्वमेव सवेज्योतींषि
आतिक्यं प्रतिगृह्यताम् ।। नीराजनम् । अथ नामयुजा ।। उमायनमः गौय ०
१४६,
पार्वत्ये ० जगद्धात्रे जगत्प्रतिष्ठाये° शान्तिरूपिण्यै० हराय० महं
व्रतानि | हिन्दीटीकासदहित
बाच ।! कथं कृतं सया नाथ व्रतानामुत्तमं व्रतम् ।।तत्सवं श्रोतुमिच्छामि त्वत्स-
कारान्महेदवर ।। १२ ।। किव उवाच ।। अस्ति तत्र महान्दिव्यो हिमवाच्म
उत्तमः ।। नाना भूमिसमाकीर्णो नानाद्रुमसमाकुलः ।। १३ ।। नानापक्षि सम~ `
युक्तो नानामृगविचिचत्रकः 11 यत्र देवाः गसन्धर्वाः सिद्धचारणगुह्यकाः ।\ १४
विचरन्ति सदा हृष्टा गन्धर्वा गीततत्पराः ।। स्फारिकैः काञ्चनैः श्द्धैमणिवे- `
१५ ।। भृजल्खिचिवाकाश्चं सुहृदो सन्दिरं यथा ।\ हिमेन पूरितो
दर्थभूषिते
नित्यं गङ्खाध्वनिविनादितः \! १६ ।। पावेति त्दं यथा बाल्यं परमाचरती तप
अब्दद्रादशकं देवि धूख्रपानमधोमुखी ।। १७ ।1 सम्बत्सरचतुःषष्टि पक्वपर्णाशनं
कृतम् ।\ माघमासे जले मग्ना वेशाखे चाग्निसेविनी ।। १८ ।। श्रावणे च बहिर्वासा
अ्नयानविवजिता ।\ दृष्ट्वा तातेन तत्कष्टं चिन्तया दुःखितोऽभवत् ।! १९ ।
कस्म देया मया कन्या एवं चिन्तातुरोऽभवत् ।। तदवाम्बरतः प्राप्तो ब्रह्मपुत्रस्तु
धमंवित् ।\ २० ।। नारदे मुनिज्ञाद्लः शेल्युत्रीदिद्क्षया ।। दत्त्वार्ध्यं विद्ष्टरं
पाद्यं नारदं प्रोक्तवान् गिरिः ।! २१ ।\ हिमवानुवाच ।। किमथंमागतः स्वामिन् `
` वदस्व मुनिसत्तम ।। महाभाग्येन संप्राप्तं त्वदागमनमुत्तमम् ।\ २२! नारद `
उवाच ।। श्युणु शेटेन्द्रमदाक्यं विष्णना प्रेषितोऽस्म्यहम्।। योग्यं योग्याय दातव्यं `
` कन्यारत्नमिदं त्वया ।\ २३ ।। वासुदेवसमो नास्ति ब्रह्यविष्णुशिवाषु ।॥ `
` तस्मे देया त्वया कन्या अत्रार्थे संमतं मम ।! २४ ।\ हिमवानुवाच ।। वासुदेवः `
स्वरं देवः कन्यां प्रार्थयते यदि ।। तदा मया प्रदातव्या त्वदागमनगौरवात् । २५।
1 ५
इत्येवं गदितं श्रत्वा नभस्यन्तर्दधे मुनिः ।। ययौ पीताम्बरधरं हंखचक्रगदाधरम् = `
, ॥ २६। कृताञ्जक्िपुटो भूत्वा मृनी्रस्तमभाषत ॥। नारद उवाच ॥\ श्यणु `
देव भवत्कायं विवाहो निदिचितस्तव ।! २७ ॥ हिमवास्तु तदा गौरीमुवाच वचनं `
न मुदा ।\ दत्तासि त्वं मया पुत्रि देवाय गरुडध्वजं ।। २८।। शरुत्वा वाक्यं पितुर्देवौ
। सखिमन्दिरम् ।। भूमौ पतित्वा सा तत्र विलालापातिदुःखिता ।\ २९ ॥
पाल् त्थ ५५.
(१३७)
स
व
स
३६ ।। हाहा कत्वा प्रश-
च्छहितु गिरे वद ।\२७।। गिरिर्-
वाच ।! दुःलस्य हेत् श्यणुत कन्यारत्नं हृतं मम् ।! दष्टा वा कालसपण सिहुव्या-
त्रेण वा हता \\! ३८ ।! न जाने क्व गता पुत्नी केन दृष्टेन वा हृता \\ चकम्पे
शोकसंतप्तो वातेनेव महातर ।\! ३९ ॥। गिरिवेनानं यातस्त्वदालोकन कार-
णात् ।। सिहव्याघ्रेश्व भल्लेश्च रोहिभिश््च महाधनम् ।\ ४०। त्वं चापि विपिने
धोरे व्रजन्तौ सखिभिः सह ।। तत्र दष्ट्वा नदीं रम्यां तत्तीरे च महागुहाम् \1 ४९ ।।
तां प्रविष्य सखीसादधंमन्नभोगविर्वाजता \\ संस्थाप्य वालृकालिद्धः पावेत्या सहितं
मम् ।! ४२।। भ्रशुक्लतृतीयायामचयन्ती तु हस्तभे ।। तत्र वाद्येन गीतेन रात्रौ
जागरणं कृतम् 1! ४३ \\ व्रतराजप्रभावेण आसनं चकितं मम ।। संप्राप्तोऽहं तदा
तत्र यत्र त्वं सखिभिः सह 1} ४४ ।। प्रसन्नोऽस्मि मया प्रोक्तं वरं बूहि वरानने ।।
प्रसुप्तं कन्यकाट्रयम् ।। ४८ ।\ उत्थाप्योत्सङ्कमा
[सिहव्याध्राहिभेल्ल्केवंने दृष्टे कुतः स्थिता ।\! ४९ ।\ पावेत्युबाच ।
मया ज्ञात त्वं दास्यसीइवराय माम् ।\ तदन्यथा कृतं तात तेनाहं वनमागता
व्रतानि ] = हिन्दीदीकासहित (१३९)
तस्था ।¦ बीजपूरः सनारिङ्धः फल्डचान्येश्च भूरिशः 1! ६१ ।! ऋतुकालोद्धुूवे-
` भूरिप्रकारेः कन्दमूलकेः ।। नमः क्िवाय चान्ताय पञ्चवक्राय श्लिने ।! ६२१ `
` नन्दिभृद्धिमहाका्गणयुकेताय शम्भवे ।1 क्षिवाये हरकान्ताये प्रकृत्यै सष्टिषटेतवे
1! ६३ \\ शिवायं सवंमाद्धल्ये शिवरूपं जगन्मये \। रिदे कल्याणे नित्यं शिवसूपे `
` नमोऽस्तु ते ।। ६४ ॥! शिवरूपे नमस्तुभ्यं शिवाये सतततं नमः ।\ नमस्ते बरह्य- `
चारिण्य जगद्धाच्यं नमो नमः ।\ ६५ ।। संसारभयसन्तापात्राहि मां सिहवाहिनि ।\ `
येन कामेन देवि त्वं पुजितासि महेश्वरि ।\६६।। राज्यसौभाग्यसंपात्ति देहि मामम्ब `
पावंति ।। मन्त्रेणानेन देवि त्वां पूजयित्वा मया सह ।। ६७ ।! कथं शरुत्वा विधानेन
दद्यादघ्लं च भूरिशः \\ ब्राह्मणेभ्यो यथोक्षक्ति देया वस्त्रहिरण्यगाः ।! ६८ ।!
अन्येषां भूयसी देया स्त्रीणां वै भूषणादिकम् ।। भरा सह कथां श्रत्वा भवित- `
थक्तेन चेतसा ।। ६९ 1! कृत्वा ब्रतेश्वरं देवि सर्वपापेः प्रमच्यते \। सप्तजन्म भवे-
प्राज्यं सौभाग्यं चैव वद्धेते ।\ ७० । तृतीयायां तु या नारी आहारं कुरुते यदि \।
सप्तजन्म भवेहन्ध्या वैधव्यं जन्मजन्मनि ।। ७१ ।1 दारिद्र पुत्रशोकं च कका
इःखभागिनी ।1.पच्यते नरके घोरे नोपवासं करोति या ।। ७२ ।। राजते काञ्चने `
` ताम्रे वैणवे वाथ मृन्मये ।। भाजने विन्यसेदन्नं सवस्त्रफलदक्षिणम् ।! दानं च
द्िजवर्याय दद्यादन्तेश््च पारणा । ७३ ।\ एवं विधि या कुरते च नारौ त्वया
समाना रमते च भर्त्रा ॥। भोगाननेकान् भुवि भुज्यमाना सायुज्यमन्ते लभते हरेण `
७४ ।। जहवमेधसहल्राणि वाजपेयशतानि च । कथाश्रवणमात्रेण तत्फलं `
। प्राप्यते नरैः ॥ ७५ ॥ एतत्ते कथितं देवि तवाग्रे व्रतमुत्तमम् ।\ कोषियन्ञकृतं `
ब्रहि तृतीयायाः सुरेश्वर ।। भक्तितः श्रीतुमिच्छामि व्रतसंपूतिहेतवे ।। १ ॥ `
^ उवाच ।} उद्यापन्विधि वक्ष्ये ब्रतराजस्य शोभने ।। यस्यानुष्ठानमात्रेण
पृण्यमस्यानुष्ठानमात्रतः ।। ७६ ।। इतिश्रीभविष्योत्तरपुराणे हरगौरीसंवादे
हरितालिकात्रत, कथा संपूर्णा ।\ अथोद्यापन ।। पार्वत्युवाच । उद्यापनविधि `
समये कृतस्नानादिकं च ।\ ९ ।। पूवेवच्चा्ंयेहेवीं पश्चाद्धोमं समाचरेत् ।।
वधानेन कृत्वाग्निस्थापनं ततः ।\ १० ॥! प्रारभेच्च ततो होमं नव~
। ग्रहुपुरःसरम् ।\ तिलांश्च यवसंमिश्वानाज्येन च परिप्लुतान् ।। ११ ।। जुहुया ~
| मंत्रेण गोरीमन्त्रेण वेदवित् \॥\ अष्टोत्तरशतं चापि अष्टाविशतिमेववा ।\ १२।।
एवं समाप्य होमं तु तत्राचार्यं प्रयुजयेत् \\ सुवभेरत्नवासोभिर्गा द्याच्च यथा- =
विधि ।। १३ । श्यां सोपस्करा दद्यादाचार्याय प्रयत्नतः ।\ षोडङद्िजयुग्मानि
सुपक्वान्नेदच भोजयेत् ।। १४।\ सौभाग्यद्रव्य वस्त्राणि वंहापात्राणि षोडकञ।। दात-
व्यानि प्रयत्नेन ब्राह्मणेभ्यो यथाविधि । १५ ।! अन्येभ्यो द्विजव्येभ्यो दक्षिणां च॒
प्रयत्नतः ।। भूयसीं परया भक्त्या प्रदद्याच्छिवतुष्टये ।! १६ ।! उदिश्य पावतीङं
च सर्वं कुर्यादतन्दिता ॥ बन्धुभिः सह भुञ्जीत नियता च परेऽहनि `
।\ १७ ।। एवं था कुरते नारी ब्रतराजं मनोहरम् ।। सौभाग्यमखिल तस्याः सप्त॒
जन्म न संयश्ञः ।! १८ ।। इति श्रीहरितालिकात्रतोद्यापनं संपुणम् ।।
शतोनीको कवारी
रतानि = हवीटीकारहिति (१४९)
उपवीत । तथा-अनेकरत्नोके साथ कंचुकौ ओर उपवस्त्रोको में देता हुं, जप ग्रहण करिये, हे पार्वति ! तेरे
लिये नमस्कार है । इससे उपवस्त्र ओर कचु कौको । जिसमे कुंकुम, अगर, कपुर, कस्तुरी ओर चन्दन है ठेे `
विकेपनको हे महादेवी ! मे भवितिभावके साथ समर्पित करता हं ।\ इससे गन्ध । तथा-घुन्दर अक्षत, करकमते | 1
रे हृए हैः मेँ मक्तिभावके साथ सर्मात करता हं, हे पावेती ! प्रसन्न हो जा । इस संतरसे अक्षत । तथा- = `
हरिद्रा कुंकुम सिन्दुर जौर कज्जल्के साथ सौभाग्य द्रव्य ग्रहण करिये । इस म॑त्रसे सोभाग्य द्रव्य } तथा- १
सेवम्तिका, बकुल, चंपक, पाटल, कमल, पु्लाग, जाति, करवीर ओर रसालके एूलोसे तथा बिल्व, प्रवाल,
तुलसीदल ओर माल तीसे तेरा पुजन करता हूं : हे जगदीदवरि ! प्रसन्न होजा 1 इस संत्रसे पुष्प चने चाहिये । 9
अब भगवतीके अंगोंका पुजन कहते हँ ओम् उमायै नमः पादौ परुजयामि-उमाके लिये नमस्कार है पादोको 1
यूनता हं । ओम् गौय्ये नमःनंवे पु०-गौरीके लिये नमस्कार है जंधा्ओंका पुजन करता हूं इससे जवा `
तथा-गोम् पार्वत्यै नमः जानुनी पु०-पारवतीके लिये नमस्कार है, जानुओंको पुनता हं, इससे जानु, तथा- `
` ओम् जगद्धाच्यै नमःऊरू पू०-जगत्की धारण करनेवालीके लिये नमस्कार है ऊरुभोको पुजता हूं ! इससे `
। ॐर, तथा-अोम् जगत्प्रतिष्ठाय नमः कटी पूजयामि-जगत्की जिससे प्रतिष्ठा हे उसके ल्यि नमस्कारै,
, कटीको परूजता हं, इस मंत्रसे कटि, तथा-ओम् शान्ति रूपिण्ये नमः । नाभिपुजयामि-शान्ति रूपिणीके लिये
नमस्कार है नाभिका पजन करता हूं । इससे नाभि, तथा-भोम् देव्ये नमः उदरं पुजयामि-दवीके किये नम- |
स्कार है उदरका पुजन करता हूं इससे उदर, तथा-ओम् लोकवन्दितायै नमः स्तनौ पु०-लोक जिसे वन्दन
करता है उसके लये नमस्कार है, स्तनोका पुजन करता हुः इससे स्तनोंका, तथा-भोम् काल्ये नमः कण्ठं - ८
पु०-कालीके लिये नमस्कार है, कंठको पुजता हुं ! इससे कंठ तथा-भोम् शिवाये नमः मुखं पुजयामि । शिवाके `
लिये नमस्कार है, मुखका पूजन करता हुं इससे मुख, तथा ओम् भवान्यै नमने पु०-भवानोके लिये नमस्कार `
है नेत्रोका पूजन करता हूं । इससे नेत्र तथा-ओम् रदरा्ये नमः कर्णौ पू ° -ददराणीके क्ये नमस्कार है, कानोका ` `
पूजन करता हं । इससे कान; तथा-अओम् शर्वाण्यै नमः ललाटं प०-श्र्वाणीके लिये नमस्कार है! ल्लाटका ४
शनन करता हूं इससे ललाट, तथा ओम् मंगलदाच्यै नमः किरः पू०-मङ्धल दायिकाके चिषे नमस्कार है
इससे क्षिरकी पुजा करनी चाहिये ।। देवदुके रससे तयार किया तथां छृष्णागुरं भिलाया हज धूप मं लाया `
ह" हि भवानि! ग्रहण करिये ! इस संत्रसे धूप, तथा-तु सब देवोकी ज्योति ओौर तेजोका उत्तम तेज है ही 1
| आत्माकी ज्योति ओर परंधाम है, इस दीपकको प्रहण करिये \ इस संत्रसे दीपक तथा-जिसम् चार तरहका ५
स्वादिष्ठ अच छः रसोसे समन्वित तथा भक्ष्य भोज्य आदि विभागोमे विभक्त मौजूद है, एसे नेवेचको ग्रहण `
` करिये । इससे नैवेद्य, तथा-मलयाचलका चन्दन कपुरे साय धिसा हभ है, यह आपका सुन्दर करोढतनक ¦ ८;
है । हे जगत्पते ! ग्रहण करिये ! इस मंतरसे करोदरतन, तथा-“इदं फलं मया देवि" इस संतरसे फल निवेदन, = |
तथा-“पूगीफलं महहिव्यम्” इस मंत्रसे ताम्बूल तथा-““हिरण्यग्भगभस्थम्'' इस मंत्रस दक्षिणा, तथा-पह
व्र माणिक्य वैद्यं मुक्ता ओर विदरुमोसे मण्डित है, इसमे पुष्परागमणि लगौ हुई है इस भूषणको ग्रहण
करिये । इससे भूषण, तथा-चोद, सुरज, घरणी, विच्युत ओर अग्नि तूही है, सब ज्योतिवालो तृही हैः आरतीको ध ४ +
र निवेदन तक करना चाहिये \ अथ नाम पुजा-उमाके लिये नमस्कार, गोरीके
स ~
ब्रतराज.
देता हूं । सोभाग्य ओर आरोग्य प्राप्त होने तथा सब कामोकौ समृद्धके लये एवं गौरी जौर गौरीकश्नकी प्रस-
चरताके लिए तेरे बायनको दान करता हूं ! इन दोनों सन्नोसे दान करना चाहिये \\ पूजाविधि पूरी हुई ।।
अथ कथा~सुतजौ शौनकादिकोसे कहते ह, कि, एकके अलक तो मन्दारकौ मालाओंसे अकलित हौ रहे हें तो
दसरेका शेखर कथालोकौ मालासे अंकित हो रहा ह, एकके पास दिव्य चसन हँ तो एक विलकुल कपडा ही
नहीं रखता, उन दोनों शिवा ओर किवजौके लिये नमस्कार है ।। १ 11 कंलास्से शिखरपर गोरीजी धिवजीसे = `
प रही हँ कि, जो गोप्यसे भी अत्यन्त गोयनीय गोप्य हो हे महेश्वर ! उसे मृज्ञे किये \\ २ ।६है नाय } |
यदि जप प्रसन्न हों तो मेरे सामने कहो, जो सब धर्मोक्ा सर्वस्व हो, जिसमें परिश्रम थोडा ओर फल्यधिक
हये ।! ३ ।। भने एेसा कौन सा तप, दान, ब्रत किया धा जो जाप जादि, मध्य तथा अन्तसेरहित्त एवम् जग्तक्रे =
स्वामी, मक्षे भतकि रूपमे प्राप्त हुए ।! ४ ।। दिवजी बोर-है देवि ! सुन मं तेरे जगे एक उत्तम तरत कहता ८ ५
हृ, वो मेरे सरवस्वकी तरह गोप्य है हे प्रिये ! में तुके कहुंगा ।\ ५ ॥ जैसे उड्गणमे चन्द्रमा, प्रहोमे सू्ये, वर्णोमिं `
ब्राह्मण, देवों मे विष्णु \\ ६ ।! नदियोमें यङ्का, पुराणोमें भारत, वेदोमें सामवेद, ओर इन्द्रियोमे मनक्रेष्ठ
है ॥1! ७ ।। एसे ही यह पुराण वेदका सर्वस्व, जसा कि आगमने कहा है उसे एकाग्र मनसे सुन जसा कि, मने यह्
प्राचीन वनत्तान्त देखं रखा है ।\ ८ ।। जिस ब्रते प्रभावसे तुमने मेरा आधा आसनयाया, तुम मेरी प्यारी हौ
इस कारण सब मे तुमे कहंगा \\ ९ 11 भाद्रपद शुक्ला हस्त संयुक्ता तृतीयाके दिन, उसका अनुष्ठान मातर
करनेसे सब या्पोसे छट जाता है ।\ १०11 हे देवि ! सुन तुमने जो पहिले बडा भारी व्रत किया थानो सब
कहग जेसा कि, हिमाक्यपर हु था \! ११ ।\ पा्वतीजौ बोलीं कि, हे नाथ ! सेने कंसे सब व्रतोका श्रेष्ठ
षडे
व्रत किया, हे महेश्वर ! यह् सब
ं आपसे सुनना चाहती हूं ।\ १२ ।। शिव बोले कि, एक हिमवान् नामका
दिष्य उत्तम पवत है, जो अनेक तरहको
प्रप्त हुए . ॥ २० । मुनि शर्दूल नारदजौको जञलयुत्रीके देखनेकी इच्छ थो, हिमाक्य नारवजीको अध्य,
व्रतानि] क ध ॥ ` हिन्वीटीकासहित छ 1 ८: ।
४ ॥ किया था कि, महादेवको अपना पति बनाऊंगी पर पिताने कक जर ही कर दिया । ३२ \\ हे प्यारी सखि !
1 इस कारण अब मं देह परित्याग करूगी, पादेतीके एसे वचन सुनकर सखी बोली फि ।\ ३३ ।\ जिसको पिता =
नहीं जानते उल वनको चखेगी, शिवजी पावेतीजीसे कहने लगे कि, एसा निश्चय करके तुमह तुम्हारी सखी `
बनको ठे गयौ ।। ३४ ।\ आपके पिता हिमवानृसे अषको घर घर देखा कि, मेरी बेटीको देव, दानव ओर `
ष किल्लरोमेसे कौन लेगया !। ३५ ।} मचे नारदके सामने सत्यकह् दिया था अब विष्णको क्या दगा इस प्रकारक `
चिन्तासे मूच्छित होकर वे भूमिपर गिरगये ।। ३६ ।1 उस समय लोग हाहाकार करके भगे ओर बोरे कि,
गिर्विर 1 च्छित क्यों हो रहे हो, बताभो तो सही ।। ३७ 11 भिरि बो कि, मेरे दुःलके कारणको सुनो, =
मेरा कन्यारत्नं हूरलिया गया है, या तो उसे कालसरपने ला लिया है अथवा व्याघ्नने मार डालाहै\\३८१॥
नजाने बेदी कहां चली गई, कौन दुष्ट चुरा लेगया ? शिवजी पावेतीजीसे कहते हँ कि, इस प्रकार आपके पिताजी `
. श्लोक सन्तप्त होकर, एसे कांपने लगे जसे कि, आंधीसे भारी वृक्ष कापा करता है ।! ३९11 ओर आपकोदेखल- = `
नैके कारण वन वन फिरने लगे जो कि, व्याघ्र भल्ल ओर रोहियोमे सोमे महाघनेहो रहेये।\ ४०
| आष भी घोरवनमं सखियोके साथ घूमती हुड एक रमणीक नदीको देख उसके किनारेकी सुन्दर गफामे \\ ४११. |
सखीके साथ घुस गयो, अश्नका परित्याग करदिया ! पा्व॑तीसहित मेरा बालका लिग स्थापित करके \ ४२।१ `
` पुजतेहुए भाद्रपद शुक्ला तृतीयाके हस्तनक्षत्रमे ब्रतादि करके, राच्रिको गानेबजानेके साथ जागरण किया _
॥१४३\। व्ररातजके प्रभावसे मेरा आसन हिलगया उसी समय मे बहां पहुंचा जहां कि, आप सखियोके साथ `
| विराजमान थीं \\ ४४ \। मेने कहा किः मे प्रसन्न हु, हे वरानने ! बर मांगना हौ सो भांग यह सुन पावती बोलीं
। : : कि, हे महेश्वर ! यदि भाप प्रसन्न हं तो मेरे पति हो जाइये 11 ४५ ॥। मेने कहा अच्छी बात है फिर कैलास चला
आया आपने इसके बाद प्रभातकाल नदीमे प्रतिमाका विसर्जन किया \। ४६ \! आपने सखियोके साथ पारण `
। किया तथा हिमवान्भी उस जगह चले अगे जो कि, आपकी गहावता महावन या ।! ४७।। वहां चारो दिशम `
को देख विह्वल हौ जमीनपर गिर गया, पीछे नदीकिनारेपर देखा तो दो लडकिर्यां सो रहीं है 1 ४८ ।\ उन्हे
उठा गोदीमें बिठाकर रोने लगा कि, बेटियो ! सिह, व्याघ्र, सपं ओर भल्लृकोसे दूषित इस वनम कहासे ` _ `
आबेरीं ।\ ४९ ।\ यह सुन पार्वती जी बोखीं कि, मुञ्चे यह पता था कि भाप मुदे शिवजीको वेगे, पर जब यह `
पता चला कि, आपने अन्यथा किया है तो मे बन चली आई ।। ५० ।। यदि आप मुभे महादेवजीके लिये `
प क सोभाग्यसिद्ध ल ६ ६ किया वो ब्रतराज आजतक भेने किसके सामने नहीं कहा ।\ ५३ । इन व्रतराजका नाम हरि- `
तालिका | क्यों पडा ? सो सुन ! आली सहेलियोने जिसका हरण किया इस कारण वौ तुमं हरितालिकाहृदं
।} देवी बोली कि, प्रभो ! आपने यह तो मेरे हरितालिका इस नामका निवंर्चन किया, इस ब्रतका ` ५ ॥ ५ (८
व्रतराज
तथा जगद्धाजीके ल्व नमो नमः है ।1 ६५ ।। हे सिहपर चढनेवालो संसारके भयके सन्तापसे मेरौ रक्षा कर,
महेदवरि देवि ! जिस कामसे सेने तेरा पुजन किया है उसे पुराकर !\ ६६ ॥\ हे अंब ! हे पावेति ! वो
राञय, सौभाग्य ओर सम्पत्ति दीजिये, इस मंत्रसे मेरा ओौर देवीका पुजन करके \\ ६७ ।। कथा सुने ओर
विधानके साथ बाह्मणोको बहुतसा अन्न दे तथा शक्तिके अनुसार वस्त्र, हिरण्य ओर गऊभी कान करे \1 ६८ 11
ओरोको भी बहुतसी दक्षिणा दे तथ स्त्ियोको आभूषण दे. भवितियुक्त चित्तसे पतिके साथ कथा सुने । ६९ ।,
देवि इस प्रकार व्रतको करके सब पापोसे छट जाता है, सातजन्मतक इसका राज्य होता है तथा सौभाग्य
बहता है \\ ७० 1) इसं तृतीयके दिन जो स्त्री आहार करती है वो सातजन्मतक अन्न, तथा जन्म २ विधवा
होती है ।1 ७१ ।। यहो नहीं किन्तु जो उपवास नहँ करतीं वो दुःख भागिनी ककंशा हो, दारिद्र ौर पुत्र्लोकं
देखती है तथा घोर नरकमं दुःखपाती है ।\ ७२ ।1 चांदीके सोनेके ताबेके कसिके अथवा मिह्ीके पात्रमे अस्र
रख कर वस्त्र फल ओर दक्षिणाके साथ एक अच्छे ब्राह्मणको देकर पौर पारणा करे ।। ७२ 11 इस प्रकार
जोस्त्री व्रत करती है वो तेरे समान पतिके साथ रमण करतौ है, अनेक भोगोको भोग कर अन्तम हरका
सायुज्य पाती है ।\ ७४।। एक सहस्रं अद्वमेध तथा एकसौ वाजपेयका जो फल होता है बो फल कथाके
सुनने मात्रसे मिल जाता है \\ ७५ ।। है देवि ! यह मेने तुमह कह दिया तथा उत्तम त्रत भी कहु दिया इसके
करनेसे कोटि यज्ञका फल होता है \\ ७६ ।। यह् भविष्योत्तरपुराणके हर गौरीको संवादपुवेक
हमेन्दुतुहिनाभासां मुक्तामणिविभूषिताम् ।। पाशाडकुकषधरां देवीं ध्यायेत् `
सिद्धिदाम 11 कमण्डलधरां सूक्ष्मां पानपात्रं च विभातीम् ।! ध्यायामि ॥ `
त्रिगुणे परमेकवरि ।\ आवाहयामि भक्त्या त्वां प्रसत भव
देवि आसनं ते विनिर्मितम् । पाल्ाडकुशधरा
धारिणि ।।
मया देवि दुकूलं तव निमितम् ।। भक्त्या समपितं मातगृ ह्यं
। हि ` सिन्दूरं कज्जलान्वितम् ।। सौभाग्यद
व्रतं वक्ष्यामि कन्यके । मासि भाद्रपदे कृष्णे तृतीयाय १
रीं ्ाखाम्लफलैः सह ।। रगिणीवृक्षं समूलमानयेत् ।! निक्षिप्य देवतां
सिकतां श्च॒भाम् ।। २ ।! न्यसेच्चनद्रोदयं दृष्ट्वा स्नात्वा धौताम्बरा-
वता ।! सखीभिः सहिता सम्यगलंकृत्य प्रपुजयेत् ।\ ३ ।\ गोरीमावाह्य विधिव-
त्सिकतामण्डले शुभे ।\ गन्धपुष्याक्षतैरिव्यैर्धृषदीपे रनेकशः ।। ४ ।! सर्वोपचार-
युक्तां पञ्चभिर चंयेत् । एवं पुज्य यथाशक्त्या कृत्वाचेव प्रदक्षिणाम्
न दोरकं कण्ठे
त्वदधकत्य बदूक्त्या त्वत्परायणा ।! ६ ।। आयुर्देहि यशो देहि सौभाग्यं देहि मे शिवे ॥।
अनेन दोरक बद्ध्वा चनद्राया्यं समपेयेत् ।॥७।। क्षेमसंपत्करे देवि सर्वसौभाग्य
दायिनि ।! स्वंकामप्रदे देवि गृहाणाध्यं नमोऽस्तु ते । ८ । गगना ङ्णसंदं
मेतां च श्युणुयाद्गौ्तरे तन्मनाः
च विधिवन्मोनी भूत्वा व्रतं चरेत् ।\ २५ 1। सर्वसंपत्करं चैव स्त्रीणां पुतराचरसौर्य- `
हरण्यादिदानानां सर्वेषामधिकं ब्रतत् । २९ ॥ पञ्चवषं विधातव्यं
-इक्त्या सौवर्णं बृहतीफलम् ।। षष्टचुत्तरचतुरभिश्च शुभेबीजिर्युतं तु तत् ॥॥२८।।
व्याः पुरस्तु संस्थाप्य पूरववत्प्रतिपूजयेत् ।\ आचाय पूजये डूक्त्या विप्रान् पञ्च `
तथैव च ।। २९ ।। सुवासिन्यः पञ्च पज्या वस्त्रालंकारभूषणैः ।\ कचुकंश्चेव `
ताटंकैकण्ठसुतरेहेरिव्रया ।३०।। वंक्षपात्राणि पञ्चेव सूत्रैः संवेष्टितानि च ।) सिन्दूरं `
जी धूमपिष्टजातं च बुहतीफल्पञ्च-
हू \ इस मत्रसे स्नान, तथा-
गौत वस्त्रका दुकूल, आपके लिये बनाया गया है, म भक्तिभावसे सर्मपित करता हः है जगदम्बिके मातः
ग्रहण करिये । इस मंत्रसे वस्त्र, तथा हरिद्रा, कुंकुम तथा कज्जल सहित सिन्दरर ये सब अन्य सौभाग्य दरव्योके
साय हे परमेश्वरि ! ग्रहण करिये \ इस मंत्रसे सोभाग्य द्व्य, तथा पांच सत्रका बनाया हुजा डोरा अपेण कर
दे, हे देवि ! मख्याचल्पर पेदा हआ सुगन्धित सुन्दर घनसार उपस्थित है, ग्रहण करिये हे बृहद्गौरी ९॥
नमस्कार है 1 इससे गन्ध, तथा शुभकरवीर,. जाति, कुसुम, चंपक, बकुल, शतपत्र ओर कहलारोसे
ए है न सबके सूघनेलायक है, देवद्र् मके त त रसते बनाया है । (8 इससे धूप, द तथा-हे तीनों लोकोके
वाली वेशि ! जलायेहुए् दीपकको ग्रहण कर, है बृहद् गोरी ! तेरे चि नमस्कार है ।
सुनो । पहिले छृतयुगके आदिमे सब प्राणियोके हितैषी ।। १४ ॥ शंभुने यहं व्रत गौरीके ल्य कहा था,
उसे कहता हु" कभी बटहुए शिवजीसे पावंतोजीने पुछा था ।। १५ ।! हे कररणाकर ! शंकर ! शंभो ! मेँ
आपसे पुती हं कि, सब बाधाओंको शमन करनेवाला तथा सभी इच्छामोको पूरी करनेवाला । १६.
सब देनेवाले बरतो जो सर्वोत्तम त्रत हो सो कहिये \ बो आयु,आरोग्य तथा पुत्रःपौतरोका देनेवाला हो ।। १७१ ` ॥
अत्यन्त गोपनीय परमदुरलभ त्रत सुनाता हं ! पहिले द्वापरके अन्तमें पाण्ड्की प्यारी सुन्दरी सोलह वर्षंकी
अवस्थावाली नवीन यौवना कुन्ती सन्तानके न होनेके कारण पतिसे बोली कि,कौनसे कर्मं विपाकके कारण
दुःखी हू \\ २० ॥ इस दोषका प्रतीकार यथाथं रूपसे कषिये।यह सुन पाण्डुराजा बोक्ते
॥
उठकर नित्य
॥ ३२३1! इसके बाद प्रातःकाल
ततान
(१५०)
पड्गवः।। दुःशीला दुभा दीनाः परक्मकराः सदा ।। ३ ।। एवं मे हृदि सन्तापं संशयं
छत्तमहंसि ।, ब्रह्मोवाच ।। भ्टणु वत्स प्रवक्ष्यामि त्वंभवतोऽसि प्रियोऽसिमे \\४॥।
। जायन्ते सुरूपाः सुखिनो
चैव अभक््याणां च भक्षकाः ।। ७ ।। मल्लो नरकान् भुक्त्वा जायन्ते कुत्सिता
नराः ।! दरिद्राः पड्धवो मूकाः काणादा दुभेगास्तथा ।\ ८ ।। नारदवं स्वकर्मोत्था
नरा नार्यश्च दुःखिताः नारद उवाच ।। उपायं ब्रूहि भगवन्येन कर्मक्षयो भवेत्
।} ९ ।। तपो दानं व्रतं तीर्थं शरीरस्य च शोषणम् ।। दुःखसन्तापतप्तानां जीवितान्म-
रणं वरम् ।। १० ।। ब्रह्मोवाच श्रृणु नारद यद् गृह्यं त्रतानामुक्तमं व्रतम् ।। सव-
इःलप्रशमनं व्याधिदापि रे्रनारनम् 9, ।। सुखसोभाग्यजननं पुत्रपौत्रप्रदाय
।। सुरूपदं च सौभाग्यकारणं
( 1 ३० ॥। ब्रह्मोवाच ॥! बरतस्यारम्भणं चादौ मागंशीषेऽथ माघके ।। दवितीयावेध- `
रहिता तृतीया याऽसिता भवेत् ।\ ३१ । । चतुर्थी योरि गनी किचिच्छदा वापियदा
` भवेत् ।\ उपवासं प्रकुर्वीत दन्तधावनपूर्वकम् ।। ३२ !\ अयामा्गेण कुर्वीत दन्त- `
शुद्ध तदा व्रती \\ उमे देवि नमस्तुभ्यं शंकरस्याद्धंारिणी \। ३३ ।\ नियमन्तरः \\
परसीद श्रीमहेशानि करिष्ये व्रतमुत्तमम् ।! सान्निध्यं कुर मे देवि व्रतेऽस्मिन् हर-
पुष्यश्च सभ्युज्या दाडिमं चाघ्यहेतवे ।।
। सर्वासु च ततीयासु विधिरेष उदाहृत
लावण्यसुभर्गाथनी ॥ ५७ । मल्लिकाकुसुमेः
सुन्दरीं पुजयेत्ततः ।\ ५८ ।। :
पीत्वा लावण्यसुभगा
।। प्रातरुत्थाय
।। ६० ।। नियमं तत्र कुर्बोत
|} ६३ ।\ श्रावणे मासि संप्राप्ते
ज्ञोभनैः ।\ ६४ ।।
0 01
१, १ ॥..
विः
दुभग्यि श प तथा सदा दूसरेके काममें लगे रहनेवाके आपके ही बने हुए हँ \। ३।। यही मेरे हव्यम संताप है
कि, आपके बनाए हए एसे क्यों हो गये हँ? आप मेरे इस संदेहको भिटाकर मक्षे शांति प्रदान करिये । इतना `
सुनकर ब्रह्माजी कहनेलगे किं, हे वत्स ! तुम मेरे प्यारे भक्त हो, इस कारण मं तुम्हं सुनाता हं, तुम सावधान
होकर सुनो ।\ ४।। यह पञ्चभूतों से बना हुभा शरीर कर्मरूपी बीजका पौदा है, जिन्हे शः
सुन्दर ओर सुखी होते हं ।। ५॥। तपके प्रभावसे बली ओर सुभग होते हँ पर जिन्होने दान नहीं दिया है
इसरोको नौकरी करकेही अपना जोवन बिताते हं ।\६ । इसरेकी बुराई करनेवारे, दूसरेके घनको हरने-
वादे, प्राणियोके मारनेवारू एवम् अभक्ष्यफे खानेवाले धणित जीव ।\७।! अपने २ | र नरकरोको
इस कारण ये प्राणी अपने २ कर्मोसि एप ली हो रहे ह । इतनी सुनकर नारदौ महाराज ब्र्माजीसे कहने
लगे कि है भगवन् ! कोई एसा उपाय बताइये जिनसे इन दुःखी जौवोके अशुभ कर्मोका |
लगे कि, हे महाराज यह तो बताये
1
ले दियाही नहीं थाइसकारण इसे इसं त दियाहौ नहं या.इसकारण इसे इस योनिम मोगनेके लिये भौ कुड न मिला, पर शरत प्रायसे सुर योनि भोगनेक {लये मौ कु न मिला, पर ्रतके प्रभावसे सुरूप
ओर पतित्रता हुई ।\२७।। महासौभाग्यसे संयुक्त यह ॒एेसौ मालूम होती थी मनो दूसरी लक्ष्मी है
र णः (
।\२८।। हे देवषं {† यह् सब कामोकाफल देनेवाला है । नारद बोर कि, इस व्रतकी विधि किये, कैसे
।\२९।। कौनसे मासमे करना चाहिये कौन इसका देवता है, इसका पुण्य क्या है, नवेद कौन २
।। ६४ ।। सरवेदवय्यंसंपस्न सौभाग्य सुर्दरीका पूजन करना चाहिये
।। ६५ \। कदली फलका अघं दे, राजतपयका प्राहान करे; इस त्रतके प्रभावसे
।1७५।। अखरोटके ¦
पति, भाई ओर पुरोके वियोगको कभी
पे । जो सव शास्मोका पाहः
1. ^ ५
लि ५९ | ह
५ प
प
|
1, 9.
1 पा ॥ 4
1
सुशोभितः 1! मया निवेदिता भक्त्या गृहाण गणनायक ।। अक्षतान् 11 सुगन्धि.
च गृहाण गणनायकं ।\ विनायक नमस्तुभ्यं शिवसूनो नमोस्तु
माल्यादीनि सुगन्धी० तस्मादश्वा विघ्ननाशिने नमः पुष्पाणि
कष्ठेपु० । स्कन्दाग्रजाय० स्कन्धौपु० । पाल्ञहस्ताय०
ध प° । गजवक्राय वक्रपु० । विष्नहत्रे° ललाटपू° । सवेरवराय० शिरः पुज:
म । श्रीगणाधिपाय० सर्वाद्धपु
न्यघनाशन । आनीतानि
४
1
।। चतु््ये° अर्ध्यम् ।। वायनमंत्रः-विप्रवयं नमस्तुभ्यं मोदकान्वे ददाम्यहम् ।।
रकान्सफलान्पञ्च दक्षिणाभिः समन्वितान् ।। आपदुद्धरणार्थाय गृहाण ष्िज-
सत्तम ॥! प्राथेनाअबुद्धमतिरिक्तं वा द्रव्यहीनं मया कृतम् ।। सत्सवं पुणंतां यातु
विप्ररूप गणेकवर ।। ब्राह्मणान् भोजयेहेविं यथाच्रेन यथासुखम् ।) स्वयं भुञ्जीत
पञ्चेव मोदकान्फलसंयतान् ।) अशव्तषश्चकमन्ं वा भृञ्जीत दधिसंय॒तम् ।।
अथवा भोजनं कार्यमेकवारं हिमागजे \! प्रतिमां गुरवे दद्यादाचार्याय सदक्षि-
मन्त्रमिमंजपेत् ~ नमो .हरम्ब मदमोहित
मेकवि्तिवारं जपेत ।! विसजस-
। संकष्ट चतुरथौब्रत-श्नावण कृष्ण चतुथोकि दिन संकष्ट चतुरथौका व्रत होता है इस त्रतको 4:
करना चाहिये जो कि चनद्रभाके उदयम व्याप्त हो । क्योकि, संकट चतुर्थीकी त्रतकथासे, श्रावण शुक्ला चौथको ` ८
` चन्द्रमा उदय होने पर गणेशजीका पुजन करके चन्द्रमाको धं देना चाहिये 1 यह चन्द्रोदय व्यापिनी ` 1
` चतुर्थो वतक पूजाका विधान किया है ! यदि दोनों ही दिन चन्द्रोदय व्यापिनी हो तो तृतीयासे विद्ापू्वा `
| चाहिये क्योकि गणेदवरके द्रतमे मात् (तृतीयासे) विद्धा ग्रहण कौ नाती है यह् वचन मिलता = `
व्रतकं विधि कहते है-सबसे पिके संकल्प करना चाहिये मास, अः
पुत्र, पौत्र, प्रप्तिके छ्ये तथा समस्त रोगोते मुक्त होनेके लिये श्नीगणेदाजीकी प्रस्नताके लियेः
। मे करता हूं तथा पहिले स्वस्तिवाचन गणपति पुजन एवम् कल्शका
पाप या दुःखोके दल- नीलकण्ठ
दविराडजायत विराजो" इस संत्रसे तथा उमासुताय नमः आचमनीयं समपये उमादुतके
नाथ हे मूषकवाहन ! मे आपकी प्रसन्ताके
सहत मि हुए हें आप ग्रहण
स्नान कराता हं इसे कह कर शुद्धजलसे स्नान कराना चाहिये । “रक्तं वस्त्र, है लम्बोदर
देवताओंकोभी दुलंभ इन सुन्दर लालरद्धवाल भव्य दोनों वस्त्रोको धारण करिये इस् २
इस मत्रसे तथा शपेकर्णाय नमः । वस्त्रं परिधापयामि सूरपकणेके लिये प्रणाम
[। ०५८५८)
ध
(
हाथौके
पुजयामि-विघ्नोके नाञ्च करनेवालेके लिये नमस्कार है रुलाटका पजन करता हूं । इससे रला, तथा-भोम्
सर्वेदवरायः नमः शिरः पुजयामि-सर्वेदवरके ल्यं नमस्कार ह । शिरका पुजन करता हूं \ इससे शिर, तथा~ `
पुजयामि भीगणेशजीके लिये नमस्कार है सब अंगोका पूजन करता हूं, इससे
इस संत्रसे एवम् विकटाय नमः, धूपमाघ्रापयामि विकटमूति गणपतिके लिये नमस्कार है, धृपका गन्ध अपित
करता हँ इससे धूप देना चाहिये । “स्वजन सर्वेरत्नाठच'' हे सर्वज्ञ हे सब प्रकारके रत्नोसे सम्पश्च है सके
वाङ ताम्बूलको ग्रहण करिये इससे तथा विघ्नहरं नमः मखशद्धचथं ताम्बलं समर्पयामि विष्नोके रहनेवारके
ताम्बल समर्षणकरे । “सवेदेवाधि”
मिनित 1 पिद
[क = = न = = (न स
है । ृष्णपक्षकी चौथके दिन चन्द्रमाके उदय हौ जानेषर पूजन करके शीष्नही प्रसन्न कर लियाहै, है देव
अघं रहण करिये. आपको नमस्कार है \ यह अधं संकटहर गणेराजीके लिये मेरा नहीं ह । पौर चतुर्थीकोभी
. अघं देना चाहिये कि, हे चतुथ ! तुम तिथियोमं श्रेष्ठ हो, तथा गणपतिजीकी अयन्त पियारी हो इस कारण
भै अपने संकटको निवत्तिके लिये आपको प्रणाम करता हुञा अर््यदान करताहूं । फिर दक्षिणासहित फल `
मोदकोका वएयना आचार्यक लिये देवे ओर 'विप्रवयं नमः इसको पदे, इसका अथं यह् है कि,
मन्त्रसे आचा्यको साञ्जलि प्राथना करे फि, मने जो विना जाना, या विना कहा हु किया वह या जितने
द्रम्यकी जरूरत थी उस दरव्यसे श्ून्यजो इस ब्रतानष्ठानको किया है, उससे जो तरुदियां होगयी हो, बे सब नष्ट
हो जौर हे ब्राह्मण आचायं रूपी गणाधीड ! आपको पासे वह सब ब्रतनृष्ठन सम्पु्ण॑ताको प्राप्त हौ
श्रीगणपतिजी अपने मातासे कहते हं कि, हे हिमालय नन्दिनी हे देवि ¡ यथाविहितं अथवा जैसा समयपर
तयार किया कराया हौ इस अन्नसे शान्तिपूवंक आनन्दके साथ ब्राह्मणोको भोजन करावे, त्रतकरनेवाला फल
एवं पञ्च मोदकोका भोजन करे, त्रत करनेवाला असमं होतोदधिके साथ किसी भी एक अन्चका भोजनं
करके अथवा एकवार भोजन करके ही व्रतानुष्ठान करे । फिर गणेशजीकी मति ओर दक्षिणा तथा वस्त्र
मोहजन्य संकटोसे बचाओ बचा 1 तदनन्तर गच्छ गच्छ" इस मन्त्रको पठता हुआ अक्षतोको पुजा स्थानम
गेरे भर पुजाकायंको समाप्त करे, इसका यह अथं है कि, है सुरश्रेष्ठ ! हि गणेदवर ! आप अपने स्थानम
कथयस्व पुरातनम् ।। ११ ।। तच्छ त्वा पाव॑तीवाक्यं संकष्टतरणं व्रतम् ॥। प्रीत्या
कथितवान् देवो गणेशो ज्ञानसिद्धिदः ।\\ १२ । गणेश उवाच ॥! श्रावणं बहुलं
पक्षे चतुर्थ्या तु विधुदये ।\ गणेन्ञं पुजयित्वा तु चनद्राया््यं प्रदायेत् \\ १३ ॥
` पार्वत्यवाच \! क्रियते केन विधिना कि कायं कि च पुजनम् ।। उद्यापनं कदा काय
मन्त्राः के स्युस्तु पूजन ।।! १४ \ कि ध्यानं श्रीगणेशस्य गणेश वद विस्तरात्
।\ गणेका उवाच ।। चतुर्थ्या प्रातरुत्थाय दन्तधावनपुवंकम् ।! १५) ग्राह्यं व्रतमिदं ५
पुण्यं संकष्टतरणं शुभम् 1 कर्तव्यमिति संकल्प्य ब्रतेऽस्मिन् गणपं स्मरेत् ॥ १६।।
ह स्वीकारमन््रः-निराहारोऽस्मि देवश्च यावच्चन््रोदये भवेत् ।। भोक्ष्यामि पूजयि-
त्वाहं संकष्टात्तारयस्व माम् ।। १७ 1! एवं संकल्प राजेनद्र स्नात्वा कृष्णतिलैः
शुभैः \। आलकं तु विधायैव पड्चात्पुज्यो गणाधिपः \! १८ ।। त्रिभिमपिस्तद
| षस्तद-
देन तृतीयांशेन वा पुनः \\ यथादाक्त्या तु वा हैमी प्रतिमा क्रियंते मम ।! १९ ।।
शुभा ।। २० ।! वित्तज्ञाठयं न कर्तव्यं कृते कायं विनश्यति \! जलपुणं वस्त्रयुतं
यावज्जीवं तु वा वर्षाण्येकविहतिमेव वा ।। २३॥।।
प वा ।\ उद्यापनं तु कतव्यं चतुर्थ्या
संकष्टहरणे तिथौ ।\ गाणपत्यं तथाचायं स्वेशास्नरविशारदम् \! २५।।
कमै. £+
पूजयेद् गोहिरण्याद्यहुत्वा
घोडा वै स्मृताः ।। ३७ । एकदन्तः कृष्णापिद्धो भालचन्द्रो गणेदवरः !! गण-
पर्चेकाविशदच सवं एते गणेदवराः ।\३८।। दुगोपिन्द्रश्च सद्रश्च कुलदेव्याधिकं भवेत्
नादानम् ।। ४१ ।। व्रतेनानेन सा प्राप महादेवं पाति स्वकम् ।! तत्कुरुष्व महाराज
व्रतं संकष्टनाहानम् ।। ४२ ।\ चतुर्थ संकटा नाम स्कन्देन कथिता ऋषीन् ।
षणकामेन कृतं वायुसुतेन च ।। संकल्प दृष्टवान्सोऽयं सीतां रामभ्रियां पुरा ।\५
पुत्रमाप्नोति रोगी रं
\
मेही
सुनकर ज्ञात ओर सिद्धि देनेवार गणेशजौ परमप्रसन्नताके साथ, संकष्टतरण नामके अपने व्रतको कहने खगे
॥ १२ ॥1 श्रावण कृष्णा चौथके दिन चतुर्थीमेही चन््रोदय होनेपर गणेश्रजीका पुजन करके चन्द्रमाको अघं
पुजन करकेही भोजन करूंगा, आप मुस्े संकटोसे पार लगा देँ ।। १७ ।। भगवान् कष्ण युधिष्ठिरजोसे कहते
आदिक कमे करके पीछे गणपतिका पुजन
हे कि, हे राजेन्दर 1 स्नानादिसे निवृत्त हो, शुभ काल तिलोसे आ!
करना चाहिये 1 १८ । गणेशजी पाव॑तीजीसे कहते हँ कि, तीन मासेकी, डेढ मासेकी अथवा एक मासेकौ
दिक महषियोसे बोले दिः, है द्विजो ! राज्यकी गिदव हनो! पानो धमति महायान वित ~~ इच्छासे महाराज युधिष्ठिरे इस ब्रतको किया
था इसी
वरते प्रभावसे युदधमे वैरियोको मारकर अपना राज्य पा लिया था ।। ४४ । इस कारण सबको प्रयत्न पुवेक
इस् त्रतको करना चाहिये, जिससे धर्म, अर्थ, काम ओर मोक्ष मिल जायें ।। ४५ ।। हे ब्राह्यणो ! जो सभी काम `
अर्थो सिद्धि देनेवाले इस ब्रतको करता है वो वांछित एलको पाकर अन्तमे गणपतिपनेको पाजाताहै ।\ ४६।
है ब्राह्मणो { जब जब मनुष्योको बडा भारी कष्ट प्राप्त हो सबको उस समय संकटचतुर्थीका व्रत करना `
चाहिये ।। ४७ ॥। त्रिपुरको मारनेके लिये शिवजीने इस ब्रतको किया था तथा तीनो लोकोकं चाहने.
तरार इन्धने इसी व्रतको किया था ।। ४८ ।! जब रावणको बाछिने बाँध लिया था, उस समय रावणने भी
इ सौ व्रतको किया था उसने भगवान् गणेशजीकी कृपासे फिर अयना राज्य पालिया था।\ ४९।।
पत्ता पा जाऊ इस इच्छासे इस व्रतका संकल्य हनुमान्जीने किया था इसके ही प्रभावसे वो
लगासके !। ५० ॥। हे ब्राह्यणो ! नलका पता पानेके च दमयन्तीने भी इसी ब्रतको किया था, उसने 7 पवित्र |
यशवाल नषध नलको पति पाया ।\ ५१ ॥ अहल्याने भी प्राणवल्लभ गौतम प्राप्त किया था! इस ब्रतसे
विवात्थौको निद्या, घनार्को धन तथा सुपुर्ीको पुत्र ओर रोगीको आरोग्यक प्राप्ति होती है \\ ५२॥
यह भरस्कन्दपुराणका संकष्टचतुर्ोका ब्रत पुरा हुआ ।! 4 |
दुर्वागणपतिव्रतम्
उमासुताय देवाय कुमारगुरवे नमः \\ लंबोदराय वीराय स्वैविष्नौघहारिणे ॥\
| द्धमलसंभूतो दानवे(नां वधाय वे ।। अनुग्रहाय लोकानां स
दीपं तुभ्यं प्रदास्यामि महादेवाय ते नमः \\ दीपमन्त्रः \। गणानात्वा ° सादनम् ॥।
उपहारमन्त्रः ।। गणेहवर गणाध्यक्ष गोरी पुत्र गजानन ।! व्रतं संपणतां यातु
त्वत्प्रसादादिभानन ।। प्राथनामन्त्रः ।। एवं संपुज्य विध्नेलं यथाविभवविस्तरः ।
सोपस्कारं गणाध्यक्षमाचार्याय निवेदयेत् ।। गृहाण भगवन्ब्रह्मन् गणराजंसदक्षि-
र्वागणयतित्रत-श्रावणके महीनामें अथवा कातिकके महीनामे शुक्लयक्षको चतु्थकि
हुई भी स्त्र स होजाय १ राजपुत्र अपने |
¦ होकर सबसे अधिकं होजाय ।
हु, इसलियि आपका आवाहनं करता हुं, मेरी पुजा स्वीकार करनेके छ्य आप पधार मै उसके लिये प्राथना
करता हुं, हे परमेहचर । आप मेरेपर प्रसन्न हों । यहं आवाहन मंत्र है) हे उमासुत । हे सवे व्याप्त रहनेवाङे ! `
है सनातन ! आपके लिये प्रणाम है, आप मेरे कार्योमिं जो जो विध्न उपस्थित हो, उन सब विष्नोके पुञ्जोको
हो
सन्त्र है । हे भगवन् । आप गणोके ईहवर, विजय करनेवाके, पावतीके पुत्र ओर जगत्की उत्पत्ति करनेवाले
हं, आपकी प्रसन्नताके लिये दिव्य गन्ध समपित करता हूं आप इस गन्धको स्वीकृत करे ४४ इससे गन्ध, तथा-
विनायक, शुर, वरदेनेवाले, उमाके नन्दन, स्वामि कातिकेयके बडे राता, समस्त वि
करनेवाले बीर लम्बोदरके लिये प्रणामहै, आप सुगन्धित पुष्य ओर दूवकि अकु रोको स्वीङृत करिये । इससे
पुष्प तथा उमा (पावती ) के शरीरसे गिरे हुए मेलसे जिसका अवतार, लोकोके कल्याण एवं दानवोके संहारे
व्ये हमा है बही सब जगत्को धारण करनेवाला देव मेरी रक्षा करें । इसे धूप, तथा हे सब प्राणियों
देनेवाके आप, परम ज्योति स्वरूपका प्रकाश करनेवाले महादेव हँ आपके ले प्रणाम है में आपके
परिपुणं आपके इस वचनसे यह मेरा किया हुआ दूर्वा
हो, यह दानका मन्त्र है जथवा जिस किसी भी महीनेक -शुक्लपक्षवाली चतुर्थौ
उसी दिन जितेद्रिय हो हर्वागणपतिके व्रतको करे, प्रकारहइस
सोद्यापन व्रेतका करनेवाला, इस रोकमे वाञ्छितपदार्थोको तथा देहके अन्तमें शंकरे पदको पाता है, तीन
वषंतक इस् व्रतको करनेसे सब सिद्धियां मिल जाती हे । जो विना उद्यापनके इसव्रत को करना चाहे, हे षडानन!
जञ गीर्वाणयरिपूजित ।। आवाहनम् ।। स्वर्णोसिहासनं दिव्यं नानारत्नसम-
त्वतम् ।। समर्पितं मया देव तत्र त्वं समुपाविज्ञ ।। आसनम् ।! देवदेवेश सवेश
` मार्यं सफलीकुरुष्व ॥ अर्घ्यम् । गङ्खदिसवेति्थेभ्य आनोतं तोयमुत्तमम् ।।
विभो । आचमनम् ।! चम्पकाशोकबकुल-
स्नानम्।।कामघेनुसमुद्भूतं सर्वेषां जीवनं परम्।।पावनं यज्हेत्व्थं पयः स्नानार्थम-
स्नानम् ।। सर्वेमाधू्यताहेतुः स्वादुः सवेभ्रियंकरः ।! पुष्टि
गुडः ।। गृडस्नानम् ।। कास्थे कास्थेन पिहितो दधिमध्वाज्यसंयुत
नीतः पजाथे प्रतिगृह्यताम् ।! मधुपकंम् ॥'
॥ सुवासितं गृहाणेदं सम्यक्स्नात सुरेश्वर
= पत्रं स०। इभवक्राय० शमीपत्रं स० । विकटाय रपत
। ठ 9 (इवत्थपत्रं स० \ कपिलाय ° अकंपत्रं स ° । बटवं नमः चपकपत्रं स ० । अभयप्रदाय
` वक्रतुण्डाय ० । शूर्पकर्णाय ° । कुब्जाय ० विनायकाय ० ।
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ङ्ध गग्गुलं धूपं सर्वसोग्ध्यकारकम् \! सर्वपापक्षयकरं
सुपक्वेदच भजितेर्वटकयुतम् ।। मोदकापुपलडडकराष्कुलं
द्िजब्रह्योशानमह
शानमहेन्दरक्लेषगिरिजागन्धवेसिद्धेः स्तुत ।। सर्वारिष्टनिवारणेकनिपुण
सब प्राणियोको जिलानेवाला तथा पचिच्र करनेवाला एवं यज्ञके योग्य है, जापको स्नान करनेके किए इसे
लाया हं, आप अपने स्नानके लिये स्वीकार करिये । “पयसस्तु इस मन्त्रसे दधिस्नान करावे, इसका अथेयह्
है कि, हे देव ! इूधको जमाकर यह दवि तैयार किया है, इसमं त्ीतलता उत्पन्न करनेवाङे पदार्थोकिं ‹ मे मिलाया
है, इस प्रकार बहुत उत्तम यह दधि, आयके स्नानाथं लाया हू, आप इसे स्वीकृत करं । “नवनीतम्” इससे
घतस्नानकरावे, इसका अथं यह है कि; मक्नसे निकाला हुजा सबकी तुष्टिकारक एम् यज्ञका साधनभूत यह्
आपके स्नान करनेके किए सर्मापित करता हूं । “धुष्पसार'' यह सधुसे स्नान करानेका मन्त्र है } इसका अथं
यह है कि, मक्खि्योने पुष्पोसे जिस सारको निकालकर इकट्ठा किया था, जो किं सबको संतुष्ट करनेवाला
है वह सहत आपको स्नानाथं स्मपित करता हूं" “द्षुरस"" इससे शकं रास्नान करावे, इस मन्त्रका यह् अथं
है कि, आपके मेलाको दूर करनेके लिये इस ईखके रसकौ बनी हुई शकंराको अपित् करता हूं, आप ग्रहण
। “स्वमाधु्य” इस संत्रसे गृडसे स्नान करावे, इसका अथं यह है कि, सब पदार्थोमि मधुरता उत्पन्न करने-
ईखके रससारका बना हुआ पुष्टिकारक यह गुड आपको स्नानकराने
घृतसे संयुक्त, यह मधुपकं आपके परुजनके लिये लाया हूं, आप इसे स्वीकृत करे, इस सन्त्रसे मधुपकं प्राशन `
करावे । “सर्व॑” इस सन्त्रसे शद्ध स्नान करावे, इस मन््रका यह अथं है, कि, हे विभो ! यहं जल सब तीथेसि `
लाकर सुगंधित किया है-हे सुरेश्वर ! प्राना करता हं कि, आप इसे अद्धीकृत करके भलीभांति स्नान
लाल च्दनको लगाता हूं, आप कृपाकर
जगदीद्वर ! लाल चन्दनसे रगे हुए
717
(
के लिये नमस्कार है, देवदारुके पत्त चढाता हूं \ भालचनद्रके लिये नमस्कार है, अगरूके पत्र सर्मपित करताहूं ।
हैरम्बके लिये नमस्कार है सफेद बके पत्ते चढाता हूं । शुपकणेके लिये नमस्कार है, जातीके पत्नोको समपित
गजाननके लिये पुष्पेण करता हं \ ये इक्कीसों नाम प्रायं : वेही हः जो पत्र जामे आचुके हं पर कम भिन्न
तथा कुछ नये नामभो हं इस कारण फिर लिखते हं । १ गजानन, २ विघ्नराज, ३ लम्बोदर, ४ शिवात्मज,
गणेहवर, २१ गणप, ये इक्कीस गणेदाजौके नाम हे इनमेसे हरएक नामके साथ “के लिये नमस्कार" लगाकर
पुष्पं चाने चाहिये 1 आदिमं “ओम्, अतम नमः” तथा नामको चतुर्थक एकवचनान्त करनेसे नासमत्र
बनजाते हें उनसे ही समपंण करना चाहिये । ““वश्लाद्धम्" इससे धूप करे, इस मन्त्रका अथं थह है किं, सर्वत्र
करके सबके पापोको क्षीण करनेवाले दशाङ्ग गूगलवाली धूपकी सुगन्ध मेने को है, आप इसे स्वीकृत
प्त हो जायगा, इस मंत्रसे भोजनके बौचमें पानी देना चाहिये
उत्तरापोडान करके मुख ओर हा्थोकौ
अंकुर मेने आपके भेट किये है, इस मं्को पठकर गणाधिपाय नमः दूर्वा्ुरं समपेयामि' इत्यादि इक्कीस
नाम ग्रन्थोको पठता हुंमा हरे या सफेद व्णेकौ पांच या तीन पत्तेको दूब इक्कीस बार ओम् गणाधिपाय नमः
विध्वंसकतं., विर्ववन्य, अमरेह, गकणं, नाग यज्ञोपवीतिन्, भालचन्द, विद्याधिप, विद्याप्रद, इनं
नामोके आदिमे “ओम्” ओर अन्तमं “नमः तथा इहं चुर्थोके एक वचनान्त करके “दूर्वाकुरं समपेयामि"
लगाकर गणेशजी पर दूब चढानी चाहिये । गणेन हृदये" सब संकटोके नाशं करनेवाले गणेशजीको हूदयमें
इक्कीस प्रदक्षिणा करता हं । इससे इक्कीस परिक्रमाएुं करनी चाहिये, “ओौदुम्बरे" हे देव !
आपके सामने, चांदी, सोने, तांबे ओर कांसेके पात्रे कल्पित किये गये दीपक रखे हए हैं आप इन्हं
करे, इससे विशेष दीपक समपित करनं चाहिये ! पञ्चातिक्यम्, ह परमेदवर ! चादकी
वाले, पाच दीपोसे दीपित इस पंचातिक्य दीपको ग्रहण करिये, इससे पंचातिक्यका निवेदन
स्वेषां कार्यगौरवात् ।। सेनानीस्तु तदा हर्षादुवाच च महामुनिम् \! ८ !। स्कन्द
उवाच ।। विप्रवये महायोगिन् पावेत्या मुखतः श्रुतम् ।। बदामि,तद्बरतं तुभ्यं शुणु सवे
तरत्यचोदयत् ।। अवददरे ततो नाम बल्लवस्त्वं विनायकः ।\ १२ ॥। पुत्र गच्छ
` बहिर तिष्ठ तत्र दृढायुधः ।। आयास्यति कदाचिद्र पुरुषो भवनान्तरे \\ १२३ ।।
रय निःलक यावत्स्नानं करोम्यहम् \\ ममाज्ञां गृह्य पठचात्व प्रवेशयितुम-
१४ \\ मात्राज्ञा गृह्य शिरसि अगमदृद्वारदेहलीम् \। मुद्गरं तु समादाय
स स
व
खं पुत्रार्थं मा कुर प्रिये ॥ अधुना तव
३ ।। प्रियामेवं समाश्वास्य गतो द्वारं स्वयं
योजयद्विभुः \! संजीव्य बल्लवं पुत्रं पावत्ये तं न्यवेदयत् ।! ३५ ।। दृष्टवा गज?ि
पुत्रं पावती हषनिभेरा ।! भोजयित्वा पति पुत्रं स्वणेपात्रे सुलोभन ।\ ३३
सृत्य ततो देवं पतिपात्र उपावहत् \! बुभुजे तु ततो
।} ३७ ।। केलासभवने रम्ये पावेत्या न्यवसदिभः ।।
बलीयसः ।। ३८ ।। पार्वत्या सहितो
दृष्ट्वा पारवती ह्यवदच्छिवम् ।! ३९ ।। पावत्युवाच ।! देवदेवं
।।४२।। देहं तस्य च सा स्पृश्य पाणिपदमेन
न
बाल उवाच ।। कथं पुन्यो गणाध्यक्षः कियत्कालं वदन्तु भो
संभाराः कदा पुज्योगणेदवरः।\ ६० ।। नागकन्या ऊचुः ।। श्रावणे मासि संप्राते
दये ।। तिलामल्ककल्केन स्नानं कुर्याज्जला शये ।। ६१ ।। शुक्लपक्ष
0.
समिसा
कविकतिदूर्वाभिः पुष्पैरपि तथैव
॥ ८५ मोदकास्तत्र एकविश्तिसंख्यकाः,।। दश विप्राय दत्त्वा तु
देवे नियोजयेत् ।\ ८६ ।\ अवक्ञिष्टाः स्वयं भक्ष्याः श्रुतमेवं मया विभो
तव् मागे शु सरि चरिमिते ।\ ९१ । पितुवाक्यं समाकष्यं
चाररोह सा ।। क्षणमात्रेण सा याता
जातो विद्रवामित्राय तत्क्षणात् । गणक उवाच ।। वद राजन्किमिच्छास्ति
ददामि तव याचितम् । ११० ।। विरवासित्र उवाच । देहि देव प्रसन्नचेत्प्राग्व-
` प्रषित्वमस्त्विति ।! प्राप्तेन विप्रषित्वेनं सर्वे प्राप्ता मनोरथाः ।! ११ 1! गणेश
उवाच । विप्रत्वं च राजेनद्र प्राप्स्यसि ब्रह्युत्रतः ।। वसिष्ठादुबरह्मण श्रेष्ठान्मम
च भूमिपेन च ।! पुनरन्यं वरं
| हुए हं ।\ ५ । सुतजी बोल कि, हे मृनिवसे ! जैसे आप लोगोने मुषे परदन किया है वसे | ही ब्रह्माजीके र |
गी सनत्कुमार मुनिने बक्ताआमे श्रेष्ठ षडाननसे प्ररन किया था 1। ६ ।। कि, हे कातिक्तेय है महाप्र राज्ञ !
।} ८ ॥। स्वामी कातिकं बोले कि, है विग्रवयं ! हे महायोगिन् ! मेने पावंजीके मुखसे जो सुना है उसी त्रतको
आपके लिये संक्षेपसे कहता हूं आप सुनं ।। ९ ।! रमणीय कंलासमे निवासं करनेवाले भगवान् महादेवजी एक
पिर उत्ते नोव भा करके कहा कि, हे पुत्र ! तुम यहां मेरे समीपम आज, फिर पावंतीने :
कहा कि, आप वल्लब ओर विनायक सबको वमे करनेवाले हो ।। १२॥ हे पुत्र ! बाहर द्वारपर जाओ, बहा `
दृढ शस्त्रको लेकर सडे रहो जो कोई पुरुष इस भवनकेभीतर आवे 1 १३।। मे जब तक स्नान करती ह, तबतक
तुम निःशंक होकर उसे दरवाजेपही रोको । मेरी आज्ञा केकर भौतर प्रविष्ट करना चाहिये ये ।\ १४ 1) सूतजी
।\ १६ ५ ॥ जब वे देहलीके भोतर प्रवेश करने लगे तो बह द्वारपाल उनको रोकता हअ ।! १७
तुम कौन हो, सुन्दर भवनके भीतर क्यो जते हो
बो कि, मं किसकं | तुम कौन ह् । बिनाजाने क्या बक रहे हो ? ।\१९ ।\ फिर पावें
भगवान्नं हाथमे डमरं लकर उस् द्वारपाल श्रीबल्लबनामकं विनायकका सस्तक काट डाला ओर
धु
लि शोक मत करो, अभी मं भारे पुत्रको जीवित करता, केवल वह् हिर नही जोदित-कलमा ॥॥ ३३ | ।
अपनी प्रिया पावतीको एसे आदवासन देकर विभु (महादेवजी ) दवारपर पहुंचे, फिर. इधर उधर दरूसरेका
मस्तक जोडनेके लिये देखने लगे तो उन्हं वहांफर एक मृत हस्तीका शरीर दौखा \\३४। तदनन्तर उसं
] हे सुरेवर ! मे आपके साथ पाल्ञा गेरके खेलना चाहती हूं ।। ४० ॥ महादेवजी बोले कि, है प्रिये ।
प
सुलना चाहता हं \ ५८ ।\ नागकन्या बोलीं कि, हे वत्स ! हम
क्योकि, ये गणपति समस्त जगतुके नाथ ह, इनकौ प्रससलता
५९} नालैकं बोला कि, भोः । किस प्रकार '
रे । दो खड ओका भाप भोग रगावे, तथा श
लु. गणे्जौके यहां रहनेदे ।। ६४ ।। सुतजी शौनक मुनिसे कहते हं कि हे अनघ ! रोज पुजन करनेके समयमे
दसरेसे सम्भाषण न करे, जाके मन्त्रोकाभीमनमे ही उच्चारण करे, इक्कौसदिनतकं ब्रह्मचर््यसे रहे, पूथिवोपर
क्षयन ओर शूदर म्लेच्छ, पतित, रजस्वला आदि नीचोसे ६५ ॥ वरती पुरषको सदाही हविष
गेजायगी +
ता क
॥। ८५ ।। इसमें इक्कीस मोदक बनाने चाहिये उनमेसे दश्मोदक ब्राह्मणणल्यि ओर एक गणेशषजीके भेट
करके । ८६ ।\ अवक्िष्ट क्ञ मोदकोको आप प्रहुण करे, हे प्रभो ! मेने नागकन्याओके सुखसे गणेशजीके
इक्कीस दिन पुजनवारे इस व्रतका विधान एेसेही सुना था मौर उसी प्रकार मेने कियाभी। हे प्रभो
अबे आप मुक्षे जो आज्ञा करें वह् करू ।\ ८७ \। सूतजौ शौनक म॒निसे बोले कि, फिर महादेवजीने भी पार्वेतीकी.
प्रसन्नताके लिये गणेशजौका इन्कोस दिनके पुजनवाला ब्रत किया, उसके समाप्त होतेही उसी पुजाके प्रभावसे
पार्वतीका मनमहादेवजीकी ओर चायमान हृजा ।\ ८८ \। अपने पिता हिमाल्यको प्रणाम करके बोली
कि, ह तात ! आज मं अपने घर केलारशको जातौ हू ।\ ८९ \\ मेरा चित्त महेदवरके चरणोके देखनेके लिय
उत्कण्ठित हो रहा है । जप मेरे लिये शौ घ्र जानेकौ अनुमति दे, अब यहां एक क्षण भी नहीं ठहर सकती \\ ९० ॥।
यह सुन हिमालय बोला किं, तुम क्षणभर ठहरो, मं सूये सदुश दीप्यमान विमानमें बाकर तुमको मेज्गा,
है शुचिस्मिते ! रस्तेमं तुम्हारो रश्नाके लिये सेना भौ देता हूं ।। ९१,।। पावतोजौ भौ पिताके उन ववर्नोको
सुनकर तदनुसार दिव्यविभानपर चढकर क्षणमात्रमं अपने उत्तमे भवन कलास पहुच गयी ।। ९२ ।\ फिर
महादेवजीके दहन करके हंसते हुए उन्हे प्रणाम करतीहुई प्रेमपुवंकं पुने क्गी कि, हे प्रभो } अपने क्ष्या
किया ? यह तो समक्षम नहीं आथा पर आपने मेरा मन एकदम वहसे वीच लिया ।। ९३ ।। प्यारीके इस
(6 हे जगत्मरभो ! गणेशजीका पुजन किस
` करना चाहिये ? आप मुस्ने कहिये, मे स्वामिकातिकको देखनेकी इच्छासे गणपति पुजाको करूगी
इक्कीस दुवे अंकुर एवम् इवकीस ही नानाविध उत्तम पुष्पोसे ।\ ९७ 1। इस ब्रतमे गणेश्जोका पुजन किया `
जाता है जर वहं पुजन इक्कीस दिनपय्यन्त करना चाहिये । इक्कीस मोदकोका नेवेच बनवाके उसमसे द
स्वामिकातिकजीको देखते ही उसी समय पावतीजीके स्तनोसे कः करना वहने लगा । अपने पुत्रका आलि-
मृखको वारंवार चूमने खगो \ १००! है वत्स षण्मुखं ! बहुत समयसे मुद्यको छोडकर तुम दूसरी
थे, आज म गणेशजीके त्रत प्रभावसे वुम्हारे मुखको देखसकी ।। १०१ ।! माज मे तुक्लको
मिलगये एेसा मे मानता हं \। ११। गणेशजी बोले कि, हे राजेन्दर ! तुमको बरह्मषिपद तो विघ्रागप्रगण्य ब्रह्मपुत्र
वसिष्ठ ऋषिसे मिलेगा, इसमे संया नहीं है यह मेरा बाक्य है \\ ११२ \। एेसा कहकर फिर ओर भी राजाके
अन्यभी वरदान किया कि \। ११३ ।\ हे राजन् ! जबजब जिन जिन `
मनुष्योको चाहिये क वे मेरी पजा करं \\ ११४॥।
बेतपू्वक मुके वारंवार नमस्कार करते हुए याद करेगे, उनके सब दुःखको नष्ट करूंगा इसमें
बरोको देकर गणेशजी वहां ही अर्न्तीहितं होगये । स्वामिकातिक सनत्कुमारसे
| कहते ह कि, है योगीन्र ! सनत्कुमार ! मनं धार्वतीके मखारविन्दसे ।\ ११६।, चेतायुगके आरम्भमं गगेशजीके
` इस बडे भारी व्रतको सुनाथा, हे विप्र ! हे तपोनिषे ! वह मेने तुम्हुं कहं दिथा है इसे आप करें
सनत्कुमार बोले कि, हे प्रभो ! मे इस महान् आद्यानको सुनकर तुप्त हौ गया हं इसमं सदेश नहीं
` बोरे कि, योगौ सनत्कुमार एेसा कहकर, स्वामिकातिकजीको प्रणाम करके चले गये 1!
भार ओर स्वामिकािकका यह संवादं भगवान् वेदग्यासजी प्रसन्नतसे जंसा सुना था व॑साही आपके
` निवेदन कर दिया है ।। ११९ ।। इस गणेशजीके इक्कीस दिनके ब्रतको जो मनुष्य करेगा उसके सब कार्यं
| होमे !। १२० ।। हे सब मनुष्योमे श्रेष्टो ! ओ तपरूप धनसेही सम्पन्नता माननेवाले ! ओर
(स कया सुनना चाहते हो यदिमेरे त नेको आप सुनना चाहेगे तो भे सब ॒कहंगाः
ष्योत्तर पुराणान्तेत स्कन्द भौर सनत्कुमारके संवादके तृं
पूजनके व्रतकी कथा सम्पूणं हद 1
वंकसप्तजन्म राज्यसौभाग्या
ता
नूर १० ।॥\ दूर्वादिष्नेवरो यत्र
कलयसे चला या भानुवारेण संयुता ।। ११।। तस्यां
चतुर्यां च प्रत्येकं चैकविक्षतिः । एकभक्तं च कर्तव्यं
।॥ गजाननं प्रस्नास्यं सिन्दूरतिलकाएडितकतम् ।\ १५ ।\
भातमक्तामणिविभूषितम् 11. चतुर्भुनमुदाराद्धं किकिणी-
इसके अलावा रविवार युक्ता लिस किसी महीनेकौ शुक्ला चतुरथोके दिन आरम्भकर् छः महौनेतक
रूपमे कहा है । इसे अच्छे अच्छे लोग रावण शुक्ला चतुर्थौ से ठेकर माघ शुक्ला चौथतक करते हं यह तात्पर्यं
है । इस व्रतका संकल्प करती वार मास, पक्ष आदिका उल्केब करकं कहे कि, भेरे समस्त पायोके नाश पुरवैक `
सात जन्मोमे राज्य ओर सौभाग्यकौ वृद्धिके लिये तथा महागणपतिकी प्रौतिद्वारा उमामहरवरके सालोक्यके
लिये छः मासतक दूर्वागिणपतिका व्रत में करूगा । संकल्पके बाद सोलह उपचारति गणेशजीका पुजन करना
चाहिये ¦ जथ कथा-सिद्धोके सम्हसे समाकीणं, गन्धर्वं जनो सेवित तथा सब देवता जिसका निरन्तर सेवन
करते रहते हँ एसे कैलासके रमणीक शिखरपर । १ । पावतीजीके साथ पासोपे खेलते खेलते बोरे कि, `
तुम जीत गई जीत गई । २ ।। पावेतजी बोलीं कि, आप जीत गये जप जीत गये, यही दोनोंका विवाद हो.
गथा, उस समय चित्रनेमिसे पुछा तो वो शूठ बोलने लगा ।! ३ ।। उस समय पावतीजीने कोधमं आकर शाप
दे दिया । चित्रनेमिने ख् सामद की कि हे पार्वति ! मुशे शाप रहित कर दीजिये ।! ४ ।। एसा सुनकर पार्व॑तीजी `
गोली कि जब तुम घूमते हए रमणीक सरोवर पर आई हुई सब अप्सराओको देखोगे ।\! ५. ।। उस समय तुम
पटुचकर प्रणाम करके पुने लगा ।
सुन वे उससे बोलीं कि, हम
- [ए ०११९२
०
भहादेवजौके सामने इस ब्रतको कहा ओर शंभुने बडे ही कुतुहलसे !! २७ । गौरके क्रोधको शान्त करनेके
किया श्िवजोके उपदेशते पावेतीजीने भी इस उत्तम ब्रतको किया ।। २८ ।} कातिकेयने भौ माताके
से अपने भिक देखनेकौ इच्छासे प्रेरित होकर इस त्रतको आदर पुवेक किया कातिकेयके मुखसे सुनकर
कया रमसे यह् उत्तम त्रत लोकमें प्रचरितं होगा ।) ३० ।\ सब
देनेवाले दूर्वागणेडाके इस उत्तम तब्रतको करके श्लोक, व्याधि, भय, उदधेग, बन्ध ओर व्यसनोसे
१॥ 1 छटकर पुत्र पोत्र, घन, धान्य संब कुछ पाजाता है इस लोकम सुख भोगकर अन्तमं शिव लोकम
अ) है 11 ३२ ।। इस व्रतके प्रभावसे इूरवागणेश्चजीकी प्रसस्षता होनेसे सव कुछ होजाता है ! जो नर रोज परमं
भवितके साथ इस् व्रतको करता है जथवा जो इसे निरन्तरं सुनता है वह् भी सब सिद्धिक्षो पाजतताहै 1३३१
। वूर्वागणपतिका तत पूराहृमा॥1
सिद्धिविनायकब्रतम् 1
-भाद्रपदशुक्लचतुर््यां सिद्धिविनायकत्रतं हेमा स्काम्द-तच्च मध्याह्नव्या-
कायम् ।। प्रातः शुक्लतिलेः स्नात्वा मध्याह्लं पुजयेचुष ।। इति तत्रैव
गणनाथस्य मातूविद्धा प्र्स्यते ।\ . सध्याह्लव्यापिनी. सा तु परतरचेत्पर
इति क्तेः । अथ ब्रतविधिः ।। मासपक्ताद्युल्लिस्य ममेह जन्मनि
प्राणप्रतिष्ठादिक-
पञ्चामृतेः सह पाथिवगणयतिपूजनं करिष्ये ।। तथा मूत प्राण
नादिकं कलशाराधनं पुरुषसुक्तन्यासांच्च करिष्ये ।}
सुताय० स्थापनम् ।। अथ प्राणप्रतिष्ठा कुर्यात्
४
तुभ्यं स्नानायाभीष्टदायक ॥। य्पुरुषेण० स्नानम् ।। रक्तवस्त्रयुगं
काञ्चनसंभवम् ।। संप्रर गृहाणेदं लम्बोदर हरात्मज ।। तं
0 ४;
11
५८१
सवेदेवेद्ष उमापुत्र नमोस्तु ते \! य्पुरुषम्० धूपम् । स्न सवेलोकेशच
गेक्यरि मङ्कलं दीपं रद्रप्रियं नमोऽस्तु ते । ब्राह्मणोऽस्य
। नैवेद्यं गृह्यतां देव०° नानाखाद्यमयं दिव्यं नैवेद्यं ते निवेदितम् । मया
शिवापुत्र गृहाण गणनायक ।\ चन््रमामन ° नेवे्यम् ।! एलोज्ौरलवङ्घा-
रापो० म॒खभरक्षालनम् ।। मल्याचलसंभूतं कर्पूरेण समन्वितम् ।\ करोढ्तनकं चार
जगतः पते ।! करोदतेनम् ।। बीजपुराच्पनसखजरीकदलीफलम् ।1 नारि-
दिव्यं गृहाण गणनायक ।। इदं फलं मया० फलम् \। एकविशतिसंख्याकान्
घतपाचितान् ।। नैवेद्यं सफलं दद्यान्नमस्ते विष्ननारिने ।\ गणेशाय °
फः म्बलम् ॥ हिरण्यगभेति दक्षि-
जमाणिकयवेदरयेमुक्ताविद्रममण्डितम् । पुष्परागसमायुवतं भूषण
युग्मं गहीत्वा तु गन्धपुष्याक्षतेयुतम् ।\ पूजयेत्सिदधि
साते । ति
युधिष्ठिर उवाच ।! निविष्नेन जयं मह्यं बद त्वौदेवकीसुत ।! कां देवतां नमस्कृत्य
सम्यग्राज्यं लभेमहि ।॥ ७ ।\ कृष्ण उवाच ।। पूजयस्व गणाध्यक्षमुमामलसमुदधु
वम् ।\ तस्मिन्सभ्पुजिते देवे धुवं राज्यमवाप्स्यसि ।\ ८ । र उवाच ।
र ।। अथवा मृत्मयीं कु
त्तकं कमं पूजयेदिष्टदेवताम् ॥ ब्राह्मणान्भोजयेत्पश्चा डूञ्जौयाततेलर्वजितम्
धर्मराज गणनाथस्य पूजने ।\ विजयस्ते भवेचूनं सत्यं सत्य
हन्तुकामेन पुजितः शुलपाणिना ।। शक्रेण पुनितः पुर्व
पुरा ॥ अमृतोत्पादनार्थाय तथा देवासुरैरपि \\ ३३ । अमृतं हरता पूवं वनतेयेन
पक्षिणा 1 ` आराधितो गणा ध्यक्षो ह्यमृतं च हतं बलात् ।। ३४ ।। रुकिमिण
हेतुकामेन पजितोऽसौ मया प्रभुः \॥ तस्य प्रसादाद्राजेन्र रुक्मिणीं प्राप्तवाहनम्
३५ 11 यदा पूर्व हि दैत्येन हतो रुविमणिनन्दनः ।। आराधितो मया तदरहूुकिमष्या
| = ॥। कुष्ठव्याधियुतेनाथ साम्बेनाराधित मस्त
विद्याकामो लभेषिदयां धनकामो
च सुवासिनी
द्यासु दीक्षासु आदो पूज्यो गणा
जन्मातरोमे पुत्र, पौत्र, धन,
सिद्धिविनायककौ प्रसच्नताके लिये जसा सुद्षे ज्ञान है उसके अनुसार पुरुषसूक्त ओर पुराणके कहे हुए सन्त्रोसे
ध्यान आवाहन ओर षोडरोपचारोके | सेही मूं
राण प्रतिष्ठा आदिके आसन आदिक कलद्ाराधन ओौ र पुरुषसूक्तका | शुद्ध.
"जोम, हैरस्बायनमः' सृत्तिकामाहरामि, नमस्कार है, मृत्तिका लेता हूं इससे मिटटी प्रहणकर
ओम् सुमुखाय नमः सुमुखके छे नमस्कार है, इस मंत्रको बोलते हए सूति बनाना चाहिये \ ओम्
सुताय नमः" गौरो सुतको नमस्कार है इससे स्थापन करना चाहिये । इसके बाद प्राणप्रतिष्ठा होती है
ना
ध्री यहे लेकर पंचदशवारं प्रणवमावत्य' यहांतकं प्राणप्रतिष्ठा पष्ठ ३१ मे एकसी है इसी कारण इतनेका
1
यहां अथ नहीं करते हं ) भोम् तच्चक्ु्देबहितं पुरास्ताच्छकं उच्चरत् पश्येम शरदः शतं शणयाम शरदः
रतम्
सूर्यकी ।
प्राथनामं इसका अथं किया है तथा विनियोग भी किया है पर यहां आज्यसे देवके तेत्र
प्रयोग है इस कारण अथं भी एेसाही होना चाहिये किह हेतकारीआपके वे |
भप अपने ने्ोसे देखते हे उसौ तरह हम भी सौवर्षतकं देखते रहे, तथा सुनना ओर कहना
रह, न सौव्षतक दीन ही हों फिर भी हम सौते भी अधिक सौवषेतक ये सब भोगे, इस मंत्रको
नेत्र खोलकर पचोपचारसे पुजन करना चाहिये । आसनविधिके बाद पुरुषसुक्तके न्यासं
ता है-.भोम् सहलरशर्षा
0
आप इससे स्नान करे, “ओम् यत्ुरुषेण'' इससे स्नान करावे ! “रक्तवस्त्' इसमे वस्त्र धारणं करनेकी प्रा्थेना
करे, इसका अथं यह् है कि, हे देवे ! हे लम्बोदर ! हि शिवकरुमार ! ह सवं पुरुषाथोकि देनेवारे ! ये दिव्य
सुवर्णके तन्तुओसे बनं हुए दो वस्त्र हु, जाप इन्हुं चारण करिये, “तं यज्ञं बहिषि" इसमे एक धौत, वस्त्र दूसरा
अंगोखा धारण करावे । “राजतं ब्रह्य' इससे इपटूष धारण करावे, इसका यहं अथं है कि, चाँदी ओौर सुवर्ेके
सुतोकासा यह इपद्रा है है सवज्ञ ! अप इस सुन्दर वस्त्रको धारण करो ओर भक्तोको वरदान दो । “ओं
तस्मायन्नात्'" इससे यज्ञोपवीत पहनावे उद्य्धुस्कर' इससे सिन्दरुर चटढावे, इसका अथं यह है करि, उदय होते
हृए सुयेके सदृश ओर सन्ध्याके समान लालवणं, वीरताका आभूषण रूप यह् सिन्दूर है हे प्रभो { इसे स्वीकृत
कसो । नाना इससे आभूषण पहूरावे, इसका यह अथं है कि, है शकर एवं पावंतोके परम आनन्दं करनेवारे
इन नानाविध दिव्य रत्न जडित आभूषणोको धारण करिये । कस्तुरी इससे सुगन्धित चन्दन चढानेके चवय
प्राना करे, इसका अथं यह् है कि, हे सुरश्रेष्ठ ! कस्तूरी, गोरोचन, कपुर ओर केसर इनसे मिश्रित (लाल)
चन्दनके विलेषनको ग्रहण करो ! “तस्मा्न्ञात्सवे" इससे उस (लाल) चन्दनको विलेपन करे \ "रक्ताक्षतांर्च'
इससे लाल रद्ध हए चावल चढावे, इसका अथं है हे देवेदवर { है हस्तौके सदु मुखवाले ! इन लाल चावलोको
ललाटपर रहनेवाखे चन्द्रमाके ऊपर धारण करिये । माल्यादीनि इस पूर्वोक्त सन्त्रसे एवम् करवीर, मालती
चम्पा, मौलसरी, कमल ओर कल्हार कमलके फूल्गेसे गणेशजीकी पूजा होनी चाहिये । इस भंत्रसे तथा
५ “तस्मादश्वा अजायन्त" इस म॑त्रसे फूल चढाने चाषठिये । अद्धगुजा-गणेदवरके लिये नमस्कार है चर्णोका = | |
पूजन करता हु, विध्नराजके लिये नमस्कार है जानुओमे पूजन करता ह, मूसेका वाहन रखनेवाक्तके लिये ` ५ 4 |
नमस्कार है ऊरूका पूजन करता हूः हेरम्बके लिये नमस्कार है कटीका पजन करता हं । कामके वैरीके सुतके ` `
लिये नमस्कार दहै नाभिका परुजन करता हं, लम्बोदरके लिये नमस्कार उदरका पूजन करता हं, गौरो सुतके
लिये नमस्कार, स्तनोका पूजन करता हं, गणनायकके लिये नमस्कार हुदयका पूजन करता ह, स्थूल कान-
वालके लिये नमस्कार है कंठका पुनन करता हू स्कन्दके बड़ भाईके ल्व नमस्कार है, स्कन्धोका पूजन करताहू।
पाराको हाथमे रखनेवारेके लिये नमस्कार है हाथोका पुजन करता हूं । गजकेसे मुखवालके व्यि नमस्कारहै
मुखका पूजन करता हूं, विध्नहन्ताके लये नमस्कार है ल्लाटका पुजन करता हूं । सर्वेश्वरके लिये नमस्कारहै = `
शिरका पूजन करता हूं । सणाधिपकरे लिये नमस्कार है सर्वाद्धका पुजन करता हुं ।। पत्र पूजा-पुमृखके ं
ल्य मालतीके पत्र, गणाधिपके लिये भृङ्खराजके पत्ते, उमाके पुत्रके लिये बिल्वयत्र, गाजाननके लिये सफेद
"
करिये, “मलयाचल” इससे करोरतैन कर इसका अथं यहं है कि, है जगत्पते ! चन्दन ओौर कपुरको धिसकर
आपके करोटतेन करानेके छिए काया हूं, आप इस सुन्दर करोटतनको अंगीकार करो । “बौजयपुरा स्रम्" इससे
तथा “इदं फलं" इस पूर्वोक्त लोकसे फल भोग लगवे, इसका यह अथं है-है गणनायक
कटहर, खजूर, केता ओर नारियलके फलों को ग्रहण करो \ फिर इक्कोस लडइओंका फलोके साथ गणपतिके
भोग लगावे ओर “एकविहति"' इस इलोकका उच्चारण करे । इसका अथं यह् है किःघौके इक्कील लडड्ओंका
नैवेद्य, फलोके साथ आपको चढाता हूं विष्नोको नष्ट करनेवाङे, आके किए प्रणाम है ! ओर “गणेशाय
नमः मोदकानपर्यामि गणेशको नमस्कार है, मोदकोका अपण करता हूं इस वाक्यकाभौ उच्चारण
करे । “पुगीफल' इससे ताम्बर ओर पुगीफर चढावे, “हिरण्यगभेगभेस्थं'' इस पूर्वोक्त मन्त्रको पठता हभ
दक्षिणा चडवे, “वच्रमाणिक्य'' इससे रत्नाभरण चढवे ! अथं यह है कि, हीरा, माणिक्य, वैडये, मोती
संगा, ओर पष्पराजसे जटिल आभूषणोको धारण करिए ! फिर दूबकं दो दल तथा गन्ध पुष्प ौर अक्षतोको
लेकर पूर्वोक्त नाम मन्त्रौसे सिद्धि तथा विष्नोके पति देवगणेशजीका पीडे “ओम् गणएधिपायनमः'' गणाधिपके
लिए नमस्कार है “ओम् उमापुत्राय नमः उमापुत्रके लिये नमस्कार है, “ओम् अघ नारिनेनमः'' अघ-
नाशीके लिए नमस्कार है, “म् एकदन्ताय नमः” एक दांतवालेके लिये नलस्कारहै “ओम् इभवक्त्राय नमः
हाथाके मृखवालेके किए नमस्कार है, “भम् मूषकवाहनायनमः' मूसक वाहन रखनेवाकेके लिए नमस्कार
है विनायकाय नमः” विनायक के लिए नमस्कार है, “ओम् ईापुत्रायनमः'' ईहाके पुत्रके लिए नमस्कार हैः
“जोम् सवसिद्धिप्रदायनमः'' स्व॑सिद्धियोको देनेवाखेके लिए नमस्कार है । इन नामोसे दूब सि प्रयत्नके साथ
` पुननकरना चाहिए । फिर “चन्द्रादित्यौ ' इससे पहं
हिन्दीटीकासदहित
पारस्परिक फूट पडजाय, या अपनेभे लोगोका प्रेम नरह तो उस समय क्या करना चाहिये जिससे यह् सब `
. रातह ।\ ३ ।। विध्ारम्भ, वाणिज्य, खेती, दूसरे राज्ययर राजाके आक्रमणके समय जय तथा सिद्धि किंस
उपायको करनेसे होती है 1। ४ ॥। क्तिस देवताकौ आराधनाकी जाय ? निससे कार्यसिद्ध हो, हमारे लि इन `
` सब प्रहनोका अच्छी तरह उत्तर दें ।\ ५।। सुतजी बके कि, है विप्रो ! जब कौरव तथा पाण्डवोकौ सेना परस्पर `
यद्धे किए तैयार खडी हो रही थी उस समय कुम्तीनन्दन राजा युधिष्ठिर देवकीनन्दन भगवान्से पुने लगे `
कि, है देवकीनंदन ! निर्विघ्न जयप्राप्त करनेका उपाय मेरे लिये बताये, किस देवताकी आराधनाकी जाय
जिसे जयपुर्वक राज्य मिले उस देवताकी आराधनाक्रा उपदेश मृश्च करिए ।। ७ ।। कृष्ण बोले कि, हे राजन् ! `
पार्व॑तीजीके मेलसे जिन्होंने अवतार लिया है एसे गणपतिदेवका पूजन करो, क्योकि, उनका पजन करनेसे
` आप राज्यको पाजायेगे इसमे कोई सन्देह नहीं है \। ८ ।। युधिष्ठिर बोलकर, है देवदेव ! किस विधिके अनुसार
गणपतिका युजन करना चाहिये मौर किस तिथिमं पूजनेसे सिद्धियां देते है आप कहौ ।\ ९ ॥। श्रीकृष्णचन्द्र `
बोरे कि, है राजन् ! भद्रपद शुक्ला चतुर्थो या भ्रावण अथवा मागेशीषं महीनेकौ शुक्लयक्षकी चतुर्थकि दिन `
भणपतिका पुजन करिये ।। १० ।\ यदि अन्य महीनोमं गणयति पूजनके लिये प्रेम ज्यादा हो तो उस महीनेकी `
श क्लाचौथमं ही गणपतिका पूजन करलेना चाहिये \। ११ ॥\ हे राजन् प्रातःकाख सफेद तिलोमे स्नान करके `
मध्याह्लमे गणेशजौकः पुजन करना चाहिये । एक निष्क या आधे निष्क अथवा इससे आपेही तोलेको सुवर्णको `
` ॥\१२। या चान्दीको गणपति मूति अपनी सम्पतिके अनुरूपबनवाले, यदि सर्वेथा संकोच हो तो मृत्तिकाकी . `
. | ही गणपति सूति बनवाखेनी चाहिये पर सम्पत्ति रहते कृपणता न करनी चाहिये । १२ ॥। एकदन्त, छाजके `
सदश्च कानवाले, हस्तीके समान मस्तकवाठे, चतुरभुन पाला ओर अंकुशको धारण करनेवारे सिद्धिविनायक
भगवानृका ध्यान करना चाहिये ।\ १४।। पीछे ओम् सिद्धि विनायकाय नमः इन मन््रोसे पञ्चामृतके दुग्ध `
आदि पदार्थोसि पथक् तथा संमिलितोसे स्नान करावे ओस् गणाध्यक्षाय नमः' इस सन्त्रसे भक्तिपुवक गन्धदान ` ¢ ^!
करना चाहिये ।! १५ ।\ ओर स्नानसे आवश्यकौय काम् आवाहन, आसन, पाद्या्ध्यादिभी आ गणाध्यक्षाय `
४ नमः' इसी नाममन्त्रसे करने चाहिये स्नानकरानेकफे पीछे वस्त्रपहरानाजादिक भी गणाध्यक्षाय नमः" इसी
ओर विध्नविनारिने नमः" इससे नैवे च ८
फिर कुछ सुवर्णकौ दक्षिणा तथा ताम्बूल `
समपित करके इक्कीस दबके अंकुर केकर ।! १८ ।। उनकी प्रयत्नके साथ पृथक् पृथक् नीचे लिखि हृएनाम
मंत्रोसे पुजन करे । हे गणाधिप तेरे लिये नमस्कार है, हे उमासुत ! तेरे लिये नमस्कार दै, है.अघनारान तेरे `
छे नमस्कार है 1। १९।। है विनायक ! तेरे लिये नमस्कार है, हे ईकुत्र ! तरे लिये नमस्कार है, हे स्व,
नमस्कार है, हे एकदन्त ! तेरे ले नमस्कार है, हे इभवकवर तेरे लिये नमस्कार है, =
तेरे लिये नमस्कार है 11 २० ॥। तुक कुमारके गुरुके चये नमस्कार है । इसी प्रकार ष ६
प
सर्वथा सत्य है \\ २९ ।\ जब त्रिपुरासुरको मारनेके लिये नरिशूखधारौ महादेवजीने, वुत्रासुरके विनष्ट करनेके
चयि इन्द्रने पजाकी 11 ३० \\ अपने पति गौतममूनिकी प्राप्तिके लिये अहल्याने नक्की प्राप्तिके चयि दम-
थन्तीने ।\ ३१! सीताजीकी पुन : प्राप्तिके लिये रधुनाथजीने, सीताजीके द्ंनोके लिये हनुमानजीने \\ ३२॥ `
` गद्धमजीको कानेके लिये भगीरथने, समुद्रसे अमृत निकालनेके लिये देवता तथा देत्योने भी पहिले गणपतिकीही
` आराधना की थी ओर अपने अपने चिकीषित कार्योमं सफलताके भागी हुये थे \। ३३ \! ओर गख्डने जब -
देहराजके हाथसे अमतकल्शको छीनकेलानेके चवे स्वगकी र धावा किया था तब उसने मौ गणाध्यक्षकौ `
ही अर्चना कौ थौ, गणपतिजीकी ही कृपासे वहां जाकर बलपुवेक कलहा छीन लिया ।\ ३४ । मेने भी रुकिमिणी- =.
हरण करनेकी इच्छासे भगवान् गणेरजीकी ही आराधनाकी थी उनकेही प्रसादसे मेँ रविमणीको पा गया
॥३५।} जब सम्बर दानव रविमणीके पुत्र प्रदयम्नको प्रसूतिकागृहसे केगया तब जौर रुकविमिणीने गणेहजीकी `
| पुजाकीउसीके प्रतापसे हमको प्रद्युम्न फिर प्राप्त होगया ।। ३६ ।। जब साम्बके कुष्ठ होगया था उस समय ` । ।
उसने अपने कष्ठरोगकी निवृत्तिके लिये गणपतिकौ आराधना की थी जिससे उसे निरोगता प्रप्त हो गयी ।! ।
इसलिये ह राजन् ! तुम भौ यदि अपनौ जय चाहते हौ तो शंकरनन्दन गणराजकी शीघ्र आराधना करो ३७! `
ं (१ । ५ ` पतिकी कामनावारी कन्या पतिका, सुवासिनी सौभाग्यसम्पत्तिका राभ लेते हँ । वैषव्यदुःखसे पीडित हरं
1 स्त्री, यदि गणेडाजीकी पुना करे तो फिर वह् जन्मजन्मान्तरमे कभी भौ वैधव्य दुःखको नहीं देखत ।! ३९ ॥
ब्रतका अनुष्ठान कहा उक्त महाराजने भी भाइयोके
छ्त्रभोको मार बलसे राज्य प्राप्तं कर लिया
मा
(त
1
सनत्कुमार योगीन्द्र यदीच्छेच्छभमात्मनः ।! नारी वा पुरुषो वापि यः कुर्याष्विधि- `
वदुत्रतम् ।\२।। मोचयत्याशचु विप्रे संकष्टादब्तिनं हि तत् ।। अपवादहरं चैव सवे- `
घ्नप्रणाशनम् ।। ३ ।। कान्तारे विषमे वापि रणे राजकुलेऽथवा ।। सर्वसिद्धिकरं
द व्रतानास्त्तमं व्रतम् ।\ ४ ।। गजाननग्रियं चाथ त्रिषु लोकेषु विश्रतम् ।\! अतो
वि
न विद्यते ब्रह्मन् सवेसंकष्टनाशनम् ।! ५ ।। सनत्कुमार उवाच ।। केन चादौ
पुरा चीणं मत्यलोकं कथं गतम् ।! एतत्समस्तं विस्ताये ब्रूहि गाणेहवरं ब्रतम् ।\ ६ \)
नन्विकेदवरउवाच ।\ चक्रे केतं जगस्वाथो वासुदेवः प्रतापवान् ।। आदिष्टं नारदेनव
वुथालाञ्छनमुक्तयें \\! ७ ।। सनत्कुमार उवाच ।। षड्गुणश्वयसंपन्चः सृष्टिसंहार
कारकः ।! वासुदेवो जगद्यापी प्राप्तबाल्लाञ्छनं कथम् ।। ८ ।। एतदादचयमास्यानं
ब्रहि त्वं नन्दिकेश्वर ।। चन्दिकंदवर उवाच ।। भूमिभारनिवच्यथं वसुदेवसुता- `
वुभौ ।\९।। रामकृष्णौ समुत्पन्नौ पदनाभफणीहवरौ । जरासन्धभयल्छृष्णो दारकं `
हाटकनिमिताम् ।
मनोज्ञानि तेषां मध्यं
गृहास्तत्र षट्पंचाशच्च कोटयः ।! अन्येऽपि बहवो लोका वसन्ति वि
२ ।। यत्किचि्चिषु लोकेषु सुन्दरं तत्र दृयते ।। सत्राजितप्रसेनास्यो
जतोजातभयं मो याचयिष्दति सा हरिः ।। प्रसेनाय ददौ भ्रात्रे धार्योऽयं शुचिना
त्वया ॥। २८ ।। एकदा कण्ठदेशेऽसौ क्षिप्त्वा तं मणिमुचतमम् ।! मृगयाक्रीडना्थयि `
ययौ कृष्णेन संयतः ।! २९ ।! अह्वारूटीऽलुचिष्वासौ हतः †सिहेन तत्क्षणात् ॥
रत्नमादाय सिंहोऽपि गच्छन् जाम्ववता हतः ।\ ३० ।) नीत्वा स विवरे रत्तं ददौ
पुत्राय जाम्बवान् ।। पुरीं विवेच कृष्णोपि स्वकैः सवे समावृतः ।\ २१ ॥। प्रसेनोऽ-
चापि नायाति हतः कृष्णेन निङ्चितम् ।। मणिलोभेन हा कष्टं बान्धवः पापिना `
हतः । ३२ ।। द्वारकावासिनः सर्वे जना ऊचुः परस्परम् ।} वृधापवादसंतप्तः
कृष्णोऽपि निरगाच्छनैः । ३३ ।। सहैव तेभ॑तोऽरण्यं दृष्ट्वा सिंहेन पातितम् ॥!
प्रसेनं वाहनयुतं तत्पदानुचरः शनः ।\ ३४ \\ ऋक्षेण निहतं दृष्ट्वा कुष्णश्चक्षेबिलं
1 निवारयन् ददाम
दृष्टमानसाः ।\ सत्नालितेन ते वेरं चक्र रत्नाभिलाषिणः ।! ५२ ।। दुरात्मा शत-
धन्वापि गते कृष्णे च कुत्रचित् ।\ र्ाजितं निहत्याशु माण जग्राह पापधी
५३।। कृष्णस्य पुरतः सत्था समाचष्टे विचेष्टितम् ।} अन्तहु ष्टो बहिःकोपी
कृष्णः कपटनायकः ।। ५४ }\ बलदेवपुरो वाक्यमुवाच धरणीधरः ।) हत्वा सत्ना-
जितं इष्टो मणिमादाय गच्छति ।! ५५ ।! निहत्य शतधन्वानं गृह्णीमो रत्न-
मावयोः ।! मम भोग्यं च तद्रत्नं भविष्यति सुनिर्चितम् ।) ५६ ।! एतच्च त्वा
५ ' भयत्रस्तः लतधन्वापि यादवः ।। आहूयाक्ररनामानं माणिक्यं प्रददौ च सः ।। ५७ ।
आरुह्य वडवां वेगाल्चिगेतो दक्षिणां दिक्ञम् ।। रथस्थावनुगच्छेतां तदा रानजना-
।॥ ५८ ।\ शतयोजनमात्रेण ममार बडवा तदा ।! पलायमानो निहतः पदा-
तिस्तु पदातिना \\५९।। रथस्थे बलदेवे तु हरिणा रत्नलोभतः।। न दृष्टं तत्र तद्रत्नं
काशीगत्वा सुखेना
सौ यजन्यज्ञपति प्रभम् ।\ ६६ ।\ तोषमृत्पादयामास तेन द्रव्येण
न
क
य
उवाच ।! गणानामाधिपत्ये च सं्रेण विहितः पुरा ।। ७७ ।। अणिमा महिमा चैव
` लधिमा गरिमा तथा \। प्राप्तिः प्राकाम्यमीशित्वं वशित्वं चाष्टसिद्धयः ।\ ७८ ॥।
देवेश स॒ष्टिसंहारकारक ।।! ८० । यः पूजयेक्गणाध्यक्षं मोदकाः प्रयत्नतः \\
तस्य प्रजायते सिदधिनिविष्नेन न संशयः ।! ८१ ।। असंपुज्य गणाध्यक्षं ये वाञ्छन्ति
सुरासुराः ।। न तेषां जायते सिद्धिः कल्यकोटिश्ञतरपि ।\ ८२ ।\ त्व द्ूकत्य
गणाध्यक्ष विष्णुः पालयते सदा ।! रुद्रोऽपि संहरत्याशु त्वडुक्त्थव करोम्यहम्
।। ८३ ॥ इत्थं संस्तूयमानोऽसौ देवदेवो गजाननः । उवाच परमप्रीतो बरह्माणं
। ॥॥ ९० 1\ हाहाकारो महाञ्जातः श्रुत्वा शापं च भीषणम् ।। अत्यन्तं म्लानवदन-
` इचनद्रो जलमथाविश्चत् ।।
रीनमानसाः ।\ ९२ \ तुरासाहं प
गणेशस्य च चेष्टितम्।। ९३।
मानं गणनायकं च तुष्टाव दष्ट्वा तु कलानिधानः ।। त्वं कारणं कारणकारणानां
वेत्तासि वेद्यं च विभो प्रसीद ।। २ \1 प्रसौद देवेश जगल्लिवास गणेश लम्बोदर
वक्रतुण्ड ।। विरिञ्चिनारायणपूज्यमान क्षमस्व मे गवेकृतं च हास्यम् ।\ ४ ॥
ये त्वामसंपुज्य गणेश नूनं वाच्छन्ति मूढाः स्वकृताथेसिद्धिम् ।। ते देवनष्टा निभृतं
च लोके ज्ञातो मया ते सकलः प्रभावः \। ५ ।\ ये चाप्युदासीनतरास्तु पापास्ते
यान्ति वासं नरके सदेव \! हेरम्ब ऊम्बोदर मे क्षमस्व दुश्चेष्टितं तत्करुणासम्
॥६।। एवं संस्तयमानोऽयो चन्द्रणाह गजाननः ।। तुष्टोऽहं तव दास्यामि वरं
ब्रूहि निश्ञाकर ।\ ८ ।\ चन्द्र उवाच ।। लोकानां दशेनीयोऽहं भवामि पुनरेव हि \\
क्ापोञ्धं भविष्या ८ \। गणेश उवाच ।। वरमन्यं
व
4 व्रतराजं
ुतरपौत्रान् प्रदेहि मे ।। गएदच धान्यं च वासांसि दचात्सवं स्वशक्ति: ।। २७॥।
दत्व तु ब्राह्मणे स्वं स्वयं भुञ्जीत वाग्यतः.|। मोदकापुपमधुरं क्वणश्नारर्वाज-
तम् ।। २८ ।! एवं करोति यश्चन्द्र तस्याहं सवदा जयम् ।¦ सिद्ध च धनधान्ये च
दादामि विपुलां प्रजाम् ।। २९ ।। इत्युक्त्वान्तदंधे देवो विघ्नराजो विनायकः ।\
तद्व्रतं कुर कुष्ण त्वं ततः सिद्धिमवाप्स्यसि ।\ १३० ।। नारदनवमुक्तस्तु ब्रेतं चक्रे
हरिः स्वयम् ।। भिश्यापवादं निमृज्य ततः कृष्णोऽभवच्छुचिः ।। २१ ।। ये श्युण्वन्ति
तवास्यानं स्यमन्तकसणीयकम् ।\ चन्द्रस्य चरितं सवं तेषां दोषो न जायते \\ ३२॥
भाद्रशुक्ल्चतुर्थ्यां तु कवचिच्चन्द्रस्य दशेनम् ।। जातं तत्परिहाराथं श्रोतव्यं सवमेव
हि।। ३३।। यडा यदा मनःकष्टं संदेह उपजायते ।। तदा तदा च श्रोतव्यमाख्यानं
` कण्टनाङनम् \! एवमुक्त्वा गतो देवो गणेशः कृष्णतोषितः ।! ३४ ।। यदा यदा
परयति कार्यमुत्थितं नारी नरश्वाथ करोति तद्ब्रतम् \। सिद्धयन्ति कार्याणि मने-
प्रसिद्ध पुत्र सत्राजित भौर प्रसेन भौ इस दारकापुरीमं निवास करते थे ॥! १४ ।१ इनमें बुद्धिमान् खघ्राजित
सु नारायण भगवान्का परमभक्त था । इस विये यह समुद्रके किनारेषर सुमे ही अपने मनको लगा \\! १५॥।
घोर निरशन ब्रतरूप तपको सूर्यम दृष्टि बांधकर करने लगा सुथेनारायणडसके तपसे प्रस होकर समीप आ
` उपस्थित हुये \\ १६ ॥! सव्राजितभी भगवान् सुयंकी स्तुति करने र्गा कि, है तेजके पुञ्जरूप देघदेव !
आपको प्रणाम है, है देव ! आप सब जर सम्मुखसे हौ सदा प्रतीत होते हो, एेसे जपके लिये प्रणाम है ¦! १७)
आप समस्त विहवमे व्याप्त हो, आपके विये प्रणामं है, समस्त जगत् आपका स्वरूप है अतः ठेस विषवशूपके
लि प्रणाम है, हे क्यप नन्दन ! है हरिद्दद ! (ह्रे रंगके अरव हैँ निसके) एसे जापके लिये प्रणाम है
1 १८ ॥} हे ग्रहके अधिराज ! आपके लिये प्रणाम है आपका तेज बहुत प्रचण्ड है, अतः आपके लिये प्रणाम
` हैओरहे प्रभो ! ऋग् यजुः एवं साम ये तीनों बेद ओर समस्त देवता आपके स्वरूपे हू अतः आपके लिये
` प्रणामहै।\। १९1) हे देवे { है दिवाकर | आय मुद्धपर प्रसच्च हो ओर वात्सल्य पूणं दृष्टिसे मेरी रक्षा करे \,
नस्दिकेहवरजी सनत्करुमारसे कहते हँ कि, है सनत्कुधार ! एसे जब सत्राजितने स्तुति कौ तन सूर्यनारायण
प्रसन्न हो । २० \\ स्तेहसे पूर्णं गम्भीर मधुर ध्धनिसे सत्राणितको प्रसन्न करते हुए बोरे कि, हे महाभाग
` सत्राजित ! तुम्हारे प्रेमे मे प्रसन्न हु, अतः तुम्हारे मनम जिस पदा्थकी इच्छा हौ उसीको मांगो, मे तुम्हारे
लिये यथेष्ट वर दूंगा \। २१ ।। सत्राजित बोला कि, है भस्करदेव { यदि अप मुञ्षपर सन्तुष्ट हुये हे तो आप
मृशते स्यमन्तक सणि दे दें ।\ २२ ।। सूयं देवने अपने कंठसे रत्वको उतार कर सत्राजितको दे दिया ओर बोले
कि है सत्राजित ! यह महामणि प्रतिदिन आठभार वर्णको उगलती है \। २३ ।\ पर इसको पवित्र होकर ही
अपने कण्ठमें धारण करना, क्योकि हे सत्राजितं ! अपवित्र अवस्थामें धारण करनेसे यह मणि धारण करने
वालको क्षणभरमें ही भार देती है । एेसा कहकर तेजोराशि सूर्यदेव अन्तहित हो गये \\ २४ \} सत्राजित उस
स्यमन्तकमणिको अपने कण्ठमें धारण कर चमकता हु कृष्ण भगवान्की द्वारिकापुरीमं शीघ्र ही प्रविष्ट
हृभा, उस समयमे स्यमन्तकमणिसे सूयक तरह चमकत हुए सत्रानितको देखते ही द्वारकानिवासी समस्त
` जनोकी आंखे बन्द होगयीं ओर उसे मनम सूयनारायण-समस्च \! २५! सबने भगवान् शरीङ्ष्णचन्रके समौप
दौडकर निवेदन किया कि, हे भगवन् जनार्दन ! आपके दशन करनेको साक्षात् सूयदेव आरहा है । श्रीकृष्णचन्
फिर जब वह् प्रसेन घोडेपरं चढकर
सिको मामे ही मारकर उससे वह मणि त ग
व्रतराज
सिहके पादचिन्हयंकी खोजं करते हए कुछ आगे गये तो वह सिह भी मरा हुजा मिला भौर खोज करनेसे ज्ञात
हआ कि †सिहको मारनेवाला कोई भयंकर ऋक्च है, अतः उस ऋश्चराजकी खीज करते २ कुछ दूर गये तो एक
अत्यन्त भयानक गृहा देखी, इसमें बहुत गाढा अन्धकार था ओर बह गुहा चारसौ कोश्च लंबी थी । अपने अनू- `
यायी अन्यलोगोको बाहरही ठहराकर अपने तेजसे गृहाके अन्धकारको दूर करतेहुए उसके भीतर घुस गये, `
एग बहुत सुदृढ महलमे परमतेजस्वी जाम्बवान्के श्ूलनेपर शूलते हुए कुमारको एवम् उसके कषूलमें अपरिमित
कान्तिवाी ।! २५ ।। ३६ ।। उस्र मणिको भी भगवान् कृष्णने ल्टकते हुए देखा तथा वहीं रूप ओर यौवनसे
संपन्न जाम्बवती नामकी लडकीको भी देखा 1 ३७ ।! जो डोरेको हिला रही थी उस सुन्दरी हसनेवाली
सुन्दरीको देखकर कमलनयन कष्णजीको भी बडा विस्मय हुञा । वो स्रूलाको हिलाती हुई इसं गीतको गा
रही थी ।! ३८ ।। कि सिहुको प्रसेनने मारा, उस सिहको जाम्बवन्तने मारदिया, ए सुकुमारक ! तु रो क्यों
रहा हे ? यह् स्यमन्तकमणितेरा हीह ।। ३९।। जाम्बवती कमलेक्षणं ष्णचन्द्रको देखके कामज्वरसे
पीडित हयी प्ेमपर्यक बोली कि, हे सुन्दर ! आप यहांसे जाओ ।\ ४० ।1 इस रत्नको रेकर क्ञट यहांसे भागो.
जबतक किं मेरा पिता जाम्बवान् शयन कर रहा है, (तबतकही तुम्हारा यहां जीवन रह् सकता है. पश्च्चात् `
नही रहेगा । ओर मं इस तुम्हारे कोमलसुन्दर शरीरको देखके मदनात्तं हो रही हु. पर क्या करू यह बहुत
भयंकर परक्रम हे मे यही चाहती हूं कि, तुम्हारेको इस मणिकौ यदि इच्छाहै तो इसे केकर जैसे अये हौ
वेसेही प्राण बचानेके लिये भागो, ठरो मत) जाम्बवतीके एसे कचन सुनकर अकुतोभय प्रतापी ष्ण भग-
मणिको केले, फिर बह मणि मेरे उपभोगमं रहेगी इसमें आप सन्देह न समन्ने 1 ५६ ।। जव श्रीङष्णचन््रने `
. अपनासंकल्प प्रकट किया, तो शतधन्वा भयसे संत्रस्त होकर अक्र रको अयने पास बुला, स्यमन्तकमणि उसे
देदी।। ५७ 1\ जौर जाप घोडीपर चठकर दक्षिण दिशाको जोर जोरसे भागा, बरूदेषजौ तथा भ्रकृष्णये
। दोनों भाई स्थे बैठकर शतधन्वाके पीछे दोडे ।\ ५८ ।! (वह् घोडी चारसौ कोशा ही जासकती थी, विशेष
। दौडनेकी उस घोडीमे साम्यं नहीं थौ) उस घोडीने चारसौ कोरतक दोडकी, फिर अपने प्राण छोड व्यिः
। धोडीके मरनेपर शतधन्वा अपने प्राणोकी रक्षके लिये पदाति होकर दौडा तो भगवान् श्रीङृष्णने भी पदाति `
` होकर उसके श्िरको (सुदोनचक्रसे ) काट दिया ।। ५९ ।1 बलदेवजी उस सभय रथमेही बैठे रहै थे, पर
. श्रीकृष्णचन्द्रजीने रत्नके लोभसे ये सब काम किये थे, शतधन्वके पासमं खोज करनेयर भो सणि न भिलीतो
` - बल्देवजीसे बोठे ।! ६० \! कि, मैने मणिकी खोज की पर नहीं मिली \ बल्देवजी इन वचनोंको सुनकर अत्यन्त
नाराज होकर कहने खगे कि, हे कृष्ण ! तुम सचमुच सदासे ही कपटी, लोभी एवं पापकम्मेकारी हौ ।\ ६१ \।
घनके लिये अपने बान्धवको भी मारनेसे पराङ्मुख नहीं होते, इसी ल्व एसा कौन बुद्धिमान् बान्धव हौगा जो ` |
आपके विवाससे सुखी रखना चाहे ओर तुम्हारा आश्नय र ? भगवान् श्रीकृष्णचन््रने अयने इस लांछनारोपको `
भुनकर बल्देवजीको अनेक शपथे खाकर प्रसन्न किया ।\ ६२ ।। बर्देवजौ-हाय कंसी दुःखकौ वार्ता है किः
` बान्धवभौ धनके लोभसे अपने बान्धवकौ हत्या करनेसे पराङ्मुख नहीं होता संसार बेडा बुरा है, इस प्रकार
` कहकर विद्भराडकौ राजधानी मिथिलाम चले गये ओर श्रीकृष्णचन्द्र अपने रथम जैठकर दारकाकीौ चकते
आये ।\ ६३ । द्वारकानिवासी लोगोने एकाकी श्रौकृष्णचनद्रको वापिस आये हुए देखकर निन्दा करना
आरम्भ किया कि, यह् कृष्ण भला मनुष्य नहीं है, इसने रत्नके लिये अपने बली बडे भार्दकोभी द्वारकसि निकाल
दिया ।\ ६४ ।\ जगन्नाथ श्रीकृष्णचन्द्र द्वारका निवासियोकी दोषारोपोकितिको सुन, घोर, पापिष्ठके समान = `
बा बराह्मणोको त 7 संतुष्ट किया ।\! ६७ \। सूर्यकी स्यमन्तकमणिको पवित्र होकर धारण करनेवाला जहां निवासं
करता है बहां भिक्ष, रोग, अतिवृष्टि, अनावृदिट, खेतोमे मूसोका ल्यना, टौडियोकरा उपद्रव, पक्षियोसे `
हानि, राजाओंका द्वेष महामारी तथा सपे आदिके उत्पात नहीं होते 1! ६८ ।। यद्यपि भगवान् सब जानतेथे
जनोकी तरह लोकाचार, माया ओर अज्ञानका आश्रयसा केकर बोले कि ।! ६९ ॥ भाइयों
लांछन म् कषे भिर गया है इसमे सबकी सब श्रूटी बाते हं मं कंसे सहं \\ ७० ।} भगवान् ्् 1
क
सुष्टिसंहारकारक ! आपके लिये प्रणास है ।\ ८० \\ जौ मोदकादिकोसे प्रयत्नके साथ. गणपतिका पूजन
करता है उसे निषिघ्न सिद्धि होती है इसमे सन्देह नहीं है ।\ ८१ । सुरद बा असुर हौ गणेश्नजीका विना
पुजन किए सिद्धि चाहते हैँ बो सौ कोटि कल्पसे भौ नहीं पा सकते ।॥ ८२ \\ है गणाच्यक्ष ! आपकी भक्तिके
ही प्रताप से विष्ण् सदा षृष्टिका पालन करते हः शिव संहार. करते है, म भी आपकी भक्तिसे बलपाकर
सुष्टिकी रचना करता हं \\ ८३ ।! इस प्रकारं ब्रह्माजी स्तुति करनेयर देव २ गजानन परम प्रसन्न होकर
` जगत्पति प्रजापतिसे बोरे ।! ८४ ।। है ब्रह्मन् ! जो तुम्हारे सनमं कामना हौ वही मांगो, सं दुगा । ब्रह्माजी
बोले कि-हे प्रभो ! त्रिलोकीकौ रचना करनेमं किसी भी प्रकारका विघ्न न हौ, मं यही वर मागता हुं ।। ८५1}
गणपतिजीमे कहा कि, अच्छा एेसाही ही, तुम जो त्रिखोककी रचना करते हौ उसमं किसीभौ प्रकारका
, विघ्न न उपस्थित होगा । फिर अपने हाथमे लडड् खेकर शनेः हानेः सत्यल्ेकसे नीचेकी जोर आकाश्मागंसे
अने लगे ।\ ८६ \\ चलते चलते चन्दरमाके भुवनमें पधारे, चन्द्रमाने उनका लम्बा पेट देखकर उनसे अपनी
सुन्दरताको उत्तममान उनकी दिल्लगी कौ ।! ८७ ।।! गणपति चमाकी ओर देख कोपसे अरण नेत्र करके
श्याष देनेलमे कि, रे गर्व चन्द्र ! तुके यह अभिमानं है कि, सं देखमेके योग्य सुरूप हूं ।। ८८ \} अस्तु अब तुद्े
गर्वकरनेका फल जल्दी भिकेगा, आज (भादवा सुदि चतुर्थी) के दिन तुञ्च पापात्माको कोई भौ लोग नहीं
देखेंगे ।।! ८९ ।\ ओौर यदि कोई मनुष्य प्रमादवड तेरा देन करभी लगे बे सभी सूठे कलंकके जरूर ही भागी
. ` -बनेभे 11 ९० 1) जब गणपतिजीके भयंकर शापको सुनकर सब लोकोमं महान् हाहाकार मच गया, चन्द्रमाभी
` अत्यन्त मलीन मुख करके लज्जाका मारा जक्के भौतर चला गया ।\ ९१ 1! ओर जलके भीतरभी कुमुदमे
अपना वासकरने लगा, तब सब देवता, ऋषि ओर गन्धव निराज्ञ एवम् दीनमना होगएु ।। ९२ ।। पीछे इन््रको
, अग्रणी करके ब्रह्माजीके पास गये, वहां जाकर उन्होने ब्रह्माजीको गणेशजी ओर चन्द्रमाका सब वत्तान्त
सानुनय कहुसुनाया \\ ९३ \! कि महाराज गणेश्षजीने यह शाप चनद्रमाको दिया है, फिर भगवान् ब्रह्माजी
सोच विचारकर देवताओंसे कहने लगे कि ।} ९४ ।\ हे देवराज ! तुम गणेशजीके प्रभावको जानते ही हो
गणेशजीके दिए शापको कैन अन्यथा कर सकता है ? न महादेवजीमें न मेरे (ब्रह्मा) में ओर न विष्णुमेही
श्वाभाविक महच्वकी ओर दृष्टि देकर म॑ने जो अपने सौन्दयेके गव॑से आपका हास्य किया था उस अपराधको
क्षमाकरिए् ।! ४ ।। मेने जान लिया है कि, जो मनुष्य आपको महिमा को न जानते हए आपकी पजान कर
अतः आप हास्यकरनेके अपराध को क्षमा करो ।! १०६ ।! जव चंद्रमा एसे अपने अपराघकी इसप्रकार
क्षमा मांगी; तब गणपतिजी बोले कि, हे निसाकर ¡ म॑ तुम्हारे पर प्रसन्न हु, तुमको जो वर चाहिये सो मासो
मेँ दगा ।! १०७ ।। चनद्रसाने पिर प्राथेना कौ कि, है गणाधिराज ! आपके अनुग्रहुसे मे पहिलेके साफिक
ददीनीय ओर आपके श्ञापसे निमुक्त होजाऊॐ, यही बर मागता हूं ।। १०९ ।। गणेशजीने कहा है
गणेशजीने फिर कहा कि, जो लोग भाद्रपद शुक्लाचतुरथोकि दिन ही चन्द्रमाका दर्शेन करेगे तो ये | वर्वपरनत
५ ह अवक भागी होंगे \। १११ ।। किन्तु जो शुक्लपक्षकी पहिलीतिथिमे यानौ भ्रुक्ला द्वितीयके
प्रकार गणेशका पुजन करके विधि पूर्वक कथा सुने, तत्पश्चात् इस मंत्रसे मेरी मूतिको ब्राह्मणके ल्यि दे
दे १२५1) कि, हे देवकि देव ! हे गणेश्वर ! आप इस दानसे प्रसर हं । है देव ! मेरे सभौ कायं सदा सव
जगह निघ्न पुणं हों, मेरा सर्वत्र आवर हय, मुने राज्यसम्पत्ति भिक, मेरे पुत्र पौत्नन सम्पत्ति बडे \ एेसा आप ५
मृञ्चपर अनुग्रह करे । त्रत करनेवाला अपनी धनसस्पत्तिके अनुसार गो, धान्य ओर वस्त्रोकोभी ब्राह्यणोके
.लिये दे ॥ १२७ ॥। ब्राह्यणके दान देनेके बाद मौनी होकर मधुर सोदक ओौर परडोका भोजन करे, पर लवण
एवं क्षारके पदार्थोका भोजन न करे ।! १२८ 11 है चन्द्र ! जो मनुष्य इस प्रकारं ब्रत करते ह, उनकी सदा
जय होती है । मे उसके लियं अणिमा आदिक मुख्य तथा आकाश गमनादिक गोण अथवा काय्यं सिद्धि एवं
धन धान्यकौ सस्पत्तिप्रदान करता हूं \ सन्तानसुखको बढाता हूं \! १२९ ।1 इस प्रकार पूजनविधि ओर उसका
माहात्म्य बताकर भगवान् गणपणिजी अरन्तहित होगये । हे श्रीकृष्ण ! आप भी मिथ्या अपवादको शान्तिके
लिये गणपति ब्रतको करो, इससे वुम्हारौभी सिद्धि होगी \\ १३० ॥ नारदजोने त्रत करनेके लिये कहा तथा
भक्तोके पाप दुलोको हरनेवाले स्वयम् कृष्णचन्द्रजीने भी इस गणपतित्रतको किया वे इस व्रतके प्रभवसे ही
मिथ्यापवादको धोकर शद्ध हो गये ।\ ३१ ।। जो लोग तुम्हारे उस स्यमन्तकमंणिवारे आख्यानको सुनेगे उन
लोगोकेभी भाद्रगक्ला चतु्थौमें चन््रदेन जन्यदोष स्पहं नहीं करेगा ।। १३२ ।। हे श्रीकृष्ण ! तुमने किसी
समयमे भाद्रश॒क्ला चतुर्थीको चन्दरदेन किया था । इसीसे तुम्हारे यह दोष लगा है \ एेसेही जिनके भद्रुक्ला
` चलु्थोके दिन चन्द्रदहोन करनेसे मिथ्या अपवाद लगे, बेभी उस दोषकी शान्तिके लिये इस समस्त चरितको सूनं
क्रतं चरेत् ।। सवसिद्धकरं नृणां सुखं चैत्र सुरेववर ॥ तद्विधिः-ति
५)
कारक ।। भक्त्या पाद्यं मया दत्तं गृहाण गणनायक ।! एतावानस्येति पाम् ।
व्रतमुद्िश्य विघ्ने गन्धपुष्पादिसंयुतम् ।। गृहाणाध्यं मया रत्तं स्वंसिदधिम्रदायक ।\
त्रिषादुध्वे इत्यध्यम् \\ गणाधिप नमस्तेऽस्तु गोरीसुत गजानन ।! गहाणाचमनीयं
त्वं सवेसिि ण
परिपुजित ।\ स्नानं पञ्चामृतं देव गृहाण गणनायक ।! आप्यायस्वेति दुग्धम् \1
दधि क्राल्णो इति दधि ।! धुतं मिमिक्ष इति घृतम् ।। मधुवातेति मधु ।! स्वाद्
इति पंचामृतस्नानम् ॥ गङ्घाजलं समातीतं हेमाम्भोरुह-
वासितम् ।। स्नाने स्वीकुरु विष्नेश्ञ कपदिगणनायक ।। यत्पुरषेणेति स्नानम् ।।
हरिद्स्त्रह्यं देव देवाद्धवसनोपमम् ।। भक्त्या दत्तं गृहाणेश लंबोदर हरात्मज ।।
न
7
यत्युरुषमिति धूपम् ।! गृहाण संगं देव .घृतर्वातिसमन्वितस् ।\ दीपं ज्ञानप्रदं चार
शदभ्रिय नमोस्तु ते ॥ बराह्मणोस्येति दीयम् ।। नैवेयं गृह्यतां देव ०।। चन्दरमायनस
इति नेवेद्यम् \। आचमनीयम् ।! इदं फलमितिफलम् ।! पुगीफल्मिति तांबूलम् ।\
हिरण्यगर्भेति दक्षिणाम् । अग्निरज्योती रविज्योतिर्ज्योतिरग्निविभावसु
ज्योतिस्त्वं सवदेवानां गणाधिप नमोऽस्तु ते ।॥ नीराजनम् ॥। यानि कानि च०
नास्या आसिदिति प्रदक्षिणाः ।\ नमोस्त्वनन्ताय० सप्तास्यासन्निति नमस्कारः \
गणाधिप नमस्तेऽस्तु नमस्तेऽतु गजानन ।\ लबोदर नमस्तेस्तु नमस्तेस्त्वम्बिका-
सुत ।\ एकदन्तं नमस्तेस्तु नमस्तेऽस्तु भवप्रिय ।। स्कन्दाग्रज नमस्तेऽस्तु नमस्ते
\ च
अथ ब्रह्मचारिपजा-मकणान्मुष्टिगणितांस्तण्डुलान्सवराटकान् ।। विप्राय बवे `
दचाद्गन्धपुष्पाचिताय च ।\ तण्डुलान्वे ततो दद्यात्पाकं चासं च शोभनान् ।।
१४. £
थादविदानीं श्रूयते कथा ।\ १५।। पावेत्युवाच ।। किमर्थ तद्रतं नार्यो युष्माभिः `
क्रियते वने ।। फलमस्य किमस्तीति पावैती प्राह ताः प्रति ।! १६॥।। स्तरिय ऊच्ः ।'
पृच्छयते ¶कि त्वया देवि नरेर्नारीभिरम्बिके ॥ अभीष्टसिद्धिरस्मात्तु लभ्यते
भुवनत्रये ।\ १७ ।\ इति शरुत्वा वचस्तासां पावती प्राह॒ ता भुवि ।। मत्तः कुपित्वा
भगवालिगंतस्तु महंश्वरः ।। १८ ।। तस्य सन्दशेनायेव करिष्ये व्रतम॒त्तमम् ।!
त्रतस्येतस्य कि दानं विधानं कौदृञं मम ।। १९ ।। सवं विचिन्त्य मनसा कथयन्तु
सुराङ्धनाः ।। स्त्िय ऊचुः \\ कालो विधानं दानं च व्रतस्यास्य फलं तथा ।। २०
तत्सवं सावधानेन वक्ष्यामः श्यणु पावंति।।पातादिदोषरहिते सचतुर्भानुवासरे।२१।
मासे कायं व्रतं सम्यग्गणेज्ञापितमानसंः ।। तेलताम्बलभोगादीन्वजेयित्वा शिव-
प्रिये ।। २२ ।। मन्दवारे तु भुञ्जीयादेकवारं भितं यथा ॥। प्रातःकाले शुचिर्भूत्वा
स्नानकुर्याद्विधानतः ।। २३ ।। वापीक्पतडागेषु नद्यां शुक्लतिलेःसह् ।। संध्या-
दिकं यथान्यायं ववं निवेत्यं यत्नतः ।। २४।। अर्चनागारमासाद्य गोमयेनोपलिप्य
सुमह &
` तन्मध्ये गणनायकम् ।। पजयेत्स्वच्छकुसुम्हरिद्रामिधिताक्षतेः ।॥ २६ । गांगीं
गे गो गज्च न्यासं कृत्वा ततः परम् ।। मन्त्रेणानेन कुसुमेदेवमावाह्य निक्षिपेत् `
२७ ।! अथवा गणनाथस्य प्रतिसामथ पूजयत् ।। ततस्तद्गत? त चित्तः सन् ध्यानं
तस्य माहात्म्यं ज्ञातुं वाज्छितवान् स्वयम् ।\ उद्िङयागमनं विष्णोरकरोत्तद्ब्रतं
वः ।। ४४ ।। तदानीं गरुडारूढः समागत्य तमब्रवीत् \\ मदागमनिमित्त
माधव ।! विष्णुरुवाच ।। प्रयोजनं नास्ति विधे तवागमनकारणम् ।\४७।।
व्रतं किच्न्चि्धूवत्येव न संशयः \\ इन्द्रागमनमुद्िश्य-तदानीं तेन तत्कृतम् \\४८
आगत्य सहसा सोऽपि ममाज्ञापय विदवसृट् ।। विधिस्वाच । हेरम्बव्रतमाहात्म्य
्ष्टुमेवं कृतं मया ।\ ४९।। ममापि ज्ञापनीयं तदत्यु क्ते विधिनोदितम् ।\ विक्रमा
५ ४
ह-अ
व्रतं देवि सामथ्यं नास्ति मेऽधुना ।\ ६९६ ।। देव्युवाच । विकमाकंपुरे सर्व वेदयो
शास्यति तत्कर ।! कपर्दीशत्रतेनेव मन्वरत्वं प्राप्स्यसि ध्रुवम् ।। ६७ ।। दारिद्र-
॥ ध मोचनं सम्यग्भविष्यति न संशयः ।। सूत उवाच ॥! गृहं प्रतिसमागम्य गृहीत्वा
तण्डलाद्दरिजः !। ६८ ।। वेदयाद्गहीत्वा तत्सवं तदानीमकरोद्त्रतम्।।तस्मिन्चकं `
रे विप्रस्तन्मन्त्ित्वमवाप सः \। ६९ ।। आक्ञातयत्कपर्दीश ब्रतं वैश्यस्य तक्ष-
मः ।। ७३ ।! इत्यपुच्छन्मुनीन्सर्वान् दातव्येषा ममाद्खना
त्युक्त्वा ते तां तस्मे समर्पयन् ।।! ७४ 1 समं महिष्या स्वपुरीं
4
ओर ओं सहस्रशोर्षा पुरुषः" इस वैदिक मन्त्रसे आवाहन करे फि, हे विनायक ! हे पावंतीके चरीरसे उत्ते
हए मेलसे प्रगट हौनेवारू ! आपके लिये प्रणाम है, आपकी प्रीतिके लिये जो मे पुजा करता हूं उसे आप ग्रहण
करिये अलंकार' इस पौराणिक तथा भम् पुरुष एवेद ' इस वैदिकम स्त्रे आसन प्रदान करे कि,अलंकार एवं
राज { आपके लिये भक्तिसे मेने पादय प्रदान किया है जाप इपे ग्रहण करिये श्रतमुदिश््य' इत्यादिक पौराणिक
एवं त्रिपादध्वं इस वेविक मन्न्रसे हस्तप्र्षालनाथं अष्यं प्रदान करे । अथं यह है कि, है विघ्नेश्वर ! मेने ब्रतकी `
सद्गुणाके लिये गन्ध पुष्पादिसे युक्त अघ्यं प्रदान किया है, हे समस्त सिद्धियोके प्रदायक ! आप इसे ग्रहण
करिये “ गणाधिप" इस तान्त्रिक एवम् "तस्माद्विराडजायत" इस वेदिक संत्रसे अचामनीय प्रदान करे कि
` कतनिः ` हिन्दीदीकासहित (२९५)
कादि गणेडा १ आपके लिय मेने ये सुगन्धित ष्य समर्यण किय है आप इन गहण करिये फिर शं कदि = `
गणनाथाय नमः पादौ पुजयाभिः इन स॒लके के् मत्मोसे गणेशजीके चरणादि अद्खोकी अलग अलग पूजा र
करे । इन चतुर्यंन्त गणपति वाचकं पदोके आगे नमः: इस पका, द्वितीयान्त पादादि मङ्खः वाचक पदोके `
` आगे धूजयामि' इस क्रियापद्का प्रयोग है ! अये स्पष्ट है । कि कपदि गणनाथ आदिके ल्यि नमस्कारहै पाद
जान् ऊर आदिको पजता हं \ ये बारह नाम हे इनसे करमशः बारहो अंगोकी पुजा होती है । अथं जवरणपुना- `
श्ञानके ल्यि नमस्कार, अधोरके लिये नमस्कार, तत्पुरुषके लि नमस्कार, वामदेवके लिये नमस्कार, सद्यो-
जातके लिये नमस्कार इ नसे पिरे आवरणकी पुजा करनौ चाहिये । वकुण्डके लिये नमस्कार, एक दन्तकेषि° ` 1
महोदयके° ; गजामतके० बिकरटके ०, चिष्नराजकेऽ, धश वणेके०, विनायकंकेल्ि नसस्कार इनसे दूसरे ` 1
आवरणकी पुजा होती है । ब्राह्यीके ०, माहेदवरी०, कौमारी ०, वेष्णवी०, वाराही ०, इच्धाणी०, चमुण्डा° ` ~ .
ओर महालक्ष्मौके व्विये नमस्कार इससे तीसरे जआवरणकी पूजा होती है । इन््रके लिये अग्निके लिये, यमके ` `
| । ` वरण लिये, वायुके, व्यि, सोमके लिये, ईशानके लि, वरुण ओर नैतिक बीचमें अनन्तके लिये इन्र भौर ्
लके बीचमं ब्रह्माके लिये नमस्कार है, इनसे चौे जावरणकी पूजा होती है । वज्र ०, शवित०, दण्ड ०, खङ्ध०, `
पा, अश्च, गदा०, त्रिसूख०, चऋ०, ओर कमलके लिये नमस्कार, इनसे पांचमे आवरणकी पुजा होतीहै। `
दशद्धम्' इस तांनिक “भोयत्युरुषम्'' इस वैदिक मन्त्से धूप करे कि, हे पावेतीनन्दन ! चन्दन ओर अगरसे
= कौ ौराणिक ओर “ओं ब्राह्मणोऽस्य इस वेदिकमन्त्रसे दीपक प्रज्वलित 1
फिर हाथ धोवे । हे ंकरप्रिय ! आपके समीप यह माङ्गलिक सुन्दर घीसे परणं ओर बत्तीस युक्त प्रकाशस्वरूप `
सुगन्धित इस दंग गुर्गलकी धूषको ग्रहण करके घर प्रदान करो, मेरे आपको प्रणाम हे । शृहाण' इस = `
तं करके दीपककौ ओर अक्षत छोड, `
छी देती हं ।\ ४ । । मतीत एसे यनो सुनकर महादेवजौने कहा कि, हे अम्बिके ! एेसा कौन हो
आपका सर्वथा विदवास न करे, फिर में आपका विश्वास न करू यह तो कभी हो ही नहीं सक्ता \\ ५ ॥
वेषयमें विचार समन्चकर महादेवजौने अपने त्रिशूकको पणके रूपमे रखा ओर सभी देवता्ओंको हारजीतके ;
अनुसन्धानके लये साक्षिरूपसे स्थित किया ।\! ७ ।\ पावेतीजीने जूएमं बह दाव जीत च्या । एेसेही महा-
देवजौने जो जो अपने मर आदि उपकरण दावथर धरे वे भौ सब पववेतीजीने एक एक करके जीत व्ये
तताम
(२१७
वषट, ओम् गे कवचाय ह, ओम् गौं नेत्रनरथाय वौषट् जोम् गः अस्त्राय फट्, इसे अद्धन्यासं कहते ह ।
` निस मंत्रसे अंगन्यासं ओर करन्यास कहे हं ¦ इसी मंत्रसे गणेशजीका एूलोसे आवाहन करके एूलोको बिखेर
देना चाहिये ।। २७ ।\ अथवा इसके पीछे गणेशजीकी प्रतिमाका पूजनं करना चाहिये, पीछे गणेडजीमे ही
` चित्त लगाकर विधिपुवंक ध्यान करना चाहिये \। २८ ।\ एकदांतवाके; महानस्थूलडरीरवारे, लम्बे उदरः
` वाले, गजमुखके सदृश मुखवाले विष्नोके नाशक ! हैरम्बदेवको प्रणाम करता हं ।\ २९ ।\ फिर प्राथेना करे
कि, हे ईश्च { है कपदिगिणनायक ! आप यहां पधारकर इस पजनको अङ्गीकृत करिये, है कपदि गणनायक ।
आओ आओ आओ" इस प्रकार आवाहन ओर “अस्मिन्नासने सुस्थिरो भव" इस आसनपर बेव्यि इससे
आसनोपवेशनादि करे ।\ ३० ।1 हे पार्वति ! पौराणिक मन्त्रोसे पुजन करे । अथवा पुरषसुक्तके षोडशा मन्तरोसे
धोडद्ोपचार सहित पूजन करे \ या “ओम् नमः कपदिविनायकाय'' इत्यादि भन्त्रसे पूजनं करना चाहिये
1 ३१।। इसं पजनम गन्ध पुष्प एवं चावल आदि जो भी कुछ गणेशजीके भेट चढावे, वे सब अन्यत्र कहे
हए तान्तिक गन्धादिकोके मन्त्रोसे चढाने चाहिये, गणेशजीके समीपम हौ इन्द्रादि रोकपालोका पुजन करना
चाहिये यह् अथं है, है लम्बोदर ! हे पावेतीनन्दन ! है एकदन्तं ! हे मनोरथोको पुणं करने-
कपदिगणेशजीके पजनका विधान हमने
एसे ५
पा कि, हे प्रभो ! आप मुक्षे आज्ञा दे । ब्रह्याजीने कहा, गणेश्रतके माहात्म्यकी परीक्षाके लिये मेने यहं
किया था ओर कुकछभी प्रयोजन नहीं है ।। ४९ \! इन्द्रके पुखनेपर ब्रह्माजीने इन्रसे कहा फिर इने राजा
विक्रमादित्यको देखनेके लिय यही त्रत किया ।! ५० \1 विक्रमादित्य इन््रके पास गया ओर पूछा कि,मे
मनुष्य हं, आप देवताओके प्रभु ह, जप आज्ञा दं जाप मुञ्चसे क्या सहायता चाहते हं । तब इन््रनेकहा कि, `
` कपदि गणनाथका व्रत केसा प्रभावन्ारी है ।\ ५१ ।। इस बातकौ जांच करनेके लि ही किया था, जो चाहता
था वह् मिल गया, राजाने कहा कि, आप मुञ्चे उसका माहात्म्य ओर विधान बतायं ।। ५२ ।} राजा विक्र-
मादित्यने बडी उत्युकताके साथ पुछा था पौ इन्द्रसे व्रत विधान सुनकर अपनी राजधानी चला जाया 1 ५३॥ `
पराक्रसके लगे रहनेवारे.राजाने रौटकर कपदि गणयतिके ब्रतको रानियोके सामने कहा ॥ ५४ । कि
वैरि्ोको जीतूंगा, बड़ी भारी उच्नतिको पाऊंगा, यह् सुन राजमहिषी राजासे पूछने लगी किं, उस ब्रतकरा `
दान क्या है ।। ५५ ।। विक्रमादित्यने उत्तर दिया कि एक कोडी दान दी जाती है, रानौ जाके मुखसे यह
सुनकर उस व्रेतकी निन्दा करने गी ।। ५६ ॥ यही है तो आय मेरे घर इस ब्रतको न करें दुसरी किसी जगह
कर ठेना, एसे कपदि गणनाथ मेरा क्या भला कर सकते हे ।\ ५७ । है नाथ ! जिसका नाम ही कोडी होमे
त्रतको क्या करूगी ? एेसेही अनेक प्रकारके दूषण देनेके कारण शीघ्र ही कुष्ठिनी ओर व्याधिता होगरई ।। ५८॥\ `
कुष्ठ तथा अन्यान्य व्याधि्ोसे दुःखी रानीको देखकर राजाने कहा कि, आप राज्यसे निकल जायं नहीं तो
साथ कर सब कल्याण होवे ऋषियोको
समय दिव्य देह पार । इसी बीचमं पावेतीजीके
देखने निकले, रास्तेके बीचमं किसी भेष्ठ ब्राह्मणक रुदन सुनकर पार्वती ।। ६४ ।\ बोखी कि ५ हे ब्राह्मण
क्यो रोताहै?तूरोन) बो ब्राह्मण बोला कि सिवा दारिद्रके मुके कोई दुःख नहीं है 1६५)! एसा सुनकर
वायतत बोः वे कतौ हक नकौ
केवल तण्डुल लेकर चला 1! ६८ । अ सब कुछ लेकर उसते ब्रत किया वो विक्रमके नगरमे दौवानं बन `
ता
1
0. दशरथललितात्रतम् 1 1
अथाश्िविनकरष्णचतुर्थ्या दक्ञरथल्लिताव्रतम् 1। तच्च पौणिमान्तमाने कात्तिक
करिष्यामि तावत्वं सन्निधौ भव \\.आवाहनम् \।नीलकौशेयवसनां हेमाभां कमला-
सनाम् \। भक्तानां वरदां नित्यं ललितां चिन्तयाम्यहम् ।। ध्यायामि ।। कातंस्वर-
मये दिव्ये नानामणिसमन्विते ।\ अनेकरत्नसं
तिगृह्यताम् ।। पायम् ।! दक्षस्य इहितः साध्वि रोहिणीनाम विश्रुते ॥ पुत्र-
पत्तिकायाथ गृहाणाघ्य नमोऽस्तु ते ।। अध्यंम् ।। पाटलोज्ीरकपुरसुरभि स्वादु
भे श त्या नित्यमाराधिता मया ।। पुत्रकामनया देवी सर्वान्
कुर्वाणा गच्छ त्वं निजमन्दिरम् ।। विसर्जनम् ॥। सुत उवाच ।। अरण्ये
पाण्डवा दुःखकलिताः ।। कृष्णं दृष्ट्वा महात्मानं प्रणिपत्य यथा
नु
वि ५
१८...
न
नारी नसे बा राजेनद्र व्रतमेतत्करोति वै ।यं यं चिन्तयते कामं व्रतस्यास्य प्रभावत-
त्रं पौत्रं धनं धान्यं जभते नात्र संशयः ।! २१।। इति भविष्योत्तरपुराणे दशरथ)
जानेवाषमोके हिसाबसे लिखा हुआ मानकर इसकी पणमान्त मासके साथ तुलनाकरें तो यह् ब्रत कातिकं चदि
चौथके दिन आकर पडता है इसी दिनं इस त्रतको करना भी चाहिये ¦ देशकाल कहकर अयने पुत्र पौत्रादि
सब कामोकी सिद्धिके लिये दल्लरथ ललिता देवीकी प्रसन्नताके ल्व जो मुक्षे उपचार भिर जायं उनसे पुजन
आवाहनं तथा नीले रेशमी वस्त्ोको पहिने हृए कमल्पर विराजमान
उसे मे याद |
होजा, इससे आसन तथा गंगादि सब तीर्थोकी प्रार्थना करके उनसे शीत पानी ऊ जाया हुः
नामसे प्रसि हई दक्षकी साध्वी दुहिता ! = `
ससे अधे तथा पाटला, खसखस ओर ` `
इससे आचमनीय _
सहिता पंचामृतके स्नानसे परमेकवरी प्रसन्न होजय, इस मंत्रसे पंचामूत स्नान `
“मलयाचल इससे चन्दन तथा “हरिद्रा' इससे सोभाग्यद्रव्य तथा = `
= भेष
गको एकवचनान्त करके अन्तमं
च्िखे जा चुके हं ।\ यह् पुजन फूलोसे
लगाकर उस २ अङ्कका पूजन कर देना चाये
छोडे जाते हे ।
; मावे, राजाने उता तवत कवा वानो न्ट बन्न राजाने उनका स्वागत किया पीछे वो अच्छे आसनयर विराजमान होगये 1! ५।। वो मुनिष्षेष्ठ, ध
राजाकौ स्ृतियसि परमसन्ु्ट हए, उनकी भवतिस सन्दष्ट थे हौ इस कारण बोले ।। ६ । हे रानन्र 1 सैः
, आपपर सनतषट ह, महानाग आप अयनी कौल्य भायि साथ कहिये, ये आका बया धियकह 71
` कारण बोले कि, यदि आप प्रसन्न ह तो है ऋषिवर ! मेरे कोई सन्तान नही है एला कोह तयं या कोई
तरत बतादीलिवे ॥ ८ ॥। मुनि बोले कि, है राजन् ! सावधान होकर सुन; म एक त्त कहता हह सा:
पतर कामना देनेके विषयमे यह् सबसे शवेष्ठ तरत है, इसे सुर असुर सबने क्रिया था ।। ९ ।। चनदरमाकौ रोहिणी, 4.
नामकौ परम प्यारी स्त्र है, है राजन् ! उस रोहिणीको ललिता भ कहते ह ।। १० ॥ अमान्त मास आद्विन- = `
| शुक्ल्यक्ष दकषमीसे लेकर आरिवन ृष्णपक्षतकः करना चाहिये, ददामीसे लेक चौयतक, दशदिन त्रत करना = `
चाहिये ।॥ ११।। मादिवन कृष्णयक्षको चोयके दिन तो स्नान करके सायकाल भक्तिभावसे विशेषरूपसे `
1 पूजन करना चाहिये ।\ १२ ॥ कूमाण्ड, मातुलुङ्ग ओर मतीरे भेट करे । सुगन्धित जुई, चमे आदिक
। . मती आदिक पुष्य
| वडा । फर पू दीप, करके दसा मोवकोको भोग लगावे 11 १३ ।। ष्यं ान दपा प देवको शमा `
^
ीकीक्षमा
पराचना करै कि, हमने जो पुतरसन्ततिके भवरोघक कमे किये ह उनको आप नष्ट करिये ओर एेसीहृपाकरे `
जिसे चिरायु पुत्र सम्पत्ति हो । फिर माङ्कलिकं बाजे बजाकर, गाने गाकर उत सन्तुष्ट करे ।। १४॥ ` (1
शरीृष्णचन्दर कहते है कि, हे युधिष्ठिर ! चन्द्रोदय होनेपर शंखमें पुष्प, अक्षत, चन्दन एवं जल भरकर अघं
दे पञ्चरत्न तथा ददा पुष्य भौ उसमें गेरने चाहिये, वो भूमिमे जानू ठेकके चनरमाको देना चाहिये ॥\ १६।
भ भर्त भौ होने चाहिये तवो अवं चंदो देना चाहिये । कहे सरथल देवि ! बय
` भिर हृं ये दका अंजलिं है ।। १७ ॥ चन्रमाके साय इस अर्थकों ्रहणकर, हे देवि ! तेरे लिये नमस्कार है
रोन आराघना किया है ।। १८ ।। वो देवौ पु्रकामनासे सेयौ ययौ |
दानक संवह, ण्डे पानौके साथ दा भोले वा उससे भ
ब्ाह्मणोको देने चाहिये, इस तरह प्रय्नपु्वक दशवषतक देवीकी
तीह वाभ्य हो जो इस वतको करता है निस लिस स्क बो
पाता हे इसमे सदेह नहीं है ।। २१ ।\ यह भविष्योत्तर
॥
. हिनधीदीकासदितः (९) ध
पायसलइङ्कः ।। अष्टोत्तरशतं वापि अष्टाविहातिमेव वा।। ११।। नुहुयाच्चन्द्र-
मन्त्रेण गौरीमन्त्रेण चव हि ।\ एवं समाप्य होमं तु त्रताचायं प्रपूजयेत् । १२।। `
द्विप्रान् सपत्नीकान् वस्त्राद्यश्च प्रपूजयेत् ।! तेभ्यश्च करकान् दद्याद्गन्धोदक-
समन्वितान् ।। १३।। 'विघ्राय पीठदानं च ततः कूर्याद्विसजंनम् ।। ततःपुत्राः
प्रजायन्ते धनधान्यसमन्विताः 11 १४ ।! सौभाग्यसुखसंपत्तिर्जायते भभतां वर ।\ `
अवेधव्यं च लभते नारी कामानवाप्नुयात् 11 १५ ।। एतत्ते कथितं भूप किमन्य- `
चछरोतुमिच्छसि ।! कृष्ण उवाच ।। कृते दश्रथेनास्मिन् कोसल्याभायेया सह॒ `
॥ १६ ।\ तुष्टा दश्षरथे देवी ललिता तु सचन््रमाः । यस्माच्च कृतकृत्योऽसौ `
भायेया सहं मोदते ।। १७ ।। पश्चाहश्ञरथनामलक्िता भुवि कीतिता ।! एतत
कथितं राजन् दश्षरथलकल्िताक्रतम् ।। १८ ।! य इदं श्यृणुयाच्नित्यं श्रावयेदा समा- `
हितः ॥! अदवमेधसहस्रस्य फलं तस्य ध् वं भवेत् ।\१९।। इति श्नौभविष्योत्तर-
पुराणे दशरथ कितात्रतोद्यापनं सम्पुणम् । 1
उद्यापन-ऋष्यशरुङ्गः बोले कि, त्रतकी संपुतिके लवे उद्यान कहंगा, आ्षिनङृष्णा चौयके दिन `
उपवास पूर्वक यह् करना चाहिये ।।! १ ।! व्रत करनेवारे मनुष्यका कत्तव्य है कि, वह् पहिले स्नान करे,
पदचात् शुद्धवस्त्र धारण करे पीछे सायंकालमे सपत्नीक दश वेववेदाद्धवेत्ता ब्राह्मणको बुलाकर प्रेमसे `
मण्डप बनवावे ।! २ ।\ उस मण्डपके चारों दिहाओमें चार केलेके स्तम्म खड करे, चार दरवाजे बनवावि, = `
उसके बौचमे पाच र्खोसे कमल बनावे । ३ ।\ उस कमलकौ कणिकापर विधिपुवंक कलसको स्थापित करे,
बह कलह तांबे या मृत्तिकाका हो, उसके कण्ठभागमं दो वस्त्र लपेटे ।। ४ ।। फिर उस कलसपर रोहिणीकेसाथ `
चनद्रमाको स्थापित करे । सुवणेकी द्ाद्कल्लिता ओर चांदीका चन्रमा बनवावे । ५.।। फिर पूर्वोक्तविधिसे `
एकाग्रचित्त होकर पुजा करके हे राजन् ! इक्कीका तिखोकि लड़ड् बनवावे ।।६।। उनमसे ददा ड्ड् कथा- § `
व्यासको दे दे । ददा लडु.अपने लिये जलग रखे, एक बचे लड्डको देवताकौ भेद चढ़ादे ! जिससे ललिता (रोहिणीः =
देवी प्रसन्न हो \\७11 फिर व्रतपुतिके लिये सुवणं जर वाणक एकं उत्तम ब्राह्मणके लिये दे ओर कहै किःमेने
भक्तिसे जो दशाङ्धललिताका त्रत किया है उसकौ पूतिक लिये सुवणं सहित वायन इस द्िजवर्रो देता हं
म॑ने पुत्रकामनासे भगवती रक्िता देवौकी पुजा की, इससे वहं देवी प्रसन्च होकर मेरौ समी काः
करे ॥। ९ ॥। इस प्रकार रोहिणीकौ परायना करना, पीछे चन्रमगके लिये एक अध्य दे \ अयनी गृहक र
व्तविधिसे अग्निस्थापन करके फिर ।। १० । अन्वाधानकके तिलमिधित लीरसे लडडभों या तीनों एकसौ
त स
व =
हुमा, अर्थात् दशाङ्कः उलितात्रतका नाम दश्शरथललितान्रतं इस प्रकार हो गया । है राजन् ! मेने आयते
उसको एक सहर अश्वमेध करनेका फल मिखेगा इसमं संदेह नहीं है ।! १९! । भीभविष्योत्तरपुराणके
दशरथ ( दशाद्धः }) कलितान्नतका उच्चापन पुरा हज ।) त
^ तकववथीव्रम् ^ 4
अथ कातिकढृष्णचतुर्थ्यामथवा दक्षिणेदेशे आदविवनङृष्णचतुर्थ्या करक चतुर्थौ
. षोडशोपचारैः पुजयेत् ॥ पुजामन्त्र--नमः क्षिवाये शर्वाण्यै सौभाग्यं सन्तति
शुभाम् ।। प्रयच्छ भवितियुक्तानां नारीणां ह॒रवल्लभे ।!इत्यनेन गौर्याः, ततो नमो
॥ १ ।। अहो किरीटिना कमं समारम्धं सुदुष्करम् ।! बहवो विध्नकर्तारो मागे
परिपन्थिनः ।! २ ।। चिन्तयित्वेति सा देवी कृष्णा कृष्णं जगदगरुम् ।! भन्तं
यह् दारथललितान्नरतकौ कथा कहूदी है \\१८।। जो समाहित होकर इस ब्रतको कंथा सुनेगा या सुनावेगा
व्रतम् ।। अत्र स्त्रीणामेवाधिकारः । तासामेव फलश्रुतेः ।। आचम्य मासपक्नाद्य-
ल्लिस्य मम सौभाग्ययुत्रपौत्रादि सुस्थिर श्रीप्राप्तये करकचतुर्थोत्रतं करिष्ये इति
संकत्प्य वटं विलिख्य तदधस्ताच्छिवं गणपति षण्मुखयुक्तां गौरीं च लिखित्वा
न्तनाममन्त्रेण शिवषण्म् खगणपतीनां पूजा कार्या \\ ततः सपक्वान्नाक्षत संयुक्तान् `
तानि. : हिन्दीटीकासहित ` ८. (२२५)
` भदतिभावतः ।। १४ ।। विलिख्य वटवृक्षं च गौरीं तस्य तके लिखन् ।। शिवेन `
विघ्ननाथेन षण्मुखेन समन्विताम् । १५ ।\! गन्धपुष्याक्षतै्गोरीं मन्त्रेणानेन `
परुजयन्' ।\ नमः शिवायै शर्वाण्यै सौभाग्यं सन्तति शुभाम् ।! १६ ॥। प्रयच्छ भव्ति- `
युक्तानां नारीणां हरवल्लभे ।। तस्याः पावे महादेवं विध्ननाथं षडाननम्
। ॥ १७ ॥। पुनः पुष्पाक्षतधूपरचयरच पृथक्पृथक् \। पक्वान्नाक्षतसंपन्चान् सदीपान्
करकान् दल्च ।॥ १८ ।\ तथा पिष्टकनैवेद्यं भोज्यं सर्वं न्येवेदथन् ।! प्रतीक्षन्त्यः `
। स्त्रियः सव्वनदरमर््यपराः स्थिताः ।। १९।। सा बाला विकला दीना सुततुडभ्यां
। परि
। हस्ते चोल्कां समादाय ज्वलन्तीं स्नेहपीडितः ।। भगिन्ये दोयामास चंद्रं व्याजोदितं
। तदा ।॥ २२।। तं दृष्ट्वा चातिमुत्सुज्य बुभुजे भावसंयुता । चन््रोदयं तमान्ञाय `
| अर्यं दत्त्वा विधानतः २३ ।। तदोषेण मृतस्त्वस्याः पतिधमंक्च दूषितः! पति `
। तथाविधं दृष्ट्वा श्िवममभ्यच्यं सा पुनः ।। २४॥ बतं निरशानं चक्रे यावत्संबत्सरो
परिपीडिता \। निपयात महीपृष्ठे रुरुदुरबन्धिवास्तदा ।\ २०॥ समाह्वास्य चवा `
तस्ता मुखमभ्युक्ष्य वारिणा ।! तदंश्राता चिन्तयित्ववमारुरोह महावटम् ।२१।
। गतः ।॥ चक्रुः संवत्सरेऽतीते व्रतं तद्श्रातृयोषितः ।! २५ ।। पूर्वेक्तिन विधानेन `
सापि चक्रे शुभानना ।। तदा तत्र शची देवी कन्याभिः परिवारिता ॥ २६॥
एतदेव व्रतं कर्तुमागता स्व्गलोकतः ।\ वीरवत्यास्तदाभ्याशमगमधाग्यतः स्वयम् `
॥ २७ 11 दृष्ट्वा तां मानुषौ देवीं पप्रच्छ सकलं च सा ।! वीरावती तदा पृष्टा
। प्रोवाच विनमान्विता ।\ २८ ।\ अहं पतिगृहं प्राप्ता मृतोऽयं मे पतिःप्रभुः। न
जाने कमणः कस्य फलं प्राप्तं मयाधुना ।! २९}! मम भाग्यवश्षाहेवि आगतासि
महेहवरि ।\ अनुगृह्णीष्व मां मातजोवयाश पति मम ।।! ३० । इन्द्राण्युवाच ।॥। `
त्वया पितृगृहे पूर्वं कुर्वत्या करकव्रतम् ।! वृथेवाघ्यस्तदा दत्तो विना चन्द्रोदयं
श्युभे ।\ ३१।। तेन ते ब्रतदोषेण स्वामी लोकान्तरं गतः! ! इदानीं कुर यत्नेनकरक- `
मम् 11 ३२ ।। पति ते जीवयिष्यामि व्रतस्यास्य प्रभावतः ।। कृष्ण उवाच ।! `
शरुत्वा त्रतं चके विधानतः ।\ ३३ ।! प्रसन्ना साऽभवदेवी शक्रस्य `
पाण्डवा दुःखनाशनम् \। याः करिष्यन्ति सुभगा त्रतमेतन्निश्ञागमे \। ३८ ।। तासां
पुत्रा धनं धान्यं सौभाग्यं चातुलं यज्ञः ! करकं क्षीरसंपूणं तोयपुणेमथापि वा
॥ ३९ ।\ ददामि रत्नसंयुक्तं चिरं जीवतु मे पतिः \। इति मन्त्रेण करकान् प्रदद्या- `
दद्विजसत्तमे ।\! ४० \! सुवासिनीभ्यो दद्याञ्च जादद्यात्ताभ्य एव च ।! एवं व्रतं `
याकुरते नारी सोभाग्यकाम्यया ।।! सौभाग्यं पुत्रपौत्रादि लभकेबुस्थिरां धियम्
॥॥ ४१।। इति वामनपुराणे करकाभिधचतुर्थोत्रतं सस्पुणेम् ।।
अब कात्तिक वदि चतुर्थोके दिन या दक्षिगदेरमे प्रसिद्ध आदिवनङृष्णा चतुर्थौ के दिन हौनेवाले करकं | ८ |.
चतुर्थके व्रतका निरूपण करते है-इस व्रतको करनेका केवल स्त्ियोकाही अधिकार है; क्योकि ब्रत करनेवाली
स्त्रिथोकी ही फलश्रुति मिलती है । प्रथम आचमन करे फिर “ओम् तत्सत् इत्यादि रीतिसे देन काक्का स्मरण ` ४ |
केरे, फिर “मम” इत्यादि वाक्य द्वारा संकल्प करे कि, मे अपने सौभाग्य एवं पुत्र पौत्रादि तथा निश्चल सम्पत्ति
कौ प्राप्ति कै लिये करकचतु्थीकि त्रतको करूगा } उस प्रकार संकल्प करनेके पीछे एक बडको लिखे उस, बड्के `
म्लभागमं महादेवजी, गणेश्चजी, आर स्वामिकातिकसहित पार्वतीजीका आकार लिखे, (फिर प्राणप्रतिष्ठा
करके) . षोडशोपचारे पुजन करे! पुजके मंत्र-श्र्वाणी शिवा के चि प्रणामहै।
हि महेवर भगवानृकी प्यारी ! आप अपनी भक्त स्त्रियोको सौभाग्य ओर . श॒भसन्तान प्रदान करे, इस `
८ भन्त्रसे गोरी की परजा करके पीछे, नमः जिनके अन्तमें रहता है एसे नाम मन्न शिवजी स्वामिकातिक तथा
चाहिए } पीडे पिष्टकका नवेद ओर भोज्य सब निवेदन कर दे । पीछे चन्द्रोदय होने पर चन््रमाको अर्घं देना
चाहिए ।\ जथ कथामान्धाता कहने लगे कि, जब अर्जन इन््रकील पर्व॑तपर तय करने चरा गया उस समय
भशर ब्रौपदीका चित्त करर्हिला गया ओर चिन्ता करने खगी ।\ १ ।। कि अर्जुने बडा कठिन काम करना `
प्रारंभकर दियाहै, यह निचय है कि मार्गमे विध्न करनेवाले बहुतसे वैरी हे ।\ २ \। कृष्णएकौ यह इच्छा थी
कि, पतिदेव के काममें कोई विध्न न आवे इसी चिन्ताको करके जगद्गुर श्रीकृष्ण भगवानूसे पूछा 11 ३॥
८ ब्रौपदी बोलो हे जगन्नाय ! आप एक अत्यन्त गोप्य व्रतको वतावे, जिसके करनेसे सब ओरके विषघ्न दर टल (
जाये ।। ४ \। श्रीकृष्ण बोकते कि, हे महाभागे ! जैसा आपने मुदञसे पुछा है, उसी प्रकार पा्वतीजीने महा- `
. देवजीसे पुछा था उनके प्रनको सुनकर भहादेवीजीने कहा कि 1५१ हे विरारोहे! हे `
महेश्वरि ! तुम सुनो, में तुम्हे सब विष्नहारिणी करक चतुर्थीका त्रत कहता हूं ।\ ६ ।। पावंतीने पा ४
शु ग शहरपनाह है ॥। ८ ।\
वेदध्वनि होती रहती है
रतानि] = हिन्दीटीकासहित {शोः
क । ष्य अक्षतोसे ज् दा जुदा प्रजन कर पीछे पक्कास्च अक्षत जौर दीपकं सहितददा करए ।} १८ \ तथा पिष्ट-
कका नैवे एवम् सव तरहका भोज्य, चन््रमाको अघं देने की प्रतीक्षां बेड हुदै सब स्त्ियोने निवेदनकर `
दथा ।! १९॥१ वो बालिकाथी भूख प्याससे पीडित थौ इस कारण दीन एवम् विकल हौकर भूमिवर गिर
पडी, उस समय उसके बान्धवगण रोने लगे \। २० \\ कोई उसको हवा करने लगा, कोई मुखपर पानी चिडकने `
` कगा, उसका भाई कुछ शोच विचारकर एक बडे भारी पेडपर चढ़ गया ।। २१ 1 बहिनक प्रेमे पीडित था
हाथमे एक जलती हुई मसाल ठे रली थौ उस जलती मसालको हौ उसने चन्र बताकर दिला दिया ॥ २२॥ `
उसने उसे चाद समञ्ष, दुख छोड, विधिपूवेक अधेदेकर भावके साथ भोजनकिया ।। २३ \ इसी दोषतेउसक्ता = `
पति मर गया, धरम दूषित हभ! \ पतिको मरा देख शिवका पुजन किया ।। २४।। फिर उसने एक सालतक `
निराहार ब्रत किया, पर उसकी भाभियोने संबत्सरके बीत जानेपर वो ब्रत किया ॥। २५ ॥ पहिले कहे हए `
विधाने शोभन म् खवाली वौराचतीने भी व्रत किया, उस समय कन्याओस धिर हयी शचौ देवी । २६॥ `
इसी बतको करनेके लिए स्वगं खोकते चली आई ओर वीरावतीके भाग्यसे उसके पास अपने आप पहुंच गई `
` ॥ २७ । क्ञची देवीने उस मानुषीको देखकर उससे सब वातं पुच्छी, एवम् वीरावतीने नस्रताके साथ सब
बरातंबतादी 1\ २८ \1 हे देवेश्वरि ! म विवाहके पौरे जब अयने पतिके धर पहुंची तभी मेरा पति मरगया, ¦
ननजञाने मैने एेसा कौन उग्र पाय किया है, जिसका यह् फल मिल रहा है \\ २९ ॥। पर फिर भौभाज मेरे
किसी पृष्यका उदय हुमा है, जिससे हे महेश्वरि ! आय यहां पारी है, भाषसे यह प्राना है कि, भप
मेरे पतिको शीघ्र जौवित करने कौ छृषा करें ।। ३० ।1 यह सुन इन्दराणौ बोली कि, है वौरावति ! तुमने
अपने पिताके घरपर करकचतुर्थोका ब्रत किया था, पर वास्तविक चनद्रोदयके हृए बिनाही अधं देकर भोजन `
कर लिया था।) ३१ \ इस प्रकार अज्ञानसे ब्रत भद्ध करनेपर यत् किञ्चिदपराधके कारण तुम्हारा पति
मरगया है, इस कारण आप अपने पतिके पुनर्जौवनके किए विधिपुवेक उसी करकचतुर्थोका व्रत करिए \\३२।॥
मै उस ब्रते ही पुण्य प्रभावे तुम्हारे पतिको जीवित करगौ । श्रीकृष्णचन्द्र बो कि, ह ्रौपदौ ! इन्द्राणीके `
वचन सुनकर उस वीरावतीने विधिपुर्वक करकचतुर्थीका व्रत किया ।\ ३२ ।1 उसके ब्रतको पुराहो जानेषर `
८ अपनी प्रतिज्ञाके अन् सार प्रसन्नता प्रकट करतीहुई एक चुल् जल ठेकरवीरावतीके पतिको मरण- 4
भूमिपर छिडककर उसफे पतिको ।\३४।। जीवीत करदिया, वो पति देवताओकि समान हौ गया ।वौरावती अपने `
घरपर आकर अपने पतिके साथ क्रीडा करे लगौ ।! ३५. 1 वो घन, घान्य सुन्दर पुत्र ओर दीघं आवुपा 1
मया । इससे तुमभी अच्छी तरह इस व्रतको करो ।1 ३६ ।। सुतजी शौनकादिक मुनियोसे कहते हँ कि, इस 1
`` प्रकार श्रीकृष्ण चन्दर भगवान्के वचनोको सुनकर द्रौपदीने करक चतुरथीके व्रतको किया, उसी ब्रतके प्रभावे = `
4 कौरवोको परालित डःलो लोको मिटनेवाली अतुल राज्य . `
५५१५
समाहितं कुमालक्तकाभ्यां च रक्तसुत्रः सककणः ।। रक्तयुष्येस्तथा धूपेदौं
पबलिभिरेव च ।। गृडाद्रकाभ्यां पयसा लवणेनाथं पालकः ।। पालकेमं द्ाण्डेरिति
हमाद्विः ।\ पज्या स्त्ियहच विविधास्तथा विप्राङ्च जोभनाः ।। सौभाग्यवद्धये
परचाःदुोक्तव्यं बन्धुभिः सह् ।। इति गौरीचतुर्थोब्रतं ब्रह्मपुराणोक्तम् !\। `
गोरी चतुर्थोत्रत-माघसुदी चौथके दिन होता है, एेसही हेमाद्रिने ब्रह्यपुराणको केकर लिखा
हैः माघ मासकी शुक्ला चौथके दिनं उमाने अपने ही अंगोसेअपनें ही गुणोके दारा फिर वही
सुष्टि रचदी जो कि, पिरे योगिनियोके साथ खाली थौ । इस कारण इसचतुर्थोको सब मनुष्योकोचाहिये
कि उसको पूजे पर स्त्रियोको तो इस व्रतको अवश्य ही करना चाहिये । भक्ति भावके साथ यत्नवु्वेक भली `
भांति इकट्ठे किये गये कुन्दके पूष्पोसे तथा कुकुम ओरं अलक्तक एवम् कंकणकेसाथ रक्त सुत्रोसे लाल
पुष्य, धूप, दीप ओर बलिसे पुजन करना चाहिये ! गुड, जदरख, दुध नमकके साथ पालको (हेमाद्रि
मतमं मिटरीके बतेनकोपालक कहते ह ) अनेक स्त्रियोका तथा सुशील ब्राह्म्णोका पजन करना चाहिये अपने
सौभएग्यको बढ नेके लिये, पीछे बन्धुवगेकि साथ भोजन करना चाहिये ¦ यह गौरीचतुर्थीका ब्रतपूरा हा ॥!
वेरदचतुर्थीत्रतम्
जथ माघशुक्छचतुर््या
चतुर्थ्या तु नक्तन्नत परायणा
व्रतानि] हिन्दीटीकासहित (२२९)
- रत्नसिहासनस्थम् ।\ दोभिः पालाकुशेष्टाभयधृतिरुचिरं चन््रमौलि त्रिनेत्रं
` ध्यायेच्छान्त्य्थमीशषं गणपतिममलं भौसमेतं प्रसन्नम् ।। लंबोदरं चतुर्बाहुं त्रिनेत्रं `
रक्तवणकम् \\ सर्वाभरणद्ोभाढठद्ं प्रस्नास्यं विचिन्तयेत् \\ गणपतये नमः ।॥ `
ध्यायामि । आगच्छ विघ्नराजेन स्थाने चात्र स्थितो भव ।\ जाराधयिष्ये `
भक्त्याहं भवन्तं सवंसिद्धये ! सहस्रशीर्षा° गणेज्ञाय० आवा० । अभीप्सिताथे-
(८ 4 सिद्धयथं पूजितो यं सुरासुर : ॥। सवेविध्नच्छिदे तस्म गणाधिपतये नभः |. †
पुरुष एवेदं ० विघ्ननारिने० ।\ आसनम् ।। गणाधिप नमस्तेऽस्तु सवेसिद्धिकर
ब्रभो \\ पाद्यं गहाण देवे सुराघुरसुपुजित ।। एतावानस्य ° लबोदराय० पाद्यम् ।\ ध |
रक्तगन्धाक्षतोपेतं रक्तयुष्पसमन्वितम् ।1 अध्य गहाण देवेश मया दत्तं हि भक्तितः! `
चिपादू्वं० चन्द्राधधारिणेन० । अध्येम् \। सुरासुरसमाराध्य सवंसिदिप्रदायक ।॥।
` भया दत्तं सुरश्रेष्ठ गृहाणाचमनीयकम् ।\ तस्माद्विराठ० चविकवप्रियाय० आच
` मनीयम् । पयो दधि धृतं चैव शाकं रामधुसंयुतम् ।\ पंचामृतेन स्नपनं करिष्ये `
` सर्वसिद्धिदम् ॥। विष्नहर््रे° पंचामृतस्नानम् \\ गंगादिसलिलं शुद्धं सुवणेकल्दे `
स्थितम् \ सुवासितं परिमलैः स्नापयामि गणेकवर ॥। यत्पुरुषेण ° ब्रह्मचारिणेन० `
शुद्धोदकस्नानम् ।। रक्तवणं वस्त्रयुग्मं सरवंकार्याथंसिद्धये ।\ मया क्तं गणाध्यक्ष `
-गृह्यतामखिलार्थंद ।\ तं यज्ञं° सवेप्रदाय० वस्त्रयुग्मम् । कुंकुमाक्तं मया वत्तं
सोर्वणमुपवीतकम् \! उत्तरीयेण संयुक्तं गृहाण गणनायक ।। तस्माचज्ञात्सवहुतः `
। संभृ० वक्तुण्डाय० यज्ञोपवीतम् 1) चन्द्रनागुरुकपूरकरकुमादिसमन्वितम् ।। गन्धं `
गृहाण देवेश सवेसिद्धिप्रदायक ।। तस्माद्नज्ञात्सवेहुतऋ० रु्रपत्राय० गन्धम् ।॥ `
अक्षतांह्च सुरशरेष्ठ कुकुमाक्तान् सुशोभनान् ।।गुहाण विच्नराजेन्द्र मया वत्ताग्हि =
भक्तितः 1! गजवदनाय० अक्षतान् \। रक्तपुष्पाणि विघ्नेश एकविश्षतिसंख्यया ।।
५ गृहाण सुमुखो भूत्वा मया वत्तान्युमासुत ।! तस्माद्छवा० गुणकालिने नमः `
५. ष्णाणिस° सुगन्धीनि च माल्यानि गृहाणगणनायक ।। विनायक नमस्तुभ्यं ध
लम्बोदराय० उदरंपु° । गणाध्यक्षाय० हृदयंप° । स्थूलकण्ठाय० कण्ठेयु०
स्कन्दाग्रजाय ० स्कन्धौपु० । परशुहस्ताय० हस्तौपु° । गजवक्राय० वक्रंपु० ।
स्वेदवराय ० श्षिरः प° । संकष्टनाशिने० सर्वाद्धपु० \। अथावरणयुजा-गणाधि
पाय० । उमापुत्रा° । अघनाशिने ० । हेरंबाय ० ! लंबोदराय ०। गजवक्राय० ।
एकदन्ताय ० । धुञ्रकेतवेन ० । भाल्चन्द्राय० । ईशपुच्रय० । इभवक्राय० ।
मूषकवाहनाय ० । कुमारगुरवे ० । संकष्टनारिने० ।। इति प्रथमावरणम् । १ ।,
विध्नगणपतये० । वीरगणयतये° । श्ुथेकणेगणयपतये० । प्रसादगणपतये० ।'
चरदगणपतयं० । इन्द्रमणपतये० । एकदन्तगणपतये० । लंगोदरगणपतये० ।
ल्लिप्रगणपतये० । सिद्धिगणपतये० इति द्वितीयावरणम् ।। २ ।। रामाय० । रमे-
क्षाय० । वृषांकाय ० । रतिग्रियाय० । पुष्पबाणाय ०। महेश्वराय ० । वराहाय० ।
श्रीसदाशशिवाय० ।। इति तृतीयावरणम् ।\ ३ ।\ आदित्याय० । चन्द्राय० । कुजाय ०
सुधाय० । बृहुस्पतयं० । शुक्राय ० । शनंहचराय० । केतवे ० \ सिद्धे ० । समद्धचे०
कान्त्येन° मदनरत्यै० । मदद्राविण्ये° । वसुमत्यै ° । वैनायक्ये° ।। इति चतर्था
सोमाय० ।
पाचौपत्रं ।
इवेतदूरवाप० । लंबोदराय ० बदरीपत्रम्० । हरसूनवे° धत्त॒रष० । गृहा्रनाय०
` तुलसीप० । गजकर्णाय० अपामागं० । एकदन्ताय ० बृहतीपत्रम् । इभवक्राय० `
शमीप० । सूषकवा हनाय० । करवीरपत्रं । विनायकाय० वेणप० । `
अकप० । भिन्नदन्ताय० अर्जुनपत्र ° । पत्नीहिताय० विष्णुक्रान्ताप० । बटवेन
शडिमीप० । भालचनद्राय० देवदारुप० । हेरंबाय ० मस्पत्रं° ! सिद्धिदाय ०
मद ऋषिः ।। गणपतिर्देवता \\ अनुष्टुप्छन्दः \। रं बीजम् ॥ नं शक्तिः ।। मं कील- `
कम् । श्रीगणपतिघ्रसादसिदढचथं पूजने चि० ।1ॐ कारपुवेकाणि नामानि ।1 विना-
यकाय विध्नराजाय० गौरीपुत्राय० गणेदवराय० स्कन्दाप्रनाय० अव्ययाय० ` ध
पूताय दक्षाध्यक्षाय० द्िजग्रियाय० अग्निगरवेच्छिदे० इन्द्रशरीप्रदाय° बाणीबल- ` ।
प्रदाय० सर्वसिदधिप्रदाय० शावेतनयाय० शिवग्रियाय० सर्वात्मकाय० सृष्टकर््रे `
देवानीकाचिताय० शिवाय० शुद्धाय० बुदिप्रियाय° शान्ताय ० ब्रह्मचारिणे गजा- (^
ननाय० देमातुराय० मुनिस्तुत्याय भक्तविघ्नविनाशशनाय० एकदन्ताय० चतु- `
रबाहिवि० चतुराय० शक्तिसंयुताय ° लम्बोदराय० ूर्पकर्णाय ° हेरम्बाय ब्रह्म-
वित्तमाय० कालाय० ग्रहुपतये० कामिने सोमसूर्याग्निलोचनाय० पाशा्करुश- ` ४९
धराय० चण्डाय० गुणातीताय० निरञ्जनाय अकल्मषाय स्वयंसिद्धाय०
सिदर्णचितपदाम्बजाय० मीजपूरभ्रियाय० अव्यक्ताय० वरदाय० श्ष्वताय०
इशुचापधुत०
६ कुलाब्रिभृते
` नटिने० चन््रचूडाय० अमरेवराय० नागोपवीतिने° भीकण्ठाय० रामा्चितप- ` (|
दाय० ब्रेतिने° स्थलकण्ठाय० यौकर््रे० सामघोषप्रियाय० अग्रण्याय० पुरुषो- |
तमाय० स्थुलतुण्डाय० ग्रामण्ये° गणपाय स्थिराय० वृद्धिदाय० सुभगाय `
श्लूराय० वागीज्ञाय० सिद्धिदायकाय ° दूर्वाबिल्वप्रियाय ° कान्ताय पापहारिणे° `
कृतागमाथ० समाहिताय० वक्रतुण्डाय ° श्रीप्रदाय० सौम्याय ० भक्तकांक्षितदत्रे° ` ५
ध अच्यताय० केवलाय ० सिद्धिदाय० सच्चिदानन्दविग्रहाय० ज्ञानिने° मायायु- `
तयण दास्ताय ० ब्राह्मष्ठाय० भयवजिताय० प्रमत्तदैत्यभयदाय० व्यक्तमूतेयं० ` ध
° पार्वतीशंकरोत्स द्धखेलनोत्सवलालसाय ० समस्त जगदाधराय० वर `
कृतिने विहस्मियाथ० वीतभयाय० गदिने० ` चक्रिणे°
अन्जोत्पलकराय० श्रीकश्लाय० श्रीपति स्तुतिर्हाषिताय°
र ६ र ( ध १ ) 5 ~ ट ^ ५
६ ^ २ ४ 1 । ‡
॥ 0 1
{स 0 1 ४ < £ काक ॥ ^ ४ न
८ # 1
{2 ~ 4 ५ ् 4
तवाग्रतः । तेन मे सुफलावाप्तिर्भवेज्जन्मनिजन्मनि ।। संकटनाशिने० फलंस० ॥।
पुगीफलं०° नाभ्याजासी० सिद्धिदाय ताम्बूल ० । पुनाफलसमुद्धिचथें तवागे
स्व्ण॑सीश्वर ।! स्थापितं तेन मे प्रीतः पूर्णान् कुर मनोरथान् ।। सप्तास्यासन् ०
विध्नेश्ाय० सुवणेयुष्पं० श्रियं जात इति नीराजनं० अथ दूर्वा युग्मापेणम्-
गणाधिपाय० दूर्वायुग्मंस० । उमापुत्रय० दूर्वायुग्म ० । अघनाशनाय ० दूर्वयु°
एकदन्ताय ० दूर्वायु ° । इभवक्राय० दुर्वायु० । विनायकाय ० दूर्वायु° ईशपुत्राय
दुर्बयुमं । सवंसिद्धिप्रदायकाय० दूर्वायु° । कुमारगुरवे दूर्वायु । श्रीगणराजाय० `
एकदूर्वक्किरं समपेयामि ।। गणाधिप नमस्तेऽस्तु उमापुत्राघनाशन ।\ एकदन्ते-
भवक्रेति तथा सूषकवाहन ।\ विनायकेश्पुत्रेति सर्व॑सिद्धिप्र दायक ।। कुमारगुरवे
तुभ्यं गणराज प्रयत्नतः ।। एभिर्नामपद नित्यं दृवयुग्मं समपंयेत् ।! श्रीगणेलो
वक्रतुण्ड उमापुत्रस्तथव च ।। विध्नराजःकामदङ्च गणेहवर इति स्मृतः ।। जीम्त-
काव्तिरित्युक्तस्तथाञ्जनसमप्रभः । योगिध्येयो दिव्यगुणो महाकाय इतीरितः।।
ततदच सिद्धिदः प्रोक्तो महोदय इति स्मृता : ।। गजवक्रः क्मभीयस्ततः परदयु- `
धायंपि ।। करिकुम्भो विहवमूतिरुग्रतेजास्ततः परम् लम्बोदरस्ततः सिद्धिगणे-
हचेकविशति ।। नामानि रमणी यानि जपेदेभिषश्च पूजयेत् ।\ गणेशात्तस्य नह्यन्ति
संकणष्टानि महान्त्यपि ।। महासंकष्टदग्धोऽहं गणेशं शरणं गतः ।। तस्मान्मनोरथं
पुण कुर विश्वेहवरगप्रिय ।! ततः स्वणेमयं पुष्पं विघ्नेशाय निवेयेदत् ।। प्रदक्षिणा- १
कारान्कृत्वा देवं क्षमापयेत् ।। यज्ञेनयज्ञ ° संकष्टनाशय० पुष्पाञ्जकिम् ॥\ `
ब्रतानि दिन्दीीकासहित | 4.6 1 ।
मंत्रमिमं जपेत् ।\ गणेशस्य प्रसादेन मम सन्तु मनोरथाः ।। तुभ्यं संप्रददे विप्र.
प्रतिमां तु गजाननीम् ।। इष्टकामार्थसिडढचर्थं पूत्रपोत्रप्रिवधिनीम् ।! गणाधिराज `
देवेश विघ्नराज विनायक ।। तव मूपिप्रदानेन प्रसस्लो भव सव॑दा । इतिकला
म्रतिमादानमंत्रः ।। जथ प्रतिग्रहुमंत्रः-गगेशञः प्रतिगृणाति गणेशो वे ददाति च ।!
गणेदस्तारकोभाभ्यां गणेशाय नमो नमः।। संसार पीडाव्यथितं सदा मां कष्टा-
भिभूतं सुमुख प्रसीद ।। त्वं त्राहि मां नाशप कष्टसंघाच्नमो नमः कष्टविनाष्टनाय । ` ;
इतिप्राथेना \। यदुद्िश्य कृतं तेऽद्य यथाशक्ति प्रपूजनम् ।। संकष्टं हर मे देव उमा- `
` सुत नमोऽस्तु ते ।। इति नमस्कारः इतिपूजाविधिः ॥
वरदचतुर्थीत्रत-माध शुक्ला चोथके दिन होता है यह काञ्ञीखण्डमें कहा है । है दुढे ! माघ शुक्ला चौके ` ध
दिन जो रातका त्रत करते हुए तेरा पूजन करेगे, देवता उनको अपना पुज्य मानेगे । एक सालतकं तीर्थयात्रा `
करके पीछे तापसी चौके दिन इस व्रतको करे, ब्रतको समप्तिमे सफेदतिलोके गुडके लडड् बनाकर भोग
-अदितिमाता मीठा पय पिलाती है जिनके लिये दिव अमत देताया धारण करता है, है बलवान् कामनोको |
पुरा करनेवाले मत्र, मेरे अनृष्ठानसे मेरे कल्याणके लिये मृञ्षपर देवताको प्रसस्च कर दे ! “ओम् एवापिन्रे `
¦ विदवदेवाय वृष्णे यज्ञेविधेम नमसा हविभिः । बहस्पते सुप्रजा वीरवन्तो
` धरके लाने चाहिये, तापसी माघकी चौथका नाम है । रातका ग्रहण है इससे यह बात तो स्वतः हीसिद्धहो `
जातौ है कि चौय प्रदोष व्यापिनी होनी चाहिये यह बरद चौथका व्रत पुरा हभ ।। संकष्ट हर गणयतिव्रत- ` 4
भाघ कृष्ण चौथके दिनहोता है ।। अथयूजाविधि ओम् येभ्यो माता मधुमत् पिन्वते पयः, पीयुषं ्ौरदिति `
रद्रिबहीः } उक्थ शुष्मान् वृष भरान्तस्वप्नस स्ताँऽभआदित्यां अनुमदा स्वस्तये" जिनके लियेसुन्दर केवाली `
तो वयं स्यामपतयो रयीणाम् सब
| कामनाओं देनेवाले, अन्न मेरा पालनकरने वाले सवे देवमय गणेरके लिये यहां हवि ओर नमस्कारोसे `
| यह सब कुछ करते हं हे वेदके स्वामिन् ! हम अच्छी सन्तान वाले, वीरवारू ओर धनवाले हो जाये । इन `
दोनों संतरोको जपकर पीछे आगमथं तु देवानां घण्टानादं करोम्यहम् \ तेन त्रस्ता यातुधाना अपसर्पन्तु `
करत्रचित् 1!" मे देवताके आागमनके सि घंटा बजाता हुं, इससे उरते हए दैत्यादि कहीं भौ भाग जायें । इस `
भंत्रसे घंटा बजाकर, “अपसपेन्तु" इस मंत्रको बोलता हा छोटिका मूत्रासे भूतोको भगाकर पौरे "तीक्ष्ण ` (4
। षट् महाकाय भूतप्रेतगणाधिप । नमस्ते क्षत्रपालाप प्रसन्नो भव सर्वदा ।॥' है बडी २ डदोबाके बडेभारी . `
. . क्रीरवारे, भत ओर प्रेतेके रहिये ¢ हये, हे क्षेत्रपाल ! तेरे लिये प्रणाम है। ८
` ध्यानके मन्न कहते ह, “ध्वेताद्धः" इसका अथं है कि, इवेत जिनके अद्ध है, इवेतही जिनके वस्त्र है, व्वेतपुष्पोसे
तथा चन्दनसे जिनका पूजन किया जाता है क्षौर समुद्रके बीच कल्प वृक्षोसे रमणीय रत्नद्धीपमे रत्नजटिति `
सिहासनपर विराजते ह, पाञ्च, अंकुक्ञ, वरदानमुद्रा, अभय तथा धयदानसुद्राको हा्ोमें धारण करते है,
एसे चन्द्रशेखर त्रिलोचन प्रसन्नमुख निमंल सवं नियन्ता भरीगणपतिजीका समस्त भरकारकी शान्तिके च्ि `
` ध्यान करता है 1 “लम्बोदरं इस मन्त्रसे भी ध्यान करे । इसका यहं अथं है कि, चतुभज, चिलोचन, शोणकान्ति, `
समस्त आभूषणोसे शोभायमान ्रसन्नमुल लम्बोदर गणपतिजीका ध्यान करता हूं गणपतिके व्िप्रणाम है, मे
उनका ध्यान करता हूं । “आगच्छ इस लौकिक तथा“सहस्रशौर्षा” इस वेदिक मन्त्रको पठकर “गणेशायनमः `
आवाहयामि" इससे आवाहन करे, पूर्वोक्त कौकिक मन्त्रका अथं है कि,है विघ्नराजोके अधीदवर! आपह =
पधारकर स्थित हौ, मे सब कार्योकी सिद्धिके च्य भवितसे आपकी पुजा करू्गा । फिर -“अभीन्सितार्थ"
` इस लौकिक ओर “ओं पुरुष एवे०” इस वैदिक मन्त्रको पढकर “विध्ननाकिने नमः, आसनं समर्पयामि! `
इसके पठता हुआ आसन (या आसनाथं पुष्प अक्षत) समित करे । शलोकका अथं है कि, सब देवता एवं `
देत्यजन अपने अपने कार्यकी सिदधिके ले जिसका पुजन करते हँ, उस समस्त विषध्नोको चिन्न करनेवारे `
गणपतिके लिये नमस्कार है । विध्नान्तकको प्रणाम है" मे जासन भेंट करता हूं । “गणाधिप इससे ओर `
"ओं एतावानस्य" इस मन्त्रको पठकर “लम्बोदराय नमः, पाद्यं ससपयामि" इसको पठकर पाय दे, लोकका `
अथे है कि, हे देवेहवर ! हे सुर ओर असुरोके पुज्य ! हे सब सिद्धियोके देनेवाले गणाधिरान ! आपकेल्यि `
प्रणाम हैः आप पादय ग्रहण करिये । ““रक्तगन्धाक्षतोयेतं” इस लोकिकं सन्त्रको तथा “ओं त्रिपादृध्वंमदे० =
. इस वेदिकमन्तर ओर ““चन्द्रा्घधारिणे नमः अध्वं समपयामि” इससे अध्यंदान करे । लौकिक मन््रका अथे है
कि, है देवे ! मेने भक्तिसे यह् अध्य, रक्तचन्दन, रक्ताक्षत तथा रक्तपुष्योसहितसर्मपित किया है आप इसे
` : स्वीकार करे, चनद्रमाको लंलाटमं धारणं करनेवाठेके लिये प्रणाम है, मे अरघ्यदाप्रन करता हूं । है सुर तथा
असुरोके आराधनीय ! हे समस्त सिद्धिरोके देनेवाले ! हे सुरश्रेष्ठ ! मे आपके चयि जाचमनीय प्रदान करता
हू" आप इससे आचमन करे, इस मन्तसे तथा “ओं तस्माद्विराडजायत” इस वैदिकमन्तरसे “विहवप्रियाय नमः,
` आचमनीयं समर्पयामि” विरवप्रियके लिये प्रणाम है, आचमनीय संमपेण करता हु इससे आचमनीय देना `
चाहिये । “पयोदधि धृतं” तथा “ओं विष्नह्जे नमः, पञ्चामृतस्नानं सभ्पयामि" इनसे पञ्चामृत स्तान
कराना चाहिये \ इनका अथं है कि, दुध, दधि, घत, खांड जौर सहत इन पञ्चामृतमय दरव्योसे आपको स्नान `
. कराता हु क्योकि यह स्नान समस्तसिद्धियोका देनेवाखा है, विष्नहतकि ल्य नमस्कार है, पंचामृतका स्नान
¦ समपेण करता हुं \ शङ्खादिती्थं °` इस लौकिकं तथा “जो यत्युरुषेण०" इस वैदिक सन्त्र ओर “ब्रह्मचारिणे
व्रतानि] हिन्दीरीकासहित . (२३५)
चन्दन लगावे । अक्षतांडच' इससे तथा गजवदनाय नमः, अक्षतान् समपेयामि' इससे चावल चटाने चाहिये, `
सका अर्थं है कि, हे विष्नराजोके ईहवर ! हे सुरवर ! आपके लिये भक्तिभावसे कुकुमसे रञ्जितपुन्दर अक्षत
। समप॑यामि" हे विष्नेश्ञ ! ह पारव॑तीनन्दन ! सेने इक्कीस छालयुष्य आपके लिये समर्पण किये है, आय प्रसन्न
होकर इन्हुं स्वीकार करर, गुणशालिको नमस्कार है मे पुष्प चदढाता हु, इनसे पुष्य चढाने चाहिये । “युगन्धीनि- `
। स्कार है, में मालाारण कराता हं ।। फिर इक्कोस नामोसे दू्वसि अथवा फूलोसे गणेशजौका पुजन करना `
॥। ` एकदन्तः, ये इक्कीस नाम हुः
नाममंबोसे पुजा पुरी हुई ।। अद्धपुजा-पुष्प तथा इूबसे कौ गई पुनाकौ तरह नाम मंत्रोसे अद्धधुना भी हीती
है, संकष्टनारिन्, स्थूलजंघ, एकदन्त, आखुवाहन, हैरम्ब, लम्बोदर, गणाध्यक्ष, स्थलकठ, स्कन्दाप्रज, परशु- `
` हस्त, गजवक्त्र, सर्वेहवर, संकष्टनारिन् इन नासोके आदिमं “ओम्” ओर अन्तमं “नमः तथा इन्दुं चतुर्थीका ` ५
| एक वचनान्त करनेसे ये नाम मंत्रके रूपमे आजाते है इसप्रकार तैयार किये गये नाम संत्रोमेसे एक एक्से
करके प्रत्येकके साथ “पूजयामि छयाकर तथा स्वद्धिशव्द ओर एकञंगको एक वचनान्त करके उसीको
लगाकर इन अद्धोका पुजन करना चाहिये, अथं वही है कि अमुकके लिये नमस्कार है अमुक अंगका पूजन
करताहूं, (गणेशजीके हौ बरत प्रकरणम इस प्रकारकी अंगपुजा तथा नाम पुजा हम कई जगह कह आये हं
नामके
` बृहस्पति, शुकः शनेद्चर, केतु
, समर्पण कयि ह् जपि इनको स्वीकार करे ॥ राजवेदनके लियं लश्च है भ अक्षत चदाता ह । “रक्तपष्पाणि | । | । स क
स लौकिक संत्रसे तथा “ओतस्मादषवा अजायन्त इस लोकिक मंत्रसे तथा “गुणक्षालिने नमः, पृष्णाभणि
विध्नराजायः नसः भाल्यानि समर्पयामि" इनसे सुगन्धित मालये चढावें । इना अथं है कि, हे गणनायक ! = `
ह विनायक । है शिवनन्दन † आपको प्रणाम है, जाप सुगन्धित मालाधारण करिये, विध्नराजके च्यिचम-
चाहिये । गजानन, विघ्नराज, लम्बोदर, शिवात्मज, ववत्रतुण्ड, शूर्वकण, कुज्ज, गणेकष, विध्नाशिन्, विकट, `
वामदेव, सर्वदेव, सर्वातिनाशिन्, विघ्नहर्ता, षू खर, सवेदेवाधिदेव, उमापुत्र, कष्णपिगल, भारुचन्द, गणाधिप, ` ष! ५
इनकेभदिमे “ओम्” ओर अन्मे “नमः” तथा न्ह चतुरथीकः एकवचनान्तं `
करनेसे नाम मंत्र बन जाता है, एक एक नामं भ॑त्रको बोकर एक एकवार दूर्वा या फूल चडाने चाहिये,यह १५
पाद, जंघा, जानु, ऊरू, कटि, उदर, हृदय, कंठ, स्कन्ध, हस्त, वक, फिर इनमेसेदोकोद्वितीयाका द्विवचनान्त- `
इस कारण विस्तारके साथ अर्थं नहीं करते हे ) आवरण पुजा-गणयतिजोके चारो ओर क्रमशः पांच आवरणं ` 1
` या टव्कनं मानकर उनपर जय पानेके लिये उनकी भी पुजा करनी चाहिये । गणाधिप, उमापुत्र, अघनारिन्' = `
` हिरंब छंबोदर, गजवक्र, एकदन्त, धूश्रकेतु, भालचन्, ईशपुत्र, इभवक्तरःमूषकवाहन, कुमारगुर, संकष्टनारिन् = ।
र मंत्रोसे पहिरु आवरणकी परजा करनी चाहिये । विष्नपति, वीरगणपति, शूषेगणयति, प्रसाद- = `
गणपति, बरदगणयपति, इन्द्रगणपति, एकदन्तगणयति, कम्बोदरगण पति, क्षप्रगणपति, सिद्धिगणपति ईन `
नामोके म्नोसे दूसरे आवरणकी पुजा करनी चाहिये । राम, रमेश, वृषांक, रतिग्रिय, पुष्पबाण, महेवर, = `
बराह , शरीसदाक्िव इन नामोके मंत्रे तीसरे आवरणकी पुजा करनी चाहिये । आदित्य, चन्र, कुज, बुध, ५ ८
सिद्धि, समृद्धि, कान्ति, मदनरति, सदद्राचिणी वेसुभति वैनायकी, इन नाम- ५
विशेष हे । सिन्धुवार निर्गुण्डीको कहते हँ । ओर सब नाम प्रसिद्ध हैँ । इस कारण उनका परिस्फट नहीं करते
हैं । यह पननपुना समाप्त हुई ।। पुष्पपुजा-सुमुख, एकदन्त, कपिल, गजकर्णं, लम्बोदर, विकट विघ्न, विनायक, `
` धू सरकेतु, गणाध्यक्ष, भालचन्द्र, पत्नीहित, उमापुत्र, गजानन, दुत, सवंसिदधिभ्रद, मूषकवाहन, कुमारणुर, `
दी्धुण्ड, इभवकत्र, संकष्टनाञ्न इन इवकौस नामोके मत्रोसे जाती, शतपत्र, यूथिका, चंपक, कल्हार, केतकी, ` |
बकुल, जपा, पुन्नाग, धत्तूर, मातुिग, विष्णुकान्ता, करवीर, पारिजात, कमल, मोक णिका, मुकूद, तगर, 4
खगन्धिराज, जगस्ति, पाटला ये इक्कोस एूलके गाछोके नाम हँ इनमेसे हर एकके साथ “पुष्पं समर्पयामि" `
लगाकर उसीके फूलको गणेशजौपर चढा देना चाहिये ।। यह क्रमः इक्कीस नाम मंसे चठाने चहिये ।
इनमें शतयन्ननाम कमल्का, यूथिकानाम जर्दका, कल्हार नाम एक प्रकारके लाल एवं तीनों कामि सिल ध
रहनवाल कमलका, बकुल नाम, मोलसरीका, जपा नाम जबाका, मातुलृङ्क नाम विजौरेका, करवीर नाम ४
कनरका, पारिजात नाम हार श्ङ्धारका, गोकणिका नाम मुहार (मधूलिका) सुगन्धिराज नाम गन्धराजका `
आर अगस्ति नाम अगस्त्यका है । बाकी सन प्रचलित नाम है इस कारण उनका अर्थं नही करते । यह इक्कीस
तरहके एूलोसे होनेवाली पजा समाप्त हई \। एकसौ आठ नामोसि पजा-जब एकसौ आठ नामोसे गणेशजीका `
पूजाका विधान कहते हैँ, इस एकसौ आठ गणपतिजौके दिव्य नामोके स्तोत्र रूप मंत्रका गत्वमद ऋषिहै, `
गणपति देवता है, अनुष्टुप् छन्द है, रंबीज है, नं शवित है, मं कीलक है, भ्रीगणपतिदेवकी प्रस्तके ल्ि.
गणयतिके पजनम इसका विनियोग होता है, इस प्रकार कहकर, उस जलको भभिपर छोड दे । ये ए सौ
आठ नाम यहां भी लिखते है, ये सब मलमे हं जो चतुर्थो विभक्तिके एक वचनान्तके रूपमे लिखे है उनके `
आदिमं “ओम्” ओर अन्तमं नमः लगाकर एक एकको बोलकर पूजन करतं जाना चाहिये \ विनायक, १
` विध्नराज, गौरीपुत्र, गणेश्वर, स्कन्दाग्रज, अब्यय, पत, दक्षाध्यक्ष, द्विजप्रिय अग्निगर्वच्छित् इन््रभी-
श्रद, वाणीबलप्रद, सवसिद्धिप्रद, शषवंतनय, शिवप्रिय, सर्वात्मक, सष्टिकतं देवानीकाचित, शिव, शुद्ध, बुद्धि
` भिय, शान्त, ब्रह्मचारिन्, गजानन, दै मातुर, मुनिस्तुत्य, भक्तविध्नविनाशन, एकदन्त, चतुर्बाहु, चतुरं, शा कत्
संयुक्त, लम्बोदर, शूषंकणं, हेरंब, ब्रह्मवित्तम, काल, ग्रहपति, कामिन्, सोमसुर्याग्निखोचन, पाशाडकुशधर,
| चण्ड, गुणातीत, निरञ्जन, अकल्मष, स्वयंसिद्ध, सिद्धाचतयदाम्बज, बीजपुरप्रिय, अव्यक्त, वरद, शादवतं
कृतिन्, विद्रत्पिय, वीत भय, गदिन्, चक्रिन इक्षुचापधृत्, अन्नोत्यल्कर, श्रीज्ञ, भीपति, स्तुति हषित
कुलाग्रिभृत्, जटिन्, चद्रचूड, अमरेश्वर, नागयज्ञोपवीतिन्, श्रोकंठ, रामाचितपदः, व्रतिन्, स्थुलकंट, 5
सामघोषप्निय, अग्रगण्य, पुरुषोत्तम, स्थूलतुण्ड, ग्रामणी, गणप, स्थिर, वृद्धिद, सुभग, शूर, वागी,
दुर्बाबित्वप्रिय, कान्त, पाहारिन् कृतागम, समाहित, वक्ततुण्ड, श्चीपद, सौम्य, भक्तकां
केवल, सिद्धिद, सच्चिदानन्दविग्रह, ज्ञानिन्, मायायत, दान्त, रहिष्ठ, भयर्वाजित, प्रमत्त
मूति, भमूतिक, पार्वती शंकरो त्संग लेलनोत्सव लालस, समस्त जगदाधर, वर मूषकवाहन
सन्नात्मन्, सवे सिद्धि प्रदायक, थे १०८ नाम है जो स्तोके रूपमे पाठ किये जाते ह , इनमं
उनका अथं तो यहां नही दिखाते कः
। ब्रताति) हिलदीटीकाषहित ` (२३७)
हभ ॥) पुजन ~ वनस्पति रसाद् “्यत्पुरुषम्” इसमंतरसे एवम् ओम् भवानी प्रियकर्नेनम = = `
` धूपमाभ्नापयामिः भवानीके भिय कायं करनेवाले लिये नमसकार है । गणेजौक वूपकौ सुगन्विसुयाताहु,
| इते धूष देनी चाहिये \ 'ुताक्तवति' इस संतरसे तथा “ब्राह्मणोस्य ' इससे एवम् शजोम् सरश्रियायनमः दीपं `
द्यामि शिवजीके प्यारे पत्र एवम् शिवजोसे अधिक प्यार रखनेवालेके लिये नमस्कार है दौपको दिलाता `
ह इते दीपक दिलाना चाहिये । अस्ंचतुिधम्' इससे तथा अनेक तरहके भक््योके साथ, तिलोकि चड्ड् = ५
समेत घीमे पकाये हए मोदकोको, हे विष्नराजेर ! ग्रहण करिये, इससे तथा “ग्रसाम” इस संत्रसे एवम् =
द्भूतम्' इस मंत्रे तथा “तपुर
भम् विघ्नविनाशन नमः नैवेयं निवेदयामि विघ्न विनाशकके लिये नमस्कार है नेवेद्यका निवेदन करता हू
। इससे तैवेधका निवेदन करना चाहिये । “फलानि इससे तथा ओस् संकटनाशिने नमः फलं समर्पयामि. = `
। ` संकटनारीके लिय नमस्कार है फलका समर्पण करताहूं इससे फल चढाने चाहिये । धूगीफलम्' इससे तथा = `
| भ्नाम्या आसी" इससे एवम् ओम् "सिद्धिदाय नमः ताम्बूलं समपंयामि सिदधियोम देनेवाल सिये नमस्कार
है म्बू चदाताहू \ हे ईवर ! पुजाके फलक परप्तिके लिये भके सामने सोनेका पूत रला है, इससे = `
आप प्रसन्न होकर मेरे मनोरथोको पुरा करर, इससे तथा “सप्तास्यासन्” इससे एवम् “भम् विष्तशाय नम 1
सुवर्णपुष्यं समपेयामि' विष्नेशके लिये नमस्कार है सोनेका फूल चढाताह, इससे सोनेका फूल चढाना चहिये ! `
{ पि ,"' "4 0 ् ४ इससे ८ न, {4 । चाहिये ८ ४ ्् 4 म ए र चटानेकी : शु | ॥ 45 ^ द । व ष
। "धिये जातः इससे आरती करनी चाहिये \\ अब दो दो दूर्वां चढानेको विधि कहते हं गणाधिप, उमाघुन, =
अघनाङान, एक वन्त, इभववत्र, विनायक, ईैदपुत्, स्वसिद्धिमदायक, कुमार गुरः, भौ गणराज, इन नामके `
मआदिमें “ओम्” तथा अन्तमं “नमः इन्हे चतुर्थीका एकं वचनान्त करके जैसे मूलमे हँ, वैसे नाम मंत्र बन जाते `
है अत्येकके साय “ूर्वाककरयुग्मं समर्ेयामि" लगाकर गणेशजौपर दो' अन्तमं एक दूर्वा चढाना चाहियेये `
` सब गणेश्चजीके प्रसिद्ध नाम हँ \ अब इनहीं ग्यारह नाम मनत्रोका शलोको दारा भी इनका अनुवाद करतेहे `
कि, हे गणाधिप ! आपके लिये नमस्कार है, हे उमा (पावेति) के नन्दन! आपके लिये नमस्कारहैषहे
अधो (पापो, या उसके दुःखो) के नादान आपको नमस्कार है, है 'एकवन्त आपको नमस्कार है'हे हस्तिके `
सदृक मुखवातते आपको नमस्कार है, हे मूषक वाहन आएको नमसकार है, है विनायकं आपको नमस्कार हः
। हे ईश (महादेवजी) के पुत्र आपको नमस्कार है हे घमस्त सिद्धियोकि देनेवाल आपको नमस्कार हैःस्वामि-
कातिकेयके (बडेभाई) आपको नमस्कार है, है गणराज 1 आपको नमस्कार है इन पूर्वोक्त नाम मन्ते `
गणेदाजौ पर भ्रत्नके साय दो दो दूबके दल चढावे ओर “१ श्रीगणेद, २ बकत्रु्ड, ३ उमा, ४ विघ्नराज, =
५ कामद, ६ गणेदवर, ७ जीमूत (मेधो ) शविति, ८ अञ्जनसमप्रभ, ९ योपिष्येय, (योगिजन जिनका =
` ध्यान कर एसे) १० दिव्यगुण, ११ महाकाय, १२ सिद्धिद, १३ महोदर, १४ गजवकत्र१५, कर्मभीम, १६ ५५
परशुषारि, १७ करि कुम्भ, (हा्ीके समान गण्डस्यलवाले) १८ विवमूति १९ उग्रतेना, १० लम्बोः =
दर, २१ सिद्धि गणेश" ये इषकीस सन्दर नाम है, इनको जो जयता या इनसे पूजन करता है गणेशनीके अन्- = `
रहते उसके घोरे घोरभौ जो संकट हें बे सब टलनाते हैःपीे 'भहासंकण्ट' इस इरोकको पठता हभ |
ओर भाथा करे वि, हे विद स्वामी शीमहादेवजीन प्रिय नन्दन ! भे घोर संकटरूप दावानरसे = `
, अब आयक चारण पराप्त हभ हू, इस कारण आप मेरे मनोरथक धुरा करि, पे सुवणं
ट करे \ तदनन्तर प्रदक्षिणा ओर प्रणाम करके कषमा
लिये अध्य दान करे । उन दो इल्मोकोका यह अथं है कि, है समस्त सिद्धियोके देनेवाले गणेश्च ! जो आपह,
आपके लिये नमस्कार है ! हे संकटोके हरनेवाले देव ! भप अघ्यं ग्रहण करिये आपके लिये नमस्कारहै।! `
कृष्णपक्षकौ चतुर्थको चनदरमाके उदयम जिनका अच्छी तरह पूजन क्या है एेसे हे देवदेव ! हे ईडा ! आप
` प्रसन्न हो, अघ्यं ग्रहण करे, आपके ल्यि नमस्कार है \ तदनतर “तिया” हे तिथि्योमे उत्तमहि देवि ! है |
मणेदजीकपि परमप्यारी ! आपके लिये नमस्कार है, आप मेरे समस्त संकटको नष्ट करनेके लिये अध्य ग्रहण ।
कर “वतुर्ये नमः इदमर्घ्यं सम्पेयामि" चतुर्थौ तिथिक अविष्ठा्ी देवी लिये नमस्कार है. मे इस अध्यंका |
दान करता हि इस श्रकार कहकर चौथे लिये एक अध्यंदान करे । फिर रोहिणीसहित चन्द्रमाकी पञ्चोपचारोसे |
पूजा करके “क्षीरोवाणव” हे क्षीरससुद्रसे उत्पन्न होनेवाले ! हे लक्ष्मीकरे बान्धव ! 'हे निशाकर ! हे शशौ] `
आप रोहिणी सहित अघ्यं प्रहुण करै, “रोहिणीसहित चन्द्राय नमः इदमधघ्यं समपेयामि "” रोहिणी सहित ` ८
चन्द्रमाके लिये नमस्कार है, मे इस अध्यको समर्पित करता हं इससे अघं दान करे ! गगनाङ्कण' है मकाशरूप ` ` |
आंगनमें दीपककी तरहं प्काञ्ञ करनेवाखे ! है क्षीरसमुद्रके मंथनसे उत्पन्न होनेवाले ! है अपनी कान्तिसे `
`. दिगन्तरालमं प्रकाश करनेवारे { हे सोमराज ! आपके लिये नमस्कार है चन्द्राय नमस्कारः; चन््रमकेल्ि `
नमस्कार यानी इस प्रकार चन्द्रमाके लिये नमस्कार करना चाहिये । पीछे आचार्यकौ पजा करके मोदकान्
इस मंत्रसे वायना दे, हे ह्विजपनेष्ठ ! आप मेरे ब्रतकी पूर्णता करनेके ल्य फल ओर दक्षिणासमेत पञ्च मोदक 1
ग्रहण करे \ फिर गुर आचार्यके लिये प्रतिमा दक्षिणा ओर वर्त्रसहित कलस प्रदान करे उसके पहिले, "णे `
. शस्थ, गणेशजीकी प्रसन्नतासे मेरे समस्त मनोरथ पणे हो, हे विप्र ! में गणपत्िकी स्वणेमतिको आपकेलिये `
= देता हुं । यह मूत्ति पत्र ओर पोत्रादिकोको बठानेवाली है, इस दानके करनेसे अभिरूषित कामना पुण हो,
, इसलिये इसका दान करता हू । इस प्रकार आचायंकी प्रार्थना करके गणेशजौकी प्रा्थना करे कि, हे गणाधि-
। राज ! हे देवताजोके ईदवर ! हे विघ्नराज ! हे विनायक ! मेने जो आपकी प्रतिमाका दान किया है,
` ` आप सदैव मुक्चपर प्रसन्न रहे । यह कलसके ऊपर पुणं पारमे गणपतिकती सूति स्थापित करके देनेका मन्त्र है
अब मूत लेनेके समयमे आचार्यक पढनेका मंत्र लिखते है कि, "गणेश गणेशजी ही प्रदाता ह, यणेदाजी ही
रहता है, गणेशजी ही अपने दोनोके उद्धार करनेवाके है, गणेदाजीके लिये बार २ प्रणाम है । फिर यजमान
ससार इस पद्यको पटे, कि, हे सुमुख ! मे सदा सांसारिक दुःखोसे दुःखित हो कष्ट भोग रहा ह" अतः अष
मेरेषर प्रस हो, मेरी रक्षा कर मेरे समस्त कण्टोको नष्ट करं, आय कष्टोको विनष्ट करनेवाले है, आपके
। ^“ लिये बारंबार प्रणाम है यह प्राथेना पूरी हुई । मेने जिस संकटकी निवृ्तिके सिये अपनी शवितके, अनुसार आपकं
पजन किया है, हे पावेतौनन्दन ! भेरे उस संकटको आप हरे, आपके किये नमस्कार है । यह भूजनान्तमे नम
` स्कार करनेका संत है ! यह पजाकरनेकी
व्रतानी) ` हित्वीटीकासहित = (२३९)
ना ~~ ~--------------~--
र्वंण्डितं राज्यं चूतच्छब्यरतैस्तथा ।! पराजिता वयं ब्रह्न्ुहद्धुबेनधुभिस्तथा `
॥८। बन प्रस्थापिता इतरिदम्चुस्तथेव च ।। कुवेन्तु गमन शीघ्रं वनायभव-
` दादयः ।। ९।। इत्थं निराकृताः स्वामिन्यवा तद्रनमागताः ।। अहं तदाप्रभृत्य्हच्च `
द्रक्ष्यामि भवादृश्षाम् ।। १० ।। थचयस्ति त्रतमेक हि स्वसंकष्टनाञ्नम् ।। तद्त्रत
कथय ब्रह्मत्नुग्राह्योऽस्मि सूव्रत ।\ ११ ।। इत्युक्तवन्तं राजान सवसकष्टना्च- ` र
नम् ।! उवाच प्रीणयन् व्यासो धमजं ब्रतमुत्तमम् ।॥ १२ ।। व्यास उवाच ॥
नास्ति भूमण्डले राजंस्त्वत्समो धमंतत्परः ।। कथयामि व्रतं तेऽद्य ब्रतानामसत्त- ` ९
मोत्तमम् ।। १३ ।। संकष्टनाहानं नित्यं शुभदं फलदं भुवि ।। यत्कतु सर्वकार्याणां
। निष्पत्तिर्जायते ध वम् 1! १४ 1\ विद्यार्थ लभते विद्यां धनार्थी लभते धनम्! `
` भ्रोषिताः या पुरन्ध्री च करोति व्रतमुत्तमम् ।। १५।। ईण्सितं लभते सर्वं पतिनासह `
मोदते \। संकष्टेपि यदाक्षिप्तो मानवो! प्रहपोडितः \ १६ ।1 साघ्राज्ये दीक्षितो
नित्यं मंत्रिभिः परिवारितः ।। सुहट्डिबेनधुभिङ्चेव तथा पुत्रैः समन्वितः ।। १७। =
तस्य तु भ्रियकर्तरौ च पत्ती गुणवती श्रिया ।। नास्ना रत्नावलत्यासीत्पतिव्रत- `
परायणा ।॥ १८ ।। तयोः परस्परं प्रीतिरभवच्च गुणाश्रया ।। कदाचिदेवयोगेन = `
। हतं राज्यं च वैरिभिः \\ १९ ।) कोज्लोबलं चापहृतं विध्वस्तो बन्धुभिः सह् ।\
रत्नावल्या तया साध्व्या निर्गतो भूमिवल्लमभः !\ २० ।\ वने क्षुधातं कृषितो
| ह्येकवासास्तृषादितः !\ इतस्ततङ्चरयाजन्नातपेनातिपीडितः 1! २९ 11 एकाक `
| वनमासाद्य पत्न्या सार्ध युधिष्ठिर \। सूर्ये चास्ताचलं याते अरण्ये च क्िवादिति ८
| ॥ २२ ।। व्याघाइ्च चुकरशुस्तत्र पन्योऽपि ववषं ह ।! कण्टकंक्लेदिता राज्ञी
| दुःखादाकन्दपीडिता ।\ २३ ॥ तां विलोक्य नुपश्रेष्ठो दुःखेनेव तु पीडितः! 0
| ततः प्रभातसमये माकंण्डेयं महामुनिम् 1 २४ \\ ददशं राजा तत्रैव विस्मयाविष्टः ` ५
मानसः ।! उपगम्य शनैस्तं तु दण्डवत्पतितो भुवि ।\ २५ \! अत्रवौदरचनं राजा ^
माकंण्डेयं महामु मू पम् ।\ कि कृतं हि मया स्वामिन् दृष्कृतं कथयस्व तत् ।! २६ ।! ५
केन कमेविपाकेन राज्यलक्षमीः पराङ्मुखी ।\ माकंण्डेय ऊवाच ।। श्यृणु राजन् = `
शान्तिदं पुष्टिदं नित्यं सर्वेव्याधिविनाहनम् ।.३२ ।पुनः पृष्ट{त्वया तत्रकि दानं
पज्यतःऽत्र कः ।। स्त्रिय ऊचुः ।। यदा चोत्पद्यते भक्तिमवि मासि गणाधिपम्
२३ ॥! कृष्णायां च चतुर्थ्यां वे रवतधुष्येः प्रयुजयेत् ।। धृषेदपिश््च नेवेद्येरन्येभ-
वितिसमाहूतैः ।। ३४ ।। विविधान्मोदकान्कृत्वा पूरिका घुतपाचिताः ।! नैवेद्यं ८
षडस सवं गणाय निवेदयेत् ।। ३५ ।। ततो गृहीत्वा राजेन्दर त्वया संकष्टनाञ.
नम् ॥\ त्रत कृतं भक्तिपुवं साद्धं तस्य प्रभावतः ।! ३९ ॥ अभवद्धनधान्यं ते
पत्रपौत्रसमन्वितम् ।। कस्मरिचन्समये राजन् धनमत्तेन सिद्धिदम् ।, ३७ ॥
विस्मृतं तदन्तं नैव कृतं यत्नेन भृतिदम् ।! ततः प्राप्तं हि पञ्चत्वमायुषोऽन्ते त्वया
विभो।। ३८ ॥ तत्प्रभावाद्राजकुल विशाले प्राप्तमुत्तमम् ।! त्वया जन्म नपश्चेषठ
राज्यप्राप्तं तथा विभो ।। ३९ ।। सृहून्मित्रप्रियायक्तः प्राप्तोऽसि विपुलं वसु. |
दत्वा त्तस्यान्तस्ततम्राप्तं फलमीदृशम् ।। ४० ॥।. राजोवाच । अधुना
` क्रियते स्वामिन् कथ्यतां मम सूत्रतम् ।। यत्कृत्वा सकलं राज्यं प्राप्यते च मया
` पुनः ।। ४१ ।। ऋषिरुवाच ॥। न्रतसकल्पमाश्चु त्व कुर चारो न॒पोत्तम ।। प्राप्स्यसि
स्वं हि राज्यं च सन्देहं मा कुर प्रभो ।। ४२ ।। इत्यक्त्वा स मुनिश्रेष्ठो ह्यन्तधनि
` मगात्ततः ।। सुनेस्तद्रचनं शभुत्वा ब्रतसंकल्पमातनोत् ।॥ ४३ ।। राजाकसेन्मरि नि-
प्रोक्तं सकलं तद्व्रतं शभम् ।। आयाता सकलास्तस्य मन्तिभत्याइ्च सेनिका
।। ४४ ।१ समाययौ नृपशरष्ठस्ततक्षणात्स्वयमेव हि । लब्ध्वा स्वकीयं राज्यच
-गण्ञस्य प्रसादतः ।। ४५ ।। बुभुजे मेदिनीं राजा पुच्रपौत्रसमम्वितः 1 तस्माच्च.
मपि राजेनद्र कुर संकष्टनाशनम् ।। ४६ । व्रतं सिद्धिप्रदं नणां स्त्रीणां चैव विले- `
षतः ।। युधिष्ठिर उवाच ।\ सविस्तरं ब्रं तूहि कृपया कष्टनाशनम् ॥
पक्लंशितो राजन् दुःखैः संकष्टदारणेः 1
व्रतानि 1 ` - हिन्दीदीकासहित २६)
(4 प
पौ
म नातिन । ५६ ।। वाद्यं लम्बोदरायेति अघ्यं चन्द्राधधारिणे ।। विवप्रियायाचमनं ` व
` द्रुत्राय पुष्पं च गुणद्यालिने ।। ५८ ।} भवानीप्रियकनरे च धूपं दद्याद्यथाविधि ।॥ `
। दीपं रद्रप्रियायेति नवेद्यं विघ्ननाशिने ।\ ५९ ।। ताम्बूलं सिद्धिदायेति एलं संक-
। भोज्यमाषाढे मधुभक्षणम् ।। ६२ । इति मासयमान्छृत्वा नरो मुच्येत संकटात् ।।
। भुञ्जीयाहा तथा सप्त्रासान् वा स्वच्छया सुखम् \।
स्नानं च ब्रह्मचारिणे ।\ ५७ ।। वक्रतुण्डायोपवीतं वस्त्रं सवप्रदाय च ॥ चन्दनं
ष्टनाशिने ।। इति नामपदः पूजां कृत्वा मासयमाज्चछणु !\ ६० ।। श्रावणे सप्त- `
| लड्ड्काञ्नभस्ये दधिभक्षणस् \! आश्विने चोपवासं च कातिके दुग्धपानकम् ।\६१। `
। मागज्ञीषं निराहारं पौषे गोमूत्रपानकम् ।। तिलांश्च भक्ष्येन्माघ फाल्गुने घृत- `
। कंराम् ।। ६२ ॥ चेतरे मासि पञ्चगव्यं दूर्वारसंः तु माधवे।। ज्येष्ठे घृतं तलं
४ ।। अदाव्तदचेत्ततःसिद्धि-
| भ॑विष्यति न संशयः ।। एवं पूजा प्रकर्तव्या षोडदोरुपचारकेः ।। ६५ । नानाभक्ष्या-
| ; दिसयुक्त &. । ५
देवाग्रे स्थापयेत्पञ्च पञ्च विप्राय दापयेत् ।! पूजयित्वा तु तं विप्रं भक्तिभावेन `
देववत् ।। द
` नमः कष्टविनाह्नाय ।। ६८ ।। इति संप्राथ्यं देवेशं चन््रायाघ्यं निवेदयेत् ।\
हारं प्रकल्पयेत् 1। मोदकान्कारयेद्राजंस्तिलजान् दशसंख्यकान् ।\ ६६ ।॥ `
दक्षिणां च यथाशक्त्या दत्त्वा पञ्चैव मोदकान् ।! ६७ । संसारपीडा- `
` व्यथितं हि मां सदा संकष्टभूतं सुमुख प्रसीद ।। त्वं त्राहि मां नाश्य कष्टसंघान्नमो
` ब्राह्यणान्भोजयेत्यश्चाग्दणेश्रीतये सदा \\ ६९ ।। स्वयं भुज्जीत पञ्चैव मोदकान्
| बन्धुभिः सह 1! अशक्तौ त्वेकमन्नं वा भुञ्जीयादुधिनाः सह 1७० ।। अथवा भोजनं `
का्यमेकवारं हि पाण्डव ।। भूमिन्ञायी जितक्रोधो लोभदम्भविर्वाजतः ।। सोप- `
वरयेदादौ यथोक्तविधिनाचयेत् ।\ एकाविशतिविप्रान्वे वस्त्रालंकारभूषणेः।\७४।।
स्करां च प्रतिमामाचार्याय निवेदयेत् ।। ७१ ।। गच्छ गच्छ सुरश्रेष्ठ स्वस्थाने `
| परमेश्वर ।। व्रतेनानेन सुप्रीतो यथोक्तफक्दो भव ।! ७२ ॥ उद्यापनं प्रकतव्यं
चतुर्थ्यां माघकरृष्णके ।! गाणपत्यं सदाचारं सवंशास््रविशारवम् ।। ७३ ।\ आचाय
न्रेतराज ज
दुःखं कदाचन ।। दारिद्र न भवेत्तस्य संकष्टं न भवेदिह ।\ वत्सरान्ते
द्वादस वै ब्राह्मणान्भोजयेत्ततः ।! विदाथ लभते विद्धां धनाय ठते धनम् \! `
` पुत्रार्थी लभते पु्रान्सौभाग्यं च सुवासिनी ।\ ८० ।। श्रुण्वन्ति ये तमिदं श्ुभमी- `
दृशं हिते वै सुखेन भुवि पूर्णमनोरथाः स्युः ।! नित्यं भवन्ति सुखिनो कलनाः `
` पुमांसः सत्युत्रपौत्रधनधान्ययुताः पृथिग्याम् एवमुक्त्वा ततो व्यासस्त- :
त्रेवान्तर्धीयत ।। युधिष्ठिरस्तु तत्सवेमकरोद्राजसत्तसः ।! ८२ \। तेन ब्रत- `
` प्रभावेण स्वराज्यं प्राप्तवाच्मपः ।। हत्वा रिपुम् कुरधेत्रं स्वरास्यमलमन्नपः
॥। ८३ ।। इतिशभीनारदीयपुराणे कृष्णचतुथीसंकष्टहरणयतिब्रतकथा समाप्ता \! `
| कथा-सूतजी श्षौनकादिकोंसे कहते हे, पाण्डुनन्दन राजा युधिष्ठिर जंगलमे जाकर निवास
करता था, भीमसेनादि चारों भाई ओर द्रौपदीके साथ सुखधूवेक वेढा हुआ था, उस समय उनसे
भिलनेके लिये भगवान् वेदव्यासजी आदरसे उनके पास गये ।! १६ राजा युधिष्ठिर मुनिवर `
वेद व्यारनीका दल्लेन करतेही क्ट सम्मुख खड हो गये, उनके लिये अर्थं एवं मवुपकंदान करके
बोले ।। २।} कि, आज मेरा जन्म आपके पधारनेमे सफल होयथा, वनवाकते कारण मृश्च जोक्ष्ट _
था॥ ३ । बहु सब अपके दन केरनेसे ही विलीन होगया, में राज्यी ऊलसासे विमुख अनेको धन्य `
मानता हुं! 2) पर हे प्रभो ! जवसे मं वनका दुःख भोग रहा षटं मौर मेरा राज्यनष्टहौ गयाहैः तभीसे
ये सब भीमसेनादिक बान्धव मूषे दुःखित करते हँ \\ ५.\। ये मेरे भाई कभौभी इसको तेजके सहनेबलेनही = `
` है ओौरन कोई इनको जीतही सकता है, क्योकि, ये बडे पराक्रमी हँ, परमेरीञन्नाकेवशवर्ती हे मौरयह `
`. पतिव्रता साध्वी द्रौपदीभौद्रपदराजकी पुत्री है \ ६ 1) अतः यह् भी राज्यके यु भोगे योग्य है, पर दुःख
भोग रही है इस लिये में आपसे पुता हूं कि, मेने एेसा कौनसा पाप किया है जिसे एेसा ह्ये रहा है \\ ७ ।\
मेरे हिस्सेदारोने जुएमें कपटसे मेरे राज्यको छीन लिया, हे ब्रह्मन् ! हम अपने प्थारे बान्धवो साथ सव कुठ
हार गये \1८\\ दूतोसे हम इस जंगलको निकलवा दिये गये ओर कहु दिया गयाकि, भाप सब जल्दीही जंगलको
चले जायं ।। ९।1 हे स्वामिन्! जन एसे तिरस्कार किये गये हम वनम चरे आये र जबसे हम जंगलमे .
दुःख भोगने लगे है, तवसे आपसे पूज्य महात्माओके दनभ नह करपाता ।! १० 1\ यदि कोई सब संकटोको
ईर करनेवाला वब्रतहो तोहे ब्रह्मन् ! हे सुव्रत ! मस्ते उसका उपदेश करे, मे दुःखित हुः मुद्चपर आपसे महा-
. त्माओको दया करनी चाहिये \। ११ \। इस प्रकार कहते हए धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिरको प्रसन्न करते हुए |
. भगवान् वेदव्यासजीने संकष्टनाशनं उत्तम त्रतका उन्हुं उपदेश कर दिया १ १२ ॥। वेदव्यासजी बोले किःहै |
राजन् ! तुम्हारे सदृश पृ थिवीपर कोई भौ दूसरा धमेनिष्ठ नही है, इसलियि आज में आपको ब्रतोमेके उत्तम
कहता हुं \\ १२ \} पुथिवीभरमे संकष्टनाडान नामकं तरतके समान नित्य लुभफलका देनेवाल दूसरा
व्रत; र है \ इसं ब्रतके 1 सब काम सिद्ध होते हँ ।। १४ ॥\ विद्यार्थो विद्याका, धनाथ, षेनका
= श्ञव्द करने लगे, मेघभी वरसने लगा, कांटोने रानीके चरण बींध दिए, जिससे यह् घबराकर रोने लगी
२३ । राजा अपनी रानीको उस संकटमे पडी हयी देखकर उसके इुःखसे र भी दुःखित हो गया, इसके
८ वाद प्रभातकालके समय महामुनि साकंण्डेयका \। ३४ ।\ आकस्मिक दर्शनकर चकित हो गया, शनैः शनैः `
` उनके समीप जाकर दण्डवत् प्रणाम भूमिपर गिरकर किया ।! २५।। पीछे उनसे अपने दुःलका कारण
पृषे लगा कि, है स्वामिन् ! मेने एेसा कौनसा पापकिया है उसे कहिए ।। २९ ।॥। जिसके कारण सुश्चसे राज्य `
रुक्ष्मी विमुख हौ गयी । यह सुन भाकंण्डयजीने कहा कि, हे-राजन् ! पूवेजन्ममे जो तुमने दुष्कमं कियाद,
उसे सुनो, भे कहता हूः पहिरू जन्ममं आप व्याध थे, गहून वनम गये. वहां चारों जोर मुग, शवल ओर खर- `
भोशषोको मारते \\ २९ । उसी वनमें रातको घूमते हए माघ कृष्णा चतुर्थौ के दिन हे राजन् ! कृष्णा नदीका `
एक युन्दर एवम् निमंल पानीका तालाब देखा ।। २९ ।। उसके किनारेपर लाल कयडा पहन गणेशजीको ` ष १
। परजती हुई नागकन्याओंका समूह व्रतम लगा हा देखा ।! ३० ।\ हे विमो राजन् । आपनं शनेः शनैः उनके
(~ पासं जाकर उनसे पुछा कि, है पज्याओ ! यह तुम क्या करती हो ? सो, तुम संब वृत्तान्त थथाथं कहो ।\ ३१। = ` ¦
नागकन्याओनें कहा. कि हमं गणपतिका पजन करती हे, उन्हींका व्रत किया है, यह् ब्त सवाही सिद्धिःश्चन्ति
ओर पुष्टिका देनेवाला, समस्त व्याधियोका नाद करनेवाला है ।। ३२ ॥। तुमने फिर, उन नागक्न्याभोसे `
| पृछा फि, इस व्रतम क्या दिया जाता है, किसक्रा पूजनं होता है ! नागकन्यामोने |
| भवित उपे, तभौ भावम गणपतिजीका कृष्ण चतुर्थीके दिन लाक पुष्परसे पूजन करे ओर भक्तिभावसे = `
` ` इकट्टे करिए गये धूयं दीप, नैवेद्य ओर अन्यान्य उपचारो द्राराभी पजन करना चाहिए 11 ३३ ॥ २४ ।नाना- `
। विधि मृग, चणे, तिल आदिकोके ल्डड् ओर घीकी पुरियोका एवम् छः रसवाके पदार्थोक्ाभोग लगे `
| ॥३५।। हे राजेन ! उन नागकन्याओंसे ग्रहृण करके तुमने साद्धोपाद्धविधिसे भक्तिपुवेक संकष्टनाङञन =
प उत्तर दिया फि, जच कभी
। व्रत करना आरम्भकर दिया, फिर उस ब्रतके प्रभावसे ।। ३६ । तुम्हारे पुत्र, पौत्र ओर धन घान्यकौ
असित सम्पत्ति हई, पर कु समयके पदचात् संपत्तिके मदसे तुमने सिद्धिदायक सम्पत्तियोका देनेवाला
॥ ३७} वहु व्रत करना भूलकर छोड दिया ओर जिस प्रकार फरना चाहिए था उस प्रकार नहीं किया,
फर जायु वौत गयी, तुमारा भरण हो गया \\ ३८\। तुमने जो पहिले भवितभावसे व्रत किया था उस्के
_ भ्रभावसे तुम्हारा राजवंडा में जन्म ओर विशाल राज्य हज ।। ३९ ।। सुहृद, मित्र, पतिब्रतास्त्री मौर विपु `
धन प्राप्त हमा, किन्तु तुमने अन्तम घनके मदसे उसकी अवज्ञाकी थी, इसी दोषसे यह संकट प्राप्त हुजाहै . = `
| ॥ ४० ॥ राजाने फिर प्राथेनाकी किं, है विभो! अब सुष्चे क्या करना चाहिए, कोई व्रत कहिए जिसके `
| . करनेसे फिर मुञ्चे राज्य भिर जाय ।\ ४१ ।। माकंण्डेय मुनि बोले कि, हे नृपोत्तम ! तुम अब उसी ब्रतको `
करनेका जल्दीही संकल्पकरो, आप सन्देहं न करे आप फिर जपने उस राज्यको प्राप्त हो जायगे । ४२॥
माकंण्डेय सुनि इतना कहकर अन्तहित हो गए, उस राजाने इनकी अनुमतिके अनुसार त्रत करनेका संकल्प
किया 1\ ४३1) मुनिजीने जो विधि बतायी थी उसौ विधिसेउसं सारे पवित्र व्रतको पूरा किया, जिसके
` भासोके नियमोको करके मनुष्य संकटसे छट जाता है \ यदि एसा करनेमें अक्त हो तो सात ग्रस खाकर युख- `
। ( ` पांच लड्डजोसे निर्वाहं करनेको शव्ति न हो तो दधि ओर एक किसी अद्मके पदार्थका भोजन करे 1\७०।\ `
ब्रतराज [चतुर्थी
पीछे पजा करना, जसी अपनी दाविति हौ उसके अनुसार सोने की मति बनवाकर ।। ५३ ।। उसे शापिदक्ते
अनुसार सोने चांदी या तांबे मिहीके फल पृष्पोसे भरे हुए कुभपर वंध स्थापित करनी चाहिए ।\ ५४ ॥
कुंभकोपवित्रस्थर वस्त्रसे ठककर रखना चाहिये अष्टदल कमकको बनाकर उसपर धरना चाहिये 11 ५५ ॥
वहां गन्धादिकोसे पूजन करना चाहिये ।। ७५ ।। रक्त पुष्प ओर धूपसे इन जुदे जुदे नामोसे पुजे, गणेशजीके
लिये नमस्कार इससे आवाहन तथा विष्नोके नान्न करनेवालेके लिये नमस्कार इससे आसन निवेदन करना
चाहिये \\ ५६ ।। म्बोदरके लिये नमस्कार पाद्य सर्मपित करता हूं" जध॑चन्द्रधारीको नमस्कार अघं सर्मापित
करता हुं, सबके प्यारे अथवा सबही जिसे प्यारे हें उसके लिये नमस्कार आचमन सर्मापित करता हं बरह्मचारीके
लिये नमस्कार स्नान कराता हूं, \\ ५७ ।\ टेढे तुण्डवाखेके लिये नमस्कार उपवीत निवेदन करता हूं सब
कुछ देनेवाखेके लिये नमस्कार वस्त्र पहिनाता हू, खरक पुत्रके लिये नमस्कार चन्दन र्गाता हू, गुणश्ालोके
लिये नमस्कार पुष्य समर्पण करता हूं \\ ५८ ।। तथा भवानीके प्रिय करनेवारेके लिये धूप भौ विधिके साथ
देनी चाहिये कि उसके छ््यि नमस्कार धूप सृघाता हुं । रुरक प्यारेके लियं नसस्कार दीपक दिखाता हु, विघ्नना- `
कको नमस्कार नैवेद्यका निवेदन करता हूं ।।५९।। सिद्धि देनेवाले लिये नमस्कार पान समर्पित करता हं, `
संकटनाश्लीके लि नमस्कार फल सम्पण करता हूं, इन नाममंजोसे पूजा करनी चाहिये, महौीनोके निय्मोको
सुन ।॥। ६० ।} श्रावणमें सात लडड्, भादोमं दधि भोजनः, क्वारमं उपवास, कातिकमं दूध पान ।६१।। मार्ग
शौ्षमे निराहार, पौषमें गोमूत्र पान, माघमं तिल ओर फल्गुनम घी ओर सक्करका भोजन ।\ ६२ ।। चेत्रमं
` पंचगव्य, वैसाखमें दूब रस, ज्येष्ठसें पलभर घुत ओर आषाद्मं मधु मोजनं करना चाहिये ।\६३।} इस प्रकार * ` ॥ |
` पवेक रह जाय ।। ६४ \} यदि भासोके यम करनेमं अशक्त हौ तो, उसे अवद्य सिद्धि होगी इसमं सन्देह नही
इसी तरह सोलह उपचारोसि पूजा करनी चाहिये ।। ६५ ।। नाना विध भक्ष्य भोज्य गणपति देवके भेटकरे, ह
राजन् ! दद्म तिलोके लंड्ड् बनावे ।\५९।। उनमेसे पांच गणेडाजीके आगे रखदे, पाच लड् ब्रह्मणकोदे दे
जब ब्राह्मणको लड. दे तब देनेके पहिले देवताकौ तरह उस आचायेकी भक्तिसे पुना करे, शक्तिके अनुसार
: दक्षिणा दे पर लड़ पांचही होने चाहिये ।\ ६७ ।\ गणेराजीकी प्राथनाइस प्रकार करनो चाहिये कि, है सुमुख!
(जिनके मुख दर्दने मद्धलहो एसे) मं सदेव सांसारिक दुःलोसे दुःखित रहता हं आप सुञ्ञपर प्रसच्च होकर
मेरी रक्षा करे । मेरे संकटसंघोको नष्ट करिये संकटोके विनाशक आपके लिये बारबार प्रणाम है \\! ६८ ॥
इस प्रकार गणेशजोकी प्राथना करके चन्द्रमाको अध्यदान करे, फिर गणेशजीकौ शाश्वतिक भ्रसन्नताके लिये
`. ब्राह्यणोको भोजन करावें \! ६९ \। पौरे बान्धवोके साथ आपभी पांचही लडुजोको खाकर रहं जाय, यदि
(|
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^ . कि ४,
तानि .: . : :. हित्दीटीकासदितः : ˆ - .. (२०५). .
4४ हीते ।। ७९ ।। संवत्सर बीतनेर द्वादज्ञ ब्राह्मणोको भोजन कर वे, विद्यार्थीको विद्या, धनार्थौको धन, पुत्रार्थी ; |
अपने शतरुभोको कुरषे्रमे मारकर राज्यको प्राप्त हो गये ।\ ८३ । यह श्रीनारदीय पुराणसे कही हुई कृष्ण `
पक्षक चतुर्थोके दिनक संकट हरण गणपतिके ब्रतकी कथा समाप्त हुई ।। ` 0
अ द्खारकचतुर्थीत्रतम्
म
कौ पत्र जौर सुवासिनी (स्त्री) को सौभाग्य प्राप्त होता है । ८० । ओर जो इस व्रतकौ कथाकाश्रवण
करते ह उनके मनोरथ अनायास पूणं होते हँ मौर वे पुरुष पूथिवीपर सुल ओर सपुत्र, पौत्र, घन एवं घान्यसे `
सम्पन्न होते हँ \\ ८१ ।\ भगवान् बेदव्यासजी राजा युधिष्ठिरसे एसा कहकर वहां ही अन्तर्धान होगये ! `
नुपतिवर राजा युधिष्ठिरने यथोक्त विधिसे उस व्रतको किया 1} ८२ ।। राजा यधिष्ठिर उस व्रतके प्रभावसे `
अथ गणेक्ञपुराणेऽद्धारकचतुर्थीत्रतकथा ।! कृतवीयपितोवाच ।। अद्धारक-
चतुर्थ्या च ˆ विशेषोऽभिहितः कुतः ।। वद त्वं कृपया ब्रह्मन् प्रश्रयावनताय मे `
। ॥ १। श्युण्वतो न च मेतृप्तिगंजाननकथां शुभाम् ।। ब्रह्मोवाच ।\ अङ्खारक- `
। चतुर्यस्तु महिमानं महीपते \। २ ।! श्युणुष्वावबहितो भत्वा कथयामि तवाग्रतः, ।।
| अवन्तीनगरे राजन् भारदहाजो महामुनिः ।। ३ ।! वेदवेदाद्ध
वित्प्रा्ञः सर्वलास््र-
| विशारदः । अग्निहोत्ररतो नित्यं शिष्याध्यापनतत्परः ।॥। ४ }) नदीतीरे गत- `
` स्तिष्ठन्नुष्ठानरतो मुनिः ।\ अकस्मात्कामिनीं दृष्टा कामासक्तोऽभवन्मुनिः `
| ॥ ५ ॥\ कामनाणाभिभूतः सल्निपपात महीतले ।1 अत्तिविह्वलगाच्रस्य तस्य रेतस्त-
दास्खलत् ।। ६ ॥, प्रविष्टं तस्य तद्रेतः पुथिवीबिलमध्यतः ।। तत एकः कुमारोऽ- `
भूज्जपाकुसुमसनिमः ।\ ७ ।॥! तं धरित्री स्नेहवज्ञात्पाल्यामास सादरम् ।। जनुः `
। स्वं तेन धन्यं सा मनुते पितरौ कुलम् ।। ८ ।। ततः स सप्तव्षस्तां पप्रच्छ जननी `
। निजाम् ।\ मयि लोहितिमा कस्मान्मानुषं देहमास्थिते !! ९ ।। कच मे जनको `
| मातस्तन्ममाचक््य साप्रतम् 1 घरोवाच ।। भारद्वानमुने रेतःस्वक्तं मयि सङ्ग-
। तम् ।} १७ ॥। ततो जातोऽसि रे पुत्र बधितोऽसि मया जुभम् ।! सुत उवाच ।। तहि `
सुनि मातदंशेयस्व तपोनिधिम् ।। ११ ।। ब्रह्मोवा
11 तदाल्या ययौ धात्री स्वधाम रुचिरं तदा ॥ १३१
वाच ।। तमादाय तदादेवी
॥। उवाच प्रणिपत्यनं त्वद्रीयंप्रभवं सुतम् ।। १२ । बधितंतं
जम् ।। १९ ।\ दिव्याम्बरं भालचन्द्रं नानायुधलसत्करम् ।। चारुलुण्डं लसहन्तं
गू्षकण सकुण्डलम् ।। २० ॥। सुयकोटिग्रतीकाश्चं नानालंकारमण्डितम् ।। ददन्षं
रूप दवस्य स बालः पुरतः स्थितम् ।। २१ ।। उत्थाय प्रणिपत्येनं कुष्टाव जगदी. (
रवरम् ।। नमस्ते विष्ननाक्नाय नमस्ते विध्नकारिणे ।\२२ ॥। सुरासुराणामीज्ाय `
सनसक्तयुपवुहिणे। निरामयाय नित्याय निर्गुणाय गुणच्छिदे ।\२३।। नमो ब्रह्मविदां
श्रऽट स्थितिसंहारकारिणे ।। नमस्ते जगदाधार नमस्त्रैलोक्यपालक ।\ २४ || बरह्मा-
रहय विदे ब्रह्मणे ब्रह्मरूपिणे।।लक्ष्यारक्ष्यस्वलूपाय इर्लक्षणच्छिदे नमः ।। २५॥ `
नमः श्रीगणनाथाय परेज्ञाय नमो नसः ।। इति स्तुतः प्रसन्नात्मा परमात्मा गजा |
ननः ।। २६ ॥ उवाच इलक्ष्णया वाचा बालकं संप्रहर्षयन् ।। गाजानन उवाच ।। ।
तवोग्रतपसः तुष्टो भक्त्या स्तुत्यानयापि च । २७ ।। बालभावेऽपि धैयि ददामि
वाज्छितान्वरान् ।। एवमुकतो भूमिपुत्रो बच ऊचे गजाननम् ।। २८ ।। भौम उवाच।। `
` धन्या दृष्टिजननमयपि मे द्शनात्ते सुरेश धन्यं ज्ञानं कुलमपि तथा भः सन्ेलाच ५
` धन्या ।। धन्यं चेतत्सकलमपि तपो येन दृष्टोऽसि चक््धन्या बाणी वसतिरपि या
संस्तुतो मूढभावात् ।। २९ ।। यदि तुष्टोऽसि देवेश स्वर्गे भवतु मे स्थितिः ।। अमतं
पातुमिच्छामि देवः सह॒ गजानन ।। ३० ।} कल्याणकारि मे नाम स्यातिमेतु
जग्रये ।! दलनं मे चतुर्थ्या ते जातं पुण्यभ्रदं विभो ।\३१।। अतः सा पुण्यदा नित्यं
सवसंकष्टहारिणी ।। कामदा त्रतकर्वणात्वत्मसाद त्सुरश्वर ।। ३२। गजानन
उवाच ।। अमृतं प्राप्स्यसे सम्यण्देवेः सहं धरासुत।! मद्धखेति च नाम्ना त्वं लोके `
ख्याति गमिष्यसि ।। ३३ ।। अङ्कारकेति रक्तत्वाद्रसुमत्या यतः सुतः ।। अद्खारक- `
चतुर्थो ये करिष्यन्ति नरा भवि ।। ३४ \। तेषामन्दभवं पुण्यं संकष्टीत्रतसम्भवम्
निविध्नता सवका भविष्यति न संशयः ।। ३५ ।! अवन्तीनगरे राना भविष्यसि
द्रतानि1 द हिन्दीटीकासहित (२४७)
। चतुर्थी भौमदंयुताम् । ४३ ॥। कत्वा प्राप्तं यथा स्वगे सुधापानं सुरैः सह ।\ यत- `
` शचाङ्कारकयुता चतुर्थी प्रथिता मुवि ।\ ४४ \\ चिन्तिताथंप्रदानेन चिन्तालणि- `
रिति प्रथास् । प्रयत्ने सङ्कलम्तिः सर्वानुग्रहकारकः \) ४५ ।। पारिनेरात्तु नगरा-
| त्षटिचभे प्रथितोऽभवत् \\ छिन्तासणिरिति स्यातः सवेविघ्ननिवारणः \\ ४६ ॥
अतः सर सिद्धगन्धरदैः पुज्यते स विधूदये 1) ददाति वाचज्छितानर्थान् पुत्रपौत्रादि-
। संपदः \ ४७ ॥। इति श्रीगणेशपुराणे ब्रह्मकृतवीरयपितृसंवादे अङ्खारकचतुर्थो- `
| ४ व्रतकथा सम्पूर्णा ।। इति चदुर्थोव्रतानि | |
| अद्धारकंचवुथीके त्रतकौ कथा गणेशपुरणमें निरूपणकरी है कि, इृतवीयं राजकेपितने ब्रह्याजीषे
पृछा कि, हे ब्रह्मन् ! ओर चतुर्थके व्रतोकी अपेक्षा मंगर्वारी चततुथोकि दिन ब्रत करनेका माहात्म्य अधिक
। क्यों कहा है, उसे जप अत्यन्त प्रणत मुद्चको कृपा करके कहौ । १ ।। गमेकजीकौ पवित्र कथासोके युननेसे =
| मेरा चित्त तप्त नहीं हता । थह युन ब्रह्माजीने उत्तर दिया फि, है महीपते ! अंगारकचतुर्थकी महिमाको
॥२)1 तुम समाहित चित्त होकर सुनो भें तुमारे सम्मुख कहता हं । उज्जयिनौ नगरीमे महामुनि भाद्राज = ` `
` रहते थे ।! २ 11 वे बेद ओर बेदाद्ोके परिज्ञाता, मीमांसाऽऽदि समस्त शास्त्रोके तत्त्ववेत्ता, नित्य अग्निहोत्र = `
| . करनेवाक्ते ओर शिष्योको वेद पढानेमं परायण थें ।। ४ \\ वहं मुनि किसी समय नदीके किनारे बेढाहूमा `
। अपना नैत्यिकं एवं नैमित्तिक अनुष्ठान कर रहाया, वहांपर अकस्मात् आयी हुई एक् युन्दरीको देखकर `
| कामासक्त हो गया ।। ५ ¦! फिर कामदेवे बा्णोसि पीडित होकर धरतीपर भिर पडे ओर जब बे अत्यन्त `
मूढ होगये तब उन महात्माजीक वीर्यं भौ स्खलित होगया ।\ ६ ।। उनका वह् वीयं धरणीके बिलम चला गया,
। उससे एक कुमार उत्पन्न हया, उसकी आकृति जपापुष्पके समान लाल थौ ।\ ७ ।) पृथिवीन बडे ही स्नेहसे
| ` उसकी पालनः की ओर उश्च बारकके उत्पन्न होनेसे उसने अपने जन्म ओर मातापिता मौर कुलको धन्यमाना `
` ॥८।॥ जब वह् बाटक घासं वर्षका हो गया, तब उसने अपनी मातासे पुछा क्रिमे भी जब ओर सनुष्यकि `
` समान मनुष्य हूं, तब मेरा शरीर ही एेखा खाल क्यो हो गया 1 ९11 हे मातः! मेरेपिताकाक्यानाम हैः
यह सब मु्चसे कहौ पृथिवीन उत्तर दिया करि, भारद्वार मुनिका वीयं गिरकर मेरेमे स्क गया । १० ।\ उससे = `
तुम्हारी उत्पत्ति हुई है, हे पुत्र मेने तुम्हारी अच्छी तरह पालना कौ, जिससे तुम इतने बडे हौ गये । सुतजी .
कहते हें कि, यह् सुन पुत्र बोला कि, यदिरएसेही मेरा जन्महुजाहैतो हैमातः! मुञ्चकोउन महात्मके : `
दे्नकरादे।) १९१) ब्रह्माजी बो कि, फिर पुथिवीदेवी उस बारकको साथ लेकर महामुनि भारदान्के
` आश्रममें गयी ओर उनको प्रणामं करके बोली कि, यहु आपके वीयसे उत्पच्च हज आपका पुत्रै १२
` मेने इतने समयतक इसकी पालना कौ, अब आपके समीप लायी हु, आप इसको अङ्खोकार करो । महामूनिकी `
आज्ञा केकर पु मुनि प उस बालकके मिलनेसे बहुत प्रसन्न
शर्पसदश शुन्दर कुण्डल भण्डित कानवा \। २० ॥ कोटि सू्योके समान दीप्यमान, नानाऽलंकरोसे मण्डितं
गणेश्षजीके उस स्वरूपको देखकर ।। २१ ।। खड हुये ओौर उन जगदीरवर गणयतिदेवकीौ स्तुति करने लगे
कि, हे प्रभो ] आप चिष्नों का नाक करनेवाले हौ आपके लिये नमस्कार है, आपही तिष्नोके करनेवाले हो
आपके लिये नमस्कार है \\ २२ ।1 देवता एवं दैत्योके अधिपति, समस्तशक्तियोसे सम्पन्न, निरामर्त, नित्य,
निगंण ओर संसार बंधनके हैतुभूत गुणोके छेदनकारी ज हं आपके लिये प्रणाम है \ २३ । हे ब्रह्मवेत्ताओमें
` श्रेष्ठ ! आप सबका पालन ओर संहार करनेवाङे हँ आपके लिये प्रणाम है, है जगदाधार आपके लये प्रणाम
है । हे धिलोकौकी रक्षा करनेवारे आपके लिये नसस्कार है ।! २४ ।। ब्रह्याके भी पूवेवर्ती, ब्रह्म (वेद) के
वेत्ता, ब्रह्य ओर ब्रह्मस्वरूप आपके लिये नमस्कार है ओर जिनका स्वरूप लक्ष्य होते हुए भी पारमार्थिक
रूपसे अलक्ष्य हे एेसे आपके लिये नमस्कार, कुलक्षणोंक दोषको मिटानेवाले आपके लिये नमस्कारहै \\ २५)
०५५ णेश्षजीके लिये प्रणाम है, परम ईहवरके लिये बारबार प्रणाम है! इस प्रकार स्तुति करनेते परमात्मा
तिदेव प्रसन्न हयैकर ।। २६ ।। स्निग्धवाणीसेउस बालकको प्रसन्न करते हुए बोरे किं, तुम्हारी उग्रत्-
य, परमभक्ति तथा इस स्तुतिसे मे परम सन्तुष्ट हं \\ २७ । तुमने बालक होकर भी इतना धेयं रखा
इससे में तुम्हूं वांछित वरदान करता हूं । एेते जब गणपति वरदानं करने उद्यत हुए, तब भूमिनन्दन गणेकजीसे
सवगम हो मे देवताओके साथ अमृतपान करना चाहता हूं ।! ३० \\ मेरा नाम तीनों भुवनोमं कल्याणं करने-
, यानौ मंगल विख्यात हो 1 है प्रभो ! मेने आपके पुण्यप्रद दरेनञाज (माघ वदि) चतुर्थीके दिनि कयि
३१ ।। इससे यह चतुर्थौ नित्य पुण्य देनेवाली एवम् संकटहारिणौ हयो इस दिन आपका जो कोई व्रत
सुरेहवर ! उसकी समस्त कामना आपको कृपासे पुणं हो \\ ३२ ।। गणेशजी बोरे कि, है भूमिनन्दन ।
करनेका फल मिलेगा, उनके सभौ कार्यो से निविच्लता होगौ, इसमे समदेह नहीं है !। ३५1 अवन्ती
नगरमे तुम परन्तपनामके राजा होगे क्योकि तुमने ब्रतोमेके उत्तम इस त्रतको किया है ।\ ३९६ \। यह व्रत `
९. 1\ वहु समस्त अवम्तिदेदा छ (उज्जयिनी राज्यभर) सभीकी कामना
पुजन सौर दरोन करनेसे सबके च्य मोक्षप्रदं विध्ननायक
व्रतानि) ` हिन्दीटीकासदहित ` (२८६). (4
अथ पञ्चमीतानि
हरिपूजनम् ।!
ध अथ चेत्रश॒क्लपञ्चमी कल्पादिः ।\ तदुक्त हेमाद्रौ मात्स्ये-ब्रह्मणो या दिन- ॥
स्यादिः कल्पादिः सा प्रकीतिता । वेश्ञाखस्य ततीयायाः कृष्णायाः फाल्गनस्य `
च ।! पञ्चमी चत्रमासस्य तस्य-वान्या तथा परा ।। तस्यव चत्रस्यवं । परा कत्पा- ५५
` दिरित्यथैः ।। शुक्ला त्रयोदशी माघे कातिकस्य तु सप्तमी ।! नवमीमागंशीषस्य
सप्तताः संस्मराम्यहम् । कल्यानामादयो ह्येता दत्तस्याक्षयकारिकाः ।। अस्यां
दोलोत्सवः कार्यः ।। तद्क्तम्-चेत्रे मासि सिते पक्षे पञ्चम्यां पूज्येदढरिम् ।॥
` तत्र दोलोत्सवं कुर्यत्युष्प
देवताः ।} सरक्चन्दनसमायुक्ता
अथ श्रावणह्ुक्लपञ्चमी, नागपुजायां परा-पञ्चमी नागायां कार्या षष्ठी- |
न् ब्राह्मणान् भोजयेत्ततः ।। इरि
पधूपेश्च पूजयेत् ।। नारी नरो वा राजेनद्र सन्तप्यं पितु" `
इति हेमाद्रौ भविष्ये ।!
समन्विता । तस्यां तु तुषिता नागा इतरा सचर्तुथिका ।। अत्रेव प्रभासखण्डोक्तं `
सपविषापहं पंचमीव्रतम् 1! ईदवर उवाच ।। श्रावणे मासि पञ्चम्यां शुक्लपक्षे `
वरानने ॥। द्वारस्योभयतो लेख्या गोमयेन विषोल्वणाः । घुतोदकाभ्यां पयसा `
स्नापयित्वा वरानने । गोधूमैः पयसा चेव लाजेश्च विविधैस्तथा \। पुजयेद्विधिव- `
देवि दधिदूर्वाडङुरेः क्रमात् । गन्धपुष्पोपहारेश्च ब्राह्मणानां च तर्पणम् ।। अथवा `
` श्रावणे मासि पञ्चम्यां श्द्धयान्वितः ।\ यञ्चालेख्य नरो नागान् कृष्णवर्णादि- = `
वर्णकैः । गुरुकल्पांस्तथा वीथ्यां स्वगृहे वा पटे बुधः । पुजयेग्दन्धधूयेश्च पयसा `
पायसेन च ।\ तस्य तुष्टि समायान्ति पदमकास्तक्षकादयः । आसप्तमात्कुले तस्य `
न भयं नागतो भवेत् ।\ दिवारात्रौ नरैः कां मेदिनीखननं नहि ।\ मन्त्रोऽयमुच्यते `
संप ५ र स्य प्रतिषेधकः ।। तस्य प्रजपमात्रेण न विषं क्रमतं सदा ।\ ॐ कुकुल हुं
इत्येवं कथितं ध देवि नागव्रतमनुत्तमम् ।। यच्छुत्वा च परित्वा च 1
तथा गन्धादिधूवश्च पुजये्नागमत्तमम् \ ब्राह्मणान्भोजयेत्पदचादधतपायसमो-
ब्रतराज
` अक्षय एल हता है । इस्त भगवानुके डोरेका उत्सव करना चाहिये, यह् हैमाद्रिमं भविष्य पुराणको केकर `
= कष्ट है कि, वैच बुला पंदसीको सगवासृका दजन करना चाहिये फिर डोखेका उत्सव फरमा चाहिये फल `
ओर युते भकवूप्त एव करना कहि, हे राजेन्दर ! स्त्री हो अथवा पुरुष हो पितृगण ओर देवतासोका `
वैण छरकै शला पहने भैर चन्दन रगाये हए ब्राह्मणोको भोजन कराना चाहिये \। इसीमे प्रभासं खण्डका = `
का हथ सरक दिष्ठे नाक करनेवाला पंचमीका वरत हता है \ शिवजी कहते हं कि, है वरानने ! भावम `
साकी ह्ुक्खछा पंचभीके दिन दारके दोनों ओर गोमयसे एसे स्यं काठने चाहिये लिनसे विष परिस्फ्र दीसे, `
हे धयम | वृत्तः उद आर् दूष स्तन कराकर गो धूपं पय ओर लाजोसे तथा अन्य वस्तुभोसे हे देवि !
[न कः
४,
रथि अमर दूब अकु ससे कमसे विधिवत् पुजन करना, हे देवि ! फिर गन्ध पुष्प जौर उपहारसे ब्राह्मणोको `
संतुष्ट करे ¦ अथसा भ्रावणसुदि पंदमोके दिन जो बुद्धिमान् मनुष्य श्रद्धासे काले नीले आदि विचित्र रंगवाके `
स्थर ओौर ऊभ्वी आकृततिवाल सर्पोको, घरके किसी एक देशम या अपने यकनादिक जो मुख्य घर हो उसमे
मथः द्तरपर लिखे सन्ध, पुष्प, धृष, दूध ओर पायससे पूजित करे, उसके ऊपर पञ्चक तक्षक आदि सब प्रसन्न `
हते हं फली उसं दिन उवतविधिसे नागपूजन करनेवाला पद्मक तक्षक वासुकि प्रभति नागोका आश्षीर्बादया `
उनकी पाका पश दकजाताहै । सात पीढी तक उसे सपंका भय नहीं होता श्रवणसुदी पंचमीके दिन सुयके
रहते आर सुद जस्तंरे भूमिमं गड्ढा न करे! ओर “ओं कुकुलं हं फट् स्वाहा" यह मन्त्र सर्पोकी विष बाधाको
शान्त् करनेवाला है, इसलिये इसमन््रका आराधन करनेवाला सर्पोकी विषवाधासे पीडित नहीं होता। `
9 | नागपञ्चमी | 1 |
ध य॒ मद्रपद्ुक्लपञ्चम्यां लागपञ्चमीव्रतं हेमाद्रौ प्रभासखण्डे
ईशर उवाचं भासि भद्रपदे वापि शुक्लपक्षे तु पञ्चमी ।\.
क
1
मच॑येदुक्त्या नागं पञ्च फणाभृतम् ।! करवीरैः शतयपत्रेज {तिषपुष्पड्च पद्मकः ॥\ `
ध अक ह 1 कालियं तक्षक तथा \। पिद्धलं च महानामं `
सि भासि प्रकीतितस् । । ब्रतस्यान्ते पारणं स्यात्क्षीरे ह
साथ उसका पुजन करना चाहिये \ इस उत्तम नागका पजन कनेर, शतपत्र, जाती मौर पद्य तथा गंधसे केकर `
धूप दीप आदि सबसे करना चाहिये । फिर बाहयणोको घतयुक्त पायसं आर सोदकोका भोजन करावे \ जर `
१ अनन्त, २ वासुकि, ३ शेष, ४ पद्य, ५ कदल, ६ कर्कोटक, ७ अश्वतर, ८ घतराष्ट, ९ हांदयाल, १० कालिय,
११ तक्षक, १२ पिद्धल ये ह्ाद्श महानाग है, इनकी श्रावण आदि दादश भासो कमस पजा करनी चाहिये `
` (यदि श्रावणमे नाम पुजन करना हौ तो “अनन्ताय नमः, अनन्तमावाहयामि, भो अनन्त इष्टागच्छ इह
सुस्थितो भव, त्वामचेयाभि'' इत्यादि वाक्यसे अनन्तनामक प्रधान सूपसे प्रयोग करता हंजा सागरजोका
| पूजन करे ! ओर एेसेही भ्रपदादि अन्यान्य मासोमें भी वासुकरप्रभति प्रागुक्त कम प्राप्त नासोके समोका `
। प्रधान रूपसे उच्चारण करता हमा पूजन् करे) । ब्रतके अन्तमे पारणाकरे, ब्राह्मणोको इष या दृयके पदाथ
। खिलावे, इस त्तमं एक भार सुवणका नाग बनाना चाहिये, उसको ब्रह्य वचेस्वी किसी ब्राह्मणको ३ देना चाहिये ।
भोग लगावे ! इस प्रकार प्रभासखण्डमेके नागपरबमीका त्रत पूरा हा ।! ध
1 अत्रेव नागदष्टव्रतम् ।
व्रजत्यधः ।।अधो गत्वा भवेत्सर्पो निर्विषो नात्र संहायः ।। १1 हतानीक उवाच ।।
। त्करोम्यहम् ।। ३ ।। सुमन्तुरुवा
। पदे राञ्छवलप
॥५।। चतुथ्यमिकभक्तं च तस्यां नवतं प्रकीतितम् ।। कुर्याच्चा
। ब्राह्मणान् भोजयेत्पश्चाद्ध॒तपायसमोदकंः ¦
तः लः | ^ इतिहासविदे नामं काञ्चनं रत्न
पस्करथंयताम ।। दानकाले
उस दानके साथ गौ ओर वस्त्रोको भी दे । ओर सभीको चाहिये कि, वे सं प्रकार भक्ति प्रायण होकर `
नागरा्जोका सवं दा पुजन करे, विजेषरूपसे श्रावणयुदि ५ को नासराजोका पुजन करे, दूय या दूधफे पदार्थका
हेमाद्रौ भविष्योत्तरपुराणे ।। सुमन्तुरुवाच ।। नागदष्टो नरो राजन् प्राप्य मत्यं श
। नागदष्टःपितायस्य भ्राता वा दुहितापि च।। माता पूत्रोथवा भार्या कर्तव्यं तद्रदस्य
। मे।) २॥। मोक्षाय तस्य विद्रे दानं व्रतमुपोषणम् । बूहिमे हजार यइूवेत्त-
५ उपोष्या पञ्चमी सभ्यक् नागानां बल- `
बधिनी ।। सममेक यावच्च विधानं श्णु भारत ।। ४) समकं संवत्सरम् ।॥
उपोष्येति दिवाभोजनाभावः ।। “तस्यां नक्तम्” इत्यग्रे नवेतोवतेः 11 मासि भाद्र- ५ ८.
पक्षे तु पञ्चमी ।! सापि पुण्यतमा प्रोक्ता ग्राह्यासौ सतिकाम्यया `
र्याच्चानद्रमसं नागमथवा `
६ ॥\ हेमं रोप्यं चेत्यथंः ।\ अथ दाश्मयं भव्यं मन्मयं बाप्य-
पञ्चम्यामचयेःटकत्या नागं पञ्चफणं तथा ।\ ७।। करवीरेस्तथा = `
: सुगन्धिभिः ।। गंधधूपेहच नेवे्येः स्नाप्य क्षीरादिभिनृप ।॥ ८॥
. अनन्तं वासुकि शद्धः पदां कंबलमेव `
च 1 ९ ॥\ तथा कर्कोटकं नागं नागमहवतरं नुषः ।। धृतराष्ट्रं शङ्खपालं कालियं _ `
0
नि
१४ ।। सर्वगं स्वेधातारमनन्तमपराजितम् ।। ये कंचिन्मे कुर सपेदेष्टाः प्रप्ता
ह्यधोगतिम् ।\ १५ ।। ब्रतदानेन गोविन्द मुक्तिभाजो भवन्तु ते ।! इत्युच्चार्या
` क्षतेर्यक्तं सितभ्चन्दनमिधितम् । १६ ।! बासुदेवाग्रतो भूष तोयं तोयेऽथनिः-
क्षिपेत् ।! अनेन विधिना सवे ये मरिष्यन्ति बा मृताः ।। १७ ।। सपेतस्तेऽभिया-
स्यन्ति स्वर्गेति नृपसत्तम ।,! व्रती सर्वान्समद्धत्य कुलजान् कुरुनन्दन ।। १८ ॥
प्रयाति विष्णुसा्धिध्यं सेव्यमानोऽप्सरोगणेः वित्त्ञाठ्यविहीतनो यः सर्व॑मेत- `
त्फलं लभते ।। १९ ।। नक्तेन भक्तिसहिताः सितपञ्चमीषु ये पूजयन्ति भृजगा- `
न्करुसुमोपहारेः ।। तेषां गृहेष्वभयदा हि भवन्ति सर्पा दर्पान्विता मणिययूलविभा- `
सिताद्धाः ।। २० ॥ इति नागदष्टपञ्चमीत्रतं भविष्योक्तम् ।!
ओर इसी भरावणयुदि पञ्चमीम नागदष्टव्रतभौ होता है । क्योकि हेमाद्रिमे भविष्योत्तर . `
पुराणका एेसाही उल्लेख मिलता दै, ( किसी समय राजा शतानीकने सुमन्तु मुनिसे पृछा
कि, सपं यदि किसीको उस ले ओर व्ह उस विषकी वेदनासे गतप्राण हो जाय, तौ `
` उस सर्पदशसे मृत जन्तुक कौनसी गति होती है, जपके मुखसे यह सुनना चाहता हूं ! ) सुमन्तु- `
मुनि बोखे कि, है राजन् ! सांपके डंक लगनेसे जो मर जाय, वो नारकी गतिको प्राप्त होता है, उत्तम गतिको'
` नहीं प्रप्त होता, सपेदष्ट प्राणी मरणके बाद प्रथम नरकमं गिरता है, फिर सपयोनिमे जन्म लेता है, पर इस
` योनिम जन्म लेकरभी अन्यान्य सपोको तरह विषवाला काला नाग नहीं होता, किन्तु बिना विषका होता है
इसमे सन्देह नहीं है 1 १ ।! शतानौक बोला-जिसके बाप, भाई, मा, बेटे या स्त्रौ ओरं प्रियबन्धुजनको सपने
इस लिया हो, उसका क्या कर्तव्य है यह मक्षे बताइये ? ।\ २ । एेसा कौनसा दान, व्रत या उपवास है, जिसके
. करनेसे सपके डसनेसे मरनेका दोष निवृत्त हो, हे विप्रवय्यं ! आप कृपया उसी दान ब्रत या उपासका मेरे
लिये उपदेज्ञ करे यदि हो सकेगा तो करूगा ।! ३ ।\ सुमन्तु बोले कि, हे भारत ! जिस वषमे जिस किसके
बान्धव जनका सपं दंशसे मरण होजाय, वह उसो एक संभक, नागोके बल बढानेवाली पञ्चमीको उपवास करे,
। अथं दिवा निराहार रहना है । क्योकि, उस व्रतकौ कथाके प्रसङ्खमे आगे चलकर स्वयं सुमन्तुमुनि कगे कि,
चौथको एक बार दिनमें हौ भोजन करना रातको न करना ही इसका नक्त व्रत कहा है, इससे प्रतीत होता `
दै कि, पञ्चमौके दिन दिनके ही भोजनका निषेध क्रिया गया है, रातको तो भोजन करना हीचाहिये। भाद्रपद
शवानि दिलददीकासहिति (२५३)
8
। बारह महीना करना चाहिये वषं समाप्त होजानेके बाद अपनी श्ञक्तिके अन् सार नागोके उदेदसे ब्राह्मण जौर
। अति्योको भवितके साथ अन्न दान भौ करना चाहिये ।। १२ ।\ इतिहासके जाननेवालेको रत्नजटित सोनेका
| नाग देना चाहिये ।\ १३ ।। सब उपस्करके साथ बछ्डेवारी गाय देनी चाहिये, देतीवार नारायण भगवान्का
। स्मरण करता हुआ कहे कि ।! १४ ।। केवल नारायण ही नही, किन्तु उनके इन गुणोके साथ स्मरण करे किः
। सवत्र व्यापक, सबके धारणा करनेवाले, जिसका अन्त नहीं है एसे, किससे न हारनेवाके भगवान् हे ।\ “जो
भलो कोई मेरे कुलमें साँपसे काटे जाकर अधोगतिको प्रप्त हुए है !\ १५ ॥ ह गोविन्द ! वो मेरे इस त्रत
दानसे उससे उद्धार पाजायं'" यह् बोलकर अक्षतोसे युक्त एवम् सित चन्दनसे मधित \\ १६ ।\ पानीकीहे
भूप ! भगवान्के सामने पानीमे डालदे ! जो मर गये, अथवा जो मरेगे इस विधिसे ।। १७ ॥ हे शष्ठ राजन् !
बे सब सरपके काटे हए स्वगंको चले जाते है, हे कूर नन्दन ! वो ब्रती, अपने सब कुटुम्बियोका उद्धार करके `
॥ १८ ।! अष्सराओंसे सेवित हुआ विष्णु भगवानृके समीय चला जाता है जो इसके करनेमे घनका लोभ नही
करता वही इसके सारे फलको पाता है ।। १९ ।। जो चतुर्थको रात भोजन छोड भक्तिके साथ शुक्लापंचमीको `
एल ओर भेटसे नागोका पुजन करते हँ उनके घरमे विषके अभिमानी एवम् मणियोकी किरणोसे चमकते `
ह एश्रीरवाखे सांप भी कभी भय उत्पन्न नहीं कर सकते \। २०।। यह् नाग दण्ट पंचमीके ब्रतकौ कथापुरीहुई\॥ `
(2 4 ऋषिपञ्चमी ५ ध
अत्रेव ऋषिपञ्चमीत्रतम् ।\ तच्च मध्याह्लव्यापिन्यां कायम् ।। तथा च माधवीय
हारीतः-पुनाव्रतेषु सर्वेषु मध्याह्लव्यापिनी तिथिः ।\ इति ।। दिनहये तद्व्याप्तो
| वा पुदेविद्धायां कार्य युग्मवाक्यात् ।। प्राप्य भाद्रपदे मासि शुक्लपक्षस्य पञ्चमीम् |
तस्यांमध्याह्नसमये नद्यादौ विमरे जले ।। अपामार्गस्य काष्ठेह्च ह्यष्टोत्तर- `
शतोन्मितैः \\ अथवा सप्तभिः कार्यं दन्तधावनमादितः ।\ वनस्पतिप्राथना- `
आयुर्बलं यशो वर्च॑ः प्रजाः पशुवसूनि च ।। ब्रह्म प्रज्ञां च मेधां चत्वं नो देहि वन-
` स्पते ।\ संप्रा्यनिन मंत्रेण कुयवं दन्तधावनम् ।! तत्र मंत्रः-मुखद्गेन्धिनानज्ञाय `
` दन्तानां च विश्ञद्धये । ष्टीवनाय च गात्राणां कुवेऽहं दन्तधावनम् ।\ अनेन दन्तान् `
स्नायान्मृत्स्नानपर्वकम् ।। ततो ब्रह्मक् चविधिना पंचगव्यं संपाच प्राग- ।
न
प =
---- ---~ ------- ~ ~~ <~ ~= न
८ ` त्याज्यमादाय देवस्यत्द
६५५५ हरितैः कुशैः पंचगव्यमुद्धत्य इरावतीति पृथिव्यै
नस्तोके इति रद्राय० ब्रह्मजज्ञानमिति ब्रह्मणे° अग्न
त 1
ततरा `
ऋषि पंचमी-का ब्रती भाद्रपद शुका पंचमीके दिन होता है, यह् ब्रत तब करना चाहिये जबकि,
मध्याह्न व्यापिनी तिथि हो ! एेसा ही माधवीय ग्रन्थमे हारीतका वचन है कि, सभौ पुजा व्रतो सथ्याह्नु- `
व्यापिनी तिथि केनी चाहिये । यदि दो दिन मध्याह्न व्यापिनी हो तो पूवेविद्धाही कनी, क्यो कि,देवाक्य
` रसे ही निले ह । भाद्रपद महीनाकी शुक्लयक्षकौ पंचमी आजाने पर सध्याह्वके समयम नदी आदिकके |
` विक्रद्ध पानीमें स्वान करके ओंगाकी एकसौ ठं अथवा सात दांतुन ककर एक एकसे दातुन करनी चहिये! `
करत समयः है वनस्पले ! आयु, उल, यज्ञ, व्च, प्रजा, पद्यः ददु, ब्रह्य, प्रज्ञा ओर मेधा ह्म दे, इस मन्नरसे ध
पहिरे ही वनस्यतिकी प्रार्थना करनी चाहिये, पीछे दांतुन करनौ चाहिये । करनेके समय पर कहना चाहिये
कि, मुखकी दुरमस्धके नाक्षके लिये, दातोकी सुदधिके लिये तथा गातरोके ष्टीवनके लि मं दन्त धावन करताहु,
इसके पीछे ब्रह्मक् च विधिसे पंचगन्य तैयार करके उसका प्राश्न करना चाहिये, वो इस प्रकारसे होता हैव
कारको कहकर ज्रीरकी श द्विके ल्त ब्रह्मकचं होमके साथ पचगन्यका परादान करूगा एेसा संकल्प करके,
तांबे आदिक पात्र में गायत्रीसे गोमूत्र, गन्धह्ाराम् इससे गोमय, “जाप्यायस्वः' इससे दध तथा “दधि-
व्ण" इससे दही मौर शरु्रमसि" इससे आज्य लेकर “देवस्य त्वा” इससे कुश्का पानी डालकर, प्रणवे
यज्ञीय काष्ठे आलोडन ओर उसीसे मथकर प्रणवसे अभिमंत्रित करके कुशके सात हरे प्तोसे पञ्चगव्यका `
उद्धरण करके पौे ददा आहूति देनी चाहिये व किस प्रकार दी जाती हैँ यह लिखते हे । “ओं इरावती धेन्मतौ `
हि भूतं सूयवबसिणौ मनुषेदहस्या । व्यस्तभ्ना रोदसी विष्णवे ते दाधथं पुथिवीमभितो मयूखैः ।\” इस मंत्रे
पुथिवीको, “इदं विष्णुः" इससे विष्णुको, “मानस्तोके” इससे सरको, “ब्रह्मजज्ञानम्” इससे ब्रह्माजीको, `
, अग्नये स्वाहा इससे अग्निको सोमाय स्वाहा' इससे चन्द्रमाको, “तत्सवितुरवरेण्यं " इस गायत्री संत्रसे सूर्यको
“ओं स्वाहा" इससे प्रजापतिको, “ओं भूभुवः-स्वः स्वाहा" इस व्याहृतित्रयवाले मंत्रसे पुनर्वार प्रजापतिको,
एवम् “अग्नये स्विष्टकृते स्वाहा इससे अग्निको स्विष्टक्त् होमके पञ्चगव्यकौ आहति दे, इस प्रकार दज्ञ |
आहृतियां पृथिव्यादि दज्ञ देवताभोको देकर बचेहुए पञ्चगव्यको अपने दाहिनी हेलीमें रखकर “ओं यस्वगः
` स्थिगतं पायं देह तिष्ठति मासकं । प्राशनात् पश्चगन्यस्य दहृत्वग्िरिवेन्धनम् 1" जो मेरे देहमं त्वचा मौर
हडयोके भीतर पहुंचकर पाप रहता है बो पञ्चगन्यके प्राशनसे इस प्रकार जल्जाय जसे आगसे ईधन जल
जाता है, इस मंत्रको बोलकर प्रणवसे प्रानं करना चाहिये । होम न करनेके पक्षम कथित मंत्रे पञ्चगव्य
बनाकर प्राश्न करल, स्तरियोको तो चाहिये किं, वो च् पचाप ही पञ्चगव्यका प्रादान् करं 1 (यहां उन संत्रादिकों
` | काञअथं नहीं किया है जिनका कि, हम पहिले कर अये हें इसी कारण उन्हुं पुरा मी नही लिखा है, यही हमारी `
1. १ बात अन्य संत्नोके विषयमे भौ है जिनको हम एकबार छिख देते हँ उन्हं फिर दुबारा लिखना नहीं चाहते ।
नदयादिके तदा स्नात्वा कृत्वा नियममेव । च ॥ ब्राह्मणी क्षत्रिया
इद्र वापि ` वरासने ५ | ४ (9
ह । कत्वा नेमित्तिकं
व्रतानि) १. , हिन्ीटीकासहित ` ` (२५५)
4 ४८ ध 1.2 र ५. ध (1 2 प
1 21 0
५. र प र 1 14.
तानिति (0
` चलेन लिलेदष्टदलं ततः ।। तत्र सप्तऋषीन्दव्यान्भवितयुक्तः प्रयुज्येत् \\ अथ॒ `
संकल्पः ।। मासपन्नाद्युल्लिख्य मया ज्ञानतोऽज्ञानतो वा रजस्वलावस्थाष् कृत्
` संपकंजनितरोषपरिहारा्थमरुन्यतीसहितकश्यपादिसप्तऋ धिप्रीत्थः मह्
करिष्यं । ॥ 1 ॥
ब्रतविधि-हि सुंदर सुखवाली पार्वति ! ब्राह्मणी, क्षत्रिया, वैश्या या शूद्रा ही ब्त करमेषाली व्यो न हे, वह् = |
नदौ तडागादिकोमें स्नान करके अपने नैत्यिक ओर नेमित्तिक कमंसे निवृत्त ही वरर चल अध्य चछ | |
वेदीका निर्माण करके उसे गोबरसे प दे, उस पर रंग वति्लियोके सहित सवेत द्रमण्डल चले, उसमे, =
मध्यभागमें अन्रण तांबे या मुृत्तिकाका कलदाके जलसे पणं करके स्थापित करदे, कण्ठ भागसं उसे रक्तमःत्रसे
वेषि कर उसमं पञ्चरत्न, परगौफल, गन्ध मौर सुवणं डले, पौेयवोसे परणं भरी हुई तमी या घ सी
` पिटासी उसके मुखपर स्थापित करके बर््रसे ठक दे, उसयर अष्ट दल कमलका आकार लिखे, उ ज
बाले कमलके ऊपर दिव्य सातो ऋषियों ओर एक अरन्धतीको स्थापितं करे, फिर भवितिसे अपने मल्क पणं
रखता जा अरुन्धती सहित स््तषियोका पुजन करे, उस पुजनके आरम्भमं जल आर अक्त 8 हिने हाथमे
लेकर “आं तत्सत् अद्यैतस्थ"' इत्यादि वाक्यसे देश ओर महीने आदिका उल्लेख करके कह कि, मने अपन जान
| ( ` या जनजानमें रजस्वला होनेपर भौ जो सम्पकं करिया है उससे जो प्रत्यवाय प्राप्त हज हे उसको शान्ततया `
1.4 ; अरुन्धती सहित कश्यपादि सप्तषियोकी प्रीतिके लिये अरुन्धती सहित कश्यपादि सप्तयो पुजन कहग ।\ =
८ ८ अथ ऋषिपुजविधि ( ध
आगच्छन्तु महाभागाह्चतुवेदपरायणाः ।। यावदद्रतथिदं इषे कृपया `
भवतामहम् । आवाहनम् ।! मूर्तं ब्रह्मण्यदेवस्य ब्रह्मणस्ते उत्तमम् ।1'
` सूरथकोटिप्रतीकाडमुषिवृन्दं विचिन्तये ।॥ ध्यानम् ।। ऋ्यजुःसामनेरानं
स्वरूपेभ्यो नमोनमः । पुराणपुरुषेभ्यो हि देवषिभ्यो नमोनमः ।। आस |
नम् ॥। पाद्यं गृह्णन्तु भो द्विजाः ।। प्रसादं करत प्रीतास्तुष्टाः
। दहन्तु ८ (
=
पञ्चामृतम् ।। मन्दाकिनी गोतमो च॑ थमुन सरस्वती वती
ताभ्यः स्नाराथमाहूतम् ।\ स्नानम् ।। सवे नित्यं तपोनिष्ठा ब्ह्यज्ञाः सत्यवादिनः
ह भ्र ६ .# ६ त फ ठ म् वितदं £ दः ति सन्तु < ;
स््श्म | ४
तुलस्यादीनि चै द्विजाः \। मयाहूतानि पुष्पाणि पुजा प्रतिगृह्यताम् \! पुष्पाणि \\
वनस्पतिरसोदभ॒तो गन्धाढ्यः सुमनोहरः ।। आयोः सवेदेवानां धूपोऽयं प्रति- `
गृह्यताम् ।। धूपम् ।! साजञ्ज्यं च वत्तिसं ° ।! दीपम् ।! नानापक्वाच्संयुक्तं रसैः `
षड्भिः समन्वितम् ।। गृह्णन्तु ऋषयः सर्वे मया नेवेद्यमपितम् ।। नैवेद्यम् ।\ `
मध्ये पानीयम् ।! उत्तरापो ० हस्तंप्रक्नाल ° करोद्रतनाथें चन्द० ।! नमो वेदविद
श्रेष्ठा ऋषयः सुरयसन्निभाः ।। गृह्हन्त्विदं फलं तुष्टा मयां दत्तं हि भक्तितः `.
।। फलम् ।। पूगीफलं मह्० ।! तांबूलम्० ॥ हिरण्यगर्भेति दक्षिणाम् ।! यानि
कानि च पापानि ब्रह्महत्यासमानि च ।! तानि तानि विनयन्ति प्रदक्षिणपदे पदे! `
प्रदक्षिणाः ॥ नमोऽस्तु ऋषिवृन्देभ्यो देवधिभ्यो नमोनमः ।! सर्वपापहरेभ्यो हि `
वेदविदो नमो नमः ।। नमस्कारान् ।। एते सप्तर्षयः सवं भक्त्या संपूजिता
मया ।\ सवं पापं व्यपोहन्तु ज्ञानतोऽज्ञानतः कृतम् ।! प्राथना ।\ अथ वायनम् ।॥
कृतायाः पूजायाः साङ्खता
` पुजनम् ।। वायनं फलसंयुक्तं सघुतं दक्षिणान्वितम् ।। दहिजवर्याय दास्यामि
संपूतिहेतवे ।\ भवन्तः प्रतिगृह्छन्तु ज्योतीरूपास्तपोधना
ध त्रत ह ॥
। उभयोस्तारका
क्षणेन पराप्तचेतन्यां तामुत्थाप्य प्रमृज्य च । १४ । समालस्ब्य च बाहुभ्यां निन्ये
हत्वितुरम्तिकम् \\ स्वामिन्कथय मे साध्वी केन दुष्छृतकमं
` पप्रसुप्तेयं जायते कृमिसंकुला ।\ एतच.त्वा ततो वाक्यमृषिर्ध्यानपरायणः ।\ १६१
ज्ञात्वा निवेदयामास तस्या पराकूजन्मचेष्टितम् !! ऋषिरुवाच ।, प्रागियं सप्तमेऽ-
अस्यास्तु पाप्मना तन जायत क्रिमिवहपु ।। १८. ।\ रजस्वलायाः पापेन युक्ता
नघे ।। प्रथमेऽहनि चाण्डाली द्वितीये ब्रह्मघातिनी ।! १९ ।। तृतीये
प्रोक्ता ४ क्ता चतुर्थेऽहनि श॒ध्यति ।। तदा तया ¦ सखीसङ्कादब्रतं | ४: र गदव्रतं दष्टवावमानितम् `
।} दुः"खत्रयाच्च मुच्येत
विवद्धन्ते संपदश्च निरापदः ।\
पासा
| ( आपके लिये नमस्कार है मेने भक्तिसे आपको फल दिया है इससे प्रसन्न होकर आप मृक्षे फल दो, इससे फल; |
-व्वराक वनी
णात् ।। ३४ ।। कुरते या त्तं चतत्सा नारी सुखभागिनी ।। रूपलावण्यसंयुक्ता `
पुत्रपौत्रादिसंयुता ।1 ३५ ।! इह लोके सदैव स्यात्परत्राप्यक्षया गतिः ।। व्रतस्यास्य `
` प्रभावेण जाति स्मरति पौविकौम्।।३६।। इति हेमाद्रौ ब्रह्माण्डे ऋषिपञ्चमी कथा `
| | पूजन विधि-हे चारो बेदोके परायणो, महाभागो, अरुन्धती सहित सप्तधियों ! पधारो, जबतक सै इस ब्रतको `
करूं तबतक यहीं विराजे रहो. इससे आवाहन; मे उस ऋषिवृन्दको याद करता हूं जिसका तेज कोटि सूय्येके `
समान है, जो किं ब्रह्मका उत्तम तेज तथ ब्रह्मण्य देवका स्वरूप है, इससे ध्यान; ऋग् यज् ओर सामके 1
स्वरूयोके लिये वारंवार नमस्कार है, पुराण पुरुष देव्ियोके लिये वारंवार नमस्कार है अथवा एसे देवषियोके `
च्य वारंवार नमस्कार है इससे आसन; है द्विजो ! आप गन्ध, पुष्य, अक्षतयुक्त पा्यको रे जौर मेरेपर . .
श्रसन्नता प्रकट करें एवं सदा प्रसन्न ओर सन्ुष्ट रहे इससे पाच, भाद्रपद सुदि पञ्चमीके दिन मेने ऋषिसत्तमोका
पुजन किया है, इससे ये पुजित हुये मेरे समस्त पापोको दग्ध करते हुए अष्यं ग्रहण करें इनके लिय बारबार `
नमस्कार है इससे अध्य, खोकोको संतुष्ट करनेवारे आप सब तपोधन ओौर धमेवेत्ता महर्षि है, आपको बारंबार `
` प्रणाम है, इससे आचमन, दूध, दधि, घृत, शकरा ओर सहत इन पञ्च अमृतमय पदाथसि हे ऋषिसतमो } . `
आपको स्नान कराता हं इससे पञ्चामृतद्वारा स्नान, गङ्का, गौतमी, यमुना, सरस्वती, कृष्णा, नमंदा ओर
` तापी इत्यादि माहानदियोसे आपके शुदधस्नाना्थं यह जर लाया गया है, आप इसे स्वीकार करिये इससे शुद्ध `
स्तान्, आप् सभी नित्य तपःपरायण, ब्रह्मवेत्ता भौर सत्यवादी ह, वस्त्र ग्रहण करें ओर मुञ्चे सदा मोक्ष (ब्रह्म
` ज्ञान) देनेवाले हे, इससे वस्त्र; विविष मन्त्ोसे त्रिगुणित ये ब्रह्मसूत्र तेयार किये ह, आप सभीके लिये अलग
चढा रहा हु" जप ग्रहण कर, इससे ब्रह्मसूत्र; कुंकम, अगर, कपुर आदि सुगन्धित पदा्थसि सुगन्धितं इस
सव्य चन्दनको है ऋषि सत्तमो ! (आप) ग्रहृण करे, इससे गंध; हे ऋषिशेष्ठो ! इन सफेद चावलोको
लेकर आपको देने आया हुं, आप अपनी शोभाके लिय इनको ग्रहण करिये, इससे अक्षतं॒हे ऋंषियो ! मालती
` : चस्पकादि पष्प, तुलसी प्रभृति पत्रोको
। बनस्पति रसोद्भूतः' इससे धय, साज्यं च व्ति' इससे दीप; "नाना पक्वान्न" इससे नैवेद्य; मध्यमं पानीयः;
`. उत्तरापोदनः; हस्त प्रक्षालन एवम् करोदतनके लिये चन्दन; ह वेदके जाननेवाके सूर्यके समान ऋषियो ! `
को आपकी पूजाके लिये छाया ह, आष इनं रहण करिये, इससे पुष्प
व्रतानि] = हिन्दीटीकासहित ` [शल ग
सन्तान उत्पन्न हुड ; एक पुत्र, दूसरी पुत्रौ; इनमे पुत्र बहृतही सद्गणोसे भषित था, उसने अङ्धःपदओरक्रम `
सहित सब बेद पढ़ ।। ५ ।। उक्तं ब्राह्मणने अपनौ कन्याका विवाह अपने कुलानुरूष घरमे करदिया, पर हे.
। सत्तम { प्रारन्बयोगसे वहं लंडकौ विधवा होगयी 1! ६ 1! अपने पतिव्रता धर्मक पालना रखती हुई पितके ` ` `
। धघरपरही समय व्यतीत करने लगी । वो ब्राह्मण उस इःलसे दुःखित हो जपने पुत्रको घरमे ही खोड !\ ७१
अपनी स्त्री ओर उस पुत्रको लेकर गङ्गाजौके तटपर चत्वा गया; वहां जाकर वो शिष्योंको वेदाध्ययन ` `
कराने लगा ।। ८ ।\ वहु लडकी अपने पिताक शुश्रूषा करने कगौ, किसौ दिन पिताकी शषा करतौ करतौ ६ |
=. हारगयी । ९ 11 अद्धरात्रिका समय था, एक पत्थर एर गयी, उसके शयन करतेही शरीर एकदम कृमिमय ` |
होगया, शरीरके वस्त्र भी कृमिरूप ही होगये ।! १० \। एेसे जब उस गुरुपुत्रीको दल्ना होगयी तब उसका
वृत्तान्त अपनी गुरुपत्नीके समीप जाकर रिष्योने बहुत दुःखके साय निवेदन करते हए कहा. है मातः ! दुमे
कुछ नहीं जानते, उस सच्चरित्र आपकी पुत्रीकी एेसी दशा क्यों हो गयी ? ॥ ११॥ आज उसका क्सीर तो 1
$ दिलाई हौ नहीं देता, केवल कृमियां हौ दीखती ह । माको शिष्योके ये वचन वपने सदृश गे ॥ १२॥ `
वेह एक इम धबराकर उटी ओर अपनी पुत्रौ जहां पडी हई भी वहां गयी, वहां जाकर ठीक वेसीष्टी उसकी
भवस्था दैखते ही अत्यन्त दुःखित हो विच्छा करने लगी \! १३ ।। छातोप< फराघातें करती हई अच्छी तरह `
मूच्छिति हो धरती पर गिरपड़ी 1 फिर कु देरमं जब उको त्रेत हुआ तव उस छडकीको खड़ी करके अपने
आंचलसे पकर ।। १४ 11 अपनी दोनों भुजाओका सहारा देकर उसके पताके पास छे आयौ भौर बोली
किह स्वामिन् ! आप कहो कि, यह सच्चरित्रा किस पापके प्रभावसे इस दज्ञाको प्राप्त हो गयीहै।। १५॥
` देखिए, यह् मधेराघ्रिका समय है, इसमें यह सोती थी, हस सोती हृयोको श्षरीरमे इतने कीड़े पडगये सो कुठ `
कहा नहीं जा सकता, यह सुन वो महात्मा क्षणभर नारायणपरायण हो समाधि लगाकर 11 १६11 उस् लडकीके
`. पूर्वजन्म पापोको देखकर बोला कि, हे अनघे ! स जन्मसे पहिले सातवें जन्ममें भी यहे ब्रह्मणी हौ थौ
॥1 १७ 11 उस जन्मे रजस्वला होकर भोजनादिकोके पात्रोके स्पस्यर्शका विचार नह किया, सभीको हष
लगाया, इसौ पापके कारण इसका शरीर मिमय होगया है \\ १८ ॥1 हे जनघे ! रजस्वला कालमे स्त्री
पापिन होती है, पहिले दिन चाण्डाली, दूसरे दिन ब्रह्मघातिनी ॥ १९ 11 तौसरे दिन रजकी (घोषिन) होती ` ^
है फिर चौथे दिन श्य होती है । उसी जन्मभे इसने अपनी सखियोके वुःसङ्धसे ऋषिपञ्चमीके ब्रतको देखकरभौ ` ८
` अपमान किया था ।! २० । उस त्रतानुष्ठानके उत्सवका दढन किया य ५ था सीसे कुमे `
सका जन्म हुआ, इस व्रतकौ अवज्ञा की, इससे सके शरीरम अब कृभिरासि
न
1 आते बहवस ब्राहमणोके पवित्र रलम ।। २२ ॥ जन्म मिलता है भौर अवज्ञा ध |
करनेसे रातमं शरीर मिमय हो जाता है ।। २३ ।\ पहं बहुत आकचयंकी | न 1 । ४ व
५
(0
| चाहिये ॥ ३३ .1\ सब ओर ओर तीर्थोमिं स्नानादि तथा सब तरहके दानादि करनेसे जो एल मिलता है बह
एक इस त्रतके प्रभावसे भिल्जाता है ।\ ३४ ।। जो स्वरी इस व्रतको करती है बह सुखियारी रूपलावण्यसे
अक्षययदकी प्राप्ति तथा पूर्वेजन्मके चरित्रोका स्मरण होजाता है ।\ ३६ ।\ यह हेमाद्विमे ब्राह्याण्डपुराणसे
केकर कही गयी ऋषिपञ्चमीके ब्रतकी कथापूरीहरई ।॥। = ` < | |
अथ भविष्योत्तरोक्ता ऋषिपंचमी कथा ।!
युधिष्ठिर उवाच । श्रुतानि देवदेवश्च व्रतानि सुबहूनि च ।! सांप्रतं
मेऽन्यदाचक्ष्व त्रतं पापप्रणाहानम् ।1” १ ` \\ श्रीकृष्ण उवाच ।। अश्थान्यदपि
राजे पञ्चमोमषिसंत्निताम् ।॥ कथयिष्यामि यत्कृत्वा वा 1
।॥ युधिष्ठिर उवाच ॥।
१ ध
“ [ता
सि.
त्तानि] हिन्दीठीकासहित
। सर्वभूतहिते रतः ॥। कृषिवृत्या सदा युक्तः कुटुम्बयरिपाल्कः ।। १८ ॥। तस्य भार्या `
सुसाध्वी च पतिशुश्रूषणे रता ।। जयशनीर्नामविख्याता बहुभृत्ययुहञ्जना ।। १९।। ` |
अतिचिन्ताम्विता सा च प्रावृट्काले सुमध्यमा \ क्षेत्रादिषु रता साध्वी व्याकुली `
कृतमानसा ।। २०॥ एकदा सात्मनः प्राप्तमृतुकालं व्यलोकयत् ।} रजस्वलापि `
सा राजन् गृहकं चकार हं ।। २१।। भाण्डादीन्यस्पुशद्राजनृतौ प्राप्तेऽपि भामिनी।।!
काठेन बहुना साध्वी पञ्चत्वमगमत्तदा ।! ।! २२ ।) तस्या भर्तापि विप्रोऽसौ
कालघर्ममपेयिवान् ।\ एवं तौ दम्पती राजन्स्वकमंवदागो तदा । २३ ।। भार्या
तस्य जयश्री ५ सा ऋतुसंपकंदोषतः ।! शुनीयोनिमनुप्राप्ता सुमित्रोऽपि नरेश्वर `
। पूलकः ।। जथ छया संते पु सुमतिसतवा ॥ २८
सुमतिः श्रद्धयान्वितः \\ अद्य सांवत्सरदिनं पितुं चारुहासिनि ।२९।। भोजनीया
द्विजा भीर पाकसिद्धि्विधीयताम् ।॥ तया कृता पाकसिद्धिः सुमतेभतुराज्या
1 ३०६।। मुवतं पायसभाण्डे वै सर्पेण गरलं ततः ।! दृष्ट्वा ब्रह्मवधाद्धीता शुनौ `
भाण्डानि सास्पदात ।।! ३१ \। द्विजभार्या च तां दष्ट्वा उल्मुकेन जघान ह ।!
२ पुनःपाकचकृत्वातु
नोच्छिष्ट / च ददौ बहिः॥३३॥ `
स्तौ वति की
तत्कालं ददौ तस्यं च भोजनम् ।। ४२ ।। तदासौ दुःखित पुत्रो ज्ञात्वावस्थां तथा `
तयोः ।\ मातापित्रोस्तु राजेनद्र हतं संप्रस्थितो वनम् \! ४४ ।! जलतुमिच्छामिव `
कष्टमिति नि ४५
परणिपत्या्नवीद्राक्यं हित चैव तदा तयोः ॥ सुमतिरुवाच ।! कथयध्वं विप्रवर्या षाः `
प्ररनमेकं समाहिताः ।। ४६ ।। केन क्म॑विपाकेन पितरो से तपोधनाः ।। इमाम
वस्थां संप्राप्तौ मोक्ष्येते पातकात्कथम् 1! ४७ ।। कुष्ण उवाच । तदाकण्यं वच- `
स्तस्य सुमतेदुःखितस्य च ।! ऋषिः सवेता नाम सर्वज्ञ करुणान्वितः ।\ ४८॥ `
पुमति प्रत्युवाचेदं तत्पि्रोमुक्तये तदा :।। ऋषिरुवाच । तव माता पुरा विप्र ५
स्वह बालभावतः ।। ४९ ।। प्राप्तमृतुं विदित्वा तु संपकंमकरोद्द्विज । तेन `
कमविपाकेन शुनीयोनिमुपागता ॥ ५० ।! पितापि स्पर्चदोषेण बलीवर्दो |
ह ॥ एतयोमुक्तिकामारथं कुर त्वमूषिपञ्चमीम् ।। ५१ । भायेया सहु रि परे्र
ऋषौन्संपुज्य यत्नतः ।! आचरस्व ब्रतं तत्र सप्तवर्षं दिजोत्तम ।! ५२ । अन्ते
कु्यष्ित्तशाठ्यवि्वजितः । शाकाहारस्तु कतंव्यो नीवारैः
=. (+ =. €.
कृत्वापामागंसमिधा दन्तधावनमादितः ।॥ ५५ । आयर्वलं यज्ञो वचः प्रन
मत्रेण कुयद्ि दन्तधावनम् ।। मुखदुगंन्धिनाशाय दन्तानां च विक्ष्य
ष्टीवनाय च गात्राणां कुर्ेऽहुं दन्तधावनम् ।! अनेन दन्तान्सं शोध्य
स्वर्गं प्राप्तो महाराज ब्रतर
ति; ` वकि ~. (व)
धास्य प्रभावतः ।। कायिकं वाचिकं वापि मानसं यच्च `
इष्कृतम् ।। ६७ 11 तत्सवं विलयं याति व्रतस्यास्य प्रभावतः ।! त्स्य यज्जायते
पुण्यं तच्छृणुष्व नृपोत्तम ।! ६८ ।} सर्वत्रतेष॒ यत्पुण्यं सर्वतीर्थेषु यत्फलम् ।! स्वै-
दानेषु दत्तेषु तदेतद्व्रतचारणात् ।\६९।। करुते या व्रतं नारी सा भवेत्सुखभागिनी ।॥। `
सूपलावण्ययुक्ता च पुत्रपौत्रादिसंयुता ।\ ७० \\ इह लोके सदैव स्यात्परत्र च परां
` गतिम् ।! एतत्ते कथितं राजन् व्रतानामुत्तमं व्रतम् ।! ७१ ।। स्वैसंपत्प्रदं चैव `
नारीणां पापनाशनम् ।1 धन्यं यशस्यं स्वग्यं च पुत्रदं च युधिष्ठिर ।! पठतां ष्युण्वतां `
चापि सवपापप्रणाहानम् ।। ७२ \1. इति श्रीभविष्यपुराणे ऋषिपञ्चमीव्रतकथा `
संपूर्णा 1
` . अब भविष्यपुराणोक्त ऋषिपंचमी के व्रतका निरूपण करते है-राजा यधिष्ठिर बरे कि,
` है देवदेवेश आपके कहे बहुतसे त्रत सुने, अबे अषप पापविध्वंसक किसी दूसरे ब्रत्को
1 ` सुनाम ।\१। श्री कृष्ण बोले कि, हे. राजेंद्र ! मं अब ओौर भी एक ऋषिपंचमीके प्रतको कहता
` हृ जिसके करनेसे स्नियोके सबं पाप नष्ट होते हे ।। २ ।\ राजा युधिष्ठिरने पुषा कि, वह् पंचमी कौनसी है,
1 उसका नाम ऋषिपञ्चमी क्यो है ? है यदुनन्दन { इस ब्रतका एसा प्रभाव कंसे है जिसके करनेसे स्त्रियोके `
सब पातक चछूटजाते हँ! ३ ।। हे प्रभो ! पाप तो बहुत प्रकारे होते हे, उन पापोसे स्त्री ऋषिपञ्चमौके दिन ` |
` ब्रत करनेसे ही कंसे छूटजाती है ! इसमें क्या रहस्य है ? किये 1! ४ 1! श्रीकृष्णचन्द्र बोले-हे राजन् ! जान `
बा अनजानसे रजस्वला हुयौ दृष्टा स्त्री घरके कामोंकौ परतन्त्रतासे घरके पात्रोको छूती है \\ ५ ॥ इससे
` उस्तको महान् पाप लगता है, मरनेषर नरकं की प्राप्ति होती है । इसका जो कारण है उसे सुनो निससे रजस्वला `
॥ स्त्री एसी दूषित होतीदहै।। ६ ।) हं भारत ! ब्राह्मण, क्षत्निन्न, वक्यं ओर शरू्रको चाहिये कि, ये रजस्वला ` ५.4
. स्तरीको घरसे अलग करं । पहिले देवराज इन्द्र वृतरासुरको मारकर ब्रह्महत्या करनेके दोषका भागी होगया = `
| ४ था।\७\। य राजा ! इसे वृत्रसुदन लभ्नित हो पवित्र होनके उपायको पुखनेके लिये देवताभकिसाथ |
रीप गया ।। ८ ।। ब्रद्घाजीने क्षणभर समाधि लगाके हे राजेनद्र ! उसको प्रसन्न चित्तसे पवित्र `
नौकर तथा प्यारे बान्धव रोम थे ।। १९ ।। वर्षाछितुमं खेतीके कामोसे उसे विश्वाम नहीं मिता था; इससे
बहू सुन्दरी मनम घबरा गई ।। २० ।\ एक दिन उसने अपने ऋतुधमेको प्रप्त हुमा देखा, पर रजस्वला
होकर भी वहु अपने धरके कामको करती रही ।।! २१ ।। हे राजन् † रजस्वला होनेपर भी चो भामिनी
पात्रोको छती रही, बहुत कालके बाद जब वह् मरी तब ।\ २२ ।\ उसका पति भी मृत्युको प्राप्त होगया \ है
राजन् ! पसे वे दोनो स्त्री पुरुष अपने किये कमेकि अनुसार लोकान्तरके पथिकं होगये ।। २२३।। उस ब्राह्यणकी
जयश्च नामकी स्तरीने रजस्वला हौनेपर भी जो पात्नोका स्पशं किया था उस दोषसे वो कुतिया बनी, ह राजन् !
उसका पति सुमित्र भो \\ २४ ।। उसके संपकंके दोषसे बेख होगया, है राजन् ! इस प्रकार वे (दोनों) दम्पती
अपने कम्मोकि वशा होकर ।! २५ ।। ऋतुके संपकंके दोषसे तिय्येग्योनिमं उत्पन्न हुए, कितु उन्होने ओर बहुतसे
धमम्मोका आचरण पालन किया था, इससे पुवंजन्म वृत्तान्त याद रहा ।॥ २६ ।। इससे वे एेसी
पडकर भौ जातिस्मर हौ पूरवेषातकको याद करते हए अपने पुत्रके यहां हौ निवास करने लगे । सुभिन्रका पुत्र
अपने बडोको शश्रूषामे लग गया 1 २७ ।। यह सुमति बडाही धम्मन्ञ एवम् देवता ओर अतिथिययोका पजक
था । जब पिताकौ मरणतिथि आई उस दिन वह पिताका श्राद्धकरनेके लिए तयार होकर ।। २८ ।! चन्द्रवती
भायसि भद्धाके साय बोला कि, है चारुहासिनि ! आज मेरे पिताका सांवत्सरिक श्राद्ध दिनि है ।। २९१ हे
भीरं ! ब्राह्मणोको भोजन कराना है तुम रसोई तयार करो, पतिक आज्ञासे उसने पाक तैयार किया ।। ३० ॥
हिन्दीटीकासहित = ` (द) ।
उसी कं्मविपाकसे बह == मातो ह ५५० ॥ सा बनी है \} ५० \) जापका ॑ ॥
छटानेके लिये तू ऋषिपंचमी कर 11५१ ।।६ ५
| तेल! स्द्ंकर लिया या,
लाह वर्तक इस बरतको करना ॥\ ५२।॥ = `
| पिता भौ स्यसके दोषसे बलः होगया है. इन दोनोको इससे
` विपरद्ध ! स्त्ीके साथ ऋषियों कः पूजन करके प्रथत्नके सा
|. नके लोभक्ते छोडकर अन्तमं उद्यापन ओर शाकाहार करना चाएि
` के लेने चाहिय ।\ ५२ । अथवा कन्द, मल, फल इनसे आहारं कर ख, ५९
। किसीभी वस्तुको न = ।। ५४ 1 इसमे मध्याह्ल
| समिघसे पहिल दन्तवान् करे \) ५५ ।\ इन्त धावन करनेसे पहिले “ आयुर्बलं इस मन्त्रकी `
पठता हुमा उस अपामागेके काष्टका स्पशं करे कि. ह वनस्पत
|: दषु (चन ) ब्रह्म ज्ञान ओर मेधा (स्मरणजश्क्ति) को मुक दो 1\ ५६ 11 दन्तधावनके
| भावना रसे किम मखकी द्नधीके दर होनेके लियं एवम् दतोके साफ होनेके रि
। ष्ठीवन (कफः पातन दसा श् द्धि) के लिये दन्तधावनं करता ह
। अलकर कुल्ले करे, फिर सृत्तिका लगाके स्नान करे 1} ५७ ।1 ५८ ।! पौषे प तलोक ओर आवलोकौ पीठ
लगाकर केदकि मैलको अच्छी तरह दुरकरे, पौरे समाहित हो दे शुध नूतन वस्त्र षार करे ।\५९॥ `
फिर अरन्धती सहित दिव्य सप्त ऋषियोकी पजा करे । वे सात् ऋषि येहै-१ कश्यप, २ अत्रि ३ भरन, ५
४ विदवामित्र, ५ गोतम \\ ६० ।। ६ जमदग्नि, ७ भगवान् वसिष्ठ जोर आवी पतिव्रता महाभागा
रुन्धती । इनका पूजन इनके ही नासोसे सन्तर कल्पनां करके समाहित हो करे कि नञो भूर्भवःस्वः `
कदयपाय नमः कदयपमावाहयामि, कयपके लिये नमस्कार दै कटदयपको बुलाता हः
है कश्यप यहां आ, इहं तिष्ठ यहां बैठ, पुजां गुहाण पुज ग्रहणक ओं भूर्भुवः स्वः अरुन्धती सहिताय
वसिष्ठाय नमः अरुन्धती सहित. वसिष्ठके लिय नमस्कार है, अरुन्धती सहित वसिष्ठमावाहयामि अर- (1
न्धती सहित वसिष्ठको बुलाता हू इत्यादिरूपसे नाममन््रोकी कल्यना करके
पूजन करना चाहिये ।\ ६१ \\ ऋषिपञ्चमीके व्रतके करनेसे ऋतुकालके
होगा इसमे संयक्ञ मत करो \\ ६२ ।। श्रीकृष्णचन्द्र बोले कि, स्वेतपा = अधिके |
सुमति अपने घरपर आया । फिर श्रद्धान्वितहो उसने अपनी भायक्रि साय उसी विधिसे समस्त पातकोका `
अन्त करनेवाला ऋषिषञ्चमीका तरत किया \\ ६२ ।। जैसे सर्बतपा मृ निनं
| ब्राह्यणने ऋषिपञ्चमोके व्रतको (सात वषंतक
ओर गान्नोके `
हये । नौवार या दयामाक भी कामे = `
हल जोतकर पैदा कौ हई ` ५
के समय तदी आदि निमदं जलके किनारे अपासर्गकौ | ( | ५ कि,
ते! तुम आयु बल, यश. वचं, ५
के समयमनमे वह 4.
। इस प्रकार अपामा्मके काष्ठे दिको ` 1
भो कदयपदहागच्छ ` 1
के अरन्धती सर्हित सप्तविर्योका `
के सम्पकंका पातक अव्य नष्ट 1
सिके उत्तम वचनोको सुनकर |
लेने व्रत करना बताया थ ठीक (
। करके (उदयापनके बाद) उसका
सलनेसे उसकी माता जयश्नौ कृतीकी = : `
अथोद्यापनम् ।
` युधिष्ठिर उवाच । किमस्योद्यापनं क्त॒त्रतपुणफलप्रदम् ॥
सुमतिः केन विधिना चकार वद तत्त्वतः ।। १1! कृष्ण उवाच ।। पवे- |
स्मिन्दिवसे कुयदिकभक्तं समाहितः ।! प्रातरुत्थाय सुस्नातस्ततो गुरुगहं ब्रजेत्
।। २ ।। प्राथयत्त त्वमाचार्यो भवोद्यापनकमेणि ।। पूर्वोक्तेनैव विधिना स्नात्वा
भक्त्या समन्वितः ।। २ ।\ शुचौदेशे समाक्प्य स्व॑तोभद्रमण्डलठे ।। अत्रणं सजलं
म्भ ताच्र मुन्मयमव वा ।। ४ ।) संस्थाप्य वस्त्रसंवीतं कण्ठदेशे सुशोभनम् ।!
पञ्चरत्नसमायुक्त फलगन्धाक्नतेयुतम् ।। ५ । सहिरण्यं समाच्छाद्य ताम्रेण
पटलन वा ।। वशमृन्मयपात्रंण यवपुणन चेव हि ।। ६ ।। आच्छादयेत्त चलेन
ह चिखेदष्टदलं ततः । सौवण्यंः प्रतिमाः कार्या ऋषीणां भावितात्मनाम् 11 ७।)
` पलेन वा तदर्धेन तदर्धाधेन वा पुनः ।। शव्या वा कारयेत्तत्र वित्त्ाडि वेर्वाजितं
॥८ 1 वितानं पञ््चवर्ण च फलपुष्पसमन्वितम् ।! बध्नीयाद्परि श्रीमत्संभारान
` संविधाय च ।॥ ९ ।\ मध्याह ने पृनयेदूकतया ऋषी्खदधासमन्वितः ।। कदय
पोऽत्रिभरदवाजो विव्वामित्रोऽथ गौतमः ।। १० ।। जमदग्नि्वसिष्ठश्च साध्वी
चवाप्यरन्धती ।\ मन्त्रेणानेन राजेन्द्र कृत्वा पजां समाहितः ।। १९ ।
: स्मृतः
ई: स्मृतः
शतमष्टोत्तरं तु वा । १३ ।
उगुलोयवासोभिः कुण्डलामूः
भ्रानि] काहिति ___ (२९७)
हित हो ऋषियोके चरणोमें हौ चित्त लगाता रहै, एक बार भोजन करे । दूसरे दिने प्रातःकाल उठकर
| विधिवत् स्नानादि करे, फिर गुरुके घरजनाय ।। २ 1) ओर प्रार्थना करे कि हे प्रभो { आप उद्यापन कर्के `
भादिकोका रेष करे उसमें सरवेतोभद्रमण्डल लिखे, उसके मध्यमे अव्रण, जल्पुणं तांबेका या सृत्तिकाका `
। कलशा ॥। ४.॥ स्थापित करे' उसके कण्ठभागमें सुन्दर वस्त्र बधे, उसमे पञ्च रत्नोंको छोडके पूगीफल, `
| गन्ध, अक्षत ।\ ५) ओर सुवणं भी डाले । पीछे ताविके, काष्ठके था मत्तिकके यवपुणं पात्रसे उसके
भूखको ठक दे \\ ६ ।} उसके ऊपर वस्त्र बिछाने, उसमें अष्टदल कमलका आकार लि, उसके आह
दलोमं कश्यपादि सप्त ऋषियों तथा आठवी अरन्धतौकौ सुवणंमयी (आठ) प्रतिमाओंको स्थापित
उत्तम सम्भारोसे उस स्वेतोभेद्रमण्डलकी शोभा ठीक करके ।। ९ 11 भव्ति मौर श्रद्धा सहित मध्याह्वमे `
अरन्धती सहित सप्तषियोका पूजन करे । "ओं भूमभूवःस्वः ककयपाय नमः कक्यपमावाहयामि'” कययके
ओर अरन्धतीका आवाहनादि षोडकोपचारविधिसे पूजन करना चाहिये ।\ १० । ११ ।1 रातमे जागरण `
बरती उपनीत हो तो बेदिकमन््रोसे, यदि न हो तो पौराणिकमन्त्ोसे हौ हबन करे । भनक अन्तम “स्वाहा
. इस पकी योजना करनौ चाहिये \ अएठ अधिकं एक हृनार, या एक सौ जाठहौ आहुतियां ३ \\ १३॥।
पवीतका दान करे । सपत्नीक आचायेके समीप जाकर उनके चरणों प्रणामं करके क्षमा प्राथना करे
हो स्वर्गे सुल भोगती है तथा इस लोके भौ वह मन्दहासिनी पतिके साथ चिरकाल । १९ ॥ पुत्र-
लिये आचायं होवें । फिर पूर्वोक्त विधिके अनुसार स्नान करे ।। ३ \) भवितयुवक पवित्र स्थल्मे गोम- `
करे \} ७।१बो एकं या, ञे या चौथाई पर सुव्णंको होना चाहिये, इनके बनानेवाला जैसी सम्प्ति- `
वालाहौ तदनुसार ही सुवणेकौ कमी बेशी करे, वित्त रहते कृपणता न करनी चाहिये 1! ८ 11 फिरसर्व॑तो- ` `
` भग्रमण्डलके ऊपर वितान करे, उस वितानका वस्त्र पांचरद्धका हो, उसके चार भेगोमे या विशेषभागोमं =
जैसा सम्भव हो फल ओर पुष्पोको लटकवावे, वितानके ऊपर भी ध्वज पताकादि बधि । एसे उत्तम
लिये नमस्कार, कक्यपको बु लाताहूं । सुर्वोक्ति नाममन्त्रोसे हे राजेन! कदयपादि वसिष्ठान्त सतऋषियों
` करे, उसमे पुराणोको पवित्र कथाओंका भ्रवण, पठन ओर मननादि करे । फिर प्रातःकाल नित्यक्रिया
करके तिल घृतसे हवन करे \! १२ ॥। अधिकारीके अनुरूप वैदिक या पौराणिकमन्त्र समस्षने, यानी यदि
हवनान्तमें फिर पुजा करे फिर आचार्यकौ पजा करनी चाहिये । सुवर्णकी अगूढ, वस्र, कुण्डल ओर |
मधुर भोज्यपदाथं दे ।\ १४ ।। बच्छे समेत दूधवाली एक गौको भी आचायंके लि दे । सात ऋत्वि- |
` जोको सात वस्त्र जौर दक्षिणा देकर उनका पुजन करे \} १५ ।। इनके लिये भवितसे कलक्ञ ओर यज्ञो- `
। ¶६।1 कि, मेरा यह् व्रतोद्यापन आपके अन् ग्रहसे परिपूणं हो, इसमे जो मने त्रुटि की हो वे सब आपके 1
आश्र्वा परणं हो. भआचायंभौ “एवमस्तु” एसे कहे, ब्राह्मणोको भवित्तसे भोजन करावे दीन अनायजनोकौ = `
याचना पूणं करके उनको संतुष्ट करे, ब्राह्मणोकौ अनुमति लेकर प्रियजन एवं बान्धवोके साथ भोजन `
करे ।। १७ ।\ यहु उद्यापनविधि है" जो ब्रतका संपुर्णफल चाहते हँ उनके च्वि यही विधि सब शस्त्रो
लिखी है) है राजन् ! जोस्त्री इस उक्कृष्ट उद्यापन चिधिको करतौ है ।! १८ ॥ वहं सब पापोसेनिमक्त =
जागरणे नक्ते चन्द्रायार्ध्यव्रते तथा । ताराव्रतेषु सर्वेषु रात्रियोगो विशिष्यते !\"
इति देमाद्रचुदाहतवचनस्य जागरणप्रधानव्रतविषये सावकाशत्वात् अङ्घानुरो- `
घेन प्रधान निर्णयस्य क्वाप्यद्ष्टत्वादङ्कमूतजागरणानुरोधैनेतच्चिणेयस्यायोग्य-
त्वात् ।\ एतद्टिधिस्तु-्रातरत्थायावश्यकं कमे निवैत्यं बनं गत्वा- आयुर्बलं यशो
वर्च॑ः प्रजाः पशुवसूनि च ।। ब्रह्य प्रज्ञां च मेघां च त्वं नो देहि वनस्पते।। इति सत्रेण
वनस्पति संप्राथ्ये ।\ अपामागसम्इ् तेद॑न्तकाष्ठः करोम्यहम् ।। दन्तानां धावनं
मातः प्रसन्ना भव स्वेदा ।! इति मत्रेणाष्टचत्वारिशत्काष्ठान्युपादाय नद्यादौ
गच्छेत् ।! ततो मुखदृगन्धिनाक्ाय दन्तांना च विश्दये ।। ष्टीवनायं च गात्राणां
कुर्वेऽहं दन्तधावनमिति मंत्रेणाष्टचरतत्वरिशद्रारं दन्तधावनं कृत्वा यथाविधि
स्नानानि विधाय शुक्ले वाससी परिधाय गृहमागच्छत् ।! ततः शुचौ देशे
देवि वि स्वसंपत्प्रदायिनि ।! यावद्व्रतं समाप्येत तावत्त्वं सल्चि
भंदाकिन्याःसमद्भतं हेमाम्भोरुहवासितम् 1। स्नानाय ते मया भक्त्य
तानि] ` हिनदीटीकासहित ` 9: (२६९) ` ५०
0
सनता ण नि
मिमिक्षे इति ऋक् मधुवातेति ऋक् । स्वादुःपवस्वेति ऋक् । पंचामुतस्नानम् ।। |
१). न
कियतां जलम् ।) आदित्यवर्णे तपसोधिजातो वनस्पतिस्तव वक्षो बिल्वः \\
। दत्तंस्वी* _
तस्य एलानि तपसा नुदन्तु मायांतराक्च बाह्या अलक्ष्मीः । स्नानम् ॥। सर्वेभूषा- `
धिके सौस्ये लोकलज्जानिवारणे ।, मयोपपादिते तुभ्यं वाससी प्रतिगृह्यताम् ।\
उपैतु मां देवसखः कौ्तिर्च मणिना सह ।। प्राुभूतोस्मि रष्टस्मिन्कीति्मोदध `
ददातु मे \\ वस्त्रम् ।। मुक्तामणिगणोपेतमन्यं च सुखप्रदम् \1 उत्तरीयं सुख
सयज्ञं ललिते प्रतिगृह्यताम् ।\ उत्तरीयवस्तरम् ।\ कृष्णकाचाष्टकयुतं सूत्रं ग्वे क
यकं तथा \\ दास्यामि कण्ठमूषाथं प्रत्यङ्कलकल्ति तव ।। कण्ठमालाम् । मल्या
वसम्भतं धनसारं मनोहरम् ।। हदयानन्दनं चार चन्दनं प्रतिगृह्यताम् ॥! क्षुत्वि-
पासामलां ज्येष्ठामलक्ष्मी नादायाम्यहम् ।\ अभूतिमसमृद्धि च सवौ निद मे
गृहात् ।\ चन्दनम् \। अक्षता विमलाः शद्धा म॒क्तामणिसमध्रभाः ।\ भूषणाथ
भया दत्ता देहि मे निर्मलां धियम् ।। गन्धद्वारां दुराधषौ नित्यपृष्टां करीषिणीम् ।\
(1 ईहवर्र ह्वर सवभतान तापिहोषहूयं शियम ।\ अक्षतान् ।\ मालती चम्पक जाति- ^
वुलसौ केतकानि च ।। मयाहतानि पुष्पाणि पुजा्थ प्रतिगृह्यताम् । मनसः = ` ८
काममार्काति वाचः सत्यमज्लीमहि । पशूनां रूपमन्नस्य मयि शरोः श्रयतां यञ्चः ।।
उपाङ्कललिताये नमः पादौ पूजयामि 1 भवान्येऽगुल्फौ° |
जंघे पु०। भद्रकाल्ये का ये० जानुनी पु० \ श्रियै ° ऊरू पू० । विदवरूपिण्ये०
कि घ स किवायै° हदयं पु० । वागी- |
श्व रि ॥। करोदतनन्।॥ बतुरहारवक्ापितानली र =-= ।। करोष्टतनम् \\ कपुरेलाल्वङ्धादितांबूलीदलसंयुतम् ।। क्रमुकस्य फलेनैव
तम्बल प्रतगृह्यताम् ।। आद्रा यः करिणीं यष्टि सुवणीौ हेममा ..
हिरण्यमीं लक्ष्मीं जातवेदो म भवह । तांबलम् । मातुलिद्धः नारिकेलं फलं खर्जर- `
संभवम् ।। जम्बीरं पनसं वापि गृह्यतां परमेश्वरि ।। इदं फलं मया देवि० तां म॒
आवह् जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम् । यस्यां हिरण्यं प्रभूतं गावो दास्यो ~ `
र्वाग्विन्देयं पुरुषानहम् ।। फलम् ।। हिरग्यगर्भ० यः शुचिः प्रयतो भत्वा जुह- `
यादाज्यमन्वहुम् ।। भियः पञ्चदशर्चं च श्रीकामः सततं जपेत् ।! दक्षिणाम +;
चन्द्रादित्यौ च धरणी विद्युदग्निस्तथेव च । त्वमेव सर्वज्योतींषि आतिक्यं प्रति-
गृह्यताम् ।। पद्मासनं पद ऊरू पद्माक्षि पद्मसंभवते ।! तन्मे भजसि पदयाक्षि येन `
सौख्यं लभाम्यहम् ।। नीराजनम् ॥। उपाङ्गललिति मातर्नमस्ते विन्ध्यवासिनि ।
डुग देवि नमस्तुभ्यं नमस्ते विदवरूपिणि ।\ अङ्वदाय च गोदाय धनदाधे महाधने ।\
धन म लमतां देवि सवकामांश्च देहि मे ॥! पष्पाञ्जलिम् । अथ दाकर;
साग्राहचत्वारिशत्तथाष्टभिः ।\ अरि
रुलान्कुर ॥। प्रार्थनाम् \\ अथ वायनम्-अथ वाणकमादाय वि्त्या वटकं
दिलवर्यय द्यत
५.
वरतानि] हि्दीटीकासहित = (२
. सन्देहं उपस्थित हौ किं, यह तिथि दोनों विन उस समयमे वर्तमान है, या दोनों ही दिन उस समयमे नहीहै
तब किस दिन त्रत किया जाय ? तब युम्मवाक्यसे नि्णेयं करना चाहिये; यह शषस्त्रकारोका सिद्धान्त ह
| , युम्मवाक्य- युग्माग्नियुगभूतानां षण्मन्योवेसुरन्भ्रयोः । शरेण दवादलीयुक्ता चतुरदव्या च पुणिमा 1
प्रतिपद्यप्यभावस्या ति्योयु्मं महाफलम् । एतदृव्यस्तं महादोषं ( दुष्टं ) हन्ति पुष्यं पुराकृतम्" द्वितीया- =
युग्म, तृतीया-अग्नि, चतुर्थौ -युग, पञ्चमी-भूत, षष्ठो-षट्, सप्तमी-मुनि, अष्टमी-वसु, नवमी-रन्ध्र, = `
` एकाक्शी-ख्रसे दादयो, चतुदशीसे पूणम, प्रतिपदा ओर अमावस्या इन तिथियोमे दो रो तिथियोका योग `
हो यानी द्वितीयाके साथ तुतीयाका, एवं चतुरथोके साथ पञ्चमौका इत्यादि मसे संयोग हो तो यह अत्यन्त `
` पृष्यफलका देनेवाला है भौर इनका संयोग न होना पूर्वोपाजित पुण्यको भी नष्ट करता है ।\ जो भूरिजन्माने `
यह कहा है कि, उपाङ्कललिता शविति देवी है, अतः इसके पूजनम भ रान्िव्यापिनी ही पञ्चमी ग्रहण करनी `
चाहिये. यह् उनका कहनाभी तुच्छ है यानौ अविचार रमणीय है, क्योकि, उपाङ्कललिताकी व्रतकथमे कोई `
विहञेष वाक्य तो मिल्ताहौ नहीं कि, रात्रिम उपाङ्गललिताका पजन करे. शव्तिपूजाभी विलञेषप्रमाणके न
होने पर मध्याह्लमे ही कौ जा सकती है इससे यह भी सिद्धान्त बाधित नहँ हुमा कि दुर्गा लक्ष्मी पूजनादि भी
दिने क्यो नहीं किये जाते रात्रिमेही क्यों होते हे ? क्योकि-गा लक्ष्मी आदि देविर्योका पुजन रात्रिम करना
स्मृत्यन्तरे सिद्ध है । यदि इस त्रतकौ कथाम रातरिपुजाका वणेन भिल्ता तो रात्रिव्यापिनी ही ग्राह्यमानौ
जातौ । थदि एसे कहं कि, “ रात्रौ जागरणं कुर्याद्गीतवादित्रनिःस्वनेः ” इस व्रतकौ कथाम यह लिवाहैकि, `
गान वाद्यादि करता हओ रात्रिम जागरण करे । जागरण रात्रिम ही विहित है इससे पूजन भी रत्रिमे `
` ही करे, यह सिद्ध नरह. क्योकि, जागरणादिरूय पुजाके अद्धभूत कमोके अनुरोधसे प्रधानभूत पुजनादिर्प `
` कर्मक करनेका निणेय करना किसीभी लाप्त्रमं नही भिलता । इससे मङ्ः ( गौण } सूपजागरणकारा्रिभे
विधान मानकर अङ्खी ( प्रधान ) पूजाका विधान भौ रात्रिम मानना ठीक नहीं है । हेमाद्रिने कालनिर्णय
` प्रसङ्खमे ' भुक्त्वा ” इत्यादि निर्णायकताक्य लिखा है । इसका यह् अथं है कि, भोजन करके जागरण करना =
जिसमे विहित हयो तथा रात्रिम जो ब्रत विहित है ( जसे कोजागरीब्रत ) एवं जिस व्रते चन््रमाके ल्ि `
अ्यंदानकरना लिला हो ( जैसे कृष्णपक्षको चतुर्योव्रत ) जो जो, ताराव्रत है, इन सवम रात्िव्यापिनीो ` श
तिधिका ग्रहण करे, इस हेमाद्रिके वाक्यसे यह् सिद्ध हुआ कि~रात्निव्यापिनी तिथि जागरणादि प्रवान कम्मे ` ॥
श्राह्य है ओौर उपाङ्कललिता व्रत जागरण प्रधान नहीं है, इसलिये यह ब्रत मध्याह्लव्यापिनी पञ्चभीमे |
ही करना चाहिये । एसे माननेते र ब्रिव्यापिनी तिथि फिर कब ग्राह्य मानी जाय ? क्योकि सभो व्रतपूना श
प्रधान है इससे रात्रिव्यापिनौ तिथिका विचार करना आदि भी निष्फलहोगा । यह शका भी नही करसकते, श ५
योक, रात्रिव्यापिनी तियिसाननेके लिये हेमाग्रिके कहै हए वाक्यके अनुसार जागरणादि अवद्रिष्ट है, ` ॥ (^
चरितार्थं हो जाता है ।। इस व्रतकौ विधि-प्रातःकाल जागकर आवह्यकौयः कर्मसे निवृत्य `
- अकारिषं “ “ धतं मिमिक्षे ” “ मधृव्वाता ऋताथते तथ। “ स्वादुः पयस्व ” इन पांच वैदिक मन्त्रोकं
` करावे । तांत्रिक इलोकका यह अर्थं है कि सब मूषणोंको अपेक्षा उत्तम, लौकिक लञ्जाके निवारण ये दो वस्त्र
1 \ इससे कठमें माला पहरावे.। अथं यह है कि हैसमस्त अद्धो सुंदरता धारण करनेवाली ! कारे काचकौ
लिये लला हुमा, भूना करनेवाटी स्वी हो तो सदाके सौभाग्यके लिये कामना करती हुई मे उपाङ्ध लक्ता =
देवीको प्रसन्न करनेके लिये इस समय जौ जो उपचार सामग्री उपस्थित हं उनके द्वारा उपाद्धललिता देवीका
` पूजन करूणा ( स्त्री हो तो करगौ ) फिर पुजन करे । ˆ नील कौशेय ' इस इ्छीककीो पठकर ध्यान करे कि;
नले रमी वस्त्रको धारण करती हुई सुवर्णके समान उज्ज्वल गौर कान्तिवाली कमलके आसनपर विराज- `
मान हो भक्तोको अभय देती हुई ललितादेवीका प्रतिदिन ध्यान करता हुं । ' आगच्छ इससे तथा “ हिरण्य “
इससे आवाहन करे । पहिलेका अथं यह हे कि, हे रुकिता देवौ { आप यहां पधार । भष सदा समौ सम्पत्ति-
: ` योको देती हये, जब तक मेरा यह् त्रत समाप्तं न हौ तबतक यहां ही रहं । कातंस्वर ' इस पौराणिक तथा `
५तांम आवह्” इस श्रीसुक्तके मन््रसे आसन प्रदान करे \ पहिकेका भाव यह है कि, विविघ रत्नोसे जडिति = `
सुवर्णके इस अनेकं शवितशारी दिव्य आसनके उपर विराजं । * गंगा ' इस तान्त्रिक तथा ˆ अल्वपूर्वा ” वेदिक `
मत्तरसे पाद्य प्रदान करे । तान्तिक मन्त्रका यह् अथं है कि, मे प्रा्थनाकर गङ्धाऽऽदि पवित्र तीथसि घुहावना ` |
जल छाया, आय इसे पाद्यके लिये रहण करे । ' निधानं ' इस तांत्रिक ओर “ कांसोऽस्मि ” इस वेदिकमन्त्रसे `
अर्यं ३ । तांत्निकमन्त्रका यह् अथं ह कि, यद्यपि आप सब रत्नोके आश्रय ( उत्यत्ति कारणभूता } एवम् न
परम उत्तम म् णो पुणं हो, तथाऽपि हे ललितादेवी आप अध्य लं आपके लिये प्रणाम है \' पाटलोशीर ' इस `
तांन्निक तथा ^ चद प्रभासां ” इस वैदिकमन्त्रसे आचमन करावे । तांन्निकका यह् अथं है किः पाटला
खदा जौर कपुरकी सुगन्धीसे सुगंधित, मघ्.र ठृ यह् जल है \ हि ललितादेवी { आप इसे ककर आचसन करे । ध
पयोदधि. इस तांत्रिकमंत्रको पठकर पंचामृतसे स्नान करावे \ ओर “ आप्यायस्व समेतु ” “ दधिक्राव्णो `
तात्रिकका यहं अथं है क्रि, दूषि, घृत, स्कर ओर सह्द इन पांच अमृतमय पदाथोसि स्नान कराता हूँ । = `
ह परमेश्वरि 1. आप स्नान करें ओर प्रसन्न हों । ‹ मन्दाकिन्या ' इस तांत्रिक सन्त्रसे तथा “ आदित्यवर्णे '' | (^
५ इस तैदिकमन्त्रसे श् दध जलधारा स्नान करावे । तांत्रिकका यहं अथं है कि, सुवणंसदृड पीत कमलोकी
सुगंधितमन्दाकिनी गङ्खाका यह पवित्र जल स्नान करनेके लिये प्रमसे मने अपके सम्पण किया हैः इसे स्वीकार
करें । ‹ सर्वेभूषाऽधिके ' इस तात्रिकमन्त्रको एवम् “ उपेतु मां देव " इस वेदिकमन्त्रको पढ़कर वस्त्र धारण
नं
से सु हं ` मलयाचल ` इससे, तथा “ क्षुत्पिपासा “ इसत्छचासे
4: प म 4
न म मादवतस्य
॥ 1
‹ चक्ष् दं ' इसं श्लोक तथा “ आपः सृजन्तु इस ऋचाको पटना हभ आरती करके उनके समीप दीपकको
चावरोपर स्थापित करे \ इलोकार्थ यह है कि, सब लोगोके नेत्रोके संमान पदार्थं दिखानेवाले अन्धकारके निवा-
रक इस दीपकसे हे परम ईङ्वरी ! मने भक्तिसे आपका नीराजन किया है, आप इसे स्वीकार करं । हस्त `
प्रक्षालन करके ? ' मोदका ` इस तान्त्रिक लोकसे एवम् “ आर्द्रा” इस ऋचासे पुडे लड. आदि भोग लगावे ।'
शलोकका यह् अथं है कि, मोदक अर्थात् तृप्तिकरनेवाल पूरे, लड़ , बडे, उदुम्बरादिकोके फल ओर खौर इन.
पदार्थोका नैवेद्य भोगल्गाओ ' मलया चल ' इस तान्त्रिक संत्रसे दोनों अनामिकाओसे चन्दन चढावे । इसका
अथंहै कि" हे परमेदवरि ! कपुर मिभित सुन्दर चन्दनसे आपका करोद्रं्तन करता हुं भाप ग्रहण कर 1 ( कथू-
रेखा इस इलेकको तथा “ आद्र यः ” इस ऋचाको पठकर ताम्बल अर्पण करे । ' मातुर् द° ' इससे तथा =
*इदं फलं मया देवि ' इस शलोक ओर “ मां मआवह “ इस ऋचाकोपढकरच्छतुफल चढावे । मातुलद्धंइसका `
यह अथं है किं हे परमेदवरी ! मातुलृद्ध, नारियल, खजूर, जंभौरा ओर पनस इनके फलोका मोग लगा । `
‹ हिरण्यगरभेगभस्थं ' इस पञ्चको तथा “ यः शुचिः प्रयतो ” इस वाको पढकर सुव्णेकौ दक्षिणा चढावे! `
' चन््रादित्यौ च ' इस इलोकको तथा “ पद्मासने ” इस ऋचाको पठके आरती करे कि, ' उपाद्लल्ति ' इस
श्लोकसे एवम् “ अर्वदायं "' इस संत्रसे प्रणाम करता हुआ पूष्पाञ्चकलि समर्पण करे । इलोकार्थ हहैकि्है
( उपाङ्खललिति! हे मातः! हे वि्ध्यवासिनि ! हे दृग ! हे देवि ! हे विश्वरुपिणि ! आपके लि प्रणाम है;
इस प्रकार पुजनकरके अडतालीस दूबकि अंकुर चढावे. ओर इस ? बहुप्ररोहा ' इस मत्रको भी जउतालीस
` बार पठे । इसका अथं यह् है कि, बहुत अंक्रुरोसे सुन्दर अमृत ओर हरी यह दूब जिस प्रकार है है लत्तिं ! ह
भातः ! उसी प्रकार मेरे मनोरथ भौ बहुत प्रकारसे बदु, ये दूर्वादल अढतालोस वार ही चढावे ओरं इनके
, " साथ साथ पुष्प भी चदाता रहे ।' प्रदक्षिणा इससे प्रदक्षिणा करे । इसका अथे यह है फि, हे देनि ! ये मेने
श्रेमसेजो तीन प्रदक्षिणा किये ह, इनके पुष्यसे मेरे सब पापोको जप नष्ट करे मं प्रणाम करता हुं । ˆ साष्टा- |
ङोभयं ' इससे साष्टाङ्ध प्रणाम करे, अथं यह् है कि, है परमेदवरि ! मेने विधिवत् यह साष्टाङ्ध प्रणाम भदितिसे |
| किया है, आष सृन्षे ' यह् पेरा दास है ' एेसा समक्षे ओर मेरेपर प्रसन्न रहं 1 ' दीनोऽहं ' इससे प्राना करे, |
इसका यह अथे कि, मे दीन, पापी, दद्द्री हुं, हे कृषके सागर ! भप मेरा दुःखोसे उद्धार करके मेरे सनो- |
रोको पुणं करे ! फिर बीस बडे पक्वान्न एवं घृत भौर दक्षिणा केकर व्रत पुतिके अथं आचायको वायनादे `
` भौर देतीवार “ क इदं कस्मै ” इस मन्त्राको पठकर “उपाद्ध' इस इलोकका उच्चारण करे । अथं यह हैकि, `
उपाङ्धःललिताके ब्रतकी पुतिके छिये सुवणं क दक्षिणा समेत इस वायनेको हिजवर आचायेके लिये देता हुं, इसके
देनेसे मेरा व्रत साद्धः पूणं हो \ फिर कथाका श्रवण करके वायनेमें जितनी बड़ोकौ गिनती थी उतनेही ग्रसं `
लेकर भोजन समाप्त करे, भोजन अयने बान्धवोके मध्यमं बेठ मौन व्रत धारणं करके करना चाहिये, रातको `
जागरणमे नाच गान वाच्च आदिकोके माद्धल्िक शब्द होने चाहिये, भ्रमात कालमे देवीका विसजन करती
बार सबाहना' इस दलोकको पटे इसका अथं यह है कि, है मातः! वाहन ओर शक्तिसमेत वरदायिनी पका
| किया है, भाप मुह्ञपर अनुग्रह करतौ हुई अपने दिव्य धामको पारं 1 यह् प्रतिवषं पूजा करनेका `
पुरा कौलासश्जिखरे सुरवासीनं षडाननम् ॥ कथ `
॥ १॥ ऋषय उचुः ।! महासेन `
यानानि सुपुण्यानिभ्रूतानि तव्वत््रसा- `
स्वन ५
साध पृष्टं महादेव्या माहात्म्यं मुनिपुङ्धबाः ।\ वच्मि सवं विधध्नेन तच्छुणुध्य
णज्ञो धनी च बहुबान्धवः ।! ६।। अनपत्यस्य तस्याथ जज्ञाते जरतः सुतौ ।। श्चीप-
तिर्णोपतिदचैव नामानी विदधे तयो अचिरेणैव कालन स पञ्चत्वम
गादिहिजः । तौ तु बालौ घनं बन्धूम्हित्वा सा धम॑चारिण) विवेक इषुं
स्वर्थातुं पतिना सह ।! अथं तद्रान्धवाः सवं हा कष्टमिति चुक्रुशुः ।\९}} रुदन्तो
` दुःखिताहचक्रस्तत्कियां पारल्नौकिकीम् ।\ जथ तस्य सपत्नोभूद्श्मातः स जगृह
धनम् ।\१०।। आक्रोशन्तौ च तौ गेहं निजमानीय दुर्मनाः ।। नास्ति चक्रं धनं सवं
ताभ्यां किचिन्न वे ददौ ।\११।। ततो मौज्जीधरो बालो बन्धुभिः कथितं वथु
ययाचतुः पितृव्यं तं देहि नो द्रविणं हि तत् ।\१२।। सं तावच भतं द्रव्यं युवां कनं
प्रतारितौ ।। निर्गच्छतां मम गृहादित्यादि परुषं बहु ।। १३ \\ तौ तहचोभि- ¦
निविण्णौ बाकौ श्रीपतिगोपती ।। बभाषते मिथः कष्टं धिगहो पितृहीना
11१४) यावो देशान्तरं यत्र स्वजनो नास्तिकडचन ।। अनाभाष्यव स्वजनाः
म्म् तुदिज्ञमुत्तराम् ।\१५।। भिक्षाचारौ बहून्देशान्वनानि सरितो गिरीन्
समतिक्रम्य ययतुविश्षाखां नामतः पुरीम् ।\ १६।। कासारमौ्नाञ्चक्राते ततो
ऽस्याः सच्िधौ शुभम् ।! पुण्डरीकवनाकी्णं रक्तसन्ध्याविभूषितम् \1 १७।। सन्ध्या-
श्रभूषितं' चार यथा तारकितं नभः \ श्रान्तौ पथि गतौ बालो क्षणं विश्रम्य तत्त
. ॥१८।। आचम्य शिि्िरं तोयं सस्नतुस्तौ यथाविधि ।\ गताध्वखेदौ विप्राग्यो
पुरं प्राविश्तां ततः ।\१९।। वीथीचतुष्पथयुतं चारूगोपुरमण्डितम् ।\ देवतागार-
रुचिरं सौधराजिविराजितम् ।\२०।\ नानावीथीरतिक्रम्य विप्रावासमवापतुः ।।
कस्यचित्त्वथ विप्रस्य क्षुत्पिपासादितौ गृहम् ।\२१।। ईयते दिकायां ताबुपविष्टो
श्रमातुरौ ।। स्वामी ततोऽस्य गेहस्य विवेक इति विश्रुतः ।\२२।। आयातो वेश्व-
देवान्ते स ददर्घातिथी द्विजौ ।। अनापच्छस्तयोः शीलं तथा च कूलनामनी ।\२३।
ऋषिवत्युजयामास स्मरन्धमं सनातनस् ।! अतिथी भोजयामास स्वादसरेन द्विजो
: | 7 हौचारिणो विप्रौ सपया तां विलोक्य च ।। देशबन्धुपरित्याग- `
जगद्धितम् ।५।\भगक्ेत्रे किल पुरा विग्रोऽमृद्गौतमाभिधः ।। शरुतिस्पृतिपुरा- `
दवान हिन्दीटीकासदहितं ` न (२७५)
किष्यश्च सहाध्यापयितु श्नुतिन् ।\ बभूवदुहच तौ बालौ गरुदुभ्रूषणे रतौ ।\२९
गरोगेहे निवसतोरागता चनिमेला अर फुल्ल्पद्यविशालाक्षी प्रसचेन्दुश्चभा- `
ननां ।\३०।। तस्यां सशिष्ययावायं चरन्तं व्रतमुत्तमम् ।। पप्रच्छतुर्भोः किमिदमा- `
वाभ्यामिति कथ्यत् ।\३१
उवत्च ।। उपाङ्धललिता देव्या व्रतं देवपूजितम् ।। ३२ ।। सर्वकामकरं नणाम- `
स्माभिः समुपास्यते ।! विद्याकासेन क्तेव्यं तथेव धनकाम्यया ।1३३।। सुताथिना `
प्रकर्तव्यं व्रतमेलदनुत्तमम।। विख्ाफसौ च तौ बालौ वतमाचरतुर्मदा ।\३४
ताभ्यामेव कृतं प्ररने विवेक इदमन्नरवीत् ।। व्विक
| | । भवित्ततो गद ज्ञातो शथाक्ष क्ष ॥ य्थाश्िधि | नर त्रसादात् सकल गाल्त्र वदानः १. ध । |
वापतुः ।\३५।\ अन्यस्मिन् हायने भक्त्या विवाहार्थं प्रचक्रतुः ।! श्रीपतिर््गोप- `
तिश्चेव व्रतसेतत्तपोधनः अधचिरेणेव कालेन सासि माधे वयोगः
स्वां विवाहोचितां कन्यां नास्ता गुणवतीति ।\२७।। विनीताय श्रुतवते यने
` श्रीपतये तदा ।\३८।। विचायं बान्धवे: साकं ददौ पुण्यक्ष॑वासरे ।।३९।। पारिबर्हं
बहू मुदा प्रादाददु हितृवत्सलः। \विवेकोऽपि मृदं लेभे सानुरागौ विलोक्य तौ !।४०।
अन्याब्दं पुनरेतत्तु व्रतं देव्याश्च चक्रतुः ।। भरातरौ तौ निजं देशमिच्छन्तौ च धना-
दिकम् ।\४१।। अथान्याहनि क्सिश््चित्तावुपाध्यायम्चतुः ।। स्वामिन्युष्मत्परसा-
देन लब्धा विद्या तथा वसु ।।४२।। अनुजानीहि गच्छावो निजं देशमितः पुनः ।\
इत्याकण्यं समालोक्य शुभं वासरमाद्तः ।\४३।। स्वयं प्रापयितुं विप्रस्तौ तां कन्यां `
च निर्ययौ ।। अथ देव्याः प्रसादेन पितुव्यस्य तयोः किल ।। ४४ ।\ अन्वेषणे मति- `
रजता गतौ श्नीपतिगोपती ।! नि्भेतौ कं गतौ देशं वसतः कवेत्यचिन्तयत् ।४५।। `
लोका निन्दन्ति मां कुर्वस्तयोरन्वेषणे सतिम् ।। दिदृक्षुस्तौ ततः सोऽपि निजेगाम `
निजात्पुरात् ।१४६।। किचित्स नगरं प्राप द्विजो बालौ गवेषयन् ।। तदेव नगरं . `
प्राप्तो विवेकाख्यो द्विजोत्तमः ` सज्िष्य कन्यया साद्धं कमन्मा्गं शनैः- `
श्नः ।॥ तत्र तेषां समजनि सद्धमो मुनिपुङ्खवाः ।\४८।। विदांचकार तौ कृच्छा-
तस्तु पितृव्याय तत्तत्सर्व न्धवेद्यत् ।\४९।। तं `
(२७६) 7 1 ब्रतराज [पंचमी |
ष्ठितम् ।\५५।। तौ पित॒व्यगृहू स्थित्वा हायनान्यष्ट सप्त च।। लब्ध्वा पितृधनं
गेहं निजं श्रीपतिगोपती ।\५६।।ईयतुस्तदनुज्ञातो विवेकः स्वां पुरीं ययौ ।
` श्रीमतिर्गोपतेस्तत्र विबाहसकरोत्तदा ।५७।। तावेकचेतसौ तत्र चक्तुष्िजत- `
पणम् ।। श्रीपतिः श्रद्धया युक्तः कनीयान् व्ययशदङ्धितः ।\५८।। विचायं भार्यया
साकं विभक्तः श्रीतेरभूत् ।\ स भोगान् विविधान् भुञ्जन्प्रमत्तो बहुसम्पदा `
॥५९॥। न देव्याराधनं चक्रे गोपतिः सुखलम्पटः।! अथ स्वल्पेन काठेन नष्टं तस्य
` इानैर्धनम् ।\६०।। अकिञ्चनो गतरिचन्तां भायेयाहवासितस्तदा ।! तव शभ्रात्-
गुहे विप्रा भुञ्जते बहवः सदा ।६१।। गच्छावोऽनुदिनं कान्त तत्र भोक्तुमुभा- `
चपि ।। एवं भोजनवेलायामागत्यागत्य तद्गृहम् ।\६२।। भुञ्जन्भुञ्जचिजगृहं ` `
गतो तौ बहुवासरम् \! कदाचिदागतो यावद्गोपतिर्भायेया सह।\६३।। उपविष्टेषु
विप्रेषु मोक्तुं नोऽविन्ददासनम् ।! अथान्नराशेरभ्याशे भोजनाय क्षुधातुरः ॥*६४।।
उपविष्टः श्रीपतेस्तु भार्यया स निवारितः ।\ अस्मादुत्तिष्ठा वे तूर्णं त्वमुच्छिष्टं
करिष्यसि ।॥१६५।। तिष्ठ तिष्ठ क्षणं चैव पदचाद्मृश्षवेति सात्रवीत् ॥ `
गोपतेःकान्तया दृष्टं ततो विमनसावुभौ ।\६६।। अभुक्तावेव निष्कान्तौ जग्म- `
तुनिजमन्दिरम् ।\ ततः स्वजायां प्रोवाच निजमागं विचिन्तयन् ।\६७।। स्मात्र
मया समं वित्तं संविभक्तमपि प्रिये ।। दुरगतोऽहं घनोन्मत्तः श्रूयतामत्र कारणम्।\६८। `
पुराऽऽवाभ्यां गुरुगृहे ब्रतमाचरितं शुभम् ।। उपाद्धललितादेव्या विद्यादिसकलं `
ततः ।॥६९।। प्राप्तं मया तत्सकलं परित्यक्तं प्रमादतः ।। ज्येष्ठ आचरते नित्यं `
` तस्मच्छीस्तं तु सेवते ।\७०।। तस्मादहं तदा भोक्ष्ये यदा द्रक्ष्यामि तां शिवाम् ।॥
इत्युक्त्वा निर्गेतस्तस्माद्गृहादकृतभोजनः ।\७१।। तद्भार्या चिन्तयाविष्टा सापि `
तस्थावनहनती ।। भुक्तवत्सु ब्राह्मणेषु श्रीपतिः पयपृच्छत ।\७२।। क्व गतो गोप- `
निरिति तच्छत्वा सोपि दुःखितः ।। गोपतिस्तु सरिद्.गं वनानि बहुशो भमन्
॥\७३।। पृच्छंडच पथिकान्मागे न देव्याः पदमभ्यगात् ।। पञ्चमे वासरे प्राप्ते `
शुत्पिपासादितो बनें 11७४1 अलब्धदशेनो देव्या दुःखितो निपपात ह । तं कच्छ-
गतमालोक्य भवानौ भक्तवत्सला ।१७५।। कृपापराधमपि तमनुजग्राहं वं तदा ।\
: समुत्थाय दिगन्तान् प्रविलोकयन् ।७६।। ददशं दूरतो गोपं चारयन्तं
तानि 1 दिन्दीटीकासहित (२७७)
` नाम भूपतिः ।॥७९।। उपाद्घललितादेव्या विद्ते यत्र मन्दिरम् ।! तत्रत्योऽहं `
समायातः पुनस्तत्र व्रजाम्यहम् ।\८०।। इत्याकण्ये वचस्तस्य विप्रः प्रमदितोऽ- `
भवत् ।\ स गोपसहितः सायं नगरं प्रविवेज्ञ ह ।८९।। दूराहदक्षं भवनं पुरमध्ये `
` तपोधनाः ।। उपाद्धललितादेव्याः स्फाटिकं गगनंलिहन् ।।८२।। सौवर्णेन विचि- `
तरेण कलशेनोपञोभितम् ।\ यथोदयाचलः शलो दधानो भान्मण्डलम् ॥1८३।। `
त्वरितो गोपमामंन्य प्रासादं स ययो मुदा ।। प्रणम्य दण्डवदभमौ बद्धाञ्जलि `
पृटस्तदा ।\ ८४ ।। उपाद्धललितां देवीमथ स्तोतुं प्रचक्रमे ।। गोपतिरुवाच ।। `
नमस्तुभ्यं जगद्धात्नि भक्तानां हितकारिणि ।॥ जगद्धरीतिविनाश्चिन्ये
स्वेमद्धलमूर्तये ।।! ८५ ।। हत्वा निजञुम्भमहिषप्रभतीन् सुरारीनिन््रादयो `
निजपदेषु ययाभिषिक्ताः । लोकत्रयावनगृहीतमहावतारे मातः प्रसीद सततं
कुरु संऽनुकंस्पाम् ।८६।। त्वां मुक्तये निजजनाः कुरिखीकृताङ्घी गौरीं निजे `
` वपुषि कुण्डलिनीं भजन्ति ।। मुक्तये च देवमनुजाः कनकारविन्दबद्धासनामविरतं `
कमलां स्तुवन्ति ।८७।। देवीं चतुर्भुजां चंकहस्ते चेव गदाधराम् ॥ लाद्खंखद्ध-
धरां चव सौम्याभरणभषिताम् ।८८।1 सरस्वतीं पदिनीं च पदाकेसरवासिनीम । `
नमामि त्वामहं देवीं तथा महिष मदिनीम् \\९८।। अपराधाः कृताः पूर्वं मया `
जन्मनिजन्मनि ।। तत्सवं क्षम्यतां देवि मातम सुविक्ारदे ।९०।। सापराधोऽस्मि `
शरण प्राप्तस्त्वा जगदम्बिके ।। इदानोमनुकस्प्योऽहं यदराञ्छामि कुरुष्व तत् ।९१।}
इति स्तुत्वाथ शर्वाणीं प्रणिपत्य पुनः पुनः ।। कृतसंध्याविधिस्तत्र सुष्वापाकृत- `
भोजनः ।\९२।\ स्वप्ने मूतिमती देवी विप्रमेवं समादिशत् ।\ गोपते वत्स तुष्टास्मि `
` गच्छोपाङ्खमहीपतिम् ॥।९३।। मत्पुजनकरण्डस्य प्रार्थयस्व पिधानकम् ॥ तत्यू- `
जयच्निजगृहे परामुद्धिमवाप्स्यासि ।९४।। स्वप्न इत्याप्तसन्देशः प्रभाते गोपति- `
स्तदा ।॥ राजदश्ञेनवेलायां नुषदारं समभ्यगात् ।\९५।। प्रविष्टोऽसौ नृपसभां `
भ्रतिहारेनिवेदितः \। राज्ञा संभावितस्तत्र निषसादासने शुभे ।।९६।। पष्टो गमन- `
हतश्च ययाचे नृपुद्धवम् ।। देन्यचंनकरण्डस्य पिधानं देहि मे नष ।॥॥९७।। इत्य- `
थितः स विग्रेण जातादेशो नृपो ददौ ।\ पिधानकं नमस्कृत्य तस्ते चाभ्येच॑नादि- ॥
पा ललितानाम सुन्दरी ।। सा तत्पिभचमादाय विहरतु थाति सर्वदा!३। `
गमत्तत्वाल्प्रियत्वास्च पितृस्यष्मनिवःरितवा ।। कद्ित् स्ववयस्याभिः साकं
-ङ्गाजके शुभे ।४।। क्रीडन्ती ददृशे तोये नीदमानं कलेवरम् ।\ पिधानहस्ता =`
गसिचदन्याहचाञ्जलिभिस्तदा \\ ५।। ख॒ स्प॑ङष्ट उत्तस्थौ ततो रव्या
सादतः ।\ सतिकान्तं दिन दृष्ट्वा भनसा चकमे पततिम्।\६।।जुहावाभ्यवहाराय
[नकस्य भिकतनम्।।सागे च पररिपञ्नरं सीरं च तस्य खा ।\७\! सोऽपिखवं
~
गृहीतपोशनै भूत्वा भार्यार्थं मां त्वम-
९।} मयानुमोदितस्तातः स मां तुर्यं प्रदास्यति ।। तयोक्तो गुणरारिस्तु `
ीक्षिताय विप्रत्वे विद्यायां कुलल्लीलयोः!। ११।। प्रतिजज्ञे ततः कन्यां ल्ल्तिं ६
राशये \। शुभे मुहूतं च तयोविवाहं कृतवान् प्रभुः ।\ १२।। वराय ब्राह्यणेभ्यहच
शनरथ धनं सवं गोपतेरगमदृगृहात् ।\ गुणरािधनी जातो महादेव्याः
| १५।। करण्डस्य पिधानं तज्जनन्या बहूुवासरम् ।। याचितापि न वें
1दाट्ललिता पूजितं गृहं \\ १६।। अथ सा गोपतेर्भा्या तस्थेवानचेनादगतम् ।
विचिन्त्यं पापात्मा जामातरमघातयत् । १७।। समिदर्थं बनं यातं स्वयं
हमाययो ।\ ्रोचन्तीं किल तां कन्यां स तु देव्याः प्रसादतः।\१८।। उत्थाय
नादत्य भुक्त्वा शेतं सुखं गह ।। पादसंवाहनं तस्य कुरूते लित तदा ।\१९।।
दृष्टा दुःखिता भूमो प्रणिपत्य पुनः पुनः ।। ज्जि कृच्छतः पृष्टा निजपापं
पत् ।\१२०।। स्कन्द उवाच ।।.गुणराक्षिस्तदा तस्यै प्रायश्चित्तं ददौ बह ।
व्रतानि} हिन्दोटीकासहित (२७९)
। । ए 4 प ध न र ~ 0 ४ ४
२८।। श्चुदलयक्षे तु वञ्चम्यासिषे मासि चरेद्ब्रतम् । गजितं संध्ययोस्त्याज्यं `
दिधवदिश्चयौ क्था ।1२९।। नि्वेत्यविश्यक कमं शुची रागविर्वाजतः ।। ततो `
गत्वा वयं विद्रा प्रथेयंच्च वनस्पतिम् ।।१३०।। आयुबलं यत्नो वचेः प्रजाः पश्च
वसूनि च \। ह्च प्रहा च मेधां च त्वं नो देहि वनस्पते ।।३१।। बनस्पतिप्राथेना।।
अपावत ड् तदन्तकाष्ठः करोम्यहम् ।। दन्तानां धावनं मातः प्रसन्ना भव
५ "८२
सर्वदा \\३२।। इन्तक्णष्टग्रहुणम् \। चरत्वारिशत्तथाष्टौ च कल्पयित्वा विधानत
दउन्तकाष्ठान्धुष्छदाय तडागं वा नदीं व्रजेत् ।।३३।। मुखदुगेन्धिनाशाय दन्तानां च `
#
दिष्य ।। ष्टीदनाय च गोत्राणां कु्वंऽ्हं दन्तधावनम् ।\३४।। इति दन्तधाव- `
लम् ।! दन्तधावनपुर्वाणि अज्जनानि समाचरेत् ।। ततो यथाविधि स्नात्वा शुक्ल- ~
बाता गृहं ब्रजेत ।\३५)} शुचौ देके मण्डपिकां कृत्वातीव मनोहराम् ।। सौवण `
प्रतिमां शवत्या कल्पयेन्मंबरपूविकाम् ।।३६।। उपचारैः षोडशभिरेभिर्मत्रैः समा-
हितः ॥ कुर्यात्पूजां प्रयत्नेन दूर्बाभिश्च विशेषतः ।३७।।दजाय वाणकं द्या- `
ष्िकञत्या वटकादिभिः । ततः कथां समाकण्यं वाणकान्नस्य संख्यया ।३८।। _
स्वथमदात्तदेवान्नं बाग्वतः सह॒ बान्धवः ।! रात्रौ जागरणं कुयाचत्यगीतादि-
मङ्कलैः ।\३९।) प्रभातं पुजयेदेवीं ततः कर्या्िसजनम् ।! सवाहना शक्तियुता ५
बरदा पजि मया ।\ १४०।। मातर्मामनुगह्याथ गम्यतां निजमन्दिरम् ।। तसर्चा `
हे महेषव
| गुरवे दश्चाद् "दानानि चस भूरिश ( &.1 4 1 इमबः कुयत्पुत्रबान्धववान्भ- \ ८
^ विद्यावान ोगनिमुक्तः सुखी गोधनवान्भवेत् ।४२।। अवेधव्यं च क्भते ` ॥ ४
स्त्री कन्या वरमुत्तमम् ।\ वि यं पुष्टिमायुष्यं यच्चान्यदपि वाज्छितम् ।४३।
इत्येतक्गतभाख्यातं सेतिहासं महर्षयः ।। श्यृण्वन्नपि नरो भक्त्या सुखमाप्नोति `
` निहवितम् ।(४८।। निरभुकतः स सुखी धीमान् व्रतराजप्रसादतः ।। वित्तमारोग्य- षः ५
1 स मायुष्यं प्राप्नोति च न संशयः ।\४५।। इति श्री उपांगल ० कथा संपूर्णा ।।
` अथ कथा-सूतजी ( शौनकादिकोसे ) बो किं पहिले कैलासके शिखरपर विराजमान
होकर कातिकेयजी दिव्य कथाएं कहा करते थे उन्हे सुनते हृए ऋषियोने प्रार्थना की थी 11१11 कि, है महासेन !
४ रके नन्दन ! अनन्त पराक्रमवाले आपकी प्रसश्चतासे हमने बहुत पवि २ काथाए् सुनी ।(२।। जितने १ | |
इतिहास ह गत् भे उनकी प्रसिद्धि ् आपने ही कौ हं \ ये सव कथा बहुत ह उनको विभूति ( विस्तार } बहुत `
। ठेस हो जिसके करनेसे अनायास मनोवाञ्छित पदार्थं मिले ।॥४।॥ `
अच्छा पुछा, मे महादेवीके ब्रतका सब जगतृका कल्याणकारी
(२८०) नि प ब्रतराज [ पंचमी-
होनेके थोडेहौ समय पौरे वह् ब्राह्मण मृत्युको प्राप्त हो गया, उसकी पतित्रता घमं चारिणी स्त्रने पतिके साथ `
स्वं जानेके लिये बालक पुत्रको धनको ओर बान्धवोकौ छोडकर ।\८।। अग्निम प्रवे किया । उसके बन्धु- `
बान्धरवोने बडे दुःखकी बात हुई एसा कंह ॥॥९॥ रो रो अश्रूषात करके दोनोकी पारलौकिकौक्रियाकी, उस |
ब्राह्मणके एक विमाताका पुत्र भाई था, उसने वैरी होकर सब धन छीन छया ।\१०।। वे दोनों बाक्क रोतेही
रह् गये वह्, दुष्टात्मा अपने घरमे सब धन र आया पर उसने उनके लिये कुछ भौ नहीं दिया उनकी रक्षाका `
बंदोबस्त भी न किया \\ १२।१यद्यपि उन बालकोने यज्ञोपवीत लेकर भिक्षाटनके समय अपने ओर मौर बान्ध- = `
चोका बताया हुजा घन अपने पितृच्यसे मांगा था कि हमे घन दीजिये ।\१२।। पर पितृव्यने यही उत्तर दिया |
कि, तुम किसके कहनेसे बावले हो गये हो ? जो धन था वह् तो कभीका नष्ट होगया ! पीछे नाराज होकर धन `
देना तो दुर रहा, प्रत्युत मेरे घरसे निकल, एेसे कठोर वचन जर कहे ।\१३॥। वे बालक श्रीपति ओर गोपति ` (५
` पितुच्यके इन अन्याय वचनोको सुन चित्तमं बहुत दुःखित हुए पर बालक थे ओर क्या कर सक्ते थे; केवल `
आयसम यहौ कहा कि पितृहीन बालकोके जौवनको धिक्कार है यह जीवन बहुत दुःखदायी हैभश्नपाजबपेते
दशमे चले जहां अपना कोई भी बान्धव न हो, एसे जापसमं विचार, अपने किसी भी बान्धवको कुन कहकर
उत्तर दिश्नाकी जोर चरे गये ।। १५।। भिक्षा मांगके अपनी उदरपुति करते हुए बहुतसे देक, वन, नदी ओर `
` पर्वतोका उत्कधन कर, विशाकपुरी ज गये ।१६।! बहां पर नजीकमें सुन्दर तलाव देखा, उसमे सफेदलार
कमलोका वन लग रहा था यह रक्त सर्ध्यासे विभूषित था ।।१७।। जैसे सम्ध्याकालके बहरोसे विभृषित,
` तारोसे चमकता आका दीखता है वे चलते चरते थक गये थे इससे क्षणभर उसके किनारे बैठ गये ॥१८॥
ठंडे जलका आचमन करयथा विधिस्नानं किया, रास्तेकीथकावट छूट जानेपर पुरीम घुस गये ॥१९॥
अहुतसी छोटी गकियां तथा बहते बडे बडे रस्ते थे, उनमें दुका्नोकी पंक्तियां लग रही थी, चतुष्पथ थे पुरीके 1
| दए बहुत सुन्दर थे, देवताओके मन्दिर एवम् धनियोके घरोकी पंक्तियां बहुत शोभा दे रही थौ ॥२०॥ इन
सबको देखते एवम् अनेकों विधियोको त्गँघते हए ब्रह्मणोके योग्य स्थानमें पहुंच गये । वे भृखसे पीडितथे, ` `
इससे किसी एक उत्तम ब्राह्यणके घर ।\२१।। जाकर आद्खनमं बेठ गये । घरवा ब्रह्मणका नाम विवेक ` `
था ।\२२।) यह अपने बलि वेरवदेवकरनेके अन्तमं उन दो अतिथि ब्राह्मणोको जाया हज देखकर ही जिना `
उनके स्वभाव, कुल मौर नामके पूछे ।२२।। सनातन धर्मके अनुरोधसे जैसे ऋषिरयोका पूजन करना चाहिये.
वेसेही उनका पूजन किया, द्विजोत्तमने उनको मधुर अच्च भोजन कराया ।\२४।। वे दोनों ब्रह्मचारी ब्राह्मण
बालक उसकी को हुई शुभूषाते प्रसन्न हो दे ओर बान्धके त्यागनेके खेदको भूर गये ।।२५। दया
`. ब्राह्यणने उनसे यह नी पुछा कि, तुम कौन हो कहोसे आये हो, छोटी उमरे घरसे क्यों चठे आये ?।२६॥
विवेकके वचन सुनकर श्रीपतिने अपना सब वृत्तान्त करमसे यथावत् सुनादिया ।\२७।। उनके कथनसे उसने
सम्च लिया कि, इनके पिता नहीं है, बान्धवोने इनको निकाल दिया है ! इसलिये उनको आश्वासन देकर अपने `
` । . घरमे बहुत दिनोतक ठहराया ।\२८।। अपने दूसरे शिष्यो साथ उनको भी वेदं पठने लगे, बे दोनों भाई भी ^
` सुरुको सेवामे तत्पर हो गये ।\२९।। गृरुके घरमे प्रेम पूर्वक निवास करते हृए उन्हे निल शरद ऋतु प्राप्त `
हई, यहं परम सुन्दरीकी समता रखती है, खिले कमलोसे तो यह कमलनयनी तथा निर्म चांदके उदयसे यह् `
चनद्रवदनी बन जातो है ॥३०।। इस तुमे गुरुदेव अपने शिष्योके साथ एक उत्तम व्रत कर रह थे. उन्होने |
षव [8 १ कर रहे हो ? हमे भी बता दो ।\२१।। आचार्येन उत्तर दिया कि,
वरतानि] हन्दीटीकासदित = (२८१)
"जाणे
संहनन युवा श्रीपतिके लिये भाइयोके साथ परामहां करके पित्र नक्षत्र भौर दिनमें दे दिया ।३७-३९॥६
` लडकीपर बडा भारी प्रेम था इस कारण बहुतस दहेजभी दिया एवं उन दोनोका परस्पर प्रेम देवं कर गुरुको
बडा भारी आनन्द हुमा ।\४०।। फिर तीसरे वषम वह् दोनो भाई अपने दशमं जानेके लिये घनादिकी काम-
नासे श्रत करने लगे ।\४१।। किसी दिन वे दोनों अपने गुरुसे प्राथना करते हये बोले कि, हे स्वामिन् ! आपकी
कृपासे विद्या ओर घन दोनोंही पदार्थं मिल गये ।।४२।। अबं हमको अपने देशम जाने की अनुमति दे तथा _
` विवेकने आदर भी किया । उसने उनके बचनोंको सुन प्रमके साथ अच्छा मुहूतं देवा ।\४३। फिर शुभ
दिनमें उनको तथा अपनी पुत्रीको पहुंचानेके विय पौ पौरे गया । इधर उपाङ्गललिता देवीकी प्रसन्रतासे |
उनके पितव्यका चित्त भी उनकी ।१४४।। खोज करनेको हुञा \ बह सोचने लमा किं, हाय ! श्रीपति मौर
गोपति घरसे निकलकर किंस देकशमें चले गये, अब वे कटां हँ \\४५।। लोग मेरी निन्दा करते है वे न करे एसे
चकर खोज करने लगा एवं अपने नगरसे चर दिया ।\४६।। वहं उन बालरकोकी खोज करता हुमा एक ` ध
शहर पहुंचा । उसी शहरमं द्विजोत्तम विवेक भौ प्राप्तहुभा ।\४७।। शनः शनेः अपने शिष्य ओर पुत्रीकेसाथ |
मागं तय करता हुम है मृनिपुद्गवो ! उन सबका उस सहरमे एकत्र मिलाप हो गया ॥\४८।। पितृब्यने उन `
बालकोको छोटी अवस्थामे देखा था, फिर देखा नहीं था इससे बहुत देरमं कठिनतासे पहचान सका, क्योकि
उस समय उनकी युवावस्था थौ । जो जो हुमा था श्रीपतिने वहं सब उन्हुं कह सुनाया ॥४९॥ विवेक मुनि `
` उनके पित॒न्यको देल कर प्रणाम ओौर विधिपुवेक अभ्यचंन करके प्रसन्नतासे बोला ॥\५०।१ कि ये तुम्हरे
भाईके पुत्र है इनकी भने पालनाकी है इन्दुं पडा दिया । तुम्हारे उत्तम गाममें पहुंचानेके क्षमे भी आयाहुं
॥५१।। रेते क्चनोको सुनकर उनका पितृव्य परम प्रसन्न हुमा, उनको छातीसे छगाकर बारबार उनके मस्त
` कोको संधने लगा ।\५२।। ओर विवेकके कहनेसे गुणवतीने अपने इवसुरके चरणोमं प्रणाम किया । वहं अनेक-
` वार आश्ीर्बादसे उसे प्रसन्न करके आपभौ कृताथेके समान आह्भादित हो ।\५३।। विवेकसे बोला किह महा- `
त्मन् ! आपके अनुग्रहसे इन बाकोको मेने पाया है । आज में कृतपुण्य हूं, क्योकि आप हमारे प्रिय सम्बन्धौ `
ह्ये गये ॥\५४।। वे सब मिलकर अपने भुगुकषेत्र नामक प्राम आनन्दके साथ गए! बान्धवोसे मिले, चाचाकी
एसी वैसी वातं सुनी \५५।॥ पितव्यके घरमे पन्द्रह बषेतक रहके चाचासे अपने पिताका घनले अपने घर ` :
आ गये \\५६।। विवेक उनको चाचाके यहां पहुंचा अनुमति रे अपने भाश्रसको चला आया । अपने घरपर
` आकर श्रीपति ने अपने छोटे भाई गोपतिका विवाह किया ।\५७।। वे दोनों भाई स्परस्पर बहुत प्रेम करते थे, `
करने लगा । स्ने
पर उनमें श्रीपति ब्राह्मणोको तृप्त करनेमे बहुत श्रद्धा रखता था, गोपति रचसे उरता था । इससे भरीपति ` ध
तो ब्राह्मणोको भोजनाच्छादनादि दानद्रारा तुप्त करने लगा, ओर गोपति खरचसे घबराकर ।५८।। अपनी `
| ^ सत्रीके साथ सलाहकर श्रीपतिसे अपना हिस्सा रे अलग हयो अनेक प्रकारके भोग भोगने लगा, फिर उसको ५
संपत्तिके मद एवं विषयभोगोको असव्तिसे एला प्रमाद हो गया ।॥४५९।। कि लिसते सुखलम्यट उस उपाङ्ग `
। ललितादेवीका आराधन करना भी छोड दिया । इससे उसकी बहुतसी भी बह सम्पति कुछ ही समयमे शनः ` 1
क्षीण हो गयौ ।\६०।। जब उसके पास भोजन के लिए भ कुछ नहीं रहा, तब वह गोपति बहुत चिन्ता
करते है ।\६१।। हे कान्त !
ते आइवासन दिया कि, तुम्हारे बड़ भाई शरौपतिके घरपर नित्य बहृतसे ब्राह्मण भोजन किया = `
हम भौ बहां रोज चला करगे, ओर भोजन करेगे, स्तने आदेवासन देकर जब एसे ८.
देन अपनी स्तरीफे साथ गोपति भोजन करने आया ।\६३।। र लब. `
गए थे पर उसको वैठनेके लिए कोई आसन नहीं भिला, षुषायं गोपति `
= ८ २ ^ चमी 9
1 म 10011 प
है ? भने उससे बराबरका हिस्सा लिया भा मै धनसंपतिके प्रमादसे मत्त होकर दुगेतिको प्रप्त हज, धन॒ `
गमारिया मै दरिद्री होगा, यहां जो कारण है उसे सुन ।\६८।। जब मं ओर श्रीपति गुह विदेकके यहां विचा- _ `
` ध्ययन करते धे, त हम दोनोने उपाङ्कललितादेवीका पवित्र त्रत किया था, उसके प्रभावसे हम दोनोको विद्या `
ओर घन आदि \\६९।! मिले भे; पर सेने धनके प्रमादसे प्रमत्त हो सब छोड़ दिया, मेरा बडा भाई श्रीपति उस `
ब्रतको करता है, इससे नित्य इतना खरच करने पर भी लक्ष्मी उसकी सेवा करती ही रहती है ।\७०\। इससे `
` भै अब भोजन तब ही करूंगा, जब कि पहिले उस देवीका दकेन कर लूंगा । एसे कहकेर विना भोजन क्यिही
धरसे निकल कर चला गथा ।\७१।। अपने पतिकौ चिन्तसे उसकी स्त्री भी घरमं विना भोजन क्यिहीवैही
रही । इधर श्रीपतिने जब ओर ब्राह्मणभोजन कर चुके तख अपनी स्वीसे पुखा कि ।\७२।\ गोपति कहां गयाः
उसके जानेका हाल सुनकर श्रीपतिको भौ बडा भारी दुख हृजा 1 इधर गोपति धरसे निकल्कर नदी, दुर्गम
देश ओर वनोमं घमता हज ।\७३।। रस्तेमे चलने बालोसे देवीके मिलनेका स्थान पता रहा, पर वेवीके `.
स्थानका पता नहीं लगा । एसे पांच दिन बीत गये, भूख प्यासके मारे व्याकुल एवं ।।७४।। देनीके दन हए `
नहीं थे इससे खित हौ भिर गया. भक्तवत्सला देवी उसे दूखी देखे ।\७५।। यद्यपि वो अपराधी थातो भी
उस समय उसपर दया ही की, मूछकि बीतजानेपर दिज्ाओं को देखने लगा तो ।\७६। कुछ इुरीपर बहुतसी ` 4
, गञंओंको चराता हआ एक गोपाल दीखा. उसके देखनेसे कुर आश्वासन भिला, शनः शनः उसके पासं पहुंच
गया ।\७७।! उससे पूछा कि, तुम कहां जातं हो ? कहां तुम्हारा निवास है ? कहांसे अये हो ? इस देशका
क्या नाम है ( जो थोडी दूरी पर दीखता है ) \\७८।। इन वचनोको सुनकर गोप बोक्ता कि, यह् उपाद्नामका
` शहर है, उसके राजाका नाम भी उपाङ्कः है ।\७९।। यहां उपाद्गललिता देवीका मन्दिर है । ने भौ यहांहौ ॥
रहता हु, यहासि वहं जाउंगा \\८०।। गॐ चरानेवालेके वचनोको सुनकर वहु अत्यन्त प्रसन्न हुआ, पीछे गोपा- `
` -लको साय ठे सन्ध्याके समय उपाद्धनगरमें घुस गया 1 “नगर” इसके स्थानपर (विवर पाठ भी मिक्ताहै `
उसका यह् अथं समक्षना कि, उस गोपारके साथ सायंकाल होनेपर एक गुहाके भीतर घुस गया।।८११। है =
` तपोधनो ! उस शहरके बीच उसने दूरसे ही एक मन्दिर देखा, बह भगवती उपाद्घललिताका था, उस मन्दि `
र्मे स्फटिकमणिहौी थो. ऊ चाईमे इतना ऊंचा था कि, भानो आकाद्को चार रहा है ॥॥८२।। उसके शिखरपर `
1 सुव्णेका कलस रगा हमा था, उससे उस मन्दिरकौ शोभा एसी हो रही थी, जसे सुयमण्डलसे उदयाचख्की ` ५
` होती है ।1८२।\ उसको देखकर पुछा कि, यहं स्थान किसका है? उसने बताया कि, यही उपाद्धललिता देवीका
` मन्दिर है । फिर बह क्षटपट प्रसन्न हो भगवती मन्दिरके भोतर चला गया, पुथिवोपर गिरकर हाथ जोड दण्ड- 1
. -वत् प्रणाम किया ।८४।। देवौका स्तवन करने लगा कि, है जगत्को धातरि { आपके लिये नमस्कार है. आप
"र्भ
`भवतोकि भरे करनेवालौ हौ, जगत्के भयोको
1 को विनष्ट करती हो, सब प्रकारके मङ्कर आपही के स्वरू है।\८५।} `
(| निशुम्भ महिष प्रभृति देवशात्रुभको मारकर इन्द्रादिक सब देवताओंको फिर अपने अपने अधिकार र आपने
पहुंचा दिया आपके अवतार त्रिल्लेकौकी रक्षके लिये ही होते हू \ हे मातः। अप प्रसन्न हो मेरे पर सदाकृपा
करे \\८६।। तेरे भक्त योगीजन योगपथसे तुके पानेके लिये सुषम्ना नाडीके मुखं पर लिपट फन रखकर वटी
हई कुण्डलिनी शक्तिके रूपमे तुके भजते हे । मुक्तीके ही लिये देव मनुष्य कमलाके रूपमे सोनेके कमल्पर `
आसनं रकर देटी हुई आपका निरन्तर ध्यान करते ह ।८७१। सुवेणके कमलासनपर निरन्तर बिराजी हई
-व्तानिं1;. ~; हिन्दीटीकासहित (२८३)
॥९३।। जाव उपाङ्गः राजाके पास जाकर उससे मेरी पूजा करनेकौ पिटारीके ठक्कनको मांगना ! उसको लेकर `
अपने घर चला जा क्हां उसकी पुजा करे हुए दर्मं समृद्धिको प्राप्त होगे \\९४।। स्वप्ने देवीका एसा सन्देश `
पा प्रभातमं भोपति खडा हौ राजक दलन करनेके समयमे राजद्वार पहुंचा ।\९५।\प्रतीहारोने आनेकौलबर
दी. भीतर बुलाया हुमा राजसभासं गथा, राजाने सस्माम किया, राजाके द्यि एक अच्छे आसनयर वैठ गया
॥९६॥ राजाने भोपतिते पधारनेके कारण पूछे । उसने नपदरसे यही कहा कि, मेः आपके पाससे उयाङ्घ
ललितादेवीकी पुजाके करण्डविधानको सोँगने आया हं, घाप मेरे लिये उसका दान करे ।\९७।। राजाने उसकी
याचना सुन, अपने नोकरोको उसे ला कर देनेको कहा ओर प्रणामकर ओर भी पुजनकी सामग्रियां दीं ९८
गोपति प्रसन्न हो राजाको अनेक भीर्वाद दे उसकी प्रशंसा करता हभ अनुमति लेकर भगवती `
` उपाङ्खललिताके मन्दिर को प्रप्त हुभा ।\९९।। उस विरमे ( गृहासे ) श्ट बाहर निकल आया! (“बिलात्”)
इसके स्थानमे “ पुरात् “ भी पाठ है, उसका अयं यह् है कि~उवाद्धनामक नगरसे ) फिर बाहर आयातो `
क्या देखता है कि, मेरा भुगृक्षेत्र्राम सी नजदीक ही ह, प्रसन्न हो अयने धर आ गया ।॥१००।। अपने सुहृद्
भाई अन्धुओसे मिला । प्रेमके साथ सब वृत्तान्त कहा उञ ठक्कनकी पुजा करके इतने दिन निराहार रहनेका `
जो त्रत हो गया था उसकी पारणाकी ।।१०१।। वह उस ढक्कनक प्रूना रोज करने लगा, इससे अत्यन्त ` ५
समृद्धिशाली हो गया, शरेष्ठ ब्राह्मण था, अतएव बहुत दिनों तक सत्रयज्नका अन्ष्ठान किया \२।। उसके एक
ललिता नामक सुन्दरी कन्या उत्पच्च हई, वहु उस ठक्कनको ककर बाहिर विहारे चये रोज जानेर्गौ
\1३)। बहु लडकी भोली थौ, बडी प्यारी थी, इससे साता पिताओने उसको लेजानेमे मना नहीं किया । किसी
दिन वह कलिता अपनी बराबरकी ऊमरवाली ओर भौर कन्यामोके साथ गद्खाजीके स्वच्छ पानीमे ।\४।। `
खेरते हए, उसमे बहता हृभा एक मृतकारीर देखा । उसके हाथमे ठक्कन था, इससे उसने उस उक्कनमे जल-
भर उसके ऊपर दुरसेही सीचा, सहेलियोने अपने अथने हाथो सीचा।\५। जिसका वह् गतप्राण शरीर था, ह॒
सपक कसे मर गया था, ठककलके जल पडनेसे देवीकी कृषाके कारण वहू मुदा जिन्दा हो गया । वह अत्यन्त `
सुन्दर ब्राह्यण था । उसे देल ललिताका मन पति बनानेको हौ गया ।1 ६} फिर पिताके घर भोजन करनेके ल्यि . `
उसको आह्वान किया । रस्तेमें रुलिताने उससे कुल स्वभाव आदि पुे 11७11 उसने कहां कि, मेरा नाम ` |
“ गृणराश्षिं " है । इतना कहकर अपने कलादि भौ बताये । फिर लक्िताने उसमे बातचीत करफे समस्ाया
` 1८1) कि, जब हमारे पिताके धरपर इसरे दरसरे ब्राह्यणोको परोसा जायगा, तव तुमको भी पाद प्रकालन
४ कराकर आचसन कराया जायगा फिर भोजनकरनेके लिये मेरा पिता कटे तो तुम कहना कि, हम भोजनार्थौ
1 नहीं है" आप् देना चाह तो जनी कन्थाको देदे।।९।।मे उसका अनुमोदन करूगी,पिता मेरा दान तुमकोदेदेगा। ` |
कलिताके समन्ञाये हुए गुणराशिने वही किया जो समञ्नाया था \११०॥ गोयतिने भार्य्या माई ओर बान्ध-
वोके साथ विचार करके विप्रत्व विद्या ओर कुल शीरुकी परीक्षा छेकर ।1११।} पीछे ललिता देनेकी परतिज्ञा
८ ५ श करके शुभ मुहतंमे दोनोका विवाहं कर दिया ।१२।। जामाताके लिये तथा ब्राह्मणोके लिये बहुतसा धन `
कर देना चाहिये कि, वाहन ओर शक्तिके साय वरदाका पजन किया है ।।४०।। हे मातः! मृश्च पर कृषा करती `
` बरमिलता है, विजय पुष्टि ओर आयुष्य एवम् जो भी कख मनका चाहा होता ह वह सब मिल जाता हे ।४३।।
` 1 कथा र हई
(२८४) । † 0 ब्रतराज | [ पंचमी-
प 0
नि निहि
श्रणाम करके अत्यन्त कण्टके साथ ललिताकी माने अपने सब पाप कह दिये ।।१२०। स्कन्द कहते है कि, गुण- `
राशिने उसे बहुतसा प्रायशचित दिया, बो अपनेको बहुतसे समयमे अनेकों कृच्छोसे पवित्र करसकी ॥२११॥ ध
हि तपोधनो ! श्रीपतिकी अचल लक्ष्मीको देखकर गोपतिने पुछा कि, भाई ! आय कैसे रहते हें ?।।२२। छ
आप एेसा कौनसा कल्याणकारी कायं करते हँ जिससे जापके घर लक्ष्मी सदा उनी रहती है । गोपतिकिफेसे _ `
वचन सुनकर श्रीपतिको बडा विस्मय हुमा, पीछे ।\२३।। गुरजीके घर जो त्रत किथा था उसकी याद दिलाई, `
स्त्रीने भी कहा, गोपतिने फिर त्रत किया ।\२४।। इससे उसे परम समृद्धि प्राप्तं हुई पुत्र मिल प्रसन्न हुमा । इस
कारण हि तपोधनो ! उयाद्करकिता देवीका आराघन करना चाहिये ।\२५।। यह् मेने पहिलेकौ बात ओर `
` ब्रतका माहात्म्य कहु दिया है ओर भी बहुतोने इस त्रतको किया था उन सबको भी उनके मनोरथ प्रप्तहृए
। २६।। अपुत्र इस ब्रतको करनेसे पुत्रवान् हौ जाता है, जो इस लिता देवीके उत्तम त्रतको करताहै ।\२७।।
वो लोकका पूञ्य होता हैः यह सर्वेथा सत्य है शूठ नहीं है. है तपोधनो ! मं इसका विषान कहता हूं आपसाव- `
` धान हौ कर सूनं ।।२८।। आहिवनमास शुक्ला पंचमीके दिन इस ब्रतको करना चाहिये यदि सन्ध्याकाल्मे `
मेध गरजजाय अथवा दिनक वृद्धि ओर क्षय हो तो न करना चाहिये ॥२९।। पवित्र जर राग रहितहो नित्य `
करसे निवृत्त होकर बेनमं उपस्थित हो अपामा्गकौ प्राथना करे ।२३०॥ ^ अयुबेलम् ” यह् पहिले कहा हुमा `
` श्राथनाका मंत्र है ।।३१।) यह् वनस्पति प्राथना हुई । विधिसे अडतालीस या जाठ दातुन बना उन्हं तडागया `
` नदी पर ले जाय ।३२।।३३।। फिर धूं कहेहुएु दन्तधावनके भंत्रको बोलकर दांतुन करे \३४।। यह दातुन `
विधान पूरा हआ 1 दातुन करके मज्जन करे पीछे स्नान करके अहतवस्त्र पिन घरपर चला अवे ॥३५।!
पवित्रस्थलमे एक अत्यन्त सुन्दर छोटीसी मंडपिका बनाकर उसमें शक्तिके अनुसार सोनेकौ बनीहुई मंघ्रपूर्वक `
वैधनिष्यन्न मूतिको स्थापित करके ।।३६।। मंत्रसहित षोडशोपचारसे एकाग्रचित्त हो प्रयत्नके साथ पूजन `
करे । विशेष करे दूरवाभोसे पुजन होना चाहिये ।\३७।। बौस बडोका ब्ायना आचार्थको देनां चाहिये, पीछे
कथा सुनकर वायनेके अन्नको संख्यक्के बराबर भाइयोके साथ मौन ।।३८।। होकर आप भोजन करना चाहिये `
रातमें जागरण कर उसमे नाच गान ओर वाद्य होने चाहिये ।२३९॥। प्रभातमें देवौका पुजन करके विसजन `
| हई अपने स्थानको चली जा, अर्चा गुरुके लिये बहुतसी दक्षिणा देनी चाहिये ।\४१।। जो इस ब्रतको करताहै
बो पुत्र बान्धव विद्या ओर गोधनवाला सुखीतथा रोगरहिते होता है ॥\४२।। स्त्रीको सौभाग्य, कन्याकोउत्तम
८ हे महषियो ! मेने यह त्रत इतिहासके साथ कहा है; इसे सुनकर भौ मनुष्य सुखेको प्राप्त होता है यह निदिचत `
1 0 (७ ।। इस् ब्रतराजके प्रसादसे वो सबं कष्टोसे रहित सुखौ ओर बुद्धिमान् होता है तथा वित्त आरोग्य
र आयुष्यको पाता है इसमे सन्देह ; ध नहीं है ॥४५।। यह् भीस्कन्दपुराणकौ कही हई उपाङ्कललिताव्रतकौ |
-. व्रतानि 1 :.: ` १ हिन्दीटीकासहित ` ¢)
॥। इति श्रीस्क° पु° उपा० उद्यापनम् ।! वसन्तपञ्चमी चिधि क्ल `
पञ्चभ्यां वसन्तप्रवुत्तिः ।। सा मध्याह्लव्यापिनी ग्राह्या ।। दिनद्वये तव्दाप्ताव- `
व्याप्तौ वा पूर्वा ।! तत्र विष्णोः पूजा कार्या ।! माघे मासि सिते पक्षे पञ्चम्यां `
पुजयेढरिम् ।। पृवेविद्धा प्रकर्तव्या वसन्तादौ तथेव च ॥। तैलाभ्यद्धं ततः कृत्वा
भूषणानि च धारयेत् ।! नित्यं नेमित्तिकं कृत्वा "पिष्टातेनाच॑येद्धरिम् ।! गन्ध- `
पूष्पेक्च धूपदच नवे्येः पुजयेत्सदा । नारी नरो वा राजेन्द्र संतप्य पितदेवताः ।। `
खक्चन्दनसमायुक्तान्त्राह्मणान् भोजयेत्ततः ।। इति हेमाद्रौ वसन्तपञ्चमी- `
विधिः
उद्यायन-पहिरे आचाय्येका विधिपुवेक वरण करके पीछे बीस ऋत्विजोका वरण करना
चाहिये, लिे हृषु पवित्र स्थलमे मण्डर लिखना चाहिये, पौछे विधि एवं मन््ोसे ब्रह्मादिक देवोकी स्थापना `
करके पुजन करना चाहिये, विना फटे शुद्ध कलङापर विधिूर्वक लल्िताकौ स्थापना करके पूजन करना
चाहिये, रातको जागरण करे प्रातःकाल होम करना चाहिये, प्रतीको चाहिये कि, शुध हवे दक्डे ओर `
तिखोसे अथवा खीरसे एक सौ आठ आहुति देकर बलिदान करना चाहिये ! २० वटकों ( उडक्के वडों ) कौ
जोकि अच्छे धीमं पकाये गये हों उन्हं वांसके पत्रमे रखकर वायना देना चाहिये । पीछे वस्त्र अकार ओर `
भेनुसे आचार््यका पुजन करना चाहिये तसेही ऋत्विजोको भौ दक्षिणा ओौर वस्त्र सहित कुंभ देना चाहिपे,
`. पौरे विसजन करके पीठ आचाय्यंको दे, पायसाल्नसे भवित भावके साथ ब्राह्मण भोजन करावे, पीछे ब्राह्य-
णोकी आज्ञा ठेकर आप सब बन्धुओके साथ भोजन करे । यहं भौस्कन्दपुराणका कहा हुमा उपाङ्कललिताः लता. `
(९ देवीके उद्यापनका विधान पूराहुमा। ` 1
वसन्तपंचमी-माघ शुक्ला पंचमी कहाती है इसमें वसन्तक प्रवृत्ति मनते हं, यह तिथि मध्याह्न `
ह. | ॥ दथपिन्पे छन चाहिये ! यदिदोदिन यह मध्याह्भव्यापिनी हो अथवा दोनों ही दिनिन हो कि क
करना चाहिये, इसमें विष्णु भगवानृकी पुजा करनी चाहिये । माघ शरुक्छा पंचमीको भगवान्का पूजन करना
. . चाहिये, वसन्तके आदिमं इसे पूर्वविद्धा ग्रहण करनौ चाहिये, तेलाभ्यङ्घ करके विषिपूर्वक भूषण धारण करने `
चाहिये, नित्य नैमित्तिक क्म करके गुलालसे भगवानृका पुजन करना चाहिये, गन्ध, पुष्प, धूप ओर
ध सदा पूजे, हे राजेन ! स्त्री हो वा पुरुष हो इस प्रकार पित्रीकवर ओौर देच तेपंण, करके गठेमे माला तथा शिरमे 1
५ ` चन्दन लगाये हुए जो ब्राह्मण हों उन्हं भोजन कराना चाहिये । यहं हेमाध्रिकी कहौ हुई वसन्त पंचमीकी विधि |
1 परौ हई, इसके साथ ही पंचमीके व्रतभी पूरेहृए ॥ = `
अ तानि =
ललिताषष्टी
-व्रैतरीजः ` `. ` " . ` षष्ठी
देवीं तपोवननिवासिनीम् ।। पङ्कजं करवीरं च नेवालीं मालतीं कथा । नीलोत्पलं
केतकं च संगह्य तगरं तथा । एकंकाष्टजलतं ग्राह्यमष्टाविशतिरेव वा ।\ अक्षता
कलिका ग्राह्यास्ताभिदवीं समचेयेत् ।। प्राथयेदश्रतो भत्वा देवीं तां गिरिक्लभि-
थाम् ।। गङ्खाद्वारे कुल्ावतं बिल्वके नीलय्वेते ।। स्नात्वा कनखले तीर्थे हरं लब्ध-
वतीं पतिम् ।) रकित छलिते देवि सौख्यसोभाग्यदायथिनि ।। अनन्तं देहि सौभाग्यं
पुत्रपोत्रप्रवधेनम् \। मन्त्रेणानेन कुसुमस्चस्पकबेकुलः शुभः ।\ एवमध्यच्यं विधिना
नवेदयं पुरतो न्यसेत् ।। चयुसंल्पि कृष्माण्डर्नारिकेरः सुदाडिमंः ।\ बीजपूरः सतु-
ण्डीरः कारवेल्लः सचिभंटः ।। फलस्तत्कलसंभूत, कृत्वा शोभां तदग्रतः ।
विरूदर्घन्यसंभूतदीपिकाभिः समन्ततः \\ सार्धं सगुडक्धुेः सोहालककरजञ्जकैः ।।
घुतपक्कंः कणकेष्टर्मोदकरूपमोदकंः ।। बहुप्रकारनवेयेयेथाविभवसारतः ।! एवम-
म्यच्यं विधिवद्रात्रौ जागरणोत्सवम् ।\ गीतवाद्ययुतेनेत्यैः प्रेक्षणीयैरनेकधा ।
सखीभिः सहिता साध्वी तां रात्रि प्रमं नयेत् ।\ न च संमीलयेचेत्रे नारी यामचतु
ष्टयम् । ! दुभेगा दुःखिता वन्ध्या नत्रसंमीलनाद्धवेत् ।। एवं जागरणं कृत्वा सप्तम्यां
सरितं नयेत् ।\ गन्धयुष्पैरथाभ्यच्यं गीतवाद्यपुरःसरम् ।। तच्च दयादिद्रजेन्राय
नवेद्यादि नृपोत्तम ।! स्नात्वा वस्त्रं परीधाय धृत्वा सौभाग्यकुकुमम् ।! ततो गृहं
समागत्य हुत्वा वहवानरं कमात् ।। देवान्पितृन्ब्राह्यणांरच एजयित्वा सुवासिनीः।।
कन्यकारचेव संभोज्य दीनानाथा भोजयेत् \। भक्ष्यभोज्येबंहुविधेदेत्वा दानानि
भूरिशः । ललिता मेऽस्तु सुप्रीता इत्युक्त्वा तु विसजयेत् ।। यः कश्चिदाचरेदेत-
` दत्रतं सौभाग्यदं परम् ।। षष्ठयां तु ललितासंनं सर्वपापनिबर्हणम् ।। नरो वा यदि
बा नारी तस्य पुण्यकलं श्युण् ।! यत्तु लभ्यं ब्रतेश्चान्येनिर्वा नपसत्तम ।\ तपो-
भिनियमेर्वापि तदेतेन हि लभ्यते । इह चैवातुला संपत्सौभाग्यमनुभूय च ।\
कृत्वा मूध्नि पदं पाथं सपत्नीनां यशस्विनी । मृता शिवपुरं प्राप्य देवैरसुर-
पन्नगः ।। प्राप्नोति देनं देव्यास्तया तु सह मोदते । पुण्यज्ेषादिहागत्य पुण्य-
सौस्येकभाजनम् ।। सा स्त्री तरेतायुगे साध्वी सीतेव प्रियवल्लभा ।1 इदं यः श्युणु-
यात् पाथ पठ्ट्रा साधुसंसदि ।। सोऽपि पापविनिमुवतः शक्रलोके महीयते ।! षष्ठां
शतानि] हिनदीटीकासहित (२८७) `
५
षष्टीन्रतानि
अथे छठके ब्रत कहते हे । रुलितात्रत-भद्रपद शुक्का षष्ठीको होता है यह हैमादविने भविष्यपुराणको
लेकर छ्खि है । यहं मध्याह्घिव्यापिनी तिथि सेनी चाहिये, मध्याह्घन्यापिनी हो अथवा नह दे हों तो पूर्वा
८ ही लेनी चाहिये । क्योकि इसमे जागरण प्रधान है, जागरण रातमें हौता है उसमे तिथि रहनी ही चाहिये
यह गुजर देश्यं प्रसिद्ध है । भगवान् ष्ण बोले कि, सुन्दर भा्रपद महीनाकी शुक्ला षष्ठीके दिन समाहित `
` चित्तवाष्टी स्वीको चाहिये कि, प्रातःकाल स्नान करके सफेद माला ओर अम्बर धारण कर पवित्रतापूर्वंक `
अच्छे वेष बना आभूषणोसे सज बालू ल उसके पांचपिण्ड बनावांसके पात्रमे रखकर तपोवननिवाहिनी ल्लिता- `
| स । ` देवीका ध्यान करे । पंकज, करवीर, नेवाखी, माखती, नीलोत्पल, केतक, तगर इन सबको एक एक सौ आठ . ५
` . भाअट्ढाईस २ ले चिनादटृटौ हई कलो ठे उनसे देवीकापुजन करे ! अगाडी होकर शिवकी प्यारी देवीकी प्राथना `
करे कि, जिसने गंगाद्वार कु्ावत्तंबित्वक ( तीथविरेष ) नीलपर्वत जर कनखलमे स्नान कर उसके प्रभा. `
वसे महादेवजीकां पाणिग्रहण किया है उस महेदवरवत्लभा ललितदेवीकी प्रार्थना करे कि, हे सुन्दरि लिते !
हैसौस्थ ओर सौभाग्यको देनेवाली ! माप मुञञे अनन्त पत्रपौ्कौ समृद्धिवाले सौभाग्य सुलको, दे इस मन्त्रको ।
पटती हु ई चस्पेके ओर मोलसरीके सुगंधित पुष्पों से विधिवत् पूजन करके नैवे सम्मुख धरे । उसमे तरयस
` ( फलविशेष ) कूष्माण्ड, नारिकेल, अनार, बीजपुर ( विजोर ) तुष्डीर ( फएलविकशेष ), कारवेसल (करेला ) .
आर चिभैद ( फलविङ्ेष ) इन फलोको रखदे, एवं जो जो फल उस समयमे उत्पन्न होते हों उनको चढावे ।
। मवीन घान्यकी मञ्जरियां चारो जोर लटकाकर छोटी छोटी दीपिकां लटकावे, जिससे कि उस स्थानकौ
। शोभा बटे, धूय करे, गुडके बने हुए पदार्थ, सुहालौ, करजञ्जक, धृतकी जरेबी, लड् ओर अन्यप्रकारके लड्डू
| आदि नाना पदार्थोकरा अपनी शक्तिके अनुसार नैवेद्य ल्गावे, इस प्रकार विधान समाप्त करके रात्रिम जाग- `
। रणका उत्सव करे गान वाद्य ओर अनेक प्रकारके द्ेनीय नृत्य करे, ये सब अपनी सखियोके साथमे करे ।
जागरणमेही रात्रि समाप्त करे । नेत्र न मचे क्योकि, नेचोके मीचनेसे दुभेगा दुःखिता ओर बन्ध्या हो जती
1 है । एसे षष्ठीमे जागरण करके सप्तमीके प्रातःकाल नदीपर ले जाय, वहां उसको गन्घ पुष्यादिकोसि पूजा ओर ` ।
थ वावान हे नपोत्तम ! जो सामग्री देवीके अपण की हुं उनको तथा वाल्कामयी देवीको आचा- `
यके लिये दे नदीमे स्नान करे, वस्त्र पिरे, सौभाग्यसुचकः, रोली सिन्दुर आदि ल्गावे । पीठे घर आकर अग्नि
में हवन, देवता, पितृजन, ब्राह्मण ओर सुवासिनी स्त्रियोका पूजन करके कन्या, दीन जौर अनाथोको बहुविध
। भक्ष्य भोज्य खिलावे ओर * ललितादेवी मेरे पर प्रसन्न हो ' एेसा कह बहुतसा द्रव्य दे, उनको विदाकर पौरे
विसर्जन करदे) जो कोई इस छठे सौभाग्यदायी सब पापोके संहारक ललितात्रतको करता है वो पुरुषो
यास्त्री; जिस फलको पाता है उसे सुनो है नृपसत्तम ! इसरे सब ब्रतों एवम् दान तप ओर नियमानुष्ठानोसे
जो फल मिलता है, वहु सब इस व्रतसे मिल जाता है । व्रत करनेवाली स्त्री इस लोकमे अतुल सम्पत्ति ओर ` ८
` सौभाग्य सुखं भोगकर, सपत्नियोके शिरपर पग रख यदा लभ करती है एवं मरनेपर कलास जा देवता, असुर `
८ 0 | ओर पल्गोके अहनि वाञ्छित भगवतीके दशनोको करती हुई देवीके साथ सहेलोकी भाति निवास करती \
ल पुण्यमय आनन्द भोगतौ है ¦ ओर वह स्त्री ्रेतायुगमे जसे सीता रामचन्दरनीकी प्रेयसी `
प्यारी होती ह । हे पाथं ! जो मनुष्य महात्माओंक मण्डलम बेठकर इस व्रतो ५.
(२८८) | ~ : > त्तरा ` -. ~; क [ षष्टी-
षष्टी कपिला स्मता । संयोगे तु चतुणा च निर्दिष्टा परमेष्ठिना ।\! अथ व्रतविधि-
हमाद्रौ स्कान्दे ।। विक्रान्त उवाच ।। रूपसंपदमारोग्यं सन्तति चाति पुष्कलाम् |! `
प्राप्तवन्ति नरा येन नियमं तं वदस्व मे ।\१।। अगस्त्य उवाच ।। साधुसाधु महा- `
प्राज्ञ यत्पुष्टोऽहं त्वयानघ ।। तत्सवं कथयिष्यामि ततः श्रेयोभविष्यति ।\ श्युण् `
पाथिव वक्ष्यामि स्वगेसोक्षप्रदं नृणाम् ।\२।। यच्च गुप्तं पुरा राजन्ब्रह्मरु्रेन्र- `
देवतः । असुराणां च सवषां राक्षसानां तथव च ।\३।। शंकरेण पुरा चेतत्षण्मु- `
चाय निवेदितम् । षण्मुखेन ममाख्यातं महापातकनाशनम् ।\४। यच्छ त्वा
ब्रह्महा गोध्नः सुरापो गुरुतल्पगः ।। अगारदाही गरदः सकेपापरतोऽपि वा ।\१1।
मुच्यते सवंपापेभ्यः स्वगंलोकं च गच्छति । यच्च पुण्यं पवित्रं च नणामदभतनाश्-
नम् ।।६।। उपकाराय लोकानां तथा तव नृपोत्तम ।। शृणु भूप महापुण्यं षष्ठी-
माहात्म्यमृत्तमम् ।\७।। श्रौष्ठपदासितें पक्षे षष्ठो भौमेन संयता ।। व्यतीपातेन'
रोहिण्या सा षष्ठो कपिला स्मृता ।\८\। आश्विनस्यासिते पक्षे महापुण्यप्रवर्धिनी।
` षष्टिसंवत्सरस्यान्ते सा पुनस्तेन संयुता।।९।। चेत्रवेशाखयोमंध्येऽसिते पक्षे श्रुभो-
दया ।। वैशाखेऽपि च राजेन्द्र द्वारवत्यां परा स्मृता ।।१०।। यदि हस्ते सह्रा-
शुस्तदा कायं व्रतं बुधे: ।\ अस्यां चेव हतं दत्तं यत्किञ्चित् प्रतिपादितम् ।\११।॥
तस्य सर्वस्व पुण्यस्य सख्या वक्तु न शक्यते ।\ यस्मिन्काले भवेदेतेर्गणेः षष्टीयुता ॥
` तदा \\ १२।। पञ्चम्यामेकभक्तं च कुर्यात्तत्र विचक्षणः ।! षष्ठयां प्रातः समत्थाय
कृत्वादौ दन्तधावनम् ।! जलपुर्णाज्जाि कृत्वा इमं मन्त्रमदीरयेत् ॥ १३।। निरा-
हारोऽद्य देवेश त्व दुक्तस्त्वत्परायणः ।। पजयिष्याम्यहं भक्त्या ज्ञरणं भव भास्कर
॥\१४। अर्ध्यं दत्त्वेति संकल्पं कृत्वा यत्नाच्छुचिस्ततः ।। स्नानं कृत्वा प्रयत्नेन `
` नयां तीर्थेऽथवा हदे ॥ १५।। तडागे दौधिकायां वा गृहे वा नियतात्मवान् ।॥ `
देवदारं तथोहीरं कुकुमेलामनःशिलम् ॥\१६।। पद्मकं पत्रकं षष्टि मधुगव्येन
पेषयेत् ॥\ क्षीरेणालोड् कल्केन स्नानं कुर्यात् समन्त्रकम् ।\१७।। आपस्त्वमसि `
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को वितिमिरो देवः सर्वेहवरो हरिः ।२३।। इति जपित्व ।\ गोमयेनोपक्प्तायां
भ्यां वै कुकुमेन तु । मण्डलं सवेतोभद्रमाल्खिद्वुद्धिमान्नरः ।! तत्र मध्ये लिखे- `
त्पद्ममष्टपत्रं सर्काणकमस् ।\२४।। पूवपत्रे स्यसेत्सूयमाग्नेये तपनं न्यसेत् ।। सुबणे- `
` रेतसं याम्ये नेत्ये च न्यसेद्रविम् ।\२५।\ आदित्यं वारुणे पत्रे वायव्ये च दिवा- `
करम् ।! सौम्ये प्रभाकरं तत्र सुरमीज्ानपत्रके ।\२६।। तीव्ररर्मिधरं देवं ब्रह्माणं
चैव विन्यसेत् ।\ आधाररूपिणं देवं मध्ये चैवारुणं न्यसेत् ।२७।। सहस्ररदिम सूर्य॑
च सृक्ष्मस्थलगुणान्वितम्।। सवेगं सर्वरूपं च मध्ये भास्करमेव च ।! सप्ताशवर- `
थमारूढं पद्महस्तं दिवाकरम् ।\ अक्षसूत्रधनुष्पाणि कुण्डलेर्मृकटेन च ।। रत्नै- `
रनानाविधैर्युक्तं सौवण तत्र कारयेत् ।। शव्तितस्तु पलादृध्वं तदर्धं कषतोऽपि वा!
सौवर्णमरुणं कुय्रज्जुं चेव तथाविधाम् ।। सप्तादवेभूषितं कृत्वा रथं तस्याग्रतः `
। | स्थितम् । जरण विनतायुत्रं गृहीताहवमन् रकम् [| एर्तेरूप र्ध क्रत्वा पदयस्योपरि | 9.
विन्य
यतेत् ।।तस्योपरि न्यसेहेवं रक्तवस्त्रविभूषितम् ।। रक्तचन्दनमात्यादिमण्डितं ` |
` चातिक्लोभनम् ।। अग्रतः सारा कृत्वा पुजयेदरुणं शुचिः ।\ रक्तपुष्पैस्तु गन्धश्च
` तथान्येरपि शक्तितः ।\ विनतातेनयो देवः कमसाक्षौ तमोनुदः \ सप्ताञ्वः `
सप्तरज्जुक्च अरुणो मे प्रसीदतु\। मन्त्रेणानेन संपूज्य सारथि तदनन्तरम्) देवस्य
` त्वासनं कल्प्य प्रभूतादिकपञ्चकम्।। प्रभूतं विमलं सारमाराध्यं परमं शुभम्।।दीप्ता- _ `
दिहावितिभिश्चैव ततो भानु प्रपूजयेत् ।। दीप्तासूष्ष्मा तथा भद्रा बिम्बिनी विमला-
` नघा \। अमोघा वेदयुता चेति नवमी सर्वतोमुखी ।\ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां
गतोऽपि वा \1 यः स्मरेद्भास्करं देवं स बाह्याभ्यन्तरःशुचिः 1) शिखायां भास्करं
` न्यस्य ललाटे सुर्यमेव च ।। चक्षुमेध्ये न्यसेद्धानुं सुखे तत्र रवि न्यसेत् 1} कण्ठे
न्यसेद्धानुमन्तं पद्महस्तं द्िहस्तयोः ।। तिभिरकषयदेवं स्तनयोरेव विन्यसेत्
। जातवेदोभिधं नाभ्यां कटां भानुं तथा न्यसेत् ।\ उग्ररूपं गुह्यदेशे तेजोख्पुं द्विजं-
चयो ५ ।1 पादयोः सवेरूयं तु सृक्ष्मस्थूलगुणान्विः
व । एवं यथोक्तं विन्यस्य पारं `
गृह्य ततोऽचयेत् ।। करवीराकंकुसुमेरक्तचन्दनमिश्रतः । पुष्पः सुगन्धधूपद्च
1) पादौ जंघे तथा जानुद्रयमूरू कटी तथा \। नाभिवेक्ष- `
त् ॥ `
॥। मार्तण्डं भानुमादित्यं भास्करं तपनं रविम् \। हंसं दिवाकरं `
गुडाकेश नगते व्याधिनाहशन।।सप्तभिर्चव जिह्वाभिरध्य गृह् ण नमोस्तु ते ।
अर्घ्यार्थं दैवतं पात्रमृदकेन प्रपुरयेत्। पूजयेत्तत्र प्रागादिदेवतास्ताः समाहितः) दिग्देव-
तास्ततः पज्या गन्धपुष्पानुरेषनैः ।। पात्रे तोयं समादाय सपुष्पफलचन्दनम् ।॥ `
` जानुभ्यामवनिं गत्वा सूर्यायाध्यं निवेदयंत्।। बेदगभे नमस्तुभ्यं दवगभ नमोऽस्तु `
तें ।\ अव्यक्तमूतंये तुभ्यस्यं गृह नमोऽस्तु ते।। ब्रह्ममूतिधरायेश चतुर्वक्र सना- `
| सष्टिस्थितिविनाशाय गृहाणार्ध्यं नमोस्तु ते ।\ विष्णुरूपधरो देवः पीत-
वस््रचतुरभृजः ।। प्रभवः सवेलीकानामध्यं गुहु.ण नमोऽस्तु ते।। तं स्द्ररूपिणं वन्दे
भगवन्तं त्रिलूलिनम् ।! यो दहेच्च त्रिलोकं वै अर्ध्यं गुहु.ण नमोस्तु ते।। उदयस्थ
` महाभूत तेजोराकषिसमुःडूव।। तिमिरक्षयकरदेव ह्यध्यं गृह् ण नमोस्तु ते ।। सन्त्रपृत `
` ब्रह्मा च त्वं च विष्णु र्रस्त्वं च प्रजापतिः। त्वमेव सवेभूतात्मा अध्य गृहु.ण नमोस्तु
ते । कालात्मा सवेभूतात्मा वेदात्मा सवंतोमुखः ।। जन्ममृत्युजराोक्संसार- `
` भयनाक्ञनः ।। दारिद्रयव्यसनध्वंसौ श्रीमान् देवो दिवाकरः ।! सुवणेःस्फाटिको
भानुः स्वर्णरेता दिवाकरः।। हरिदस्वोशुमाटी च अर्ध्यं गृह् ण नमोस्तु ते\ चतु
निर्भतिभिः संस्था त्वष्टाभिः परिगीयते ।। सामध्वनिस्तुतो यज्ञे अर्यं गहू णनमो- `
` स्तुते ।। अथ गन्धं च पुष्पं च तथा धूपं प्रदीपकम्\नेवे छं च यथा शक्त्या प्रा्थये-
` त्सुयेदेवताम् ॥। अग्निमीठे नमस्तुभ्यं नमस्ते जातवेदसे ।। इषे त्वैव नमस्तुभ्यमग्ने
चैव नमोनमः \। शन्नो देवी नमस्तुभ्यं जगज्जन्म नमो नमः ।\ आत्मरूपिच्चमस्तुभ्यं
विदवम्तें नमोनमः 1! त्वं धाता त्वं च वे विष्णुस्त्वं ब्रह्मा त्वं हृताशनः । मुवित-
` काममभीप्सामि प्रार्थयामि सुरेदवर ।! विह्वतहचक्षुराख्यातो विहवतह्चरणा- `
ध त ननः ।। विक्वात्मा स्वेतोदेवः प्रा्थयामि सुरेश्वर ।। इति मंत्रं समुच्चाये नमस्व =
०००८५०९१
दवकर्माहं ता ज्रादिजातीयम् ।। प्रपुरयेदिति ~~ 4
हि
दैवतं
सर्वं तीर्थमयी यस्मादतः शान्ति प्रयच्छ मे ।। या लक्ष्मीं
था लक्ष्मीः स्वाहा चेव विभावसोः \\ चद्राकानलशवितरयं
लोकपालानां सा धनुबर- `
ब्रीज
ब्रती ~ ५ हिन्दीटीकासहित | (२९१)
श्यां तत्र च देवस्य शुभे देशे प्रकल्पयेत् ।। षड्धान्यं षड़सं चैव रोप्यं चेव महा- `
प्रभुम् ॥ पुरुषं खङ्ख हस्तं च कारयेच्चैव बुद्धिमान् ।। वस्तरयु्मेन सञ्छन्नं लवणो. `
परि विन्यसेत् ।\ अनेनैव तु मन्तरेण स्नानमर्ध्यार्चनं ततः ।। नमस्ते कोधरूपाय `
खड्धहस्त जिघां सवे । जिघांसक च त्वां दृष्टा दुदुवुः सवेदेवताः।॥। त्वया व्याप्तं `
मेरपृष्ठं चण्डभास्कर सुप्रभम्।।अतस्त्वां पूजयिष्यामि अर्यं गुह्.ण नमोऽस्तुते ॥
क्षपयित्वा तु तां रानि गीतवादित्रनिःस्वनेः ।। ततस्त्वभ्युदितं सूयं होमं बुर्या-
त्स्वक्षक्तितः ।। पूजयेत्तत्रः शक्त्याः च देवांश्चः विधिवद्गुरम्।।होमोऽकंस्य समि- `
द्भ घुतमिभ्नेस्तिलस्तथा ।। संसिद्धं च चरुद्रग्यं घृतं च जुहुयाद्ष्टिजः ।। आकृ- `
ष्णेनेति मन्त्रेण शतमष्टोत्तरं क्रमात् ।। होमो व्याहूतिभिर्वाय स्विष्टकृत्तदनन्त- `
कपिलां पजयेहेवीं सवत्सां पापनाशिनीम् ।\ वस््रयुक्तां सघण्टां च स्वर्ण-
श्वद्धविभूषिताम् ॥। तास्रपुष्टी* रौप्यखुरां कास्यदोहनकान्विताम् ।। मन्त्रेणा- `
नेन तां द्यादनब्राह्यणाय च शकितितः।।कपिलेः सवभतान पूजनीयासि रोहिणी ।॥
सीं सर्वदेवानां या च देकेष्वः `
चस्थिता । धेनुरूपेण सा देवी मम शान्ति प्रयच्छतु ।। देहस्था या च रुद्राणां
कङ्कस्य च या प्रिया ।। धेनुरूपेण सा देवी मम पापं व्यपोहतु \ विष्णोवेक्षसि `
या धेनुख्यास्तु मे धिये।। `
चतुर्मुखस्य या लक्ष्मीर्या लक्ष्मीधनदस्य च । लक्ष्मीर्या लो
दास्तु मे \) स्वधा त्वंपितुमुख्यानां स्वाहा यज्ञभुनामपि \। वषड् या प्रोच्यते लोके `
सा धेनुस्तष्ठिदास्तु मे ।। गावो मे अग्रतः सन्तु गावो मे सन्तु पृष्ठतः ॥। गवोमे
हृदये सन्तु गवां मध्ये वसाम्यहम् !। गावः स्पृष्ट्वा नमस्कृत्य यो वे कु्यत्पिदक्षि-
णम्}! प्रदक्षिणीक्रता तेन सप्तदीपा वसुन्धरा ।\ नमस्त कपिल देवि स्वेपाप-
प्रणारिनि ।) संसाराणवभग्नं मां गोमातस्त्रातुमहेसि ॥ हिरण्यगभेगभेस्त्वं हेम `
बीजं विभावसोः ।} अनन्तपुण्यफलदमतः ज्ञान्ति प्रयच्छ मं ।। रक्तवस्त्रयुम
यस्मादादित्यस्य च वल्लभम् ।! प्रदानात् तस्य मे सूर्यो ह्यत (८
सुवर्णं वस्त्रयुग्मं च परिधानं च कारयेत् ।। एतेः प्रकारैः संयुक्तां दच्य्धेनु द्विना-
\। णं दद्यान्मन्त्रेणानेन यत्नतः ।\ भास्करः प्रतिगृह्छाति भास्करो
स्करस्तारकोभाम्यां तेन वे भास्करो मम ।! ब्राह्मणान् भोजये- `
रतः शान्ति प्रयच्छतु! `
निनि
वित्तोऽपि यः कर्चित्सोऽपि कर्यादिमं विधिम् ।! आत्म्रक्त्यानसारेण सोऽपि
तत्फलमाप्नुयात् 1} जाचायस्य ततो भक्त्या सवं पाणौ विनिक्षिपेत् ।। गोभृहिरण्य-
वासांसि ब्रीहयो लवणं तिलाः ।। एतत्सव प्रदत्वा तु कपिलां प्राथयेत्ततः ।\ कपिले ध
पुण्यकमसि निष्पपे पुण्यकर्मणि ।। मां समुद्धर दीनं च ददतो ह्यक्षयं कुर ।! दिवि १
वादित्रशब्देशच सेव्यसे कपिला सदा ।\ तथा विद्याधराः सिद्धा भतनागगणा ग्रहाः।।
कपिलारोमसंख्यातास्तत्र देवाः प्रतिष्ठितः \। पुष्पव्टि प्रमञ्चन्ति नित्यमाका- 4
शञसंस्थिताः।। ब्रह्मणोत्पादिते देवि अग्निकुण्डात्समूत्थिते ।। नमस्ते कपिल पुण्ये
सर्वदेवनमस्कृते ।। जय नित्यं महासत्त्वे सवतीर्थादिमङ्के ॥। दातारं स्वजनोपेतं `
ब्रह्मलोकं नयाशु वे ।। ततः प्रदक्षिणां कृत्वा नत्वा ब्राह्मणपुङ्धवान् ।। आश्लीर्वदा- ` |
न्वदेयुस्ते पूत्रपौत्रधनागमान् ।॥ आरोग्यं रूपसौभाग्यं स्वदुःलविवजितः ।! अन्ते
गोलोकमासाद्य चिरायुः सुखभाग्वेत्\।यदः स्वर्गात् प्रपतति राजा मवति घािकः।।
सप्तद्वीपवत्तीं भुडक्तं सदा राज्यमकण्टकम् ।। अहो व्रतमिदं पुष्यं सवदुःख-
विनाशनम् ।। अतःपरं प्रवक्ष्यामि दानस्य फलसत्तमम ।। महावेदमये पात्रे सद्- `
वृत्तं चाक्षयं भवत् ।। कपिलाख्या यदा षष्ठी जायते भुवि मानद ॥। रतं स्वव्रत-
भेष्ठमिदमरन्यं महाफलम् । उद्धरिष्यति दातारं नूनमक्षग्यमव्ययम् ॥ एवं देव ` -
गणाः सवं नूतसद्खा महषयः ।! जकाशस्थाः प्रनत्यनति पुण्येऽस्मिन्दिवसागम । ५
पात्रभूताय ऋषये श्रोत्रियाय कुटुम्बिने ।\ एवं यः कपिलां दद्या्रिधिदष्टेन |
कमणा ।। स याति परमं स्थानं यावन्न च्यवते पुनः ।। इति हेमाद्रचक्तो ब्रत- `
विधिः ।} अथ स्कान्दे प्रभासखण्डे तु संक्षेपेणोक्तो व्रतविक्ेवः ।। उपकप्ति शुचो
देशं पुष्पाक्षतविभूषिते ।। स्थापये दव्रणं कुम्भं चन्दनोदकपुरितम् ।। पञ्चर-
त्नसमायुक्तंइवापष्याक्षतान्वितम् ।। रक्तव्युगच्छन्नं ता स्रपात्रेणसंयुतम् ।। रथं
रोप्यपलस्येव एकचक्रयुचित्रितम् । सोव्णो पलसंयुक्तां मति सयस्य कारयेत ।\ `
कुम्भस्योपरि संस्थाप्य गन्धपुष्पस्तथाचयत् | आदित्यं प्रपूजयेरेवं नामभिः ५
स्वेयथोदितंः ।। आदित्य भास्कर रवे भानो सुय दिवाकर ॥! प्रभाकर नमस्तुभ्यं
ससारान्मा समुद्धर ।। मूर्वितमुक्तिप्रदो यस्मात्तस्माच्छान्ति प्रयच्छसमे।। नमो `
ु्ादात्मा दिवाकरः ।। कपिलासहितो देवो मम `
पले पुण्ये सर्वलोकस्य पावनी प्रदत्ता सह =
रतानि 1 = हिन्दीटीकासहित (२९३)
संग्लवारका योग होतो वहु कपिला कहायेगौ, यह् ब्रह्माजीका निर्दे है हेमाद्रिने जो स्कन्दवुराणसे लेकर ब्रत
3 विधि कही है उसे कहते हैँ । विक्रान्त पूछते हे किप, संपद् आरोग्य ओर अत्यन्त पुष्कल सन्तति जिस ब्रत्के `
करनेसे भिलती है उसे आप मुन्षसे कहं \\ १।। अगस्त्यजी बोले कि, हि निष्पाप ! आपने बहुतही अच्छा पुछा,
. सब कहद्गा जिससे बडा कल्याण होगा, हे राजन् ! उस व्रतको कहताहुं जिससे अनायास स्वगं ओर `
. मोक्ष मिल जाते हं ।॥२।। जिसे किं, है राजन् । देव असुर राक्षस ब्रह्मा ओर इन्द्र कोई भी नही जानता ।\३।। `
` श्षंकर भगवान्ने इसे स्वामिकातिकजीसे कहा था. उन्हने पायो प्रगाडाक इस त्रतको सुन्षसे कहा ।\४
चाहे ब्रह्महत्यारा गो मारनेवाला, क्ञरावी, गुरुपत्नीसे सहवास करनेवाला, मकान जलानेवाला, जहर देने- `
ध ` बाला ओर सब प्रकारके पाप करनेवाला ही क्यों न हो इसे सुन कर ।५।\ सब पायोसे छट जाता है,स्वमं चला ८
जाता है, मनुष्योके पा्पोको नष्ट करनेवाला जो भी कुछ पवित्र पुण्य है बो यहं हे ।\६।। हे नपोत्तम ! तेरे ओौर `
संसारके कल्याणके त्वये सुनाता हूं हे भूष ! इस महापुण्यश्षाली षष्ठोके माहात्म्यको सावधानी के साथसुन `
। ।1७11 भद्रमासके कृष्णपक्षमे मद्धल्वार रोहिणीनक्षत्र ओर व्यतीपात; इन योगोके सहित यदि ष्ठी होतो
` उसे कषिता षष्ठी कहते है।\८।।आदिवनमासःके हृष्णपक्षमे यदि षष्ठो मङ्कलवारादि पूर्वोक्त योगवाली होतो `
उसे महापृण्यपरवेधिनी कहते हे । थह षष्ठौ साठवषोकि बाद ( प्रायः ) आया करती है ।\९।। यह् थोग किसी
¢ ५५. ५
वर्षमे चत्र या वेशालमं भी कृष्णाषष्ठीके दिन भिलाकरता है, पर उस समय उस षष्ठीका नाम श्रभोदया षष्टी =
माना जाता है 1 है राजेन्द्र ! ारकाजीकी ओर रहनेवाले रोग वेशाखकी शुभोश्याको परा नामे भी कहते `
है ॥१०।। कपिलाषष्ठीमं मद्भलवारादिकोंका योग तो होता ही है, पर उसमे हस्तनक्षत्रपर सूर्यका योग पर-
` मावर्यक है यानी हस्तसयके रहते भाद्रषदकी कृष्णाषष्ठी मङ्कलवार रोहिणीनक्षत्र ओर व्यतीपात इन योगो- `
बाली हो तो उसे कपिलाषष्टी कहना चाहिये, इसीमें ब्रतकरे । यह् षष्ठी भाद्रपद या आवन मास्के विना
अन्य मासोमें नहीं हौसकती \ क्योकि हस्तनक्षत्रपर सूयं अन्यमासोमें नहीं रहते, जिस समय इन गगोके साथ `
षष्ठो हो उसमे यानी इस कपिलाषष्ठीमे हवन, दान आदि जो पुण्य कमं किये गये हों उस पुण्यकी संस्या नहीं `
कौ जासकती \। १९११२) योग्यनत्रती पञ्चमीके दिन एकवार भोजन करे, प्रात्तःकाल उठ कर पहिके दन्त- `
धावन करे । फिर पुष्पाञ्जलि लेकर के ।।१२।\ कि, हे देवेश ! हे भास्कर ! भ महारा भक्त तुम्हारी सेवाम
। . परायण हो निराहार रहूंगा । भवितसे पुजन करूंगा, आप मेरे नियमको पालन करानेमे सहायक हो \\१४।। ५
इस प्रकार अध्यं देकर उक्त अध्यंदानके मन्त्राथके अनुसार संकल करे \ फिर नदी, तीर्थ, तलाव।। १५।। ` `
` वापिका या ओर एसा जलाह्य समीप न हो तो अपने घरपर ही विधिवत् स्नान करे । फिर चित्तको सावधान `
करके देवदार खदखडा, केसर, इलायची, मनःशिला ।।१६।। पद्मक, पत्रक ओर षष्टि इन सबको पञ्चगव्यमेः = `
. धिसकर दूधमं मिला पतलो पीठी तेयार् करके पौषे इसको जिस जलसे स्नान करे उसमे प्रथम मिलवे फिर `
। “आपरत्वमसि “इत्यादि मन्त्रोको पढता हआ स्नान करे ॥।१७। कि ह देवेश ! आपह नल है, आपह सयं `
। (चर), आपमेरे
(५ ~ सनत् करे ५५ फिर ५ पञ्चपल्लवोके न्वपट्स
बके जलसे अपने शरीरका माजन करे, स्नानाथं लायी हुई शुद्ध गोस्यानादिकोकी `
रे मन, वाक् ओर शरोरके कामोसे किये गये पायोको शान्त करे ॥\१८।। पोछे पञ्चगव्यसे `
मृत्तिकासनान करे । मृत्तिका कयन करनेके समय “ मृत्तिके बरह्मपूतासि ” इस सन्त्रको पढे! = `
1 पूजयामि" इत्यादि नाममन्त्रोकी कल्पना करके १ पाद,२ ज्धा, २ जानु, ४ ऊ, ५ कटि, ६ नाभि, ७ वक्षःस्थल,
भौर ८ मस्तक इनं जठ अद्धोमं १ मार्तण्ड, २ भानु, ३ आदित्य, ४ भास्कर, ५ तपन, ६ रवि, ७ हंस ओर ८
५ ८ | | अध्य समपयामि “ पूर्वके अधिष्ठाता मातेण्डके लिए नमस्कार अध्य देता ह इत्यादि नामन्त्रोसे आटो दिश
(२९४). ` , ~ -त्रतरा ` `. षष्ठी |
वचरम रवि ।२५।\ पश््चिमयत्रमें आदित्य, बायुकोणके पत्रमे दिवाकर, उत्तर पत्रमे प्रभाकर ओर ईशान- `
कोणके पमे सुरनामक. भास्कर भगवान्का उल्लेख करे ॥२६।। उसकी कणिकामं तीब्रतेजवारे एवं सक्के `
आधाररूप ब्रह्मनामवाङे सुयं ओर अरुणनामवाले सूर्यका स्थापन करे ।।२७।। वहांपरही सहसररदमि स्थूल |
एवं सुक्ष्म गृणोवाले सर्वत्र विचरनेदाले सवंरूपः, प्रकाशके करनेवाले, सात घोडोके रथम विराजमान, कमलको
हस्तमं धारण करनेवाले, दिनको करनेवाले, खद्राक्ष ओर धनुषको हा्थोमें धारण करनेवाले कुण्डल एवं मुकरु-
` रसे शोभित भगवान् सू््य॑नारायणकी प्रतिमा नानाविध रत्नोसे जडीहृई एेसीही सोनेकी होनी चाहिये । वैभव |
` अधिक हो तो एक पलसुव्ंसे अधिककौ, यदि कम हो तो अघे पल्या चौथाई पलको होनी चाहिये । अरुण ` ।
नामा सारथि ओर वैसी ही चुवणेकी घोडोकी बागडोर होनी चाहिये, उस रथम सुव्णकेही सात घोडे
जते हुए हों । विनतानस्दन अनर अरुणनामके सारथिको तो रथके जूडेपर निठावे उसके हाथमे सातों घोडोकौ `
रदिमयां दे दे । सुयको उस रथम विराजमान करे पर उस रथम विराजमान करनेके स्थानम केसर चन्दनादिसे `
कमलका आकार लिखे । सूयेदेवको कमरपर रथके बीचमं स्थापित करे । सुयभगवानृकौ मूतिको शोणवर्णेकी
. धोती ओर इपट्ासे शोभितकरे । लाल चन्दन खगावे लाखपुष्पोकी माला गलेमें पहरा । फिर लालफ्ल,लाल- `
` चन्दन ओर लाल अक्षतादिकोसे उनकी अर्चना करे । सु्येदेवकी अचनाके पहिले अरुणकी पूना करे, ` ॥
ध । एसे
एसे कहै, कि, विनतानन्दनः, प्रकाल्ञकारी, कर्मोको देखनेवाले, अन्धकारके, विनाशक, सप्तअष्ष्वौं ओर सप्त ॑ ॥ ध
` रषटिमियोवाखे अरुणदेव मुक्षपर अपनी प्रसन्नता प्रगट करे । फिर १ प्रभूत, २ विमल. २ेसार,४आराध्यओौर
५ परमञुभ इन पाँच आसनोंकी कल्पना सूर्यंभगवान्के लिये करे, यानी ये प्रभूतादि आसनोयर विराजमान
है \ १ दीप्ता, २ सूक्ष्मा, ३ भद्रा, ४ बिम्बिनी, ५ विमला, ६ अनघा, ७ अमोधा, ८ विदत आर ९ सर्वतोमुखी, `
इन नवशक्तियोका सूरयंभगवान्के समीपमें पूजन करे । शिखामें भास्कर, ललाटमें सूर्य, नेत्रोके बीचमें भान्,
मुखपर रबि, कण्ठमं भानुमान्, दोनों हाथोपर पद्महस्तः, दोनों सीनोपर तिभिर क्षयञ्कत् देव् नाभिपर, जात्- |
बेद.करिपर भानु, गुह्यदेश उग्ररूप, दोनों जंधा्ओपर तेजोरूप जौर पावो पर स्थूल ओर सूम गुणोसे अन्विति `
सर्वंरूपका न्यास करे । न्यास कर चुकनेके पीछे अर््यपात्र लेकर फिर पूजे, करवील ओर अकं (आक ) के `
क ुष्पोको लालचन्दनके साय लकर् उनम ओर भी सुगन्धितं लङ कभ शल आरि पुष्पोको सम्मिलितं करे, नि
फिर उन पुष्योसे तथा सुगन्धित धूप ओर रौखोसे सुर्ेदेवका पूजन करे । पीछे “ ओं मार्तण्डाय नमः, पादौ
दिकाकर इन नामोके मन्तरोसे अलग अलग पुजन करे । पीछे चांदी या ताके पात्रको अध्यं दानके ल्यि लेकर
. जले पुरणं करे, उसमे अध्यके उपयुक्त चन्दन पुष्पादि रखे, उस अध्यंपा्नके जले पूर्वादि (८) जठ दिशा- `
ओके सातेण्डावि आठ देवताओका अथवा दिक्पालोका पूजन करे, यानौ “ओषु पूर्वाधिष्ठात्रे मातंण्डाय नमः
आभं पत
दन चढ़ावे \ पुष्प, फल ओर चन्दनयुरवत जल्पात्रको हाथमे लेकर जान |
सुयेके लिए (१२) हादशवार अध्ये दे । ओर ' वेदगर्भ ` इत्यादि दादश मन्नोको न्त्रोको पढे किः १ हेवेद-
व्रतानि) हिन्दीटीकासहित 1
हाव्याधि्ोके नष्ट करनेवारं आप अग्निरूपसे सात जिह्वा धारण करते हौ आपके किए प्रमाण हे \ आप अधर ॥
ग्रहण करें । ७ आप ब्रह्मा हो, माप विष्णु हो, आप ख हो, भाप दक्षादि प्रजापति हौ अर आपह समस्त प्राणि-
स्वक्प हो आपके लि प्रमाण ह जाप अध्यं ग्रहण करिये८काल सवभूत ओर वेदरूप सर्वतोमुखं आय हे र्थ ब्रह्ण |
करिये, आपको नमस्कार है । ९ आप जन्म मृत्यु जरा ओर संसारके भयको नष्टं करनेवाले हं । आपको नम `
स्कार है भं ग्रहण करिये ।१० दरिद्रता मौर परिभवादिकोके दुःखो विध्वंसक, श्रीमान् देव ( प्रकाहक } `
ओर दिनके करनेवार् अप हरिदश्व हं । अध्ये ग्रहण करिये । आपके लिये प्रणाम है । ११ सू्वणसुन्दर दिव्य _
वर्णवाले, स्फाटिक-स्फटिकके पदा्थकी राति स्वच्छ, स्वणं जिनका वीयं है एसे हरिदश्वनामा दिवाकरआष
` अध्ये ग्रहृण करः आपके लिए प्रणाम है \ १२ चासो वेदसे सिद्ध जिसकी संस्था अर्थात् जिसका स्वरूप, आठ `
भियोसे यानी कमलकौ आठ कणिकाओंमे स्थापित सयं तपनादि नामवाले आढ स्वरूपोसे गाते है, साम ८
वेदजिसकी यज्ञम स्तुति करता है एसे, जप अध्य ग्रहेण करे, आपके लिए प्रणाम हे । इस प्रकार द्वादशषमासेक्षि `
भेदसे द्ादज्ञात्मा सुर्यं नारायणके लिये द्वाद्डा भन्त्रोसे द्ादशवार अध्यप्रदान करे फिर गन्ध, पुष्य, धूप, दीप ५
ओर नैवेदयसे यथाजक्ति पूजन करके फिर सू््यदेवताकौ प्राथना करनी चाहिये । इस प्राथनामे कुछ बेदके मन््र॒ ` ध
` आ गए ह इस कारण उनका अर्थपुवंक उल्लेख करके कहते ह-“ अग्नि मील पुरोहितं यज्ञस्य देव मृत्विजम्, (१
। ` होतारं रत्नधातमम्!" हम सबसे पिरे स्थापित होनेवाकते अग्निकी स्तुति करते हे जो सबके बुलानेवाके समय- `
पर यज्ञका यजन करानेवाख हं अपन भक्तोको रत्नादि देनेवाले है वैदिक जौवनमे पुरोहित पदका बडा सुन्दर ॥
अर्थं किया है । सायनाचायके अथं कौ छाया इसमें जौर उक्त भाष्यमे पूणेरूपसे सलकती है ' अग्निके मन्त्र तो
| सूर्योपस्थानतकमें आचके ह । ऋर्वेदकी सन्ध्याम रख भी दिये ह । तात्पयं यह् कि, एसे आदित्य के लिए नम-
। स्कार है ।“ ओं जातवेदसे सुनवाम सोम मरातीय तो निदहाति बेदः स नः पषंदति दुर्गाणि विद्वा नावेव सिन्धुं
दुरितात्यग्निः- “ जातमात्रके जाननेवालेको सोमका स्तवन करता ह हमसे वेर करनेवारकिं बोक्ञान ओर
धनको जला रहा है एवम् मुम भेरी आपत्तियोसे एसे पार लगा रहा है जैसे चतुर मल्लाह समुद्रसे पारक्गणा
देता है । एसे जो आदित्य देव है उलके लिए नमस्कार है ! “ भों इषेतवोजें त्वा वायवस्य देवो वः सविता = ` |
प्रापयतु शेष्ठतमाय कर्मण आप्यायच्वमध्न्या इदद्राय भागम्प्रनावती रनमीवा अयक्ष्मा मा वस्तेन ईशत माघ = `
शंसो ध्रुवा अस्मिन्गोपतौ स्यात बह्वीयेजमानस्य पशून् पाहि ` वृष्क लिय काटता हूं । रसे लि वुकषेसीचा `
करता हं । हे बृडो ! खेलनेमे लगे हृएु हो । आपको सवितादेव पविन्न कमेके लिये अच्छे स्थानको ल जाये 1 ह ॥
अहिसनौय गउञे ! इन्द्रके लिये उसके भागकी रक्षा करना, जिससे निरोग ओर उत्तम सन्ततिवाली हो,
चोर आदि पापी न देखें न निन्दक की ही तुमपर दृष्टि पडे, इस यजमानके घर बहुतसी हो सदा बनी रहना
तुम इन सबकी रक्षा करना । एसे आदित्य देवके किए नमस्कार है । ˆ अग्ने स्वयं नो ' ओर शं नो] देवौ इन
दोनोका पे अथं कर चुके हे एसे आदित्यके लिए नमस्कार है ( यद्यपि हमारी हौली समुपस्थित विनियोगके `
अनुसार अये करनेकी है इनका यहां विनियोग आदित्यके नमस्कारे देला जा रहा है अतः आदित्यकी नम- १
4 ; अनुसारी सारही अथं भौ चाहिये पर अग्निके नामके मन्त्र मादित्यकी प्राथनामे देखे जाते हे दसरेमे यातौ _
रूपसे जलदेव मानकर निर्वाह कर लिया जाय या इसका भी जादित्यपर अथेकरण्या जाय
हमारे लिए शंति दे, व्यापक किरणे हमारे रक्षणके लिए हो, हषे रोगोकौ ` ८
निव्ति करदे ) जगतृको जत्म देनेवारू आपके त्वये नमस्कार है, हे आत्मरू `
वरव आपको मृतिं है, आपके लिये नमस्कार है ! आही धाता हः पह ५
सरेष्वर ! मे मुक्ति चाहता हं, आपके सब ओर चक्षु ओर सब [ओर `
` ऋतसद् व्योमसदब्जा गोजा ऋतजा अद्रिजा ऋतं बृहत् ” भगवान् सूर्यदेव तेजोशूप हो विराजते ह, अन्तरि.
क्षमं बेठते हं यन्ञकाखामे आहवनीय कुण्डमें बेठकर देवताओके आवाहन करनेवाले होते ह वेदीपर भी आपही `
विराजते हें \ जाप सबके पूजनीय हँ मनुष्योमे शरेष्ठ जगहमें यज्ञम ओर सत्यमे जप रहते हँ, भूत प्राममें पाषा- ध
णमे मेधमे ओर जलमें आय किसी न किसी रूपसे विराजमान हैँ, आप सर्वगत हँ एवं सबसे बड़ है इस सन्तते
सुयदेवके दर्शेन करने चाहिये । - ५
गं उदु त्यं जातवदस दवं वहन्ति केतवः, दे विष्वाय सूर्यम् ।१।। `
सवके जाननेवासे प्रका्क्ञीर उन सूयं देवको किरणे ऊपरको चढाञेजारहीहं ।\१। _
ॐ अपत्ये तायवो यथा नश्चन्ायल्न्यक्तभिः सराय विषहवग्वश्नसे ।\२।।
हे सुथ्यं देव ! चोर आकाशम सबको दिखानेवाले आपको देखकर आपके ल्य एसी भावना करते ह
कि, ये छिप जायं तो विना चदन केवल तारे भरी रात आजाय जिसमें हम खूब चोरी करे हमे कोई न देख
सके ।\२।।
ॐ अद्श्रमस्य केतवो विरश्मयो जनाऽ अनृभ्राजन्तोऽअग्नयो यथा।1 ३1)
मनुष्यो सामने जैसे स्वच्छ विद्युदादि अग्नियां चम॑का करती हं उसी तरह सबका ज्ञान करानेवालो हः छ
५ सुय देवकी किरणोको हम सामने देख रहे ह ।\२३।।
तरणिविदवदकश्शतो ज्योतिष्कृदसि स्यं क्हिवमाभासि रोचनम् ।\४।।
ह सु्यदेव ! आप संसार सागरको पार करनेवालोके लिये नाव हो, सबके लिये सब जरते देखने योग्य ` (
हो, प्रकाशके करनेवारे हो अथवा प्रकाशक चांद नक्षत्रादिक आपके ही प्रकाशे प्रकाित होते है, नामरूपसे `
विभक्त इस जगत्को भी आप ही प्रकाशित करते ह ।\४४।।
ॐ प्रत्यङ देवानां विशः प्रत्यङ्ङ् देषि मानुषान् प्रत्यडविहवं स्वदे ।।५)। ५॥ |
अपने पवित्र मण्डलको दिखानेके लिये आप देवी प्रजा ओर मानुषौ प्रजा इन दोनोके सामने उदय होते
होः यही नही" किन्तु इसीके लिये आप सभी संसारफे सामने उदय होते हो ।५।॥
यनापावकचक्षसा भरण्यन्तं जनाऽअन्, त्वं वरुण पष्यसि ।\६।।
है वरुण { जिस पवित्र प्रेममयी दृष्टिसे पक्षौसम उत्तरायणके पथिककफो एवम् यज्ञानुष्ठानीको अनौ
ओर जातीवार आप देखते हं उसी दृष्टिसे इन अपने तुच्छ जनोको भी देखिये ।\६।।
ॐ विद्यामेषि रजस्पृथ्वहा भिमानोऽअक्तुभिः, पयन् जन्मानि सुय \\७,
ध हे सूय्यं ! बहुतसे दिनो ओर रातोसे आप सब लोकोंको नापते एवम् जीवों के जन्मों को देखते हए |
र । जाते हो यह मे जानता हं ।\७\। ५ ४ |
ॐ सप्त त्वा हरितो रथे वहन्ति देव सुच्यं, शोचिष्कंडं विचक्षण ।\८।।
५ हे कचक्षण । हे देवं सूर्यं भ केशोवार आपको सात हरे रंगके घोडे लचते हे !\८।।
स न ~~
रतानि = - दिन्दीटीकासहित (२९७)
` ॐ उद्वयं तमसस्परि ज्योतिष्पश्यन्त उत्तरस्, देवं देवत सूर्यमगन्म ज्योति- ` ध
स्तमम् ।*१०।
हम देव लोकम स्थित हौ तमसे परे सर्वोत्कृष्ट ज्योतिको देखते हुए देव
तेजोमय कमलेक्षणको पा गये \\ १०।। | |
ॐ उद्यन्नद्य मित्रमह आरोहन्ुत्तरां दिवम्,हदोगं मम सुर्यं हरिमाणं च
१९। | | ^
५५ है सुकृतियोको मित्रके रपम देखनेवाखे सूय्यं { दिवम ऊपर चठ्ते हुए मेरे बडे भारी हृदयफे रोम ओर `
` जदं वा हरियापनेको नेष्ट करिये ॥\११।। ॥ (0
शुकेषु मे हरिमाणं रोपणाकासु दध्मसि, अथो हारिद्रवेषु मे हरिमाणं निद
ध्मसि ।१२।। +
| आपमेरी जर्दी याहरियापनेको तोता ओर पिद मेना आदि पक्ियोमे रखदे उससे भी जो माकौ कचे 1
। ^ मेरे उस त्वच रोगादिको हरिद्राभोमं धरदं, पर मृश्चे उससे सवथा मुक्त कर दे ।(१२।। ५ य
` ॐ उदगादयमादित्यो विश्वेन सहसा सह्, दिषन्तं मह्यं रन्धयन् मोअहं द्विषते `
रधम् ।\१३ ५५
भगवान् सूर्यं देव अपने पुरे बरके साथ मेरे लिये मेरे वेरि्योको दबाते एवम् मृश्च मेरे वेरियोकेऊपर
१ {९ रखते हुए उदय हए हं ।\१३।। |
त चित्रं देवानामुदगादनीकं चक्षुमित्रस्य वरुणस्याग्नेः! आप्रा द्यावा पुथिवीऽ-
अन्तरिक्षं सूय्यंऽआत्मा जगतस्तस्थुषदच ।\१४। 1
: किरणोका पूजनीय समूहं उदय हो गया, इसीमं मित्र वरुण ओर अग्निकौ ख्याति है भानौ इसीको मित्र =`
वरुण ओर अग्नि भी कह ३ते हं, यह द्यावा पृथिवी मौर अन्तरिक्षं पणेरूपसे धरा रहा है यही सृथ्यं स्थावर `
ओर जंगम दोनोकी आत्माहै 1१४ 3
` ॐ सूर्य्यो देविमुषसं रोचमानां मर्य्यो न योषामभ्येति पचात्, यत्रनरो देव-
यन्तो युगानि, वितन्वते प्रतिभद्राय भद्रम् ।) १५ ।। 4 4
जैसे मनुष्य स्त्रीके पीछे अभिगमन करता है उसो तरहं भगवान् सूर्यदेव प्रकष्ामान उषके पीछे अते
ह, जिसमे देवयजनको चाहनेवाले मनुष्य भद्रके लिये भद्र प्ति युगोका विस्तार करते ह ।\ १५) ।
य्यको प्राप्त हो भूय्यान्तरवर्तौ ध
<
नाहय
परि द्यावापुथिवी यन्ति सदयः \१६।। ५
| । नानाभ्रकारकी चारू जाननेवाले पूजनीय भद्रह्रद जो सदा प्रसन्न फरक योग्य 1
यह अपने हरेरंगके घोडे था भूमिसे रसको लीचनेवाल किरणोको जिस भूखण्डसे वियुक्त करता है वहीं सबके श
चये रात हौ जाती है ।\१७\)
ॐ तन्मित्रस्य वरुणस्याभिचक्षे स्यो रूपं कृणते शौरुपस्थे अनन्तमन्यद्र-
शदस्थ पाजः कृष्णभ्मन्यद्रितः सम्भरन्ति ।\१८।।
भाकादारूपी आदङ्कणके बीच सूर्यदेव पापियोको दंड देनेके लिये वरूणका ओर धर्मात्माओपर अनुग्रह् ५
कृरेके लिये भित्रका रूप धारण करते है, एक इनका तेजरूप बल अनन्त है जो कि इसके भीतर विराजमान `
५ रहता है, दूसरा यह कृष्ण है जिसे ये किरणे धारण करती ह ।\ १८ |
\ ॐ अद्या देवा उदिता सूथस्य निरहसःपिपता निरवद्यात्
१ तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्ता मदितिः सिन्धुः पृथिवी उत दौः ।\१९।।
सु्ेदेवकौ प्रकाहाज्लील किरणें उदय हौ गयीं वो मुञ्चे पाप ओर कषूठसे बचायं मेरी इस बातका मित्र, ४
बरण, अदिति, सिन्धु ओर पुथिवी सब अनुमोदन करें ।।१९।।
इन सक्तोको भगवान् सूर्यं नारायणके सामने जपना चाहिये ! सवेतोभद्रके समीप एक उत्तम स्थलमे
| अंथदा सर्वतो भद्रके कमलके कोनेमें एक फलक रख दे. उसपर फल, पुष्प, अक्षत जर अनेक प्रकारके भक्षे `
` शुभदेशे देवकी शय्या बनानी चाहिये, षडघान्य ओर षड. रस वहां रखने चाहिये, उसपर भगवान् आदित्यको छ
भ तिरखनी चाहिये, जो चाँदीकी बनी हुई हो, हाथमे तलवार लगी हुई हो, दो कपड़े धारण क्ये हुए हो, इसी `
तरह नही, किन्तु नमकपर रखनी चाहिये पौषे इन मंतरोसे स्नान ओर अचंन होना चाहिये कि इष्टोको मार `
. नेकी इच्छासे खड्ध हाथमे लिये हए कोधरूपी आपके लिये नमस्कार है, मारनेकी इच्छावारे आपको देखकर ` |
सब देवता भागं गये, हे भास्कर } आपने चमकता हुमा मेरुदण्ड व्याप्तकर रला है इसी कारण मं आपको ८. 4
र
~ =
प्रूनता हं, अधं ग्रहण करो, तेरे लिये नमस्कार है । उस रातिको गाने बजानोमे धरी करके सू्ेके उदय होनेषपर (६
ध यथाह्त्रित होम करना चाहिये, उसमे शवितके अनुसार देवता ओर गुरओकरा पजन करना चाहिये । सूरयका `
होम समिध ओर घौके मिरुहुए तिलोसे करना चाहिये । द्विजको चाहिये कि, विधिपूरवंक बनाये हुए चरूद्रव्य `
` ओर घीकाहवनकरे। ` ।
आक्रष्णेन रजसा वतमानो निवेशयन्चम्तस्मत्यञ्च
हिरण्ययेन सविता रथेना देवो यातिभुवनानि पश्यन्
रात ओर दिनं पापियोको मृत ओर पुण्यात्मांओंको अमृत देते हए भगवान् सूयं देब तेलोमयरथसे `
2 | भृवनोको देखते हुए जाते हं । इस म॑त्रसे एकसौ आठ आहुतियां देनी चाहिये, अथवा व्याहति ( ओं सूभृवः 4
| स्वः } योसे होना चाहिये, पीछे स्विष्टकृद् होम भी होना चाहिये \ पीछे पापोकि विध्वंस करनेवाली, बच्छे
सहित कपिला गोरूप षष्ठीकौ अधिष्ठान्नी देनीका पूजन करे ! वस्त्रसे आदृत एवं घण्टोसे शोभायमान कण्ठ- 1
व्रतानि; हिन्दीटीकासहित ` (२९९)
व
४ प
बाली, सुवणेके प्नोसे आच्छ श्युद्धवारी, तामेके पनस शोभित पीठवाली, चाँदीके पत्रोसे मण्डित ख्रवाली ` 4
कपिला गऊको आचायके लिये दे । उसके दोहनके लिये कसिकी दोहनी दे, अपनी क्षवितके अनुसार वस्त्रादि
उपस्करभी दे ओर कहै कि, है कपिर ! तुम मस्त प्राणियोकौ पुजनीया एवं समस्ततीर्थरूपा ओर रोहिणी `
स्वरूपा हो, अतः पाप म् क्रे शान्ति प्रदान करो ! जो सब देवताओंकी लक्ष्मीर्या है ओर सब देवताओमे प्रति- ` `
ष्ठिता है, वही आज गञकरे सुपसे विराजमान कपिलादेवी मून्ने शान्ति प्रदान करे । जो एकादज्ञ के शरीरभे
स्थित है, जो महेक्वरकी प्रिया है बही देवी गऊरूप दनके मेरे पापको नष्ट करे ! जो विष्ण भगवान्के वक्षः |
स्थलमें लक्ष्मीरूपसे, अग्िको स्वाहा एवं चन्द्रमा, सयं ओर अग्निकी शीतल, मरम ओर दग्ध करनेको शित
स्वरूपा है, वही आज गऊरूपसे मेरो सम्पत्तिके ल्य हो । जो ब्रह्मा कुबेर ओर इन््रादिलेकपाल्ेको विभूति- `
ल्पा है वही गखरूप होकर मञ्चे वरदान दे ।तुम सय पितरोकी त॒प्तिकरनेके लिये स्वधा यज्ञभोक्ता देवताओंकी `
तुप्ति करनेम स्वाहा, एवम् लोकोमं विख्यात वषट्कार स्वरूपा है गो मुञ्चे तुष्टि देनेवाल हो । इनही छः ` |
मन्त्रे गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, नंवेद्य जर ताम्बूल गऊपर चढाकर दान करनेके पिके उनकी पुजा करनी
चाहिये \ ओर ˆ मावो मे . इसमन्त्रको पडता हुजा गऊका स्पशेकरके प्रणान कर ए प्रदक्षिणा करनी चाहिये ।
उक्त मन्त्रका अथं है किं, गऊएं मेरे जगाडी पिछछाडी रहं, गऊएं मेरे हृदयम ओर गञओके जीचमं मे निवास
0 करता हूं \ जो पुरुष इस पूर्वोक्तन्विसे गऊरुको हाथलगा प्रणाम करके उनकौ प्रदक्षिणा करता है,उसने सात- ` |
द्वीपोवाली पृथिवीकी प्रदक्षिणा करली । फिर हे कपिले ! हे देवि ! हे सब पापोंको द्धकरनेवाली ! ! ! आपके `
चि प्रणाम है 1 है गौमातः संसारसमुद्रमे इबेहुए मेरा उद्धार करिये जप मेरी रक्षा करने योग्य है एेसाकह-
कर प्राथना करे \ ` हिरण्यगभ ' मन्त्रसे दक्षिणा समर्पण करे \ दो लाल वस्त्र सूथदेवकी प्रसन्नताके लिये दे कि,
येदो लालवस्त्र हें इसी कारण सुर्यदेवके प्रिय हँ इनके प्रदानसे सुनने सुदेव शान्ति प्रदान करं मौर ब्रतानष्ठा-
. नकी समाप्तिके समय सुन्दर वस्त्र ओर अलंकारोसे शोभायमानगऊः मौर सुयेदेवकी प्रतिमाका दान करे ओर
दानप्रतिष्ठाके निमित्त दक्षिणा दे \ ओर दाता एवं प्रतिग्रहीता दोनों कहूं कि, सुं देनेवाले, सुर्य लेनेवाले ओर
सथंहौ अपने दोनोके उद्धार करनेवाले है, अतः सूयके लिये बरार प्रणाम है । गुडलीरसे ब्राह्मणोको भोजन
कराकर शक्तिके अनुसार आचायं भौर ऋत्विजोके लिये ज्यादा जौर कुछ अन्यत्राह्मणोके लिये भी दक्षिणा `
दे \ यदि व्रेतीके धन कम भी हो तो वह् इस विधिके करनेमें तरटि न करे, किन्तु
धान्य, लवण ओर तिल इन सबको आचायेके हाथोमे समर्पण करके गपिला गङको प्रार्थना करे कि, है कपिले !
कुम्हार पूजा किया करते हँ । ौर तुम्हारे जितने रोम है उन सबमेसे एक एक रोममे विद्याधर, सिद्ध, भूत, ` ध
(९ 9 वषति हे ! हे देवि ! ब्रह्माजीने आपको उत्पन्न किया है, तुम ब्रह्माजीके यज्ञ कुण्डसे प्रगट हुई हो, हे कपिले! `
सब वेवतालोग आपको प्रणाम करते हे इससे आपके लि मेरा प्रणाम है । आप महसततवारूपा हो यानी पर- =
1 किन्तु दानमें तारतम्य अपनी शक्ितके
अनुरूप करे \ इससे निर्धनभी कपिलाषष्ठीके अनुष्ठानकरा फलभागी होता है । फिर गऊ, जमीन, सुवणं, वस्त्र,
दम पुण्यकस्मां निष्पाप हो, मे दीन हूं ओर इस पुण्यकर्म आपका प्रदान करता हं घतः आप मेरा उद्धारकरे `
चुम पुण्यकर्म्मा निष्पाप हो, में दीन हं ओर इस पुण्यकम्मंमं आपका प्रदान करता हूं अतः जप मेरा उद्धार करे
मेरे किये कम्मके पुण्यको अक्षय करें । हे कपिर ! स्वभेमे रहनेवारे देवता लोग तुम्हारे भगे बाजे बजाते हए |
नाग ओर ग्रह वसते हे! आप जब पृथिवपर विराजत हो तब आपके ऊषर आका देवतालोग नित्यही पुष्प `
समस्त वेदोके अध्ययन आदि करनेसे, वेदति, सदाचारनिष्ठ रहनेसे, ययाच आचार्यके लिये देनेसे अक्षय
` पुष्य होता हे, अतः एेसेही आचार्यके लिये दान करे! ह मानद \ कपिलाषष्ठी निस संबत्सरमं प्राप्त हौ तब
यह् ब्रत दूसरे उब ब्रतोसे उत्तम एव महान् पुण्यं फलका देनेवाला होता हँ, तब स्व्गनिवास्षी देवगण भूतगण
ओौर महषिगण नृत्य करते हुए पुकारते हें कि ›अब यह् त्रत दानिर्योको यहां प्राप्त करके अक्षय, अव्यय पुण्य
भोगनेका अधिकार करेगा युपा, बेदपाटी, कुटुम्बी ओर ऋषिके समान सदाचारी । ब्राह्मणके लिये जो शास्त्र- `
विधिके अनुसार फपिखादान करता है बहु उस परमयदको प्राप्त होता है, जिस षड्से फिर गिरनानही।
इस प्रकार हेमादरिभे कही हई कपिराषष्ठीके ब्रतकौ विधि पुरी हई ॥। स्कन्दपुराणके प्रभासखण्डमे संक्षेपसे
ब्रतविरेष कहा है कि, गोमय ओर मुत्तिकादिकोसे लिपी हुई, एवं पुष्प ओर अश्षतोसे विभूषित पवित्र भूमिमे
धान्यराश्टिपर चन्दनमिधितजलसे परण, पंचरत्न सहित इब, फूल ओर अक्षतयुक्त, अव्रण कुम्भको स्थापित
करे, उसको दो लाल वस्त्रौषे आच्छादित करके एक तांबेका पाच रख दे, एक पर चांदीके एक चक्गाठे विचिन्न-
" धोगी आदित्यादि नाममन्त्र है । “ ओं आदित्याय नमः, आदित्यको नमस्कार, ओं भास्करायनमः, भास्करको
ओं दिवाकरायनमः दिवाकरको नमस्कार, पादयोः पायं समर्पयामि, हस्तयोरध्यम्, मुखाचमनीयम्
चरणोको पा, हाथोके लिये अघ्यं ओर मुखके ल्य आचमनीय देताहूं" इत्यादि कम -से पूतन करे । पीछे
. आपके लिये नमस्कार है, हे ऋग्वेद, सामवेद ओर यजुर्वेदके अधिपते ! आपके लिये नमस्कार है
, ह, मैने आज आपको सूर्यभगवान्के साय आचा्यके लिये सर्मापित किया है, इससे मुने प्रसन्न होकर मुदित :
प्रदान करं । यह स्कन्दपुराणके प्रभासखण्डका कहा हुमा कपिलाषष्ठोका व्रत पूरा हुञा ¢
अथ कातिके स्कन्दषष्ठीत्रतम् ।\ सा पूया ग्राह्या--ङृष्णाष्टमी स्कन्दषष्ठी
५८ | क्षिवरात्रि्चतुदेशी 11 एताः पुवेयुताः कार्यास्तिथ्यन्ते पारणं भवेत् ।।इति भृग्वतेः।।
` हेमाद्रौ भविष्यश्रीकृष्ण उवाच 1! षष्ठ्यां फलाशनो राजम्विशोषात्कातिके
प ।। राज्यच्युतो विशेषेण स्वं राज्यं लभतेऽचिरात् । षष्टी तिथिम॑हाराज
रथको स्थापित करे ।उसमे एक पल सोनेकी सुरम् तिको रखके गन्धपुष्पादिकोसे पजन करे । उस सूजनके उप- ` ।
नमस्कार, ओं रवये नमः, रविको नमस्कार, ओं भानवे नमः, भानुको नमस्कार, सूर्यायनमः, सुर्थैको नमस्कार, `
५ | भाया करे कि है प्रभाकर आपके व्यिं प्रणस् ह, अप् मेरा छंसखारसे उद्धार क्रे कथक, अप एहिक । ध ५५ १ | | |
पारलौकिक भोगसम्पत्तियो एवं मोक्षके देनेवाले हँ । इससे मेरे लिये शान्ति प्रदान करे । हे वरदेनेवाले!
आपका समस्त विदवही स्वरूप है, या विहवको प्रगट करनेवाके जपही हँ, एसे आपके ल्य नमस्कारहै।
विव को धारणं करनेवाले आपके लिये बार बार नमस्कार है एसे विधिवत् प्रार्थनापथंन्त देवदेव सुर्य- `
` भगवान् की पूजा करके कपिला गऊका दान करे । इससे पहिले उलकी प्रथम वस्व माला ओर चन्दन `
चडाके पुजा करे । उसको देनेका यह् सन्त्र है, कि दिव्यस्वरूय, भुवनोके नेवरूप ( अर्थात् प्रका ) हाद- `
. श्ञात्मा, सुर्यं भौर कपित्य मुञ्चे मुक्ति प्रदान करं । हे पुण्य कपिर ! आष सब जगत् को पवित्र करमेवाटी
" पा १4211 (0 "0 ध % ५
। 1 ¢ प ।
ममम मक मौ क भ 6 ¢ > 8 £ व 1.
तम् 1\ दत्त्वा विप्राय चामान्नं यच्चान्यदपि वतेते ।। पर्चाद् भुडकते त्वसौ रात्यां
भूलि त्वा तु भाजनम् ।। एवं षष्टीव्रतस्थस्य उवतं स्कन्देन यत्फलम् ।\ तन्निबोध `
महाराज प्रोच्यमानं मयादिलम् ।\ षष्ठां फलाशनो यस्तु नक्ताहारो भविष्यति
शुक्लायामथ कृष्णायां ब्रह्मचारी समाहितः ।\ तस्य सिद्धि धूति पुष्टि राज्य- `
मायुनिरामयन् ।। पारच्चिकं वहिक च दद्यात्स्कन्दो न संशयः।।अन्ञक्तश्चोपवासे
वैस च नक्तं सस्र्त् ।। वेलं षष्ठयां न भुञ्जीत न दिवा कुरुनन्दन \\ यस्तु `
षष्ठचां तरो रक्तं कुर्या(इरतसत्तम ।। सवेपापविनिमुक्तो गाङ्गेयस्य प्रसादतः \\ .
स्वर्गे च नियतं कासं लभत नान्न संक्षयः ।। इह चागत्या कालेन यथोक्तफलभाग्भ- `
वेत ।। देवानासपि बन्योऽस्य राजराजो भविष्यति \\ इति भवि. स्कन्दषष्टीव्रतम्।! `
। स्कन्दषष्टीव्रत-कातिक में होता है, उसे कहते हँ । यह स्कन्दषष्ठीपञ्चमी योगवाली ग्राह्य है ! `
क्योकि भगस्मतिमे यह कहा है कि, कृष्णजन्म कौ अष्टमी, स्वामि कातिकेयके ब्रतकौ षष्ठो मौर शिव-
रान्रिव्रतकी चतुद ये तीनों तिथियां पहिली तिथियोसे युक्त ही ग्राह्यं हँ यानी कृष्णाष्टमी सप्तमी- `
विद्धा, स्कन्दषष्ठी पञ्चसीविद्धा मौर त्रयोदल्लीविद्धा रिवरात्नित्रतकी चतुरदली ब्रहण करनी चाहिये, कितु ५
पारण व्रतकी तिथियोके अन्तमं ही करे, अर्थात् कृष्णाष्टमीका नवमीमें स्कन्दषष्ठीका सप्तमीमे, श्िव-
` . रात्रिका अमानास्यामें ! ओौर “तिथिभन्ते च पारणम्. यह् भी सिद्धान्त वचन है यानी. तिथिप्रैधान व्रत
` तिथिके अन्तमं ओर नक्षतरप्रधान बैत नक्च्रफे अन्तम समाप्त करने चाहिये । हेमाद्रिके चतुरवभं चिता-
भणिग्रनथमें भविष्यपुराणके जो वावय मिलते है उन्हँं यथास्थित दिखाते हैः्ीकृष्ण चन्द्र राजा युधि-
ष्ठिस्ते बो कि, हे राजन् ! सभी षष्ठोतिथिधोमें फलका हौ आहार करनेका नियम पालना चाहिये, ` |
परह नृप ! कातिकमें तो षिक्ेष करके फञमोजी होना चाहिय जो राज्यसे ( तुम्हारी तरह )
हमा हौ, बह ओर भौ अधिक नियम पारे, एसा रहनेसे बहुत जल्दी राज्य॒ वापिस मिल्जाता है । हे
महाराज ! स्कन्दषष्ठी सदेव सव कामनाओंको पणं करती है । दिजयका अभिलाषी राजा प्रतिषे
इस दिन विधिवत् उपवास करे । षयोकि, यह छठ स्वामिकातिककी प्रेम पात्र है । इससे यहच्ठ ओर `
` तिथिणेकी अपेक्षः महती उच्छरष्ट है, इस छमे महात्मा स्वाभिकातिकेयजोने समस्त॒देवत्ताओकी सेनाके 4: |
| आधिपत्यपदका लाभ किया थाः जरर इस छठके दिनही पहिले स्वामिका्तिक विजयलक्ष्मौको प्राप्त हषे
थे इससे जो पुरुष ठक दिनं भोजन न करेगा वह भागवी (लक्ष्मी) को सदे व्थि प्रप्त होताहै!
| “प्ति इस डेढ लोक सन्त्रसे कतिकेयके लिये दक्षिणाभिमुल होकर अर्यं दे हे सुव्रत ! उस अयम `
अक्षत, जल ओर पृष्पोको भी ले, हे सप्तषियोकी ( छृत्तिकानाम } भायि उत्यन्न होनेवाले ! हे शरभ ` ५
सेनाओंका स्कन्दन करनेसे स्कन्दनामसे विख्यात, है देवताजोकी सेनाओके अधिनाथ ! है
} हे महादेवजी पार्वतीजी ! ओर अग्निसे उत्प होनेवाले है षडानन ! |
गास है है देवताभके सेनानी ! जय प्रसन्न हो, मेरी वांछिति कामना = `
कच्चे अद्यको ओर भोजनके उपयुक्त घत सक्कर दाक आदि पदार्थोको म कि ५
मिच्छामि विस्तराद्गदतो मुने ।।के मन्त्राः के च नियमाः सापि किलक्षणा भवेत् ।
[द०्९).. = र व्रतसाजः =. "5. ; वषष्ठी
ओर इस लोकके सब भोग स्वासिकर्पातिक निःसन्देह दिया करते ह । जो षष्टीमे भोजन किये बिना नरह
सकता हो, वह॒ भौ दिनमे भोजन न कर रानि करे । इस कथने यही विदेष है कि फल न सकर = `
` रात्रिमें अन्न खा सक्ता है । है कुरुनन्दन ! षष्ठीके दिन तैलके पदार्थोका मोजन नकरे \ जोषष्ठीके `
दिन नक्तेव्रत करता है, वह गङ्कानन्दन का्तिकेयके अनृग्रहसे सब पायोसे विमुक्त होता है । हे कुरनन्दन व,
बहू स्वगं प्राप्त होकर भोग सम्पत्ति को प्राप्त होता है, इसमें कुछ संहाय नहीं है । फिर जब कभी इस `
` मनृष्यलोकमे प्रप्त होता है, तब भी उसको वसी ही सुख सम्पत्ति भिल्ती है ओर तो क्या षष्टोब्रती पुरषको `
देवतालोग भी प्रणाम किया करते है, ओर वह् कुबेरके सदृश धनसम्पन्न या महाराजा होताहै । यहं `
भरविष्यपुराणका स्कन्दषष्टीत्रत पूरा हुजा ।॥ | |
चम्पाषष्टी
अथ भाद्रपदे व मागं्ञीष शुक्रे चस्पाषष्ठीव्रतं हेमाद्रौ स्कान्दे ।। सोत्तरयुता `
म्राह्या-“षण्मुत्योः" इति युग्मवाक्यात् ।। स्कन्द उवाच ।। प्राप्तराज्यं च राजानं `
धसंपुत्रं युधिष्ठिरम् ।। कदाचिदाथयौ द्रष्टुं दुर्वासा मुनिसत्तमः ।। तं पप्रच्छ
महातेजा ध्मंसूनुः कृताञ्जलिः \\ राज्यलाभः कथं जातो मम विप्र तपोनिषे \
तद्व्रतं श्रोतुमिच्छामि करतु च मुनिसत्तम ।। दुर्वासा उवाच ।। श्टृणु राजन्बहा- =`
` भाग व्रतानामुत्तमं व्रतम् ।\ अस्तीह यच्चीणमात्रं सर्वकामास्तु पूरयेत् । षष्टी
भाद्रपदे शुक्ला वेधृत्या च समन्विता ।। विशाखा भौमयोगेन सा चभ्पाइति `
विश्रुता \। देवासुरमनुष्याणां दुर्लभा षष्टिहायनैः ।। कते त्रेतायां पञ्चाक्षद्धायनी `
` द्वापरे पनः ।॥ चत्वारिशत्कलौ शिक्द्धायनी दुलंभा ततः ।॥ आदौ कृतयुगे पुवं `
या चीर्णां विदवकर्मणा ।\ तत्फलं विटवकतुत्वं प्राजापत्यमवाप्तवान् ।। पृथुना `
कातेवीरयेण भुवि नारायणेन च! ईहवरेणोमया साद्धेमितरेतरकप्सिया ।॥ `
यष्चेनां विधिवत्कु्यत्सोऽनन्तं फलमदनुते ।! युधिष्ठिर उवाच ।। तद्धि श्रोतु-
दुर्वासा उवाच ।। दिदेवत्यक्षभोमेन देधतेन समन्विता ।\ भाद्रे मासि सिते षष्टी `
व्रतानि हिन्दीरीकासहित ` - (ण्डी. (
वाडमनः कमभिः कृतम् ।। इति स्नानमंत्रः ततः संत्पयेहेवानषीन्पितगणानपि ।। `
ततश्चेत्य गृहं मौनी पाखण्डालाप ्वाजतः ।। स्थण्डिलं कारयेच्छुद्धं चुरल यु्ञोभ- `
भनम् ।! स्थापयेदन्रणं कुम्भं पञ्चरत्नसमम्वितम् ।। रक्तवस्तरयुगच्छलनं रक्त. `
चन्दनर्चाचतम् \\ तस्योपरि न्यसेत्सू्यं सोवणं सरथारुणम् ।! शक्त्या वा वित्त
सारेण वित्तशाठ्यविर्वाजतः ।! तमचंयेद्गन्धपुरष्पैवधिमन््रपुरः सरम् \! पञ्चा- `
मतेन स्नपनं कर्यादकंस्य संयतः । ततस्तु गन्धतोयेन परां पूजां समारभेत् `
` गन्धेर्ननाविधदिव्यः कपूरारुर्कुकुमेः ।\ 'फएलर्ननिाविधेरिव्येः कुकूमेश्च सुगन्धि- = `
भिः मण्डपं कारयेत्तत्र पुष्पमालाविभूषितम् ।। यथाशोभं प्रकुर्बोत अधक्चोपरि `
स्वेतः ।\ ततः संपूनयहेवं भास्करं कमलोपरि ।। मध्ये दलेषु पूर्वादिष्वादित्यादीन् `
` सुपूजयेत् ।\ आदित्याय नमः । तपनाय० पृष्णे न °भानुमते न° भान्वे न० अर्यम्णे
। न° विहववक्रयः० अंशयुमते० सहस्रांशवे नमः । खनायकाय० सुराय० सूर्याय `
| नमः \ खगाय नमः|} १३ ।} जन्मान्तरसहच्रेषु दुष्कृतं यन्मया कृतम् । तत्सर्व
नाञ्लमायातु तवत्प्रसादादिवाकर ।। विनतातनयो देवः कर्मसाक्षी तमोनुदः 1)
। सप्ताश्वः सप्तरज्जुरच अरुणो मे प्रसीदतु ।\ इति रथयुजामन््रः ।। ततः संपुजये- `
। , हेवमच्युतं तद्रथस्थितम् ।) अष्टाक्षरेण मन्त्रेण गन्धपुष्पादिभिः कमात् |! “जं
घृणिः सथं आदित्य” इति मंत्रः संप्रदायादवगन्तव्यः ।! कालात्मा सवेभृतात्मा `
वेदात्मा विक्वतोमुखः ।। जन्ममत्युजरारोगसंसारभयनाशनः ।। इति उव्येऽध्य-
कास्थपात्रे च दोहिनीम् !। ब्रह्मणोत्पादितं देवि सदेपापविनाश्िनि । संसाराणेव- `
णवभग्नं मां गोमातस्त्रातुमहंसि ।) सुरूपा बहुरूपाह्च मातरो लोकमातरः ।॥ `
गावो मामुपसपेन्तु सरितः सागरं यथा ।! था लक्ष्मीः सवदेवानां या च देवेषु
` संस्थिता ।। धेनुरूपेण सा देवी मम पापं व्यपोहतु ।! या लक्षमीरछकपालानां या
लक्ष्मीर्धनदस्य च ।। चन्द्राकंशक्रशक्तिर्था सा धेनुवंरदाऽस्तु मे । इति धेनुपूजामन्त्रः।
तिलहोमं मठ ¦ ततः कुर्यात्सावित्यष्टोत्तरं शतम् ।! ततस्तां कल्पयेदधेनुमर्को मे प्रीयता- `
मिति ।। आचार्याय ततो दद्यादादित्यं सरथारुणम् \ सकुस्भरत्नवस्वरेश्च सर्वोपि- `
©
वयज्ञसयीं शुभाम् ।। स्वंदानमयीं देवीं ब्राह्मणाय ददाम्यहम् ।
सवेतीथंसयीं धेनु स ।
` इतिगोदानमंत्रः ।! गह्. णामि सुरभि देवीं सवंयज्ञमयीं शुभाम् ।। उभौ पुनीहि वरदे
उभयोस्तारिकां भव ।। इतिप्रतिग्रहमंचः ।। ततस्तु भोजयेद्विप्रान् दादेव स्वह्य- `
विततः ।। द्दाच्च दक्षिणां तेभ्यः प्रणिपत्य विसर्जयेत् ।\ ततस्तु स्वयमहनीया- `
दद्िजानामविष्टकम् ।। सह पुत्रैः कलत्रह्च अन्यबहुजनवृतः \! एवं यः कुरते
चम्पां सोऽत्यन्तं वुष्यमहनुते \। प्रभूणां च विधिः प्रोक्तस्तत्प्रभूणां च गोचरः ।॥ `
सर्वेश्चेतदव्रतं कार्थं स्वदाक्त्या दुःखभीरुभिः ।। प्रभुः प्रथमकल्पस्य योनुकल्पेन ` 1
वतते !! विफलं तत्त तस्य स्यादनीक्ञस्त्वनुकल्पितः ।\ अथ निधनस्य विधिः। `
पञ्चम्यां नियमं कूर्यदाचार्यवचनादब्रती ।॥ षष्ठयां स्नानं प्रकुर्वात संतप्य
पित्देवताः \ अभ्येत्य स्वगृहं मोनी सूयं मनसि चिन्तयेत् ।! स्थापयेदव्रणं कुम्भं
मृत्पात्रं च तथोपरि ।। तस्योपरि न्यसेत्ुर्यं पलंकन विनिर्मितम् ।। सौवर्णं भक्ति- `
` संयुक्तं रथं सारथिना युतम् \। तमर्च॑येज्जगन्नाथं गृहीत्वाज्ञां गुरोः स्वयम् ॥
षडक्षरेण मंत्रेण गन्धपुष्याक्षतादिभिः ।\ “उन्नसः सूर्याय"इति मंत्रः ।\ संपूज्य
विधिवहेवं फखयुष्ादिकं च यत् \। सूर्यायाबेदयेत्सर्वं सूर्यो मे प्रीयतामिति \\ ततः ` |
प्रभाते विसे गत्वा गरुगृहुं ब्रती ।\ सर्वोपकरणः सूयमाचार्याय निवेदयेत् ।॥ `
धान्यं पुष्पं फलं वस्त्रं रत्नधेन्वादिकं च यत् \! गवां कोटिसहसरं तु दुरक्षेत्रेऽकं- `
पर्वेणि ।। चम्पादानस्य राजेन्द्र कलां नाहेति षोडक्ञीम् ।! सवंतीथप्रदानानि
तथान्यान्यपि षोडल्ञ ।! चंपया तुकितानीह् चम्पका त्वतिरिच्यते ।\ इति श्रीस्कद-
` पुराणोक्तं चंयाषष्ठीढंतं संपणम् ।! अथ सागेशौषं शुक्लषष्टो चस्पाषष्ठ \। साग
. मासे शुक्लपक्षे षष्ठी वेधतिसयुता ।। रविवारेण संयुक्ता सा चस्या इति कीतिता।।
इति मल्लरिव हलस्य ।\ सागशीषऽसले पक्षं षष्ट्यां वारशमालिनः | शततारा- |
गते चन्द्रे लिद्ख स्थाद्ष्टिगोचरम् ।। इति ।। दयं योगविशेष पूर्वा । योगाभावे
| परा ग्राह्या ।\! इति चस्पाषष्टी । इति षष्टोद्रतानि ।, 1
चम्पाषष्टीका अ्रत--भाद्रवद या मगो मासमे शुक्लपक्षकी षष्ठीके दिन होता हैः
व्रतानि] हिन्दीीकासहित (३०५)
वर्षोमिं परमे चालीस वर्षेमिं एवं कलियुगमे तीस वषोकि पुवं देवता आदि सभी को दुलंभ है । पहिले
सत्यणुगमं विद्वकमनि चम्पाषष्ठोकेः दिन उपवास किया था, इससे उस्तको जगते सब पदार्थोकी बहुत `
सरल्तासे रचना करनेकी चतुरता प्राप्त हुई । वह॒ विश्वकर्म्मा प्रजापतियोके पदका अधिकारौ होगया.
एसे ही राजा पथु, कातेवीयं, नारायण भगवान् ओर महादेव पार्वती सहित चन्रशेखरदेवने यही बत
सरे अभिलषितार्थोको पानके लिये किया था, इससे ये सव कृताथ हुए, पुथु जादिकोंका जो प्रभाव सुननेषे
आताहैः वहं इसी व्रतका प्रभाव है । जौ पुरुष विधिके अनुसार इस चम्पाषष्ठीके व्रतको करे, तो बहु
अनन्त पुण्यफल भोगता है । राजा य् षिष्ठिर बोले कि, हि मुने ! ब्रतके करनेकी विधिका विस्तारपुवैक
वणन करे, मे उसको आयकरे म् खसे सुनना चाहता हुं । इस दिन किस किस म॑न््र ओर नियसकी आव-- `
` श्यकता है, वह चस्पाषष्टीः कंसी होती, यानी यह चम्पाषष्ठी ही है ओर यह नही एसा कौनसा लक्षण `
हैः किस किस नियम्का पालन करे, किस किस सन्त्ये कोन कौन कायं करना चाहिये ? यह् सव्र आप
मूषे कहं । दुर्वासा सुनि बोरे कि, चविक्षाला नक्षत्र, भोसदार ओर वंधृत्तियोग इनसे युक्त जो भाद्रपद-
` भासमे षष्ठी हौ, उसे चम्पाषष्ठी कहते हँ \ पञ्यमौके दिन एक बार भोजन करनेका नियम पालन करे, `
आचार्यको वरके उसकी आन्नानुसार चम्पाषष्ठोके व्रठको विधिवत् करे । फिर दूसरे दिन स्वच्छ प्रभातमे `
उठकर दन्तधावन करके स्नान करे, एवित्र होकर यथाविधि संकल्प करे कि हे भास्कर ! आजम निराहार,
` रंग, मेँ जापका भक्त हं अही मेरे परम आधार हः मं जापका भव्तिमे पूजन करूंगा अतः मँ आपकी
शरण में हु मेरे इस संकल्पको पूणं कराओ । फिर नदी आदि पवित्रं जलाशयपर जाकर उसके जलमं
स्वच्छ स्तान करे, इस स्नानकी यह् विधि है मृत्तिके ब्रह्म पूतासि' इत्यादि सन्त्रोसे प्रथम सृत्तिका लगावे `
। फिर स्नान करेः तदनन्तर पिर श् दलतिखोको जलमें गेरके प्रार्थना करे कि, आप परम सविता हं "सावित्रः
` परमः' इस पाठान्तरका यहं अथं है कि, सविता ( परमेद्वर ) का जो परम उत्कृष्ट प्रमाव या प्रतापहै
` बहु आही हं । आप अपनी किरणोद्वारा जलका मोचन करते ह, इससे जलमे भी आपका ही धाम ( तेन `
प्रताप) है, अन मेरे पाप आपके तेजसे हजारों तरह परिभ्रष्ट होकर विलीने हो । एसे प्रा्थना करनेके ५
किप है मेरे उन सब पायोको आप नष्ट करें । एसे स्नानादि कम्म॑से निवत्त होकर देवला, ऋषि ओर
` णतानकरे। सथं देवका विधिवत् सौरसुक्तके मंत्रोसे पजन करे । निश्चलेन्दरिय होकर पञ्चामृतसे ` ¦
| समीपही एक मण्डयकती कलना
पीछे सनानकरे । जलमे परवेशकरे सर्यकौ या तीर्को पाथना करे कि हे देवताभोके का ! आपह जल `
रूपै, आपह ज्योति्ोके अधीदवर हे \ हे देव ! मेने जपनी वाणी, मन या शरीरसेजो जो दृष्कम्मं,
पितृगणोका तर्पण करे । फिर अपने घर आ पालण्डके आलापोको छोड यथासम्मव मौन रहे ओर मोभयसे =
लित इ. चौकटा स्थण्डि बनावे, उसमे अच्छिद्र जलपुणं घट रसे, उसमे पञ्चरत्न गेरेफिरदोव्स््रोसे =
उसे ढकदे लालचन्दनसे चित करे । उस कलद्ापर, सुबणेके सारवरथ ओर सारथिसहित सूर्यको बनवाकर `
स्थापित करे । रथादि बनवाने सामथ्यं या अपने धनके अनुसार सुवणं व्यय करे कितु वित्त रहते कृष-
` स्नान करके, सुगन्धित जल्से स्नान करावे \ पौरे बहुविधि कपुर अगर ओर केसरं आदि सुगन्धित `
व्रव्योके साथ धिसे हुए चन्दनको चढावे, अनेक फल एवम् सुगन्धित रोलो आदि चढावें । फिर कलश कै ` `
केरे, उसमे परष्पमाा लगाकर नीचे, ऊषर चारो ओर सजबे \! उस
सहला, खनायक, सुर, सूये, खग ये बारह सूयय के नष्म ह । इन्हीके संत्रोसे दलोपर धनन होताहै।
है दिवाकरं ! आजतक मेरे हजारो बार जन्म होगये, इन जन्मों मने.जो पाप क्यिहंवेस्ब अप्के
अनुग्रहुसे नान्ञको प्राप्त हयेजायें ! फिर सूर्यभगवान्के रथका पुजन करे कि, सातघोडे जिसमे जुतेहुएहेः
सात ही रस्सियां यानी बागडोर जिसके घोडोपर लगी हुई है; एसा रथ ओर इसके चलनेवारे कमेकि
साक्षी एवम् सू्थके प्रकाशे प्रथम ही आगे बैठकर जगत् के अन्धकारको शान्तं करनेवाले विनतानन्दन `
` अरुणदेव मेरे उपर प्रसन्न हं उस रथम सदा रहनेवाले, अच्युतस्वरूय सूयदेवका “ओं घुणि सूयं आदित्यः `
इस आठ भक्षरवाले मन््रसे गन्ध, पुष्प, अक्षतादिद्रारा पुजन करे । इस अष्टाक्षरं स्न््र को गुरुओ कौ
उषदेक् परम्परासे जानना चाहिये । कै उदय होतेह 'कालात्मा' इस सन्त्रसे सू्यके लिये अध्यैदान ` {4
` करे कि, कालस्वरूप सब प्राणियोकी आत्मा, बेदरूपी, सब ओर गुखवाके संसारके जन्म, मरण वृद्धपना = ¦ |
ओर रोगादिकोके उपद्रव या भय हँ, उन समके विनाशकं सूर्यदेव अष्यं ग्रहण करें । फिर गोदान करे।
वह् शौ इवेतवर्णा एवं बच्छेवाखी दुग्घ देनेवाली, वस्त्र घण्टा तथा कण्ठभ्रसे विभूषित जौर कंसिकी `
दोहिनीवाली होनी चाहिये ओर पुजल करनेके शन्नरये हं कि, ह देवि ! ब्रह्माजीने सब पापोको नष्ट `
करानेके लिये आपकी उत्पन्न की है, हे गोमाता ! संसारसमुद्रमं उबेहुए मृक्षे बचा, सुन्दर एवं बहुवि `
पवार लोकोंकी माता, गोमाताए, समुद्रके नदिथोको नाति सुने प्राप्त होती रह । जौ सब देवताभोकौ `
लक्ष्मी है जो देवतामें सुरभिखूयसे स्थित है वह् देवी मेरे सब पापोको नष्ट करे । जो लोकपालोकी
लक्ष्मी है, जो करबेरकी भी. लक्ष्मी है जो चन्द्रमा, सूर्यं जर इन्ध्रकी शक्ति है बही गऊ मेरी कामनाएं ¦
पुण करे फिर ओं तत्सवितुवरेण्यम्" इस गायत्री (सावित्री ) भन्त्रसे एकसौ आठ बार तिलका (तिल- `
प्रधान हवनीय द्रव्यका हवन करे । फिर गऊको वह उपस्थित कराके कटै कि अर्को मेशप्रीयताम्' सुय |
मेरेपर प्रस हो आयके लिये रथ मौर अरुणसहित सूर्येदेवको, सर्वोपस्करसंयुक्त, सवर ओर पञ्चरत्न- `
. संहित सुन्दर कल्को विधिके साथ दे दे सूर्थदानका ददामि यहु मन्त्र है किमे सेब रथादि उपस्कर
(सामग्री) सहित सुेदेवको आपके लिये देवाह इससे संतुष्ट हए सूर्यदेव मेरी मनोकामना पुर्णकरे । `
प्रतिग्रहका गहु.णामि भस्करम्' यहु मत्रहै किः है भास्कर ! हे रवे! आप विक््वतोमुश्वहु, में आयका |
अद्खीकार करतां ! अतः आप हम दोनों प्रतिग्रहीता ओर दाताके मनकी अभिलषित कामनाञको पुति
` करे । फिर सर्वतीर्थ इस मन्तरसे गोदान करे ! कि मे समस्त तीथे, यद्र ओर दानरूय पविन्र गोमताको
` ब्राहमणके लिये देता हुं \ शृ्ेणामि सुरभिम्, यह् ्रतिग्रहका मन्त्र है । कि, मे समस्त यज्ञङ्प पवित्र एवं
साक्षात् सुरभिरूपं गऊको लेता ह । है वरदेनेब्ाली देवि ! हम दोनो दता जर परतिश्रहीताको पचति
कर ओर उद्धारकारिणौ हो \ फिर हदशा ब्राह्यणोको भोजन करावे । पीठ अपनी सक्ते अनुसार उनके
लिये दक्षिणा दे ओौर प्रणामं करके अनुष्ठाना विसजन करे । ब्राह्णोको भोजन करानेपर बचेहुए
. अन्नका आप अपने पुत्र, स्त्री ओर सब बन्धं ओके साथ देठकर भोजन करे । पूर्वोक्तिविध्कि अनुसारजै `
मनुष्य चस्पाषष्ठीका त्रत करता है, उसको विशेष पुण्य मिलता है । यद् जो विषि कही हे वह समर्थकी `
वयोकि, इस प्रकार सुवणं रथादिका दान अत्यन्त धनलाली ही कर सकते हे । ओर निर्धनभी अपने अपने
हो मिटानेके सिये ब्रत करे, पर पुजनविधि अपनी लम्तिके अनुसार करे ! जो समथं होकर इस.
रतानि] = हल्दीटीकासहित (३०७)
दिन स्वच्छ प्रभातमें गुरुके यहां जाय, तथा सब उपकरण समेत सूर्थकोगरक्षे छिये निवेदन करे । इसके
` साथ अपनी सामर्थ्यानुसार धान्य, पुष्प, फल, वस्त्र, रत्न ओर गऊः आहि जोदेने हौ उनकोभीदेदे
कोटिको सहस्र भृणित कर जितनी संख्या होती है उतनी गऊओंको सूर्थ्रहणके सभय कुरक्षे्र में देनेसे
जो फल मिलता है है रजेन ! वह् दानं पुण्य चम्पाषष्ठीका दान फलकौ सोलहुवीं करकी भी समानता
नहीं करसकता ¦ सब तीथेमिं दानोके पुण्योको ओर षोडदा महादानोंकोएक तरफ तुलापर रखे, दूसरी ओर
चम्पाषष्ठीका पुण्य; पर इस चम्पायुण्यकौी बराबरीउन संब पुण्योसे नहीं होती. चस्पाषष्ठीकाहौ पुष्यफल
भारी रहता है । यह भीस्कन्द्पुराण कौ कहीहुई चम्पाषष्ठीके ब्रतकौ कथा पूरी हुई \। सां शीर्षशुक्ला ; ए
षष्ठी चम्पाष्टीके ब्रतको कहते हं \ सागंशौषेमासकौ ( पाठान्तरके अनुसार मा्गशीषे या भाद्रमास ) शुक्लं
` वक्षकी षष्ठी यदि वैधुतियोग ओौर रविवारसे युक्त हो तो उसे चम्पाषष्ठी कहते हे! यह् मल्लारिमाहस्म्यमे =
लिखा हमा है, दूसरे ग्रन्थों तो यह लिखा हभ है कि, माशौषेशुकला षष्टी हतभिषानक्षत्रसे युक्त `
` पूर्वाम' हो पूर्वा यदि परमं होतो परा खनी चहिये योग विशेष शतभिषानश्नत्र जौर रविवार आदिकहं
थे पूर्वा परावाशुद्धा जिसमें हो उसीको चम्पाषष्ठो समञ्च जायगा । यह् चस्पाषष्ठीका त्रत पूरा हभ ।। `
इसके ही साथ षष्ठीके ब्रत भी पुरे हौतेहें \\ |
अथ सप्तमी व्रतानि
५ ग्ध गङ्खोत्पत्तिः ।। तत्र वैश्ाखशुक्लसप्तम्यां गंगोत्पत्तिः, तत्पूजा चोक्ता, प॒थ्वी
` चन्द्रोदये ब्राह्यवेशलशक्लसप्तम्यां जाह्नवी पुरा । ऋोधात्पीता पुनस्त्यक्ता
क्णरन्धात्तु दक्षिणात् ।। तां तत्र पुजयेहेवीं गङ्ख गगनमेखलाम् । इति 1\ हरि~ `
` वंशे पुण्यकत्रतान्ते अब्दं प्रातःस्नानमभिधाय-गङ्धया बरतक दत्तं तदेवोमं'यशस्करई।।
` स्नानमभ्यधिकं त्वत्र प्रत्यषस्यात्सनो' जले।। अन्यन्न वा जरे माधदयुक्लपक्षे हरि-
प्रिये ।। एतद्गङ्धात्रतं नाम सवंकामप्रवं स्मृतम् ।। सप्त सप्त च सप्ताथ कुलानि
` ब्रोक्तम्-वेशाखशुक्लयक्षे तु सप्तम्यां परजयेदधरिम् ।। गंगायां विधिवत्स्नात्वा
भोजयेदब्राह्मणान् दश ।। पुजयेत्सुक्ष्म वस्त्रैश्च पुष्यल्रक्चन्दनेः शुभैः ॥ पूजकः `
सवेपपेभ्यो मुच्यते नात्र संशयः ।। इयं च शिष्टाचारान्मध्याह्नव्यापिनी ग्राह्या ।॥ `
च क्ख हजा है कि, व॑जञाखे शुक्ला प्क मगद्यातका यञन करना चाहिये गां विधिपूर्वकं ॥
` स्नान करके दश न्नाह्यण भोजन कराना चाहिये, अच्छे पुष्पं माल ओर चन्दनोसे तथा सूक्ष्मवस्त्रोसि उनका `
पुजन करना चाहिये । पुजक सब पायो टूटनाता है इसमे सन्देह नहीं है । यह गङ्खासप्तमौ बत जिसदिन =`
सप्तमी मध्याह्न व्यापिनी हौ उसीदिन करना चाहिये. क्योकि, शिष्ट पुरुष एसे ही मानते जये हैः कितु |
दोनों दिन मध्याह्नमे सप्तसौ हो, या न हो जयया दिती एक अंज्षरे पिके (षष्ठी) के दिनही संप्तमीका `
` ब्रतकी कथा पुरी हई ।
पजयेन्नाममन््रतः ।। शीतले पञ्चपववाद्चदध्योवनयुतं शुभम् ।। नैवेद्यं गृह्यतां `
देवि घृतमिश्रं च सुन्दरि।।गीतेले दहं मे पापं पुत्रपोत्रसुखप्रदे।। धन वह्यप्रदेदेवि `
पूजां गृह नमोऽस्तु ते\। शीतले शीतलाकारे अवेधन्यसुतप्रदे।।श्रावणस्यासिते पक्षे
अर्ध्यं गृह्ण नमोऽस्तु ते ।। सम्पूज्य सप्त भौरीश्च भोजयेच्च प्रयत्नतः! \अथ पुजा ।
मासपक्षादयुल्लिख्य मस इहु जन्मनि जन्मान्तरे चं अदेधन्यप्राप्ठये अखण्डितभत्-
५ चारः शीतलां पूजधिष्ये इलि संकतप्य अष्टद्लयुते पीठे अद्रणं कलां संस्थाप्यायैदु-
करना चाहिये । हे हरिकीष्यारी ! भाघ शुक्लाको दुसरे भी किसी जलस्थानमं स्तन किया जा सक्ताहै, ध
` यह् गंगाजीका ब्रत सब कामनाञौकी पूति करता है} इसत कारण इसे सव कामप्रद भौ कहते हं है
हरिकी प्यारी ! जो धमेके जाननेव्यली स्वी इस व्रतको करती है वौ इसके प्रभावसे सात पीहरके ओर `
सात सासरेके तथा सात ननसारके पुरघोका उद्धार कर देती है । इसे उत्तम गंगात्रतमे एक हजार कुभोका `
दान देना चाहिये, यह दत तारने, पार करने एवं सव कामनाञकी पूति करनेवाला है । दूसरे पुराणोमेभौ `
सम्भव हो तो गङ्खासप्तमी त्रतमें सप्तमी षष्टी विद्धाही ग्रहण करनी चाहिये । क्योकि सप्तमीन्रत नि्णेय
रसद्धमे षष्ठी युक्ता सप्तमीही ग्रहण करनी दःहिये, एसा युर्मवाक्यका निर्णय है । यह गङ्खासप्तमीके `
शीतलासप्तमी ।। अथ शुक्लादिश्रावणष्ष्णसप्तम्यां शीतलाव्रतम् ।। तच्च ।
मध्याह्भव्यापिन्यां कार्यम् \। तथा च माधवीये हारीतः- पृजाव्रतेषु सर्वेषु मध्याह्न- `
व्यापिनी तिथिः ।इति।। अथ ब्रतविधिः । स्कान्दे-वन्देऽहं शीतलां देवीं रासभस्थां `
दिगम्बराम् ।\ मार्जनीकलश्णेपेतां शूर्पालंकृतमस्तकाम् ।। कुम्भे संस्थापयेहवीं
संयोगयुत्रपोत्रादिधनधान्यभ्राप्तये च श्षीतलादरवं करिष्ये । तथा यथामिखितोप-
वरतानि! हिन्दीटीकासहित (श 5 (३०९)
क्रियाकाण्डे रता साध्वी दानक्षीला प्रियंवदा ।\२।। बभूव प्रथमः पुत्रो महाधर्मेति `
नामतः !\ नन्दते पित् वात्सस्यात्कालेऽन्यस्मिस्ततो भवेत् ।! ३ ।। द्वितीयाथ `
तथा पुत्री तस्य जाता गुणोत्तमा ।। पुरी लक्षणसंपत्ना श्ुभकारीति नामतः \ र
॥४॥। बवघे सा पितुरगेहे सर्वाद्धगुणसुन्दरी । नाभ्ना कू्पेण सा बाला सर्वासां
च गुणाधिका ।। ५।। सामृद्रिकगुणोपेता पडहस्ता प्रियंवदा ।। कौण्डिन्यनगरे `
` राजा सुमित्रो नाम नामतः ।1६।\ तत्पुत्र गणवाद्वास श्युभकार्याः पतिर्बभो ।॥ |
वरो हि देहमानेन लक्ष्मीवान् रूपवान् गुणैः ।\ ७ ।। गुणवाञ्छभकारिष्याःर्पाणि `
जग्राह धर्मवित् \\ गृहीत्वा पारिबर्हाणि गतोऽसौ नगरं प्रति।।८॥। पुनः समाययौ
राजा गुणवान् हस्तिनापुरम् ।\ वृतः परिजनैः स्व॑स्तत्पुच्या नयनोत्सुकः।९।। `
तं दष्ट्वा जुभकारो सा सहर्ष जातसंभ्रमा प्रणस्य च पितुः पादौ तमृचे |
चारुहासिनी ।। १० ।। मया तात परिज्ञातं यक्तं पद्मयोनिना ॥ पातित्रत्यसमो
धर्मो नास्तीह भुवनत्रये \\ ११ \। तस्मादाज्ञं देहि राजन् प्रहृष्टेनान्तरात्मना ॥\.
रथमारुह्य यास्यामि स्वामिना स्वपुरं प्रति ।\ १२।। तस्यास्तटचनं शरुत्वा
पितोवाच सुतां प्रति ।। स्थित्वेकं वासरं पुत्रिं ज्लीतलात्रतसुत्तमम् ।। १३ \\ सौभा-
ग्यारोग्यजनकमवेधव्यकरं परम् ।! छत्वा याहि मतं ह्येतस्वन्मातुमम चैव हि
। ॥ १४ ।। इत्यक्त्वा ब्रतसामग्रं पूजोपकरणं तथा ।\ संपाद्य राज। तां सद्यः शीतला- `
मचितुं नृपाः ।।! १५ ।। प्रेषयामास सरसि ब्राह्मणं बेदपारगम् ।! सपत्नीक तया
सार्धं गता सा तषठनान्तरे ।। १६ ।) भ्रमन्ती तत्सर स्तत्र नापश्यद्विधिसाधनम् !!
रूपगुणान्विताम् ।। विभ्रतु संभ्रमञ्छान्तः सुप्तो निद्रावशं गतः।। १८॥ `
दष्टोऽहिना सृतस्तस्य भार्या तच्निकटे स्थिता ।। शुभकारी ततो वृद्धा सोवाच `
करुणद्रधौः ।। १९ ।। भविष्यति चिरजीवी भर्ता तं राजकन्यके । आगच्छ ८ ५
प् पुरवेकः ।। प्रूजयासासं हषण तोषयामास श्ीर्तलाम् ।। २१।। तस्या बरं प्राप्य ८ 4
मुदा स्वमार्गं गन्तुमुद्यता ।। ततः सा ददृशषेऽरण्ये ब्राह्मणं दष्टसपंकम् ।\ २२
देवीं महावेधव्यभजञ्जनीम् ।\ आगच्छच्छीतला तच्र वरं दातुं शुचिस्मिता ।! २७॥। ४
ज्लीतल्मेवाच !\ वरं वरय वत्से त्वं कि दुःखं चारुहासिनि ।\ शीतलाव्रतजं पुण्यं
देहि त्वं ब्राह्मणीं शुभाम् ।! २८ ।। तेन पुण्यप्रभवेण भतस्या निविषो भवेत् ।॥
इतिदेव्या वचः श्रुत्वा अवददब्राह्मणीं ततः।\२९।।बृबोघायु ततो विप्रहिचरं सुप्ते ¦
थथा पुनः \\ शीतलया तरते बुद्धिरबराह्यण्याश्चाभवत्तदा ।! ३० ।। अकरोत्सापि
तत्पूजा भक्तिभावयुरःसरा \। तत्रान्तरे राजयपुच्याः पतिरागाष्रनान्तिकम् ।। ३१॥
सोपि दष्टोऽथ सर्पेण गच्छन्त्यगरे ददल्ञं तस् ।\! विललाप ततः साध्वी सख्या सह॒ `
वनान्तरे ।। ३२ ।। लीतलोवाच ।। वत्से मया पुवेमुक्तं स्मर तदरर्बाणनि।
क्ीतलाब्रतचारिण्या वैधव्यं नैव जायते ।! ३३ ।। स्वयमुत्थाय कल्याणि पाति |
सुप्तं गहे यथा ।\ बोधयादु तथा भीर व्रतं वेघव्यञशचाश्चनम् ।।३४ ।\ इत्युक्ता `
बोधयामास भर्तारं सा पतिव्रता ।\ भर्तापि मुदितो दृष्ट्वा स्वां प्रियां प्रीतिमान- `
भृत् ।। ३५ ।। दष्ट्वा तु महदादचर्यं तद्धामस्थायिनो जनाः ।! सवं ते विस्मयं `
जग्मर््ाह्मणीपतिरश्षणात् ) ३६ ।। ब्राह्मणी हषिता वृद्धां प्रणिपत्य पतिव्रता ।॥
देहि मातनमस्तेऽस्तु अवैधव्यावियोगिनी ।\ ३७ । अन्यापि शीतलायास्तु व्रतं |
नारी करिष्यति ।। अवेधव्यमदारिद्यमवियोगं स्वभतंतः ।। ३८ ।। तथेत्यन्तदेधे `
देवी ल्ीतला कामरूपिणी ।। शीतलाया वरं रध्वा जगामात्मीयवेहमनि ३९ `
प्ाकरावासिसुविश््ववन्द्ासमहंणासादितविर्वमङ्धःला प्रसादमासाद्य च
क्नीतलाया राज्ञः सुता पावेतिवहमूव ।। ४०, इति भविष्ये शौतला्रतं सम्पूणम् ।।
अब हीतरासप्तमी त्रत कहते हे-यह् त्रत शुक्ल पश्षसे मासारम्भके मानानुसार श्रावण वदि
सप्तसीको करना चाहिये, जब किं सप्तमौ मध्याह्वं व्यापिनी हौ । एेसेही कालमाघवमं हारीतस्मृतिका `
` : प्रमाण मिलता है कि, पुजाप्रचान ब्रतोमे मध्याह्लव्यापिनी तिथि ग्राह्य है । इस व्रतकौ विधिको कहते हं । ¢
` ` स्कन्दपुराणमें लिखाहै कि प्रथम शीतला देवीके सम्मुख जाकर साञ्जलि प्राथना करे कि, रासभे (गर्दभ)
ब्राहना, दिगम्बर ( नग्न ) हाथोमे माजेनी (क्लाड् ) जर कलदाकोकारण करनेवाली, मस्तकपर जिसके 1
शूषं (छाज) है एेसी ज्लौतला देवीको में प्रणामं करता हूं \ फिर कलज्ञके ऊपर पूर्वोक्त स्वर्या शीतला
देवीकौ मूति स्थापित करे । ओं शीतलायै नमः" श्ीतलाके छि नमस्कार इस नाममन््रसे उसे स्नानादि `
+ ५ करावे, फिर पाँच प्रकारका पक्वा, सघत दधि ओर मात यह् नैवेच जापके निवेदन करता हुहेदेवि!
वरतानि ] । | | ६ ट न्दी टीक कमसु ? ह् ल ~
व ए प ५ ४) गः ५ ना
है, इसका यहं भाव है कि, अमुक गोत्रवाली जमुकनाम्नी जो मेह मृज्ञे इस जर सरे ज्मोमे सोभाग्य `
मिले. पतिके अखण्डितसंथोग (सम्भोग) सुखकी प्राप्ति हौ । पुत्र पौत्रादि तथा धनधान्यकी सम्पत्ति
श्रातं हो; इस चयि शीतलासप्तमौ त्रत ओर जो ये पुजनके उपचार इकद्ठे हुए हँ इनसे शौतलाका पूजन
हंगी । एक चौकीपर वस्त्र विकर उसपर अक्षते अष्टदल कमल्का जकार करे, उसमे अच्छि
कलं स्थापित करे, उस कलयपर सुवणंमयी शीतलासूतिको स्थापित करे \ फिर "वन्देऽहं ्ीतला' इस `
॥ ` पहिले कहे मन्त्रसे ध्यान जर प्रणाम करे ¦ पीछे जो शीतलायै नमः आवाहयामि, शीतलाके लिय नमस्कार `
` ` श्लीतला का आवाहन करताहूं इस माममन्व्रसे आवाहन करे । एेसेही ओं शीतलायै नमः आसनमपेयामि,
दृहागत्य अत्रातिष्ठ' श्री शीतलाके किये नमस्कार जासन देता हूं यहां । आकर यहां बैठ जो इस नामभन््रसे `
आसन प्रदान करे इसी प्रकार वाक्य कल्पना करती हुई पाच्च, अर्यं, आचमन, स्नान, वस्त्र, उपवस्त्र `
चन्दन, अलंकार, पुष्प, धूप जौर दीपके दान करे । शीतले पञ्च इस पहिले कहे हए मन्त्रये भोग लगाकर
नाम मन्त्रसे करोद्रत्तेन, फल, ताम्ब्ल, दक्षिणा. आरती, पुष्पाञ्जलि चढावे । फिर नाम सन्त्रसे प्रदक्षिणा
करके वल्देऽहं शीतलां इस पहिले कहे हुए मन्त्रसे प्रणाम, "शीतले दह् पपं इस मन्त्रसे प्रार्थना ओर `
श्ञीतङे श्ीतलाकारे' इसे पूर्वोक्तं मन्यसे विशेष अध्यं दान करे । फिर ब्रते पूणैफलकी प्राप्तिके लिये
1 / बराह्मणके लिये कायना दे ¦ उसका "दध्यच्ं' यह मन्त्र है । इसका यह अथं है कि, स्षीतलाकी प्रीतिक्े लिपि ॥ =
भें दधि, अन्न, फल ओर दक्षिणासहित वायना तुमे देती हूं ।। इस त्रतक्णी कथा-मविष्यपुराण में कहीहै । =
श्रीकृष्णचन्द्र बोले कि, हे नृपते !. आप सुने । हस्तिनिपुर नामका एक नगर प्रसिद्ध है, उसमे लोकोका
रक्षक इन्द्रद्युम्न नास्का राजा था ।। १।) उसकी पतित्रता यक्षस्विनी, धर्मल्ीला नामकी स्त्री थी, बहु
अनेकों पुण्यानुष्ठानकरनेबालो उदार चित्तवालौ ओर मधुर भाषिणौ थी \\ २ 1} उसके पहिले एक पुत्र
हमा, उसका महाधर्मं नारः दखदिथा, उसयर् पिताका वात्सल्य परेन था । इसे वह सदा प्रसत्त रहता था, `
| दृसरीबार श्रुभकारी नामकः कन्या उत्पन्न हुई । यह कन्या भी गुणोंसे उक्छृष्ट एवमृशुम लक्षणोसे युक्त `
शौ।॥३॥ ४॥ पिता इस पुत्रीको भी वत्सलतासे आनंदित करता था । यह शुभकारी जपने पिताक्रे `
सामुद्रिक शास्त्रम जो शुभे लक्षण कहे ह उनरे सम्पच्च, करमें कमल चिह्लवाली ओर मधुरभाषिणी थौ । `
राजधानी चला गथा । ८ \1 बह राजकुमारी कुछदिन रहके भने पतिक घरमे पिताके घर चली भयौ
जानेके लिये उद्यत हौ प्रसन्नतासे; चारं (मधुर मन्द मन्द) हासकरने लगी सम्भ्रम हो गया, अयने `
| 1 उनके -चरणोमे प्रणाम करके प्राथेना कौ \\ १०1) कि है तात ! विधाताने जो कहा
घरमे सब अद्ध ओर गुणोसे सुन्दर एवं नाम ओर सुन्दरता से भौ सब लडक्रियोमे उल्छृष्ट थौ ॥\ ५।। | ध
. कौण्डिन्य नगरमे एक सुभित्र नामका राजा था ।! ६ \) सुमित्राका गुणवान् नामका पुत्रे ज्रुभकारीका `
पति हुभा, देहके मानसे गुणोसे शरेष्ठ था रूपवान् भौर लक्ष्मीवान् था ।} ७ ।। धमेनिष्ठ गुणवान्न राज `
सुताका विधिवत् पाणिग्रहण किया पौरे सयुरालसे बहुतसा पारिबहं (दहेज) केकर अपने पिताकी `
पी राजकुमार अपने ` कोण्डिन्यपुरवारे बास्धवोके साथ गोना कर्नेके लिये हस्तिनापुर आया}! ९} ` | |
इसको देखते हौ शुभकारी शुभराशिके नेत्र प्रेमं भानन्दसे पूणं होगये । फिर अपनेपितिके साथ कौण्डिन्य
पातित्रत्यके बराबर कोई धर्मं नहीं है, यह मे जान गई ।। ११ ।॥ उघीको पालन `
मे कौण्डिन जाती हं अतः आप प्रहृष्ट अन्तःकरणसे अनुमति दीजिषएजिसतेमे रथमें १.
(३१२) नि [ सप्तमी- |
प प प = (क (अ
स्थान नहीं मिला । अतः घूमती घूमती थक गयौ पर इीतलाजौका बासंवार स्मरण करती हुई जगे `
तावको खोजते खोजते फिरने लगी ।! १७ 1) उसने वहां एक बूढी सुन्दर स्त्री देलौ । जौ पूजन करानेके
लिये ब्राह्मण भेजा गयां था वहं न राजकूमारीके पास पहुंचा ओर न उस तकाव परही, कितु रस्तेमेही `
भटकता भटकता थक गया, अतः उसे नींद आगयौ ।! १८ ।1 उसके पास ब्राह्मणी बेठगयी । फिरक्सी `
दष्टसर्पने वहां एसा उसा कि, उससे वह वहाही उसीक्षण मरगया । इधर उस राजकुमारी शुभकारीसे `
उस वृद्धस्त्रीने दयद्रं होकर कहा ।। १९ 1 कि है राजकन्ये ! तुमारा भर्ता चिरंजीवी होगा तुम मेरे `
साथ पुजनके लिये आवो, में तुक्षे वह् तकाव दिखाती हूं ।। २० ॥। शुभकारी (ज्रुभराशि) उसके साथ `
` तलावपर गयौ, वहां पर प्रसन्च चित्त हीकर राजक्रुमारीने शीतलाजीका विधिवत् पूजन कियाएवम्
क्ञौतलाजौको संतुष्टमी किया ।। २१ ।। फिर क्ीतलदेवीने प्रसन्न हौ वर दिया, वर मिलनेषर अपने |
धरके स्तेकी ओर चलनेकी तैयारी कौ तब उसके कु दूर चलकर जंगलमें सर्के डंकसे सरा हृजा ब्राह्मणको
देखा ।। २२।। उसके पास उसकी ब्राह्मणी भी बारंबार ऊचे स्वरसे रोदन करती थौ । शीतलदेवीकी `
= प्रसन्नतासे जिसे सौभाग्य वर मिला है वह साध्वौ राजयुता श्भकारीने ।\ २३ \। उन तरण ब्राह्मण ओर `
ब्राह्मणीकी दशा देखती हई करुणस्वरसे रोती हुईं वारंवार शोच करने लगी \! २४ ।। पतिव्रता ब्राह्मणीने `
राजसुताको आदवासन देकर कहा कि, जबतक चिताचिन इस पतिके साथ हुताशनमे प्रविष्ट न हों तबतक `
तुम यहांही ठहरो, जावौ मत ठहरो ।। २५।। पतिके साथ हुताज्ञनमे भ्रवेश्ञ करनेसे स्वियोके लिपि स्वर्गसुख ।
होता है । ब्राह्मणीके बचन युन शुभकारी जर भी दयाविष्ट हो ।\ २६ ।। महान् (अटल) वैधव्य दुखको
भी विनष्ट करनेवाली भगवती शीतलदेवीका स्मरण करने ठगी । शीतलादेवी प्रसद्चतासे मन्दमन्दं | ।
मधुर हसती हुई वहं बर देने चली आई ।! २७11 ओर बोली कि, हे वत्से ! हे प्रियपुत्नि ! वर मांगो, `
है चार्हासिनी ! तुञ्ञे कौनसा दुःख उपस्थित हुआ है ? जिसको निटनेके लिये मेरा स्मरण किया |
यदि तुम इस ब्राह्मणीके दुःखसे दुःखित हो, तो शीतलाके ब्रतका पुण्यफल इसको देदो 11 २८। उस `
। पृण्यफलसे सपेका चिष दूर हीजाथगा, यह ज्लट अभी जीवित होकर प्रबुद्ध होवेगा । श्रीकृष्ण राजा युधि-
ण्ठिरसे कहु रहै हं कि शोतलाके इन वचनोंको सूनं उस राजकूमारीन दयावश्च ह अपने किये शीतलान्रेतके
पुण्यको उसे दे दिया ।\ \। २९ ।। उत पुण्यफलके मिलनेसे वह् ब्राह्मण जैसे कोई बहुत देरसे सोता हभा
जागता है वेसेही निर्विष हो त्वरित भ्रब् द्ध हौगया । एेसे पुष्यप्रभावको देखनेसे ब्राह्मणीके मनसे मी सीतला
ब्रत करनेका प्रेम उत्पन्च होगया ।! ३० ।} इससे प्रेम वश हो बराह्यणीने भी ज्ीतलाजीका पुजन किया ।
इसी बौच राजपुत्री शुभकारीके प्रेमसे अन्वेषण करता हज उसका पति गुणवान् भी वहां जरहा थाक
सास्ते ।। ३१ ।। उसे भी सर्पने डस लिया ओर बह पतित्रता राजसुता अपने संग उस वृद्धा शीतला `
` ओर दोनौको लिये आर्ही थी, कुछ हरर भगे पतिकोभी वहां उसीतरह भिरादेव वो ब्राह्मणीके साथ `
विललाप करने लगौ 1\ ३२ \1 तब शीतला वहां पघारके बोली कि, हे वत्से ! हे बर्वणिनि ! सुन्दरि ! `
. मेने पूवं जो कहा था उसे याद करो, शीतलाके ब्रतको जो स्त्री करती है, उसे वेधन्यका दुःख कमी भी `
नहीं होता \। ३३ ।\ इससे तुम विलाप मत करो, खडी हो घरमे सुप्त पुरषको जसे जगाया करते ह.
वसे ही इसे भी तुम खडी होकर स्वयं अपने हाथसते इसके हाथको पकड कर खडा करो । ओर हे भीर । `
व्रताति} हिन्दीटीकासहित `
१५५८०५८५
1 शि ॥ 2 (1
+ ५५
+ = निनि
बद्धा स्व्रीने यही फहा कि, एेखा ही हय \ फिर वहं अरन्तहित होगथौ । कोक वह् स्वयं अपनी इच्छसे
हपधारगकरनेषाली क्रीतखादेवी ही थीः न कि वृद्धा जर कोई ूसरोस्त्रीथी : एषे ज्लीतलादेवीकावर
मिलने बहु राजकुभ्यरी अपने पति ओर उन ब्राह्मण-ब्राह्मणौके साथ अपने पिताक घर चौ गई \\ ३९
क्लीतला देवीकत प्रसादका लाभकर विदववन्ा क्लीतलाके समहंण (पुजन ) करनसे जिसने समस्त जगत्के
आनन्दमद्धल प्राप्त क्ये हं एसी पवे्तीजीको भति पञ्चाकर कमलवन या लक्ष्मीसे पूणं लजानीको अपने |
` भवनों मेदिलासिनी हुई ।। ४० ।\ इति भ्रीभविष्ययुराणका शीतला न्त \। |
॥ ` मक्ताभरणसप्तमीव्रतम्
अथ भ्रश्युक्लसतन्तस्या नुक्ताभरणनत्रत्तम् हेमाद्रौ । सा, मथ्याहवन्यापिनौ ।
` सन्ततिपुत्रपौत्रवद्ये सुष्ताभरणदरेते उमामहेषरपूजनं करिष्ये इति संकल्प्य शिवाग्रे `
उजगदगरो ।। प्रतिषाड्तियाः सोम पजया पूजयाम्यहम् ।\ आवाहनम् ।। अनेक- `
ख
आसनम् \} वाद्यं गृहाण देवे सवेविद्यापरायण ।। ध्यानगम्य सतां शंभो सर्वेदवर `
नमोऽस्तु वे।। पाद्यम् ॥। इदसध्यमनघ्य त्वममराधीद्च शंकर । किकरी-
भतया सोमस दह्ंयहाण भीः ।। अध्यस् || गङ्खाहदि सवेतीथंभ्यः समानीतं
सुक्ीतलस् जलमाचमनीयाथे गृहाणेशोमया सह ।। आचमनीयम् ।! मध्वाज्य-
ग्राह्या ।1 तम्धाप्ताकव्याष्तौ वा परा ।। भम इह जन्मनि जन्मान्तरे वा अखण्डिति-
दोरक विस्यस्य शिं॑पजेयत् ।। अथं पूजा ~ देवदेव महेशान परमात्म- `
` रत्मदचितं सौवण मणिद्धय॒तम् \! स॒क्ताचितं महादेव गहाणासनमचतमम् । ` ।
। दधिसंमिधरं मधुना परिकल्पितम् ।। शंकरप्रीतये तेऽ्टं मधुपक निवेदये । मधु- `
परम् \\ पयोदधिवतं चैव शकंरामधुसंयुतम् । पञ्चामृतेन स्नपनं करोमि पर- `
मेदवर \। पञ्न्वाङतस्नानम् ।। ग्धा च यमुना चेव गोदावरी सरस्वती ।\ एताभ्य
आहृतं तोयं स्नना्थं प्रतिगृह्यताम् । शुद्धोदकस्नानम् ।। स्नानाहू््वं महादेव
प्रीत्या पापप्रणाशनः ।) वस्त्रयुग्मं मया दत्तमहतं प्रतिगृह्यताम् ।। वस्त्रम् । उप- `
` वीतं सोत्तसेयं नानाभषण भूषितम् ।! गहाण सोम विमलं मया दत्तमिदं जुभम् ।॥ `
। उपवीतम् ।\ यल्याचरसंभूतं सुगन्धि घनसारयुक् । चन्दनं पञ्चवदन गृहाण `
वनिताय॒त ।\ चन्दनम् ।। जातीचम्पकयुन्नागबकुलेः पारिजातकः \! शतपत्रैश्च `
कल्ारेरचेयेऽहमुमापत्तिम् ।। पुष्पाणि ।॥! त्रैलोक्यपावनानन्त परमात्मञ्जग- `
द्गुरो \\.
। चल्दनागुरुकप् रूप दास्यामि शंकरम् |, धपसं ।, लाभरषतियतं सिः । ५
वं गृहाण भोः ।! आचमनीयम् ।। कस्तूरिकासमायुक्तं मलयष्लसंभवम् ।¦
गृहाण चन्दनं सोम करोद्र्तनहेतवे ।। करोढतनम् ।\ नालिकंरफल जम्बृफलं नारि
गसुत्तमम् ।। कूष्माण्डं पुरतो भक्त्या कल्पितं प्रतिगृह्यताम् लम् ।। पुगी-
फलमिति ताम्बलम् ।। हिरण्यगभेति दक्षिणाम् ।। नीराजनम् ।। पुष्पाञ्जलिम्।) `
प्रदक्षिणाम् ।। नमस्कारान् ।। महादेव महाराज प्रीत्या पापं प्रणादा ।। अस्माक
कुर्वतां पूजां साधु वासाधुयोजिताम् ।! ज्ञानतोऽज्ञानतो वापि भवतो विहिता च
या \\ संपुणेयतु तां पूजां विद्रवेशो विमलो भवान् ।। इति प्राथना ।¦ देवदेव जग-
तराथ सर्वसौभाग्यदायक ।॥। गृहणीयां दोररू्पं त्वां पुत्रपौच्रप्रवदधनम् ।\ इति `
दोरकग्रहणम् ।। सप्तसामोपगीतं त्वं धारयामि जगद्गुरो \! सूत्रग्रन्थिस्थितं नित्यं
धारयामि स्थिरो भव ।। इति दोरकबन्धनम् ।। हर पापानि सर्वाणि तुष्टि कुर्
दयानिधे \, प्रसन्नः सन्नमाकान्त दीर्घायु ःपुत्रदो भव ।। इति जीणेदोरकोत्तारणम् ।॥ `
अथ वायनम्--मण्डकान्वेष्टकान्वाथ सघृतान्दल्लिणायुतान् ।। एकादशहातं कृत्वा
ब्राह्मणाय कुटुम्बिने ।। वेदश्ञास्त्रप्रवीणाय दद्यात्सोमस्य तुष्टये ।\ शंकर प्रति-
गृह्यत शंकरो वे ददाति च॑ ।। शंकरस्तारकोभाभ्यां शंकराय नसो नमः ।। इति |
वायनम् ।\ एवं या पूजनं कु्यत्सिमस्य सुखदस्य च ।! सर्वान्कामानवाप्नोति पुत्र- |
पौत्रश्च मोदते ।\ इति पूजा ।\ अथ कथा--श्रीकुष्ण उवाच ।! मुनीन्द्रो लोसक्ञो
नाम मथुरायां गतः पुरा ।। सोऽचितो वसुदेवेन देवक्या च युधिष्ठिर । १।
उपविष्टः कथाः पुण्याः कथयित्वा मनोरमाः ।।! ततः कथयितुं भयः कथामेतां
प्रचक्रमे ।। २।। कसेन तं हताः पुत्राः जाताजाताः पुनः पुनः।। मृतवत्सा देवकि
त्वं पृत्रदुःखेन दुःखिता ।\ ३ \\ यथा चन्द्रमुखी दीना बभूव नहुषभ्रिया ।\ पडचाच्ची
णेत्रता चेव बभूवामृतवत्सका ।! ४ \। त्वमपि देवकि तथा भविष्यसि न संशयः! _
देवक्युवाच ।। का सा चन्द्रमुखी ब्रह्यन्बभूव नहुषप्रिया ।\ ५।। ककि च चीरणं व्रतं `
पुण्यं तथा सन्ततिवधनम् ।। सपत्नीदपंदलनं सौभाग्यारोग्यदं विभो ।\ ६ ।
लोमज्ञ उवाच ।) अयोध्यायां पुरा राजा नहुषो नाम विश्ुतः ।। तस्यासीद्रुपसंपन्ना ५
देवी चन्द्रमुखी प्रिया ।\! ७ ।। तथा तस्यैव नगरे विष्णुगुप्तोऽभवदिवजः ।। आसीद्-
गुणवती तस्य पत्नौ भद्रमुखी तथा ।। ८ ।।! तयोरासीदतिप्रीतिः स्पृहणीया पर-
५१. ताः„ स्नात्वा { मण्डलं चकरुस्तन्मध्येऽव
रिव शान्त रम्
तानि ] | हिन्दीटीकासहित (३१५) ~ :
आर्याः क्िमेतत्क्रियते ¶कनाम बरतमीदक्षम् \! १२ ।। ता अचः शंकरोऽस्माधिः
पार्वत्या सह पूजितः ¦¦ बधुष्रा सूत्रमयं तन्तुं शिवस्थात्मा निवेदितः \\ १३ ।
धारणीथसिदं तावद्यावत्प्राणविधारणम् । सुक्ताभरणकं नाम व्रतं सन्तान- `
वर्धनम् ।। १४ ।\ अस्माभिः क्रियते सख्यौ सुखसौभाग्यदायकम् 1 तासां तद्वचनं `
श्रुत्वा सख्यौ ते चापि देवकि \। १५।। कृत्वा च समयं तत्र बधा दोर्भ्या सुप्रोरकम्\।
तसस्त््चं गृहं जग्मुः स्वसखलोभिः समावृताः \\ १६।। कालेन महता तस्यास्तद्ब्रतं
विस्मृतं शुभम् ।। चन््रमुख्याः प्रमत्ताया विस्मृतः स तु दोरकः ।\ १७ भद्र-
मुख्यास्तथा भद्रे विस्म॒तं स्वमेव तत् ।\ सते कंश्चिदहोराप्रैः सा बभूव प्लवद्धमी
॥ १८ ॥ भद्रास्या कुक्कुटी जाता ब्रतभङ्खाच्छृभानने ।1 संभूय भूयः समयं प्रक्कृतं
चक्रतुः सदा !\ १९ ॥। कालेन पञ्चतां प्राप्ते सखौभावात्सहैव ते ।। अदेवमातृके `
` देशने जाते गोकुलसंज्के \\ २० ।। ब्राह्मणी ब्राह्मणी जाता क्षत्रिया क्षत्रिया तथा ॥
रान्ना जाया बभवाथ पथ्वीनाथस्य वल्लभा ।। २१ ।। ईश्वरी नाम विख्याता
यासीच्चन्द्रमुली पुरौ ।! नाम्ना भद्रमुखी यासीद्मू षणानामं साभवत् ।\ २२ ५।
अग्निमीढस्य सा दत्ता पित्रा तस्य पुरोधसः । अतीव बह्लभा चासौद्भूषणा
भूषणभ्रिया भूषिता भूषणवरे रूपेणालकृता स्वयम् ।\ तस्यां बभूवुरष्टौ |
चपुत्राः सर्वगुणान्विताः ।\ २४ ॥ मातृवदूपसंपन्नाः पितृवदढमेशीलिनः । सस्यौ |
तें चैव तष्टच्व जाते जातिस्मरे किल ।! २५ ।। पुननिरन्तरा प्रीतिस्तयोरासीचथा- `
पुरा ।॥ काले बहुतिथे याते त्यकव्ताद्ञा त्यक्तयोवना । २६ ।1 मध्ये वयसि राज्ञी
सा पत्रमेकसज्ीजनत् ।। ईउवरी रोगिणं सक प्रज्ञाहीनं च विस्वरम् । २७ ।॥
ताद्शोऽपि महाभागे मतोऽसौ नववाषिकः 1। ततस्तां भूषणा व्रष्टुमीहवरी पुत्रदुः- |
सिताम् सखिभावादतिस्नेहात् पुत्रैः स्वे: परिवारिता ।! अमुक्ताभरणा
भद्रा स्वरूपेणैव भूषिता ।! २९।। (सा हि भद्रा दिजस्याभूद्भार्या भूषणनामिका ।। ^
पुरोहितस्य कालेन कुक्कुटौ बहूपुत्रिणी ) ।। तां दृष्टा तादृक्षौं भव्यां प्रजज्वाठेदवरी | ५
ति ।\ ३१।। निररिचत्य चेतसा करूरा घातयामास तत्सुतान् ।\
ततो गृह प्रेषयित्वा ब्राह्मणीं तीन्रमत्सरा ।। चिन्तयामाससाराज्ञी
[ सप्तमी
444 ~ -- णद ५.५. |
०
बतः ।। ३५ ॥ पुनः सा पापचित्ता स्वान् भृत्यानाहय यत्नतः ।। इस््रैः कृत्वाथ `
वा वनं गत्वा तैः साकं दृष्ट.
तानचे बधष्तेषां विधीयताम् ।। ३६ ।¦ ठवथेत्यदं
बुद्धयः ।। खज्ख स्तीक्ष्णनधं तषां कतुं ते पापवृत्तयः ।। ३७ ।। प्रहारान्निष्ठुरं चकुस्त-
तपुत्रा हृष्टमानसाः ।\ तेषां प्रहारास्तृणवज्जाता मातुः प्रभावतः ।! ३८ ॥ `
एवं राज्ञी बहुतरानुपाथान् कृतवत्यथ ।! हताहताच ते पुत्राः पुनर्जीवन्त्यना-
मथा: । ३९।। तद ततर दृष्ट्वा सखौमाहूुय भूषणाम् ।! उपवेहयासने शेष्ठे
बहुमानपुरःसरम् 11 ४० ।। अपृच्छद्विस्मयाविष्टा राज्ञी सा मृतवत्सका ।। ब्रूहि
तथ्यं महाभागे कि त्वया सुकृतं कृतम् ।। ४९१९ ।\ दानं व्रतं तपो वापि शश्चषण-
मुपौषणन् ।। येन ते निहताः पुत्राः पुनर्जीवन्त्यनामयाः ।} ४२ ।। तथा हि बहपुत्रा ।
च जीवदरत्सा शुभानने ।। जमुक्ताभरणा नित्यं भर्तृश्चेतस्यवस्थिता ।।! ४३ ॥। ^
अतौव शोभसे भद्रे विद्युदधरमत्यये यथा ।। भषणोवाच ।। ग्युणदेवि प्रवक्ष्यामि
जन्मान्तरविचेष्टितम् ।। ४४ ।। कि तद्धि विस्मतं सर्वमयोध्यायां कृतं हियत्\॥ `
आवाभ्या व्रतककल्य प्रमनत्ताभ्या वरानने ।। ४५ ।। येन त्वं प्लवगी जाता जाताहं `
कुक्कुटी तथा ।। तथापि त्रतवेकल्यं त्वया चापल्यलः कृतम् ।! ४६ ।\ मया तु `
` स्वभावेन चेतसाध्याय शंकरम् ।। ति्यग्योन्यन्तापेन भनोवस्या ह्यनुष्ठितम्
॥ ४७ ॥ एतद्धि कारणं शद्रे नान्यत्किचित्करोम्यहम् ।। लोम
उवाच ।। इत्याकण्य वचः स्मृत्वा पूवेजन्मविचेष्टिम् ।। ४८ ।! ईहवरी च तया
साद पुनः सम्यक् चकार ह ॥। व्रतस्यास्य प्रभावेण पुत्रपौत्रादिसंभवम् ।। ४९ ॥
भुक्त्वा तु सौख्यमतुलं सृता शिवपुरं गता ।। तस्मात्वमपि कल्याणि ब्रतमेतत्समा-
चर ।। ५० ।। आरभ्धेऽर्मिन्त्रते दिव्ये जीवत्पुत्रा भविष्यसि ।। देवक्य॒वः
ब्रह्मन्नास्याहि मे सम्य्त्रतमेतत्सुखप्रदम्
द्धृद्रा करे गुणम् ।। ५३ ।। यावज्जीवं मयात्मा तु शिवस्य विनिवेदितः।!इत्येवं
समय कत्वा ततःप्रभृति दोरकम्
व्रतानि] हिन्दीटीकासहित
त 4 प ८४8 ४ ए
न 4 11.46 9 व 4.11 0 0 ४
४ +: अ < 0 11.
नि मि कि मोतो न मना [1
क्तिः ।। ५७ ।\ ताख्रवात्रोपरि स्थाप्य ब्राह्मणाय निवेदयेत् ।\ आचार्याय विक्ेषेण `
सुवण॑स्थागुलोयकम् ।\ ५८ ।। पुष्यकुकुमसिन्दूरताम्बूलाञ्जनूत्रकेः \। सुवासिनीं
पजथेच्च त्रतसंपूतिहेतवे ।\ ५९ ।! सहाथ तृतीया । एवं तत्पारयित्वा तु व्रतं
सन्ततिवद्धेनम् ।। सथचापविनिमुक्ता भुक्त्वा सौख्यमनामयम् \} ६० ।¦ सन्तानं
वद्यित्वा च शिवलोके महीयते ।\ एतच स्ेमाख्यातमाख्यानसहितं बतम्
1 ६१ ॥) दुह देवकि यत्नेन जीवल्ुत्रा भविष्यसि ॥। छस्ण 1 इत्युक्त्वा तु
मूनिशवेष्ठस्तत्रैवान्तरधीयत \\ ६२ ।\ चकार सर्वं यत्तेन यदुक्तं तेन धीमता ॥
व्रतस्यास्य प्रभावेण देवकी सामजीजनत् ।! ६३ ।। तस्मात्पार्थ नरः कायं स्त्रीभिः
कायं विक्षेषतः । व्रतं पापप्रद्यमनं सुखसन्ततिवद्धेनत् ।\ ६४ \। इदं यः श्युणुयाडू-
क्त्या यश्ष्चतखतिषादयेत् ।! व्रतसाख्यानसहितं सोऽपि पापः प्रमुच्यते ।! ६५ ॥
आस्यानकं व्रतमिदं सुखमोक्षकामा या स्त्री चरिष्यति शिवं हृदये निधाय
दुःखं विहाय बहुशो गतकल्मषोघा सा स्त्री तरता दूवति शोभनजीववत्सा ।\६६
इति हेमाद्रौ भविष्ये मुक्ताभरणसप्तमीव्रतं संपु्णम् ।\
६ अब भविष्यपुराणके प्रमाणसे हिमाद्रिनं निरूपित मुक्ताभरण त्रत माद्रलुक्छसप्वभीमं होताहै
इसमें मध्याह्वव्यापिनीका ग्रहण होता है । यदि दोनों दिन मध्याह्व्यापिनी हौ अथवा दोनोही दितन
होतो पराका ग्रहृण होता है \\ ओं तत्वत् ३ अदैतस्य' इत्यादि वाक्यारा देश, काल ओर गोत्र नामाद्किा `
उल्लेखं करके मम" इत्यादि मृलोक्तवाव्यको बोले जौर संकल्प करे । दशका यह अर्थ है किमे अवने
इस जन्म जौर जन्मान्दरमें अखण्डित सन्तति (कुल) वाले पूत्रपौत्रोकी वृद्धिके छिये मृुक्ताभरण व्रत्कौ
“ सम्पूतिके निमित्त उमामहेश्वर (पार्वतीञंकर) भमवान्का पुजन करूगी । फिर महदेवीजीको मूके `
` । या महादेवजीकी लिद्धम्तिके अग्रभागमें दोरक र्ंकर उनकौ पजा करे । जव पूजाविधि कहते हहे
देवक मी देव! हे महेशान ! हे परमात्मन् ! है जगद्गुरो ! है सोम यानी पार्वत सहित सदा रहने = `
` वाले { मे श्ास्त्रकारोसे प्रतिपादित पुजा विधिके अनुसार पुजन करतीहूं, इससे आप यहां पघारे इससे = `
मावाहन करे \ फिर आसन समर्पण करता हृभा कहे कि, बहुविधरत्नोसे खचित, सुवणत गढ़ाकर तैयार `
किया हया, मणियोे शोभायमान ओर मुक्ताओंसे चारों ओर व्याप्त यह् आपके विराजमान होनेके न
ल्य उचित आसन है \ हे महादेवजी महाराज ! आय इसे पर विराजमान हों । पाद्य देती हई प्रा्थना = `
करे कि, हे देवेश ! हे समस्त विद्याजोके परायण ! परमाधार ! है सज्जनोको ध्यानसे प्राप्त होने |
लायक ! है सर्वेश्वर 1. आपके लिये प्रणाम हे, आप पा ग्रहण कीलिथे। इदभर्ष्यम्' इससे अष्यंदानकरे `
कि है अन्यं (परममहनीय) 1 हे देवतामओके अधी । हे संकर ! भोः पावती सहित ! मने आपकी
दासीके बराबर हो आपके लिये यह अघ्यं दिया है, जप दते स्वीकार करें । ङ्काऽऽदि' कहती जाचमन =
के, है ईश्च ! आय उमासहित इस जलसे आचमन् कौलिये, यह जापको आचमन करनेके ल्यि. .
पुण्य तीस शीतल जल लायी हूं 1 मधुपक देती हयी (सध्वाज्य' इसको कहे किरहै
चत ओर दणि थे हुए मधुपकेको
सेने आपको स्नान कराकर ये दो जहत वस्त्र आपके सम्पण किये हँ; जप ग्रहण कौलिये ¦ यज्ञोपवीत `
= चडाती हई कहे कि, है पावतीजीके साथ विहार करमेवाकते ! मेने नानारस्नोसे भूषित उत्तरीय ओर
शद्ध यज्ञोववीत समर्पण फिये हं \ जाप ग्रहण कीजिये । चन्दन चडढावे जौर कहि कि, सुगन्धित कषुर्के साथ |
धिसे हुए इस चन्दनको हे पञ्चानन { आप पावती सहित ग्रहण करे । इसमे पुष्प चवे कि, हे प्रभो ! `
मे पावंतीपति आपका पूजन जाती, चस्पक, पुश्ाग, बकुल, पारिजते (हार श्युङ्कार), शतपत्र ओर्
कल्हारोसे करती हं । श्रेलोक्ययावना' इससे धृष करे । मौर कहे कि, है चरिलोकीक्तो पविभ्र करनेवाले | `
ह अनन्त ! है परमात्मन् ! है जगद्मुरो { भें चन्दन, अगर ओर कपुर आदि सुगन्धित पदेति तैयार `
की हुई इस शंकरी (आनन्द करवेवाली ) धूपको करती हुं । शुमर्वति' इससे दीयक करे ¦ इसका यह् अथं `
है कि, अनेक सु्यंकी जो म्तियां हं उनकी कलावालं प्रज्वलित घृत वत्ति युद्धं इस दीयकको स्वीकार करे। ` |
“पायसा इन दी भन्तरोको पठकर नैवेद्य निवेदित करे कि, पायस, अवुप, कृसर (दुर्ध तंयारक्ि =
हा गुडमिधितं मत) ओर छः रसवाटे अमृतसभ दिव्य अल्मफिक एवं दधि, दुग्ये जौर घुवथुक्त यह् ` ।
नैवेद्य मेने अपके लिये तैयार किया है । मं जापकी सेवा करनेवाली हं । है देव ! जापश्णंकर है; अष्कि |
लिये इनका समपंण करती हुं । 'ुनराचमनम्' इससे आ्यलन कराती हई कहे कि मो सोम ! (पावती ।
तंकर ) मुखेको शुद्धी करनेवाला यह जल मं लायी हु, कृपया जाप लीजिये, ओर इस जलसे भोजनोत्तर-
कालिक आचमन कीजिये । कस्तूरिका" इससे करोटत्तंन करावे ओर कहे कि, आप अपने करोहत्तेनाथं |
कस्तुरी भिधित सल्यागिरिके धिसे चन्दनको छौजिये । नालिकेर' इससे फलार्पण करे 1 धगीफलं महु-
दिव्यम्" इस सन्त्रे ताम्बूल चढावें !हिरण्यगभेग्भस्थस् इस सन्त्रसे दक्षिणा चदव । प्राथेना करे । फिर `
नीराजन करके पुष्पाञ्जलि ससर्पण एवं प्रदक्षिणा करे, बारबार प्रणाम करे । पौषे महादेव", इनदो |
मन्त्रि प्रार्थना करे कि, हे महाराज ! हे महादेव ! हम आपकी प्रीत्तिसे साधु या अदश् जोभी कुक
युजा करनेवाखे हँ इन सबके पापोको स्वधा नष्ट कीजिये \ जान या अनजानसे जो आपका पुजा अनुष्ठान
किया है वहू यथाय किये हृएकी माति पणं हो एसी अप॒ हमयर अनुकम्पा करे. क्योकि, अप शुढहं
ओर च्रिलोकीके प्रभ हं । देवदेव" इससे डोरा अपने शये हाथमे बाधनेके लि कवे कि, हे देवदेव ! है
जगन्नाथं | हे सबको सौभाग्य सुख देनेवाले ! पुज्रपौत्रादि देनेवाले ! अपके डोरेवालटी मूतिको सदक्े
ल्य हाथमे घारण करती हुं । 'सप्तसासोप०' इससे उसे. बाधे । इसका यह अथं है कि, हे जगद्गुरो !
सुत्रकौ ग्रन्थियोमे स्थित आपके इस स्वरूपको सात सामभौ स्तवन कियाकरते है, मे इसौको हाथमे नित्य `
धारण करती हूं \ माप इसी सूत्रकौ ग्रन्थियोमें विराजमान रहं । हर पापानि" इससे जीणं डोरेको खोलकर
किसी पवित्र जलाश्यादिकंमे छोड देकिः हे दयाके निधान! अण्व मेरे सव पोको हरो, मुक्चपर सन्तुष्टता `
, “ | प्रग करें! हे पा्वे्तीपते ! भाप प्रसन्न होकर मनने एसे एसे पुत्र दीजिये, जो दीर्घायु ओर प्रभावक्ारीहो)
` फिर वायना दे! इसकौ यह विधि है कि, घीके सण्डक (मालमुरा) अथवा वेष्टक जलेवियां ग्यारहसौ `
` इकट्ठी करके दक्षिणा सहित किसी कुटुम्बी, केदशयास्तके वेत्ता ब्राह्मणके लिये वान करे ओर प्रा्थनाकरे
कि, अनेन बाणकदानेन सोमः शंकरः प्रीयताम्" यह जो भने कुटुम्बी ब्राह्मणके लिये बायना दियाहै, `
इससे पाव॑तो सहित श्षंकर भगवान् व्रसच्च हों । वेने भौर लेनेवारे शंकर भगवान है । वो ही हम तुभ सोनोको
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1. 1 4 1 (4: ध य
ब्रत किया । उसके करनसे जंसे उसके पुच्र नहीं मरे इससे वो अमृतवत्सा हो सुखियारीहो मयी \॥ ४।॥ `
वैतेहीयदितुममभी त्रतको करोगौ तो तुम्हारे पुत्र भी अमूत रुगे । उन्हं कोई भी नहीं भार सक्षेगा ।
यह् संक्षय करनेवाला कथन नहीं ह \ देवकौजी बोली कि हे ब्रह्मन् ! बह नहुष एवं उसकी प्यारी कौन
चन्द्रमुखी थी ? \\ ५ \। उसनं कौन सा पवित्र ब्रत किया था जिससे पुत्रसुख होताहै । हे विभो! अप
उसको कहं जो सपत्निथोके दपेको न्त करनेवाला है सौभाग्य एवम् आरोग्यका दानकरनेवाला है 1६1} =
लोमक्षमुनि लोर किः अयोध्यापुरीमें परमविख्यात एक नहुष राजा हृ था, उसकी प्यारीसुन्दर
चद्धप्खी मुख्य रानी थी \\ ७।। उसकी राजधानीमं एक विष्ण गृष्त नामका ब्राह्मण रहता था । उसके
| द्ये स्तिया थीं एकका नाम गुणवती एवं दरूसरो का नाम भद्रमुखौ था} ८! इन दोनोका जंसे समलियों ` |
का परस्परम वैमनस्य रहता है वेसा नहीं था, किन्तु बहुत ही प्रशंसनीय प्रेम था । वे दोनों सवियोकी |
भरति स्नान करनेको सरयू तटपर गयीं \\ ९ ।! उस समय वहां जौर भी बहुतसौ स्त्रियां स्नानकेल्यि = `
आ गौ । उन सब स्त्रिथोनि स्नान करके सरयूके कलपर ही मंडल बनाया । उस मंडक्के बीच पवेत
सहित अव्यक्तात्मा तथा चान्त जकर का महदेवीके स्वरूप लिखकर गन्ध पुष्प ओर अक्षतादिजो
पूना सामग्री लायी थीं उससे यथाविधि प्रेमपूवंक पुजन किया ।। १० ।। ११ \\ फिर प्रणामकर जब वे 1
अपने घरकी ओर जानेको तैयार हई तो उन्हुं गुणवती जर भग्रमुखी ब्राह्मणियोने पुछा कि, हे आर्यभिो ।
यह् तुमने क्या किया ? एसे त्रतक क्या नास है क्था माहात्म्य है ! ।। १२।। उन स्त्ियोने कहा कि,
। हमने पार्वती ओर महेवर इन दोनोका यह पुजन क्रिया है. इस डोम बे स्वयं रहते हें; अतः हमने इसे
। अपने हाथमे बाघ अपनेको शंकरके भेट कर दिया है \ १३। यह् डोरा जब तक प्राण रह तबतक
। ` धारण करना चाहिये । इस व्रतका नाम मुक्ताभरण है इसके करनेसे सन्तान सुख बढ़ता है \। १४ ।। है
। : स्हैलियो ! हम इस व्रतको प्रतिवषं किया करती हे; क्योकि यह् सुख ओर सौभाग्यका देनेवाला हे ।
लोमङमुनि बोले कि है देवकि ! उन स्त्रियोके इन कचनोको सुनकर उन्न दोनों ब्राह्मणियोने भी संकल्प
` करके! १५) व्रत किया ओर वैसे ही पूजन कर अपनी भूजाओमें वैसे ही डोरे बांध अपने घरकौ राह
ली ओर सब स्त्रियाँ सहेलियोके साथ अपने अपने घरकी ओर वापिस चरौ आर्यो ।\ १६ ।। पी नहत
समय बौतनेपर रानी चन््रमुखीको वह् त्रत करना याद न रहा, वयोकि वहं राजसम्पत्तिके सुखसे प्रमत्त श. ८
गयीथौ।हेभद्रे ! जो उस चन््रमुलीकी बाहुमे डोर्बेधा हमा था वह भी उसके प्रमादसे कहीं गिर गया
५१७॥। जैसे रानी चनदरमुखीका डरा गिर गया ओर ब्रत करने कौ याद नहीं रही वैते हीह!
भेद्रमुखौ ब्राह्मणीको भौ ब्रतकी याद नहं रही बरत करनेका जो नियम किया था डोरेको जीवनपयस्त्
धारण करनेकी जो प्रतिज्ञा की थौ वे सब भद्रमुलीकी विस्मृत हो गये । फिर कुछ दिन बीतनेपर चन्द्रमुखी
भरकर बांदरी बनी ।। १८ ॥। हे शुभानने ! ब्रतभङ्ग करनेके दोषसे भद्रमुखी कुक्कुटी हौ । पर पहिल |
` जन्मके किये हुएको याद करके साथ करती रहीं यानी उन दोनोके वानर मौर कुक्कुटकौ योनि जन्म॒ = `
केनेपर भी पहिले जो ब्रत किया था उस पुष्यके प्रभावसे पूवेवुत्तान्त विस्मृत नहीं हंभा, सरे जन्ममं भा
स्मरण होगया कि, हमारे प्रमादसे यह अनथ हो गया है, इससे हम इन योनियोमे पडी हैँ । इसप्रकार `
यादगारी होनेसे दे दोनों उस दोषकी निवृत्ति करनेकी चेष्टा करतो हृयीभौ कुन कर सकी, केवल न ८
ण ॥
५, ४ 4 ;
( २ ए वि ॥ ॥ तमी र + 04
८ + ९ (9 ए ¢ येम { ५
म न प "0 4. 1110
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मतन जेः
गण सम्पन्न आठ पुत्र हुये \। २४ ।। जौ अपनी साताके समान सुन्दर ओर पितके समान धस्वनिष्ठ हषे! ॥
इन दोनों रानी ईश्वरी ओर ब्राह्मणी (भूषणा) को इस जन्मे मी पूर्वजन्मोका स्थरणरहा, इससे ये दोनों `
सहेलियां रहीं ।! २५ ।। इन्होका पारस्परिक प्रेमभी संदा अटल बना रहा, जसा कि, पहले ति््यगृयोनिमे |
भा । बहुत समय वीतनेपर मध्यमावरस्थासे भी जब ईदवरीके कोई पुत्र नहीं हुमा तो इसमे सन्तान होनेकौ `
आज्ञा छोड दी \ यौवन भी उच्चका गिरगया । पीर ईश्वरीके एक पुत्रहुज । वहम सद रोग्वीडित भक
ओर म्ढ विस्वर था \! २६ \\ \ २७ \! हे महाभगे ! रेस भी नव वर्षका होतेह मर गथा ! इसके `
बाद पुत्रके अभावे दुखित ईशवरीको देखने के लिये \! २८ ।। इखित हुड भूषणा सलीभावक्े कस्म
तथा अतिप्रेमके कारण समदेदना प्रकटकरने अपने पुत्रको साथ लेकर चली आई । मषणाने उस मय
मोतियोके आभूषण नह धारण कर रखे थे, रूप ही इसका एसा सुन्दर था जिससे बहुत मनोरम `
दीखतीथीया यह् भावभी है कि, सखीके दुःखके समयमे भी आभरण नहीं स्यामे ओर स्वभावतेभी
भमरणीययथौ}) २९) (नौर इस प्रसङ्धम साहि भद्रा" यहं इलोक मलपुस्तकोपं प्रायः मिखताहि, पर 4
म्रक्षिप्त, एवं ग्रन्थक पूर्वेपिर कथनको दूषित करता है । अतः परित्याज्य ह ¦ उसका अर्थं यह्हैक्ि,जो
भद्रा पूरव॑जन्ममं सुरगी थौ उसीका दुसरे जन्ममे ब्राह्मणकुलमें जन्म लेनेपर पुरोहितसेसे विवह हुमा!
इसका नाम भूषणा हृजा ।! यह बहृतसे पुत्रोवालो थी} ईदवरौ अपने समयश उत्त सूषणको देखकर
कोधसे भीतर ही भीतर प्रज्वलित हौ गयी 1} ३० ।। कोधक्षे ही उक्ते अपने घरको खोरनानेकेलियि
कहकर उस भूषणाके पुत्रोके मरानेका बिचार करने लगी ।। २१ ।। दुष्टात्मा ईदवरीने उसके पुत्रको |
मरानेका दृढ निश्चयकरके उसके पुर्रोको मरवाया । किसी दिनउनको अपने महलमें बल्वाकर \ ३२॥
. भोजनके बहाने जलल विष मिला दिया } मूषणाके पत्र मोजनकर प्रसचधुखहुए अपने घरको लौटञाये |
\१ ३३ ॥ भूषणाने इस जन्मभे पूवं परिज्ञात सुक्तामरण ब्रतका परिस्याग हौं किया था, अतः सातक्कि |
_ ब्रतराजके प्रभावसे वे मृत्थुको प्रप्त नहीं हुए । फिर उसने यमुनाके हदको भिजकायः 11 ३४1) रानीके |
सिखाये नीच नौकर बालकोको यमुना जीके जलम टकते घे, पर उनकी माते किए हये ब्रते प्रभावे `
. यमुनाजीका जल उन बाखकोके जानुके बराबर होगया ।\ ३५ ।\ फिर उदके मनम उनके मरानेकी आई,
। भ्रयत्तके साथ जपने विश्वासी नौकरोको बुलाकर कहाकि शस्त्रोसे उनका बध कर डालो) ३६ ।। नौकर |
इबृंद्धिथे ही; ज्षट कह दिया कि, जच्छी बात है मार देगे, फिर वे मारनेके हरादेवले पैनी तल्वारोसे
. उन्हं मारनेके लिए उनके साथ बन जाकर ।। ३७ ।। निष्टुर प्रहार करने लगे \ पर वे पुत्र प्रस्ही रहै।
माताके प्रभावसे वे प्रहार तिनकाके बरावर हौ गमे \। ३८ \\ इस प्रकार रानीने उन पुत्रो को मरवानेके 1
लिगु बड़े २ उपाय किएु परन्तु वे बाचक फिर जिन्दे हनति थे मौर कोई कष्ट भी उन्हं नहीं होता |,
भा।। ३९ ।) इस आहच्थेको देख उसने अयनी भषण सली बजाई आर बहुमान पवक श्रेष्ठ आसनपर
` बिढा।। ४० ॥। पूछने लगी; क्योकि इसके सनम भारी विस्मय था, इसके बालक मारनेवरभी जिन्दे |
रहते थे, तथा अपने बालक जिलानेकी कोलिन्ञ करनेषर भी नहीं जिये घे 1 हे महाभागे! जवने कौनसा |
सुङ्ृत किया है ! यथाथ रूपसे किये । ४१ ।। एसा कोई दान, त्रत, तय, शुधूषण भौर उपोषण है
॥ 9,
{जिससे अगे पत्र मरेभी जी जाते हे एवम् उन्हं को कष्टभी नहीं होता ।। ४२ ।\ हे शुभानने ! तेरे:
य ब = =
व्रतानि (न हिन्दीरीकासहित | ५ (३२१).
ओर उस जन्मे भी शंकर भगवान्का यथार्थं पुजन नकर सकनेका अनुताप प्रकट किया था 11 ४७।। `
ओर कुमी बेरेहस शरुखसम्यत्तिकौ स्थिरतामे कारणवहीं है।टोमक्ञसुनि बोरेकि इस प्रकार जब
¦ भूषणाने कटा, उनबचनोसे इदव रौनेऽपने पूर्वंजन्मकी चेष्टाका स्मरणकिवा ।\४८।। ईडवरीने भूष- `
णाके साथ विधिवत् भुक्ताभरणत्रत किया ! उसके प्रभावसे उसकेभी बहुतसे पुत्र पौत्र होगए । ४९ \।
उनके अतुल सुखे भोग मरके कैलाश पंच गई ! इसलिए है कल्याणि ! तुमभी इस व्रतो कले `
` ॥ ५० ॥ इस दिव्यत्रतके करनेशचे ठुमारेभी पुत्र जीते रहगे । देवकी बोली कि, है बह्यन् ! तुमडइसं
संखकारी शंकर भगवान्के व्रतका निरूपण करो ।। ५१ ।\ निर व्रतके करने पुत्र पौत्रादि सन्तान सुख
= ^ ओर कंलासका निवास सिकता है ! लोसशमुनि बोरे कि हे सदर! भादवा (सुदि) सन्तमीकेदिन जलशयमं |
५२ ।¦ स्नान करके कृरयर एक् मण्डल छिखे । उसके मध्यमे पार्वती मौर महादेवजी इन दोनोके =
आकारा उल्छेष्व करे । फिर स्थापना करे ! भवतस सम्यक् पजा करे, नियम करके अपने हाथमे डोर
५ ६५
धारण करे ।। ५३ ।। नियम यह् करना चाहिये कि, सने जीवन पय्येन्त जपनौ अत्माको महदेवजीके
अर्पण करदिया है, इसप्रकार प्रतिज्ञा करङे उसी समयसे \। ५४ \) डोरेको चाहते वो बुवर्णकाहौ चांदीक्षा
५ होया सूतक ही हो; पार्वतीक्ंशर स्वल्प समन्नती हृदं हाथमे धारण करे । फिर प्रतिमासं या प्रतिपक्ष ५
` अथवा प्र्िवषं सष्ठमोके दिन ण्डक ओर केष्टकोका { सालपृए ओर जलेवियोका ) दानि करे | ५५
आपभौ उवह मण्डलकं वेष्टकोका भोजन करे । हे बभे ! अन्यथा ब्रत्त भंग होता है प्रतिपक्ष यह् त्रत
, करन। चाहिये, कितु शुक्लयक्षमे सप्तमी के दिनं इस व्रेतक्तो अवश्य करे \॥। ५६! ह भेदे देवकि ! वषं
। बीतनेषर ब्रव अन्तमं पारणाके सभय अपनी शक्ति अनुप सुवर्णं या रजतकौ अंगूठी अनवा 1! ५७11
| उक्षे तामडीमं धर ब्राह्मणे लिये यदि सम्भर हो तो आचके लिये सुवणेकी ही अगूढ समर्पण करे
। ॥५८ ।\ उसे अंगृूढीके साथ पुष्प, कुंकुम, सिन्दूर, ताम्बूल, अञ्जन ओर सुवं चान्दी या सुते डोरेका
इनि करना चाद्ये । ब्रतक्छी पु्िके लिये चुवासिनीको भी पुजना चाहिये ।\ ५९1) जोस्त्री इसं पुदोक्ति
: विधिसे सन्तति सुखके बढानेवाके इश सुक्तारभण नामक व्रतको करती है वह् सव्र बातोसे निर्मुक्त होकर
निष्कण्टक सौभाग्यसुखके राञ्यको भोगदी है ।। ६० ।। इध लोकम सन्तानकी वृद्धिकेआनन्दका लाभ
करती हैं ओर पररोकमें महषदेवजोके पदमे प्रतिष्ठा प्राप्त करती है । देते मैने यह सव कथा तया विधि
समेत न्रःका माहात्म्य तु्हारे सम्म खं वर्णन किया 1} ६१।। अब है देवकि ! तुम विधिवत् इस सुक्ताभरण `
| ब्रतको करो जिससे जीवत्पुत्र। हो जाजोगी । शरकृष्णचन््र ( राना युधिष्ठिरे } बोले किं ह राजन् { |
1 ` भूनिषर जोमस्च महात्मा इतना कहकर बहांही अन्तर्धान हो गये ।1 ६२ ।\ निस विधि सेक्रतकरने केलि |
। | बहात्मा लोमश्षम॒निने कहा था तदनृसारही हमारी माता देवकीजीने यह ब्रत किया । उस व्रते प्रभव्रे से
देवकीजोके हस पुत्र चिराथु हृए 11 ६३ ।। है पार्थं ! इससे यहं त्रत पुरषो ओर विशेष करकेस्वरिथो क = (
करना चाहिये । यहं पापोका विना्चक ओर सुख एवं सन्तानका बढानेवाला है 1 ६४। जो भव्तित्े
इसव्रतको करता है एवं जो दसं ब्र्को करनेका उपदे करता है कथा सुनाताहै ओर विधिबताता है `
` बह भी सब पापम छट जाता हे \\ ६५.1\ हिक एवं पारलौकिक सुखं भौर सक्ष॒ पदकी कामना रखती =
` हृद जो स्त्री अन्तःकरणमें महेश्वर भगवानृक ध्यान धर इस ब्रतको करके कथाका भवण करतीहै, वह॒ `
पववाली अवदयही होती है ॥ ९६
|. मीके दिन उसकी साखा रे आनी चाहिये । पू्वाषादायुक्त अष्टमीको पूजा होम ओर व्रत आदि करने चाहिये!
। उत्तराषाढासेथुक्त नवमीको शिवाका पूजनं करना चाहिये । श्रवणयुक्त दशमीके दिन प्रणाम करके विसर्जन `
कर देना चाहिये । कालिका पृुराणमें लिखा हुमा है कि षष्ठीको बिल्व शाखा ओर फलोमे देवीका बोधनं
॥ | | । करे एवम् सातेके दिन विल्वराखाको खाको घरपर लाकर उसका पूजन कर्ने चाहिय । फिर अष्टमीफे दिन विक्षेष ॥ ५ ८
केरे पूजा करे । उसी महानिशामें जागरण ओर वक्दान भी होना चाहिये एवम् नवमीको विशेष करके
( २९१ ) द । ५ त्रतराजं शि | [ सप्तमी |
वितल्वजाखा प्रवेद पुजनादि-आदिवन शुक्ला सप्तमीको बिल्वं शाखाका प्रवेश ओर पुजनादिक `
होते हं । इसमे उदयव्यापिनी सप्तमी लेनी चाहिये । क्योकि, भरताप माण्ड भें भविष्य पुराण का वचनहै
कि य् गादि तिथि, वक्षवृद्धि ओर पावती प्यारी सप्तमी ये सूयेके उदयक प्रतीक्षा करतीहं । इनमेतिथियो कौ
युग्सता नहीं होती यानी कथितयुग्धवाक्य से प्रथम नहीं कनी चाहिये । केवकं उदय कालम सप्तमी का `
योगी देखना चाहिये । वषेवद्धि जन्मतिथिको कहते है \! ।
| सरस्वतीपूजाविधि न
तत्रव मृलनक्षत्रे पुस्तकस्थापनमुक्तं सद्रयामल--मूलऋछषक्षे सुराधीड पुज-
नीया सरस्वती ।। पूजयेत्प्रत्यहं देव यावद्रेष्णवमक्षकम् ।। नाध्यापयेचच च ल्खिन्ना-
धीयीत कदाचन ।। पुस्तकं स्थापिते देव विद्याकामो द्विजोत्तमः ।॥। अहं भद्राच `
भद्राहुनावयोरन्तरं क्वचित् \\ सव॑र्सिद्ध प्रदास्यामि भद्रायां हयाचतास्म्यहम् ॥
संग्रहे-आशविनस्य सिते पक्षे मेधानाम सरस्वतौ ।\ मूलेनावाहयेदहेवीं श्रवणेन
विजयेत् ।। इति सरस्वतीपजनसम् ।, |
सरस्वती पुजन-इसी सप्तमीको कहा है कि इसी दिन मूल नक्षत्रमे पुस्तकों को देवता कौ तरह ४
स्थापित करे । यहु रुद्रयामल में लिखा हज है कि, हे सुराधीश ! मूल नक्षत्रम सरस्वतीका आवाहन `
कर उस रोजसे श्रवण नक्षत्रतक बराबर पुजन होना चाहिये । इसमें पढना पडाना ओर च्विना तीनों हौ
काम केभीभी न करने चाहिये । विद्याकामी द्विजको चाहिये कि पुस्तकोको स्थापित करके पूजन करे ।
सरस्वतीजौ कहती हं कि मे भद्रा जौर भद्रा मेरा स्वरूप है । हम दोनोमे कु भी अन्तर नहीं है । मद्रास ८
पुजित हुई मं सब सिद्धियोको देती हूं । संग्रह ग्रन्थमे छिखा हुमा है कि, आदिवन शुक्ला सप्तमीको मेधा `
नामको सरस्वतीका पुजन होता है । मूलम आवाहन जौर श्रवणमें विसर्जन करना चाहिये । यह श्रीसर-
` स्वतीजी का पुजन पुरा हुआ ॥। ४:
पोता ७७ १ त १
॑ १ इस विषयपर कुछ निणेयसिन्धुसे आवद्यकीय उद्धृत करते है गौड निबन्ध म्रन्थमें देवी पुरा-
णसे कहा गया है कि, ज्येष्ठानक्षत्र युक्त षष्टीके दिन सामको बिल्वको नौता दे आना; तथा मल्युक्ता सप्त-
बलिदान करना चाहिये । दशमीके दिन शरदकारके उत्सव जो धृूछि ओौर कीचके पटकने हँ उनसे तथा क्रीडा `
कौतुक ओर मण्डलोसे विसर्जन कर देना चाहिये । यहां सब जगह तिथि ओर नक्षत्रके योगका आदर मुख्य
नक्षत्रके अभावमे तिथिका ही ग्रहृण कर रेना चाहिये; क्योकि, विद्यापतिने रिखितके वचनसे कहा है
अथं रथसप्तमीव्रतम्
` दानाभ्यामायुरारोग्यसंपदः ।\ दिनद्वये अर्णोदन्यापित्वे पूर्वेव ।! एतद्विधिस्तु
थास््वं दत्वा श्लिरसि दीपकम् ।। तथा जलं प्रक्म्य-न केन चात्यते यावत्ताव-
स्नानं समाचरेत् ।। सौवण राजते ताम्रे भक्त्यालाबुमयेऽथवा ।। तलेन विर्दा- `
( द्रतानि 1: | | ॥ हिन्दीटीकासदहित ` ^ । (३२३) । |
अस्यां स्नानविधिः ।। तच्च अरुणोदयन्यापिन्यां कायेम् । तदुक्तं मदनरत्ने
स्मृतिसंग्रह-सूयग्रहणतुल्या सा शुक्ला माघस्य सप्तमी ।। अरुणोदयवेलायां स्नानं `
` तत्र महाफलम् ।। माघे मासि सिते पक्षे सप्तमी कोप्िपुण्यदा \। कुर्यात्स्नानाघ्यै-
भविष्ये-कृत्वा षष्ठयामेकभक्तं सप्तम्यां निषचलं जलम् ।। रात्यन्ते चाल्ये- `
। तव्या महा'रजनरञ्जिता ।\ समाहितमना भूत्वा दत्वा शिरसि दीपकम् ।।भास्करं `
[4 हदय ध्यात्वा इम मन्बमुदीरयेत् \\ नमस्ते सद्ररूपाय रसानां पतये नमः ।। वरुणाय ` | 4
। नमस्तेऽस्तु हरिदइव नमोस्तु ते \। जले परिहरेहीपं ध्वात्वा संतप्यं देवताः ।! इति
। लोलाकं रथसप्तम्यां स्तात्वा गङ्धादिसंगमे ।! सप्तजन्मकृतः पापेमुक्तो भवति
| तत्ल्षणात् ।! इति गगः ।। षष्ठिसप्तमिसंयोगे वारस्चेदशुमालिनः ।! योगोऽयं
। पद्यकोनाम सहस्राकंग्रहैः समः ।। एतच्च स्नानं तिथ्यादिस्मरणानन्तरं शिष्टा- `
| चारात् \\ इश्षुदण्डन जलं चालयित्वा सप्ताकंपत्राणि सप्त बदरीपत्राणि च शिरसि `
| निधाय स्नायात् ।। तत्र मन्त्रः-यद्यज्जन्मकृतं पापं मया सप्तसु जन्मसु ।\ तन्मे `
(.. | रोगं च शोक च माकरी हन्तु सप्तमौ ।। स्नानानन्तरमध्य च दातव्यं मन्त्रपुवकम् ।।
£ कृसुरभम् ५ 1 (1 |
चूडामणि तो यह कहते ह कि सायंकालका श्रवण फातिदायको चोतन करनके छे है । यदि उसमे षष्टी न॒ `
चाहिये कि, रामपर कृपा करने ओर रावणको मारनेके छिथ असमयमे ब्रह्मान हे विल्व ! तुमसे देवीको जगाया `
था इसी कारण र्म भी आपके अत्याधित होकर शामको छटमे तुमसे देवीको जगवाता हुं । ह विल्व { आप
=
: ` आह्ये। मं दुर्गारूपसे आपका पूजन करूगा } इस प्रकार देवीका अधिवासन करके दूसरे दिन निम॑तरित तिल्व- `
श करावे । यहां उपवास ओर पूजादिकोमे उदय कालमे रनेवाटी सप्तमी तिथिका `
दहौतो भी अधिवासन कर्मका खोप नही होता । इसमे बिल्वके पास जाकर देवी ओर विल्वकी प्राथना करती `
| कैलासके दिखर पर पैदा हुए है श्रीफल ह मौर श्रीके निवास स्थान है आपके जाने योग्यै । हसकारण
| ; शाखाको खाकर प्रवेद पूजा करनी चाहिये, यही हैमाद्रिने छग पुराणसे स्वा है कि,मृल नहींहयोेतोभी ८ ५
केवल सप्तमीमें ही प्रवेश कराये । नवीनं बिल्व गावाको दो फलके साथ ढाके उसी तरह-वयकी प्रतिमाको `
(३२४) = ब्रतराजन [सुप्तमी
गनः तः परअ तम कि धा न त म्भा मन = ५१०० =
सप्तखप्तिबहपीत सप्तलोकग्रदीपन ।। छम्तस्या सहितो देव गृहाणार्घ्यं दिवाकर ।॥ `
अर्ध्यम् ।। जननी स्दवभूतानां सप्तमी सप्तसस्तिके ।। सप्तव्याहूतिके देवि नमस्ते
सू्मण्डले ॥ प्रार्थना इति स्नानविधिः ।\ अनेनैव तु मन्त्रेण पूजयेच्च दिवा-
करम् ।। कुत्वा षोडज्धा राजन् . सप्तारवरयसण्डलं ।} अथ कथा \। युदिष्ठिर
उवाच ।। कथं सा क्रियते इष्ण मनुष्यै रथसप्तमी ।! चक्रवर्तित्वफल्दा या हि
ख्याता त्वया मघ ।। १ ।। कृष्ण उवाच ।। आसीत्कास्योजविषये यक्लोवर्म्म नरा- `
धिपः \। वद्धे वयसि तस्यसीत्सवेव्याधियुतः सुतः 11 २ ॥। तत्कमंपाकं सोऽपच्छ- `
हिनीतो दहिजपुङ्खवन् ।। स प्राह राजन्वहयोऽयं कृपणः पूवेजन्मनि । ददे ` `
रथसप्तम्याः क्रियमाणं व्रतं नप ।। ब्रतदशनमाहात्म्यादत्पन्नो जठरे तव । ४।॥
अदाता विभवं यस्ातेनायं व्याधितोऽभवत् ।\ ततः स राजा पप्रच्छ किमेतस्य `
विधीयताम् ।\ ५ ।¦ ब्राह्मण उवाच ।। यस्य संदक्ञनास्प्राप्तो लोभी तव निके-
तनम् ।! तदेव क्रियतां राजन् रथसप्तमिसंल्लितम् ।\ ६ ।। व्रतं पापहरं येन चक्र-
बतित्वमाप्यते ।\ राजोवाच ।। बहि विप्र वरतं कृत्स्नं सविधानं समंत्रकम् ।।७।॥
` रोगिष्णां च दरिद्राणां स्वैसंपत्प्रदायकम् ।! द्विज उवाच ।\ शुक्लपक्षे तु माघस्य `
` षष्ठयामामंत्रयेद्गृही ।! ८ ।। स्नानं शुक्लतिलेः कार्यं नादौ विमले जले ।॥ `
वापीकूयतडागेषु विधिवहटणंघर्म॑तः ।\ ९ ।। देवादीन्पुजयित्वा तु गत्वा सूर्यालयं
ततः ॥। सूर्य पूज्य. नमस्कृत्य पुष्पधूपाक्नतः शुभः ।\ १० ।\ जगत्य भवनं पडचात्प-
` ज्चयज्ञादच निवपेत् ।। संभोज्यातिथि भृत्यांश्च बालवृद्धाभ्िितान् स्वयम् ।। ११।।
` विद्यमानेऽदिनेऽदनीयाद्वाग्यतस्तेलर्वजितम् ।! रात्रौ विप्रं समाहूय सवनं वेदपार-
गम् ।। १२ \\ संपज्य नियमं कुयत्दियमाधाय चेतसि \) सप्तम्यां तु निराहारो ५
` भूत्वा भोगविर्वाजतः ।\ १३ ।। भोक्ष्येऽष्टम्यां जगच्नाथ निर्विघ्नं तच मे कुर \। `
इत्युच्चायं नृपश्रेष्ठ तोयंतोयेषु निक्षिपेत् ।।१४।। ततो विसृज्य तं विप्रं स्वपेद्भूमौ `
नितेन्द्रिः ।। ततः प्रातः समुत्थाय कृत्वावश्यं शुव्िर्नरः 1! १५ ।। कारयित्वा
कन ॥
रथं दिव्यं किकिणीजाल्मालिनम् \! सर्वोपस्करसंयुक्तं रत्नैः सर्वाद्खचित्रितः
। प 04४ प ५. 4 मश ० उस ~ क
पम प~~ 0) ; 11 व ६ (1 (9 ८4.044 2.
धूषेनागरुमिशरेण धूपयित्वा तथोपरि ।! रथस्य स्थापयेन् स्व्तपणेलक्षणम्
। ॥ २१ ॥ वित्तानुरूपं हैमं च वित्तश्नाठचविर्वाजतः ।\ साठच्यादुत्रजति वेकल्य
। वैकल्याहिकलं फलम् ।। २२ ।। ततो देवं ससम्यच्ये सरथं सहसारथिम् ।! पुष्पै-
१
। धूषैस्तथा गन्धरवस्त्रालंकारभूषणे २३ ॥ फलेनिविधेभेष्येनेवेदे तपा- `
। चितेः ।\ पएजये्धास्करं भक्त्या मन्त्ेरेभिस्तरिभिः कमात् \} २४ \} भानो दिवा-
प्रणतातिहराचिन्स्य विदवचिन्तामणे विभो ।। विष्णो हंसादिभूतेका आदिमध्यान्त- `
। . कारक ।! २६ ।। भक्ति हीनं क्रियाहीनं मन्त्रहीनं जगत्यते ।। प्रसादात्तव संपुरण- =`
८.
[8
५
करादित्य मार्तण्ड जगतपते ।! अपांनिघे जगद्रक्न भूतभावन भास्कर ।\ २५।। |
। मर्चनं यदिहाध्तु मे \। २७ ।\ एवं संयुज्य देवेशं प्राथेयेत्स्मनोगतम् ।! ददाति ` ध
` प्राथितं भानुभेक्त्या सन्तोषितो नरैः ।। २८ ।। वित्तहीनोऽपि विधिना सवेमेत- `
। सकल्पयेत् । रथं ससार्सथ सावं वरणकोभित्तिेखितम् ।! २९ । सौवर्णच तथा
भानं यथाश्चक्त्या विर्निमितम् ।। प्रागुक्तेन विधानेन पुजयित्वा सुविस्तरम् ।\ ३० ।
जागरं कारयेद्रात्रौ शीतवादित्रनिस्वनेः \, प्रेक्षणीरयविचित्रेश्च पुण्यास्यानकथा-
| नयेत्तां रजनीं बधः \। ३२ ।, प्रभाते विमले स्नात्वा कृतक्रत्यस्ततो हिजान् ।
` देयो यथोपघ्करसंयतः \\ सरक्तवस्त्रयगलो रक्तधेनुसमन्वितः !।! ३५ । एवं _
भोगा
| महाभुज
उत्पा पुत्रान्पौत्रास्च सूयंलोकं स यास्यति । ३९ ।। तत्र स्थित्व।
ल्पमेकं चक्रवती भविष्यति ।! कृष्ण उवाच ॥। र
जोत्तसः !} ४ ५ ।। यथागतं जगामासौ नपः सवं चकार ह॒ \। यथादिष्टं द्विजे
| दिभिः ॥ ३१ \। रथयात्रा प्रपष्येत भानोरायतनं धितः \। अनिमीलितनेत्रस्तु
। तवयेदिविधैः कानेर्दरवासोविभूषणैः ।। ३३ ॥। अश्वमेधेन तुल्यं तदिदं ब्रह्मविदो
विदुः ।\ अतो देयानि दानानि यथाशक्त्या विचक्षणः ।\ ३४ ।। रथस्तु गुरव ५
चीणव्रती राजन् कि नाप्नोति जगतरये ।। तस्मात्सवंप्रयत्नेन कुर त्वं रथसप्तः =
मीम् । ३६ ।। येनारोग्यो भवेत्पुत्रस्त्वदीयो नृपसत्तम ।! व्रतस्यास्य प्रभावेण `
` प्रसादा्ास्करस्य च ।\! ३७ ।। भविष्यति महातेजा महाबलपराक्रमः ।। भुक्त्वा =
सुविपुलान्करृत्वा राज्यमकण्टकम् ।\ ३८ ।। दत्वासौ रथसप्तम्यां मृतेत्वयि `
इति सर्वं समास्याय तपोयुक्तो
(१२९) ~ ^ ~ भवतोति ˆ 4 =
[सप्तमी
रथ सम्तमीत्रत कहते है-इसमें भौ सब से पहिले स्नानकी विधि है, इसे अरणोदय व्यापिनी केनी `
चाहिये । यही सदन रत्नसे संग्रहसे कहा है कि, माघे शुक्ला सप्तमी सूर्यं ग्रहणके बराबर है, अरुणोदयके `
समयमे इसमे स्नान महाफलाबाला होता है । जो मनुष्य स्नान दानादि करता है उस मनुष्यको स्नानादि `
का कोटि गुणित पृष्यफल मिलता है । स्तानदान ओर अरषयसे आयु आरोग्य ओर सम्पत्ति पराप्त होती है! `
यदि माघ सुदि सप्तमौ दौ दिन अरुगोदयमें मिल तो पर्वं सप्तमी हौ ग्राह्य दै । इसमें जो करना चाहिये,
उसकी विधि भविष्यपुराणमे कही है कि, माघसुदि छठे दिन एकभक्त व्रत करके दूसरे दिन प्रातःकाल `
रात्रिके अवसानपरे निश्चल जलको तुम हलाना चलाना शिरपर दीपक रके, फिर प्रदक्लिणा करनी ' १
चाहिये । पौरे जबक दुसरा को आकर उस जलको न हलावे तबतक उसमे स्तान करता रहे । वह॒ `
दीपक सुवणः, चादौ, तामे या तम्बेकेकाष्ठका हो, उसमे तेलके साथ कु ुमभसेरंगौ हई वक्त देनी चाहिये । `
दीपकको शिरपर देकर अपने चित्तको ओर ओर वासनाओंसे निवृत्त करके भगवान् सूयेदेवका ध्यान `
करे । ओर “नमस्ते रद्र इस मंत्रको पटे कि, आप ्रस्वरूप है, आप जलोके अधिपति जो समुद्र है तत्स्वरूप `
है, आष वरुण स्वरूप है आथके लिये बारंबार प्रणाम है । आपह हरिददव ( स्यं ) हे । आपकेलियि
श्रणामहे। एसे ध्यान ओर देवताओंका तर्यण करके शिरके ऊपर रखे हृए दीपकको जल्पररखदे। `
[ ओर गर्गसंहिताकार गर्गाचार्यने यह कहा है कि, जहां गङ्खा यम्ना आदि महानदियोका ` सम्मेलन होता `
५ हौ वहांपर माघ सुदि रथसप्तमीके दिन जलम जलके हलनेसे हल्ता हआ सूयक स्वरूप | दीखता हो चत `
समय स्नान करनेसे पुव सात जन्मोके किये पायोके दुःखभोगसे उसी क्षण निर्मुक्त होजाता है) षष्ठौ `
जोर सप्तम मेलने यवर यदि हो तो इते पय योग कहते है, यह एक सहस सुं रमक समान `
है । इस दिन स्नान करना जो पूवं कहा है, बह संकल्य करनेके पङ्चात् हौ कर्तव्य है; वयोर शिष्टोका
ला हो आचार हे । ओर पूर्व॑ लो निकल जरतो चल करना हा ह उतर विभि हह ऊक `
रखकर स्नान करे । उस स्नानका यद्यज्जन्म' यह् मन्त्र है, इसका यह अथं है कि, सात जन्मोमे आजतक
` जोजो पाप मेने किये ह उनसे होनेवारे रोग ओौर ज्ञोकको यह रथसप्तमी दूर करे । स्मान करनेके पीट
सम्त-सप्तति' मनसे सर्मण्डलस्य मगवान् देवक ध्यानकरके उनको अवयं दे ! इसका यह अयं है `
` कि, हे सात घोडेवाके रथमें स्थित होकर प्रसन्न दीखनेवाे ! हे सात (भूर्भुवः स्वमंहोजनतपः सत्य) भूरादि ` |
लोकोमे प्रका करमेवारे ! हे दिवाकर ! हे देव ! आप सप्तमी (रथसप्तमी) सहित मेरे अघ्यदानको ५
। ग्रहण करिये । “जननौ” इरे थना कर । इसका यह् अहै भि, हे रथसप्तमि ! हे सात सप्ति घोडे `
बालौ । ह भूरादिक सात व्याहृति स्वरूपवालो ! ह स्यमण्डलमे विराजमान होनेवालो ! आप समस्त
भूतकौ जननी हौ । आपके सि प्रणाम है । यह् स्नानविषि समाप्त हई । फिर हे राजन् ! सात घोडे
वाख स्थको अनवाकर या वैसे भगवान्के रथका ध्यान कर उसमे स्थापित या विराजमानः सूयेदेब ` `
षोड उपचारोते पुजन करे । उन षोडश उपचारोकाभी रवो" जननीः यही संतर है । कथा-राजा
भुधिष्ठिरने राज्यके देनेवाला कहा था, मनुष्य
्ठिरन धा कि, हे ह्ण ! पने जिसका माहात्म्य चक्रव
व
दिनि किस विधिसे स्नानादि करे ? सो आप कहिये ये ।। १ ।। श्रीकृष्णचन्द्र बोले कि,
` काम्नात् देशका यद्ोवस्मा नाम एक राजा था । उसके प पहिले तो कोई पुत्र न हुजा, फिर
नञ्ताूर्वक
। श्रीकृष्णचन्द्र राजा युधिष्ठिरसे कहते हें कि, फिर उस थजोवर्म्मा राजाने युखा कि, अब क्या उपाय करना
। चाहिये ? जिससे इसका पूवेपाप निवृत्त हो भौर प्रसन्न हो ।1 ५ ।। ब्राह्मण बोला कि, जिस व्रत करेवा के (9
केवल देनसे तुमारे घरमे जन्म हुभा है उसी रथसप्तमीके त्रेतका अनुष्ठान कराना योग्य है ।। ६ ॥
। आप अपने पुत्रके पायोके निवतंक करनेवाली पुण्यवुद्धिके किये रथसप्तमीके ब्रतको करे ! यह सब पारपोका
| विनाक्चक ओर चक्रवति राज्यका देनेवाला है । राजा बोला क्रि, है विप्र ! जप विधि मौर संनो सहित
। उस व्रतको कहं ।। ७ ।। जिसके प्रभावसे रोगियोके रोग दरिग्रियोके दरिद्र नष्ट होते हँ ओर सुख सम्पत्तियां
। प्राप्त होती हे । ब्रह्मण बोला कि, गृहस्थौ माघसुदि षष्ठीके दिन आसंबण करे ।! ८ ।। पीछे शुक्ल
। तिलको लेकर नद्यादिकोके कूखपर पहुचे । नदी न होतो वापी, कूप या तलावके तटपर ही जाय । फिर `
| निम्म॑ल जलमे उन श्वेत तिलको मिलाकर विधिवत् स्नान करे, अपने अपने वर्णं घस्मनिसार ॥९।।
। देवादिकोका पूजन करे पीक सूयभगवानके मन्दिरमं जाकर प्रणामं करके पवित्र पुष्प धूप ओर अक्षता- 4.
| ` दिकोसि उनका पुजन करे ।। १० । अपने घरपर पञ्चमहायज्ञ करे । पीछे अभ्यागत, भृत्य, बालक, वृद्ध॒ `
| ओर आशित जनको उत्तम रीतिसे भोजन करावे \ पीछे ॥! ११।। सूर्यके अस्त हौनेपर रात्रिमे मौनी `
होकर भोजनं करे, पर तलका कोई पदाथ भोजन नहीं करे । सर्व्न वेदवेत्ता ब्राह्मण को आचार्यं बनाने
८
॥ १३ ।। अष्टमौके दिन भोजन करूगा \ है जगच्नाथ { आप मेरे इस कार्यम विषघ्नोको टारे । है नप !
स्नानादि कायं करके पवित्र हो ।। १५ ।। दिव्य एक सुवणं याचांदीका रथ तैयार करावेउस रथके चारों
। ओर छोटी छोटी किंकिणि योके जालको भी रगवबावे । उसमे आसनादि सामग्री स्थापित करे । जहां
तहा चारों ओर रत्न जडवा अतियुन्दरतासे सजावे । रथके सात घोडे ओर सारथि (अरुण) कौ मूतियां
भी यथास्थान सुसज्जित करावे । फिर व्रतीपुरुष मध्याह्ने स्नानादिकोसे निवत्त होकरसरल्दृष्टि
५ . धाम्मिकभाषी हो, फिर सौरसुक्तका जप करता हज अपने घरकी ओर चला अवे ।। १६-१८ ।। नेत्य
कम्मोसि निवृत्त होकर आचार्यादि ब्राह्मणोको बुलाकर स्वस्तिवाचनादि करावे सज्जित एक वस्त्रे
मण्डप तयार कराके उसके बीचमं सू्यदेवके उत्तम रथको स्थापित करे \\ १९ ।¦ सुगन्धित सैलीया
केसरमिधित चन्दनसे उसको चारों ओरसे चचित करे । सुन्दर पुष्प मालाओसे परिवेष्टित करे |! २०
अगर मिधित घूपसे धूपित करे, रथके ऊपर सवंलक्षणोसे युक्त सूर्यको स्थापित करे ॥ २१ (सू्यंकी
मृति एेसी हो, जिसके चारभुजा, हस्तोमे सुबणंके कमलः चक्र, गदा आदह, मस्तकपर मुकटकानोमे, = `
। व्रतानि हिन्दीटीकासहित ` (३२७)
अपने घरपर निमन्त्रित कर बुलावे ।\ १२ ।। उनका निधिवत् पुजन करे । तदनन्तर अपने चित्तमे सूयं का `
ध्यान करता हज नियम करे कि, मं सप्तमीके दिन आहार न करूंगा ओर न भोगविलास ही करूगा `
इस प्रकारका नियम अपने हाथमे जल लेकर करना चाहिये । फिर उस जल्को जलमेही डाल देना. |
चाहिये ।। १४ ।\ आचार्यको उस समय अपने घर लौट जानेके लिये विदा करे ओर अप नितेन्दरियहो
पर्य्यकपर शयन न कर भूमिपर ही शयन करे । प्रातःकाल उठकर आवदयक सलमूत्रादि त्याग भर `
राजा होगा \ भीङृष्णचद्र (राजा युधिष्ठिरस) बोखे कि, इस प्रकार वह् तस्वी ब्राह्मण राजः यक्षो
सब नरिरोकीकौ उत्पत्यादि करनेवाले ।} २६।। ह जगत्क्े पालकं ! मेने भवित, क्रिया ओर मन्वे शन्य `
जो पजन किया है वहू सब सायको कृपासे यहांही पूरा हौ जाय \} २७ ।1 इस प्रकार देवेश सूर्यकी परजा
` करके अभिलषित दरक प्राप्तिके किये प्राथ॑ना करे । भक्तिसे प्रत्न क्ियेहृए् सयं : देव भक्त जोकृछ `
प्रार्थना करता है उसे पुरणं करते ह ।। २८ ।। यदि घनन हौ तो मी उक्त विधिने सब कुछ करे \ परधन-
साध्य सासग्री न करे । रद्ध रेवा आदिकोसे भित्यादिकोंपर चित्रादिरूपसे कल्पनः करे ।। २९ ।। अथवा `
अपनी जैसी क्ञवित हो उसीके अन् सार सोनेका सूय्यं बनावे } यथोपस्थित फल वुष्फादि द्वारा पजन क्रे। `
(सर्वेथाहौी भिक्षुक जौर रुग्ण हौ तो मनसे पूर्वोक्त बुजन विधिका स्मरण ही करे ) प्रागुक्तविधिसे अच्छी
तरह सूथेदेवका पुजन फर ।। ३० 11 जागरण करे गान वादय देखनेकायक नाना नृत्यादि पचिच्रे इतिहास `
ओर कथा वाचनादिसे रातमें जागरण करे । ३१ ।। सू्य॑के मन्दिरं बैड कर, सुयं नारयणकीरथ
यात्राको देखे ! राधिभर नेत्र मीलन नहीं करे ।} ३२} दूसरे दिन प्रभात काल निस्पख्जलने स्नान करके `
नित्य अवक्यकर्चव्य सन्ध्योपासनादि कर्मोको करे, पीछे नानाविध वाञ्छित पद्यं वथा वस्र आभुषण- `
दिका दानं देकर आचार्थ्णदि ब्राह्यणोको सन्तुष्ट करे 1} ३३ ।। इस प्रकार दिया हज रथस्रप्तमीव्रत
अषवमेधके सत्ान पुण्यप्रद हता है एसा वेदवेत्ता लोगोका किद्धान्त है । अतः विषान् बततीजनोका कर्तष्य `
है कि, अपनी शक्तिके अनुरूप नानाविध दान करं 1 ३८ 1) रयपर संब उपस्कर सहित रथ जाचार्यके
ल्ह देना चाहिये \ जाल घोती ओर इपट्ा जो भगवान्के चढाये थे जौर लालरंगकी गऊ भौ आचार्थको
दे दे \\ ३५ ।\ है राजन् ! जो इस प्रकारं व्रतको साङ्कः समाप्त करता है उस्तफो नरिलोकीमे अप्राप्य `
वस्तु कोई भी नहीं है । इस कारण आपभी अच्छी तरहं प्रयत्नपु्ेक रथसप्तमीक्र ब्रत करिये । ३६॥ `
हे नृपसत्तम ! इससे दुम्हारा पुत्र आरोग्य होगा, त्रतके प्रभाव एवं सू्देवकी प्रसच्रतसे तुश्हारा पुत्र
॥1 ३७ ।। अत्यन्तं तेजस्वी, अत्यस्त बलवान् मौर अत्यन्त सही हग \ इष सखोकमें नाम युखोको ५
भोगेगा 11 ३८ \! तुम्हारे मरनेपर निष्कण्टक चक्रवर्ती राज्यं करेगा । फिर पुत्र ओर पोत्रोको राप्य देकर `
सू्यधामको पधारेगा 1 ३९ \। वहाँ एक कल्प बास करफे जब इस लोकम जन्म कणा तब फिर चक्वती
वर्मार त्रत ओर उसकी विधि तथा माहात्म्य कहके ।।४०।। जैसे अश्या था वैसह अपने आश्वमक्तो चला |
गया } राजान उत्तके कथनान् सार रथसप्तमीका व्रत ब्रत वैसेही किया ।। ४१।\ उससे राजपुत्र रोगरहित =`
पुत्रे पौत्रादि सम्पत्तिमान् ओर निष्कण्टकं चक्रवति राज्यकी भोगसम्पत्तिथोकौ प्राध्तिजो कुछ कहाथा
वहं सव हौमया । पुराणोमे जिस मान्धाता राजाको परमप्रताश्चाली सुनते होवहं पूर्वजन्ममे रथसप्तमी `
| त्ेतको करनेवाले योवा पुत्रही था । बह इस जन्मे भी सार्वभौम राज्यका करनेवाला पर नाप
| इंजा\} ४२३) जो मनुष्य भवितसे इस जाख्यानको विधिवत् सुनता या सुनाता है, उसके ल्मि भी संतुष्ट
इए भगवान् सूर्यदेव सन सम्पत्तियां अवक्रय देते हं 11 ४३ ।। पहिली कहीहुई विधिसे बनवये हए अश्व .
ओौर सारथियुक्त सुवर्णके रथ भौर सुर्देवकी प्रतिमाको, माघशुदि सप्तमीके दिन ब्रत करके जो किसी `
( दविजब्रको दाने करता है बहु अप्रतिहत रथकी गतिवाला होकर पृथिवीका शासन करता है; यानी
निष्कण्टक सास्नाज्यपदके एदवर्यको भोगता है 1\४४।। यह् भविष्योत्तरपुराणका कहा हुमा रथसप्तमोका
पराह), ८ | (1 ५
तानि] हिन्दीटीकासहित (३२९).
उवाच । श्रयतां भरतश्वेष्ठ रहस्यं मुनिभाषितम् ।! यन्मया कस्यविस्ोक्त
चलासप्तमीव्रतम् \। वेश्या चेन्दुमतीनाम रूपौदार्यगुणान्विता 1 आसीत् कुरकुल- `
। मरषिमासीनं प्रणस्यानतकन्धरा ।। कृताञ्जलिपुटा भूत्वा प्राहेदं जगतो हितम्
दृत्तरामि भवार्णवात् । एतत्तस्याः सुबुहुशः शरुत्वातिकरुणं वचः ।। कारण्या-
। ूपसौभाग्यजननं स्नानं कुर वरानने 1। कृत्वा षष्ठचामेकभुक्तं सप्तम्यां निदचलं
श्रुत्वा तस्मिन्नहनि भारत ।। चकारेनडुमती स्नानं दानं सम्यग्यथाविधि ।। स्नान `
स्यास्य प्रभावेण भुक्त्वा भोगान्यथेप्सितान् ।। इन्द्रलोकेऽप्सरोमध्ये नायिकात्वम-
वद्धनम् ।\ युधिष्ठिर उवाच ।\ समप्तमीस्नानमाहात्म्यं श्रुतं निरवशेषतः ॥! `
सरित्वरस्तडागं वा देवखातसथापि वा ।। सुखावगाहसलिल दुष्टसतत्वरदुषितम्
` महारजनरञ्जिता ।। महारजनम् कुसुम्भम् \ समाहित
। श्रेष्ठ सगरस्य विलासिनी ।\ सा वसिष्ठाश्चमं पुण्यं जगाम गजगामिनी \\ वसिष्ठ
मया न दत्तं न हृतं नोपवासन्रतं कृतम् ।। भवत्या न पुजितः जञम्भुः स्वामिच्छा- =
धरो न च ।\ साम्प्रतं तप्यमानाया व्रतं किञ्चदरदस्व मे ।। येन दुःखामबुपंकौघा- =
। छथयामास वसिष्ठो मुनिपृङ्खवः ।। माघस्य सितसप्तम्यां स्वेकामफलप्रदम् ।॥ `
। जलम् ।। रात्रयन्तं चालयेथास्त्वं दत्वा शिरसि दीपकम् ।। माघस्य सितसप्तम्याम- `
| चलं चालितं च यतः ।। जलं मलानां स्वेषां स्नानं प्रक्षालनं ततः।। वसिष्ठवचनं
वापस ।। जचलासप्तमीस्ानं कथितं ते विशांपते ।। सवेपापप्रहमनं युखसोभाग्य- `
साम्प्रतं शनोतुभिच्छामि विधि मल्तरसमन्वितम् ।\ श्रीकृष्ण उवाच ।। एकभक्तेन ` ८
` संतिष्ठेत् षठ्चांसंपूज्य भास्करम् ।। सप्तम्यां तु ब्रजेत्रातः सुगम्भीरं जलाशय ॥
व्यालाम्बुपक्षिभिश्चैव जलगेमेतस्यकच्छवैः । न केन चाल्यते यावत्तावत्स्नानं `
समाचरेत ।। सौवर्णे राजते पात्रे भक्त्यालावुमयेऽथवा ॥। तैलस्य वतिर्दातव्या `
तमना भूत्वा वत्वा शिरसि
दीपकम् ।। भास्करं हदये ध्यात्वा इमं मन्त्रमुदीरयेत् ।। नमस्ते खरूपाय रसानां ` ५.
५ पतयं नमः १ वरुणाय नमस्तेऽस्तु हरिवास नमोस्तु ते ।\ जलोपरि हरदीपं स्नात्वा
। शक्त्या मृन्मये वाथ भक्तिमान् । स्थापयेत्तिलपिष्टं च सधतं सगं तथा ।। कांचनं
तालकं कृत्वा अ्षवतस्तिलपिष्टजम् ।\ सञ्छाद्य रक्तवस्त्रेण पुष्पधूपरथाचयेत् ॥ `
ततः सञ्चालयेद्धररदद्यान्मन््रेम तालकम् ।। आदित्यस्य प्रसादेन प्रातःस्नान- `
फलेन च ।। दुष्टदौर्माग्यदुःखघ्नं मया दत्तं तु तालकम् ।। तालकम् तालकपत्
कणभिरणविशेषः ।। पजयित्वोपदेष्टारं विभ्रानन्यांश्च पजयेत् \\ ततो दिनं समग्रं च `
भस्करध्यानतन्परः ।। भास्करस्य कथाः भ्यण्वह्छन्या वा घम॑संहिताः ।। पाषण्डा-
दिभिलालापदशेनस्पश्ञेनादिकम् ।। वजयेतक्षपयेतप्ाज्ञस्ततो बन्धुजनैः सह ॥ `
नक्तं भुञ्जत च नरो दीनान् संभोज्य शक्तितः ।! एतत्ते कथितं पाथं रू्पसोभाग्य- `
कारकम् ।। अचलासप्तमीस्नानं सवंकामफलप्रदम् ।! इति पठति समग्रं यः ।
"णोति प्रसद्धात्कलिकलषविनाशं सप्तमीस्नानमेतत् ।\ मति मपि च जनानां यो
ददाति प्रयत्नत्सुरसदनगतोऽसौ सेव्यते चाप्सरोभिः ।। इति भविष्ये अचला. `
सप्तमीत्रतकथा समाप्ता ।। अस्यामेव पुत्रसप्तमीन्नतम् \! मदनरत्ने आ द्त्यि-
त्तम ।। यस्तु मां पूजयेःटुक्त्या समकमेकमादरात् ।! समकः- संवत्सरः ।। प्रय-
च्छामि सतं तस्य ह्यात्मनो ह्यङ्घसंभवम् ।। वित्तं यज्ञस्तथा पत्रमारोग्यं परमं
सदा ॥ माघमासे तु यो ब्रह्मञ्खुवलपक्षे जितेन्द्रियः ।! पाषण्डान्पतिताननतया्
` जत्पेद्रिनितेन्द्रियः ।। उपोष्य विधिवषरू्ठचां इवेतमाल्यविलेपनेः \। पुजयित्वा तु
मां भक्त्या निक्षि भूमौ स्वपेद्बुधः ।! प्रातरत्थाय सप्तम्यां कृत्वा स्नानादिकाः
` क्रियाः ।\ पूजयित्वा तु मां ब्रह्मन् बीरहोमं समाचरेत् ।\ वीरहौमो नाम अग्ति
होत्रहोमः ।। प्रीणधित्वा हा हरि
1
त ।। तस्यवेति माघमासस्य र ।। रक्तोत्पलैः सुगन्धाढये रक्तपुष्पेडच पुजयेत्
` पृजयेटुक्त्या नरो मां ` विधिवत्सदा ।! उभयोरपि देवेनद्र स पुत्रं ६
। चली गयी ! वहापर महात्मा ब्रह्मषिवय्यं बसिष्ठजीविराजमान भे, उनको देख मस्तक नवा हाथजोड
य
स्तानकां फल अच्छीतरह सब युन लिया ! अब आपसे स्नान करनेकी विधि ओर मन्त्र एवं जो कर्तव्य
। व्रतानि] हिन्दीटीकासहित (३३१) .
( 4 पम्पखमे कहा नही, जो परमगोपनौय है उसी अचलासप्तमीके व्रतको कहता हं आप सुने! हेकुरकुल्के ध
श्रेष्ठ ! सगरराजाके साथ विहार करनेवाली सौन्दयेकौ उदारतासे परिपुणं इन्दुमती नामकी वेश्या हुदै `
थौ । बहु किसी समय महात्मा वसिष्ठजीके परमं पवित्र आश्रमको हस्तिके समानमत्त होकर धीरे धीरे
| प्रणाम करके जगत्का हितकारी प्रन किया कि, हे प्रभो ! मेने कोई दान, हवन, उपवास, ब्रत ओरं `
| श्रकर या विष्णुके पूजन कभी भवितसे नहीं किये ! मेरा चित्ते इसं समय स तप्त हो रहाहे ।इससेआप
एमे किसी त्रत दाचकी कहं जिसके अनुष्ठान करने मं दुःखरूपी पंकपरिपुणं संसार समृद्रसे उत्तीर्णहौ `
नां । उस इन्दुमती वेशयाने जब अत्यन्त दीन होकर बारबार प्रार्थना की तब ॒मुनिपुद्धव वसिष्ठजीद्या
करके बोले किं, है वरानने ! भाघचुदि सप्तसौके दिनस्नान करो ! यह स्नान सब मनोरथोकीपूतिसौदथ्यं `
ओर सौभाग्य देता है । इसकौ विधि यह है कि, पहिले दिन छटठको एक बार भोजन करे । फिस्दृसरे `
दिन प्रातःकाल उठकर किसी एसे जलाक्यपर जाय, जिसके जलको किसीने स्नानकरके हिलाथा नह्ये! = `
वयोकि, हिलाया हुंजा जल पहिले हिलानेनालोके मोको प्रक्षालिति करते हे, अतः आपह यदि क्षिरपर ५
दीपक रख पहिले स्नान करके हिलायेगी तो तेरेही पायोको वे दुर करनेवाले होगे । एसे वसिष्ठके कथनको `
| सुन इन्दुमतीने साघसुदि सप्तमीके दिन प्रथम तो बहुत विधिने स्नान किया, पीछे दान दिया । इस स्तानके
प्रभावे इस लोकंके सच वांछित भोगोको भोग अन्तमं स्वगं चली गयी \ वहां इन्द्रकौ सब अप्सराओमें मस्य _
हई । है राजन् ! म॑ने अचला सप्तमीका स्नान आपको कहू दिया है । यह सब पापोका नान्न करनेवाला
तथा सुख सौभाग्यका बहानेवाल्म है । युधिष्ठिर नोक कि हे प्रभो ! मेने तुम्हारे मखसे अचला सप्तमीके `
हों उन सबको सुनना चाहता हूं \ श्रीकृष्णचन्द्र बे कि, है राजन् ! छठके दिन विधिवत् स्नानादिएवं
नित्य नैमित्तिक कार्योको समाप्त करे, फिर समाहित चित्त शुद्ध होकर भगवान् सूंदेवका परूजनप्रेम `
अच्छी तरह करे, उस दिन रातमे एकबार सय्यंको पुजकर भोजन करे । सप्तमीके दिन प्रभातकाल उठकर `
सलमूत्रत्याग एवं साधारण स्नान कर शुद्ध हो अत्यन्त गम्भौर जलवादी नदी, सरोवर, तलावयाकिसी
देवखात जखाशयके तटपर जाय, पर बह जलाशय एसा न हो जिसमें नक्रादि दृष्टजन्तु उपद्रवकरतह ` `
इ आदिका उपद्रव मी नहीं हौ, क्योकि एसे जलाशयोमं स्नान करनेवालेको मरण मयमी उपस्थित |
होता है, सपं, जलज तु मत्स्य एवं कच्छपोने भौ जबतक न चलाया हो, उससे पटिल्ही स्नान करे अपनी = |
शषवितिके अनुसार सुवर्ण, चांदी या अल्ठाबुके ही पात्रमे तैलकौ महारजन (कुसुभ) से लालरङ्खी हई ब्तीको `
प्रज्बलितकरे ओर एकाग्रचित होकर जप उस दीपकको अपने शिरपर धरे, सूयंदेवका ध्यान अपनेमनमे =
रता हमा “नमस्ते' इस मन्वको पढे, फिर उस दीपकको शिरसे उतार जलाश्ञयके जलके उपर रदे `
पुजन करे । पीके आचार्यं जौर अन्यान्य ब्राह्मणोका पजन करके ओं आदित्यस्य इस भन््रको पठता हषा `
उसे अपने घरपर लेजानेकी अनुमति दे, उसका यह अर्हे कि, आदित्य देवक प्रसाद ओर जचखासप्तमीको `
प्रातःकालके स्नानके पुण्यसे यह ताल्पत्राकार कणं मूषण मेरे दष्ट दौर्भाग्यं दारिद्रचादि दुःखोकोनष्ट `
करे) सें इसे इन ब्राह्मणोंको दे चुका हूं फिर अवशिष्ट जो दिन रहे उसमे भास्कर भगकान्का अपने नमे ¦
ध्यान रक्छे, उन्हीकौ पवित्र कथाओंको सुने ओर जो धर्सिकं ओर ओर कथाह उनकाभी भ्रवण्क्रे `
कितु नास्तिक पापी जनोके साथ सम्भाषण ओर मिलाय न करे । हौसके तो एसे जनोका वृष्टिपातभीत
होनेदे । इस प्रकार उस अवशिष्ट दिनको बविताकर राचिमें बान्धरवोको अपने पास बैठाकर आप भोजनकरे `
ओर दीनोको भी यथाशक्ति भोजन करावे । श्रीकृष्ण बोरे किं हे पाथं ! भने अचला सप्तमीके स्नानकी
स्रब विधि कह दी है यह स्नान सौन्दथसस्पत्तिको ही नही, {कितु स्नान करनेवारेके सख मनोरथोकौ `
पूति भी करता है। जो पुरुष किसी. कारणान्तरसे भी इस पूर्वोक्तविधिवाले अचलासप्तमीक समग्र `
स्नान माहात्म्थको सुनता है उसके भौ कलियुगके प्रभावसे किये पाप नष्ट हो जते हे ! स्नान करनेवाला `
मरनेके बाद सुरपुर प्रस्थान करता है, जो कथा सुनाता है बह अप्सराओंसे सेवित हुआ विहार करताहै। `
यह् भविष्यपुराणकी कही हुई अचला सप्तमीके ब्रतकी कथा समप्त 9
पुत्र सप्तमी-यह ब्रतभी इसी सप्तमीमं होता है, मदनरत्नोने आद्त्य पुराणसे केकर कहाहै। `
आदित्य बोले कि जो उपोषणके साथ माध शुक्ला सप्तमीके दिन भक्तिपूवंक मेरा पुजन करता हैमे `
उसके पु्रभावको प्राप्त हो जाता हूं । हे सुरोत्तम ! जो एक समक प्रत्येक मासकी प्रत्येक सम्तभियोमे
भक्तिभावके साथ इसी तरह मेरा पुजन करता है, मे उसे रस पुत्र देता हं । समक संवत्सरको कहते
है 1 उसे सदा वित्त, यज पुत्र मौर परम आरोग्य भी देता हूं ! हे ब्रह्मन् ! माघ मासके शुक्लयक्षमे निते- `
च्य हो एवम् भली मति इद्दि्थोको जीतकर पतित पाखण्ड जर नौचोसे भाषण न करफे षष्ठीं वैष `
उपोषण करके सफेद माला ओर विलेपनोसे भक्तिपु्वक मेरा पुजन करके भूमिपर सोजाय । सप्तमीमें
. भ्रातःकाल उठकर स्नानादि क्रिया करक मेरी पजा कर, हे ब्रह्मन् ! वीरहोम करे । वौरहोम नाम अगि
होत्र होमका है । हविस पद्मलोचन हरिको प्रसन्न करक, हरि आदित्यको कहते हँ । दध्योदन षय भं
पायसे बराह्मण भोजन कराये उसौ माघमासे कृष्णपक्षकौ षष्ठीको भलीरभांति उपोषण करणके (उसीकेसे
मतलब माघमाससे हे) रक्त उत्यल एवं सुगन्धिदार लाल फूलोसे पुजन करे. जो मनुष्य हमेशा मेरा
इस प्रकार वैध पुजन करता है एवम् दोनों सप्तमियोमे ब्रत करता जाता है, हे देवेद्ध ! वह शरेष्ठ पुत्र
भप्त करतः हे । यह पुत्र सप्तमी कै वरतकौ कथा पुरी हुई । इसमे सायहो सम्तमीकेन्रतभी पुरे होते है
| __ अथ अषटमीततानिरिष्यने
| चेयुलण्म्यां भवान्य: ॥ तव युगभवागय्पर ग्रहा ।।
भवानीयात्रोक्ता काशौखण्ड-भवानौं यस्तु पद्येत शुक्लाष्टसम्यां मधौ नरः '
जातु शोकं लभते सदानन्दमयो भवेत् ।। अत्रैव अशोक नसः
ौ ये पवन पलवल । त
(
|
| योक अष्टमी नवसीके योगसे अष्टमी नवमीसे सम्मिलित ग्रहण करे । एसा युग्मतिथियोके नियमे `
|: वर्मममीमांसकोने कहा है \ इस अष्टमीके दिन भवानीके दरनोकेलिये यात्राकरे । यह काशीखण्डे `
लिखाहै कि, जो पुरुष चत्र सुदि अष्टमौके दिन भगवती पावंतीजौका दशंन करता है वह पुरुष कभीभी
ध. त्रादिकोके मरणजन्य क्लोकंक! भगी नहीं हेता, कितु सदेव आनन्दं मृति रहता है 1 अशोककलिका `
| श्रा्चान-यानी इसी चैतरसुदि अष्टमीके दिन अदोकवृक्षकी कलिकाका भक्षण करना चाहिये 1 यह हेमाद्रिने
| लिद्धषुराणसे लिखा है कि, जो पुरुष चैत्रसुदि अष्टसीके दिन पुनर्वसु नक्षतरके रहते अशोककौ आठ `
| कलि्ोको पीसके पीते है बे कभी भी शोकके भागी नहीं बनते पौनेके समय त्वामाशोक' इस मन््रको `
| प्ठेकरि, है अक्षोक । तुम परसपविन्र हौ । चैत्रमासमें तुम्हारा प्रादुरभावि हुआ है) में शोककी यादसे
| सन्तप्त हुआ आपकी कलिकाओके रसकाए पान करता हूं, अप सुक्षे सदा अशोक करं ।। इस विषयमं
| पुथ्वीचन्रोदयम कु विशेष लिला है कि, चेत्रसुदि अष्टमो पुनव नक्षत्र मौर बुधवारसे संयुक्ताहोतो
| इसमे प्रातःकाल स्नान करनेसे वाजपेय यज्तके फल्को पाजाता है ॥ = 0
| ` बुधाष्टमौ ।। अथ बुधवारयुक्तायां शुक्लाष्टम्यां बुधाष्टमीनत्रतम् । सा च॒ `
। परयुता ग्राह्या ।। शुक्लपक्षेऽष्टमौ चव शुक्लपक्षे चतुदंशी ।। पूवेविद्धा न कतेव्या `
| कर्तव्या परसंयुता ।! दिनद्वये तदृन्याप्तावव्याप्तौ वा पूर्वा ।। मुहुतेमात्रसत्त्वेऽपि
परा ॥\ चेतरे मासि च संध्यायां प्रसुप्ते च जनादन ।! बुधाष्टमी न कतंव्या हन्ति
प्यं पुराकृतम् ।! अथे व्रतविधिः--मासपन्ञादयल्लिख्यमम इहजन्मनि जन्मान्तरे `
च बाल्यादारभ्य कर्षणा मनसा वाचा जानताजानता वा कृतपरस्वायपहूतिदोष- `
परिहारार्थं पुच्रपौच्ादिसकलमनोरथसिदिप्राप््यथं श्रीपरमेश्वरप्रीत्यथं बुधा-
ष्टमीव्रतमहं करिष्ये । तत्र विहितं बधपुजनं च करिष्ये इति संकल्प्य ।। बुधं
षोडशोपचारैः कल्लोपरि पूजयेत् ।। चतुर्बाहुं ग्रहर्पाति वुप्रसच्नमुखं बुधम् ।॥
ध्यायेऽहुं चंडचक्रासिपाशहस्तमिलाध्रियम् ।। पीतमाल्याम्बरधरः कणिकारसम- `
दूतिः ।\ खड्धचर्मगदापाणिः सिंहस्थो वरदो बुधः ।\ ध्यानम् ।। तारासुत नमस्त- =
स्तुनक्षत्राधीदवरप्रिय ।। गृहाण पूजां भगवन्समागत्य ग्रहेदवर ।। मावाहनम् ।॥ `
उद्बुध्यस्वेत्युचा मध्ये बुधमावाह्य अधिदेवता मध्यं बुधमावाह्य अधिदेवतां
दिष्णुमिरदेविष्णुरिति मन्त्रेण प्रत्यधिदेवतां नारायण सहस्रशीषति ससूक्तेः = `
नाबाहृयत् ।। इलापतं नमस्तःस्तु निलेशषप्रियघूनवे ।। हैर्मासिहासनं देव गृहाण 1
प्रीतये मम ।। आसनं सर ॥। तीतलोदकमानीतं वुपुण्यसरिद् वम् ।। पाच्च 1
(इर४).- ` ~ `". -वरतंराजः ˆ... , [ अष्डमी-
ते मया भक्त्या दीयते व्रतसिद्धये ।। अतो देवादिकंः षड्भिः स्नापनीयस्ततो बधः ॥
पौरुषेण च सुक्तेन उद्बधस्वेत्यचंकया ।। स्नानम् ।\ पीतवस्त्रं देव राजवंशकर
प्रभो ।\ उर्वशीनाथ जनक गृहाण प्रीतयं सदा ।। वस्त्रम् \\ यज्ञोपवीतकं स्र
त्रिगुणं ज्रिदङ्प्रिय \! मम पाक्विनाक्ञाथं गृहाण प्रीतये बध ।। उपवीतम् ।
हरिचन्बनकस्तू रौकपूररादिसमन्वितम् ।। मन्धं समर्पये तुभ्यमिलानाथ नमोऽस्त
ते ।। गन्धं स० ।! अक्षतांहच ० अश्चतान्० ।। माल्यादी ° पुष्पाणि ° \। अथाद्धपुजा
बधाय० पादे पू० । सोमपुत्राय० जानुनी प्० । पारकाय० काट पू० । राजपुत्राय०
उदरं प° । इलाप्रियाय० हूदयं पू० । कुमाराय० वक्षःस्थल पुरूरवःपित्रे०
बाहु प° । सोमसुताय ० स्कन्धौ प° । पीतवर्णयि० मुखं पू० ¦ ज्ञानष्य० नेतरे पू० ।
बधाथ० मूर्धानं प० । सोमसूनवे० सर्वाद्धः पु ० ।। वनस्पतिर ० धृषम् ।\ साज्यं चेति
दीपम् ।। नैवेद्यं गृ ° नेवेद्यम् ।! पूगीफलमिति ताम्बूलम् ।! इदं फलमिति फलम् ॥
हिरण्यगभंति दल्िणाम् ।। श्ियेजात इति नीराजनदीपम् ।।! उद्बुध्यस्वेति
पुष्पाञ्जलिम् ।! उवंदयाश्च पतिय॑स्तु यः युरूरवसः पिता ।। ग्रहुमध्ये सुरूपो थो
बुधो नः सम्प्रसीदतु ।। विेषाघ्यंम् ।! यानि कानि चेति प्रदक्षिणाम् ।। नम-
स्कारान् ।! आवाहनं नेति प्राथना ।\ संतुष्टो वायनादस्मादिलानाथो ग्रहेदवरः ।\ `
सताबलाष्टलडडकं प्रतिगृह्णातु वायनम् ।। वायनम् ¦ । हति पूजनम् ।\ अथ कथा ||
श्रीकृष्ण उवाच ।। बुधाष्टमीन्रतं भूप वक्ष्यामि श्रृणु पाण्डव ।\ रेन चीर्णेन नरकं
` नरः पष्यति न क्वचित् ।! १ ।। युधिष्ठिर उवाच ।! बधाष्टमीदतं कि तत्कस्मा- `
त्पापाच्च मूञ्चति \। तत्सवं वद निरिचत्य मम देव दयानिधे । २ \ श्रीकृष्ण `
उवाच ।। पुरा कृतयुगस्यादौ इलो राजा बभूव ह । बहभत्ययुहन्मितेमन्तरिभि
परिवारितः ।\ ३ ।। जगाम
भूमौ स स्त्री भवति निर्चिम् ।। ४ \\ स राजा मृगयासक्तः प्रविष्टस्तदुमावनम्
` एकाकौ हयमारूढ : क्षणात्सत्रीतवं ष
हवीरोकादिति = (३९५)
। ५ £ 11 ४ प
1 (जना "0 4 न 4 [0 ॥: त त
[ ` ब्ान्ददौ बालकयोस्तदा ।। १३ ।\ कारुण्यात्पत्रवात्सल्यात्भुधासंपीडचमानयोः ।।
। कालेन बहुना सष्ध्नी पञ्चत्वमगमत्तदा ।। १४ ।। पुत्रस्या विदेहायां गत्वा `
। कुर्व सर्वभृत्यानां दानलिश्लां यथोचिताम् ।! १८ ।\ किन्त्वेते प्रवराः सप्तकोल-
पच्यमानां च रुदतीं भीषणेयेर्माकिकरंः ।\ २१।। लीलया क्षिप्यते बद्धा तप्ततेखषु
तद्त्तां ददश स्वमातरम् ।। यन्त्रे निष्पीडचमानां स! क्जिलायां लोष्टकेन च ।\ २३
र प्ररे चेव कृमिरूपंः सदारणः ।। दुष्ट्वा तथागता ता तु °
। निकेतने ।॥ १२ ।! चकारोदरपूत्येथं नित्यं कण्डनपेषणे । हत्वा सा सप्तगोधू- ` ५
` छ्वपिपुरासने \\ उपविष्टः सत्त्वयोगाद्बुभजे गासनाकुलाम् ।\ १५ ॥ अन्विष्य
| धर्मराजेन सा कन्या निमिवंशजा ।। विवाहिता हिता भतुः सा महानायिका-
अवत ।\ १९ 1} इयामलानाम चावङ्खी सर्वलक्षणसंयुता ।। तामुवाच वरारोहां `
| धर्मराजः स्विकां श्रियाम् ।\ १७ ।। वहस्व सर्वेव्यापारं श्यामले त्वं गृहे मम ।॥ `
कैरतियन्त्रिताः । कदाचिदपि नोद्बाटचास्त्वया बेदेहनन्दिनि । १९ ।। एव-
। मस्त्विति वं भोक्ता निजकभं चकार ह् ।\ ( ततो भक्त्वा बधस्यामरे बान्धवैः प्रीति- `
| पूर्वकम् ।। तावदेव हि भोक्तव्यं यावत्सा ` कथ्यत कथा ) कदाचिद्वाकुली- ` ।
भत्वा धमराज विदेहजः \\ २० । उद्घाटयित्वा प्रथमं ददद जननीं स्विकाम्।॥
सा पुनः ॥ तथैव तां समलोक्य व्रीडिता सा मनस्विनो ।\ २२ 1! द्वितीये प्रवरं |
` तृतीये प्रवरे वद्टत्तामेव च ददतौ सा ।। करिभिः पीड्यमाना सा घण्टायुवतंश्च ` ध
कल्पितः \\ २४ ।। इवभिर्चतुे प्रवरे भीषणैर्दरुणाननेः ।। अभक्ष्यभक्षणा- =
चेश्चा कन्दन्तीं तां पुनः पुनः ।\ २५ ॥। पञ्चमे प्रवरे भूमौ कण्ठे पादेन ताडि- =
ताम् |! सन्दशेघंनपातेह्व खिद्यमाना सहश: ।। २६ ।। षष्ठ तामिक्षयन्त्रस्थां ध ।
` मस्तके स॒द्गराहताम् ।\ संपीडयमानामनिहां सुभृशं दारखण्डवत् ।। २७ ॥। सप्तमे `
तु मातरं इःखकरिताम् `
री ।! अथागतो यमः प्राह ` :
(२३६) 0 त्रतराज वि [ अष्टमी
ब्रह्मस्वं प्रणया डूकतं दहत्यासप्तमं कुलम् । ३४ ।। तदेव कृमिरूपेण किलिदना-
त्यासप्तम कुलम् ।। गोधूमास्त इमे भूत्वा कृमिरूपाः सुदारुणाः ।॥। ३५
परा ब्राह्मणगृहे हृतास्ते त्वत्कृते मया ॥ जानाम्येतदहं सर्वं यन्ते मात्रा कृतं पुरा
॥। ३६ \। व्यासलोवाच ।॥ तथापि त्वां समासाच् देवं जामातरं विभम ।। मुच्यते
तेन पावन यथा त्वमधुना कुरु ।। २७ ।। तच्छ स्वः चिन्तयाविष्टश्चिरं ध्याता
` जगाद ताम् ॥ धर्मराजः सुखासीनः प्रियां प्राणधनेदवरोम ३८ ॥। इतस्त्वं ‡
सप्तमेऽतीते जन्मनि ब्राह्मणी शभा ।! आसीस्तस्मिस्तदा सद्खात्सखीनां पर्यपास्तिता
३९ ।। बुधाष्टमी तु संपूर्णा यथोक्तफलदाथिनी ।। तस्या; पुण्यं ददस्व त्वं सत्यं
कृत्वा ममाग्रतः ।। ४० । तेन मुच्येत नरकात्ते माता पापसंध कृत ।। तच्छ त्वा
त्वरितं स्नात्वा ददौ पुण्यं त्रिवाचिकम् ।। ४१ ।। स्वमात्रे श्यामला तुष्टा तेन
मोक्षं जगाम सा ।। ऊभिला रूपसंपन्ना दिव्य देहा वराका ।। ४२ ।। विमानः
बरमारुढा दिव्यमाल्याम्बरावता ।।! भर्तः समीपे स्वर्गस्थः दक््यतेऽयापि सा.
जनः । ४३ ।। बुधस्य पावे नभसि निमिराजसमीपगा ।। विस्फरन्तौ महाराज
` बुधाष्टम्याः प्रभावतः ।\ ४४ ॥ युधिष्ठिर उवाच ¦| यद्यव प्रवरा कृष्णा तिथि
तु बुधाष्टमी ।। तस्या एव विरि नूह यदि तुष्टोऽसि माधव ।। ४५ श्रीकृष्ण
` उवाच ॥। श्यृणु पाण्डव यत्नेन बुधाष्टम्या विधि शुभम् । ध यदावदया सिताष्टम्यां
बुधवारो भवेच्लप ।! ४६ ।। तदातदा हि सा ग्राह्या एकभक्ताशनेनं भिः ।। स्नात्वा `
` नद्यां तु परवाह गृहीत्वा करकं नवम् ।\ ४७ ।। जलपुणं च सद्रतनैः कृत्वानर््यैः
समन्वितम् ।\ सुजयेच्च गृहं नीत्वा बधमेवं कमेण तु ।। ४८ ।। एकमाषसुवर्णेन
तदर्धर्धिन वा पुनः ।! कारयेदबधरूपं तु स्वशक्त्या वा प्रयत्नतः ।। ४९ ।! अंगुष्ठ
मात्रं पुरुषं चतुर्बाहुं सुलक्षणम् ।। पद्यमध्येऽ्रणं कुम्भं पुजयेत्सिततण्डलेः ।। ५० ॥
हेमपात्रे च संस्थाप्य पीतवस्तरयुगेन चं ॥। वसत्रोपरि स्थितं देवं पीतवस्त्राकषता-
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तेन चार्य निवेदयेत् !\ ५८ ।। उवेहयाः इवश्ुरो यस्तु यः पुरूरवसः पिता ॥ यो
| ग्हाणामधिपतिरदधो मे संप्रसीदतु ।\ ५९ 11 वराइ विष्णुना दत्तान् सकलान्नः |
| दयादद्वितीये फेणिकास्तथा \\ तृतीये घुतपुराइ्च चतुथ वट कस्तथा ।\ ६१
प्रयच्छतु ।। मन्त्रेणानेन दत्त्वाध्यं जप्त्वा मन्त्रभिसं एनः ।! ६०॥। प्रथमे मोदकान् `
पञ्चम मण्डकान् दद्यात्षष्ठे सोहालिकास्तथा अत्ीकवतिकारचैव सप्तमे मासि ` -. ति ५
| कारयेत् ॥। ६२ ।। अष्टमे शकरासिशषैः खाण्डवे युधिष्ठिर ॥ विप्राय वायनं `
| दद्यादव ती भोजनमाचरेत् ।! ६३ । एवं कमेण कर्तव्यं बुधाष्टम्यां युधिष्ठिर । ` ५.
| करकोपरिस्थम् ।! पषवान्नपात्रसहितं सहिरण्यवस्तरं पद्यत्यसौ यमपुरी न कदाचि- `
|. ` देव ।\ ६५ । इति भविष्योत्तरपुराणोक्ता बुधाष्टमीत्नतकभ्था \। अथोद्यापनम् ।
। यधिष्ठिर उवाच \\ उद्यापनर्विधि बूहि कृपया भक्तवत्सल ।। कस्मिन्काले च कि
समापय दलाग्राणि च केसरान् ।\ कणिकायां
दलेषु च दलाग्रेषु
बांधवैः सह मित्रैश्च भोक्तव्यं प्रीतिपूर्वकम् ।। सोम्यमाख्यानकं शवण्वन्नरकेम्यो `
| विमच्यते !\ ६४ ।। यश्चाष्टमीं बुधयुतां समवाप्य भक्त्या संमूनयेच्छकश्षिसुतं
द्वयं कथं सफलभाग्भवेत् ।। श्रीकृष्ण उवाच ।। आदौ मध्ये तथा चान्ते कुर्यद्या- 1:
पनक्रियाम् ।\ सप्तम्यां प्रयतो भूत्वा कुयदवि दन्तधावनम् ।\ आचम्य कुर्यत्संकल्पं 4.
` दाविप्राचिमन््रयेत् ।\ अष्टम्यां प्रातरत्थाय शुचिर्भूत्वा व्रती ततः ।\ गङ्काचयादि- ` |
` महातीर्थे स्नात्वा नित्यकृतक्रियः गुहमध्य दाचौ देशे रङ्खवल्ल्या विराजितं ।॥ `
पुण्याहवाचनं कृत्वा कुयदवक्लाविधानकम् ।। प्राणानायम्य विधिवत्कृत्वा संकत्पना- `
दिकम् ॥ तिथ्यादयुल्लेखनान्ते च व्रतनाम प्रकीतयेत्।\मया छृतं बुधाष्टम्या त्त् =
साङ्खफलाप्तये ।। उद्यापनं करिष्येऽहमित्यश्षतकुंशोदकम् \\ त्यक्त्वाचार्यादिवरणं `
कु्यष्िस्त्रादिभिः फलः \ ब्रह्माणं वृणुयात्तत् वस्त्रतांबलभषणेः ।\ ततः पूजाद्किं
` कृरयाद्ग्रहयलपुरःसरम् ।। ततस्त्वष्टदलं कर्यान्मध्ये कणिकया सह ।\पञ्चवणः (4
त्यसेदधात्यं पञ्चप्रस्थप्रमाणतः `
यथादाक्त्या विनिक्षिपेत् ॥। तत्रैव स्थापयेत् कुम्भास्मध्य पूर्वा" = `
न संपू वस्त्रादिभिरलङ्कृतान् ॥' पञ्चत्वक्यल्लवोपेता- `
।\ तदुत्तरे ग्रहान्सर्वान्मंडले स्थापयेत्ततः ।। तपूव स्थापय- =
बतः ।। वस्तरत्वक्पतल्लवफलंः पञ्चरत्न: सकार चनः ।। रः (
(दद). - : - श्रवराजः `. [अष्टमी
च्रारायणं देवं बधं बाणसमाङृतिम् ।। चतुभज शंखचक्रगदाशाङ्धधरं जयेत् । 1: |
आत्रेयं पीतवस्त्रं च पीतपुष्पाक्षतादिभिः ।! उपचारेः षोडदाभिः पुरुषमुक्तविधा-
तदृक्षिणे विष्णुभिदंविष्णुरित्यधिदेवतम् । सहस्रशीर्षापुस्षं वामे प्रत्याधि- `
देवतम् ।। दलेषु विन्यसेहेवान् प्रागारस्य प्रदक्षिणम् ।। राव चन्द्रं कुजगृरू रुका
राहुकेतुको ।। अनन्तं वामनं विष्णुं शौरि सत्यं जनादनम् ।। हंसं नारायणं चाष्टौ
दलाग्रेषु च पूजयेत् ।\ धूपदापिहच नवेशः फलंश्च विविधयजेत् ।\ बहिरिद्धादयः _
पज्या दश्दिक्यालकास्तथा ।। यमं च चित्रगुप्तं च श्यामलां दक्षिणे यजेत् ।॥
` कुम्भेषु वंशपातरेषु अष्टावष्टौ च लङ्डुकान् । यज्ञोपवीत सफल दक्षिणासहिता-
न्यसेत् ।। पूजयित्वा ततो होमः शाखोक्तविधिना सुधीः ।। मण्डलात्पर्चिमे भागे
स्थण्डिलं चतुरलकम् ।। कृत्वा तृल्लेखनादीनि कत्वाग्नि स्थापयेत्सुधौः 1! इध्मं `
दर्भः परिस्तीयं पात्रासादनसाचरेत् ।। प्णपाच्रविधानान्ते इहसनमतः परम् ॥
ईध्माधानमुखप्रान्ते प्रधानाहुतिहावनम् ।। अपामागंसमिष्िरिच यवत्रीहितिरे-
घु तैः ॥ गोधूमः सतिलर्होमं पृथकूपुथगतन्दरितः ।। उद्बुध्यस्वेति सन्त्रेण होम-
मष्टोत्तरं शतम् \\ कृत्वा तु विष्णुमन्त्रेण तथा नारायणं हुनेत् ।। अधिप्रत्यधिदेवौ `
च मन्त्राभ्यां जुहुयात्तथा ।! ग्रहादिभ्यङ्च जुहुय त्प्रायश्चित्तादिकं तथा ।। पुर्ण त् ५
तथा ।। दत्वा ब्रह्यादिविग्रभ्यः कलशांश्च सद्षिणान्\। ब्राह्यणान्भोजयेत्पश्चा-
दाश्िषो वाचयेत्तथा ।! इति भविष्योत्तरयुराणे बधाष्टमीव्रतोद्यापनं संपणेम् ।।
` बुधाष्टसोव्रत-बुधवारी अष्टमौको होता है! इसमें अष्टलौ नवमीसे युक्ता सेरी चाहिये,
क्योकि, शुक्लपक्षकौ अष्टमी जौर शुक्लयक्षकौ चतुर्दशी पू्वषिद्धा न करे कन्तु पर
संयुक्ता करनी चाहिये, वदि दो दिन उसकी व्याप्ति हो अथवा न हौ तोपर्वा छेनी
चाहिये, यदिमृहूतमात्रभी हो तो भी परालेनी बाहे ।! (ग्रन्यकारने ब॒धवारी चरुक्लाष्टमौको
बुधाष्टसीत्रतका विधान किया है } अष्टमी तिथि प्वेविद्धा ओर परयुता दोनोह मिल्सकती है, केवल
अष्टमौका हौ विचार हो तो पवक ग्रहणका ऊपर कहाहुभा विचार होसकता है पर यह व्रत वारभ्रथ
ता हैः वार दो नहीं हो सकते, इस कारण रेखककी कही |
इस कारण उसके लिये एेसा विचार करना उचित नह
भी केवल त्याग ओरं ग्रहणमात्रकाही मालम्
` व्रतानि]
हिन्दीटीकासदहित
जब जब शुकलाष्टमौ बुघवारी हो तब तब उसे एक भक्तवाले पुरुवक्ते ग्रहृण करनी च्ठिये किन्तु संध्या- `
| कालचंत्र ओर जनादंनके यनम बुधाष्टमौ न करनी चाहिये, क्योकि, करमेसे षं पण्योका नाक करती है ४
। इसका भाखरी ''हन्ति पुण्यं पराछ्ृतम् ` इतना दुकडा नहीं रला है । इससे निषेध तक तो उसके यह्, `
। भी सिद्ही है कि, इनमे बुधाष्टमी मौ करनी चाहिये ।॥ इते देखकर हम इसी सिढन्तपर पहुचे है करि,
| वार प्रधान माननेपर तो इस विचारकौ कोडं संगति हौ नहीं है । यदि वारं प्रधान हो तो उस समयमी
पूर्वविद्धाके ग्रहणका निषेध करनेवात्म वाक्य स्वयंही निर्णायक होगा । उस पक्षम भी इद आवश्यकता `
नहीं है इस सनके उपर दृष्टिपात करनेसे सुतरां हम इस निदहचययर पटच जाते ह कि यहु पाठ सर्वथा भ
असंगत है इसकी कोई आावह्यकता नहीं है !) चँत्रमासमे, सन्ध्याम, जनादनके शयनमे बधाष्टमी
नकर, करे तो पुवषुण्यका नाह होता है ।\ त्रतविधि-प्रथम चाव जल जर कुछ द्रव्य हाथमे ठेकर ओं `
` तत्सत्" इत्यादि देद्य, काल ओर अपने गोत्र नामादिकोका उल्लेव करके नम" इस मलमें उल्क्वित
` वावयसे संकल्प करे जौर उन चावल, जल ओर द्रव्यको छोडे । "भ' इसका अर्थहे कि, मेने अपनेइस `
जन्ममे तथा दुसरे जन्मके बाल्यावस्था लेकर अबतकके शरोरसे, मनसे जर बाणौ से एवं जानधेया
, अनजानसे दरुसरेके द्रव्यादिका जो अपहरण किया है, उस पापकी निवृत्ति तथा पुत्र पौत्रादिकोकौ सम्पत्ति `
एवं दृसरे इसरे सभी मनोरथोको पूति तथा श्रीपरमेश्वरकी प्रीतिके ल्य अधाष्टमीके वरतको कर्मा सौर `
` उस ब॒धाष्टमीमं विहित बुधपरूजनको मी करूगा । बुधदेव की मृति बनवाकर कलश्यर स्थापित करे, `
षोड उपचारो से पूजन करे । ध्यायेऽहुः इस मन्वे प्रथम बुधदेवका ध्यान करे ! इसका यह अथं है कि,
चतुभज, ग्रहोमे श्रेष्ठ अत्यन्त प्रसन्न मुलारविन्दनाले, ज्ञंख, चक्र, खद्ध, ओर पासे श्लोभायमान चार `
हाथवाले इराके वल्लभ (पति) बुध देवका में च्यान करता हूं । पीत पुष्वोकी माला मौर पोताभ्बरको `
धारण करनेवाके, कणिकारके समान कान्तिवारे, खद्ध चम्मं ओर मदाधारी, ्िहवाहन बधदेव बर
देनेवाले हं । तारासुत' इससे आवाहन करे । इसका यहु अर्थं है कि, हे तारानन्दन ! हे नक्षत्राधीज्ञ
` चन्द्रमाके प्रिय पृच्र! हे ग्रहोमेम्ख्यब्ध! जप यहां पधारे में आपका पूजन करता हं । आपस्वीकारकरे। `
आपके लिये नमस्कारै “ओं उदबुध्यस्वाग्नेप्रतिजागृति त्वमिष्टापूतं संसुजेथामयञ्च, अस्मिन् सधस्थेदः =
अध्युत्तरस्मिन् विश्वेदेवा यजमानश्च सीदत" इस संत्रका यज्ञम विनियोग किया है । अग्निदेवता,पर- `
ध मेष्ठी ऋषि जौर आ्षौिष्ट्प साना है । इसका अर्थम अग्नि देवके विषयमे ही किथाहै। परकर्मकाण्ड `
मंत्रसंग्रहमे इसे बुधके जावाहनमे इसका विनियोग किया हैदस कारण इसका नुधपरक अथं करते है-आप `
` बधदेव है आपसावधान हो मेरे आह्वानको सुनकर यहां पधारं। जाप इष्टापुतंओरनिरोगतके देने
बाले है, इन सबके साथ बंठनेके स्थानम आपबेटेजहां कि, सब देवता सौरयजमान बैठे है। इसमत्रस्े `
५ ` मध्यमे बधका आवाहन करके “इदं विर्णुवचत्तमे'" इस संत्रसे अधिदेव विष्ण भगवान्का आवाहन करके ` `
` प्रत्यधिदेव नारायण भगवान्का पुरषभुक्तसे आवाहन करे (इनका पहिले अथं कर चुके हँ) इलापतेः `
स मंसे बधरेवकत पदेवके सिये आसन दे । इसका यह् अर्थ है कि, हे इलाचल्लय { है चन्द्रमा प्रियनन्दन ! =
नी लाया हूं । इत पाद्यको आप ग्रहण १ र
वि (३४०), ४ | र | ब्रतराज [ अष्टमी-
जिससे यह् ब्रत पूणं हो अतो देवा यह ऋष्वेद अष्टक १ अध्याय दोका सातवां छः ऋवार्जोका सुक्त है \\
(इसमेसे-“अतोदेवा” तथा “इदं विष्णुः" इन दोनों मंतरोकी व्याख्या ३९ वे पृष्ठम कर चुके ह) ओ
च्रीणि पदां विचक्रमे विष्ण्मोपाऽमदाभ्यः । अतो धर्माणि धारयन्” किसीसे किसी तरह भीन दबाये
जानेवारे सबके रक्षक विष्ण भगवान्ने हग्यवाह अग्निके रूपसे तीन अग्नि कुण्डोमं अथवा वामन रूप
से तीन पदोसे अतिक्रमण किया ! अग्निसे यक्तादिक धमं तथा उपेन्द्रूपसे इंदरका परिपालन ओर वत्स-
त्यादि धर्मक धारण किया) “ओं विष्णोः कर्माणि पश्यत यतो ब्रतानि पस्पशे, इद्रस्य युज्यः संखा
` जिस कारण ब्रतोका निर्माण किया है विष्णु भगवान्के उन कर्मोको जानो \ ये इदरके योग पाने योग्य
सखा हे ।\ “ओं तद् विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सुरथः, दिवीव चक्षुराततम्” प्रका्क्लीक व॑कुण्ठमं
जिसके च्यि किं, ऋषि म् नि यत्न करते करते थक गये पर न पासके उस परमपदको यानौ आश्रितवत्सल
भगवच्चरणको विष्वक् सेनादि अनंत कोटि सुरि निर्भिमेष दृष्टिसे देखते रहते हे, अथवा जसे आवरण
रहित आकाश्लमें आंख खोलकर सब कुछ देखलेते हँ इसी तरह परा भक्तिके परमात्माके परमयदको
` देखा करते हे । ओं तद्विप्रासो विपन्यवो जागृवांसः खमन्धते, विष्णोर्यत् परमं पदम् }"' चिष्ण् भगवान्का
जो परमपद है उसे वे विचारज्ञील मेधावी एवम् अपने पथयर सदा जगेहुएु स्तुति शील सुजन ही देखते `
हं। केही वैकुण्ठमे जाकर देदीप्यमान् हते हँ! इन छः मन्त्रोसे पुरुष मुक्त ओर 'उदनुध्यस्व' इससे बुधको
स्नान कराना चाहिये । (अधिदेवता प्रत्यधिदेवता ओर देवताके कमसे तो यही ध्यानसं आता है किः
मू श्षपर कषा करनेको इन दोनों पीतवस्त्ोको स्वीकार करे । “यज्ञोपवीतकम् इससे यज्ञोपवीत चटधे । `
इस्तका यहे अथं है कि, हे देवताओके पियारे हे बुध ! आपं त्रिगुणितं सुत्रवाले यज्ञोपवीतको लीजिये! `
मेरे पायोका नाह करनेके लिये मुश्चे अनुगृहीत करें । "हरिचन्दन इसमे चन्दन चाचत करे । यह इसका
अथं है कि, राजाओके वंशषको उत्पन्न करनेवाले हे प्रभो ! है उर्वंशीके पति पुरूररवके जनक ! आप ध | ५ ८
अंह कि, है इलाके प्राणनाय ! चन्दन, कस्तुरी, कुर ओर केसर इनसे भिभ्रित इस गन्धसे आपको `
चचित्त करता हूं, आपके लिये प्रणाम है । 'अक्षतांश्च' इससे चावर ओर माल्यादीनि इससे पुष्पोको
चढ़ावे । अद्ध पुजा-बुध, सोमपुत्र, तारक, राजपुत्र, इल्यप्रित, कुमार पुरूरवः पिता, (पुरूरवाराजके `
| ` पिता) सोमसुत, पीतवणं ज्ञान, बध, सोमसुनु ये बारह नाम हे तथा पाद जान्, कटि उदर, हदय, वक्षःस्थल, = `
बाहु" स्कन्द, मुख, नेत्र मूर्धा ओर सर्बाद्धः ये बारह हँ । पहर कहे हए नामोके मन्तन से एकएक्से
एक अद्धका पुजन होता है । वाक्य योजनाका वही पहिला तरीका है । वनस्यति' इस पूर्वव्याह्या- `
43.
तमन्नसे धूप, साज्यं च वत्तिसंयुक्तं' इससे दीपक
नें गृहता' इससे नैवे, शुगीफलं महदिव्यं' इससे ` |
दं फलं मया' इससे ऋतुफक, "हिरण्यगर्भग्भस्थं' इससे दक्षिणा, “धियेनातः = `
ध. ` दिनकीरीकासहित र (ककः
उसमे च् सनेवाला जरूरही स्त्री बनजाता था ।! ४ ॥। मृगया विह्मर्मे जासक्त हो उमावनमे घुसगया,
| होगया।। ५।। (बह पा्व॑तीके विहार करनेका रहोवन था, इसीसे उमावन कहते हँ । इसमे प्रवेशके
॥ | ८ अवदयही स्री चिह्न धारी हौ जायगा ।) इसीलिये बहु पीन उच्तस्तनोसे सुस्दर, सुधर हौ शन्य नमे ` |
| इधर उधर अपने अनुयायियोकी खोजमं घूमने लगा } वहू इखारानी अपने मनम ज्ञोचने चंगी कि,
| नर्हा ।\ ६॥ रे घुन्दररूप ओर दिव्य यौवनसे सम्पन्न हुई उस इलारानीको चन्द्रमुत बुध देखकर `
| ` कथो 11 ७।। उसके सौन्द्यको देख चन्द्रनन्दनने अपने गृहकी नायिका बनायी \ उसमे उन्होने एक पुत्र `
| ` मन्तिोको संग ले !1 ३11 हिमाख्य पर्वतके एक पार्व॑वत्ती प्रदेशमे गया जो महादेवजीसे पाल्तिथा। `
1 ` जसे पि सबसद्धियोको पीछे छोड घोडपर आरूढ हुञा एकाकी हौ उस वनमें प्रविष्ट हमा वेसेहीस््री |
| विषय मे महादेवनौकौ यह आज्ञा है कि, जो कोई यहां पुरष चिह्वाला प्राणी आवेगा, वह् उसी क्षण ` ५
| कहां आगयी यह स्थान किसका है ? मे यहां कंसे चली जायी ? पर उसे पहले नामह्पका भौ स्मरण
। कामासक्त होगये । वह बुधाष्टमीका दिन था ! जिस दिन बुधजीने उस इलारानी पर संतुष्ट हो आसक्ति =
। उत्न्न किया । उसका नाम (पुरूरवा हज ।\ ८ 1} यही पुरूरवा चन््रवंशी सब राजका वंशप्रव्तंक `
| . आदिमं सम्राट् हज इसी समयसे यह बुधाष्टमी अत्यन्त पूज्य हुई ।। ९ ।॥। इसीसे इस दिन बुधकी प्रस- = `
च्नताके निमित्ति जो बुधका पुजन, त्रत ओर दानादि करते है उनके सब पायोकी रान्ति एवं समस्त उप- = `
द्रवक निवृत्ति होती है । है घस्मराज ! इस बुधाष्टमौके विषयमे जौर भी कुछ कथा कहता हू, उसेभी .
सुनो ।\! १० ।! पूर्वकाले विदर्भा (मिथिला) नगरीमे निमिनामका राजा.था \ शत्रजोने परस्वरमें `
मिलकर उस वीरको संग्राममे मार उसका राज्य अपने अधीन कर लिया उसकी रानीके पास कुछ नरहने
देया \\ ११ \\ निर्धना ऊमिला रानी अपने छोटी अवस्थावाले पुत्रीपुत्रोको साथ लेकर अन्न वस्त्रक
चन्तामं इतस्ततः चमती हुई उज्जयिनी नगरी जा पहुंची । एक ब्राह्मणके ।) १२।) कृते पीसनेके `
कामपर नियुक्त होकर उदर पूति करबेलगौ । उसने उसके गेहंभोमेसे सात गेहके दाने उठाकर अपने `
दोनों बालकोको चाबनेके ल्य दे दिये ।\ १३ ।1 क्योकि वे बालक क्षुधासे अत्यन्त पीडितहो रहैथे।!
| सन्तानमें स्वाभाविक वात्सल्य प्रेमभी हआ हौ करता ह बह साध्वी बहुत समय बौतनेपर मर गयी (८4:
| १४ ॥1 उसके पुत्रे अपने पिताके अनुरूप स्वाभाविकं ओजस्विता धारणकर उसी विदर्भापुरीमे अपने
पिताके आसनपर बैठकर अपने बसे भूभिको निःसपत्न करके मोगा ।॥ १५ ।। उस अपनी बहिनिको, 1
वरकीः खोज करके घमं राजके साथ व्याहदी ! वह पतिकी हितकारिणी महानाधिका हुई ।। १६ ॥ =
श्यामला उसका नाम था । अंगना थी सभी शरेष्ठ लक्षण उसमें थे । धर्मराज सर्बाद्ध सुन्दरी मपनौ प्यारीसे = `
ला । १७ ।। कि हे श्यामले ! मेरे घरका सब कामकाज तु कर । एवम् नौकर चाकरोको यथाय 1
प किन्तु देल । ये सात कोठे या पिजडे कौलोसे खुब बन्दकर रखे हेहै वेदेह
नन्दिनि ! इन्हं कभी भूककरभी मत खोलना ।। १९ ।। फिर “एवमस्तु अर्थात् जैसी आपने आल्ञाकौ `
सेही सब किया जायगा, ओर वैसाही हो । इस प्रकार स्वीकार कर अयने उचित कायं करने ल्गी।
(३४२) ५ | | ५ 0 त्रतराज ॥ क [ अष्टमी-
५ किलक ऊपर दैठाक लोष्टकोंसे पीसते हे। फिर वेसेही तीसय प्रवर (पिञ्जरा) खोला, उसमेभी वैसेही ` | 4
अपनी माताको देखा \ बडीबडी घण्टा निर्ह दोनों ओर क्टकरही हे, एते हाथी उसे अपनी सूंडसे
` उठा उठाकर नीचे यटकते हँ बारबार लोकरोसे टकराते हं ।। २४ ।। फिर चतुथं प्रवर (धिजर) देवातो `
४ उसमे भी भयंकर दष्ट ओर दन्तवाले भयंकर मृखं कुत्ते खारहे हं ओर कभी जो अभक्ष्य (मलमूत्रादि) |
भक्षण करनेके लिये उद्यतं कर उसे रुलाते हं । कभी कुकाक्योसे बारबार दुखी करते हं । बही साता रोरही
| है\\ २५.।) पञ्चम प्रवर (पिञ्जर) खोला तो उसभरं मौ माताको सतते सिके \ उसे नीचे पटककर-
` श्षिरमे लात मारते हँ । संडासिथोति कण्ठको पकडकर वस्त्रौ भांति निचोडते हें ! कभी सहस्रौ घनो | |
पीडितकर छिन्न-भिन्न करते हँ \\ २६ \\ छट्ठे प्रवरको (विजडे को) जब खोलकर देखा. तब उक्षमे मी
ष अपनी माताकी वसी दुर्दशा हौ ष्टी है । ऊखके रस निकालनेके थन्त्रमे दबके उसके मस्तकषर मुद्गरका
प्रहार करते हँ कभी जैसे काष्ठको तांछते है, एेसे ही बारबार इसेभी तछते हँ ।\ २७ 11 पीछे सप्तम ` 1
प्रवर (पिञ्जर) के द्वारका कौला दरकर खोला ! उसमे भी माता उसीप्रकार पीडित कौ जाती है ।
भर्यकर कुमियां खा रह हँ बो अत्यन्त दुःलौ है ।। २८ ॥\ पर उस संकटमे जीती हुई अपनी दुःखित माताके ` ५
दुःखको देखके हयएमला देवी श्लोकग्रस्ते होगयी । मुलम्लान हेया । चुपचाप होकर एक जगह पडगयी ।
ष फिर यमराज आये, उन्होने अयनी ध्रियाको शोकश्रस्त देखपु्ठा कि ।। २९ ।! ह भामिनी ! क्यों उदास
. ही रही? हे अनिन्दिते) खडी हौ । तुमं श्या चिन्ताहै ? उसका कारण कहो । क्या तुमनेवेप्रवर
(पिञ्जर) तो नहीं खोले हे \\ ३० 1। मेने इनको खोलनेकौ मनाही पहिले ही कौथौ । एसे जब अयने ६ ५
श्राणभ्रिय धस्मैराजजीने पृछा, तव उथामलाने अपनेक्षिरको उनके चरणोमे टिकाके प्राथंना कौ । ३१ `
तरहसे पौडित करते हो \1 ३२।। हे राजन् }! जब इस प्रकार प्रियाने पूछा तो उस प्रहनको सुन मन्दमन्द
हंसते हुए धर्मराज बोरू कि, वुम्हारी माताने तुमारे स्नेहसे (ब्रह्मणके सात) गोधूम उटठाकल्एिथे ।\ ३३ ॥\
`: हेमे! क्या तुम उस चोरौको भूल गयीहो! या नहीं जानती? जो मुक्ते तुम पुच्तीहो\ याद
रखना कि ब्राह्मणा अच्च प्रेमसे भौ यदि खाया जाय तो भी वहु अन्न खानेवालेकरे सात कुललोको दग्ध
करता है ।। ३४ ।। इसीसे तुम्हारी माता सप्तम कुलतक कृमि आदिकों से पीडितो रहीहै । (येप्रवर
` (षिज्जर) कुल्ही हं) बेह गोधूम भयंकर कीडे हो गए हे ।। ३५ ।! जो पहिले तुम्हारे लिए ब्राह्मणके
घरे चोरे थे, जो तुम्हारी माताने पहिले किया था उसे मे जानता हूँ ।\ ३६ ।\ इ्यामलाबोली कि, है
प्रभो! फिरभौ आप उसके जामाता है, सर्वथा प्रम् ह; आपका इस प्रकार आश्रय होते हृए् बह किसी `
प्रकार उस पापे छूट. उस उपायकरो जाप करे ।। ३७ ।! श्यासलाके वचनसुनकर धराज पहिले तो
1ता पापपुञ्जक्े क्लेशे निमुक्त हौ जायगी । अपन र ।
बहुत चिन्तामे हुए, बहुत समयतक विचार किया, फिर शोचकर अच्छी तरह अपने जासनपर विराजमान ८
मेरे सम्मुख सत्यप्रतिज्ञाकर उस ब्रतके पुण्यको दे दो “
श्रतानि] हिल्दीटीकासहित (३५३)
न
४ 11.
ताण ०००७००५ 1 1 मिनन किकी
ब्रुघवारीहो)) ४६।) तब तबत्रतके किए एकबार भोजन करनेवाला हो व्रतका आदर करना चहिये!
` प्रातःकाल उसदिन नदीमे स्नान करके एक नूतन करवा अयने हाथों लेवे ।\ ४७ ।। उसे जल्घे पूर्णं
स्थापित कर उनका पुजन करे 11 ४८ ।। वह मूरति एकमासे भर सुवणं कौ प्रयत्नपूवंक करानौ चाहिये,
श्दितह्ास हौ तो जे मासेभर सुवणकौ, अधिक शक्तिह्धास हौ उससे भी आधे सुवणं की हो । अपनी
| शक्तिके अन्सारजौर भी कमव हो सकती है । वंसीहौ सामग्री इकंट््ली कर उसका पनन करे । ४९।।
| एक अंगुष्ठ परिणामं मूतिहेनी चाहिये ¦ पुरुषाकृति हय, चार भुजा हो, दीखनेमें सुन्दर हो । उसके `
५० ॥ उसके ऊपर शवेततण्डुलोसे पुणं सुवणं पात्रको रखे । (शापितहासमे मिट्रोतकके पात्रको रख
क्रे, उस जलमें अमूल्य उत्तम रत्न डाले । उसे घर लाकर उसका पुष्यादिकोसे पजन करे, फिर बुधको `
` पूजनका प्रकार यह है कि, किसी पवित्र देशम कमर्का आकार लिखके उसके मध्यभागसे कणिकाके
ऊपर अव्रत कलकशको कलशस्थापनको विधिके अनुसार स्थापितकर उसका इवेत तण्डुलोसे पजनकरे `
` ले) उसे दो पतिवस्त्रोसे कदे \ उसपर बुधदेवको विराजमान करे, फिर उनका पीतवस्त्र पीत्तअक्षत = `
पीतयुष्प आदि उपचारोसे दूनन करे \\ ५१ \। पञ्चामृतसे अलग अलग ओर एकजार सम्मिलितकी रीति
८1 | ध । | | सभी स्नान करावें | उख स्नान करानेके वैदिक ओर तांत्निकमरत्र ( पुव कह आय ही ह या ) प्रसिद्धही ध |
५. हें । नैवेद्य चढावे, दक्ञाङ्क सुगन्धित गुम्गुलकी धूप करे, \। ५२ 1। घृतपूणं खीर घीके लइ अश्षोककी कलिका क
नानाविध फल तथ पक्व जौर पीत मुडके पदार्थोका भोग ल्गावे ।\ ५३ ।! पीछे एकादश नाममन्त्ोको
` बोलता हृजा पीत पुष्प ओर पीताक्षतों दाय चरणादि अद्घोकी पथक् पृथक् पुजा करे । उसकाप्रकार
रे लिये दान करे । इत संत्रसे अध्यं देकर फिर
{1 ^ ` ह, उन सब त गे बघदेव >
“ओं तारायुताय नमः, कटी पूजयामि" ४ "ओं द्विजराजयपुत्राय नमः, उदरं पूजयामि" ५ “ओं इला- 1
प्रियायनमः, हदयं पुजयामि'' ६ “ओं दुमारायनमः, वक्षः पूजायामिः' ।। ५५ ।। ७ “ओं पृुरूरवःपित्रे ५
। नमः, बाहू पुजयामि"" ८ “ओं सोमचुताय नमः, स्कन्धौ (अंसौ) पुजयामिः' ९ “ओं पीतवर्णाय नमः, = `
मुखं पूजयामि” १० “ओं ज्ञानमृतेये नमः, नयने पुनयामि" \। ५६ 11 ११ “ओं बुधाय नमः मूर्धानं `
द ॥ ६ ॑ ( मस्तकः } पुजयामि" ।। एकादशमन्त्रोसे १ चरण, २ जानुः ३ कटि, ४ उदर, ५ हव्य-द वश्षस्यलः 1 १ ध
७ बाहु, < स्कन्ध, ९म्ख, १० नेत्र ओर ११ वाँ मस्तक, इन अङ्कोपर पीत पृष्पाक्षत् चाने ।येअंगभी
प्रुजनकीौ प्रक्रियाके साथ उपर दिखाये जा चुके हे, फिर सोने चांदी या तिके सुन्दर पात्रमें ।\ ५७।।
गुग्गुल, गन्ध, पुष्य, ओर अक्षतोको लेकर अपनी जानुभओंको धरतीपर भिडा विशेष अच्यं दान करें | ५८।। `
कि, जो उरव्ञोका इवशुर एवं पुरूरवा राजर्षिका पिता भर सब ग्रहों शरेष्ठ है बह बुधदेव अर्यको ब्रहण = `
| ` करके मेरे ऊपर प्रसन्न हों ।\ ५९ 11 विष्णु भगवान् तत्त ्धोगसे मोक्षपय्येन्त जिन वरोका प्रदान करते
| ध | र इस मंत्रको जपे 1 ६० । प्रथम- =
र बुधाष्टमं का दसीके दिन् मोदक, हितीय बार फेनी, तीसरी बार घृतवुर (पक्वान्नविलेष) चतु्थबार वटक `
^ 1 ॐ र % । ।
। „6 । ` 6 । व । अ ष्टमी (न
{ २६४ ) वरतराज [ |
+ ए ५9 भ न 3.1. (1 स 4 0 प
पुर्वदिन यानौ सप्तमी के दिन प्रातःकाल उठकर सलन्मृत्रत्यागादि एवं दन्तधावन करे, पीछे साधारण
स्नान करके शद्ध हो आचमन करके संकल्प करे । दश्च उत्तम सदाचारनिष्ठ ब्राह्यणोको निमन्त्रित करे ।
` दूसरे दिन अष्टमीमें प्रातःकाल उठकर सलमूत्रत्छगादि करे । फिर स्नानादि करे भौर पवित्रहोकर
पवित्र नदी आदि जलाञ्चयषर स्नान करे \ पौ नैत्यिक सन्ध्योपासनादि करम्मानुष्ठानसे निवृत्त हो रद्ध `
वतिलभादिसे सजाये हए पवित्र घरके मध्यभागमे पवित्र होकर पुण्याहवाचन ओर रक्नाविधान करे। |
विधिवत् प्राणायाम करके संङल्पादि करे । 'संकल्पकी यह् विधि है कि, प्रथम जलाक्षतादि दक्षिण हाथमे
` क्तेकर “ओं तत्सत् सत्” इत्यादि वाक्यकल्पना द्वारा देक तथा तिश्यादि कालका उल्लेख करके अपने `
गोत्रनामका उल्लेख करता हुआ कहे कि, सेने जो अद्यावधि बुधाष्टमीके त्रत किये हूं उनके सद्धपुणं
` हनेके फल्णेकी प्राप्तिके व्व बुधाष्टमीत्रतका उद्यापनं करूगा \ पीठे अपनेहायमे स्थित जलक्षत कुश्च
ओर द्रव्यको पुथिवीषर छोड दे । पीछे वस्त्र पत्र मन्ध द्रव्याभूषणादि दारा आचाय, ऋत्विगादिकोका `
वरण करे । वस्त्र ताम्बृल एवं भूषणादिषहवासः ब्रह्माका वरण करे । गणपति पूजनपूर्वक नवग्रहोका पूजन `
करे । फिर महान् विस्तृत अष्टदल कमलका जकार लिलते, उसके मध्यभागमे कणिकाका जाकारभौ
लिखे । पच स्गोको दलभाग एवं केसरो उत्तम रोतिसे पूणं करफे उसे सुन्दर बनावे ! कणिकामे पाच `
भ्रस्थ धान्य रखदे । पत्ते एवं पत्तोके अग्रभाकगोमें मौ यथाक्षक्रिति धान्य रदे । धान्यराक्िथोपर नव॒ `
कलकषोको स्थापित करे । गङ्गाजलप्ते उनको पणं करके वस्त्र तथा मालासे वेष्टित करके पञ्चत्वक्
तथा पञ्चपटलवोसे शोभित करे । इन कलदोको एसे देशमे रखे, जिसके उत्तरम प्रहमण्डल हो ! या =
उस ग्रहपूजनपालीको इन कल्ोके उत्तरमे स्थापित करे । ग्रहमण्डले पूर्वं अर्थात् ईश्चानमे, वणका =
ला अवय रखे ! उस कलाम जलपूणं करके उसके कण्ठभागसं वस्त्र वेष्टित करे, उसके मुखस पल्लव,
त्वक् (छाल) फल रवे । उसके उदरमें पञ्चरत्न ओर सुवर्णको छोड । इनके जो जो सन्त्र है, उन उनसे `
| ४ 1 धान्यादि स्थापन करे । विधिके अनसार प्रतिष्ठा करके पुजन करे । जखाक्षत दहने हाथमे केकर संकल्प
करे कि, मेने सात जन्मोमे जो जो पप किये ह उनके दुष्ट भोगोंकौ तिवुत्तिके लिय बुघाष्टमीनब्रत किया
है (कयि), मे जब उस (उन) की साद्धफल प्राप्तिके अथं बुधका पजन जोर हवन करता हूं । यह
सब पूजनादि बुधदेवकी प्रीतिके लिये हौ । श्र्ष्णचनदर राजा युधिष्ठिरसे कहते ह कि, एक कषं (तोके) `
` याञषेकषं (आधे तोल) या एक पाद कषं (चार आने) भर सुव्णकी ही बुध्रतिमा बनवा पूवं उल्लि-
. खित कमल कणिकामें स्थापित किमे कलाक ऊपर तामडी रखकर वस्त्र आस्तीणं कर उसयर उसको `
, स्थापित करे । पञ्चामृतसे स्नान कराकर कटि तथा अंसोमे पीत घोतवस्त्र एवं पीत इषटूा धारण करके `
बाणाकार बुधको, भगवान् नारायणस्वरूयसे ध्यान करे ¦ यही ध्यान करे किं ये बुधदेव साक्षात् चतु्मन `
ध । वरतानि 1 ध | 6 हिन्दीटीकासहित ॥ (अ (२४५ ) ।
| शद्ध मत्तिकाका बनावे उस स्थण्डिलमे सुवेसे भूमिके उतलेखनादिरूप पाच संस्कार करके अग्निस्थापन _
। | करे, विदान् ब्रतीको चाहिये कि वह समिधा, कुशास्तरण ओर प्रणीतादि पात्र इकट््ठे करे ! पूणेपात्रं
| तथा बरह्यासनका आस्तरण करे। इस प्रकार समिधाधान करने पीछे अपनी अपनी शाखानुसार गृह्यसृत्रोके
|. कहुए विधानको स्थण्डिलमं प्रधान आहुतिका हवन करे। देव अधिदेव ओर प्रत्यधिदेव इन तीनोके
| लिये जहृतियाँ देनी चाहिये । इसौ विषयमे यह वाक्य है कि, पृथक् २ होम करे यानौ तीनौकोभिन्नर्
| द्रव्योसे आहुतियाँ देनी चाहिये; घौ सिश्चित अपामा्गंकी समिध एवं घो मिथित यव ब्रीहि तिल तथा
| घौ मिधित तिल ओौर गोधूमसे पृथक् पुथक् निरास होकर हवन करे ! “ओम् उद्बुध्यस्व इस मंत्रसे `
। १०८ आहुतियाँ बधके लिये तथा विष्णुके मंत्रे विष्णुके ल्य ओर नारायणके मंत्रसे नारायणको आहूति =
दे} ग्रहादिकोके लिये आहूति देकर प्रायरिचत्तकौ आहूतिका हवन करे ! पूर्णाहुतिका हवन करके पीछे _ | |
| ब्रह्माका विसजेन करदेना चाहिये । पुणंपात्रका उद्वासन ओर बलिदान होना चाहिये । पौरे अग्निका = |
पूजन करके देवता्ओंका विसजंन कर देना चाहिये । अभिषेके पीके तिलक ओर रक्नाबन्धन होना = `
| चाहिये । सपत्नीक आचाय्यंका विधिपूवंक पुजन करके गञ, प्रतिमा, वस्त्र भौर कलश उन्ह देना)
| ब्रह्मासे लेकर जो बाकी याज्ञिक द्विजवर बैठे हए हौं उन्हे कलश देने चाहिये ! पीछे ब्राह्मण भोजन कराकर `
| सबसे आशीर्वाद रेना चाहिये । यह श्रौ भविष्य पुराणका कहा हज बुघाष्टमीके त्रतका उद्यापन पूरा
| . हआ । ( ध 110 १
॥ ८ दशाफकाष्टमी तत 4
अथ शुक्लादिश्रावणकृष्णाष्टम्यां दशाफलव्रत्तम् ॥ सा निद्ीथव्यापिनी
ग्राह्या \। तत्र पजाविधिः-तमद्भुतं बालकमम्बुजेक्षणं चतुर्भुजं शंखगवार्युदायु- `
धम् ।। श्रीवत्सलक्ष्मं गलशोभिकौस्तुभं पीताम्बरं सान््रपयोदसौभगम् ।। महाह-
वैदूयक्रिरीटकुण्डलत्विषा परिष्वक्तसहलकुन्तलम् ।। उदम काञ्च्यङ्ध"दककणा- `
दिभि्िराजमानं वसुदेव एेक्षत 1 कृष्णाय ० ध्यानम् ।। वायुदेवाय० आवाहनम्! `
` केषह्लायिने० आसनम् ।। तीर्थपादाय० पाद्यम् ।। गङद्धाजनकाय० अच्येम् । `
॥ । | थम्नावेगसंहारिणे न० आचमनम् ।! नित्यमुक्ताय० पञ्चामतस्नानम ॥। श्र - ध ।
` गोपालाय० स्नानम् ।\ पीतवाससे न° वस्त्रम् ।। यज्ञप्रियाय ° यज्ञो ४.
{:
1
| वलसीः पे पत्र्नामपुना-कृष्णाय नमः विष्णवे न° । हरये न° । शेषशायि
| (३४६) अ व्रेत॒राज १.9. [ अष्टमी
. निधिः \\ दानेनानेन सुप्रीतो भवत्विह सदा मम ।\ इति वायनसन्त्रः ।। श्रीकृष्णः `
नमः ।। इति प्रतिग्रहुमन््रः ।। यस्य स्मृत्येति प्राथना ।। जथ कथा \। सूतं उवाच \
श्वुणुध्वमृषयः सवे नैमिषारण्यवासिनः ॥ पुरा च हापरस्यान्ते कृष्णदेवेन भाषि-
तम् \\ १।\ तद्न्नतं वः प्रवक्ष्यामि साङ्खोपाङ्धं मुनीरवराः।। पुरा च दापरस्यान्ते
पाण्डवाः कौरवास्तथा \\ २ \\ चयते प्रचक्रिरे सवं घनमानेन मोहिताः ।\ निजिताः
पाण्डवा दुःखाह्नं जग्मुमुनीरवराः ।। २११। कुन्ती विदुरगेहेः तु संस्थिता च महा-
यज्ञाः ।। तच्छ त्वा कृष्णदेवोऽपि कृपया परया युतः । ४ ।। आययौ गर्डारूटो `
। विदुरस्य गृहं भति 1। तत्राप्यन्महावाहं कुन्ती परमहषिता ॥\ ५.।। विदुरेणा- `
चितः कृष्ण कुन्त्या चैव हि भविततः ।। नत्वाह कुन्तीं तां देवीमभस्याभां विड-
म्बयन् ।\! ६ ।। त्वत्पुत्रास्तु महादुःखात् प्रययुगेहनं वनम् ।! तवापि सुमहद्दुःखं
स्वेदा तन्ममाभप्रियम् ।\७।। कुन्त्युवाच ।हूषीकेल महाबाहौ महादुःखेन करिता
कृपया परया देव रक्षिता बयमीद्ह्णाः ।! ८ ।\ मम चव महद्दुःखं त्वयि मां त्रातरि `
स्थिते ।। मल्पुत्रास्तु महादुःखात््रविष्टा गहनं वनम् ।! ९ ॥। कृपया विदुरो मह्यं
रव्य प्रस्थसंमितम् ।! ददाति प्रीतिदः कृष्ण जीवनाय महामतिः \\ १० ॥
त पश्चिमे भागे वसामि च जनार्दन ।। दशिता कौरवाणां हि स्वेषां कुमति- `
स्तथा ।\११।} इति तस्या बचः शरुत्वा कृष्ण
भरति इत्युक्तो
स्पे लेत 1१९ हते
1 कृष्णः परमधमेवित् }\ आहं चैनां वासुदेवो `
भक्तप्रियतमस्तदा ।1 १२ ।। व्रतं ते कथयिष्यामि येन दुःततात्प्मुच्यसे ।। पुत्रपौत्रैः
परिवृता स्व राज्यं प्राप्स्यसेऽचिरात् ।। १३ ।) दशाफलमिति ख्यातं तदब्रतं कुर्
सुव्रते ।\ कुन्त्युवाच \! कस्मिन्काले तु कतव्य तद्त्रतं केशव प्रभो ।\१४।। वद मां
॥ तो यादवेन्द्रो जगाद ह 1! श्रावणस्यासिते पक्षे अष्टम्यां च निक्गीथके ! `
\ १५ ॥ देवक्यां वासुदेवदच प्रादुभूतो न संशयः ।! तस्याग्रे दशगुणितं सूत्रं
पूजये स्ते बद्ध्वा तु तत्सुत्रं दशाह दतमाचरेत् ।। संसारा्णं-
४० !! कृष्णेन कारितं सर्वं मम भाग्याय वे धवम्
हृन्दीटीक [स हत ४ । ४ ( २ ४.५ )
0 शच 14 ? प 9 प तः १ शः
0 (1 ¢ 1 1 10 १
1 पूजयेत्घुधी सौवण ता प्रपान वा मृन्मयं वेणुपात्रकं ।। २४ ।। सोवणं तुलसी- `
| पत्रं कारयित्वा सुलक्षणम् \। प्रतिमां च तथा कृत्वा अचंयित्वा विधानतः ।\ २५।॥ ` १
निधाय ब्रत्तिमां तत्र आचार्याय निवेदयेत् ।! दातव्या गौः सवत्सा च वस्त्रालकार- `
। भरषिता।) २६।। दश्च होमे तु कृष्णाय पूरिका दहा चापेयेत् ।। दापयेत्त ब्राह्मणाय `
| स्वथं भुक्त्व! नथेव च ।! २७ ।। उपायनं च गृह्णीष्व सर्वोपस्करसंयुयुतम् । संस
| राणवमग्नं भां पाहि त्वं देवकीसुत \। २८ ।\ अनेनोपायनं द्वा नमस्कृत्य क्षमा- = `
। पयेत् ।! दक्षिणाभियुंता देवि दातव्याः कृष्णसन्निधौ ।\ २९ ॥। ्रतान्ते दशा विप्रेभ्यः = `
प्रत्येक वहपरुरिकाः ।\ एवं दशसु वर्षेषु ब्रत कुर्यादतन्द्रितः ।। ३० ॥। एवं व्रतं त्वया =
| देवि कतव्य कृष्णसन्निधौ ।। एवमुक्तं तु कृष्णेन कुन्ती शरुत्वा मदान्विता ॥ ३१। =
| उवाच कष्णदेवं सा मम वित्तं न विद्यते ।। परत्युवाच हृषीकेशस्तव वित्तं भविष्यति = `
| ॥ ३२ ॥1 एवमुक्त्वा ययौ कृष्णः कर्णं द्रष्टुं सुखान्वितः ।। कर्णोऽपि च महात्मानं
| कृष्णं दृष्ट्वा प्रहितः \ ३३ ।। {सहासन ददो तस्मं पा्यमध्यं तथव च । कर्णोऽ- =
। प्यवाच देवेज्ञ किमर्थं तव चागसः ।! ३४ ।! इत्युक्तः कुष्णदेवोऽथ तव माताति- `
विता ।\ कणे उवाच ।। भ्रिभयात्तथा कृष्ण मातरं याम्यहं कथम् ।॥ ३५ ॥
कथं वा दुःखतो मातः प्रमुच्येत वदस्व मे ।। श्रीकृष्ण उवाच ।\ सुबणपात्रे संपुयं
पायसं क्षीरसंयुतम् ।\ ३६ ।। निधाय श'तनिष्कं तु दातव्यं वायुदहस्तके ॥\तव॒ `
माता तथा प्रीता भविष्यति न संहाय \। ३७ ।। एवमुक्त्वा ततः कृष्णो द्वारका- `
| भाजगाम ह ।। कृष्णवाक्यं ततः श्रुत्वा कणश्चक्रे महायशाः ।। ३८ ।। पायसेन = `
समाय॒क्तं पात्रं स्वर्णेन कारितम् ।) रातनिष्कसमायुक्तं वायुहस्तं भ्रदाय सः ८ 1
ईप्णयु णपु ना : कत्वा कच् श्रृत्वाज् भक्तितः ।} ४ १ ।। उपायन : 1 गे | तत्र घ
0
(द) सदव क [ अष्टमी-
न्नतस्यास्य प्रभावेण कृष्णस्येव प्रसादतः ।। त्वमप्येवं त्रतं भद्रे कुरुष्व सुसमाहिता
॥ ४८ ॥ पुत्रपौत्रेः परिवृता सर्वात्कामानवाप्स्यसि ।। आचख्यौ तदहं तस्ये
कुन्ती परमहषिता ।\ ४९ ।\ सापि चक्रं महाभागा द्रौपदी व्रतमुत्तमम् ।। तस्मात्स-
वंप्रयत्नेन कतव्य सुजनः सदा ।\ ५० ॥ या भक्त्या कुरते नारी व्रतानामुत्तम
त्रतम् ।। सर्वान्का
कामानवाप्नोति विष्णुलोकं महीयते ।\ ५१ ।! इदं व्रतं महापुण्यं
व्रतानामुत्तमं शुभम् । वदतां शृण्वतां चेव विष्णुलोको भवेद्धर वम् ।\ ५२ ।
इति श्रीभविष्योत्तरपुराणे दलाफलत्रतकथा ।। अच्र मलं चिन्त्यम् ।।
दशाफलत्रत-शुक्लपक्षसे मासारंभ माननेके हिसावबसे रावण वदि अष्टमीके दिन् करना चाहिये ।
इसमे अष्टमी अधंरात्र व्यापिनी होनी चाहिये \! पुजाविधि-पुजाविधानको कहते है-'तमद्भतम्' इत्यादि
दो मन्त्रसे ध्यात करना चाहिये । कि, कमलसदृक् विशाल सुन्दर ने्रवाले, चतुभज, शंख, गदा ओर ` ध
` `. चक्रं इन लोकोत्तर रास्त्रोको धारण करनेवाले, वक्षः-स्थलमे श्रीवत्सचिह्नसे सुशोभित, कोस्तुभमण्सि `
शोभायमान कण्ठवाले, पीताम्बरारी, सान्द्र जलद सदृश्च रमणीय, अत्यन्त महनीय वेदू्यंजटित सुकुट
ओर कुण्डलोकौ कान्तिसे मिभित सहस्र कुन्तोवारे, अभिर्षणीय मेखला, अङ्खद ओर कंकणादिकोसे
शोभमान उस दिव्य बालमूति मुकुन्द देवका में ध्यान करता हूं, एेसे स्वरूपम वसुदेवजीने जिसके देन `
| किये थे। ष्णाय नमः ध्यायामि कृष्णचन्दरके लिये प्रणाम है, मे ध्यान करता हूं । इस प्रकार कहे!
. वासुदेवाय नमः, आवाहयामि" वासुदेवके लिये नमस्कार, आवाहन करता हूं, इससे आवाहन करे, शेषपर
शयन करनेवारेके ल्यं नमस्कार इससे आसन; सबको पविन्नकर चरणों वारको नमस्कार, इससे पाच;
गंभाके जनके लिये नमस्कार इससे अघ्यं; यमुनाके वेगसंहारीके लिये नमस्कार इससे आचमन; नित्य॒ `
` जो मुक्त है उसके लिये न. इ, पंचामृत स्नान, श्रौगोपालके लिये न. इ. स्नान; पीतवस्त्र धारण करने- `
बालके लिये न. इ. वस्त्र; यज्ञ है प्यारी जिसको उसके लिये नमस्कार, इससे यज्ञोपवीत, सवके ईइवरके `
| लिये न. इ. चन्दन, अधोक्षजके लिये न. इ. अक्षत; लक्ष्मी है प्यारी जिसे उसके व्यि नमस्कार, इससे
पुष्प चढावे ।) तुलसौपत्रोसे नाम-पूजा-ङृष्ण, विष्णु, हरि, शेषश्ञाधिन्, गोविन्द, गरुडध्वज, दामोदर,
` हृषीकेश, पद्मनाभ, उपेन्द्र ये ग्यारह नाम हँ । इनके एक एक नाममंत्रको बोकर एक एक्से एक एक `
बार तुलसीदल चढाता जाय, नाममंत्रकौ वही प्रक्रिया है जिसे करईवार छख चुके ह ।\ इस म॑त्रसे डेरा
बधि कि हे पुरुषोत्तम ! संसार समुद्रम इवे हृए पापकर्म मुशे जेसे मनुष्योको भी इसी जन्मभे मोक्षफल्की ८ |
+ पान समर्पण करता हं । स्वव्यापौकेलियेनमस्कार दक्षिणा चढाता हं । पद्यनाभके `
जन् करता हूं । अनन्तके लि. पुष्पाञ्जलि चढाता हूं है भक्तोके प्यारे ! हे द्यके जाने!
> कीके साथ . अध्य हेण ॥ म
| व्रतानि) ह्दीयीकासहिति (३४९)
५ भगवान् कृष्णक पुजन भक्तिभषवसे किया ! भगवान् भी मेघकी आभाको छकाते हृए देवौ कुन्तोको नम-
| स्कार करके बोले ।\ ६) कि तेरे पुत्र बड दुःखोसे वनमें निकल गये, तुमे भी इसका बडाभारीद्रःख
| है । मेरा भी यह् अप्रिय ह! ७ ।॥ यह् सुन कुन्ती बोली कि, हे हृषीकेशा ! है महाबाहो ! हम तो महा-
| दोसे दुःखितहृए हं परह देव ! देसे भी हमं आपने परम कृयासे वार वार बचये हे । मेरे चित्तम
| यहूब्डाभारीदुःखहै किं जाप जसे ।\ ८ ।। रक्षक रहनेषरमी मुक्षेदुःहै ) मेरेपुत्रतो, बडेभारी
| कण्टके मारे गहनवनमें निकर ही गये हैँ ।। ९ ।। प्रीतिसे देनेवाला भारी बृद्धिमान् कौरव्य विदुरमृक्चे
मेरे निर्वाहुके लिये एक सेर अन्नदेदेताहै ।। १०।। है जनार्दन } में घरके पषिचम भागम रहतीहूं ।
| मैने सबौ कौरवोकौ कुमति देख खी है ।। ११ ।। भक्तोके प्रियतम धमेके उत्कृष्ट ञाता भगवान् कृष्ण
` कृन्तीके वचन सुनकर बोलेकिः ।। १२।। मं जापको एक त्रत कहता हुं, जिसके करनेसे सब दुःखोसे छूट त
` जायगी, पत्र पौ्नोसे परिवृत्त होकर थोडेही समयमे अपने राज्यको पाजायगी ।। १२३ ।। उसको दशाफल
| कहते हे हे सुव्रते ! उस ब्रतको करो यह सुन कुन्ती बोली कि, हे प्रभो केशव '?! यह बताइये किस समय `
| वह् व्रत करना चाहिये \\ १४ ।। यह मुञ्चे बताइये । यह सुन भगवान् बोले कि, श्रावण कृष्णा अष्टमीको `
| आधीरात ।\ १५ \\ देवकीमें बसुदेवसे वासुदेव उत्पन्न हुए । इसमें कोई सन्देह नहीं है । उसके जगे दकषकर `
| डराकर, स्थापित करके पूजे \। १६।। हाथमे उस सुत्रको बांधकर दज्ञ दिन ब्रत करेकि संसारसागरे
इने हुए मञ्च जैसे पापकर्म मनुष्योको ।। १७ ।! हे पुरषोत्तम इस लोक ओर परलोकके फलोको प्राप्ति
| कर” इस प्रकार डोरा बांधकर दहावषंतक व्रत करना चाहिये ।। १८ ।! त्रत करनेवाला दशदिनपय्यन्त = `
मेरे सम्मृख प्रतिदिन दकश्चकमल चढाता रहे । इस आनन्द मद्धल देनेवालो पवित्र कथाको सूने ॥ १९
मेरा पुजन श्यामा तुलसौके पत्रोसे करे ¦ वे पत्ते भी दाही हो । उन पत्तोके समर्पण करनेके समय १
ज कृष्णाय नमः' २ ओं विष्णवे नमः २ "ओं अनन्ताय नमः' ४ ओं गोविन्दाय नमः" ५ ओं ग्ड `
ध्वजाय नमः' ।। २०।।.६ ओं दामोदराय नमः" ७ ओं हृषीकेल्लाय नमः ८ ओं पद्मनाभाय नमः ९
ओंहस्ये नमः" .ओर १० वाँ ओं प्रभवे नमः इन दज्ञ नमामन्त्रोको पठे यानी इन्हीसे पुजन करना 0
| चाहिये ।\ २१॥ पीछे नमस्कार पूवक प्रणाम करके प्रदक्षिणा करे । एसे इस व्रतको दशादिनतक प्रतिषे `
| करता हुआ दशवष पथ्येन्त करे । २२ ।। इसे ब्रतके आरम्भ, मध्य तथा समाप्तिमे प्रतिवषे तीन बार `
| हवन करे । ओर कष्णमन्तरसे हवन करना चाहिये । ओर एकसौ आठ वार चरुकौ आहृतियां अग्निम
| दे।\ २३। हवनके अन्तमें बुद्धिमान् त्रती विधिवत् आचा्यंका पुजन करके उनको मेरी प्रतिमाका दान
| करे) इसकी यह विधि है कि, सुवणं, तार मृत्तिका या बेणुपात्र मे ।! २४! सुबणका सुन्दर, वुल्सीके `
(८ पत्तेके समान पत्र बनवाके रखदे, भेरी सुवणंमयौ प्रतिमाभी स उसोमं रखदे विधिवत् पुजन कुरे ।\ २५
फिर प्रेमसे उसको (दक्षिण हस्तमे रखे) आचाय्यंको देदे
य । फिर वस्त्र तथा सुवणंमय ्द्षिदारा 1
सुशोभित कौ हई बख्डे (ओर) कांसौके दोहनपात्रके साथ गऊका दान् करे 1\ २६॥) हवनके समय `
कृष्णचनद्रके लियि दापुर ओर इतनी ही आचा्यके लिये दान करे । ओर आपभी दश पुरियोकाही
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+ ३३ ।1 खडा होकर उन्हं भुवणेके सिहासनपर विराजमान करके पाद्य ओर अघ्यं दिया । पीछे कृष्ण-
चल्द्रसे पुछा कि, हे प्रभो ! आप आजं केसे पधारे ? ।। ३४ \\ एसः प्नं पर भगवान् कृष्णचन्द्रजीने
कहा कि, तुम्हारी माता (कुम्तौ) अत्यस्त दुःखित हौरही है । कणं बोला कि, हे कृष्ण ! यद्यपि सं जाना =
हं पर मुषे बहु भथ लगा, कंसे उसके पास जाऊं? । ३५ ।। कंसे उसकी सेवा कू? (कर्णंकौ
माताभी कुन्तीही है" हवृत्तान्त यदि राजा धम्मेनन्दन युधिष्ठिरके सुननेमे माजायगा तौ बह राज्यादि
मुञ्चे दान करेगा \ से दुर्योधनके अधीन करूगा मौर दुर्योधनको छोड यदि पाण्डनोसे भिच्के रहं तोमेरे
विद्वासपर युयुत्सु होनेवाले दर्योधनका विद्वासघातक बनृगा ¦ दूसरे पृथिवीके भारको इर करनेका
` आपका संकल्पभीभग्न होता है । इसमे मेँ उरके उससे एकदम अलग रहता हुं" कभी भी उससे मातापुच्र- `
पनेका नाता नही दिखाता हूं \ यही मुञ्चे बहुत भय है \ अस्तु) आयही एला उपाय अतावे जिससे बह
माताःखित न रहै । श्वीकृष्ण बोलते कि, सुव्णके पामे दुग्धकौ खीर भरके ।\ ३६।। इसमे सौ निष्कोको
अर्थात् दीनां (पठ प्रमाण सुवणेकी मृहरोको ) धरे \ फिर उसे वायुहुस्तसे दिवाय भेजे अर्थात् कर्णने _ `
यहं वस्तु भेजी है, यह किसीको भौ मालृम न हो इस प्रकार उसे कुन्तीके पासमे पर्चा दो } इससेतुम्हारौ `
माता प्रसन्न होगी. संक्नय मत करो ।। ३७ ।। सुतजी बोरे कि, इस प्रकार कर्णे कहकर श्रीकृष्णचन्द्र
` दारका चरे गये, दानियोमं महाशयवाकरू कर्णंने श्रीकृष्णचन्के वचन सुन वैसाही किया ।\ ३८ \। सुवणेके
` पत्रमे खीर भरके उसमें ही सौ निष्क सुवर्णोको अर्थात् सो मुहरोको डालके एकदम गुप्तरीतिसे कुन्तीके `
पास पहुंचा दिया \ जब एसे द्रव्य कुन्तीको मिला तो वह् बहुत प्रसन्न हुई । श्रीकृष्णचन्दरकौ वैसी ही मूत्त =
बनवके उसको अपने सचिहित कर उन्हीकी बतायी हुईं विधिके अनुसार भक्तिपु्णं हो त्रत करने ल्गी
३९ ।\४० ॥। कुन्ती मनमे यह विचारके बहुत प्रस हुई कि, भीकृष्णने मेरे कल्याणोद्यके ल्व `
कहकर यह् व्रत कराया है \ इससे मेरा अवद्य अभ्युदय होगा ! श्ीकृष्मचन्द्रका भवितपूरवंक पूजन करके
पौषे फथा सुन ।। ४१1। दज ब्राह्मणोके लिये कमप्राप्त उपायन (भेट, दक्षिणा) दौ । सुवर्गंसय सुन्दर
बुलसी पत्रक साथ ।\ ४२ ।। सुवर्णमयी भगवानृकी प्रतिमा सुवर्णके पात्रमे स्थापित कर गङ्के साथ
महामतिं जाचायंको \\ ४३ ।1 सहादेवी (महाराज्ञी) कुन्ती ने देदी इससे नासुदेव भगवान् प्रसन्हो । =
| एसे दश्षवषंप्यन्त (प्रतिवषं दश्षदिनयपर्यंन्त) व्रत करके पौ कुन्तीने उद्यापनं किया । ४४ ।। उसब्रते
करनेसे उसके पुत्र सानन्द वनसे लौट भये ! भगवान् कष्णवन््रकी ही सहायतासे सच शत्रुओंको संग्राममे
मारकर । ४५ ।} धम्मि सुधी युधिष्ठिर अपने राज्यको प्राप्त होगये, कुन्तीने पतिव्रता स्नुषा द्नौपदीसे `
यहु सब वृत्तान्त कट् सुनाया !! ४६ ।। कि मेने एसे दक्लाफल व्रत किया था । भीकृष्णचन््रने आप प
मेरे समीय आकर यह् कहा था । द्रौपदी { तुम उसी ब्रतके प्रभावसे सव संकटोसे बचकर सानन्द अपनौ `
मे मायौ हो । अतः हे कल्याणि ! समाहित चित्त होकर उस ब्रतको करो !\ ४७ ॥। ४८! उसते |
जन्माष्टमी ब्रतम्
| व्यापिन्धां कायम् “रोहिण्या सहिता कृष्णा मास्ति भाद्रपदेऽष्टमी ।। अधैरत्रे तु `
| योगोऽयं तारापत्युदयं तथा ।} नियतात्मा शुचिः सम्यक्युजां तत्र प्रवतेयेत् \”
। इति दिष्णुधोत्तरे तस्य पूजाकालत्वोक्तेः ।\ दिनदये अधरात्रव्याप्तावव्याप्तौ
| खा परव \। प्रातः सकल्पकाल सत्वाहिवारात्रिथोगात् ,वञनीया प्रयत्नेन सप्तमी _
| ष्टमी उत्तरेद्युनिशीथास्प्गन्यष्टमी रोहणीयुक्ता तदा पूर्वेव ग्राह्या-कर्मकाल- `
(८. “तारापत्युदये तथा इति विष्णु ध्मोत्तिरेकम्लकल्पनालाघच्चन्द्रोदये चेति
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अथ कृष्णादिमासेन भा्रङृष्णाष्टम्यां जन्ाष्टमीव्रतम् ।\ तच्च अर्धरात्न- ५ ॥ 1
| संयुताष्टमी"' इति ब्रह्मवेवते सप्तमीयुक्तानिषेधाच्च ।। यदापूर्वेयुनिहीथे केवला- `
| सत्वात् । रोहिणीयोगस्तु केवलं फलातिदायार्थो नवमीबुधादियोगवन्न तु =
नि्णयोपयोगी । इतरथा-प्रेतयोनिगतानां तु प्रेतत्वं नाशितं नरैः । येः कृता
। श्रावणे मासि अष्टमी रोहिणीयुता \} कि पुनर्बुधवारेण सोमेनापि विशेषतः | `
कि पुनर्नवमीयुक्ता कुरकोटचास्तु मुक्तिदा ।॥ इति सरोहिणीमप्यष्टमीं
| विहाय बुधनवभीयुता कार्यापद्येत ।\ सोमेनेत्यस्य सोमेवारेणेत्यथं इति केचित् ।॥ `
मयूखे ।\ उद्ये चाष्टमी किचिन्नवमी सकला यदि ।। भवेत्त् ब॒धसंय॒क्ता प्राजा- `
| पत्यक्षेसंयता ।! अपि वर्षशतेनापि लभ्यते यदिवान वा ।। तत्र उदयकशब्द- `
। स्पशिन्यष्टमी रोहिण्या युक्तः सती बुधयुक्ता तदेवोत्तरा स्याच्च तदभावे ।। याबद्र-
। चनं वाचनिकमिति न्यायात् \! यदि तु बुधाभावेऽपि रोहिणीयं
| | ` इचन््रोदयपरः ।। सूर्योदयपरत्वे तु यदा पू्ेदयुनिीथे केवलाष्टमो उत्तरेदयुनिीथा-
ोगमात्रादेवोत्तरो- `
| च्यते तदा रोहिणीयोगाभावेऽपि बुधमात्रसद्धावादुत्तरा स्यात् । अन्यतरायेऽ- `
# किच यथा पूवेदयुनिश्ीयेऽष्टमीमात्रसत्वे उत्तरेचुश्च निशीथपत्पुवमृक्षयोे बुध- `
दासत्येुतवाच्च ।॥ `
(३५२) त्रतराज (मदनः
स्तावकत्वेन सार्थक्यात् ।\ किञ्चतदरचनदयगतापिहाब्दस्य स्वाथ तात्प्याभिवेन
ऋशक्षयोगस्टावकत्वेन प्राहस्त्यबोधकत्वस्येवोचितत्वादिति 1! यत्पुनरतत्रोक्तं कमे-
कालव्याप्तिशास्तरादेव प्रधानभृताया अष्टम्या एव अधंरात्रसत्वेन प्राप्तं ग्राह्य- `
दिवा वा यदिवा रात्रौ नास्ति चेद्रोहिणी कला ।। रात्रियुक्तां प्रकुर्वीत
विेषेणेन्दुसंयुताम् ।! इति वचनेन रोहिणीयोगाभावविषये विशेषः क्रियते । एवं
` तस्यार्थं :--दिनावच्छेदेन राच्यवच्छेदेन वा कलामाच्रापि चेद्रोहिणी अष्टम्यां
नास्ति तदेव चन््रोदयसहितामर्धरा्रव्यापिनीमिति यावत् ।! दिनद्येऽति ताद्क्या `
अभावे बहु रात्रिसंयुतामुत्तरां प्रकर्वतिति ।। तच्च ।। नेदं कम॑कालल्ास्त्रबाधकमन्य-
थाप्य्थसंभवात् ।। तथाहि, दिनद्वये वैषम्येण निशीथे स्परे अहो रात्रावच्छेदेन `
रोहिणीयोगाभावे च विशेषणाधिक्यनेन्दुसंयुता अधिकनिलीथ व्यापिनी ग्राह्येति
यावत् \\ रोहिणीयोगे त्वधिकनिशशोथव्यापिनीमपि विहाय स्वल्पापि निक्लीथ- `
योगिनी रोहिणीयुतव ग्राह्येति व्याख्यान्तरं मयूखे द्रष्टव्यम् \\ पारणं तु तिथि-
भान्ते कायम् ।। तदाह भुगुः-जन्माष्टमी रोहिणी च शिवरात्रिस्तथेव च ।! पूरवं- `
वद्धेव कतंव्या तिथिभान्ते च पारणाम् ।\ इति ।! निषेधोऽपि ब्रह्यवेवते-अष्टम्या- `
मथ रोहिण्यां न कुर्यात्पारणं क्वचित् ।! हन्यात्पुराकृतं कमं उपवासर्गजतं फलम् । `
तिथिरष्टगुणं हन्ति नक्षत्रं च चतुर्गुणम् ॥। तस्मात्प्रयत्नात्कुर्वोतं तिथिभान्ते च
पारणम् ।! इति तत्र दिवसे उभयान्ते पारणमिति मुख्य पक्षः ।\ एकतरान्ते
` त्वनुकल्पः ।। यदा तु तिथि नक्ष्रयोरन्तरस्येव दिनेऽन्तस्तदा रात्रौ पारणानिषेधा- `
. दन्यतरान्ते पारणाभ्यनुज्ञानादिवेवान्यतरान्ते कार्या ।। अत एव बह्भिपुराणे- `
९ भान्ते कुर्यात्तिथेर्वापि शस्तं भारत पारणम् ।\ इति ।। इति जन्माष्टमीनिर्णयः । ॥ २
>
41 ` जन्माष्टमीन्रत +
` प्रध्माय वेणुं रचिरे कदम्बे कदम्बमाहुय बराङ्कनानाम् ॥
निधूयमानं सा यमुनानिकुञ्जे रतोऽच्युत सोऽवतु मा प्रपञ्चम् | = 4
केराप्रसारणं यत्र कामिन्याः कामिना कृतम् । ` ।
व्रतानि] ह्वीटीकासदित (३५३)
| ही व्चन रख दिया ह । बाकी उस वचनके पदार्थंका साध्य अर्रत्रव्यापिनीपनेमे कोई उवथोग नही है । यहं `
| जन्माष्टमीके ब्रतको सामान्यत्रिकेचना है कि, ओर कुछ हो वान दह्ये षर निश्ौथव्यापिनौ अष्टमी अक्शय
| होनी चाहिये ।। वैतह दो दिन रहनेवाली अष्टमियोमेसे व्रताष्टमी कौनसौ है ? इस बात्के निर्णेयके ल्थि
| लिखते हं कि, यदि दो दिन अधंरात्रव्यापिनी अष्टमी भिले तो परका ही ग्रहण होता है । दोनोही दिन अध-
रत्रव्यापिनौन हौ, तो भौ पराकाही ग्रहण होता है । इसमे कारण तीन ह-पहिला तो परा मननेपे प्रातः `
| काल त्रत संकत्पमे समय अष्टमी भिल जायगी । दूसरे रातदिन यह अष्टमी रहेगी । तीसरे ब्रह्मवेवतंपुराणम `
| एसा कहा है कि सप्तमीके साथ रहनेवाली अष्टमीको प्रयत्नके साथ छोड दे \ इन तीनो कारणोसेदोदिनि
। अर्धरात्रव्यापिनी होने यान होनेमे पराकाहौ ग्रहृण करना चाहिये ।। पूर्वाका ग्रहण उस समयहोताहै जबकि, |
| पिके दिन अधेरान्रव्यापिनी अष्टमी ह, दूसरे दिन रोहिणी नक्षत्रके साथ अष्टमी हो तो सही, पर निशौथका ` = |
| स्पंन करती हौ, इसमे कारण यही है कि पु्वामिं अर्धरात्रे पूजनके समय अष्टमी बनी रहती है पर उत्तराम
| नहीं रहती ! विरोधपरिहार-तो केवल यही विचार करमेसे हो जाता है कि, दोनों दिन अर्धरात्रव्यापिनी नहो
| अथवा दोनों ही दिन हौ तो पराका ग्रहण है, पर एक दिन अर्धरात्रमे व्याप्ति हो दूसरे दिनही तोपूर्वाकाग्रहण `
| होता है \ यह् परा ओर पूवकि ग्रहण करनेके हैतुओंमें भेद हो गया । हृससे दोनों वाक्यो कोई विरोधनही
| दीखता है । योगविशेषका विचार करके तो इसी निष्कषे पर पहुचे हँ कि, योग विकषेष फलके अतिक्गयकेव्िहै, =
| खास नहीं है ! यही बात नीचे सिद्ध करते हैँ ! सबसे पहिले रोषहिणीके ही योगपर विचार करते हैकि रोहिणी `
| योगतो केवल फलका अतिज्ञय दिख नेके लिय है जैसे कि नवमौ ओर बुधके योग हू उक्त नक्षत्रका योगक्सि `
| नि्णयके योग्य नहीं है । यदि एेसा मानोगे तो यह जो पश्चमे लिखा मिलता है कि, “ उन मनुष्योने प्रेतयोनिको `
` प्रप्त हुए अपने पुरुषोका ्रेतयना मिटा दिया जिन्होने श्रावण ( भाद्रयद ) सासकी रोहिणी नेक्षत्रके साथ `
रहनेवाखी कृष्णा अष्टमीका व्रत किया है \ यदि उस दिन बुधवार भी हो जौर सोमवारके उदयक्षे साथहोतो
उसके विल्ेषफलका कहा हौ क्या है । यदि एसी अष्टमी नवमीके साथ संयुक्त हो तो कोटि कुलोको मुक्ति
| दैनेवाली है “ इससे रोहिणीयुक्त अष्टमौको छोडकर एसी ही बुध ओर नवमीसे युक्ता करनौ चाहिये यह॒ `
{1 . | सिद्धान्त हो जायगा; इस कारण यह् माननाही चाहिये कि, रोहिणी आदिका योग, फलविगेषके व्यि है ` ।
। कोई खात बात नहीं है कि, ये आवश्यक ही हये ।\ सोम-शब्द आया है, ^ सोमेनापि विशेषतः” इसष्डके _ `
अन्दर, इसपर विचार होता है कि, इसका क्या अर्थं है ? किसीने इसका चद्द्रवार अथे क्याहैजोकरिःनिणेयः `
सिन्धुमे लक्ता है कि, एेसा बुधवार या चन्द्रवार हो पर इसका यह कहना ठीक नहीं है क्योकि, विष्णुधमेम `
५ तारापत्युदये सति “ यानी तारापति चन्द्रमाके उदय होने पर, यह वाक्य पडा ह, इससे चद्द्रोदयका लाभ
` हो जाता है कि, चन्द्रमाका उदय हो इसीके आधारपर सोमका “ चन््रवार ” अथं न कर चन्द्रोदय करना र्चा हिवि
यह सथूरबभें लिखा है, इससे यह निश्चय हआ कि, “ सोमेन ” का अथं चन्द्रोदयके साय है सोमवारी न्हीहै।।
वणेन किया है यक, उदयकालमे थोडे समय तो अष्टमी हो ओर बाकौ सब +
( २५४) (> | ब्रतराज ८ :्रतराज अष ५1. 1. अष्टमी ध
` सन्धः ग्रहृण ञे जाय | जपय तौ यह होना चाहिय कि, रोहिमीके योगके विना भी केवल बुधवारके ही योगसे
उत्तरका ग्रहणं हो जाना चाहिये क्योकि, रोहिणी ओर बुषवार इन दोनोका योगसेसे एके न रहने पर भीयह् = `
बचन प्रत्त होता है यह स्वीकार किया है, दूसरे नक्ष योगकी तरह वारकः योग भी प्रशंसाकाकारणहोता
` है । इक्तसे यह बात सिद्ध हो गयी कि, “ उदये ” इससे चन्द्रकेही उदयका ग्रहण है सुथेका नही. एक भौर बात
` है कि, जसे पहिले दिन आधी रातके सभय केवकाष्टमी हौ जर दूसरे दिन अधेरात्रसे पहिले रोहिणी नक्षत्र ४
ओर बुधका थोग हो तब इस वचनसे दूसरे दिन त्रत हौगा \ इसी तरह पहि दिन् आधोरातके समय चन्द्रमाका
उदय ओर रोहिणी नक्ष हौ पर इरे दिन बुधकी अधिकतामें भी दूसरे दिन व्रत होना चाहिये । चिन्तुएेसा
होता नहीं हे इससे भी चन्द्रोदयही लेना चाहिये । यह् जो विष्णुरहस्यमे लिखा हुमा है कि भद्रपद कृष्णाष्टमी ` (
` यदि रोहिणी नक्षत्र सहित एक मुहूतं भी मिले तो उसमे ब्रत करनेसे महाफल होता है इसमं जौ सृहूतयद पडा 1
हज है बो निक्षीथ नामके मुहू्से तात्य रखता है ेसा कोई कहते हँ । पर यही इसका तात्यथं है तौ यह तात्पयं
अत्यन्त अशुद्ध हे क्योकि, एेसा माननेसे वचनही व्यर्थं होगा जब कि, शुद्धा मी अष्टमी अधेरात्रमे रहनेवाली _ `
श्रहुण कौ जाती है, यदि रोहिणी सहित मिल जाय तो अच छी तरह् ग्रहण करी जायगी वचचनष्छी क्या आकहय-
. कता है । जिस जहोरात्रमे अष्टमी रोहिणी न्त्र मुहु्तयर भौ युक्त भिर जाय तौ उस सुपुण्यामं उपवास करे। . 1
` यह् विष्णुर ५
करल, यहं स्पष्ट लिखा है, इससे यह बात परिस्कुट प्रतीति हो जाती है कि, पूर्वोदाहत विष्णुरहस्यके व्च `
रहुस्यमे दिनरात सम्बन्धि रोहिणी नक्षत्र युत अष्टमीकी {किचिन्मुहूतं भी प्रतीति हौ तो भी ग्रहण
नमे जो मुहूतं पद है बह दिनरातसें किसी भी मुहूतं हो यह अथं रखता है निशीथस्य सृहू्तपरक नहीं है । जो
५ | उसके महूतंषदका निश्चीथका सुहत अथं करते हं कालतस्वमे उनसे विपरीत अथं किया है \ यदि यह् कही...
साथेक हो जाता है. एक ओर यह बात है कि, “ मुहूर्तमपि "" ईस वचनम अपिशब्द पडा हुजा है तथा दूसरे वच- `
नमे भौ इसी प्रकार अपिहव्द आया है इसका कोड स्वाथेमं तो तात्यथ्यं हे नही. इससे नक्षत्रके योगकी स्तुति
` करनेवाला होनेके कारण प्रशंसांका बोधक माननाहौ उचित जान पडता है, जो फिर वहां ही यह कटा है कि, `
यह् क्यो रख दिया ह तो थह भी नही कह सकते क्योकि लक्षत्रके योगकौ प्रशंसाके लिये वचनके होनेसे काक्य `
( पूजादिकके ) कारमे व्याप्ति ( उपस्थिति ) को विषथकरके कहनेवाले शा्रसे ही प्रधान भूत अष्ट- `
मौकाजाधीरातमें रहनेके कारण उसे ग्राह्यत्व प्राप्त है यानी पुनाका समय जो आधौ रात है उसमे अष्टमीके `
: रहते उस अष्टमौमें त्रत होगा, एेसा ज्ञस्तर प्रतिपादन करता है । इसके विषयमे यह कहनाहै करि, “ दिनि या =.
` . रात दोनों मे रोहिणौका एक भौ कहा नहीं है तो आधी रातको रहनेबालौ चन्द्रोदय सहिता अष्टमीको ब्रत
करना चाहिये “ इस वचनसे रोहिणी योगके प्रभावमें भी यह् विशेष विधान किया है कि चन्द्रोदय सहिताको
ही लेके इसी प्रकारही इस वाक्यका अथं ह कि, दिनं या राते एक कलय भौ रौहिणौ न हो तो चन््रोदयके `
` ` साथ आधी रातको पुजनके समय रहनेवालौ अष्टमौही लेनी चहिये । यदि दो दिन हौ पर दोनोहीदिनरवैसी
च॑होतो जिस रातको ज्यादा देरतक अष्टमौ रहे उसी उत्तरे ब्रत करना चाहिये । एला कोई कहते हँ । पर॒
एसा क्योकि यह् कमकालके लञास्त्रका बाधक नहं है इसका दूसरी तरह भौ अथे हो सकता `
नहीं होना चाहिये,क्योकि 0
है । वहौ दिखाते है कि, दोनों दिन समानतासे अ्धरात्रव्यापिनी न हो तथा अहोरात्रभर रोहिणी नक्षत्रा योग ् ५
(-.; त्रतनि1 - -.; -. ,: ,. हिन्दीरीकासहितं. ^... (३५५)
। प
| अष्टमीके दिन् देवकोके पुत्र कृष्ण प्रकट हुएु थे, । यह अष्टमी दो प्रकारौ हैःदुकं तो केव जन्माष्टमी भौर ।
द्री जयन्ती । जयन्ती किसे कहते हँ ? अब हेम इसौवर विचार करते हं । येष्िणी सहिताको जयन्ती कहते _
हेंक्योकि, बह्िपुराणमें लिला हुमा है कि, भाद्रपद कृष्णा अष्टमौ यदि रोहणौ नक्षत्रसे युक्ता हौ तो वह जयन्ती `
कंहलात्ती है, उसमं प्रयत्नके साथ त्रत करना बाहिये । दूसरा प्रमाण चिष्णु रहुस्यका है कि, भाद्रपदमासमे कृष्ण _
। ` पक्षी अष्टमी रोहिणी नक्षत्रसे युक्ता हौ तो बह जयन्ती कहातौ है । इन दोनों प्रमाणोसे यह सिदध हो गयाकि `
५ . रोहिणौयुक्ता अष्टमी जयन्ती कहाती है ! यहं उत्तमा सध्यमा ओर अधमा इन भेदोसे तीन तरहकी होतीहै । `
| यदि अहोरात्र रोहिणीका योग हो तो उत्तमा, अधेरात्रमात्रमं योग हो तो मध्यमा, तथा दिवस कारत्रिमे
. थोडासः योग हो तो जधसा है । इन तीनोके किए वसिष्ठषंहिता विष्णुधमं ओर तीसरोको किसी दूसरे पुराणमे
| स्वा है । अर्घरात्रका रोहिणी योग भी चार प्रकारका होता है ।१- पहिले दिनही अथवा २-हूवरे दिनिही
| अथवा ३- दीनो दिन हौ या ४- हो तो सही पर नि्ीथके समय न हो, इनमे चौथा योग भी तीन रहकाहोता = | `
| है ?- पहिरे दिन अधेरात्रमे अष्टमी हौ ओर पर दिन रोहिणौ हो, २- पर दिन अष्टमी हो जौर पहकेदिन =
` रोहिणी हयो -२ दोनों दिन दौनोका जधंरात्रमे सम्बन्ध नहो । 0
८ पारणा-तिथि ओर नक्षत्रके अन्तमं पारणा करनी चाहिये, थही भुगृने कहा मौ है कि, जन्माष्टमी
इश्चरथल्छिता ओर श्िवरानि इनको पूवविद्धा ही करनी चाहिये तथा तिथि ओर नकषत्रके सथाप्त होनेपरही `
पारणा करना चाषिये । ब्रत तिथि-अष्टमीमें पारणाका निषेधं भी ब्रह्मवैव्तमे किया है कि, जष्टसीजओौर
| रोहिणीमें कमी पारण न करे, वयोर एेसा करनेसे पहिके पवित्रे कमं ओर उपवास से इकट्ठे किए फल्को
| नष्ट कर डालता है । अल्गूणा तिथि ओर चौग्ना नक्षत्र अपनेमें पारणा किएसे नष्ट करते ह इस कारणत्रत- |
तिथि ओर न्त नक्षघ्रके बीत जानेपर पारणा करे । इसमे भौ दो पक्ष हे, दिनमें ब्रततिधि ओर नक्षत्रकेबीत- =
| नकषत्रमेसे किसी का दिनमें ही अन्त हौ जाय तब रातमें तो पारणाका निषेध है \ पर किसीके भौ अन्तम पारणा- =
| कर सकता है ! इस प्रकारका विधान है, इससे दिनमेही पारणा होनी चाहिये, चाहे नक्षत्रकौ समाप्तिमेकौ =
| जायचहेव्रततिधिकी समाप्तम कीजारही हो) तबही अग्निपुराणमं लिखाहै किह भारत! चाहेतो नक्षत्रके `
1 1 अन्ते पारणा कर चाह तिथिके बीत जानेपर पारणा करे पर दिनम हौ करना शष्ठ है ।। 4 1
५ पारणा प्रत्येक व्रते अन्तमं हेती है । इस कारण पारधाका विचार करते हः तरतके दुसरे दिन् वेध छ
11 4 4 भोजनको पारणा कहते हे, बह दसरे दिन कब करनी चाहिये ? इस पर अब तकं ब्रतराजक्ते विचार कहै गय `
| ५ भे । अब धमेसिन्धुके विचार छिखते ह~ यदि केवल तिथिका उपवास होतो उसके बीतनेपर तथा नक्षत्रयक्तं ५ 5
| तिथिका उपवास हो तो दोनोके अन्तम पारणा करनी चाहिए, यदि एेसा हौ कि, व्रतफे तिथिनक्षत्रोमसेक्रिसी
एकका अन्त दिनमे मिलता हो पर दोनोका अन्त रातमें ही मिले तो किसी भी एके अन्तमं दिनमेही पारणकर
५ ^ चना चाहिये । व्रतराज मद् २ के अन्तमं दिनम ही पारणा कः करे एसा च्छि है यटि दतक्षे दूसरे दिन् बर्तत्तिथिं ४ । | : 1 ५
ओर व्रतनक्षत्र दोनों काही अन्तं निल गयातो ठीकहीदहैः नहीतो फिर तीसरेदिनि जके पारणा
् प ~ ४ प 2 4 459 ( 1 # गक
आ अ प क व १8 क ध
निर्णयसिन्धुमे व्रतराजकी तरह् ब्रह्मवेवतंका वचन लिखा है" दूसरा हेमान्द्रिका वचनरणा है कि,तिथिञौर
नक्षत्रकी जतु समाप्ति हो अथवा नक्षत्र या तिथि की समाप्ति मिल जाय तो अधरात्रमं पारणा कीजास्कतीहै, `
पीछे ती तीसरे दिन पारणा होगी इससे रात्रिक पारणा पश्च को निरणयसिन्धुकारने मुख्य माना है पर ब्रत ` 1
राजने रातिकी पारणाका निषेध किया है ह व्रतराज ओर निर्णयसिन्धुमे मेद है । ब्रह्मवैवर्ते लिखा हज है
` कि; “ सब उपवासो दिनमें ही पारणा करना इष्ट है" यानी रातमें पारणा न करनी चाहिए) निणेयसिन्धु त
कार कहते हँ कि, दुसरे दिन दिनम दी ब्रततिथि ओरं व्रतनक्षत्र इन दोनोकी समाप्ति तथा एककी समाप्ति
निल जाय तो दिनम ही पारणा करे । धर्मसिन्धुकौ तरह निर्णेयसिन्धु भौ निशीथके पूर्वयक्षतक दोनों वा किसी ` ८
की समाप्तम पारणा मानता है । यदि दो दिन व्रत न कर सके तो उसके लिए उत्संबके अन्तम अथवा नित्य-
कमस निवेत्त होकर प्रातःकार ही पारणा करलेनी चाहिये । यह् उसनं सिद्धान्तकियाहै। ०
1 अथ व्रत प्रयोग =
नेतयुरवदिने दन्तधावनपुरवकं कृतैकभक्तो ब्रतदिनें कतनित्यक्ियो देवताः
` प्राथयेत्-सूरयः सोमो थमः कालसन्ध्या भृतान्यहःक्षपा \\ पवनो दिक्यतिभूभिरा- ` ¦
काशं खेचरा नराः ॥ ब्रह्मशासनमास्थाय कल्पन्तामिह संनिधिम् । इत्युक्त्वा
अद्य कृष्णाष्टमीं देवीं नभदचनद्रं सरोहिणौम् ।! अचंयित्वोपवासेन भोक्षयेऽहम-
परेऽहनि एनसो मोक्षकामोऽस्मि यद्गोविन्दवियं
गोवि
स्तंभवासोभिरास्रपल्लवयुतसजलपूर्णं कल्दोदपिः पुष्पमालाभि्युतमगुरधूपित-
| १, मग्निखङ्धकृष्णच्छागरक्षमणिद्रारन्यस्तमुसलावियुतं मंगलोपेतं षष्ठ्या देव्याधि-
पुष्पाक्नतजलपूर्णं तास्रपात्रमादाय मासपक्ाद्युल्लिस्य अमुक फल्कामः
पक्षयकामो वा कृष्णप्रीतये कृष्णजन्माष्टसमीत्रतं करिष्ये इति संकत्प्य ।\ वाघु-
देवं समुदिश्य सर्वेपापप्रश्ान्तये ।। उपवासं करिष्यामि कृष्णाष्टम्यां नभस्यहम् 1! `
विन्दवियोनिजम् ।! "तन्मे मुञ्चतु मां बरहि
पतितं शोकसागरे । आजन्ममरणं यावद्न्मया दुष्कृतं कृतम् ।। तत्प्रणाक्ञय
विन्द प्रसीद पुरुषोत्तम ।\ इत्युक्त्वा पात्रस्थं जखं ,निक्षिपेत् }) ततः कदली- `
ष्ठतं देवक्याः सूतिकागृहं विधाय तस्य समन्ताद्भित्तिषु कुसुमाञ्जलौन्देवगन्ध- `
दीन् खडद्धचमेधरवसुदेवदेवकौ नन्दयशोदागगेगोपीगोपान्कंसनिय् तान् गोधेनु- १
| श्रीकृष्णप्रीत्यर्थच पुराणोक्तप्रकारेण पुरुषसक्तविधानेन च यथासंभवनियमेन
इति संकल्प्य कलशाचनं शंखाच॑नं च कुर्यात् । पुरुषसूक्तेन न्यासान्कुर्यात् ।। र्ध
। वल्लीसमायुक्ते सर्वतोभद्रमण्डले \ अन्रणं सजलं कुम्भं तान्रं मुन्मयमेव बा ।॥
| संस्थाप्यं वस्रसंवीतं कण्ठदेशे सुशोभितम् ।। पञ्चरत्नसमायुक्तं फलगन्धाक्षतयु- `
चैव हि 1 आच्छादयेच्च चलेन लिखेदष्टदलं ततः ।। काञ्चनी राजती ताम्री
व्रतानि] हिन्दीटीकासहित (इष)
। इवर्थाभिवृद्धचरथं धर्माथकाममोक्षाल्यचर्तुविधपुरुषार्थं सिद्धचथं निशीथे सपरिवार `
। ` यथामिलितद्रव्येजन्माष्टमीत्रताङ्त्वेन परिवारसहित श्रीकृष्णपजनमहं करिष्ये
। तम् । सहिरण्यं समासाद्य ताघ्रेण पटलेन वा ।। वंशमृन्मयपात्रेण यवयुरवेन =`
| पैत्तली मृन्मयी तथा ।। वार्क्षो मणिमयी चैव वणकौलिखिताथवा ।। इत्युक्तान्य- `
| तमां प्रतिमां विधाय अन््युत्तारणं कृत्वा प्रतिमाकपोलौ स्पष्ट्वा तदेवतामूलमन््ं `
| प्रणवादिचतुच्येन्तं नमोन्तं नाम ।। अस्यै प्राणाः प्रतिष्ठन्तु अस्ये प्राणाश्चरन्तु च `
| अस्ये देवत्वमार्चायं मामहे ति च कश्चन ।! इति मन्त्रं च पठन् प्राणप्रतिष्ठा `
| कूर्यात् ।। अस्था इत्यस्य स्थाने तत्तेवतानाम ग्राह्यम् गायब्डिः किन्नरादयः सततत-
-परिवता बेणवीणानिनादभं द्ारादशेकुम्भप्रवरवतकरः [ककरः सेव्यमाना ।॥
` पर्थंके स्वास्तते या सुदिततरम्खी पुत्रिणी सम्यगास्ते सा देवी देवमाता
| पायिनम् । श्रीवत्सवक्षसं शान्तं नीरोत्पलदलच्छ
५.६;
जयति
` सुवदना देवको दिव्यरूपा ।। इति देवकीम् ।। मां चापि बालकं चुप्तं पर्यके स्तन-
(1 लदलच्छविम् ।। इति श्रीकृष्णं च ध्यात्वा `
| ॐ देवक्यै नम इति देवकीम् । ॐ श्री्कष्णाय नम इति ततपरतिमायां कृष्णमा- = `
| बाह्य ॐ नमो देव्ये भिये इति श्रियम् ।\ वसुदेवाय नम इति वसुदेवम् ! ॐ यशो- `
| दाये नम इति यज्ञोदाम् । उनन्दाय नम इति नन्दम् \ ॐ बलदेवाय नम ति `
(अ) 4 ऋ ८. ः [ अष्टमी- `
उपेन्द्राय० कलां पू० ।। हुरये न° शिरः प° ।\ श्रीकृष्णाय ० सर्वाद्धं पूजयामि
` यज्ञेहवराय देवाय तथा यज्ञोद्धूबाय च ।। यज्ञानां पतये नाथ गोविन्दाय नमोनम
भृपदीपौ ।। विश्वेश्वराय विह्वाय तथा विदवोद्धूवाय च ।। चिहवस्य पत्ये
` तुभ्यं गोविन्दाय नमोनमः ।\ नैवेद्यम् ॐ स ° कृ° आचमनीयम् क रोद्रतनम् फलम्
ताम्बूलम् दक्षिणाम् नीराजनम् पुष्पाञ्जलिम् \। इति भविष्यपुरागोक्तः पुजा ऋऽ
गारुडे तु-यज्ञा ५
` सर्वेषां यज्ञयदानां स्थाने योगपदयुक्तोऽयमेव मन्त्रः स्ताने ।। तथेवं विदवपदयुक्लो `
` नैवेद्ये \\ तथैव ध्ममपदयुवतः स्वाहान्तस्तिलहोमे ।। विदवपदयुक्त एव शयने ।॥ `
सः
य यन्ञकवराय यज्ञपतये यज्ञसंभवाय गोविन्दाय नमोनम इति अष्ये।। `
सोमपदयुक्तञ्चन्द्रपुनायां इति मन्त्रा उक्ताः ।। ततो गव्यघुतेनार्नौ वसोर्धारा,
क्वचिद्गृडधतेनेति ।। ततो जातकमनारच्छेदषष्ठीपजानामकरणकर्माणि संक्षेपेण
कार्याणि ।} ततछ्चन्द्रोदये रोहिणीयतं चन्द्रं स्थण्डिले प्रतिमायां वा नाममन्त्रेण `
संपुज्य । शंखे, तोयं समादाय सपुष्पकुशचन्दनम् ।\ जानुभ्यामवनीं गत्वा चन्द्रा =`
यार्यं निवेदयेत् ।। क्लीरोदाणवसंभूत अत्रिगोत्रसमुद्धूव ।। गृहाणाध्यं त्ाकेंदं
` त्नाय धूजटे ।। कलाभिवध॑मानाय नमश्चन्द्राय चारवे ।। इति प्रणमेत् । अनघं
` रोहिण्या सहितो सम ।\ इति ष्यम् ।। ज्योतस्नायाः पतये तुभ्यं ज्योतिषां पतये
नमः ।। नमस्ते रोहिणीकान्त युधावासं नमोऽस्तु ते \! नमो मण्डलदीपायश्तिरोर-
वामनं शौरि वैकुण्ठं पुरुषोत्तमम्. ।। वासुदेवं हृषीकेशं माधवं मधुसूदनम् ।। वराह
पुण्डरीकाक्षं नृसिहुं देत्यसूदनम् ।। दामोदरं पद्मनाभं केशवं गर्डध्वजम् ।- `
2 गो । = ष्ठात् कष्णमनन्तमपराजितम् अधोश्चजं जगद्रीजं सर्गस्थित्यन्त ४ ।
कारणम् ।। अनादिनिधनं विष्णुं त्रिलोकेशं त्रिविक्रमम् ।! नारायण चतुर्बाहुं `
शकषंखचक्रगदाधरम् ।। पीताम्बरधरं नित्यं वनमालाविभूषितम् ॥ श्रीवत्सांकं `
जग्त्सेतुं श्रीकृष्णं श्रीधरं हरिम् ।} शरणं त्वां प्रपद्येऽहं स्वकामाथसिद्धये ॥। प्रण- १
६ ¦ दन नरस ह सलारलागरात् । वाहु मा ~
ुवततात्रायसे विष्णो ये स्मरन्ति सकृत्सकृत् ।।
वृतानि।- ~... हिन्दीदीकासहित । (३५९)
तेभ्यः सुवणधेनुवसत्रादि दत्वा कृष्णो भे प्रीयतामिति वदेत् ।। यं देवं देवकी देवी
वघुदेवादजोजनत् । र
भूताय भूतपतये नम इति समापने न्त्रः \\ इति पूजाविधि
| उसके चारो जोर भित्तियोमं कुसुमाञ्जलि चि हुये देव गन्धवं ओर यक्ष नागादिककि
| खरक्षक, ढाल १९२ गणि वसुदेवजं
प्रातःकाले स्नानादिनित्यकमे कृत्वा पूर्ववरेवं पूजयित्वा ब्रह्मणान् भोजयेत् \\
(- ह्मणो शष्त्ये तस्मे ब्रह्मात्मने नमः ।! नमस्ते
| बवायुदेवाय गोब्राह्मणहिताय च ।! शान्तिरस्तु शिवं चास्तु इत्युक्त्वा मां विस
| जयेत् ।! इति प्रतिमामुद्रास्य वां ब्राह्मणाय द्त्वा पारणं कृत्वा वरतं समापयेत् ।॥
स्वेस्मं सर्वेह्वराय सर्वेषां पतये सव॑संभवाय गोविन्दाय नमोनम इति पारणे । `
ध व्रतघ्रथोग~त्रतदिनसे पूवैदिभ दन्तधावनादि समस्त नैत्यिक नैमित्तिक कर्थकरॐे एकवार भोजन करे। `
. दूसरे दिन मलमूत्रत्यागकर नित्यकतंग्यकम्मसे निवृत्त हौकर देवताओंकी प्राथेना करके फि, सूयं, चन्द्र, यम,
| काल दोनों सन्ध्या, प्रातःसन्ध्या, ( सायंसन्ध्या )› भूत ( प्राणिमात्र ), दिन राति, वायु, दिक्पाल, पुथिवी, ` ध
| आकरा, नक्षत्र जौर मनुष्य ये सभी ब्रह्माजीकी आज्ञा लेकर यहां सच्िषित हो । इस प्रकार साञ्जलिप्रार्थना =
| करनेके पीछे फल, पुष्प, अक्षत एवं जलसे पूरणं तबके पा्रको हाथमे लेकर “ ओम तत्सत् ' इत्यादि वाक्य
` कल्पना करके देश काल ओौर अपने गोत्र एवं नामका स्मरण करके जिस कामनासे ब्रत करतास्यो उप्षको
| कहता हज अमुक फलकी अभिलाषावाला, या ( यदि कामनासे नहीं किन्तु कत्तव्य भावनासे व्रत करताहौ ` `
11 तो उसको कहता हज ) पापोके क्षयका अभिलाषी मं श्रीकृष्ण भगवानुकौ प्रीतिके लिए जन्माष्टसीके ब्रतको
` करूंगा, एेसा संकल्प करे । पीछे भगवःन्का साज्सलि ध्यान करता हु प्रतिज्ञा करे कि, वासुदेव भगवान्कौ = `
प्रसन्नतासे समस्त पापोके क्षयके लिये आज भे भाद्रषदङृत्णाष्टमीके दिन उपवास करूंगा, कृष्णाष्टमीतिथिकौ `
| अधिदेवता एवं रोहिणीसहित चन््रमाकः आज उथवासयरायण हो पजन करूणा । दूसरे दिन भोजन कर्गा ! = `
| हे गोविन्द ! सें आयसे मोक्षपदकी प्राप्तिके लिए भ्राथेना करता हूं । मेने अबतक दुसरी २ नीच योनिधोमेपापं
` किया है उसके दुःखसे मृज्ञे निक्त कीजिये \ आय मेरी रक्षा कौन्ि । मे श्लोकसमद्रमे डबाहुआहं। मे
। जन्मसे अबतक इस जन्म में भी यापकमं किये हे ह गोविन्द ! उसे आप विनाररिये हे पुरुषोत्तम ! आपभ्रस्न = `
। हों इसप्रकार कहे पीछे तास्रपात्रके जलादि का भूमिपर या किसी जपा डाके । फिर अनेक केलेकेस्तम्भ _ `
| ` तथा वस्त्र ओर आमके कोमल पत्र सहित जलपूणं अनेक कलडा, दीपक, एवं पुष्पमालाओंसे चासो ओरसे
सनाया हृजा एवम् अगरको धूषसे सुगन्धित अग्नि, खद्ध, कृष्णच्छाग ओर रक्षासु्रोसे सुरक्षित, हारभागोमिं =
| मुसलादिकोसे सुशोभित, माङ्किकं दपण आदिसहित षष्ठो देवौकी मूतिसे युक्त देवकीका सतिकागृह बनावे `
| के चित्रः खदु, चभ: `
जौ, देवकी नन्द, यद्मोदा, गर्गाचार्य, गोय ओौर भोपिकाजेके चित्र, कंसकी `
इनके सूचक र चित्र एवं वृषभ, गौ, कुंजर यनुना, यमुनागतत कालियके `
(दद). क्रतराज [ अष्टमी-
पुरुष सक्तके विधानसे जैसा होसके उसी नियमसे तथा जो प्राप्त हौ जाय उसौ द्रव्यसे जन्माष्टमीके ब्रतके ` |
अङ्करूपसे परिवार सहित श्रीकृष्णचन्द्रजौकःा पूजन करूंगा एसा संकल्पकरके कलशा ओर शंखका पूजन करना ॥
` चाहिये । रद्खवल्ली सहित सर्वतोभद्र मण्डलपर तांबे या सिहरीका पानीसे भराहुभा सावित कल्डा स्थापित
करे वह् पजाक्रमसे ठका हा कण्ठदेशमें सुशोभित पंचरत्नौसे समायुक्त फल ओर अक्षतोसे युक्त एवम् सोने
संहित हो, उसे जोके भरे हृए ताबेके अथवा बांस या मिटीके पाजसे ढक दे, ` पौछसबकोकपडासे ठक दे उस-
पर अष्टदल कमल लिखे, सोना, चांदी, तांबा, पतलमिष्ी काठ ओर मणि आदिमेसे किसीको भी नौ हुई ४
. प्रतिमा अथवा चित्रपट तेयार करके अन्न्यत्तारण करने योग्यका अग्तिउत्तारण संस्कारकरके प्रतिमकेकंपो-
कको छता हुआ नामके आदिमे प्रणव ओर अन्तमें नमः तथा नामको चतुर्थोका एक बचन करनेसेउसी देव- ` ॥
ताकामूलमत्र बन जाता है । इसी प्रकार "ओम् श्रीकृष्णाय नमः ' इस मूल मत्रको एक सो आठ बारज्पेफिर `
| इस भंत्रको बोरुकर प्राणप्रतिष्ठा करनी चाहिये । (घ्राणप्रतिष्ठाका सामान्य विषय पीठे लिखचुके
` हैं इसविषयमें विज्ञेष देखना हो तो पांचराज् शास्त्र देख लेना चाहिये । मंत्राथं इस देवताके लिये प्राणप्रति- =.
ठित ह, इस देवताके लिये प्राण संचार करे, इस देवताके लिये पुननाथं अथवा इस अर्चावतारके ल्यिकोई ४
जनका अभिलाषी भवत देवपनेको ज्य प्रतिष्ठित करता है । “ अस्यै" इसके स्थानमें उस उस देवताका नाम `
ग्रहण करना चाहिये \“ गायन्डिः “ इस मंसे देवकौजीका ध्यान करे \! इसका यह् अर्थं है कि, किर, अप्सरा, `
यक्षादिगण, गान बेण् ओर वीणाकी ध्वनिसे जिसको प्रसन्न करते हे , भृद्धार ( जलक्चारी ) दपण ओर कल्क `
हाथमे त
कौके लिये नमस्कार इससे देवकौका । ओं श्रीकृष्णाय नमः '* श्नीकष्णके लिये नमस्कार इससे श्रीक्रष्णकी
्रतिमामें श्रोकृष्णकां आवाहन करके पीछे “ ओं नमो दवयैश्िये * इससे श्रीका, * ओंवसुदेवाय नमः" वसुदेवके `
लिये नमस्कार इससे वसुदेवका; “ ओं यशोदायै नमः ' यशलोदाके लिये नमस्कार इससे यश्ोदाका; “ओं नन्दाय
| नमः ' नन्वके लिये नमस्कार इससे नन्दकाः ` ओं बख्देवाय नमः ' दख्देवके लिये नमस्कार इससे बल्देवका; `
मुसकान करती हई देवकी विजयको प्राप्त हो ।' वन्देऽहं ' इससे श्रीकृष्णचनरका ध्यान करे । इसका यह अथं
है कि, प्थंङ्कपर शयन करके माताके स्तनपान करते हुए बालमूति वक्षःस्थलमं भौवत्सचिह्लसे शोभायमान,
शान्त, नौलकमलके दलके समान सुन्दर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको में प्रणाम करता हूं-' ओं देवक्यै नमः ' देव-
2 । ' ओं चण्डिकायै नमः ' चण्डिकाके लिये नमस्कार इससे चण्डिकाका आवाहन करके पीछे “ ओं सपरिवाराय `
कृष्णायनमः ' बलदेवादि परिवार सहित कृष्णके लिय नमस्कार इस नाम, मंत्रसे कृष्णका पुजन करना `
ध लेकर बहूतसे दासजन जिसकी सेवामे समाहित चित्त हों रहे हँ । सुन्दर श्य्यास्तरणसे शोभित करे
हए पर्यकः पर आरुढ, प्रसन्नमुख श्रौकृष्णचन्द्र जिसके गोदभें विराजान हं एेसौ दिव्य सौन्दर्यं शालिनी,मन्व .
कृष्णक
चाहिये ! इसौ भंत्रको पुथक् पृथक् बोलकर आसन, पाद्य, अध्यं ओर आचमनौय, समर्पण करना चाहिये,हैे `
विभो } भक्तियोगसे भक्तोके लिये प्रकट होनेवाख स्वः शाइ्वत योगियोके, अधिपति |
वारवार नमस्कार है, इससे स्नान, फिर उसी पूजनके नाममत्रसे कमश्ञः वस्त्र, यज्ञोपवीत स चन्दन ओर पुष्य, `
न योगेकवर देव गोविन्दको ` ध
(1 व्रतानि ] क हिन्दीदीकासहित (३६६)
यह मूलमंत्र रखा है । इसका अथं है कि, यज्ञसे प्रकट होनेवाले यज्ञपति, यज्ञरूप, गोविन्द्के लिये वारंवार न~
स्कार है इससे दोनो अध्यं दे! इस मंत्रके सब यज्ञ पदोकौ जगह योगपद करदेनेसे यह् मंत्र स्नानका हौ जायगा, |
। ` विश्वपद कर देनेके नैवेयका होगा । तथा अन्तमं नमः की जगह स्वाहा तथा यल्लकी जगहे वर्वत्र धमेपद करदे-
नेसे तिलहोममें प्रयुक्त हो जायगा । विश्वपदके लगानेसे शयने तथा सोभपदके जगानेसे चन्द्रमाकी वुजामें
| प्रयुक्त हो जायगा । ये पूजके सत्र कह दिये । रही जथंकौ बात, उसमें भौ यज्ञशब्दको जगह योग आदिकं पद
| डालनेसे अथं भी प्रायः वैसाही हौ जायगा ¦ फिर गऊके चीकी घारा या म् उमिधित घतकी धारा अग्निम डालता
| ह वसोर्धारा करे । पीछे जातकम्मं, नालच्छेवन, षष्ठीपुजन ओर नामकरण संस्कारोको सूक्ष्म रीतिसिकरे\
| चन्रोदयके समयमे भू मिपर रोहिणीसमेतं चन्द्रमाका चित्र चावल्ोसे लिखकर या प्रतिमामे पूजन करे पीछे `
| श्ह्कमे पुष्प, कुश, चन्द ओर जल ठेकर धरतीमं जाने ठेककर रोहिणीसहित चन्द्रमाके लिय अर्ध्यादान करे! `
| उसका ' क्षीरोदार्णव ' यह मन्त्र है ! इसका यह् अथे है कि, हे क्षीरसमुद्रसे अवतार धारणकरनेवाे हे अन्रि- |
| ऋषिके गोत्रमे प्रकट होनेवाठे ! है शकाङक ! आप रोहिणौ समेत इस मेरे द्यि हए अर्यको ग्रहण करे ! `
| “ज्योत्स्नायाः “ इत्यादि दो सन्त्रे प्रणाम करे, अर्थं यह् है कि, जोत्स्ना । ( चाँदनौ ) रात्रिकेनाथ,ज्योतियों |
| (नक्षत्रौ) सेहिणीके प्राणप्रिय ओर अमृतके निधान आप हं आपके लिये प्रमाण है । गगनमण्डलमं
| प्रकाश करनेवारे दीयक स्वरूप, महेदवरके शिरोभूषण, कलाओंसे बदृनेवाके सुन्दर मृति चन्दरमके ल्य
। प्रणाम हं । * अनघं ' इत्यादि छः मूखमे ऊपर लिखे मन्त्रोसे भगवान् श्रीङृष्णचन्धको प्रणाम करे, इनका यह ५
। अर्थं है कि, निर्मल ( अनघ ), वामनावतार धारण करनेवाले या दैत्योसे देवतार्ओकी निगीर्णं की हू्ददिम्- `
| तिको वापिस कराने वा, घ रवंजञमें अवतार धारण करनेवारे, वैकुण्ठ पुरषोक्रम हषीके, `
` साधव स घव, मधुसुदन, वराह ( यज्ञस्वरूप )› पुण्डरीकाक्ष इवेतकमल स कमल सः
दसः ( कृष्ण ), अनन्त अपराजित, अधोऽ `
ओर संहारके कारण, अजन्मा, अमर, सवेव्यापौ =
(ष्णु नो लोगोको आक्रान्त करनेवाले (त्रिविक्रम) नारायण (जल्श्यायौ)
| ` चतुर्भुजं शंख, चक्र ओर गदाके धारण करनेवाके पौताम्बरारी, नित्य बनमाकलासे विभूषित, श्रीवत्सचिह्घसे `
। ` शोभित वश्षःस्थलवाखे, जगतके रय्यादास्वरूप, श्रीकृष्ण ( लक्ष्मीके मनको हरनेवाले }* श्रीघर, हरि माप `
| है, मे अपनी कामनाओंकी पूतिक लिये आपके शरण ग आया
५ र करे ! इनका यह् अर्थं है कि, हे सब लोकोके नाय } हे
. पापोके अन्तक ! हे प्रभो । अप दुःख ओर शोकोके समुद्रसे
मुञ्को श १ आप बच्ाइये । हे देवकौनन्दन
# (२६२) ` १ ॥ ` क्रतराज त [ अष्टमी-
५ । जनकेपछ उसे आचार्यको दे दे । पीछे सर्वस्म ' सर्वात्मा, सर्वेश्वर, सभीके रक्चक ( पति ) सभीसे सम्भव ` ति
होनेवारे, गोबिन्दके ल्य बारबार प्रणाम है इतना कहके पारणा करे । “भूताय” (भूतात्मा) भूतपतिके 4८
` लि नमस्कार है इससे ब्रत समाप्त करे । यह् शवीकृष्णाष्टमीके ब्रतके प्रसङ्गे श्ीङृष्ण पुजाविधि ` ।
समप्त हुई । 1
अथ कथा ।\ युधिष्ठिर उवाच ।\ जन्माष्टमोत्रतं ब्रूहि विस्तरेण ममच्युत ।
कस्मिन्काले समृत्य {क पुण्यं को विधिः स्मृतः ।\९।। शरृष्ण उवाच।। मल्लयुद्धे
परावृत्ते शमिते कुकुरान्धके।।स्वजनेरबन्धुभिः स्वीभिः समैः स्निग्धैः सभावते।२ ।हते
कंसासुरे दृष्टे मथुरायां युधिष्ठिर देवकी मां परिष्वज्य कृत्वोतसङ्के ररोद ह ।३।॥ `
` वसुदेवोऽपि तत्रैव वात्सल्यात्प्रररोद ह ॥ समालिद्धचाश्रुवदनः पुत्रपुतरत्युवाच
हे ।\ ४ ॥ सगद्गदस्वरो दीनो बाष्पर्याकुलेक्षणः।! बलभद्रं च मां चेव परिष्वज्य `
मुदा पुनः ५।। अद्य मे सफलं जन्म जीवितं च सुजीवितम् ।। उभाभ्यामद्य' ८
प्राभ्यां समुद्भूतः समागमः ।। ६ ।। एवं हर्षेण दाम्पत्यं हृष्टं पुष्टं तदा ह्यभूत् ॥
प्रणिपत्य जनाः सवं बभुवस्ते प्रहिताः ।! ७ । एवं महोत्सवं दष्ट्वा मामचर्मध्- `
सदनम् ।! जना ऊचुः ।। प्रसादः क्रियतामस्य लोकस्यास्य दुःखहन् ।॥ ८॥
स्मिन्दिने च प्रासूत देवकी त्वां जनार्दन ।! तिनं देहि वैकुण्ठ कु्मस्तत्र महो
सवम् ।। ९ ।। एवं स्तुतो जनोधेन वासुदेवो मयेक्षितः ।। विलोक्य बलभद्रं च मां
च हृष्टतनूख्हः १० ॥ उवाच स ममादेशाल्लोकाञ्जन्माष्टमीव्रतम् ।। मथुरायां
ततः प्चात्पाभे सम्यक् प्रकाशितम् ।। ११ ।। कुन्तु ब्राह्मणाः सर्वे व्रतं जन्मा- `
ष्टमी दिने ।। क्षत्रिया वेद्यजातीयाः शृदधा येऽत्येऽपि घर्मिणः ।। १२ १ युधिष्ठिरः
उवाच । कीदृशं तद्व्रतं देवदेव सर्वेरनुष्ठितम् ।। जन्माष्टमीति संज्ञं च पवित्रं `
पापनाशनम् ।\ १३ ।। येन त्वं पृष्टिमायासि कारतस्येन प्रभवाव्यय ।। एतन्मे `
तत्त्वतो = तो बूहि सविधानं सविस्तरम् ।। १४ ॥। श्रीकृष्ण उवाच । मासि भाद्रपदे
व्रतानि ] हिन्दीटीकासदहित (३६३)
| रम्यमनौपम्यं रक्षामणिविभूषितम् ।\ २३ ।। हरिवंशस्य चरितं गोकुलं च `
| विलुखयेत् \। ततो बवादिज्ननिनदेर्बाणावेणुरवाकूलम् ।। २४ ॥। नत्यगीतक्रमोपेतं `
| भद्धलंघच समन्ततः ।। वेष्टकारीं लोहखङ्धं कृष्णछागं च यत्नतः ।। २५ ।। द्वारे
| विन्यस्य मुसलं रल्ितं रक्षपालकः ।। षष्ठया देव्याधिष्ठिदं च तद्गृहं चोत्ल-
| वस्तथा ।! २६ \। एवंविभवसारेण कत्वा तत्सूतिकागहम् ।। तन्मध्ये प्रतिमा
| स्थाप्या सा चाप्यष्टविधः स्मृता ।! २७ काञ्चनी राजती तास्री पेत्तली म॒त्मयी =
| तथा ।। वाक्षौ. मणिमयी चैव वणकेल्खिता तथा ।। २८ ॥ स्वेलक्षणसम्पर्णा * |
| प्यके चाष्टशल्यके ।\ प्रतप्तकाञ्चनाभासां महाह सुतपस्विनीम् २९ प्रसूतां |
| च प्रसुप्तां च स्थापयेन्मञ्चक्येपरि ।! मां तत्र बालकं सुप्तं पर्यके स्तनपायिनम् `
| | ॥ ३० ॥। श्रीवत्सवक्षसं "शान्तं नीलोत्पलदलच्छविम् । यशोदां तत्र चैकस्मिन् |
| प्रदेशे सूतिकागृहे ।! ३१ ।। तदहच्च कल्पयेत् पाथं प्रसूतां वरकन्यकाम् \\ तथेव मम
| पाषवस्थाः कृताञ्जलिपुटा नुप ।॥। ३२ ।। देवा ग्रहास्तथा .नागा यक्षविद्याधरा- `
। भराः \। प्रणताः पुष्पमालाग्रचारुहस्ताः सुरासुराः ।\ ३३ ॥ सञ्चरन्त इवाकाञ्च `
्हारेरुदितोदितैः \ वसुदेवोऽपि तत्रैव खद्धचममधरः स्थितः ।! ३४ }) कक्यपो
| वसुदेवोऽयमदितिश्चैवं देवक ।। शेषो वे बल्देवोऽयं यशोदादितिरन्वभूत् ।\ ३५
| नन्दः.
(1 : प्रजापतिदंक्षोगरगंश्चापि चतुर्मुखः ।। ` गोप्यश्चाप्सरसङ्चेव गोपाद्चापि
| दिवौकसः !\ ३६ ।\ एषोऽवतारो राजेन्द्र कसोऽयं कालनेमिजः ।! तत्रं कसनि- `
| नियुक्ताङ्च मोहिता योगनिद्रया ।! ३८ ।। गोधनुकुञ्जराश्चव दानवाः इस्त्र-
स्वपन कुर
(4४) ्रतराज ५ [ अष्टमी
1 त
वासुदेवाय चैव हि । ४६ ।। बलदेवाय नन्दाय यशोदायं पृथक् पृथक् \ क्षीरादि- `
बा चन्दनेनान॒रेपयेत् ।। ४७ । विध्यन्तरमपीच्छन्ति केचिदत्रैव सुरयः।। `
चन्द्रोदये शाकाय अर्घ्यं दत्वा हरि स्मरन् ।। ४८ ।। अनघं वामनं शौरि वैकुष्ठं
पुरुषोत्तमम् ।। वासुदेवं हषौकेवं माधवं मधुसुदनम् ।\ ४९ । वराहं पुण्डरीकाक्ष
नुर्सिहं ब्रह्मणः भरियम् ।\ समस्तस्यापि जगतः सृष्टिस्थित्यन्तकारकम् ।\ ५० ॥ `
अनादिनिधनं विष्णुः भरैलोक्येशं त्रिविक्रमम् ।। नारायणं चतुर्बाहुं शंखचक्रगदा- `
धरम् । ५१ ॥। पीतास्बरधर नित्य वनसालाविभषितम ।। श्रीवत्सांकं जगत्सेतं |
श्रीपति श्रीधरं हरिम् \\ ५२।। ्योगेदवराय देवाय योगिनां पतये नमः ।! योगो- `
(दवाय नित्याय गोविन्दाय नमोनमः ।) ५३ ।। यजेहवराय देवाय तथा यन्नोद्धू-
वाय च ।। यज्ञानां पतये नाथ गोविन्दाय नमोनमः ।। ५४।1 विह्े्वराय विहव्राय
तथा क्हिबोद्धूवाय चं ।। विहवस्य पतये तुभ्यं गोविन्दाय नमोनमः ।! ५५ । `
` जगन्नाथ नमस्तभ्यं संसारभयनाश्चन ।! जगदीशाय देवाय भृतानां पतये नमः `
ण्यं शशांके रोहिण्या सहितो मम ।\
॥ ५६ ॥ धमेहवराय धमय संभवाय जगत्पते । धमेज्ञाय च देवाय गोविन्दाय
नमः 1। ५७ ।। एताभ्यां चेव मन्त्राभ्यां नैवेद्यं शयनं तथा ।। चन्द्रायार्घ्यं च `
मन्त्रेण अनेनेवाथ दापयेत् \\ ५८ ॥ क्षीरोदाणंवसंभूत अत्निगोत्रसमुद्धव ।। गृहा-
शौर ९ ।! ज्योत्स्नापते नमस्तुभ्यं ज्योतिषां
पतये नमः \\ नमस्ते रोहिणीकान्त अर्यं नः प्रतिगृह्यताम् ।\ ६० ।\ स्थण्डिले
स्थापयेहेवं शशकं रोहिणीयुतम् ।। देवक्या वसुदेवं च नन्दं चेव यश्लोदया ।\ ६१।॥ `
बलदेवं मया सार्धं भक्त्या परमया नृप ।। सपुज्य विधिवहेहि कि नाप्नोत्यति- `
दुलभम् ।।६२।। एकाद्लीनां विक्षत्यःकोटयो याः प्रकीतिताः \1 ताभिः कृष्णाष्टमी `
तुल्या ततोऽनन्तचतुदंशी ।\६३।। अधेरात्रे वसोर्धारां पातयेद्द्रव्यसपिषा ॥' 9 तली
वरतानि] टिन्टीकासहित (३६५)
। फलम् ।। ७१ ॥। पुत्रसन्तानमारोग्यं सौभाग्यमतुलं लभेत् ।। इह धर्मरतिभूत्वा ८ ।
| मृतो वैकुण्ठमाप्नुयात् ।\ ७२ ।। तत्र देवविमानेन व्षलक्षं युधिष्ठिर ।\ भोगा- `
५ न्नानाविधान् भुक्त्वा पुण्यदेषादिहागतः ।\! ७३ । सवेकामसमद्धे च सर्वात्ुभ- `
विर्वजितें ।\ कुले नृपतिशीलानां जायते हृच्छयोपमः ।! ७४ ।\ यस्मिन् सदेव
| देशे तु लिखितं तु पटाथितम् ।\ मम जन्मदिनं भक्त्या सर्वालकारभूषितम् 1 ७५।। `
1 पुज्यतं पाण्डवश्रेष्ठ जनेरत्सवसयुतः ।। परचक्रभयं तत्र न कदापि भवेत्पुनः
| ॥ ७६ ।। पजेन्यः कामवर्षी स्यादीतिभ्यो न भयं भवेत् ॥ गृहे वा पुज्यते यत्र॒ `
| देवक्याइचरितं मम ।! ७७ ।। तत्र सर्वं समद्धं स्यान्नोपसर्गादिकं भवेत् । पशुभ्यो `
| नकुलाव्यालात्पापरोगाच्च पातकात् । ७८ ।! राजतक्चोरतो वापि न कदा-
| चिद्यं भवेत् ।। संसर्गेणापि यो भक्त्या तरतं पश्येदनाकूलम् ।। सोऽपि पापवि- `
। निर्मुक्तः प्रयाति हरिमन्दिरम् ॥ ७९ ।। जन्माष्टमी जनमनोनयनाभिरामां
9. पापापहां सपदि नन्दितनन्दगोपाम् ।! यो देवकीं सुतसुता च भजेद्धि भक्त्या `
| पूत्रानवाप्य समुपैति पदं स विष्णोः ।! ८० ।! इति भविष्योत्तरे जन्माष्टमी- `
` बोले कि, है युधिष्ठिर { जब मल्लयुद्धका भय निवृत्त हौगया कुकुर एम् अन्धक (यादव विशेष ) आनन्दित ` क
| होगये अपने बान्धव, स्त्री बराबरवारू जौर सुहज्जन परस्परम मि गये ।। २! मथुरामे दृष्टात्मा कंस `
| दैत्य मारदिया गया, एसे समय अत्यन्त आह्वादित हुई देवको देवी मुक्चे छातीसे लगा, गोदमे बढा मेरे शिर ` ८ ५
८ | परप्रेमसे अश्रुसेचन करती हयी रोने लगौ ।\ २ ॥। वहांपर वेयुदेवजौभी वत्सल ताते रोदन करने लगे अध्पूणं =
मल हो ^ ह पु १ ्रमाधरमसि से
॥ ॥ । न (5 ॥ ॥ अष्टमी २ "क्क ४
( ` 8. द 8 | ॥ 49 त्रत॒राञ 0 ४. ¶ र 1 १ 4
। य + भ षी व (0 1 0 क
ग क ५ ५ त +
भासक कृष्णपक्षे अष्टमीको अ्धैरात्रिके समय रोहिणीनक्ष्न ओर वृषका चल्मा था \\ १५ 1 एते योगके
रहते वसुदेवजौसे देवकीने मृशषे उत्यन्न किया था ! अतः सब जोग उसी समय मेरे जन्मोत्सवको मनाते हें । `
भगवती (देवकीजौ या यज्ञोदाजीके यहां भ्रगट हई कात्यायनो देवौ) का महोत्सवभौ वे इसौ दिन मनाते `
हैं} १६ । यह् योग जब सिह राक्षर सूर्यनारायण हौ, तब प्राप्त हता है \ इसलिये ब्रत करनेवाला उस `
अष्टमीसे पूर्वं सप्तमीके दिन दन्तधावनांदि नित्यकम्मे करके भोजनके समय एक बार भौ बहुत हल्का भोजन
करे, जिसे प्रमाद आलस्य, मद आदि न हों ।\ १७ \ दुसरे दिन (जन्माष्टमौके दिन) बरत करनेका नियम `
करे ! रान्निमें ब्रतके पू्वदिन जितेन्द्रिय (ब्रह्मच्यनिष्ठ) हो, शयन करे । स्त्रीसद्धसे पराङ्मुख हो भूतल्पर
पवित्र ेक्षमेहौ शयन करे, न कि, पर्यकपर ओर न स्त्रीके साथ मेरे जन्माष्टमीके दिन (दसरे दिन) केवल `
उपवास करे इसे करनेसे ।\ १८ ।1 मनुष्य सप्तजन्मोमें किये पापोसे अवदय निर्मुक्त होता है, इसमें संशय `
नहीं है “पापोसे निवृत्त हए पुरुषके, ब्रताधिकारियोके जो गुण बताये ह उन गुणोके साथ रहनेको उपुब्ास `
कहते है, उसमें कोई भी भोग नहीं होता सप्तमीकौ रात्रि बीतनेपर, अष्टसीके दिन प्रातः कालही ।
मलमूत्र त्यागादिसे निवृत्त हो नदी ताव आदि किसौएक जलाशयके पवित्र जलमें तिल डालके स्तरान करे
॥॥ १९ ।। २० ।। अषने घर सुस्दर पवित्र देशम एक मनोरम देवकोजीका सूतिकागृहं बनव । उस स्थानको `
चासो ओर सफेद, पीत, लाल, हरे ओौर विविध रङ्वाले ।\ २१ \) नवीन वस्नोसे सजावे तथा नृतन अव्रण
ऋ.
| | ५ | £ “ जलपुण 4 | “1 घट् जहा तह्य सब ओर ( अर्थात् दररवाजि तया कोणोमं ) स्स दे अन्ध रक्षे पुष्प् अनक्ष तरहुके ह ¦ 0 ४
५ फ सब जगह रसं । दीपकोकी श्रेणि भ्रज्वलित करके उसे चारों ओर सजके उपरकी ओर रखे ।\ २ २॥ . .
विचित्र २ पृष्पोकी मालारओको इतस्ततः बांधे, चन्दनसे चित करे, अगरकी धूषसे धूपित करे ।) सर्षप `
ौर रायौ सुपारी एवं रक्तसुत्र इनक पोटलियां (रक्षामणि) बांधकर उसःसतिकागुहको अत्यन्त अदुमुत `
सुन्दर बनावे ।\ २३ \\ हरिवंशमं जो मेरे चरित वर्णन कयि हे, जो मेने गोकुलम् गोवधन धारण नागसथ
नादि कम्मं किये है इन सबके चित्र लिखे । फिर बौणा, वेणु, मृदंग, पटह गोमुख एवं शंखादिकोके ५
उसको गंजित करे ।\ २४।। नाच गान करे ओर करावे । स्वयं माङ्कलिक गान करे । उस स्थानके चारों ओर `
। वेष्टकारी अर्थात् भूतबाधादिभयको दर करनेवाली ओषधि एम् रोहेकी तलवार जौर काले रंगका बकरा
। यातुवानादिके भयक
गै निवृत्तके लिये बांधे \\ २५ \\ दारपर मसल रक्खे, दारपालोक ं 4
करके र खडा करे ।। २६ !! उस सूतिकागहमे षष्टीदेवीका स्थायन करे, नानाविधं उत्सव तव करे ¦ ह है राज ज न्
चकर `
श्रतानि] हिलदीरीकासहित (३६७) `
, ॥ ३२ ।। एही नवसूर्यादिग्रहः शेष, वासुकिप्रभूति नाम, दुबेरादि यक्ष, चित्रकेतु प्रभृतिविच्याधर, इन्द्रादि `
| देवता प्रणत होकर पुष्यमाला हा्थोमे लेकर गलेमे पहरानेके लिये खडे हुए ह एसे स्वरूपमें स्थापित या चित्रित
। करे । एेसेही ओर सभी देवता एवं दानवोके ।\ ३३ ।! चित्रादि हों कि, मानों आकाशम वे प्रहार, रोदन एवं
| चिल्लाहट करते हँ । खङ्खः एवं चम्मं हाथमं लि हुये बसुदेवजीका चित्रभी वहांपर सजाबे ।। ३४ वसु
देवजी क्यप मुनि ह, देवकीजी साक्षात् अदिति है, बल्देवजी शेषभगवान् हं जौर यञ्योदा दिति है ।३५।
| नन्दजौ दक्षप्रजापति, चतुसंखं भगवान् ब्रह्मा, गर्गाचायं, गोपिका, अप्सराये ओर गोप दूसरे दूसरे देवता =
| ह 1 व्रती एसी भावना रले \\ ३६ ॥। है राजेन्द्र युधिष्ठिर ! कंसं कालनेमि देत्यका अवतार है । इससे मुम ।
| भारनेकी इच्छसे प्रसूतिका घरका बंदोबस्त, अपने बीर नोकरोसे कराया था, पर वे उस समय यश्ोदाजीसे
| प्रगट हई योग माया रूपा कन्याके प्रभावे एसे निद्रित हए कि, जिससे किसीको कुछ भीज्ञान न रहा \1 ३७।! `
। वषभ, गॐ हस्ती एवं दैत्योको शस्त्रपाणि तथ! जप्सरा जौर गन्धर््रोको नृत्य गायन परायणत्ता लिखे ।। ३८}
एक थमृना हदका चित्र लिखे, उसमें कालिनागका निवास लिखे । एसेही जो जो मेने चरित किये हुं ।३९!।
| उनके चित्र भी जहां तहां लिखने चाहिये 1 भविततत्पपर हो पुजन करना चाहिये । सुतिकागृहके बीजपुर, `
| एवं पुष्पमालादिकोके वितानसे क्लोभायमान करे ।! ४०.।। है युधिष्ठिर { ऋतु ओर देशके अनुकूल उत्पन्न `
| । हृए पुष्य फल एवम् गन्ध ओर अक्त सिल हए पाद्य अर्घोसि इस्त मन्त्रसे देवकोजीका पुजन करे ॥ ४१ ।।
| जायद्टिः' इस मू लोक्त पिरे कहे मन्त्रसे देवेकोजीकी प्राथेना करे ।। ४२ \। बहांपरही लक्ष्मीजीका चित्र
| एसा स्थापित करे कि, देवकीजीके चरणोके पास, अभ्यञ्जन करती हुई कमल्पर विराजमान है । सुन्दर
| चन्दनसे चचित कर उन लक्ष्मीजीकाभौ पजन करना चहिये । ४३ ।\ कमल चदे भौर ओं नमोदेव्ये ८
महादेव्यै शिवायै सततं नमः' देवी महादेवी ओर शिवाके चये निरंतर नमस्कार है, इस मन्त्रको पडता रहै । =
इसी मन्त्रसे ओर ओर भी उपचार करे । फिर प्राथ॑ना करे 'देववत्से इस मन्त्रसे देवफीजीको व्रणाम करे =
| उत्पश्चक्ररनेवाखी हौ आपका पूजन कियाहै पापोको नष्ट करनेवाली आव प्रसन्न होकर मेरे सब पार्पोको क्षीण ` ॥
| | 1 | | करें \ प्रणव आदिमे ओर नमः अन्तमं हो एसे देवकी दिका पजन उनके नास सन्नोसे होना चाहिये ।। ४४ ।। ६ ४ | | | ॥ १
| ५४५ इस्तसे सब पाय नष्ट होते हँ य पूजा, विधिको करनौ चाहिये । देवकीके लिये, वसुदेवके लि `
| बासुदेवके लिय \\ ४६ ।। बलदेव, नंद, यशोदा इन सबको इनके नाम मन्वोसे क्षीरादिक्रा स्नान कराकर १. 1
|
५ ले हैं! अतः इनकी वं गि नाममन्त्रोसि सभीकौ अलग अलग पुजा करके. प्राथेना करे किं, मं अपने पापों
विध्वंसके 0 व्यि पाद्य चढाता हूं । अध्ये दानं करता हः श्रीकृष्ण आप नाममन्त्रो मे नामोक ध |
“देवक्यै इत्यादि एकदलोकसे से | दिखाया
111 वि बरतरान ४ [कष्टमी-
बाले ! हे शराके चिह्ववाे नक्षत्र ओर रात्रिके ईश ! रोहिणौसहित आप मेरे अर््यको ग्रहण करिये । दूसरा-है `
चाँदनीरातके स्वामी ! तेरे ल्ि नमस्कार है, है नक्षत्रोके अधिपति ! तेरे व्यि नमस्कार है, है रोहिणीके `
घ्यारे ! तेरे लिये नमस्कार है, हमारे अर्धको ग्रहण करिये ।! ५७-६० स्थण्डिल्पर रोहिणीसमेत चन््रमाकौ `
स्थापना करे \ देवकीसहित वसुदेवजौकी तथा यश्लोदासहित नन्दवालाकी तथा बल्देवसहित मेरी । है राजन्! `
परमभक्तिके साथ पुजा करे । इससे एेसा कौनसा पदाथ है जो नहीं मिल सकता ।! ६१ ६२ ।॥ अब जन्मा-
ष्टमीके उपवास एवं महोत्सव भनानेका महात्म्य स्वयं श्रीम् खसे कहते हँ किं, बीस कोरिबार कियेहुए एकाद- `
क्लीबते समान अकेला छृष्णजन्माष्टमीव्रत है, इसके समानही अनन्तचतुदशीका व्रत है \! ६३ ॥ निीथ-
कालम धृतसे चसोर्धाराका सेचन करे । सात वसोर्धारा लिखके उनपर घृतकी धारा वहां । फिरं वर्धापन `
कम्मं करावे, थानी जन्मदिनम माकंण्डेय आदिकोकि पुजनपुवंक षष्ठोपूजनादि, नालच्छेदन, नामकरणादिं
सबं कम्मं मेरा ।\ ६४ ।। कमेकाण्डानुसार रात्रिमं करे दूसरे दिन प्रभातकाले उठके जेसा महोत्सव मेरे `
जन्मकेनिमित्त किया था उसौ प्रकार भगवती योगमायाके जन्मोत्सवके निमित्त भी करे ।। ६५ 1 फिर |
भक्तिपुवैक ब्राह्यणोको भोजन कराके उनको शवितके अनुसार दक्षिणा गन करे । सुवर्णं, पथिवी, गछ, वस्त्र
ओर पुष्प, एवम. ओर ओर ।। ६९६ ।। जो जो इस लोकम अपनेको प्रिय मालूम हों बे सब दक्षिणके स्वरूप, `
दे दे। या ब्राह्मणको शक्त्यन् सार दक्षिणा देकर ब्रतीपुरुषको इस लोकम जो सुवणं, पृथिवी, गञ, वस्त्र
पुष्य, आदि रुचिकर हों बे सब पदां मेरे अर्पण करे । दक्षिणादान या मेरे समर्पणके समय किस पदा्थेके
बदलेमें प्राथना न करे, कितु ष्णो मे प्रीयताम्" इससे भगवान् भीकृष्णचन्द्र प्रसन्न हों इतनाही कहे । जल्को
जमीनपर शल मेरा विसर्जन करता हआ "यं देवे" यहासे शिव चास्तु" यहातक सृखोक्त वक्यको पड़े ! इनका `
पूवं लिखआये ह । पौर सब बान्धवो एवं दीन अनाथजनोको भोजन करावे ।। ९६७-६९ । इन सभी
नान्त सज्जनोको भोजन कराके आपभी भोजन करे, उस समय मौनी रहे । जो पुरुष देवकीदेवौका महोत्सव
. प्रतिवषं विधिवत् करता है । हे धम्मनन्दन ! वह मेरा भक्त है । इस महोत्सवका मनानेवाला पुरुष होया `
` स्त्री वह यथोक्त फलको प्राप्त करता है ।\ ७० ।। ७१।। इस लोकमे एेसे पुरुषकी धर्मम निष्ठा होती है,
` ओर पूत्रोकौ सन्तान, आरोग्य ओर स्त्री हो तो अवुल सौभाग्य लाभे करती है । मरनेपर वेकुष्ठघाम प्राप्त
होता है \\ ७२ ।। हे य् धिष्ठिर ! वह वैकुण्ठमें जाकर विमानमें बैठ एक लक्षवर्षपू्यन्त विहार करताहुमा `
नानाप्रकारके दिव्य भोग भोगता है । पुण्यफलके भोगनेपर भी जब वेकुण्ठसे यहां वापिस आताहै ॥\७३॥ `
` तबभो वह पुण्यात्मा महाराजाओके समान समृद्धिमानोके कुलम जन्म लेता है, जिसमे कि, सव ध सनो ८४ ऽभिख्षित ` १
2 व
ओर अथं धूवेके समानही है, यह सवेतत्रस्वतंत्र पं. माधवाचायं विरचित भविष्योत्तरपुराणकी कही हुई 1
` जन्माष्टमी ब्रत कथाकौ भाषाटीका समाप्त हुई ।। | | | ।
च अथ रिष्टाचारप्राप्ता जन्माष्टमीत्रतकथा क
व्यास उवाच ।। निवृत्तं भारते युद्धे कृतशौचो युधिष्ठिरः ।॥ उवाच वाक्यं
धर्म्मा कृष्णं देवकिनन्दनम् ।} १ ।। युधिष्ठिर उवाच ॥। त्वत्प्रसादात्तु गोविन्द
| निहताः शत्रवो रणे ।। करणेच निहतः सैन्ये त्वत्प्रसादात्किरीटिना । २
> = न
। दाज्जनादेन । ३ । प्राप्तं निष्कण्टकं राज्यं कृत्वा कमं सुदुष्करम् । आचारो
। ष्टमीव्रतम् । जन्माष्टमी ब्रतं ब्रूहि विस्तरेण ममाच्युत ।! ५।\ कुतः काले `
। समत्यन्नं किपुष्यं को विधिः स्मृतः । श्रीकृष्ण
जेता को युधि भीष्मस्य यस्य मृत्युन विद्यते \\ अनेयोऽपि जितः सोऽपि त्वत्प्रसा- `
|. इण्डनीतिङ्च राजधर्माः क्रियान्विताः ।। ४ ।। अधुना भोतुमिच्छामि शुभं जन्मा- `
7 उवाच ।, श्कृणु राजच्प्रवक्ष्यामि
व्रतानामुत्तमं व्रतम् ।। ६ ।\ यतः प्रभृति विष्यातं फलेन विधिनान्वितम् \। राज- `
वंशसमत्पन्नेदेत्यानीकः सुपीडिता ॥\ ७ ॥। धरा भारसमाक्रान्ता ब्रह्माणं हरणं
| थयौ ।। ज्ञात्वा तदा प्रभृब्रह्यः भूमेर्भारं समाहितः ।\ ८ ।। इवेतदीपं समागत्य `
स्वदेवसमन्वितः ।। समाहितमतिब्रह्या मां तुष्टाव विशांपते ॥ ९ ।। स्तुत्या `
तयाहं संप्रीतस्तेषां द्ग्गोचरोऽभवम् ।\ दृष्ट्वा मां प्रणिपत्याश॒ भक्तिभाव- `
समन्विताः । १० ॥। ब्रह्माणमग्रतः कृत्वा तुष्टाः सवं दिवौकसः ॥ विजिज्ञ- ` `
पु्महाराज भूमिभारापनुत्तये \। ११।। उपधायं तदा तेषां वचनं चान्वचिन्तयम् ।। ष 1
प्रजाकामो पुरा नृप ।। भक्त्या मां भजमानौ तौ तप्त लः ौ म ) ष
शष ते : प्रसन्नः सुप्रीतो याचतं वरमुत्तमम् ।\ अब्रुवं तावि # वपि ततो बरया-
सह \! २१ ।\ गतेऽधर्मरा्रसमये सुप्ते स्वजने निशि ।\ भाद्रे मास्यसिते पक्षेऽ- `
ष्टम्यां ब्ह्यक्नेखयुजि सवेग्रहभे काले प्रसन्नहूदयाशये ।\ आविरासं ५
निजेनैव रूपेण ह्यवनीपते \\ २३।। वसुदेवोऽपि मां दष्ट्वा हषशोकसमन्वितः । `
भीतः कसादतितरां तुष्टाव च कृताञ्जलिः ।\ २४ ।। पुनः पुनः प्रणम्याथ प्राथया-
मास सादरम् ।। वसुदेव उवाच ।! अलोकिकमिदं रूपं दुदंशं योगिनामपि ।\ २५
यत्तेजसारिष्टगृहमभवत्संप्रकाक्षितम् ।। उदिजे भगवन्कसाद्यो मे बालानघा-
तथत् ।। २६ । उपसंहर तस्माच्च एतद्रपमलौकिकम् ।। शंखचक्रगदापद्यलस- `
त्कौस्तुभमालिनम् ॥२७\। किरीटहारमुकुटकेयूरवल्याङ्कितम् \) तडिदसनसवीत
` क्वणत्काञ्चनमेखलस् ।\ २८ ॥। स्फुरद्राजीवता स्राक्षं स्निग्धाञ्जनसमप्रभम् ।॥
` महामरकतस्वच्छं कोटिसू्यंसमप्रभम् ।\ २९ ।! कृष्ण उवाच \। एवं संप्राथितो
राजन्वसुदेवेन वै तदा ।। तेनैव निजरूपेण भृत्वाहं प्राकृतः शिशुः । ३० ॥ नय `
मां गोकुलमिति वसुदेवसचोदयम् ।। समादायागमत्सोऽपि नन्दगोकुलमञ्जसा 1
॥ ३१ 1) द्वारण्यवाकृतान्यासन्मत्प्रभावात्स्वयं प्रभो ।) ददौ मागं च काकिन्दी-
जलकललोलमालिनी ।। ३२ । ततो यशोदाशयने न्यस्य माऽऽ्नकदुन्दुभिः ।॥
तत्पयकं स्थितां गृह्य दारिकामगमत्पुनः ।। ३३ ।\ दवाराणि पिहितान्यासन् पूवे-
बल्निगड ततः ।\ विन्यस्य पादयोरास्ते शयने न्यस्य दारिकाम् ।\३४।। ततो रुरोद
¦ महता स्वरेणापुयं सा दिज्ञः।\ तस्या रुदितज्ब्देन उत्थिता रक्षका गृहात्! ३५।। `
कसायागत्य चाचख्युः प्रसृता देवकीति च ।\ सोऽपि तत्पात्समुत्थाय भयेनातीव `
विह्वलः ।। ३६) जगाम सृतिकागेहं देवक्याः प्रस्वलन्पथि । दारिकां शयनाद्- `
` गृह्य रुदत्याश्चेव स्वस्वसुः ।\ ३७ ।\ अपोथयच्छिलापृष्ठे सापि तस्य कराच्च्युता ।! `
उवाच कसमाभाष्य देवी ह्याकाश्गा सती ।।! ३८ 11 कि मया हतया 4: तय 7 मन्दजातः
| क्तानि) ` हिन्दीटीकासहित = (३७१)
सवलौकंककण्टके 1 ४६ 1! अन्येषु दुष्टदेत्येषु सर्वलोका भयंकरम् । लोकाः ` |
। नामभयप्रद ।) प्रल्यात्पाहि नो देव शरणागतवत्सल ।। ४८ ।। अनाथनाथ सर्वज्ञ `
| सर्वभूतहिते रत ।! किचिद्वि्ञाप्यतेऽस्माभिस्त्ो ववतुं त्वमहंसिं ।। ४९ । तव
समेत्योचुराद्ताः ।। ४७ ।। कृष्ण कृष्ण महायोगिन् भक्ता. `
जन्मदिनं रोकं न ज्ञातं केनचित्क्वचित् ।। ज्ञात्वा च तत्त्वतः स्वे कुर्मो वर्धापनो- |
त्सवम् ।। ५० ।! तेषां दृष्ट्वा तु तां भक्ति शद्धामपि च सौहृदम् । मथानजन्म- | |
दिनं तेभ्यः ख्यातं निमेल्चेतसा ।\ ५१ ।। शरुत्वा तेऽपि तथा चक्रविधिनायेन
| तच्छृणु ।\ पाच तदिवसे प्राप्तं दन्तघावनपूवकम् ।। ५२ ।\ स्नात्वा पुण्यजलं शुध ष ॑ | 0
| वासी परिधाय च \\! निवर्व्यावत्यकं कमं व्रतसंकल्पमाचरेत् । ५३ ।! अद्य
निराहारः इवोभते तु पलेऽहनि ।\ मोक्ष्यामि पुण्डरीकाक्ष शरणं
यरय ।। ५४ ।\ गृहीत्वा नियमं चव संपादयाचनसाधनम् ।। मण्डपं शोभनं
मेमवा-
॥ कव
फः पुष एदिभियुतम् 1! ५५ ।। तस्मिन्मां पजय क्त्या गन्धपुष्पादिभिः क्रमात्|
र ध प्च गोपान् गाश्चैव स्वश्चः । गोकुलं यमुनां चैव योगमायां च दारिकाम्
।\ यक्षोदाक्यने युप्तां सद्योजातां वरप्रभाम् \! एवं संसजयेत्सम्यड नाम-
सन्त्र: पृथक्पृथक् ।\ ५९ ।! सुवणेरौप्यतास्रारमूदादिभिरल्कृताः ।। काष्ठपाषाण-
चताश्चित्रमय्योथ ठेखिताः ।। ६० ।! प्रतिमा विविधाः प्रोक्तास्तासु चान्यतमां
(इर) त्रतराजः [ अष्टमी-
वत्सरम् ।। ७१ ।। भक्त्वा पापस्य शेषेण पैशाची योनिमास्थितः ।। तषाक्षुधा-
समाक्रान्तो भरमन्य मरुधन्वसु ।! ७२ 1 कस्यचित््वथ वैहयस्य देहमाविष्य `
संस्थितः ।\ सह् तेनैव संप्रप्तो मथुरां पुण्यदां पुरीम् ।\! ७३ |! तत्रत्येरक्चकेः `
सोऽथ तहेहात्तु बहिष्कृतः ।\ बभ्राम विपिने सोऽपि ऋषीणामाश्रमेष्वपि ॥। ७४॥।।
कदाचिहैवयोगेन मम जन्माष्टमीदिने ।। क्रियमाणां महापूजां त्रतिभिमुनिभि- `
दिनैः । ७५ \\ रात्रौ जागरणं चव नामसंकौतनादिभिः \। ददश स्वं विधिवच्छु-
श्राव च हरेः कथाः ।! ७६ ।! निष्पापस्तत्क्षणादेव शुद्धनि्मलमानसः \) प्रेतदेहं
समृत्सृज्य विष्णुलोकं विमानतः ।। ७७ ।! मम दूतैः समानीतो दिव्यभोगसम- `
` न्वितः ।। मम सानिध्यमापन्नो व्रतस्यास्य प्रभावतः \। ७८ ।। नित्यमेव बतं चेतत् `
(भ
पुराणे सावका
लिकम् ।। गीयते विधिवत्सम्यडमुनिभिस्तत्वदशिभिः ।\ ७९।
सार्वकालिकमेवेतत्कृत्वा कामानवाप्नयात् ।। एतत्ते सर्वमाख्यातं ब्रतानामत्तमं `
व्रतम् ।। मम साच्धिध्यङघद्रार्जान्क भूयः श्रोतुमिच्छसि । ८० ।! इति भविष्ये `
जन्माष्टमौव्रतकथा ।। अथोदापनम्-युधिष्ठिर उवाच ।। उद्यापनविधि ब्रहि `
स्वेदेव दयानिधे ।। येन संपू्णतां याति व्रतमेतदनुत्तमम् ।। श्चीकृष्ण उवाच \! `
न्स्वस्ति वरि वसिः वाचयत् ।। गुरुमानीय धमनज्ञ वेदवेदाद्धपारगम् ।। वणयादत्विजहचे चेव |
वस्त्रालंकरणादिभिः ।। पलेन वा तदर्धेन तदधर्धिन वा पुनः ।। शक्त्यां वाएि पि प
स नृपश्रेष्ठ वित्तशाठ्यविर्वाजतः ।\ सौवर्णी प्रतिमां कुर्यात्पाद्याध्य 1 चिमनीयव यकम् ¶॥
| व्रतानि] हन्दीटीकासहित (३७३)
लम् ।। गन्धपुष्पाक्षतोपेतं गृहाणार्ध्यं नमोऽस्तु ते ।। अर्घ्यम् ।\ कृष्णावेणीसमदृभूतं ` ` |
कालिन्दी जलसंयुतम् ।\ गृहाणाचमनं देव विहवकाय नमोऽस्तु ते ।। आचमनम् ॥ ` 2 ॥ ^
| दधि क्ष्रं वृतं शुद्धं कपिलायाः सुगन्धि यत् 1 सुस्वादु मधुरं शौर मधुपर्क गृहाण `
| मे । मधुपकंम् ।। पुनराचमनम् \! पञ्चामृतेन स्नपनं करिष्यामि सुरोत्तम ॥
| क्षीसैदधिनिवासाय लक्ष्मीकान्ताय ते नमः ।\ पञ्चामृत ० ।। मन्दाकिनी गौतमी `
च यमुना च सरस्वत ।। ताभ्यः स्नानार्थ॑मानीतं गृहाण शिश्निरं जलम् ।। स्नानम् ॥ ` ह
पुनराचमनम्।। शुद्धजाम्बूनदध्रये तडिद्धासुररोचिष।।मयोपपादिते तुभ्यं वाससी `
| प्रतिगृह्यताम् ।\ वस्त्रयुग्मम्।। यज्ञोपवीतमिति यज्ञोपवीतम्। किरीटकुण्डलादीनि `
काञ्चीवलययुग्मकम् ।। कौस्तुभं वनमालां च भूषणानि भजस्व मे ॥ भूषणानि ।॥
वैकुष्ठवासिने० ऊरू पु० । पुरुषोत्तमाय० मेदू प° । वासुदेवाय० कटीं पु० ।
१ य० नाभि पू० \ माधवाय हदयं पु० । मधुसुदनाय० कण्ठं पु० । ध ५
्।। नन्दं दं यशोदां तत्काल्रसूतां गोपगोपिकाः ।। कालिन्दीं `
। बनस्यतिरसोद्भूतं कालागुरुसमन्वितम् ।। धूं `
1 4 पुरःसरम् ।। जाचाय पजयद्क्त्या भूषणाच्छादनादिभिः ।! गामेकां
| (३७४) = त्रतराज [अष्टमी
ते ।। ततस्तु दापयेदघ्येमिन्दोरुदयत शुचिः ।। कृष्णाय प्रथमं दद्याहेवकीसहिताय ध
चं! नालिकेरेण शुद्धेन मुक्तसघ्यं विचक्षण ।। कृष्णाय परया भक्त्या शलं कृत्वा _
विधानतः ।। जातः कंसवधार्थाय भभारोत्तारणाय च.।। कौरवाणां विनाश्य
दैत्यानां निधनाय च ।। पाण्डवानां हितार्थाय धमंसंस्थापनाय च ॥ गृहाणार्घ्यं
मया दत्तं देवकीसहितो हरे ।\ कृष्णाघ्येमन्त्रः ।। शंखे कृत्वा ततस्तोयं सपृष्प-
फलचन्दनम् ।! जानुभ्यामर्बनि गत्वा चन्द्रायार्घ्यं निवेदयेत् । क्षीरोदाणेवसंभूत =
अनिगोत्रसमुप्दूव ।। गृहाणार्घ्यं मया दत्तं रोहिण्या सहित प्रभो ॥। ज्योत्स्नापते
नमस्तुभ्यं नमस्ते ज्योतिषांपते । नमस्ते रोहिणीकान्त गृहाणाघ्यं नमोस्तुते ।॥ ्
` चन्द्राघ्य॑मन्त्रः ।\ इत्थं संमृज्य देवेशं रात्रौ जागरणं चरेत् ।। गीतनत्यादिना चैव
पुराणश्रवणादिभिः \\ प्रत्यूषे विमले स्नात्वा पूजयित्वा जगद्गुरुम् ।। पायसेन ४ ५
तिलाज्येश्च मूलमन्त्रेण भक्तितः ।। अष्टोत्तरशतं हत्वा ततः पुरुषसूक्तत ॥
इदं विष्णुरिति प्रोक्त्वा जुहुयाद्र घताहुतीः ।\ होमशेषं समाप्याथ पूर्णाहुति क
` दच्यादतसंपूतिहेतवे ।। पयस्विनीं सुशीलां च सवत्सां सगुणां तथा ।। स्वणश्यृह्धीं
रौप्युरां कवस्यदोहनिकायुताम् ।। रत्नपुच्छां तास्पृष्ठीं स्वणेघण्टासमन्विताम्।। `
वस्त्रच्छच्लां दक्षिणाढचयामेवं सम्प्णतां व्रजेत् ।।! कपिलाया अभवे तु गौरन्यापि
प्रदीयते । ततो दद्याच्च ऋत्विरभ्योऽन्येभ्यश्चैव यथाविधि ।। शय्यां सोपस्करा
५ | द्यादुव्रतसम्पुतिहेतवे ।। ब्राह्यणार्भोजयेत्पश्चादष्टौ तेभ्यश्च दक्षिणाम् ।। कलशा-
^ नच्चसम्पूरणान्दद्याच्चव समाहित । दीनान्धक्रपणाहचेव यथाह प्रतिपजयेत् ५
प्राप्यानुज्ञां तथा तेभ्यो भुञ्जीत सह् बन्धुभिः ।\ एवंक्रते महाराज व्रतोद्यायन-
` कर्मणि \\ निष्यापस्ततक्षणादेव जायते विबुधोपमः ।। पुत्रपोत्रसमायुक्तो धन-
८ न न्यसमन्वितः ।। भुक्त्वा भोग गाद भोगार््चिरं कालः इति ` श्री-
इसका जो फल तथा जो विधि है वह सब कहता हं, पहिले हमने लिन दैत्योका दध किया था वे सभी दुरात्मा
इख निवेदन करनेलगी ) उस समय ब्रह्माजीने अपने शरणागत भूमिके भारको समन्न समाहित हो \,
` उसके मिटानेका उपाय सोचा पर जब समञ्षमें न आया, तब शरणागतवत्सल शवेतटीपनिवासो भगवान्
। नारायणकौ शरणं गये, अपने साथमे सबदेवताजोकोभी के गये । फिर ब्रह्माजी समाहित चित्त होकर हे
| विक्षास्पते राजन् ! मेरी ( कष्णचन््रकौ ) स्तुति करने लगे ।। ९ ।\ मेने नारायण ब्रह्मादि देवताओंकी `
| की हुई स्तुति सुन अत्यन्त प्रसन्न हो अपना दहन करादियां \ वे सभी मेरे दक्लंनकर भवितसे आह्वादित होकर ०
। ` मुके प्रणामं करने ल्मे! १० ।। है महाराज ! फिर सब प्रसस् ह ब्रह्माजीको अग्रणीकर मेरी प्राथना करते | ¢
। लगे किह प्रभो ! पृथ्वीपर राजवेषधारी दुरात्मा दैत्योका भार बहुत बढगया है सो आप उसको नष्ट कीजिये
किया जाय ? जिसे क्षे्नीय कुलमे चपि हुए दैत्य मारे जायं ।। १२ ॥। स्वधर्मनिष्ठ सभौ राजाखोगबचाये
जायं वे बलं तथां पराक्रमशालो केसे हों ? इस प्रकारशोच कर उसका उपाय समक्ना फिर मे (ङष्णचन्द्र)
` ब्रह्मासे बोत्म \\ १३ ।। कि वासुदेवजी एवं देवकीजीने सन्तानके लिए पिरे मेरा भक्तिसे पुजन करके घोरं
उस समय प्रविष्ट हुमा जब कि, कारा-
स रतानि 1 | । हिन्दीदीकासहित 4, (३५५) | ॥ 1
व्रतका निरूपण करूगा, उसे आय सुने ॥ ६ ।। यह जन्माष्टमीका व्रत जिस समयसे लोके विख्यात हषा ।! ` = `
दैत्यगण राजवंशोमे उत्पन्न हो, राजवेश्चको धारण करके पथिवीपर बडी भादी पीडा उपस्थित करने ल्मे `
इससे अत्यंत पीडिता ।। ७ ।। यानी उन राजाजके वेषसे जिन्होने अपना स्वरूप ठक रथा था एेसे दैत्योके `
। भारसे दबी हई पृ थिवी देवी (गऊका रूप धारण कर ऋन्दन करती हुई) ब्रहमाजीकीडारण प्राप्त हई (अपना
` ॥ ११॥\ मं (इवेतद्वीपवासी ) नारायण उन देबताओके वचनोको सुन विचार करने लगा कि, क्या उपाय
तपक्ियाथा।) १४॥। में उनपर प्रसन्न हभ, वर देनेको कहा, तो उन्होने मेरेसे बडे भारी बरकी याचना =
। कौ ॥ १५ किहे देव! यदि आप प्रसन्न हुए हो तो आपके समान हमारे पुत्र हो \ हे राजन् ! उनके तपसे `
¢ प्रसन्न हज म बोला कि, अच्छा, जसी तुम्हारी इच्छा हो वेसाही हो, मे ही तुम्हारा पुत्र होमा ।\ १६ ।1 |
४ 6 ननदः नम्दकौ यशोदा स्त्म प्रकट होगी । मेरा अनन्त एवं श्षयनका आश्रयरूप श्ेषभौ देवकीके गर्भमे प्रवेश करेगा ` । (4.
1. 04 ८ ॥\ मेरौ योगमाया उन्हं देवकीके गभस निका के रोहिणीके गमे प्रविष्ट करेगी । ब्रह्मादिवेवताओको ` (1
(८. देवता जिस विरामे मेने उन्हे दज्ञन दिया था उस दिदाकी ओर मुखकर मेरे लिए भणामः करते हए गोरूप ` |
घारिणी पृथ्वीको आइवासन देकर यानी भगवान् पुराणोत्तम आप तुम्हारेयर अपने चरणोसे अह्लादित एवं `
करो, एसा कह सत्यलोकको चले गये
एवं उस केदमे उनके पहिले उत्पन्न हुए `
(1 ६ ६; 4 प
` आप क्ख, चक्त, गदा ओर कमलसे सुशोभित चार हाथो बाला, कौस्तुभमणिमालाकौ दीप्तिसे ज्ोभायमान 1
मालाधारी ।! २७ ।। किरीटसे श्ोभिन मस्तकवाले मोतियोके हारवाल् मुकुर ओर कुण्डलेको धारणक्रिये
हए कंकणोे सुन्दर हाथवाले विदयुत्सदृश्च स्वच्छ पीतवस्त्रसे रुचिर, सोनेकी वजनी ताघडीसे वेष्टित नितम्ब- १
, वाले ।। २८ ।। लिलते हृए लार कमलके सदृक्ष लालनेत्रोसे सनोहरः स्निग्ध (मसृण ) अञ्जनके समान श्याम, = `
नीलमणिके समान स्वच्छ कोटिसुयोकि बराबर दीप्यमान हं \\ २९ ।। श्रीकृष्णचन्द्र गोले कि, है राजन् ! 1
। जब इस भरकर कसके भयसे उद्िग्न हए वसुदेवजीने मेरी प्राथथना की, तब मने भौ उस अपने टिव्यस्वरू्पके 4
साधारण शिशु बना लिया ।} ३० ।। ञौर कहा कि, आप म्े यहसि गोकुल (नन्दजीके यहां) षहुचादें । =
` वसुदेवजौ मेरी आज्ञा होते ही षट मुषे अपनी गोदमं लेकर नन्दके गोकुल पहुंचे ।\ ३१ उस समयहे प्रभो !
१ | क्रदखानेके हार मेरे प्रभावसे आपह अषप खल गये, जिसमं बडी २ तरंगे उठ रही थी एसी यम॒नाजीने भी । त ।
आही अपने बीचसे वसुदेवजीको गोकुल को जानेका रास्ता दे दिया ।। ३२ \1 आनकटदुन्दुभि-वसु-देवजी `
यद्ञोदाकी शय्यापर मृक्षे रखके उसके पलंगतर सोई हयी कन्यारूपा योगमायाको गोदमे ले मथुराके उसी
भकानमें आगये \। ३३ \। जसे पिरे दरवाजे बंदथे वैसे ही फिर सभी दरवाजे आपहीआपवबंदहोगए\
वयुदेवजीने देवकीकी श्ञय्यापर उस कन्याको रखके अपने चरर्णोमे पहलेकी तरह् बेडी पटकली ॥। ३४।॥ `
५ कल्याने सब दिन्ञाभौको पूण करनचष्लि उच्चस्वरसे रोदन किया + उसको सुनकर पह्रेदार खड हए ।\ ३५।१ ` ¢ ध
किसी घड़ेको जब फोडना चाहते हं उस समय उसे श्िकापर जोरसे फक्के मारते हं उसी तरह उसे भौ मारा ॥ |
| | ( केशी 1 ४२ । एवम् दूसरे भी बहुतसे खलोको मार करके अपना प्रभाव दिखादिया ! इसके पौरे मथुरा
ज ^ कंसादि दानवोंको मारकर ।\ ४३ ॥। अपने ज्ातिबन्धुओंको आदर पूर्वक हषे किया, देवको ओर वसु
उन्होने तुरन्त जाकर कंसको खबर दी कि, देवकीकी बालक हुमा है । कंस उस समय सो गया था, पर इन `
बचरनोको सुन भयसे विह्वल हौ खडा हुभा ।। ३६।। निद्रा एवं चिन्तासे रास्तेमं इतस्ततः पडतागिरताहुजा = `
. देवकीजोके सुत्तिकाघर आया, देवकीजी रोतीही रही, उनके पास सोती हुई कन्याको छीन 1 ३७ ।\ जसे
कल्या कंसके हासे निकल आकाशम निराधार खडी हो बोली कि, रे दुष्ट कंस ! । ३८ । रे मूढ ! मुन्ने `
। मारकर तु क्या चाहता है ? मेरे भारनेसे तेरे प्राण रहीं बच सकते । तु्षे मारनेवाला तो जिस किसीभीः
.. स्थानमं उत्पन्न हो गया है । तब वहु कंस भयसे ओरभी अधिक उद्टिग्न होगया \। ३९ ।\ बालकोको मारनेके
ल्व जपने किकरोको आज्ञा दे दी । दानलोगभी वन (जङ्कल) उपवन (बगीचे), पुर (शहर), ग्राम
(छोरीवस्ती) आौर ब्रन (गोपालकोके स्थान ) इत्यादि सब जगह छोटे छोटे बच्चोका कदन (कतल)
` करनेमं सभौ प्रकारके उद्यम करनेलगे । मं गोकुलमं रहकर बाघातिनी पुटनाको ॥। ४०।।।४१ 11 जोकि, `
मृ स्तनपान कराने प्रवृत्त हुई थौ, भ्राणोके साथ चस गया । मेने ओर भी जो तुणावतं, बक, अरिष्ट, धेनक,
वने मूषे आनन्दसे हदय लगाकर ।\ ४४ \। मेरे जलिरपर आनन्दाश्र ओका सिचन किया
॥ व्रतानि | ` $ 2 ` हिन्दीदीकासहित ५ । नि (३७७)
क कि भवायामर ााकाक
णण 01
(५ क संकल्प करे ।\ ५३ ।\ आज निराहार रंगा, फिर दूसरे दिन भोजन करूंगा ।। है पुण्डरीकाक्ष ! हे अन्यय |
6 ` मेरी रक्षा करिये, मं आपके आश्चित हूं ।\\ ५४ \। एसे नियम (संकल्प) को कर मेरी पुजाकौ सामग्री इकटठी `
। करे । पूजाके लियं सुम्दर एक मण्डल बनावे, उसमे फल, पुष्प, पाद्य, अर्यं, आचमनीय, स्नानपात्रादि तथा
मन्ध, धृष ओर दीपकादि उपस्कर अच्छी तरह उपस्थित करे ।\ ५५ ।! फिर उस मण्डपके भीतर शास्तोव्त = `
| परजनविधिके क्रमके अनुसार गन्धपुष्यादि षोड उपचारोसे ओं नमो भगवते वासुदेवायः इस द्वादशाक्षर- `
(1 मन्त्रको पठता हज मेरा पजन करे ।\ ५६ ।। मानों अभी प्रसव किया है एसी अवस्थावाखी देवकी, ज्नानी
। बसुदेवजी, गुणवती रोहिणी ओर उसकी गोदमे बल्देवजौ \। ५७।। नन्द, यश्लोदागोपिका, सब गोप, गोकुलका
| करे । ५८ 1} ५९ ।1 है राजन. ! पुजामें प्रतिमा अनेक प्रकारक हो सकती है, उनमें जिस समय जैसी उप-
| | जागरण करे । अवशिष्ट रात्रिको निद्रासे न गमावे \\ ६० ।\ ६१ ॥ पुराण ओर स्तोत्र पाठोसे एवं जन्मके | ठ | ध
अनृरूप देवकीनन्दन वसुदेवनन्दन यदुनन्दनप्रभृति नाम दूसरे दरसरे सुन्दर उत्सवोके प्रमोद आमोद मनाते
. _ ` हृएही विताबे । दुसरे दिन तब ब्राह्यणोको प्रेमसे भोजन करा आपभौ पारण करे ।। ६२ \! है महाराज !
मनुष्य सोहवस हो मेरे जन्मोत्सवको नही मनाता, बह जननमरणखूप संसारकी गृहाके भीतर अन्धकारमेही `
पापोसे छूटके निर्मल होजाय ।! ६४ ।} इस प्रसङ्खमे महात्मा लोग एक प्राचौन इतिहास कहा करते हं ।
सत्यजिन्नामका पुत्र हुभा । बह धर्मवेत्ता सत्यजित् अपनी प्रजाको पुत्रकौ भोति
फर कालने उसे आघेरा, यमदूतोके वश्च हो गया, वे उसे गले वृढपाशोसे
समीप छे आये (९७ ७० ॥ दृष्ट पाषण्डियोके संगसे धर्मविमुख हौ जो जो
(चित्र), यमुना ओर यशोदाकी शय्यापर सोती हुई, मानो इसी क्षण जन्म लिया है एसी सुन्दर तेजवालो
कल्या मेरी रूपा यौगमायाको स्थापित करके पहिरु कहीहुई विधिसे नाममं्रोसे पृथक् २ अच्छी तरह् पुजन `
४ , स्थित है या करसके उसौम प्रेमसे पुज्यदेवताकी भावना करके पुजन करना चाहिये । प्रतिमा जैसे-युवणं, ` | । | ४ -
रूपा, तामा, पीतकः मृत्तिका, काष्ठ जर पषाणादिकोकी तथा रंगोसे सजाके चित्रित लिखी हुई \ पुजनके व
अन्तमं या परजनेसे पहिले भी पुनासे अवशिष्ट समयमे रात्रिं मेरे उदेशसे गान नाच कीर्तनादि करता हमा = `
। इस प्रकार इस व्रतको करके सब कामना संपूणं होती है. अन्तमे वङण्धाममे बिहार करता है ॥ ६३ जो `
` षडा रहता है \ इस कारण यदि अपने पापोसे छटकारा चाहे तो इस व्रतको ओर महोत्सवको करे, जिससे `
वहं यहं है कि अंगदेशमें एक मित्रलित् नाम राजा था ।! ६५ ।! उसके परमप्रताप शाली स्वधमंपरायण `
ति प्रसन्न करता हा राज्यकौो `
रक्षा करने लगा ।। ६६।। बह राजा यद्यपि धर्मनिष्ठ घ्मवेत्ता था, पर उसके राज्यदासनकालमे कभी दैववश्ञ `
बहुत समयतक पाषण्डियोका साथ होगया }\ ९७ ।। उन दष्टोके सहवाससे राजाकी बुद्धि धमंसागंसेडिग _ `
गयी, वह् जधमंपरायण होगया । है राजन् ! फिर वह राजा वेद, धमंशास््र ओत पुरा्णोकी बहुतसौ निन्दा
करके ।। ६८ \ ब्राह्मण एवं चमसे देष करने लगा । हे भरतसत्तम ! एेसे उसका बहुतसमय बीतगया ॥६९॥
॑ से बांधकर घसीटतेहुए यमराजे `
पाप किये भे वे उनको भुगानेके ` `
| 4 विषयमे प्रश्न किया था, वह॒ सब हमने कहुदिया । ह राजन् ! यह सब ब्रतोमं उत्तम रत हैः इसके अनुष्ठानसे ` ४ 4.
मेरे (विष्णुके) सन्निहित होता है । अब तुम्हारौ क्या सुननेकौ इच्छा है उसे किये ।1८०।। यह श्रीभविष्य- = ` `
` वैकुण्ठ रे आये ! इस प्रकार मेरे जन्माष्टमीवाले ब्रतके प्रभावसे मेरे समीप पंच दिव्यभोग भोगने लगा
, ५1 ७८ ।। पुराणों तस्वदह्ी मनियोने इस जन्माष्टमौके व्रतका प्रभाव एेसाही सदा गाया है ।। ७९ ।।\ अततः `
जो नर जन्मभर प्रतिवषं विधिवत् इस वतको करेगा वह सर्वेथा पूर्णकाम होगा । जौ तुमने जन्माष्टमोके
1 न तै ।
~~ १ ~
पराणकोकही हई शिष्टपरिग्रहीत जन्माष्टमीके ब्रतकी कथा पूरी हई \। उद्यापन-युषिष्ठिर बोलेकि, है ` ॥
सब देवताओंकी दयाके भण्डार ! उद्यायनकौ विधि कहिये लिसके कियेसे यह उत्तम ब्रत सपूणणताकोप्रप्त =
| होजाय \ भीकृष्ण बोरे कि, वित्त चित्तसे संयक्त पुर्णासज्ञक तिथिमे उञ्चापन करनेवाला नर पहिले दिनि ` { |
एकबार भोजन करके मुञ्चे हदयमें स्मरण करता हमा सोये । प्रातःकाल उठकर एकाग्रचित्त हो पुण्यश्लोकोका | `
स्मरण कर आवदयक कामोसे निवृत्त हो बराह्मणोसे स्वस्तिवाचन कराये ।। धर्मके जाननेवाले वेद्वेदान्तोके ।
ज्ञाता गृरको आचार्यं बना, वस्त्र जर अलंकारोसे ऋत्विजोका भी वरण करना चाहिये ।। हे नुषधरेष्ठ { ‰ .
एकं पलकी आधेकी अथवा आधेसे भौ आघेकी जैसी अनौ शक्ति हो घनका लोभ छोडकर सोनेकौप्रतिमा = `
च
बनाये \ पादय, अर्घ्य, आचमनीय पात्रोको विधिके साथ इकट्टा करके पूजाका उपकरण इकट्ढा करे । गोचमे- =
^ मात्र भूमि छीपकर बीचमें मण्डल बनाये । ब्रह्मादिक देवताओंको वहां स्थापित करके उनकी पूजा करनी
चाहिये । वहां केाके स्त॑भोसे मण्डित एक मण्डप बनावे, उसमे चार द्वार हो एवं फल ओर पष्योसे सुशोभित ` |
हों \ उसमे रङ्कः विरंगे सुन्दर वितान बाधे ! उस मण्डलमें तबे या मिहुके पवित्र कुंभको स्थापितकरे! `
प्ले, सोलह उपचारं तथा -उनके मन्वरोसि एकाग्रचित्त होकर पूजे ध्यान करे आवाहन करे; आदरप्वैक `
/ `. बाले, दिव्य जाभूषणोसे विभूषित, देदीप्यमान कोस्तुभको शोभसे सुशोभित युन्दर नयनोवारे लक्ष्मीसहित
श्रीविष्णुदेवका मे ध्यान करता हुं \ हे देवदेवोके ईडा ! हे संसारके कारण ! ह रमापते ! पधारिये ! इस
षवित्र बेठनेके स्थलमे विराजिये ओर कृषा करिये, इससे आवाहन; हे देवदेव ! ह जगके नाथ ! हे गरुडके
. मक्षत इसमे पडे दए है, इस अ्यको ग्रहण करिये, आपके लिये नमस्कार है, इससे अर्य, जिसमे छृष्णा ओर `
उसके ऊपर चांदी या वाँसका पात्र रख दे । पौषे उसे कपडेसे ठककर हे कौन्तेय ! योग्य व्रती उसपर मृक्ञे
स्वागतादिकसे अन्य विधि संपन्न करे ! पांचरात्रके विधानसे अर्चाका (अर्चावतारका ) अमृतीकरण करे
इन मल्त्रौसे ध्यानकेरना चाहिये क्रि, चार भजावाले. शंख चक्र गदा प्यके धारण करमेवारे, दो पीतवसन- `
आसनपर बैठनेवाले ! इस दिव्य आसनको ग्रहण करिये ! ह जगतुके धाता ! तेरे लिये नमस्कार हैः इससे `
आसन, अनेक ती्थोसि लाया हुजा निमंल पानी पुष्प मिलाकर रखा है । हे देवेश { वि्वरूप ! पाद्य ग्रहणकर
तेरे व्यि नसस्कार है, इससे पाद्य, गंगादिक सब तीथेसि भक्तिके साथ ठण्डा पानी लाया हृ । गन्ध पुष्प जौर `
का जल मुख्य ह कालिन्दीका भी पानौ मिता हृभा है, इस आचमनको स्वीकार करिये । हे{विराटपुरष !
लिे नमस्कार हैः इससे आचमन, है शौरे स्वादिष्ट ग्रहृण कर, तेरे है
म
व्रतानि] द्वीदीकासहित (३७९)
लिए न° हृदयका पू०, मध् सुदनके किष न° कण्ठका पुजन करता हूं" वाराहके लिए न° बाहुभोका पू, नसि
हके लिन ० हस्तोका पु; देत्योके मारनेवालेके लिये न° स्खका पु दामोदरके लिये न° नासिकाका
` पण, पुण्डरीकाक्षे लिये न° ने्रोका धु०; गरुडध्वजके किये न° श्रोतोका पू०; गोविन्दके लिये न° ल्लाटका
पु; अच्युतके चये न० श्िरका पु०; कृष्णके लिये न° सर्वाधिका पुजन करता हूं ।\ परिवार देवताभको `
` . पूजा-वसुदेव, रोहिणी, बरूदेव, सात्यकि, उद्धब, अक्र, उग्रसेनादिक यादव, नंद ओर उसी समय प्रसवमं
इई भरी यशोदाजी, गोव, गोपिका, कालिन्दी ओर काल्य इन सबको नाम मंसे पुजा होनी चाहिये ।“ वन-
स्पति रसोद्भृत इससे धृष; “ साज्यं च वतिसंयुक्तं इससे दीप! घी मिल हुए श्ाल्योदन, खीर ओर अनेक
` तरहके पक्वाच्च इनके नेवे्यको ग्रहण करिये. इससे नवे, उत्तरापोशन; “ इदं फलम् ” इससे फल; “पुगी- ` ` | .
. फलं “ इससे ताम्बृल ; ^ हिरण्यगभं ” इससे दक्षिणा सम्पण करे । भक्तिपूवक मद्धकलानुज्ञासन करता हा =
नीराजन करे, पीछे जय ओर मद्धलके शब्दस देवदेवका समर्चन करे, इससे नीराजन करना चाहिये, प्रद- |
क्षिणाकरे साथ पुष्पांजलि देकर परम भव्ति वेगसे गद्गद् हो वारंवार भूमिम दण्डक तरह प्रणाम करे । `
अनेकं प्रकारके स्तो्चोसे जगत्पतिकी प्राथना करे 1 ` जगतके नाथ ! तेरे लिये नमस्कार है, देवकीके नन्दन !
है प्रभो! हे वसुदेवात्मज ! हे अनन्त ! हे यदोदाके आनन्दके बडानेवारू ! है गोविन्द ! हे गोकुंक्के आधार !
` है गोपियोके प्यारे ! तेरे लिये नमस्कार है, इसके बाद पवित्रताके साथ चद््रमाके उद्य होनेपर अध्यं देनां `
चाहिये । देवकी सहित ङष्णके लिये पहिले अघं दे । बुद्धिमानको चाहिये कि शुद्ध नारियल्के साथ अघ्यं दे!
पीछे परम भक्तिके साथं भगवान् कृष्णजीको शंलमे करके अध्यं दे कि कंसके मारने भूमिके भारको उतारने, =
` कौरवोका विना कराने ओर दैत्योको मारने पाण्ड्वोका कल्याण करने ओर धमकी स्थापना करनेकेल्ि `
आप प्रकट हुए थे । हे हरे ! आप देवकीजी समेत मेरे अध्यंको ग्रहण करिये, यहु भगवान् कृष्णको अर्घ्य देनेका ८
है । इसके पौछे पुष्प, फल ओर चन्दनके साय हंखमे पानीभर. जानुटेक चन्द्रमाके लिये अध्ये दे किह क्षीर
` हे चदन रातके मालिक ! तेरे लिये नमस्कार हैः हे नक्षत्रोके स्वामि ! तेरे नल्यि नमचस्कारहै षह रोहिणीके `
` कान्त ! तेरे लिये नमस्कार है, मेरे विये हुए अध्येको ग्रहण कर : । ये चन्रमाके अष्येके मन्तरहे । इसप्रकार |
देवेशकी पुजा करके रातको जागरण करना चाहिये, उसमें गीत बाने ओर नाच तथा पुराणोके श्रवणादिकं |
, होनें चाहिये, प्रातःकाल निमे पानीमें स्नान करके जगद्गुर श्रीकृष्णचन््रजीका पूजन करके तिल घी मिली `
| हई खौरसे मूल ंत्रसे भवितपुवेक १०८ आहूतियां देनी चाहिये, पौषे पुरुषसुक्तसे ओर “ इदं विष्णु “इस `
घुतकी आहतियां देनी चाहिये । पुर्णाहुतिके सां ही शेष पुरा करके मूषण ओर वस्त्रोसे भचा्यका पुनन
साथमे दक्षिणा देनी चाहिये बाहिये, जिससे कि व्रत पुरा हो जाय } यदि कपिला न हो 1
इसके बाद दूसरे ऋत्विजोको विधिपुर्वक दक्षिणा देनी चाहिये ब्रतकी संपु- `
करना चाहिये, आठ ब्राह्मणको भोजन कराकर दक्षिणा देणौ चाहिये, `
दीन ओर जिस योग्य ग हो उसका उसी तरह सन्मान॒
प" ण तर द ४ ४. । ग (1 पै नि ॥
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( २३८२९ ) ५ । ह नतराज | | | ४ [ अष्टमी । ॥
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५ 1 ५६ ४ प ट ; र < +
वर्धते ध्या तु लभते पुत्रान्दु्भेगा सुभगः भवेत् \\ एवंविधिविधानेन ज्येष्ठा-
देवीं समचयेत् !! विषघ्नास्तस्य प्रणहयन्ति यथाप्सु क्वणं तथा ।।! तथा ग्राह्य कुर-
श्रेष्ठ ज्येष्ठायाः शोभनं बतम् ।) नीराजने कृते चव दीपो ग्राह्यः सुभक्तितः ।। ४
नैवेद्यं सुहितं प्राय व्रतिनाग्रे युधिष्ठिर ।! गुरहस्तात् सदा ग्राह्यो दीपः प्रज्वलितो `
महान् । व्रतस्थे भक्तियुक्तइच शुचिः प्रयतमानसः ।। अनेन विधिना चेव व्रतं
कुर्याद्यधिष्ठिर ।\ ज्येष्ठा नाम परा देवी भुक्तिमुक्तिप्रदायिनी ।\ यस्तां पुनयते
राजंस्तस्मं सवं प्रयच्छति ।। इति भविष्ये ज्येष्ठात्रतकथा ।। स्कन्दपुराणेऽपि-
मासि भाद्रपदे शुक्लपक्षे ज्येष्ठक्ष॑संयुते ।। यस्मिन्कस्मिन्दिने कुयज्ज्यिष्ठायाः `
(1 परिपूजनम् ।। तत्राष्टम्यां यदा वारो भानोज्यष्ठक्षमेव च ।! नीलज्येष्ठेति स.
` प्रोक्ता दुर्लभा बहुकालिकी ।\ कृतस्नानो नरः कुर्यत्तस्यामन्यत्र वा दिने ।। भक्ति- `
` युक्तः शुचिः कर्याज्ज्येष्ठादेव्यास्तु पुजनम् ।! जलाङयात्तु पुरेदयुरानयेत्पञ्च- `
` श्लकंराः।। देवीरूपं च तत्रैव कृत्वा वा स्थापयेत्ततः । गोमयेनोपलिप्ते च दमौ वा `
स्थापयेद्बुधः ।! स्थापयेद्राजतीं तास्रीं केख्यां वा पटकूडचययोः ।। आवाहयेत्ततो `
देवीमथवा पुस्तकेऽपि वा ।। त्रिलोचनां शुक्लदन्तीं बिभ्रतीं राजतीं तनुम् ॥ `
| विरक्तं रक्तनयनां ज्येष्ठामावाहयाम्यहुम् ।। इति मन्त्रेण तां देवीमावाह्य सुकृती `
ब्रती }! स्नानं दद्यात्तथा पाद्यं पादयोरभयोष्टिज ।। श्रीखण्डकपु रयुतं दद्यादर्घ्यं
` च भवितितः ।! पञ्चामतं तथा स्नानं निमेलेन जलेन च ।\ वस्त्रं गन्धं तथा पुष्पं
धूपदीपादिकं च यत् ।! पजयित्वा च सौभाग्यरव्यर्नानाविधेः शुभैः ।। गोधूमथ-
` वशाल्यादिनानाद्रव्येहच निमितम् ।। कत्वा प्रसृतिमात्रास्तु पूरिका घुतपाचिताः।। `
। निवेद्नीया यत्किचिहद्याहेव्ये प्रयत्नतः ।। भक्त्या मया सुरेशानि यदच्रं दीयते क
८ तव ।। तद्गृहाण वे महादेवि ज्येष्ठे श्रेष्ठे नमोऽस्तु ते ।\ ततः स्तुत्वा महादेवीं `
व्रतानि । हन्दीटीकासहित (३८३)
स्त्री तु मोदेत भर्तरि।। विनायकेन सहितं देव्याः कुर्याद्विसजेनम् ।1((सोवर्णी
राजतीं तास्रीं मन्मयीं वापि शक्तितः \! त्रतं स्वयं च कृतवान् सिद्धं चाप्यकृताहंणः।। `
देव्या महत्त्वं कथितं तवेदं विधिहच मंत्राच॑नसंयुतस्तथा \) संत्रोऽपि सायुज्यकरो
व्रतस्य तथा मया ते कथितं सदेव \! इति स्कान्दोक्तो व्रतविधिः-अथाद्यापनम्- `
उद्यापनं तु प्रतिमां सुव्णपलसंमिताम् ।\ कृत्वा चाष्टदङे पद्ये स्थापयेत्कल्छो-
परि ॥। तामग्निवर्णामिति च मंत्रेण कुर्वीतात्रणावाहवेद्व्रती ।। नाममन््रेण कुर्वता- `
` सनं पा्मथोघ्येकम् ।! जापोहिष्ठेति तिसूर्भिहरण्यवर्णाहचतसुभिः ॥। अभिषेक
चाचमनं मधुपक च कञ्चुकौम् ।। वस्त्रं गन्धाक्षतान्पुष्पधूपदीपान् प्रयत्नतः \॥\
नैवेद्याचमनीये च करोद्वर्तनकं शुभम् \। ताम्बृलं दक्षिणां दत्वा ततो नीराजयेच्च `
ताम् \\ यस्याः सहो रथे युक्तो व्याध्र्चापि महाबलः ।\ ज्येष्ठामहमिमां देवीं `
प्रपद्ये शरणं शुभाम् ।\ इति प्राथयेत् ।! स्थापितेऽनौ ततः पदचाद्धोममष्टोत्तरं
शतम् । द्रव्येदेधिमधृक्षीरघतेः कुर्यात्प्रयत्नतः ।! तपंणं च ततः कुथदिभिमत्रविच-
क्षणः ।। ज्येष्ठायै नमः ज्येष्ठां तपयामि ।! एवं स्त्र ॥ श्रेष्ठाये° सत्याये०
कलिनाशिन्ये०° विद्याये° वेनायक्ये० तपोनिष्ठायै ° भिये° छइष्णायै° ब्र्धिष्ठाये
` नमः ज्येष्ठां तपयामि । विसृज्य च ततो देवीं ज्येष्ठायाः प्रतिमां शुभाम् ।\ कृष्ण-
` वस्त्रेण संयुक्तामाचार्याय निवद्येत् ।! वस्त्राभरणमाल्यादिलेपनंः पूजितं हिजम् । `
` प्रणिपत्य ततः पश्चात्तस्मे सर्वं निवेदयेत् ।। ब्राह्मणान्भोजयेत्पदचात्स्वयं भुञ्जीत `
। वाग्यतः ॥। ब्राह्मणांश्च ततो नत्वा याचयेत्सरवमद्धलम् ।! एवं सुवासिन्यो भोज्याः = `
। पूज्याः सर्वसमृद्धये ।। एवं कृते वरते सम्यक् सर्वशान्तिः प्रजायते ।। धनधान्यसमृदधिश्च `
आरोग्यं भवति धवम् । इति श्रीभविष्योत्तरपुराणं ज्येष्ठादेवीव्रतोच्यापनं
र . व्रत ओर पुजा करनी चाहिये ।\ “ नवमी सहिता कार्या अष्टमी नात्र संशयः नवमी, सहिता अष्टमीको करना = `
चाहिये इसमे सदेह नहीं है । एेसाही वाक्य निर्णयसिन्धुमे रखा है कि नवम्या सह कार्य्या स्याष्टमी नात्र `
संनयः ` नवमीसहिता अष्टमीको करे इसमे सन्देह नहीं है इन दोनों का अथं मो एकसा है । इसे परके ग्रहणम `
. दिया है। तात्यये वही है जो लिख चके हैँ । भाप्रपद शुक्काअष्टमी ज्येष्ठा नक्षत्रसे युक्त रीतिमेहोतोउसद्नि ।
ज्येष्ठा देवीकः पूजन करना चाहिये ! यह् स्कन्द पुराणमे लिखा हज है । यदि दोनों ही दिन ज्येष्ठाकायोगन |
ह | सिदे तो. उष्टक पूजन अष्टमीमंही करवा चाहिय १ स्पष्टयुक्त् दूसरी किसी तिथिमं ज्येष्ठाका पजन न 1 | | ।
करना चाहिये; वयोकि मात्स्यमे लिखा हुखा है कि, प्रतिवषं तिथिमं ज्येष्ठा देवताका व्रत कहा है तथाप्रति- = `
वषं नक्षतरसं ज्येष्ठाकाः व्रत कहा है । इनमें पहिले त्रतको तिथिमें तथा नक्षत्रके ब्रतको केवल नक्षत्रम करना `
चाहिये \ सदनरत्नग्न्थमें तो भविष्यके प्रमाणसे नक्त्रामा्रमे यह ब्रत कहा है कि भाद्रपदमासके शुक्लपक्षमे =
जब ज्येष्ठा नक्षत्र हो तौ रावम जागरण सौर इन मंत्रो पुजन करे । दाक्षिणात्य तो नक्षत्रमेही पूजन करतेहैँ = `
इसप्रकार निर्णय किये हृए दिनसे पटिले दिन अनुराधामे आवाहन ज्येष्ठामें दूसरे दिन पूजन ओर मूल्मे विस. =
जन करना चाहिये \ यही स्कन्दपुराणमें लिखा हभ है कि, अन् राधाम देवीका आवाहन ज्येष्ठामे पूजन बौर | `
मूलम विसर्जन करना चाहिये । इस ध्रकार यह् तीन दिनतक उत्तम ब्रत होता है । पूजा-तिथि आवक कहकर `
मेरे भृतवन्ध्यायन आदि दोषकी निवृ त्तिके लिये एवम् पुत्र प्रपौत्र आदिकों कौ वृदधिके लिये तथा दरिक्केना्च
. करनेके लिये जो उपचार मिल रह हैँ उनसे ज्येष्ठाकः पजन मे करंगा । शुक्लदातों भौर लार तीनने्रों तथा = `
। सोनेके शरीरवाली विरक्ता सुन्दरी श्येष्ठाका ध्यान करता हुं, इससे ध्यान; हे सुर जर असुर दोनोसेनम- = `
| सृत हृई महाभागे ! माप आये ! आप सब देवताओंमे ज्येष्ठा है \ मेरे समीप आजार, उससे आवाहन; इ्वेत- = `
सिहासनपर बैठीहूई सवेतवस्त्रोको हौ धारण किये हृषु है, एेसौ बरद मुद्रा पुस्तक मौर नाशको घारण करने |
` ` वाली आपके लिये वारंवार नमस्कार है, इससे आसन, है समदरके मथनसे उत्पन्न होनेवाली सत्यवादिनी घम ६.
| निष्ठे! शरेष्ठ ज्येष्ठे ! पाद्य ब्रहुणकर । तेरे विये नमस्कार है, इससे पाच; श्रीखण्ड, ओर कपुर युत पुष्प पडा `
हज पानी उपस्थित है । हे ज्येष्ठा देवि ! इसका मं अघ्यं देता हूं । आप ग्रहण करे आपके लिये नमस्कारहै
` इससे अध्य; तुद ज्येष्ठा के लिये नमस्कार तथा तुद श्रेष्ठाके लिये वारंवार नमस्कार है । हे ज्येष्ठे ! है शरेष्ठे
| है तपमें निष्ठा रखनेवाली । हे ब्रहिष्ठे है सत्यवादिनि ! आचमनीय ग्रहण कर, इससे आचमनीय ^ पयो- `
दधिघृतम् " इससे पंचामत स्नान; हे जगन्मये ! मन्दा किसीने लाया हं इसमें सुवणेके कमल्की सुगन्धि जा
रही है! यह् पानी मं आपकं स्नानके लिये लाया हूं । जाप इससे स्नानकरिये, इससे स्नान; ये दौ पतर सफेद ८
बस्तर निर्मल पानौसे धोये हए हँ लोक रज्जाके निवारक हँ । इम्हं अप ब्रहण करे, इससे दो वस्त्र, ' हरिद्र |
कुरुम्" इससे सौभाग्य द्रव्य, ' श्रीखण्डं चन्दनम् ' इससे चन्दन, अक्षताङ्च इससे अक्षत, नूपुर मेखला कांची
ओर ककण एवम् नासिकाका म् क्ता जडा संठा आपके लिये लाया हूं आप ग्रहण करिये, इससे अलंकार, " माल्या- `
त
` पदक शुक्लपश्लमे जिस किसी दिन ज्येष्ठानक्ष्र हो उसी दिन ज्येष्ठाका पजन करना चाहिथे, इसमे अष्टमीको
` हिन्दीटीकासहित
तक हे । इसमें जिन मंत्रोका पुजनके प्रकरण मे अर्थं कर चुके हं उनका अर्थं न करके जिनका अर्थं नहीं क्याहै
८ उनका ही अथं करेगे \ है ज्येष्ठ देवि ! सुर असुर ओर मनुष्य तेरी बन्दना करते हू यक्ष ओर कित्र पूजा करते |
भणे. भवै + ' ५१.
रहते हं मेने आपका पहि पुजन किया है अब भी पुजन करता हूं । है ब्राह्मणोकी प्यारी ! है महामाये ! हे
आर असुरोसे भली भांति पूजित हई ! हे स्थूल ओर सुक्ष्म दोनों स्वरूपो वाली ज्येष्ठे देवि ! मे तेरी अर्वा करता
ह) पुत्र दार ओर लक्ष्मकौ वृद्धिके लिये तथा अलक्ष्मीके नाह करनेके किये उसे भजना चाहिये । वस्त्र ओर
` आभरणोसे भक्तिपुवेक गुरुको पूजे, इसके बाद बारह वषतक प्रयत्नसे पुजना चाहिये, या जबतक जौवित रहे
. पहिले कही हुई विधिसे मनृष्योको पूजन करना चाहिये ! यह् वित्त भौर पुत्नोको देती है इस कारण स्त्र्योको
सदा पुजना चाहिये । जो मनुष्य वा नारी इस विधिसे ज्येष्ठाका पुजन करते हँ उनकी लक्ष्मी खूब बहती ह
। वल््याको पतर मिलजाते ह दमगा सुभगा हो नाती ह । इल भकार विधिविधानसे ्ये्ठ देवौकी पूजाकरेतो `
उसके विध्न इस प्रकार नष्ट हो जाते हँ जसे पानीमे नमक विला जाता है 1 हे कुरुश्रेष्ठ ! जेष्ठाके इस सुन्दर `
ब्रतको तैसेही ग्रहण करना चाहिये । नीराजन करके भक्तियुर्वक दीपक करना चाहिये, हे युधिष्ठिर ! फायदा `
पषटंचानेवाले नैवेद्यका प्राशनकरके व्रतीको चाहिये कि, अगाडी गुरुके हासे हौ जरते हए बड़ दीपकको
करे! ब्रतकारमं भक्तिपुवेक संयमके साथ पवित्र रहै, है युधिष्ठिर ! इसी विधित व्रत करे । है राजन् ! व्येष्ठा- =
नामकौ देवी सबसे बड़ी है भ् विति ओर मुद्तिकी देनेवालो है, जो उसकी पूजा करता है उसे वो सबकुछदेतीहै `
यह् भविष्यपुराणकी कही हुई ज्येष्ठाके ब्रतकी कथा पुरी हुई \\ स्कन्दपुराणमें भी - लिखा हमा है कि भद्र-
लीके ` `
रविवार ओर ज्येष्ठानकषत्र होतो इसे नीली ज्येष्ठा कहते है यह दलम है बहुत दिनबाद आती है! इसमे मनुष्य `
स्नानकर पविन्न होकर भवितभावसे ज्येष्ठादेवीका पूजनकरे अथवा दूसरे दिन करे । पहिले दिन ताकावसे ५
५ ५ पांच शकरा लाके वहांही उसकी देवी. बनाकर पौ स्थापित करे । इसकी जगह कहीं एसा पाठ है कि, पहिले ले 1 ५1 |
ध दिन नदीकी श द्स्थलकौ रेतीलाकर उसकी र र देवी बनावे । पहिले दिन नदीसे पाच हकं रालाके वहां देवीका . `
। ष्टम ६
4.4 प ५४०५०: 415 पव पन
ह, पतिम सत्री मुदित होती है, विनायके साथ देवीकी विसर्जन कर, ( सोने चनी तबा भौर मिक शक्तिके ५
-अनुसार होनी चाहिये ) । छृताहेणने इस सिद्ध बरतको स्वयंही किया था 1 यह दोक असंगतसा दीखता है । यह्
भने आपको ज्येष्ठा देवीका महत्त्व कट दिया मन्सि पूजाके साय विधि भौ कह दी व्रतका सन्त्र भी सायुज्य
करनेवाला है ! यह् मेने आपके लिये क् दिखा है \ यह स्कन्द पुराणकौ कही हुई पूजाकी विधि पूरी हुई \\
उद्यापन-दइसमे तो सो को एकयलकी प्रतिमा बनाकर अष्टदल कमलप कलङ्के ऊपर स्थापित करे, “ ताम-
हिनवर्णाम ” इससे आवाहन करे \ नाम मसतरसे भासन पाद ओर अरध्यादिक भिवेदन करे ।“ मम् आपो `
हिष्ठा ” इन तीनों ऋचाओसे तथा हिरण्यवर्णा " इत्यादि चार ऋचाजोसे अभिषेक जए्वसन, मधुपक ओर
कंच कौ दे! वस्त्र, गंध, अक्षत, धूप ओर दीपोको प्रयत्नके साथ दे, शुभ नवद आ्वसननीय, करोद्रतन, तास्बल
जौर दक्षिणा देकर पीछे नीराजन करे, जिसके रथमे महाबलदएली सिह ओर व्याघ्र जुतते हं एल परमञुभ
ज्येष्ठा देवीकी भे क्रण हू .दस प्रकार प्राथेना करे । अग्निकौ स्थापना करके दधि मधक्षीर ओरघत इनद्रव्योकी `
सावधानी के साथ १०८ आहति दे । पीछे ब दिमान को इन संत्रोसे तपण करना चाहिये, ज्येष्ठाय नमः
` ज्येष्ठाके लिये नमस्कार है, ज्येष्ठां तपयामि ज्येष्ठाको तुप्त करता हं यह पद हर एकके साथ लगाना चाहिये
कि, जम् कको नमस्कार च्येष्ठाको तृप्त करता ह, शरेष्ठाके लिये०; सत्यगके किये नमस्कार कलिके नाश
` करनेवालीके लिये न०; विद्याके लिये न०; वैनायकीके लिये; तपम निष्ठा रखनेवालीके चये न० श्रीक लिये ध १
`, न०; कष्णाके लिये न°; ब्रह्िष्ठाके लिये ममस्कार व्येष्ठाको तप्त करता हूं, इसके वाद ज्येष्ठाका विसनेन ¢
` यके श्रम् प्रतिमाको काले बस्त्रके साथ आचार्यक लिये देदे, वस्त्र आभरण एवम् माला आदि तथा लेपन आदि
५ | ` कोसि पूजे हुए द्विज आचार्यके लिये प्रणास करकं सब निवेदन करदेना चाहिये ! ब्राह्यणोको भोजन करकेषीछे ` | ४
, स्वयं भौ मौनी हो भोजन करे । ्राह्यणोको दण्डवत् क राके सबके मङ्कलकी याचना करे । इसी प्रकार सभी १
समुद्धियोकि लिये सुवासिनी स्तियोकौ पूजा करनी चाहिये, भोजन करना चाहिये, इस वतको भली भति |
करलेनेते सबकी शान्ति हो जाती है \ धन, धान्य, समृद्धि ओर जारोग्य मिलता है । यह् श्नीभविष्य पूराणका = ` 1
1 0 कहा हुभा ज्येष्ठा देवीके व्रतका उद्यापन् पुरा हया ।
दूरवाष्टमीत्रतम्
तत्रैव भाद्रशुक्लाष्टम्यां व द्बष्टमीव्रतं भविष्ये ।। अत्र सा पूर्वा ब्राह्या-
भश्रावणी दुगनवमी वष्ट हुताशनी ।} पुवविद्धा तु कतेव्या शिवराजिबंले- ( ॥
द्विनम् 11" इति वद्धयमवचनात् ।1 शुद्लाष्टमी तिथिर्या तु मासि भाद्रपदे भवेत् `
(8 चने वेच्तनात् ।। यत्तू-मुहूत रोहिणिऽष्टम्यां पूर्वा वायदडदिवापरा)\) दूर्बाष्टमं ष्टम्
प्रा ल्यष्टा मर च वजयत् |) इति तत्रैवं परा कायश्त्युक्तं तत्पव रत ज्येष्ठाम्ल- `
दूर्वष्टिमीति विज्ञेया नोत्तरा सा विधीयते । इति हेमाद्रिधृतपुराणसमुच्चय- {|
मीतुसा
ह ह" दीटी ं | क स । रा हत इ | | ( २ ८७ )
५ स प | ए ए 0. मान
५ ् = (५ ~ ५. (1
भाद्रशुक्छषष्टम्यामगस्त्यो
भावेऽपि पौणिमान्तमासेन भाद्र पदमाच्रलाभात् ।। यदा तु भाद्रपदोऽधिकस्तदा
सिहाकं एवेति उदाहूतवचनात् ।। अधिमास तु संप्राप्ते नभस्य उदयं मुनेः \\
अ्वगिव व्रतं कार्यं परतो न तु कुत्रचित् ।। इति निर्णयदीपके स्कान्दच्चाधिके एव
कर्तव्यम् \\ इदं स्त्रीणां नित्यम् । था न पुजयते दूर्व भोहादिह यथाविधि ।। त्रीणि
जन्मानि वैधव्यं लभते नात्रं संक्षयः ।\ तस्मात्संपूजनीया सा प्रतिवषं वधूजनः ।।
इति पुराणसमुच्चयात् ।\ यदा तु ज्येष्ठादिकं विनाष्टमी स्वा न भ्यते सतदा
तत्रैवोक्तम् ।\ कर्तव्या चैकभक्तेन ज्येष्ठामूलं यदा भवेत् \।ज्येष्ठामभ्यचयेःडक्त्या
न वन्ध्यं दिवसं नयेदिति ।। इति भविष्योत्तरेऽनृकल्पेनानुष्ठानं नतु सवथा लोपः ।\
यस्तदा तस्पर्वं कृष्णाष्टम्यां कार्यम् ॥। श्ुक्ल्पक्षा- =
अथ दुर्वाष्टमीव्रतं हेमाद्रौ भविष्ये-विष्णुरुवाच ॥। ब्रह्मन्भाद्रपदे मासि श्ुक्लाष्ट- |
म्यामुपोषितः ।। पुजयेच्छडकरं भक्त्या यो नरः श्रद्धयान्वितः ।\ स याति परमं `
स्थानं यत्र देवस्त्रिलोचनः ¦ गणेशं पूजयेद्यस्तु दूवेया सहितं मुने \\ गणेशः श्षिवः \।
फलानां सकररदिव्यैर्गन्धयुष्पैविलेपनेः ।। दवी पुज्य तथेशानं मुच्यते सवेपातकेः ।\
शुचौ देशे प्रजातायां दूर्वायां ब्राह्मणोत्तम ।। स्थाप्य लिद्धं ततो गन्धैः पुष्पेध् पः `
समर्चयेत् ।! खर्जरैर्नारिकेलक्च मातुलिङ्कफलेस्तथा ।। पूजयेच्छडकरं भक्त्या
दूर्वायां विधिवदषटिज \! दध्यक्षतैदिजशेष्ठ. अर्घ्यं दचयात्रिलोचने । दूरवाहमीभ्यां `
संपूज्य मानवः श्रद्धयान्वितः ।। स वै युकृतजन्मा स्यात्सवदेवैस्तु वन्दितः ॥ `
विद्यां प्राप्नोति विद्यार्थी पुत्रार्थी पुत्रमाप्नुयात् \) धर्मानिप्नोति धमर कन्यार्थो
` भूतेशं मानवः फलैः ।। स सप्तजन्मपापौघेमु च्यते नात्र संशयः ।! कृतोपवास
( समप्तम्यामष्टम्यां पुजयेच्छिवम् ।! दूर्वासमेतं विप्रन, दध्यक्षतफलैः जुभैः ।॥ `
च्रः-त्वं दर्वेऽमतजन्मासि बन्दितासि सुरैरपि । सौभाग्यं सरन्तति देहिः
स्वेकायकरी भव ।\ यथा शाखाप्रश्ाखाभि्विस्ततासि महीतले ।। तथा विस्तत- `
द्विज ।। अनग्तिपक्वम ६ )यादन्नं दधि फलं तथा
लभते च ताम् ।\! मनसा थद्यदिच्छेत तत्तदाप्नोति भानवः ।। य एवं पुजयेद्दूव = `
तल्लिङ्धमन्त्रेरोशानमचैयेत् प्रयतःशुचिः ।॥ ततः- `
मिनम् ।। पृजयेद् गृहमानीय गन्धमाल्यानुलेयनैः । फलम् लस्तथा धूपदौपश्चाथ `
विसजेयेत् । अनग्निपकवं तत्सर्वं नैवेद्यं च कथंचन ।। भोक्तव्यं च तथा ब्रह्मन्नग्नि- `
पक्वविजितम् ॥। दूर्वाकुरस्थां संपूज्य विधिना यौवनंभरियम् ।\ यौवनं स्थिरमा-
प्नोति यत्रयत्राभिजायते ।\ भविष्योत्तरे तु विशेषः ।\ अष्टम्यां फएलपुष्पेश्च
खर्जरैरनारिकेलकंः । द्राक्षमोदकपिष्टेहच बदरेलकुचेस्तथा ।। नारिङ्खजेम्बु-
` कैडहचैव बीजपृरेक्च दाडिमेः ।! दध्यक्षतेश्च सरम्भिहच धूपेनवेद्यदीपकः ।। मन्त्रः
णानेन राजेन्द्र भ्युण॒ष्वावहितो नप ।। दत्त्वा पिष्टानि विप्रेभ्यः फलं च विविधं
प्रभो ।॥ तिलपिष्टकगोधूमधान्यपिष्टानि पाण्डव ।! भोजयित्वा सुहृन्मित्रं स्वं
बन्धुं स्वजनाँस्तथा ।\ ततो भुञ्जीत तच्छेषं स्वयं श्रद्धासमन्वितः ।। कतव्या
चैकभक्तेन ज्येष्ठा मूलं यदा भवेत् ।। दूर्वामभ्यच॑येद्क्त्या न बन्ध्यं दिवसं नयेत् ।। `
पक्षे भाद्रपदस्यैवं शुक्लाष्टम्थां युधिष्ठिर ।। दूर्वाष्टमीत्रतं पुण्यं थः करोतीह `
. मानवः।। न तस्य क्षयमाप्नोति सन्ततिः साप्तपौरषौ ।\ नन्दते वद्धेते नित्यं यथा
| ब दूर्वा तथा कूलम् ।! इति दूर्वष्टमीव्रतम् \।
` दृर्वाष्टमीद्रत-भाद्रपद शुक्काष्टमीको भविष्यपुराणमं कहा गया है, एसे पूर्वा खनौ चाहिये क्योकि वृद्ध | ब | |
। यमने कहा है कि श्रावणो दुर्गानवमी, दर्गाष्टमी, हो, शिवरात्री ओर बलि (दिवाली) का दिन ये सब पूरवविद्धा ।
ग्रहण करनी चाहिये । हेमाद्रिमें रखा हुमा पुराणसमुख्चयका वचन है [कि भ्रपदमहीनामे जो शुक्लष्टमी
हो उसे दूर्वाष्टमी समक्षे यह् उत्तरानहीं की जातौ । जो यह लिखा हा है कि, अष्टमीमं रोहिण यानी प्रातः- `
कालके म्हृतंमे पूर्वा वा परा जो हो उसको दूरवाष्टमी समन्चना चाहिये, इसमे यदि ज्येष्ठा ओर मूलहो तोन
करना चाहिये, इनमें यह भौ कहु दिया गया है कि, रोहिण मुहूतमे परा जो हो तो उसको भी करनी चाहिये
५ किन्तु पी पुराणसमुच्चयका वचन यहु रा हज ह कि, उत्तरा ली नही जा सकती, तब इन दोनों परस्पर क
विख्ड वाकरयोका कंसे अन्वय होगा { इसके लिये कहते हं कि.यह कथनयउस समयका समन्षना चाहिये जननि
4 पहिले दिन ज्येष्ठा ओर मूलका योग हो तथा कमेकालकी व्याप्ति न होतो परा ली जा सकेगी क्योकरि, वही यह ` ८
देना चाहिय । ज्येष्ठानक्षत्रे दूरवापूजन करनेसे अपत्योका नाज करती है दरूसरौ तरह् नहीं करती, मूलमे पुन `
सत्यक उदयमे कन्याके स्मे न करना चाहिये, क्योकि मदनरत्ने स्कान्द प्रमाण दिया हा है कि,
ुलटमोो ष्टम कहे , ये दुव न क,
लिखा हुमा है कि, जयेष्ठा ओर मूलसे युक्त दरवाष्टमीको सदा छोड देना चाहिये । इसकी पुष्टिमे यह ओर क्वि `
है किह भारत ! भाद्रपद श्ुकटाष्टमोके दिन भक्तिसे दूरवापूलन, करना चाहिये, पर ज्येष्ठा भौर मूलकोष्ोड़ = `
तिकी आयुको नष्ट करती है, इस कारण इसे छोड देना चाहिये ! यह वहां ब्रतका निषेध मिल्ताहै।
भी अष्टमी न मिले तो उसीमं पुजन करे, यह् पूरण समुच्चये लिखा हुमा है कि, ज्येष्ठा ओर सर्के विना ` 6
० । है, सब पवित्र फलों ओर गन्ध पुष्प ओर अनुलयनोसे शिव ओर दूर्वाका पूजन करके सब पापोसे छूट जाताहै
४ ` दहि ! खजर, नारिकेल, ओर मार्तु्गके फलोसे विधिपुवेक भव्तिके साथ दूर्वापिर शेकरका पुजन करे, है १
द्विजश्रेष्ठ ! दधि ओौर अक्षतोंके साथ त्रिलोचनके लिये अध्यं दे । मनुष्य दूर्वा जर ्ञमीसे धद्धाके साथ पुजन
.. जैसे तु क्ञाखा ओर पर क्षाखाओसे विस्तृत है उसौ तरह मुञ्चे भी सब पुत्र पौत्रादिकोसे बढा । नियम पूर्वक `
षवित्रताके साथ शिवके मन्तरोसे शिवका पुजन करना चाहिये । हे द्विज ! इसके बाद अनेक तरहक फलोसे =
ब्राह्म्णोका पूजनं करना चाहिये, अग्निक पकाये हए को छोड़कर दूसरी तरह सिद्ध हुए अन्न दधि ओर फलोका `
भोजन करे, क्षार मौर लवणको छोडकर हे ब्रह्मन् ! मधुके साथ भोजन करे, ब्रह्यणोको फल दे तथास्वयंभी `
फलाहारही करे, शिरसे हिव ओर दूर्वाको प्रणाम करके कल्याणको पाता है, जो इ प्रकार भक्ति साथ `
महादेवका पूजन करता है वह हे ब्रह्न! वो शिवका गण बन जाता दहै, एवं ब्रहमहत्यासेभी
निर्मुक्त होजाता है। इस प्रकार यह दूर्वाष्टमौ पुण्या है तथा पापोके नाग करनेवाली है, एक्के `
ही लिए नहीं किन्तु चारों वणोकि लिए तथा विशेष करके स्त्रियोके लिए पुण्यजनक ओर पापनाशिनी `
है । यह श्रीभविष्यपुराणका कहाँ हृजा ूर्वाष्टमीका त्रत पुरा हा । आदित्य पुराणके कहे हृए `.
दूर्व रुताको 1
। कर देना चाहिये।जो भी विना आगके पको हुई हं वे सबही नवे है, हे ब्रह्मन ! अग्निपक्वको `
। छोडकर सब कुछ खारेना चाहिये । ह्वर मे रहनेवाली यौवनश्रीका पूजन करके जिस २ जन्ममं
कानि] हीरीकापहिति (३८९)
! ग
र तिमि 4; ८
अष्टमी न मिले तौ एकभक्तवारेको चाहिये कि, विधिपुवेक च्येष्ठाका त्रत करे दिनको व्यथं न गमवे; यह्
वचन पुराणसम् च्चयमं भविष्योत्तरका है यह् अनुकल्पविधिसे अनुष्ठान है एसा न हो कि, कर्मकालोपहौ जाय
` ब्रतप्रक्रियादूर्वाष्टमीकी हैमाद्रिने भविष्यसे लिली है विष्णु भगवान् बोरे कि, है ब्रह्मन् ! भद्रयद शुक्लाष्ट-
मीको ब्रत किया हुजा जो पुरुष, शद्धापूवेक भवितिके साथ शंकरका पुजन करता है बहु उस परा स्थानको चा `
जाता है जहाँ शिव भगवान् विराजते हैँ \ है सुने ! जो दूवकि साथ गणेदाका पुजन करता है, गणेश्षशिवको कहा
( हे ब्राह्मणोत्तम ! पवित्रस्यलमं पेदा हए द्वापर, लिय, स्थापित करके गन्ध पुष्य ओर धूषसे पुजन करे ! है
` करके युकृतजन्मा हो जाता है वो सब देवोसे वन्दना करने योग्य ह । विद्यार्थाकोविचया, धनार्थोको धन, पृत्रा-
को पुत्र, धर्मार्थको धमं ओर कन्यार्थोको कन्या भिर जाती है, मनुष्य जो जो वस्तु मनसे चाहता है उसे बहू `
सब मिल जाती है, जो मनुष्य फलोसे शिव ओर दूर्दाका इस प्रकार पूजन करता है बह सतजन्सो के पापोसे
चट जाता है इसमें सन्देह नहीं है । सप्तमीको उयवास करके अष्टमौको शिवका पुजन करे । है विग्रन्र ! दधि `
अक्षत ओर अच्छेफलोसे दूर्वासमेतको पुजनाचाहिये । दर्वाका म॑त्र-हे दवं त अमृतं जन्मा है, सुर ओर असुर `
दोनोने तेरी बन्दना की है, मुक्षे सौभाग्य ओर सन्तति दे तथा सब कामके करनेवालीहौ । हि अजर अमः दवं
र्वष्टमौके ब्रतमें श्रीपुजन कहा है कि, दूर्वाअष्टमोके दिन भाद्रपद मासमे उत्तर दि्षामे फैली हुई = (
घर लाकर गंध, माल्य ओर अन् लेपन, धूप, दीप, फल ओर मूलोसे पूजकर विसजेन
स्थिर यौवनको पाता है । भविष्योत्तरमं विशेष कहां है किं, अष्टमीके दिन फल ` | ८ |
= केलः ( ; मोर ५ | पिष्ट, बरद, लकुचः जम्ब) मीजपुर, दाडिम, दधि, अक्षतः भाल | |
त्वं द्वे" इस मंतरसे पूजन करे, हे राजन् ! सावधान होकर सुन `
णण त
ब्रतराज [अष्टमी-
0 (ध 4 प प
निनि पीयष
| ` महालक्ष्मीव्रतम्
अथ भाद्रशक्लाष्टमीमारम्य षोडज्ञदिनपयेन्तं महालक्ष्मौत्रतम् ।। तच्चा-
द्ंरात्रमतिक्तस्य वतिन्यासष्टम्यां कार्यम् \। तदुक्तं चन्द्रप्रकाश्च स्मृत्यन्तर- जध-
रात्रमतिक्रम्य वतते योत्तरा विथिः ।\ वद्या दच्थां नरैः कार्थं महालक्ष्मीव्रतं सदा।।
ध अध्या ज्येषठायतायां प्रारम्भः कायः ।। तथा च स्क्नान्दे-मासि भष्रपदे सुक्कं पक्षे |
(सपि कार्यम् ।\ समापनं तु इष्माष्टस्यां चनद्रोदयव्यापिन्यां कायम्-“चन्द्रो-
“कुदणपक्षेऽह्टमीचेव' देत्यादिवावयात्पुवे व अपर्दिने चन्द्रोदयोत्तर त्रिमुहूर्तं
समागच्छ पश्चनाभपदादिह ।\ पञ्चोपचारपूजेयं त्वद्थं देवि संभूता ।। आवा-
आचास्यं जगदाधारे सिद्धिः लक्षिमि जगस्पिये \\ चपले देवि ते वत्तं तोयं गृह्ण
नमोऽस्तु ते।\ आचभनम् ` ` परयो दधि धृन्त क्षौद्रं सितया च समन्वितम् । पञ्चा- `
मुतमनेनाद्य कुर स्नानं ६ननिधे ।। पञ्चामृतम् ।। तोयं तव महाकक्षिमि कपूरा-
# गर्वासितम् ।) तीर्थेभ्यः सुसमानीतं स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम् ।। स्नानम् ।। सुक्ष्म `
तम्॥। श्ञीतलं बहुलामोदं चन्दनं प्रतिगृह्यताम् । चन्दनम् ।। मिलत्यरिमलामोदं `
मत्तालिकुलसंकुलम् ।\ आनन्दि नन्दनोत्पच्नं पद्याये कुसुमं नमः. \। “पुष्पाणि ॥\
` ज्येष्डायताष्टमौ । प्रारब्धव्यं वरतं तत्र महालक्ष्म्या यतात्मभिः ।। तद्भावे केवला- `
दथत्रते चैव तिथिस्तात्कालिकौ भवेत् इत्युक्तेः \! दिने चन्द्रोदये सत्त्वेऽसत्वे `
चेत्परेव ।। तड्क्तं मदनरत्ने पुराणसमुच्चये-पर्वा वा परविद्धा वा ग्राह्या चन्द्रोदये
स्च ।! चरिमुहूर्तात्त सा पुज्या परतश्चोध्वगमिनी ।! अथ पुजनम्-महालक्ष्मी ``
हनम् 1\ आलयस्ते हि कथितः कमलं कमलालये ।। कमले कमले ह्यस्मिन् स्थति `
त्वं कृपया फुर ।\ स्थापनम् ।। कमले पाहि मे देवि स्वर्णेसिहासनं शुभम् ।। गृहाणेदं `
` मया दत्तं भक्तियुक्तेन चेतसा ।\ आसनम् ।। गङ्धादिसलिलाधारं तीर्थमन्त्राभि- `
। मन्त्रितम् ।! दूरयात्राश्रमहरं पाद्यं मे प्रतिगृह्यताम् ।! पाम् ।। तीर्थोदकंम॑हा- `
दिव्यैः पापसंहारकारकः ।। अर्घ्यं गृहाण देवेति देवानामुषकारिणि \! अर्ष्यम् ॥ `
तन्तुभवं वस्त्रं निमितं विश्वकर्मणा ।\ लोकलनज्जाहरं देवि गृहाण सुरसत्तमे ।! `
वस्त्रम् ।। कञ्चुकम् \। नानासौभाग्यदरव्यम् ।। मलयाचलसंभूतं नानापन्नगरक्षि- `
त्तानि] ह्दीटीकासदहित (३९१)
2 + ध व प म
[गिति ववामि
ते नमः सदा \\ नैवेद्यम् ।। स्नानादिकं विधायापि यतः शुद्धिः प्रजायते ।। एतदाच- `
` मनीयं च महालक्िमि विधीयताम् \\ जचमनम् ।। करोहतनम् ।। पातालतलसंभूतं ४
बदनाम्भोजभषणम् ।। नानागृणसमाकीणं ताबृल प्रतिगृह्यताम् । तांबलम् ।\.
हिरण्यगमेति दक्षिणाम् \) नीराजनं सुमंगत्यं कर्पूरेण समन्वितम् ।। चन्द्राकंबह्भि- `
सदं महालक्ष्मि नोस्तु ते ।। नीराजनम् ।\ शारदेन्दुकलाकान्तिः स्निग्धनेत्रा
चतुर्भजा ।\ पद्ययुग्मा चाभयदा वरव्यग्रकराम्बुजा ।। पुष्पाञ्जलिम् ।। विष्णो-
वक्षसि पदे च शद्धे चकते तथाम्बरे ! ठष्िम देवि यथासि त्वं मयि नित्यं तथा भव) `
प्रार्थना\\ उक्ताय दोरकं बाहोलक्ष्मीपाइवं निवेदयेत् ।। लक्षिमि देवि गहाण त्वं `
दोरकं यन्मया धतम् ।। व्रतं संपर्णेतां यातु कृपा कार्या मयि त्वया ।! कथां भुत्वा
सुवर्णं च दद्यादाचा्यदक्षिणाम् ।। एवं निवत्थे विधिवत्पूजनं बदुकश्रियः.।। चातु-
रवण्यं च सम्भोज्य यथाशक्त्या च दक्षिणाम् । दी पांच षोडडापूपान्गोधूमानां `
द्विजातये ।\ दत्वा तत्सख्यया भुक्त्वा रात्रौ जागरणं चरत् ।। चन्द्रोदयं च सञ्जातं _
दद्यादर्घ्यं ततो ब्रती ।! मन्त्रेणानेन विप्रेन शंखेनाम्बफलान्वितम् ।! नमोस्तुते
` निक्ानाथ लक्ष्मीभ्रातनमोऽस्तु ते ।! व्रतं संपुणेतां यातु गृहाणाध्यं नमोस्तुते ॥
` चद््रायार्घ्यम् ।! प्रातविसजयेदेवीं मंत्रेणानेन सुव्रत ।। पडकजं देवि संत्यज्य मम॒
वेदमनि संविश् ।। यथा सुपुत्रभव्योऽहं सुखी स्यां त्वत्प्रसादतः ।! विस्जनम् ।
. इति पुजनसम् ।! अथ कथा ।। स्कन्द् उवाच ।' सोभाग्यजननं स्त्रीणां दौरभाग्य-
` परिष्न्तनम् ।\ परमेश्वथेजनकं तद्व्रतं बूहि शङ्कर ।। १।। ई्वर उवाच (
` ॥ साध् साधू महाबाहौ यत्पृष्टोऽहं त्वयानघ ।। तत्तेऽहं संप्रवक्ष्यामि व्रतानामुत्तमं `
बरतम् ।। २॥। येन चीर्णेन न नरो दुर्गेति याति किचित् ।। सुभगा दुर्भगा बापि ॥
स्त्रियो न विधवा गृह ।। २३ । अस्ति देव्या व्रतं पुण्यं महालक्ष्म्याः षडानन ।॥
` नारीणां च नराणां च सबेवुःखापहं तथा ।४ ॥ स्कन्द उवाच ।। देव्यार्चरित-
भाहात ं मत्यं केन प्रकाशितम् ।। विधानं कीदक्ष बूहि व्रतस्यास्य महाबिभो ध
त्तमो)! ११॥। श्ुतप्रभावसंपन्नौ पुलस्त्यो गौतमस्तथा ।। तीथेयात्राप्रसंगेन श्रत्वा । `
बाक्यजनास्यतः । १२ ।\ कोलासुरोत्पातजन्यं कन्याहेतोः शिखिध्वजः ।॥
तावृचवुर्जनं सर्वमगर्त्योऽस्ति महामुनिः ।। १३ ।! येन तोयनिधिः पीतो विन्ध्या- `
द्विच निपातितः ।। वातापील्वलनामानौ देत्यौ येन विनारितौ ।\ १४ ।। तं गच्छामो
बधं सवं कोलासुरवधाय च \} इत्यामन्त्र्य जनाः सवं गत्वा तमभिवाद्य च 1 १५।। `
उचःसर्वे यथावत्तं कोलासुरविचेष्टितम् !\ तच्छ. त्वा भगवानाह सत्रावरुणिरग्य
घीः।। १६।। सृष्टिस्थितिविनाश्ञानां कारणं भक्तवत्सला: ।\ रामस्याद्रौ तपस्यन्ति = ` `
ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः ।\ १७ ।! तिः सन्ध्यामूतिमत्यस्तेषां शुश्रूषणे रताः!
भ्रविश््य ता महालक्ष्मीः शक्तिरूपेण संस्थिता ।! १८ ।। सवंशक्तियुता देवौ लोकानां
हितकाम्यया ।। इत्यु्तास्त्वरितं गत्वा कोल्ासुरवधाप्तयं ॥ १९ ।। निवेद्य `
` निखिलं तेम्यस्तस्थुः प्राञ्जलयो जनाः ।\ तच्छ त्वा निखिलं तेभ्यो ब्रह्मविष्णु- `
महेदवरः ।। २०। सन्ध्यात्रयं समाहूय वाचं प्रोचुजेनेदवराः ।। बन्दारसुरवृन्देद्र
मौलिमाणिक्यमण्डना ।॥। २९ ।। हरिष्यति महालक्षमीरयुद्धे कोलासुरं रिपुम् ।॥
भगवत्यो मृति सत्यो दण्डशूलादिभिवेरेः ।। २२ ॥ आयुधविविधः कृत्वा जयमा- |
प्स्यथ संयुगे ।\ युष्माकं तु सहायेऽसौ युष्मत्कोधसमइूवः ।। २३।। भूतनाष्यो
` भतपूर्वा वः सहायो भविष्यति ।! इत्युक्तास्त्वरितं गत्वा रर्धः कोलराक्षसम्
॥ २८ ॥\ निरुध्य च पुरीं देव्यो जगजजलदस्वनाः ।। भिन्वन्त्यश्च दिशां वृन्दं
वधेयन्त्यश्च तत्करधम् ।\ २५।। कोल्ासुरोऽपि तच्छत्वा प्रोत्पपात महासनात् ॥
सेषणः कोधताम्राक्षो मेरोरिव मृगान्तकः ।। २६। हस्त्यश्वरथपादातचतुर- `
बलान्वितः । निथंयौ पत्तनादोद्धुं कालिकाया इवाडानिः ।२७।। सकुण्डल- . `
श्जिरस्त्राणः कवची धृतबाणधिः । बद्धगोधागुलीत्राणः कुद्धो वृत्र इवापरः ॥ `
॥२८॥ ततो राक्षससेन्यं तद्भूतनाथेन संगतम् ।। देवतारि्महोल्काभिर्युदं चक्त- `
ऽतिभीषणम् ।। २९।। महारावेर्भीमघोषैबणिः केडकारनिःस्वनैः । गोखराणां
देश्च लोकः शब्दभयोऽभवत् ।! ३० ।। जहि भिन्धीति वदतां धावता र
व्रतानि] ` 1 हिन्वीदीकासहित (३९३)
` खरेश्च व्यदारयन् ।\३५। पादातः समाजघ्नुः सिंहः करिवरं यथा ।। सकृण्डल- `
क्लिरस्त्राणो दष्टोष्टो रक्तलोचनः \ २३६ ।॥ कृत भरकटिवक्रोऽऽसौ राक्षसस्ता ¢
` मूहर्मूहुः ।! गदथाताडयामास क्िरःकण्ठांसकुक्षिषु 1 ३७ ।। बभञ्जुस्तां गदां
तास्तु हसन्त्यः संमदाकुलाः \। ततो धनुर्धरो भत्वा बाणजालमवाकिरत् ।\ ३८
तासां चरीरमर्माणि भिन्दज्छरषुरोगमंः ।। ननाद बदवेरोऽसौ हदयंचामिन-
च्छरेः।! ३९ ।। ततः कढतरास्तास्तु तं पादे जगृहुभञम् \। अकाले मामयित्वा
तु चिक्षिपुगगने कधा ।। ४० ।! कोलासुरोऽपि पतितो यावदुत्थातुभिच्छति ।॥
तावन्निमेण्य लक्ष्मीस्तं पादाभ्यां प्रत्यपीडयत् । ४१ ।। तत्पादपीडितो दैत्यो `
विवत्य नयने भृशम् ।। मक्तकण्ठस्वनं करत्वा ततो मोहसपेयिवान् ।। ४२। ततो `
५ ` देवाः सगन्धर्वा मनुष्या ऋषयोऽस्तुवन् ।। देवनाथारइच देव्यरच ननुतुःसमदाकुला व
४३ ।} देवदुन्दुभयो नेदुः पुष्पवृष्टिः पपात हु ।। दिक्लः प्रसेदुमरुतो ववुमन्द- ध;
स्थिरं जगत् ।\! ४४।१ सुरासुरश्शिरो.रत्नापौडितांधिसरोरुहाः ।।. देव्यो दिव्येन
यानेन यान्ति कोलापुरं प्रति ।\ ४५ \! आयान्तं पद्मजां वीक्ष्य मुक्तपादान्न्पु-
लः \\ तुष्टाव परया भक्त्या राजकन्यागणो मुदा \\ ४६ ।। राजकन्याः उचुः \
५ बन्दारुवी रसुरवृन्दकिरीटरत्तरोचिहटानिकरकल्पितरत्नदीपम् ।। देवित्वदीय-
` चरणं शरणं जनानां सेवामहं सकलमङ्कल्वधनायं ।! ४७ ।। उत्फुल्लकरवदला-
यलोचनायं गण्डोल्लसच्चदुलकुण्डलमण्डिताये ।। राकाशशिप्रतिभटाननकोम- `
लायै तस्ये नमः कमललोचनवल्लभाये ।। ४८ ।। सभूक्तकल्पलतिकां हरिकण्ठ- `
भूषां कयुरहेमकटकोज्ज्वलकङडकणाडकाम् ।! संसारसागरमुखे पततो ममाद्य `
देहि त्वदीयकरयष्टिमनद्धमातः \\४९ ।। दुष्ट्वा देवि जनास्त्वयापि विविधा `
ब्रह्माधिपत्यं गता विष्णवेक्षसि या चकार तरला लीलाग्जमालाभ्रमम् ।। क्ले्ञा-
` भिनप्रहुतं त्वरद रीयचरणहन्द्ाव्जसेवारतं कारण्यामृतसारपुरितदृदं मामम्ब पाही-
इवरि । ५० ॥ ोज्ज्वलमध्यभागधम्मिल्लमारनिततारक-
मीः स्वयं प्रणमतां भिय-
एााातससलण 1
(३९४) 8 व्रतराज [अष्टमी
एवं प्रभावा सा देवी विष्णुरामा षडानन ।। ५६ ।। बभूव सवभूतषु विख्याता
कमलासना ।! प्रथावमस्या देव्याश्च नाल वक्तुं चतुमखः ।। ५७।। व्रतस्यास्य
त्व्ध्तस्स्वत्यरायणः ।। ५९ ।। तदविष्नेन मे यातु समाप्ति त्वत्प्रसादतः ।।
श्भिर्थतम् ।। ततोऽन्यवहं महालक्ष्मीं पुजयेचियतात्मवान् ।\ ६१।। गन्धपुष्पं
नानादोवैहच शोभिताम् \\ ६२ \। सतः प्रतिमाः कृत्वा सौवर्णीस्तित्स्वरूपिणी
दिकं तथा ।। नवे शरावे भक्ष्याणि रित्वा बहुविधानि च ।\७५ ।। प्रत्येकं षोड
विधानं च श्यन् मत्तो विधानतः ।\ मासि भाद्रपदे शुक्ले पक्षे ज्येष्ठायुताष्टमी |
॥ ५८ ॥ प्रारब्धव्यं ब्रतं तत्र महालक्ष्म्या यतात्मभिः ।। करिष्यामि व्रतं देवि
इत्यच्चायं ततो बद्ध्वा दोरक दक्षिणे करे ।।६०।। दोडशग्रन्थिसहितं गुणः षौड-
सनैवेचर्थावत्कृष्णाष्टमीदिनम् । तस्मिन् दिने तु संप्राप्ते कु्यदुद्यापनं व्रती `
९२ ।। बस्त्रमण्डपिकां कृत्वा माल्याभरणशोभिताम् ।। चिमूमिकां तां सुलक्षणं
। ॥। स्नपनं कारयेत्तासां पञ्चामृतविधानतः ।। ६४ ।। रोडउदरपचारंह्च धूष-
` दीपादिभिस्तथा । जागरणं तु कर्तव्यं गीतवाद्त्रिनिः स्वनः ।१६५।। ततो निशीथे
सम्प्राप्तभ्युदितेऽमुतदीधितौ ।। कृत्वा तु स्थण्डिले पद्यं सषडद्धं प्रपूजयेत्
` ॥ ९६ ।। दयादर्घ्यं च रागेण ब्रती तस्मे समाहितः ।। क्लीरोदाणवसम्भूत चन्द्र
लक्ष्मीसहोदर ।। ६७।। पीयूषधाम रोहिण्या सहितोऽघ्यं गृहाण वे ।। श्रीसुक्तेन =`
` ततो वह्लौ पद्यानि जुहुयाच्छचिः ।\ ६८ ॥ पायसंचैव बिल्वानि तदलाभे तथा
धृतम् ॥ ग्रहेभ्यश्चैव होतव्यं समिच्चरुतिलादिकम् ।\ ६९ ।! जानुभ्यामर्वनि `
गत्वा मन्त्रेण प्राथयेत्ततः \) क्षीरोदाणवसंभूते कमले कमलालये ।! ७० । प्रयच्छ `
( ( सवेकामान्मे चिष्णुवक्षःस्थलालयं ।। पुत्रान्देहि यशो देहि सोख्यं सौभाग्यमेव च । (
` ॥ ७१।) कालि कालि महाकालि विकरालि नमोऽस्तु ते ।। तरेलोक्यजननि त्राहि
वरदे भक्तवत्सले ।। ७२ ।। एकनाथे जगच्राथे जमदग्निप्रियेनघे' । रेणुके त्राहि `
। मां देवि राममातः शिवं कुर ।\! ७३ ।। कुर श्रियं महालक्िमि ह्यध्रियं त्वाद्य ना्य।। ` `
मन्त्ररेतेमहालक्ष्मीं प्राथ्यं श्रोत्रिय योषिताम् ।\७४।। चन्दनं ताल्पत्रं च पुष्यमाला- =!
ड - `
दौतानि पुगपूर्णानि चैव हि । ।तानन्येन समाच्छाद्य व्रती दद्यात्समञ्॑कम् ।\ ७६।। `
णवसं लक्ष्मीहचन्द्रसहोदरी व्रतेनानेन सन्तुष्टा प्रीयतां
इन्दिरा प्रतिगृह्णाति इन्दिरा वेद्दाति च
न ~
व्रतानि] | हिन्दीटीकासहित (३९५)
स्मिन्रकाक्षितम् ।\८० । भूहि मे तत्त्वतो देव यच्हं तव वल्लभः ।। शंकर उवाच |
॥ जाघीद्राजा सा्दभोसो मङ्कलाणं इति शरुतः ।\ ८१ ।। कुण्डिने नगरे रम्ये तस्यं
पद्मावती प्रिया \। तभागतः कंडिचदेकः सेवको ब्राह्मणोत्तमः \! ८२ ।। अन्नात-
नास्नस्तध्यासौ नाम चक्रे नृपस्तदा ।। तवल्लक इति ख्यातो बभूव द्विजसत्तमः
॥ ८३ ।\ क्श्मचिन्मुगयासक्तो भूपालो वनमाविक्षत् ।। तत्र विद्धा वराहादीन्मुगा- `
र्हृत्वा सहश्च: ।। ८४ । क्षचटपरिगतः श्रान्तो वक्षषलमपाधथितः ।। उदका-
स्वेषणे चारान्प्रषयामास स्कः ।। ८५ ।\ वन जल तु नापयन्क्वचिच्छान्ताः
. प्रयत्नतः ।। ते गत्वा नृपति प्रोचुर्ननराम्भ इति दुःखिताः \} ८६ ।) तवल्लकोऽपि ह
बभ्राम विपिनं तदतन्दरितः ।\ भ्रममाणस्तदापहयत्कस्मिषिचहनगह्वरे ।\ ८७!
रम्यं सरोवरं दिष्यं कुमृदोत्पलमण्डितम् ।। तत्रापर्यदेवकन्या दिव्यरूपा मनोरमाः ` |
` 1 ८८ ।! च्वैङ्कीश्चारनयनाः पीनोच्रतपयोधराः ।। ` हारककणकेयूरनूपुराल- ` ॥
` कृताः शुभाः ।। ८९ ।\ पुजयन्तीमहालक्ष्मौब्रतरूपेण चादरात् ॥। तवल्लकोऽपि
पप्रच्छ किमिदं कथ्यतामिति ।\ ९० ।। स्तरिय उचुः ।। महालक्ष्मीत्रतमिदं सवकाम-
फलप्रदम् । क्रियतेस्माभिरेकाग्रमनोभिस्त्वत्र भक्तितः ॥। ९१ ।।! तवल्लकोऽपि
तच्छ त्वा व्रतं जग्राह भक्तिमान् ।! तदनुज्ञां गृहीत्वा च जलमादाय सत्वरः ।९२।।
आजगाम जलं तस्मै दत्वा प्राञ्जलिरास ह॒ । जलं पीत्वा नृपस्तस्य दृष्टवान्दोरकं ध
करे} ९३ ।) किमिदं दोरकं विरन्कि व्रतं कृतवानसि ।! राज्ञा पृष्ठ स्तवल्लोऽपि .
कथयामास तद्व्रतम् !। ९४ ।। तच्छ त्वा राजशार्दलो व्रतं जग्राह भक्तिमान् ।॥
तया रन्तुं गतो रहः ॥। रममाणाय सा देवी तेन राज्ञा प्रियेण वै ।॥ ९६ ॥
तं दष्ट्वा दोरक हस्ते कुपिताऽत्यन्तकोपना ।\ कया त्व वञ्चितो ब्रूहि कया ध
बद्धः सुदोरकः ॥९७ ॥\ तस्यास्तद्रचनं शरुत्वा प्रोवाच च नराधिपः ।। मावादीर- `
थ र ह्येतल्लक्ष्मीव्रत त्रतमनस्तसस |! ९८।। इत्युक्तापि प्रियेणासौ हस्ताच्चिच्छेद ५.
ोरकम् ४५ ज्वालामालाकुले वह्ौ क्षिप्तवत्यपि कोपिता ।। ९९॥ हाहा कष्ट `
स्वया \। इति निर्भत्स्ये तां राजा तत्याज वनगहुरे ।। ।
तवल्लकेन सहितौ राजा स्वपुरमाययौ । ९५ ।। पद्मावत्या गृहं गत्वा ५
३ ॥ ९ ६ । व्रतदरज |
५ ध # ः न क ५ प (प प
न्ते ।\५॥\ तदं तत्क्षणादेव विनष्टमभवत्तदा ।\ पुनक्च मृगयासक्तो भूपालो
वलमाविक्ञत ।\ ६ ।। क्वचिन्मृगं समाविध्य बाणनकन बाहृंमान् ।। अन्वगच्छ-
न्मगपदं तस्याः भवि यंदागतः ।\ ७ ।। वर मनि ददशि वसिष्ठं वीतकल्मषम् ।। `
4 प्रो दष्ट्वा चरन्तीं बहिरन्तिके ।\ ८।। हावभावविलसाद्यहरन्ती
1 हरिणेक्षणःम् सदाश्िर्गत्य नपतिः प्रोवाच मधुर वचः ।! ९ रम्भोर कासि
कल्याणि किमर्थं चरे बने \! किन्नरी मानुषी वा त्वं यक्षिणौ चारहासिनौ \। १० ५
। किमत्र बहुनोक्तेन भजमानं भजस् माम् । नुपेण तेन भक्त्योक्ता सस्मिता वाक्य
मव्रवीत् ।। ११।। पुनभभजामि चाहं त्वामवेहि महिषीं तव ।। महालक्ष्म्यपचारण ५
` त्वया हीना वसाम्यहम् ।। १२।। मुनीन्द्रस्याश्नमं रम्य तर्गृल्मोपन्लोभिते ॥
भमोपरि कृपाविष्टो महालक्षमीव्रतोत्तमम् ।। १३ ॥। कारयामास विधिवत्सववि- `
छनोपदान्तमे ।\ तयोक्तं वचनं श्रुत्वा स चोौत्फुल्लविलोचनः ।। १४।। ऋषेरनुला- `
मादाय प्रियामादाय सत्वरः ।। हृष्टपुष्टजनजुष्टं पताकाध्वजशोभितम् !\ १५।। |
श्रविवेक्ञः तया सद्धं स पौररभिवम्दितः ।। महालक्ष्मीब्रतं भूयस्तया सह चकार ॥
ह ।\ १६॥) भुक्त्वेह भोगान्विपुलान्पत्रपौ्रसमावृतः ।। भूपाल सार्वभौमोभत्त- `
बल्लोमात्यतां ययौ ।। १७ \! महालक्ष्म्याः प्रसादेन सन्निधिः _सवेसम्पदाम् ।\ ` (८
एवंप्रभावा सा देवी नराणामिष्टदायिनी ।\ १८ ।! सवेपापहरा देवी सव॑दुःखाप-
। हारिणी 1 एवं षोडशव् तु कतेव्यं व्रतमुत्तमम् ।। १९! यः करिष्यति तं प्रीत्या
| स्वयं सिद्धिरुपासते ।। लोकपालाइच तुष्यन्ति ददाति च मनोरथान् ।। १२० \
नारी वा पुरुषः करिष्यति मुदा भक्त्या व्रतं यत्नतः सेवन्ते हरिरुदरपद्मजसुराः
कुवन्ति तस्य प्रियम् ।\ तत्पाद परिरञ्जयन्ति मनजा मोलिप्रभामण्डलस्तस्मिन्रव
कुटुम्बिनी वसति सा लक्ष्मी स्वयं विष्णुना ॥\ २१ ॥। सुभक्त्या वाप्यभक्त्या वा॒
` कर्वन्ति व्रतमुत्तमम् । अन्तकाले च ताग्विष्णुः संसारात्परिरक्षति ।\ २२ ॥य
इद श्पुणुथासित्यं श्रावयेद्वा सभादितः । न सन्त्यजति तं लक्ष्मीरलक्ष्मीर्नव जायते।।
पापविनिर्मुक्तः स्वर्गलोकं महीयते ।! २३ 1\ इति स्कन्दपुराणोक्ता महालक्ष्मी- `
१. त्ेतकथा अथ भविष्योक्ता कथा ।। युधिष्ठिर उवाच ।। स्वस्थानलाभपुत्रायुः |
सवेहवयेयुखप्रदम् ।। व्रतमेकं समाचक्ष्व विचायं पुरषोत्तम ।! । ६ कुष्ण उवाच \}
दुर्वार चैव देत्येनद्रे परिग्याप्त्निविष्टपे ।\ एतदेव कृतस्यादौ देवेद्रः प्राह नारदम्
स
=
व
बतानि] = दिन्दीटीकासहित (३९७) |
` कस्पयत्यनिह्यं शिरः \। तत्राभवन्महीपालो मङ्खलो मङ्खःलालय चिल्ल- `
देवी प्रिया तस्य दुरभगेका बभूव ह ।! अन्या तु चोलदेवी या महिषी सा यक्षस्विनी `
॥ ७ 1) कदाचिन्मङ्कलो राजा चोदेवौसहायवान् ।। प्रासादक्षिखरारूटः स्थली-
मेकामपश्यत ।\ ८ ।\ तामालोक्य महीपालः स्मरस्मेरमुलाम्बुजं चोलदेवीं
प्रति प्राह दन्तद्योतितदिडमुखः ।! ९ ।। चञ्चलाक्षि तवोद्यानं कान्तिनिन्दित- `
नन्दनम् ।। कारयामि तयोदृष्टिस्तत्रोद्यानमकरारयत् ।\ १० ॥ संपन्नं तु तद्
दानं नानादमलतान्वितम् । नानाफलसमायुक्तं नानापक्षिसमावृतम् ।! ११।॥
तत्रागत्य महाक्रोडस्तनुन्यस्तनभस्तलः।प्रावुट्काल्घनर्यामरचक्षुराक्षिप्तचञ्चलः
॥ १२ ॥ दष्टरावकृष्टचनदराकंः प्रलयाम्भोधरध्वनिः ।। उद्यानं भञ्जयामास व
नानादुमलतान्वितम् ।। १३। कािचदत्याटयामास पादपान्पाण्डुनन्दन ॥। ४
कादिचहन्तप्रहारेण कादिचहन्तप्रघषेणेः ।। १४ ।। जघान कांदिचतपुरषानाक्षकान-
न्तकोपभः । तद्भुनक्तीति विज्ञाय संहत्योद्यानपालकाः ।\;१५.१। सभयास्तस्य
वृत्तान्तमूचुश्च नृपतेः परः । तदाकाण्यं ततो राजा कोधारुणितललोचनः ।\ १६ क
बधाय दष्टरिणस्तस्य सन्दिदेशाखिलं बलम् ।। ततश्चचाल भूपाल स्त्रिगण्डगलिते- `
गजैः! १७ । आप्लावयन्महीं सर्वां वाजिवृन्दङृतास्बराम् ।॥ चालयन्सकला- =
विदधामि रिपोरिव ।\ तस्य भूपस्य तदाक्य समाकण्य स सुकर ॥ २१५ जगा-
मास्येव मार्गेण प्राणिनां चेष्टितं यथा ।। ततः स सुकरासक्तःकशयाऽङ्व भ्रताडच ह
५ स्ये्ुमगिं तस्यैवस्मोऽगमत् । गत्वाथ विपिनं घोरं
मालतार्वाहितालदालारजुनलताम्वितम् \ सिल्लीक्ञ- `
2 1} चताः सपय वनं बभ्राम |
२९ ॥। नानास्थानगुणोपेतमश्नौषीद्गीतमत्तमम् ।। मौयमानहच्युतः स्थाना
ततोऽहं क्मणाऽमुना ॥३० । शप्त्िचत्र रथ स्तन ब्रह्मणी सुष्टिकमंणा ।
ब्रह्मोवाच ।! कोलो भव त्वं मेदिन्यां मुक्तिस्तेऽस्तु तदा यदा ।। ३९ ।। निजिता-
खिल भपालो मङ्धलस्त्वां हनिष्यति ।। तदद्य. घटितं सवं त्वत्प्रसादान्महीपते `
३२ ।। तद्गहाण बरं भूष यहेवस्यापि दुलभम् ।। महालक्ष्मोत्रतं दिव्यं चतुवभ-
फलप्रदम् ।। ३३ ।। लभस्व चार्वभौमत्वं गच्छ राज्यं निजं हुतम् ।। नारद उवाच!
चित्नरथोऽथ गन्धव उक्त्वेदं भर्पाति प्रति \\ २४ ।\ अन्तर्घन गतस्वुष्टः शरत्काल ` ५
इवाम्बुदः ।! अथ मङ्कलभूपालः पाषवेस्थं द्विजमागतम् ।। ३५ ।। विलोकय बदुक
कंचित्कक्षानिक्षिप्तशम्बष्लम् ।\ उवाच मधुरां वाचं स्मितपुर्वां शुचिस्मित
| ३६ ।। देवस्त्वं दानवस्स्वं वा गन्धर्वो वाऽथ राक्षसः ।\ सत्यं बद बटो कस्मा-
किमर्थं त्वसिहागतः ।। ३७ ।। श्ुत्वेत्यारिष्य तं विप्रः प्राहं त्वहश्चसम्भवः. ¦
अहं सार्द्धं त्वया यातस्तदादिश् यध्थोचितम् ।। ३८ ।! राजाथ तमुवाचेदत्वं
बटो नृतनाह्यः ।\ अपल्याणं विधायाइवं तूर्णं तोयं ममानय ।। ३९ ।। जथ विभ्ा-
म्य भूपालं बटको वटपादपे ।। तथाकरृतं तुरद्धं च समारुह्य महायतिः ।! ४०
जगाम पल्लिघोषेण यत्रास्ते सुन्दरं सरः ।। कमलंकनिवासेन रथाद्धाभरणेन च ।।
।। ४१ ।। बनमालालयत्येन दधच्लारायणीं तनम् ।। भेग्नवायुशतोदयोगसक्षारं
विषर्बजितम् ।\ ४२ ।! नाक्षितागस्तितृष्णातिप्रसन्नं सागराधिकम् ।। पडकं
मग्नोऽथ तत्रारवः पृष्ठादुत्तीयं तस्य सः \। ४३ । चतुदिज्ञं निरीक्ष्याथ तस्यव
सरसस्तस्टें ।\ दिव्यवस्त्रपरीधानं दिव्याभरणभूषितम् ।।\ ४४ 1 कथयन्तं कथां
दिव्यां स्त्रीणां साथेमद्श्यत ।। उपसृत्याथ त साथ स्ववृत्तान्तं निवेद्य च ।। ४५
कृताञ्जलिरिति प्राह बट॒मधुरया भिरा \! बटुरुवाच ।\ एर्तात्क क्रियते साथं त्वया
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व्रतानि | हिन्दीटीकासहित (३९९)
। , प (कः ! ५ 04; । ॥ म ॑ पौ
१ ८ चमः पास ति <... ४ ८ क ५: ्
निति दिये कियदिव)
मतव
दोरक दक्षिणे करं \\ ५३ ।! काण्डानि षोडशादत्य इूर्वायाहचाक्षतानि च ॥
एकचित्तः कथां श्रुत्वा पुजयेत्तेश्च दोरकम् ।। ५४ ।। ततस्तु प्रातरारभ्य यावत्त्छा-
इसिताष्टमी ।। तावत्वरक्षाल्य हस्तौ तु पादादीनि कथां तथा।\ ५५ ।। श्यृणुया-
स्परत्यहुं विप्र तत्सख्येरक्षताष्दिभिः ।। अथ कृष्णाष्टमीं प्राप्य नक्तकाले निते- `
दिय) ५६ ।। स्नातः शुक्लाम्बरधरो ब्रती पुजागृहं विशेत् ।। तत्रोपविहय पूर्वा- र
स्थश्चारधौतासनोपरि ५७ ।} इवेतवस्त्रं किखेदष्टदरं कमलसत्तमम् ।।
एे्यादिशशक्तिसंयुक्तयाहवेपत्रं सकेसरम् ।। ५८ ।। कर्णिकायां ततो लक्ष्मीं कर्षर-
क्षोदपाण्डुराम् ।\ शुखवस्त्रपरीधानां मुक्ताभरण भूषिताम् ।) ५९ ।। पड्कजा- `
` सनसंस्थानां स्मेराननसरोरुहाम् ।। शारदेन्दुकलाकान्ति स्निग्धनेत्रां चतुरभनाम् `
॥ ६० ।। पञ्चयुग्मासभयदं वरव्यग्रकराम्बुजाम् ।। अभितो गजयुग्मेन सिच्यमानां `
करांबुना ।\! ६१ । सञ्चित्येवं लिखेहेवीं करपुरागुरुचन्दनंः ।\ ततस्त्वावाहनं
कुर्थान्मित्रेणानेन सुव्रती ।\ ६२ ।। महालक्ष्मि समागच्छ पद्यनाभपदादिह ॥
पञ्चोपचारयुजेयं त्वदर्थं देवि कल्पिता ।\६२।। षोडशाब्दे तु सम्पूर्णे कुयद्द्यापनं
ब्रती ।॥ विधिना येन विप्रन श्ण ब्रद्वासमन्वितः ।\ ६४ ।॥ दतव्याधेनुरेका
वे स्व्णेष्ुद्धादिसंय॒ता ।। श्रोत्रियाय सुवर्णं च तथान्नवसनादिकम् ।! ६५ ।। यथा-
शक्त्या सुवणं च दत्त्वा पूर्णम् भवेदत्रतम् ।। दिजेभ्यः षोडलेभ्यश््च प्रदद्यादसना- _
दिकम् \} ६६ ।। सा्थं उवाच ।। एतत्ते कथितं विप्र ब्रतानामत्तमं व्रतम् ।। तद्वि `
घानादनायासाल्लभते ब!ज्छितं फलम् ।\ ६७ ।। कृत्वा व्रतं परं विप्र त्वं राज्ञा-
तच्चकार ।। व्रतमेतत्त्वया विप्र देयं श्रद्धावते परम् ।! ६८ ।। नास्तिकानां
पुरस्तात्तु न प्रकाहयं कथञ्चन ।। नमस्कृत्वाथ तं सार्थं पडकादुत्थाप्य वाजिनम् `
॥ ६९ ॥ सरसोऽम्भस्तथादाय पदिनीयत्रयन्त्रितम् ।\ आरुह्य तुरगं विप्रो राजा-
न्तिकिमुपागमत् ।\७०।। निवेद्य तद्व्रतं विप्रो राजानं तदकारयत् ।। नानाप्रकारं
सम्भूतं शम्बलं बटुकस्य च ।! ७१ ।! ब्रतप्रभावादभवत्सभूमृद्मूभृतां वरः ।॥
लौ बट्पर्याणितं हयम् ।\ ७२ ।। तदृब्रतस्य प्रभावेण तूण स्वपुर-
३ समालोक्य राजानं भूपुरन्दरम् ।। ७३ ।। उत्सवं चक्तिरं
चलत्पताकदोर्मालं लसत्कलशामौलिकम् |
(च) 4 = ब्रतराज [ अष्टमी
अथाविशषन्बहीषालो बटुना सहितो गृहम् ।। ७७ ।। पौर नारौजनक्षिप्त्ाजं
पुरितविग्रहुः ।॥ अथोत्तीयं हयात्तस्माद्रदुबाह्ववलस्बितः ।\७८।। जगाम मङ्खलो
राजा चोल्देवी तु यत्र वे ।। दृष्ट्का तु चोख्देवी सा दोरक राजबाहुक ।\ ७९ ॥ `
` विम्य मनसा कदा शङ्कां चक्रे नपे त्विमाम् ।\ आखेटकस्य व्याजेन गतोऽन्यां
बह्लभां प्रति \\ ८० ।! सौभाग्याय तया बद्धो दोरको राजबाहूकं ।\ तथेव बदु-
कदचायं द्रष्ट मां प्रेषितो ध्रुवम् । ८१ \\ ततो दुर्दबदुष्टात्मा कोपादाच्छिचि `
दोरकम् । चिक्षेप च महीपृष्ठे स्वसौभाग्यसुखेः सह ।। ८२ ।\ न बुबोध चतां
राजा त्रोरयन्तीं च दोरकम् ।! चामन्तमन्तिभ॒त्याचः कूवन्वातां वनोद वबाम्।\८३।।
चिल्लदेव्यास्तदा काचिहासी द्रष्टुं समागता ।।! तया दोरकमादायं बदुमापुच्छय
तद्व्रतम्।।८४।। तदृब्रतस्य विधानं च स्वस्वाभिन्यं निवेदितम् \} ततो नूतनमाहूय
चित्लदेव्यकरोद्ब्रतम् ।\ ८५ ।। अथ संवत्सरेऽतीते लक्ष्मीपूजादिने नृप ।! तौर्य- `
त्रिकस्य निस्वानं चिल्लदेव्या गहेऽश्पुणोत् ।\८६।। तदाकण्यं महीपालो नूतनं
बटुमन्नवीत् ।। अहहा दिनं लक्ष्म्याः स त्रतस्य क्व दोरकः ।। ८७ । इतिपृष्टो
नपं प्राह दोरकत्रोटनक्रमम् ।। तच्छ. त्वा मङ्धलो राजा चोलदेव्ये प्रकुप्य च।\८८।!
मयाद्य पुजनं कार्यं चिल्लदेवीगृहं प्रति \\ अथ मङ्कलभूपालो बटुबाह्ववलम्बितः `
॥ ८९ ।\ चचाल कमलाचयि चित्लदेवीगृहं प्रति ।\ ९० ।! अत्रान्तरे महालक्ष्मी-
वृद्धारूपं चिधाय च \\ जिनज्ञासाथं गृहं तस्याश्चोल्देव्याः समागता ।\ ९१ \\ गच्छ
गच्छाद्य दुष्टे किमिहागत्य करोषि मे }} तया दुराश्यात्यर्थं लक्ष्मी साप्यवमानिता
।। ९२ ॥ चोल्देवीं शज्ञापाथ महालक्ष्मीरतिक्रुधा ।\! कोलास्या भत्र दृष्टे त्वं
यतोऽहमवबमानिता ।! ९३।। चोल्देवी धियः ज्ञापात्कोलास्या तत्र साभवत् ।\
कोलापुरमिति स्यातं क्षितौ तन्मद्कलं पुरम् ।। ९४ ।\! अथायाता महालक्ष्मी-
श्चल्ल्देवीनिकेतनम् ।\ बहुधा चिल्लदेव्या सा लक्ष्मीः संमानिताचिता ॥\ ९५।।
वृद्धारूपं परित्यज्य प्रत्यक्षा साभवत्तदा ।! पञ्चोपचारपूजाभिः धियं राज्ञो ततो- ¦
त् ।! ९६ ।! अतितुष्टा ततो लक्ष्मीषचल्ल्देवीमुवाच ह ।\ लक्ष्मीर
अचेनात्ते प्रसन्नास्मि चित्ल्देवि वरं वृणु \\ ९७ \। वन्रे वरं ततो राज्ञी चिः
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॥ ३ ॥ ततो जगाम विपिनं यत्रासीदद्धिरा मुनिः ।। अथालोक्याद्भुताकारां |
ज्ञानदष्ट्या विचिन्त्यताम् ।! ४ ।\ मुनिस्तु श्चीत्रतं दिव्यं चोलदेवीमकारयत् \\ `
ब्रते कृतेऽथ सञ्जाता चोल्देवी महायशाः ।। ५ ।। दाक्षिष्यकेलिलीलामि्लव-
समन्वितः !। ८।। चिल्ल्देव्या च सहितो बुभुजे सङ्करो नुषः \। चिल्लदेवी वरं
मद्धलो नृपः 1) ब्रतस्यास्येव सामर््यद्रटुकः सोऽपि नूतनः ।। १२ ।। अभून्म-
त्य मन्त्री तव यथा गृहः ।। भुक्त्वाथ सकलान्भोगान् भङद्धलो भूभुजां
फलम् ।। प्रयागमिव तीर्थेषुदेवेषु भगवानिव ।1 १५ ।। नदीषु च यथा ग्ध त्रत-
कुरु तथेतद्धमेसुनो यथा स्यादभिमतफलसिद्धिः पुत्रपौत्रा
इति श्रीभविष्योक्ता महुलक्ष्मीब्रतकथा संपूर्णाः ।।
ब्रत--भाद्रपद शुकलाष्टमीते रेकर सोलह दिनतक यह्
ण्यैकनिकेतनम् ।। ततः कदाचिदागत्य बनमाखेटके नृपः !\ ६ ॥ सुनेवेहमनि राजा ।
। तां ददं वामलोचनाम् ।। अथ राजा मुनि प्राहु केयं घन्येति कथ्यताम् \\ ७।।.
। . तत्वृ्तान्तं समाख्याय राज्ञ तां प्रददौ मुनिः । अथागत्य निजं राज्यं चोलदेवीस्- |
वरः ।\ १३।। स पुनः स्वगेमेत्या भूलकषत्रं विष्ण्देवतम् \) नारद उवाच ।। एतत्त
` कथितं इक व्रतानामुत्तमं व्रतम् ।। १४ ।! यत्कथाश्रवणेनापि लभते वाञ्छितं `
^ ताति 1. हिन्दीटीकासहित भ (0
।
चक्रे चोलदेवी समागमम् ।। ९ ।।! समुद्रस्य यथा गङ्धायमुने सद्धतं सदा ।। तथा ५1 |
भद्भलभूपस्य जाते ते वामलोचने ।। १० ।। परस्पराधिकं ते तु प्रिये राज्ञो बभूवतुः
चिल्ल्देव्या समं सोऽथ चोलदेन्या सहाखिलाम् ।! ११ \) सप्तद्रीपवतीं पृथ्व
1
ष्वेतेष तदवब्रतम ।। धर्म चार्थं च काभं च मोक्षं च यदि वाञ्छसि ।। १६। तर्हादं `
च ब्रतं शकर कुर श्वद्धासमन्वितः ।। धनं धान्यं धरा धर्मम् कोतिमायुशः भ्रियम् ।
तुरङ्कान् दन्तिनः पुत्रान् महालक्ष्मीः प्रयच्छति ।। १७ ।। भरीकृष्ण उवाच ।\
व्रतमिदमथ चक्रे नारदेनोपदिष्टं सुरपतिरपि यस्माद्वाञ्छितार्थं स लेभे ।! त्वमपि 1
त्राभिवृद्धिः । ११८ । ॥ ..
होता है, यह व्रत आधीरातको ८ ८
ग्न्थम दूसरी स्मृतियेसि कहा
(४०९) | ॥ क त्ेतराज [अष्टमी 1
चन्द्रोदयके बाद तीन मुहूतं हो, तो पुज्य है इससे ओर अधिक समय रहती हौ तो जर भी जच्छ ` ध
है । पूजन-हे महारक्षिम ! पद्यमनाभके पदोसि यहां आ, हे देवि ! वह् पञ्चोपचार पूना तेरे ल्पि रली |
है, इससे आवाहन; हे कमलालयं ! वुम्हारा आल्य कमल कहा गया है । हे कमङे! इस कमल्पर
आप कृपाकरके विराज जां, इससे स्थापन; है कमल । मेरी रक्चाकर, है देवि ! मेने परम भक्तिसे `
यह् श्रम स्वर्णसिहासन दिया है आप इसे ग्रहण कर । इससे आसन; गंगा आदिके .पानीका आधार , `
तीर्थं मन्त्रो अभिमंत्रित दूरौ याजके श्रमको हरनेवारे मेरे पाद्यको ग्रहण करिये, इससे पाच, है
देवेहि! है देवताओं का उपकार करने-वाली ! पापोके नष्ट करनेवाले महादिव्य तीथेकि पानीहारा
संपादित अर्धको ग्रहण करिये, इससे अध्यं; है संसारकी प्यारी ! है जगतकौ आधार {है ल्कषमि!
है सिद्धि। है चपले! ह देवि! तेरे ल्यिं तोयदे दिया है इसे प्रहुणकर तेरे व्यि नमस्कार है, इससे
आत्मन; “पयोदधि” इससे पंचामृतस्नान; है महालक्षिम ! यह पानौ कपुर ओर अगरसे सुगन्धित है `
ती्थेसि लाया गया है आप इसे स्तानके लिये ग्रहण करे, इससे स्नान; “ुक्ष्मतन्तु" इससे वस्त्र;
कंचुकी, अनेक तरहके सौभाग्य द्रव्य, मलय गिरिपर पैदा हुभा अनेक तरहके स्पेसि रलाया अत्यन्त . `
सुगन्धित एवं उण्डे हस चन्दनको ्रहण करिये, इससे चन्दन, संगम होते ही सुगन्धितसे तरकर देनेवाला ५
` जिसपर कि मत्त भोरा गुंजार कर रहै हँ आनन्द करनेवाला नन्दनसे उत्पन्न हज यह फूल है ६
` पद्मके लिये नमस्कार इसे ब्रहण करिये, इससे पुष्प समर्पेण करना चाहिये ।। नाम पजा-अव नामोसे
` ^. * धना करेगे, नाममंतर मूलमें व्यि ह पहिले ओं भिये न°' एसा लिखा है, बिन्दीका सतलब नसः से 1
दै यानौ श्वे नमः रोके लिये नमस्कार इसी तरह जितने भौ नाममंत्र ह उनका भाषमे अथं
करती बारके लिये नमस्कारः इतना ओर लगानेसे नाम मंत्रका अथं हौ जायगा । श्री, लक्ष्मी, वरदा, |
। विष्णुपत्नी, क्षीरसागरवासिनी, हिरण्यरूपा, सुवणेमालिनी, पद्मवासिनौ, पद्मप्रिया, सुक्तालक्डारिणी,
सूर्या, चन्द्रानना, विश्वम, मुक्ति, मुक्तिदात्री, ऋद्धि, समृद्धि, वुष्टि, पुष्टि, घनेश्वरी, शद्धा, भोगिनी, `
भोगदा, धात्री ये लक्ष्मीजीके नाम है । अपर छिखे नाम मत्रोसे पुष्प चदन चाहिये । गंधके संभारमे
` भरा हुमा जिसमे कि, कस्तुरीकी सुगन्धि आरहौ है जिससे कि, सुर असुर ओर मनुष्य सबको
आनन्द पहुंचता है, हे देवि ! भेर उस धूपको ग्रहणकर, इससे धूप; है देवि ! आएको भक्तिसे यह
दीपक बनाया है । यह सातण्डके मण्डलके खण्ड तथा चन्द्रबिम्ब ओर अग्नि तथा तेज इनका निधान
है, आप इसे ग्रहण करे, इससे दीप, देवालय, पाताल ओौर भूतरूपर होनेवाले धान्योसे बनाया गया
सोलह तरहका नैवेद्य है इसे ग्रहण करिये इससे नैवे; स्नानादि करके भी निससे गदि होती है, है |
महालष्िमि ! इस आचमनीयको आप करे, इससे आचमन; करोद्र्तन पातालके ऊरसे पेदा हृजा जो
“ मुखकमलका भूषण है एसे अनेक गुणोसे व्याप्त इस ताम्बुलको ग्रहण करिये, इससे ताम्बूल; “हिरण्य- ` ५
भ व इससे दक्षिणा; हे महाल ! तेरे लिये. नमस्कार है \ सुमंगलोक कर्प्रसे समान्वित एवं चद
व्रतानि] र हिन्दीटीकासहित = (ब्द).
(4 हण कर, इससे चन्द्रमाको अघ्यं ३! हे सुत्रत { देवीकौ प्रतिमाका विसर्जन कर दे! उसका यह
ध मध्र है कि, है देवि ! कमल्को छोडकर मेरे घरमे प्रविष्ट हौजा, जिसमे मँ आपके प्रसादसे पुत्र
|; कि, है ्ञंकर \ सौभाग्यके कारण तथा स्त्रियोके दौर्भाग्यको काटनेवाले एवं परमेकवर्थके जनक किसौ `
¢ ब्रतको कहिये । ।१। 1 ईक्वर बोर किं, है महाबाहो ! बहुत अच्छा है बहुत अच्छाहै हे निष्पाप! `
जो तुमने पूछा बहु सर्वोत्तम है \ मं तुस व्रतोनंसे एक उत्तम ब्रतको कता हूं \\२।\ जिसके करनेसे `
है ५1१ स्कन्द बोले कि, देवीके चरितका माहात्म्य मनुष्य लोकम किसने प्रकाहित किया? है |
महाविभो! इसका क्या विधान है ? यह कहिये ।\ ५।\ शंकर बोले कि, पिके सोव्ेतक देवासुर `
संग्राम हुजा था, ल्डारईमं असुरोका अधिप वृत्र तथा देवोका प्रधान इन्द्र था ।।६।। उस युद्धम
भिरीदुगेका आश्य लेकर बैठ गये ।\८।। उनमें एक महाबलो महा वीयेवान् कोलासुरनामका असुर `
णा, वौ गोमन्तनामके दुर्गम गिरिदुरगंका आश्य केकर निर्भय हो गया ।\९।। लोकम जो राजकन्यां
परम गुणवती तथा सुन्दरथीं सबं ओरसे उन्हं अपने गिरि दुर्गमे ठेकर रमण करने लगा ।१०। बो `
कामरूपी आकाशका विचरनेवाला, राजकन्याओंसे रमण करके उन्हें दूगमें फेक देता था, इसी समय
न
य
अगस्त्य महाम्नि हे ।१३।। जिन्होने समुद्रको पिया था, विन्ध्याचल लिटा दिया था, व्तापी ओर
प्रकार सलाहकरके सबने अगस्त्यजीके पास पहुंच उन्हे प्रणाम किया ।१५।। सबने कोखासुरके सब कोल `
` कारनामं कह सुनाए उसे सुनकर परम बुद्धिमान अगस्त्यजी कहनेलगे ।।१६।। कि, रचना, स्थिति ओर
- -
सब वहां शीघ्रही उपस्थित हौ गये क्योकि, ये तो कोलासुरको मोत चाहते
। भुत्योके साय युली रहं, इससे विसर्जन करना चाहिये । यह पूजन पुरा हभ । । कथा-स्कन्द बोले `
| । | मनुष्य किसौ तरह कभी भी दगेतिको नहीं पराप्त होता, दुर्भगा सुभगा होजाती है ! कभी विधवा ही नहीं । ४ ध
` होती ॥३।। है षडानन ! महालक्ष्मी देवीका पुण्यतब्रत है वो स्त्री पुरुष दोनोके सब दुर्खोको नष्ट करता `
नारायण भगवानके बलके आश्नयसे महाबली बने देवताओने असुरोको जीत लिया सब अधुर पाताल `
तल चके गये ।\७।। कुछ लका चलेगये, कुछ वरुणके आलयसं प्रविष्ट हो गये, कोई बलवान
। दो शेष्ठ मुनि चरे आए ॥ ११1 ये वेदके प्रभावसे सम्पन्न थे एकका नाम पुलस्त्य तथा द्रूसरेका नाम॑ `
` गौतम था, इनका आना तीथेयात्राके लिए था, इम्होने मन्ष्योसे सब समाचार सूने ॥१२ ॥ कि,
कोलायुर कन्याओके किए कितना उत्पात करता हैः है हिखिष्वज ! उनसे सब जनोसे कहा कि, `
इल्वल नामके दो दैत्योको भी उसने मारा था \\१४।। हस सब कोलासुरके वधके लिए उसके पास चदे इस `
विनादके कारण भक्तवत्सल ब्रह्मा विष्णु ओर महेश्षजी रामके पवतपर तपदचर्या करते हें 1\१७\} । | ५
तीनो सन्ध्यायें. शरीर घारण करके उनकौ सेवामें लगी हुई हेः महालक्ष्मी उनमें प्रविष्ट होकर | (
शवितरूपसे संस्थित है ।\ १८१ वो देवी सर्वशवितिमती रोकोके कल्याणके च्यि ही एसा कर रही है! |
नो देवोसे सब शरु कहकर हाथ जोडकर खडे हो गये उस सब समाचारको सुन, ब्रह्मा `
सन्ध्याओंको बलाकर यह बचन कहां कि, नखर सुरोकरे समृदायो-
श्षबदों से, लोक शब्दमय होगया ॥\३०॥\ मार दो मार दो भेद दो भेद दो इस प्रकार कहते हृए `
पहिने हुए था क्िरपर शिरस्त्राण था निखङ्कः पीटपर था, तीर फकनेके समयक हाथ ओर अगुलियोको र
बजानेवाली पद्वियां बाधे था वहं एेसा दीखता था मानों दूसरा वृच्रक्रद्ध हो रहा हौ ॥\२८।। उसकी |
= सेना भतनाथके साथ भिडगई, असुरसम् हं आगकौ बडी भारी उल्काजको केकर भीषण युद्ध करते |
गा ।॥२९॥ बडे भारी रासे, भयंकर घोषोसे फेकारके शब्द करनेवाखे बाणो, गो मौर गदहोके `
एकपर एक क्षपटते थे, धूसा घुस्सौ, बाल पकडा पकडौका घोर समर उत्तरोत्तर बठने ख्या ।।३१॥
महाबलश्ालो भूतनाएथने जब यह देखा कि राक्षसोकी सेना कृ उद्धत हो चलो है तो बाणोकी
कठोर वषास उसका दनकर दिया ।\३२।\ युद्धमे अपनी सेनाको मरता देख कोलासुरको बडा कोध `
आया श्चट भेरवके ऊपर क्षपटकर गदाका वार किया ।\३३।। उससे उसका माथा रूट गया जिससे
` भैरबको मृच्छ आगयी, देवियाँ यह देख उद्धत कोलासुर पर एकदम कपटी ।\३४।। त्रिशूलोसे उसे 1
` अभिहत किया पट्टिशोसे उसका अभिघातं किया मुक्कोसे उसे खूब ताडना दी नाखूनोसे खूब नोचा
॥३५॥ जैसे शेर अपने पञ्चोसे बडे सारे हाथौकौ दुरुस्ती करता है, इसी तरहं जातोसे खूब ठीक `
किया) तब तो असुर अपने होटोको चवा आलोको लाल २ करके ।३६।मुंह् ओर च्रकूदियोको
` चढा, देवियोके क्षिर कण्ठ कन्धे ओर पेटपर बारबार गदा मारने लगा ।३७॥ युदढधमद्से हसती हई
इवियोमे उस गदाको तोडडाला, इसके वाद बो धनुष लेकर बाण वर्षा करने लगा ॥३८।। उसने
. बडे २ तीरे देवियोके ममं छेडदिए तथा बैसेहि तौरोसि उनके हृदयको छेदकर अत्यन्त वैर मानने `
दुःख पहुंचाती है ।\४१।) उसके चरणोसे
वाला यह् हृषं प्रकट करनेरगा ।\३९1 उसके इस हाले देवि्योने कोधसे आकाञ्च मं, घुमाकर फक ५
। दिया 1४०११ जबतक कि, कोलासुर उठना चाहता है उसी आकाशम लक्ष्मी उसे पैरोसे सथकर `
८ मे पीडित ह दैत्य अपनी आंखोको एकदम खोलकर गला
फाड चिघाड मार कर मरगया ।(४२।। उसके इस प्रकार मर जानेपर मारे आनन्दके देवनाथ, `
मनुष्य, गन्धव ओर ऋषि स्तुति करने लगे, देवियां नाचने लगीं ।४२। देवता दुन्दुभि बजाने लगे
` पुष्पवृष्टि गिरने रगी, दिज्ञाएं प्रसन्न होगर्यी, मन्व मन्द हव्ये चलने लगी, जगत स्थित होगया
षडा सुर ओर असुरोके शिरके रत्नोसे पीडित हँ चरणकमल जिनके एसी देवियां दिव्य विमानसे
कोलापुर गयी ।\४५।। छूट गयी है पेरोसे शु खला जिसके फेसा राजकन्याओंका गण रक्ष्मीको अता `
हआ देखकर आनंदसे भक्तिपुवंक स्तुति करने लगा ।\४९।) राजकन्याएं बोलो किं, नमस्कार करनेको
। वता्नि]। ए ४ ष ५ दी टीकासहित | # (४०५) ४ ४
जाम ।\५२।। उन्हे देखकर देवीने आनन्दसे अपना सारूप्य दे दिया एवम् उनसे सेवित हुई उसने .
वबरने योग्य वरभी आनन्दसे दे दिया ।\५३।। राजकन्याये छूटकर अपने घर चली आई, उसी दिने
| ` वे लोकसे पूजी जाने कगौ ओर सब कामनाओकी देनेवाखी हृं ।।५४।। वे चोसठ योगिनी महालक्ष्मी के `
। परिग्रहे तहां मानेबजानेके निनादोके साथ समृदायसे नांचती हे ॥। ५५१ करहाटयुरमे रातो
। प्रसिद्ध होगई इसके प्रभावको ब्रह्मा भौ कहनेकौ शविति नहीं रखता ।! ५७ ॥! भै इसके ब्रत्को `
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। महालक्ष्मजीके सामने; है षडानन ! विष्णुकी प्यारी लक्ष्मीदेवीका यह् प्रभाव है ।\५६।। सब भतोमे लक्ष्मी
। विधानके साथ कहता हूं आष सुने, भाद्रयदशुक्ला ज्येष्ठानक्षत्र सहिता अष्टमीके दिन ।\ ५८ नियम- `
` बि ॥ ६० । उसमे सोलह गांड ओर इतनौ ही खर हीनी चाहिये । पीछे रोज समाहित
। तीन भूमिकाएं हों एवं सुन्दर हो ।\ ६३ ॥ लक्ष्मीक चार सोने
। विषानसे उन्हूं स्नानकरावे \। ६४ ।\ सोलहों उपचार तथा धूपदीप आदिसे पुजन करे, गानेवजानेके साथ
। रातमें जागर करना चाहिये ।। ६५ ।। जब जआधौरातको चन्द्रमाका उदय होजाय तब स्थण्डिलवर
भौर पूत्रोको दे ।\७१।। हे कालि ! कालि! है महाकालि) है विकरालि
। बालौ को महालक्षमीके व्रतका प्रारम्भ करना चाहिये कि, है दवि ! मे तेरा भक्त तेरेमे परायण होकर `
, व्रत करूगा ।)५९।} आपकी छकृपासे बहनिविष्न समाप्त होजाय एसा कहकर दयि हाथमे डोला `
चित्त होकर `महालकष्मीकी पूजा करे ।\ ६१।। गंध पुष्य ओर नैवेद्यसे जबतक कृष्णाष्टमी न आये `
। तबतक रोज पुजाता रहे उसदिन तो ब्रतीको उद्यापन करना चाहिये ।॥ ६२ ॥ वस्रका एक `
छोटासा मण्डप बनाये उसे मात्म ओर आभरणोसे सुशोभित करे अनेकों दीपक जलाके इसमे `
नकौ प्रतिमा बनव पञवामतके `
(८. बनाकर षडड्धपूजन करना चाहिये 1६६१ एकाग्रचित्त होकर ब्रतोको अध्यं देना चाहिए कि,हैक्षीर-
समुद्रे उत्पन्न होनेवाले लक्ष्मोके भाई ! ।६७।। हे अमृतके घर ! रोहिणी सहित, अध्यं ग्रहण कर, इसके `
बाद पवित्र हो श्रीसुक्तसे आगमे कमर्लोका हवन करे ।६८॥ पायस ओर बित्व तथा इनके अभावमें घतको `
` हवन करे ! ग्रहोके ल्यि समिध चर ओर तिलकी आहुति दे ।६९। जानु (घट्) को भूमिपर टेककर `
मंत्रसे प्रार्थना करे कि, क्षीरसम्द्रसे उत्यन्न हुई कंमल्के आसनपर विराजमान होनेवाली कमके!
॥1७०। हे विष्णुभगवानके वक्षस्यलको स्थल करनेवाली ! मुके सव काम ३े तथा यज्ञ, सौर्य, सौभाग्य `
वेकरालि तेरे लि नमस्कारहै।! `
है तीनों लोकोकी जननी ! हे भक्तवत्सले ! है वरोके देनेवाली ¡ मेरी रक्षा कर ।७२।। हैषकही
सर्वोपरि मारकिनि ! हे जगत्कौ मालकिनी ! है जमदग्निकी प्यारी ! हे निष्पाप ! है रेणुके! हे देवि ! मेरी १ ६
(६) ्रतराजः = [ अष्टमी-
भारे ८४८) पौरे भख ओर प्याससे व्याकुल होकर एक पेडकी जडमं बेठगया ओर पानीको
खोजनेके लिये चारो ओर नौकर दौडा दिये ।\८५।। वे ठृढते २ थकणये पर कहीं भौ पानी नही |
मिला तब. सब दख होकर राजासे बोलते कि, महाराज, पानी नहीं मिका ।\८६।। तवल्लक भी
निरालस होकर उनमें घूमने रगा घूमते २ उसने किसी गह्वरमं देखा ।॥\८७।। कि, कमलोसे चैण्डिति = `
| एक सुन्दर दिव्य सरोघर है वहां उसने परमसुन्दरी मनोहारिणी देवकन्याएं देलौ ।८८।। उनके सब `
अंग सुन्दरं थे नयन भी परम रमणीय थे, उंचे उठे हृषु मोटे २ स्तनथे।वेसबहारक्कण केयूर
` ओर नूपुर पहिने हए थं ।८९।। से सब व्रतरूपसे आदरे साथ महालक्ष्मीका पूजनकर रहीथी
तंबल्ल्कने भी पुय कि, यहं वयाकर रही हो कहौ तो सही ।॥९०।। स्त्रियां बोलों कि, वहु सब `
कामनाओंका देनेवाला महालक्ष्मीका ब्रत है । हम यहां एकाप्रचित्तसे भक्िपूर्वक इस ब्रतको कररही
हैं \\९१॥ भक्तिमान तवल्लकने भी यह सुनकर उस ब्रतको ग्रहण कर लिया । पीछे उन देवकन्याओं- ` `
कौ आन्नासे दीघ्रही पानी लेकर ।९२।। चल्दिया, राजाको जल देदिया ओर हाथ जोडकर बैठ्गया।! `
राजाने पानी पीकर. उसके हाथमे डोरा बेधा देखा ।\९२।। तो पुछा कि, है विदन् ! यह हाथमे `
डोराक्याहै कोई त्रत करिया है ? तवल्लकने भौ. सब बाते कहदीं ।\९४।। राजाने उस व्रतको सुन- `
कर ्रहणकर ल्या ओर तनल्लकके साथ अपनी नगरीमं चला जाया ॥।९५।। घर जाकर एकान्तम
पद्मावतीके साथ रमण करने गया वो भी अपने प्यारे राजाके साथ रमण करने लगौ ॥९६॥ बो `
. कोपिनी यी ही हाथमं डोरा देखकर अत्यन्त नाराज हुई ओर बोली किस स्त्रीने तुमे ठग कल्या?
किसने आपके हाथमे डरा बांधदिया ।\९७।} रानीके इन वचनोको सुनकर राजा बोला किं ओर `
कुछ न कह यह महालक्ष्मी महारानोकां उत्तम ब्रत है ॥९८।। राजाके एसा कहनेपरभी उसने वो
डोरा हाथसे तोड़ मुस्सेमें भाकर, दगदगाती हुई आगमे फंक दिया ।९९। राजने हा हा ! मूर्ख॑तासे `
दूने बडाभारी पाप किया एेसा कहकर पीछे उसे उरा धमका वनके गह्वरमें छोड दिया ॥\१००। `
पापिनी रानीकौ ही हानि हृईः राजाकी हानि नहीं हई, महालक्ष्मीके अपचारे वो जलरहित अरण्ये
. प्ुचगईं ।\१०१।। वनम धूमते २ उसे कोई ठिकाना न. भिला विचरते हए उसने किसी ऋषिका
आश्रम देखा ।\१०२।। वो मृगोसे सकीणं हो रहा था तथा शन्तकृष्णमृगोते धिरा हुभा था \ उस
स्मणीकं चनम उसे वसिष्ठजीके दोन हए ॥\१०३।। रानी उनके चरणोमें पडकर दुखके मारे बेहोश
हगई मुनीरवरजीने बहुत समयतकं ध्यान करके. उसके दुखका कारण देख किया ।१०४।। विज्ञातकी `
` _ दुष्टिसे जान लिया कि, महालक्ष्मीके अपचारसे सब हुआ है पीछे उसके दखोको मिटानेके लिय उससे
महालक्ष्मीका व्रत कराया ।१०५। वो दुख क्षण मात्रमे विलागया फिर शिकार खेलनेके ल्यि राज्ञा `
. उसी वनम. चला जाया. ।१०६।। कहीं किसी म॒गमें एकतीर मार दिया था उसको खाकर मय.
| भेग जाया राजा उसके पौछे २ उसभूमिमे चला आया ।।१०७।। उसने निष्पाप मुनिवर वसिष्ठजीको `
थ
. रि हिन्दीीकासहित (४०७)
हृए चलने लगे फिर उसके साथ महालक्ष्मीका रत किया ।।११६।। अनेक तरहके भोगोको भोगा 1
अनेकों बेटे नाती हुए राजाचक्रवर्तौ हो गया ओर तवव्लक द्विज उनका प्रधान मंत्री बना ।११७।। `
प्रभावं है यह सब पापोके हरनेवाखी तथा सब दुखोको मिटानेवाली है ।११८।। पर इस श्रेष्ठ
। ब्रतको सोलह बरसतक करना चाहिये ।\११९।। जो इस व्रतको प्रेमपुवंक करेगा उसकी सिद्धियाँ,
। स्वयं ही उपासना करेगी लोकपाल भी प्रसन्न होकर इसके मनोरथोंको आप पुरा करेगे ।॥१२०।। ॥
। जो कोई स्त्री हो या पुरुष हो आनन्दसे सावधानीके साथ इस ब्रतको करेगा उसको ब्रह्मा विष्णु `
। महेश सेवेगे ओर उसके भ्रियको करेगे मनुष्य अपने शिरोरत्नोसे उसके चरणोको रंगेगे लक्ष्मी देवी `
ष्ण भगवान् के साथ उसके कृटुम्बमं सदावास करेगी 1) १२१।) ओर तो क्या चाहं भक्तिहोया
` नहोनजो इस श्रेष्ठ व्रतको करते ह अन्त समयमे विष्णु भगवान् उसको संसार सागरसे पार कर
कहो हई महालक्ष्मी ब्रतकी कथा पुरी हई ।। भविष्यपुराणकी कही हुदै लक्षमोव्रतकी कथा-युधिष्ठिर = `
बीरे किं अपने स्थानका लाभ, पत्र, आयु, सर्वेशवयं ओौर -सुखके देनेवाले किसी एक त्रतको, है
परुषोत्तम ! विचार कर किये ।\१।। श्ीड्ृष्ण बोरे कि, जब भजेय दत्योने इनद्रको नगरोपर पुणरूपसे
अधिकार कर लिया तब इन्द्र नारदजीसे बोखा ॥२।! कि, कोई इस समयका उपाय बतलाइयें ।
: नारद बोरे कि, हे इन्द्र ! पहिले एक परम सुन्दर नगर था ।\३१ उसको भूमि रत्नगर्भा थौ रल्नोसे
` भरे पर्वत थे जहांकी स्तरियोके अपाङ्धः भद्ध ओर नयनोके बाणोसे ।\४।\ पुष्पोके तीरोवार कामदेवनं
1 महालक्ष्मीकरि कृपासे सब संपत्तियां धरम रहती थौ इष्टोकी देनेवाली नारायणी लक्ष्मी देवीका एसा ह
देते ह 1१२२) जो एकाग्रवृ्तिसे इसे सुनाता या सुनाता है उसे कभी लक्ष्मी नहीं छोडती अलक्ष्मौ `
कमी नहीं आती वो सब पापोसे छूटकर स्वगेमें चला जाता है ।।२२२॥ यह श्री स्कन्द पराणकी `
तीनों लोकोको अपने व्च करलिया, वहां चारों वर्णोकी स्त्रियां विह्वका भूषण थीं ।\५।। विश्वकर्मा ` 1
` एक स्थली देखी ।८।। उसे देखतेही राजाका मुख कमल कामके समान लिख गया दतोंको चमक्से
दिकाजोको चमकाता हुआ चोल्देवीसे बोला ॥\९।। है चंचलनयनोवालो { तेरा बाग अपनी शोभसे
भ. इसे देखकर रातदिन शिरही हिल्मया करता था वहां एक मंगलका ही स्वयं स्थान मंगलनासका `
राजा हुभा था ।\६।। उसकौ एक चिल्लदेवी नामको दुर्भगा स्त्री थी इूसरीका नाम चोखदेवौ था बो, 8
अच्छी थौ ।\७।\ एक दिन मंगल राजा चोकलदेवीको साथ छेकर राजमहलके ऊपर चढगया उपरमे `
` सन्दनबनको भी सात करनेवात्ा बना दृशा, रानीने कहाँ कि कराये, फिर वहां बाग बनवा दिया `
१०।॥ बो बाग तयार होगयः \ अनेकों द्रुम ओर लतां लगाई गयीं । अनेकों फलवृक्ष लगाये गये |
जिसको बहारपर अनेकों पक्षिगण उसे घेरेही रहते थे ।११। एकबिन उस बागमें एक बडा भारी = |
सुकर चलां आया । वो इतना बडा था किं मानो श्षरीरते आकाक्ञको. फक रहा हो बरसातके मेधसा ` 1 |
भ था चंचल आंखें फार रली थीं ।।१२। जब वो मह फाडता था तो एेसा मालूम होता था र
पर के कीलोसे । सूरजको धोक ग गजना के बराबरतौवो ` ८
(न अ 1
है मे उसी मार्गमे अयने हायसे इसका वैरीकौ तरह क्षर का्टगा \ सुकर राजाके इन वच्नोको `
न सुनकर ।।२१।। जेसी प्राणि्योकी चेष्टा होती है उसी तरह उसी रास्ते निकला ! राजा चादक्से 1
धोडेको ताडना देकर सूकरके मारनेमें आसक्त हौ ।।२२।। हा सुकर मुक्षसे निकला जाता है इस
छ खज्जासे मुखचन्द्र कुछ कलंकित होगया है जिस्तका एसा आप उ्तके पीछे हौ ल्या ओरषएकरसे |
बनमे पवा जो कि परम भयानक था तथा शेर बवर शओेरोसे भरा पडा था ।\२३।\ जिसमें तमाल
ताल हिन्ताल, श्राल, अर्जुन भौर अनेक तरहकौ रतां थौ, क्िल्ल्योंकौ क्ंकारके संभाल्ते दला
गंज रही थीं ।२४।। उभे एकाग्र चित्तसे सुकरको खोजते हुआ घूमने लगा सुकर मौका देकर `
राजाके सामने आगया ।।२५। उसने भारते उस सुकरको एसे मारा जेते इन्द्र॒ वचसे पर्वत विदीणं `
करे। मरते ही कामदेवके समान सुन्दर ही विमानपर चढ दिव्य आकाशम परहुचा ।२६।। क्योकि
भ्ुकरका शरीर छोडते ही उसका दिव्य देह होगया था 1 फिर मंगल राजासे बोला कि, हि राजन्!
आपका कल्याण हौ आपनं मेरी मुक्ति करदी ॥२७।। मेरे वृत्तान्तको सुनिये जिससे मंषेसादहो
` गया था, एकबार ब्रह्माजी देवताओके बौचमें बेठे हृए भे ।\२८।। भिलरही हँ पुर जिनकी एेसी `
ताले तथा षड्ज आदिक सतो स्वरोसे, मंद्र॒ आदिक तीनों मानोसे हे राजन् ! मेगारहाथा
॥२९।। ब्रह्माजी अनेक स्थानोके गुणोसे युक्त उस उत्तम गौतको सुनने ल्गे गाता रमे पीछेकुछ
चृकगया ।३०।। इसीसे मृश्च चित्ररथको सृष्टिकर्ता ब्रह्माजीने शाप दे दिया कि तु भूमण्डल परं सुकर `
होना! तवर तु इस योनिसे छटेगा जब कि ।।२१।। चक्रवर्तौ मंगल. महीपति तुक्षे अपने हासे मारेगा
है राजन्! बो सब अब आपकी कृषासे पूरा होगया ।1३२।। हे नृपते ! जो देवताओंको भी दुलभ `
है उस्र बरको ग्रहुणकर। देख ! महालक्ष्मी जीका ब्रत है यह अथं घमं काम ओर मोक्ष चारों `
पदार्थोका देनेवाला है ।\३३।। आप चक्रवर्ती राज्यको के अपने स्थानपर शीघ्र ही चले जाये, नारदी `
बोरे कि चित्ररथ गन्धर्वं राजासे एेसा कहकर ।।२३४।। प्रसत्त होता हुआ अन्तर्धान होगया जैसे |
शरद्कऋतुमें मेघ बिला जाते हं ।! इसके बाद मंगलराजाने पास आये हए ब्राह्मण ।\३५।। ब्रह्मचारीको
जिसने कि बगस्मं दोसा लगा रखा था देवा ! चुन्दरस्मितवाला राजा मन्दस्मित करता हभ मीठा
। : वचन बोला ।३६। कि हे बटुक ! आप देव दानव वा रक्षस इनमेसे कौन है यहां किंस लिये
` आयं हु ।\२७\ यहु सुन राजाको जाशर्वादि दे ब्राह्मण बोला कि मं तो आपके ही साय यहां अधयाथा मेरे
` ` लियेजो काम हो कहिये\\३८।। राजा बोला किह बटो । आपका नूतन नाम है पहिले बोडेके पलानको `
खोलकर शोध्रही पानी ले आजो ।।३९।। बटुक वृक्षकी जडमे राजाको बिटाकर विना पलाडके घोडे `
पर सवार हो ।\४०।। पक्षिर्योकौ आवाजके सहारे उस जगह पर्हुच गया जहां कि सुन्दर तालाव `
` कमलके निवाससे रथाद्धके आभरणसे वमनालाओके आलयपनेे नारायणकी शोभा
| व्रतानि] | हिन्दीटीकासहित ^ 3 (०९):
सोलह करका एवं सोलह गांठोका संसिद्ध डोरा बधना चाहिये} मालती पुष्पं कपुर चन्दनं ओर
अगुर्से पूजना चाहिये \\५०।\५१।। ओम् लक्ष्म्ये नमः-लक्ष्मीके लिये नसस्कार है इस मंत्रे गाठेको
अभिमत्त करे ओर कहे कि, धनः धान्य, धरा, धेः कीति, जु यशः श्री घोडा हाथी ` |
। अक्षत ४ लेकर एकचित्त हो कथा सुने ओर डोराको पूजे ॥\५४।। इसके बाद जवबतक कृष्णाष्टमी आये
| रेज प्रातःकाल हाथ ओर पावोका प्रक्षालन करे ओर कथा ।५५। भौ हे विप्र! सोलह दर्बाक्गाण्ड
। ओर अक्षतोके साथ रोज सुने, कृष्णाष्टमके दिनं रातके समय जितेन्द्रिय हो ॥\५६।। स्नानकर |
` कणिकासं कुरी कीचसे सफेद हुई इवेत वस्त्रोको पहिने हई सुक्तामणिधोके जभरगोते विभूषित
` ॥५९।। कमलके आसनपर विराजमान अत्यन्त सुन्दर मृखकमल्वाली शरदं कालके चदधमके समानत
कान्तिवाली स्निग् नेत्रवाली एवं चारभुजावाली ।\६०।} कमल लि हए अमथके देनेबाली भक्तोपर
इतनी दयालु हो रही है कि करकमल भक्तोको वर देनेमे ही व्यग्रहै एसी एवं दोनो ओर दो
हाथी सूंडमें पानो भरकर अभिषेक कर रहं हं ।\६१।। एेसी महालक्ष्मीका इस प्रकार ध्यान करके
हे महालक्ष्मि ! पद्मनाभके स्थानसे यहां पधारिथे । है देवि । आपके किए पञ्चोवचारकी पुजा ` |
` तयार कौ है ।\६३\। सोलह वषं पूरे हौ जनेषर उदायन करे, है विपरदर। शरद्धाके साथ इस विधिसे
इ ।१६५॥॥ ` शवितके अनुसार सोना देनेसे त्रत परा हो जाता है । सोलह द्विजो को बसनादिकं दे
१. सुन, जिसे तीनों लोकोमं माया, प्रकृति आर शक्ति कहते हं ।४८।। उप्त महाचकष्मीका सब का = `
नाकौ पुरि करनेवाला यह ब्रत है। है बटो! हम कहतीं ह आय इसको विधि सुनें ।४९।।
भाद्रपद श्शक्ला अष्टमौको इसका प्रारंभ होता है । प्रातःकाल, सोलहवार हाथ पैर ओर मुख धोकर
भौर पूत्रोको, है महालक्ष्मि! समुक्षे दे इस सत्रसे दयि हाथमे "डोरा बभे ॥५२।। घोडा हाथी मौर
` पत्रोको, हे महालधिमि ! म् भने दे इस मन्त्रसे दाये हाथमे डोरा बांधे ।\५२।) दूवकि सोल्हकाण्ड ओर `
इवेतवसत्र पहिन परूनाके घरमे जाय । उसमे पूर्वक ओर मुल करफे वै ।।५७।॥ उवेतव्त्रर अष्टदल `
कमलं लिखे, पूर्वादि आठ दिश्जोमं उसके केशर सहित दलोमें शप्तियोको स्थापना करे ॥५८।।
देवीको कुर अगद ौर चन्दनसे लिखे ! पीछे सुत्रतीको चाहिये किं इस मंत्रसेवाहन करे ॥६२।। ॥
उद्याषन करे ।\६४।। सोनेके सीगोके साथ एक धेनू ्रोतनियके लिये देनी चाहिये तथा अन्नव्तर भौ
1६६।! साथं बोला कि, हे विप्र! हमने वु्हे इस व्रतको बता दिया है इसको विधिकरे साथ 4
करनेसे अनायासही वांछित फल मिल जाता है ।६७।\ है बिभ्र! इस भष्ठ तो अवक
राजते कराना ओर भी को$ श्नदधालू जन हो उसे भीः इस व्रतफो कह देना ॥६८। पर नास्तिकोके `
सामने कभी भूलकरभी न कहना पीछे. बटुक उस सार्थको प्राणामकर कोचसे घोडको उठा ॥६९।॥ =
पत्रमे तालाजसे पानी क घोडेपर सवार हौ राजके पास चला जया ।७०। ब्राह्मणनं उस 4
-राया इस ब्रतका प्रभावसे बद्कके बहुतसा। टोसा हो गया ॥१७१।। रजा व्रते |
होगया, बट्कके लाये हए घोडेयर चढकर ।\७२।। उस ब्तके भ्रभावसे १ 0
= [अष्टमी-
` चहं ये गये थे ।१८०॥॥ अने सोभाग्यके लिए उसने आपके हाय मे यह डोरा बांध दिया इसीतरह `
यह वदकभी मुञ्चे देखनेके लिए भेजा है ।\८१।। इसके पीठे बुरे दिनोके कारण श्रष्टमनवालौ चोल- `
देवीने ऋोधसे उस डोराको अपने सौभाग्यके सुखके साथ भूमिवर तोडकर गेर दिया ।८२\ डोरा
तोडतीवार राजाको षताभौ न चला क्योकि, वे सामन्त ओर मंत्रियोके साथ वनकी बातोमे सगे हुए
। 1 - भे ।\८३।\ कोई दूरी वित्ल्देवी नमकौ देखनेको चली आई उस दुरे डोरेको हाथमे उठाकर बदुते
` उस व्रतको 11८४ ओर उसके विधानको पुछकर व्रतग्रहण किया ! उस बदुने यह् सब अपनी स्वमि-
नीको सुना दिया। उक्ष चिह्लदेवीने नूतनको बुखाकर वह ब्रत किया ॥८५। हे नृप ! एक सल
बीतजानेपर लक्ष्मीकौ युजाे दिन चिल्ल्देवके घर गने बजने मौर नचनेकी आवाज अने खी
॥८६।। इसे सुनकर राजा नूतन दह्िजसे युछने लगे कि, अहा हा मुञ्च ब्रतीका लक्ष्मीका डोरा कहां
` | है 1८७11 राजक्ते पुनेर न् तनने डोरेके टूटनेका सब हाल सिलसिरेवार कह दिया, यह् सुन चोल- `
` देवीपर बडा नाराज हृं ॥८८।। अब में चिल्लदेवौके घर जकर पूजन कल्णा, एसा कह मद्धल- = `
राजा बदुककी बाह पकडकर ।१८९।। कमलके पूजनके लिए चिट्लदेवीके घरको चला ।९०॥ इसौ
` बीचमे महालक्ष्मी बुद्ढी बनकर जाननेके लिए उस चोरदेवीके घर चलो आयी ।९१।१ तब चोल्देवी
बोली कि, दृष्टे! यहांसे अभी चली जा चली जा, यहां जकरतु मेरा क्या करतीदहै। उक्ष |
1. | दुरा्चाने इस प्रकार लक्ष्मीकाभी अत्यन्त अपमान किष ।\९२।। पिर मंहालक्ष्मीने भी करोयपे चोल- । |
` देवीको ज्ञाप दिया कि, है दृष्टे! तु सुकरके मुलवाली हो निस मुलते कि, तूने मेरा अपमान किया
र है १९२) चोल्देवी लक्षमोके शपमे सुकरमृखी हो गई जहां वो एसी हुई वो मंगलपुर कोलापुरके `
४ तामसे प्रसिद्ध हो गया ।\९४।। इसके बाद चिल्ल्देवीङके धर लक्ष्मी मां आयी उसने उसका अत्यन्त ।
. पूजासे लक्ष्मी जोका पूजन किया 11९६।। उक्ते लक्षमीजौ परम प्रसन्न होकर बोली कि, हे चिललदेवी
| चरको कभी मत छोडिणेणा अजे ठेकर राजा ओर अपकरो कथा ।\९९)। भूमिपर प्रसिद्ध होजाय
. मेरी आपमें भविति हो! इस कथाको सद्धावसे जो कहूं या सुने ।॥१००। उनके वांछित कामको
ह ‹ . 1 ।।१०१।} मगलराजाने -वहां जकर लक्ष्मीका पूजनं चिल्लदेवीके सथ परम भवितत किथा ।*१०२।१.
` | इष्टा चोखदेवी ईष्याके मारे चिल्ल्देवीके घर जाने ख्गी । पर द्वारके पहुरेदरोने उमे 0 नही
सम्मान किया ।९५।। उस समथ वो वुदधाङे रूयको छोडकर प्रत्यक्ष हो गयी, रानीने पंचोव्चार `
मे तेरी पूजासे प्रसन्न हंतु वर मांग \1९७)। पवित्र हदयवाली चिर्लदेवीने लक्ष्मीजी से वर सांगा
` कि, हिदेवि! हे सुरेद्वरी! जो अपका तरत करगे ।\९८।। जबतक चाद ओर सुरज रर्हुमे उनके
| आप सदाही पूरा करना, महालक्ष्मी एवमस्तु एेसही हो, यहु कहकर वहां हौ अन्तर्षान हो गई |
व्रतानि] क हिन्दीटीकासहित ॥
| फल मिल जाता है । जैसे तीर्थम प्रयाग ओर देवतामोमें आय ।\११५।। नदि्थोमं गंगा है इसौ तरह _
| ` ब्रतोमें यह महालक्ष्मीका त्रत है जो आप धमं, अर्थं, काम जौर मोक्षको चाहते हों ।\११६। तो हे.
| शक्र! इस व्रतको श्वद्धाके साथ करः इस तरतके कियेसे धन, धान्य, धरा, धम, कोति, आयु, यच,
| श्री,-घोडा, हाथी ओर पुत्रोको महालक्ष्मीजी देती हं \\ ११७।। भगवान् श्रीङृष्ण बोले कि, नारदजीके
उपदेकषसे इनद्रने जिसने इस ब्रतको किया उसे इरे प्रभावसे सब मनोरथ मिरूगये । है धर्मराज !
अप भौ इस ब्रतको करं जिससे आपके भी सब मनोकाम पुरे जये ओर पुत्र पौत्रोकौ वृद्िहये `
स ५ ।\११८।। यह् श्रीभविष्यपुराणकौ कही हुई महालक्ष्मीके व्रतकौ कथा पुरी हई । ०
म अथ महाष्टमी 1
आश्विनशुक्लाष्टमी ।। महाष्टमी ।। तत्राष्टम्यां भद्रकाली दक्नयज्ञवि- `
नाक्षिनी ।! प्रादुभूता महाघोरा योगिनौकोटिमिवृतः ।\ इयं च सप्तमौविद्ध
` दारधनेहीना स्नमन्तीह् पिशाचवत् ।। शरज्जन्माष्टमी पुज्या नवमीसंयुता सदा ।॥
सप्तमीसंयुता नित्यं शोकसन्तापकारिणी ।॥ जम्भेन सप्तमीयुक्ला पूजिता च
महाष्टमी ।॥ इन्द्रेण निहतो जम्भस्तस्यां दानवपुद्धवः ।\ तस्मात्सवंप्रयत्नेन `
सप्तमीसहिताष्टमी ।। वजेनीया च सततं मनुष्यः शुभकांक्षिभिः ।। सप्तमी `
। ` शक्र 1. यह हमने ब्रतोका उत्तम व्रत सुना दिया है ।।११४।। इस त्रतकौ कथा सुननेसे भौ वाच्छित-
कार्या ।। तदक्तदेवी पुराणे-सप्तमीवेधसंयुक्ता येः कृता तु महाष्टमी ॥। पूत्र- `
कलया यत्र परतश््चाष्टमी तथा । तेन शत्यमिदं प्रोक्तं पत्रपौतरक्षयप्रदम् ।। पुत्रा- `
न्हन्ति पञचन्हन्ति राष्ट हन्ति सराजकम् । हन्ति जानयपंदांश्चापि सप्तमीसहिता-
ष्टमी ।। शुक्लपक्षेऽष्टमी चेव शुक्लपक्षे चतुदेदो ।। पुवविद्धा तन कतंव्या कतव्या
परसंयुता । अत्र च्रिमुहुतेन्यूनापि सप्तमी बजंनम्रयोजिका न तु च्रिमुहुतव-
ष्टम्यां पुत्रवान्न समाचरेत् । सप्तशत्यास्तु पाठेन
नेवालो परम भयंकर भद्रकाली पकट हुई थौ ! इसको सप्तमी विद्धा न `
जिन्होने सप्तमीविद्धा महाअष्टमीकी है .
सप्तमीस्वत्पसंयुक्ता वजंनोया सदाष्टमी ।। स्तोकापि सा तिथिः: पण्या यस्यां
सूरधदियो भवेत् । नवमीयुक्ताया अलाभे तु सप्तमौयुतेव कार्या ॥। उपवासं महा- = `
तोषयेज्जगदम्बिकाम् ।॥ `
आदिविन शुक्ला अष्टमीको, कहते है--इसौ अष्टमौके दिनि कोटि योगिनियोके साथ `
बिमृहूर्ताही वर्जी गई हो, सप्तमीसे थोडी संयुक्त अष्टमी भीहोतो उसे भौ छोड दे चाहं थोडी ५
भीहो पर सूर्योदय उसमे हो तो वो तिथि परम पुण्य जालिनी है । यदि नवमौ युक्तानं भिलेतो `
` सप्तमीय् क्ताहौ करे । पुच्रवान्को चाहिये कि, महाण्टमीके दिन उपवास न करे पर सप्तशतीके पाठ्से |
५ जगदम्बिकाको प्रसन्न करदे ।। | ५ ४४
अश्लोकाष्टमीव्रतम् ।। अथ आिवनकृष्णोष्टम्यामशशोकाष्टमीत्रतम् । हेमाद्रावादि
त्यपुराणे अष्टमीषु च सर्वासु पुजनीया ह्य्ौकिका ।। गन्धमाल्यनमस्कार- `
धूपष्दीयव्च स्वंदा ।। तस्मिन्नहनि या भुडक्ते नक्तमिन्दुविर्वाजते ।। भवत्यथ `
विश्लोका सा यत्न यत्राभिजायते ।। अष्टमीषु च सर्वाचु न चेच्छक्नोति वे म॒ने\\
प्रोषटपद्यामतीतायां भवेत्कृष्णाष्टमी तु या ।। तत्र कार्यम् व्रतं त्वेतत्सवे काम-
फलप्रदम् ।। इत्यश्ञोकाष्टसी ।। । 0
४ अङोकाष्टमीव्रत-आदिवनकृष्णाष्टमीके दिन होता है । हेमाद्रिमं आदित्य पुराणसे लिखा कि, 1
सब अष्टमियोमे ` अशोकिकाका सदा गंधमाल्य नमस्कार धूप ओर दीपोसे पूजन करे \ जोस्त्री इस `
दिन चनद्रमाके विना कौ रातमे भोजन करती है वो जहां जहां पवा होती है वहां वहां विश्लोका `
` होतीहै। हैमने! जो. सब अष्टमियोमें ब्रत न कर सके तो उसे चाहिये कि, भाद्रपदके वीत जानेपर `
, जो कष्णाअष्टमी अये उसम सब कामनाओके देनेवारे इस ब्रतको करे ! यह अल्लोकाष्टमीक्े व्रतका `
विधान पुरा हुमा \\ 4 | क ४ |
कालभैरवाष्टमौ ।॥। अथ मा्गशीरषकृष्णाष्टमी कालभेरवाष्टमी ।। सा च
रात्रिव्यापिनी ग्राह्या \ मागेशीर्षासिताष्टम्यां कालभेरवसन्निधौ ।। उपोष्य
जागरं कूवेन्सवेपापः प्रमुच्यते ।! इति काशो खण्डाद्रात्रित्रतत्वावगतेः ।। रुद्रब्रतेषु
५ ५ सर्वेषु कर्तव्या सम्मखी तिथिः । इति ब्रह्यवेवर्ताच्च 1! दिनद्रयेऽदातो राचरिव्याप्ता-
रवानि] ` `. दिन्दीरीकासहित ५; (४१३)
नपोत्तमाः \। ऋषयो मुनयः सिद्धगन्धर्वाणां च कन्यका : !\ ५ 1 कृत्वाः वे परमां
` सिद्ध प्राप्ताश्च मुनिपुङ्कवाः ।। नन्दौष्वेरण यत्प्रोक्तं नारदाय महात्मने ।\ ६ ।\
कृष्णाष्टमीव्रतं श्रेष्ठं सर्वकामफलप्रदम् ।। मेरोयहक्षिणं युद्धः सुरासुरनमस्कृतम्
॥ ७ ॥ तत्र नन्दीदवरं दृष्ट्वा सवेज्ञं शम्भुवर्लमम् । उपास्यमानं मुनिभिः `
` स्तयमानं मरुद्गणैः ।\ ८ ।। सर्वानुग्रहकार्तारं स्तुत्वा तु विविषंः स्तवः ।। अन्र-
वीत्प्रणिपत्याथ दण्डवन्नारदो मुनिः \\ ९ ।। नारद उवाच ।\ भगवन् सवतत्त्वज्ञ
स्वेषामभयश्रद ।1 केन व्रतेन भगवंस्तपोवृद्धिः प्रजायते ॥१०। सौभाग्यं कान्ति
रेदव्थमपत्यं च यशस्तथा 1) शाहवती मुक्तिरन्ते च कमेपाश्विमोचनी ।। ११ ।।
भगवंस्तद्त्रतं बरूहि कारण्याच्छडकरभ्रिय ।। नन्दिकेश्वर उवाच ॥ कृष्णाष्टमीतरतं
नारद तच्छणु ।\ १२ 11 गणेडात्वं मया कब्धं येन पुण्येन भो मुने 1\
भासि मागशिरे प्रप्ते कृष्णाष्टम्यां जितेन्ियः ।। १३।। अश्वत्थस्य च काष्ठेन
पराप्नोति श्रद्धयान्वितः ।। १७ ।। माघे वटस्य काष्ठं च गोक्षीरप्राहानं स्मृतम् ।\
श्वरं सुसंपूज्य गोमेधाष्टगुणं फलम् ।\ १८ 1 फाल्गुने दन्तकाष्ठं स्तत्सपिषः
फलम् ।। १९ ।। काष्ठमौदु-
` भ्बरं चेतरे प्रादाने भजता यवाः \। पुजयेच्छम्भुनामानमहवमेधफलं लभेत् ।। २०।।
शिवं सम्पूज्य वैशाखे पीत्वा चव कुशोदकम् ।! नरमधाष्टकं पुण्य प्राप्नोत्येव `
हि नारद ।\२१।। ज्येष्ठे प्लाक्षं भवेत्काष्ठ सम्पुज्य पदार्पात विभुम् ।। गवां श्णृद्धो-
दकं प्राहय स्वपेेवस्य स्निधौ ।\२२।। गवां कोटिग्रदानस्य त
चोग्रनामानमिष्टवा संप्राश्य गोमयम् ।! २३ ।! सोौत्रामणेस्तु यज्ञस्य
(४१४) भ क ब्रतराज॒ [ अष्टमी
॥ ३० ॥। सुवर्णप्रतिमां तत्र वृषभं रजतस्य च ।। कलहो पूजयित्वा च रात्रौ जागर- `
माचरेत् ।। ३१ ।! प्रभाते च पुनः पुज्य अग्निस्थापनमाचरेत् \\ हुनेदष्टशतं चव
तिलदरव्यं धतप्लतम् ।\३२।। उयम्बकेण च मन्त्रेण गौर्यङचिव पृथक्पृथक् ।। वर्षन्ते
भोजयेदविप्ाच्छिवभवितसमन्वितान् ।\ ३३ ।! पायसं घृतसंयुक्तं मधुना च परि- `
प्तम् 1। शक्त्या हिरण्यवासांसि भक्त्या तेभ्यो निवेदयेत् ।\ ३४ ।! देवाय चापि
` दध्यं वितानं ध्वजचामरम् ।। कृष्णां पयस्विनीं गां च सघण्टां वाससा युताम् `
॥ ३५ ।। सरल्नदोहकलक्षीमलंक्ृत्य च नारद ।\ जलडकारं च वस्त्रं च दक्षिणां
च स्वश्षविततः ।। ३६ ।! भक्त्या प्रणम्य विधिवदाचार्याय निवेदयेत् ।। करोत्येवं `
व्रतं पुण्यं वषेमेकं निरन्तरम् ।। ३७ ।। महापातकनिमुक्तः सर्वेदवयंसमन्वितः ।॥ `
कल्पकोटिशतं साग्रं शिवलोकं महीयते ।। ३८ ।! कृष्णाष्टमी व्रतं सम्यण्देवष
, कथितं मया ।। यदुक्तं देवदेवेन देव्ये विदवसुजा पुरा ।। ३९ ।। सूत उवाच ।। एवं ।
नन्दीश्वराच्छ त्वा नारदो मुनिपुङ्कवः। । कृष्णाष्टमीव्रतं पुण्यं ययौ बदरिकाश्रमम् `
।॥ ४० ॥। व्रतस्यास्य प्रभावं यः पठद्रा श्यणयादपि ।। स याति परमं स्थानं यत्र॒
देवो महेक्वरः ।। ४१।। इति श्रौ आदित्यपुराणे कृष्णाष्टमी ब्रतं नाम एकादन्ञो-
ऽध्यायः ।\ इत्यष्टमीव्रतानि ।' | ~
कालभेरवाष्टमो-मा्मशीषं कृष्णा अष्टमीको कहते हं} इसे रात्रिव्यापिनी कनी चाहिये ¦
. भागंशीषे कृष्णाष्टमीमें काल भेरवके समोप उपवास करके जागरण करता हुजा सब पापोसे छट
`. जाता है, इस कान्लीखण्डके वाक्यसे प्रतत होता है कि, यह् रात्रिव्रत है! ब्रह्मवेवतमें लिखा हुभादहै
सभी रुद्रब्रतोमे संम्खी तिथि करनौ चाहिये \ यदि दो दिन अशसे रात्रिम व्याप्ति हौ तौ उत्तरा
ब्रहम करनी चाहिये, क्योकि भैरवकी उत्पत्ति प्रदोषके समयमे हुई थौ एेसा कोई कहतेह पर `
८ ( “ब्रह्मान जब रद्रका अनादरं किया" यह् कहा है उस समय निष्पाप उग्ररूप शिवजीसे
डरते हए श्रीकालभैरव प्रकट हए । याही काञ्लौखण्डमे कालभैरवकौ पूजाम कही
व्रतानि ] इहिन्दीरीकासहित
: 1
ककम भ
पूजा करके
ष्टमीका व्रत कहा था मेरुके दाहिने श्ुंगार जिसे सुर ओर अपुर दोनो नमस्कार करते हें \\७।। त 0
निसे किवी अत्यन्त प्यारा मानते हँ जिसकी मुनिलोग उपासना कर रहे है जो सथन है जिसकी `
` मरुद्गण स्तुति कर रहे हं \} ८ ।। जो सजपर कृपा करनेवाला है एसे नम्विकेडवरजीको स्तुति पूवक
दण्डवत् प्रणाम करके नारद भनि बोरे ।\९।। भगवन् । आष सवके तत्त्वको जानते हो अभयक्षे .
| ताहो \ हे भगवन् † निस व्रतकं करनेसे तपकी वृद्धि हो ।\१०।) निस्ते सौभाग्य, कान्ति, एेदव्थं,
अपत्य यज्ञः ओौर अन्तमं सब कमंबन्धनोके नष्ट करनेवाली मुक्ति मिल्जाय 1११ हे शंकरे `
| प्यारे ! कृपाकरके उस त्रतको किये नन्विकेङवर बोल कि, हे नारद } एसा कष्णाष्टमीका श्रेष्ठ ` ५.
| | व्रत है उसे सुन । हे मुने ? उसीके पुष्यसे मुन्ञे गणेज्षपना मिला है 1\१२।\ मार्गश्षीषं मासकी कृष्णा. `
| ` ष्टमीको जितेन्द्रिय होकर ।\१३।। अदवत्थके काटसे दन्त धावन करके है नारद ! विधिपू्ेक स्वान॒ `
| भौर तर्पण करके \१४।। घर आकर शंकर प्रभुका पुजन करे । गोमूत्रका विधिूर्वक प्रान करके `
| रातको उपवास रखे । ।१५।। इससे अति रात्र यन्ञका अल्गुना फल मिलता है, पोषम घीका प्रशन
| मौर अदवत्थके काठकी दातुन कही है ।।१६।) शंभनामक भगवान् महैवरकी पुजा करे श्रद्धावालेको
। बानपेय यन्ञका आठगूना फल मिक्ता है ।\१७। माघमे गोक्षीरका प्राशन ओर वटके काठकी दावन
कही है। इसमे महैश्वरकी पुजा करके गोमेधका अटगुना फल मिलता है ।१८।। काल्गुनभें वर्के .
काठक दांतुन तथा सिका प्राशन लिखा है इसमे महदेवकी पूजा करके आठ राजसूयो का फल `
भिलजाता है ।॥१९।। चेत्रमें उदुम्बरके काष्ठकी दातुन तथा भुजे हुए जौओका प्रादन लिला है इसमें
` शंभुनामा शिवका पूजनं करके अदवमेधका एल पाता है ॥(२०।। वैश्ञालमे शिवको पुज कुर्ते पानीको `
पी, हे नारद आठ नरमेधके पुण्यको पाता है \\२१।। ज्येष्ठमे पिलखनके काठकी तथा विनुपञुपतिकौ `
पूजा करके गोभ्पुगोदक परिमाण सात्र पानी का प्राहान करके देवकेही समीप सोजाय ।२२। कोरि
ग देनेका जो पुण्य है बो उसे मिलता है ! आषाठमं उग्रनामक शिवका पुजन आर मोभयका प्रान ,
करे ॥२३।। वो सौत्रामणी यज्ञके सौग्ने फलको पाजाता है! है नारद ! श्रावणमं पलादाके काष्ठ `
` दातुन ओर शर्वका पुजन करता है ।1२४।। एवम् आकके पत्तोका प्रारन करता है । बह एक कल्प
क्िवपुरमें रहता है \ भाद्रपदमें अष्टमीके दिन व्यक भगवान्की पूजा करे \\२५।॥ बिल्वपत्रका =
प्रादन करे उसे सब दीक्नाओंका फल मिलता है! आश्विनमे जब वृक्षके काष्ठको दातुन कही है
॥२६। भवितपू्वेक ईश्वरी पुजा कर चावलोका पानी पीये पौडरीक यज्ञके आव्गृने फल्को पाता है
२७।॥ कातिक मासमे अष्टमीके दिन ईान नामके श्िवकौ पुजा करनौ चाहिये । एकवार पञ्चगव्य- = = `
पीकर अग्निष्टोमके फलको पाता है ।२८।॥ एकं वषके बाद भक्तिसे साथ उच्यापत करना . |
लिगतोभद्र मण्डल बनाकर सब देवताओका पुजन करना चाहिये ।२९।। वहां पचरंगा सुन्दर ।
ये \ आचार्य्यंका वरण करे रुद्र॒ सहितं गौरीकौ ।\३०\\ सोनेकौ मूरति बनावे \ 1
(1
८
|
॥।
देवीके लिये कहाया 11 ३९॥। सुतजी बोरे कि; इस प्रकार मुनिषुद्धव नारद नन्दीरवरके मुलसे `
कृष्णाष्टमौके पवित्र ्नतको सुनकर बदरिकाश्रम चले गये ॥\४०।। जो इस ब्रतके प्रभाव को कहता
था सुनता है वह उसं लोकषको चला जाता है जहां. शिवजी विराजते हं \४१॥ यह्भ्रौ
पुराण ॐ कृष्णाष्टमी व्रेतका ग्यारहवां अध्याय पुरा हुमा ॥! इसके साथ अष्टसौके त्रत भौ पुरे हृए ॥
अथ नवमीव्रतानि लिख्यन्ते
४ रामनवमीत्रतम् (|
चैरशुक्छनवम्यां रामनवमीव्रतम् ।! इदं च परविद्धायां मध्याह्लव्यापिन्यां `
` कार्यम् ।। तदुक्तमगस्त्यसंहितायाम् --चैत्रलुक्ला तु नवमी पुनवंसुयुता यदि । `
` सेव मध्याह्वयोगेन महापुण्यतमा भवेत् ।\ दिनद्रये ऋश्नयोगे मध्याह्वव्याप्तावे-
` कदेशव्याप्तौ वा पराऽन्यथा पूर्वा ।। ततुक्तं तत्रेव--नवमी चाष्टमीविद्धा त्याज्या
विष्णपरायणेः ।। उपोषणं नवम्यां वे दङ्रम्यां पारणं भवेत् \। तत्रव--चत्रमासे
नवभ्यां तु जातो रामः स्वयं हरिः ॥ पुनवेस्वृक्षसंयुक्ता सा तिथिः सवेकामदा ।॥ `
श्रीरामनवमी प्रोक्ता कोटिसुयंग्रहाधिका ।\ केवलापि सदोपोष्या नवमीशञब्द-
` सङ्ग्रहात् । तस्मात्सर्वात्मना सवः कायं वं नवमीव्रतम् ।\ तत्रेव~चत्रै
नवम्यां प्राकपक्षे दिवा पुण्ये पुनवंसौ ।। उदये गुरुगौरांशे स्वोच्चस्थे ग्रहपञ्चके ।! `
मेषं भूषणि संप्राप्ते लग्ने ककक॑टकाह्लये \\ आविरासीत्स कल्या कौसल्यायां पर
पुमान् ।। प्राक्पक्षे शुक्लपक्षे ।\ उदये लगने ।\ गुरुगो राशे गुरनवमांशे ।। अस्या-
हिन्दीटीकासहित
सर्वतोभद्र कलकप्रतिष्ठाविधिना पूर्णकुम्भं निधाय तदुपरि सौवर्णं राजतं वेणवं `
वा पीठं वस्त्राच्छः निधाय तन्न सिंहासने रामप्रतिमामण्न्य॒त्तारणयप्वेकं संस्थाप्य
` पादप्रभतिुष्पान्तोपचारेमंहापुजां कृत्वा ।। रामस्य जननी चासि रामात्मकमिदं
जगत् । अतस्त्वां पुजयिष्यामि लोकमातर्नमोस्तु ते ।। इति मन्त्रेण कौसल्या
मम्यच्यं ओं नमो द्शरयायेतति दशरथं सम्पूज्यावरणपुजाप्रभतिपजां समाप्य `
मध्याह्नं फलपुष्पाम्बुपुणेमशोककुसुभरत्नतुलसो्लसंयुतं शङ्कुः गृहीत्वा-दशान- `
| ( नवघार्थाय धमसस्थापनाय च ।। दानवानां विनाश्य दत्यानां निधनाय च ५ #
स्वणमयीं समघ्रतिभां समलड्कृतास् ।। चित्रवस्त्रयुगच्छ्नां रामोऽहं राघवात्मनं ।\
श्रीरामप्रीतये दास्ये तुष्टो भवतु राघवः \\ इति मन्त्रेण दात् । ततोऽन्येभ्योपि
यथाशक्ति दक्षिणां दत्वा-तत्रं प्रसादं स्वीकृत्य क्रियते पारणं मया ।! व्रतेनानेन
इति सन्मलीकरणम् ।। राजाधिराज राजेन्द्र रामचन्द्र महीपते ।\ रत्नसिंहासनं
तुभ्यं दास्यामि स्वकर प्रभो ।। पुरुष एवेदमासनम् ।\ ब्रलोक्यपावनानन्त नमस्ते
रघनाथक ।।पाद्यं गृहाण राजर्षे नमो राजीवलोचन।! एतावानस्येति पाद्यम् ॥।
परिपू्णपरानन्द. नमो रामाय वेधसे ।! गुहाणाघ्यं मया दत्तं कृष्ण विष्णौ जना-
दन ॥। त्रिपादृध्वं इत्यध्यं ।॥ नमः सत्याय शुद्धाय नित्याय ज्ञानरूपिणे ।। गृहा-
णाचमनं नाथ सवे लोकंकनायक ।! तस्माद्िराडित्याचमनोयम् ।। नमः श्रीवाम-
देवाय तत्त्वज्ञानस्वरूपिणे ।\ मधुपकं गृहाणेदं जानकोपतयं नमः ।\ मधुपकं ।।
पञ्चामृतं मयानीतं पयो दधि घृतं मधु 1! शकरा चेति तदू क्त्या दत्तं ते प्रतिगृह्य
ताम् । पञ्चाम्० ।। पञ्चामृतस्तानाङ्कः शुद्धोदकेन स्नानम् ।\ पुष्पं धूपं दीपं
दीपं नैवेद्यं निवे निर्माल्यं विसुज्य-ब्रह्माण्डोदरमध्यस्थस्तीथरच रघुनन्दन ।।
स्नापथिष्याम्यहं भक्त्या त्वं प्रसीद जनादन ।\ यल्पुरुषेणेति स्नानम् ।। तप्तका-
तस्मादश्वेति पुष्पाणि ॥
राजीवलोचनाय० गुल्फो
हिन्दीटीकासहित
नुत्यैगीतिकश्च वादयैश्च पुराणपठनादिभिः ।। पुजोपचारेरखिलेः सन्तुष्टो भव
रघव ।। मङ्खला्थं महीपाल नीराजन मिदं हरे ।! संगृहाण जगन्नाथ रामचन्द्र
नमोस्तु ते \। नीराजनम् \\ नमो देवाधिदेवाय रघुनाथाय लाङ्धिणे ।। चिन्मयान-
न्तहपाय सीतायाः पतये नमः।\यज्ञेन यज्ञमिति मन्त्रपुष्पाञ्जलिम् \\ यानि कानि
च पःपानि ब्रह्महत्यासमानि च ¦! तानि तानि विनयन्ति परदक्लिणपदे पदे ।\ इति
| ५ प्रक्षिणाम् ।। अोककुसुसेर्युक्तं रामायार््यं॑निवेदयेत् ।। दशाननवधार्थाय
णान् भोजयेत्सम्यक् दक्षिणाभिश्च तोषये त त् ।! गोभूतिलहिरण्या-
प
कुरुते भक्त्या श्रौरामनवमीव्रतम् ।\ ७ ।। अनेकजन्म
की
अष्टम्यां चैत्रमासे तु शुक्लपक्षे जितेन्द्रियः ।\ १७ \1 दन्तधावनपरवं तु प्रात
स्नायाद्यथाविधि ।। नद्या तडागे क्पे वा ह्वरे प्रल्रवणेऽपि वा ।। १८ ।\ तत
सन्ध्यादिकाः कार्याः संस्मरन् राघवं हदि ।। गृहमासाद्य विग्रन्र कुयदोपासना-
दिकम् \! १९ \। दान्तं कुटुम्बिनं विप्रं वेदशास्त्रपरं सदा ।\ श्रीरासपूजानिरतं
सुशीलं दम्भवजितम् ।। २० ॥! विधिज्ञं राममन्त्राणा रामसन्त्रकसाधनम् ।।
आहूय भक्त्या संपुज्य वृणुयात्पराथयन्निति ।।२१।। भ्नीरामप्रतिमादानं करिष्येऽहं
हिजोत्तम ।। तत्राचार्यो भव प्रीतः श्रीरामोऽसि त्वमेव च ।! २२) इत्यु-
क्त्वा पूज्य विप्रं तं स्नापयित्वा ततः परम् ।\ तैलेनाभ्यज्य पयसा ¶चितयत्राघवं `
हृदि ।॥ २३ ॥। उवेताम्बरधरः इवेतगन्धमाल्यानि धारयेत् ।\! अचितो भूषित- `
` चैव कृतमाध्याह्लिकक्रियः ।। २४ ॥ आचायं भोजयेडूक्त्या सात्विकान्नैः `
सुविस्तरम् ।! भुञ्जीत स्वयमप्येवं हृदि राममनुस्मरन् ।।! २५ ।। एकभक्तत्नती
तत्र सहाचार्यो जितोन्द्रियः ।। श्यृण्वत्रामकथां दिष्यामहःशेषं नयेन्मुनं ।। २६ ॥।
सायंसन्ध्यादिकाः कुर्यात्किया राममनुस्मरन् ।\! आचार्यसहितो रात्रावधःशायी `
नितेन्द्रियः ।। २७ ।! बसेत्स्वयं न चकान्ते श्रीरामापितमानसः ।। ततः प्रातः
` समुत्थाय स्नात्वा सन्ध्यां यथाविधि ।! २८ ।! प्रातः सर्वाणि कर्माणि शीघमेव `
समापयेत् ।! ततः स्वस्थमना भत्वा विदरः सहितोऽनघ ।! २९ ॥ स्वगृहे
चोत्तरे देशे दानस्योज्ज्वलमण्डपम् ।। स्वगृहे स्वगुहसमीपे ।। चतुरं पताकाठचं
सवितानं सतोरणम् । ३०। मनोहरं महोत्सेधं पुष्पाद्येः समलङ्कृतम् ।
३०।। म
नि हिन्दीटीकासहित (४)
सने राजते च पलद्वयविर्निमिते 1 पञ्चामृतस्नानपूर्वं सम्पूज्य विधिवत्ततः ८
॥ ४२ ॥ मूलमन्त्रेण नियतो न्यासपूवमतन्दरतः ।! दिवेवं विधिवत् कृत्वा रात्रौ `
जागरणं ततः ।! ४३।। दिव्यां रामकथां भुत्वा रामभव्तिसमन्वितः ॥
गौतनुत्यादिभिदचैव रामस्तोत्रैरनेकधा ॥\ ४४ ॥। रामाष्टकंश्च संस्तुत्य गन्ध- 1
` पुष्पाक्षतादिभिः \। कर्पूरागुरुकस्तूरीक ह्वा रा रनंकधा 11 ४५. ।। सपुज्य दिधि:
॥ वटूक्त्या दिवारात्रं नयदबुधः ।। ततः ब्रत समत्थायस्नानसन्ध्यादिकाः क्रियाः
| ॥ ४६ । समाप्य विधिवद्रामं पुजयेष्धिवन्मुने 1! ततो होमं ्रकुर्वोत मूलमन्त्रेण `
| मन्त्रवित् \\ ४७ ।। ूर्वोक्तपद्यकुण्डे वा स्थण्डिले वा समाहितः ।) लौकिकाग्नौ .
| विधानेन शतमष्टोत्तरं मुनं 11 ४८ ।\ साज्यन पायसनन स्मरन्याममनन्यधीः ।॥
ततो भक्त्यां सुसन्तोष्य आचाय पुजयन्मुन ।1 ४९ ।। कुण्डला र्या सरत्नाभ्याम- `
इग्लीयेरनेकधा \\ गन्धपुष्पाक्षतैवेस्त्रेविचि्रस्तु मनोहरः ।। ५० ।। ततो रामं 1
स्मरन् द्यादिमं मन्त्रमदीरयेत् ।\! इमां स्वर्णमयं रामप्रतिमां समलङ्कृताम्
॥ ५१ ।\ चित्रवस्त्रयुगच्छल्नां रामोऽहं राघवाय तं ।) श्रीरामप्रीतये दास्ये तुष्टो `
वतु राघवः ।\ ५२ \\ इति दत्वा विधानेन दया दक्षिणां ध्रवम् ।) अस्नेभ्यह्च
यथादाक्त्या गोहिरण्यादि भक्तिः ।\ ५३ ॥ ददयाद्रासोयुगं धान्यं तथालडकार्- 1
सं
णानि च।।एवं यः कुरुते रामप्रतिमादानमुत्तमम्।॥५४। बह्यहत्यादिपपिभ्यो मुच्यते ८
नात्र संशयः ।\ तुला पुरुषदानादिफलमाप्नोति सुव्रत ॥। ५५ ।\ अनेकजन्म
सिद्धपापेभ्यो मच्यते ध्रवम् ।\ बहुनात्र किमुक्तेन मुक्तिस्तस्य कर स्थिता! `
५६९ कुरकषेत्र महापुण्ये सूर्यपवेण्य शेषतः} तुलापुरषदानादयः छृतयत्लभतफलम्
॥५७।। तत्फलं लभते मर्त्यो दानेनानन सुव्रत ।। सुतीक्ष्ण उवाच ॥ प्रायेण `
| स से दरिद्राः कृपणा मने \! ५८ 11 कैः कतेव्यं कथमिदं त्रत बूहि महामुन।\
तु पूजा वै तत्र चोक्ता महामुने । मूलमन्त्रेण संयुक्ता तां कथां वद सुब्रत ।\६७।॥
अगस्त्य उवाच ।। सर्वेषां रासमन्त्राणां मन््रराजं षडक्षरम् ।। इद तु स्कान्दे मोक्ष-
खण्डे श्रीरामं प्रति रद्रगीतायां रद्रवाक्यम् ।। मुमूषोः
सिनः ।! ६८ ।\ अहं दिश्षासि ते मन्तरं तारकस्योपदेशतः।। श्रीराम रामं रामेति `
एतत्तारकमुच्यते ।। ६९ ॥ अतस्त्वं जानकोनाथ परं ब्रह्माभिधोयसे ।॥ `
तारकं ब्रह्म चेत्युक्तं तेन पूजा प्रशस्यते ॥ ७० \ पीठाद्धदेवतानां
तु आवत्तीनां तथेव च ।} आदावेव प्रकुर्वीत देवस्य प्रीतमानस ।। ७१ ।। उपचारः
घोडदाभिः पूजा कार्या यथाविधि ।। आवाहनं स्थापनं च सम्मुखीकरणं तथा
युजा प्रकुर्वीत पूर्वोक्त `
अथ नवमीव्रतानि
1 अब नवमीके ब्रत लिखे जाते हे । इन व्रतोमे चेत्रशुक्ला नवमीको रामनवमीका व्रत होताहै, `
इस व्रतको मध्याह्न व्यापिनी दहामौ विद्धा नवमीमें करना चाहिये । यह अगस्त्यसंहितामं कहा है
कि यदि. चत्र शुक्ला नवमी पुनवंयु नक्षत्रसे युक्त हो ओर बही मध्याह्लुके समथरहं तो बडे भारी |
1 ुण्यवाली हेती है \ यदि दो दिन नक्षत्र का योग ओर मध्याज्लव्याप्ति हौ अथवा एक देश व्याप्ति“.
: हो यानौ दोनों दिन तिथि या नक्षत्रमेसे मध्याह्वके समय एक न एक रहै तो पराली, नहीतो
पूर्बाही लेनी चाहिये यह भौ अगस्त्य संहितामे कहा है कि, अष्टमी विद्धा नसमौको विष्णुभक्तोको
छोड देनो चाहिये बे नवमीमे ब्रत तथा वक्षमीमें पारणा कर । (निणंयसिधुन्में “दशम्यां चेव पारणम्" ` |
रला पाठ रला है) अगस्त्य संहितम ही लिला हुम है कि-चेत्र मासकी नवमीके दिन स्वथं `
हरिन रामावतार छिया, वो पुनवेसु नक्षत्रसे संयुक्त नवमी तिथि सब कार्मोको देनेवाली है । यह् 1
-रासनवसमी एक कोटि सूर्य ग्रहणोसे भौ अधिक है यह भी उसी संहिता मे ल्वा हुमा है क्ि--
7)
७५१
४ १ निर्णय सिन्धू मे--चत्रे नवम्याम्" यहांसे केकर कौसल्यायां परः पुमान्" यहातक का पाठ सवसे ` `
पिरे रला है । फिर वे सव वाक्य आगये हैँ जो चतराजने अगस्त्य सं हिताके रख हं, गोविन्दाचैनचच्धिकाने `
अगस्त्यं हिताके वचन हरिभक्त्ति विखासके नामसे रखे हं । त्रतराजनं यह लिला है कि, वैष्णवोको अष्टमी |
विद्धा नवमीका त्यास करदेना चाहिये । इसी विषयपर गोविन्दाचनचन्विकामे कुछ विशेष लिखाहै उसे भी
किलत ह कि, नवमीके क्षये दशमीके दिन पारणाका निदचय होनेसे वष्णवोकोभी निःसन्देह् अष्टमीविद्वाही `
नवमी रेलेनी चाहिये । व्र. नि. गौ. य तीनों सेव मध्याह्न योगेन'-वही मध्याह्न व्यापिनहो । इस वक्यके |
` आधारपर मध्याह्वव्यापिनी मानते हँ । यदि दो हों गौर पहि दिन मध्याह्ञव्यापिनी हौ तो व्रतराजके ` ` त
यहाँ “मध्याह्न योगेन" इसी वाक्यसे उसका ग्रहण होजायगा । गोविन्दाच॑न° मेँ तो पबित रलते ह कि, `
पूरुरेव मध्याके योगे सत्वे सेव ग्राह्या -पहिकेही दिन मध्याह्न योगिनी होतो उसीका ग्रहण करो। |
नि. भी यही छिखते हँ पर “क्मकारुव्याप्तेः-कमं पूजनादिकके कालमे नवमीके होनेसे ` इस हैतुको
.अयिक देते हँ । “दिनद्वये मध्याह्व्याप्तौ तदभावे वा॒पूवंदिने पुनव॑सु छक्षगुक्तामपि त्यक्तवा परव
कार्या इस वाक्यका ओौर दिनद्वये ऋक्षयोगे मध्याह्वव्याप्ती एकदेशव्याप्तौ वा परा अन्यथा पूर्वां
इसका हमें तो प्रायः एकसाही तात्पय्यं दीखता हं पदिका यथाश्रुत शब्दाथ यही हैकि,दोदिनं . ` ¦
मध्याह्ृव्यापिनी हो वा उसका अभावं हौ तो वं दिननं होनेवाली पनवंसु नक्षत्र युक्ताको शी.
छोडकर पराह करनी चाहिये, व्रतराजकौ पंक्तिका तात्पय्यं पहिरे लिखा जाचुका है । ऋक्षयुक्ता =
भीजो दो दिनकी व्याप्िमें नि. ने त्याग कहा है उससे यह् सुतरां विद्ध होगया कि, उनका त्याग १
दोनो दिनही नक्षत्रके योगमे है । यदि पिह दिनके नक्षत्र योगम भी त्याग होता तौ पृनवेषु `
की जो इतनी प्रशंसा की है वो निरथंक होजायगी । तथा-पूनवंसुकऋ्तसंयुक्ता सा तिथिः सवं |
` नवमी श्ब्दका ग्रहण है, इस कारण हमेशा केदल्म नवसीको भो उतवास करे अतः पुरे मनसे सबको `
नवमीक ब्रत करना चाहिये । ह॒ भौ वहां लिखा मिलता है किच पिले पक्ष नवमी दिनके `
ससय पनित्र पुनर्वसु नक्ष्रके थोगमें उदयसें गुरुके गौ रांशमे उच्चके पांच ग्रहे सु्यके मेष राशिपर =
। । [ | रहते करकट रग्तमें पर पुमान् कलासे कौहात्थामें प्रकट हए । प्रागूयक्ष--पहिले पक्षको कहत ह | | (न |
। शरुक्लपक्षसे मासका आरंभ माननेवारोके यहां शुक्लपक्ष पहिला प्च होता है ! उदय लग्नको कहते ` ५
, है गुर गौराश्षका मुके नसमांशमे यह् अथं होता है \ इसी रामनवमीको व्रतदवेक भगवान् रामकौ
प्रतिमाकादान खा है। राकौ प्रतिमा देनेका प्रयोग--अष्टमीके दिन प्रातःकाल नित्यकं करके |
् | : । दन्त धावन पु्वेक नदीं स्नानकरं घरक भा वेर वेदाद्धेके परमत रध्नभेक्त विप्रको लुः वस््रा- | । 1
कंकारसे उसका पूजन करके प्रार्थना करे कि है द्विजोत्तम ! में रामचन््रजीकी सतिका दान कग : . `
उसमे आप प्रसन्न होकर मेरे आचायं होजायं; योक, आप मेरे ल्यि रामही है, इसके पीछे संकल्प .
(न ४ । | करे कि है सघव ! है इक्ष्वाकुक्ुलतिलक 1 हे भवके प्यारे ! नवमीव्रतके अंगभत एक भक्तसे प्रसन्न । ५ {|
` --विरुढभी नहीं है ! मध्याह्भव्यापिनीके प्रकरणसे इतना विचार किया है फिर प्रकृतमेहि आये जाते ते 1
है।गो० कहते हं कि, पुनवंयु नक्षत्रसे युताभी मध्याह्लव्यापिनी अष्टमी विद्धा पूर्वा नवमीको छोडकर ` ८
८ | दूसरे दिन तीन मुहूत भी हौ तो उसी दिन विष्णु मक्तौको उपवास करना चाहिये क्योकि वंष्णवोके ८
यहां उदर व्यापिनी तिथिकां रहण होता है । अब वेँष्मवोके त्रतके विषयमे विशेष विचार करते `
हैमो. में जो तीन मृहृतंभी दशमी विद्धाका ग्रहण किया है यह निराश्चय नहीं है, रामाचनचनद्दिकामे
कहा दहै कि, अष्टमी विद्धाही यदि पुनव नक्षत्रसे युक्त हो तो उसमें त्रत कैसे होगा क्योकि
अष्टमी विद्धाका निषेध सूना जाता है तथा रामजन्मकी नवमीका व्रत है यह् नवमीका श्ववण होता है।
; दशमी आदिमे नवमी आदि वृद्धिहौ तो वैष्णर्वोको अष्टमी विद्धाका त्याग करना चाहिये । वैष्णवे
तरको तो अष्टमी विद्धामेंही द्रत करना चाहिये, इस वाक्यम दो बाते ह पिकी यह् है किं, दशार्म
आदिमे नवमी आदिकी वृद्धि हो तौ अष्टमी विद्धाका वैष्णवौको त्याग करना चाहिये यानी उदय
कालम नवमी तीन मृहृतं भी हो वादमे दहामी र्यजाती हो तथा सूर्योदयसे पहिले क्षयं होनेके कारण
समाप्त हो जाती हो तो एसी नवमी जो सूर्ग्योदयसे तीन मुहृतं दै, वैष्णवोकरे यहां उस दिन उप
. बासहो सकेगा; क्यों कि, वैष्णवोके यहां नवमी व्रतकी पारण उस एकाददीमे हो सकेगी जो कि,
. सूर्ग्योदयसे पदिक समाप्त हई दशमीके बाद एकादशी आती है । तात्ययं यह है कि, वैष्णवोके यहां
। ूर्ग्योदयके समयमे भी दशमी विद्धा एकादसीमे नवमीके ब्रतकी पारण होती है; क्योकि वे अरुणोदय
कामें भी दशमीसे वेध होजानेसे एकादशीका ग्रण नहीं करते । यदि दशमीकी वद्धिका अभावदहो
यानी एकादरी आनेवारे दिन सूरयोदयके तीन मृहतके पहिलही दशमी समाप्त होजाय तो ५
ष्णवौको अष्टमी विद्धाही नवमीके दिन तीन मृहूरतसे कममे वैष्णवोके
वरतानि] हिन्दीदीकासहित ध 8 २ 4
होनादये ! पीछे आचार्यक साय हविष्यान्न भोजन करके रामचनदरनीकौ कथा सुनात। हृभा राको `
` भमिपर शयन करे । पीक प्रातःकाल, नित्यकमसे निवृत्त होकर अयने घरे उत्तर भागम एक सृन्दर
मंडप बनावे उसके पूरबके दरवाजेपर शंख चक्र ओर हनुमानजीकौ स्थापना करे या कटि, गरुड ओर
बाण सहित शाङ्खं धनुषो दक्षिणद्वारर तथा गदा, खद्ध ओर अंगद इनको परिचम द्वारपर एवम् `
पन्च स्वस्तिक ओर नीरुको उत्तर द्वार पर काढे था स्थापित करे । बौचमें चार हाथके विस्तार कौ `
21: वेदिका च ४
ध वेदिका होनी चाहिये सुन्दर वितान हो तोरण भी अच्छेल्गे हो इस प्रकार मण्डप तयार करके `
उपवासे संकल्पके साथ प्रतिमादान करे, उसकी विधि यह है हे राघव! अं यासो नवमीका |
| । ४ उपवास करूगा उससे अप प्रसन्न ही है हरे ¡ संस्रसे मेरी स्था करे, मे रामक्षे आराधनमें तत्पर । र
| हमा इस राम नवमीके दिन आलो प्रहर उरवास कर विधिपुवक रामक पना करके, सोनेकी
रामचन्द्रजीकी मृतिको शरीरामच्द्रजीको प्रसन्न करनेके सिये बुद्धिमान रासभक्तक्ते ल्थि दूषा, अनेक
जन्मोसे संविद्ध तथा वारवारके अभ्यस्त बडे २ भी बहुतसे पार्पोको श्रीरानवद््रनौ प्रसन्न होतेही |
क्षणमात्रमे नष्टकर देते है, इस मंत्रसे संकल्पं करे, बेदिकाके बीचमें सर्वतो भग्रमंडल लिले उस
भं विधि पंक कलशकी स्थापना करे, उसङ़े उपर सोना वादी बांस जसी धर्ढाहो उसका विहासन
स्थापितं करे वस्त्र बिछाये अन््युत्तारण आदि संस्कारोसे संस्कृत हई रामध्रतिभाको विधिधवंक स्थापित
करे \ पीछे पायसे ऊंकर पुष्प समर्पण प्यन्तके उपचारोसे राकी पूजा करे \ सप रामकी जननी `
हं यह सब जगत् रामात्मक है इस कारण मे आपं रामका पुजन करता हं है लोकमातः ! तेरे ल्ि
नमस्कार है, इस मंच्रसे कौसल्या साका पुजन करे । ओम् दशरथाय नमः दशारथके लिये नमस्कार
इस नामं मंतरसे दशरथजीका पूजन करे । आवरण पुजासे लेकर पुरी पूजा समाप्त करे । पीछे रंभे
यानी तुलसीदल ओर रत्न डालकर भगवान् रामको अष्यं देना चाहिये, कि रादणके मारनेके ल्यि
धरमंकी स्थापनाके लिये दानवोके विनादाके छे दैत्योके मारनेके ल्य स्युमोकी रक्षके त्थि हरि
स्वयं रामके रूपमे अवतरे थे ! हे निष्पाप ! भादयोके साथ अर्ध्यं ग्रहण करिये, पीडे चरो पहरोमेभी
रामको पुजा करके रातको जागरण करके द्शमोके विन नित्य पुजातक सवकभं समाप्त करके मूल =
` मंत्रके हारा घी. मिलो हुई खौरसे १०८ आहुति देकर वस्त्र भूषण आदिसे आचाय्येको पूजे, पीछ `
आचायंको राम मृतिका मंत्रसे दान करे कि निमे रंग विरंगे दो वस्त्र उठ रखेहै जो किं सोनेको |
बनी हुई है भली भांति गहने पहिनारखे है एसी रामकी प्रतिमाको, राघवशूप आपके व्यिं जन ८ । । ध ( ।
--विधान जाननेकी आकाक्षा होती .है । इस कारण उनके विधानपर भी विचार करते हकि,उनका
रामनवमीका क्या ब्रत दिनः विधान है वैष्णव शब्द के मुकाविले उन्दं स्मातं शब्दे याद करते
(रदो रतस [ नवमी-
रामके जन्मदिन रामचन्दरजीकी प्रसश्नताके लिये देताहूं इसके बाद दूसरोके लिये भौ शक्तिके अनुसार `
दक्षिणा दे! पीछे आपके प्रसादको स्वीकारकरके मे पारणा कर्गा है स्वामिन् ! इस् ब्रतसे सन्तुष्ट
। हयो म॒न्ने अपनी भवित दे, इस मंत्रसे प्रार्थना करके पारणा करनी चाहिये । अथ रमपूजा-आचसन |
` प्राणायाम करके मासपक्ष आदिका उल्लेख करके संब पापोके नाशको चाहता हज से श्चीरामकी `
। भ्रसश्नताके लिये रामनवमीका व्रत करूंगा तथा उसके अंगरूयसे रामकी पुजा भौ कल्गा एवम् राम- `
` मंत्रसे छः अंगन्यासं ओर कलङ्चका पुजन भी करूगा, यह संकल्प करना चहिये ! फल, पुष्प ओर `
. अक्षत चल्से भरे हृए पणे प्रको केकर कहै कि है राघव! मं अन्न इस नवमीमे मों पहर
उपवास कर्गा, है विभो ! उससे आप परम प्रसन्न हो जाओ, हे हरे ! संसारमे मेरी रक्षा.करिये, `
पीछे उस पाजके पानीको पानीमे छोड दे । इसके बाद शक्तिके अनृसार सोनेकी प्रतिमा बनवां अग्नि `
उत्तारण आदि प्राण प्रतिष्ठा प्रकरणके कहे हए क्म करके पीछे प्रतिमाके कपोखोपर हाथ रखकर
` पहिले मू मंत्रको पढे राम । इस शब्दको चतुर्थोका एक वचनान्त करके आदिभे ओम् ओर अन्तमे `
नमः लगानेसे मूल मंत्र ओम् रामय नमः यह् बनजाता है । फिर अस्मै प्राणा इस मंत्रको जये! `
(अस्मै प्राणाः इसका अथं २७५ पृष्टमे कर चुके हे ) भगवान् रामका ध्यान करना चाहिये कि
बडे २ कोम नेत्रवाले इद्रनील मणिके सम प्रभावाले भगवान् रम हे, दई ओर पुत्रको देखनेमे (
लगेहुए् वशरथ उपस्थित हँ । पीछे छत्र लिय हुये लक्ष्मण खडे हुए हँ । अगलढगल्भरत जर शत्रून्
ताला वीजना हाथमे लिये खडे हं ! भागाडीशान्त मूलि भगवान् मारुति खड़े हए हाथ जोडकर 1
संसकौ कृपाचाहरहे है \ इस प्रकार यह् ध्यान रामपंचायतनका होना चाहिये । इसके बाद षोड ` |
उपचारो पजन करना चाहिये, में उप्त रामका आवाहन करता हं जो विष्ण है प्रकृति भी परे है
विद्वका स्वामी है जानकीका प्रिय तथा कोसल्याका प्यारा पुत्र है इस मंत्रे तथा "सहल्शीर्षाण
। इससे आवाहन करना चाहिये । हे राम! हे रघुवीर ! हे भगवन् ! , आदये, है राजेश ! जानकीके
साथ यहां सदा सुस्थिरं हृजिये, हे बडे भारी घन्षके धारण करनेवाले! हे रावणके काल! हे
राघवं! जबतक मे पूजा समाप्त न कं तवतक आप मेरी सन्चिधिमें रहिये, इन मंनोसे रामको
1 ८ सन्निहित करना चाहिये । हे रधुनायक ! हे राजर्षे हे कमलकेसे नयनो! हे मेरे देव रधुनन्दन
है भ्रीराम! मेरे सामने हृनिये, इसमे सामने करे ! हे राजाधिराज ! हे राजेन्ध ! हे राजारामचन्द्र |
म आपको रत्नोका सिहासन देता हं । हे प्रभो ! उसे स्वीकार करीये इससे ओर “रुष एवेदम्"
इससे आसन; है तीनों लोकोके पवित्र करनेवाले, है अनन्त ! रघुनायक ! तेरे लिये नमस्कार . है
है राजष! पाद्य ग्रहण कर हे राजीवलोचन! तेरे चयि वारंवार नमस्कार है इससे ओर “एतवा
` नस्य" इससे पाद्य; है परिपू्णपरमानन्दस्वरूप ! तुक्च सृष्टिकर्ता रामके लिये नमस्कार है, हे कृष्ण !
॥ ध । । । . ,# |
हिन्दीदीकासहिति ` | (४८९७)
/ ध ¢ व ४ (4
यं चन्दनको है राजेनद्र ! आपको देतह हे श्रीराम ! आप उसे स्वीकार करिये इसे ओर “तस्मा
` दय्ञात" इससेगन्ध; ` अक्षता परमा दिव्या" इससे अक्षतः; तुलसी, कुन्द, मन्दार, जाती, पुन्नाग, चंपक, ` ~
कदम्ब, करवीर, कुसुम, शतयत्र, नौलाम्बुज, बिल्वपत्र ओर पुष्य, माल्योसि हे राघव | मं भकि्तकि
साथ पूगा \ हे जनार्दन ! आप ग्रहण करिये, इससे ओर “तस्मादश्वा इससे पुष्प समर्पण
करना चाहिये \ अङ्गपूना-मूलमं नामत ओर अंग दोनोही साथ लिख द्वि हं) अन्तर केवल ४
1 इतनाही है कि, कहीं पुजयामि कौ जगह केवल धू० लिखकर अगाडी बिन्दी देदौ है । इन नाम ध
मोको बोलकर उन उन. अंगोपर अक्षत चढाने चार्हियं । श्रीरामचन्द्रके ल्मे नमस्कार, चर-
णौको पुजता हं राजीव लोचनक्रे०°गल्फोका पू०, रावणके मारनेवालेके० जानुजका प, वाच॑- द
स्पतिके ल्यि न० उरूको पु०, विर्वहूपके जंघांको पू०, लक्ष्मणके बडे भके लि न |
कटीको पु०, विहवमूतिके चयि न° मेढको पू०, विदवाभित्रके लिये न° नाभिको पुण प्रनत्सके `
लि० हृदयको पर०, श्नीकण्ठके लिये न° कष्ठकोपू०, सब अन्न धारण करनेवाले सपि न°, बहुभोको
: पू०, रधृदहके लिये न० मुरो पुण पद्मगभङे चि न> जि न्ने दमोररफे किरतिं |
५ ध को पु सीताके पतिक्षे लियं न ललछाटरको प° ज्ञानगम्यके लि न° शिरो पूण सर्वात्मके लि 4 ॥ | ॥
सर्वाङ्धको पूजता हू वनस्पतिके रसका बनाहुञा गन्धाद्च उत्तम मन्ध यह् धूप है। हैराम' |
महीपाल ! इसे ग्रहण करिये, इससे ओर “यत्युरुषम्” इससे धूप, ज्योतियो के पति बेवा तुज रामे स्वि (
नमस्कार है। हे तीनों लोकोके अन्ध कारको नष्ट करनेव ख इस दीवकगो ग्रहुणकर, इसन्ते ओर “श्राह्मगो `
1 णोऽस्य' इससे दीपक, यह अमृतके समान स्वादिष्ट दिव्य अन्न छं रसोते समन्वित है! हे सीतके | 0 |
इका रामचन्द्र! इस नेकेयको ग्रहण करिये, इससे ओर “चन्द्रमा मनसो ०” इसमे नवद, इसक्षे बाद `
आए्चमनीय, इदं फलम्" इससे फलः 'नागवल्लीदलरयुकतम् इसमे ताम्बर, “ हिरण्यगर्म" इसे दक्षिगा,
“नभ्थाजासीत्"' इससे प्रदक्षिणा, नृत्य गीतवाद्च ओर पुराणोके पठनोसे तथा संपुणं परजाके उपचारसे `
4 हे राघव ! सन्तुष्ट हनि, हे महीपाल ! ह हरे ! यह नीराजन अपके मंगल्के ल्ि का है।. 1
५ हे जगन्नाथ राम! तेरे लियं नमस्कार है इसे ग्रहण करिये, इससे नीराजन चिन्मयं अनन्तह्प
` देवाध्दिव शद्ध धनुधारी सीता पति रामके लिये नमस्कारं ह । इसते ओर “ यज्ञेन
` यज्ञम “ इससे संत्रपुष्पांजलि, * यानिकानि च पापानि इसते प्रदक्षिणा, अशोक के फूलोके
` साथ रामको अध्य निवेदन करे अध्ये देनेका मंत्र-दलाननवधार्थाय यह् है इससे अध्य `
५ समर्पण करना चाहिये ! यह पूजन पूरा हजा ।। कथा अगह्त्व बोले कि, हे नृपश्रेष्ठ सुतीक्षण!
दिन भगवान रामने रामावतार ल्िया। इसत दिन सरही उपवास व्रत करना चाहिये
न गे अर्थकर चुके है) उस दिन रधुनाथ ५
जो लिला है यह खाट आदिकी निवृत्तिकेि
(द षज 1 - नवी
¢, एकान्तम महापाय किये हे जो कि बहुतसे ह ।१२।। ओर बडे बडे है वे सब राम नवमीके `
व्रतत नष्ट होजाते हे ।है मुने रामनवमीको भवित पूवक एक भौ ।१३।। उपवास करले तो ङतछृत्य `
होजाता है । सब पापो छट जाता है । जो रामनवमीके दिन श्नीरामचन्द्रजीकी प्रतिमाका दान करता `
ध है ॥\१४।। प्रतिमाके दानकी विधिसे वो मुक्त हौ गया इसमं सन्देह नहीं है सुतीक्ष्ण बोले कि हे `
हे सूने! रास प्रतिमाका दान कंसे क्या जाता है ।\१५।। इसे सृक्षे रासक्षे भक्तके ल्यि जाय `
विस्तारके ' साथ कहे ! अगस्त्य बोले कि हे विन् ! मे आपको इस उत्तम प्रतिमादानको सुनाङंगा `
दा विधान भी प्रयत्नके साथ कहंगा क्योकि आव श्रेष्ठ वैष्णव है चैत्र शुक्ला अष्टमीक्े दिन
` जितेन्द्रिय हो 11१७1) पहिले दादुन करके पीछे विधिपूरवेक स्नन करे! बो नदी, तडाग, कूमा, |
हृद ओर सरना किंसीपर होना चाहिये | १८।। भगवान् रमचन्द्रका ध्यान करते हुए पीछे संध्या
आदिकं करने चाहिये! हे विन ! धर आकर विधिपूर्वकं उयासना आदिक करनी चाहिये ॥१९॥ = `
सश वेव्ञास्वोके पाठ करनेवाले जितेन्द्रिय कुटुम्बी दंभरदहित सुशील श्रौरामकौ पूजाम लगे रहनेवाली
ब्राह्मणको ।\२०।॥ जो कि रामजीके भ्रोकौ विधि जानता हो तथा राममंन्नोका एकही साधन हो `
उसे भुलाकर भक्तिपूर्वक पूज प्रार्थना करके वर ले ।॥२१।। कहे कि, हे द्विजोत्तम ! में रामचन्द्रजीको `
मूतिका दान करूंगा ! अप प्रसन्न होकर मेरे आचायं हो जायं आप रमही हँ ।॥२२;) पेता कहकर `
` ` ` अआचारय्थका पुजन करे। भगवान् रामको हुद्यमे याद करते हृए तेल ओर दधसे उबठना कर्के `
५ `: स्नान कररवि ।\२३।। अप भीं उवेतवस्त्र पहिनिकेर रहै तथा शतवतही गन्ध माल्योको उन्हे धारण |
` करावे पुजन करे भूषण धारण करावे भध्याह्लकाल्की क्रियाओंको समाप्त करके ॥\२४। भक्तिके ` 1
साय विस्तारपुवंक सात्विक अन्नोसे चायको भोजन करावे 1 हृदयम भगवान् रामका स्मरण करताजपभौ
भोजन करे ॥२५। उसमे आचार्ये साथ जितेन्द्रिय रहकर एकावार भोजन करनेवाला व्रती है `
। मुने! रामचन्द्रको दिव्य कथा सुनता हुभही बाकी दिन व्यतीत करे ॥२६। भगवान् रामका ही `
| ` स्मरण करता हंभा सायंकालकी क्रियाओको पुरा करे । रातमं जितेन्द्रिय रहकर आचार्यक साय भूमिपर
शयन करे ।\२७।। भगवान् रमका ध्यान करता हुआ एकन्तमें रहे इसके वाद प्रातःकाल उठ
इसके बाद स्वस्य मनको कर विद्रानोके साथ ।\२९।। अपने घरे उत्तर देम दानष्ा संदर संडप
९६ स्तानकर विधि पूवेक संध्याकरके ।(२८।। प्रतःकालके सब कर्मोको शीघ्ही सप्त कर दे । ह अनघा.
बनवाये स्वगुहै-यानी अपने घरके समीपम उत्तरकी तरफ उसे द्वार होने {चाहिे, पताकाएं
व ध ५ ` च्णनी चाहिये तोरण सहित वितान बनाना चाहिये ।!३०)) वो सुंदर तथा उचित ऊँचा चाहिये । ८
` .. उसका पुरबका दरवाजा शलं चक्र जौर हनूमानजीसे अलक्त होना चाहिये ।१२३९१।। दक्षिणका दरवाजा `
गरुड शाङ्खं ओर बाणोसे अचछृत हो पद्विमकाद्रार गदा खङ्ः ओर अंगदसे भूषित हो ३२
उत्तरका र दरवाजा पद स्वस्तिक सर नीलसे विभूषित हो वौ बीचमं चार. हाथको बेदीसे युक्त चोडा `
८ ; = करके ।॥४२।। निरालस हो नियम पूवक मूलमंत्रसे न्यास करके दिनमे ही इसी प्रकार विधिपूर्वक ` ८
| ( व । परुजनादि करे रातमे जागरण करे ।।४३।। रामचन्द्रजी कौ भक्ति के साथ रामचन्द्रजीकी दिव्य (
कथाएं सुनते हुए नृत्य गीतादिकों तथा अनेक तरहके रामचन्द्रजीके स्तोत्रं से ।*४४।। एवम् `
| रामचन्द्रके अष्टकोसे रामचन्द्रनीकी स्तुति करके गन्ध पुष्प, अक्षत, कवृंर, अगर, कस्तूरी र कल्हार `
| आदिकोसि अनेक तरह ॥\४५।। भक्तिके साथ विधि पूर्वेक पूजनम ही दिनरात पुरे करे। फिर
| प्रातःकाल उठ स्नान सन्ध्या आदिक क्रिया्ओंको ॥\४६।) विधिपूवेक पुरा करके पीछे विषिपूर्वेक
| भगवान् राम का पूजन करे ! फिर संतरवेत्ताको चाहिये कि सूलम॑त्रसे विध्ूर्वक होम करे ` ह
| ॥४७॥ एकाग्र वित्त हो पहिलेकहै हए पद्मङ्ण्डमे या स्थडिलमे कोकिकाग्निमे हे मुने
( विधानके साथ एकसौ आठ ॥ ४८ ॥ घी मिली हई सीरकौ आहति दे । एकाग्मनसे रामका ५
| स्मरण करता हभ, हे सुने ! पीछे. सन्तोषपुवंक आचाय्येका पजन करे ।\४९।। रत्नसमेत कुण्डल = `
| उसे रामरूप मे, भीरामचद्रजीकी प्रसच्नताके लिये स्वयं रामजीरय आपके व्यि देता हं इसमे
` भगवान् राम मुश्चपर प्रसन्न हो जायं ।\५२।। इसं विधानसे प्रतिमा देकर उसकी दक्षिणा भौ अव्य
ही देनी चाहिये । इसको भी अपनी शक्तिके अनुसार भवितपरवक गो सोना ।\५३।। दो वस्त्र धान्य
| भौर अलंकार दे इस प्रकार जो सर्वश्रेष्ठ रामचम्दरनौक प्रतिमाका दान करता है 1; ५४१ वो ब्रह्म
(म ध. आदिः रेका फल पता है न इसमं सन्देह है ।\५५।। वो अनेक जन्मोके ल्ि हए पापोसे चट जाता
है इसमें भी क्या सन्देह हैः बहत कहने में क्या है मुक्ति उनके हाथोमे स्थित रहती है ।\५६॥१
है ॥५७1। हि सुव्रत ! वो फल इस दिन रामजीकी प्रतिमाका दान करने से मिल जाता है \ सुतीक्ष्ण | |
{1 छाप तथा अनेक तरहुके गन्ध पुष्प अक्षतं तथा मनोहर विचित्र तरहके वस्त्र इसमे होना चाहिये ` ह
॥५०)) इसके बाद रामका स्मरण करता हआ इस मंत्रको बोलकर प्रतिमाका दान करदे किं भली `
भाति सजाई हई सोनेकी इस राम प्रतिमाको ५१ जो किरगे हुए दो वस्त्रे ठकी हृरईदहै
सब पापोसे छट जाता है इसमे सन्देह नहीं हैः हे सुव्रत ! वो तुला परुषके दान `
महापुण्यश्षालो कुरुक्षेत्र तौर्थम सुयग्रहणके समय सारे तुला पुरुषदान आदिक करनेसे जौ फल भिल्ता |
बोले कि, हे मुने प्रायः करके सब मनुष्य दरि्र ओर कृपण हँ ॥५८।। हे महामुने । यह तो बताइये `
कि इस व्रतकोः किसे करना चाहिये ! अगस्त्यजी बोले कि, हे महाभाग ! दरिद्र भी अयने धनके
अनुसार ।\५९।\ आधे पल अथवा आके आधे अथवा उसके मी आधे पलको प्रतिमा बनवालं
५ ` धनके लोभको छोडकर ही हे मने ! इस त्रतको करे ।\६०)। यदि कोई घोर तर बुरा पाप किसी
देता है तथा विधिपूरवंक एक चित्त होकर भी पूर्वोक्त विधानसे सब पमि छूट जाता है । प्रातः
तरह भौ नष्ट नहं होता, उसको अकिचन भौ प्रयत्नके साथ नौमीके दिन उपवास करके नष्ट कर `
कर ।\६१।। 1\६२।। गो, तिल, हिरण्य, अपने ` ध र
(४३०) ` ` : ज्रतराज 0 [ नवमी
तथा आवरणोके देवतामोंका प्रसननचित्तके साथ पुजन करे 11 ७१ । फिर विधिके साथ ` ४
सोलह उपचारोते पनाकरनी चाहिये । आवाहन, स्थापन, संमुखीकरण ।\७२। इसीतरह प्राथनामद्रा क
प्रूजामुद्रा इनको प्रयत्न के साथ करे ¦ फिर पहिले . कहीहुई विधिसे शंख पुजा करे ॥७३।। बाय
भागमें कलल ओर पजके द्रव्योको आदरकफे साथ रखे । पीठपर प्रयत्नफे साथ आत्मरूप भगवान ।
रामका पूजन करके मन्त्रका उच्चारण करे ।।७४।} इसी तरह निरालस होकर पा्नोको इक्र क्रे
देवके ल््यि पीताम्बर समर्षण करता हृजा पजन करे ॥\७५।। भक्तिके साथ सोनेके उपवीत एवम् ` 1
अनेक तरहुके विचित्र रतन तथा आभरणोको दे ।७६।! हिमके पानौसे धिसेहुएरचिर मनोहर धन~ `
सारको देवके लि भेट करे \ एक चन्दनही नहीं किषु कमे अनसार मलमन्त्रसे सब उयचासेको ` छ
` करे ७७ कह्वार, केतको, जाति, पुल्नागादिक चंपक, ` शतन, तथा जौर भी सुगन्धित सनोहर `
पूष्पोसे पुजा करे ॥७८।। पाद्य चम्दन ओर धूपे मन्तरोसे पाद्य चन्दन ओर धूप दे । क्यं भोज्य- ०
आदि भवितपूवंक निधिके साथ देवको अर्यण करे ।\७९।। क्योकि उपस्कर सहित रामकी मिका 1
दान करके सब पापोसे छूट जाता है चाहे वे अनेक जन्मोके किये परमभयकर ही क्यो नशेः. `.
॥८०॥ हे मुने { एक क्षणमे हौ मुक्त होकर रामही होजाता है जो धद्धालु हो उत्ते रामनवमी का ` 1
` भ्रतदेना चाहिये ।\८१।। सब लोकोके कल्याणके लिये यह् है, पापका ताड करनेवाला एवं परमयविन्र ` ४:
है लेह (सोनेको) बलौ हई या पत्थरकौ बनी हई अयना काठकी वनी. हुई परतिमाका दान करे |
॥८२॥। निस किसी भौ प्रकासे जिस किसीके भी लिये इस ब्रतको करावे ।! जो भौ कु प्रयत्तपूवैक
भनितके साथ करे वो सव सफल होता है । ८३ \। अथवा जबतक दक्षमीका. दिन आये तवबतक `
इ साथ बहते भोज्योसे जिमा दक्षिणा दे । इससे वो कृत्ृत्य होजाता है उसपर भगवान् राम श्ीघ्रही `
रामनवमीके ब्रतसेबिलाजाते है, जो रामसन्ो
साथ निरालस हो रामक स्मरण ही करे । यदि गुरसे यह मन्त्र भिला होः तो न्यासोके साथ इसका
(1 न्यास करे ।८८।। एक एक परमे विधिके साथ एकाग्रचित्त हो पुजा करे । मुमुक्षुको चाहिये कि
`. एकान्तम बैठकर मन्त्र जयकरता रहै । दक्ामौमें फिर पूजा करे ब्राह्मण भोजन करावे ॥८४।। भक्ति
` भ्रसन्न होजाते ह ।८५।। यदि सनुष्य. च॒पचाप मुनिवृत्तिसे भी वेढा रहै तो फिर उसकी आवृत्ति `
नही हती । बारह वषं करले तो जो पाप . हों उनसे भी छूट जाता है ।। ८६ ॥ वे सब पाप
का जय नहीं जानता वौ ।\८७।। उपवासपूरवक न्धासोके `
सदा रामननौमौका त्रत करे । बो सब पापोसे टकर सनातन ब्रह्मको प्राप्त 'होता है ।\८९।। यह
शरस्कन्दपुराणमें कहौ गई अगस्त्य संहितामं १ हतास जाय हए अगस्त्य ओर सुतीक्ष्णके संवादके श्चौरामनवमी ` ६
व्रतकी विषि परी हुई ।) ५ |
अथ रामनासलेखनव्रतम्
विनिमय कक ५४
| ४ ।। रामनाम लिखेद्यस्तु लक्षकोटिशशतावधि ।। एकैकमक्षरं सां सहापातक-
नाक्लनम् ।। ५ ।। सकामोऽपि लिखे्यस्तु निष्कामो वा स पार्वति ।। इहैव
सुखमाप्नोति अन्ते च परमं पदम् ।। ६ ।। आदावन्ते च मध्ये च ब्रतस्योदयापनं
चरेत् ।! उद्यापनं विनानेव फलसिद्धिमवाप्नुयात् ।। ७ ।! तस्मात्सर्वप्रयत्नेन
नाम्न उद्यापनं कुर \। पावत्युबाच ।! नतास्मि देवदेवेश भक्तानुग्रहकारक ।\ ८ ।
नाम्न उद्यापनं बरूहि विस्तरेण मम ध्रभो ।। श्रीशिव उवाच ।। श्युण् देवी प्रवश्यामि
विस्तरेण यथाविधि ।। ९ \) नाम्न उद्यापानं चात्र भक्त्या भवदनुग्रहाम् ॥\
सौवर्णी प्रतिमां कुर्याच्छ रामस्य सलक्ष्मणाम् ।। १०।। हन्मत्प्रतिमां तत्र चतुर्था- `
ज्ञेन हाटक \\ सुवर्णस्य प्रमाणं तु पलाष्टकमुदीरितम् ।! ११।। अशक्त श्चेत्प- `
यान्माषः षोडदासंमितेः ।। पीतवस्त्रेण संवेष्टच स्थापयेत्तण्डु-
। १३ ।। तण्डुलानां प्रमाणं तु भवेदूद्रोणचतुष्ट्यम् ।। शुचौ देशे गृहे तीथं
¦ कारयेत्सुधीः ।। १४ ।तोरणानि चतुदारि बन्धयेदास्रपल्लवैः \\ भूमौ `
गोमयलिप्त ध प्तायां स्वेतोभद्रमण्डलम् ।। १५ ।। रचयेत्सप्तधान्येह्व नानारङ्खः
स्थापयेदत्रणाञ्छभान् ।। १६ \! कुम्भमेकं
(षडर) ` ` - अतर ८ . : : ` [नवमी
प्तानां मेषज्यं भकितिरेव ते ।। सीतासोमिचिहनुम् क्तियुक्तो नरेश्वरः ।\ ३० `
दानेनानेन मे राम भुक्तिमुक्तिप्रदो भव ।, प्रतिमादानसिद्धचर्थं हाक्त्या स्वर्णं
तु दापयेत् । ३१।। दानं यहक्षिणाहीनं तत्सवं निष्कलं भवेत् ।। ब्राह्मणाञ्छत-
साहल्रं भोजयेन्मुधर्मापिषा ।।३२।। पक्वानेः पायसैः खाचेलंड्इुकंःशकं रान्वितैः `
` ॥\ ऋत्विग्भ्यो दक्षिणां दद्याद्भूयसीं दक्षिणां ददेत् ।। ३३ ।! तदन्ते घृतपात्रं च॒ `
तिलपात्रं च दापयेत् \\ शय्यां च रथदानानि दशदानानि शक्तितः ।। ३४ ॥
अकञक्तश्चेत् स्वणमेकं दत्वा रामं नमेत् पुनः ।। तिलकं करायेत्पदचादभिषिक्तः `
" सुपल्लवैः ॥। ३५ ॥ द्विजेभ्य आशिषो गृह्य नत्वा स्तुत्वा विसर्जयेत् ।\ उमामहे
हवरो पुज्यौ भोजयेढेटुकं तथा ।1 ३६ ।। कुमारीणां रतं भोज्यं योगिराजं च `
भोजयेत् ॥। क्षेत्रपालर्बाल दत्त्वा ध्वात्वा रामं सदा जपेत् \! ३७ 11 ब्रह्मादिभिस्तु `
_ तत्पुण्यं वक्तु शक्यं न किञ्चन ।। अदवमेधसहस्रस्य वाजपेयशतस्य च ।। ३८
एकेन रामनाम्ना तु तत्फलं रभते नरः ।। नारी वा पुरुषो वापि शद्रो वाप्यधमो
नरः।। रामनाम्ना तु मुक्तास्ते सत्यंसत्यं वरानने ।\ ३९ ।! म॒लेकौल्पदरूमस्य
मणिविलसदर्त्नासहानस्थं कोदण्डं धारयन्तं ललितकरयुगेनापितं लक्ष्मणेन ह नि ।\
बामाडकन्यस्तसौतं भरतधृतमहामोक्तिकच्छन्रकान्तं प्रीत्या शाचरुष्नहस्तोद्धत- ।
` चमरयुगं रामचन्द्रं भजेऽहम् ।। ४० ।! बन्देऽनिह्णं महेशानचण्डकोदण्डखण्डनम् ।॥\ `
` जानकीहूदयानन्दवधनं रघुनन्दनम् ।। ४१ ।! इति श्रीभ० उमामहहवरसंवादे°
रामनामलेखनोदाचनंसंपुणम् ।। 1
रामनाम ठेखनन्रत-यह् रामनवमीसे लेकर जिस किसी भौ समय कर लेना चाहिये । आचमन (
` श्राणायाम करके मास पक्ष भादिकोको कह, सारे पापोका नाश चाहुनेवाला एवं विष्णुलोक सृक्षे मिले
एसी इच्छावाला श्रीरामचनद्रनीकौ प्रसन्नताके लिये रामनामको लिखृंगा एसा संकल्प करके लिखित `
रामनामकी पजा नाममंत्रसे सोलहों उपचारोसे करनी चाहिये ॥ कथां ओर उद्यापन-पारवती बोलीं |
| कि, ह जगत्प्रभो ! सें धन्य हूं आपने मुक्षपर पुणे कृषाकी है आपकी परिपुणं अनुकंपासे मेरौ संेहकौ `
गांठ आही खुल गयौ ।\१।। आपके |
धानो सु्ोभन बनाये पूजादि दिशामौमे आठ सावित शुभ कलशो कौ स्थायना करे
दिन्दीटीकासहित =
चोभे दिस्से कौ हनुमान्जौकी प्रतिमा बनावे । श्रीरामकी प्रतिमामं ८ पल सुवणे होना चाहिवे ।1११।। ए
यदि सामथ्यं न हौ तो पलकौ अथवा पला्धेको ही बनवार श्रौरानकी प्रतिनाको बनवातोबार `
पणता नही करनी चाहिये ।\१२।१ सोलह माषका चांदीका आसन बनवा, पीतवस्तरसे वेष्टित-
करके चावरोके उपर रख दे ॥१३॥। बे चार द्रोगतण्डुल होने चाहिये लिनपर कि, आसन रखाजाय ।
चरके पवित्र देदामं अथवा तीथंमे मण्डप करना चार्हियं \\१४।। आसके पल्लयके तोरण बनाकर
चारों दासोपर बधे) गोबरसे च्िपीहुई भूमिम सवेतोभद्र बनावे ।\१५।\ अनेक रङ्खोते रगेहुए सात `
एक कुम्भ चावललोके ऊपर स्थापित करे ! उसे शुद्ध पानीसे भरद । पञ्चरत्न ओौर पल्छ्व उसमे `
` पटकदे ।\१७।\ एक एक कलापर एक एक नारियल स्थापित करे । एक नारियल रामचनद्रजौकी भेँट `
करे \ सदाही बेदच्ास्तरोको जाननेवारे आचार्यका वरण करे \\१८। वहांही ब्रह्मासे केकर बाकी सब भ
ऋत्विजोका वरण करे ! उनकी पूजा मधुपकं ओर वस्त्र अलकरोसे करे ।१९। वे ऋत्विज १६ वा `
आढ होने चाहिये, सब वेद शस्त्रके पारंगत हों \. स्नान ओर. नित्य कर्मकरके पहिले गणेशजीका `
१६।1 बीचमे `
पूजन, करना ।\२०।। पष्यारहृवाचन कराके रामचन्द्रजीकी पुजा करे पौरे अयने शाखाविधानके अनसार `
अग्निका प्रतिष्ठापन करके 1\२१।। विष्णुसुक्तसे अथवा मूलर्मत्रसे हवन करना चाहिए । नवग्रह ओर
` - दिक्पालोके भन्त्रोको भौ कहकर उनका हवन करे ।\२२।। पुरुषसुक्तसे सजिद आज्य चर ओर तिलोका
हवन त करे । एक हजार आठ बार राममत्रसे हवन करे 1 २२३, होमके बाद रामचन्द्रादि देवताभं-
का पूजन करना चाहिये । पौ पूर्णाहुति ओर बलि करनी चाहिए ।\२४।। पचे श्रेयका संपादन ओर
अभिषेकका आरम्भ करे । रामकी बारम्बार नमस्कार अर्चनं ओर प्राथेना करफे ।\२५।) पीठे सुवणं `
दस्त्र भर धेनुसे आचार्यका पुजन करे ! दानके मन््से आचारयको देदे ।२६। हे देवदेवेश ! मै `
आपके लिए प्रणाम करता हूं क्मपाकोको काटनेके किए बड़ी बुद्धिवारे महात्मा जो कि, मोक्ष चाहते `
हं वे सब आपकोही हदयमं याद करते रहते हँ ।।२७। आप गुणमयौ सायासे उत्पत्ति स्थिति ओर
प्रल्य करते हे । इस कारण आपके चरणकमलोके भवतोमे मापकी प्रीति लक्षमीजीसे भौ अधिक है
।२८।। सारको जाननेवारे आपके भक्त आपकौ भकव्तिही चाहते हं \ इसीप्रकार आपके चरण- ` ८ ध |
मलोमे मेरी सदाही भक्ति हौ \२९।। संसारकी व्याधियोते तवे हुए पुरषोके लिए जापको भ्वितिही
दवाई है । सीता लक्ष्मग ओर हनुमान् इनकी भगिते सहित आप नरेव्वर ह ॥३०॥। हे राम ! |
मृदिति ओर भक्ति देनेवाखे हो जाजो । प्रतिमके दानकी सिद्धिके किए शक्तिके अनुसार 4
तो तैर ३ ३१ वरयोकि, जो दान दक्षिणासे हीन होता है वह्, भौ निष्फल होता है \ एक
जार एक सौ ब्राह्मणको मधु ओर घृतसे भोजन करावे ॥३२।। ईसमे पक्वान्न पायस खाच लड्डु । ५ ५
र शकरा रहनी चाहिए । ऋत्विजोंको दक्षिणा दे जहांतक हो उसके बहुतसी दक्षिणा होनी चाहिए = ` `
र रथदानादिं दश दान करे ॥३४।। यदि. व
बैठी हई है, लक्ष्मणजी दोनों सुकुमार हाथोसे धन्ष धारण कर रहे हें जिसे कि आप धारणकर रहै हे । कल्प.
वृक्षक मलमें एसे सिहासनपर विराज रहे ह! जिसमं सब तरहकी श्रेष्ठ मणि लगी हुई हं तथा जिसका निर्माण `
रत्नोसे ही हभ है एवं गजबकी जिसको चमक है ।१४०।१ महेदाके चण्ड धनुषको तोडनेवारू जो जानकके
हदयको आनन्द बढ़ा देनेवाङे भगवान् राम हे उनको रातं ॑दिन बन्दना करता हूं \\४ १।) यह शरीभविष्य
` पुराणके उमामहैशके संवादका रामनामके लिखनेका उद्यायन पूरा हुआ \\
1 अथादुःखनवमीव्रतम् 4
॥ भाद्रपदे शुक्लनवम्यां मुहृतंमात्रसतत्वेऽपि परयुतायामदुःखनवमीव्रतम् ।॥
देशकाल्मौ स्मृत्वा इहं जन्मनि जन्मान्तरे च भर्त्रा सह चिरायुःसौभाग्यप्राप्तये
सकलपातकदुःखनाशाथं ब्रतकल्पोक्तफलावाप्त्यथं श्ीगोरीदेवतप्रीत्यथेमदुःख- `
नवमीव्रताङ्धगौरीपुजनमहं करिष्ये ।! तत्रादौ निविघ्नातासिद्धचथं गणपति `
` पूजनं च करिष्यं । इति संकल्प्य गोमयेनोपकिप्तिभूमौ वेदिकां गुडलिप्तामिक्षुच्छा- `
` दितामपूपपायसान्वितामुपरिमण्डपिकायुतं कत्वा तत्र पीठे आसनादिकल्द-
भ्रतिष्ठान्तं कृत्वाप्न्युत्तारणयुवेकं गौरीप्रतिमां संस्थाप्य गौरीमिमायेति नमोदेव्या `
| इति वा मत्रेण गौरीं गणपतिमिन््र | मिन्द्रादिलोकपालांहचावाह्य सपजयेत् ।, गौरीं ४
. इुःखहरां देवीं शिवस्यादराद्धध 71रिणीम् ।। सुनीलवस्त्रसयुक्तामुमामावाहयाम्य- ` |
हम् ।\ आवाहनम् ।! दिव्यपात्रधरां देवीं विभूति च त्रिलोचनम् ।। दग्धान्नदान-
निरतां गौरीं त्वां चिन्तयाम्यहम् ।! ध्यानम् ।! प्रसन्नवदने मार्तानित्यं देव
0 षिस-
. . स्तुते ।\ मया भावेन यहत्तं पीठ तत्प्रतिगृह्यताम् ।\ आसनम् ।। सवंतीथंमयं दिव्यं
सर्वेभूतोपजीवनम् !\ मया दत्तं च पानीयं पाद्या प्रतिगृह्यताम् ।। पाद्यम् ।।
गङ्धादिसवंतीरथेभ्यो भक्त्यानीतं ¦ य
सादरात् । अध्यंम् ।\ माता: सर्वाणि
ृष्पाणि ।। वनस्पतिरसो त इति धूपम् ॥ साऽ
नेम् । पगीफलमिति ताम्बूलम् ।\
| त्तानि 1 हिन्दीटीकासहित `
| सवं कोतहलसमन्विताः ।\ न तुप्तिमधिगच्छामो नाश्रियं च कथामतम् ॥ ३।। । |
| श्युणुमहच वयं सद्यो वरत दुःखहरं त्विदम् ।। येन चीणन धर्मज्ञाज्नानदुःखं नजायते !\
कृपां कुर महाबुद्धे बूहि दुःखहरं व्रतम् । ४ ।। व्यास उवाच ।। श्यृण्वन्तु पुरुषाः `
| सवे ज्ञौनकाद्या महषयः ।\ ये नरा पुण्यकर्माणो दम्भाहडकार्वजिताः । ५।
| श्रद्धा यभिनो नित्यर्माहिसानिरताश्च ये ।॥ यथामिलितभोक्तारः सुखिनस्ते `
भवन्ति हि ।\ ६ ।। गुह्यं चान्यत्तु वक्ष्यामि दुःखनाहनसुचकम् ॥! येष्दुःखन- `
| वीं प्राव्यं नरा्चेवप्यवण्डिताः ।\ ७! क्िवां गच्छन्ति शरण- `
| मूत्पत्ति स्थितिकारिणीम् ।\ जन्मान्तरक्नतेनापि न ते दुःखस्य भागिनः ८ ॥\
| ऋषयञचुः ।। अदुःखनवमीनास त्वया केयं निरूपिता ।! भविष्यति कदा चेयं छ |
। | यच्चका्यं अविष्यति । ९\) पजनीया कथं गौरो विधानं कीदृक्ष तथा ।। ध
एतत्सव यथावत्त्वं वक्तुमहस्यशेषतः ।! १० ।! व्यास उवाच ।। एतद्गुह्यतमं
| पुण्यं श्युणुध्वं गदतो मम ।\ न देयं नास्तिकायेतदभक्ताय शठाय च ।! ११ ॥
| अहं वः श्रहधानेभ्यो विधि स्वेमदेषतः ।। समाहितमना वच्मि भूतिदं पुण्यदायकम् `
| ॥ १२ ॥ सवेस्याद्या महादेवी जिगुणा परमेदवरो ।\ नित्यानन्दमयी देवी तमः-
| पारे प्रतिष्ठति । १३ ।\ ब्रह्माण्डजननी चेयंमुत्पत्तिस्थिति कारिणी ॥ पुरुषः `
| प्रकृति्चेयमात्मानं बिभिदे द्विधा ।! १४ ~ यथा शिवस्तथा गौरी यथा गौरी `
तथा हरः ।! यथा गौरी तथा लक्ष्मीदुःखपापापहारिणी ।॥ १५ ।। तासां पूजा- =
विधानेन न कश्चिह् :खभागभवेत् ।। नभस्ये शुक्लनवमी या वा पूर्णा तिथिभवेत् |
।\ १६ ।\ अस्तदोषादिरहिताः सवदुःखहरा परा ॥। तस्यां प्रातनेरः स्नात्वा कृत्वा
नित्यर्विधि ततः ।। १७ ।! मौनेन गृहमागत्य संयतस्तत्परायणः ॥ अदुःखदायौ |
भूत्वा च शुचिस्थानगतस्तथा ।। १८ ।! गोमयेन विलिप्तायां शुचौ मण्डपिकां `
न्ञभाष्म 1\ त्र कुंकुमाद्विमि भरर उत्कतम् ।। १९ । आच्छादितं
र २ प तस्मिञ्जगद्धात्नीं प्रपृजयत् `
ब्रतराज [नवमी
न्धजनैः सादं भुञ्जीयाच्ियतः शुचिः \। २७ ।। भ्रुत्वा कथां पुण्यतमां वाग्यत-
` स्त्रो भवेत् । स कदाचिन्न दुःखेन युज्यते नात्र संशयः ।। २८ ॥। भुक्त्वा भोगा-
स्यथाकामं स याति परमं पदम् ।। अत्रैवोडारन्तीममितिहासं पुरातनम् ।। २९ ।
अरण्ये विषमे प्राप्ता शापदग्धाप्सराः किल ।। आसीज्जातिस्मरा काचित्तिये- `
ग्योनि समागता । ३० ।! कुक्कुटी नामतो ह्यासीत् सदा दुःखेन पीडिता ॥ `
तत्स मकंटीनाम ते चोभे शोककर्शिते ।। ३१।। अथ तस्मिन् बनोहेशे परस्पर-
हिते रते । उभे अभूतां सहिते विचरन्त्यौ दिशो दश ।। ३२ 1 ततः कालेन महता `
` वर्षन्ति चागता तिथिः ॥ अदुःखनवमीनाम दुःखव्याधिविनाशिनी । ३२े॥.
गत्वा तां कुक्कुटी प्राहु मकंटीं देवयोगतः ।। अद्य {किचिन्न भोक्तन्यसावाभ्यां श्युण्
कारणम् । ३४ ।। तियग्योनिगते चादौ पुवंकमंविपाकतः ।। दुःखापनत्तये चाच
न भोक्ष्येऽहं त्वया सह ।। ३५ ।। त्वं चेशं शरणं गत्वा नवमीं सुत्रतस्थिता 1! मब
च त्वमश्ञक्ता चेतभुक्ष्व॒शीणणेफलानि च ।। ३६ । महामायाप्रसदेन याहि `
तदिनशेषं तु क्षुधिता पीडिता भृषम् । अजानाती तमेवार्थं पूर्वकमे-
प, ॥
विपाकतः । ३९ ।। निशान्ते तरसा गत्वा वनदेशो विचिन्वती \। ददद
` हिन्दीटीकासहित ` ५: च ४२७)
| जाते महादेव्याः प्रसादतः ।॥ अथ सा कुक्कुटी पञ्चपुत्राञ्जज्ञे पितुः समान् `
| ॥\ ५० ।\ बभूव धनसम्पल्ना सूपल्ीलगुणान्विता । सकंटी पुत्रशोकार्ता बभूव `
| व्यथिता भृनम् । ५१ ॥। पुवंकमं स्मरन्तौ सा कदाचिदेवयोगतः ।। अप्य् ॥
| कृक्कुटी पुत्रान् पञ्चव च पितुः समान् \\ ५२ ।। अमारयत् स्वभृत्यस्तान् पुत्रान् ` |
| सा सकंटी तदा ।\ तच्छिरांसि गृहीत्वा तु कुक्कुटे बाणक ददो ।\ ५२ ।\ अदुःख- |
| नवमीं प्राप्य व्रतस्था च बभूब सा ।। गौरी कृपाविष्टमना ,जननी भक्तवत्सला `
| ॥ ५४ \। ्लिरांस्यादाय सर्वेषां पत्रकास्तानजीवयत् ।। तद्वाणक सुवणस्य शिरोभिः न
| पर्यकल्पयत् ।। ५५ ।। कुक्कुटी पुजयाञ्चक्र गौरीं दुःखविनाशिनीम् ।\ मुदा समाप्य
| तां पूजां भोक्तुं गृहमगात्ततः ।। ५६ ।। तदा तद्राणकं तत्र प्रक्षय स्वणंशिरोयुतम् !
| स्वभत्र पत्रयुक्ताय न्यवदेयत नन्दिनी ।। ५७ ।। मकंटी जीवतस्तास्तु सा ददर््ा- 1
ल्िुत्रकान् ।\ इष्टा पुनः पुनः साथ ररोद भृशदुःखिता ।। ५८ ।\ आत्मानं
| निन्दयामास मकंटी विह्वल्ग सती ` \ आगत्य सख्यां सदनमात्मानं बह्वनिन्दयत्
| ॥ ५९ ॥1 पापिन्यहं दुराचारा दुरभगाऽशरुतपूवकम्।। बालहत्यात्मकं पापं चरितं
नात्र संशयः ।\ ६० । इत्याकण्यं ससीवावयं कुक्कुटी विस्मिताभवत् ।। अपृच्छत् `
कार्णं क्षिप्रं शोकसागरदायकम् ।। ६१ ।। इद शीलं कथं भद्रे कस्माद्रोदिषि
` तद्वद \। विभोगा राजपत्नी त्वं मान्या स्वंसखीष्वपि ।! ६२ ।। मकटी कुक्कुटी! = |
वावयं श्रत्वा वृत्तं न्यवेदयत् ।। तस्याश्च कुक्कुटीपुत्रः प्रायर्चित्तमकारयत् !॥ |
॥1६३।। स्मरन्ती च व्रतं देव्याः कुर त्वं च यथाविधि । कुक्कुटयेति समादिष्टा |
व्रतं चक्र यथाविधि ।। ६४ ।। सकंटी तत्प्रभावेण सगर्भा संबभूवह ।\ अथ देव्याः
` प्रसादेन मकंटी सुषुवे सुतम् ।। ६५ । सुन्दरं सुन्दरं नाम पुथ्वीभारसहं वरम् ।॥
राजपत्नी विश्रपत्नी सुखिन्यौ सम्बभूवतुः ।॥ ६६ ।। इह लोकं च विख्यातम- .
दुःखनवभोव्रतम् \\ सीतया यत्कृतं चतहमयन्त्या कृत तथा ५ ।॥ ६७ । जन्याभिबं- |
(डद). "~ 5 ध्र 1 ५. [नवमी `
लिए गणपतिका पूजन करूंगी ; यह् संकल्प करके गोबरसे लिपी हयी भूमिम बनो हुई वेदौको गृडसे किपौ ॥
ईखसे ठकी, अपुप जौर पायससे य् क्त ऊपर मण्डपिका करके तहां पीठपर आसनसे लेकर प्रतिमाको स्थापित
करके; “ ओं गौरीनिमाय " इस मन्त्रसे अथवा “ ओं नमो देव्ये महादेव्यै शिवाये सततं नमः” इत्यादि मन्त्रसे `
गौरीका आवाहन करके पूजन करे पहिला मन्त्र वेदिक तथा दूसरा पौराणिक है दूसरा प्रसिद्ध है सप्तशतीभे =
च्छा है ! वैदिक मन्द्रको यहीं लिखकर सत्यही अथं कहते हँ-“ ओं गौरीमिमाय सलिलानि तक्षत्येकपदी
दविपदी सा चतुष्पदी अष्टायदी नवपदी बभूवुषौ सहस्राक्षरा परमेव्योलन्।)” जव मौरी सृष्टि रने ल्गीतो
पहि सलिलका निर्माण किया फिर वो एक प्रधानको बना एक पदी तथा दुसरे जदित्यको बनाष्िपदीहो
~: गयी, चासें दिक्षाओके निर्माणके वाद चतुष्पदी तथा जाटठोके वनानेके बाद अष्टायदी, नौओंसे नवयदी ओर
दज्ञोते दक्षपदी बन गयी ! फिर वो अनेकों उवकोंवाली हो गयी । इस परम सृष्ठिके निर्माणमें वो एक अनेक `
शूपसे हो गयौ सबमें उसीका एक आत्मा है \\ यह टीका हमने भाष्यकार दुर्गाचाय्येके अनुरोधसे कौ दहै, पर `
हमे कुछ ओर ही अभीष्ट है उसे ही लिखते है, मौरी-गोरी देवी, सलिलानि-भलीभांतिल्यको प्राप्त हृए
पदा्थजातोको, तक्षती-रचती ` हई एकपदी रचनाकी प्रथमावस्थाको प्राप्त, बभुबुषी-होजाती है, फिर वो `
दविपदी-चिद् भौर अचिद् रूपमे होजाती है । फिर चतुष्पदौ-कूटस्थ ब्रह्म जोव ओर ईश्षरूपमे होजती `
है, फिर चो विवेकादि आठ रूपमे होतौ है जो सात रूपोसे संसार जौर एकल्पते मुक्त करती है ।
फिर दषहापदी-दक्षदिशाओके रूपमे भी वहौ होती है । इस मेरे अर्मे प्राधःशांकरसिद्धान्तको छाया
आगई है पर इसका अथं इतनेसे समाप्त नहीं है भ्रत्येक दक्षेनके अनुसार इसका अथं हो सकता है।
गौरीके आवाहनमें इसका विनियोग प्रकृते किया है, इस कारण हमने भी ओर अर्थोकी तरफ `
कम ध्यान देकर गौरोकेही कतृत्वपर इसका अथं किया है । इसीतरह भन्त्रो गणेशजी जर इन्द्रादिकं
लोकपालोका आवाहन करे । श्षिवके अर्धाद्धको धारण करनेवाली अच्छे नीलवस्त्रोको पहिननेवाली लोके `
हरनेवाली गौरी उमादेवीका मै आवाहन करत हुं, इसते आवाहन, दिव्य पत्रोको धारम करनेवाली `
दुग्धदानमें लगीरहनेवालौ तीन नयनोवालो तुस विभूतिरू्पा गौरीका में स्मरण करता हूं इससे ध्यान
हे देव्षियोसे सदाही. प्र्थतकी ग प्रसन्न मुखावाली मातः ! मेने भावसे जो आसन देदिया है उसे
ग्रहण कणिये, इससे आसन सब ती्थेभय तथा सब भूतोका उवजौवन यह पानौ मेने द्यादहै दहसे
८ 4 पाद्यके चये ग्रहण करिये, इसमे पाद्यः गंगाजादि सब ती्ेसि भक्तिपुवेक पवित्र जख काया हूं इसमें गन्ध
पष्प अक्षत. पञ्ुएं ह! मं इसे आदरे देताहुं अप ग्रहण करिये, इससे अध्य; हे मातः!
भंगाभादिक सब अच्छे तीथं ओर नदमें आपके स्नानके लिये कायाहूं हे देवेक्षि ! ग्रहण करिये, इसमे
~ . स्तान “सवे भृषाधिके सौये” इससे वस्त्र; “श्रीखण्डम्” इससे गन्ध “माल्यादीनि इससे पुष्प “वन `
` स्पतिरसोद्भूत' इससे धूप “साज्यं च “इससे दीय, “अन्नं चतुविधम्' इससे निवेद्य, पुगीकलम्" इससे
. । ताम्बूल, हिरण्यगभं'“ इससे दक्षिणा; “खानि कानि च इससे भरदक्षिण, “नमो देव्ये" इससे नमस्कार `
रतानि ] ` | हिन्दीटीकासहित | न (४३९)
| एवम् जो मिलगया उससे अपने भोजनका निर्वाह करते है वे सदा सुलौ होते है ६ मेः भषको
| स्थिति प्र्यक्ती करनेवाली शिवाकौ श्षरग जाते हों तो बे सौ जन्ममं भी दुख नहीं पाते ॥८।। ऋषि
| बोले कि, महाराज ! आप अदुखनवमोके नामसे क्या कहगये ! यह कब होगी ? जब कि वो कायं
` ह्ये ॥९॥) मौरी कसे पूजनी चाहिये उसका विधान केसा है ? यथायं रूपसे चह सब पूरा समाचार
| किये \\९०।\ यहं बडाही पुण्यदायक है मे कहता हूं आप सनं । इसे अभक्त शठ एवं नास्तिकके
| लिये न देना चाहिये ॥\११। मेँ श्रद्धालू जन आपके चयि एकाग्रचित्त होकर भूतिकौ देनेवाली पुष्य-
| दायक सब विधि कटंगा जिसमे कि कु भी बाकी न रहेगा ॥१२।। सबकी आदि कारण रज तम `
सत्व मयौ स्वभावसे नित्य आनन्दमयी परमेश्वरी देवी तसके पार प्रतिष्ठित हं ।१३।। यह ब्रह्मण्डकये
| ॥ जननौ एवं उत्पत्ति-स्थिति ओर प्रलय कौ करनेवांखी है यह प्रकृति ओर पुरुष इस भेदसे अपनेको `
/। दोतरहका करती है ।१४।। जैसे क्ञिव वेसी ही गौरी एवं जसी गौरी वेसेही शिव, जेसी गौरी वेसौ
लक्ष्मी दुःख जौर पापोको नष्ट करनेवाली हे ।। १५) उनकौ पूजाके विधानको करनेमे कोई भौ इख |
| नहीं रहं सकता, भाद्रपद महीनामें जो शुक्ल नवमौ हौ अथवा कोई भी पूर्णा तिथि हो ।\१६॥।
| जिसमे भस्तदोष आदि न हों बो सव दुखोको नितान्त हरनेबाली है । उस तिथिं मनुष्य प्रातःस्नान
| करके पौषे नित्य विधिकर १७१ मौन पूर्वक घर आ संयत हौ व्रतम रगजाय, किसीका दुलदायी
| न बने, पवित्रस्थानमं रहे ।१८।। गोवरसे ल्यं हए पवित्र देहम शुभ मण्डपिका बनावे उस जगह
| कुंकुम आदिते अंकित अच्छा कुंभ स्थापित करे ॥\१९। उसे अच्छे वस्तरसे विधिपूर्वकं ठक दे । उसपर
| विधिके साथ आचाय्यंसे आज्ञा लेकर संसारको धारण करने ओर पालनेवाखौ एदं आनन्दकौ देनेवाल
` देवीका वायनः दे ।।२१।। यदि उपवासे समथं हो तो रातको जागरण करके ही वितावे जो वित ¦
नहो तो भोजन कर लेना चाहिये या पानी पीले ॥२२)) अथवा सावधानीके साथ बरतक्े खानेके
1\२३॥ स्वच्छ प्रभातके निकलनेपर अपनी नित्य कियाओंको करे शक्तिके अनुसार पवित्र सपत्नीक
. ब्राह्मणोको भोजन करावे ।१२४।। पीछे देवौका विसजेन ओर आचायंका पुजन करना चाहिये । अपनी
` -क्ाख्लाका यानी रेषे विधानोको जाननेवाला आचाय तो नौ वषं इसे कराय ।।२५।। सोनेक भूषण
| ओर वस्त्रोके साथ उसे नमस्कार करके सभपित कर दे पांच नारिकेलोका
। बन्धुजनोके सथ बेठकर भोजन करे ।१२७।। मौन होकर चित्तता परम पवित्र इस कथाको सुने
| वो कभी दुखी नहीं होता इसमे सन्देहं नहीं है ।\२८।। इच्छानुसार 0
| पदको चला जाता है ! इसी विषयमे एक पुरातन इतिहास कहा करते हं ।\ २९ कोई
पिः 1 जो कि, जातिस्मर यानी अपने अनेक जन्मोका
दुखनाह् करनेका गुप्त उपाय बताता ह-चाहे मखं ही हयो पर अदूखं नवमौके दिन ॥\७।। उत्पत्ति ` 1
| उसाका पूजन करे ।\२०।। उपचारत पूजकर वारंवार प्रणाम करे फिर पक्वान्न ओर फलोके साथ `
फल लाल, चित्तम कोई तरहकी हिसा न हो । नाचगानके साथ रातमं जागरण करना चाहिये
५ का इसके साथ वायना युक्त `
है ॥1२६॥ नौ संख्याके पक्वास्रके साथ ब्राह्मणको निवेदन कर दे पीछे यतात्म हौ पवित्रतापूरवक = `
र मोगोंको भोगकर अन्ते परम `
का हाल जानती थी ति्यय् योनिम ६
11 उसका उस समय कुक्कुटो नाम था बो सदा दखसे पीडित रहती थो `
कौ पे र रहती थी ।\२३१। परं दोनों
[नवमी- `
` एषः कहकर कुक्कुटी उपवासः करतीहू्ई मौन हौगई ।! ३७ ।। मकंटी भी. उसके कथनको स्वीकार ` व
रके वतौ होगई । फिर मर्कटी पहिले वनम जा \\३८ \\ बाकौ दिन वहां रहकर एकदम भख बी `
होगई । पिके कर्मके ` विपाकसे वो व्रता प्रयोजनः उसे यादन रहा ।३९।। प्रातःकाल: जखदीसे छ
वनम दृढी हुई मोरे अंडको पागई । वो. उस समय अत्यन्त भूली थौ ।॥४०॥ इस कारण उन्हे `
खा पानो मह धो वहानेके रूपमे भखकी तकलीफ दिखाती हुई कुक्करटोके पास आई \\ ४१ ॥।। ह
नाराज होकर दुच्छरुरी भरकटीते बोलो कि, हे दृष्ट ! तुने कुछ सा लिया है इससे प्रसन्न दील रहौ र
है ॥ ४२ 1) तूने बाणीसे ब्रत धरष्ट. क्ियाहै हे पापिनि! सेने तञ कितना रोकाथा। `
` : तुन मेरी बात बात नहीं नानी ? क्या तेरे प्राण न निकले ? मरजाती थीक्छा? ।।! ४२ ॥ ५
` भयके भिटानेवाले केदारनाथके शरण मेरे साथ चल, वहां हम बुम दोनों देहका त्याग करके परम॒ `
मतिको प्राप्तं करेगी ।।४४।। फिर वे दोनों भूतभावन केदारको चलदी वहं एकाग्र मनसे कुक्कुटी `
केदारको याद करने लगी ।\४५।। में वेदे जाननेवाठे किसी धनाढच कुलमें जन्म लगी एसा `
मानकर इवकुटीनं अधनं शरीरको अग्निम भिरादिया ।४६।। में राजाकी रानौ बनू एसा कुक्कुटीके 4
ही वाक्यसेही बोधितं हौ मनसे कहकर मकंटीने अपने क्षरीरका त्याग किया ।\४७।। कुक्कटी महा-
देवीकौ प्रसन्नतासे पवित्र ब्राह्मण कुलमं किसी ब्राह्यणकी कडकौ बनो उसका विमररत्न नामके 1
दिजबालकके साथ विदाह् हुजा । ४८ ।। उसका मनं पुण्य बडानेमं था । वो पतिक सेवमें सदा ` ध
५ मन लगाये रहनेलगी । मकंटी भौ उसी तरह राजाकौ रानौ होगई ।\४९।।. महादेवीके प्रसादसे हषः -
जन्ममे भी उन्हे अपने पहिले जन्मोकी याद रही कुक्कुटीने पितके ही समान पाच पुत्र षेदा करिये
१५० बो सूपं शील गुण ओर धनसे संपन्न हई । पर मकंटी पुत्रके शोकसे एकदम इखी होगई `
| १५१। प्रहिले कर्मको स्मरण करतौ हुई उरसंने कभी देवयोगसे कुक्कुटीसे पाचों पोको देखा जो _
` पिताके समान ही भे ।\५२।। उसने अयने नौकसोसे उन पाचों ठ्डकोको मराडाला । एवम् उनके
किरोका वायना कुककुटौको दिया ।।५३।। कुक्कुटी अदुलनवमीके विन व्रते बैठगई, स्वभावसेहौ षा `
"करनेवाली भक्तवत्सला संसारकी जननौ गौरीने ।॥\५४।। उन शिरोको सेकर पुत्रको जिलादिया \
सोनेके शिरोसे उनका वायना किया ।५५।१ ङक्कुटीने दखोको मिटानेवाली गौरीकी पुजा की फिर
| पजा पुरौ करके भोजन करनेके लिये घर चली आई ।१५६।। आनन्द करनेवाली वो सोनकेशिसे
साथ उसका बायना देखकर पुत्रयुक्त पतिके लिये देदिया ॥१५७।। मकंटीने अपनी सहैलटीके बेटे `
जीते देले वो उन्हं वारंवार देख इूखी हो हो रोने लगी ॥\५८॥ ओर विह्वल होकर अपनेकी
निन्दाकरने लगी सलीके घर आकर अपनी बहुतसी निन्दाको ।५९।१ कि, भे पायिनी दुराबारिणी `
भगा हू, मेने अक्ञान पवेक बारहत्यारूप पाप किया है । इसमें सन्देह नहीं है ।६०।। सखीके एषे _
वाव सुनकर कुक्ुटीको बडा विस्मय हां ।। शौच्रहौ शोकके सम्द्रोको देनेवाला क्या कारण है यह पुश |
५६१ कि तेराएसा शील वयो है ? ए भद्रे ! तु सेतौ बयं है सो कह । वनते सब कुछ है । राजाकी प्यारी `
त ` ॥\ ६२ | भकेटीने कुक्कुटीके वाव्योको गे सुनकर सब समाचार कह
यनं पूत्रोसे कराया ।। ६३ ।। देवौके त्रतका स्मरण करती हुई
उसनं विधिके साथ देवीका त्रत किया ।! ६४ ।। उस ब्रत के प्रभावसे
प,
४ । । र ।
॥ (11111 ८ 1 साना किं भ १1
नन ५८६. 8 त स 12.120. ५"
॥ ध
क भद्रकालौव्रतम् | |
अथाक्िवनश्ुक्लनवम्यां भद्रकालीनत्रतं हेमाद्रौ विष्णुधस-राजोवाच
विधिना पूजयेत् केन भद्रकालीं नराधिप ।\ नवम्यामाश्विने मासि शुक्लपक्षे नरो- `
पुष्कर उवाच ।। पूर्वोत्तरे तु दिग्भागे शिवे वास्तुमनोहरे ।\ भद्रकाल्या `
| गृहं कायं चित्रवस्त्रेरलड्कृतम् ।\ भद्रकालों पटे कत्वां त्र खपुजयेदूद्विज ।\
| अष्टादशभुजा कार्या भद्रकाली मनोहर ।\ आलीढस्थानसंस्थाना चतुसहरथे `
। स्थिता ।\ अक्षमाला त्रिशूल च खडगश्चमं च पाथिव ।। बाणचापे चकर्तव्य
| ज्ङ्कप्चे तथेव च । सुकलूुवौ च तथा कार्यो तथा वेदिकमण्डलू \। दन्तशक्ती च॒ `
। करतेव्ये तथा पाञ्चहृताक्नौ ।। हस्तानां भद्रकाल्याश्च भवेत् कान्तिकरः परः |
| एकद्चेव महाभाग रत्नपात्रधरो भवेत् ।। आदिन शुक्लपक्षस्य अष्टम्यां प्रयतः
। शचि: ।। तत्र चायुधचर्मां छत्रं वस्त्रं च पजयेत् ।। राजलिद्धानि सर्वाणि तथा
1: छोस्क्ाणि पूजयत् ।। पुष्पमध्य फलभक्ष्यभज्यहच सुमनोहरं ।}\ बलिभिश्च | 9
। विचित्रैव्च प्रेक्ष्यादानस्तथेव च ।! रात्रौ जागरणं कुयत्तित्रैव वसुधाधिप । उपो-
षितो द्वितीयेऽह्ि पजयेत् पुनरेव ताम् ।। आयुधाद्य च सकलं पुजयेहसुधाधिष \॥
एवं संपुजयेहेवीं वरदां भक्तवत्सलाम् ।\ कात्यायनीं कामगमां बहुरूपां वरप्रदाम् ।\ ५1
पलिता सवैकामेः सा युनक्ति वसुधाधिप ।। एवं हि संपुन्य जगत्प्रधानां यत्रतु
कार्या वसुधाधिपेन ।। प्राप्नोति सिद्धि परमां महेशो जनस्तथा न्योऽपि च वित्त-
शक्त्या ।\ इति भद्रकालीव्रतम् ।॥ ` (1
1 भद्रकालीव्रत-आदििवन शक्ला नवमीके दिन होता है ) यहं हेमाद्रि विष्णुधमसे लिखाहै राजाबोकले
कि, ह नराधिप! भद्रकालौका पुजन किस विधिसे करना चाहिये ? जव कि है नरोत्तम ! आस्विन शुक्ला =
नवमी हो । पुष्कर बोले, कि, सुन्दरः पूर्वोत्तर दिशम जो कि वास्तु के लिये मनोहर हौ उसमे भद्रकालोका = |
रभे वस्त्रे अलकृत घर बनाये । हे द्विन ! उसमें भद्रकालीकी पटपर बनी हुई मू्तिको पूजे, यह अठारह ` |
2 नवरात्रबरतम् 1
अथ देवीपुराणोक्तं नवरात्रत्रतम्-ग्रह्मोवाच ।। श्यणु शक्त प्रवक्ष्यामि `
यथा त्वं परिपृच्छसि ।। महासिद्धि्रदं धन्यं सवशत्रुनिबहंणम् ।। सवेलोकोपका-
सार्थं पूजयेत् स्ववृत्तिषु ।\ कत्वथं ब्राह्मणाद्येद्च क्षत्रियेभूमिपालने 1। गोधना्थे
वत्स वश्यैः शरैः युत्रयुखाथिभिः ।। सोभाग्याथं तथा स्वीभिधनाथं धनकाक्षि-
भिः ।। महात्रतं महापुण्यं शडकराद्यैरनुष्ठितम् ।\ कर्तव्यं देवराजेन््र॒देवी-
भषितसमन्वितैः ।} कन्यासंस्थे रवौ शक्तः जुक्लासारभ्य नन्दिकाम् ।। नन्दिका
प्रतिपत् ।\ अयाचौ त्वथवेकाशौ नवताक्ली त्वथवा पुनः ॥। प्रातःस्नायी जित- `
दन्द्रस्तरिकालं शिवपजकः ।\ शिवह्च शिवा च शिवौ तयोः पूजकः ।। जपहोमस-
मासक्तः कन्यकां भोजयेत् सदा ।। अष्टम्यां नवगेहानि दारजानि शुभानि च।।
एकं वा चित्तभावेन कारयेत् सुरसत्तम ।\ तस्मिन् देवी प्रकतव्या ह॑मीवा राजती
` तुवा ॥\ महाक्ष लक्षणोपेता खड्गशूल च पूजयेत् ।। सर्वोपहारसंपन्चवस्त्ररत्नफला
दिभिः \\ कारयेद्रथदरोलादिपुजां च बखिदेविकीम् ।। बलिग्राहिणो देवा विनायका-
दयस्तत्संबन्धिनींबलि देविकीम्।पुष्यैशच द्रोणविल्वाचेरजातिपुन्नागचम्पकेः ।प्रोणः `
` कूरुवकः ।। विचित्रं रचयेत् पजामष्टम्यामुपवासयेत् ।। दुर्गग्रतो जपेन्मन््रमेक- `
चित्तः सुभावितः ।। तदद्धयामिनीक्ञेषे विजयार्थं नपोत्तमः ।। पञ्चाब्दं लक्षणो- |
` पेतं महिषं च सुपुजितम् ।\ विधिवत् कालि कालीति जप्त्वा खड्गेन घातयेत् ।\ `
` तस्योत्थं रुधिरं मासं गृहीत्वा पुजनादिषु ।। निऋछताय प्रदातन्यं महाकौशिक `
मन्त्रितम् ।। तस्याग्रतो नुषः स्नायाच्छत्रं कृत्वा तु पिष्टजम् ।! खड्गेन घातयित्वा `
ता नि 1 | = \ › हिन न्दीटीकासि हत ( ४४३ ) न+
प 09 11 11 स व 1 म ‡ पथ ` ।
५ "0 | 1. 1 स 1.0... ध
नवरानत्रत-देवौ पुराणम कहा हुभा है-रहया बोले कि हे इन्द्र ! जो सुञञे आष पृछते हे उसेभे कहता `
` ह \ यह सहा सिद्धि देनेवाला है धन्य हैः सभी वैरियोक्ता दमन करनेवाला है । सबके उपकारक व्यि सभी ` 3
व. त्तियोमं इसे पूजे यज्ञफे चये ब्राह्मणको भूमि पालनके लिये कषत्रियकौ एवम् हे वत्स † गोधन लिये वेक्यको |
पुत्र सुख के लिये शोको स्त्रियोको सौमाग्यके लिये धने चाहनेवाले को धतङ्े लिपरे इते करना चाहिये
इस महापुष्यशषाली बडे भारी व्रतको शिवजीने भौ किया है, हे राजेन ! देवीकौ भितं के साथ इते अवश्य ==
ही करना चाहिये, कन्यके सुध शुक्ला नन्दा से लेकर ।।नंदिकः प्रतिषदाका नाम है ॥ विनामगिफला- `
। १ हारको करनेवाला अथवा एकवार करमेवाला या रातको करनेवाला यने, प्रातःकाल स्नान करे, कोष सोहा- |
दिको जीते, तीनवार किवका पूजन करे 1 शिव ओर लिषाका एक शेष करके शिव रह जाता है \ उन दोनोको
जो पने वो शिव पूजक कहाता है यानो महादेव पावती दोनोंकाही पजन करे ! ज मौर ठोभमे मन गाये =
रह, कल्याओंको सदा भोजन करावे । अष्टमौके दिन काठके बनधेहुए सुन्दर नये घरोको अयथा धन न हो =
तो एक घर बनवाये, है सुरसत्तम ! उसमे सोने चादौ भिदु वा काठकौ सब लक्षणों सहित देवौ स्थापित करे,
` उसके साथ खड्ग ओर शुल्को भौ पूजा करे । सब उपकारोके साथ एवं वस्र रत्न ओर फलादिकों के सहित `
रथ ओौर डोला आदिक पूजा करे तथा जिन देवताओको बलि दौ जानेवाली है उनकी पूजा कर पष्य द्रोण |
बिल्व जाति पुञ्नाग ओर चभ्यकोसे विचित्र पूजा रचे । दोण कुरुबकको कहते हं । तथा अष्टमी के दिन उपवासं
भी करे। एक चित्त हो प्रसन्ताके साय दुगकि सामने मंत्र जय करे उसकी आधौरात बाकी रहं नानेषर राजाको
| चाहिये कि , जौतके लिये पांचवरषके सब लक्षणों सहित पुजा किथे पये भंसेको विधिके साथ “काली काली
| एते जपकर तल्वारसे काट दे । हे इन्द्र! उसके ओ खून मांस हों उनहं मंजके साथ निकऋेतको दे दे । उसके `
| सामने राजाको स्नान करना चाहिये । पिष्टक वैरी बनाकर उते लङ्गसे काट उति स्कन्द भौर विशाखे =
` लिये देदे। इनके बाद प्रस होकर क्षीर, सपि, जलाविक कुंकुम, अगद, कपूर ओर चन्दनसे पुजा कर धूषदे!
| हमादि, पुष्य, रत्न, वस्त्र, भूषण भौर बहुता नेवे् देवकी भेद करना चाहिये । देवौके भवतोंका पुजन करे ।
कन्या ओर प्रमदाएं जो हों इनका भौ पूजन करे । द्विजाति तथा आंधरे ओर पावण्डियोको अश्नदानसे `
. प्रसन्न करे । जो दरगाकी भवतस लगे रहते हों अथवा जो महान्रतमे परायण हं उनका विशव स्पते पुजन
~ =
करे; व्योमि , बे तो चण्डिका स्वरूपही हं । उसी रात को मातृका दवियोकौ भौ पूना करनी चाहिये ।
चण्डिका सथानमे ध्वज, छर, ओर पताकाोको भौ लगाये, सन्दर वाजोरे सय रव-यात्रा जौर बलि होनी = 1
काहि । ये सब इस तरह जास्त के विषानते किये जाये कि, देवो भस हो यह महानवमी न पूना हौती है =
सब कामोको पुरा करनेवाली है \ यह सब वर्णोमिं होती है । सबके ही कामको पुरा करतौ है । है वत्त!
| पुराणका कहा हु नवरात्रका ब्रत पुरा हमा ॥ = । (1
संपूजये थयेत्ततः ॥। महिषध्नि महामाये चामुण्डे
इ देवदेवं संपाथयेत्ततः
(49 र
मेरमूर्धगतस द्कृताभिषेकां पञ्चामृतौगरिसुतामभिषेचयन्ति । ते दिव्यकल्पम-
नुभूय सुवेषरूपा राज्याभिषेकमतुलं पुनराप्नुबन्ति ।\ देवी पुराणे-सुगन्धिपुष्प-
तोयेन स्नापयित्वा नरः शिवाम् ।\ नागलोक समासाद्य कडते पच्चगेः सह॒ ।।
द्रोणपुष्पं बिल्वपत्रं करवीरोत्पलानि च ।। स्नानकालं प्रयोज्यानि देव्य प्रीतिकराणि
च ।। भगवत्यै नरो दत्वा विष्णलोके महीयते ।। स्नापयित्वा नरो दुर््ण नवम्यां `
हेमवारिमा ।। सौवणेयानमारूढो वसुभिः सह मोदते ।। रत््नोदक विष्णुलोकं
लभते बान्धवः सह् ।। घतेन स्नापयेस्तुं तस्य पुण्यफल श्युणु \। दक्षपुर्वान्दहापरा-
नात्मानं च विशेषतः ।। भवाणेवात्समुद्धत्य दुर्गालोक महीयते।। क्षीरेण स्नापयेद-
स्तु श्रद्धाभक्तिसमन्वितः ।। चण्डिकां विधिवद्रीर इन्द्रलोकं महीयते ।\ स्नापये-
दिधिना वीर दध्ना दुर्गां महीपते ।\ राजतेन विभानेन शिवलोके महीयते ।।
पञ्चगव्येन यो दुर्गां तथा च कुशवारिणा ।। स्नापयेद्िधिवन्मन्त्ेब्ह्यस्नानं हि
तत्स्मृतम् ।। एकाहैऽपि च यो दुर्गा पञ्चगग्येन चण्डिकाम् ।। स्नापयेद्चपलार्दल
सगच्छदिष्णुस्चिधौ ।। तच्च चण्डीगायन्या ।। सा च --“ नारायण्यै च विद्ये
चण्डिकायच धीमहि ।। तन्चहचण्डी प्रचोदयात् ” इति ।\ कालिकापुराणे --कप
भविष्ये--चण्डिकां स्नापये्यस्तु नर इकषुरसेन च । गारुडेन स यानेन विष्णुना
सह मोदते ।। पितृनुहिश्य यो दुर्गां मधुना पयसापि च ।\ स्नापयेत्तस्य पितरस्त॒प्ता
ऽगुरुवारिणा ।। इन्द्रलोकं समासाद्य कीडते सह किन्नरेः ।। वाराहीत
७
मन्तरेण पाद्यादीनथ षोडञ।।इतरेरुपचारेश्च पूरवप्रोकतेशव भैरव।।
\\ भविष्ये -रत्नबिल्वाक्षतैः पु
| व्रतानि ध हिन्दीटीकासहित | ४४५ )
| च्योभ्यं परिकीतितः ।। अध्यपात्रफलम-मत्पात्रेण नरो दत्त्वा वाजपेयफलं लभेत! `
ताश्रपात्राघ्यंदानेन पौण्डरीकफलं लभेत् ।। दत्त्वा सोवणेपात्रेण लमभेदहुसुवणंकम्
| 11 हेमपात्रेण सर्वाणि ईप्सितानि कभेदूभुवि ।\ अघ्यं दत्तवा तु रोप्येण आयू राज्यं
` फलं लभेत् । पलाज्ञ पदयत्रभ्यां गोसहस्रफलं लभेत् ।। रोप्यपात्रेण दुर्गाये विष्णु-
| यागफलं लभेत् ।।! चन्दनेन सुगन्धेन अर्या यस्तु समालभेत् । कुडकुमन च॒ ` |
| लिमप्ताङ्धां गोसहस्रफलं लभेत् ।! विलिप्य कष्णागुरुणा वाजपेयफलं लभेत् ।॥
। मगानकेपनं कृत्वा ज्योतिष्टोमफलं लभेत् ।। मृगः कस्तूरो ।। तथा-~ चन्दनागुर-
| कपूरेयेस्तु दुर्गा विलेपयेत् ।। संवत्सरशतं दिव्यं शक्रलोकं महीयते ।। देवीपुराण
चन्दनागुरुकपू रेः इलक्ष्णपिष्टेः सकुडकूसेः ।। दुर्गामालिप्य विधिवत्कल्पकोटि `
।\ चन्दनं मदकपु ररोचनं च चतुष्टयम् ।। एतेन रेपयेदेवौं सर्वंकामानवा-
प्तुयात् \। पष्पाणि--देवीपुराणे-मल्लिका उत्पलं पद्यं शमीपुन्नागचम्पकम् ।\
| अश्षोककणिकारं च द्रोणवृष्पं विशेषतः \\ करवीरं शमीपुष्पं कुसुम्भं नागकं- `
| सरम् ।\ कुन्दहच युधथिका मल्ली पु्नागदचस्पकं नवम् ।\ जपा च कंतकी मल्ली
बृहती शतपत्रिका ।। तथा कुमुदकह्वार बिल्वपाटलमालति ।! यावनीबकरुला- `
| श्ोकरक्तनीलोत्पलानि च ।। दमनं मरुबकं चैवशतधा पुण्यवृद्धये ।\ केतकौ `
चातिमुक्तरच बन्धूकं बकुलान्यपि ।! कुमुदं कणिकारं च सिन्दुराभं समृद्धये ।॥।
` विल्वपत्रेरखण्डेडच सकृदेवीं प्रपुजयेत् ।। सवंपापविनिमुक्तः शिवलोक महीयते ।।!
| मणिमौक्तिकमालां च वितानं दुकरुलं तथा ।। घण्टादि सवेदा क्वा हृमपुष्पं तु `
| हेमपृष्पैः ज्िवाचेनात् \ भविष्ये-प्रत्येकमुक्तपुष्येषु दलानिष्कफलं लभेत् ।) सग्ब- `
| देषु च तेष्वेव द्विगुणं काञ्चनस्य तु ।। करवीरल्रजाभिङ्च
भिक्च पूजयेद्यस्तु चण्डिकाम् ।। `
त्वा नरो भक्त्या चण्डिकां र
गमफलं रन्ध्वा सूयं लोके महीयते ।। पू
पदधिदूर्वाडकुशस्तिलः ।। सामान्यः सवेदेवानाम- ध र
।। तावद्धक्च वृताः पुत्रैः पोत्रेश्चैव समन्ततः । धरिया सहेव युज्यन्ते
प्तां पूजयेददुगा , दिव्ययुष्पाधिवासिताम् ॥। तालवृन्तन संवीज्यं महासत्रफलं
लभेत् ।\ भविष्ये- सर्वेषामेव धूपानां दुर्गाया गु्गुटुः प्रियः ।! मन्तरस्तु-धूपोऽयं
देवदेवि घतगग्गलयोजितः ।\ गहाण वरदे मातदुंग देवि नमोऽस्तु ते ।। कृष्णा-
` गुरं नरो दत्त्वा गोसहस्रफलं लभेत् ।! माहिषाख्यघृताभ्यवतं दत्त्वा बिल्वमथापि
वा । वाजपेयफलं प्राप्य सयेलोकं महीयते ।! सकृष्णागुरुधूपेन माहिषास्येन
मङ्कला ।। शोघयेत्पापकलिलं यथाग्िरिवं काञ्चनम् ।। कृष्णागुरुं सकपू र चन्दनं
सिल्हकं तथा ।। तथा श्ब्दसमुच्चये --भेगवत्ये नरो धूपमिमं दत्वा नराधिप
।\ इह कामानवाप्यन्ते दुर्गालिके महीयते \। घुतदीपप्रदानेन चण्डिकां पुजयंन्नरः।।
सो ऽहवमेधफलं प्राप्य दुर्गायास्तु गणो भवेत् ।। तेलदीपप्रदानेन पूजयित्वा च
चण्डिकाम् ।। वाजपेयफलं प्राप्य मोदते सह किच्चरः । । मन्त्रस्तु --अग्निज्योती
रविज्योतिष्चन्द्रज्योतिस्तयेव च ।। ज्योतिवामुत्तमो दुगं दीपोऽयं प्रतिगृह्यताम् ।\
` शिवरहस्ये --देदीप्यते सकनकोज्ज्वल्पद्यरागरत्नप्रभाभरणहेममये विमानं ॥\
दिव्याद्धनापरिवृत्ते नयनाभिरामं प्रज्वाल्य दीपममलं भवने भवान्याः।।भविष्ये- `
घतेन कुरुशाद्'ल ह्यमावास्यां तु कातिके ।। विेषतो नवम्यां तु भक्तिश्रद्धा
समन्वितः ।। यावन्तं दीपसंघातं घतेनापुरयं बोधयेत् ।। तावत्कल्पसहस्राणि दुर्गा- `
लोके महीयते ।। दीपग्रदानं यो दद्याेवेषु ब्राह्मणेषु च ।! तेन दीपप्रदानेन अक्षय्यां
गतिमाप्नुयात् ।। गुडखण्डं घृतान्नं च तथा श्कंरयापि च ।। घतेन परिपक्वान्नं
` दत्वा च ब्रह्मणः पदम्।।स्यादितिलेषः ।। शाल्योदनं रसालां च प्रानं बदरजं तथा ।।
यः प्रयच्छति दुगयिं स गच्छति शिवालयम् ।। रिवा दुर्गा ।। रसाला सुपल्ास्त्रे--
इषदम्लदधिक्ञकंरापयः साधितेन्दुमरिचः सुगालिता ।! पित्तनाल्ञमर्खछच निहन्ति
वै मोदनं च कुरुत्ते रसाछिका ।\ पानकं वै्यके--गोडमम्लमनम्लं वा पानकं
` सुरभीकृतम् ।\ तदेव खण्डमद्रीका
व्रतानि 1 हिन्दीटीकासहित ६ ध (४४७)
सि
पिष्टकं च यावकं कृसरं तथा ।! मोदकं पथुकादीनि देव्यै पक्वानि चोत्सजेत्।! `
| इच्यादित्यथंः ।! निवेदयेन्महादेव्ये सर्वाणि व्यञ्जनानि च ।! क्षीरादीनि च गव्यानि ¢
माहिषाणि च सर्वेः ।\ ताम्बलानि च दत्त्वा तु गन्धर्वः सह मोदते ।। विष्णुधरमे-
। तन्तुसन्तानसन्नद्धं रञ्जितं रागवस्तुना\। दुगेदेवि भजस्वेदं वासस्ते परिधीयताम्
| भविष्ये--वस्त्राणि तु विचित्राणि सृक्ष्माणि च मृदूनि च । यः प्रयच्छति दुर्गाय `
| स गच्छति श्िवाल्यम् ।। यावतस्तन्तवो वीर तेषु वस्त्रेषु संस्थिताः ।॥ ताव- `
। द्रषसहत्राणि मोदते चण्डिकागुहे \ अलङ्कारं तु यो दद्याद्विप्रायाथ सुराय `
वा ।\ स गच्छेदारुणं लोकं नानाभूषणभूषितः ।! जातः पृथिव्यां कालेन ततो
& द्रीपपतिभवेत् विष्णधम ~~ विभूषणप्रदानेन रजा भवति भते ।। सुवणं- ` ^ (
` तिलकं थस्तु भगवत्यै प्रयच्छति ।। स गच्छति परं स्थानं यत्र सा परमा कला `
: सौवर्णे राजते वापि अक्षिणी यः प्रयच्छति \। गोसहस्रफलं प्राप्यं पुय॑लोके महीयते
। ॥ श्रोणिसूत्रपरदाननेन महीं सागरमेखलाम् ।। प्रशास्ति निहतामि्रो मित्रवृद्धचा
। च मोदते ।। हेमन् पुरदानेन स्थानं सवत्र विन्दति ।। शिवरहस्ये-- देदीप्यते
| कनकदण्डविराजितैङ्चसच्चामरेः प्रचलकुण्डलसुन्दरीभिः । दिव्याद्धनास्त-
। नविराजित भूषिताङ्कः कृत्वा तु चामरयुताम्बरवस्त्रपुजाम् ।। भविष्ये--गेरि-
| कस्य तु पात्राणि दुगि यः प्रयच्छति तस्य पुण्यफल प्रोक्तं तारागणपदं दिवि!
यदूच्वापुष्यं स्याद्ेदपारगे ।\ तास्रपात्रप्रदानेन देव्ये शतगुणं भवेत् 1} तस्माच्छत
गुणं प्रोक्तं दत्वा मन्मयमादरात् ।! मृन्मयं करकादि ।। उपस्करग्रदानेन प्रिव. `
| माप्नोत्यनुत्तमम् 1! उपस्करः पूजार्थं धूषदीपादि पात्रघटादि ।। चदशुनि्मलं
1 ५ स्वच्छं दपेणं मणिभषितम् \। पद्यापदोभितं कृत्वा दिव्यमाल्यानुलेपतं ५
। पुरत : कृत्वा विष्णोर्वा शंकरस्य वा राजमुयफलं प्राप्यं हंसलोकं महीयते ।
इव्यमाल्यानुलेपनेः ।। दुर्गायाः
(५४८ 1 ॥ ॥ व्रतराज व | ध । नवमौ
दण्डविभूषितम् ।। सुवर्णरूप-चित्रं वा दर्गालोकं महीयते ।। मयू रपिच्छग्यजनं
नानारत्तविभूषितम् ।। भगवत्य नरो दत्त्वा लभदरहुसुवणकम् ।। तालवृन्तं महाबाहो
चिन्नक्मोपिह्ोभितम् ।। भगवत्य नरो द्वा वष्णवस्य फल लभेत् ।। वष्णवो
यज्ञः \} घण्टां निवेदथेद्यस्तु रभते वाच्छितं फलम् ।! हिनस्ति दत्यतेजांसि स्वनेना-
पूयं या जगत् ।\ सा घण्टा पातु नो देवि पापेभ्योऽनः सुतानिव ।। इति संपुज्य
घण्ठानिवेदयेत् \\ अनः शकटमातरोति कोज्ञ : \। आद्त्यिपुराणे--यः शय्यां तु `
प्रयच्छेत देवेष च ग्रष्वपि ।! जानवद्धेष विप्रेष दाता न नरकं व्रजत् ।। भविष्ये-- `
त्नोपकरणेर्यक्तां सारदारुमयीं शुभाम् ।\ शय्यां निवेदयेद्यस्तु भगवत्य नराधिप !! `
दुकलवस्त्रतन्तूनां परिसंख्या तु यावती ।\ तावहषसहस्राणि दुर्गालोके महीयते ।। `
विष्णुधमे-पादुकासनदानेन भगवत्यै कृतेन तु ।\ अग्निष्टोमफलं प्राप्य विष्णुलोके
महीयते ।\ यो गां पयस्विनीं शुद्धां तरुणीं शीलमण्डनाम् 1! भगवत्य नरो दद्याद- ˆ
दवमेधफलं लभेत् \। वषभं परियूर्णाद्धमुदासीनं शंक्िप्रभम् ।\! यस्तु दद्यान्नरो
भक्त्या भगवत्यै सङरन्नरः !। यावन्ति रोमकूपाणिवृषदेहस्थितानि तु ।\ तावत्-
कल्पसहस्राणि रुद्रलोके महीयते ।। सुविनीतां स्त्रियां दासीं भृत्यकं वा नराध्पि ॥ `
प्रयच्छति च दुगये राजसूधादच मेधभाक् ।! विष्णुधमे-प्रतिपाच तथा भक्त्या
ध्वजं त्रिदशवेदमनि । निहत्याशु पापानि महापातकभागपि ।\ भविष्ये--ध्वजं
ठ्वेतपताकाठचमथवा पञ्चरङ्धिकम् ।\ किकिणीजालसंवौतं इवेतपद्योपदो
भितम् ।। दत्त्वा देव्ये महाबाहो शक्रलोके महीयते ।\ ध्वजमालाकुलं यस्तु कुर्याद
ण्डिकाल्यम् ।। महाध्वजाष्टकं चापि दिद्यासु विदिलाचु च ॥ कल्पानां तु `
श्रतं साग्रं दुर्गालोके महीयते ।। यावद्नुःप्रमाणेन पताका प्रतिपादिता ।\ तावद्रषे- `
सहस्राणि दुर्गालोकं महीयते 1 चतुहंस्तं धनुः 1 कालिकापुराणे-प्रभूतबलिदानं
| द्वितीयावरणम् \\ ओं ह्लीं बहुरूपिष्ये°ओं हवं ्रामण्ये ° ओं ह्वीं भीमसेनाय ओं ह्वी
विह्यालाक्ष्ये° मामयं मङ्कलायंर नन्दिन्ये° लक्ष्म्ये ° भोगदये° इति तृतीया-
बरणम् \\ प॒थिव्ये° मेधाये° साध्याये° यज्ञोवत्ये° क्ोभाये ° बहुरूपाये० धृत्य०
आनंदायै° सृनंदाये० नन्दाय० इति चतुर्थाबरणम् ।\ अथ चतुःषष्ठि देच्यः-
` विजयायै० मङ्कलाये° महीधृत्ये ° शिवाये ° क्षमये° सिद्धचे° तुष्टे° जयाये°
, ऋद्धचै० रत्ये° दीप्त्ये° कान्त्यै° पद्माय ° लक्ष्ये ईहवयं ० वृद्धिदायै शक्त्यै°
` जयवल्ये० ब्राह्मचै० अपराजितायै अजितायै° मानिन्ये० इवेताये० दित्य
माययै० सोहिन्ये° रतिष्रियायै० लालसाये° ताराये० विमलायं० कोमाये० 4.
` क्ञरण्यै° गोरूपिण्य ° क्षमाय ० मत्यं दुगे क्रियाये० अरुन्धत्ये° घण्टाये°
करालाये० कपालिन्यै रोदये० कालिकाये० त्रिनेत्राय सुरुपायै° बहुर्पाये°
रहन ° अंबिकायै ° चि देवपूजिताय ° बेवस्वत्ये ° कौमाय ० माहेषव्ये० `
वैष्णव्ये ० महालक्म्ये ° काल्ये ° कौशिक्ये िवदूत्ये ° चामुण्डाय ° शिवश्रियाय °
द्ग यै० 3 हिषमदिन्य० ।\ ६४ 1} अथं मातरः-ब्राह्यये° माहेरवय° कौमाय
वैष्णव्यै ° वाराह्यै ° इन्द्राण्यै °चामुण्डाये ० मघ्ये महालक्षस्ये° ।। ततः कालि कालि |
स्वाहा हृदयाय नमः ।। इत्युग्नज्ञाननिऋंतिवायव्यकोणेषु । कालि कालि |
लोहदण्डायै स्वा ° ।! अस्त्राय फट्।। कालि कालि लोहदण्डाये स्वाहा नेत्रे पुरतः ।\
त्रिशूलम् ।। खद्धम् ।\ बाणम् ।\ `
म् ।\ ततो वच्रनखदष्टायुधाय
हेष नागपाक्लाय०
यत्पापं समुपाजितम् ।\ `
7 दध्ना स्नाययेच्चण्डिकां `
|
|
(८ ~
को भोजन कराकर पीछे वस्त्र ओर माच्छादन दे ।वेनौहों सातहोजाव्होंवा याचहो जंसौज्ञर्तिहो ।
` वैसाही भोजन करावे, जो जिसका शस्त्र हो वो उसे ही प्रयत्नके साथ पुजे, क्योकि देवी सदाही शस्त्रो निवस
५ .-: करती है, कहीं श्चास्र एसा पाठ है । श्लास्त्र थानी देदौ सम्बन्धी पुस्तक ।। दुर्गाभक्ति तरनिणीमे कुछ | ध
देवीके स्थापनादिकोमें रिच रहस्थमे विशेष लिखा है कि, नेरुके ऊपर रहुनेवार देवगणोसे जितका अभिषेक
किया है उस गिरिसुताका पंचामृतसे अभिषेक करते हे वे दिव्यकल्यलक दुर्गा एवं दिव्यलोकों का अनुभव
` करके सुवेष ओर भूषायुतत होकर अतुल राज्याभिषेकको प्राप्त होते है ¦ देवौ पुराणम लिखा हजाहे कि मनुष्य `
सुगन्धित पुष्य ओर पानीसे क्लिवाको स्नान कराकर अन्तमं नागलोकको. पा पन्नगो साथ खेल करताहै। `
| द्रौण, बिल्वपत्र, करवीर ओौर उत्पल इनका स्नान कालमं प्रयोग करे; क्योकि ये देवीके परीति करनेवाले `
है, मनुष्य इहु भगवतीके लिये देकर विष्णुलोकमे पूजित हता है । मनुष्य नवमीके दिन सोनेके पानीसे 1
दुर्गाको स्नान कराकर सोनेके विमानपर चढ .वसुओके सथ खेलता ह । रत्नोदय या तिरोद्को से स्ताकरा- =
.कर बँधबोके साथ विष्ण्लोकको प्राप्त होता है । जो घुतसे दुगकि ` स्नान कराये उसके पुण्यको सुन, व्छ
पूर्वके ओर ददापरोके पुरषोका ओर विशेष करके अपना संसार सागरसे उद्धार करके दुगकरि लोक मे प्रतिष्ठित |,
करता है, जो श्रद्धा ओौर भक्ति के साय दधसे दुर्गाका स्नान कराता है है वीर ! वो इन्द्ररोक्को जतादहैहि ।
|
. चण्डिकाका पुजन करता है वो दश हजार प॒द्मबष स्वगमे आनन्द करता है । दादशाङ्धः जध्ये-जल, दष, कुशाग्र,
। अक्षत, दधि, सहदेवी, तण्डुल, यव, दूर्वा, कुम, रोचन जर मधु, हे गुर लाद ! इनके अष्पको दादश्ाङ्ख
त्रतसजं
न
` बौर! महीपते ! जोः विधिके सशय दर्गाको दधिमे नहलाता है बो चाँदीके विमान पर चठकर शिवलोकम |
चला जाता है जो पंचगव्य या कुशजलसे विधिपूवंक मंदार दर्गाको स्नान कराता है उसे ब्रह्मस्नान हौ = `
समक्ष, हेनपशा्दल ! जो एकदिन भी चण्डिका दुर्गाको पंचगव्यसे स्नान करता है वो दिष्णु जगवन् केषा
= चला जाता है । कही यह भौ लिखाहै कि बो सुरभी पुर चला जाता है ।\ वह स्नान चण्डीगायत्रीसेहोना
` चाहिये, बो यह है कि से नारायणी.की उपासना उसी के लिये करता हं । चिण्डिकाकः ध्वन कराह । वो `
मेरौ बुद्धि अपनी तरफ लगाये । कालिका पुराणम छि हा है कि-कपिलाके दधि क्षीरङ़े साय पंचगन्यते `
किये गये स्नान है राजन् ! ओरोसे सौग्ने होते हे ! भविष्य पुशाणमे लिखा हज है कि-जो ईखकरे रसते `
चण्डिका देवीको स्नान कराता है बो गरडवाहुन सहित विर्ण् के साथ मानन्द करता है ¦ जो पितयोके उहेशसे
`. मषु ओौर पयसे स्नान कराते हं उनके पितर एक हजार वषत तप्त रहते हं । हे राजन् ! पौणिमःसौ नवमी
ओर अष्टमीके दिन तीके अलसे दुर्गाको स्नान कराके बाजवेयकरे फलन्ने पता है गन्ध चन्दनके पानीके
` साथ नदीके पनीसे स्नान कराके श्रन््रलोक में प्रतिष्ठित होताहै। जो कथुरके पःनीषे चण्डिकाका स्नान
. कराताहै वो परम स्थानको चला जाता है जहाँ कि, चंडिका विराजतौ है । जो चंडिकाको श्रद्धपूर्वक `
अगरुके पानीसे स्नान कराता है बो इनदरल्मरेकमं पहुंचकर किन्नरोके स(य क्रीडा करता है) वाराही वंत्रमे लिखा `
` हजाहै कि -भेरव ! छ अक्षरके मत्रसे पहिले कहे हुए पाच आदि सोलह उपचारोमे तथा दरादश्षाद्ध
: अर्ध्य॑से
द्रि कटा पि)
= न = व = - ~ 24. 5. ० ६
ब्रतनि1] ` हिन्दीरीकासहितं (षध ५
` ओर कपुरको खूब पौसकर उसमें कुंकुम डर उसे विषिपू्ेक दुगि लगाकर कोटिकल्प दिवमें वसताहै। =
चन्दन मद कर्पूर ओर रोचन इन चारोको देवीके लगानेसे सब कामोको पाजाता है । देवीपुराणमे पुष्पभी- `
कहै है कि मल्लिका, उत्पल, पद्य, शस, पुत्ताग, चयक, अरोक, कणिकार, ओर विशेष करिङे द्रोणे पुष्य,
करडरः कमी पुव्य, कुम, नागकेशर, कुन्द, यूथिका, मल्ली, पृच्वाग्, नया चंपक, जया, केतक, मल्ली ध
। ` . बृहतौ, रतयत्रिका, बुभुद, कह्लार, बिल्व, पाटल, माक्ती, पावनी, बकुल, अशोक, रक्त ओर नीर उत्वल, `
` दमन, मरू इनसे अनेक तरह पुण्य वर्धेनके लिये एवम् केतकी, अतिरक्त, बन्धूक, बकुल, कुमुद, द्रे `
रके कभिक्तार इसको समुद्धिके लिये ओर अखण्ड बिल्वपत्रो से एकवार देवीफी पूजा करे । सब पापोते `
` -्टकर शिवलोकम भतिष्ठित होता है । मणिमौक्तिकको मालां, वितान, दुकूल जौर सदा घंटादिकोंको ` ५
एवम् क्षक्ति के अनुसार हेम पुष्पको देता है जितने हेमके पुष्प विये हं उतनेही उसे बेटे पोते भिल जतै
क्योकि हेमके पुष्योसे शिवाचन करनेसे श्रीक साय युक्त होता है । भविष्य पुराणम लिला हुाहै किजोपृष्प `
` कहे हे, उनमें से चढानेसे दश निष्कके फलको पाता है } यदि इन एूलोकी माला बनाकर चढदे तो दूनेसोनेके `
| फलको पाता है \ जो करवीरकी मालासे चण्डिकाका यजन करता है । बो अग्निष्टोमे फएल्को लेकरमुये `
लोकमें प्रतिष्ठित होता है ।\ मनुष्य भक्ति के साथ कल्कौ मात्ममोते चंडिकाको पुजता है वो ज्यो्िष्टो- =
मका फल पाकर सुर्य॑लेकमे प्राप्त होता है \ शमीके फूलों से दुर्गाक्रा प्रयत्नसे पुनन करके एक हजार गङमोके =
दानका फल पाकर विष्णु लोकम प्रतिष्ठित होता है । हे सजे नप ! कुश पृष्पोकी मालति श्रद्धाके साय
तिधिपु्वेक पूजकर पितृखोकको पाजाता है । सुगन्षित पुष्यते चंडिकाका
बा बहुतसी भालाओंसे पूजता है बो अश्वमेषका फल पाता है । सोनोके वा सोनेके सोके फल्को पताहैजो
| ` विल्वपत्रकी माला चढाता है नवमीके दिन गुग्गुल ओर नीले कमलकी मालसे जो चंडिकाको पूजताहै `
बो सौ वाजपेयका फल पाकर शलइलोकमे प्रतिष्ठित होता है । जो एकं हजार नले कमलोको मालको चढाता `
. हैवो कोटि सहल वर्षं सौर कोटि शत ववं दुर्गाका अनुचर होकर रद्र लोकम प्रतिष्ठित होता है । सुगन्धित ४
दन्य र्या एलो से खूब सुगन्धित करके जो द्गकिो पूजता है षया ताल्करे व॒न्तसे पवा करता है वो महासत्रे `
| फल्को पाता है \ भविष्ययुराणमें चिला हुआ है कि सब दूरः द दरगको गूगल्का धूप प्यारा । षृपकेमंत्र |
हि देवदेवेश ! घृत ओर गृगलका बनाया हुजा यह् घूप है \ है धरो के देनेवाली मातः ! इस ग्रहृण करः तेरे
। लिये नमस्कार है \ मनूष्य कष्ण अगरुकी धूप देकर एक हजार गोदानका फल्पाता है । माहिष नामक धूपको `
धघीसे भिगोकर देने एवम् बिल्वपत्र भेंट करने से बाजयेयके फलको पाकर सूर्यके लोकम प्रतिष्ठित होता है । ` ५
माहिष ओर ष्ण अगर इनकी धूपे मंगलम है पाप कलिलको एसे सोषती है जपे अग्नि सोनेको सोषतीहै। =
(ष्णञअगर, कपूर, चन्दन ओर सिह्खक इनकी धूप मी देनी चाहिये 1
तराधिप ध र ! भगदतीको इस धूषको वे इस लोकम मनोकामनाञओंको पाकर अन्तम दुगलिकमे प्रतिष्ठित
काका पूजन करका है अथवा एक माला
। शब्द सनुच्चयमे लिवा हुजाहैकि-
(|; लोकम प्रतिष्ठित होता है । जो कमरकी कोंदनं
(४५२) | त्रतराज | [नवमी
काली भिरच डाली गई हाँ वो रसालः कहाती है \ यह पित्तका नाञ्च करती है । अरुचिको भिटतौ है चि्तको . `
प्रसन्न करती है । वेखक में पानक लिखा है कि-गृडका बना हुजा खट्ठा मीठा जिस सं मिलाहुजा सुगन्धित
` द्रव्य डाला हुभा पानक बनता है । वरह खंड, दाख ओर शकंरा सहित हो लटा पडा हो तीलाहोतोहितकारी
वौ उसी समय पीनेकौ वस्तु होगी ! भिरत्यय-तत्काल यानौ उसी समय । जो मनुष्य श्द्धापुवेक पायस सहित =
शकरा संयुक्त दुर्गाको देता है उसके राज्य हाथपर रखा हुमा । है । कालिकापुराणमं लिखा हृजाहैकि- = `
आमिक्षा परमान्न एवम् शकंरासहित दही महादेवौके निवेदन करके वाजपेयका फल पाताहै । केतकौ ओर
` कपुरसे सुगन्धित किये पानीको जो दुर्माको देता है है राजेन्द्र ! बो गणोका अधियति बनाताहै!आमःनारि- `
रल, खजूर ओर बिजोरा जो दुगि लिये देता है वो परमपदको पाता है । सब फलोको देता हुजा कुमी `
अश्युभ नहीं पाता देवौको दिये हए भक्ष्यादि पंचकोसे ही प्रसन्च हौ जाता है । भक्ष्य, भोज्य, लेह्य, पेय ओर 4
सण य. पचिः हि परमन पिष्टकः यावक, कृसर, मोदक ओर पथक इनं पक्वान्योको देवीक्षे ल्यं दे । १ | ६ : ।
महादेवीके लिये सब व्यंजन भेंट चावे, क्षीरादिक चाहु तो गायके हों चाहं भेके हो उन्हं तथा ताम्बलोको `
देकर गन्धवेकि साथ आनन्द करता है । विष्णु धमेमें लिखा हज है कि-अच्छे तार लगे हृए एवम् रंगकी
` वस्तुसे रगेहुए इस वस्त्रको है दुर्गे देवि ! धारण करिये । भविष्य पुराणम लिखाहुभआ है कि रगे हुए पतके ५ ध
कोमल वस्त्रोको जो दुर्गाको देता है वो दुगकि लोकमें चला जाता है । हे बौर ! जितने तन्तु उन व्स््रोमे
होते ह उतनेही हार वषं चष्डिकाके घरमे प्रसन्न होता है । जो बराह्मण आर देवक लिये अलंकार देता हैवो ` ५
। अनेक मलार भूषित होकर वरुण लोकको जाता है यदि वहे भोगोंको भोगकर पृथिवौपर जन्म मी `
1 ` लेता है तो यहाँ दवीपति राजा होता है । विष्णुषरममे लिला हमा है कि-भूषणके दानसे भूतलपर राजा `
होता है ।जो सोनेका तिलक भगवतोको भेँट करता है वो उस परमस्थानको जाता है जहां परम कलारूप :
` दुर्गा रहती है ¦ सोने वा चांँदीकी जो आंखे डुगकि यहां चढाता है वो एकः हजार गोदानका फलपाकर सुर्यं 1
दनी देता है वह समुद्र है मेखला जिसकी एेसी भूमिका शासन
करता है। उसका वैरी कोई होता नहीं मुं मितो की वृद्धिसे प्रसन्न होता है । हेमके नूपुरोके दान करने
` ` सब जगह स्थान प्राप्त करता है, शिवरहस्यसे
^ हस्यसें लिला हुभा है कि-जो चमरके सःय युन्दर वसतरोसे देवीकी `
` पूजा करता है वह् सोनेके दण्डे लगे हए अच्छे चामरोसे एवम् हिल रहे हं कुण्डल जिनके एेसौ सुन्वरियो से
देदीप्यमान होता है तथा उसका शरीर दिव्य अंगनाओके शरीरम रहनेवाके भूषणोसे भूषित रहता है । भवि- `
` ध्यमं लिखा हृभा है कि-जो गेरिकके पात्र दुर्गाको देता है उसके पुण्यका फल यह है कि, उसे तारागणं का `
. | स्थान मिर्ता है । गेरिकसोनेको कहते हे । राजत के कोटि निष्क देनेसे जो फल होता है वह हे वेदपारगे !
दहैमपात्रोके देनेसे होता है । तिके पात्र देनेसे सौगुना होता है, उससे भौ सौगुना अधिक तब होता है जबकि
मिहीकेही देता है प्र देता ह जादरके' र वे सिद्ीके पात्र करवे आदिक होने चाहिये । उपस्कर के दानसे `
। ह-सफेद वस्त्रक
` ब्रतानि 1 क हिन्दाटीकासहित .: न १३);
को अनेक र्न से सजा भगवतीके लिये द बहुतसा सुवणं ्राप्त करता हे \ जो मनुष्य है महाबाहो ! कतीदेका =
कराम किया हुञा तालवुन्त भगवतीकी भेट करता है वह् वेष्णवके फलको पाता है । वैष्णव यज्ञको कहते है! `
जो देवीके घंटा चढाता है वो वांछित फल पाता है । जो स्वने जगतको परकर दैत्ये तेजको नष्ट करती `
हवो धंडा पापौसे हमारी इस प्रकार रक्षा करे जसा मां बेटोकी रक्षा करती है, इस मत्से घंटा को पुजकर `
चावे । अनस् शाब्द , शकट ओर माताम वर्तता है । आदित्य पुराणम लिखा हु है कि~ जो देवगुर, बराह्मण `
ओर ज्ञानवदधोको शय्या देता है बो दाता नरक नहीं जाता । भविष्यपुराणमें छिखा हया है कि, रलनके उप- `
करणोके स्थ सार काठकौ बनो हुई अच्छी शषव्याको है नराधिप ! जो भगवतीकी भेट करता है जितनी दुक्- (
` लोके वस््रोके शात्रओकी संख्या है उतने हजार वषे गकि लोकम विराजता है । विष्णधमेमे लिला हुजा
है कि, भगवतीके लिये पादुका ओर आसनके दान करने से अग्निष्टोमके फलको पाकर विष्णुकोक मे प्रति- ^
. ष्ठित होता है \ जो मनुष्य दूध देनेवाछी सुद्रील शुद्ध तरुणौ गायको भगवतीके लिये देता है बह अश्वमेधके 1
` फलको पाता है! जो मनुष्य चाँदको चदनीको तरह सफंद भरे हृए उदासीन सांडको एक बार भी भगवतीके
लिये देता है वहु उतने हजार कल्प रद्रके स्वगेमं रहता ह जितने कि, उस सांडके शरीरम रोमकूप होते हं । `
[ हे राजन् जो भली भांति न्न हुई दासी स्नीको अथवा किसी दासको चण्डिक
के ल्ि वेता है वो राजशुय .
| भोर भसवमेषके फलको पाता है । विष्णवे लिका हृषा है कि, बाह महापातकोहौ यं न हो जो देवः
स्थानपर ध्वजा रगत है वह् अपने पापको शौ घ्रही नष्ट कर डालता है । भविष्यपुराणमें लिखा हृजाकि `
| देकर हे महाबाहो ! इन्द्रके लोकमें प्रतिष्ठित होता ॥
करता है । अथवा आं दिक्षाओंमे जो बड़ी बडी ध्वजां चढाता है वहं समग्र सोकल इुगकि लोके प्रति- `
ण्ठिति हता है । धनुके प्रमाणकौ जिसने पताका चढादी वह् उतनेही हजार वधं कगकि लोकम प्रतिष्ठित होता
की वा पांचरंगकी ध्वजा जिसमे किंकिणी ओर सफेद कमल लगा हुमा है वह् देवीके ल्यि ८
होता है । जो ध्वजा ओर मालाओं से छदपद चंडिकके मंदिरको
है धनु चार हाथ का होता है । कालिका पुराणे लिला हृमा है कि नवमीकषे दिन विषिके साय बहुतस। ५
| बलिदान करे । कुष्माण्ड, ईखके दण्डे ओर मद्य मांस ये बलिक बराबर है एवं तृप्तिम् छागके समान हं ।
भविष्य पुराणम लिखा है कि निस देशम चण्डिकाका पूजन होता है उस देशम न तो कोई दव होताहै एवं
न अकालृही पडता है न असमयमे किसीकी मौतहौ होती है । शरत्ऋतुमे मंहाअष्टमौके दिन जो चंडकाका
दक्षिणम {सिहको पूजकर पूरवसे प्रारंभ. करनी चाहिये । आवरणका अथं हम पहिले लिख लर
आवरणोकी पूजा बौज युत नाममंत्रसे देखी जा रही है । मूलम पहिला
जगह बिन्दुही रखा है, ओम् प्रणव तथा लीं बीज है
यूजन करता है, बो अचे विमान पर चढकर ब्रह्माके साथ आनन्द करता है। अथ आवि | |
( : ॥\ ९ ।। ग्राह्यं त्रिरात्रम्रेव नवम्या र अनुरोधतः । मध्याह्लव्यापिनौ ग्राह्या नवमी
है । हृद्यके लिए नमस्कार इससे अग्नि: ईशान ओर निति ओर वायव्य कोणो, हे कालि ! है कालि! व
तुक्च ्येहदण्डाफे किए स्वाहा है, अस्त्राय फट्, है कालि ! हिकालि ! तुच लोहदण्डाके लिए स्वाहाहै, इसमे
नेत्रोके सामनं । अथ पांचवन्रः-रईश्चानाके किए नमः शिरपर कालि कालि तत्पु, इस मन््रसे मपर, वच्ेश्वसे `
घौराके लिए नमस्कार इससे हृदयम लोहदंडाके लिए बामदेवाके किए पदोमे स्वाहा है "सथोजाताये ” इससे ४
सर्वाङ्धमे, आयुध दाये ओर बे आदि के कहे जाते हे । भिश्ूल, ख्क, बागशवित को सीघे मे एवं बयेमे
खेट पाश अकुञ्च ओर घण्टाको इसके बाद वज्र जसे नख ओर दाढोके आयुध वाली महासिहयर बेटी हयी ५८
भेगवतीके लिये हँ एद् जौर नमः है इसमे रिहिको, महिषासन चयि नागपाशके लिये इष दोनों नाम संनो से 1
एजा करनी चाहिये । भविष्य मे कहा है कि हेनप ! पद सहस्रवषं जो पाप हकट्टः किया है वो षव पाप घतका 4
` अभ्धङ्ख करनेसे नष्ट हो जाता है । हे नृप ! घुले पयसे ओरं दधसे चण्डिकाको स्वान करावे। सुगन्धित निम्ब- |
पत्रे चर्चित करे यह दुर्गा भवित १ तरंगिणीमे महानवमी विधि कहौ है । |
1 अथ अक्षय्यनतमी 1
अथ कातिकशचुक्लनवम्यां अक्षय्यनवमीव्रतकथा-वाल्खिल्या ऊचुः ।। कातिके `
शुकष्छनवमी तत्राऽभूदृद्रापरं युगम् ।। पुर्वापराह्हगा ग्राह्या कमाहानोपवासयो
॥ १ ।।जत्रकूष्माण्डको नम हतो देत्यस्तु विष्णुना।। तद्रोमभिः समुद्भूता वल्ल्यः `
कूष्माण्डसंभवाः 1! २ ।! तस्मात् कष्माण्डदानेन फलमाप्नोति निरिचितम । ` £
कृष्माडं पजयेच्चेव गन्धपुष्पाक्षतादिना ।। ३ ।। पञ्चरत्नैः समायुक्तं गोधतेन च
समन्वितम् । फलान्नदक्षिणायुक्तं ब्राह्मणाय निवेदयेत् ।\ ४ । कूष्माण्डं बह
बीजाढचं ब्रह्मणा निमितं पुरा ।! दास्यामि विष्णवे तुभ्यं पितणां ताराणाय च
॥५।। देवस्य त्वेति मन्त्रेण पितणां दत्तमक्षयम् ।। अस्यामेव तुलसीविवाहः-
अस्यामेव नवम्यां तु कुर्यात् कृष्णे नभो नरः ।। ६ ।। स्वशालोक्तेन विधिना तुलस्याः
करपीडनम् ।। कन्यादानफलं तस्य जायते नात्र संश्चयः ।। ७।। कार्तिके राक्लनवमी
मवाप्य विजितेन्द्रियः । हरि विधाय सौवर्णं तुलस्या सहितं श्भम् ।\ ८ ॥ पुजयद्वि-
धिब्भूक्त्या व्रती तत्र दिनत्रयम् |, एवं यथोक्तविधिना कुयद्विवाहिकं विधिम्
|
1
(१;
1
॥
॥।
\
यद्यसत्यमहं ब्रां मिथ्यात्वं मम जायते ।। १७।।
१७ ॥। तस्मात् सत्यं वदिष्यामि रोचते
यत्तथा कुर ।। अस्याः करग्रह कुर्याद्योऽसौ वच्रान्मरिष्यति ।। १८ \। इति तद्वचनं
श्रत्वा कनको दुःखितोऽभवत् \\ विवाहं न चकारास्याः सा च॑ ब्राह्मणपुजने ।! १९।
नियक्तान्यद्गृहं दच्वा नानेया मन्मुखाग्रतः ।। दृष्टेमां रूपसंपन्नां दुःखं मेऽढा भवि-
ष्यति \\ २० 1 स्थित्वान्यस्मिन् गृहे सा तु द्विजातिथ्यमचीकरत् ।\ कदाचिहव-
गेन सत्रागादद्िजपुङ्कवः ।\ २१ 1 याथाथं विष्णुकाच्च्यां तु वश्ाखें मासि
शंकरः \! कनको विप्रज्ञुध्ूषी ज्ञात्वात्रेव समागतः 1! २२ ।। आगत्याद्धणमध्ये तु
उपविष्टो दिजोत्तमः ।! २३ ।\ किशोर्यागत्य चातिथ्यं शंकरस्य कृतं तदा ।! २४ ।।
दष्ट्वा तां तरुणीं नसां सुवेषां विनयान्विताम् ।। अजातकरपीडां च सखीं दष्ट्वा-
भ्यवाच सः ।\! २५ \। शंकर उवाच ।! चन्दने वद शीघ्र त्वं किशोरी
त विवाहिता \\ किमत्र कारणं जाता तरुणौ कामरू कू पिणी ।! २६॥) इति तद्वचनं
मानाद्राव्यादधिकं ददामीत्यथेः ।} तया च विविधोपाया दृष्टास्तद्ग्रहणाय च
॥॥ ४२।। न ददश्ञे तथोपायभवदत्सा विलेपिनम् । न दृश्यते मयोपायस्त्व
यत्प्ोच्यतेऽधुना ।। मया तदेव कतंव्यं प्रव्यग्रहणसिद्धये \। ४३ ।। विरेप्यवाच
तव कन्या तु भूत्वाहं नयामि कुसुमानि च ।। अग्रे यद्भावि भवतु गृहाणाद्धि शतं ¢
शतम् ।। ४४ ।। तयापि च तथेत्युक्ते सप्तम्यां निर्वयः कृतः ।। अष्टम्यां सागता `
तत्र किशोरी तामुवाच ह । ४५।। भालाकारि इवो नवमी तुलस्याः पाणिपीड-
नम् ।। वततेऽतस्त्वयाऽऽ्नंया मुकुटाः पुष्पसम्भवाः ।। ४६ ।। मालिन्यवाच ।।!
मत्कन्या चागता ग्रामान्ननाकौतुककारिणी ।। यत्प्रोक्तं त्वया बारे समानेष्यति
सत्वरम् ।। ४७ ।। तयापि च तथेत्युक्ता मालिनी स्वगृहं ययौ ।। कथितः सर्वै-
वृत्तान्तो विल्यभरे ततोऽभवत् \\ ४८ ।। प्राप्ता मयेन्द्रपदवीत्येवं सुखमवाप सः ।
लिन्या रचिताः रात्रौ मुकुटा विविधास्तदा णुकाञ्च्य।
जयसेनो बभूव ह॒ ।। तस्य पुत्रो मुकुन्दोऽभत्सूर्यभक्तिपरायणः ।। ५० ।!
शरुता तेन वार्तेयमतिसुन्दरा ।। तदा ते ।
ष
प्रदास्यामि त्वन्यां पद्मायतेक्षणाम् ॥ ५४ ॥। मुकुन्द `
नोऽसि विर्वं सृजसि त्वं प्रभो । बालवेधव्ययोगं च हन्तुं
नदोऽसौ तथेत्युक्त्वा गतो रविः !। ५६ ।। तलः ८
| व्रतानि 1. । 1 | ध हिन्दीटीकासहित
ययो ।\ ६५ ।। कृत्वा केशांङ्च गोपुच्छैः हमर चोत्पाटितं बलात् ।! इतरे शाटक
` गृह्य निबुभ्यां च स्तनौ कृतौ ।\ ६६ \। सर्वालंकारशोभाटठया कटाक्षयति चापरान् \!
ननज्ञाता सातु केनापि पुमान् स्त्रीरूपषधारकः ।। ६७ ।। ध्यानं कृत्वा तया हस्तौ
प्रसार्यते यदा तदा ।। दत्ते विलेपी पुष्पाणि विलोकयति स्वेतः ।\ ६८ ।! कथमस्या
मम स्पर्शो भविष्यतीति चिन्तयन् ।\ एवं दिनत्रयं तस्य प्रयातं तु मुनीहवराः `
-॥1 ६९ ।। तस्मिन्नहनि सञ्जातः कनकः शोकपीडितः ।। कि कायेमधुनास्मामी
राजपुत्रो वरिष्यति ।\! ७० +! एवं {चतयतस्तस्य प्रातः कालो बभूव ह् ।\ राज-~
लोकाः समायाता गृहीत्वा वस्त्र वाहनम् ।\ ७१ 1। अभ्यन्तरे समागत्य मन्त्री वचन-
` मून्रवीत् \\ गृहेस्ति तव कन्यका मुकुन्दाथे प्रदीयताम् ।। ७२ ।। मा विचारोऽस्तु
भवतो नपाज्ञा परिषाल्यताम् ।। कनकनतथेत्युक्तं मम भाग्यमुपस्थितम् ।।७३।। `
महाराजकुमारस्य वधूः कन्या भविष्यति ।। ततः प्रोवाच मन्त्रौ तं दश्यां चग्न- |
` मूत्तमम् ।\ ७४ ।। रात्रौ तिष्ठति युग्माख्यं रविः षष्ठे विधुक्च खे । आये भौमो
गुरुधमं पञ्चमं बुधभागेवौ ।।! ७५ ।। शनिस्तृतोये 'रौराहुविवाहसमयः स तु ।।
उभौ संभूतसंभारावुभावपि धनान्वितौ ।। ७६ \1 हादद्यामाय यौ सायं राजपुत्र
ससेनिकः ।। अब्रवीत्तत्र कनकं तेकी राजपुरोहितः ।\ ७७ ।। तेक्युवाच ।। अथो
निरोधः क्रियतां कियोर्याद्च न॒पाज्या ।। भविष्यति महादेवी नो दृश्या पुरुषे
कवचित्।।७८।।इति तद्रचनं श्रुर्वा पुरुषास्तु निराकृताः।।जायार्पो विल्पी तु दवा-
तत्रेव संस्थितः ।१७९।। ततोऽद्धरात्रवेलायां मुकुन्दोऽभ्यन्तरं ययौ ।। तुलस्यगर
स्थिता बाला किशोरी त्वस्मरद्धरिम् \! ८० ।। ततो घनघटाशब्वस्तुमुलः सम- `
पद्यत ।\ महावायुवेवो तत्र प्रशान्ताः सर्वदीपकाः ।। ८ १।। विदुल्लताश्च स्एुरिता
िभतोऽखिलं मुकन्दोऽचिन्तयद्धदि । ८२ ।
(४५८ ) 9 ॥ छ धतरा = 4; ^ क [ नवमी `
अक्षय्यनवसी-कर्तिक लुक्ला नदेमीको कहते हु । अथ उसके व्रतकी कथा लिखते हूं \ कातिक सहीनामे
इद्लानवमी आती है । इसी दिन हावरका प्रारम्भ हं था } वो दानमे पूर्वा व्यापिनी तथा उपवासमे
अपराह्ह व्यापिनी केन चाहिये \। १ ।। आज के दिन, विष्णु भगवान् ने कुष्पाण्डक दत्यको साराथारउस्कै `
रोमसे कूष्माण्डकी बेर हुयौ ।। २ ।\ इसक्ारण कुष्माण्डके दानसे उत्तम फलयाता है यह निश्चित है, इसमें `
मन्ध, पुष्पं ओर अक्षतो चे कुष्माण्डका पुजन करना! चाहिये 1! ३ \\ पञ्चरत्न, मोधृतफल, अल्रभौरदक्षिणके
साथ उसे ब्राह्मणको देदे ।॥ ४ ।। बहुतसे बीजों के स्थ ब्रह्याने कुष्ताण्ड (कालीफल कोला) को इस किए = |
बनाया कि पितरे उदारे व्थि चिष्णुको दगा ।। ५ ।। “ ओं देवस्ख त्या सवितुः प्रवसेऽदिवनोमहुभ्याम् `
` परष्णो हस्ताभ्याम्, अग्नये जुष्टं गृह्णामि अग्नौषोनःम्या जुष्टं गृहामि “ मं सव के उत्पादक देवकी आश्ञामे
` चता हुमा है कुष्माण्ड ! मश्िवनीकती बाहु तथा पुषे हाथों से अग्ने जुष्ट (मीति विषय) तुक्षको `
ग्रहण करता हं जग्नि ओर सोके लिए कामित दुक्तं ब्रहुण करता हूं । इत संत्रसे पिया पितरोकरे ल्ट्अक्षय |
होता है । सनुष्यको चष्ठिएु कि इसी नवमीके दिन कृष्णको नमस्कार करे }} ६ \} अपनी ्ञालके विधानके +
अनुसर तुला विवष्ट् कराये । उसे कन्यादानका फल होता ह इसमे सन्देह नहीं है । 1 ७ 1 कतिक शुक्ला = `
नवमीके दिन जितेन्द्रिय होकर तुरुसीसहित सोनेके भगवान् बनावे ।\ ८ ॥। पीछे भक्तिु्ेक दिधिकरे साथ = |
तीन दिन तक एजम् करना चाहिए एवं निधिके साथ विवषहकी विधि करे ॥\ ९ ।। नवभीके जनुरोधते यहाँहौ =
तीन रादि ग्रहण करनी चाहिये, इसमें अष्टमी विद्धा सध्याह्व्यापिनी नवमो खनी चाहिये !। १० ।\ धात्री | 0 1
ओर अरवस्थको एक जगु पाकर उनका अपसम विवाह करावे । उसका पुण्यफल सो कोटि कल्पमे भौ. 1
नष्ट नहीं होता \} ११।। इस व्रिषय भं एक पुरान इतिसहास् रहा करते ह~ विष्णुकाचौभे एक कलक नामका =
` ` क्षत्रिय था।। १२।। वौ धनाढ्यं था व्यापारादि करता था) राज मं उसका सान था । वैन्णवथा । है मुनी- |
ध किकौरी रखा, एकं दिन एक जन्मपत्री देलनेवालः चला आया ।। १५ ।। उसके पिताने उसे जन्मतन दिखा- ८
1 यदि मं सच्ची २ बातकहद् तो तु्ने दुःख होगा जो न्लुठ बोलू तो मिथ्या भाषी हो जाङमा 1! १७ ॥। इसे `
र | ९६ के भिरनेसे मरेगा \\ १८ । उसके एते बवन सुनकर पिता दुखी हुए मौर उसका विवाहृही न किया किन्तु
उसे ब्राह्मणोके पजनम ।\ १९ ।) नियुक्त कर दिथा उसे दूसरा घर दे दिया, जौर यह कहा कि रूप सम्पन्न `
= बराह्मणोकी अतिथिचर्था करने लगी, किसी दिन दैव योगसे वहाँ एक श्रेष्ठ ब्राह्मण चला आया
वरो { विना सम्तानके उसे बहुतसमथ हो गया 1! १३ 11 अनेको व्रतोंके करने के बाद उत एक कमल्नयनी = `
। कन्या उत्वन्च हयी । वो सुन्दरी सन लक्षणों से युक्त एवम् सर्वंगुणसम्पन्न थौ ।। १४ ।। पिताने उसक्षानाम `
कर पुच्छा किये लडकी कसी होभौ ? दौ कछ देर सोचकर वो बोला कि; हे कनक ! मेरे बचन सुन 11 १६॥ `
। सच्ची कया पी जो तुशे दीखे सो करना । भिसके साय इसका विवाह होगा बो हसक! पाणिग्रहीता विजली `
: इसे देदकर मधे अवदय इख हगा इस कारण भेरे इसे सामने ही न जाने दो ।\ २०॥ वो इसरे घरमे रहकर
र ५ | ५ 1! ३३ ।। उस समय कषत्रियने देखी वो मूखं उसे देख मोहको प्राप्त होगथा आैर उस निर्वोषकी भावना करता ४ | 1
हा उसको पौठसे लग गया ।\ ३४ ॥। कुछ उसे दुरसे देखते थे कुछ गृपचुय देखते थे ओर तो क्या स्तवि भौ
` उसे देखत थीं पुरुषोकौ तो बाते ही क्या है ।। ३५ ।। जसे दूजके चांदकी देखनेके लिये लो दरारपर व्याकुल
खड प्रतीक्षा करते रहते हं इसी तरह सब उसकी प्रतीक्षा करते रहते थे \! ३६ \। ह स॒नीशबरो ! उस
त ` सुन्दरताको कहांतक प्रशंसा करे ? एकं निभेष तो सुर्यने भी उसे खडे होकर देखा ।! ३७11 कोई उस देवकन्या = `
कहते थे तो कोई उसे नागकन्या बताते थे ! कोई कहते थे कि महदेवजीको मोहने िये भोहिनीने अवतर
` ल्याहै)\३८।।नतवोलोकोको देखती थौ न मागेकों न् सखी जनको । वो हृदयवें देव र्पिगी तुलक्षौ ओर
` विष्णृकाध्यान करती थी ।। ३९1! घनवत् बली चिखेवीने उसे लेनेका विचार किया वहुतते मेद कियेषर उसे
` केर्ूमोकाही न मिला।\! ४०) वो मालिनिङे घर प्टुवा उसे धन दिथा कि किप तरद कि्षोरोङे साथ
संगम \। ४११) करायेतो हे भद्रे ! इससे चौगुना दंगा । यानी जो तुपने किशोर देत है उसमे अधिर् दुगा ।
¦, उसने भौ बहुतसे उपाय किये पर कोई उसके ग्रहण करनेके च्थि पार न पड़ 1; ४२।) जय उत्ते कोक्भमी
उपायपारनपडातोवो विक्यौसे बोली दिः मुके तो कोई उपप्य दीखता नहीं यत्र जो अप कहं सो कहं
क्योकि मं धन लेनेके ल्य बही उपाय कर्गी ¦! ४३। विकेपी बोला किमनेतय यड बंगा ओर सेज
षटलकेआाया करेगा तो सौ रोज लेके ॥ ४४॥ मालिने स्वीकार कर लिया } उत्त दिन सप्तमी थौ । अष्टक
( । दिन मालिन किशोरीके यहां पहुंची । उसमे किलोर बोलो ।। ४५ ।\ ए मालिनः! कलक दिन नवमौ ४.1...
तुलसीका विवाह हैः इस कारण ए लोके मुकुट बनाकर लाना ।। ४६ ।। मालिन शेली कि मेरी ल्डकौ अपनी
ससुरालसे आगई है बौ अनेक तरह के कौतुक करनेवाली है है बाले ! जो तु उक्ते कहेी वे रव श्नीव्रही ला
। । देगी।)४७\किञ्लोरीने स्वीकार करलिया मालिनी अपने घर चली आई उसने सथ हाक दिलेपीके सासनेकह
। | दिया\४८\विकेपौको तो बो आनन्द आया किसानों इन्द्रासन हौ भिर गधा हो मालिनिने र्तोरात अनेक
। ` तरहक मुकुट बना दिये \\ ४९ । विष्णु कांचीमे उस समय जयसेन राजा णा उसका खडका मुकुन्द सु्थकी
भवतम तत्पर रहता था 11५4०11 उसने किदोरीके सौन्दथं कौ सोरत सुनी फि वो बडी सुन्दरी हे तो उस
` मुकुन्दने भी संकल्प कर लिया कि |! ५१।। हे दिवाकर ! यदि किशोरोमेरीस्त्रीहौ जाय त्ब मे भोजन
. करूगा नहीं तो मं निराहार रहकर प्राण देदंगा \! ५२ ।\ पौ उपवास करना प्रारस्म कर दिया । सतवे
दिन सुर्यं भगवान् स्वप्न मे आकर उससे बोरे ।५३।। कि किशोरीर! विध्वा योग है उक्ते साथ तेरा कैसे
व्याहकरावृू ?वोतेरी कंसीः पत्नीहो? मेकिसी दूसरी कमलनथनीको तेरी पत्नी बनद्गा \। ५४ ॥
मुकुन्द बोखा कि, हे पभो ! आप विष्व की रचना करते ह । यदि अप प्रस ह तो उसफे बाल वेषग्य योगको
यह कहकर चले गये ।।५६।। उसी रतम किञोरीको स्वप्न हुजा फि तुलसौ व्रतके माहुत्म्यते तेरा वेध्य
9 ५७ \\ कोई कन्या आनन्दके साथ अपने पति से स्वप्नमं कहू रही है कि मेरी फिशोरै माता
रिति वि तिभन
उसके हाथोमें फल देदेता था । दिये पीर विलेपी सब ओरसे एूलोको देखता था ।। ६८ ।1 किःकिस तरह इसमें
मेरा स्पशे हो, हे मृनीश्वरो ? इस तरह उसे तीन दिन बीत गये ।। ६९ ।! तीसरे दिन कनक बडा श्लोकित
'हृजा कि अब मं क्या करटं \ राजपुत्र इसके साय व्याह करेगा ।! ७० ।। इस प्रकार चिन्ता करते २ प्रातःकाल
होगया वस्त्र ओर बाहून लेकर राजसेवकं चरे आये ।। ७१ ।। इसी बोचमे मन्त्रीने आकर कनकसे कहा कि
` आपके यहां एक कन्या है उसे मुक्रुन्दके लिये देदीजिये ।७२।\ आप विचार न करें राजाकौ अज्ञाका पालन `
करे, कनकने कहा कि, बहुत अच्छी बातहै यह तो मेरा भाग्य आज उपस्थित हुञा है ?।। ७३ किमसी ।
छडकी मह।राजक्ुभारकी वध् होगी । तब वह् मन्त्री बोला कि, दादश्षीका उत्तम नहे ।) ७४ । रातमे
युग्मनामका चग्न है रवि ओर चन्द्र छठे स्थानम हुः आयमें भौम, धसं स्थानमे गुर, बुध ओर बहस्पतिरपाचवे `
स्थानम हं ।। ७५ ।। तीसरे स्थानमें शनि आर छठे स्थानमें राहु है ! यह विवाहका समय समीप ही है । दोनोही `
धनी थे दोनों जनोने ही अपनी २ तयारी कौ ।। ७६ ।! दादशीके दिन सामको सेनिकों समेत राजपुत्र चा
आया, कनकके पास आ, तेकौ नामका राजयुरोहित बोला \! ७७ ।। कि, राजाकी आज्ञापते किशोरौका विवाह `
कर दीजिये यह् महारानी होगी इसे कोई देलभी कभी न सकेगा ।\ ७८ ॥ पुरोहितक्रे इन वचनोको सुन सव `
पुरुष हटादिये पर मालिनकी बेटी बनाहुभा विपी रहमया ।! ७९ ।। इसके बाद आधौरातके समय मुकुन्द
भीतर चलागया बाला किडोरी तो वुलसीके सामने बेटी हुई भगवान्का स्मरण करही थी ।। ८० ।! इसके
बाद घनघोर तुमुल शब्द होनेलगा, बडी भारी आंधी चलने लगी, वहाकि सब दीपक बुज्च गये ।। ८१ ।\ बिजली
` चमकने लगी, किसीको कुछ नहीं दीखता था, मुकुन्द मनम सोचने लगा कि, सूर्यकी बात शटी नहीं है ।। ८२। `
५ | . | 4 दूसरे लोगोने भी तौ वधव्यकै कारण कह थ । इस प्रकार उरकर मुकुन्द हदयस सुयका ध्यान करता है इसी ` ८
1 ` बौचमें विरपौने उसका हथ पकड ल्या । उसके हूषथके छतेही स्व्गंसे उसके अथर यञ् पडा । ८४ ५ (0
उससे विरूपौ तो उसी समय मरगया । बाहिर यह हल्का मच गथा फि, मुकुन्द मरगथा ।। ८५ ।। थोडी देरके 4 . 1
बाद पता चलगया कि मालीकौ छोरी मरगई । इसके बाद उन दोनोका विवाह हा किशोरी राजरानी वनौ `
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1} ८६ ॥! तुलसी ्रतके प्रभावसे कई भाई उत्पन्न हुए सबसे पिर शस्त्र सत्य हुमा इसके पीछे सुदेव सत्य 1 | |
हए ।1 ८७ ॥\ वुलसीव्रतके माहातम्यसे मनोरथ क्यो न हों ? सौभाग्यकरे अर्थं धनके ल्य विचा प्राप्ति ओर `
रोगनिवृत्तिके ल्य ओर सन्तानके लिये तुलसीका विवाह कराये ।! ८८ ।। यह भी सन्करुमार संहिताके `
कतिक शुक्लानवमीके दिन कूष्माण्डके दानका ओर तुलसीके विवाहका व्रत संपुणे हभ । इसके साथ नवमीके `
त्रत भौ पूरे होते 1. ॥
अय दृशमतानि एिषयन
` दशह्रा-त्रतम्
नि] छिटकारद्ति _____ (*६१)
कन्याचन्दरे वषे रवौ । दशयोगे नरः स्नात्वा सवंपापेः प्रमुच्यते ।। भविष्य-तस्यां 1
दक्म्धामेतच्च स्तोत्रं गङ्खाजले स्थितः! यः पठेदृकलकृत्वस्तु दरिद्रो वापि चाक्षमः ` ४,
॥ सोऽपि तत्फलमाप्नोति गङ्धां संपुज्ययत्नतः ।। इति दज्ञहरायां स्नानादि
विधिः ।+ अथ स्कान्दोक्तं दश्लहराख्यगङ्धास्तोत्रम् तत्पाट्प्रकारइ्च ।\ चतुभुजां _
चिनेत्रां च सर्वावयवशोभिताम् ।\ रल्नकुस्मसिताम्भोजवरदाभयसत्कराम् ॥ ॥
शवेतवस्त्रपरीधानां मुक्तामणिविभूषिताम् ।॥ एवं ध्यायेत्सुसोम्यां च चन्द्रायुत-
समप्रभाम् ।\ चाभरेर्वीज्यमानां च इवेतच्छत्रोपशोभिताम् । सुप्रसन्नां च वरदां
करुणा निरन्तराम् ।1 सुधाप्लावितभृषुष्ठां दिव्यगन्धानुलेपनाम् ॥\ त्रैलोक्य- `
पूजितां गङ्ख सर्वदेवैरधिष्ठिताम् \} दिव्यरत्नविभूषां च दिव्यमात्यानुलेपनाम् ।
` ध्यात्वा जलेऽथ मन्त्रेण कु्यदिर्चाच भक्तितः ।॥ ओंनमो भगवति हिलि हिलि
५ लि गङ्धे मां पावय पावय स्वाहा ।\ अनेन मन्त्रणागमोक्तपञ्चोषचारा-
ल च श्चीगङ्काये निवेदयेत् ।। एवं श्रीगङ्धाया ध्यानाचेने विधाय पर्चा
प्रतिदिनं दशदञ्ञ वारमेको्तरवृद्धचया वा सवपापक्षया्थ गङ्खस्तोत्रजयमहं करिष्ये `
इति संकल्प्य स्तोत्रं पठेत्।। ईहवर उवाच\। ओं नमः शिवाये गंगाये क्षिवदाय नमो
। ३ ।! संसार विषनाशिन्ये जीवनाय नमोस्तु ते \\ तापत्नितयसंहत्य प्राणश ते.
भोगदायिन्ये भोगवत्यै नमोऽस्तुते । ६ \ मन्दाकिन्य नमस्तेऽस्तु स्वगदाय नमो ८
गो नमः ॥। ब्रिहुताज्ञनसंस्थाये तेजोवत्ये नमो नमः ।! नन्दाय लिद्ध
पुः मने नमः ।। ८ ।। नमस्ते विः वाणि व नमो नसः \\
नमः 1! नमस्ते विष्णुरूपिण्ये ब्रह्ममूत्यं नमोऽस्तु ते \ १ 1! नमस्ते खद्ररूपिण्य ।
नमो नमः \। ४ ।। शान्तिसन्तानकारिण्ये नमस्ते शुदधमूतेये ।। सर्वसंशुधिकारिण्यै |
नमः पापारिमूतंये ।\ ५।। अवितिमक्तिप्रदायिन्ये भद्रवाये नमो नमः \\ भोगोप-
नमः । ७ ।! नमस्तरशुक्लसंस्थायै `
(अ) ध ." -्रतेराजः- ^. वस्षमी-
द व 1
1 (9 मः ० १
ध 1 1 र
† पा "नन ---------------~------------------------------------ 9 म
भ्रणतातिग्रभञ्जिन्ये जगन्मात्रे नमोऽस्तु ते ।। १३।। सर्वापत्प्रतिपक्षाये मङ्खलायै
नमो नमः \\ ज्रणागतदीनातंपरित्राणवरायणं ।। १४ ।! स्वस्यातिहरे देवि
` नारायणि नमोऽस्तु ते ।॥ निंपायै दगेहन््यै दक्षाय ते नमो नमः ।। १५ ॥ '्परा-
परपराये च गद्धं निर्वाणदायिनि ।! गङ्ख ममाग्रतो भूया गङ्ख मे तिष्ठ पृष्ठतः ` |
॥ १६।\ गङ्ख मे पाद्वयोरेधि त्वयि गङ्धेस्तु मे स्थितिः ।\ आदौ त्वमन्ते मध्ये
ध 8 च सर्वं त्वं गां गते शिवे ।। १७ ॥। त्वमेव मृलगम्रकृतिस्त्वं पुमान्पर एव हि ॥ गे `
त्वं परमात्मा च शिवस्तुभ्यं नमः शिवे ।\ १८ ।। य इदं पठते स्तोत्रं श्युणयच्छद्ध
यापि यः ।। दशधा मृच्यतें पपे: कायवाक्चित्तसंभवेः ।। १९ ।। रोगस्थो मच्यते
गोगाहिष-दूचज्च विपद्युतः ।। मुच्यते बन्धनाद्द्धो भीतो भीतेः प्रमुच्यते ।\ २०,
` सर्वान्कामानवाप्नोति प्रत्य" ब्रह्मणि लीयते ।। दिव्यं विमानमारुह्य दिव्यस्त्री-
परिवीनितः\। २१।। इमं स्वतं गृहे यस्तु रेखयित्वा विनिक्षिपेत् ।। नाग्निचोरभयं `
तस्य पापेभ्यो हि भयं न हि ।\ २२ ।, ज्येष्ठे मासि सिते पक्षे दामी हस्तसंयुता !! ` `
संहरेत्रिविधं पापं बुधवारेण संयुता ।। २३ ।।तस्यां दज्ञम्यामेतच्च स्तोत्रं गङ्धाजले `
। स्थितः ।। यः पठेद्शकृत्वस्तु दरिद्रो वापि चाक्षमः 1! २४ । सोऽपि तत्फल्मा- `
प्नोति गङ्खां संपुज्य यत्नतः । पूर्वोक्तेन विधानेन यत्फलं संप्रकीर्तितम् ।। २५।॥ `
यथा गौरी तथा ग्धा तस्माद्गौर्यास्तु पूजने । विधिर्यो विहितः सम्यक्सोऽपि `
` गङ्खाप्रपुजनं ।। २६ ।। यथा* शिवस्तथा विष्णु्यंथा लक्ष्मीस्तथा उमा \) यथा उमा `
तथा गङ्धा चतृरूपं न भिद्यते ।! २७ ।\ विष्णुरुदरान्तरं यच्च शरीगौर्यरन्तरं तथा ।! `
गङ्धागोर्योरन्तरं च यो ब्रते मूढधीस्तु सः ।।! २८ ।! रौरवादिषु घोरेषु नरकेष
पतत्यधः ॥। अदत्तानामुपादानं हिस! चैवाविधानतः ।! २९ ।। परदारोपसेवा च `
कायिकं त्रिविधं स्मृतम् ।\ पारष्यमनुतं चेव पेशन्यं चापि सर्वतः 1\ ३० ।) असंबद्-
प
व
क
= ----- त-य
॥
प्रलापङ्च वाङ्मयं स्याच्चतुर्विधम् । परदरवयेष्वभिध्यानं मनसानिष्टचिन्तनम्
॥ ३१ ॥ वितथाभिनिवेशद्च मानसं त्रिविधं स्मृतम् ।\ एतानि ददापापानि हर
त्व मथ जाल वि 1! ३२।। इश्पापहुरा पस्मात्तस्माहशहूरा स्मता । 18 एतदशरि विध;
व्रतानि |
लाभीत्यभीष्टाम्
हिन्दीटीकासहित
0 दशमी व्रतानि 1
ज्येष्ठ शुवलादशमीको द्ञहरा कहते. हँ । इसमं स्नान, दान रूपात्मक् ब्रत होता है । स्कन्दयुसणमे
लिला हुभा है कि, ज्येष्ठ शुक्ला दामी संबत्सरमुखी मानी गई है इसमे स्नान करे ओर दान तो विक्षेष करके
करे} किसी भी नदीपर जाकर अध्य (पूजाआदिक) एवम् तिलोदक (तौथं प्राप्ति निमित्तक त्वेण) अवछ्य `
करे! वो महापातकोके बराबरके द पायोसे छूट जाता है \ यदि ज्येष्ठ शुक्ला दशामीके दिन मंगलवार रहता `
हो हस्तनक्षत्र युता तिथि हो यह् सबपापोके हरनेवाली होती है \ वारह्पुरागमें लिखा हुभाहै क्रि,ज्येष्ठ
शुक्त्म दडामी बुधवा रमं हस्तनक्षत्रमे श्रेष्ठ नदी स्वग॑से अवतीर्णं हुई थौ वो ञ्च पापोको नष्ट करती है इस
कारण उस तिथिको द्डहसा कहते हं । ज्येष्ठ मास, शुक्लपक्ष, बुधवार, हस्तनक्षत्र, गर, आनन्द, व्यतीपात, `
` -कन्याका चन्द्र वृषके सूयं इन दशा योगोमं मनुष्य स्नान करके सव पापोसे खट जाता है ।भविष्यपुराणमे लिखा
` हृजा है कि, जो मनुष्य इस दश्हराके दिन गंगाके पानीमें खडा होकर दश्बार इस स्तोत्रको पठता है चाहे
| बो दरिद्र हौ चाहे असमथ हो वहं भौ प्रयत्नपूनेक गमाको पूनकर उस फलको पाता है । यह् द्रहूरके दिनि _
स्नान करसेकी विधि पुरी हई ।\ स्कन्द पुराणका कहा हुभा दज्ञहरा सासका गंगा स्तोत्र ओर उसके पठनेकौ =
| विधि-सब अवयवोसे सुन्दर तीन नेनत्रोवाटी चतुर्भुजी जिसके कि, चारो भुज, रत्वकुभ, उवेतकमल, वरद `
` ` ओर अभयसे सुशोभित हे, सफेद वस्त्र पहिने हई है, मुक्ता मणियोसे विभूषित है, सौम्य हे, अयुत चन््रमाओंकी = `
, भ्रभके सम मुखवालो है जिसपर चामर इलाये जारहे है, इवेत छतरेसे भलीभाति शोभित है, अच्छीतरहं प्रसन्न `
है, रके देनेबाली है, निरन्तर करुणाद्रेचित्त है, भृपुष्ठको जमृतसे प्लावित कररही है, दिव्य गन्ध ल्णघेहृए = `
. है, त्रिलोकी पूजित है, सब देवोसे अधिष्ठित है, दिव्य रत्नोति विभूषित है, दिव्यही माल्य मर अनुख्पनहै, |
एसी गंगाका पानीमं ध्यान करके भक्तिपूवेक संत्रसे अर्वा करे। ओं नमो भगवति हिलि हिलि मिलिमिचिगगे |
मां पावय पावय स्वाहाः यह गंगाजौका सत्र है। इसका अथं है कि, है भगवति गंगे! मुक्ते बारबार मिक, पवित्र `
;रदइससे गंगाजीके लिये पंचोपचार आर पुष्पाञ्जलि समपगकरे । इस प्रकार गंगाका ध्यान ओर ८ |
1 विधिहरिहररूवां सेन्दुकोटीरजुष्टां कल्ितिसिदुकूलां जाह्कवीं
तां नमामि \) ३६।। आदावादिपितामहस्य नियमव्यापरयात्रे जलं पदचात्पन्चग- `
श्ायिनो भगवतः पादोदकं पावनम् ।! भूयः इस्मुजटाविभूषणमणिजेल्लोमहषे- `
सिं कन्या कल्मषनादिनी भगवती भागीरथी दृष्यते ।\ ३७ ।। इति 'काङीखण्डे
कक्लहयस्तोच्रं संप्णेम् ।
` एवम् तीन पंथोसे जानेबाीके लिये वारवार नमस्कार \ कोई इस शृत्ोकमं “त्रियथायै” इसके स्थानमें “जग- `
द्ये
[अ 1 ब्रतरार्ज 4 [कामी
य -
करनेवाली तुञ्च० \। ५ ।) भुक्ति, मुक्ति, भद्र, भोग जौरः उपभोगोको देनेवाली भोगवती तुक्च गंगाके० 1 ६।। ४ ^
` तुक्च मन्दाकरिनीके लि° स्वगं देनेवालमीके चिये वारंवार नमस्कार, तीनों लोकोकौ भूषण स्वरूपा तेरे चि `
पै" एेसा पाठ करते हे । इसका अथं होता है करि, जगत्कौ धात्रीके लिये नमस्कार ।। ७ ।। तौन शुक्ल `
संस्थावालीको ओर क्षमावतीको बारवार नमस्कार तीन अग्निकौ संस्थावालो तेजोवतीके ल्यि नमस्कारहै,
| कग धारिणी नन्दाके हिए नमस्कार, तथा अमृतकी धारारूयौ आत्सावालीके किए नमस्कार कोई “नारा. |
भ्ये नमोनमः" नारायणौके लिए नमस्कार है एेसा पाठ करते हैँ ।। ८ ।। संसारम आप मुख्य है आप्केष्यि =
। नमस्कार, रेवती रूप आपके लये नमस्कार, तुक्च बहतीके लिए नमस्कार एवं तुक्ष लोकधात्रीके लिए नम |
: है ९1\ संसारक मित्ररूपा तेरे लिए नमस्कार, तुक्च नंदिनीके लिए नमस्कार, पृथ्वी शिवामृता ओर
_ सुवषके लिए नमस्कार \} १० \} पर भौर अपर श्तोसे आढचा तुश्च ताराको बारबार नमस्कार हें । फन्दोके |
` नालोको काटनेवाली अभिन्ना वुक्षको नमस्कार \ ११ 1! शान्ता, वरिष्ठा ओर बरदाजो आपहेआपके
लिए नमस्कार, उतरा, सुलजग्धौ भौर संजीविनी आपके लिषएु नमस्कार \। १२ ॥\ ब्रह्धिष्ठा, ब्रह्मदा ओर
इुरितोको जाननेवालोतुक्षको बारबार नमस्कार प्रणत पुरुषोके दुखोको नाश करनेवाली जगतकी मातातेरे `
1 | | 4 लिए बारबार नमस्कार ।\ १२ ।। सब आपत्तियोको नाश करनेवाली वुद् मङ्कलाके किए नमस्कार \ कषरणमे | ।
आये हए दीन आतंजनोके रक्षणमें लगे रहनेनालौ \। १४ ।। सबको आतिको ह॒रनेवाली तुञ्च नारायणी देवके 0
किए नमस्कार है । सबसे निलेथ रहनेवाली दर्गोको मिटानेवाली तुक्च दक्षाके लिए नमस्कार है ।। १५। पर `
अपरसेभी जो पर है उस निर्वाणके देनेवाली गंगक्रे लिए प्रणाम है । हे गंगे ! आप मेरे अगाडी हों आपही ` ^
मेरे पीछे हों ।! १६ \\ मेरे अगल्बगल हे गंगे ! तुही रह हे गंगे ! मेरी तेरेमेहौ स्थिति हो । हे गंगे ! तु आदि ८
६ गंगे! तु परमात्मा हिवरूप है, हे शिबे { तेरे किए नमस्कार है ।। १८ ।\ जो कोई इस स्तोत्रको श्रद्धाके
| / ` रोगसे, विपत्तिवाला विपत्तियोसि, बद्ध बन्धनसे ओर रसे उरा हुआ पुरुष छूट जाता है ।! २० ।। सब कामको
. पाताहै मरकर ब्रह्ममें ल्य होता है । बो स्वरगमे दिव्य विमानमें बेठकर जाता है \ दिव्य स्त्री उसका पला करती
` रहती हे ।\ २१ \। जो इस स्तोत्रको लिखकर
| ् 1 हरत है ।। २३11 उस ददामीके दिन जो कोई गंगाजलमं खडा हाकर इस स्तोत्रको द्वार पठताहैजोदरिद्रि
होवा असमथ हो \\ २४।। वो गंगाजीको प्रयत्नपुवक पूजता है तो उसे भी बही एल मिल जाताहैजोक्रि
| पहिले बिधानसे फल कहा है \। २५॥ श जसी गौरो है वेसीही गंगाजी है इस, कारण गौरके प्रुननमं जो विति
मध्य ओर अन्त सबमे है सर्वेगत ह तुही आनन्द दायिनी है ।! १७ ।। वुही मूर प्रकृति है, वुही पर पुरुषै, हे . ८
` पठता या सुनता है बो बाणी शरीर ओर चित्तसे होनेवाले पाोसेदश तरहसे मुक्त होतः है \\ १ ९ ॥। रोगी
| लखकर घरमं रख छोडता है उसके घरमं अग्नि जर चोरे भय नहीं
होता एवं न पापीही वहां सताते हे \\ २२ ।। ज्येष्ठ शुक्ला हृस्तसहिता बुधवारी दमी तीनों तरहके परपोको
` व्रतानि 1 ४ हिन्दीटीकासदहित | ध (४९५)
= अनुष्य गंगा स्नान करता है बो सब पापोस छूट जाता है ।। २५ ॥। सं उस गंगदेवीको प्राम करता हं लो `
सफेद मगर पर बैटीहई श्वेतवणेकी है तोन ने्ोबाली है अपनी सुन्दर चारों भुजाभोमे कलक, खिला कमल;
अभय ओर अभीष्ट लिये हुए है जो ब्रह्मा विष्णु शिवहूप है चांदसमेत अग्र भागसे जुष्ट सफत दुक्ल पिनि हुई `
जाह्लवी मालाको म नमस्कार करता हं \\ ३६।। जो सबसे पहि तो ब्रह्माजीके कमण्डलमे [विराजती थी `
पीछे भगवानूके चरणोका धोबन बनकर धिवजीकी जटाओमे रह जटाओंका भूषगबनौ पीछे जन्हु म्हषिकौ
कन्या, बनी यही पापोको नष्ट करनेवाली भगवती भागीरथी दौखती हे 11 ३८ ।\ यह् श्रीका्ीलंडका कहा `
हमा द्चहरास्तोत्र पूरा हमा \\ \ ५ 1
५0 ` आशाद्शमीन्रतम् | | 5
| आषाढशुक्लदश्ञमी मन्वादिः । सा पूर्वाह्हव्यापिनौ ब्राह्या । जथ यस्या ५
। कस्याचिच्छुक्लददाम्यामाादशमीत्रतं हेमाद्रौ भविष्ये युधिष्ठिर उवाच ॥ `
कश्वमाजञादश्ाम्येषा गोविन्द कियते कदा ।\ दमयन्त्या नलस्येव यया जातः समा- = |
गमः ।। कृष्ण उवाच ।। राज्याज्यया राजपुत्रः कृष्यथ च कृषीवलः ।। वाणिज्यार्थं
वणिक्पुत्रः पुत्रार्थं गुविणौ तथा ।\ घर्भंकामाथेसंसिद्धयं लोकः कन्या वराथिनौ ।
। यष्ट्कामो दहिजवरो योगी श्रेयोऽथ॑मेव च ।! चिरग्रवसितें कन्ति बाल दन्तनि-
। पीडते ।। एतक्न्येषु कतेव्यमाशचाव्रतमिदं तदा ।! यदा यस्य भवेदातिः काय तन
। तदा व्रतम् ।\ शुक्लपक्षे दशम्यां तु स्नात्वा संपूज्य देवताः ।। नक्तमाचाः चुन्या ॥
वै पुष्पालक्तकचन्दनेः ।। गृहाङ्गणे लेखयित्वा यवैः पिष्टातकेन वा ॥।स््रीरूपाश्चा- ¦ ८
। धिदेवस्य शस्त्रवाहनचिद्भिताः ।! अधिदेवस्य तत्त दिक्पालस्ये्रास्तत्तच्छसतर
रबाहननेदच चिह्निता लेखयित्वेत्यथंः ।\ दत्वा धुताक्त॒नवच्च पृथग्दीपांइ्च- = `
दापयेत ।। फलानि कालनातानि ततः कार्यं निवेदयेत् 1 आकनास्वाक्ञाः सदा सन्तु `
सिद्धचन्तां मे मनोरथाः ॥। भवतीनां प्रसादेन सदा कल्याणमस्त्विति ॥। एव सम्पूज्य ८
विधिवहस्वा विप्राय दक्षिणाम् ।! अनेन कमयोगेन मासि मासि समाचरेत् ॥ `
। बषेमेकं कुरशरेष्ठ ततः परचात्समु जेत् ।। अर्वा संबत्सरस्यापि सिद्धचर्थ वा |
समुद्जेत् 1! सौवर्णी; कारयेदाद्सप्या पिष्टातकेन वा \! ज्ञातिबन्धुजनेः
, साद्धंततः सम्यगलंकृतः पत््रमयोगे न मंत्रेरेभिगेहाङ्धणे ।। त्वयि सन्निहितः ¦ ¢ ॥ 1
४ एेन्दरदिष्देवंते नमः ।\ अग्नेः ध 1
(४६६९) ` . ब्रतराज `
भव । खद्धहस्तोऽतिविकृतो निच्तित्वामुपाभितः ।। तेनं नऋतिनामासि
त्वमाशां पूरयस्व मे ।। त्वग्यास्ते भुवनाधारो वरुणो यादसपतिः ।। कामाथ
मम धर्मार्थं वारुणि प्रवणा भव ॥\ अधिष्ठितासि यस्मात्त्वं वायुना जगदायुना ।
वायति त्वमतः ्ञान्ति निस्यं यच्छ ममालये \। धनदेनाधिष्ठितासि प्रख्याता त्वमि-
4 4 होत्तरा ।\ निरूतरा भवास्माकं दत्वा सद्य मनोरथम् \। एशानि जगदीशेन शम्भना
त्वमलंकृता । पूरयस्वाचु मे देवि वाड्छितानि नमो नमः ।। भुजङ्गाष्टुलन त्वं
सेवितासि यतो ह्यधः ।। नागाद्धनाभिः सहिता हिता भवे ममाद्य वं ।\ सचं लोको- `
नक्षत्राणि च सर्वाणि श्रहास्तारागणास्तेणा \। नन्षत्रमातरो याष्टच भूतप्रेत
विनायकाः ।\ सवे ममेष्टसिद्धचर्थं भवन्तु प्रवणाः सदा ।। एभिमन्तरः समभ्यच्य
पुष्पधूषादिना ततः ।\ वासोभिरभिषेकादय फलानि विनिवेदयेत् \! ततो बर्दि-
। कुकुमाक्नत ताम्बलदानमानादिभिः सूर्खम् \। प्रभात वेदविदुषे ब्राह्मणाय निवेद-
येत् ।\ अनेन विधिना सवं क्षमाप्य प्रणिपत्य च । भुञ्जीत मिच्रसहितः पुहष्रन्धु- `
` नोदितेन ।। इति श्रीभविष्योत्तरे आशादरामीत्रतम् ।
परि मता सर्वदा त्वं शिवाय च ।। सनकाः परिवृता ब्राह्वि मां पाहि सवदा \\!
निनादेन मीतवादित्रमङ्गलेः ।! नत्यन्तीभिरवरस्त्रीभिर्जगर्त्या च निजां नयेत् ।॥ `
जनेन च 1 एवं यः कुरुते पार्थं दशमीब्रतमादरात् 1। सर्वान्कामानवाप्नोति मनो- ` ५
भिलषितान्नरः ॥।स्त्रौभिविक्षेषतः कार्य बरतमेतचुधिष्ठिर ।। प्राणिवे यतो ना्यैः
शरद्धाकामपरायणाः 1। धन्यं यजास्यमायुष्यं सवंकामफलग्रदम् ।। कथितं ते महा- `
राज मया त्रतमनुत्तमम् ।\ यें मानवा मनुजपुङ्धवकासकासा सम्पूजयन्ति दशमीषु
सदा दशाज्चाः ।\ तेषां विदोषनिहितान् हृदयेऽपि कासानाल्चाः फलन्त्यलमलं बहु- `
आषाढ शुवलाददयामी यह् मन्वन्तरके अदिकौ तिथि है, इसे पूर्वाह्न व्यापिनी लेना चाहिये क्योकि 1
^ पद्मपुराणे लिखा हुमा है कि शुक्लपक्षकौ मन्वादि तिथि पूर्वा व्यापिनी लेनी चाहिये । जो मन्वादि ८
। तिथिं कृत्य होते है वे सब इसमें भी करने `
दक्मीके दिन होता है यह भविष्यपुराणसे लेकर हैमाद्विने “ह
चाह्धिये \। आद्रादकामीव्रत-किसी मी शक्लपक्षकी
रा है । युधिष्ठिर बोले कि हे गोविन्द!
आक्षादश्यमो वयो कहाती है कब कौ जाती है? (हेमाद्रिमं तो इससे पिले कौ इतः प्रथसं 1
पार्थ" यासि लेकर “भरा सह समागमः" यहांतककी कथा अधिक दौ है पर व्रतराजके लेलकने उसे
कदल तिथिमात्रहौ अप्स ग्रन्थे ली हे)) निस ब्रतके करनेसे दमयन्तीका नलके साथ ,
गया मूलक सा मासतिथ्यादि यादव यह् पाठ कहा (५
५... तार | नि त् ॥ | ¢ ह॒न्दीरी कृं | ध त्प [सहि सा ट्त ( + ६ ७. )
1 ^ ४ नि ह
¢ न "णा ध (0 प ध 1 प त - [त 1
(भ 9 ("099 ध ८ ध ५ रः ५ प कै: `
समय जिसे कष्ट हो उस समय उसे यह त्रत करना जाहिये । शुक्छ्पन्षकी द्चनीके दिन देवताओका ॥
८ ४ पूजन करके रातमं पुष्प अल्वतके ओर चन्दनसे आशाका पजन करना चाहिये, अधिदेवके रस्त्र र
| बाहुनोके साथ घरके आंगनमे स्त्री रूपी अभिदेवको चूनसे लिखे । अधिदेवका अथं उस दि्चकके दिवियालसे `
है उसके शस्त्र ओर वाहन साधं लिखे ! घ॒तका सनामा नैवेद्य ओर पुथक दीपक दे \ इसके बाद
स
बाली हो\ हाथमे तलदार लिये हए अत्यन्त विषृत निक्त तुशे उपाधित होता दै, इस कारण `
दषे लितहति भी कहते है तु मेरौ आशाको पूरीकर, भुवनका आधार पानौका स्वामी चर्ण तरेमं `
। रहताह। हे वारुणि ! तु काम धर्मके छिथे दयालु होना, सं्ारकी आयुरषवायुने तुष जाधार बना-
| याहैः इस कारण तुद्ञे वायवी कहते हं, हे वायवि ! तू मेरे माल्यमे सान्ति दे \ धनद दुबेरमे अभिष्ठिति
ह उत्तराके नामसे प्रसिद्ध हई, हमें शी घ्रही सनोर देकर निरुत्तर होना । जगदीश जंभुने तुन्न जलत `
ध | ५ ऋतुफलोका निवेदन करे ओर कषे किः भेरी साशा अच्छी अशाह्ये! मेरे मसरथ सिद ह, आपकी | |
। प्रसचतासे मेरा सदा कल्याण ह्ये इस प्रकार विधिके साथ पूज, बाह्यणको दक्षिणा देकर इसी रमसे
| महीना रे में व्रत करे, हे कुस्भ्रेष्ठ ! एक वर्धं करके पीछे उद्यापनं करे जथवा संत्तरसेभी परिल | ५
` स्िद्िक्े लवि उद्यापन करडारे, आज्ञा देवी सोवेकी बनानी चाहिये अथवा वदी या पिष्टातककी हनी ५
चाहिये, भली भति सजकर बः धजनोके साथ धरके आंगनसें करमसे भन्त्रोदास पुजन करे कि, सुर $
ओर असुरयोका पूज्य इन्द्र तेरेमें संनिहित रहता है तु इस भुवनकौ पूर्वा है । हे एेष्वी दिष् देवते ! ५
तेरे लिये नमस्कार है, हे आशे ! त्रु जग्निके परिग्रहे आग्नेयी कहती है, तेज स्पा हैः सत्ते बडी 1
श्रवति है, हे जःस्नेथी ! तू बरकी देनेवाली होजा । धर्ेराजका आश्रय लेकर तु इन लोकोका संयमन `
` (नियर) करतौ है, इस कारण हे याम्ये ! दुन संयमिनौ भी कहते है, तु सृके सब कामोके देन ` १
८ कियाहै इत कारण वु्े ई्ानी भौ कहते हेः हे देवि ! मेरे मनोरथोको शीध्रही प्राकर तेरे लिथे नमस्कार ` ५
है! भुजंगो अष्टकुलोसे अप सेवित हँ इसकारण नारगागनाभेके साथ मेरी हिता हं \ तरु सज लोकोके `
उपर है सनकादिकोने श्षिवके ल्य वुद्ने सदा स्वीकार कियाद) हे ब्राह्धि! मेरो रक्षा कर, नक्षत्र नत्र
ग्रहः तारागण, मक्षत्रमातृका, भूत, प्रेत, विनायक्र सब मेरौ इष्ट विद्धिके चये मुञ्चपर सदा प्रवण रहे, इन
मन््रोसे पुष्प, मूष, नास अभिषकादि तीपादिकोसे पुज, फलोको भेद करे । इसके. वंदियोके निनार भौर
गाने बजानेके शब्दोसे तथा अच्छी स्त्रियोके नाचसे जागते हए रात व्यतीत करे । कुंकुम, अक्षत, ताम्बूल,
सौर बन्धजनोके साथ भोजन करे, हे पाथं ! इस प्रकार जो आदरके साथ ददामीका व्रत करता है वो मनके `
८ दान मान इनके साथ सुलपर्ेक वेदके जाननेवाले ब्राह्मणक लिये ३ दे, कहीं “तत्स्व प्रतिपादयेत्” ठेसा क
भीःपाठ है कि, उसे ब्राह्मणक लि देदे । इस विधिसे सब करके पीछे क्षमापन करा प्रमाण करके सुहृद् ओर क
चाहे सब कामोको पाजाताहै ! ह युधिष्ठिर! विदोष करके इस त्रतको स्जियोको करना चाहिये, बयोकि, `
| प्राणिमात्रमे स्तयां श्द्धार् हृा करती है, हे महाराज ! भने इस शरेष्ठ व्रतको आपके सामने कहिया 1
। हैः यह घस्य है यदस्य है आयुका देनेवाल है सब्र कामोका पुरक है, हे मनुजयुद्धव ! जो कामोको चाहनै- = ५
चाले मनुष्य दशमौके दिन दशो दिकषाओंको पूजते हँ उनके मलक सब विशेष काम पूरे होते हं सब आका 4:
, फलती है अधिकं कहनेमें श्या है । यह श्रीभ्रिष्यपुराणका कहा हमा आलछादकमीका त्रत पुराहृभा।! `
(४६८) ` । | ५ ब्रतराज [न .. ( दमी.
दिने तस्सिदधेव वर्षाणि वे ददा ।। प्रथमेऽपूपकान् वषं द्वितीये चृतपूरकान् । तृतीये
पृपकासाराश्चतुर्थे मोदकाच्छुभान् ।॥ सोहालिकान्पञ्चमेऽब्दे षष्ठेऽब्दे खण्ड
` वेष्टकान् !! सप्तमेऽब्दे कोकरसानकंपुष्पांस्तथाष्टसं ।। नवमं कणवेष्टाश्च द्मे
सण्डकाञ्छभान् ।। दशषात्मनो द्य हरेदंशञ विप्राय दापयेत् ।। कमेण भक्षयेद्वा |
यथोक्तविधिना नप ।! अर्घार्धं विष्णवे देयमधर्धिं च द्विजातये ।। स्वत एवादंम
` इनीयादगत्वा रम्ये जलाक्षये \ दकश्ावतारानभ्यच्यं पुष्पधूपविलेपनेः ।\ मंत्रेणानेन `
मेधावी हरिमम्य॒क्षय वारिणा ॥! मस्स्यं कमं वराहं च नारसिहं च वामनम् ।। `
रामं रामं च कृष्णं च बौद्धं चैव सकल्किनम् 1! गतोऽस्मि शरणं देवंहरि नारायणं |
विभम् ।,! प्रणतोऽस्मि जगन्नाथं स में विष्णः प्रसीदतु ।) छिनत्तु वेष्णवीं मायां
भक्त्या प्रीतो जनादेनः ।। इवेतद्रीपं नयत्वस्मान् मयात्मा सन्निवेदितः ।\ अत्र॒ `
हैमीमहा्हाहच दशमूर्तौः सुलक्षणाः ।! गन्धपुष्पडच नवेद रचेयद्विधिपुवेकम् ।॥ `
एवं यः कुरुते भक्त्या विधिनाऽनेन सुव्रत ।। व्रतं दज्ञावताराख्यं तस्य पुष्यकलं
श्वुणु ।। श्रूयन्ते यास्त्विमा लोके पुरुषाणां दशा दश्च ।। तार्छिनत्ति न सन्देहर्चक्र- `
प्रहरणो विभुः ।। संसारसागराद्धोरात् समुद्धत्य जगत्पतिः ।\ उवेतद्रीपं नयत्याशु `
व्रतेनानेन तोषितः । कि तस्य न भवेल्लोके यस्य तुष्टो जनादनः \। यदृदु्लभ् |
` यदप्राप्यं मनसो यन्न गोचरम् ।। तदप्यप्राथितं ध्यातो ददाति मधुसुदन ।। सोऽहं
जनादेनः साक्षात् कालरूपधरोऽच्युतः । मत्यंलोके स्वयं प्राप्तो भूभारोत्तारणाय `
च । यास्त्री व्रतमिदं पाथं करिष्यति मयोदितम् ।\ सा च लक्ष्या युता नित्यं
` पुत्रभव्तिसमन्विता ।। मलत्येलोके चिरं स्थित्वा विष्णुलोके महीयते \। ये पूजयन्ति
पुरुषाः पुरुषोत्तमस्य मल्स्यादिकास्तु दशमीषु दशावतारान् \। मान्य दशस्वपि ` |
दशासु सुखं विहृत्य ते यान्ति यानमधिषुह्य मुरारिलोकम् ।। इति भविष्ये भाद्र- ` ५
पदशुक्ल दशम्यां दजशावतारत्रतम् \ 1
न
दशावतार ब्रत-भा्रपद शुबा ददामीके दिन होता है, बह भविष्योत्तर पुराणमे लिला है । युधिष्ठिर `
हे कृष्ण ! दश्लावतार नामके व्रतको विस्तार पुवेक किये, सत्र ओर रहस्यकोभी साथ कटुना व)
श्रान्ति करनेवाला है ¦ कृष्ण बोले कि, भाद्रपद शुक्ला दश्ञमीके दिन पवित्र हो अच्छे जलाशयमं
करके पितृदेवादि, तर्पण करके ह कुरकुलके शरेष्ठ ! घर आ! घान्यके चूनकी अपने हाथकी तीन प्रसुति
तानि] = ददीदीकासहित (५४६९)
अवतारको धारण करने वाले व्यापक दुखोके नष्ट करनेवाले नारायण देवकौ मे ्ञरण हुं जगन्नाथको ` +
प्रमाण करता हूः मे उसके श्ञरण हं भविततसे प्रसन्न हुजा जनादन वैष्णवीमायाको इर करदे । मेने अपनेको `
उसको दे दिया ह वो मुषे शवेतद्टीपको र जाय । इसमें सोनेकी दश अचतारोकी शेष्ठलक्षण्य जालिनी दहा
म्तियोको गं, पुष्प ओर. नेवैयोसे विधि पुर्वक पूजे, है सुरत ! इस प्रकार जो भविपुरवेक विधिके सथ
| इसन्रतको करतः है उसके पुष्य फलको सुनो, मनुप्यकौ जो दशा दश्ाएुं सुनी जातौ है चकरोयुध भगवान् =
उन्हे काट देते हे इससे सम्देह नही है इस ब्दसे प्रसन्न हुए जगन्नाथ उसका संसार सागरसे उद्धार करके व्वेत-
| हीपका ठे जाते हं । संसारसं उसका क्या काम पूरा नहीं हौजाता जिसपर किं भगवान् प्रसन्न होजतेहं। ५
` जोदुलंभ है जो अपाप्य ह जो सने भौ गोचर नहीं है उस उस्तुको विना हौ मागि भगवान् देदेते हे ।वोमे
जनार्दन साक्षात् कालरूपधारी अच्यत भके भारको मिटानेके लिये स्वयं ही मत्यलोकमें प्राप्त हमा हं 1 =
ध जोस्त्रीमेरे कहे हुए व्रतको करेगी वौ सदा लक्ष्मीसे युक्त रहती है मौर पुत्रोकी भवितसे समन्वित होती है. । ४ (१
बो ममष्य लोकम चिरकालतक रहकर अन्त में विष्णुलोकमें प्रतिष्ठित होती है । जो पुरुष क्हामीके दिन
भत्स्यादि दों अवत।रोको प्रजे है ने एेसा मानता हूं कि वे देशों दिश्षाओंमे सुखपून्वक विचरकर अन्तमं
विमानपर चढ मुरारिके लोकको चरे जाते हें । यहं भाद्रपद शुक्ला दशमीके विनका दशावतार ब्रत पुरा 1
अथ विजयादशमी व्रतम्
आ्िवनशुक्लदशम्यां विजयादशमी ।! सा चं तारकोदयन्यापिनी ग्राह्या
तदुक्तं चिन्तामणौ आश्विनस्य सिते पक्षे दक्षम्यां तारकोदये \\ सकालो विजयो
व्याप्तौ बाअपराजितापूजायां पूर्वेव ।। तदुक्तं हेमाद्रौ स्कान्देदज्ञम्यां तु नरः
4 सिते पक्षे दशास्यां सवराहिष ।। सायकाल शभा यात्रा दिवा न विजयं क्षणे ।।
नाम सर्वकामार्थसाधकः ।। रत्नकोहो-ईषत्सन्ध्यामतिक्रान्तः किच्न्िदुदधन्न-
तारकः ।। . विजयो नाम कालोऽयं सवंकामाथं-साधकः ।। दिनदये तद्व्याप्ताव- `
सम्यक् पूजनीयाऽपराजिता ।। ईशानं दिष्माश्चित्य अपराह्ने प्रयत्नतः ॥या
पूर्णा नवमीयुक्ता तस्यां पुज्याऽपराजिता ।। क्षेमां विजयां च पूर्वोक्तविधिना `
नरैः ।\ नवमीशेषसंयुक्तदशम्यामपराजिता ।। ददाति विजयं देवी पूजिता जय-
रबह्धिनी ।। तथा-आश्विवने शुक्लपक्षे तु दजञम्यां पूजयेन्नरः ।! एकादह्यां न कुर्वीत `
पूजनं चापराजितम् \! याजा त्वेकाददामुहतें कार्या ।। तथा च भृगुः--आदिवनस्य
1 दशमुहूर्तो यो विजय सप्रकोतितं ९.४1 तसिमिन्यवे विधातव्या यात्रा विजय- | | | | | |
काक्षिभिः ।। दिनद्वये एकादडामुहते चवयाप्तौ वा श्रवणयुकता ग्राह्या ।। ५
किचित् सभणेकादस यदि ॥ =`
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| (४७० ) # च | | ति | ततराज म [ दरामी-
ण्टका \\ घारिण्यर्जनवबाणानां राश्रस्य प्रियवादिनी ।। करिष्यसाणयात्रायां यथा- `
कालं सुखं मया ।! तत्र निविष्नकर्नौ त्वं भव श्रीरामयुजिते ।। गृहीत्वा साक्षता- `
मार इमीमलगतां मृदम् ।। गीतवाद्त्िनिघेषिरानयेत् स्वगृहं प्रति ।॥ ततो
भूषणवस्त्रादि धारयेत् स्वजनैः सहं ।। शम्थभवे वनराजयुजा कार्या ।। तत्र मन्बः-
आदिराजं महाराज बनराज वनस्पते ।\ इष्टदशेन सिष्टाक्तं शत्रूणां च पराजयः ।! `
अधापरानितदशम्यां पूरवक्ति ` विजयामुहुते उक्तं प्रास्थानिकभित्युपक्रम्य गोपथ-
ब्राह्मणे तद्प्येते इलोका :-अलङकृतो भूषितभृत्यवगंः परिष्कृतोत्तुद्धतुरद्कनागः।॥
वादित्रनादप्रतिनादिताशषः सुमङ्कलाचारपरस्परालीः ।! राजा नित्य भवनात्
` पुरोहितपुरोगमः ।। प्रास्थानिकं विधि कृत्वा प्रतिष्ठेत्ुवतो दि \\ गत्वा नगर
सीमान्तं बस्तुपुजां समाचरेत् \। संपूज्य चाथ दिक्पालान् पूजयेत् पथि देवताः ॥।
` -मन्तरेवेदिक पौराणैः पूजयेच्च शमीतरम् ।। अमङ्कलानां शमनीं सवेसिदधिकरीं `
शुभाम् । दुःस्वप्नकश्षमनीं धन्यां प्रपद्येऽहं शमीं शुभाम् ।\ ततः कृतान्ीः पृवेस्यां
` दिश्चि विष्णुक्रमात् मेत् ।! शत्रोः प्रतिकृति कृत्वा ध्यात्वा रामं तथार्थंदम् ।!
` क्षरेण स्वर्णपुखेन विध्येद्ध॒दथममेणि ।! दिशाविजयमन्त्रास्च पठितव्याः पुरोधसा!
एकमेव विधि इत्वा दश्षिणादिभिग्रचयेत् \! पुज्याद्विजांश्च संपूज्य सांबत्सर- `
` पुरोहितौ ।। गजवाजिपदातीनां प्रक्नाकौतुकमाचरेत् ।\ जयमङ्धल्शब्देन ततः
स्वभवनं विशेत् ।\ नीराजमानः पुण्याभिगेणिकाभिः सुमङ्खलम् ।\ य एवं कुरते `
राजा वर्षे वषं सुभङ्कलम् ।\ आयुरारोग्यमेहवर्यं विजयं स च गच्छति \\ नाधयो
व्याधयश्चैव न भवन्ति पराजयाः ।। भियं पुण्यमवाप्नोति विजयं च सदा मुवि । `
` इति ।। प्रास्यानिकप्रकारश्चेत्थम्-आद्िवनस्य सिते पक्षे दलम्यां जनेषु गमिष्यत्यु `
-पाथिवश्च दन्दुभीन्वीणाश्चोपवाद्येत् ।\ ततो घटोत्थापनान्तरं सुचारूवेषेः सुभ्-
षितः संभारानुपकल्पय एकादज्ञमुहृतं श्रवणयोगे सीमान्तं गत्वा पदचाद्गृहे जनः
सह सुव्णसहितं ्राभमाचिश्षेत् ।॥ योषिद्भिः कोतुकेष्च प्रज्वालितेदपिर्नीराजाना- `
ज्जनानुकेषनं कारयित्वा वासोगन्धस्रक्पुष्पेर्च पजयित्वा हिरण्यरूपमिति मन्त्रेण `
सुवणेपुजनं कृत्वा आशिषः प्रतिगृह्य लक्ष्मीं नमस्कुर्यात् ।। सर्वा भगिनीवस्त्रा- `
। ।\ इति विजयादशमी ।! इति
ब्रतानि 1 हिन्दीटीकासहित ॥ (४७१) ८ ||
अर्थोको पूरा करनेवाला है ! यदि दो दिन ताके उदथसें व्यापक हौ अथवा न हो तो अपरानिताकौ पुजामे
पूर्वाही लीजाती है, यही भविष्यपुराणसे लेकर हैमाद्िने लिला है कि दकषमीके दिन तो मनुष्योको अपराजिता
भली भांति प्रयत्नपुवक पूजन करना चहिये, अपर, हके सथयमं ईशानी दिज्ञासे केकर ! जो दश्चमी नवमीसे `
। | युक्त हो उसमे क्षेम ओौर विलयके लिये अपरानिताका विधिपू्वक पुजन करना चाहिये \ नवसीके शेषसे `
संयुक्त दश्ामौके दिन पूजी गई अपराजिता देवौ विजय देती है, क्योकि पूजित हुई अपराजिता जयको बढाने-
बालौ होती है, इसकी पुष्टिम जौर भौ प्रमाण देते हें कि आद्िवन शुक्ला दद्षमौक परजना चाहिये, क्योकि,
एकाद्छीमें अपराजिताका पजन न करना काहिये, विजया ददामौके दिन यात्रा तो ग्यारहवे मुहतेमे करनी ।
यही भुग्ने कहा है--आश्िवन शुक्ला ददामीके दिन सभी राक्षियोने सायंकालके समय विजय मुहुतेमे यत्रा = |
` करना अच्छा है दिनम नहीं । ` जो ग्यारहर्वा महतं है उसे विजय कहते हं जी जौत चाहते हं उन्हं उसीमें यात्रा
1 करनी चाहिये ¦ यदि दौ दिन एकादश मुहूतं व्यापिनी अथवा अव्यापिनी दश्षमीहौ तो श्रवण युताका
ग्रहण करना चाहिये ¦ यही हेसाद्विसं तथा मदनरत्वने कंश्यपका प्रमाण रखा है कि उद्य कालमं दशमी
` उसे क्यो करना चाहिये यह् भविष्यमे लिला हा है कि, सवं लक्षणोपेतं ईशान दिदाकी शमीकी परजा र
। हो वाकी संपुणं एकादशी हो जब श्रवण नकषतर हो उस तिथिको विजया कहते है, णमि भ्रवण नकषतरमे `
| रामने प्रस्थान किया था इस कारण विजया थी । भनुष्य उसी दिन उसी नक्षत्रम सौमाकरा अतिक्रमण करे `
। करके परार्थना करे फिर ईक्ानी दिशञाके सन्मुख हो जाय । यह प्राथनाका मन्त्र है कि, व्मी पार्पोको नष्ट स
५ करती है, शमी वैरिर्योका बिनाज्ञ करती है, अर्जुनकी धनुष्य धारिणी ओर रामकी प्यारा बोलनेवाली है,
। कमी पपोको नष्ट करनेवाली है श्षभीके काटे लोहके हत् अर्जुन केबाणोको धारण करनेवाली
है रामकी प्रियवादिनी है \ मे अपने मुहुतेमे यात्रा करूगा । है श्रीरामपुजिते, उसमे तु निविध्न करना अक्ष- |
| हे आदिराज! हे महासयज ! हे बनराज ! इष्टका अच्चका दान ओर शत्रुरओंका पराजय सुश्च दौनिये ॥\ ।
यद्यपि ये इलोक कहे हे कि--स्वयं अलंकार किये हए हँ सब ोकरोको सजादे बड़े २ घोडे हाथी
करके मागमे देवताओोंका पूजन करे, पुराण या वेके मतत्रे शमीके व क्षोका पुजन करे । अमङ्खलोकि
५ शणं ५४ प्त हा हं (कहं “शमनी दुतस्य च" सव द्ृतोको नष्ट करनेवालो यह् अम्तिम पाठ है इसके ` |
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। तोके साथ गी हई शमीके मूलक मिही केकर गाजेबाजेके साथ अयने घर ले भये ! पीछे अनं
| स्वजनोके साथ मृषण वस्त्रादि धारण करे शमी न भिठे तो धनराजकी पूजा करे } उसका मत्र--हं वनस्पत ५
। अपराजित दक्ञमीके दिन पहि कहे हए विजया मुहूर्तम प्रास्थानिकं छृत्योका उपक्रम केकर गोपथ्राह्यणमं ` ५
सिगारे हृए हों नगाडे आदि बज रहै हों जिससे दिलु गूनं रही हों सुमङ्कलाचारके साथ अआश्ञो्बदि ¦
` दौ नारही हों! अगाडी २ पुरोहित हो इस प्रकार राजा अपने घरसे निकले, पहिले पस्थानकौ सब विधि = `
करके परघसे केकर दिशामें प्रतिष्ठित हो नगरकी सीमाके अन्ततकं जा वास्तु पना करं दिगपाल का पूजन
। लोकेिनष्ट `
` अमङ्धलोकै नष्ट करनेवाली, सब सिद्धियोके करनेवाली दु स्वप्ने चष्ट करनेवाली शुम धन्या ्षमीकी
` बाद आक्ीर्वाद होनेषर पूर्वं दिलामे विष्णु मसे जाय, शतरुकौ सूति बना अर्थक देनं चालं रामका व्यान
.' मसे उसे यह अर्के अन्तका दुकडा है !) स्वणंपुंल शरसे हृद्यके ममम भेद |
विजयके मन्त्रो का स्वयं पाठ कर, इस प्रकार सब विधियोंको करके दक्िणादिके
क 1
जिन्होने कोौतुकसे जले दीपक हाथमे ल्यि हई स्त्रियो नीराजन ओर अनुलेपन कराकर वास गन्धमाला
ओर पुष्पोसे पूज, "हिरण्यरूपम्' इस मन्त्रसे सुवणेकां पूजन करके आखीवदि ठे लक्ष्मीको नमस्कार करे
सब बहनों को वस्त्र अलंकार ओर भूष णोसे पूजे तथा गन्ध, पुष्प, भूप ओर दीपकोसे ब्राह्यणोका पुजन
करे । यह् विजयादशमी परी हुई । इसके साथ ही दल्मीके त्रत भी पुरे होजाते ह ।
अथेकादशीत्रतानि
- एकादशीनिर्णय
तत्रोपवास एकादश्लीनिणेयः । उपवासश्च निषेधपरिपालनात्मको व्रत-
रूपरच ।\ सा च द्विविधा । शुद्धा दह्मीविद्धा च ।। वेधोऽपिः द्विविधः ।। अरुणोदय-
दशमीसम्बन्धात् सूर्योदये च ।} तत्राद्यो वेष्णवस्त्याज्यः । तथा च भविष्ये-अरुणो-
दयकारं तु दशमी यदि दृयते ।! सा विद्धकादन्ञौ तत्र पापमलमुपोषणम् ।। तथा-
दशमीशेषसंयुकतो यदि स्यादरुणोदयः ।! नेवोपोष्यं वेष्णवेन तहिनेकाष्दल्लीब्रतम् 1)
रुणोदयस्वरूपं तु हेमाद्रौ स्मृत्यन्तरे दशितम्-निशिप्रान्ते तु यामाद्धे देववादि-
तरनिःस्व ने।। सारस्वतेऽनभ्ययने अरुणोदय उच्यते ।! यामाद्धेम्। मुहतंद्रयलक्षकम् ।।
अत एव सौरधम-आदित्योद्यवेलायां या मुहृतद्वयान्विता ।! सेकादश्ली तु संपूर्णा
विद्धाऽन्या परिकोतिता ।\ यच्च माधवीये स्कान्दे-“उदयात्प्राकूचतस्त्रस्तु घटिका
अरुणोदयः इति । तदपि दात्िशद्धरिकारात्रिमानपक्षे मुहतेद्रयस्य तावत्यरि-
माणत्वा~दुक्तमिति दतनिणेयं ।॥ येऽपि ब्रह्यवेवते-चतस्रो घटिकाः प्रात
रुणोदयनिश्चयः ।। चतुष्ट य विभागोऽत्र वेधादीनां किलोदितः ।। अरुणोदयवेधः
स्यात् साद्धं तु घटिकात्रयम् ।। जतिवेधो द्िघटिकः प्रभासन्दश्ेनाद्रवेः ।। महावेधो-
ऽपि तत्रेव दृदयतेऽर्को न दृश्यते \! तुरीयस्तत्र विहितो योगः सूर्योदये सति 1
उषःकालः सप्तपञ्चारुणोदयः ।। अष्टपञ्च भवेत् प्रातः शेषः सूर्योदयः स्मतः \।
वेष्णव लक्षणं तु स्कान्दे-परमापदमापन्नो हषं वा समुपस्थिते ।। -नेकादशीं
स्थजेचयस्तु यस्य दीक्षा तु वैष्णवी ।\ भविष्ये-यथा शुक्ला तथा कृष्णा तथा कृष्णं
॥
` व्रतानि ` हन्दीटीकासहित (४७३)
वसिष्ठः । एकाकी यदा लुप्ता परतो दादश भवेत् ।। उपोष्या द्वादशौ तत्र यदी- | ध ८
। च्छेचचच पराङ्कतिम् ।! भुगुः-संपूर्णेकादली यत्र प्रमाते पुनरेव सा ।। तदोपोष्या ४
` द्वितीया तु परतोद्राद्शी यदि ॥ स्कान्दे-्रथमेऽहनि संपूर्णा व्याप्याहौरा `
अरसंयुता ।!
गृहस्थैश्च यतिभिश्चोत्तरा विभो ।) माकंण्डयः-सम्पूर्णकाक्छी यत्र प्रभाते पुनरेव ` ०
च ॥। पूर्वामुपवसेत् कामी निष्कामस्तु परां वसत् ।। हेमाद्रौ-विद्धप्यविद्धा विज्ञेया `
परतो दादौ न चेत् ।\ अविद्धापि च विद्धा स्यात्परतो दवादी यदि ।। प्रचेताः- `
एकादशी विवृद्धा चेच्छुक्ले कृष्णे विशेषतः ।। उत्तरां तु यतिः कुर्यात् पूर्वामुपव-
सेद्गही ।। सनत्कुमार :-न करोति हि यो मूढ एकादक्यामुपोषणम् ।। स नरो नरकं `
` थाति सौरे तमसावृते ॥। यदीच्छेद्विपुलान् भोगान् मुत चात्यन्तदृलंभाम् ।॥ `
उपोष्यैकाददयी नित्यं पक्षयोखभयोरपि ।। माधेवऽ्युक्तम्-एकादशी द्वाद्ी चेत्यु
` भयं वदधते यदा ।! तदा पूरवंदिनं त्याज्यं स्मात्र परं दिनम् ।! तरयोद्धयां न `
` कभ्येत द्वादक्षी यदि किञ्चन \! उपोष्येकादशौ तत्र दज्मीमिश्चिता यदि ।) इति
` स्कान्दात् । हेमाद्रिमते एकादशीभेदाः-शुद्धा विद्धा दयौ नन्दा त्रिधा न्यून-
समाधिकः । षट्प्रकाराः पुनस्त्ेधाद्राद्यूनसमाधिकंः ।\ इत्यष्टादशेकाद्ञी- ८
| । भेदः ।। विशेषः- ।1 पाद्ये-सम्पूर्णकादज्ञौ त्याज्या परतो द्वादशी यदि ।\ उपोष्या ५
दादी शुद्धा दवादश्यामेव पारणम् ।\ पारणाहे न लभ्येत द्रादज्ो कल्यापि चेत् ।॥
` तदानीं द्रादश्षी विद्धा उपोष्येकादकी तिथिः 1! बहुवाक्यविरोधेन संदेहो जायतेयदा ।
द्रादकषी तु तदा ग्राह्या त्रयोदश्यां तु पारणम् ।1 इति माकंण्डेयः ।। कात्यायनः-
। अष्टवर्षाधिको मर्त्यो ह्य तिन्यूनवत्सरः ।। एकादश्यामुपवसेत् पक्षयोरुभयो- `
रपि ।! भविष्ये-एकादयां न भुञ्जीत पक्षयोरुभयोरपि
र ६ च शुक्लामेव सदा गृही ।\ सधवायास्तु भे््र्नियाधिकारः । तथा च विष्णुः--
7 पः त्थ र जीवति या नारी उपोष्यव्रतसाचरेत् \\! आयुष्यं हरते भतुः सा नारी नरकं
द्ादश्यां तु यदा तात दृयते पुनरेव सा ॥ पूर्वा कार्या
ती बोधिनीमध्ये या कृष्णेकादज्ञी भवेत् ।। सेवोपोष्या गृहस्थेन
ब्रह्मचारी च नारौ `
४७४) = ` ब्रतराज : `". . [-एकाद्दी-
दशाम्याविधिः ।! तत्र दशम्यां विधिः । कौमे-कांस्यं मांसं ससुरांइच चणकान्
कोरदूषकान् ।\ क्क सधु पराद्नं च त्यजेदुपवसन् स्त्रियम् ।। तथा शाक साश्वं मसू-
` रांश्च पुनर्भोजनभेथ्ने ।\ इूवसत्यम्बुधानं च दशस्या बेष्णवस्त्यजेत् ।! मदनरत्ने
नारदीये-अक्षार-लवणाः स्वं हविष्यादह्िषेविणः ।। अवनीतत्पहयनाः भरियास-
_्विर्वजिताः ।। ब्रतघ्नान्याह हेमाद्रौ देवल --असकृञ्जल्पानाच्च सक्रत्ता-
स्बलचर्वेणात् ।। उपवासः भ्रणह्येतदिवास्वापार्च मथुनात् ।\! अशक्तौतु
मदनरत्ने देवलः-अत्यये चाम्बुपानेन नोपवासः प्रणदयति ।। अल्यये-कष्टे
वरतेवज्यम् । विष्णु रहस्ये-गात्राभ्यद्धं शिरोऽभ्यद्धः ताम्बूल चानुलेपनम् ॥\ `
व्रतस्थो वजंयेत् सवं यच्चान्यच्च निराकृतम् ।। एषुप्राय्िचत्तमुक्तम् ऋण्विधाने- `
स्तर्नाहिसकथो सख्यं कृत्वा स्तन्यं च हसनम् ।। प्रायश्चितं ब्रती कुर्याज्जपेन्नाम `
शतत्रयम् ।। मिण्यावादे दिवास्वापे बहुशोऽम्बुनिषेवणे ।। अष्टाक्षरं जपेन्म॑त्रं
शतमष्टोत्तरं शुचिः ।। ॐ नमो नाराथनायेत्यष्टाक्षरः ।। दन्तधावननिषेधः |} _
हेमाद्रौ वसिष्ठः-उपवासें तथा श्राद्धे न कुर्यादिन्तधावनम् ॥ करणे हानिः ॥
दन्तानां काष्ठसंयोगो दहत्यासप्तमं कूलम् ।। विशेषविधिः ।\ एकादहयां श्रद्धे _
प्राप्ते माधवीये कात्यायनः-उपवासो यदा नित्यः धाद्धं नेमित्तिकं भवेत् ।। उप
वासं तदा कुर्यादाच्ाय पितृसेवितम् ।! मातापि क्षये प्राप्ते भवेदेकाद्ी यदि ।।
` अभ्यच्यं पितुदे्वाडच आजिध्ेत् पितुसेवितम् ¦! उषवासग्रहणविधिः \\ बह्यवेवतं- `
प्राप्ते हरिदिने सम्यक् विधाय नियमं निशि ।! दश्षम्यामुपवासं चं प्रकुयद्िष्णवं |
व्रतम् ।\ तत्र एकादयां संकल्पः-गृहीत्वौदुम्बरं पात्रं वारिषुणमुदड्मुखः ।
उपवासं तु गृह्णीयाद्यथासंकल्पयेद्बुधः ।।! ओदुम्बरम् ताख्रमयम् ।! म॑त्रस्तु॒ `
विष्णृक्तः \\ एकादश्यां निराहारः !स्थित्वाहमपरेऽहनि ।। भोक्ष्यामि पुण्डरीकाक्ष
शरणं मे भवाच्युत \! हैवादीनां तुहेमाद्रौ सौरपुराणे-साविश््याप्यथवा नाम्ना
संकल्पं तु समाचरेत् ।। वाराहे -इत्यु“च्वायं ततो विद्वान् पुष्पाञ्जलिमयार्षयेत् ।\
ततस्तज्जलं पिबेत्-अष्टाक्षरेण मंत्रेण च्रिजप्तेनाभिमन्तितम् ।\! उपवासफलं `
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तिमिरान्धस्य व्रतेनानेन कश्चव ।। प्रसीद सुमुखो नाथ ज्ञानद्ष्टिप्रदोभव।
` द्वाद्छयां व्ज्यनिाह बृहस्पति --दिवा निद्रां परान्नं च पुनर्भोजनमेथुने \\ क्षौद्रं
कांस्यं माषतलं दादश्यामष्टवनयत् ।! हेमाद्रौ ब्रह्याण्ड-पुनर्भोजनसध्यायो भार `
` आयासमैथुने ।\ उपवासफलं हन्युदिवानिद्रा च पञ्चमी ।! शुद्धिः । विष्णुधमे- `
असंभाष्यान् हि संभाष्य तुलस्यादचापितं दलम् \} आसल्क्याः फलं वापि पारणे `
` . प्रादय शुढचति ।। विष्णुः-मोजनान्तरं विष्णोरपितं तुलसीदलम् ।। म्षणात्
पापनिभुक्तिश्चान्ायणशताधिका ।। एतदब्रतं सूतकेऽपि कार्यम् ।\ सूतके `
भतके चैव न त्याज्यं द्वादशीव्रतम् ।। इति विष्णव्तेः \! तत्र त्यक्तं दानादि सूत- `
` कान्ते कार्यम् \} सूतकान्ते नरः स्नात्वा पूजयित्वा जनार्दनम् ।। दानं दत्वा विधा- `
नेन व्रतस्य फलमदनुतें ।\ इति सात्स्योक्तेः स्त्रौभिस्तु रजोद्ंनेऽपि कार्यम् ।॥। `
` एकादश्यां न भुञ्जीत नारी दुष्टे रजस्यपि ।। इति पुलस्त्योक्तेः ।। द्ादयामुप-
वासः । यद द्वादख्यां श्रवणर्षं तदा शुद्धामप्येकाद्शीं त्यक्त्वा द्वादशीमुपवसेत्।।!
शुक्ला वा यदिवा कृष्णा द्वादल्ली श्रवणान्विता ।\ तयोरबोपवासङच त्रयोद्यां तु
पारणम् ॥ इति नारदोक्तेः ।! अथाष्टो महाद्रादश्यः ।। तत्र शृद्धाधिकंक्रादशी-
। युता दादी उन्मीलिनी हादशयेव शुद्धाधिका वद्धेते चेत् सा बजञ्जृली ।। वासर-
त्रयस्पक्षिनी चिस्पुश्षा 1\ अग्रे प्वेणः सपूर्णाधिकत्वे पक्चवधिनी ।। पुष्यक्षयुता `
| जया \! भ्रवणयुता विजया ।\ पुनर्वसुयुता जयन्ती ।। रोहिणीयुता पापनाशिनी ।।
एताः पापक्षयमुक्तिकाम उपवसेत् !\ अत्र मूलं हेमाद्रौ ज्ञेयम् ।! पारणाससयः।!
` दाद्छयाः प्रथमपादमतिक्रम्य पारणं कार्यम् ।। द्वादश्याः प्रथमः पादो हरि-
। वासरसंनितः 1) तमतिक्रम्य कुर्वत पारणं विष्णुतत्परः।! इति निणेयामते विष्ण्-
| धर्मोक्तिः ।। यदा भूयसी द्राद्ी तदापि प्रातमुहूर्त्रये पारणं कार्यम् ।। स्वेषामु-
प्रवासानां प्रातरेव हि पारणम् । इति वचनात् ।! इत्येकादक्ञीनिणेयः ।! अथ
शक्लङ्कष्णेकादछयद्यापनस्-परबोधसमयेपाथे कुयद्द्यापनक्रियाम् ।! सागेश्ीषं विकषे- `
४
७६) = व्रतराज [ एकादक्षी-
अस्तु पुण्याहम् ।! स्वरिति भवन्तो श्रुवन्तु ।। आयुष्मते स्वस्ति ।। ऋद्धि भवन्तो
श्रुवन्तु ! कमं ऋध्यताम् ॥ श्रीरस्त्विति भवन्तो ज्ुबन्तु । अस्तु श्री; ।। वषशतं
पूणेमस्तु ।। शिवं कर्मास्तु ।\ गोच्राभिवृद्धिरस्तु प्रजापतिः प्रीयताम् ¦ तत उद्यापन-
कर्मणि आचार्यवरयेत् ।। उपोष्य नियतो रात्रावाचायंसहितो तती ।\ कुर्यादारा-
` धनं विष्णोर्यथा्षव्त्या जगद्गुरोः ।\ देवालये गवां गोष्ठे शुची देशेऽथवा गृहे ।।
अष्टांगलोच्छितां वेदीं चतुरं प्रकल्पयेत् ।\ वितस्तिद्रयविस्तीणं तिरः कृष्णैः
प्रपुरयेत् ।। तस्यामष्टद्लं रम्यं कमर परिकल्पयेत् ।। तन्मध्ये स्थापयेत् कुम्भं
नवीनमन्रणं शभम् ।।! कृष्णेस्तिरेह्च संयुक्तं कृष्णवस्त्रोपशोभितम् ।। अहवत्थ-.
पणयम्मेन पञ्चरत्नैः समन्वितम् ।। समन्तादङ्कितिं चव संकषणादिनामभि
उपचारः षोडशभिः पूजयेत् प्रयतो नरः ।।! आग्नेयादिचतुष्पत्रे पूजयेद्गण-
मातृकाः ।। गणकं मातृकाषचेव दुर्गा क्षे्राधिपं तथा ।। समाहितमनाः कोणेष्वा-
-ग्नेयादिष् विन्यसेत् ।! तथव शुक्लकादश्यां तिलः , शुक्लहच योजयेत् ।। शुक्ल-
वस्त्रेण संवेष्ट्य पृजयेत्परया मृदा ।\ समन्तादेकितं चव नामभिः केशवादिभिः ॥
ततो देवं च सौवर्णं स्नाप्य पञ्चामृतादिभिः ।! गन्धपुष्पाक्षतोपेतरथ पुण्यजलैः
` शुभः ।\ संस्थाप्यावाहयेत्कुस्भे रमायुक्तं चतुभुजम् ।! पववत आचायः सवेतो-
भद्रमण्डल्देवताः संपूज्य तदुपरि स्थापिते कले देवतासाच्तिध्याथं कृताग्न्यत्ता-
रणां विष्णुमूति संस्थाप्य तत्र विष्णुमावाहयेत् ।। ओं नमो विष्णवे तुभ्यं भगवन्
परमात्मने ।! कृष्णोऽसि देवकोपुत्र परमेश्वर उत्तम ,! अजोऽनादिदच विइवात्मा `
` सर्वलोकपितामहः ।! क्षेत्रज्ञः शाश्वतो विष्णुः श्रीमान्नारायणः परः ।। त्वमेव
पुरुषः सत्योऽती्रियोऽसि जगत्पते ।\ यत्तेजः परमं सूक्ष्मं तनेमां वेदिकां विहि ।
ओं भूः पुरुषमावाहयामि ।! ओं भुवः पुरुषमावाहयामि ।\ ओं स्वः पुरुषमावाह्-
यामि ।\ ओं भूर्भुवः स्वः पुरुषमावाहयामि ।। विष्णो इहागच्छ इह तिष्ठ पुजां
गृहाण सुप्रसन्नो वरदो भव इति ।। प्रत्येक स्त्रीचतु सहसरीसहितां रुक्मिणीं
| त्तानि] ` हि्कीटीकासहिति (४७७) |
| श्रीधराय० ९, हषीकेश्ाय० १० पद्चनाभाय० ११ दामोदराय० १२ एताज्खु- ५
| क्लेकादहयाम् ।\ एवमेव कृ्णकाददया सकषणायः० संकषण जा० वासुदवा० `
| प्रद्युम्ना० अनिरुदधा० पुरषोत्तमा० अधोक्षजा० नारासहा० अच्युता० जनादना०
। उपेद्धाय० हरये° श्रीकृष्णाय ० १२ इत्येवं प्रकारेणावाह्य तदस्त्विति प्रतिष्ठप्य `
| च ओं अतो देवा इतिषोड्ञोपचारेषिष्णुमावाहितदेवताङ्च नाममत्रेण पूजयेत् । \
| ( ` प्रदद्यादासनं पाद्यमध्यमाचनीयकम् ।। स्नानं वस्त्रं चोपवीतं गन्धपुष्पाणि वेततः\\ 8
धूपं दीपं च नैवेचं नीराजनप्रदक्षिणे ।। उभयकादर्योयदा एक आचायस्तदाष्ट- १८
| दलेषु पूर्वादिक्रमेण एकत्र देवताः सस्थाप्य पूजयत् ।\ स्तवन विष्णुसुक्तह्च परि- `
। चर्या च नामभिः ।। नमोनतर्ेष्णवेभेतरस्तन्मर्तो पूजयेत् सुधीः ।। उपचारादिकं 1
| कुरयन्निव कार्थं विसजंनम्।।गीतवाद्येस्तथा नत्यरितिहासंमनोरमंः। पुराणः सत्कथा- | ध
। भिश्च रात्रिशेषं नयेत् सुधीः ।। प्रभाते विमले स्नात्वा कृत्वा सोचादिकाः क्रियाः
1 चतुविशतिसंख्याकान्विप्रानागमर्दाह्ननः ।। आका रयंत्ततः पश्चात् पूजयच्च समा- ८
| | गतान् ।\ आचायण समं कूर्याद्पचारादिकं ततः ।। हौमसंख्यानुसारण स्थण्डिलं
| कारयेत्ततः \। उल्लेखनादिकं कृत्वा प्रणीतास्थापनं ततः 1\ अग्निध्यानान्तं कत्वा
| ततोऽन्वाधानं कुर्यात् \ क्रियमाणे शुक्लकृष्णेकादश्ीत्रतो्ापनहोमे देवतापिरिग्र- ५
| हाथमन्वाधानं करिष्ये इति संकल्प्य चक्षुषो आज्येनेत्यन्तमुदत्वा । अत्र॒ |
प्रधानम्-जग्न इन्द्रं प्रजार्पाति = विषवान्देवान् ब्रह्माणं, पुरुषं नारायणं ५
पुरुषसूक्तेन परसयृचमाज्येन । वासुदेवं बलदेवं श्रियं विष्णुम् _ अग्निवायुं स्यं
प्रजापति एताः प्रधानदेवताः पायसद्रव्यण ॥ केशवादिद्वादशषदेवता आज्यमि- `
शितपायसद्रव्येण । विष्णुमष्टोत्तरशताहृत्या पायसद्रव्य॑ण । परत्यक स्त्रीचतुःसह- `
लरसहितां सकमिणों सत्यभामा जाम्बवतीं कालिन्दीं च शद्धः चक्रं गदां पद्यं ` 1
र श गरुडं इन्द्रा्यष्टौ लोकपालान् विमलाद्या अनुग्रहान्ता देवता ब्रह्मादिदेवताङ्च `
स
कृष्णैकादश्यां सडकर्षणादिदादल्भ्यः शुक्लङ्ष्णेकादश्ष्योरेकाचार्येकस्थण्डिलपक्षे- ` |
चतुधिश्तिभ्यो नामभिघंतमिश्चषायसेन जुहयात् ।\ ततो विष्णुं पायसेन अष्टो- `
त्तर श्तं हृत्वा प्रत्येकं स्त्रीचतुःसहल्रसहिता रक्मिण्यादीः शङ्कादीन् लोकपाला `
न्विमलादा स्वता ब्रह्मादिदेवताहचककयाऽऽन्या हत्या जुहुयात् ।\ ठतः प्रापणार्थं |
भगवतप्रा्थना-त्वामेकमादयं पुरुषं पुराणं नारायणं विहवसुजं यजामः ।। मयैक-
भागो विहितो विधेयो गृहाण हव्यं जगतामधीक् ।} इति प्रापणं निवेद्योपतिष्ठेत् ।। `
ततस्त्रिवारं चतुर्वा घ्रुवसुक्तं वा प्रदक्षिणर्माग्नि वेदिकां च परिक्रम्य भिन्धि विहवा `
इति जाननी निपात्य ध्रुवसूक्तं जपेत् पुरुषसूक्त वा ।। ततोऽष्टो पदानि प्रतिदिशश-
मेतेमेन्त्रेगच्छेत् ।। कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने । । शरण्यायाप्रसेयाय
गोविन्दाय नमो नमः ।! नमः स्थूलाय सूक्ष्माय व्यापकायाव्ययायच ।। अनन्ताय
जगद्धात्रे ब्रह्मणेऽनन्तमतये ।\ अन्यक्तायाखिलेश्ाय चिद्रपाय गणात्मने ।। नमो
मर्ताय सिद्धाय पराय परमात्मने ।! देवदेवाय बन्द्ाय पराय परमेष्ठिने ।) क्त्र
गोत्रे च विदवस्यसंह्रे च ते नमः।।अथ तन्निवेदितं प्रापणं मूध्नि कृत्वा घोषयेत्
` वष्णवा इत्युच्चवदेत् } बयं वष्णवा वयं वष्णवा इति समानाः प्रवदेयुः \ तेभ्यः
समानेभ्यो हविदं्वा ॐ नमो भगवते वासुदेवायेति दादलाक्षरमन्त्रेण इदमहम- = `
मतं प्रार्नाभि इति प्राश्य आचम्य यजमान आचार्यो वा सिद्धये स्वाहा इति आन्यं
` जुहयात् ।\ ततो यत इनद्रभयामह् इत्यात्मानमभिमन्त्य स्विष्टकृदादिहोमशेषं
` समापयेत् ।\ उत्तरमूजां कृत्वा-ततो होमावसाने च गामरोगां पयस्विनीम् । `
सवत्सां कृष्णवर्णा च सवस्त्रां कांस्यदोहिनीम् । दद्याद््रतसमाप्त्य्थमाचार्याय `
सदक्षिणाम् ।। मूषणानि विचित्राणि वासांसि विविधानि च ।। चतु्िक्ञतिसंख्यानि
परक्वान्नानि च दापयेत् ।। जाचार्याय प्रदेयानि दक्षिणां भूयसीं तदा 1\ यदीच्छेदात्मनः `
` श्रेयो ब्रतस्योद्यापनं चरेत् \। विप्रान् द्रादसंख्याकान्ामभिः पथगर्चयेत ।। उपवी- `
त तेभ्यो व दद्यात्कुम्भान् सदक्षिणान् ।। पक्वाच्नफलसंयुक्तान् वस्त्र युक्तांस्त॒ `
त् ।। भोजयित्वा ततो विप्रान् पक्वान्नेन च भक्तितः \। अन्यानपि यथाद्यवित
। व्रतानि) हिल्दीटीकासहित $ .“ :. (५५९)
णेन नकि तक
` चारबेहविधेजंपहोमेः प्रदक्षिणे: ।। स्तोतरर्नानाविधेद्व्यिगीतवाचेभनोहरेः \ दण्डव `
` तणिपातेहच यश्राब्दस्तथोत्तमः ।\ एवं संपुज्य विधिवद्रात्रौ कृत्वा प्रजागरम् ।॥ `
याति किष्णोः परं स्थानं नरो नास्त्यत्र संक्षयः ।\ (पञ्चामृतेन संस्नाप्य एका-
. इषया जनादनम् ।। द्वादश्या पयसा स्नाप्य हरिसारूप्यमदन्ते ) ।। इति पूजाविधिः}
अथ पुराणोक्त उभयेकादशय् चायनविधिः । अजन उवाच \\ कीदृश्रतविसर्गोऽत्र
विधानं चात्र कीदृश्यस् ।। संपूर्णं हि भवेचेन तन्सेवद कृपानिधे ।। श्रीकृष्ण उवाच- =
| ॥ श्यृणु पाण्डव यत्नेन प्रवक्ष्यामि तदव्ययम् ।। क्तः स्वणेसह्रं तु अङ्ञाक्तः `
। काक्रिगीं तथा ।। ददाति श्रद्धया पाथं समं स्यादुभयोरपि ।। शक्तदचेधिगुणं
दचाद्यथोक्ते मध्यमो विधिः ।। उक्तादंमप्यन्नक्तस्य दानं पुणंफलप्रदम् ॥। तदूष-
विधिमप्येकं कथयामि तवाग्रतः ।। यानि कष्टेन चीर्णनि व्रतानि कुरसत्तम ।॥ `
विकफलान्येव सर्वाणि उद्यापनविधि विना \) प्रबोधसमये पाथं कुर्याद्यापनक्रि- `
, याम् ।। सार्गकी्षे विजञेषेण माधे भीमतिथावपि ।। दक्म्यां दिनजञेषेण रात्रौ गुर
गृहं व्रजेत् ।। एकादक्लीदिने पार्थं गुरमभ्यच्यं शक्तितः ।। मुहीत्वा चरणौ मूर्ध्ना
। प्रा्थेयीत विचक्षणः \। पुण्यदेहोटूवं विप्रं शान्तं सर्वगुणान्वितम् ।। सदाचाररतं
| पाथं बेदवेदाङ्कपारगम् । अस्मदीयं बतं वित्र विष्मुवासरसस्भवम् ॥। संपुणं `
तु भवेद्येन तत्कुरुष्व द्विजोत्तम ।। तस्याग्रे नियमः कार्यो दन्तधावनपूर्वकम् ।।
1
1 1 पुवं नद्यादो विभले जले पितृन्
। लिप्य शुचौ देशे कीटकेश्ास्थिर्वाजते ।। वर्णश्च सवतोभद्रं नीलपं ह पीतसितासितः ।! `
५ ५ मण्डलं चोद्धरेदभृष सर्वकर्मसु पजितम् ।! अष्टाड गुलोच्छितां वेदीं चतुरस `
लिकादिक सारसेवाः सक्तवएव च ।\ वटकान् पायसं दुभ्धं ज्ञालि दध्योदनं तथा! `
इण्डरीकान् पुरिकांश्चापुपान्गुडकमोदकान् । तिल पिष्टं कर्णवेष्टं शालिपिष्टं
सशकंरम् ।। रम्भाफलं च सघृतं मुद्गचू्णं गृडोदनम् \। एवं ऋमेण नेवेदयं पथग्बा
चरमेऽहनि ।। पूजानामानि-दामोदराय पादौ तु जानुनी माधवाय च ।। गृह्यं
वे कामपतये कट्यां वामनमूतये ।\ पद्मनाभाय नभि तु ह्य दरं विहवम्तये ।\
हृदयं ज्ञानगम्याय कण्डं श्रीकण्ठसद्धिने ।। सहस्रबाहवे बाह चक्षुषी योगयोगिने ।।
ललाटम् स्गायेति नासां नाकसुरेदवरम् ।! श्रवणौ श्रवणेशाय शिखायां सर्वकाम्- `
दम् ।। सहस्रशीर्षाय शिरः सर्वाङ्धः स्वरूपिणे ।! शुभेन नारिकेरेण बीजव्रेण .
वा पुनः \। हृदि ध्वात्वा जगन्नाथं दच्ादर्घ्यं विधानतः ।\ साक्षतं च सपुष्पं च (
सजलं चन्दनान्वितम् ।। पुरवक्तिरेव मन्त्रह्च व्रतपूतिकरेः सुधीः ।। रात्रौ जागरणं ५
-कुर्याद्गीतश्नास््रविनोदतः ।। इष्टं दत्तं धरादानं पिण्डो दत्तो गया्षिरे ।! कृतं `
दान कुरक्षत्रे यः कृत जागर हरः ॥। नृत्यं गीतं प्रकुबेन्ति वीणावाद्यं तथेव च ।॥
ये पठन्ति पुराणानि ते नराः कष्णवल्लभाः ।। जञास््रर्वाप्यथवा भक्त्या श॒चिर्वा- ` ।
प्यथवःऽ्युचिः ।! कृत्वा जागरणं विष्णो मुच्यते पापकोटिभिः।।भक्तो वाप्यथवा- ५८
भुक्तो जागरे समुपस्थितः ।। मुच्यते सव॑पापेभ्यो विष्णुलोकं स गच्छति ॥ `
यात्पदानि स्वगृहात् केरवायतनं प्रति ।। अत्वमेधसमानि स्यर्जागरार्थं प्रय- `
च्छतः ।\ पादयोः पांसुकणिका धरण्यां निपतन्ति याः \, ताबद्रषसहल्लाणि जागरी
वसते दिवि ।। बहून्यपि च पापानि कृतं जागरणं हरेः ।। निरदहेनमेर्तुस्यानि युग.
कोटिकृतान्यपि ।। मनसा संस्मरेहेवं तां रात्निमतिवाह्य च ।। प्रभाते विमले स्नात्वा
` विग्रानाकारयेत् सुधीः ।। चतुवितिसंस्याकाच्चिगमागमदशिनः ।\ स्वं कुर्याटि- ^
धानेन जपहोमाचेनादिकम् 1 शतमष्टोत्तरं होमः सर्वत्रापि प्रशस्यते ।। इदं विष्णु- `
द्विजातीनां होममन्त्रः प्रको्तितः ।! शुद्राणां चैव सर्वेषां मन्त्रमष्टाक्रं बदिः.
` विविधेरपि वस्त्रदच भाजनैरासनैः सह्।। पादत्राणं नवाङ्खां च दद्यात्याथं पथक् `
पृथक् ।। दाद्डोबाथ श्ञक्त्या वा वस्त्रालङ्कारभूषणेः ।। पूजयेत्पुष्पमालाभिः'
सपत्नीकाष्टिजोत्तमान् ।। कुम्भा दादश दातव्याः पक्वान्रनलप्रिताः ।। भोजयि- `
विप्रान् भक्तितो विचरेदधः देया
व्रतानि 1 ध हिन्दीटीकासहित : य ॥ (*८द
विशेषेण भूमिदानमतः परम् ।। प्राथयेत् पुरुषाधीक्ञं ततो भक्त्या कृताञ्जलिः ।\ ` ॥ ध
मयाद्यास्मिन् त्ते देव यदयूणं कृतं विभो ।। सवं भवतु सम्पूणं त्वत्प्रसादान्ज- `
ता्दन 1) त्वयि भक्तिः सदेवास्तु मम दामोदर प्रभो । पुण्यवबद्धिः सतां सेवा सवै-
धर्मफलचमं जपच्छद्र तपरिक्द्रं यच्छिद्रं व्रतक्मंणि ।\ सर्वं संपु्णतां यातु १.
` व्वत्रसादाद्रमापते ।। प्रदक्षि्णा.ततः कृत्वा दण्डवत् प्रणिष्पत्य च ।। मण्ड्लंमूति- `
संयुक्तं सोपहारं सदक्षिणम् ।। प्रीयतां विष्णुरित्युक्त्वा आचार्याय निवेदयेत् ।॥
सर्वान् विसजयेत् परचात् संतोष्य परिभोज्य च ।। तदाज्ञया ततः कुर्यात् पारणं `
बन्धुभिः सह।। एकादशोब्रत चतद्यथाविधि कृतं पुरा ।। यौवनाहवेन भपेन कथितं `
पुरतस्तव ।! धनञ्जय तव प्रीत्या भक्त्यानुग्रहकारणात् ।। यः करोति नरोभक्त्या `
व्रतमेतूयापहम् ।। स थाति वष्णवं स्थानं दाहपरल्यर्बाजतम् ।\ उक्तमद्यापनं `
` चेैवमुभयोः कुरुसत्तम ।! किमन्यबंहुभिवक्यिः प्रशंसापरमेभुवि । एकाद्छयाः `
परतरं त्रैलोक्यं न हि विद्यते ।। अत्र दानं तु गोदानं भमिदानमथापि वा ।। गोरो- `
मबीजम् खानां समसंख्यायुगानि हि ।! दातारो विष्णुभवन एकाद्र्यांवसन्ति `
। हि।ेपिश्युण्वन्ति सततं कथ्यमानां कथामिमाम् ।। तेऽपि पापविनिर्मुक्ताः स्वरं
। यान्ति न संशयः ।।इत्याकरण्याजुनो वाक्यं कृष्णस्य परमाद्मेतम् । आनन्दं परमं `
॥ ध प्राप सौख्यं चापि निरन्तरम् ।। इति पुराणोक्तमुभयेकादशोव्रतोयापनं संपूर्णम् ॥ ` `
1 1 एकादशीत्रतानि । | 4
अब एकाद््ीके व्रत कहे जाते हँ, उनमें उपवासक एकादशीका निणेय किया जाता है--उपवासं `
दो तरहुका होता है! एक निषेध परिपाढ्न रूपौ, दुसरा व्रतरूपी (पहिला-;जेसे कि, दोनों पक्षोकौ = `
एकादकीमं भोजन नं करे, यहां जो भोजनका निषेध किया है इस निषेधके पालन करनेसे एकादक्षोके दिनि ` ।
निषेध मुखसे भोजनाभाव रूप उपवास आ उपस्थित होता है । दूसरा--जंसे कि, एकादश्षीके आनेपर दहामोकफे ` |
दिनं ही उपवासका संकल्पकरके व्रत करे, एसे वाक्यों जो कि, एकादीके दिन उपवासका विधान करते `
हँ उनमें त्रतरूपसे उपवास जा उपस्थित होताहे) एकादश दो प्रकारकी होती है, शुद्धा जौर दशमी = `
शुद्धा जिसमें किसीका वेध न हो, जिस एकादज्ञीके दिन भौ द्हामी किसी रूपसे आजाय वो ददमीव्च्रि = `
हाती है \ वेध भी दो प्रकारका होता है, पहिले--अरुणोदयवध दूसरा सूर्योदयवेष, (अरुणोदयक्षे `
षेष एकादज्ञौमें आये तो उसे अरुणोदयवेध कगे }) अरुणोदयनेष वश्णवोको न लेना = `
पुराणम छिखा हअ है फि--अरुणोदयके समयमे यदि दमी दीवे तो उसे वद्धा
पापका कारण है । दूसरा एक वचन ओर भी है कि--दशमीके अरिष्टे `
स दिन वैष्णवको एकाददौके ब्रतका उपवास नहीं करना चाहिये । अरुणो- ।
(यय) क तरतराज ` ` { एकादक्षी- `
हता है यह निश्चय है, यहां वेष के चार भाग कहे है । अरुणोदयवेध साढे तीन घडीका होता है, रविकौ ¦
भ्र भाके दीखनेसे पहिले दो धडीका अतिवेध होता है, इसमे अवशिष्टका महावेध हता है । यदि सू्यनदीखें `
` तबतकं यहु अरुगोदयके वेधो आखिरीवेध होता है, इस समेत ये तीन अरुणोदरके भेद है \ यह आखिरी
साट तीनसे अगाडी होता है, भूर्योदयके हीनेषर जो वेध ह उसे चौथा वेध कहते हे । यह् व्रतराजके यहां ५
५ दूसरी तरहका वेध ह क्योकि पहिले तो अरणोदरमं आगये । ये वेध पूर्वं उत्तरोत्तर दोषके अतिक्यको ` | {:
दिखानेकं च्य हं यानी पूर्वके वेधसे उत्तरका वेध दोष अधिक होता है, इसं बातको दिलनके व्यि किये गये |
हँ। यह मयूखग्रन्यमे किला हृभा है । साठ घटिकाका साधारण अहोरात्र होता है । यदि घटताहैते
` £ घटिकातक घट जाता है यदि बढता है तो ५ बढ जाता है, साधारण मानकौ दृष्टीसे बोल रहै हैँ कि, पचयन- `
पर उषःकाल तथा ५७ पर अरणोदय, अटुबनपर प्रातःकाल तथा शेषपर दूर्योद्य होतादहै)। वैष्णव |
` लक्षण ~ स्कन्द पुराणमं कहे हं कि, चाह उसे परम आनन्द हो चाहे परम अपच हों जो एकादशीके ब्रतका = `
त्याग न करे एवं जो वंष्णवी दीक्नासे दीक्षित हो वो वैष्णव है । भविष्यमें कहा है कि, जंसी शुक्लावेसी ही
कृष्णा एवं जसौ कृष्णा वसीही शुक्ला दोनोको बराबर माने वहीवेष्णव कह जाता है । सूर्योदयके बेधकी ।
प्रधानता-स्मातोकि यहाँ है उनके विषय का वाक्य मदनरतनधृतस्मृतिमें है कि-जो अति वेधादिक सबवेध | `
` तिथियोमं बताये ह वे सब वेध नहीं ह उन्हं अवेध समन्नना चाहिये, केवल सूर्योदय वेधही एक मात्र वेधहै ।\ `
५ एकादशीके भेद-दो तौ पहिले करही आये है कि, पहिली शद्धा ओर दूसरी स्ममीविद्धा (या विद्धा) होती
हं । शरद्धा ओर विद्धा दोनों ही एकादशी चार चार तरहकी होती हैँ । सबसे पहिले शुद्धाकेही मेदोको दिखते `
ह १-एकादशीमात्राधिका, २-दादकशषीमात्राधिका, ३-उभयाधिका, ठ- अनुभयाधिका, (जिसमे एकावली | `
` दही जधिक हो यानी सूर्योदयके बाद अधिक रहै बो अधिक कहाती ह । जसे दरामी ५५ घडी हो, एकादशी | ८
` ६० हो दादकषीका क्षय होकर ५८ रह गया हो । नसमं द्वादशी स्के अनन्तर अधिक हो जसे दमी ५५ |
. एकाद ५८ ओरं द्रादल्ी ६० घडीहौ ! जिसमे दोनो अधिकहो जैसे दशमो ५५ एकाद्क्ी ६० घडी एक ` `
प्रक तथा द्वादशी ६५ हौ इसमें एक पल एकादशी तथा ५ घडी द्रादक्षी अधिक हुई । लिसमें दशमी ५५ एका- `
इल ५७ ओर हादी अटठावन हो इसमे एकाद्छी भौ कम है ओर हादी भी कम है) इसी तरह विद्धके
: भी येही चार भेद होतेह) जेसी दशमी ४ घडी अधिक हो, एकादशी २ हो एवम् द्वादश्षीका क्षय हयेकर ५८
रह गयी हो । द्वमी २, एकादशी ३ ओर रादौ चार इसमें एकादही ओर हादी दोनोंही अधिक हे । 4
जिसमें दहामीकौ एक घडी वृद्धि हौ एकादश्ीका क्षय हकर ५८ रह गयी हो दव्शीकी वद्धि होकर वो ६०
. घडी १ पल्की हो गयी हौं, यह हुई द्रषद्ह्ीमात्रकी वृद्धिवाली विद्धा ! एवम् दशमी २ एकादश्ीका क्षय होकर `
`. ५६ रह गयी हौ तथा हादी भी ५५ हो इसमे न तो एकादशी ही अधिक है, एवं न द्वाद्ी ही है) इनम
. शुदढधामे एकादशी कौ अधिकतामें नारद दुसरे दिन उपवास कहते हे कि -जिसमे पूरी एकादशी हो अं (1
शषीवालेदिन बढती होतो द्वादशौ में त्रत करके त्रयोदशी मं पारणाकरनी चाहिये ! वृद्धवसिष्ठने कहाहै करि, = , `
जब एकादशीका लोपहौ जर आगाडी दादी हो तो द्वादशी के दिन उपवास करना चहिये । यदि परम `
गतिका अभिलाष हो तो । भगवान् भूमुनेभौ यही कहा है कि; जिस दिन प्रभातकाले एकाददी हो ओर , `
इूसरे दिन भो वही हो तो हाद्सीका उपवास करना चाहिए । स्कस्द पुराण में-यदि पहले दिन अहोरात्रे |
मिलाकर सब एकादशी हो जर द्वादडीके दिन भी बही हो तो गृहस्थियों को पहिली भौर यतिल्ोगोको दूसरी
ओरद्वाद-
स
स
स
व्रतानि 1 ` हिन्वीदीकासहित ` (४८३)
` दसरी का स्नातं लोगोको ग्रहण करना चाहिए । त्रयोदशीके दिन यदि द्वादशी न हो तो उस दिन एकादहीका `
उपवास करना चाहिये, चाहे बहु दशमी भिधित भौ हो । हिमाद्रिके मतसे १८ प्रकारकौ एकाद होती हैँ
अर्थत-श्द्धा, विद्धा, ये दोनो न्यून, सम, अधिक इन तीन भेदोसे छः प्रकारकी हयी फिर भी ये छथ हादश्ौसे
त्यन्, सम, अधिक इन भेदोसे तीन तीन प्रकारकौ होकर १८ प्रकारकौ होती हे । पद्यपुराणमें कहा है किः
यदि दूसरे दिन हाद्शी हो तो संयुणं एकाद्शीको छोड देना चाहिये ओर व॑ह शुढ दादशौका ही उपवास `
करना चाहिये ओर उसी दिन पारणाभी करना चाहिये । यदि पारणके विन अंश मान्न भौ द्वादसी नहोतो
उस समय द्षभी विद्धा एकादशी करनेका विधान है । यदि वहुतसे बाव्योके विरोधसे सन्देह होताहो तो ` ।
द्वाद्छीका ग्रहण करना चाहिये ओर जथोदश्लीको पारण करं एसा माकंण्डय ऋषिने कहा है । कात्यायनने `
कहाहै कि -भाठ व्षंकी अवस्थासे ऊपर ८० वषंपयन्त मनुष्यको दोनों पक्षक एकादशियां करनी चाहिए \! `
भविष्ये कहा है कि ब्रह्मचारी विधवा स्त्री दोनों एकादशी करं । गृहस्थ शुक्लपक्षकी ही एकाद्शी करे!
` तथा सौभाग्यवती स्त्रीको अपने पतिक आत्ञसे करनेका अधिकार है-विष्णुवपुराणमं कहा है कि, पतिकि
जीते हृए जो उपवास करे तो वह अपने पतिको अल्पायु बनाकर नरकमे जाती है ।। पद्मपुराणे कहाहैकि, `
क्ञयनी ओर बोधनीके बौचभे जो कष्ण एकाददी हो बेही गृहस्थौके उपवास योग्य हे दूसरी न करे । ध्नान्या `
कृष्णा कडाचन” कभी भौ दुसरी छृष्णामें व्रत न करे, यहं जो निषेध है इसका कृष्ण एकादरीको मृहस्योके `
लिए ब्रतका निषेध करना विषय नहीं है क्योकि नारदेजीका वचन है कि संक्रान्ति कृष्णा एकादक्षी चन्द्र ओर
सूर्य ग्रहणक दिन पुत्र वान् गृहस्थको चाहिए कि त्रत न करे” यहु विषय प्रायः किसी न फी तरह सभौ घ्म-
क्ास्त्रकारोने रखा है \ व्रतराजने पहिले कु गृहस्थ के लिपु कहकर पीछे पूत्रवानगृहस्थके लिए निषेव किया
' है इन दोन बाक्योका मिलकर अथं होना चाहिए कि, पुत्रवान् ग्रहणको छोडकर बाकौ गृहस्थोको देवक्रयनौ `
ओर देवबोधिनी एकादश्शियों के बीच की कृष्णा एकादशीभी कर खेनौ चाहिए इईसीमं इस वाक्य का तात्पयं (1:
है! तथा निर्णर्यासधुने इन वाक्योको ब्रतराजसे उल्टा रखा भी है, इसी किए उन दोनो काएेसा हौ सम्बन्ध = `
है। इसी लिए वे रखे भी हे इनसे पहिले यह् कह चुके हं कि, गृहस्थ शुक्ला एकाद््ीको व्रत करे, तब कृष्णाकौ
1प्तिके बिना निषेध भी कहाँ से होगा ?तब “नान्या कष्णाकदाचन' यह निषेध भी कृष्णाके व्रतको गृहस्थोके `
लिए त करनेको कहनेवाका भी न माना जायगा । अत एवं ब्रतराजकारने कहा कि, यहाँ “नान्या कृष्णा" `
` ओर कृष्णाको न करे, यह् निषेध नहीं लगता यह कहा है । कृष्णां एकादस्षी रविवार संक्रान्ति चन्र मौर .
सूरयका ग्रहण इन दिनों पारणा ओर उपवास बेदावाले गृहस्थो न करने चाहिये ' इत्यादि वचनोके अनुरेधसे `
` . कृष्णा एकादश्ीमें उपवासकी प्राप्तिही नहीं है \। प्रायदविचत्तव्रतके न करनेषर माघव ने कात्यायनके वचनसे `
` कहा है कि, अकम ओर दोनों पर्वा यानी अमावस ओर पूणिमाभें रातको चतुर्थो ओर अष्टमी के दितिको तथा `
. एकादशीके दिन अहोरात्रमं भोजन करके चान्द्रायण व्रत करना चाहिये } अथ दशमीविधिः- कम्मं पुराणमे
दवामीके सम्बन्धमे लिखा है कि, -द्ामीको ब्रत करनेवाला मनुष्य, कांसी, मांस; मसुर, चणे, कोद जादि . |
धान्य श्ञाक, शहद य शराब तथा दूसरे घरका भोजन ओर सत्र त्याग करे भौर नाना्रकारके शाक, उडद, = `
1 । न, घृत तथा बहुत जर्पानको दमशीके दिन वेष्णवे न करे! मदनरत्नमं नारदीध्रा = ` ्
क्षार याललवणका भोजन करता हु केवल हविष्यान्नका भोजन करे, पृथ्वीम `
(४८४) ` त्रतराज [ एकादशी
न
` उपवासक दिन तथा श्रादधके दिन दातुन न करे क्योकि काष्ठका उन्तस्पञही सात पीढीतक जला देता है । `
` एकादरीके श्नाढविधानमे कात्यायनने कहा है कि~ नित्य उपवास में यदि नैमित्तिक श्वा पडता हो तो
उसदिन पितुसेवित भोजनको सुघकर उपवास करे ¦ मातापितके क्षय दिनम यदि एकादशी आवे तो पितरौ
ओर देवता्ओंकी पूना करके पितृसेवित सूधकर उपवास करे । ब्रह्मवेव्तमे कहा है कि-एकादशीके प्राप्त ¦
होनेपर दक्षमीकी रातमे नियमघुवंक रहकर एकादशीके दिन वैष्णव उपवास करे । ओर उस दिनि उदुम्बर `
` (ताम्बेका) बर्तन हाथमे लेकर उत्तर मुख हौ जलसे उपवास करनेका संकल्प करे ! इस समयमे म्र तो `
` वि्णुने कहा है कि-एकादश्नीके दिन निराहार रहकर मै दुसरे दिन भोजन करेगा इसलिए ह पुण्डरीकाक्ष !
विष्णो ! मुञ्े भाप शरणमे लीजिये ॥। हैमा्ठिने सौर पुराणसे दोवोकि वास्ते कहा है कि-सावित्रौसे या शिवादि `
` गायत्रौसे नामयुरवेक संकल्प करे । वराहसे कहा है कि -विद्वान् मनुष्य संकल्पकरके पुष्पाञ्जलिका सम्ेण
` करे । फिर उस जलको पीवे ।। पात्र के जलको तीन बार जपे हृए “भं ननो नारायणाय" इस अष्टाक्षरमन्त्रसे `
अभिमन्त्रित करके पान करे, जिसे पूरे फलकी इच्छा हो, यह् कत्यायनका वचन है ।\ माधवाचार्य दशमी के
वेष होनेपर रातमरं वा मध्यरातमं अथवा उदयकालमे सङकलप करे एेसा कहा है । दक्षमीके सङ्क दोषते अधं |
` रान्निके आगे की चार प्रहरोको बुद्धिमान मनुष्य संकल्प जर पूजाके वास्ते छोड दे । विद्धां तिथीके उपवासमे
` भोजन कर दिनको छोड रातमें विष्णु भगवानकी पूजा करे ओर सङ्कल्प करे एेसा नारदीय वचन है ।\
पूजाको कहकर देवलने कहा है कि, भगवानके सम्मुख नियत होकर व्रती जागरण करे । कात्यायनने द्वादहीके
दिन निवेदन करनेका मन्त्र कहा है कि , हे केशव ! अज्ञान रूपी अन्धकारते अन्धे हृएके इस व्रत से सुमुल `
. हौ प्रसन्न हृणिये हे नाथ ! ज्ञान दृष्टिके देनेवाले हूजिये । त्याग-वृहस्यतिने दवादकीके दिनि निस्न लिखित `
, बातोका त्याग करने के लिये कहा है कि, अर्थात् दिन में सोना, सरे धघरका भोजन, दूसरी बारका भोजन , `
मेथुन, कांसीकौ वतन, शहद, उडद, तैर इन आठ चीजोका त्याग करे ॥! हेमाद्रि तथा बरह्मा्ड पुराणमे कहा `
है कि-फिरसे भोजन, स्वाध्याय, भार उठाना, परिश्चम करना, मेथुन ओर दिन मे गाढी नीद सोना ये सब काम |
उपवासक फलको नष्ट करते ह । विष्णुधर्मे कहा है कि, उपवासके दिन असंभाष्यलोगोसे बात करके भगवान्- `
को अपित किया हमा तुलसीदल या वेको लाकर शुद्ध होता है ।\ विष्णुुराणमे कहा है कि, भोजनक
बाद विष्णुको भपित क्रिया हुमा तुलसीदल भक्षण करनेसे जो शुद्धि होती है वह् एकसो चान्द्रायण व्रत करनेके
फलस भौ मधिक है । इस त्रतको सुतकमे' मौ करना चाहिये वयोकि विष्णुयुराणमें लिला है कि, सुतकके `
होने मौर मृतये होनेपरभौ द्वादशके व्रतको न छोडना चाहिये । एसे अवसरपर त्यवत दानादि कको सूतक `
बीत जानेपर करे । मात्स्यपुराणमे कहा है कि, सुतकके समाप्त होनेपर मनुष्य स्नान करके भगवान् का `
नन कर, वासत्विधिसे दान देकर वरतका फल पाता है । स्तयं रजोदन होनेषर भी व्रत करे, क्योकि `
| भल्त्यने कहा है किः, स्त्री रजोदर्शन हनेके बादभौ एकादशीको भोजन न करे । जब द्वादशके दिन श्रवण
नक्षत्रौ तो शुद्ध एकादकीका भौ त्याग करक दवादकलीका उपवासः करना चाहिये (त्याग काम्य विषय है) `
शुस्यपसषको हौ या छृष्णपकषकी, यदि दवादसीके दिन भवण नक्र हो तो दोनों दिन उपवास करक ्योदकषीको `
पारणा करे । एेसा नारदका वचन है । अब आठ महा्रादशियोको कहते हे जो अधिक शुद्ध एकादशीते `
हौ बहु उन्मीलिनी है बही शुद्ध हादसीके ाधिक्यमे अजुलो होतो है उनमें सम्बन्धो
गाली उक्त तरिस्यृशषा, पवसे अधिक कालत्यापिनी होती हई जो सम्यु्णतया हो वही पक्षवधिनी, पुष्यनकषत्र
[१ 1 ५. £ ॥
व्रतानि) हिन्दीटीकासहित (४८५)
| | उचयापन करे । विललेषकर मागेशीषके महीनेभे मामे या भीमतिथिके दिन उद्यापन करना चाहिये । उसकी `
। विधि निम्नल्चित प्रकारसे हे । दश्ञमीके दिन एक समय भोजन करके दतुवन करे ओर इसप्रकार एकादशौको `
| : पवित्र होकर आचा्यका संवरण करे । संकल्प-गणेसजोका स्मरण करे मास पक्ष आदिको कहकर यदि `
| कियाहोतो किये हृए यदि न किया हो तौ क्रि जानेवाले , शुक्ल हो तो शुक्ल एवं कृष्ण हो तो कृष्णा एका. `
दके ब्रतकी सांगतासिद्धिके किए एवम् उसके संपुणंफलको प्राप्तिके लिए देहा कालके अनसार यथान्नान .
| शुक्ल एकादकश्षीके ब्रतके उद्यापनको मे करता हं उसका भंग होनेके कारण गणयतिपूजन, आचा्वरण भौर `
। | करावे \ यजमान-आय पुण्याह क बराह्यण-हो पुण्याह, यजमान-भाय स्वस्ति के, ब्रह्मण-तुम आयुष्य.
केः बराह्मण हो श्री › यजमान-परे सौ वषं हो, बराह्मण-हं पुरे सौ, वषे, यजमान-श्चिव कमं हो, ब्राह्मण-हो
` गउञओके गोष्ठमें देवाल्यमे अथवा ओर किसी पवित्रजगहमें या घरमे चौरस आठ अगल ऊँची बेदी बनावे
जो दो वितस्ति चौडी हौ मौर उसपर काल तिल फला दे । उसमे अष्टदलका सुन्दर कमल बनावे । ओर `
। | उसे बीच बहुत युन्दर नीरन्ध्र नवीन कुम्भको स्थापित करे । काले तिलोम संयुक्त हो उसे काले वस्त्र से
| क्ञोभित करे ! उसमें दो पीपलके पत्ते रखकर पञ्चरत्न भी रते ओर चारों तरफ संकर्षणादि नामोंको लिखि
पुण्याहवाचन भौ करू या कराऊगा । इस संकल्पके पीछे घोडा उपचारो से गणेदपूजनं करा पुण्याहवाचन ` ध
भानकी स्वस्ति हो, यजमान-जाय ऋद्धि क ब्राह्यण-कम छद्धिको प्राप्त हो, यजमान-~ी हे एला भष
क्षिवकमे, यजमान-गोत्रकी अभिवृद्धि हौ, बाह्यण-हो गोजकौ अभिवद्धि, यजमान-प्रजापति प्रसश्च ही, -;
` ब्राह्मण~हो प्रजापति प्रसन्च \ इसके आद उद्यापनकमेमं आचा्यंका वरण करना चाहिये, रातको नियमपूवेक `
उपवास करके आचार्थके साथ ब्रती रहकर ज्ञवितके अनुसार जगद्गु र विष्णुभगवात् का आराधन करे! `
| द फिर पवित्र होकर षोडोपचारसे पुजन करे । आग्नेयादि चतुष्कोणमे गणमातृका आदिकौ पुजनकरे । `
| गणे, मातका, दुर्गा, क्षेत्रपाल आदिको चारोकोणोमं सावधान होकर रसे ! उसी प्रकार शुक्लएकादशषीक्षे
| ` दिनभी बेदीको सफेद तिकोसे पूरित करे \ ओर सफेद वस्त्रसे वेष्टित कर बडी प्रसन्नततके साय पुजन ` 1
कराके स्थापित करे । गन्ध, पुष्य, अश्चतत आदिसे संयुक्त ओर पवित्रजलते पूणं कुम्भपर स्थापित कर, चतुभज `
पुरुष है ! हे जगत्पते ! तुम्ही अतीम्द्िय है जो आपका सबसे प्रस्त उत्कृष्ट सुम तेज है उससे इस बेदीमे `
प्रविष्ट होजा। ‹ ओं भूः ' यह व्याहति है, पुरुषका आवाहन करता हूः है विष्णो ! यहाँ आ, यहाँ बेठ , पूजा
` करे \ चारों जर कदाव आदि नामोसे वेदीको अङित् करे । सुवणेके बने हए भगवानूको पञ्चामत से स्नान 4
भगवान् का ठक्ष्मीजोके साथ आवाहन करे । पहले वरण किया हुजा आचाय, सवेतोभद्र मण्डले देवताओंकी =
` पुजा कर स्थापित किये हए कल्दपर देव सा्तिध्यके वास्ते अग्निउत्तारणकौ हुई विष्णुमूतिको स्थापित `
करके उसमें विष्णुका आवाहन करे, “ओं नमो यहाँ से लेकर आवाहनके मन्त्र हँ कि -हे विष्णु भगवान् `
नमस्कार है हे देवकीपुत्र ! है उत्तम परमेश्वर ! तु कृष्ण हैः त् अज है, अनादि है" विदवत्माहैः =
लोकोकां पितामह है, क्षेत्रज्ञ हैः धिकाल रहनेवाला है, विष्णु है, भरौमान् पर नारायण है, तुम्ही सत्य
अच्छी तरह प्रसञ्च होकर बरका देनेवाला हो जा ।'ओं भुवः ' पुरषका आवाहन करता हुं भो स्वः, | 1
(इन तीनो व्याहृतियोंका प्रसंग छान्दोग्योयनिषदमे भाया है ) प्रत्येक परिचम `
(अदद) "`, 5, -कर्तराण . . "1 एकादवीन
दक्षीके दिन इसी प्रकार मावाहन करके “तदस्तु” इससे उन्हे प्रतिष्ठित करके “अतो देवा" इस मंत्रसे `
` विष्णुभगवान् तथा ओर बुलाये हुए देवताओंको नाम मंत्र से सोलह उपचारो ते पूजे आसन, पाच, अघ्यं, `
आचमनीय, स्नान, वस्त्र, उपवीत, गन्ध, पुष्प, घूय, दीय, नैवेद्य, आरती जरं प्रदक्षिणा दे । दोनोंही एका- (८ :
` दरियों का एकही आशचाय्यं हो, वो अष्टदल पद्मके दलम पूर्वादिक्रम से एक जगह सब देवताओंको स्थापित `
करके पुजे ! विष्णुसुक्तसे स्तुति करते हुए वेष्णव नाम संत्रोसे परिचर्यया कर । अन्तमं नमः शब्द काप्रयोग `
करके वेदीके अन्दर प्रतिष्ठित भगवान् कौ सूतिकी पूजा करे । षोडशो-पाचारसे पुजन करते हए सूत्तिको `
बही विराजमान रखे, विसर्जन न करे संगीतसे तथा नृत्यसे वा पुराणोकी कथासे इतिहासे जागरणकर = |
रा्रिको समाप्त करे । प्रातःकाल स्नानादि कर्मं करक शास्त्रवेत्ता चौबीस ब्राह्मणोको बखाकर उनकी पूजा ` ॑ (
करे । आचाय्ये के समान उनका उपचार करे ¦ होम संश्याके अनुसार बेदी बनाकर उपसपर प्रणीता स्थायन
करे । अग्निके ध्यान आदि कर अन्वाधान करे । उसके व्ि-कि शुक्ला वा कृष्णा एकादश्ीके ब्रतके उद्यापनं
होमभें देवता परिग्रहके लिये अन्यवाधान कर्णां एषा संकल्प कर ““ चक्षुषी आज्येन "' यहाँ तक उच्चारण ` ४
आदि कृत्य करे ! अग्नि, इन्द्र, प्रजापति विरेदेवा, ब्रह्मा पुरुष जओौर नारायण इनको पुरुषसुक्तसे प्रत्येक `
` ऋचार्तमं घृताहुति पचक यजन करे । एसेही चासुदेव-बल्देव, शी, विष्णु, अग्नि, वायु, सुरथ, प्रजापति इन
श्रधान देवताओको खोरसे , केदाववादि हाद देवताओंको घीमिधित खीरसे, विष्णुको खीरक्ली १०८ आहूति.
से तथा प्रत्येक चार हजार स्त्री सहित रुविमणी, सत्यभामा, जाम्बवती ओर कालिन्दीको; शंख , चक्र, गदा, ¦ `
पद्म, गरुडको; इन्द्रादि अष्टलोकपालोको; विमलसे लेकर अनुग्रहा पयेन्त देवताओंको तथा ब्रह्मादि देवता- `
` ओको एक एक आहति ३ । शेषसे स्विष्ट कृतसे लेकर प्रणीताके प्रणयनतक कमं करके अन्वाधानकी समिधोसे 4
` हवन करे । पायसं चरकाश्चपण करके “ पवित्रं ते” इस मंत्र से प्रावणक्ा उद्धारण करना चाहिये । (स्विष्ट- | `
। कृत् हवनादिक पहिले कह चुके है! इस कारण विस्तारके साथ नहीं लिखते । ) “ओं पवित्र ते विततं ब्रह्मण |
स्पते प्रभुर्गात्राणि पर्येषि विह्वतःअतप्ततनूनं तदानो अदनुते श्यताश्च इद्रहृन्तस्तत्समासत ।! सायण-हैे | `
र | | सत्रके स्वामी सोम ! आपका शोघक अंग सवत्र विस्तत है तुम पौनेवालेके अगो प्राप्त होते हो । पयोतब्रत ` (८.
` आदिसे जिनका शरीर सन्तप्त नहीं हज वे नही प्राप्त होते, परिपक्वही यागोको करते हए पवित्रको व्याप्त `
` होते हे ।\ यह् संतर तप्तमुद्राधारणमें प्रमाण माना गया है । “ मनासाका शास्त्रार्थ" इस नामके छोटे दाक्टमं `
हमने इसका अथं तप्तमूद्राके विषय मे किया है । है जगत् के अधिपति पुरषोत्तम ! आपका सुर्दश्चन अङकन- `
हारा सब जगह फला हृंजा है आप सबके शरीरम व्यापक हं ! शंखचक्रोसे जिसका शरीर नहीं तपायागयावो
अपरिपक्व उसको नहीं पाते \ जो तपयेगये हैँ एवम् धारण करते हें वे भगवान् के शरण होकर उत्तम `
षदको पाते हं \। पायससे कुछ उद्धृत कर लिया जाय तो उसे प्रापण करहुगे । आज्य संस्कार आदिक आन्य `
` भग्यके अन्ततक करके यह उपकल्पित हवनीय द्रव्य देवताओंके अनुसार उपकलिवत हो, पंच अनादेहकौ । `
आहृतियोको घीसे हवन करके नारायण पुरुषको पुरुषसुक्तकी एक एक ऋचासे घीकौ आहुति देनी चाहिये! = `
` ओंबरासुदेवके लिये ^ स्वाहा" यह आहुति है, बलदेवके लिये यह् आहति है, भरी के लिये यह् आहूति है, विष्णुके ` `
लिये यह आहूति है । (विष्णोर्नुकं यह १०२ पेजमे कह चुके ह )” ओं तदस्य प्रियसभिषाथो अस्याम् नरो
क
म
` िलदीटीकारदिति =
प परमस्य वित्से ! ” सबसे उत्कृष्ट आप शरीरकौ मात्रा से बडे तुम्हारी महिमाको कोई नहीं पासकता आपके 2. | ।
हृम दोनों लोकों को जानते हे \ हे विष्णु ! हे देव ! आश्य इसका पर जानते है । 'भोम् विचक्रमे पृथिवीमेष
एतां क्षेत्राय विष्णुर्मनुषे दज्ञस्यन्। ध्रुवासो अस्य कीरयो जानास उरक्षिति सुजनिभाचाकार \” यह् विष्णु
इस पुथिवीको निबासक्े चये वा आसनके लिये नाप भये । मे ठेसा मानता हूं कि, यह वामनका कायं देवता `
ओर मनृष्यके कल्यागका धा इसके स्तुति करनेवाले जन नित्य हो जाते हँ यानी दिव्य सुरियोमें स्थान पते
है इसने असुरोका संहार करके अवतारादिके लेकर भूमिको दिव्य बनादिया ।। “भम् च्िदेवः पृथिवीमेष
एतां विचक्रमे शतचं संमहित्वा, श्रविष्णुरस्तु तदसस्तबीयान् त्वेषं ह्यस्य स्थविरस्य नाम ।'“ इसदेवने इस `
पृथिवीको तीनवार पदान्त किया ! वो महामहान् है । उनकौ प्राथंना करनेवाली अनेको चाहे! वो `
- बलवानों का भौ बलवान है । इस स्थविरका नाही बडा तेजस्वी है । इन मंत्रोसे ओर ग्याहति्योसे खीरसे
हवन करके, यदि शुक्ला एका दशौ हो तो केशवं आदि द्वादश नाभोसे, एवं कृष्णा हो तो संकर्षण आदि दादश
नामो, यदि दोनोंका एक आचाय जौर एकह स्थण्डिल हो इस पक्षं २४ कोही ये नममंत्रोपे घी मिलीहुई
खीरे हवन करना चाहिये पीछे विष्णु मगवानूको १०८ खीरकौ जहतिरयाँ देकर फिर चार चार हनार `
` | स्तियकी सेलियोकी अधिपाओं सूक्सिगी आदिथोको एवम् शंख आदिकोको लोकपालोको तया विमला , `
आदिक देवताओं एवम् ब्रह्मादिक देवताओंको एक एक आहूति देनी चाहिये । इसके बाद प्रापणके ल्य `
प्रार्थना करनी चाहिये-सुष्टिके र्चनेवाले सबके पहिले पुराण पुरुष एक तुञ्च नारायणका यजन करते है,
` करनेके यौग्य मेने एक भाग किया है, है जगतुके अधवर ¡ हव्यको ग्रहृण कर ।\ इससे प्रापणका निवेदन
करके उपस्थान करे ! पीछे तीनवार या चार वारं प्रदक्षिगक्रमसे अग्निकौ जौर वेदिकाकौ प्रदक्षिणाकरके `
` “ओम् भिन्धि विद्वा अपद्विषः परिबाधो जही मृषः वसुस्पार्हं तदा भर हमारे सरे वैरिथो ओरवरोको `
बुरी तरह भेदिये, आप हमारी बाधाओोके बाधनेवाले है इस कारण युध या युद्धको बाधाओंको मिटा दीजिये _ `
जिर घनकी लोग चाहु किया करते हूं उस धनको हमारे घरमे खूब भर दीजिये, इससे घोट देककर धुवसुक्त =
था पुरषसुक्तका जप करना चाहिये । पुरषदरुक्त तो हम पहिरुही कहृच्के हे ! जब हम ध्रुवसुक्तको भी कहते
है \ ऋग्वेद अध्याय ८ का इकत्तीसवाँ सुक्त ध वसुक्त है । श्रौमान् चतुरथलालजीने मो इसेही ध्रुवसुक्त॒ `
करके माना है ! इसमें छः संच हँ । हम उनको यहांही लिखते ह । “ मोम् आत्वा हाषंमन्तरेऽधिधरुवस्तिष्ठ `
` विचाचलिःविन्रास्त्वासर्वा वाञ्छन्तु मात्वद्राष्टूमधि भात् \\ १ ॥ मे तक्षे सबके बौचमे प्राप्तकरताहं `
जो न चलायमान ही एता ध्रुव बनकर विराजमानही तुच सब प्रना चहि तेरे प्रकाकलील लोका कभी
पतन नहो ।। ओम् इैवेधि मापच्योष्ठाः पवत इवाविचाचलिः । इनदर इवेह ध्रुवस्तिष्ठेह राष्ट मुधारय ॥*२॥ `
तुम यहौ बढो इससे नीचे ऊपर मत जाना जैसे कि भचलपरवत होता है एेसेही अचल बनो, इंद्रियोके अधिपति `
` तथा-'इन्द्रमित्याचक्षते परोक्षप्रिया इव हि देवाः” उसे परोक्ते प्यार करनेवाले देव इन्र कहते हं यानौ `
। परमात्मकः तरह ध्रुव तू ठहर यहां ही प्रका शील तारोको धारण कर । जोम इममिन््रोऽअदीधरद् ध्रुवं ` ५
श्रवेण हविषा, तस्मै सोमोऽअधिन्नवत्तस्मा उ ब्रह्मणस्पतिः ।। २ 1! जिसका फल कभी न मिटे एेतीनो हवि =
दी थौ उससे परमास्माने ध्र वको उतने चे स्थानपर पहुंचाया । सौमने भी उसमे प्रेममयी बाते कँ । प्रसङ्खते `
(४८८) “` क्रतजः ` ` . | [ एकादशी- त
श्रत्येक दिन्लामें इन मन््ोसे आठ आठ पंड चले कि-ङृष्ण, वासुदेव, हरि, परमात्मा, शरण्य, अप्रमेय आर
= गोविन्दके लिएु बारबार नमस्कार है । स्थूल, सुक्ष्म, व्यापक, अव्यय, अनन्त, जगत््के धाता, ब्रह्मा, अनन्त्मूह्ति `
अव्यक्त अखिकश, चिद्रूप, ओर ग्णात्माके लिए नमस्कार है । मूते, सिद्ध, पर, परमात्मा, देवदेव, वन्य,पर, `
परमेष्टी विदवके कर्ता, गोप्ता उसके संहर्ता जो आपह आपके लिट नमस्कार ह ! पीछे निवेदित किये हृए प्राप- `
णको शिरपर रखकर घोषणा करे कि, वैष्णव कौन हे यह उचे स्वरसे कहना चाहिये । वहां जो दूसरे वैष्णववैठे
हों उन्हं कहना चाहिये किं, हम देष्णव हं हुम वष्णव ह । उन सबको हवि बांटकर, “ओं नमो मगवतेवासु- `
देवाय भगवान् वासुदेदके छिए नमस्कार" इस मन्तरसे इस अमृतका में प्राहान करता हुं एसा कहकर प्राशन = `
ओर आचमन करके या तो जाचाय्यं या यजमान-सिद्धिके लिये स्वाहा (यह आहूति है) इससे आज्य हवन `
करना चाहिये । “ओं यत इन्द्र भयामहे ततो नोऽअभयं कृधि, मघवन् छि तव तन्न ऊतिभिविद्धिषोविमुधो `
जहि । हे इन्र ! निस ओरसे हम उरते हुं उसी ओरसे हमे अभय कर दीजिये ! हे मघवन् ! हमे अपनौ रक्ाओं
से बलवान् बना दौ, एवम् वेरियोके युद्ध द्वेष एवम् उनसे हौीनेवार अनिष्टोको हमारे समीप भी मतञने ;
दिये, उन्हे नष्ट कर दीजिये । इस मंत्रसे अपनेको अभिमंत्रित करके स्विष्टकृत् आदिका होमकञेषजोहोउसे `
` पुरा करदे । उत्तर पूना कर~होमान्तमे, इध देनेवाली निरोगी वच्चेसहित-कालेरंगकौ गौ कालेवस्त्रकेसाथ
तथा कांसौके वर्तनकीदोहनी सहित दक्षिणापुर्वेक व्रतकौ समाप्ते ल्यि आचायको दे । अनेक प्रकारकेभूषण `
` अनेकं प्रकारके वस्त्र चौबीस प्रकार के पक्वाच्नभौ बडी दक्षिणके साथ दे । यदि अपना मला करनाहौतो
व्रतका उद्यापनं करे! बारह ब्राह्यणोको निमन्त्रितिकर प्रत्येक ब्राह्मणको नामलेकर पूजे तथा उन्हें यज्ञोपवीत `
दक्षिणासहितं कल, मिठाई फल ओर वस्त्र दे । फिर बडी भक्तिसे उन्हूं पक्वान्नसे भोजन करावे । सायही `
दसरोको भौ यथाहाक्ति भोजन करावे । पौछे बराह्यणोसे कहे कि.मेरा ब्रत संपुणं हो । तब ब्राह्मण कहेकि,अपका `
त्रत पुरा हो जाय, पौरे आचार्यसहित ब्रती वेष्णवसुक्तोका जपकर तथा वारवार प्रणाम करके ओं भूःपुरुष- `
` भृहासयामि भूः यहं तो व्याहृति है भें पुरुषका उद्वासन (विसर्जन ) करके “इदं विष्णुः” इससे पीठ आचार्यको
। (५ देकर पोछे बन्धुजनोके साथ स्वयं भोजन करे । यहु बौधायनकौी कही हुई श्क्छा ओर कृष्णा दोनो एका 1
वशषि्योकोके ब्रतकी विधि परी हई ।। परूजाविधि-बह्यपुराणमें लिलौ हुई है कि, दोनोपक्षोकौ एकादशीको `
एकाग्रचित्त हो निराहार रहे । विधिसे स्तान करे तथा उपवासयूर्वक जितेद्रिय रहे शद्धा भवितिके साथ साव- `
बान हौ विधिपूर्वकं विष्णुका पुजन करे । भक्तिके साथ सावधान हो विषिपूर्वक विष्णुका पुजन करे । पूजाम `
गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य आदि षोडलोपचारोक प्रयोग करे । तथा जप होम प्रदक्षिणा, नानप्रकारके स्तोत्र, `
` सुंदर मनोहर सङ्गीत आदि दण्डवत् प्रणाम ओर उत्तम जय श्ब्दोसे इस प्रकार वैध पूननकर र्रिमे जागरण `
` करे तो मनुष्य निःसन्देह विष्णुलोकका अधिकारी होता है । अथोद्यापनविषिः-अर्जुन बोले; हे कृषान्षि ! `
व्रतका उद्यापन कंसा होना चाहिये ओर उसकौ क्या विधि है ? उसको आप कृपाकरके मुभे उपदेशे । श्रीकृष्ण = `
. बोले कि, हे अजुन ! भें तुम्हे उसकी विधि बतलाता हं 1 शक्तिमान् मनुष्य हजार सुवणं मुद्रा जौर असम्थंएक `
क्ोडीभौ यदि शद्धासे दं तो वे उन दोनोका फल एक समान है, यदि शक्ति हो तो दुगुना दे जैसा मध्यमविधिमे `
है) जितना बतलाया है यदि उससे आधाभी अश्षक्त मनुष्य दे दे तो दानका पुरा फल पाताहै । उसकौ `
मे कहता हू । है कौरवश्रेष्ठ ! उद्यापनके विना, कष्टसे किये हए ब्रत भी निष्फल हे । जब देवताओंके `
~. श्रतनि 1 ` हिन्दीटीकासहित (४८९)
५. ५ भूप ! अनेक रगोसे सवेतोभद्र बनावे जो कि सब क्ममिं एजित है आठ अंगृट अचौ चौरस ओर दो वितस्ति ` ५
' चौड वेदी करे, उसे अक्षते परिपुणकर अष्टदलकमल किले । उसपर नवीन, सुन्दर कला स्थापित करे
। अथवा चावलोकाही अष्टदल कमल बनावे । चांदी या ताम्बेका उस्पर भरा हुमा कलक्ञ रखे । उसवर भग
` बानी सुवणंसे बनी मूतिको लक्ष्मीजी सहित विराजमानं करे \ चावल यज्ञोयवीत सुवणं ओर वस्त्रसे
। सयुक्त तथा रुद्राक्षमाला, शंख, चक्र, गदा आदिसे विभूषितकर भगवान्कौ यथाक्ञवित सुवणं पृष्पोते तथा ल
ऋतुके पुष्पोसे पुजा करे हे परंतप ! चौवीसों तिथिधोमें भवितपुवेक कम क्मसे २४ नैवेचोको अपण
५ रे । है परंतप ! चोवीसों तिथियोमं भक्तिके चाथ कमस चौवौ नैके दे अथवा जब उद्यापन ही तबही ५ | ५ ५
` इच्छानुसार मोदक, गृडक, चरणे, घुतके पुरे, मांडे, सोहालिकादिक, सारसेवा, सक्तु, बडे, पायस, दुग्ध, शालि,
दध्योदन, ईंडरीक, पुरी, अपुय, ग् डके लड, शकरा सहितं तिरुपिष्ट, कणेवेष्ट, श्ञालिपिष्ट, रंभाफल, घृतसहित॒
भूगका सार, गृडभात इस नेवे्यको मसे दे अथवा अन्तिम दिनसबको बनावे । एजाके नाभ-चरणोभे दामोदर. | (1
(1 ध गोडोमं माधव, गृह्यस्थानमं कामयति, कटिसे वामन, मृत्ति, चाभिसं पद्मनाभे, उदरमें विश्वमूर्ति, हृदयम
कानमें श्रवणेकञ, चोटीमें सवं कामद, शिरमं सहस्शीषे, सर्वाद्धमे सर्वरूपौ भगवान्, हृदयम जगन्नाथका `
। ध्यान करके, नारियलसे था बिजौरसे विधिपूर्वकं चावर,फूल, जल, चन्दन आदे वरति करनेवले पूर्वोक्त `
। मन्त्रोदरारा अघ्यं दे} रातमें जागरण करे ओर अनेक प्रकारके गायन वादका आयोजन करे । उसने पृथ्वीका
| दान, गयामें पिण्डदान एवं कुरुक्षेत्रमं दानकर दिया जिसने हरिके आगे जगरण क्था नाच, गना वीणा
। आदि बाजोको जाते या पुराणश्रवण जो लोग करते हँ वे सब विष्णुके प्यारे हें । ल्स्त्रसे अथवा भक्तिसे `
| षवित्र या अपवित्र ही रहकर जो विष्णुका जागरण करनेवाले हँ वे सब करोडो पापोसे मुक्त होते हें ! भोजन
किए हए यान किए हृषु जो सनुष्य भगवान्के जागरणमें उपस्थिते होता है वह सब पापोसे मुक्तहोकर |
विष्णुलोको प्राप्त होता है । भगवानूके मन्दिरमे जागरण करनेके लिए जो मनुष्य जितने कदम चलताहै वह॒
उतनेही अदवेमेध यज्ञ करता है । पेरोकी धूलकी कण जागरण करनेन मनुष्यकी जो पृथ्वीम गिरती = |
उतनेही वषं तक वह मनुष्य स्वम निवास करता है । कोटि कोटि युगो किए हुए सुमेर पर्वतके समान पापको | ८
भी हरिभगवान्का जागरण नष्ट कर देता है । उस रातमे हरिभगवान्को आवाहन करके मनसे स्मरण करे
| जप, होम, पूजा आदि विधिपूर्वक करे । “इदं विष्णु" इस मन््रकी १०८ आहतिसे होम करना द्विजातियोके `
1 लिए ए ध्रशस्त मानागया है । तथा शोके किष अष्टाक्षरः मन्वका विधान है ॥ हे अर्जुन ! अनिमन्तरितं बा-
1 इसका अथं यह है कि हे कपिङे देवि ! तेरे लिए नमस्कार है । तु संसारसागरसे पार करनेवाली है । मेनेतुस्ने
भौर प्रातःकाल होतेह स्नान करके ब्राह्मणोको बुलावे \ जो संख्पामे २४अौर श्ास्त्रपारङ्गत हो, उनके द्वारा ` {
ह्यणोको गोको अलग अलग अनेक प्रकारके वस्त्र, वर्तन, आसन, जूती आदि न्वांग वस्तुभोको दे \ जथवा यथा 1
्ञवितद्वादज्च चीजोको दे \ उन सपत्नीक ब्राहमणोको पुष्यमाला आदिसे पुजकर पक्वान्न मौर जल्से संयुक्त १२
कल्को देकर भो जन करा भक्तिसे विचरे । सब्र इच्छाओंकी पुणे करनेवाली एक कपिला गौको स्वगं
शकी सम्युणताके लिए द । जिसको देते समय “नमस्ते कपिले देवि" इस इलोकंका उच्चारण करे। = `
भगवान् मुञ्षपर प्रसर होजा्यं, सर्वतो भद्रसण्डलके ओर विष्णुभगवानकेनि-
(०) न वरतराज [एकादशी
मण्डल, भेट ओर दक्षिणा आचायेको दे । एवं घब लोगोको भोजन कराके सन्तुष्ट कर विराजत करे । ओर
उनकी आक्लासे अपने दल्धओक्े धाथ पारण करे । इस एकादशी्रतको यौवना सरवन भक्ति राजान जसा पहिले
| किया था उसको मेने यथाविधि वससे कंहुदिया है । हे अजुन ! यह तुम्हारी प्रीति है, एवं भक्ति तथा ` ८
† तुद्यपर कृपा है जिससे मेने चुमको यह् भरकट किया । जो मन्ष्य भक्तिपुवंक इस भयनारकं व्रतको करतां
` है कह दाह प्रलयर्वाजतविष्णुलोकको प्रात्त होता है । हे अजुन ! तुमको मेने दोनों एकादशीके उद्यापनकौ `
विधिबतला दी । इसकी अधिक प्रता करके भे तुम्हुं क्या बताऊ ? समन्नखो कि, इस त्रिलोकीमें इससे अधि
क ओर कोई उत्तम वस्तु नहीं है ! इस उद्यापनके उपरक्ष्यमें गोदान या भूमिदान दिया जाय तौ उसका फलं
गोरोमकी संख्याके बराबर युगोतक वना रहता है ओर दाता खोग तवतक विष्णलोकमं एकादशीकी कथाका ` |
भवण करें दे भी निःसन्देह् स्वगंको जाते हं । इस प्रकार निवास करते हं जो खोग इस अर्जुन श्रीकृष्ण `
भगवान्के परम अतदरभु वचनीको सुनकर बडा दुखी जौर आनन्दित हुआा । उ्यापनकी विधि समाप्त हुई ।\
४ गोपद्मव्रतोद्यापनम्
जथाषाढशुक्लकादश्यां गोपद्ाव्रतोद्यापनविधिः ।। तत्र पनाविधिः
` रभृजं महाकायं जाम्बूनद समप्रभम् ।। श्न्चक्रगदापद्यरमागरुडशोभितम् ।! सेवितं
मुनिभिदेवयेक्षगन्धवेकि्रे।।एवं विधं हरि ध्यात्वा ततो यजनसारभेत्।।ध्यानम्।। `
` पुरुषोत्तम देवेश भक्तानामभयप्रद ।। संस्निग्धं वरदं शान्तंमनसावाहयाम्यहम् ।\ `
र आवाहनम् ।! सुव्णमणिभिरिव्येः लचिते देवनिर्मिते । दिव्यसिहासने स्निग्धे `
प्रविश त्वं सुराधिप ॥ आसनम् ।। गद्धोदकं सुरश्रेष्ठ युव्णकलशस्थितम् ।॥ `
गन्धपुष्पाक्षतेर्युक्तं गृहाण रमया सह ।। पाद्यम् ।। अष्टगन्धसमायुक्तं स्वणंात्रे `
स्थितं जलम् ।\ अर्यं गृहाण भो देव भक्तानामभयप्रद ।। अर्घ्यम् ।। देवदेव `
नमस्तुभ्यं पुराणपुरुषोत्तम ।। मया दत्तमिदं तोयं गृह्णीष्वाचमनं कुर ।! आच- ५
मनम् । पथो दधि घृतं देव मधुहकंरया युतम् । पञ्चामतं मयानीतं स्नानार्थं `
प्रतिगृह्यताम् ।॥ पञ्चामृतस्नानम् ।! नदीनां चैव सरसां मयानीतं जलं शभम् \ ` :
५. अनेन कुरुभो स्नानं मतर्वारुणसंभवः ।! रनानम् ।। वस्त्रयुग्मं समानीतं पटसूत्रेण ।
निमितम् ।। सृष्ष्मं कार्पासतन्तूनां सुवर्णेन विराजितम् ।। वस्त्रम् ।। नारायण
` नमस्तेऽस्तु त्राहि मां भवसागरात् । ब्रह्मसत्रं सोत्तरीयं गृहाण पुरुषोत्तम ।। .
यज्ञोपवीतम् ।। कय रमुकुरेर्युक्तान् न्पुरेरङगलोयकं
मयाहतानल्डकारान् `
गृहाण मधु 1
द न न
=-= =
व्रतानि]... “` ` -दिन्दीरीकासहित `: {४९९} - 4:
. तैयुक्तं गहाण सुरपूजित ।\ नवेद्यम् ।\ नागवल्लीदलयुक्तं पएगीफलसमस्वितम् ।॥ `
करपुरखदिरेर्युक्तं ताप्म्बलं प्रतिगृह्यताम् ।\ ताम्बलम् ।। हिरण्यगर्भेति दक्षिणाम् `
नीराजनं गृहाणेश पञ्चर्बतभिरावृतम् ।। तेजोराश्षे मया दत्तं लोकानन्दकर प्रभो |
नीराजनम् ।। अञ्जलिस्थानि पुष्पाणि अपयामि जगत्पते ।। गहाण सुमुखो भत्वा `
जगदानन्ददायक ॥। पुष्पाञ्जलिम् ।। यानि कानीति प्रदक्षिणाम् ।। नमस्ते देव- `
देवेन नमस्ते गरुडध्वज ।। नमस्ते विष्णदे तुभ्यं व्रतस्य एलदायक ।! नमस्कारान्! `
| ाहीनं भक्तिहीनं सुरवर ।। यत्पूजितं मया देव परिपूर्णं तव्स्तु `
मे ॥\ प्राथेना ।। कृतस्य कर्मणः साद्धता-सिद्धचर्थं बायनप्रदानं करिष्ये इति
सडकल्प्य--परमान्नमिदं दिव्यं कांस्यपात्रेण संयुतम् । वाणकं द्विजवर्याय
सहिरण्यं ददाम्यहम् ।। वायनम् ।। इति पजा समाप्ता ।। अथ कथा~व्यासं बसि- `
ष्ठनप्तारं क्तेः पौत्रमकल्मषम् ।। पराशरात्मजं वन्दे शुकतातं तथोनिधिम्
॥ १ ॥1 सूतं उवाच 1! द्वापरे द्वारवत्यां च नारदः छृष्णद्ञंनात् ।। उत्साहेना- `
भ्यगात्तत्र ददं यदुनन्दनम् ।\ २।। पूलजितश्चेव कृष्णेन विष्टरादिभिरादरात् ।॥
ततः प्रोवाच तं विष्णुरनरिदं लोकपूजितम् ।\ ३ \! श्चीङरष्ण उवाच ।।प्पृणु लोकल
| देवर्षेभृवने विचरन् सदा । लोकान्तरेषु चरितं यद्विशेषं वदस्वमे ।\ ४।। नारद
। उवाच । भगवन्देवदेवेश भक्तोऽस्मि तव चाडिकतः ।। तत्राह्चर्य॑मिदं वक्ष्ये `
। धर्मस्य सदसि स्थितम् ।1 तत्र सवे समासीनाः सुरा इन्द्रार्चतुद्ञ ।॥ ५।।तथे- `
` कादश इद्राक््च आदित्या द्ादल्लापि च ।। वसवोऽष्टौ तथा नागा यक्षराक्षसपन्नगाः |
॥६॥। ते सवे यममाहुरच स्थितं सहासने शुभे ।। मानुष्यं दुन्दुभेदचर्माच्छादनाथं |
वदस्व नः ७ ।1 यम उवाच ।\ चातुर्मस्यव्रतं चैकं संक्रान्तिव्रतमेव च ।॥ न॒ `
कृर्वन्ति च या ना्यस्तासामाच्छादनं त्वचा ।। ८ ॥। कुवेनतुदुनदुभेक्चास्य विचरध्वं `
महाभटाः \। ते तस्थ वचनं श्रुत्वा भटाः प्रविवि्ुर्भुवम् ।। ९ । स्वामि्निदं महा- `
| श्चवयेमतस्त्वां प्रवदामि च ॥ तच्छ्रत्वा त्वरितं कृष्णः प्राह लोकान् पुरः स्थितान् `
/ ॥ १० ॥ तथा कुन्तु लोकाश्च नायं पुं वसन्ति हि ।। तच्छरू्वा चरितं कृष्ण
नगरेषु च ।। ११ ।। कृष्णाज्ञया कृष्णता: प्रोचुस्ते सदेयोषितः ॥। पुरः
८.१
(भ्र) व्रतरान [एकादकी-
च्चाप्यजुनस्य च ।} न स्थां माताऽभिमन्योवे यमदूता: कथं विभो ।। १६ ॥
कृष्ण उवाच ।। कुर त्वं भिनी मेऽद्य त्रतमेक लुभप्रदम् ।। १७ ।। गोपदयमिति
विख्यातं व्रतं लोकेषु विश्रुतम् ।! सुतेन कथितं पूवंमषीणां हितकाम्यया ।! नैमिषे
हिमवत्पाषवं सिद्धाश्रममनुत्तमम् ।। १८ ।। त्र सृतोऽगमरदद्रष्टं मनीनां यज्ञमत्तमम।।
तं दुष्ट्वा मुनयः सव ह्षिताह्च मुहुः \\ १९ । जचितह्व ततः सर्वेर्घ्या-
दिभियेथाविधि ।। अभ्यच्यं सतं तं विग्ना ऊचु्ते प्रीतिपूर्वकम् ।। २० ।! ऋषय
ऊचुः ॥ भर्वाल्लोकचव्य धमेज्ञो भव्तानां ज्ञानसाधनम् ।। समर्थ सर्वमक्तीनां
सवेसोभाग्यकारकम् ।! २१ ॥। कृपया स॒निशार्दल कथयस्वोत्तमं व्रतम ।।
सूत उवाच ।। श्वृणुध्वमृषयः सवे व्रतानामुत्तमं व्रतम् ।। २२ ।। गोपद्ममिति-
विख्यातं सवेपापहरं परम् ।। सवदुःखोपह्मनं सवे संपत्प्रदायकम् ।! २३ ।! यमस्य
दण्डन यस्माद्दुरीकृतमनुत्तमम् ॥। सुवासिन्यास्तु सौभाग्यपुत्रपौजप्रवद्धंनम
।। २४ ।। ऋषय ऊचुः ।\ कस्मिन्मासि कथं कायं कि फलं कस्य पूजनम् ।। केन
चीणं पुरा साधो तत्सर्वं कथयस्व नः ।। २५ ।। सृत उवाच ।। आषादद्यक्ल- 6
पश्षस्य एकाददयां विशेषतः ।। तदारभ्य कातिकस्य दादब्यन्तं व्रतं चरेत् ॥। २६।।
गोष्ठे च शुद्धे गोस्थाने गोमयेनोपलिप्य च ।\ त्रयस्त्रिशच्च पद्यानि कारयेदन्नी- 1
हिपिष्टकंः ।। २७ ।। शोभयेत् पञ्चरद्धेश्च गन्धपुष्पैः प्रपूजयेत् ॥। तत्संख्यया च `
कतव्या नमस्कारभ्रदक्षिणाः ।\ २८ ।। तत्संख्यया ह्यपूपाश्च ब्राह्मणाय निवेदयेत् `
।। वायनं द्विजवर्याय प्रथमे वत्सरे शुभम् ।। २९ । द्ितोये वत्सरे दद्यात् पायसं `
सुविनिमितम्' । तृतीये मण्डकान्ददयाच्चतु्थे गुडमिशधितान् ।। ३० ।। पञ्चमे ५.
धारिकां दद्यात् पूर्णे उद्यापनं चरेत । एकादक्यामुपवसेदन्तधावनपुवकम् ॥ `
यङ्ग तु प्रकु्वीति स्वाचितं््रह्मणेः सह ।। ३१ ।। मण्डपं कारयेत्तत्र कदलीस्त- `
म्भमण्डितम् ।। ३२ ।। नानापुष्पेश्च शोभाठचं मखरं तत्र कारयेत् ।। तन्मध्ये सवेतो- `
भद्रं पञ्चर ङ्ख समन्वितम् \! ३३ । । पुण्याहं वाचयित्वा तु प्रतिमायां यजेदधरिम्।। .
मात्रस॒वणेन तद्धष्धिन वा पुनं ३४ ।। साषसात्रचयुवणन वित्तशाठ्यं न ८
कारयेत् ।॥ आचार्यवरयथित्वा च ` कलश्चं स्थापयेत्ततः ।।
। जतन] दहिन्दौटीकासहित (४९३)
। वत्सेन सहितां धेनुमाचार्याय निवेदयेत् ।। ३९ ।। वि्रान्यञ्चसपत्नीकान् भोज- ॥।
येतड़सैव्ेती ।\ भुञ्जीत बन्धुभिः साद्धमेकाग्रकृतभानसः ।\ ४० \। अन्यानपि ८
। यथारक्त्या ब्राह्मणानपि भोजयेत् ।। कृत्वा ददं व्रतं पुण्यं सर्वान्कामानवाप्तयात् `
। = ॥४१। अन्ते स्वेदं गच्छेत्सवंपापविवजितः ।\ ऋषय नरु: ।। त्वत्प्सादा- `
| त्कृतार्था भो गच्छामः स्वाश्रमान् वयम् ।।४२ ।\ प्रणस्य सुनिभिः साकं सुत- 4
| इचान्तहितोऽभवत् ।॥ मुनिभिः सवलोकेषु कथितं व्रतमुत्तमम् ।। ४३ 11, नातः ` ५
ध. परतरपुण्य अरिषु लोकषु विश्रुतम् ।! कृष्णस्य क्चलं श्रुत्वा सुभद्रा तत्तथाऽकरोत
। ॥ ४४।। पञ्चाब्दं ब्रतमन्ते ही रात्रौ यामचतुष्टयम् ।\ अकरोज्जागरं प्रातजुहावं 1
|
| च हुताशनम् ।। ४५ ।। एवे ब्रते कृतं पश्चातपु्यां यमभटाविशन् ।। यमभ उचुः (ः
। ॥ सुभद्रे तब देहस्य चर्माथ चागता वयम् ॥ ४६।। रोकेऽस्मिस्तु व्रतंयेन न
। कृतं भवितपूवेतः ।\ तच्चमेणापि नद्व्यः पटहो यमज्ञासनात् 1 ४७ ॥ सुभद्रो ` 1.
| वाच ।। भटाः पश्यत मे चीर्णं गोपदाव्रतसूत्तमम् ।। दता पुंवत्ससहिता घेर |
| प्राय दक्षिणा ।। ४८ । गोष्ठे पद्मानि चान्यत्र सवे पश्यन्तु हे भगः ॥ अन्योः (श
| न्यवादसमयें विष्णुदूताः समागताः ।\४९।। तान्दृष्ट्वा , ताडयामासुत्रेतस्यास्य ` (
| प्रभावतः ।। पलायिता महाभीताः स्मरन्तो यमशासनम् ।} ५० ।। तान् दृष्टवा 4
। रक्त दिग्धाङ्कान्यमो भयसमन्वितः ।। कस्येदं कृत्यमिति च ज्ञात्वातीन्दरियदशनान् ` .
॥ ५१ ॥। उवाच दूताः श्डणुत यत्र सम्पूज्यते हरिः ।\ न गन्तव्यं भवद्भिश्च =
सत्यं सत्यं वदाम्यहम् ।\! ५२ ।।! प्राप्तवन्तो देववज्ञाद्िविषशध्वं महाभटाः ।॥ ५
इत्युक्तवा धमेराजोऽसौ शालायां च विवेश ह ।। ५३ ।।तेन देवषिणा मह्यं कथितं ®
व्रतमीदृशम् ।। दमयन्त्या तथा बाले राज्य भंशत्कृतं व्रतम् ।। ५४ ।। त्रतस्यास्य , @
प्रभावेण राज्यसौमाग्यसम्प्रदः । पूत्रपौत्रादिसोभाग्यं भुक्त्वा मोक्षमवाप्नुयात् `
1 ^ | ५५ ।। इति श्रीभविष्योत्तरपुराणे गोपद्यव्रतोद्यापनं सम्पुणम् ।। 1
ह. ध ५ अब आषाढ सुदी एकादलोके दिन् गोपदाव्रतके उद्यापनक्ी विधि कहते हं । उसको पूजाविधि दस प्रकार र । | ॥
[| ~ है-जारम्भमें चतुर्भुज सहाकाय सुवणेके समान प्रभावाले, रमायुत शंखचक्रगदापद्मधारी, गरुडपर विराजमानं `
तथा देव, सुनि, यक्ष, गन्धव, किन्नरोसे हरिकां ध्यान करके यज्ञारम्भ करे, इससे ध्यान; `
श इर कर “दिव्यासिहासने' यहांतक उच्चारणकर आवाहन करे कि, ह परुषोत्तम ! `
1 अत्यन्त प्रमी भ शान्तस्वरूपौ तुमको मः मनसे मं 8
(४९४) | = ब्रतराज [एकादशी
इस दलोकसे यज्ञो पवीत; किय्रम्कुरटर्यु°' इस इलोकसे आभरणः; चन्दनंमलयोद्भूतम्' इस इलोकसे चन्दन;
शतयत्रैः कमिकारेः' इस इलोकसे पुष्य; दशांगो गुग्गुल ड. त' इस इत्ोकसे धूप; !एकात्तिक युरभेष्ठ इस
` इलोकसे दीप; अन्नंच पायसं भक्ष्य इस इलोकसे नैवे ; नागवल्लीदलयुक्तं' इस दलोकसे ताम्बर; हिरण्य
गभ" इस मन्त्रसे दक्षिणा; नीराजनं गृहाणेश ! ' इस श्लोके आरती; अञ्जलिस्थानि पुष्पाणि" इस इलोकसे
क पृष्पाञ्जलि; "यानि कानि' इससे प्रदक्षिणा; नमस्ते' इस दल्ेकसे नमस्कार! (मन्त्रहीनं क्रियाहीनं इस
श्लोकस प्राना समर्पण करे ! किये कर्मकी सांगतासिद्धिके लिये वायना दान करूगा इस वचनसे संकत्प कर
परमाचाभिदं दिष्यं' इस शलोकसे ब्राह्मणको कांसीकी थारीनं उत्तम भोजन रखकर बायना दे \ यह् पुजा
समाप्त हुई ।! अब कथा-जिसके आरम्भमें "न्यासं वसिष्ठनप्तारं इस एलोकका पाठ करे कि, वसतिष्ठजीके `
परपोते तथा शक्तिके पोते एवम् पराद्यर पुत्र तथा शुकके पिता तपके खजाने निष्पाप श्रीव्यासदेवजौको प्रणाम `
करता हूं ।। १।। (यह कहनेसे संगखाचरण भी हौ जाता है तथा व्यासदेवके गौरवका परिचय होजाता है कि, -
बो एेसोका बेटा नाती तथा शुक एेसोका पिता होता है इतनाही नहीं किन्तु आप भी निष्पाप है ।) सूतजौ
बोले-द्रापरयुगमें हारका नगरीके अन्दर भगवान्के ददोनकी इच्छावाऊे नारदजौ ऋषिने बडे उत्सहसे
यदुनन्दन भगवान् कृष्णके दशन फिये ।\२।। भगवान् लोकमान्य श्चीनारदजी ऋषिका पुजन कर बडे आदरसे
आसनपर बिठाकर बोले ।! ३ \\ श्रीकृष्णजी कहते हँ कि, हे देवषि नारद ! आय सब भुवनम विचरनके
. कारण उनका सब हाल जानते हं इस लिये थदि बहां कोई विशेष बात हौ तो आप मृष कह \। ४ ।\ नारदजी
बोले-है देवदेवेश ! आपसे माना हज मं जापका भक्त हुं । घम्मंसभाके अन्दर होनेवाल एक आश्चर्यजनक
बात कहूंगा सो सुनिये \ है भगवन् ! एक समय धम्मंराजकी धम्म॑सभाके अन्दर देवतागण १४ इन्द्र ।\५।।११
` रद्र १२ आदित्य ८ वसु तथा सैः यक्ष, राक्षस, पञ्चग ये सब उपस्थित थे ।\ ६ ।। उन्होने चन्दर सिहासनपर `
विराजमान यमराजसे पडा कि, महाराज ! कौनसे मनृष्यको चम्मसे दुन्दुभिको मंडा जाय सो हमे बताइये
\ ७ यमराज बोले कि, चौमासेमे एक व्रतको तथा संक्रान्तिके एक व्रतको जो स्त्रियां न कर्ती हों उनकी `
चम्मेसे दुन्दुभिको मंढो विचरो उसके इस वचनको सुनकर दूतगण पृथ्वीपर गये ।! ८ ।१ । ९ ।। महाराज! ` `
यह बडे भ्व्ेकी बात है इसलिये आपको कहता हूं । यह सुन महाराज ङष्णने अयने सम्मुखस्थित सबलोगोको `
कहाकि।। १०५ है लोगो! तथास्त्रियों! जो यहां रहतेहोतुमलोगमभी वैसाहीकरोजेसाकि,धर्म-
राजेने कहा है । यहं वचन सुन भगवान्कौ षटरानियोने जौर दूसरे नागरिकोने किया १९ \ कृष्णकेदतोने `
अपने नगरकरे अन्दर बसनेवालमी सब स्त्रियोको ओर बाहरकौ रहनेवाली स््र्योको सूचित किया । प्रान ५
` स्जियोने व्रतकरके ।। १२ ।। किसी दूसरी जगह भगवान् यदुनन्दनसे कहा कि, महाराज ! आपकी सोदरीको `
( छोडकर जौर कोई एसी स्त्री नहीं है जिसने व्रत न किया हो \! १३ 1 यह सुन भयसे सोदरीके प्रति बोले किं ^
दिसु! है सोदरि ! तुम क्या कर रही हौ ? वया तुम्हें नहीं मालूम ह कि, यमराजके दूत यहां अषेहुयेहै `
। ॥ १४ \\ क्योकि तुमनं कोई पुण्यव्रत नहीं किया है । सुभद्रा बोली कि, हे कृष्ण महारान ! मेने बिनाक्सी `
सन्देहके सब त्रतोको किया है ।। १५।। यदि असत्य होती तो जापकौ सोदरी ओर अनुंनकीस््रीनहोतीतया = `
मे मभिमन्य् कौ माता होती । हे प्रभो ! बताइये यमके दत कंसे अये ? \। १६ ॥1 कृष्ण बोले कि, हे बहिन ! `
, श्रतानि) हिन्दीटीकासहित (४९९)
उसको पहिले किसने किया है ? सो किये ।(२५ ॥ भुजौ बोले कि, आषाढ श्चुक्ला एकादशीसे कातिककौी = `
। दादक्ीतक व्रत करना चाये \! २६।। जिस स्थानमें गोवें रहती हं उस जगहको गोबरसे लीपकर चावलकौ
। पीढठीसे कमल बनावे ।! २७ । उसे पंचरंगोसे सुशोभित करे गन्धपुष्योसे पूजा, करे, उसीकौ संस्याके बराबर `
| नमस्कार ओर प्रदक्षिणा करे ।\ २८ 1। उतने अपुष ब्राह्मणोके लिये दे, पहिले संवत्सरमे बराह्मणे लिये वायना `
| ३दे। २९ ॥। दूसरे वधं अच्छी खीर, तीसरे वषं मण्डक, चौथेवषं गृ डके भंडक ओर पांचवे वषं घेवरका वायना ` 1.
| देकर त्रत पुण हौतेही उच्यापन करे । दन्तधावन करके एकादज्ञीके दिन उपवास करे । ओर अपने पून ब्राह्मणोके ` `
| साथ जभ्यंग् करे \\ ३०।। ३१ ॥। केलोके खम्भोसे सजाया हुजा मण्डप तथा अनेकं प्रकार के पुष्पोसे अलुकेत = |
| वेदी बनावे । उसके अन्दर पांचरगोसे सवंतोभव्रमण्डलकरे ।। ३२ 1} ३२ ॥। पुण्याहवाचन कराके म्॒तिमि ``
| भगवान्कौ पूजा करे । कषभर सोने या जाधभरीसे अथवा मषेभर सोनेसे कृपणताको छोडकर मत्त निर्माण `
| ह आचाथेका वरणकर कल्की स्थापना करे ।\ ३४ ।! ३५ ॥ सु्णकी बनायी हुई उस लक्ष्मीनारायण
|
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. भगवान्की मूतिको स्थापित तर ब्रह्मादिकोका आवाहन कर धृष दीपादि षोडशोपचारे पुजाकरे। ३६ छि
. भ्रत्येक मं वारहनाम मन्त्रौसे पूजे गाने बजाने आदिके आमोद-प्रमोदसे रातभें जागरण करे ।1२७॥। प्रातःकाल
उठ स्नान कर हौम करे । तिर, घी, समिधासे दवादश नामकौ आहुति दे ॥ ३८॥। तथा १०८ खीरकी आहुति = `
देकर पीछे पूर्णाहुति दे । बच्चे सहित गेया आचार्यकी भेट करे 1\३९। षड्रस भोजनसे सपत्नीक यांच ब्राह्मणों
को भोजन करावे । एकाग्रचित्त होकर फिर स्वयं आप बन्ध् ओं सहित भोजन करे ।\४०।। तथा दूसरे ब्राह्मणों
को भी शथाशकिति भोजन करावे । इस प्रकार इस पुण्यत्रतका करनेवाला मनुष्य अपनी सब इच्छाओंको प्राप्त `
` करता है\। ४११1 अन्तमं निष्पाप हो स्वर्भका अधिकारी होता है । ऋषि बोले कि महाराज ! आज हम आपकी ` ` (शि
` कृपासे सफल होकर अपने अपने आश्रमोको विदा होते हैँ \ ॥।४२\। ओर इसके बाद सूतजो भीमूनियोको ` श
. प्रणामकर अन्तर्ध्यान होगये, इस उत्तम व्रतको मुनियोने लोकहिताथं कहा है इस लि ।४३।। इसे अधिक - @
ओर कोई उत्तस ब्रत तीन लोकमे नहीं सुना है । इस प्रकार श्रीकृष्ण चनद्रके वचनको सुनकर सुभव्राने भौ
बेसाही किया ।\४४।। पांचवषं लगातार व्रत करनेके बाद, अन्तमं रातमं चार प्रहरका जागरणकर प्रातःकाल
` हवनं किया ।\ ४५ 1! इस भाति ब्रत समाप्त होनेके अनन्तर यमराजके दूतभौ बहा पहुंचे । ओर बोठेकि-है
` सुभद्रे ! हम लोग तुम्हारे शरीर का चमं लेनेको यहां अये हं ।\४६।। जिसने संसारम भक्तिपुवेकव्रत नका = .
हो, उसकी चमसे ढोल मंडाजाना वाहिये यह यमराजकौ आन्ना है ।। ४७ ॥। सुभद्रा बोली कि,हेद्ूतो ! तुम
खग देख लो कि, मेने गोपद्यनामके उत्तम व्रतकां अनुष्ठान किया है । ओर बच्चेसहित गेयाभी ब्राह्मणको . `
दक्षिणाम दी है ।। ४८ ।\ इसलिये तुम लोग. ओर कहीं तला करो । यह् बात हो रही थौ कि इतनेमें विष्णुके `
दूतभौ वहां आ पहुचे ।।४८।। उन्होने इस वतक प्रभावसे यमदरतोको पीटा । ओर ये लोग यमराजकी आज्ञाको `
स्मरण करते हये वहसि नौ दो ग्यारह हो गये ।। ५० ।। उन सब अपने दतोको खूनसे सरावोर देखकर भीत `
हये यमराजने भौ अपने दिव्यज्ञानसे समन्न लिया कि, यह विष्णु भगवानृकी कृषाका फल है ।। ५१ । यमने `
कि हे दतो ! जिस जगह विष्णु भगवानृकी पुजाकी जाती हो वहां आयक जाना न चाहिये यह हम सत्य `
य
म बरक हे वले! रज्यसे ष्ट हो जानेषर = `
इसी इस ` देवषिने मसे किया है, ।। ५४ ।। इस त्रतफे कि
सम्पत्ति, पुत्र, पौत्र, सौभाग्य आदिकां सुखभोगकर सोक्ष प्राप्त करता है ॥५५।}
गोपदयत्रतका उद्यापन ।\ 1
(४९६) ब्रतराज [एकादशी
को विधिः कि फलं तस्यं को देवस्तत्र पज्यते ।\ २। अधिमास तु संप्राप्ते
ब्रतं ब्रहि जनार्दन ।\ कस्य दानस्य कि पुण्यं कि कतव्य नृभिः प्रभो \\ ३।। कथं
स्नानं च कि जप्यं कथं पूजाविधिः स्मृतः ।। कि भोज्यमुत्तमं चान्नं मासे वे पुरूषो-
त्तमे \! ४ ।। श्रीकृष्ण उवाच ।। कथयिष्यामि राजेन्द्र भवतः स्नेहकारणात् ।\.
अधिमासे तु संप्राप्ते भवेदेकाद्शी तु या ।\५ ।। कमलानाम नामेति तिथीनामु-
तमा तिथिः ।। तस्याश्चव प्रभावेण कमलाभिमुखी भवेत् ।।! ६ ।। ब्राह्मये मुहूतं
चोत्थाय स्मत्वा तं पुरुषोत्तमम् ।। स्नात्वा चव विधानेन व्रती नियममाचरेत्
।\ ७ ।। गृहेत्वेकगरुणं जाप्यं नद्यां दशगुणं स्मृतम् ।! गवां गोष्ठे रातगुणम्न्यागारे
जाधिकम् ।! ८ ।। लिवक्षेत्रषु तीर्थेषु देवतानां च सचिधौ ।\ सहसखरशतकोटि- ` ४
नामनन्तं विष्णसचिघो ।! ९ ।। अवन्त्यामभवदिप्रः शिवधर्मति नामतः ।। तस्य ॥
पञ्चस्वात्मजेषु कनिष्ठो दुष्टक्मशृत् ।। १० ।॥ तदा पित्रा परित्यक्तस्त्यक्तः
स्वजनबन्धुभिः ।! स्वक्ेणः प्रभावेण गतो दूरतरं वनम् ।। ११।।. एकदा देव-
योगेन तीथराजं समागमत् ।! शषत्क्षामो दीनवदनस्न्िवेण्यां स्नानमाचरत् ।। १२
4 ऋषीणामाश्रमांस्तत् विचिन्वन्क्षुधयाऽदितः ।। हरिमच्निमुनेस्तत्र त्वाश्रमं च
ददश हं ।\ १२ ॥ पुरुषोत्तममासे तु श्रद्धया कमला स्तुता।। एकादल्ली पुण्यतमा `
` भुव्तिमुक्तिप्रदायिनी ।। १४ । पुरुषोत्तममासे तु जनानां च समागमे ।। तत्राश्रमे `
कथयतां कथां कल्मषनारिनीम् \\ १५ । जपज्छमेण तां शरुत्वा कमलां पापहा-
रिणीम् ।। ब्रतं कृत्वा च तैः साद्धं स्थितः श॒न्याल्ये तदा ।। १६ ।! निशीभे सम- 1
नुम्राप्ते कमलात्र समागता ।! वरं ददामि भो विप्र कमलायाः प्रभावतः ।1 १७।॥ `
` विप्र उवाच ।! का त्वं कस्यासि रम्भोरं प्रसन्ना च कथं मम ।। एन्द्री त्वमिन्ध- `
| देवस्यभवानी शंकरस्य च ।\ १८ ।। बधूर्वा चन्द्रसूयस्य गान्धर्वी किन्नरी तथा ।॥ `
` त्वत्सदुश्लौ न दृष्टा च न शरुता च शुभानने ।। १९ ।। लक्ष्मीरुवाच । प्रसन्ना सांप्रतं
जाता वकुण्ठादहमागता ।। प्रेरिता हरिदेवेन एकादश्याः प्रभावतः ।! २०
` हिन्दीटीकासहित
यत्कथासु प्रवतन्तं राजानो ये जगद्धिताः ।) लक्ष्मीरुवाच ।। श्रोतणां परमं श्राव्यं |:
श्रोतृणां परमं श्राव्यं पवित्राणामनुत्तमम् ।। २५।। दुःस्वप्ननाशनं पुष्यं श्रोतव्यं `
` यत्नतस्ततः ।। उत्तमःशद्धया युक्तः शलोकं इलोकाद्धंमेव च । २६ ॥। पल्त्वा
मुच्यते सद्यो महापातककोटिभिः ।\ मासानां परमो मासः पक्षिणां गर्डो यथा `
` ॥ २७ ॥। नदीनां च यथा गद्धा तिथीनां हादक्षी तिथिः ।। तस्यामर्च॑न्ति विब॒धा `
नारायणमनामयम् ।) २८ ।। ये यजन्ति सदा भक्त्या नारायणमनामयम् ।॥
। तानचेयन्ति सततं ब्रह्माद्या देवतागणाः 1 २९ ।। नारायणपरा ये च हरिकीर्तन- `
। क्त्पराः। परिप्रजागरा ये च कृतार्थास्ते कलौ युगे ।॥ ३० ॥ शुक्ले वायदिवा
। कृष्णे भवेदेकादश्ीढटयम् ।। गृहस्थानां च पूर्वा तु यतीनामुत्तरा स्मृता ॥। ३१६।॥
। एकादश द्वादशी च रात्रिशेषे त्रयोदशी ।। व्रते कतुशतं पुष्यं त्रयोद्यां तु पार- |
। णम् ।\ ३२ ।। एकादश्यां निराहारः स्थित्वाहमपरेऽहनि ॥। भोक्ष्यामि पुण्डरीकाक्ष
। क्रणं मे भवाच्युत ।\! ३३ ।। अमुं मन्तरं समुच्चायं देवदेवस्य चक्रिणः । भविति- `
। भावेन तुष्टात्मा चोपवासं समर्पयेत् ।। ३४ ।! देवदेवस्य पुरतो जागरं नियतो `
। व्रती ।\ गीतैर्वाक्च नृत्येडच पुराणपठनादिभिः ।! ३५ ।) ततः प्रातः समुत्थाय | |
द्वादशी दिवसे ब्रती ।। स्नात्वा विष्णुं समभ्यच्यं विधिवत्प्रयतन्वियः ।॥ ३६ ॥ `
पञ्चामृतेन संस्नाप्य एकादश्यां जनार्दनम् ।। द्वादश्यां च पयःस्ता्नं हरेः सारू- `
प्यमरनुते ।। ३७ ।। अज्ञानतिमिरान्धस्य व्रतेनानेन केशव । प्रसीद सुमुखो
` नाथ ज्ञानदृष्टिप्रदो भव ।\ ३८ ।! एवं विज्ञाप्य देवेशं देवदेवं च चक्रिणम् ॥ |
। ब्राह्मणान् भोजयेत्पचात्तेभ्यो दद्याच्च दक्षिणाम् ।\ २९ ।\ ततः स्वबन्धुभिः |
साद्धं नारायणपरायणः । कृत्वा पञ्चमहायज्ञान् ` स्वयं मुञ्जीत वाग्यतः |
` ॥\४० ।। एवं यः प्रयतः करर्यात्पुण्यमेकादशीत्रतम् \। स याति विष्णुभवनं पुनरा- `
| वृत्तिदुलंभम् ।\ ४१ ।। इत्युक्त्वा कमला तस्मे प्रसच्ना तस्य वागा ।। सोऽपि विप्रो `
. ग कुरते राजन् कमलाद्रतमुत्त- `
| ४३ ।। इति श्रीब्रह्याण्ड `
(कषद); रराज व
` ॥1 ४ ॥\ श्रीङरष्णजी बोरे किह राजद ! अधिक मासके प्राप्त हौनेवर जो एकादश्षी प्राप्त होती है उसको 1
तुम्हारे स्ेहके कारण कहता हृं ।। ५ ।। सब तिथियोम कंमला नासकौ उत्तमतिथिके प्रभाव्से कमला अर्थात् ` `
छक्ष्मी संम॒ख होती है \\ ६ ।। उसके लिये ब्रती मनुष्य प्रातःकाल ब्रह्यमुहुतेमं उठकर भगवानृका स्मरणकरते
हए विधिपूवेक स्नान करके नियम करे \\ ७ \\ घरमे जपकरे तो एक गुणा, नदीमं दशगुणा, गोल्ालामं सौगुणा `
यज्ञाल्यमें सहलगुणित ।। ८ ।। शिवालय तीथे ओर देवालयौ विष्णुके निकट जप करने पर लक्ष कोटि,
गुणानन्त फल मिख्ता है ।\ ९ ।\ अवन्तौ नगरमे एक शिवधसं ब्राह्मणके पांच बेटोमं छोटा लडका बड़ा दुष्ट
भा।। १० ।1 जिसको उसके पिताने तथा उस्षकेभाई बन्धुजने निकार दिया था \ वहु अपने कमके प्रभावसे
बहुत इर जद्धलोमे चला गया, ।! ११।। घो दैवयोगसे एक बार ती्थराजमें ना पहुंचा } उस भूखे दु्वेल दीन- ` `
मुख दुखी ब्राह्मण कुमारने न्रिवेणीमं स्नाने किया ।1 १२।। कुड भोजन मिलनेकी आश्चसे ऋषियोके आश्रमम
प्रवेश किया ओर वहां हरिमित्र मुनिके आश्रसमं जा पहा \\१३।। जहां पुरषोत्तमधारकौ बडी पवित्र मुदति- `
मुक्तिको देनेवाली कमला एकादलशीकी स्तुति हौ रही थी ।! १४ ।। ऋषियोके समुदायसं पापहारिणी उस `
कथाको जपता हुआ सुनकर उसने भौ कमलानामकी एकादलीका त्रतकर उनके साथ श्ुन्याल्यमे निवास `
` किया । १५ ।। १६ ।! जिसके प्रभावसे आधीरातमं कमलाने स्वयं जाकर उस ब्राह्मणकुमारसे कहाकिहै `
चिप्र! मेतुम्हुं बर देती हुं \\ १७ ॥। ब्राह्मणने कहा कि, हे सुन्दरि ! तुम कौन हो, किस तरह तुम मृन्नपर `
`: प्रसन्चहौ? इन्द्रकी इन्द्राणी हो या शंकरकी भवानी हो ? ।। १८ ।। या चांद सुरजकी स्त्री हौ वा गन्धर्व किच्वर `
` की बहू हो । मेने तुम्हारे समान ओर किसीको युन्दर नहीं देवा ओर न सुना है ।\ १९। रक्ष्मीमे कहा किमे ।
दुमपर प्रस होकर वेकुण्डसे आई हुं । मुशे तुमारी एकादशी फले प्रेरित होकर भगवान्ने यहां भेजा है ।।२०।। ४
। ` पृुषोत्तममासके शुक्ल दृष्णपक्षमे जो कमला एकादक्षी होती है उसीके उपलक्ष्यमे में ुम्हे कमलादेनी आई = `
हं ॥ २१ ॥ पुरुषोत्तम मासके पहले पक्षमे जो एकादशी होती है उसको तुमने प्रयाग तीर्थराजमें मुनियोके निकट |
किया है \। २२।\ उसी ब्रतकेप्रभावके व्च होकर हे ब्राह्मण ! मे वुम्हं आदीर्वाद देती हं कि, तुम्हारे कुल्मेनो
मनुष्य उत्पन्न होगे ।। २३ ।} उनपर मं प्रसन्न रहुंगी इसमे कोई सन्देह नहीं है । ब्राह्यणने कहा कि, हे लक्षमि!
` यदि तुम सृन्ञपर प्रसन्न हो तो विस्तारपुवेक उस् त्रतको कह ।। २४ 1। जिसको सुननेके लिये जगत् कल्याण- `
: कारी राजालोग प्रवृत्त होते हे । लक्ष्मी बोली कि, सबसे उत्तम सुनने योग्य सबसे अधिक पवित्र \ २५१
| बुःस्वप्ननाशक व्रतको तुम ध्यानसे सुनो । सबसे अच्छी बात तो यह् है कि, श्रद्धासे युक्त होकर एक इलोक वा `
`. आधा श्लोकभी ।। २६ ।। पढले तो बह कोटि कोटि पापोसे छट जाता है \ जिस प्रकार पक्षियों गरुड़ उत्तमहै
उसी प्रकार यह महीनोमें अधिकमास उत्तम है ओर जिस प्रकार नदियोमे गद्धा उत्तम है द्वादशी तिथिभौ |
वैसेही उत्तम है । जिस तिथिके अन्दर विद्वान् जोम आनन्दमय नारायणकी पना करते हे जो लोग भक्तिपूर्वकं |
कत नारायणकौ पूजा करते हु उनकी ब्रह्मादि देवतागणभी सदा पुजा करते रहते ह \ जो लेय सदा नारायणम ८
मन लगाये रहते हे हरिकीर्तन करते है तथा जो जागरण करते हँ वे इस कलियुगसें धन्य है शुक्ल ओर ङृस्ण `
पक्षम जो दो एकादशी होती हे उनमें गृहस्थियोको पहली ओर यतियोको दूसरी करनी चाद्ये ।\ २७-३१\ ` 4
एकादशी या द्वादशी तथा रात्निशेषमें जयोदशीका ब्रतकर शतयज्षके फलका भागौ उन त्रयोदश्षीके दिन पारण ः ॥
करे ॥ ३२।। हे पृष्डरीकाक्च ! एकादक्ौके निराहार रहकर दूसरे दिन भोजन करूंगा इसलिये 1
रणता स्वीकार कीजिये ।! ३३ ।। इस मन्त्रको उच्चारण कर भगवान्को भक्तिः ॥
म
त्तानि} हदीदीकासहित (४९९) `
41४१ । इक प्रकार खक्ष्मी प्रसन्न होकर उसके वंशम प्रविष्ट होगई ओर वह ब्राह्मणभी घनघान् हकर अपने | ५
` पितिाके घर चला गया ।। ४२ \। है राजन् इस प्रकार जो इस उत्तम कमलाव्रतको करता है अथवा एकादशीके `
| । ॥ | दिन जो इसकी कथा सुनता है वहू सब पापो भक्त हो जाता है ।} ४३।। यह श्रीब्ह्याण्डपुराणर्क पुरुषोत्तम- १
` मासका कमलानामक एकादशीका माहात्म्य सम्पूणं हा \!
श्रवणकादर्यां वामनावतार 1
न भाद्रपदे श्रवणकाष्दश्यां मध्याह्लं वामनावतारः । भ्रवणयुक्तशुक्लकाद- छि
कयलभ तु द्छमौविद्धापि श्रवणयुता ग्राह्या ।\ तथा च मदनरत्ने बह्िपुराणे-
दशम्येकादशी यत्र सा नोपोष्या भवेत्तिथिः ।\ श्रवणेन तु संयुक्ता सोपोष्या
सर्वकामदा ।। अथ कातिकलुक्लकाददयां प्रबोधविधिः ।। हेमाद्रौ ब्रह्ये-एकादष्श्यं श
तु श्रुक्लायां कार्तिके मासे केशवम् ।। प्रसुप्तं बोधयेदरात्नौ धद्धाभक्तिसमन्वितिः!!
` नुव्यर्गतिस्तथा वेदे्ग्यजुःसाममङ्धलेः । वीणापणवहब्देश्च पुराणश्रवणे `
चं । वायुदेवकथाभिश्च स्तोत्रेरन्यश्च वेष्णवेः ।\ सुभाषितेरिद््रजालेभूरिशोभा- `
भिरेव च ।1 पुष्पेधूषैदच नेवेचर्दीपवृक्षेः चुशोभनेः ॥ होमेभेकष्यैरपुपेश्च फलैः |
` ऋकंरपायसेः ।। इक्षोविकारेमेधुरेदरक्षाक्षोदरैः सदाडिमेः ॥ कुटेरकस्य मञ्जर्या ` `
मालत्या कमन्लेन च ।। कुटेरकः- पर्णाशः, कृष्णतुलसीति केचित् । हताम्यां
शवेतरक्ताभ्यां चन्दनाभ्यां च सर्वदा ।। कुडकुभालवतकाभ्यां च रव्तसुतरेः सकडक-
णेः \ तथा नानाविषेः पु्प्रवयैर्वौरक्याहतेः ।। विक्रेता प्रथमतोऽमिहितं ` `
मूल्यं द्त्वा क्रियमाणाः क्यो वीरक्रयः ।! तस्यां रात्यां व्यतीतायां दादह्याम-
सुणोदथे ।) आदौ घूतेनेक्षवेण मधुना स्नापयेत्ततः ।। दध्ना क्षीरेण च तथा |
` पञ्चगव्येन शास्त्रवित् ।\ उद्तेनं माषचू्णं मधुरामलकानि च ॥! सर्षपाङ्च
शरियम मातुलिगरसस्तथा ।। सवीषध्यः सर्वगन्धाः सर्वबीजानि काञ्चनम् ।॥ |
` मङ्धलानि यथाकामं रत्नानि च कुशोदकम् ।) एवं संशोध्य देवेशं दद्याद्गोरोचनं `
श्रुभम् । ततस्तु कलशान् स्थाप्य यथप्राप्तस्त्वलंकृतान् ।। जातीपल्लवसंयु- `
क्तान्सफलांश्च सकाञ्चनान्।।पुण्याहवेदशब्देन वीणहवेणुरवेण च! एवं संस्ना- `
प्य गोविन्दं स्वनुक्िप्तं स्वलंकृतम् । सुवाससं तु संपुज्य सुमनोभिः सकुकुमेः ।॥
धूषेर्दपिः पायसेन च भूरिणा ।\! हविष्येक्चान्नदानेच होमेः पुष्पैः सद- `
(१००) | व्रतराज | [एकादशी `
एकादकश्शीभी करनी चाहिये, यदि उसमें श्रवण हो । मदनरत्नसे बह्भिपुराणसे कहा है कि, ददमीमं यदि
एकादशी हो तो उस दिन उपवास न करना चाहिये पर जिस दशमे श्रवण नक्षत्र होतो सब का्सोकी पूणं `
करनेवाली होनेके कारण उस एकादशौको अवदय उपवास करे । प्रबोघविधि-हेमाद्रिने पद्मपुराणसे ल्लीहै
कि, कातिकरुक्ल्ला एकादकलीके दिन भद्धाभवितसे युक्त होकर सोतं हए भगवान्को रातमं जगावे } नाचे,
` यावे, ऋक्, यजुः सामवेदका माङ्कलिक अध्ययन करे । बीणा सृदद्धसे एवं पुरा्णोकौ कथाञेते एवं अन्य
` क्रयको वीरक्रय कहते हँ उस रातके बीतजानेषर द्राद्चीके अरुणोदयमं पहले घीसे शक्कर ओर मधुसे दही `
ओर दधसे तथा पञ्चगव्यसे शास्त्रवेत्ता स्नानं करावे ¦ भगवान्को उबटना तथा उडदका आटा लगा कर `
सब बौजों ओर सुवरणसे यथाकाम अन्य माङ्कलिक रत्नोको तथा हरिको करञ्षजलसे श्षोध गोरोचनको भग-
` बचे हृएु अमृतको अन्य ब्राह्मणो साथ स्वयं भोजन करे । यह प्रबोधोत्सवविधि पूरी हुई \
1 भीष्मपञ्चकत्रतम्
वासुदेव भगवान्की कथास तथा विष्णुस्तोघ्रसे अभू त तमास बाइसकोप सिनेमा आदि इन््रनाल्से `
धू पपुष्प नैवेचयसे दीपक किये हुए वुक्षोसे होमे ओर अनेक भोजन पदार्थेति अनेक प्रकारके फलोसे अनेक `
भ्रकारकी भिठाई ओर इको चीजोसे ईखके मीठे विकारोसे अंगूरोसे मधुरे अनारोसे काली वुलसीकौ संजरीसे `
ओर कंमल्मसे, कुठरेक पर्णाश्चकी कहते हूं जिसे कोई काली तुलसी कहते ह" रयेहुए खाल ओर सफेद चन्दनसे `
केव ओर अलक्तकसे रक्तसूत्र (नार) से आर सुवणेके ककणसे नाना प्रकारके पुष्पोसे जर पहले कौमत
दीहूई अनेक चीजोसे भगवान्को उठावे । विक्रेताके पहिञे क हेहृए मूल्यको प्रथम देकर खरीदी हुई वस्तु एसे _
` निर्मल करे । तथा मीठे आँवोके फलोसि सरसों ओर प्रियंगसे बिजोरेके रससे स्वाषधि ओर सब गन्धोसे (0
` वानृके चयि दे! फलोसे ओर सुव्णसे जही या मालती आदिके पल्लवोसे सजे हए घडोको स्थापित करके
` पीड पुण्याहवाचन मर वेदध्वनिसे तथा मनोहारी सङ्खीतसे भगवान्को स्नान कराकर अलंकृत कर अनुलेय `
` करे । केदारमिशित फूलोसे अच्छे वस्त्र पहिने हृए भगवान्को वस्त्र धारण करावे बहुतसे धूप दीप तथाखीर `
दिके हविष्यान्नदानसे हमसे तथा दक्षिणासहित एूलोसे अनेक प्रकारके वस्त्र ओर भूषणसे गायं जौरवेग- `
वान् कीमती घोडोसे भगवान्के प्यारे ब्राह्यणोकी पुजा करे क्योकि ब्राह्मण भगवान्की पूज्य मृतिरूप हें ओर `
अथ कातिकशुक्लकादष्यां भीष्मपञ्चकव्रतं हेमाद्रौ नारदीये ॥ नारद `
उवाच ।। यदेतदचल पुण्यं ब्रतानामृत्तमं व्रतम् ।। कतेव्यं कातिके मासि प्रयत्ना- `
द्धीष्मपञ्चकम् ।। १ ।। विधानं तस्य विस्पष्टं फलं चापि ततो वरम् । क्थ-
यस्व प्रसादेन मुनीनां हितकाम्यया ।। २ ॥। ब्रह्मोवाच ॥। प्रवक्ष्यामि महापुण्यं `
` की.
त्तं ब्रतविदां बर ।। भीष्मेणेव
णव च सप्राप्तं त्रत पञ्चदिनात्मकम् ।। ३ ।। सकाशा- `
स्यं तेनोक्तं भीष्मपञ्चकम् ।। व्रतस्यास्य गृणान्वक्तं कः शक्तः कंशवादृते `
६ व्रतानि 1 ` ( हिन्दीटीकासहित (५०१)
# गाङ्धं बाणस्य वेगतः ।। तुष्टानि तव गात्राणि तस्मादेव दिनादिह ।\ १० ।
। पूर्णान्तं सवंलोकास्त्वां तपयन्त्वध्यंदानतः ॥। तस्मात्सवेप्रयत्नेन मम संतुष्टि
। कारकम् \\ ११ ।। एतद्त्रतं प्रकुबेन्तु भीष्मपञ्चकसंज्नितम् ।! काकस्य व्रतं `
। कृत्वा न कुर्याद्धीष्मपञ्चकम् ।\ १२ ॥ कातिकस्य व्रतं स्वं वथा तस्य भविष्य- `
| ति ।1 अशक्तश्चेन्नरो भूयादसम्ेक्च कातिके ।। १३ 1! भीष्मस्य पञ्चकं कृत्वा `
। कार्तिकस्य एलं लभेत् ।। सत्यव्रताय शुचये गाद्धेयाय महात्मने । १४ भीष्मा- (श
। यैतदुदाम्यध्येमाजन्मब्रह्मचारिणे । सव्येनानेन मंत्रेण तपेणं सावेवणिकम् ` शि
| ॥ १५ ॥\ ब्रताङ्खत्वारतपूणिमायां प्रदेयः पापपुरुषः ।॥ अपुत्रेण प्रकतेव्यं सवेथा
। , भीष्मपञ्चकम् ।। १६ ॥ यः पुत्रार्थो वरतं कुर्यात्सस्त्रीको भीष्मपञ्चकम् । तं `
। दत्वा पापुरुषं वषेमध्ये सुतं लभेत् ।। १७ ।। अवश्यमेव कतंव्यं तस्माद्धुष्मस्य
|
, पञ्चकम् 1 विष्णुप्रीतिकरं प्रोक्तं मया भीष्मस्य पञ्चकम् । १८ ॥ त्रैव हि
। प्रकतव्यः प्रबोधस्तु हरेः खगः ।\ हतः शङ्धसुरो देत्यो नभसः शुक्कपश्षके `
। ॥ १९ ।\ एकादश्यां ततो विष्णुश्चातुमस्ये प्रसुप्तवान् ।। क्षीरोदधौ जाग्रतोऽ-
| चवेकादश््यां तु कातिके ।\ २० \\ अतः प्रबोधनं कायमेकादश्यां तु वष्मव्ः \)
1
धीशसमस्तकूलनाद्चन ।। रेणुकाध्न त्वमुत्तिष्ठ अलोक्य
। उत्तिष्ठ रक्षोदलन अयोध्यास्वगंदायक ।। 1
८ स्त्वया \\ एकादयां कातिकस्य याचितं च जलं त्वया ।। ९ ।\ अनेन समानीतं `
| । प्रबोधमन्त्राः-उत्तिष्ठोत्तिष्ठ शङ्कघ्न उत्तिष्ठाम्भोधिचारक ।। कूमेरूपधरोत्तिष्ठ
त्रैलोक्ये मङ्कलं कुर ।। २१ ।।उत्तिष्त्तिष्ठ वाराहं दष्टोदध,.तवसुन्धर ।। हिरण्याक्ष `
प्राणघातिस्तरेलोकये मङ्कलं कुरु !1 २२।। हिरण्यकश्िपुघ्न तवं प्रह्वादानन्ददायक ।॥ `
लक्ष्मीपते समुत्तिष्ठ त्रैलोक्ये मङ्खलं कुर ।। २३ ।। उत्तिष्ठ बलिदपंष्न देवेन्ध- |
` पददायका ।। उत्तिष्ठादितिपुत्र तवं ब्रैलोक्ये मद्धलं कुर ।। २४ ।। उत्तिष्ठ हंहया- `
मङ्कलं कुर ।॥ २५।॥ `
तेस्त्वं ब्रेलोक्ये मङ्कलं कुर |
(१०) 1 - 4. -वेरज- : | , [एकादक्षी-
प्रतिमां कुर्यत्पलस्य स्वर्णजं श्भाय् ।! तदधर्धि तुलस्यास्तु यथाइक्त्या `
भ्रकल्पयेत् ।। ३४ ।। प्राणप्रतिष्ठा कुर्यात तुलसीविष्णुरूपयोः ।। ततः उत्थाप- `
येदेवं पूरवोबतेश्च स्तवादिभिः ।! ३५ ।। उपचारैः षोडशभिः पुरुषसुवतेन पुज-
येत् ।। देशकालौ ततः स्मृत्वा गणेशं तत्र पूजयेत् ।¦! ३६ ।, पुण्याह वाचयित्वाथ
नान्दीश्राद्धं समाचरेत् ।। वेदवाद्यादिनिघेषिविष्णुमततिं समानयेत् । ३७ ॥ `
तुलस्या निकटे सा तु स्वाप्या चान्तरिता पटैः ।। आगच्छ भगवन्देव अ्चयिष्यामि
कंशचव ।। २८ ॥ तुभ्यं ददामि तुलसीं सव॑कामप्रदो भव ॥। ददयाञ्चिवारमर्घ्य॑ ` |
च पाच्यं विष्टरमेव च ।। २३९ । ततङ्चाचमनीयं च त्रिरुक्त्वा च प्रदापयेत् ।॥ ` |
ततो दधि चुतं क्लोव्रं कास्यपात्रपुरीकृतम् ।।! ४० ।। मधप गृहाण त्वं वासुदेव
नमोऽस्तु ते ।\ ततो ये स्वककुलाचाराः कर्ंव्या विष्णुतुष्टये ।\ ४१ ।। हरिद्रालेप-
नाभ्यङ्ककाय सवं विधाय च । गोधूलिसमये पुज्यौ वुलसीकशवौ पुनः `
॥ ४२ ।। पृथक् पृथक् ततः कायौ सम्मुखो मङ्खःलं पठेत् ।।ईषददष्टे भास्करे षु.
संकल्प तु समाचरत् ।। ४२ ।। स्वगोत्रप्रवरानुक्त्वा तथा त्रिपुरुषादिकम् ।। अना- ` |
` दिमध्यनिधन त्रेलोक्यप्रतिपालक ।। ४४।। इसां ग हाण तुलसीं विवाहविधिन- `
` शवर ॥ पा्वंतीबीजसम्मूतां वृन्दाभस्मनि संस्थिताम् ।। ४५ ।॥। अनादिमथ्य- 1
` निधनां बल्लभां ते ददाम्यहम् ।। पयोघटेश्च सेवाभिः कन्यावद्रिता मया \। ४ ६।६८.
स्वस्यां तुलसीं तुभ्यं दास्यामि त्वं गृहाण भोः ।। एवं त्वा तु तुलसीं पदचात्तौ
पजयंत्तततः । ४७ ।! रात्रौ जागरणं कु्यात्कातिकव्रतसिदधये ।! बालविल्या १
` ऊचुः ।। ततः प्रभातसमये तुलसीं विष्णुमर्चयेत् ।\! ४८ ।! बह्विसस्थापनं कृत्वा `
दादज्ञाक्षरविद्यया ।। पायसाज्यक्नोद्रतिलहुनेदष्टोत्तरं शतम् । ४ ९.। त्तः. .
स्विष्टकृतं हत्वा ददयातर्णाहति ततः ।। आचार्यं च समभ्यच्यं होमरेषं समा- |
1 पयत् ।! ५० ॥। चतुरो वाषिकान्मासाचियमो यत्य यः कतः ।। कथपिः बरा टिजे- ५
भ्यस्त तथान्यत्परिपूजयेत् ।! ५१ ।। इदं व्रतं मया देव कृतं प्रीतये
श्रतानि ] | हिन्दीरीकासहित ~ :" (५.६) ४
श्यति \। ५८ ॥। एषु त्रिषु न भुक्तं चेदेकेकमपि येन तु । ज्ञेय उच्छिष्ट आवर्षं । `
` नरोऽसौ नात्र संशयः ।। ५९ ॥। ततः सायं पुनः पुज्याविकषुदण्डेश्च मण्डितो ्
वुलसीवासुदेवौ च छृतच्ृत्यो भवेत्ततः \\ ६० ।। ततो विसजनं कुर्यहत्वा दाया- `
दिकं हरेः ।\ वकुण्ठं गच्छ भगवस्तुलस्या सहितः प्रभो ।। ६१ ।1 मल्कृतं पूजनं `
५ गृह्य सन्तुष्टो भव सवेदा ।। गच्छ गच्छ सुरशरष्ठ स्वस्थानं परमंहवर ॥६२ ।॥
यत्र ब्रह्मादयो देवास्तत्र गच्छ जनार्दन । एवं विसृज्य देवेशमाचार्यायप्रदापये- `
` त् \\ ६३ ॥\ सूर्यादिकं सवेमेव कृतकृत्यो भवेच्चरः ।। प्रति वषं करोरयेवं तुल्स्यु `
द्वहनं शुभम् ।। इह लोके परत्रापि विपुलं सदयशो लभेत् ।। ४६ ॥। प्रतिवर्ष तुयः `
कुर्थाततुलसीकरपीडनम् । भवितभान् धनधान्यैश्च युक्तो भवति निदितम्
॥ ६५ । इति श्रीसनक्कुमारसंहितायां कातिकशुक्लेकादषयां भीष्मपच्चक `
व्रतप्रबोधोत्सवतुलसीविवाहविधिः सम्पूणं: ।
1 अथ भीष्मपञ्चकत्रतम् |
नारदीयसे लेकर हैमाष्ठिने कहा है कि, नारदजी बो कर, हे प्रजापते जो यह अचल पुण्य है बरतोका उत्तम त्रत
दहै जो का्तिकके महीनेमे भीष्मपञ्वक प्रयरनके साथ किया जाता है! १1) उस कात्तिकमासकी शक्ल
` एकाददीके सर्वोत्तमं भीष्मपञ्चक व्रतकी विधि ओर उसके श्रेष्ठ फलको आप मुनि्योकी हितदृष्टसे कृपाकर ` शि
` किये । २ ॥। ब्रह्माजी बोरे कि, है ब्रतधारियोमें शरेष्ठ नारदजी ! म आपको पवित्र भीष्मपञ्चकत्रतको ` ५.
^; | { ५ | कहता ह जिसे भीष्मजीन पपाच यष पाच दिना है {11३ ॥ भगवासके पासथे पाया था इस कारण इसे “ ध (1 ॥ {५
भीष्मपंचकं कहते ह इसके गुणोको भगवान्को छोड ओर कोई वर्णन नहीं करसकता है ।। ४ ।। यह ब्रत बडा `
पवित्र ओर पातक नाशक है । इसलिये कष्ट उठाकरभी इसे करन। चाहिये \\ ५ ।। सनत्कुमार संहितामे
लिखा है कि, बालखिल्य बोले कि, कलिकं महीनेकी शुक्लपक्षे अच्छी प्रफारसे एकादशके दिन स्नानकर =
| भीष्मपञ्चकं व्रतको धारण करे ६॥ दारशग्यापर सोते हुए भीष्मनौ महाराजके कहेहुएु राजघर्म्मोको `
|. दानधम्मं ओर मोक्ष धर्मोको पाण्डवोने ओर भगवान कृष्णसे सुना है ।। ७ ।! उनसे जिसमे प्रसन्न होकर `
भगवान् बासुदेवने कहा \ ८ ।। कि, है मीष्म ! आष धन्य हँ आपने घर्मोको खूब सुनाया, इसौ एकादक्षीके = `
दिन आपने जलकी याचना की ।। ९ ।। अर्जुने जायको अयने बाणे निकलेहुए
दिनसे यहां आपके अङ्कः सन्तुष्ट हुए है \। १० ॥। पूर्णान्त हृभा जान आपको
ह इस लि मेरे सन्तोषके देनेवाले ।। ११।। इस भौष्म पञ्चक नामके व्रतको करना चाहिये ॥ जो मनुष्य `
तकके ब्रतोका फल पाजाता है । परम पवित्र सत्यव्रत महात्मा्ागेय ।। १४ । जो किं जन्म- `
ए गङ्घानल्को लाकर दिया इसी `
उसदिन सब छोग अष्यदानदेते
| कातिकके ब्रतको करके भीष्पपञ्चक व्रतको न करे तो ।। १२ ।। उसका कातिकतरत सब निष्फल होताहै `
1 8 ५४ मनुष्य असमथं या अशक्त होनेके कारण कािकेके त्नतको न् करसके ।\१३।। बो भीष्मपञ्चकं ब्रतको `
| (५०४) ४ | = 2 । ४ । | | त्रत सज | ॑ | [ एकादशी ठ
` त्सव मनाना चाहिये, भगवान्को जगाते समय“उत्तिष्ठोत्तिष्ठ शंखध्न"इस इलोकते लेकर अर्थात् इक्कीस
इत्गेकके आरम्भ कर “उत्तिष्ठ कमलाकान्त त्रैलोक्ये मद्धःलं कुर" इस तीसवे शलोकतकः पाठ करे । हे श्ंखासुरके
भारनेवाले ! खडा हो खडा हो, है समुद्रम फिरनेवारे खडा हो हे सूमरूप धारण करनेवाले ! खड़ा हो उठकर |
तीनों लोकोमें मंगलकर ।। २१॥। है वाराहबनकर दाढसे भूमिका उद्धार करनेवाले खडा होजा, आप हिरण्याक्ष
के मारनेवाले हें तीनों लोकोमे संगर करिये ।। २२ \ आप हिरण्यकदयपुको मारनेवाले हं आप प्रह्लादको
आनन्द देनेवाक है, हे लक्षमीके स्वामिन् ! खडा हो, तीनों लोकोमे मंमलकर ।॥ २३॥।। हे बलिके दर्पको नष्ट
करनेवाले ! हे इन्द्रको इनद्रका स्थान दिलनेवाले ! हे अदितिके पुत्र ! खडा हो, तीनों लोकोमे संगलकार
11 २४ ॥1 है सहलबाहुके सारे कुलको मारनेवाले खडा होना, हे रेणुकाके मारनेवारे ! उठ तीनों लोकोमं
भंगलकर ।। २५ ॥। हे राक्षसोके मारनेवाके ! खड़ा होजा, है अयोध्याको स्वगं देनेवाके समुद्रका पुल बांधने- `
वाले तीनों लोकों मंगलकर ।। २६ ।। हे कंसके मारनेवाले ! उठ बैट, हे मदके घूमते हुए नेत्रोबाे हर्धर !
उठ तीनों लोकोमें मंगल्कर ।। २७ ।1 लौकिकवृत्तियोको छोड गयां वास करनेवाठे । खडा होजा, हे पद्या-
सनपर चलनेवाले ! उठ तीनों लोकोमे मंगरकर ।। २८ ।! युगान्तरमें घोडेपर चठकर स्लेच्छोके तीनों
ल््ौकोका मंगलकर ।। २९ ।\ हे गोविन्द ! उठ उठ, हे गरुडध्वज ! उठ, हे कमलके प्यारे ! उठ तीनोंलोकोमे
` मंगलकर ।। ३० ।} इस प्रकार कहकर प्रातःकाल शंख भेरी आदि बजावे वीणा वेणु ओर मृदद्धादिकि बजा
त्य गीत करावे ।। ३१ ।। देवेशाको उठाकर उनकी पूजा करनी चाहिये । सायंकाले समय तुलसीके विवाहकी ` 0
विधि करनी चाहिये ।\ ३२ ।। वैष्णवोंको चाहिये कि, प्रतिवषं इस व्रतको अवद्य करे, मे उस विधिको | कहताह `
जिससे पूरी क्रिया हो जाय \! ३३ \1 एक पर सोनेकौ विष्णु भगवानकी अच्छी प्रतिमा बनानौ चाहिये, उसके |
आधेको सोनेकी प्रतिमा बनावे अथवा जेसी अपनी शक्ति हो वसौ बना ले ।। ३४ ।। पीछे उन दोनोंको प्राण- |
प्रतिष्ठा करनी चाहिये । इसके पीछे पहिले कहे हुए स्तवसे भगवान्का उत्थापन करना चाहिये । सोहं = `
उपचारो ओर परषसुक्तसे पूजन करना चाहिये । पौछे देशकालका स्मरण करके गणेशका पूजन करना तराहि. ` `
५ ३५।। ३६ ॥\ पुण्याह वाचन कराकर नान्दीशवाद्ध करये, वेद बाजोके दाब्दोसे विष्णुमूतिको मलीमति
जावे ।॥ ३७ ॥। वुलसीके समौपे कपडा डालकर स्थापित कर दे कि, “हे देव केशव ! आन सै तेरा पूनन `
| करूगा ॥ ३८ ॥। मं वहे तुलसी दुगा तु ससे इसके बदले मे मेरे सब कामोंकौ पुतिकर' तीन बार अष्यं दे गोर `
शरद्य विष्टर ३ ।॥ ३९ ॥। पीछे तौनवार आचमनीय कहकर आचमनोय दिलावे । इसके वाद दवि घृत ओर
मधुको कासेके पानम रलकर 11 ४० ।\ हे वासुदेव ! मूषकं ग्रहण करिये तेरे लिये नमस्कार है पीठे अपने `
लके जो आचार हों वे सब विष्णु भगवान्क प्सन्नताके लिये करने चाहिये ॥। ४१॥। हलदी चदाना आदिव `
विवि करक, गौषूलिके समय तुस ओर केदावका पुजन करना चाहिये ।। ४२ ।। इसके बाद दोनो अलग `
२ सम्मुख वेठावे, जव सं देव थोडही दी तव संकल्य करे ॥। ४३। अपने तीन पुरुष तया गोत्र ओर भरवरोको `
कहकर ` हे-आदि मध्य मौर अन्तसे रहित ! हे तीनों लोकोके पालन करनेवाले ईश्वर ! ।। ४४।। विवाहु-
विनिसे एुलसको ग्रहण कर, यह पाव॑तीके वीजसे उत्य् ईहे । यह् पहिले वृन्दाको भस्ममे स्थत थी ।। ४५।।
इतका आदि मध्य भोर अन्त यह छम नही है । देती तेरी बल्लभाको तुके देता हं । सने पानीके चड़ भैर `
भन तरहक वामति घरमे कल्याको तर् यह नाई है ॥ ४६ मे तरौ प्यारी तुललोको वु देता हे `
इस प्रकार तुलसी देकर पीछे उसका पुजन करना चाहिये ।। ४७ ।। कातिकक न्रतकौ सिदिके
५८ क्रलानि 1 ~. | हियीटीकासदित (११४)
: हौ जायगा, चातुर्मास्य वा कात्तिकमं जिन पदार्थोका निषेध कियागया हौ उन्हें ्राह्मणको देना चाहिये ।\ ५३ ॥
५४ ।\ जिसने इसके बाद ब्रतकालमं जिन २ पदार्थोका त्याग किया था उन २ सब पदार्थोको ग्रहृण करे अथदा
सपत्नीक आपको ब्राह्यणोके साथही खाना चाहिये \। ५५ \। भोजनके बाद स्वतः पडे तुलसीके पत्ते खाकर सब्र
पापोसे छट जाता है \। ५६ ।। भोजनके अन्नपर हरि अर्पित तुलसी द्लके भक्षणसे चान्द्रायणते ज्यादा पाप
छटते हं ।॥५७\। ईख, आंबले, या बेरको भोजनके अन्तमे खावे तो उसका उच्छिष्ट दोष नष्ट होता है ।\५८।१\
` इनं तीनों चीजोमेंसे जिसने एकभी न खाई हो तो बह मनुष्य एक वर्तकं उच्छिष्ट गिना जाता है, इसमें संञ्चय ` ध
` नहींहै।। ५९ ।) तथा दूसरे दिनभी ईखके दण्डोसे शोभित किए हुए भगवान्की ओर तुलसीको सायंकाल फिर
पूजा करे 1! ६० 1! भगवानृके दहेज आदिको देकर ““वेकुण्ठं गच्छ भगवान्" इस मन्त्रसे आरम्भ कर शच्छ |
जनार्दन"! तक पाठकहे । इसका अथं यह् है कि, हे प्रभो ! हे भगवन् ! तुलसौके साथ वेकुष्ठ पघारिये ॥\ ९११1
मेरे किए हृए पजनको प्रहण करके सदा सन्तुष्ट रहिये, हे परमेश्वर ! ह सुरश्रेष्ठ ! अपने स्थान पर पधारिये
॥ ६२ \। जहां ब्रह्मादिक देवता विराजते हे हे जनार्दन ! वहां पधारिये । इस प्रकार विसर्जन करके आचार्यैके `
लिएदेदे\। ६२३।।जो मृति तथा मूर्तिका उपकरण हो उसे देकर सनष्य कृतकृत्य हो जाताहै । जोप्रति वषं `
रसे ही वुलसीका विवाहं करता है, उसको इस लोक ओर पल्खोकमें विपुल यश्च प्राप्त होताहै \। ९४ ॥ यह `
` श्रीसनत्कुमार संहितामं आई हई कािकशुक्ला एकादशौके दिन भीष्मपंचकत्रत जोर तुलसीप्रबोधकी विधि `
पुरी हुई । |
एकादश्युत्पत्तिकथा
0१ अथ मा्ंश्षीषेकृष्णेकादशीव्रतम् ।। अजन उवाच ।।! ॐ नमो नाराथणा- `
याग्यक्तायात्मस्वरूपिणे ।! सुष्टिस्थित्यन्तकत्रे च केशवाय नमो्स्तुते। १। |
त्वमेव जगतां नाथअन्तर्यामी त्वमेव च ।। शास्त्राणां च कवीह्स्च वक्तात्वं च॒ `
जगत्पते ।! २ । एकादशी कथं स्वामिच्चुत्यन्ना इति गीयते । एतं हि संशयं
मेऽ च्छत्तुमहंसि त्वं प्रभो । ३ ।। ब्रूयुः स्निरधस्य शिष्यस्य गुरवो गुह्यमप्युत ॥।
ममोपरि कृपां कृत्वा इदानीं वक्तुमहंसि ।। ४ ।। मागे्ञीषं कृष्णपक्षे किनामैका- |
दशौ भवेत् ।। कि फलं को विधिस्तस्याः को देवस्तत्र पुज्यते । ५ ।। कृता केन
पातकनारिनीम् ।॥६। पष्टाच या त्वया रजाल्लोकानां हितकाम्यया!
मार्मलीषे कृष्णपक्षे चोत्पत्ति्नामि नामतः ।। ७ ।। तस्यामुपोषणेनेव धामिको `
: \\ धर्माद्ूबति सत्यं वे लक्ष्मीः सत्यानुसारिणी ।॥ ८ ॥ पुरावे
[ उत्पन्नं : म ` वल्लभाम् ।\ ये कुवन्ति नराः राजंस्तेषां सौख्यं भवे
ब्रतराजञ न -[ एकादली-~:
भयमीतास्ते गतः सवं महेश्वरम् ।। १४ ।। इन्द्रेण कथितं सवेमीहवरस्यापि चाग्रतः
।\ स्वगंलोकं परित्यज्य विचरन्ति महीतले ।। १५ ।! मत्यषु संस्थित देवा न `
भते महेश्वर ।। उपायं बूहि मे देव जसराणां तु का गतिः।। १६ ।। शिव उवाच।।
गच्छ गच्छ सुरश्ेष्ठ यत्रास्ति गरुडध्वजः ॥! श्रणागतदीनातपरित्राणपरायणः
। १७ ।। ईहवरस्थ वचः धुत्वा देवराजो महामतिः \। त्रिदज्ञेः सहितः सर्वेग॑तस्तत्र
धनञ्जय ।। १८ ।\ अप्स रोगणगन्धवेः।।सिद्धविद्याधरोरभैः यत्रैव स जगन्नाथः `
सुप्तोऽस्ति च जनरष्दन ।। १९ ।। कृताञ्जलिपुटो भूत्वा इदं स्तोत्रमुदीरयेत् ।॥ `
ॐ नमो देवदेवेश दवशनामपि वन्दित ।। २० ।। दत्यारे पुण्डरीकाक्ष त्राहिमां `
मधूसूदन ।} नमस्ते स्थिति क्रे च नमस्तेऽस्तु जगत्पते ।। २१।। नमो देत्यविना-
` शय त्राहि सां नधुसुदन ।। सुराः सवेसमायुक्ता भयभीतः समागताः 1! २२ ।। .
“ करणं त्वां जगन्नाथे त्राहि भां भयंविह्वलम् ।। चरहि मां देवदेवेश त्राहि मांत्वं
जनार्दन ।॥ २३।। त्राहि चां त्वं सुरानन्द दानवानां विनाशक ।\ स्वं गतिस्त्वं
मतिरदेव त्वं कर्ता त्वं परायणः । २४ ।॥। त्वं माता स्ववेगोऽसि त्वं त्वमेव `
हि जगत्पिता ।! अत्युग्रेन तु दैत्येन निजितास्त्रिदलाः प्रभोः ।।२५ ॥। स्वर्गम्
त्यक्त्वा जगन्नाथ विचरन्ति महीतले ।। इन्द्रस्य वचनं श्रुत्वा विष्णुवंचनमन्रवीत् `
। २६ ।। विष्णुरुवाच ।। कोदशो वा भवेच्छन्रुः किच्चामा कीदृक्णं बलम् ।। कि
स्थानं तस्य दुष्टस्य कि वीयं कः पराक्रमः ।। २७ ।। इन्द्र उवाच ।। बभूव पूर्वे
देवेशासुरो ब्रह्मसमु्धवः ।! ताखुजङ्घेतिनास्ता च अत्युग्रोऽतिमहाबलः ।। २८।। `
तस्य पुत्रोऽतिविश्यातो मुरनामाध्तिं दानवः \। उत्करटडइच महावीर्यो ब्रह्मलब्धवरो
महान् ।! २९ ।। पुरी चन्द्रावतीनःम स्थानं तत्र वसत्यसौ ।। निजिता देवताः
सर्वाः स्वर्गाच्चिव निराकृताः ।। ३० ।! इन्दरोऽन्यश्च कृतस्तेन अन्यो देवो हृता-
शनः ।। चन्रमूयी कृतौ चान्यो यभते वरूण एव च ।} ३१ । सर्वेमात्मीकृतं तेन `
॥,
सत्यं सत्यं जनादन ।। तस्य तद्वचनं श्रुत्वा कोपाविष्टो जगत्पतिः ।। ३२ ।।
३४ ॥। हन्यमानास्तु तेदेवा असुरेश्च पुनः पुन ॥\ चस्ता देवास्तत
शो दश ।\ ३५ ।। हरि निरीक्ष्य तत्रस्थं तिष्ठ तिष्ठातब्रवीद्रचः
4 ८ 4; 4 ४४ + ४
4 4 | 1 0 4
विह्वलः ।} ३९ ।। चक्रं मुक्तं तु कृष्णेन देत्यसेन्ये च पाण्डव ।। तेनैव च्छिद्यरि- |
रसो बहवो निधनं गताः ।। ४० ॥। एकाद्ध दानवे तत्र युध्यमाने मृहु्मृहू
नष्टाः सवं सुरास्तेन निजितो मधुसूदनः ।। ४१।। निर्जितेन च दे्येन बाहुयुद्धं
"ॐ ६५
च याचितम् । बाहुयुद्धं कृतं तेन दिव्यं वर्षसहस्रकम् ।\ ४२ ।। विष्णु पराजित `
स्तेन गतो बदरिकाश्रमम् ।! गृष्हां ।सहवतीं नाम तत्र सुप्तो अनादनः ।। ४३
दानवः पृष्ठतो लग्नाप्रविष्टस्तां गुहोत्तमाप्् \\ प्रसुप्तं तत्र मां दृष्ट्वा दानवेन
` तु भाषितम्।! ४४ ।। हनिष्यामि न सन्देहो दानवानां भयंकरम् ।। इत्येवमुक्तं ।
वचने देत्येनामित्रकषिणा । निगेता कन्यका चेका जनार्दनशरीरत
मनोज्ञातियुरूपाढया दिव्यप्रहरणायुधा 1! ४६।। विष्णुतेजः समुद्भूता महाबल- [हि
पराक्रमा ।। सर्पण मोहितस्तस्य दानवो मरनामकः | ।\ साक्न्याययधे
तेन सर्वेय॒द्धविशारदा \! निहतो दानवस्तत्र तया देवः प्रबदढ़वान् \। ४८ ।! पतितं `
दानवं दष्ट्वा ततो विस्मयमागतः ।। केनेत्थं निहतो रौद्रौ मम शत्रुभयंकरः `
॥४९॥नदेवोन च गन्धर्वो न समौऽस्यास्ति भूतले ।! अकस्मादेव सोवाच
वाचा दिव्यज्ञरीरिणा ।\ ५० ।। एकाददयुवाच ।! मया च निहतते दृष्टो देवानां
च भयंकरः ।। जिता येन सुराः सवे स्वर्गाच्चेव निर।कृताः ।\ ५१ ।। तस्यास्त-
द्रचनं श्रुत्वा विष्णुर्वचनमन्रवीत् ।। विष्णुरुवाच ।! उपकारः कृतो भद्रे मम् कारण्य- `
भावतः ।। ५२ ।॥ दानवो निहतो दष्टः सुराणां च भयंकरः ॥ सोऽहं विनिनितो ` ,
येन कसो येन निपातितः ।। ५३ ।\ विष्णोस्तद्रचन श्रुत्वा देवौ वचनमब्रवीत् छि
` एकाददयस्म्यहं विष्णो सवंरत्रु विनारिनी ।। ५४ ।। भया च निहतो दत्यःसुराणां
त्रासकारकः ।। इत्येतष्टचनं शरुत्वा देवदेवो जनार्दनः !। ५५ ॥। प्राह तुष्टोऽस्मि
भद्रतं वरं वरय वाञ्छितम् ।! निहते दानवेन्द्रं च सन्तुष्टास्तत्र देवताः । ५६ ॥
लोकेषु मनयो म॒दमागताः ।। ददामि च न सदेहः सुराणामपि दुलभम्
` ॥ ५७ \) एकादषश्युवाच ।! यदि तुष्टोऽसि मे देव सत्यमुक्तं जनार्दन ।। यदि देयो `
वरस्तिस्रो वाचो ददस्व मे।। ५८ ।। श्रीभगवानवाच ।। सत्यमेतन्मया प्रोक्त `
मवश्यं तव सुव्रते ।। तिलो वाचो मया उत्तास्तव वाक्यं भवेदिति ।। ५९ ॥ एका- `
दयुवाच।। त्रैलोक्येषु च देवेशा मन्वन्तरयुगेष्वपि ।\ अहं च त्वत्प्रिया नित्यं यथा
५०८)... 5 व्रतराजंः- व एकाव्रकौ
।। ६३ ।! मम भक्ताश्चये लोका ये च भवतास्तवापि च । चतुयुगेषु विस्याताः `
प्राप्स्यन्ति मम संनिधिम् ।! ६४ ।। सवतिथ्युत्तमा त्वं च सचस््रसादाद्धविष्यसि ।॥
एवम्क्ता ततः सा तु तत्रैवान्तरधीयत ।। ६५ ।। भरीकृष्ण उवाच ।। अथान्य- |
त्संप्रवक्ष्यामि पुरावृत्तं कथानकम् ।। पुरा कौकटदेशे वं क्णोंकनगरेशुभे ।। ६६ |
क्णसेनेति राजिर््थवसदद्धिमस्प्रनः । बाह्यणेः क्षत्रियेवेशषयैः शुदेश्चेवानुमोदितः `
६७ ।। न दुभिक्षं न दारिद्रयं तस्मिन्नाज्ञि स्थितेऽजुन ।॥ नाकालवृष्टिनं व्याधि-
नैव तश्करतापि च । ६८ ।। सम्पत्सन्ततिहीनक्च कोऽपि तत्र न विद्यते ।॥ `
पत्रढुःख पिता क्वापि न पह्यति च कुत्रचित् ।\ ६९! एतादृशे महाराज प्रशास- `
ति प्रजाः प्रभो ।। धनहीनो द्विजः कोपि क्षुल्क्षामो विपदं गतः ।। ७० ।। कृट्म्ब-
भरणारक्त आसीत्तदनर्बतिनी ।। भत्तुः शुश्रूषणे सक्ता सदाचारा गहे स्थिता
| ७१ ।\ सुदामानाम विध्रिभार्या साध्वी च सत्तमा । रहोऽवदच्च भर्तारं
म्ठायता वदनेन सा ।। ७२ ।। स्वामिन्पापकृते पुवं धमहीनस्तु जायते ।। धमंहीने `
धनं नास्ति धनहीने क्रिया न हि ।। ७२ ।। तस्मात्केनाप्युपायेन घमेस्य जननं
कुर । एतस्मिन्नन्तरे राजन्दर्बाधः समुपागतः ।। ७४ ।} उत्थाय दम्पती
न
अद्य नौ सफलं जन्म अद्य नौ सफलाः क्रियाः ।। जद्य नौ सफलं सवं भवतो दशनेन
| | ` च ।। ७६ ।। अस्मिन्पुरे तु ये स्वामिन् सवं ते सुखिनो जनाः ।। आवां तु घनही- `
नत्वान्महादुःखेन पीडितौ ।॥।७७।। कथयस्व प्रसादेन धनाढचौ स्याव वे कथम्।। `
धनहीनस्य लोकंऽस्मिन्वुथा जन्मोमनोरथां ।\ ७८ ।।! एवं श्ुत्वातु राजेन |
वचनं नारदोऽब्रवीत् ।\ नारदं उवाच ।\ सागशौषसिते पक्षे उत्पत्तिर्नामि ॥
॥३॥\ गुर लोग अपने शिष्यको गुप्त रहस्य भी प्रकट करते हे इसलिये अषप मुश्षपर कृपाकर इसको इससमय
कहें \। ४ ।। मार्गशीषं महीनेकी कृष्णपक्षकी एकादक्शीका व्यानाम है ? उसका फल ओौरविधि क्याहै?
उसमें किस देवकी पजाकी जाती है ।1 ५ ।। तथा उसे पहर किसने किया है ? यह विस्तारसे कहिये । श्रीकृष्ण
| बोखे कि, है राजन् { उस कथाकोौ जिसको तुमने ल्ेगोके हितकी दष्टसे पुछा है भौर जो पापोंको दूर करने- ।
बालाहैसुनों। मार्गशीषे कृष्णपक्नमे उसका नाम उत्पत्ति है ।। ६।।७।। जो मनुष्य उस दिन उपवास करता दहै `
` लिए उत्पन्ना नामक मेरौ प्रियाका जो लोग ब्रत करते हँ उनको निश्चयही सुख प्राप्त हता है ।॥। ९ ॥ इस
भ्रकार पापनष्ट होते हे कि, वे फिर यमराजके घर नहीं जाते अर्जुन बोले कि, महाराज ! उसका नाम उत्पन्ना ह
कैसे हु ? वह क्यो अधिक देवताओंकी प्यारी पवित्र वा पुष्यमें अधिक मानोजतती है? ।। १० । श्रीकृष्णजी |
बोले किह अर्जुन! पहले सत्युगमं एक मुरनामक दानव हुभा था।११।वह बडा प्रचण्ड लोगोको भय पहुचानेवाल `
ध ( वसु, ब्रह्मा, वायु, अग्नि आदि देवताओंको जीत लिया । इस प्रकार स्वरगसे फटकारे हुए ये देव उरके मारे ` 1
. पथ्वीपर घूमने गे । वं सब हका सौर भयसे युक्त होकर महादेवजीके पास गये ।। १२-१४।। इन्द्रने ईदवरके = `
आगे यह सब हाल बतलखाया-किस प्रकार हम लोग स्वर्गको छोडकर पृथ्वीम घूमते हँ ।। १५ ।। महाराज !
व्रतानि] । हिन्दीटीकासहित
(८ ।ओ 9 एवंविधा सथा प्रोक्ता पक्चयोरुभयो
॥ ८९ ।। एकादश्या भ्रव
कुर्वीत उपवासं न संशयः \। स याति परमं स्थानं यत्रास्ते
. गरुडध्वजः ।। ९० । धन्यास्ते मानवा सोके विष्णुभक्तिपरायणाः ।! एका-
छ्याश्च माहात्म्य पवकाक तु यः पठत् ।\ ९१ ।! गोसहस्रसमं तस्य पुण्यं भवति
भारत ।\ द्वा वा यदिवा राच्नौ घः श्युणोतीह् भक्तितः ।। ९२ \\ कुलकोटि-
समायुक्तो विष्णुलोके वसेद्ध्रुवम् ।। एकादस्याह्च माहात्म्यं पठ्यमानं श्वुणोति `
यः । ९३ ॥\ ब्रह्महत्यादिपापानि नह्यन्ते नात्र संशयः ।। एकाद्श्ीसमा नास्ति
सवेपातकनाश्िनी ।। ९४ ।\ इति श्रीभविष्योत्तरपुराणे सागलीषकृष्णेकादद्यु-
त्पत्तिमाहात्स्यं सपरणम् ।\ ` 1 =
1 मार्गशीषंकी कृष्णा एकादशीका ब्रत-अर्जुन बोले, है-भगदन् ! आपको नमस्कार है, आप सृष्टि `
स्थिति ओर संहारको करनेवारे तथा अव्यक्त आत्मस्वरूप ओर नारायण हँ । इसलिए है केशवं ! आपको
| । नमस्कार है ।। १ । है जगत्के नाथ ! अन्तर्यामी शास्त्रों ओर कवियोके ईश हो । वक्ता ओर जगत्पति हो,
इसलिए ।\ २। हि प्रभौ ! है स्वामिन् ! एकादशी किसप्रकार उत्पश्च हुई ! इस संदेहको आप दर कौजिए
चह धामिक होता है ओर घर्मसे सत्य तथा स्यसे लक्ष्म होती है ।\८। पहले मुरनामक दै्को नाका करनेके
महाबली दानवने सबसे पहिरेके इन्द्रको उखाडकर फंक दिया, एवं हे पाण्डव ! उस्न उग्रने इनं आदित्य, `
भ पृथ्वीम देवतागण मस्थेलोक होनेके कारण शोभा नहीं पाते इसलिए इसका को यस्ता बताइये कि, देवताओंकी १. | .
कयां व्यवस्था हो \) १६ ।\ शिवजौ बोले हे इनदर ! तुमं गरुडध्वज भगवान्के शरणमे जाओ } क्योकि, वौ |
ध. बतरज [ एकादकश्षी-
मेरी रक्षा करे, तुमह मेरौ गति ओर मति हौ ओर आपह कर्ताहृ्त जर परायण हौ ।\ २४ ।\ आपहीमाता =.
ओर पिता हो । आपही जगत्के पिदा हो, है प्रमो ! हम सब उत बली दानवसेहार चुके हं । २५॥ स्वगं
छोडकर पृथ्वीम घूम रहे ह ! इस प्रक्र इन्द्रके वचन सुनष्ठर विष्णुभगवान् बोर ।\ २६ । कि, आपकारत्र
कसा है ? उसका केसा बल ओर क्या नाम है तथा उस दुष्टका कौनसा स्थान है । वीय्यं ओर पराक्रम उसमे
कैसा है? इन्द्र बोले कि, हे देवेश ! पुवं समयसे अत्यन्त अपक सत्व तालजंघ नामका अतिही उग्र ओर महा- =
बलग्राटी असुर ब्रह्मसे उत्पन्न हुभा ¦ उसकः पुत्र मुरनामका दनव है जो ब्रह्मासे वर पानके कारणवब्डा
उत्कट बलवान् होगया है ।। २७-२९ ।। पहले यह चन््रदती नामके स्थानम रहता भा जहासि सब देवताओंको = `
जीतकर स्वगसे भी निकाल दिदा ।\ ३० ।। जिसने इन्द्रभी दूरय बना छिया जर अग्नि, चन्द्रःसुयं, यम,
वरण आदिक्ो भी सरे बनाकर ।। ३१ ॥ सबको अयने अधीन कर लिया । महाराज यह बिल्कुल सत्यहै। _
उसके इन वचनोको सुनकर जगन्नाथ भगवान् कुवित होगये ।! ३२ ।\ ओर कहा करि, मं उस दुष्टको मारूगा ।
भगवान् चन्द्रवती परीमं देवताओंको साथ ठेकर गये ।\३३।। वहां वह् अभिमानी दानव सब देवोको देखकर `
अपने असंख्य शास्त्र अस्त्रोसे तथा दिव्य आयुधो ।\३४।। देवको मारने लगा \ असुरोकी बारवारकौ मारते
सब देव उरके मारे दिकाओंमें भागने समे \\ ३५1) उसने भगवान्को वहां बेठा देख “ठहर ठहर का वचन
कहा । भगवानुत देवकर कहा ।। ३६।। कि, हे इष्ट ! असुर ! मेरौ बाह देख, यदित जोना चाहताहैतो ¦
१ पहल मरे चक्रक शरण जा \\ ३७ \! इस प्रकार भगवानूके वचनको सुनकर वह् कोधी असुर अपने दनो 4
` कै साथ सब आयुधोको खेकर लडनेको आणा \\ ३८ ।\ मगवान्नने सम्नृखागत समस्त दनवोकोमारद्थिा
फिर बहुतसे दिव्य बाण उस दैत्यके मारे जिनसे बो अत्यन्त विह्वल हौगयः ।। ३९ \\ भगवानृने दैत्यसेनके |
अन्दर अपना चक्र छोड दिया जिससे श्षिर कट कट कर बहूतसे दैत्य म॒त्युको प्राप्त होगये ।।४०।। इसप्रकार ` |
जब सारे असुर नष्ट होगये, तब वो अकेलाही लडने कगा उसने बार बार लडकर भगवान्को जीत च्य = |
` \४१।। हारेषर उस दैत्ये भगवानूने बाहू युद्ध करनेकौ याचना की । कुश्ती डते ल्डते उसनेहजार षं |
| बिता दिये ।\४२।। भगवान् उससे पराजित होकर बदरिकाश्रम चके गये । वहां सिहुबती नमक गुहाम जा
` | करसो रहे ।\ ४३।। पीछे लया हुजा बहू दनव बहा भी जा पहुंचा । मुने सोता हुमा देल कर कहने लगा
कि, ।\ ४४ ॥) मेँ दैत्योके मय देनेवाखे तुन्ले मांगा इसमें कोई सन्देह न कर । इस प्रकार उस अभित्रको `
`. खीचनेवाले देत्यके एसा कहनेषर भगवान्के शरीरस एक कन्या उत्प हई जो अत्यन्त सुन्दर भौर दिव्य
` .. आयुधोसि युक्त थी ।। ४५. ।। ४६ \। विष्णुके तेजसे उत्पन्न होनेवाली उस महा बलवती कन्याके रूपसे बहु `
दानव मोहित हो गथा 1। ४७ ॥। युद्धविघाङ्कशल उस कन्याने उस दैत्ये युद्ध करके उषे मार दिया । मौर
| उससे विष्णु भगवान्की निद्रा भद्ध हुई \\ ४८ 11 भगवान को उल देत्यकौ मृत्युस बडा आर्चयं हुमा ओर `
बोले किमेरे इस भयंकर शत्रुको किसने मारा है? \। ४९1) इस भूतल्पर मेरे समान न कोईदेवहैजौरन
। कोई गन्धव है इतना कहते ही दिव्य शरीर धारिणी उस कन्याने कहा ।\५०\॥वौ कन्याल्पा एकादज्ञीही यी
, कि, उस् दुष्ट राक्षसको जिसने सब देवताओंकोस्वगसे निकाल कर भगा दिया है मौर जो देवताओको भय
वाला है मेने मारा है \। ५१ ।। उसके इस वचनको सुन विष्णुने कहा कि, है भद्रे ! तुमने सृन्षपर कृषा `
१ शु ध = प
ष (9 71011
धमित साति अः जाके प
5 रहं ॥ ६० ।1 दूसरा, बर यह है कि सब विष्नोको ओर पाकपे
५ ६ १
नाद स्नेदष्ली मे सथ तिथिथोमे प्रधान `
, तिथि एवं जायु ओर बलके बढानेवाली रहं ।\ ६१ ॥ तीसरा वर् यह् है (कि, है जनादन ! जो सतोम मेर ब्रत
` को बडी भक्तिपुरवेक करे ओर उपवासं करं तो उनकौ सब प्रकारकी विलि हों जो अप मृश्चपर प्रस्त
। ॥१६२॥ शरी्टृष्ण बोले कि, हे कल्याणि ¦ जो तुम कहती हौ वह् स सत्य होगा । मौ तेरे ओौर मेरे भप्त धर्मां
काम मोक्षके वास्ते उपवास करेगे बे चारो युगो प्रसिद्ध हो निकट पहं 11.६३.1१ ६४ ॥ मौर .
हुम मेरी प्रसन्नतासे सब तिधियोमे उत्तम रहोगी ठेस सुनकर वह् वही अन्तध्यान होस 1 ६५ ॥ श्री्ष्ण `
बोले कि, अब में मौर पुराना एक इतिहास सुनाता ह कि -कौकुख देके लम कर्णाद नगरमे 11 ६६ ।। कणं
`. सेन नामका राजषि था । जिसके राज्यमे सारी प्रजा प्रसन्न रहती घः । वराहा क्चन्निम देशय ओर शद सत उसका =`
अनुमोदन करते थे \\ ६७ \। हे अजुन ! उस राजे राज्यमे सभिक्ष, दरिद्रतः, अक्रालवष्टि, बीमारी ओर
चोरी कभी न हुई ।। ६८ \। उसके राज्य मं कहीं नी कोई गरो ओर् सन्तानष्टीर सनेष्य तथा कोई भीमं
श बाप अपन पुत्रका दुःलन उल््ता था ।। ६९ ।\। एसे सुयोग्य रा जक्ते दमयमेभी एष पेम ब्रह्मण भाजो अति |
` गरीब ओर भूखसे दुबला हो रहा था ।\ ७० ।) कुटुम्बका पालने फरनेमे अश्टक्त था । उसकी स्त्री बडी सदा
चारिणी तथा पतिसेवा परायण धी ।१७१।। उस सुदामा नाम ब्रहि दती स्थीने एफदिन अपने पतिते _
उवास होकर एकान्तम कहा \\ ७२ ।। कि › महाराज ! पहले पाय करने से मनष्यः हीन होतः हे । धर्महीन
होने षर घन नहीं होता तथा किसी प्रकारकी क्रिया भी नहीं हो्तौ ।\ ७३ । इतति भटाराज ! आष किसी
उपायसे घम उत्पन्न होने का प्रयत्न कीजिये । इसौ वीच है राजन् ! देवंवि भी वहं ज पे ।। ७४ ।। न
` दोनों स्त्री पुरुषोने उठकर मुनिका सत्कार किया भौर आसनपर् विठाकर प्रार्थना ह्ली कि हे प्रभो ! हमारे
दिये हृषु अर््यको स्वीकार कीजिये यह आपको हमारा नमस्कार ह \। ७५ \) आज हमारा जन्म सकलहै\ =
आज हमारी क्रिया सफल ह ओर आपके द्ेनसे हमारा सब क सफल है ।। ७६ महाराज ! इस नगरमे `
सब मनुष्य सुखी हं परन्तु हम दोनों बडे गरीब ओर दुःली हं ।। ७७ ।\ इसलिये आध प्रसन्न होकर कहि =
कि, हम किस प्रकार धनी हौं । क्योकि घनहीन भनुष्यका जन्म र मनोरथ सब व्थरथं हे । 1७८ ।। है राजेनद्र! =
इस प्रकार सुनकर नारदजी बोर करि, भागशीषके शुकल्यक्षमे उत्पत्ति सामकी एकादक्षी है ॥। ७९। उस
दिन उपवास करनेसे मनुष्य निश्चयही धनी होता है ! जोर उसके सथ प्रकारे पाप नष्ट हते हैँ । यह
मेँ तुम दोनों से सत्य कहता हूं ।\ ८० यह् हरिवासर मनुष्योको सच युखोका देनेवाला है, नारदजीके चले `
जानेपर उन्होने इस व्रतको बडे यत्नसे किया \\८ १।।उस् त्रत के प्रभावसे भगवान प्रसन्न हो गये ओर लक्ष्मी
. स्वयं उस ह्ण 1 ण के घर आकर विजराजमान हौ गई \\ ८२ ॥ वह् सब प्रकार के महान् भोगोको भोगकर `
: वेकुण्ठमं । गया ! इसलिये है राजन् ।! हरिवासर को अमेय उपवास करना चाहिये ।। ८३ ।। उत्तम 2 |
व्रत त कवा कभी इस ब्रतको करनेमे अन्तर न करे 1 हे पाथं ! दोनों पक्षो यह सब एकी तिथि है ।\ `
` टौ उदयकालमे एकादशी जौर अन्त मं कुछ त्रयोदशी हौ मध्यमे पणं दादी हो तो वहु मगवान्की ५
प्यारी ननिस्पश्षा नामक एकादशी होती है ।\! ८५।\ इसके पिनि उपवास करनेसे हजार एकादश्ीका फल
प्राप्त होता है ओर एेसौ एकादक्षीके दिन किया हेज दान सहल गुणित होता है ।\ ८६ ।। अष्टमी, एका `
द्री, षष्टी.तृतीया ओर चतुदश पुवंतिथिसे विद्ध हो तो न करनी चाहिये ओर आगेवालो निथियोसे युक्त
हो तो करनी चाहिये।\८७।।द्छामीके वेधसे युक्त एकादशी पूरकृत पुष्यको नष्ट करती है।जिस दिन र
क घड़ी प्रभातके समयमे हो तो \ ८८ ।\ उस तिथिका परित्याग करना चाहिये ।
दोनी ^ एकादीके लिमे कहे दिया है !\ ८९
शीके समान समस्त पापनाशिनी ओर दूसरी कोई तिथि नहीं है । । ९४ ।। यह् श्री भविष्योत्तरपुराणका
ंदीषं कृष्णा एकादसशीकी उत्पत्तिका माहात्म्य सस्पूणं हज \। 1 क
अथ वतरणीब्रतम्
मार्गश्षीरषकृष्णेकादष्यां देतरणीन्रतं हेमाद्रौ भविष्ये-कृष्ण उवाच ।। शरत-
पगतं भीष्मं पर्यपच्छद्यधिष्ठिरः ॥! व्रतेन येन पुण्येन यमलोको न दुश्यते ॥। १। `
¶री वा पुरषो वापि शोकं चव न विन्दति \\ तत्समाचक्ष्व धमज्ञ पितामह कृपां
ह र।। २।।भीष्म उवाच ।\ एकादस्ली वेतरणी तां कृत्वा च सुखौ भवेत्| यमलोकं
१ पदयेच्च शोकं चेव न विन्दति !! ३ ।\ युधिष्ठिर उवाच ।\ केन तात विधानेन `
कृतव्या सा महाफला ।। पिततमह समाख्याहि तदिधानं मम प्रभो ।1 ४ ।। भीष्म
उवाच ।\ एकादकश्षी तिथिः कृष्णा मागेक्ञौषगता नृप ।। तामासाद्य नरः सस्य-
गह्छीयाचियमं शुचिः ।\ ५।। एकादशीतिथिः कृष्णा नाम्ना वेतरणी शुभा ॥
सा व्रतेन त्वया कार्या वषं नक्तोपवासिना ॥ ६ ।।! मध्याह्ल तु नरः स्नात्वा `
नित्यनिर्वतितक्रियः ।। रात्रौ सुरभिमानीय कष्णाम्चेचथाविधि ।। ७ ॥ सा
मुखी कार्या कृष्णा गौः किल भूतले, ।। अग्रपादात्समाष्रभ्य पश्चात्पादद्र- .
।\ गोपुच्छं तु समासाद्य कुर्यां पितृतपेणम् ।! ततः पुजा प्रकतेव्या
विधानतः ।\ ९ ।। गां चैव श्रद्धया युक्तश्चन्दनेनानुरेपयेत् ।। गन्ध- `
चरणौ शङ्के प्रक्षाल्य शवितितः \\ १० \। ततोऽनु पुजयेद्धक्त्या पुष्पर्गधा- `
सितैः \। मन्त्रैः पुराणसंप्रोक्तेयथास्थानं यथाविधि ।। ११ ॥ तत्र पुजा- `
मन्त्राः -गोरग्रपादाभ्यां नमः । गोरा स्याय० ॥ गोः श्यृद्खाभ्यां० ॥ गोः
स्कन्धाभ्यां० ! गोः पञ्चात्पादाभ्यां० ॥! गोः सर्बाद्धेभ्यो नमः ॥ स्थानेष्वे-
तेषु गन्धांश्च प्रक्षिपेच्छुद्धमानसः ।। पर्चास्प्रदापयेदूषं गोधूपः प्रतिगृह्यताम् `
१२।। असिपत्रादिकं घोरं नदीं वेतरणीं तथा ।, प्रसादात्ते तरिष्यामि गौर्मातस्ते
1१ मावणादिषु मासेषु चतुष्वेद्याच्च पायसम् ।! तदन्नस्य त्रयो ५.
गोगुरुस्वाथमेव च ।। १८ ।। नैवेद्यं हि सया दत्तं सुरभे प्रतिगृह्यताम् ॥। द्वितीयं १.
गरवे दयात्ततीयं स्वयमेव च ।। १९ ।। मासि : परकर्वीत मासद्ादश्चकः बतम।।
१ गौरिम्तेति कचित् पा । दितः पू्येस्यपि
मदी तीयते नरेणेत्ि सेषः अस्मादियं नाम्ना वैतरणी
क्क ५4 & 8 01 ८८
, "द् 1१1 दप व 1
` उद्यापनं ततः क्त्ये संवत्सरे तदा ॥। २० ।। दाय्या सतूलिका कार्या दम्पत्योः `
परिधानकम् ।। सवत्सा कृष्णवर्णा तु धेनुः कार्या पयस्विनौ ।! २१ ।। सौवणी
सुरभि कृत्वा स्थापयेत्तूलिकोपरि ।। सुरभि पूजयेन्मन्त्र पर्वोकतिभक्तिसंयुतः
॥॥ २२ ।। ततस्तां गुरवे दद्यात्सव तत्र क्षमापयेत् ।। भारो लोहस्य दातव्यः `
कायसिद्रोणसंयुतः ।\ २३ । वेतरिण्यां समाप्त्यर्थं॒ब्राह्मणाय कुटुम्बिने ।। नारी
. वा पुरुषो वापि त्रतस्यास्य प्रभावतः ।। राज्यं बहुदिनं भक्त्वा स्वर्गलोके महीयते `
॥ २४ ।। इति श्रीभविष्योत्तरपुराणे मागेशषेकृष्णेकाददयां वैत.रणीव्रतं सम्पुणेम् `
अथ वैतरणीव्रत -यह सा्भशीषं कृष्ण एकादशीके दिन होता है ठेस हेमाद्रिमे भविष्यमेलिखा है! `
कृष्ण बोले किं, युधिष्ठिर महाराजन शरश्स्यापर सोते हूए भीष्पजीसे पुद्छा कि, किस पवित्रव्रतको करने | र
सनुष्य यमलोकका दोन नहीं करता ।। १।। स्त्ये ओर पुरुषोको जिसके करनेसे कभी शोकन हो उस ब्रतको
हे धर्मज्ञ ! भीष्म ! कृपा करके बताइये ।। २ ।। भीष्मजी बो फि, वेतरणी एकादशीको करने से मनुष्य `
चुखी होता है शोक को नहीं प्राप्त होता ओर यमलोकको नहीं देवता है 11 ३ 11 युधिष्ठिर बो कि, है पितामह!
उस महाफला एकाद्ीको किस विधानसे करं कृपा कर मुञ्चे उपदेह दीजिये ।\ ४ ॥! भीष्मौ बोले कि,
मार्गंहीषं महीनेको ङृष्णपक्षकी एकादशीके दिन पवित्र होकर हे राजन् ! नियम करे 1! ५ ॥ उत्त शुभ
एकादशीको जिसका नाम वैतरणी है वर्षभर पूवदिनसे हौ रातमें उपवास करके विधिपूवेक करे ॥ ६1 ्
भध्याल्लमे समस्त क्रियाओं से निवृत्त होकर स्नान करे । रातमें काली गौको जाकर यथाविधि उसको |
पजा कंरे।।७।\ उस काली गौको निह्वयही भूमिपर पूर्वाभिमुखं खडीकर अगेकेपेरोसे प्रारंभ करके पीरेके ` ।
पसो कोभी पूना करे । इस शलोकके "किल भूतले" इस अन्तिम दुकडे के “किल जिसका कि, निरचयही देखा
हौ जाता है कि, सबसे पिके आगाडीके पेरोको पूजे पीठे पीके पूजने चाहिये ।। ८ ॥ पितसेका का 8
परिस्फुट तपण गौकी पं पकडकर करे । फिर शास्त्र विहितं विधिसे पूजन करे ।। ९ ।! ्रद्धापुवेक स 4
गायको चम्दनसे अलङत करे ! चरणो ओर सोक सुगन्धित पानीसे प्क्षालित करे । १० गन्धाधि-
५ ` चासित पुष्पोसे पुराणोक्त मन्त्रके हारा यथाविधि स्नान कराकर भक्तिपुवंक पुजा करे 1 ११ \! पूजाके ^...
, मन्त्र-मोरग्रपादाम्यां नमः गऊके आगाडीके पेरोकौ नमस्कार। गोरास्याय नमः गऊके मुखके लिये
है, गजके सगोके लिये नमस्कार, गऊके स्वन्धोके लिये नमस्कार, गऊकी पूछे लिये नमस्कार, गङके पीके
` लिये नमस्कार, गऊके सर्वागके लिये नमस्कार ! इन कहे हए अंगोमे इन मन्तरोसे शुद्ध मन के साय गन्ध ` |
(0 ` एत्न चाहिये, पीछे गरूको धूप देना चाहिये कि हे गो धूपको ग्रहुणकर ।। १२ 1 है मातः! आपकौ
सन्नतासे असिपत्रादि घोरनरकोकं न रकोको तथा वैतरणी नदीको पार करूगा इसलिये हे गो मातः। ! दुम्हं मेरी `
जिससे वंतरणौ नदीको सुलसे निश्चय ही तेर सकता है इसल्विि इस एकाद््ीका
कृत्स्ेलोके ` इस मंत्र से दीपक करे कितु सब लोको में जानन्द
। १७ \} श्रावणसे क्दिकितक खीरका भोजन करे । ओर उस अद्यके तीनभाग करे अर्थात् एक गेयाका
सरा ग्रुका, तीसरा अपना ।! १८ 11 हे सुरभे ! मं नवे देता ह ्रहणकर, इससे गौको दे \ इसी प्रकारं
सरा गृरको ओर तीसरा भाग स्वयं ग्रहण करे । । १९ ।। इस १२ महीनेके ब्रतको प्रत्येक महीने मे करे! `
षं समाप्त हो जाने पर उद्यान करे ।\ २० ॥ श्ञय्या ओर स्त्रौपुरुषके वस्त्र, बच्चेसहित कालेवणंको दूध
नेवाली गौ अपने गृरुको प्रदान करे । स्वच्छ बिदछोनेपर युवणमयी गौकी प्रतिमा स्थापित कर पूर्वोक्त
[राणोके मन्तरोसे भकव्तिपुरवक पूजन करे ।\ २१।। २२।\ ओर गौमाताको देकर अपने संब अपराधोकी क्षमा
रावे एवं साथही इसके एक भार लोहा भी एक द्रोण कपासके साथ ।} २२ ।। किसी कुटुम्बी ब्राह्मणकोदे\ ॥
तरणी तदीकी यात्रा समाप्तं करनेके उहेश्यसे स्त्री या पुरुष हो इस व्रत के प्रभावसे अनेक दिन पृथ्वीमं राज्य
भोगकर अन्तमं स्वगलोकको प्राप्त होता है । \ २४ \\ यह् वंतरणी त्रत संपूणं हज \\
। सूत उष्वाच ।। एवं प्रीत्या पुरा विप्राः श्रीकृष्णेन परं व्रतम् ।। माहात्म्यविधि- `
संय॒क्तमपदिष्टं विरशेषतः ।। १ ।। उत्पत्ति यः श्पुणोत्येवमेकादश्यां हिजोत्तम ॥ `
भुक्त्वा भोगाननेकांस्तु विष्णुलोकं प्रयाति सः ।! २ ।। पाथं उवाच ।। उपवासस्य `
नक्तस्य एकभक्तस्य च प्रभो ।। कि पुण्यं कि विधानं हि ब्रूहि सवं जनार्दन `
।। ३ ।\ भ्रीकृष्ण उवाच ।। हेमन्ते चव सम्प्राप्तं मासि मागंशिरे शुभे ।! शुक्लयन्ले `
तथा पराच एकादश्या
म् 1 ततः प्रभातसमये सडकल्पं निय
तो गं गो नेवेद्यादिभिरादरात् विभिर रादरात् ।\ दीपं दप दद्याद्गृहे चेव ` 4
१३11 तदिने व्जयेत्पाथं निद्रां मैथुनमेव च ।। गीतशास्त्र- | `
१ इदमन्यव कथा त्रताके मात्स्य स्वेनोक्ता
एकाददयामुपोषयेत् ।! ४ । नक्तं दशम्यां कुर्यात्तु दन्तधावनपूर्वकम् ।।
ष्टमे भागे मन्दीभूते दिवाकरे \\ ५. .।॥। तत्र नक्तं विजानीधान्न नक्तं
नियतश्चरेत् ।। ६ ।। मध्याह्न `
पाथं शुचिः स्नातः समाहितः ।। नद्यां तडागे वाप्यां वा ह्य त्तमं मध्यमं
बधः ।\ ७ ।! क्रमाञ्जञेयं तथा कूपे तदभावे प्रहास्यत ।। अश्वक्रान्ते रथक्रान्ते | `
र विष्णुक्रान्ते वसुन्धरे । ८ \। मृत्तिके हर मे पापं यन्मया पुवंसंचितम् \1 त्वया हतेन
पापेन ४४ न गच्छामि परमां गतिम् ।। ९।। अनेन मृत्तिकास्नानं विदध्यातु बरती
क
दानस्य लक्षमेकं फल स्मृतम् ।। १८ ।! संक्रान्तिषु चतुल्षं दानस्य च धनञ्जय \।
कु रक्षत्रे च यत्पुण्यं ग्रहणे चन्द्रसरयंयोः ।। १९ ।। तत्सवं लभते यस्तु ह्येकाददयामु-
पोषितः \\ अश्वमेधस्य यज्ञस्य करणाद्यत्फलं लभेत् ।\! २० \ ततः हतगुणं
पुण्यमंकादयुपवासतः ।। तपस्विनो गृहं नित्यं लक्षं यस्य च भुञ्जते ।\ २१।
षष्टिवषंहस्राणि तस्य पुण्यं च यद्धुबेत् ॥ एकादश्युपवासेन फलं प्राप्नोति
मानवः ।। २२।\ गोसहस्रे च यत्पुण्यं दत्ते वेदाद्धपारणे । तस्मात्पुण्यं दहगुण- `
मेकादहयुपवासिनाम् \\ २३ । नित्यं च भुञ्जते यस्य गृहे दश्च द्विजोत्तमाः ।।
यत्युण्यं तदृशगुणं भोजने ब्रह्मचारिणः ।। २४ ।। एतत्सहस्रं भूदाने कन्यादाने तु
तत्स्मृतम् ।। तस्मादृशगुणं प्रोक्तं विद्यमाने तथेव च ।। २५ । विद्यादशगुणं चान्नं |
यो ददाति बुभृक्षिते ।। अश्नदानसमं दानं न भूतं न भविष्यति ।\ २६ ॥। तृप्तिमा-
यान्ति कौन्तेय स्वस्थाः पितृदेवताः ॥ एकादा ब्रतस्यापि पुण्यसंख्या न
` विद्यते ।\ २७ ।\ एतल्पुण्यप्रभावश्च यत्सुरेरपि दुलभः ।। नक्तस्याद्धेफलं तस्य |
एकभक्तस्य सत्तम ।। २८ ।! एकभक्तं न नक्तं च उपवासस्तथव च ।। एतष्वन्य-
तमं वापि व्रतं कुर्थादरयोदने ।\ २९॥।। तावदृूगजैन्ति तीर्थानि दानानि नियमा
` यमाः ।\! एकादज्ञी न संप्राप्ता यावत्तावन्मखां अपि ।\ ३० \! तस्मदेकाव्शी हि
सर्वेरुपोष्या भवभीरुभिः ।! न संखेन पिबेत्तोयं न खादेन्मत्स्यसूकरो ३१ ॥
एकादश्यां न भुञ्जीत यन्मां त्वं पृच्छसेऽजुन ।। एतत्ते कथितं सर्वं ब्रतानामृत्तमं |
व्रतम् \\! ३२ ।। एकाद्ौसमं नास्ति कृत्वा यज्ञसहस्रकम् 11 अर्जुन उवाच \॥
उक्ता त्वया कथं देव पुष्येयं सवेतस्तिथिः । ३३ \\ सर्वेभ्योऽपि पवितरियं कथं
` द्येकादश्लौ तिथिः ।\ श्रीकृष्ण उवाच ।! पुरा कृतयुगे पाथं मुरनामा हि दानव व॒
॥ ३४ ।\ अत्यू तो महारौद्रः सवेदेवभयंकरः ।। इन्द्रो विरनिजितस्तेन ह्याद्यो `
` देवः पुरन्दरः।। ३५।। आदित्या वसवो ब्रह्मा वायुरग्निस्तथैव च \। देवता निजिता-
` स्तेन अत्यु्रेण च पाण्डव 1! ३६ ।\ इन्द्रेण कथितः सर्वो वृत्तान्तः शंकराय वे ॥।
स्वगेलोकपरिशरष्टा विचरामो महीतले ।\ ३७ ।! उपायं ब्रूहि मे देव अमराणां तु
+ का गतिः \\ ईः बरं ` उवाच। (गच्छ धे स्त ५
सह् समागताः ।\ शरणं त्वं जगन्नाथं त्वं कर्ता त्वं च कारकः ।\ ४२ 1) त्वं माता
स्वेलोकानां त्वमेव जगतः पिता ।। त्वं स्थितिस्त्वं तथोत्पत्तिस्त्वं च संहारकारकः
॥। ४४ ।। सहायस्त्वं च देवानां त्वं च शान्तिकरः प्रभो ।। त्वं धरा च त्वमाकाशः
सर्वविद्वोपकारकः ।। ४५ ।। भवत्वं च स्वयं ब्रह्मा तरेलोक्यप्रतिपालकः ॥। त्वं
रविस्त्वं श्ांकदच त्वं च देवो हूताह्नः ।। ४६ ।। हव्यं होमो हतस्त्वं च सन्त्र
तन्त्रत्विजो जयः ।\ यजमानदच यज्ञस्त्वं फलभोक्ता त्वमीहवरः ।। ४७।। न त्वया
रहितं किञ्चित्रेलोक्ये सचराचरे ।। भगवन्देवदेवेश शरणागतवत्सल 1! ४८ ।॥ ` `
त्राहि त्राहि महायोगिन्भीतानां शरणं भव ।! दानवेविनिता देवाः स्वगेगष्टाः कृता
विभो ।। ४९। स्थाश्ष्टा जगन्नाथ विचरन्ति महीतले ।। इन्द्रस्य वचनं श्रुत्वा `
विष्णुववेचनमब्रवीत् \। ५० \। श्रीभगवानुवाच ।\ कोऽसौ दैत्यौ महामायौ देवायेन `
विरि 1) ताः । । कि स्थानं तस्य {कि नाम कि बलं कस्तदाश्रयः \! ५१ ।। एतत्सव प
समाचक्ष्व मघवघ्चिभेयो भव ।। इन्दर उवाच ।। भगवन्देवदेवेह भक्तानुग्रहकारक
।! ५२ ॥\ देत्यः पूवं महानासीन्नाडीजंघ इति स्मृतः 1! ब्रह्मवंशसमुद्भूतो महोग्र: `
रसूदनः ।\ ५३ ।\ तस्य पुत्रोऽतिविख्यातो मु १
च गरीयसी ।\ ५८ ।। तस्यां वसन्स दृष्टात्मा विद्रवं निजित्य वीयेवान् !\
वशमानित्ये निराकृत्य त्रिविष्टपात् \।५५।। इन्द्राग्नियमवाय्वीहसोसनि
पानाम् ।\ पदेषु स्यमेवासीस्सुर्यो भूत्वा
बलम् ।। ५८ ।। प्रयान्तु |
मुरनामा महासुरः ।। तस्य चन्द्रवत 7. | त | ध । |
ऋतिपा। त्वा तपत्यपि ।। ५६ ।! पर्जन्यः स्वय-
मेवासीदजेयः सवेदेवतः ।। जहि तं दानवं विष्णो सुराणां जयमावह । ५७ ।\ `
सस्तु 1 व्यप्रहरणायुधेः ॥\६० ।! हन्यमानास्तदा त स (० असुरं वह. हु
।॥ संग्रामं ते समुत्सृज्य पलायन्त दिशो दञ्ञ । ६१ ।\ ततो दृष्ट
#
खचक्रगदाधरः। विव्याध स्वेगात्रेषु शरे राश्ीविषोपमेः । ६२ 1 1
मुपस्थितम् ।\ अन्वधावन्नभिकृद्धा विविधायुधपाणयः \। ६२ ॥ `
ब्रतानि। हिन्दीटीकासहित ध | क हि
(५१७)
योजनट्वादशायामा एकटारा धनञ्जय ।। अहं तत्र प्रसुप्तोस्मि भयभीतो न
संक्षयः
1। ६९ \\ महायुदधेन तेनैव शरान्तोऽहं पाण्डुनन्दन \) दानवः पृष्ठतो गनः प्रविवेशस `
तां गृहाम् ।। ७० ॥ प्रसुप्तं मां तदा दृष्ट्वाऽचिन्तयहानवो हूदि । हरिमेनं हनि-
ष्येऽहं दानवानां क्षयावहुम् ।। ७१ ।। एवं सुदमतेतस्य व्यवसायं व्यवस्य च ।॥
समुदूभूता समाद्खभ्यः कन्यका च महाप्रभा ।\ ७२ ।। दिव्यप्रहरणा देवी युद्धाय `
समुपस्थिता ।। मुरेण दानवेन्द्रेण ईक्षिता पाण्डनन्दन ।! ७३ ।। यद्धं समीरितं तेन `
स्त्रिया तत्र प्रयाचितम् ।\ तेनायुध्यत सा नित्यं तां दृष्ट्वा विस्मयं गतः! ७४॥ |
केनेयं निमिता रौद्रा अत्यग्राशनिपातिनी ।। इत्युकत्वा दानवेन्द्रोऽसौ युयुधे कन्यया |
तया ।। ७५ ।। ततस्तया महादेव्या त्वरया दानवो बल \! छित्वा सर्वाणि शस्त्राणि |
` क्षणेन विरथः कृतः ।\ ७६ ।। बाहुप्रहरणोपेतो धावमानो महाबलात् ॥ तलेना-
हत्यहृदये तया देव्या निपातितः ।। ७७ ।} पुनरुत्थाय सोऽधावत्कन्याह्ननकां-
नयनः प्रोवाच जगतां पतिः ।\ ८१ । केनायं निहतः संख्ये दानवो दुष्टमानसः।॥
येन देवाः सगन्धर्वाः सेन्द्राश्च समरद्गणाः ॥। ८२ \। सनागाःसहलोकशा लील्येव `
विनिजिताः । येनाहं निजितो भौतः रान्तः सुप्तो गृहामिमाम् ।॥ ८३ ॥ केन-
कारुण्यभावेन रक्ितोऽहं पलायितः ।। कन्योवाच ।! मया विनिहतो देत्यत्त्वदंशो |
भूतया प्रभो । ८४ ।। दष्ट्वा सृप्तं हरे त्वां तु दैत्यो हन्तुं समुद्यतः ॥। तरेलोक्य- `
कण्टकस्य स्यतं व्यवसायं प्रबुध्य च ।। ८५ ।। हतो मया
(५१८) = त्रतराज | ४ [एकादज्ी-
उपवासं च नक्तं च एकभुक्तं करोति यः ।। ९४ ।। तस्य धमं च वित्तं च मोक्षं देहि
जनादन ।। श्रीभगवानुवाच ।। यत्त्वं वदसि कल्याणि तत्सवं च भविष्यति ।\ ९५ ।।
मम भक्ताश्च पे लोकास्तव भक्ताश्च ये नराः 1! निष लोकेष विख्याताः प्राप्स्यन्ति
मम सन्निधिम् ।! ९६ ।\ एकादश्यां समुत्पन्ना मम शक्तिः परा यतः ॥। अत एका- `
दश्ञीत्येवं तव नाम भविष्यति ।\ ९७ \\ .ठध्वा पापानि सर्वाणि दास्यामि पदम-
व्ययम् ।। ततीया चाष्टमी चेव नवमी च चतुरदेशी ।\ ९८ ।\ एकादशी विशेषेण `
` तिथयो मे महाप्रियाः । सवतीर्थाधिकं पुण्यं स्वेदानाधिकं फलम् ॥! ९९ ॥
सर्वव्रताधिकं चेव सत्यं सत्थं वदामि ते ।\ एवं दत्त्वा वरं तस्यास्तत्रवान्तरधीयत
॥ १०० ॥ हृष्टा तुष्टा तु सा जाता तदा एकादक्लीतिथिः ।\ इमामेकादशीं पाथं
करिष्यन्ति नरास्तु ये ।। १ ॥ तेषां श्रं हनिष्यामि दास्यामि परमां गतिम् ।॥ `
` अन्येऽपि ये करिष्यन्ति एकादा महाब्रतम् ।! २ ॥! हरामि तेषां विघ्नांक्व `
सर्वसिद्धि ददामि. च \! एवमुक्ता समूत्पत्तिरेकाद्श्याः पृथासुत ।\ ३ ।! इयमेका- `
दशी नित्या सवेवापक्षयंकरी ।! एकंव च महापुण्या स्वेपापनिषूदनी ॥। ४ ॥। `
ता सर्वेलोकेषु सवेसिद्धिकरी तिथिः ।। शुक्ला
कारयेत्
। 0,
कष
मस्तेव्रेतकारिभिः \। ६ ॥ तिथिरेका भवेत्सर्वा पक्षयोरुभयोरपि ॥ ते यान्ति
प्रमं स्थानं यत्रास्ते गरुडध्वजः ।। ७ । धन्यान्ते मानवा लोके विष्णुभविति- `
८ परायणाः ।! एकादष्यास्तु माहात्म्यं सर्वकालं तु यः पठेत् ।! ८ ।। अदवमेधस्य `
| यत्प त्प ५ र तदाप्नोति प्नाति न सराय \\ य ष्युणोति दिवारात्रौ नरो विष्णुपरायणः ।\९।। ध 1
नि
क्ला वाप्यथवा कृष्णा इति मेदं न॒ `
1 हादसीतिधिः ।। अन्तरं नैव कर्तव्यं 5
6 महीयते 1 एकादश्याश्च माहात्म्य पादमंक ष्युणोति यः ।। ब्रष््यहत्यादिक छ ।
र य नदयते नात्र सहायः । ११ । विष्णुधमंः समो नास्ति गीताथन धनञ्जय ।
| है उससे सौगरुना इस एकादकीके उपवास से फल मिलता है ! २० जिस तपस्वौके घर मे नित्यही
। ृषयदनेवालो वयो बनाय ।\ ३३1 तथा सवते अधिक
वरतानि 1 ५ ॥ ` हिन्दीटीकासहित (५१९) ५
है अर्जुन ! उस दिन मध्याह्न मे नदी, तलाव या बावडीमें समाहित होकर स्नान करे । नदीका स्नान उत्तम ` |
तालावका मध्यम ओर बाबडीका अधम होता है 11७11 यदि बावडी भौ नहो तो कबेपर स्नान करे स्नान ` |
करते समय “ हे जवते आकरान्तकौ गई रथसे आक्रान्तकौ गई हे वसुकी धारण करनेवाली ।।८।। मत्तक !
मैने जो पहि पाप संचित किए हं तु उन पापोको हरल, जिससे मं परमपदको चला जाडं \। ९। “ इससे
मनुष्य मृत्तिका स्नान करे पतित चोर भौर पाखंडियोके साथ बिल्कुल वातं न करे ॥ १०।। किसीको स्म
दोष लगानेवाके, देव मौर वेद ब्राह्मणोकी निन्दा करनेवाले, अगम्योके साथ गमन करनेवारे एवम् दूसरे
दुराचारी ।\११।) ओर परद्रव्यको चोरनेवाले तथा देवद्रव्यको हडपनेवारे मनष्योको देखकर भौ सु्ंभग- `
वानूका दर्लंन करे ।। १२।। भव्तियुक्त चित्तसे गोविन्द भगवानकौ आदरसे पुजाकरे नैवेद्य तया दीपक्ञदि
षोडशोपचारसे पुजन करे । १३ ।1 है अजुन ! उस दिन मेथुन ओर निद्राका त्याग करे । संगीत आदि ङ्
द्वारा हरिकतेनसे व्रती मनुष्य उस रात्निको जागरण करे ।1 १४।। इस प्रकार रातमें जागरण कर भक्ति. `
भावके साथे ब्राह्यणोको दक्षिणा दे ओर उनको प्रणाम कर क्षमायाचना करे ।१५। हे राजन् ! धर्मात्मा =
ओंको शुक्ला ओर कृष्णा दोनों एकादक्षौएकसी हं इसकारण दोनोको समानजानकर किसी प्रकारका मेद ` |
न करे \ १६। इस प्रकार जो करता है उसके भी पुण्यके फलक सुनिये, शंकोद्धारतीर्थमे स्नान करके भगः
वान्का ददन करे ।\ १७11 कोई भी दुसरा त्रत इस एकादशौके उपवासक षोडशीकलाको भी प्राप्त नही ` |
होता \ ग्यतीपातमे दान करनेसे लालगुणा फल निरता है ।। १८।। है अजुन ! संकरंतिमे दान करनेसे चार ।
लाख गुणा फल मिलता है । त्था कुस्शेब मे सूर्यचन्द्र ग्रहण के समय दान करने जो पुष्यफल प्राप्त होता `
है! १९। वे सब फल एक साथहौ इस एकादशीके उपवाससे मिलते हं । अरवमेध यज्ञके करनेसे जो फल होता |
1 व्ल
आदमी साठ हजार वषंप्न्त भोजन करते हँ उसे प्राप्त होनेवाले पुष्यसे भौ अधिक पुण्य एकाकि खय. `
बासते प्राप्त होता है \\ २१।।।। २२ ॥\ बेदागपारंगत किसी ब्राह्मणको हजार गौभंको देनेकाजोफल `
होता है उससे दश्चगुणा पुण्य इस एकादस्षौके उपवाससे प्राप्त होता है \\ २३ जिसके घरमे नित्यही दहा |
` _ उत्तम ब्राह्मण भोजन करते हें उससे दहागुना दशब्रह्मचारी श्राह्यणोके भोजन करानेभे है ॥२४॥ उसे `
। हनारगुनाकन्यादान ओर भूदानमे है इनसे दडगुना, विच्चा दानमे है ।\ २५? विद्यादानते दशगुना अधिक |
` भूखोको अन्नदानमे फल मिलता है \\ अन्नदानके समान जर कोड दान न हमा ओर न होगा ।। २६॥ हे =
कौन्तेय ! जिससे स्वर्मस्थपितगण तथा देवगण भी तुप्त होते है उससे भी अधिक फल मिलता है। इस
` ब्रत के पुण्य फलकी कोई सीमाही नहीं है !। २७।। हे अनुंन ! एकादक्षौका पुषयप्रभाव देवको भीवतभहै, `
1 एकादशौ के दिन जो नक्त व्रत या एक भक्त व्रत करता हँ वह भधा फल्पाता है ।! २८॥ एक भक्तनक्त `
उपवासं इनमेसे किसौ को भी एकादीके दिन करलेना चाहिये ।\ २९।। तबतके ही तौथं, नियमं ञौरयम
गर्ते ह जबतक कि एकादशी नहीं मिलो यज्ञभौ तबही तक है \\ ३०।। ! जिन्हें संसारका डर होउनसबको `
` एकाद्शीका ब्रत करना चाहिये \\ न तौ शंख से पानी पीवे एवं न मत्स्य मौर सूकर खाय ।\ ३ १।।नएका-
दक्षीको भोजन करे, है अजुन ! जो तु सूक्े पूछता है ! यह मेने तुमको सबसे उत्तम त्रत कहा ह द ।३२ ४. 1
| सहस्र मलञभी इस एकादकतीके समान नहीं हँ । अजुन बोले कि, महाराज ! आयने इस तिथिको सवसे अधिक `
| मुरनामका दानव था। ह अजुन ! बहत बडा अदृमुत 5 भय पटहुचानवाला था । जिसने
क
(५२०) 1 बरतराज ` [ एकाद्ली- `
३९} सब देवको साथ केकर हे धनञ्जय ! तिष्णुभगवान् के पासं गया } जहां पर कि, भगवान् विष्णु `
सो रहे थे !! ४०।। जगदीश भगवान्को जकके अन्दर सोता हुमा देखकर हाथ जोडकर इस स्तोत्रसे स्तुति
करने लगा ।।! ४१।। कि, हे देव देववन्दित देवेश्च ! आपको नमस्कार है" हे देत्यारे ! हे पुण्डरीकाक्ष ! हे
है मधुसुदन ! आय मेरी रक्षा कौजे ।। ४२।। देत्योसे उरते हए ये देव मेरे साथ आपके पास अये हं । तुम
करने ओर जगत्के करानेवाले हो इसलिए है जगन्नाथ ! हम आपकी जरण हें ।। ४२।। तुम सबलोगो को
` भाता ओौर जगत्के पिता हौ । तुमह स्थिति उत्पत्ति तथा संहारक करनेवाले हो ।।४४।। तुमही देवताओके
सहायक तथा शांति करनेवाले हो ओर हे प्रभो ! आही पृथ्वी ओर आकाश हो तथा विहव के उपकारक ही `
1 ४ ॥ आपह त्रिलोकीके रक्षा करनेवाले ब्रह्मा ओर महेश्वर हो ! तुमहीं रवि, चन्द्र, अभ्ति ।\४६।
हव्य, होम, आहुति, मन्त, तन्त्र, ऋत्विक् ओर जप हो । यजमान यज्ञ ओर फएलभोक्ताभी जप ईइवरही हो
॥ ४७१ इस चराचर जगतुमं तुमसे रहित कुछ भी हीं है । है भगवन् ! हे देवदेवेश ! आप शरणागत-
` वत्सल हे ।। ४८।। हे महायोगिन. ! रक्षा कीजिए, रक्षा कौजिए \ आय डरे हृभोके रक्षक एवं उपाय बनिये! ध
है प्रभो ! दानवोसे सब देवताओको जीत लिया ओर स्वगेसे भी निकाल दिया है \\ ४९।। हि जगन्नाथ {
वे सब स्थानभ्रष्ट होकर इस पृथिवीम विचरण कर रहे हें । एसे इन्द्रके वचनोको युनकर विष्णु भगवान `
बोरे ।\ ५०।। कि, बह कौनसा दैत्य है ? जिसने सारे देवताओंको जीत लिया है, उसका नाम, धाम, शविति
ओर आश्वय क्या है ! ।। ५१।1 हे इन्द्र ! यह् सब तुम कथन करो ओर निरभेय हो जाओ । इन्दर बोरे कि, ॥
हे देवदेवेश ! हे भक्तोपर अनुग्रह् करनेवाले भगवन् { ।। ५२१) नाडीजेध वामका एक अत्युग्र दैत्य ब्रह्मके
वशम देवोको दुःखदेनेवाखा पहिले उत्पन्न हुआ था ।} ५३१) उसका अति विख्यात पुत्र भुरनामका महासुर
स्वयं शासन करता है। एवं वह त्रिमुवन तापकारी सूं भौ स्वयं होकर तपताभौ है ।। ५६ मेघभौ बहौहै, `
हाहे, उसको बडी विदाल चन्द्रवती नामक नगरी है उसमे बह निवास करता हुभा भी स्वरगमे सब `
देवताओंको निकालकर अपने वामे कर लिया है भौर उस दुष्टात्माने इस प्रकार सारे जगत् को अपने आधीन `
लिया है \ ५४ 1 1) ५५] इ््रमग्नि, यम, वायु, ईशा, सोम, निति भौर वरुण आदि के स्थानोमे `
0 लिए अजेय है, उस दानवका है-विष्णो ! अप वध कौलिए ओर देवताओंको जय दीजिये ठ
१ ५७ 31 इनदरके इन वचनोको सुनकर क्रोधात्रुल भगवानूने कहा कि, हे देवेन ! मे उस महाबलौ तुम्हारे `
` श्त्रुको स्वयंही मारूगा ।\ ५८1 आप चन्द्रवती नगरीमें मेरे साथ सब मिलकर चलो । भगवान् के इसप्रकार `
कहनेपर सारे देवता भगवानको आगे करके चलं दिए 1 ५९।। उस दैत्यने देवताओंको देखकर बडी गजेन = `
की ओर उसके साथ असंख्यात सहल दिव्यास्त्र शस्त्रधारी अन्य दानवोने भी गर्जनाकी \\ ६०।। बाहुबली
असुरो से आहत होनेवाले देवता उस संग्रामको छोडकर दसो दिशामि भागने सगे ।। ६१।। अमेकप्रकारके `
` शस््रभारी दानव. उस संद्ाममे अन्दर देवोके भागजानेपर भौ भगवानको उपस्थित देखकर उनपर दौडे
चक्र गदाधारी भगवानने अपनी ओर भागते हए असुरोको देखकर अपने सर्पोकौ तरह भिन- = `
कालतुत्य बाणे उनका बध कर दिया । ६३.।। इस प्रकार जब सेकडों आहत हो दानव मर ये ` `
व्रतानि] ऋ हिन्दीटीकासहित (५२१)
यढ कौ याचना कौ । उसने दानवसे नित्य युद्ध किया जिससे उस बौरको बडा आश्चर्य हुमा 1! ७४ ।। वह॒
दानव यह कहता हृभा फि, किसने इस भयडकर स्त्रीक जो वज्रगिरानेवाली है पैदा किया है, युद्ध करतारह =
॥। ७५. ॥) उस्र महादेवीने बडो श्री घ्रतासे उस बलौ दानवे सब शस्त्रोको काटकर तुरन्तही रथहीन कर दिषा
॥१७६ ।। वहू महाबली केवल अयनी महाभुजाओं हीसे जब मारने दौडा तब उस देवीने उसे छातीमे टोकर'
मारके गिरा दिया ।\ ७७ ।! फिर भी वहु उस कन्याको मारनेके विचारसे उठा पर उस दिव्य देवीने उसे आता `
हआ देखकर क्रोधसे शिर काटकर ।! ७८ ।। फौरनही पुथ्वीपर गिरा दिया } वह् तेज भूमिम देदीप्यमान हीन `
छगा कटा शिर देत्यराज, यमराजके घर भेज दिया ।\ ७९ ॥। शेष सब शत्र दरकेमारे पातालमेप्रवेकर गये \ `
भगवान् की निद्राभद्धः हुई ओर उन्होने आगे असुरको मरा हुआ देखा ।! ८० ।। जगत्पति भगवान्ने अपने
सम्मृख हाथ जोडकर प्रणाम करनेवाली उस प्रसन्न मुखी कन्याको देखकर कहा ।। ८१ ।। किसने इस दृष्टा- `
त्मा राक्षको मारा है जिससे संब देवता गन्धवं इन्दर ओर मरुद्गण ।! ८२ ।। नाग ओर लोकपाल परानितहो
चुके थे ओर जिससे डरकर तथा थककर इस गुहाम मेने प्रवेश किया था ।। ८३ ।। किसने यह् मुक्षे भागे हृये-
पर करुणा कौ है जो मक्षे बचाया कन्याने कहा कि › हे प्रभो ! आपके अंश से उत्पन्न होकर मेने इस दानवका
वधक्िया है ।\ ८ ।\ जापको सोता हृभा देखकर उस त्रैलोक्य कष्टक राक्षसने आपके मारनेका `
विचारको जानकरही मेने उसका वध कर दिया है ।\ ८५ ।। आज उस दुष्टके मर जानेपर सब देवतानि्भय
करे दिये गे हें । महाराज मं आपही कौ सब शत्रुओको मारनेवाली महारक्त हूं ।\८६॥1 त्रिलोककी रक्षा |
करनेके लिये उस दृष्ट एवं भयंकर राक्षसको सार दिया, उपे मराहुभा जानकर हे प्रभो { जपको कंसे
आचये हा ? यह् कथन कोजिये 11 ८७ । श्रीभगवान् बोलते कि, हे निष्पाप { उस दानवको मारदेनेसे मे क /
(५. त सनन हुआ हूं । आज देवताओके घर बडा आनन्द मङ्गल हभ है १८८ हे देवि ! तीनों लोकमेंनो |
वरको दे दूंगा इसमें सन्देह मत करो 1 कन्याने कहा कि, महाराज ! यदि आप मुक्षपर प्रसन्न है ओर यदि ` ८
' मुश्षको माप वर देना चाहते है तो यह वर दीजिये ॥। ९० ।। कि, यदि मेरा कोई उपवास करे तो महापाषीको = `
भी अपने पाससे मुश्टारा मुवि मिलजाय । उपवासं जो पुष्य हो उसका आधा नक्त (दिनके अष्वे भाग) =
५ | ८ । मेँ भोजन करने मं हो ॥\ ९१ ।\ उसका आधा एक भुक्त करनेवारेको हो । जो हमारे दिनम भक्तिपूर्वकं = ` |
उपश्रास फरे एवं नक्तव्रत ओर एकभुक्तका नियम करे तो ।। ९४।। उसको आपकी कृपते धमे-धनकौ प्राप्ति |
तथा सुव्तिकौ प्राप्ति हो, यही मे वर ममत ह । ्ीमगवान् वोके बि, हे कल्याणि ! जो दुम कहती हो बह् ` |
| सब सत्य होगा) ९५।) जो मेरे ओौर तेरे भक्त इस लोकमें है वे तीनों लोगोमें विस्यात । ५ मेरेनिक्ट |
इस प्रकार भगवान् वर देकर 1 अन्तर्धान हो
क ह अः अर्जन 1 जो लोग ( । इ १ एक कको करं
जितेन्द्रिय य । होकर ब्रत करता है ।\ ९२ ॥ वह जितेन्द्रिय प्रवासी कल्पकोटिशतपयेन्त अनेकं भोगोको भोगता ॥
ल्लोककी प्राप्त होता है \। ९३ \\ महाराज ! आपके प्रसादसे यह वर मृ्ने भिर जाय, जो मनुष्य
(५२२) | १ 9 त्रतरज स . 1 ५५ [ एकादल्ली-
दक्ीसे है \। ६ ।। दोनों पक्षोमे यह् सब तिथि एक ही होती है जो इनका व्रत करते हं वे उस स्थानको चते
. जाते हं जहां कि, गरुडध्वज भगवान् निवासं करते हं ।। ७ ।! बे मनृष्य छौकमं धन्य ह जो विष्ण भक्तिमे
लगे हए है, जो इस एकादश्ीके इस पवित्र माहात्म्यको सदा यदुगे।॥८॥।तो उन्हं अरवमेषयज्ञका जो फल होता = `
है बह प्राप्त होगा । इसमे सन्देह नहीं है जो मनुष्य दिनरात विष्णुभवितमें परायण होकर ।।९1। भगवान् के `
भव्तके मुखस वणेन की हुई इस भमागलिक कथा को सुनाता है, वह् कोटि कल्के साथ विष्ण लोकमे उसं
कीसिको पाता है ।\ १० ।1 एकाद्लौ माहात्म्यके कथाके चतुर्थको भीः मन्ष्य सुनता है उसके सुननेसे `
ब्रह्महत्यादिकं सब पाप नष्ट हो जते हुं इसमं सन्देह नहीं है \\ ११ ।। है अजन ! विष्णु धमं के समान धमं
ओर एकादजीके समान कोई उत्तम व्रत संसार मे नहीं है यह गीताथमे मालूम होता है \\ १२ ॥ यह मा्ग- = `
ज्ञीवं कृष्ण एकादशी माहारम्य सम्य हृभा ॥।
| | अथ मागंशीषेशक्टकादशीकथा
युधिष्ठिर उवाच ।! वन्दे विष्णुं प्रभुं साक्षाल्लोकत्रयसुखप्रदम् ।। विह्वेशं `
विरवकर्तारं पुराणं पुरुषोत्तमम् ।। १ ।। पृच्छामि देवदेवेश संशयोऽस्ति महान्मम ।
लोकानां तु हितार्थाय पापानां च क्षयाय च ।! २ ।\ मागंलषे सिते पक्षे किनामेका- `
दक्षी भवेत् ।। कीदृश्चश्च विधिस्तस्याः को देवस्तत्र पुज्यते ।\३।। एतदाचक्ष्व मे र
स्वामिन्विस्तरेण यथातथम् । श्रीकृष्ण उवाच-\। सम्यक् पृष्टं त्वया राजन् साधु `
कषे. दादशी मम वल्लभा ।\५।। मा्ेज्ञीषं ५
च वधार्थाय प्रख्याता मम वल्लभा ।। ६ ।। कथिता सा सया चेव त्वदग्रे राज- `
विमला मतिः ।। ४ ।। कथयिष्यामि राजेन्द्र हरिवासरमुत्तमम् ॥ उत्यन्नासा `
ष समुत्पन्ना मम दहान्नराधिप।
` सत्तम \' पूवेमेकादशी राजन् त्रैलोक्ये सचराचरे ।। ७ ।) मार्गशीर्षेसिते पक्षे `
` चोत्पत्तिरिति नामतः । अतः परं प्रवक्ष्यामि मागंशषंसितां तथा ।॥ ८ ॥ मोक्षा- ५
नाम्नातिविख्यातां सवेपापहरां पराम् ॥! देवं दामोदरं तस्या पूजयेच्च प्रयत्नतः `
॥ ९ ॥ गन्धपुष्यादिभिहचैव गीतनृत्येः समुद्धलेः ।\ श्यृणु राजेन्दर वक्ष्यामि कथां
पौराणिकीं शुभाम् ।।१०।। यस्याः श्रवणमात्रेण वाजपेयफलं लभेत् ।॥ अधोगति `
गता ये बे पित॒मातुसुतादयः ।! ११।। अस्याः पुण्यप्रभावेण स्वर्गं यान्ति न संशयः।। `
ष...
एतस्मात्कारणाद्राजन्महिमान ्युणुष्व तम् ।। १२ ॥। पुरा वे नगरे रम्ये गोकुले
वखानसेति राजषिः पुत्रवत्पालयन्प्रजाः ।\. १३ ।। द्विजाश्च न्यव ् कु
` त्रतानि ] हिन्दीटीकासहित (५२३) `
मम् ।!१९॥। न दासन सुता मह्य रोचन्ते दिजसत्तम ।} कि करोमि क्व गच्छसि | । =
शरीरं मे तु दह्यते \\२०।। दानं त्रतं तपो योगो येनव मम पुवंजाः ।। मोक्षमायान्ति `
विग्रन््रास्तदेव कथयन्तु मे ।। २९ ।\ कि तेन जीवता लोकं सुपुत्रेण बलीयसा ॥
पिता तु यस्य नरके तस्य जन्म निरथेकम् ।\ २२ ।। ब्राह्मणा ऊचुः \। पर्व॑तस्य मुने-
रत्र आश्रमो निकटे नृप ।। गम्यतां राजशाद् ल भूतं भव्यं विजानतः ।! २३ तेषां
श्रूत्वा ततो वाक्यं विषण्णो राजसत्तमः ।\! जगाम तत्र यत्रासो आश्रमे पवतो
मुनिः ।। २४ ॥ ब्राह्मणेवेष्ठितः शान्तः प्रजाभिश्च समंततः । आश्रमो विपुल्तस्य `
मुनिभिः सल्निषेवितः 1! २५ ।। ऋग्वेदिभिर्याजुषेश्च सामाथर्वेणकोविदेः ।। वेष्टितो `
सुनिभिस्तत्र हितीय इव पद्मजः ।। २६ ।। दष्ट्वा तं मुनिलाद् लं राजा वैखान `
` सस्तदा ।\ जगाम चानि मूर्ध्ना दण्डवत् प्रणनाम च ।} २७ ।) पप्रच्छ कुशलं तस्य `
सप्तस्वङ्खष्वस
तो निः ॥ राज्य निव च रजतो ५ २८॥ =
उपस्थितः \\ २९ एवं मे संशयं ब्रह्मन् प्रष्टं त्वामहमागतः ।! एवं भत्वा नृप `
` वचः पवेतो मुनिसत्तमः \\ ३० \। ध्यानस्तिमितनेत्रोऽसौ भतं भव्यं व्यचिन्तयत्!
मुहतमेकं ध्यात्वा च प्रत्युवाच नृपोत्तमम् ।। ३१ । मुनिरुवाच ॥ जानेऽहं तव॒ `
राजेन्दर पितुः पापं विकर्मणः ।। पूर्वजन्मनि ते पित्रा स्वपत्नीद्रयमध्यतः ।॥\ ३२।।\
` कामासक्तेन चैकस्या ऋतुभङ्धः कृतः स्त्रियः ।। तराहि देहीति जल्पन्त्या अन्यस्याक्च
) राजोवाच ।\ कन `
वरतेन दानेन मोक्षस्तस्य भवेन्म॒ने ।! ३४ ।! निरयात्पापसयक्तात्तन्ममाचक्ष्व
नराधिप ।\ ३३ ।\ कमणा तेन सततं नरकं पतितो ह्ययम् ।। रा
|} मुनिरुवाच ।\ मागंश्रीषं सिते पक्षे मोक्षानास्नी हरेस्तिरि
धिः॥ ३५॥
सर्वैस्तु तद्व्रतं कृत्वा पित्रे पुण्यं प्रदीयताम् ।। तस्य पुण्यप्रभावेण मोक्षस्तस्य भवि- `
` प्राप्ता भरतसत्तम ।। २७ । अन्तःपुरचरैः सर्वः पुतरेदरिस्तदा नुपः ॥ व्रतं कृत्वा `
विधानेन पित्रे पुण्यं ददयै नृपः ।। ३८ \। तस्मिन्दत्ते तदा पुष्ये पुष्पवृष्टिरभूटिवः।।
` वैखानसपिता तेन गतः स्वर्ग स्तुतो गणैः ।! ३९ !\ राजानमन्तरिक्षाच्च शुद्धा `
गिरमभाषत ।। स्वस्त्यस्तु ते पुत्र सदेत्यथ स त्रिदिवं गतः \\ ४० ।1 एवं यः करते
त
१ अस्याः कथायाः)
ततः शरुत्वा नृपः स्वगृहमागतः । आग्रहायणिकौ शुक्ला `
अथ मार्गशीषं शक्ठंकादश्लीकथा-युधिष्ठिर बोले कि, मं तीनो लोकोको सुखं पहुंचानेवाले साक्षात्
: भगवान् विष्णको जो विहवके भालिकं विश्वके कर्ता एवं पुराणयुरुषोत्तमप्रभु हं उन्हे प्रणाम करता हूं 1 ९।।
हे देवदेवेश ! मृक्षे संशय है इसल्वे मे एता हूं कि, लोगों केकल्याण के ल्य पापों केक्षयके चयि ।\ २।}
, माम॑शीषं मासके हाक्लपक्षमें कोनसी एकादली हतौ है ? उसकी क्या विधि है मौर कोनसे देवताकी उत्तम
ह पजा होती है ? ॥। ३ ।। उसे हे स्वामी ! जाप कृपाकर मुश्चे विस्तार के साथ जंसेका तेसा उपदेश्च दीजिये ।
. श्रीकृष्ण भगवान् बोले-हे राजेन्द्र ! तुम्हारी बृद्धि बडी पवित्र है आपने यह उत्तम प्रन किया है 11 ४ ॥ मै
अब हरिवासरको कहता हूं तथा उसकी पूजा व कथाविधिको भी है राजेन्द्र ! वर्णन करता हु । शुक्ल्यक्षमे `
मेरी भरिया एकादक्नी उत्पन्न हृईः ।। ५।। हे नराधिप ! मागंजञौषेमें मेरे शरीरसे यह उत्पत हर्दि मौर विशेष `
भष , १.
` करके मरके वधके वास्ते यह मेरी वल्लभा प्रसिद्ध हुई है 1} ६ \। के राजन् ! इस चराचर जगत् में मेने तुम्हारे
ही सामने सवं प्रथम इस एकादशौीका वणेन किया है \\ ७ ।। मा्ंशौषेके कृष्णपक्षमें उत्पत्ति एकाद्शौ होती = `
है आओर अब इसी महीनेके शुदलपक्षकी एकादन्ौको कहता हं ।। ८ ।। उस एकादक्लीका ` मोक्षा ` नमह जो
सव पापोकी नाह करनंवारी है उसमें भगवान् दामोदरको प्रयत्नके साथ पुजना चाहिये ।। ९ ।! गन्ध; पुष्प
आदि षोडशोपचारसे तथा मांगलिक गायनवादयोसे पूना करनो चाहिये । अब ह राजेन ! पुराणोक्त पवित्र
कथाको में तुभ्हं सुनाता हं ।। १० । जिसके सुनने मात्र से ही वाजपेययन्ञका फल प्राप्त होता है ।पिता = `
भाता या पत्र आदि जिस किसी की कुलमे अधोगति हुई हो ।। ११। वे सब इसके पुष्यके प्रभावसेस्वर्गको `
श्राप्त हो जते ह, इस कारण इसकी उस महिमाको सुन \\ १२ \, प्राचीनसमयमें गोकुल नामक रम्य नगरमे
एक राजा रहता था, उसका नाम वेखानस था, वो राजा अपनी प्रजाका पुत्रवत् पालन करतां हज राज्य `
: करता था \\ १३1 उस नगरमे बहुतसे ब्राह्मणभौ वेदोके जाननेवाले रहते थे } इस प्रकार रान्य क्रतेहृए `
उस राजाको अधंराघ्रिके समय स्वप्न हुमा कि ।\ १४ ।। मेरे पिता अधोधोनिमे पडे हए है इस
आ्च्यको देखकर उसकी आंखें चोडगई ।\१५।। उस वृत्तान्तको उसने किकी ब्राह्मण समूहते निवेदन किया
यणो । देवा है कि १६ १हे पुत्र! तुमने इसदुगंतिमे-
निकाल यह् बो मृक्े कहते थे मेने यह अयनौ आंखो से देखा है ।। १७ ।। उस समयसे मृकषे कुछ शान्तिनहीः `
ती । यह राज्य मेरे व्यि असह्य ओर दखसूप हो गया है \। १८ \। हाथौ घोडे ओौर रथ कुछभी मक्षे अच्छ. `
नहीं मालूम होते । एवं स्त्री पुत्र आदि जो मौ प्यारी वस्तु मेरे राज्य में हँ वे सब अच्छी नहीं मालृमहोतीं इस `
£ समय मु मुली करनेवाला कोई नहीं है \। १९।। कहो ब्रह्मणो ! में क्या कहं ओर कहा जां? `
मेरा शरीर नर रहा है, मृश्च स्त्री पुत्रादि, है शरेष्ठद्विजो ! कुछ नहीं सुहाते ।\ २०।। दान, तव यात्रतजिसः
किसी भी रीतिते मेरे पिताका मोक्षहो मेरे पूवज कश्याण पवें वेसौही विधि जप लोग मृक्षते कहो ।॥1 २१
लवान् सुपुत्रके जीवन से क्या लाभ जिसका पिता नरक मे दुःख उठावे । में कहता हूं कि, उस पुत्रकाजन्म `
२ ॥ ब्राह्मणने उत्तर दिया कि, है राजन् ! यहां से भूत भविष्यत् ओर वर्तमानके जाननेवाङे `
ह्मणो ! मेने अपने पिताको नरकमें पडा हुआ आजं देख
कोई मी शुद्ध शुभ मोक्षकौ देनेदाली नही है, जिन्होने
जान सकता कि, उनका पुण्य कितना बडा है ।।४२।। इसके पठने ओर सुननेसे बाजपेय के फलकी 1
व्रतानि) ५ हिन्दीटीकासहित [ (५२५)
0 {४
पिताने दो पत्नियोमे से कामासक्त होकर एकका ऋतुभेग किया था, जो कि एक यह् पुकार रहीथौ, कि भन्ने -
बचा दे ।। ३२ ।1 उस कमंसे यह निरन्तर नरकमे गिर गया है । यह सुन राजा बोला कि, किस दान वाब्रतसे, `
हे मुने! इसका मोक्ष हौ ।। ३३ ।। । ३४ ।\ मेरा पिता पापयुक्ति निरयसे षटृट जाय यह् मक्षे बतादये `
यह सुन मुनिबोक कि, मागंशोषं सितपक्षमं मोक्षनामक एकाद, होती है ।। ३५। तुम सब उस ब्रतको
करके पिताके लिए उसका पुण्य दे दीजिए उसके पुष्यके प्रभावसे उसका मोक्ष हो जायगा ।। ३६ ॥। मुनिके
वाक्य सुनकर पीछे राजा अपने घर चकला आया, है भरतसत्तम ! अगहनकी श्क्ला एकाद्शौ आगर 11३७ 11 =
राजान अन्तःपुरवासौ सब पुत्र दार आदि के साथ विधिपूर्वकः व्रत किया पीछे सबका पुण्य पित्रे क्िएदे `
दियं \\३८।। उसके पुण्य देनेपर स्वगसे एूलोकी वर्षा हुई, वैखानसका पिता उससे स्वगं चला गया, जातीवार
गोसे स्तुतियां
प क
युधि द र एर उवाच ।\ पौषस्य कृष्णपक्षे तु द्वादशौ या भवेत् प्रभो ।! कनाम `
को विधिस्तस्याः को देवस्तत्र पुज्यते ।। १ \! एतदाचक्ष्व मे स्वाभिन्तिस्तरेण `
जनादन ।। श्चीङरष्ण उवाच ।। कथयिष्यामि
-तथा तुष्टिं मे राजन् ऋः
भिशचाप्तदक्षिणे
0 या सफलानाम् नासतः ।।1 ७। ना
| तयां होती चली जाती थीं ।\ ३९ ।। त्रत करनेवाटेके पिताने अपने पुत्रसे स्वर्गे शृ वाणी बोली
कि, हे पुत्र ! तेरा सदा कल्याण हो, इसके बाद वो च्रिदिव चला गया । ४० \। हे राजन् ! जो इस मोक्षा
एकादज्ञीको करता है उसके सब पाप नष्ट हो जातं हं अन्तमं मोक्षको प्राप्त करता है ।। ४१.।) इससे मधिकं `
होने इस एकादशीको किया है उनके पुण्यकी संख्यामे ५५ 1
ी प्राप्तिहोती
मि राजेन्द्र भवतः स्नेहकारणात् ।\२।॥ `
णैः ।\ यथा तुष्टिर्भवन्मह्यमेकादह्या
` व्रतेन वं ।\ ३॥) तस्मात्सवप्रयत्नेन कतंव्यो हरिवासरः ॥ पोषस्य कृष्णपक्षे तु _
ह्ाद्ली या भवेच्युप ।\ ४ ।\ तस्यादचैव च माहात्म्यं श्यणष्वेकाग्रमानसः।। गदिता-
` याश्च वें राजन्नेकाददयो भवन्ति हि ।\५।। तासामपि हि सर्वासां विकल्पं नेवकार- `
येत् ।\ अतः परं प्रवक्ष्यामि पौषे कृष्णा हि दादी ।\ ६ ।\ तस्या विधि न॒पश्रेष्ठ
. लोकानां हितकाम्यया ।। पौषस्य कृष्णपक्षे या |
यणोऽधिदेवोऽस्याः पुजयेत्तं प्रयत्न
८ ॥) नागानां च यथा शेषः पल्लिणां
जाह्ववी यथा।९।) देवानां च
` तथा राजन् प्रवरेकाददी तिथि
देता-
(५६) बतसि... [ एकाद ,
तस्य पुण्यफलं श्युणु ।\ १६।। तत्समो नास्ति वे यज्ञस्तीर्थं तत्सदृशं न हि ।। तत्समं
न व्रतं किचिदिह् लोके नराधिप ।। १७।! पञ्चवषंसहस्राणि तपस्तप्त्वा च॒ `
यत्फलम् ।! तत्फलं समवाप्नोति सफलाजागरण वे ।। १८ ।। श्रूयतां राजशादूल
सफलायाः कथानकम् ।! चम्पावतीति विख्याता पुरौ माहिष्मतस्य च ।! १९ ॥
ष भाहिष्मतस्य राजषदचत्वारइ्चाभवन्युताः ।\ तेषां मध्यं तु यो ज्येष्ठः ख महापाष- _ 9
संयतः \} २० ।। परदाराभिगामी च दयतवेदयारतः सदा ।। पितुद्र॑व्यं स पापिष्ठ
गमयामास सर्वशः ।\ २९१९ ।। असद्वत्तिरतो नित्यं देवताद्िजनिन्दकः ।। वेष्णवानां `
च देवानां नित्थं निन्दारतः स वै ॥। २२ ।1 ईदृग्विधं तदा दृष्ट्वा पुत्रं माहिष्मतो `
नृपः ।। राज्याचिष्कासयामास लुम्पक नाम नामतः।\२३।। राज्याल्निष्कासितस्तन `
पित्रा चैवापि बन्धुभिः ।। परिवारजनैः सर्वेस्त्यक्तो राज्ञो भयात्तदा 11 २४।॥ ` |
दुम्पकोऽपि तदा त्यक्तशिचन्तयामास चेकलः ।! मयात्र कि प्रकतेव्यं त्यक्तेन
पितुबान्धवेः ।। २५ ।। इति चिन्तापरो भृत्वा मति पपे तदाकरोत् । मयातु
गमनं कार्यं वने त्यक्त्वा पुरं पितुः ।। २६ ।\ तस्माहनात्पितुः सर्वं व्यापयिष्ये पुरं `
लुम्पको देवपातितः ।\ निजेगाम पुरात्तस्माद्गतो
ष नित्यं नित्यं स्तेयपरायणः ।। सर्वं च नगरं तेन मुषितं पापकर्मणा \\ २९॥ `
निक्षि ।। दिवा वने चरिष्यामि रात्रावपि पितुः पुरे । २७ ।। इत्येवं स मति कत्वा
् तोऽसो गहनं वनम् ॥\२८।। जीव- `
रेत्यव्तो लोके राज्ञो भयात्तदा ।\ जन्मान्तरीयपापेन राज्यमरष्टःस
पापकृत् ।। ३० ।। आमिषाभिरतो नित्यं नित्यं वै फलभक्षकः ।॥ आश्रमस्तस्य `
इष्टस्य वासुदेवस्य संमतः ।\ ३१ ।। अदवत्थो वतेते तत्र जीर्णो बहुलवाषिकः ॥!
वक्षस्य वर्तते त्ने महत ।। ३२ ॥। त्रैव न्यवसच्चासौः लम्पकः `
. पापवुद्धिमान् ।। एवं कालक्रमेणेव वसतस्तस्य पापिनः ।। ३२३ \) दुष्कमंनिर- ~ (८
श्रतानि। ५ हिन्दीटीकासहित क । ५२७) ` १
(१४८५०
हरिः ।। उपविष्टो टुंपकश्च निद्रां लेभे न वै निशि \। ४३ ।\ तेन जागरणं मेने
भगवान्मधुसुदनः ।। फलश्च पूजनं मेने सफलायां तथानघ ।। ४४ ।॥। कृतमेव
लुपकन दयकस्मादव्रतसुत्तमम् ।। तेन ब्रतप्रभावेण प्राप्तं राज्यमकण्टकम् ।! ४५ \\ `
वागुवाचाश्रीरिणाम् ।\! ४७ ।। प्राप्नुहि त्वं नृपसुत स्वराज्यं हतकण्टकम् ।।
पुण्याङ्कुरोदयाद्राजन् यथाप्राप्तं तथा श्युणु ।। रवेरुदयवेखायां दिव्योऽदवइ्चा- `
जगास ह ।\ ४६ ।। दिव्यवस्तुपरीवारो लुपकस्य समीपतः ।। तस्थौ स तुरगो राजन् `
वासुदेवप्रसादेन सफलायाः प्रभावतः ।। ४८ ।। पितुः समीपं गच्छत्वं भुश्ष्च राज्य- `
मकण्टकम् ।\ तथत्युक्त्वा त्वसौ तत्र दिव्यरूपधरोऽभवत् ।। ४९ । कृष्णे मतिश्च `
` तस्यासीत्परमा वेष्णवी तथा \। दिव्याभरणन्ोभाढचस्तातं नत्वा स्थितो गुहे ।\५०।\
` वैष्णवाय ततो दत्तं पित्रा राज्यमकण्टकम् ।! कृतं राज्यं तु तेनैव वर्षाणि सुबहू-
न्यपि ।! ५१ \\ हरिवासरसंलीनो विष्णुभक्तिरतः सदा ।! मनोज्ञास्त्वस्य पुत्राः
स्युर्दाराः कृष्णप्रसादतः \। ५२ ।। ततः स वाद्धके प्राप्ते राज्यं पुत्रे निवेदय च ।।
` वनं गतः संयतात्मा विष्णुभवितिपराथणः ।। ५३ ।\ साधयित्वा तथात्मानं विष्णु- `
( ५ ॥ | ॑ लोक जगाम ह ।। एवयव प्रकुवेन्ति सफलकादटशीषब्रतम । ५४ ।} इह स्मेके थश . ५ ।
प्राप्य मोक्षं यास्यन्त्यसंशयम् ।। धन्यास्ते मानवा लोके सफलाब्रतकारिणः ।। ५५।। `
तस्मिञ्जन्मनि ते मोक्षं लभन्ते नात्र संशयः ।} सफलायाःच माहात्म्यश्नवणाद्धि `
विश्पते ।\ राजसूयफलं प्राप्य वसेत्स्वगं च मानवः 11 ५६ ।। इति पौषकृष्णे- = `
` काद्याः सफलानास्न्या माहात्म्यं संपुणेम् ।।
अब पौष कृष्ण एकादश्ली-युधिष्ठिर बोले कि, पोष महीनेकी कृष्णपक्षमे जो एकादशी है उसकी क्या 1
विधि जोर कया नाम है, कौनसे देवको उसमे पूना होती है ? 11 १।। इसको हे पमो ! आप कृपाकर विस्तारके
साथ बताइये । भगवान् बोले कि, है राजन् ! मं तुम्हारे स्नेहके कारण इसे कहता हूं ।\ २ ॥ मृक्षे उन यज्ञोसे |
जिनमे कि, सूब दक्षिणा दो गई हों कोई खुशी नहीं होती जितनी कि, इस एकारज्ीके ब्रतसे होती है \३॥ |
` इस हर एक प्रकारे एकादक्गीका ब्रत करना चाहिये \\ हे राजन् ! पौषमासकौ जो दरष्णा एकादश ८
है ॥। ४ १ उसके माहातम्यको भप ध्यानपूवंक सुनिये । है राजन् ! जो कही हुई एकद्ीहं \\ ५1
क कौ का नासे उसकी विधि भी कहुगा, हे नृपसेष्ठ ! पौष छृष्ण एकादशलीका नाम सफला है ५ |
हए, इसके बाद पौष कृष्ण एकादक्षीको कहता हुं ।\ ६ ॥। संसारकी कल्याण- ` ध
। दिन ्ागरण करने हे राजन् ! जो फल होता है, उसको एकाग्र मन हो सुनो पर जबतक नत्ोनमेष होता है
` सबतक जगता ही रहना होता है । १६।। हे राजन् ! उससे अधिक कोई यज्ञ, तीथे या उत्तम व्रत नहीहैःन
उसके षराबरका ही कोई है ।। १७ ।। पाच हजार वषेतक तप करनेसे जौ फल प्राप्त होता है वह इस एक ` 1
सफलाके जागरणसे ही प्राप्त हो जाता ह ॥\ १८ ॥ हे राजशरेष्ठ ! उस सफलाकौ कंथा सुनो । चम्पानेती `
नामकी प्रसिदधनगरी मे माहिष्मत नामक राजाकी राजधानी थौ ।। १९ ।1 उस राजषिके चार पुत्र थे, जिसमं र
सबसे बडा लडका बडा भारी पापी था ।\ २० ।। परस्त्रीगासौ, ज्वारी तथा वेश्यासक्त था उस पापिष्ठन् `
अपने पिताके सब धनको नष्ट कर दिया था, ।\२१।। देवताजकौ ब्राह्यणोकौ निन्दा करना ओर कुसद्धम `
रहना आदि उसका मुख्य कामं था \\२२।। माहिष्पत राजाने अपने एसे लडकेको देखकर जिसका किंनाम `
म्यक था, उसे राज्यसे बाहर निकाल दिया 11२३} उसको उसके पिताने तथा अन्य बन्धुओने तथा राजकि `
` डरसे उसके सब परिवारने भी अपनेसे बाहर कर दिया ।\ २४ ।\ सबसे परित्यक्त अकेला टंपक भौ सोचने `
लगा कि, मुने सबने छोड दिया अब सें क्या करं ? ।\ २५।। इस प्रकार चिन्ता करके उस समय उसने `
अपनी बुद्धि पापमें की कि, मुक्षे पिताका पुर छोडकर वनम गमनकरना चाहिये ।। २६ ॥। में उस वनसे पिताके `
पुरमें घुस जाया करूगा, इस प्रकार रातमें पुर ओर दिनमें जङ्कलमें रहंगा ।। २७।। दैवसे गिराया गया लुंपक `
इस प्रकार विचार करके उस पुरसे गहन जनमे चला गया ।\ २८ । वो रोज ही जीवहत्या ओरचोरीकिया `
करता था, उस पापीने सारे शहरकी चोरौ कौ ।\ २९।। जन्मान्तरीय पापोसे वो पापौ राज्यसे रष्टतोहोही'
गया था लोगोने उसे चोरौ करते षकडा पर राजाके उरसे छोड दिया ।।३०।। वो रोज फल जौर मांस लाकर `
गृजारा करता था पर उस दुष्ट का आश्म जो था वहु वासुदेवके संमत था ।\२३१।। उसमें बहुत वर्षोका
ष ष | र ्, शीतः । श्ीतनें अत्यन्त बाधा दी, ल्मभ्पकं वस्त्र हीन था अतः |
संरदीका मारा बेहोश हो गया \\३५।। बो शीतसे पडित हौ अश्वत्थके समो निष्प्राणसा हौ गया उसेनीद
तोधा ही कहु \\२६।। बांतसे दांत कजते भे एसे ही उसने रातं {तादी सुग्येके निले ८
। चेतना 1 नहीं हुई ।\२७।। होते हते हे राजन् ! उसे मध्याह्न का समय हो गया तब चेत नहीं हुभा, जिस ब
` बो इस प्रकार बेहोश था उस दिन सफला एकादशी थौ \\ ३८1! एक मुहूतें उसे संज्ञा हई तब आसनसे उठा `
पागिरेकी तरह् बारबार चलने लगा ।\३९।। वनम था ही भूख प्यासने व्याकुल किया पर उस ` ५.
म्पकको को इतन भी वित नहीं रही कि, जीव तो मारले ॥४०।। भूमिमे पड़ हे फर्लेको उठाकर ` ध
जबतक आया तब तक सुयदेव छिपे गये. हा तात ! आज क्या होगा ? एसा कह कर दख हो रोने ल्या. बे
बं फल वुक्षकी जडम रख विया ।\४ १।।।।४२।। जर कहा कि, इससे भगवान्प्रसन्न हों जायं वहां ही बढ
स रातको ४ भी नीद न रे सका 1} ४३1} भगवान् मधु सुदनने उसे अपने व्रतका जागरण माना एवं फलोसे
व्रतानि न हिन्दीटीकासहित ` (५२९)
लोग इस सफला नामकौ एकादक्ीका त्रत या जागरण करते हँ ।५४।। वे इस खोकमें यज्ञ पकरर अन्तमं ` |
मोक्ष प्राप्त करते हं इसमे सन्देह नहीं है ओर बे लोग धन्य हँ जो सफला व्रत करते हूं ।\५५।। वे लोगं उस्
` जन्मे मोक्ष पाते है इसमें सम्देह नहीं है \ तथा हे राजन् ! इसफे माहातम्यको भौ सुनकरके राजसुय यज्ञे
, चिन्ताहोकपरा
फलको पाकर स्वर्गमं चले जाते हं ।५६।। यह् पौष कृष्णाकी सफला नामकी एकादक्लीका माहात्म्य पूरा ,
हंजा ॥ 4 | | क
अथपौषल्ञुक्टेकादशीकथा
युधिष्ठिर उवाच !\ कथिता वै त्वया कृष्ण सफलेकादक्षो शुभा । कथयस्व
` प्रसादन श्रुक्ला पोषस्य या भवेत् ।! १ ।। किनाम को विधिस्तस्याः को देवस्तत्र
` पृनज्यते ।\ कस्मे तुष्टो हृषीकेश त्वमेव पुरुषोत्तम ।। २ ।। श्रीकृष्ण उवाच ।\ ष्णु ५
राजन् प्रवक्ष्यामि शुक्ला पौषस्य या भवेत् ।। तस्या विधि महाराज लोकानां च
` हिताय बं ।\ ३ ।। पूर्वेण विधिना राजन् करतव्येषा प्रयत्नतः ॥ पुत्रदेति च॒
नाम्नासौ सवेपापहरा वरा ।। ४ ।। नाराथणोऽधिदेवोऽस्याः कामदः सिद्धिदायकः ।। 1
नातःपरतरा काचित्रैलोक्ये सचराचरे ।। ५।! विद्यावन्तं यज्ञस्वन्तं लक्ष्मीवन्तं `
| । क त्यसौ ।। भ्युणु राजन् प्रवक्ष्यामि कथां पापहरं पराम् ।\ ६ \। पुरी भद्रावती ८ | | |
` नाम्नी राजा तत्न सुकतुमान् ।। तस्य राज्ञोऽथ राज्ञी च व्या नाम्नीति विध्रुता `
॥\ ७ ॥ पुत्रहौनेन राज्ञा च कालो नीतो मनोरथेः ।। नैवात्मजं नृपो लेभे वंशकर्तार- ` ।
मेव च। ८ । तेनव राज्ञा धर्मेण चिन्तितं बहुकालतः 1! कि करोमि क्व गच्छामि
` सुतप्राप्िः कथं भवेत् ।\ ९ ॥! न राष्ट न पुरे सौख्यं खेभे राजा सुकेतुमान् ।, 0
` ज्व्यथा कान्तया सार्द्धं प्रत्यहं दुःखितोऽभवत् ।। १० ॥! तावुभौ दम्पती नित्यं
८ परायणौ ।। पितरोऽस्य जलं दत्तं कवोष्णमुपभुञ्जते ।} राज्ञः पश्चान्न `
पर्यामो योऽस्मान् संतर्पयिष्यति । ११।। इत्येवं संस्मरन्तोऽस्य पितरो दुःखिनो- `
भवन् ।\ न बान्धवा न मित्राणि नामात्याः सुहृदस्तथा ।। १२ 1! रोचन्ते तस्य॒ `
` भूपस्य न गजादइवपदातयः ।। नेराद्यं भूपतेस्तस्य मनस्येवमजायत ।॥ १३ ।॥ |
नरस्य पुत्रहीनस्य नास्ति वं जन्मनः फलम् ।। अपुत्रस्य गृहं श॒न्यं हृदयं दुःखितं
सदा ।। १४ ।। पितृदेवमनुष्याणां नानुणित्वं सुतं र
१ १ मुत्पादयेन्चरः
१५ ॥ इहलोकं ५ यशस्तेषां परलोके
विना ।1 तस्मात्सवप्रयत्नेन सुत-
के शुभा गतिः ।। येषां तुपृण्य- `
॥ ११1. 2 क | ५
पुनविचार्यात्सबुद्धया ह्यात्मनो हितकारणम् ।। २१ ॥ अवारूढस्ततो राजा `
जगाम गहनं वनम् ।। पुरोहितादयः सवं न जानन्ति गतं नृपम् ।\ २२ ।। गम्भीरे
` विपिने राजा मृगपक्षिनिषेविते \। विचचार तदा तस्मिन्वनवृक्षान्विलोकयन् `
॥। २३ ॥ वटानदवत्थबिल्वांश्च खजूरान्पनसास्तथा ।। बकुत्गंश्च सदापर्णास्ति-
ल्दुकांस्तिलकानपि ।! २४ ।। लालांस्तालांस्तमालांश्च ददं सरलाचुपः ।। इडगुदी
ककुभार्चव शलष्मातकविभीतकान् । २५ ।\ शल्लकौोकरमदाश्च पाटलान्
` खदिरानपि ।। शाकांश्चैव पलाशांह्च शोभितान् ददृन्ञे पुनः । २६ ।। मुगव्या- `
` धवराहांर्च सिहाञ्छाखलामृगानपि ।। गवयान् कृष्णसारांद्च सुगालाञ्जञशकानपि `
` ॥ २७ ॥ वनमार्नारकान् कूराञ्जाल्लकां्चमरानपि ।! ददं भुजगान् राजा
वल्मीकादभिनिःसतान् ।। २८ ॥। तथा वनगजान्मत्तान्कलभेः सह संगतान् ।! `
` यूथपपांस्च चतुरदन्तान्करिणीगणमध्यगान् ।। २९ । तान् दृष्ट्वा चिन्तयामास `
ह्यात्मनः स॒ गजान्नपः ।\ तेषां स विचरन्मध्ये राजा शोभामवाप ह । ३०।॥
महदाहचर्यसंयुक्तं ददश विपिनंनपः ।\ क्वचिच्छिवारतं भण्वनरुटूकविरतं तथा
बहून् । ददश
। दश राजा लक्ष्मीवाच्चिमित्तेः शुभंसिभिः ।\ ३९ । सव्यात्परतरं `
चक्षुरपसग्यस्तथा करः ।। प्रारफुरचुपतेस्तस्य कथयञ्डोभनं फलम् ।। ४० ।। तस्य
तीरे मुनीन् दृष्ट्वा कुव ण णा गमं जपम् ।! अवतीय हयात्तस्मान्सृनीनामग्रतः स्थितः
स्तान् संशितव्रतान् ।। कृताञ्जलिपुटो भूत्वा `
१ 1\ तास्तानूषक्षिमगान् पदयन्बभ्राम वनमध्यगः \। एवं ददो गहनं नृपो
रवौ ।\ ३२ । क्षत्त॒डभ्यां पीडितो राजा इतश्चेतक्च धावति \\ चिन्ताया- `
पतिः संशुष्कगल्कन्धरः ।॥ ३३ ।! मया तु कि कतं कमं प्राप्तं दुःखं यदी-
दृशम् ।॥। मया वै तोषिता देवा यज्ञः पूजाभिरेव च ।1 ३४11 तथेव ब्राह्मणा दने- `
स्तोषिता मृष्टभोजनेः ।। प्रजाश्चैव यथाकालं पुत्रवत्परिपालिताः ॥ ३५ ॥
कस्माह्.:खं मया प्राप्तमीदृश्ञं दारुणं महत् \। इति चिन्तापरो राजा जगामाथाग्रतौ `
वनम् | ३६ ॥ सुकृतस्य प्रभावेण सरो दृष्टं मनोरमम् ।। मानसेन स्पद्धेमानं
` पदिनीपरिशोभितम् ।। ३७ ।! कारण्डवेश्चक्रवाके राजहंसेवच नादितम् ॥ .
मकरबहुभिम॑स्येरन्येज॑लचरर्यृतम् ।॥\३८।। समीपे सरसस्तत्र॒मुनीनामाश्चमान्
पितर लोग शोचने
प (1 1101 1 षष भ न (1
राजन् पुत्रदा नाम नामतः ।। ४६ ।। पुत्रं ददात्यसौ शुक्ला पुत्रदा पुत्रभिच्छताम् ।\
राजोवाच \\ ममापि यत्नो मुनयः चुतस्योत्पादने महान् ।। ४७ ।\ यदि तुष्टा
भवन्तो मे पुत्रौ वे दीयतां ज्ुभः ।! मुनय ऊचुः \! अस्मिन्नेव दिने राजन् पुच्रदा नाम
वतते ।\ ४८ \) एकादशी तिथिः ख्याता क्रियतां व्रतमूत्तमम् ।। आशीवदिन चास्माकं
केशवस्य प्रसादतः ।। ४९ ।! अवश्यं तव राजेन्दर पुत्रभ्राप्तिभेविष्यति ।\ इत्येवं
वचनात्तेषां कृतं राज्ञा व्रतं शुभम् ।\ ५० 1) द्वादश्यां पारणं कृत्वा मुनीच्त्वा पुनः
पुनः ।। आजगाम गृहं राजा राज्ञी गभं समादधे ।\! ५१ ।। मुनीनां वचनेनेवपुत्र- कछ
दाया: प्रसादतः ॥। पुत्रो जातस्तथा काले तेजस्वी पुण्यकमंकरृत् ।। ५२ । पितरं ह
तोषयामास प्रजापालो बभूव सः ॥ एतस्मात्कारणाद्राजन्कतेव्यं पुत्रदात्रतम् |
॥५३।। लोकानां च हितार्थाय तवाग्रे कथितं सया ।\ एतद्त्रततुय मर्त्या कुवन्ति ॥ . ५
पुत्रदाभिधम् ।। ५४ ।। पुत्रं प्राप्येह लोके तु मृतस्ते स्वगंगामिनः ।। पठनाच्छू- ` क |
वगणाद्राजघ्नक्वमेधफलं लभेत् !। ५५ ।\ इति श्रीभविष्योत्तरपुराणे पौषदुक्लका-
द्याः पुत्रदानाम्न्या माहात्स्य सपूमम् ।।
पौष शुक्ला एकादशी युधिष्ठिर बोरे कि, महाराज ! आपने बड़ी कृपाकरके सफलाकी कथा
सुनाई । अब पौष शुक्ला एकादश्ीकौ कथा ओर विधिको सुनादये ।\१। उसका नामओरविधिक्याहै! `
। र. । | र कनैनसे टेवताका उम पूजन होता है | हे पुरुषात्तम हूषीकेल्च 1 (4; व्रतके करनेसे अधि किसर प्रसन्न हैष । ॥ । । ५.
भे? ॥२1 शरकृष्णचन्द्र बोले कि, हे राजन् ! पौषकी जो एकावही होती है हे महारा ! संसारकेकल्याणके `
लिये उसे ओर उसकी विधि भौ साथ कहता हूं ३।1 है राजन् ! पष्टिके कहौ हुई विषिसे प्रयत्नके सय यह
५ ५ . रन चाहिये, इसका नाम् पुत्रदा है सख पापो हरनेबाली है 11४11 इसके अधिष्ठाता देव कामनाको पुरी ; र ध ह ध ®
र । करनेवाले सिद्धिदायक भगवान नारयण ह् । इस चराचर जगत्म इससे उत्तम ओर कोई एकावक्शी ॥ 1 (६ । ¢ ।
` नहीं है \\५\\ यह् विद्या, यश्च जौर लक्ष्मीवाला बनाती है । ह राजन् ! इसको पापहारिणी कथाकोसृुनिये
मे, कहता हूं \\६।\ भद्रावती पुरीसे युकेतुमान राजा था; उसकी ोव्यानामकी प्रसिद्ध रानौथो)७।।, छि
उसके कोई सन्तान न थी \ पुत्रहीन राजाने अपना बहुत समय सनोरथोसे नष्ट कर दिया पर वंाकर्तापुत्र (ह
उत्यन्न न हुजा ।\८।।उसने धर्मसे बहुत समयतक बड़ी चिन्ता की वे दोनों राजा रानी रात दिन इसौ चिन्ता
५ । - “ में निमग्न रहने खगे । पितर लेग भौ इसी चिन्तामे उसके दिये हय जलका मुनगरूना भोग करने लगे ९1।किः ५५ (1 ¢
८; ३ लगे कि,राजके बाद ओर कोई नहीं है जो हमारा तपण करस कारण दसकादिया हुमा |
(1 ` गुनगृना पिया जा रहा है।।१०\) उस राजाको बन्धु, मित्रः संत्री, हाथी, घोडे आदि कुछ भी प्रिय नही मालूम ¦ |
, हेते थे ! उस राजाके मनम बड़ी निराशा उत्यन्न हुई \।१३।। ओर विचार करने लगा कि, पुत्रहीन मनुष्यके `
जन्मका कोई फल नहीं
1 है तथा उसका घर शुन्य है हूय सदाहीं दुःखी है।\ १४}} पितर, देवे, मनुष्योका
तबरतकं नहीं चटता जबतकं वि
हो; इस लिये पुत्र सब तरहसे उत्पन्न करना चाहिये 11५।। जिन `
लोकम यश्च ओर परलोक म शुभगति प्रप्त हो ह...
` जतर्ज् .. .- ` 1 पनन ना
जंगलमं चखा गया । इस बातकौ खवर उसके किसी सत्री पुरोहित आदिको भी न हुई ।\२२।\ बह उस शल्य
` जंगलमें जिसमें कि, वन्य पश्ुसे भरे रहे ह उन जंगली जानव रोके अन्दर वनके वुक्षोको देता हु विचार नं
` लगा ।\२३।1 फिर अनेक प्रकारके वड, पीपल, बेल, खजूर, कटहर, मोलश्री, सदापणं, तदक, तिलक \\ २४।।
श्ञाल, ताल, तमाल, सरल, इंगदी, शीक्षम, बहेडा, त्हिसोढ़ा, विभीतकं ।२५।। शल्लकी, करोदा, साठी,
सर, शार ओर पलाक्ञ आरिके सुन्दर वृक्षोको उसने देखा ।\२६।। तथा मृग, व्याघ्र, सिंह" बराह,बन्दर, `
` गवय, शयुगाल, शकक ।।२७।\ बनबिलाव एवं कूर शल्लक ओर चमर भी उसने देले तथा वाँमीसे निकल्ते `
` हए सप भी उसके देखनेमं आये ।\२८।। अपने छोटे छोटे बच्चोके साथ उसने वनके हाथी तथा मत्त हाथी
एवम् हृथिनियोके बौचमं उपस्थित चतुदेन्त युथनाथ भी देखे ।} २९।। उन्हं देख वो उन हाथियोको ओर `
अपनेको लोचने लगा उनके बौचमे घ्मते हुए उसने परमश्ोभा पाई ।\२३०।। राजाने बड़े आच्च्यके साथ
उस वनको देखा, कभी गोंधुआओंकी हह सुनी तो कभी उल्लृकौ घ धू सुनी ।\३१।। उन्हुं देवता सुनता तथा 4 |
उन पक्षि मृगोको देखता वनमें घूमने लगा, राजा मध्याह्वतक इसी तरह वनको देखता रहा ।३२।। इधर ५
` उधर धूमते फिरते भूखप्यास ज्यादा सताने लगी, कंठ सुख गया एेसी दामे सोचनेलगा ॥३३।। कि, मैने
एेसा कौनसा पाय किया था जिससे मुक्षे एेसा दुःख मिला, मेने यज्ञ ओर पजासे देवता संतुष्ट किये थे।।३४।।
उसी तरह ब्राह्मण भी मिष्टान्न भोजन ओर दक्षिणासे प्रसन्न किये थे ओर प्रजाका भी पुत्रकौ तरह पालन किया ।
| | है ।१२५।॥ मूक यह इतना बड़ा भारी दुःख क्यों भिखा ? यह् चिन्ता करता हुं वनम ओर भी अमाडी चला ` ध
ध इनक! स्पुरन अच्छा होता है।\४०।। उसके किनारे म॒निखोग
लोग भौ कौन
~ पुत्रकौ (न ो इच्छा करनेवाले लोगोको पुत्र प्रदान करती है । राजान कहा कि, महाराज मुनिराज |
॥1३६।। राजाने सुकृतके प्रभावसे एक सुन्दर सरोवर देखा, मानस सरोवरसे स्पर्धा करता हो इतना सुन्दर
था कमलिनियोसे सब ओरसे क्षोभित था ।\३७।। उसमें कारण्डव; चक्रवाकं ओर राजहंस बोल रहे थे
ममे बहूतसे हु मसे मगर सच्छ एवं दूसरे जखनचर थे ।\२३८।। उसके पासही बहूतसे ऋषि आश्रम भी दुष्टिगोचर 0
वे सब प्रभशंसी निमित्तोके साथ लक्ष्मीवान् राजाने देखे ।\३९।। दाहिना नेत्र ओर हाथ फड्कने लगा, _
इनका स्फ नेरोग गायत्री जप कर रहे थे, राजा घोडसे उतरकर `
उनके अगाड़ी खड़ा हो गया ।।४१।। हाथ जोड़कर उन सब प्रशस्त ब्रतवाङे मुनियोके चरणोमे अलग अलग `
दण्डवत प्रणाम कौ ।1४२\। श्रेष्ठ राजा बड़ा प्रसन्न हज ओर मुनि लोग भी राजाको देखकर प्रस्त ही बोले
कि, हम प्रसन्न हे ।।४२।।जो तेरे मनमें हो वो अब मांग छे, यह सुन राजाने कहा कि, महाराज तपेक्वरौ आप `
कौन हो, क्या नाम है तथा यहां क्यों ओर किसलये एकत्रित हृए हौ । यह यथार्थरूपसे किये! = `
मुनियोने उत्तर दिया, है राजन् ! हमललोग विदवेदेवा है, स्नान के वस्ते यहां पर आना हुमा है।।४४।।॥४५।१ = `
निकर र आ गया है ओर आजसे पांचवें दिस ठग जायगा, आज पुत्रदा नामकी एकादशी है ४६ यह् 1.
५ राज ! मेरेभी `
। करनेके लिये महान् प्रयत्न है ।(४७।) यदि आप मुक्षपर प्रसन्न हें तो मून मो पूत्रदेदीज्यि
¦ । आजही पुजदा एकादशी है इसलिये तुम्हारे घरमे इसके उत्तम ब्रतके करनेसे भग-
हमारे आशीर्वादिसे ।\४८।।४९।। अवय पुत्र उत्पन्न होगा । यह् सुन राजाने उनके वच- `
+. ११६. . | ¦ (6 < ५६ {५५१ 4 १११८ {
1 अथ माघक्ृष्णैकादज्ञीकथा
श्दाटभ्य उवाच ।। मत्यलोकं तु संप्राप्ताः पापं कुवन्ति जन्तवः \1 ब्रह्महत्यादि-
न ९
नाममा 6 । ^
पापैदच हयन्यैश्च विविधेयुताः ।! १ ॥। परदरव्यापहर्तारः परग्यसनमोहिताः ।। कथं `
नायान्ति नरकान्त्रह्यंस्तदब्रहि तत्त्वतः ।। २ ।\ अनायासेन भगवन् दानेनाल्पेन
केनचित् ।! पापं प्रशममायाति येन तद्रक्तुमहंसि ।। ३ ।\ पुलस्त्य उवाच \\ साध्
साधु महाभाग गुह्यमेतत्युदुलंभम् ।। यच्च कस्याचिदाख्यातं ब्रह्मविष्ण्विन्रदैवतेः
॥४॥ तदहं कथयिष्यामि त्वया पृष्टो द्विजोत्तम । पोषमासे तु संप्रप्तेशचिः ®
स्नातो जितेन्द्रयः ।\ ५।। कामकोधाभिमानेष्यलिभपेशुन्यर्वाजतः ।। देवदेवं च॒
संस्मृत्य पादो प्रक्षाल्य वारिणा \। ९ ।। पुष्यक्षण तु संगृह्य गोमयं तत्र मानवः।
ततस्तु पूज
` तिलान्प्क्षिप्य कार्पासं पिण्डकांहचैव कारयेत् ।। ७ ।। अष्टोत्तरशतं होमो नात्र `
कार्या विचारणा ।। माघमासे तु संप्राप्ते ह्याषाढक्षं भवेद्यदि ।\! ८ ।। मल वाकृष्ण- ®
पक्षस्य द्वाद धां नियमं ततः ॥। गृह्णीयात्पुण्यफलदं विधानं तस्य मेष्टरणु ।॥९।॥
५५ क
ं समभ्यचं सुस्नातः प्रयतः शुचिः ।। कृष्णनामानि संकीत्यं एकादश्याम् |
पोषितः।। १०।। रात्रौ जागरणं कुयद्रात्रौ होमं च कारयेत् ।! अच॑येद् देवदेवेशं (®
` द्वितीयेन पुनहंरिम् ।। ११ ।। चन्दनागुरुकप्रनवयं कृसरं तथा ।\ संस्तुत्य नाम्ना
तेनैवे कृष्णाख्येन पुनः पुनः \\ १२ कष्माण्डर्नारिकलहच दयथनता बीजपुरकेः ।॥} 1
सर्वाभावे तु वि्ेद्र शस्तपुगीफलयुतम् ।\ १३ । अर्घ्यं दद्याहिधनेन पुजयित्वा
` जनादेनम् ।\ कृष्ण कृष्ण कृपालुस्त्वमगतीनां गतिभेव ।। १४।। संसारा्णवमग्नानां
प्रसीद परमेश्वर ।। नमस्ते पुण्डरीकाक्ष नमस्ते विरह्वभावन ।। १५ । सुब्रह्मण्य
नमस्तेऽस्तु महापुरषपूवेज ।। गृहाणाध्यं मया दत्तं लक्ष्म्या सह जगत्पते । १६।
येयदिप्रमुदकुम्भं प्रदापयेत् ।। छत्रोपानदयुगेः सा्ध॑ङृष्णोमे प्रीयतामिति `
1 १७ ।। कृष्णा धेनुः प्रदातन्या यथाशक्त्या द्विजोत्तम ।। तिरपाचरं द्विजशेष्ठ
. दद्यात्तत्र विचक्षणः ।! १८ ।! स्नानप्राङ्रनयोः शस्ताः उवेताः कृष्णास्तिला
स्वगलोके महीयते ।। २० ।! तिल स
` ख्यास्तिला द्विज म | तावदरषसहस्राणि स्वगेल
स्तिखामुने।
तान्प्रदद्यात्प्रयत्नेन यथाशक्त्या द्विजोत्तम ।\ १९ ।। तिलप्ररोहनाः क्षेत्रे यावत्स-
पी... व
मी तिलोदकी ।। तिलभुक् तिल्दाता च षट्तिलाः पापनाहकाः |
दीनानां ब्राह्मणानांच कुमारीणां च भक्तितः ।। २६ ॥। गृहादिकं प्रयच्छन्ती सर्वकालं `
महामतिः \\ अतिङकृच्छरता सा तु सवंकारुषु चं द्विजा ।। २७ ।\ ब्राह्मणा ना्लदानेनं
तपिता देवता न च \! ततःकालेन महता मया वै चिन्तितं हिज ।। २८ ॥ श्ुदध- `
मस्याः शरीरं हि बतः कच्छे न संशयः ।। अजितो वैष्णवो लोकः कायक्लेशेन वे `
तया ।। २९ ।। न उत्तमद्चदानं हि येन तप्तिः परा भवेत् ।। विचिन्त्येवं मया ब्रह्मन्
म॒त्थुखोकमुपेत्य च ।\ ३० ।। कापालं रूपमास्थाय भिक्षां पात्रेण याचिता ।ब्राह्यण्यु- = `
वाच ।! कस्मातत्वमागतो ब्रह्मन् वद सत्यं ममाभ्रतः ।\ ३.१ ।! पुनरेव मयप्रोक्तं `
देहि भिक्षां च सुन्दरि ।! तया कोपेन महता मुत्पण्डस्ताश्रभाजने ।\ ३२ ॥ क्षिप्तो
यावदहं ब्रह्मन् पुनः स्वर्गं गतो द्विज ।। ततः कालेन महता तापसी सुमहाव्रता ।\३३।। `
सदेहा स्वगेमायाता ब्रतचर्याप्रभावतः ) मत्पिण्डस्य प्रभावेण गृहं प्राप्तं मनो- `
रमम् ।\ ३४।। परं तच्चव विप्रषं धान्यकोशविर्वाजतम् ।। गृहं याच्त्प्रविष्येषान
किञ्चित्तत्र पश्यति ।। ३५ ।\ ताबद्गृहाद्विनिष्कम्य ममान्ते चागता द्विजा ।॥ `
कोधेन महताविष्टा इदं वचनमब्रवीत् ।। ३६ ।\ मया व्रतइच कच्छं श्च ह्य पवासेर- `
नैकशः \! परुजयाऽऽराधितो देवः सर्वलोकस्य भावनः ।। ३७ ॥ न तत्र हृष्यते `
आगमिष्यन्ति सुतरां कौत्हरसमन्विताः ॥ द्रष्टं त्वां देवपत्यस्तु दिव्य रूपसम-
न्विताः ।। ३९ ।! दवारं नोद्धारय विना षट्तिलापुण्यवाचनात् ।। एवमुक्ता गता
सा व मानुषी गृहम् ।। अत्रान्तरे समायाता देवपल्न्यद्च नारद ।\! ४० ।\
कि केल्चिद्गृहं वद्गृहे मम जनादन ।! ततहचोक्ता मया सा तु गृहं गच्छ यथागतम् । ३८ ।।! 1
तमिदच कथितं तत्र त्वां द्रष्टुं हि समागताः \\ द्वारमुद्धारय त्वं चपहयामस्त्वां
शुभानने ।। ४१ ।\ मानुष्युवाच !\ यदि द्रष्टुं समायाताः सत्यं वाच्यं विदेषतः।। `
ताभिश्च मा त सो ॥। न देवी न च गन्धर्वो नासुरी न च पञ्चगौ \। ४४
तथा नारी ` हि दर्ीयं द्विजषेभ ।! देवीनामपदेशेन षटत्तिलाया बतं कृतम |
मानुष्या ॥ सत्यत्रतया भुक्तिमुक्तिफलप्रदम् \} रूपकान्तिसमायुक्ता क्षणेन `
५५९१. = ©. ^ १.५१८.१८९ । | 4१.1.44
| अथ साघङृष्णा एकादश्षीको कथा-दालभ्य बोले कि, मत्संलोकमें आये हए जौव तो पाप करते है ( १
अ्रह्यहत्यादि महापातक तथा दूसरे दूसरे ओर पापोसे भी धिरे रहते हे \\१।1 चोरी ओर व्यभिचारमे र्मे `
रहते हं पर है ब्रह्मन् नरकोको क्यों नहीं आते । यह् यथाथेरूपसे कहिये ।।२।। जिस छीटेसे दानसे वापुण्यसे
पाप शान्त हो जाय । है भगवन् ! उसे मुक्षसे कहिये ।\२।! पुलस्त्य बोले कि, बहुत अच्छा बहुत अच्छा, है
महाभाग { यह बड़ा ही गोपनीय है मौर सुतरां दुलभ है यह् ब्रह्मा विष्णु, महेश किसीने भौ किसीसे नहीं
` कहा 11४1} उसे अब मं जापको सुना दंगा, आप सुने, पौषका महीना आनेपर जितेन्द्रिय मनृष्य पवित्र होकर
स्नान करे ॥\५।। काम कोधादि विकारेका परित्याग करे ईर्ष्या ओर पिशनताका त्याग करे, भगवासको
स्मरण कर हाथ पावका प्रक्षालन करे ।\६\\ पुष्यनक्षत्रके साथ उसमें गोबर ठेकर उसमें तिर ओर कपास
मिला पिण्ड बनालेना चाहिये \\७।। १०८ हौम हो इसमें विचार न करना चाहिये । माघ मासे आजनेषर `
यदि जाषाढ् नक्षत्र हौ ।८।। अथवा मूल हौ, कृष्णपक्षकी एकादशीके दिन नियम ग्रहण करे, उसके पुण्य- |
फलके देनेवाले विधानको मुक्षसे सुनो ।\९\। यतात्मताके साथ स्नान करके पवित्र हो भगवान्का पूजन करे `
एकादक्लीमं उपवास कर भगवानूके नामोका कीतेन करता हुमा ।\९०।) रातको जागरण करेएवं होम भी ` ०
उसी समय करे, दूसरे दिन देवादेव भगवान्का फिर पुजन करे ।\११।। वारवार कृष्ण नामसे स्तुति करके इन `
चन्दन अगर ओर कपरके साथ कृसरका नेवेद्य दे ।1 १२ कष्मांड ओर नारियलसे अथवा बिजोरेसे या `
सबके अभावमें तो हे विग्र बह्या सुपारीसे ।\१३।। भगवान् जनादनकी पजा कर अरध्यदान करे कि, है ` ।
क्ष्ण ! हे कृष्ण ! आप पाल् हँ अतः जिनकी कोई गति नहीं है उनको गति वन जाद्रये ।\१४।। ह परमभे-
इवर ! हम संसारसागरमं बे हुए हुं हमारा उद्धार कर द् । हे पुण्डरीकाक्ष ! तेरे लिये नमस्कारहै,है विष्व `
भावन! तेरे ल्यि नमस्कार है ।\१५।। हे महापुरुष सनातन ! तेरे लिये नमस्कार है, है जगत्पते ! जप |
लक्ष्मीक साथ अध्य ग्रहण करिये ।॥१६।। ओर अन्तमं ब्राह्मणक पुना कर उसको भरा हुभा घड़ाछ्त्र भौर |
जूती जोड़ा, देकर ‹ कृष्णो मे प्रीयतां ' पदका उच्चारण करे ।। १७।। हे द्विजोत्तम द्विजश्रेष्ठ ! बुद्धिमानुको `
चाहिए कि, साथ ही काली गौ तथा तिलका पात्र भौ यथाशवित दे 1 १८॥\ है मुने ! स्तानमे ओरभोजनमे छि
सफेद तिलका व्यवहार करना अच्छा है । ह द्विजोत्तम ! शक्ति के अनुसार उन्हीको दे भौ । १९। तिल्दान = `
` . करनेवाला मनुष्य उतने हजारवषं पर्यन्त स्वगंमें निवास करता है, जितना कि, उन तिलोसे उत्पन्न होनेवारे ` ।
‡ खेतोमें तिल पैदा हौते हो ।।२०\ तिलोसे स्नान उबटन ओर होम तिलोंका ही पानी तिल भोजन ओर ` छि
तिलका ही दान करना । इस प्रकार तिोसे ये छः काम होनेके कारण यह् षटतिला नामकौ एकादशौहोती
है । यह पापोको इर करनेवारी है ।\२१। नारदजी बोरे कि, हे विज्ञालबाहो कृष्ण ! अपकोप्रणामहै। क
षटतिला एकादश्ीको करनेवाला प्राणी कंसा फल पाता है ? ।\२२।। इसको आप कथा सहत वणन कीनिएः शि
` यदि आष मुन्चपर प्रसन्न हों तो । श्रौकृष्णजौ बोले कि, है नारद ! जैसौ मेने देखी वैसौही इसकी कथा मे छि
दुह वर्णन करता हूं इसे तुम सुनो \५२३।। हे नारद } प्राचीनकालमें स्यलोकके अन्दर एक ब्राह्मणौ थौ"वो
सदाव्रतों ओर भगवानुकी पुजा किया करती थी ।।२४॥\ प्रत्येक मासक उपवासोको करती थी, मेरी भक्तिसे ` `
मेरे उपवासोको भ किया करती थी, मेरी पुजामे गी रहती थी ।॥२५। जिसने अपना शरीर नित्यहौ उप- ` (
करनेसे, गरीवं ४ ब्रह्मणो ओरं कुमारियोको भक्तिसे क्षोण कर लिया था ॥२६।। बहू परमवृद्धिमतौ
वस्तुओको प्रदान करतौ रहती थी \इस प्रकार है नारद ! सदा वह कष्ट उढातौ रहती , `
(1) व्रतराज [ एकादव्बा-
` तापसी बहुत समयके बौतजानेपर ।\३३।। देहसहित स्वगं रोक चली गई इसी व्रतचग्यकि प्रभावे । मिटूके
` पिण्डदानके फलसे वहां शुस्दर घर मिला ।\३४\ लेकिन उसका धर अन्नकोषसे खाली था । घरमे नाकर उसने `
` जब कुछ न देखा ।३५।। तब वह फिर मेरे पास आई । उसने कोधमे आकर यह वचन कहा कि मेने `
इतने कठिन अनेक उपवासोसे ब्रतोसे ओर पुजासे सर्वेलोक हितकारी जनार्दन भगवानुकौ पूजा की ॥३७।। `
तो भौ मेरे घरमे हे जनादन ! कु नहीं मालूम होता । तब मेने कहा कि तु फिर जैसे आई॑है वेसेही अपने
घर जा ।\३८।। तुमको देखनेके लिए दिग्यरूपधारिणी अनेक देवपत्नी कुतुहर्के साथ अर्येगौ ।॥३९।। तुम
न उनको विना षटतिरेकी पुण्यकथाके अपना दरवाजा न खोलना, जितने ससयके बाद वो तपसी मानुषी |
अपने घरपर आई, इसी वीचमे उसके घरपर उसके ददन करनेके लिए देवस्तया आं उपस्थित हुई ।\४०
॥ देवयत्नियोने कहा कि, हम आपको देखनेके लिए आई हं । हे शुभे मुखवाली ! हार खोल, तुके देलना चाहती । | 4 |
। हें ।।४१।। मानुषौने कहा-यदि तुम मुञ्े वास्तवमें ही देखने आई हो तो मे अपना दवार तब लोलूंगौ जबकि, = . `
षट् तिला ब्रतका पुण्यं तुम मुञ्चे करोगौ ।\४२।। कोई न बोली कि, मे षट् तिला एकाव्शेकेव्रतकोदृगी पर `
उनमेसे एकने कहा कि, म तो इसे अवश्य देखुगी । \४३।। तब उन सबने द्वार खोलकर देवा कि उसके अन्दर
एक मानृषौ बैठी हुई है । जो न गन्धर्वी हँ न आसुरी जौर पन्नगी है \\४४।। जसे पहले एक मानुषौस्त्री देखी
थौ वही यह है । देवियोके उपदेशसे उसने षट्तिलाका त्रत किया ।४५।। यह मुविति भुव्तिका देनेवाला था, `
-मानुषौ सत्यत्रतवालो थौ, रूप कान्तिसे युक्त होकर क्षणमात्रमें पा गयौ ।\४६। घन, धान्य, वस््रादिः सुवणं `
रौप्य इनसे घर भर गया यह् सब षट् तिलाकाही प्रभाव था ?।४७।। न तो अत्यन्त तष्णाही करे; ओरन
। पणताही करे । अपनौ यथाशक्ति तिल व वस्त्र आदि दान करे ।\४८।। इसके प्रभावसे जन्म जत्ममे आरोग्य
मिलेगा, न कभी दारिद्रय, कष्ट ओर इुःखही होगा ।।४९।। इस प्रकार विषिपर्वक तिल दान करनेते उसके
सब पाप नष्ट होते हं) ईसमं जराभी संदेह न करना चाहिए । है द्विज ! इस षटतिलके उपवासक बरावर ५ (
शरेष्ठ नही है ।\५०।।५१।। यह श्रौ भविष्योत्तर परुराणका कहा हभ षद्तिलानामकी एकाद्क्ीका `
अथ माघशव्लकादक्ीकथां
अण्डजाऽचव उद्धिज्जाइ्च जरायुजाः ।। १ ।। तेषां कर्ता विकर्ता त्वं पालकः `
क्षयकारकः ।\ माघस्य कृष्णपक्षे तु षट्तिला कथिता त्वया ।। २॥ शुक्ले येकादशो `
तां ८.५५ च कथयस्व प्रसादतः \\ किनामा कोविधिस्तस्याः को देवस्तत्र पुज्यते ।॥ ३।। `
कृष्ण उवाच ।। कथयिष्या ति
7 सर्वपापहरा परा । ४ ।। पवित्रा पापहन्त्री च कामदा मोक्षदा नृणाम्!
च पिश्ञाचत्वविनारिनी ।। नैव तस्या व्रते चीणे प्रेतत्वं जायते
र्य व ठर उवाच ।\ कृष्ण कृष्णाप्रमोयात्मन्नादिदेव जगत्पते ॥ स्वेदजा = `
मि राजेनद्र शुक्ले माघस्य या भवेत् ।। जयानाम्नीति
५९७. १५६ 114 ५11 ८२५१
गन्धर्वः पुष्पदन्तकः 1! ११ ।। चिच्रसनश्च तत्रेव चित्रसेनसुता तथा ।। मालिनीति `
च नाम्ना तु चित्रसेनस्य कामिनी ।। १२।। मालिन्यां तु समुत्पच्चः पुष्पवानिति
नामतः ।\ तस्य पुष्पवतः पुत्रो माल्यवान्नाम नामतः ।। १३ ।। गन्धर्व पुष्पवत्याख्या
माल्यवत्यतिभोहिता ।\ कामस्य च शरेस्तीक्ष्ेविद्ाङ्खो सा बभूव ह॒ ।। १४।। तया
भावकटाक्षेक्च भाल्यवास्तु वक्ीकृतः \! लावण्यरूपसंपत््या तस्या रूपं नुप श्युणु `
॥ १५ ।\ बाहू तस्यास्तु कामेन कण्ठपान्ञौ कृताविव ।। चन्द्रवहदनं तस्या नयने `
श्रवणाथते ।। १६ ।। कणौ तु शोभितौ तस्याः कुण्डलाभ्यां नपोत्तम । कण्ठो
ग्रैवेयसंय॒क्तो दिव्याभरणभूषितः ।। १७ ।! पीनोन्नतौ कुचौ तस्यास्तौ हेमकल- `
ज्ञाविब ।। अतिक्षामं तदुदरमुष्टिमातरं च मध्यमम् ।\! १८ ।। नितम्बौ विपुलौ छ
तस्या विस्तीर्णं जघनस्थलम् ।। चरणौ शोभमानौ तौ रक्तोत्यलसमदयुती । १९
ईहयां पुष्पवत्यां स मात्यवानपि मोहितः । शक्रस्य परितोषाय नृत्याथं तौ
समागतौ ।। २० ॥ गायमानौ न तौ तन्रह्यप्सरोगणसङ्कतौ । न शुद्धगानं गायेतां छि
चित्तममसमन्वितौ ।। २१।। बद्धदृष्टौ तथान्थोन्यं कामबाणवश्ं गतो ।। नात्वा छि
केखषभस्तत्र संगतं मानसं तयोः ।। २२ ॥! कालक्रियाणां संलोपात्तथा गीता- ह
` वभञ्जनात् ।। चिन्तयित्वा तु मघवानवज्ञानं तथात्मनः ।। २३ ।। कुपितश्च
तयोरित्थं शापं दास्यन्निदं जगौ । धिग्वां पापगतौ मूढावाज्ञाभद्धकरौ मम॒
॥। २४ ॥ युवां पि्ञाचौ भवतं दम्पतिरूपधारिणौ ।\ मृत्युलोकमनुप्राप्तौ भुञ्जानौ
` कर्मणः फलम् 11 २५ ।\ एवं मघवता शप्तावुभौ इुःखितमानसौ ।। हिमवन्तम- छि
नुप्राप्ताविन्दरापविमोहितौ । २६ । उभौ पिन्ञाचतां प्राप्तौ दारुणं दुःखमेव (ह
च ।। संतप्तमानसौ तत्र महाङृच्छुगतावुभौ ॥ २७ ।\ गन्धं रसं च स्पश चन वि
जानीतो विमोहितौ ।। पौड्यमानौ तु दाहेन देहपातकरेण च ।॥ २८ \ तौ न हि
निद्रासुखं प्राप्तौ कर्मणा तेन पीडितौ ।। परस्परं खादमानौ चरे्तुगरिगह्वरम् ५.
` ॥ २९ \\ पीडयमानौ तु शीतेन तुषारप्रभवेण तौ ।। दन्तघषं प्रकुर्वाणो रोमा- ` छि
| स्चितवपुधेरौ ।\ २० ।। ऊचं पिन्ञाचः शीताधेः स्वपत्नीं तु पिश्ाचिकाम् ।\ किमा- ~ ति
वाभ्यां कृतं पापमत्यन्तं दुःखदायकम् ।। ३१॥\ येन प्राप्तं पि्ञाचत्वं स्वेन दृष्छृत- `
(५२३८) 1 व्रतरजु त पा [ एकादक्ला-~
मानौ तु तौ तत्र हिमेन च जडीकृतौ ।\ परस्परेण संलग्नौ गात्रयोभुजयोरपि
॥ ३८ 11 न निद्रां न रति तत्र तौ सौख्यमविन्दताम् ।! एवं तौ राजशार्दूल क्षपेने- `
न्द्रस्य पीडितौ ।। ३९ \! इत्थं तथोर्दुःखितयोनिजेगाम तदा निज्ञा । जयायस्तु =
` ब्रते चीर्णे रात्रौ जागरणे कृते 11 ४० ।} तयोव्रेतप्रभावेण तथा ह्यासीत्तथाश्यण् ।\ ।
` हादशीदिवसे प्राप्ते ताभ्यां चीर्णे जयात्रते ! ४१।। विष्णोः प्रभावान्नुपते पिशा- (८.
चत्वं तयोर्ग॑तम् ।। पुष्पवतीमाल्यवांश्च पवेरूपो बभूवतुः ।! ४२ ।\ पुरातन-
स्नेहयुतौ पुर्वालंकारसंयुतौ ।। विभानमधिरूढौ तावप्सरोगणसेवितौ । ४३ ॥
` स्त्यभानौ तु गन्धर्वेस्तुम्बुर्प्रमुखेस्तथा ।! हावभावसामायुक्तौ गतौ नाके मनो- `
` रमे ।। ४४ ।। देवेन्रस्याग्रतो गत्वा प्रणामं चक्रतुमुदा ।। तथाविधौ तु तौ दृष्ट्वा `
मघवा विस्मितोऽब्रवीत् ।। ४५ ।\ इन्द्र उवाच ।। वदतं केन पुण्येन पिशाचत्वं `
` विनिर्गतम् ।। मम शपवशं प्राप्तौ केन देवेन मोचितो ।। ४६ ।। माल्यवानुवाच ।।
वासुदेवप्रसादेन जयायाः सुव्रतेन च ।। पिशाचत्वं गतं स्वामिन्सत्यं भक्तिप्रभा- `
बतः ।\ ४७ ।\ इति श्रुत्वा वचस्तस्य प्रत्युवाच सुरेहवरः ।! पवित्रौ पावनौ
जातौ वन्दनीयौ ममापि च ।। ४८ ।। हरिवासरकर्तारौ विष्णुभक्तिपरायणो ।॥ `
` हरिभक्तिरता ये च शिवभक्तिरतास्तथा ।। ४९ ।\ अस्माकमपि ते मर्त्याः युज्या `
शा न संहायः ।। विहरस्व यथासौख्यं पुष्पवत्या सुरालये ।\ ५० ।! एतस्मात्का-
रणा्राजत् कर्तव्यो हरिवासरः \। जया नामेति राजेन्द्र ब्रह्महत्यापहारकः।\५१।॥ `
सं्वैदानानि दत्तानि यज्ञास्तेन कृता नुप ।। सर्वंतीर्थषु सुस्नातः कृतं येन जयाव्र- =
तम् \\ ५२ 1 य करोति नरो भक्त्या श्रद्धायुक्तो जयान्रतम् ।! कल्पकोटितं `
वदवकुण्ठे मोदते ध्रुवम् ।! ५३ ।\ पठ्नाच्छवणाद्राजन्नग्निष्टोमफलं लभेत् `
॥ इति श्रीभविष्योत्तरपुराणे माघशुक्लंकादश्या जयाया माहात्म्यं
` अथ माघशरुक्ला एकादक्ञीकथा- युधिष्ठिरजौ कहते ह कि, हे कृष्ण ! हे कृष्ण ! हे अप्रमेयात्मन् ! = `
हे आदिदेव ! हे जगत्यते ! आप स्वेदज, अण्डन, जरायुन ओर उन्डिज्ज इन चारो तरहोके प्राणियोके कर्ता, ` |
ल्क आप है सब लोकोके नाथ ओर आदि देव भौ जाप हौ हे, आपको महिमा अचिन्त्य है अतुल `
स.लिये जिस प्रकार आपने माघ कुष्णयक्षकी “ षट्तिला ' एकादशौका वर्णन किया उसी प्रकार `
एकादज्ञौका भौ वर्णेन कृपा करके कर दीजिये उसका नाम ओर पुजाविधि तथा उस दिन किस `
दैवयोगसे
व्रतानि |. हिन्दोटकासांहत (५३९)
थे । इसके शासनमें देवतागणं सुन्दर स्वर्गमे बड़ा सुखभोग कर रहै थे ।\८। सदा अमृतपान करना ओर अप्स `
राकां भोग करना उनका प्रधान काम धा ! उस जगह पारिजात नामके स्वर्गीय वक्षोये क्लोभित नम्दन वनं
भी था ।\९।\ जहां देवता अप्सराञोके साथ रमण करते थे । हे राजन् ! एक समय यहु इन्द्र जब कि अप्सरसे
रमण कर रहा था, तब हूर्षातिरेकसे उसने ।\१०। पचास करोड़ वेश्याओंका नृत्य कराया, गन्धर्वं रोगोका
` गाना हुजा । प्रसिद्ध गायनाचायं गन्धव राज पुष्पदन्तं ।\११।। तथा चित्रसेना नामकौ अपनी पुत्रीके साथ
ध | चित्रसेन भौ बहीं उपस्थित थे । इस चित्रसेन गन्धवकी स्वीका नाम ` मालिनौ ' था 1 १२।। जिससे पुष्य-
वान् नामका लड़का उत्पन्न हा इस पुष्पवान्के माल्यवान् पुत्र हज \\ १३।। इस साल्यवान पर एक पुष्प- `
वती नामको गन्धर्वी मोहित हो गई थी । उसके ही मारे काम देवकरे तीक्ष्ण बाणोसे घायल हो गई । उसके भाव-
पूणं कटाक्षोसे एवं रूप कावण्यकौ संयत्तिसे भाल्यवान् भी उसके वह्लीभूत हौ गया उसका लावण्य ओर रूष `
सौन्दयं कंसा था? इसको हे राजन् ! आप सुनिये ।\ १४।।१५।; उसको भुजां कामदेवके साक्षात् कल्पान _
थे । मुखं चन्द्रमाके समान सुन्दर ओर आंखें कानोतक लम्बौ थीं ।।१६।। कान कुंडलोसे सज रहै थे । गमे
हार तथा दूसरे अनेक प्रकारके अलकारोसे उसक्तौ सुन्दरता बद रही थौ । कंठ कठभूषा ओर दिव्य आभार- `
णोसे सज रहा था ।\१७।। उसके पष्ट ओर ऊपर उठे हए स्तन स्वणकल् जसे मण्लृम होते थे । उदर बहुत
पतला तथा मध्यभाग मुष्टिप्रमाण या ।१८।। विशाल नितम्ब ओर जवनस्थल बहुत विष्तेत था । उसके
चरण रक्तकमल जंसे सुन्दर थे ।\१९।। एेसौ पुष्पवतीपर माल्यवान् भी मोहित हो गया । बे लोग इद्रको
भ्रसन्न करनेके लिये नाचने ओर गानेको आये थे ॥॥२०॥ जिस समय बे दोनों अर्थात् माल्यवान् मौर पृष्य-
वतौ अप्सराओके साथ गा रहे थे तब उनका कामोन्मादके कारण गाना शुद्ध नहीं हो पाताथापएेसामालूम
, होता था मानो उन्हु कोई चित्तश्रम हो गया हो ।\२१।। एकं दूसरेको दृष्टि लगाकर देव रहैथे। दोनोकाम- `
` बाणोके वहीभूत हो चुके थे, इस समय इनद्रने उनके मनके भावको जान लिया कि इनका मन मिल चुकाटहै `
` ॥२२।। ओर इसकं कारण अपने अपमानसे तथा सामयिक क्रियाओके लोपसे मौर गायन भङ्ुते ॥\२३।१ |
कुपित होकर यह् शाप दिया कि, हे नालायको ! तुमने पाप गत हो मेरी आज्ञाको भंगकियारहै,जाओचके
जाओ, तुम्हें धिक्कार है । तुम दोनों स्त्री पुरुषके रूपसे ही मत्य॑लोकमे जाकर पिशाच योनिम अपने कर्मोका `
फल भोगो ।॥२४।।२५।। इस प्रकार इन्द्रके शापसे दुःखी होकर वे दोनों ज्ञाप मोहित हो हिमवानके निकट `
५ ` बरे ।(२६।। दोनो उस ज्ञापके प्रभावसे पिशाचयोनि ओर दारुण दुखोको प्राप्त हो गये । दोनोका हृदय संतप्त ` ^
। ( रहने लगा वे महाकष्ट पाने लगे ।\२७।) तमके बढ़ जानेके कारण गन्ध रस ओर स्पर्शका जान नष्ट होगया, ` | १५
दहान्त करनेवारे दाहसे पीडित हौ गये \\२८।। उन्हूं कर्मके प्रभावसे कभी निद्राका सुख नहीं भिला क्िन्तुएक |
दूसरेको खाते हुए बे लोग पहाङ़के दर्योमें चले गये १\२९।। जाडेके शौतसे पीडित हौ दातोको रगड्ते हए |
सोमाल्चित शरीरसे दिन विताने लगे ।\३०।। उनमेसे एक दिन पिशाचने अपनी पिशाचौ स्त्रीसे जोतकेदुःखमे `
कहा कि, हमलगोने कौनसा एेसा दुःखदायक कम किया है ? ।।३१। जिस बुरे करमसे हमं यह नरक्रूप `
पिह्लाचयोनिकौ प्राप्ति हुईं है । मं इस निन्दित पि्लाच योनिको दारुण नरक मानता हूं ।1३२।। इसल्यि
अब कभौ हमें कोई पाप किसी तरह भौ नहीं करना चाहिये वे इस चिन्तां दुःखके सतयेहुए रहे जये ।।३३।। =
८ गसे इसौ अवसरमे माघ महीनेकी जया नामिका गुक्ला एकादल्ी भी आ पहुंची, जो तिथियोमेंसब्े
उत्तम तिथि है ।\३४। है राजन् ! उस दिन उन्होने निराहार ब्रत किया, जल्पान भौ न किया 4
आये ।\३५।। वे दोनो एक अदवत्थ वृक्षके नीचे पड शहर उस एकादशीके दिन जीवहत्या ओर फल भक्षण = -
या इतीतरहरहे `
(व). तरिः र एकादशी
बवती ओर माल्यवान् पहले के रूपको धारण करते हए ।।४२।। अपने पुराने प्रेमसे युक्त हो अप्सराओके साथ
पुराने अलंकारोसे अखंजृत होकर अष्सराओसे सेवित हए विमानपर सवार हो गये ।\४३।। तुबर आदि गन्धव .
स्तुति करते थे बडे हावभ्व से युक्त हो इस प्रकार वे दोनो फिर उस सुन्दर स्वगं परहचे ॥\४४।। उन्होने वहा = `
इन्दरके आगे प्रसन्न होकर प्रणाम किया । इन्द्र भी उन्हें पूवे रूपमे देखकर बड़ा विस्मित हृञा बोला ।४५। =,
कि, हे गन्धर्वो ! यहु बतलाओ कि, मेरे ज्ञापसे मिला तुमारा पि्लाचत्व किस प्रकार दूर हुमा ? मेरेक्षापका =
मोचन किस देवताने किया ।४६।। माल्ववान् बोला कि हे देवराज ! भगवान् वासुदेवके भभाव्से ओर जया `
एकादक्लीके व्रतसे एवं भगवान्कौ कृपासे मेरी यह् पिशाचयोनि नष्ट हुई है ! ।४७।। यह् वचन सुन इन्द्र तं 4 ।
उत्तर दिया कि, अब तो तुम लोग बड़े पवित्र तथा मेरे भी वन्दनीय हो गये हो ।1४८।। हरिवासरकोकरनेवाके `
विष्णुभक्तिमें लीन रहनेबाके तथा जो खछोग सदा हरिभक्ति ही में अपना समय बिताते हे ओर जोशिवभक्त
है ।\४९।। वें सब ही लोगोके भी पूजनौय,वन्दनीय हँ । इसलिये तुम अब पुष्पवतीके साथ स्वर्गमे आनन्द्से =.
` इच्छापुर्वक मोग करो ।\५०।। इसीलिये हे राजन् ! जया नामका हरिवासर अवश्य ही करना चाहिये \ यह
ब्रह्महत्याके दोषका भी नष्ट करनेवाला है ।\५१। हे राजन् ! उसने सब दार्नोको दिया ओर सब यज्ञोको
किया है मौर सब तीर्थो स्नान किया है जिसने इस जया एकादशी व्रत किया हो ।॥५२)) जो सनुष्यश्द्धा- =
भक्तिसे जयाके व्रतको करता है वह कल्पकोटिपयेन्त निश्चय करके वेकुण्ठमें आनन्द करता है ।\५३।। इसकी `
कथाको श्रवण करनेसे अग्निष्टोम यज्ञ का फल प्राप्त होता है । यह श्रौ भविष्योत्तर पुराणकी कही हुई माघ- = `
` शुक्ला जया एकादज्ञीका माहात्म्य पुरा हुआ ॥ 1
1 अथ फाल्गुनङृष्णकादक्ञीकथा ` न.
1 युधिष्ठिर उवाच ।! फाल्गनस्यासिते पक्षे किनामेकादश्षी भवेत् ॥ वासुदेव
कृपासिन्धो कथयस्व प्रसादतः ।। १ \। श्रीकृष्ण उवाच ।। कथयिष्यामि राजेन्द्र
कृष्णा या फाल्गुनी भवेत् ।! विजयेति च सा प्रोक्ता कवृणां जयदा सदा ।! २
सनम् ।। ३ ।। फाल्गुनस्यासिते पक्षे विजयानाम या तिथिः \ तस्यां त्रतं सुरश्रेष्ठ `
कथयस्व प्रसादतः !\ ४ ।। इति पृष्टो नारदेन प्रत्युवाच पितामहः ।। ब्रह्मोवाच ।॥ `
श्णणु नारद वक्ष्यामि कथां पापहरां पराम् ।! ५ ।। पुरातनं व्रतं ह्येतत्पवित्रं पाष- `
नाशनम् \। यच्च कस्यचिदाख्यातं मयतद्विजयाव्रतस् ।। ६ ॥ जयं ददाति विजया `
एकच ब्रतमाहात्म्यं सर्वेषापहरं परम् । नारदः परिपप्रच्छ ब्रह्माणं कमला- `
+ तात
८ ८ < ध तो
५ = ता अः
¢ हिन्दीटीकासहित ` ५ . "त (५४१ ) ॥
दुस्तरं रामो विस्मितोऽभूत्कपिप्रियः । १५ \। प्रो्फुलललोचनो भूत्वा लक्ष्मणं ` ५
वाक्यमब्रवीत् ।! सौमित्रे कन पुण्येन तीयते वरुणालयः \! १६ ।। अगाधसलिलः
पूर्णो नक्रभोमः समाकुलः ।। उपायं नैव परयामि येनैव चुतरो भवेत् ॥ १७ ॥\
` लक्ष्मणं उवाच ।! आदिदेवस्त्वमेवासि पुराणपुरुषोत्तम ।। बकदाहभ्यो मुनिहचात्र
वतते द्रीपमध्यतः ।।! १८ ।। अस्मात्स्थानाद्योजनाद्ंमाश्चमस्तस्य राघव ।। अनेन
दृष्टा ब्रह्माणो बहवो रघुनन्दन ।। १९ ।। तं पृच्छ गत्वा राजेन पुराणमृषिपुद्धवम्।
` इति वाक्यं ततः शरुत्वा लक्ष्मणस्यातिश्लोभनम् \! २० ।) जगाम राघवो द्रष्टुं बक- `
दाल्भ्यं महामुनिम् ।! प्रणनाम मुनि मूर्ध्नां रामो किष्णुमिवामराः ।॥ २१।॥
मुनिर्ञात्वा ततो रामं पुराणपुरुषोत्तमम् ।। कनापि कारणेनैव प्रविष्टं मानुषीं `
तनुम् ।\२२।। उवाच स ऋषिस्तत्र कुतोराम तवागमः 1 राम उवाच।।त्वत्प्रसा- `
दादहो विप्र वरुणाख्यस्निधिम् ।! २३ ।। आगतोऽस्मि सेन्योऽत्र ल्ड्कां जेतुं
सराक्षसाम् ।! भवतह्चानकल्येन तीर्यतेऽन्धिर्यथा मया ।। २४ ।। तम॒पायं वद॒ `
सुने प्रसादं कुर सुव्रत ॥। एतस्मात्कारणादेव द्रष्टु त्वाहमुपागतः ।। २५ ॥! मुनि- `
रुवाच । कथयिष्याम्यहं राम व्रतानामुत्तमं व्रतम् ।। कृतेन, येन सहसा विजयस्ते
` भविष्यति 1) २६ ।। लडकां जित्वा राक्तसांह्च दीर्घां कौतिमवाप्स्यसि ।\ एका- `
ग्रमानसो भूत्वा ब्रतमेतत्समाचर ।। २७ ।\ फाल्गुनस्यासिते पक्षे विजयेकादन्ली `
भवेत् ।! तस्यात्रते कृते राम विजयस्ते भविष्यति । २८ \। निःसंशयं समुद्रं च॒ `
तरिष्यसि सवानरः ।। विधिस्तु श्रूयतां राम व्रतस्यास्य फलप्रदः ।! २९ ।। दडमी- `
` दिवसे प्राप्ते कुम्भमेकं च कारयेत् ॥। हेमं वा॒राजतं वापि तासं वाप्यथ मृन्मयम्
॥ ३० ॥ स्थापयेतस्थण्डिले कुम्भं जलपूर्णं सपल्लवम् ।। सप्तधान्यान्यधस्तस्य
यवानुपरि विन्यसेत् ।\ ३१।। तस्यपि
तरपि , गप नेवेर्येि अवि
कुम्भे गन्धमाल्यानुकपिते ।। गन्धैधूवेस्तथा दीपैनेवेचयेषिविधैरपि ।। ३३ ३९ 1
र योपरि न्यसेदेवं हैमं नारायणं प्रभुम् ॥ एका- `
दलीदिने प्राप्ते प्रातःस्नानं समाचरेत् २२ निर्चले स्थापितं `
कर्वन्ति नरा व्रतम् ।! इहलोके जयस्तेषां परलोकस्तथाऽक्लयः ।! ४० ।! एतस्मा-
` त्कारणात्पुत्र कतेव्यं विजयात्रतम् ।! विजयायार्च माहात्म्यं सवेकित्बिषनाशयनम्
1) पठनाच्छवणात्तस्य वाजपेयफलं लभेत् ।। ४१ ।। इति श्रीस्कन्दपुराणे फाल्गुन-
कृष्णेकादक्या विजयानास्न्या माहात्म्य समाप्तम् | 1
अब फाल्गुन कृष्णा एकाद्कल्ीकी कथा-युफिष्ठिर महाराज बोले कि, हे कृपासिन्धो ! हे वासुदेव ! =
फाल्गुनके कृष्णपक्षे कौनसी एकादक्ी होती है इसको आप प्रसन्न होकर वणेन कीजिये \\१। श्रीकृष्णजी `
महाराज बो कि है राजेन्दर ! फास्गुनं महीनेके कृष्णपक्षे जो एकादश्षी होती है उसका वर्णन मे करताहँं। =
उसका नामं ˆ विजया † ह क्थोकि उसके करनेवालोकौ सदा विजय होती है \\२॥ उसके व्रतका माहात्म्य
सब पापोंको हरनेवाखा है । कमलासन ब्रह्माजीसे नारदजीने पा था ।! ३ ।। कि, फाल्गुन महीनेके कृष्ण- = `
` पक्षमें विजया नामकौ जो तिथि है उसका त्रत हे सुरश्रेष्ठ ! कृपाकर वर्णन कीजिये \४।। ब्रह्माजी बोलेकि,
है नारद ! में तुम्हें उसकौ पापहारिणी कथाका वर्णेन करता हूं उसे श्रवण करो ।\५।। यह व्रत बहुत प्राचीन =
कालसे चला जता है जौर पापोका नाद करनेवाला है । मेने तुमको छोड़ अभी तक इसका रहस्य किसी दरस- `
` रेको नहीं बतलाया है ।\६।। यह विजया एकादङी अवश्य ही करनेवारे मनष्योको जय प्रदान करतीहै †
इसमं संशाय नहीं है । महाराज रमचन्द्रजी १४ वतक सीताजी ओर लक्ष्मणजीके साथ तपोवनमें जाकर १
पञ्चवटीमे जब निवास कर रहै थे उस समय महात्मा रामचन्द्र महाराजकी ।1७11८।\ तपस्विनी भार्या
सौतामाताको रावणने हर लिया था इस दुःखसे भगवान्को बड़ा मोह हुंजा ।\९।\ उन्होने भ्रमण करते करते
मरणासन्न जटायु को देला ओर पीछे जंगक्के अन्दर कबन्धका संहार किया ।१०)। वह् कबन्धमरते समय
अपनी वेसी दशा होने आदिके सब वृतान्त रामचनद्रजीको कहकर मूत्थुके वक्षमे हो गया । इसके बाद सुग्रीवके
भानजीने लंकाकौ अशोक वाटिकामे सौताजीको देखा ।\१२।। बहां रामचन्द्रजी महाराजका परिचय देकर `
बड़ भारी कामको पुरा किया ओर वापिस आकर सब समाचार भगवान्को निवेदन किया गया १२३!
इसत प्रकार भगवान्ने ह॒नुमान्जीके चचनोको सुनकर सुग्रीवको सलाहसे लंका जानेका विचार क्रिया 1 १४।\ `
. बन्दरोके प्यारे भगवान् राम वानरसेना के साथ नदनदीपति समुद्रके किनारे जाकर उसको दुस्तर देखकर `
ज जलनिधि किस प्रकार कौनसे पुण्यसे पार किया जा सकता है ? ।\१६।। इसमे अगाध जल है । बड़े बडे भयं- र .
कर नाक् आदि जलचरोसे भरा हुआ है । इसल्यि कोर उपाय नहीं मालूम होता कि, इसको कंसे पार क्रिया
1 १७।। लक्ष्मणजी बोले कि, महाराज ! आदिदेव ओर पुराणपुरुषोत्तम तो आपहीहँ । परतोभी `
इन्होने : | देखा है ।\१९।। इसलिये है राजेद्ध ! अप उनके
ध प 1 ११ चे ष पुराने शरेष्ठ मुनि हे, लक्ष्मणजीके इस सुन्दर बचनको सुनकर ।\२०।\ भगवान् `
+ वरतानि] 1 . । हिन्दीटीकासहित ७ (५४३) {:
` व्रतको करनेसे तुम्हारी अवश्य विजय होगी ।।२८।। निःसन्देह आप समुद्रको पार करेगे तथः आपकी बानर 0
सेनाभी उसे तर सकेगी । इस फलके देनेवाले व्रतकी विधि सुन लीजिए ।। २९।। जब दशशमीका दिन प्राप्त
हो तब एक धड़ा सोनेका या चांदीका तांबेका या मिटरीका बनावे ।।३०।। ओर घडेको बेदीपर जलसे भर
ओर पत्ते लगाकर स्थापित करे । उसके अपर सप्त धाल्योको अथवा यवको गिराव ।\३१।। उसके ऊपर
नारायण भगवान्को सुवणेको बनी हुई मूर्ति स्थापित करे । एकादज्ीका दिन प्राप्त होनेपर प्रातःकाल स्नान
करे \\३२। स्थापित किए हुये निह्चल कुम्भेपर गन्ध साला धारण करावे तथा धूप दीप ओर अनेकं तरहके
नवेद्य ओर नाना प्रकारके फलों ओर अनार नारियलसे उनकी पजा विशेषरूपे करे । ३३1 हे रासं ! सबं
दिन बड़ी भक्तिसे उस कुंभके आगे बितावे ।३४।। उसीके आगे रातमं जागरण करे 1 है राजन् ! द्वाद- ह
शीके दिन सूयं उदय होनेपर ।।३५।। उस कुम्भको किसी जलाडायके निकट नदी या ्लरनेके निकट केजाकर
यथा विधि पूजन करे ।\३६।। पछ देवतासहित उस कुम्भको किसी वेदपारग ब्राह्मणको दान कर दे तथा
न
ओर भौ महादानोको उसके साथ दे ॥।३७।\ इस प्रकारसे हे राम ! अपने सब सेनापतियोके साथ मिलकर
यत्नसे ब्रतको पूणं करो; इससे तुम्हारी अवश्य विजय होगौ ।\३८।। इस वचनको सुनकर भगवान् रामनं
यथाविधि उस व्रतका अनुष्ठान किया ओर इससे उनकी विजय हई ।\३९।! हे राजन् ! इस विधिसे जे `
लोग इस उत्तम ब्रतको करते हँ उनकी इस रोकमे जय ओर परलोकमें श्ुभगति प्राप्त होती है ।।४०।। इस
लिए हे पुत्र ! विजया त्रतको अव्य करना चाहिए उसका माहात्म्य सव पापोंको दुर करता है, पढ़ने ओर
अथ फास्गनक्षवेलकादक्ीकथा
मान्धातोवाच ।। वद ब्रह्यन्महाभाग येन श्रेयो भवेन्मम ।! कृपया तद्ब्रह्म- `
योने यद्नुग्राह्यतो मथि ।। १ ।! सरहस्यं सेतिहासं व्रतानामुत्तमं त्रतस् \। वसिष्ठ `
उवाच ।। कथयाम्यधुना तुभ्यं सर्वेव्रतफलप्रदम् ।। २ ।! आमलक्या व्रतं राजन् `
` सहापातकनाह्ानम् ।\ मोक्षदं सवलोकानां गोसहस्रफलप्रदम् ।\ ३ \! उवेवोदा- `
हरन्तीममितिहासं पुरातनम् 1। यथामुदितिमनुप्राप्तो व्याधो हिसासमन्वितः
॥ ॐ ॥ वैदलं नाम नगरं हृष्टपुष्टजनावृतम्।। ब्राह्मणैः क्षत्रियरवेदयेः शरैश्च `
समलङ्कृतम् ।। ५ ।। रुचिरं नृपशार्दृल ब्रह्मघोषनिनादितम् ।! न नास्तिको
इष्कृतिकस्तस्मिन्पुरवरे सदा \। ६ ।! तत्र सोमान्वयो राजा विख्यातः शरिबिन्दवः
` ॥ राजा चैत्ररथो नाम धर्मात्मासत्यसंगरः ।। ७ ।\ नागायुतबलः श्रीमाञ्छस्त्र-
सुननेसे वाजपेययक्का फल प्रप्त होता है ।\४१।। यह् श्रीस्कन्दपुराणकी कही हहं फाल्गुन कृष्णा विजया- ` क ध |
` नामकी एकादलौका माहात्म्य पुराहुजा ।॥ | 1
(प) ~ “^ " -व्रतसजः..: .. `. . ` {एकादशी |
जनाः सवे बालकाः स्थविरा नृप ।! नियमं चोपवासं च स्वे चकरर्नरा विभो ।॥\
॥ १४ ।! महाफलं ब्रतं ज्ञात्वा स्नानं कृत्वा नदीजले \। तत्र देवाल्ये राजा लोक- `
यक्तो महाप्रभः \। १५ ॥। पूणकुम्भमवस्थाप्य छत्रोपानहसंयुतम् ।। पञ्चरत्न- `
समाय॒क्तं दिव्यगन्धाधिवासितम् ।\ १६ ।! दीपमालान्वितं चैव जामदन्यसम- `
न्वितम् \। पजयामासुरव्यग्रा धात्रीं च मुनिभि्ज॑नाः ।। १७ ।। जामदग्न्य नमस्ते `
ऽस्तु रेणुकानन्दवर्धन ॥ आमलकीकृतच्छाय भुक्तिम् क्तिवरप्रद ।। १८ ।। धात्रि
धात॒समुद्भूते सर्वपातकनाकषिनि ।। आमलकिनमस्तुभ्यं गृहाणार््योदकं मम
॥\ १९ ॥। धात्रि ब्रह्मस्वरूपासि त्वं तु रामेण पूजिता ॥। प्रदक्षिणाविधानेन सवं- `
पापहरा भव ।\ २० ।! तत्र जागरणं चक्रजेनाः सवे स्वभक्तितः ।। एतस्मिन्नेव `
काले तु व्याधस्तत्र समागतः \\ २१ ॥। क्षुधाश्रमपरिव्याप्तो महाभारेण पीडितः।।
कुटुम्बार्थं जीवघाती सवेधममबहिष्कृतः \\! २२ ।\ जागरं तत्र सोऽपह्यदामल्क्यां
क्षुधान्वितः । दौपमालाकुलं दृष्ट्वा तत्रैव निषसाद सः ।। २३ ॥। किमेतदिति `
सञ्चिन्त्य प्राप्तवान्विस्मयं भृश्ञम् ।। ददश कुम्भं तत्रस्थं देवं दामोदरं तथा ॥
४ ।। ददर्ञामर्कोवृक्षं तत्रस्थांशचेव दीपकान् ।। वेष्णवं च तथाऽऽख्यानं
गरं जनाः ।\ व्याधोऽपि गृहमागत्य बुभुजे प्रीतमानसः! २७॥। ततः कालेन सहा प
ग्याधः पञ्चत्वमागतः ।॥ एकाद्छ्याः प्रभावेण रात्रौ जागरणेन च ।। २८ ॥
राज्य ५ प्रपेदे सुमहच्चतुर द्धबलान्वितम् ।\ जयन्तीनाम नगरी तत्र राजा विदूरथः `
ए प 0; ¢ ॥ 1011 (0
| निष्कासितास्च स्वस्थानाद्िक्लिप्ताश्च दिशो दक्ष ।। एतावद्क्त्वा ते `
सव तत्रन हन्तुमुद्यताः ।! पाश्श्च पटश्च खङ्कर्बाणेधनुषि संस्थिते | `
सर्वाणि शस्त्राणि समापतन्ति न वै शरीरे प्रविज्ञन्ति तस्थ ।। तेचापि सवे हत- `
` शस्त्रसघा स्लच्छा बभूवुगतजीवरेहाः।) ४१।॥ यदापि चक्तितुं तत्र न शेकुस्ते-
ऽर्यो भृक्म् । शस्त्राणि कुण्ठतां जग्मुः सर्वेषां हतचेतसाम् ।\ ४२ ॥ दीना
बभूवुस्ते सवे य तं हन्तुं समागताः ।! एतस्मिन्वै काले तु तस्य राज्ञः शरीरतः
॥ ४३ ।। निःसृता प्रमदा ह्येका सर्वावयवशोभना ।। ४४ ।! दिव्यगन्वसमायुक्ता = `
टिन्याभरणभषिता । छिन्यमाल्याम्बरधरा भृकुटीकुटिलानना ।! ४५ !। स्फुष्लि- ६
भ्यां च नेत्राभ्यां पावकं वमती बहु ।। चक्रोद्यतकरा चेव कालरात्रिरिवपरा
॥॥ ४६} जभ्यघावत संरुद्धा म्लच्छानन्त्यन्तदुःखितान् ।) निहताश्च यदा म्ले- =
` च्छास्ते विकमरतास्तथा ।। ४७ ।। ततो राजा विदुः सन् ददशं महदडूतम्।॥
` हतान् स्ल्च्छगणान् दृष्ट्वा राजां हषमवाप सः ।\ ४८ ।\ इह केन हता स्क्च्छा
अत्यन्तं वेरिणो मम ।। कन चेदं महत्कमं कृतमस्सदधिताथिना ।। ४९ ।। एतस्मि- `
चेव काले तु वागुवाचाशरीरिणी । तं स्थितं नृपति दुष्ट्वा निकामं विस्मयान्वि- `
तस् । ५० ।। शरणं कंदावादन्यो नास्ति कोऽपि द्वितीयकः ।। इति श्ुत्वाकाश-
बाणीं विस्मयोत्फुल्ललोचनः ।। ५१ ।। वनात्तस्मात्स कुशली समायातः स भूमि-
` भुक् ।। राज्यं चकार धर्मात्मा धरायां देवतेशवत् ।। ५२ ।। वसिष्ठ उवाच ।\ `
तस्मादामलकीं राजन् ये कुवन्ति नरोत्तमाः \। ते यान्ति वेष्णवं लोकं नत्र कार्या
विचारणा ।} ५३ ।। इति श्रीब्रह्याण्ड० आमलक्याफात्गुनशुक्लकादश्लीव्रतम् ।!
1 अथ फाल्गुन शवला एकाद्लीकौ कथा-मान्धाता बोले कि, है ब्रह्माजीसे उत्पन्न होनेवाले वदि- = `
: ` ष्ठजी महाराज ! अप कृपाकर एसे उत्तम व्रतका उपदेश दीजिए, जिसके करनेसे मेरा कल्याण हो । ५ ११
बशिष्ठजी बोले क, म तुम्हं रहस्य सहित इतिहासथुक्त ब्रतोके उत्तम ब्रतको कहता हं जो कि, समस्त ब्रतके
फलोको देनेवाल है । वो महापापोके नान्न करनेवाली ` आमलकी ' एकादशी है जो मोक्ष राप्तं करनेवाली
एवम् सहर गोदानके समान पुरण्योको देनेवाली है ।\२।३।। यहां पर इसका एक पुरातन इतिहास कहा करते
है कि, एक हिसक व्याध इसके प्रभावसे मुक्त हुआ था ।\४।।ह राजन् ! वेदिश्च नामके हृष्टपुष्ट जनोसे `
आवृत्त एवम् चारो वणोसि अलेत नगरम च॑द्रवं्ी नामकं राजा राज्य करते थे जिक्केकिःनगरमं
टे ही खुश्षी थे, ल ! सदा वेदकौ रुचिर ध्वनि हुमा करती थी । ध ^
नगरमे निवास नह 11
1
शुक्लपक्षे आमलकीके नामसे विख्यात है \। १२ ।\ हे राजन्; उसके प्राप्त होनेपर वहे बुहो जौर बच्चो
` सबोनेही नियमपूर्वेक उपवास किया \\ १४।। राजाने भी इस ब्रतको महाफलदायी समक्कर नदीमं स्न कर
भगवानके मन्दिरमे सब राजकीय लोगोके साथ ।\१५।। एक पूणं कुम्भको दीपक, छत्र, जूती जोड़ा, पञ्च-
रत्न, एवं इत्र आदि वस्तुखोसे वैध सजाकर तथा उसपर जामदल्यकी मूति स्थापित कर पूजा कौ । मौर
सनुष्योने श्री बड़ी सावधनीसे धात्रीकौ पुजा की ।।१६।।१७।। हे रेणुकाके आनन्द बढानेवले ! हे आमल- `
-कीकी छायाको धारण करनेवाठे ! हे भूदिति ओर मुकितिको देनेवाले ह जासदरन्य ! ।\१८।। हे सब पापोको
` नाह्ना करनेवाली धातासे उत्यच्च हुई आमलकि ! तु्हं नमस्कार है । मेरे इस दिये हुये अ्यंको स्वीकार करं ` 0
` 11१९} है धानि तुम ब्रह्मस्वरूपा ह तुम्हारी पुजा रामचन्द्रजीने की है । इस लिये मेरी इस प्रदक्षिणे 4
. सब पापोको नष्ट कर ।।२०। इस तरह सब लोगोने सवे स्वभक्तिसे रातके समय जागरण क्या । इसी
बीच वहां पर एक व्याध भौ चला जाया ।२१।। जो भूख, थकावट जौर भारकी पीडसे कष्टपारहाथा! `
ुटुम्बके वासते जोवोका घात करता तथा सभौ धमेसि गिरा हुआ था ।\२२।। उस भूखे व्याधने आमल्कीके `
निकट जागरण होता हुआ देखा । उस जगहकी दीपावलोसे प्रसन्न होकर उसी जगह बैठ गया ।। २६ ।। उसको
` नर्द् बात श्लोचकर इकन्ारगीही बड़ा विस्मय हभ ! तथा कुस्भके ऊपर विराजमान भगवान् दामोदरकी
सूतिका भी ददानि किया ।\२४।। आमलेके वुक्षको ओर उस जगहकी दीपमालाको देखा । तथा वेष्णवोकौ
कथाको ब्राह्मणोके द्वारा कहते हुए सुना ।\२५।\ भूखे रहते हुए भी उसने एकाद्सीके साहात्म्यको सुना । `
ओर इसी आश्चयं मे उसकी वह् रात्रि जागते हृए समाप्त हो गयी ।\२९॥। प्रातःकाल सब लोग नगरमे चले
` गये \ ओर व्याधने भी प्रसन्न होकर घरमे आ भोजन किया २७१।तब कुछ समयके बाद बह व्याधं मर गया
किन्तु उस एकाद्शीके प्रभावसे तथा उस दिन रात्रिक जागरण से 11२८1} जयंती नगरीमें राजा विदूरथके
नामसे बह बड़ा भारी राजा हुभा 1 उसने चतुरंगसेना ओर घनधान्यासे सप्पन्न राज्य पाया ।\२९।। उसने |
चतुरंग बलसे युक्त एवं घनधान्यसे समन्वित वसुरथ नामके पुत्रको उत्पन्न किया ।1२०।। उसने निभय होकर.
. क्वा अयुत ग्रामोका राज्य किया तेजमे सूरयके ओर सुन्दरतामं चन्द्रमाके समान था ।\३१।। पराक्रमम विष्णुके `
सर क्षमामें पृथिवौके समान था । बडा धर्मात्मा सत्यवादी ओर विष्णुभविति परायण था ।1२२॥। ्रह्य्ञानी, `
कर्मवीर ओर प्रजाकी पालना करनेवाला होकर भौ उसने अनेक प्रकारके यज्ञ किये ।\२३।। वह् सदा अनेक
प्रकारके दान करता रहाता था।एक समय दिकार खेलने गया देवयौगसे उसको रास्ता विस्मृत हो गया।३४।
उसे दिक्षा ओर विदिश्षाका कुछ भी ज्ञान न रहा, उस गहन व्रनमं अकेखाही वृक्षके मूलम ॥२५।१ भूखा, `
प्यासा बैठ रहा इसी बीच उसी शत्र नाशकारी राजाके पास वहाके पहाड़ी म्लेच्छ लोग ।1३६।। अये वैरि-
योकी 8 शक्तिको क्तिको चूर केरनेवाला राजा जहां जाता थावं व्हही उसके पीर पछ पहुंच जाते थे क्यो कि, राजाने
की दृष्टताके कारण सदा उन्हुं दण्ड दिया था, इसी कारण उन्होने उससे वेर कर रखा था ।३७।।बे
बहुतसौ दक्षिणा देनेवाखे उस राजाको घेरकर खड़े हो गये, पहिले वैरसे बुद्धि तो उनकी विरुद्ध थौ ही, इस `
रो चिल्लाने लगे ।\३८॥! पहिले इसने हमारे पिता भाई सुत पौत्र भागिनेय ओर मामा मारे `
घरसे निकाल दिया जो दलो वित्ाओमें मारे मारे फिर रहे है । वे सब एेसे कहकर
दृष्टि यह गजबका काम किया है ।)४९।। इसी समय उस राजाको बेहद विस्मये पड़ा हुआ देत आकाह-
निक्चयही विष्णुललेकके अधिकारी होते है, इसमे किसी प्रकारका भी विचार न करना चाहिये 1 ५३। यह् |
बता तार त , (र ` हिन्दीरीकासहित 3, (५४५७)
1 44: प ध व श प
अयने सामने य आश्चयं देखा ¦ राजा अपने वैरी स्लच्छोको मरा हुमा पाकर बडा खुश्ली हमा ॥*४८।।
राजानं सनम शोचा कि, ये मेरे अत्यन्त वंरी म्लेच्छक्ोग यहां केसे एवं किसे मारे गये 2 किसने भेरे हितकी
स उ (
वागीने उत्तर दिया ।।५०।। कि, हे राजन् ! केव भगवान्क्नो छोड़कर ओर कोई दूसरा शरणागतवत्सल
नहीं है । इस वचनको सुनकर विस्मयसे आंखे चोर गयीं पीछे उस वनसे वो राजा अपने राज्यमे कुश्ञक्त- = `
पूर्वक चला आया ।\५१।। ओर उस धर्मात्मने देवराजकी भाति पृथित्रीपर राज्य किया ।\५२। वरिष्ठौ |
महाराज बोले कि, है शन् ! इसल्मि जो श्रेष्ठलोग आसलकी नामकी एकाद्शीका ब्रत करतेहैवेलेग |
श्रीब्रह्यण्डपुराणक्रा कहा हुंमा आसलकौ नामव्लो फाल्गुन शुक्छा एकादवीका माहात्म्य सम्पूणं हुजा । == 1
५५ ( अथ चंत्रकृष्णेकादश्लीकथा 1
५ युधिष्ठिर उवाच ।। फाल्गुनस्य सिते पक्षे श्रुता साऽऽमल्की मया ।। चैत्रस्य `
कृष्णपक्षे तु कि नामेकादशी भवेत् । १। को विधिः कि फलं तस्या बरहिङककष्ण |
ममाग्रतः ।\ श्रीकृष्ण उवाच \ श्युणु राजेन्द्र वक्ष्यामि पपमोचनिकान्नतम् २1 |
यल्लोमश्चोऽजवीत्पुष्टो मान्धात्रा चक्रवतिना ।\ मान्धातोवाच ॥। भगवज्छोतु- |
मिच्छामि लोकानां हितकाम्यया ।। ३ ॥ चेत्रमास्यसिते पक्षे करि नमेकादशौ |
चेत्रमास्यसिते पक्षे नाम्ना वे पापमोचनी । एकादशी समास्याता पिशाचत्व-
` विनाशिनी \\५।।ग्बृग् तस्याः प्रवक्ष्यामि कामदां सिद्धिदा नप \ कथां विचित्रां
^ को विधि कि फलः तस्या: कथयस्व प्रसदतः ।\ ४ ॥। स्मेमक्ष उवाच |, ५५ (१
शुभदां पापध्नीं धममेदायिनीम् 1 ६ । पुरा चै परयोदेश्े अप्सरोगणसेविते ।! |
वस्तु मघवा रमते मधुमाधवौ ।! एको मुनिवरस्तत्र मेधावी नाम नामतः ।\ १०।॥ |
` अप्सरास्तं मुनिवरं मोहनायोपचक्रमे ।\ मजञ्जुधो
` न्वत
पीडयन्ती विपल्चिकाम् \\ १२ ॥। गायन्तीं 'तामथालोक्य पुष्पचन्दनवेष्टिताम् ।॥
कामोऽपि विजयाकांक्लौ शिवभक्तं मुनीश्वर
मागेणो नयने कृत्वा प्षयुक्तौ
वसन्तसमये प्राप्ते पुष्पैराकूलिते बनें ।। ७ ॥। गन्धवेकन्यास्तन्रैवं रमन्ति सह॒ |
` किञ्चरेः ।। पाकशासनमुख्याक्च क्रीडन्ते च दिवोकसः ।। ८ ।1 नापरं सुन्दरं किं- |
ल्चिद्रनाच्चत्ररथाहनम् |! तस्मिन्वने तु मुनयस्तपन्ति बहुलं तपः ।\ ९ ।। सहदे- |
गोषेति वियाता भावं तस्य विचि- `
। ११ ।। क्रोशमात्रं स्थिता तस्य भयदाश्रमसच्चिधौ ।! गायन्ती मधुरं साधु |
तलि प ।॥ १३. ॥ तस्याः शरीरसंसर्गं
शिववेरमनुस्मरन् । कृत्वा भवौ धनुष्कोटी गुणं कृत्वा कटाक्तकम् ।। १४॥
(५४८) : ` ` -ब्रतराज [ एकावक्षी-
तत्र ष्ट्वा तं मनिपङ्धवम् \\! मदनस्य वश्च प्राप्ता सन्द मन्वमगायत ।\ १८ \1 ^
रणदवलयसंयक्तां शिञ्जघ्प्रमेखलाम् ।! गायन्तीं भावसंयुक्तां विलोक्य मुनि- `
` पुद्धवः ।। १९ ।\ मदनेन ससेन्येन नीतो मोहवशं बलात् । मजञ्जघोषा समा-
गम्य मुनि
=
दष्ट्वा तथाविधम् ।\ २० ।। हावभावकटाक्नस्तु मोहयामास चाद्धना ।\ ५
अधः संस्थाप्य बीणां सा सस्वजे तं मुनीह्वरम् \\ २१ 11 वल्लीवाकुकितिा वृक्षं
वातवेगेन वेपिता ।\ सोऽपि रेमे तया सादं मेधावी मुनिषुद्धवः।। २२ । तस्मि-
` चैव वनोहे्षे दष्ट्वा तदेहमुत्तमम् ।\ शिवतत्वं स विस्मृत्य कामतत्त्ववशं गतः
॥ २३ ॥ न निशां न दिनं सोऽपि रमञ्जानाति कामुकः ।! बहुलक्च गतः कालो `
मुनेराचारलोपकः \। २४ । मञ्जुघोषा देवलोकगसनायोपचक्रमे ।। गच्छन्ती `
त्सरान् \ २८ ॥। वर्षाणि सप्तपञ्चाहच्नवमासान् दिनत्रयम् ॥ सा `
| निना तस्य निशामिव चाभवत् ।। २९ ।। सा तं पुनर्वाचाथ। तस्मिन्काले `
पत् मुनिम् ।। अदेदो दीयतां ब्रह्यर् गन्तव्यं स्वगृहं मया ।॥ ३० ॥ ध
। मेधाव्युवाच ।! प्रातःकालोऽधुनैवास्ते भूयतां वचनं मम । कुरवे संध्यां दिनं याव- `
त्तावत्त्वं सुस्थिरा भव ।\ ३१ ।। इति वाक्यं मुनेः भुत्वा भयानन्दसमाकुलम् ।॥
स्मितं कृत्वा तु सा किंञ्न्चित्प्रत्युवच सुविरिमता ।। ३२ ।॥\ अप्सरा उवाच ।॥। ५
कियत्पममाणा विप्रे तव सन्ध्या गताः किल ।। मयि प्रसादं कृत्वा तु गतः कालो ।
अ ।\ ३३ ।। इति तस्या वचः शरुत्वा विस्मयोत्फुल्ललोचनः ।। स ध्यात्वा `
हदि ठि प्रद््रःप्रणामसक रोत्तदा ।! ३८ \। समाहच सप्तपचाशद्गता मम तया
सह॒ ।। नेत्राभ्यां विस्फुल्लिद्धान्स मुञ्चमानोऽतिकोपनः ।\ ३५ ।। कालसरूपां च ब
त्युवाचाथ रमन्तं मुनिपुद्धवम् ।! २५ ।। आदेगो दीयतां ब्रह्मन् स्वधामगमनाय
मेधाव्युवाच ।। अद्यैव त्वं समायाता प्रदोषादौ बरानने ।। २६ ॥। यावत्र
संध्या स्थात्तावत्तिष्ठ ममान्तिके ।। इति भरुत्वा सूनेर्वाक्यं भयभीता बभूव
७ ॥\ पुनव रमयामास तं मुनि नृपसत्तम ॥ मुनिद्ापभयाद्धोता बहु- |
| ध त्रत + (१ ध ९२१५८।८।१। ६1६6 (4 (५४):
प (1 (दः त स ४ व पः
। 1 न ४ पौ
तपः ।। चैत्रस्य कृष्णपक्षे या भवेदेकादडी `
१ शुभा ।! ४२।। पापमोचनिकानाम `
स्वेपापक्षयङकरौ ।। तस्या ब्रते कृते सुभ. पिशाचत्व प्रयास्यति ।। ४३ ॥। इत्यु- `
क्त्वा सं मेधावी जगाम पितुराश्रमम् ।! तमागतं समालोक्य च्यवनः प्रत्युवाचह `
॥४४॥ किमेतदिहितं पुत्र त्वया पुण्यक्षयः कृतः ।! मेधाब्युवाच ।। पापं कृतं `
महत्तात रमिता चाप्सरा मया ।। ४५ ।। प्रायश्चित्त बरूहि मम येन पापक्षयो भवेत्।। `
च्यवन उवाच ।। चत्रस्य चासिते पक्षे नाम्ना वे पापमोचनी ।। ४६।। अस्याव्रते
“कते पुत्र पापराशिः क्षयं व्रजेत् ।\ इति भुत्वा पितुर्वाक्यं कृतं तेन व्रतोत्तमम् ।\! ` (
॥ ४७ ।। गतं पापं क्षयं तस्य पुण्ययुक्तो बभूव सः ।। सप्येवं मञ्जुघोषा
॥१५० ।। तेषां पापं च यत्किञ्चित्तत्सर्वे क्षीणतां व्रजेत् ।! पठनाच्छः
गोसहस्रफलं
1
त्वा तदृत्रतमुत्तमम् । ४८ ।! पि्ाचत्वविनिर्भुक्ता पापमोचनिकात्रतात् ।॥ `
ईिव्यरूपधरा भूत्वा गता नाकं वराप्सराः ।। ४९ ।। लोमदा उवाच ।। इत्थं भूत-
प्रभावं हि पापमोचनिकातव्रतम् ।! पापमोचनिकां राजन् ये कुवेन्तीह मानवाः
लभेत् ।! ५१ ॥। ब्रह्महा हेमहारी च सुरापो गुरुतल्पगः ॥ व्रतस्य `
५२ ॥। इति श्रीभविष्यपुराणे पापमोचनिकास्यचत्रकृष्णकादशीमाहात्म्यं
अथ चैत्रङृष्ण एकादशीकी कथा-युधिष्ठिरजी बोरे कि, फाल्गन महीनेके कृष्णपक्षकौ आमलकी
८ एकादशीकी कथाका श्रवण कियः ! अव चेत्के कृष्णा एकादज्ीका क्या नाम है ।। १।। उसको विधि मौर उसका
` फल क्या है? इसको आप कृपाकर कथन कीजिये । श्रीकृष्णजी महाराज बोले करि, हे राजन् ! सुनो मेतुम्हे
पापमोचनौ एकाद कौ कथा कहता हूं ।\ २।। जिसको चक्रवर्तौ राजा मान्धाताने लोमदा ऋषि पुष्टी धौ । = `
: मान्धाता बोले कि, महाराज ! मे जगतुके कल्याणके लिये सुनना चाहता हूं ।\ ३।। कि चैत्रमासके कृष्ण- `
८ नाक करती ह ।\५।। हे राजन् ! सुनो में तुमह उसकौ पापनाशिनी, धर्मदायिनी, सिद्धिप्रद, शुभ ओर विचित्र
थौ तथा इन्द्रपरधान देवता
दसरा वन नहीं था, जहांपर मुनिगण अधिक अधिक तप करते हए पाये जाते थे ।॥९।। देवताओकि साय इन्दर
कथा का वर्णेन करता हं ॥।६।। प्राचौनसमयमें अष्सरामण्डित चेत्रथनामके स्थानमें वसन्तचऋतुके अन्दर `
` समस्त वनवृक्षोके पुष्प विकसित हो गथे (॥७।। उस स्थानपर गन्ध्वकिौ कन्याये किल्रोके साथ रमणकरती
वता भी बही मानन्द भोगकर रह े ।\८।। उस चेत्ररथसे अधिक सुन्दर ओर कोई =
णादस्या
करणात् पापम्क्ता भवन्ति ते ।। बहुपुण्यप्रदं ह्येतत्करणादृव्रतमुत्तमम् `
` पक्षकौ एकादशीका नाम उसको विधि ओर उसका फल क्या है ? यहु सब कृषा करके वर्णन कीजिये ।\४।। `
` लोमशजी बोले कि, ह राजन् ! चै्रमासके कृष्णपक्षमें पापमोचनी एकादशी होती है ! वह पि्राचगतिकी `
क मेवावो नामके सुनिरान भौ थे ।।१०॥ जिनको मोहित ८
५५०)... व्रतु सन् |
उस मनिराजको देखकर कासके वङ्ंगत हो ण्ट्थी इसचियि संद मंड गाने लगी \) १८१ सूनिरज
` भी उस मंजघोषाको चूडियोकी एवं वलयोकी आवाजसे संयुक्त तथा बडते हुए नूपुरोको पहिने हए
` ओर उसको भावपणं गायनको त्ते हए देख ।। १९ ॥। सेनासहित कएमदेवके बलपूवेकं मोहके व॒ |
कर दिये । मंनुघोषा भी मुनिको उस हालतमें देखकर ।। २० ।\ अयने हावभावौ ओर कटक्षोसे ओर |
भी अधिक मोहितं करने रुगी, एवं बीणःको नीचे रखकर उस मुनिराजको विशेष करके रिक्षने र्गी! 1
तथा उनके शरीरसे चिपट गई ।! २१ । उस मेधावी सुनिराजने वातकेगसे हिल्ती हई वेल्के समान = `
कंप कपाती हई उस संजुघोषासे रमण किया ।। २२ 11 बह मुनिराज उस वणकषे स्थानमें उसके उत्तम `
शरीरके मोहम
| मे पड शिवततत्वको भूलकर काभतच्वके वशीभूत हो भये ।। २३ ॥। मुनिको उससे भोग करते `
` एन दिन काज्ञान रहा ओर न रातका । इस प्रकार उसका बहुतसा अत्चार नष्ट करनेवाला समययोहौ = |
- बीत गया ।\२४।। मंजुघोषा देवलोक जाने ख्गी ओर जाती बार भोग करते हुए उत मुनिसे यह कहाकि
` ॥\२५।1 हे ब्रह्मन् ! मृभ्ने अपने स्थानपर जानेकौ आज्ञा दीजिये । मेधावीने कहा कि, हे सुन्दरि ! तुम आन ही
तो सन्ध्यके पहले आई हौ ।२६।। इसलिये प्रातः कालकी सन्ध्यातक तुम मेरे षास ओर ठहरो । इस प्रकार ४
भुनिके थे वाक्य सुनकर बह मंजुघोषा उर गई २७१ शापके डरे मारे वह फिर मुनिको प्रसन्न रखनेके `
लि है नृपसत्तम ! अनेक वर्षोतक पूर्ववत् रमण कराती रही ।\२८।। ५७ वषे ९ महीने ओर तीन दिन उसको |
उसके साथ रमण करते बीत गये पर उनके ल्ि एसा मालृम हुञा जैसे आधीरात ।।२९।। उस मंजुघोषाने
मुनिसे यह नस्रतापूर्वक कहा कि, महाराज ! मुके अपने स्थानपर जाने कौ आज्ञा दीजिये 11३० मेधा- `
बीने उत्तर दिया कि, मेरी बात सून, अभी तो प्रातःकालही हुजा है इसलिये मं सन्ध्या कर लू तबतक तुम यहां
टो ।॥३१।। इस प्रकार भय मौर आनम्दसे मृनिके वचन सुनकर कुछ हंसकर उसने जवाब दिया ?।।३२।\
महाराज ! आपको सुद्र कृपा करते हुए कितनीही सन्ध्या ठृप्त हो गई हं ओर कितना समय चला
आप विचार कीजिए ।\३२।। इस तरह उसकी बात सुनकर बह आंखे फाड़कर विचारने लगे ।
हृदयम ध्यानकरं प्रणाम किया ।।२३४।। उसे स्तात हभ कि, मुञ्चे इसके साथ रमण करते हृषु ५७ बषं
` बीत गए भौर इसलिए कोधे उसकौ आंखोसे आग निकलने सगी ।\३५।। मंजुघोषाको तपोभङ्धः करने-
| | वाले कालके समान देखःर यह् विचार किया, दःखसे अजित किया हमा मेरा इतना तप इससे व्यथे ही नष्ट `
| इआ ॥। उसके होठ फड़कने लगे वो घवड़ः गया । पीछे उसको शाप दिया कि, तू पितराची हो जा ।२६।।३७1 ` |
भौर कहाकि, हे दुराचारिणौ ! कुलटे ! पापिन ! तुमे धिक्कार है । यहं केचारी मंनुघोषा शापसे दग्ध होकर
. ` चुपचाप खड़ी हो गयौ ।। ३८।। उस मंजुघोषाने मुनि महाराजकी पाके यास्ते एवं उस शाप को शान्त कर~ ५
मेके लिए नञ्नतापूर्वक कहा फि, महाराज ! ज्ञापको निवृत्त कौनिये ।\२९।। महात्माओके साथ सत्संग कर- 1
` नेसे सप्तमपदमें मित्रता होती है । महारज ! मुञ्चे ते आपके साथ निवास करते अनेक वषं चले गये \\४०। \:
इसयिए है महाराज ! ज कृपाकर मुक्षको इस शापसे मुक्त कीजिए । निजी बोले कि, है भद्रे ! क्षपसे
` अनुपरह करनेवाले मेरे वचन सुन ।\४१।। क्या करं । तुमने मेरे बड़े भारी तयको इसी तरह नष्टकर दियाहै
र तो भौ मै तुमपर कृपाकर श्ापमुक्त होनेका उपाय बतलाता हं सुनो । चैत्रमासकी कृष्णयक्षवाली एका- `
म्हारी पिशषाचयोनिका क्षय होगा ।\४३। एे १
देखकर च्यवन ऋषिने कहा ।\४४।। कि, है
दा रोक र ८ ।
॥ 5 1 1)
प 1 द ध द द 4
व ‡) ६ 49
(५५१) -
` चनी एकादस्लीकः प्रभाव है ! जो मनुष्य इस पामोचनीके त्रत को करते है।\५०))उनका सव पापक्षीणहो `
जाता है तथा उसक्लौ कथाको सुनने ओर पद्नेसे गोसहस्रदानका फल मिलता है ।\५१।। ब्रह्महत्या, सुब्ण- `
स्तेय, मद्यपान, गुरुदाराभिगसन तकका पाप भो इससे नष्ट होता है ¦ एवं इस त्रतका अनुष्ठान करनेसे असीम
1 पुण्यका फल प्राप्त होता है ।\५२\ यह श्चौभविष्योत्तरपुराणकी कही हयौ पावमोचनिका नाकौ चैचकृष्ण `
एकादक्ीके त्रतको कंथा पुरी हुई \ 4
| अथ चेत्रशुक्लेकादक्षीकथा
५ युधिष्ठिर उवाच ।! वायुदेव नमस्तुभ्यं कथयस्व ममाग्रतः ।। चैत्रस्य
शुक्लपक्षे तु किनामकादश्ली भवेत् ।। १ ।। श्चीकृष्ण उवाच । श्पुणुष्वेकमना राजन् `
कथामेकां पुरातनीम् ।। वसिष्ठो यामकथयत्पराग्दिलीपाय पच्छते ।\ २।। दिलीप
उवाच ।। भगवञ्छोतुमिच्छामि कथयस्व प्रसादतः । चैत्रे मासि सिते पक्षे किना- `
मेकादश्शी भवेत् ।। ३ ।। वसिष्ठ उवाच ।। साधु पष्ट नपश्रेष्ठ कथयामि तवाप्रतः।। `
चत्रस्य शुक्लपक्षे तु कामदा नाम नामतः ।! ४ ।। एकादज्ञौ पुण्यतमा पपेन्धन- `
` रम्ये हृमरत्नविभूषिते ।। पुण्डरीकमुखा नागा निवसन्ति मदोत्कटः ।॥ ६ ।
तस्मिन्पुरे पुण्डरीको राजा राज्यं करोति च ।। गन्धवेः कि्नरेश्चव ह्यष्सरोभिः
ससेव्यते।। ७।) वराप्सरा तु ललिता गन्धर्वो ललितस्तथा ।) उभौ रगेण संयुक्तौ `
दम्पती कामपीडितौ ।। ८ ।। रेमाते स्वगृहे रम्ये धनधान्ययुते सदा । लकितायास्तु `
` हद्ये पतिवेसति सवेदा ।।! ९ ।\ हदये तस्य लक्ता नित्यं वसति भामिनी ।॥
एकदा पुण्डरीकाद्याः कीडन्तः सदसि स्थिताः ।। १० ।। गीतगानं प्रकुरुते ककत `
दयितां विना ।\ पदबन्धे स्वलज्जिह्लौ बभूव ललितां स्मरन् ।। ११ ।। मनोभावं
विदित्वाऽस्य कर्कोटो नागसत्तमः ।\ पदबन्धच्युति तस्य पुण्डरीके न्यवेदयत्
॥ १२।\ क्रोधसंरक्तनयनः पुण्डरीकोऽभवत्तदा ।\ शशाप ललितं तत्र मष्दनातुर- `
चेतसम् ।\ १३ ।। राक्षसो भव इब कव्यादः पुरुषादकः \! यतः पत्नीव
दवानलः ।। श्यणु राजन् कथामेतां पापघ्नीं पुत्रदायिनीम् । ५ ।। पुरा
गायंह्चेव ममाग्रतः ।। १४।। वचनात्तस्य राजेन्द्र रक्षोरूपो ५ बभूव ह ।\ रोद्राननो `
विरूपाक्षो दृष्टमात्रो भयडकरः ।! १५ ॥ 8 योजनविस्ती्णे ग मुखकन्दरः
५, १५५ - १५५
भम् । चन्द्रसुयनिभे नेत्रे ग्रीवा पवेत १
इ ५ चाधरो योजनादंकौ ।। शरीरं तस्य राजेन्द्र उत्थितं योजनाष्टकम् ।! १७ ।! प
वशो जातो `
(५५२) | त्रतराज । एकादकी-
तथाविधम् ।\ २२ ।। भ्रमन्तौ तेन सद्धं सा रुदतो गहने वने ।। कदाचिदगम- `
` द्िम्ध्याशिलरे बहुकौतुके ।। २३ ।। ऋष्यष्यद्धमूनेस्तत्र दृष्ट्वाश्रमपदं शुभम् ।॥
श्लीघ्रं जगाम ललिता विनयावनता स्थिता ।॥। २४ ।। प्रत्युवाच मुनिदृष्ट्वा
कात्वंकस्य युता चुभम् \ किमर्थं त्वमिहायाता सत्यं वद ममाग्रतः ।! २५।।
छकलितोवाच ।! वीरधन्देति गन्धवेः युतां तस्यं महात्मनः । ल्ल्तिां नासमां
विद्धिपत्य्थमिह चागताम् ।॥ २६ ।। भर्ता मं स्ापदोषेण राक्षसोऽभून्महाम्ने।\ `
रौद्ररूयो दुराचारस्तं दृष्टवा नास्ति मं सुखम् ।! २७ ।! साप्रतं शाधि सां ह्य् `
, त्तं करोमि तत् ।। येन पुण्येन मे भर्तां राक्नसत्वाद्िमुच्यते ।। २८॥
ऋषिरुवाच ।। चैत्रमासस्य रम्भोरु चुक्लपक्षेऽस्ति साप्रतम् ॥ कामदैकादशी
नाम्ना या कृता कामदा नृणाम् \। २९ ॥। कुरुष्व तद्व्रतं भद्रे विधिपूर्वं मयोदि- `
तम् ।\ तस्यं व्रतस्य यत्पुण्यं तत्स्वभर्रे प्रदीयताम् \! ३० ।\ इख पुण्ये क्षणात्तस्य `
शापदोषः प्रहाम्यति ।\ इति श्रुत्वा मुनेर्वाक्यं ललिता हषिताभवत् !\ ३१ \॥\ `
उपोष्यैकादसीं राजन्दरादशी दिवसे तद ।। विप्रस्येव समीपे तु वासुदेवाग्रतः `
।॥ ३२ ।\ वाक्यमूचे तु र्ल्िता र स्वपत्युत्तारणाय वे ।! मया तु यद्व्रतं चीणं 1
त्वं गतं तस्य प्राप्तो गन्धरवैतां पुनः !! ३५ ।। हेमरत्नसमाकीर्णो रेमे ललितया `
सह ।\ तौ विमानं समारूढौ पूर्वरूपाधिकावुभौ ।। ३६ । दम्पती चापि
का भे भेता कामदायाः प्रभावतः ।! इति ज्ञात्वा नृ पशरेष्ठ कतंव्येषा प्रयत्नतः ।! ३७
। लोकानां च हितार्थाय तवाग्रे कथिता मया ।! ब्रह्महत्यादिषापध्नी पिश्नाचत्वि
शिनी । ३८ ।। नातः परतरा काचित्नेलोक्ये सचराचरे ।। पटनाच्छवणाटापि `
वाजपेयफलं लभेत् !\ ३९ ।। इति श्रीवाराहपुराणे कामदानामचेत्रशुक्लेकादक्षी- `
(न माहात्म्यं समाप्तम । (८ 0 | 00 |
। अथ चैत्रशुक्लेकादरी कथा-- युधिष्ठिरजौ बोले कि है ~ वासुदेव ! आपको नमस्कार है । चैत्र- `
शानि) हिनोटीकासहित (५५३) |
राज्य करते थे । जिसकी सेवा गन्धव, किर ओर अप्सरायें करती रहतीं थीं \1७।\ उस पुरमे ललिता नासकी `
अप्सरा ओर ख्लितिनामक गन्धवं दोनों कामके वदीभूत होकर बड़ प्रीति रखते थे \\८\। वे दोनों स्त्री-पुरुषं
अपने धन धान्यसम्पन्न घरमं आनन्दसे रमण करते थे । पतिके हुदयमे सरा ठकिताका निवास था ।\९।। `
ओर लकलिताके हुदयमे सदा पतिदेव निवास करते थे । एक समय यहांपर किसी सभामे पुंडरीक आदि राजा- `
लोक कीड़ा करते थे ।\१०।। ओर कुलित अयन प्रिया ललिताके धिना गायन कर रहा था । उसका अपनी
प्यारी स्नीके स्मरणसे गानेके समय जीभके लड़ खडा जानेके कारण पदभङ्धः होने खमा ।कर्कोटक नागराज
उसके मनकी बात ताडकर उस असंगत संगौतकौ ओर उसके पद भंगकी पडरीक रजके अगे चर्वाकौ \११।।
१२।) तब उस राजां पुंडरौकके रोधसे रक्त नेत्र हौ गये । जौर मदनांध ल्कितको श्चाप दे दिया ।१३।। ओर
कहाकि, हि दुर्बुद्धे ! तू राक्षस होगा । मांस ओर मनुष्यका भक्षण करेगा । क्योकि त मेरे आगे गाताहूभा
| कमांध हुआ है ।।१४।। उसके वचनसे वह् गन्धव राक्षस हौ मया । भयंकर आंखें ओर भयंकर मुख हो गया, `
५ जिसके कि~ देखने ही से डर माटृम होता था ॥१५।। निकः! सख कन्दराके समान ओौर बाहु चार कोसंके | 1:
बराबर हो गई! चन्द्रमा ओर सूर्यके समान नेच बने । ओर ग्रीवा पर्वतके तुल्य हुई ।१६।\ नाक्के छेद बडे `
विवरके तुल्य थे ओर ओष्ठं दो कोसक थे ¦ उसका सारा शरीर हे राजन् ३२ कोसका था ।१७।। वह अयने `
कमेकि फलको भोगनेके व्यि एसा राक्षस हृभा \ ललिताने उसं अपने बदसूरत पतिको देखा ।१८।\ उसको `
बड़ी चिन्ता हुई कि, अब मे क्या करूं ? कहां जाऊं ? पतिदेव शपसे दुःली हे ।\१९।। यह् श्लोचकर उसको
` दुःख हुजा, किचित् भी सुख न पा सकी ओर वह भी अपने पतिके साथ ही साथ जंगलमे रमण करने छग
४२०।। उस कामरूप राक्षसको घृणा शून्य मनसे पाप जौर नरभक्षण करते वनमे घमते हये 11२९।।न रातमे `
सुख मिक्ता था ओर न दिनमे । इस प्रकार अपने परतिको देखकर लिता बडी दुःखिनी हुई ॥२२।। उसके ` `
` साथ घूमतौ रोतो हुई कभी वह् इसी तरह विन्ध्याचलके क्रिखरोमे चली गई ।\२३। वहां ऋष्यष्ङ् मुनिका
` आश्रम जानकर शीघ्रही बड़े आदरके साथ उस जगह नम्नरतासे नवी हई आ उपस्थित हुई ।२४। मूनि- `
` राजने उसको देखकर प्रश्न किया कि हे शुभे ! तु कौन है ओर किसकी लडकी है ? इस आश्रमम किसवास्ते `
आई है इसको भेरे सामने सत्यरूपसे वर्णेन कर ?।।२५।। ललिता बोली कि, महाराज ! मे वीर धन्वानामक `
गन्धवेकी लडकी हु, मेरा नाम खकलिता है मौर इख जगहं अपने पत्तिके ल्य आई हूं ।।२६।। है महासने !
मेरा पति शापदोषसे राक्षस हो गया है \ उसका रूप भयंकर है । उसका पतित आचार है, इसलिये उसे देख- `
कर मृक्षे कुछ युख नहीं होता है ।\२७।। इसलिये महाराज } आप मृश्चे आज्ञा दीजिये कि, मे क्या प्रायश्च ति ५ ८ ¢
, | करूं जिससे मेरा पति र क्षसको गतिसे मुक्त हौ जाय \1२८।। ऋषिजी बोले कि, हि सुन्दरि 0 1
॥ | ४ चेच्रमासकी शुक्ला एकादन्ीका दिन है उसका नाम सब इच्छाओंको पूणं करनेके कारण ‹ कामदा ' है ।\२९॥। (1
। प्रसत हई ।\३१।। हे राजन् एकादङ्लीका उपवास करके वह हदश्शीके दिन भगवान वासुदेव न पदेव ओर ब्राह्म- `
4 मरके विकट | 1 ~ जो ;
ट बंठकर ॥ २२१ अयन पतिका उद्धार करनेके लिये ये वचन बोली कि श ¦ भगवन् ४ मेनेजोयह
4 (५) कतस ~ व एकादशा ८
= न
अथ वैक्षाखकृष्णेकादक्ीकथा
यधिष्ठिर उवाच ।। वैशाखस्यासिते पक्षे किनामेकादशी भवेत् ।! महिमान
कथय मे वासुदेव नमोस्तु ते ।। १ ।। श्रीकृष्ण उवाच \! सौभाग्यदायिनी राजच्िह =
` लोके परत्र च \। वेश्ाखकृष्णपक्षे तु नाम्ना चेव बरूथिनी । २ ।। वरूथिन्यात्रते-
नेवं सोख्यं भवति सवेदा । पापहानिश््च भवति सौभाग्यप्राप्तिरव च ।।२।।
दुर्भगा या करोत्येनां सा स्त्री सौभाग्यमाप्नुयात् । लोकानां चैव सवेषां भुक्ति- `
सुच्तिप्रदायिनी ।। ४ ।। सर्वपापहरा नृणां गर्भवासनिकृन्तनी ।। वरूथिन्या व्रतेनैव `
मान्धाता स्वर्गति गतः ।। ५. ।। धुन्धुमारादयश्चान्ये राजानो बहवस्तथा ।। ब्रह्मक- `
पालनिर्मुक्तो बभूव भगवान्भवः ।! ६ ।\ दश्षवषेसहल्राणि तपस्तप्यति यो नरः ॥ `
तत्तव्यं फलमाप्नोति वरूथिन्यां व्रतादपि ।। ७ ॥। ठ रल्लत रविग्रह स्वणभार ` ५ ध
ददाति यः \ तत्तुल्यं फलमाप्नोति वरूथिन्या ब्तान्नरः !! ८ । श्रद्धावान्यस्तु कुरूते `
वरूथिन्या ब्रतं नरः ।! वाल््छितं लमते सोपि इह लोके परत्र च ।\ ९ ।। पवित्रा
पावनी ह्येषा महापातकनाशिनी ।! भुक्तिमु
धकम् ।। ११ ।। ततः सुवणेदानं तु अच्नदाने ततोऽधिकम् 1) अन्नदानात्परं
भूतं न भविष्यति ।\ १२ । पितुदेवमनुष्याणां तप्तिरच्रेन जायते । तत्समं
तमवितप्रदा चापि करणां नपसत्तम | र
। अदवदानान्नपशरेष्ठ गजदानं विशिष्यते ।\ गजदानाद्भूमिदानं तिलदानं `
कविभिः प्रोक्तं कन्यादानं नृपोत्तम ।। १३ ।। धेनुदानं ` च तत्तुल्यमित्याह भगवान् ` 4
कन्यकाधनम् ।\ १६ ।। यच्च गृह्णाति खोभेन कन्यां करीत्वा च तनम् ।\ सोऽन्य- - | ५
जन्मनि राजेन्द्र ओतुभवति निर्कवितम् ।। १७ ।। कन्यां वित्तेन २ ॥ यो शक्ति `
यम् । प्रोक्तेभ्यः सवेदानेभ्यो विद्यादानं विशिष्यते ।! १४ ।! (तत्फलं सम- । 1
43
(न
` व्रतानि + दिन्दीटीकासहित = ` (८५५) . : 1
ण ¢ द.
ष (ध ४ ५
क
तस्मात्सवंप्रयत्नेन कतेव्या पापभीरभिः ।\ श्षपारितनया-दुतेनैरदेव वरूथिनीम् `
॥। २५ ।! पठनाच्छवणाद्राजन् गोसहल्रफलं लभेत् ।\ सवंपापविनिर्मुक्तो विष्ण-
ल्योके महीयते ! २६ ।\ इति श्रीभविष्यपुराणे वैज्ाखकष्णेकादछया वरूथिन्या- `
द्याया माहात्म्यं समाप्तम् ।! `
| अब वज्ञाख कष्णएकादल्लीकी कथा-युधिष्ठिरी कहते हँ किं, हे वासुदेव ! आपको नमस्कार `
है । वैश्ाखङृष्णकौ एकादक्ीका क्या नाम है मौर उसकी क्या महिना है ? इसको आप कृपाकर वर्णेन `
कौनिये ।॥१।। श्वीकृष्णजी महाराज बो कि, है राजन् ! इस रोक ओर परलोकं सौभाण्य देनेवाली `
वैश्षाखकृष्णपक्षमे † वरूथिनी ' नामकौ एकादशी होती है ॥\२।। वरूथिनीके व्रतप्रभावसे सश सौख्यपाप- `
हानि ओर सौभाग्य सुखकी प्राप्ति होती है ।\३।। जो दुर्भगा स्त्री इसा व्रत्फो करती है वह् सौभाग्यकोप्राप्त
होती है यहं एकाङ्ल्ी सब त्मेगोको भुवित मुक्ति प्रदान करती है ।४।। मनुष्योका सड पाप हरण करती ह.
ओर उनके गभेवासका दुःख दूर करती है, यानी बह फिर गर्भम नहीं आते । इस वल्थिनौहौके प्रभावसे
मान्धाता स्व्गमं गये थे ।\५।। ओर भी धुन्धुमार प्रभृति राजागण स्वर्भमे निवास करते हे । बे सब इसौ ` 4
` वूथिनीके प्रभावसे करते हँ इसीसे भगवान् कंकर त्रह्मकपालसे मुक्त हुए ।६। दश्च हजार वर्षतक जो मनुष्य `
तप करता है उससे मिलनेबारे फलके समान इसके ब्रतका फल होता है ।1७।। कुरक्ष् मे सूं ग्रहणके अन्दर `
सुबणेके दान देनेसे जो फल मिलता है वही फल इसके त्रतसे भिता है ।\८।। जौ श्रद्धावान् मन॒ष्य इस वरू- `
धिनीके ब्रतको करता ह बह इस खकमे ओर परलोकमे अपनी इच्छाओंको पु्णं करता है ।\९॥ यह पवित्र॒ `
ओर पावनी एवं महापापोको नाञ्च करने वा है । हे नृपसत्तम ! करनेवालोको भुवि जौर मुक्तिका प्रदान `
करती है \\१०।} घोडेके दानसे हाथौका दान अच्छा है । हाथीके दानसे भूमिका दान उत्तम है ओर उसमे
उत्तम तिलका दान है \\११। उससे अधिक सुवणका दान ओर उससे भौ अधिक उत्तम अच्चका दान होता `
है \ अन्नदानसे अधिक उत्तम दान न अभीतक कभौ हुमा है ओर न होगा ॥१२॥ पित्येकी ओर देवता-
-ओंकौ तृप्ति अन्नसे ही होती है ओर उसीके समान पण्डित रोगोने कन्यादान भी कहा है ।\१३।। उसीके `
समान गोडानको भी भगवान्ने उत्तम कहा है ! इन सब कहे हुए दानो भौ अधिक उत्तम विच्याका दान `
है 11१४।। उसी विद्यादानके समान फलको वरूथिनीका कर्ता प्राप्त करता है, जो विधिसे वरत करताहैजो `
( 8 अलङृत करके दान देता है उसके पुण्यफलको गणना चित्रगुप्तं भी नहीं जनता ॥ १८॥। लेकिन वही फल इस `
वरूथिनीके ब्रत करनेसे प्राप्त हो जाता है । दशमौके दिन वेष्णवव्रतको करनेवाला मनुष्व कांसी, मासि, `
मसर, चणा, कोद शाक, शहद, दूसरेकाभोजन, दुबारा भोजन ओर मेथुन इन दश बातोका त्याग करे ए
1 सोना, पान खाना, दन्तुन करना ।। १९।।२०।। दसरेकी निन्दा बराई ओर पतित लोगोषे ॥
ओर भूठं वचनोंका ९ नोका भी एकादजलीके दिन छोड़ दे \\ २१॥\ कासी, मास, मसुर, शहद तथा = `
, दुबारा भोजन, मेथुन ।२२।। हजामत, तेलकौ मालिका, दूसरेका अच इन `
दशीके दिन मी त्याग करे । इस प्रकारसे हेराजन् ! जिन स्मेगोने वरूथिनी `
„(११५8 ~: व्रता . `... ( एक्द्रकात ~
अथ वैशाखश्चक्टेकादक्षीकथा
` युधिष्ठिर उवाच । वैश्ाखशुक्लपक्ेतु्कनामेकादस्ी भवेत् ।\ कि फलंको
विधिस्तस्याः कथयस्व जनादन ।! १ 1! श्रीकृष्ण उवाच ।। कथयामि कथामेतां `
श्युण् त्वं धमेनन्दन ।। वसिष्ठो यामकथयत्पुरा रामाय पच्छतं \\ २।। रासखउवाच।।
भगवन् श्रोतुमिच्छामि त्रतानामुत्तमं व्रतम् ।। सर्वपापक्षयकरं सवंदुःखनिङृन्तनम् `
॥ ३ ॥ मया दुःखानि भुक्तानि सीताविरहजानि वै । ततोऽहं भयभीतोऽस्मि `
पच्छामि त्वां मह्मूने 1 ४ । वसिष्ठ उवाच ।। साधु पृष्टं त्वया राम तवेषा
नैष्ठिकी मतिः \ त्वन्नामग्रहणेनेव पतो भवति मानवः ।\ ५! तथापि कथयि-
ष्यामि लोकानां हितकाम्यया ।। पवित्रं पावनानां च व्रतानामुत्तमं त्रतम् ।\६।॥ `
वैशाखस्य सिते पक्षे हदो नाम या भवेत् ।\ मोहिनीनाम सा प्रोक्ता सवे पापहरा `
परा ।। ७ ।! मोहनालात्ममुच्येत पातकानां
समहतः । अस्या व्रतप्रभावेण सत्यं `
सत्यं वदाम्यहम् \॥ ८ ।। अतस्तु कारणाद्राम कर्तव्येषा भवाद्यैः 1 पातकानां `
क्षयकरौ महादु खेविनाशिनी ।\ ९ ।। भ्युए
कमना राम कथां पुण्यप्रदां शुभाम् ।। ८
00
सर्वदा ।। शरासने श्रं कृत्वा निषङ्धं पुष्ठसंगतम् ।। २६।। अरण्य हन्ति
दक्षिणहच चतुष्पदान् ।\ चकोरांइ्च मयूराश्च कङ्कांस्तित्तिरिम्षकान् ।। २७ ।\
` एतानन्यान् हन्ति नित्यं धृष्टबुद्धिः स नि्घणः \। पूर्वजन्मकृतैः पपैनिमगनः |
पापकर्दमे ।। २८ ॥। दुःखल्लोकसमाविष्टश्विचन्तयत् सोऽप्यहनिशञम् ।। कोण्डिन्यस्या- |
श्रमं प्राप्तः कस्माच्चित्पुण्यगौरवात् \\ २९ ।1 माधवे मासि जाह्नव्यां कृतस्नानं -
तपोधनम् ।\ आससाद धृष्टबुद्धिः शोकभारेण पीडितः ।। ३० ॥ तदरस्त्रनिन्दु- |
स्पेन गतपाप्मा हताश्ुभः ।! कौण्डिन्यस्याग्रतः स्थित्वा प्रत्युवाच कृताञ्जलिः `
` ॥ ३१।। धृष्टवुद्धिरुवाच ।। प्रायश्चित्तं वद ब्रह्मन्विना वित्तेन य-ूवेत् ॥ आजन्म- |
` कृतपापस्य नास्ति वित्तं ममाधुना ।॥ ३२ \। ऋषिरुवाच ।! श्यृणुष्ठकमना भूत्वा `
। येन पापक्षयस्तव ।! वेशाखस्य सिते पक्षे मोहिनी नाम नामतः ॥ ३३१ एकाक्शी
` व्रतं तस्याः कुर मद्वाक्यनोदितः ।\ मेरुतुल्यानि पापानि क्षयं नयति देहिनाम् `
। ॥ ३४ ।\ बहुजन्माजितान्येषा मोहिनी समुपोषिता ।। इति वाक्यं मनेः भ्रुत्वा `
` धृष्टबुद्धिः प्रसच्रहूत् ।\ ३५ ॥। व्रतं चकार विधिवत्कौण्डिन्यस्योपदेशतः ।\ कृते 1
~
व्रत नुपश्रेष्ठ हतपापो बभूवं सः \\ ३६ 11 दिव्यदेहस्ततो भूत्वा गरुडोपरि संस्थितः `
॥ जगाम वेष्णवं लोकं सर्वोपद्रव्वजितम् ।। ३७ ।\ इतीदृशं रामचन्द्र तमोमोहनि-
कृन्तनम् ।। नातः परतरं किञ्््चित्रेलोक्ये सचराचरे ।! ३८ ।। यनज्ञादितीथेदानानि
` कलां नाहन्ति षोडशीम् ।। पठनाच्छवणाद्राजन् गोसहस्रफलं लभेत् ।। ३९
इति श्रोकूमपुराणे मोहिन्याख्यवशाखशयुक्लकादसलीमाहात्म्यं समाप्तम् ।॥
1 अथ वेशाखदरुक्ता एकादशौको कथा-है जनादेन ! वेशाखके शुक्लपक्षे किसनामकौ एकाद होती `
है ओर उसका फल तथाविधि क्या है ? इसको आप कृपाकर वणेन कौजिए ।} १ ।। शरौक्रष्णजी महाराज
कहते हं कि, हे धर्मपुत्र ! मं तुम्ह उसं कथाका वणेन करता हुं जिसका भगवान् वसिष्ठने महाराज रामचन््रजी-
के वास्ते उपदे दिया था ।। २ ।। भगवान् राम बोले कि, भगवन् ! मे सब व्रतो मे जो श्रेष्ठ ब्रत हो
| ५. ` सुनना चाहता हं, जो सब पापोको नष्ट करता एवम् सब दुखोको काटता हो ।। ३।। हे महामुने ! मेने २
(केः विरह विरहसे अनेक प्रकारके दुःख भोगे इसलिए मं डरकर आपसे पुना चाहता हं \\ ४ ।\ व वसिष्ठजं
1 तुम्हारे रसि लिए ॥। हे राम ! वेश्ञाखके कृष्णपक्षमं जो एकादशी होतौ है उसका नाम ' मोहिनी '
(५५८) 2 अत 4. [एकादशी-- `.
क त ६ ॥ त 0 ५ 12101211 1 1 ः
था, उसके पांच लडके हुए । सुमना चुतिमन, मेधावी, युती ओर पांचवां धृष्टबुद्धि महापापी था, जे सदा
वेश्याजेके पास रहता मौर बदमाशोषी संगति करता थः, जूञा लेखना बौर व्यभिचारो मे रहना उसका
मुख्य काम था, वह न कभी देवोका पुजन करता था, तथा न कभी अत्तिथि ओर वृद्ध वितर ओर ब्रह्यणोको
पना ही करता था ।\ १४-१६ ।\ अन्यायी, दुष्ट, पितके द्रव्यको नष्ट करनेवाला अभक्ष्यभक्ञी ओर श्ञराबी |
` था\\ १७ ।। सदा बारवयुओके हाथ, द्विजोको देलता हृभा भी गल्वाह डाले रहता था । वेह्यासंग करनेके- ` `
कारण ही उसके पिताने ओर उसके बान्धवोने उसे घरसेनिकाल कर बाहर कर दिया था \। १८ ॥\ उसने `
, ˆ अपने भूषण नष्ट कर डरे एवं बेश्याओने भी उसे निन हये जानेके कारण निन्दाकर अलग करदियाथा `
` ॥११९॥} तब उसे बडी चिन्ता ई । नंगा ओर भूखा रहने लगा ! शोचने लगा कि, अब वया करू ओर कहां = `
जां 1\ २० । उसी नगर में उसने चोरी करना शुरू किया । पुलिसने उसे पकडा भी पर पिताके चिहानसे `
` छोडदिया 1! २१ ।\ फिर पकडा गया, फिर छोडा गया ओर अन्तमं उसे फिर पकडकर हथक्डी उल ही ५
दी \। २२।) बत ओौर चाबुकोकी सार पडने र्गी) कहा गथा कति, है दुष्ट ! तू हमारे देश मेसे निकल `
जा ।\२३॥\ एसा सुनाकर उसे जेर निकाल दिया ।\ इसी उरके मारे वहु किसी गहन वनमे जाख्पि
॥ २४ ।1 भूल प्याससे व्याकुल होकर इधर उधर भागने लगा । सिहुकौ भाँति सृग सुअर ओर चीतोको `
मारने लगा \ २५ ।। मांस खाकर कलमं गुजर करने कगा } धनुषपर शर रख ओर तक्सको पीठपर लाद `
जङ्कली जानवरोको तथा चकोर, मयूर, कंक, तीतर, चह ।। २६ 11 इनको ओर दूसरोको भी घृणा रहित
मार मारकर खानं लगा । पहु जन्मके ल्य हुए पायसे पापस्य कोचडमं फंस चुका था ।। २७ ।। ।\२८
इस प्रकार सदा दुःख ओर शोकम दिन काटता हुआ किसी पुण्य प्रभाव से वहु कौण्डिन्य ऋषिके अश्वममे
` जा षटुचा ।\ २९ ।। वह् धृष्टबुद्धि शोके भारसे दुःखी होकर वाल महीने मे गङ्खा स्नान कर आये हुए
` तपोधन ऋषिके पास आ उपस्थित हुमा उस आश्नमको उनके भागे हुए वस्त्रोकौ एक बृंद मात्र से बह पापी
गया । सब पाष निवृत्त हो गये हाथ जोडते हए कौण्डिन्यके आगे चलकर उसने प्राना कौ किह
महाराज ! आप मृक्षे प्रायद्िचत्त बतलाइए जिसघे कि मेरे जन्म भरके किये पाप नष्ट हौ जो कि, घन
ही हो जाय क्योकि, मेरे पाक्त जब धन नहीं है \\ ३० -~३२ 1! ऋषिजी बोले कि, हे धष्टबद्धे !
तुम एकद्विल होकर सुनो जिससे कि, तेरे जन्मभरके पापोका नादा हो । वेलाखके शुक्लपक्षे मोहिनीनामकौ `
कादौ होती है । उसका व्रत तू मेरी आज्ञासे कर । उससे प्राणिमात्र के सुमेर पर्वेतके समान भी बडे सव `
पाप नष्ट हौ जाते हं ।! ३३ ।। ३४ ।। बहुत जन्मोके पुष्ण्यफलसे इस मोहिनीका उपवास किया जाताहै ।
यहु भुनकर वह् पापौ धृष्टवुद्धि बडा प्रसन्न हुआ ।। ३५ ।। कौण्डिन्यजौके उपदेशसे उसने विधियु्वक व्रत `
` किया ओर उस व्रतके करनेपर ह नृशचेष्ठ वह् पापहीन होगया ।\ ३६ \। दिव्य देह धारण कर गरुड पर जढ `
गया । निविध्नतापूर्वक विष्णु भगवान् के श्ञान्त स्थानम जा पहुंचा ।। ३७ । इस प्रकार हे रामचन््रनौ `
महाराज ! यहं ब्रत मोहको काटनेवाला है । इससे अधिक अच्छा इस विदवमे दूसरा कोई भी ब्नत नहीं है ।॥ `
।। ३८ ।\ यज्ञ आदि तथा तीथं दान इसको षोडरी कलाको भी नहीं पा सकते मौर हे राजन् ! पठने ओर `
छुननेसे सहस्र गोदानका फल प्राप्त होता है ।\ ३९ ।। यह् ^ श्रीकूमेपुराण र पुराणका कहा हुमा वैशाल शुक्लाकौ मोहिनी `
` ततान | 9 ।हुन्दाटाकास।ह्त १ (५५९)
कूटगणकः कूटायुवंदको भिषक् ।६।।क्टसाक्षिसमः द्यवे विज्ञेया नरकौकसः ।॥ `
अपरासेवनाद्राजन् पापमुक्ता भवन्ति ते । ७ ।)क्षसरियः क्षात्रधर्मं यस्त्यक्त्वा
युद्धात्पलायते ।। स याति नरकं घोरं स्वीयधर्मबहिष्कृत । अपरासेवना- `
त्सोपि पापं त्यक्त्वा दिवं ब्रजेत् ।! विद्यामधीत्य यः क्िष्यो गृरुनिन्दां करोति च
॥ ९ ।\ महापातकसयुक्तो निरयं याति दारुणम् \} अपरासेवनात्सोपि सद्गति
` प्राप्नुयान्नरः ।\ १० \! पुष्करच्रितये स्नात्वा कार्तिक्यां यत्फलं लभेत् \) मकरस्थे `
रवौ माघं प्रयागे यत्फलं नृणाम् ।। ११ ॥ काष्ठां यस्प्राप्यते पुण्यं श्िवरात्रेर- `
पोषणात् !। गयायां पिण्डदानेन यत्फलं प्राप्यते नृभिः ।! १२ ।। सिहस्थितेदेवग्रो
गौतसमीस्नानतो नरः।\ यत्फलं समवाप्नोति कुम्भे केदारदछनात्।) १ ३।।बदर्याशिम- `
यात्रायास्तत्तीथसेवनादपि ।। यत्फल्समवाप्नोतिकुरक्षेत्रे रविग्रह १४।। गजाहव- `
हेमदाननेन यसे कृत्स्नयुबणदः ।। तत्फलं समवाप्नोति अपराया व्रतान्नरः।\ १५।। `
` अर्धप्रसुतां गां दत्वा सुवणंवसुधां तथा।नरो यत्फलमाप्नोति अपराया त्रतेनतत् `
॥1 १६ ।। पापहुमकुठारोऽयं पापेन्धनदवानलः।।पापान्धकारसूर्योभ्यं पापसारद्ख-
कसरी ।। १७ ।! अपरंकादश्षी राजन् कर्तव्या पापभीरभिः ।। बुद्बुदा इव तोयेषु `
` पुत्तिका इव जन्तुषु ।। १८ \\ जायन्ते मरणायेव एकादश्या व्रतं विना ।\ अपरां
समुपोष्यवं पुजयित्वा न्निविक्रमम् ।\ १९ । सवेपायविनिमुक्तो विष्णुलोकः व्रजे
ज्रः ।\ लोकानां च हितार्थाय तवाग्रे कथितं मया ।! पठनाच्छवणाद्राजन् सवपपः `
प्रमुच्यते ॥ २० ।! इति ब्रह्माण्डपुराणे ज्येष्ठकृष्णापराख्यकाद्ीमाहात्म्यं
समाप्तम् ।। ६
ध ज्येष्ठकृष्णकादशीकी कथा-युधिष्ठिरज बोलेकि, है भगवन् ! ग्येष्ठके छृष्णयक्षमे किस नामको = |
एकाद होती है ? उसका माहात्म्य मे आपसे सुनना चाहता हं ।\१ ।। श्रीकृष्णजी महाराज बोले कि, `
महाराज ! आपने यह बहुत उत्तम प्रहत किया, क्योकि, जाप प्राणियोका मला करनेको इच्छा रखतेहो ।
यह बहुतसे पुण्यकौ देनेवाली तथा सहापातकोको नाज्ञ करनेवाली है ।। २ ।। है राजे ! इसका नाम =
अपरा' है । यह् अपार फल्को देनेवाली है । जो मन्ष्य इस अपराकात्रत करता है वह् ५ लोकम प्रसिद्ध ८
वेदनिन्दा ओर मिथ्यातास्त्रका अभ्यास एवं ज्योति- ` ५
रकी होता है क्योकि ये सब काम प्ूटी गवा- =
( ५ ) 6 1 # स व्रतसर्ज ८ | | 1५
` कार्यम सुव्णकोही देनेसे \\ १५ ।\ अरधप्रसूदा मौके तथा ब्णं ओर पृथ्वीके दान देनेसे जो पृण्यफल प्राप्त `
ह्येता है बह सब उस पराके प्रतके करने प्राप्त हो जाता है \\ १६ ।\ पापरूपी वृक्षका कुठार, पापरूपी
इंधनका दावानल, पापाधकारका सुरथं एवं पायरूपी मृगका सिह ।\ १७ ।! यह् अपरा एकादच्यीका व्रत, पापसे
उरनेवालोको करना चाहिये ।। पानी मे बलबुलोके समान जौर जानवरों मक्खियोके समान ।। १८ ।\ `
मरनेके लिये ही उस मन्ष्यका जन्म है जिसने एकाद्शीका व्रत एवं भगवान् का पजन न कियाहो \\ १९॥ = |
अपराका उपवास करके ओर भगवानकौ पजा करके मन्ष्य सब पापोसे छूटकर विष्णु लोकम चलाजाताहै।।
` मैने विरवहितकी कामनासे तुम्हारे सामने इसका वर्णन किया है । इदे पठते ओर सुननेसे मनुष्य सबपापोसे
. मक्त हो जाता है ।! २० \\ यह श्रीब्रह्माण्डपुराणका कहा हुजा ज्येष्ठकृष्णा अपरानामकौ एकादक्ञीमाहात्म्य
` पराहुभ
1 अथ ज्येष्ठक्नक्रुकादकशीकथा
भीमसेन उवाच ।। पितामह महाबुद्धे श्टृणु मे परमं वचः \ युधिष्ठिरश्च
कुन्ती च तथा द्रुपदन्दिनी ।। १ । अर्जुनो नकूलशचेव सहदेवस्तथेव च ।! एका- द ४
द्यां न भुञ्जन्ति कदाचिदपि सुव्रत ।\! २।। तेमां ब्रुवन्ति वे नित्यंमाभृक्ष्वत्वं |
` वृकोदर ।। अहं तानवं तात ब॒भृक्षा दुःसहा मम ।। ३ ।! दानं दास्यामि विधि-
8 तय ९१ १ छ मि केशवम् ।। विनोपवासं लभ्येत कथमेकादक्लीव्रतम् ।\ ४ ।। भीम- ` ५
म तदा समुपदाम्यति ।। एकं शक्तोसमयहं क चोपवासं महामुने ।। ८ ।। `
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम् ।। व्यास उवाच ।, श्रुतास्ते मानवा धर्मा
क ` ` म, ,
वेदिकाश्च श्रुतास्त्वया ।\ ९ ।। कलौ युगे न शक्यन्ते ते वे क्तु नराधिप ॥ सुखोपायं
चाल्पधनमत्पक्लशं महाफलम् ।! १० ॥। पुराणानां च सवेषां सारभूतं वदामिते ।।
एकादश्यां न भुञ्जीत पक्षयोरुभयोरपि ।! ११ । एकाद्छ्यां न भक्ते यो न याति `
व्यासस्य वचनं श्रुत्वा कंपितोऽदवत्थपन्रवत्।\ १२।।भीमसेनो
` ` 11.14 ~ व । । १८२ 1 +$ 1१.1११ | । १..५१५.१ ४
शंखचक्रगदाधरः ।\ २० ।\ एकादश्यां सिते पक्षे ज्येष्ठस्योदकर्बजितम् \। उपोष्य `
फलमाप्नोति तच्छृणुष्व वृतोदर ।\ २१ ।। स्वेतीरथेषु यत्पुण्यं सवंदानेषु "यत्फलम् \
समवाप्नोति इमां कृत्वा वृकोदर ।! २२ ॥ संवत्सरस्य यावन्त्यः शुक्ला
कृष्णा वृकोदर ।। उपोषितास्ताः सर्वाः स्युरेकादष््यो न संशयः ।। २३ ।। घन-
धान्यवहाः पुण्याः पुत्रारोग्यफलप्रदाः !! उपोषिता नरव्याघ्र इति सत्यं वदामिते
दण्डपाश्धरा रोद्रामरणे
| ॥ २४ ।। यमदूता महाकाया करालाः कृष्णपिङ्कलाः ॥
दृष्टिगोचरम्
। २५ ।। न प्रयान्ति नरब्याध एकादश्यामपोषणात् ।
` धराः सौम्यार्चक्रहस्ता मनोजवाः ।! २६ ।। अन्तकाले नयन्त्येव मानवं वेष्णवीं `
पापे प्रमुच्यते ।! इति भुत्वा तदा चक्रः पाण्डवा जनमेजय ।! २८ ।। ततःप्रभृति ति अ
^ भीमेन कृतेयं निजला शुभा ।। पाण्डवदादशीनाम्ना लोके ख्याता बभव ह ।॥ २९॥ `
तथा त्वमपि भूपाल सोपवासाचंनं हरेः । कुर त्वं च प्रयत्नेन सर्वपापप्रश्न्तये `
` ॥५३०॥) करिष्याम्यद्य देवेश जलवजमुपोषणम् ।। भोक्ष्ये परेऽद्धिदेवेश ह्यन्नं च तव॒ `
` बासरात् ।! ३१ 1\ इत्युच्चायं ततो मन्त्रमुपवासपरो भवेत् ।। सवेषापविनाज्ञाय `
श्द्धादमसमन्वितः ।। ३२ ।। मेरुमन्दरमानं तु स्त्रियाथ पुरुषस्य यत् । पपं
पुरीम् ।\ तस्मात्सरवप्रयत्नेन सोपोष्योदकर्वाजता \२७।। जलधेनु ततो
-इस्मतां तां याति एकादश्याः प्रभावतः । ३२३।। न शक्नोति न
4 यं ध्येऽस्थ कुरुते वे स पुण्यभाक् ।। पलकोटिसुवणेस्य रकोटिसुवणं
भाषितम् ।\ ३६ ।। कि वापरेण धर्मेण निर्जलेकादौ
` इह लोके स चाण्डालो मृतः प्राप्नोति ॥ दुगंतिम् `
1 ध स्ना ¦ नानं दान जपं होमं यदस्या कुरुतं नरः ।। तत्सव चक्लिय ब्रक्तम ५ कुष्ण | |
वैष्णवं पदमाप्नुयात् ॥। ३७ ॥। सुवणंमन्नं वासांसि यदस्यां संप्रदीयते \\ तदस्य च
१] ताज 5 1 एकव
पापात्मानो इराचारा दृष्टास्ते नात्र संशयः ।\ कुलानां च हतं साप्रमनाचाररतं `
सदा ।\ ४६ ।} आत्मना सह तेर्नीतं वासुदेवस्य मन्दिरम् ।। शान्तर्यनपरश्चेव `
अच॑द्भिश्च तथां हरिम् ।। ४७।। कृवेडर्जागरं रात्रौ यरेषा समुपोषिता ।\ अन्नं `
पानं तथा गावो वस्त्रं शय्यासनं शभम् ।। ४८ ।! कमण्डलुस्तथा छत्रं दातव्यं
` निर्ज॑लादिने !\ उपानहौ च यो दद्यात्पाच्रभते द्विजोत्तमे ।! ४९ ।। स सौवर्णेन यानेन `
: स्वर्गलोक ब्रजेद्धर वम् \। यश्चेमां ष्यणुयादुक्त्या यज््चापि परिकीतयेत् ।\ ५० \\
उभौ तौ स्वरगतौ स्यातां नात्र कार्या विचारणा ।। यत्फलं संनिहत्यायांः राहृम्रस्ते `
दिवाकरे ।\ ५१ ।। कृत्वा श्राद्धं लभेन्मत्य॑स्तदस्या श्रवणादपि ।। एवं यः कुरुते ` ५
पुण्यां द्रादल्लीं पापनाशिनीम् ।\ सर्वपापविनिर्युक्तः पदं गच्छत्यनामयम् ॥ ५२।॥ `
इति श्रीभारतपद्ययोरुकतं ज्येष्ठशुवलनिजेलेकादशीमाहात्म्यं संपु्णम्, ।।
अथ ज्येष्ठ शुक्ल एकादशीकी कथा-मीमसेन बोरे कि, हे महाब पितामह् ! मेरे इय वचनको भत्ण
कीजिये । युधिष्ठिर , यन्ती तथा दरपदकी पुती दरौपदी, अर्जुन › नकुल तथा सहदेव हे स्रत ! ये एकादशौको ` 1
कभी भी भोजन नहीं करते ।। १।। २।। ओर ये लोग मृक्ञे भौ सदा क हते है कि, हे भीमसेन ! तुमभो भोजन ` 1
८ न करो । तो से उन्हे जवाब देता ह कि, भाई ! मे मूला रह्ना सह्य नी है ॥ २ । दान दूंगा र विविसे
५ पज्ाभी करूगा । पर एकादक्ीका व्रत विनाही उपवासं निस प्रकार हो एका उपाय बताइये ध
-भीमसेनके इस वचनको सुनकर व्यासनीने कहा कि, है भीमसेन ! यदि तुमको स्वगं प्यारा ओर `
नहीं हो सकते । सुखका उपाय जिसमे विदेष लयं मौ न हो न कोई दुख हो पर जिसका फल बडाहो ॥ १०
` यह् सुन वह बोले किं, सब पुराणोके जो सार रूप है उसे मे तुम्हं कहता हू, एकाद्कीके दिन दोनों पक्षम कभी
भी भोजन न करे ।\ ११।। जो लोग एकादशीके दिन भोजन करते हँ बे नरकफे यात्री होते हँ । इस प्रकार
खगा किं है पितामह !. मं उपवास करनेमं असमथ हूं क्या करं इसल्वये एसा कोई एकं नत बताइये जिसका | |
¦ बहुत फल हो } ग्यासजो बोले कि, वृष या सकरकौ संक्रान्तिपर जब कि शुक्ला एकादली प्राप्त हो ।1१४॥
ब श्येष्ठमासमे बड़े कष्ट से प्रयत्तके साथ एकादज्लीका निजेल उपवास करे \। १६१ स्नानमौर
मनको छोडकर जलका व्यवहार न करे !। १५ ।। क्योकि उससे ब्रतभेग होता है । उदयते दूखरे दिनके
व प करे रहे ।\ १६ 1\ इस प्रकार विना परिश्मके बाहर एकादशीका फल मिल
के टि १ निर्मल प्रातः काल स्नान करे \\१७।1 विधिपूवेक ब्राह्मणोको जल जर सुवणं देकर `
रके ब्राह्मणो केही साथ जितेन्द्रिय होकर भोजन करे ।। १८ ॥। हे भौमसनेन { इस प्रकार
तनौ एकादशी होती हँ ।।१९।। उन सबका
भतान 1 | ह्दाटाकासांहूत (५९६३ ) ^
“ 14 4.49 0 (0 | 4 ्थयाधददथवथ्याशाक् न 1 । = । ५ (८ क
सबका फल इस एकहीके ब्रते भिर जाता है ! हे नरश्रेष्ठ ! इसमे सन्देह नहीं है ।\ २३ ।। धनधान्य देनेवाला ` ५८
पुत्र ओर जारोग्यको बढा देनेवाला, इस त्रतका उपवास होता है । यह मे तुम्हंसत्य वर्णन करताहूं 1 २४।॥ `
मरणकरे समथ महाकायः कराल, कृष्णपगर रण्डपाशाधारी ओर भयंकर यमराजकके दूत दृष्टिगोचर नहीं
हेते ।\ २५ ।। है नरश्रेष्ठ ! एकादेखीके उपवाससे, पीताम्बरधारी, सौम्य चक्रहुस्त, मनकौ भाति दौडनेवारे,
।\२६।। भगवान्के सुन्दर दूत विष्णुपुरीको उसे अन्तम लेजाते हे । इसलिये इसका उपवास जल्से रहित
होकर सदाही करना चाहिये ।।२७।। इसके पौछे जलधेनु (ये शास्त्रीय संज्ञा है) का दानकरके सब पोते
मुक्तं हो । यह् सुनकर है जनमेजय ! पाण्डवोने उपवास किया ।।२८।। तवसे मौमसेनने मी इस निर्जलका
उपवास किया सौर इस लिये इसका नाम पाण्डव भीमसेन एकादली निस्यात हई है ।२९।॥ इस
व्यि है राजन् ¦! तुन भी सभी प्रयत्नोके साथ उपवास हरिका पूजन करो जिससे तुम्हूरेभी सब
पापोका क्षय हो जाय ।\३०।) है देवेश ¡ जं भं जलरहित एकादक्ञका उपवास करूगा जर आपके
वासरसे दूसरे दिन भोजन करूगः ।\२३१।। एसा संकल्प कर उपवास करे । सव पायोके नाज्ञ करने
हेतु श्रा ओर दससे मुक्त होकर ब्रत करे ॥३२।। इस प्रकार व्रत करनेसे स्त्री भौर पुरुषोके मेर पर्वतके ५
समानभी पपराशि क्यों न हौं क्षणमात्रमं भस्म होजाती है । यह् इस एकादक्षीका प्रभाव है 1२२ जो `
धेनुकौ जलदान् वा जल घेन् का दान नहं दे सके तो उसको सुवणंसहित भौर वस्त्रसहित घटका दान करना `
चाहिए ३४।। जो घटदान देतेसमय जलका नियम करता है उसे एक एक प्रहरे अन्दर कोटि कोटि `
सुवणं दानका फल प्राप्त होता है ।\३५।। जो इस दिन स्नान, दान, जप ओर होम करता है वह सब अक्षय
हीजाता है । यह भगवान् कृष्णने वणन किया है ।\३६।। है राजन् ! दूसरे धर्मोति क्या प्रपोजन है ?
निजंला एकादक्ञीकाही भव्तिसे उपवास करकेही मन्ष्य विष्णुलोकमें जासकता ह 1३७११ सुबणं, अन्न `
ओर वस्त्र जो कुछ इस दिन दिया जाता है है करदेष्ठ ! वह् सब अक्षय होजाता है ।॥३८। इस एकाद्श्षीके `
दिन जौ मनुष्य भोजन करता ह बह अपने पापोको खाता है एवं इस लोकम वह चांडाल ओर मरेषरद्रषरे `
लोकम दुगेतिको प्राप्त होता है ।\३९। जो लोग ज्येष्ठकी इस एकादश्लीके दिन उपवास कर दान देते ह
बै पुण्यात्मा परमपदको प्राप्त होते हे ।१४०।।इस निजंलाका उपवास करनेसे पाप मुक्त होजाता है चाहं `
बो मनुष्य ब्रह्महा, मद्यपायी, चौर ओर गुरुनि्दक तथा सदा मिथ्यावःदही क्यो न हो \1४१।हे रजे)
इसन निर्जला एकादश्षीके दिन विशेष रूपसे श्रद्धावाले सभौ स्त्रौ पुरुषोको क्या करना चाहिये इसका `
में वर्णेन करता हूं ।\४२ । इसमे जलदायौ भगवान्की पूजा करे; ओर तैसी ही जल धेनुका दन करे! `
. प्रत्यक्ष गोका दान वा घुतगोका दान करे ॥४३।। ह घरमज्ञ ! एवं धर्मधारिथोमे श्रेष्ठ दक्षिणसे अनक्ष `
तरहक मिष्टान्न भोजने प्रयत्नके साथ ब्राह्मणोको प्रसन्न करे ।४४।। एसा करनेसे मोक्षशता भगवन् `
हरि जल्दी प्रसर होते हँ ! जो लोग इस उपवासको नहीं करते वे अपनेही साथ देष करते हे ।(४५।। जोलेग `
शान्त ओर दानी हौकर भगवान्की पूजा करते हए रात्रिम जागरण कर निर्जलाका उपवास करतेहे वे लोग .
बाहंषापी या दुराचारी हों दष्ट हों बे अपने अनाचारी सौ कुलके साथ भगवानके घाममे पहुचते हे ।\४६। = `
1५४७।। जिन्हे कि, रातमे जागरण कर्ते हुए इसका व्रत किया है इस निजंलके दिन वे उन्न, पान, गौ, `
। वस्त्र, थ्या, आसन, कमंडल्, छत्र ओर जती जोडे
डे किसी उत्तम ब्राह्मणको अवश्य दं ।\४८।। ४९ ॥ वह॒ = `
३ अवद्रयही ८ ही स्वगम जता है । जो वः हसे , भक्तिसे ति | सुनता है भर कह हता है
(द परनि [शादी `
सदन ।। श्चीकरष्ण उवाच ।। व्रतानामुत्तमं राजन्कथयामि तवाग्रतः \। २ ।। सवेषाप- ॥
क्षयकरं भुक्तिमुक्तिप्रदायकम् ।! आषाढस्यासिते पक्षे योगिनीनाम नामतः ।। ३ ।।
एकादक्ी नृपश्रेष्ठ महापातकनारिनी ।\ संसाराणेवभमग्नानां पोतरूपा सनातनी
॥ ४ ।। जगच्नये सारभता योगिनीति नराधिप ।। कथयामिकथां तस्याः पौराणीं
पापहारिणीम् ।। ५ ।। अलकाधिपतिनम्निा कुबेरः शिवपुनकः ।। तस्यासीत्पुष्प- ` १
बटुको हेममालीति नामतः ।\ ६ \ तस्य पत्नी सुरूपासोद्वि्ञालाक्षीति नामतः ।।
स तस्यां स्तेहसयुक्तः कामपाशवश् गतः ।\ ७ ।! मानसात्पुष्पनिचयमानीय स्वगृहे `
स्थितः ॥। पत्नीप्रेमसमायुक्तो न कुबेरालयं गतः ।। ८ ।। कुबेरो देवसदने करोति ५
हिवपुननम् ।। मध्याह्नसमये राजन् पुष्पाणि प्रसमीक्षते ।। ९ ।। हेममाली स्वभवने
रमते कान्तया सह ।। यक्षराट् प्रत्युवाचाथ कालातिक्रमकोपितः ।। १० ।। कस्मा- ५
क्नायाति | ५1 । ४ पो 1 यक्षा हेममाली दुरात्मवान् ।। निह्चयः क्रियतामस्य प्रत्युवाच पुनः ` (
उचुः ।\ बनिताकामुको गेह रमते स्वेच्छया नृप ।\ तेषां वाक्य ५
गन त्य कुबेरस्या- `
१ 1॥ १५।। अतो भव दिवत्रयुक्तो वियुक्तः कान्तया सदा\। अस्मात्स्थानाद- `
पध्वस्तो गच्छ स्थानमथाधमम् ।\ १६ ।। इत्युक्ते वचने तेन तस्मात्स्थानात्पपात `
सः महादुःलाभिभूतर्च कुष्ठपीडितविग्रहः \। १७ ॥! न वै तोयं न भक्ष्यं च वने `
(5 रोद्रे लभत्यसं गौ ।। न सुखं दिवसे तस्य न निद्रां लभते निति ॥ १८ ॥। छायायां
ौडिततनुनि शिवयुजाप्रभावेण स्मृतिस्तस्य न गच्छति |
च्छद्धिमाद्रि
व्रतानि 1
|
+~ ~ कात = | . । ^ ६ । : ध ध £ 2 । ^“ नि |
1.४.114 1. ग प 1 ध प ५ तद्व = मातन; ` " 9 छ ॥
ष्ठाभिभूतः संजातो वियुक्तः कान्तया सह् ।। अधुना तव सानिष्यंपरापतरभ छ
श्युभकमणा ।। २८ ।। सतां स्वभावतरिचत्तं परोपकरणक्षमम् ।। इति ज्ञात्वा मनि
` श्रेष्ठं शाधि मां च कृतेनसम् । २९ ।। माकंण्डेय उवाच ।। त्वया सत्यमिह् प्रोक
नासत्यं भाषितं यतः ।\ अतो त्रतोपदेशं ते करिष्यामि शुभप्रदम् ।! ३० ।। आषा
छृष्णपक्षं त्वं योगिनीव्रतमाचर ।। अस्य व्रतस्य पुण्येन कुष्ठा्वं मुच्यसे धवम् `
। ३१ ।1 इति वाक्यं मनेः शरुत्वा दण्डवत्पतितो भुवि । उत्थापितकष्च मनिना `
बभूवातीव हषितः ।\ ३२ ।! माकंण्डेयोपदेशेन कृतं तेन व्रतोत्तमम् ।। तद्ब्रतस्य `
प्रभावेण देवरूपो बभूव सः ।॥ ३३ ॥। संयोगं कान्तया लेभे बभ॒जे सौख्यमत्तमम ।} `
ईदुग्विधं नृपश्रेष्ठ कथितं योगिनीब्रतम् ।। ३४ ।, अष्टाश्लीतिसहस्राणि द्विजान् `
॥ भोजयते तु यः ।! तत्फलं समवाप्नोति योगिनीत्रतकर्रः \ ३५ ।। महापाप- `
प्रशमन महापुण्यफलग्रदा ।। शुचिकृष्णेकादजौ ते कथिता योगिनी नृप ॥। ३६।॥ `
इति श्रीब्रह्मवेबतंपुराणे आषाढङृष्णयोगिन्यास्येकादशीमाहातम्यं समाप्तम् । = `
9 अथाषाढ कृष्ण एकादशी--युधिष्ठिरजी बोले कि महाराज ! ज्येष्ठ शक्ला निर्जला एकाद गीका `
माहात्म्य श्रवण किया, अब आप आषाढकृष्ण एकादक्तीका क्या नाम होता है ? ॥१।) हे मधुसुदन ! य यह
। आप प्रसन्न होकर मुन्चको वणेन कीजिये । शरोढृष्णजौ बोलते कि, है राजन् ! व्रतोमे उत्तम चतका वर्णनं ति
५ ` तुम्हारे सम्मुख कहताहूं ।।२।। सब पापोको नाश करनेवाली भक्तिः ओरं भक्तिको देनेवाली भषादके
कृष्णपक्षमे योगिनी" नामकौ एकादज्ञी होती है ।\३॥। हे राजभरेष्ठ ! यह एकादशी संसारश्पी वमद्रमे `
इबनेवारोको जहाजके समान ओर पापोका नाका करनेवाली एवं सनातनी है ।।४॥ है नराधिप ! ` |
तीनों जगत्की साररूपा प्राचीन एवं पापहारिणी, इस योगिनी एकादशी कथाका सं तुम्हे वर्णन करताहुं ।५।\
श्िवपूजा करनेवाले अलका नगरीके स्वामौ कुबेरके पास हेममाली नामका एक माखीका लडका था ।। ६।।
` उसकी विजञालाक्षी नामकी सुन्दर स्त्री थौ । वह कामदेवके वजशोभूत होकर उसमें बडा स्नेह रखताथा 1\७।
वहु एकदिन मानस सरोवरसे पुष्प लाकर अपनौ पत्नीके प्रेमसे फंसकर धरपर ही रहगया ओर अपने स्वामं
04 कुबेरके स्थानपर न गया ।\८।। हे राजन् कुबेर उस समय देवाल्यमें बेठकर शिवजौकौ १ जोक ' जा व ् करताथां।
भध्याह्लका समय हो गया था, पर पुष्य नहीं आये थे । इस कारण उनकी पूरी प्रतीक्षा थौ ॥।९॥ हेममास हेममाली `
। जिसकोकिः, पष्प लानेके लिए कहा गया था, घरपर अपनी स्स भोग कर रहा था । तब यक्षराजने कालाति- `
` करम होनेके कारण कुपित होकर यह कहा ।।१०।। कि, हे यक्षो ! वहं दष्ट हेममाली आज क्यो नहीं `
भाया ! जाकर इसका निदचय करो, यह एकह 3 $ नही यक्षोने जवाब दिया
कुषित होकर ।१२। उस शूल लानेवाले
ही जानेसे डरके मारे ० लगा । ५९
(५६९६) # ब्रतराज 1 [एकादकी- ।
जा पहुंचा ।२०।। वहां उसने तथोनिधि मुनिराज माकंण्डेयजीको देखा ! जिसकी कि, आयु है राजन् ! `
ब्रह्माके सात दिन पर्यन्त है ।\ २१)! वह् उस मुनिराजके उसं आश्चमपर गया जो ब्रह्मसभाके समान था! = `
` उस पायीने दूरसेही उनके चरणोमे प्रणाम किया ।२२।। तब महाराज माकंण्डेयजीने उसे दूरसेही देखकर ५
परोपकार करनेकी इच्छासे बखाकरः यह् कहा ।।२३।) कि, क्यो भाई ! तुमह यह कुष्ठ कयो है ओर किस -
लिए तु अत्यन्त निन्दनीय हुमा है ? इसध्रकार उनके वचन सुनकर उसने उत्तर दिया ।।२४।। कि, महाराज !
मेरा नाम हेममाली हैः भं कुबेरका नौकर हूं हे सुने! मं नित्य मानसरोबरसे पुष्प खाकर ॥२५।। `
क्िवजौ कौ पूजाके समय कुबेरको अर्पण किया करता था । लेकिन एक दिन मेने देर करदी।\२६।। कामाकृल `
होकर स्त्रीसद्धः करता रहा, उसका सुख खेता रहगया । तब स्वामीने कुपित होकर, है म॒ने ! मक्षे शाप ८
देदिया है ।२७।। जब इसी कारण मे कुष्ठते कष्ट पारहाहूं ओर स्त्रीसे भी वियुक्त हूं । जब आपके
निकट किसी शरुभकमेसे यहां आपके समीप आ उपस्थित हुआ हं ।२८।॥ सज्जनोका स्वभावहौ `
परोपकार करमेका होता है, इसलिए आप भन्ने एसा जान कर इस पावका प्रायरिचत बतलाइये ॥२९।। `
भाकंडेयजी बोर कि, तुमने सत्य कहा, मिथ्याभाषण नहीं किया है । इसव्ि मे तुमे शुभके देनेवाके एक `
सुंदर ब्र्तका उपदेज्ञ करूगा \३०।। आषाढ कृष्णपक्षे तु योभिनीक। व्रतकर ! इस त्रतके पुण्यसे तुम कुष्ठसे `
भुक्त हो जाभोगे इसमे सन्देह मत करना ।२१। मुनिके इन वचनोको सुन उसने पृथिवीपर दण्डवत् प्रणाम `
किया मुनिने उसे उठाया तब उसे बडा हषे हुमा ।\३२।। माकंण्डयजीके उवदेशसे उसने यह उत्तम ब्रत `
किया जर उत व्रतके प्रभावसे उसको दिव्यरूप प्राप्त होगया ।३३।। स्त्रौका संयोग उत्तम चुल प्राप्त
हमा, जिससे बह सुखी होगया । हे राजन् ! इस प्रकार योगिनीका उत्तम बरत वणन किया ।।३४।। अस्सी `
हजार ब्राह्यणोको भोजन, करानेसे जो फल भिलता है बहौ फल इस योगिनोकरे व्रतसे मिलता ह ।\ ३५1} बडे `
का ना करनेवालो ओर बडा पुण्य फल देनेवाल है ! हे राजन् } इस प्रकार आपको यह् आषाढ. `
कादौ का वणन करदिया है \३६।। यह् श्रीब्रह्यवेवत्तपुराणकी कही हूर आषाढङृष्ण योगिनी- `
दक्षीक्षा माहात्स्य पुरा हुमा ५ 1 4
1. अथाषादशुकछेकादङ्ञीकथा | षुः ब.
~ धवि ष्ठिर ष्ठर उवाच ।। आषाढस्य सिते पक्षे किनामेकाद्शी भवेत् ॥। कोदेवः |
को विधिस्तस्या
या एतदास्याहि केव !। १।। श्रीकृष्ण उवाच ।। कथयामि महीपाल
कथामाश्चयकारिणीम् ।। कथयामास यां ब्रह्मा नारदाय महात्मने । २ ।। नारद `
उवाच ।। कथयस्व प्रसादेन विष्णोराराधनाय मे ।॥ आषादलुक्लपक्षे तु कना- `
मेकादक्षौ भवेत् ।\ ३ ॥। ब्रह्मोवाच ।। वेष्णवोसिऽ मुनि शरेष्ठ साधु पुष्टं कलि- `
नातः परपरं लोके पवित्रं हरिवासरात् ।\ ४ ।। क्ेव्यं तु प्रयत्नेन सवेपापा-
तस्मात्तेऽहं प्रवक्ष्यामि शुक्लं एकादशीव्रतम् ।। ५ ।। एकादा व्रतं `
वकाम कृतं यनेरेलोकं ते नरा निरयेषिणः ।॥ ६ ।1 पद्याना- `
व्रताति) 8 हिन्दीटीकासहित 9 (५६७)
मक
राज्यं बहुवर्षगणो गतः ।। अथो कदाचित्संप्राप्ते विपाके पापकर्मणः \\ १२ ॥ `
वर्षत्रयं तद्विषये न ववषं बलाहकः ।। तेनोष्विग्नाः प्रजास्तत्र बभूवः क्षुधयादिताः
। १३ ।। स्वाहास्वधावषटकारवेदाध्ययनवजिताः 1! बभवविषयास्तस्य सत्या-
भावेन पीडिताः ।। १४ ॥। अथ प्रजाः ससागत्य राजानमिदमन्रवन् ।। श्रयतां वचनं
राजन् प्रजानां हितकारकम् ।॥ १५ । आपो नारा इति प्रोक्ताः पुराणेषु मनी- |
षिभिः ।। अयनं ता भवगतस्तेन नारायणः स्मृतः ।\ १६ ।। परजेन्यरूपो भगवा- |
न्विष्णुः सवगतः सदा ॥। स एव कुरते वृष्ट वृष्टेरन्ं ततः प्रजाः ।! १७॥।। तदभावेन |
नृपते क्षयं गच्छन्ति वं प्रजाः ।। तथा कुर नुपशचेष्ठ योगक्षेमो यथा भवेत् ।! १८ ॥ `
राजोवाच \\ सत्यमुक्तं भवद्भिर न मिथ्याभिहितं वचः ।। अचं ब्रह्ममयं परोक्तमन्ने `
सवं प्रतिष्ठितम् ।। १९ ।। अच्ना वन्ति भूतानि जगदन्ेन वतते ।! इत्येवं श्रयते ।
लोके पुराणे बहुविस्तरे \ २० । नृपाणामपाचारेण प्रजानां पीडनं भवेत् 1 नाहं `
पर्याभ्यात्मकरृतं दोषं बुद्धया विचारयन् ।। २१। तथापि प्रयतिष्यामि प्रजानां ५
हितकाम्यया ।। इति कृत्वा माति राजा परिभेयबलान्वितः ।\ २२ ॥ नमस्कृत्य
विधातारं जगाम गहनं वनम् । चचारि सुनिमुख्ानामाश्रमांस्तपसेधितान्
` ॥५२३।। ददल्ञाथे ब्रह्मसुतमृषिमद्धिरसं नपः ।। तेजसा चोतितदिशं द्वितीयमिव ध
` पद्मजम् ।। २४ ।\ तं दृष्ट्वा हितो राजा अवतीयं च वाहनात् । नमक्चक्रेस्य
चरणो कृताञ्जलिपुटो वल्ली ।। २५ ।। मुनिस्तमभिनन्द्याथ स्वस्तिवाचनप् ५ {८
(५६८) 2 तान [ एकादशी- `
वाक्यं मृनेः धुत्वा राजा स्वगृहमागतः ।। ३६ ।। आषाढमासे संप्राप्ते पद्यात्रत-
. मथाकरोत् । प्रजाभिः सह सर्वाभिह्चातुरवेण्यसमन्वितः ।! ३७ ।। एवं कते ब्रते |
५ ( जरः
हषोकेशप्रसादेन जनाः सौख्यं प्रपेदिरे \! एतस्मात्कारणादेव कतव्य ब्रतमत्तमम्
३९ ।। भुक्तिमुक्तिप्रदं चेव लोकानां सुखदायकम् ।। पठनाच्छृवणादस्या
सव पापेःप्रमुच्यते
प्रबवषें बलाहकः । जखेन प्लाविता भूमिरभवत्सस्यमालिनी ।। ३८ ॥ `
व्यते ।। ४० ॥ इति श्रीव्र° आषाढशुक्लपदयाख्यैकादजीब्रतमाहा-
त्म्यम् ।! इयमेव शयन्याख्या ।\ एतस्यां विष्णुशायनव्रत चातुर्मास्यत्रतग्रहणं चोक्तं `
भविष्ये । कृष्ण उवाच ।।! इयमेकादज्ञी राजज्छयनीत्यभिधीयते ॥। विष्णोः `
प्रसादसिद्धघ्थमस्यां च शयनव्रतम् ।। १ ।! कतंव्यं राजल्ाद्ल जनमक्षिच्छुभिः `
सदा 1। चातुर्मास्यत्रतारम्भोऽप्यस्यामेव विधीयते ।। २ । युधिष्ठिर उवाच ।॥ |
कथं कृष्ण प्रकर्तव्यं श्रीविष्णोः शयनव्रतम् ।। तद्ब्रूहि कृपया देव चातुर्मस्य- `
व्रतानि च ।। ३ ।। श्रीकृष्ण उवाच ।। श्युणु पार्थं प्रवक्ष्यामि गोविन्दशयनत्रत- `
म् ।। ७ ।! पीताम्बरधरां सौम्यां पयकं वे सिते शुभे ।! सितवस्वरसमाच्छक्चे
` सोपधाने युधिष्ठिर । ८ ॥ इतिहासपुराणज्ञो ब्राह्यणो वेदपारगः ।। स्नापयित्वा
4 ॥ ।। १३ ।। इति संप्रा्यं देवेशं प्रह हः संशुदढधमानस
“ ... -त्रतावि.- 4 हिन्दीटीकासहित य (५६९)
पुमान् \। त्रतमेकं नरः कृत्वा मुच्यते सवेपातकंः\। १९।। प्रतिवर्षं तु यः वुर्थाद्व्रतंवे
संस्मरन् हरिम् \। देहान्तेऽतिप्रदीप्तेन विमानेनाकंतेजसा । मोदते विष्णु- `
` लोकेऽसौ यावदाभूतसंप्लवम् ।। तेषां फलानि वक्ष्यामि क्तंणां तु पथक्पुथक् `
॥ २१ ॥ देवतायतने नित्यं माजेनं जलसेचनम् ।। प्रखेयनं गोमयेन रङ्कबल्ल्या- `
दिकं तथा \\ २२। यः करोति नरशरेष्ठश्चातुर्मस्थमतन्दितः । समाप्तौ च॒ `
` यथादाक्त्या कर्यादत्राह्मणभोजनम् ।। २३ ।। सप्तजन्मसु पि्रेद्धः सत्यधमेषरो :
भवेत् ।। दध्ना क्षीरेण चाज्येन क्लोद्रेण सितया तथा 1\ २४ ।। स्नापयेद्विधिना देवं =
चातुमस्यि जनाधिप ।। स याति विष्णुसाल्प्यं सुखमक्षय्यमरनृते ।। २५॥। नृपो `
भूमि प्रदद्याद्यो यथाशक्त्या च काञ्चनम् ॥ विप्राय देवमुदश्य सफलं च सद- |
क्िणम् ।। २६ ।} अक्षयान् लभते भोगान् स्वगं इन्द्र इवापरः ।॥ लोकं स सम-
` वाप्नोति विष्णोर्न न संशयः ।। २७ ।। देवाय हेमपद्यं तु दद्यानवेदयसयुतम् ।॥
` गन्धपुष्पाक्षतादर्यो देवब्राह्मणयोरपि ।। २८ ।। पूजां यः कुरुते नित्यं चातु्मस्यि
व्रती नरः ।। अक्षयं सुखमाप्नोति पुरन्दरपुरं व्रजेत् ।! २९1 यस्तु वं चतुरो ।
। भासास्तुखुस्या हरिमचयेत् ।। तुलसीं काञ्चनीं कृत्वा ब्राह्मणाय निविवयेत्
। ॥॥३० ॥। काञ्चनेन विमानेन वेष्णवी लभते गतिम् \। देवाय गुग्गुलुं यो वे दीपं
` चापेयते नरः ।। ३१ । समाप्तो धूपिकां दद्याहीपिकां च महामते ।। स भोगी ली ४.
। जायते श्रीमास्तथा सौभाग्यवानपि ।! ३२ ॥। प्रदक्षिणास्तु यः कुर्यान्नमस्कारान्वि- `
श्ञोषतः ।\\ अद्वत्थस्याथवा विष्णोः कातिक्यवधि स॒ धवम् । ३३ ॥ विष्णु-
` लोकमवाप्नोति सत्यं सत्यं न संशयः । संध्यादीपप्रदो यस्तु प्राङ्गणे द्विजदेवयोः `
॥ ३४ ।। समाप्तौ दीपिकां दद्यास्त्र चैकं च काञ्चनम् ।। वैकुण्ठं समवाप्नोति
(५७०) “4 .क्रतरांज व [एकादश्ी-
तथा ।॥\ ४२१ आरोग्यं पू्ण॑मायुहच कोति लक्ष्मीं बलं लभेत् ।! तिल्होमं तु य
कर्याच्चातुर्मास्ये दिनेदिने ।! ४३ ।। मक्त्या व्याहूतिभिमत्र्गायत्या वा व्रतान्वितः ।
१ प्राय धीमते ।} वाङमनःकायजनितः पपेमुच्येत् सञ्चितः ।। ४५ ।। न रोगेरभि-
अष्टोत्तरं चाथ अरष्टवश्तिमेव वा 1! ४४ \। तिलपात्रं समाप्तौ तु दद्याद्वि-
भयेत लभेत्संततिमु्तमाम् \) अच्होमं तु यः कुर्याच्चातुर्मास्यमतन्दरितः ॥! ४्दै।॥ `
समाप्तौ घतकुभ्भं तु द्यात्सवस्वकाञ्चनम् !\ आरोग्यं कान्तिमवुलां पुत्रसोभाग्य-
सम्पदः ।\ ४७ ।\. शदुश्षयं च लभते ब्रह्मणा प्रतिमो भवेत् ।। अहवत्थसेवां यः `
ुर्यात्सवपापेः प्रमुच्यते ।! ४८ । विष्णुभक्तो भवेत्पश्चादन्ते वस्त्रं प्रदादयेत् ॥ `
सकाञ्चनं ब्राह्मणाय नेव रोगान् स विन्दते ।। ४९ ।। तुलसीं धारयेद्यस्तु विष्णु- `
प्रीतिकरं शुभाम् ।। विष्णुलोकमवाप्नोति सवेपापेः प्रमुच्यते ।। ५० ।। ब्राह्म- `
णान्भोजयेत्पश्चाद्ष्णमुदिष््य पाण्डव ।। यस्तु सुप्ते हृषीकेशे दूर्वामृतसंभवाम्
॥1५१।। सदा प्रातवहन्मूध्नि त्वं दूवं इति मंत्रतः ।। व्रतान्ते च कुरेश्रेष्ठ दवी
4 स्वणविनिमिताम् ।। ५२ ।। दद्याद् दक्षिणया साद्धं मंत्रेणानेन सुव्रत ।। यथाजश्ञाखा- 1
भिविस्तृतासि महीतले ।\ ५३ ।\
। नालुभं प्राप्नुयान्जातु पापेभ्यः प्रविमुच्यते ।! ५४ ॥ भुक्त्वा तु सकलान्
न स्वर्गलोके महीयते ॥ गीतं तु देवदेवस्य केशवस्य शिवस्य वा ।। ५५ ।। `
भक्त्या मद्रूपं ब्राह्मणं स्मरन् ।। मनोवाक्कायजनितेमुक्तो ५
६०॥। व्याधिभिर्नाभिभूयेत श्रीरायुस्तस्य वद्धेते ।। समाप्तौ गोयुगं दद्याद्गामेकां
पयस्विनीम् ।\ ६१ ।। तत्राप्यशक्तौ राजेन्द्र॒ द्चाद्वासोयुगं ब्रती ।। ब्राह्मणं
तया ममापि सन्तानं देहि त्वमजरामः |
। करोति पुरतो नित्यं जागतः फलमाप्नुयात् ।। चातु्मस्यिव्रती दद्याद् घण्टां देवाय `
` सुस्वरम् ।। ५६।। सरस्वति जगन्नाथे जगज्जाडयापहारिणि ।\ साक्षादृब्रह्यकलत्रं `
च विष्णुरद्रादिभिः स्तुता ।। ५७ ।। गुरोरवज्ञया यच्चानध्यायेऽध्ययनं कृतम् ॥ `
` तन्ममाध्ययनोत्पन्नं जाडं हरं वरानने ।! ५८ । घण्टादानेन तुष्टा त्वं ब्रह्माणी `
` लोकपावनी ।। विप्रपादविनिर्मुक्तं तोयं यः्रत्यहुं पिबेत् ॥। ५९ ।! चातुमस्यि नरो
भ भवति किल्बिषैः
| त्रतानि। = भ हिन्दीटीकासहित | (५७१)
रणसल्चिभो ।। निवेदयेदब्राह्णाय सवेकामा्थंसिड ८ ।। यस्तु रोप्यं हिव-
प्रीत्यै दद्याद्धुक्त्या ऋतुद्रये \। तः स्रं वा प्रत्यहं दशात्स्यशकत्यः ज्ञिवतष्टये ।। ६९॥
सुरूपाल्लभतें पुत्रान् रुदरभक्तिपराथणान् ।। समाप्तौ सथपूर्ण तु पात्रं राजतमु-
` त्तमम् ।।! ७० ।! प्रदद्यात्तास्रदाचं तु तावां गुडान्वितम् ।। यश्तु सुप्ते हूषीकेक्ञ `
। स्वं दद्यात् स्वकामतः \ ७१ ।। सवयुः्तितः साद र्वा भमचयते।। इह
भुक्त्वा महाभोगानन्ते शिवपुरं ब्रजेत् ।। ७२ ।। वस्त्रदानं तु यः कुर्थाच्चातुर्मस्यि
0 द्विजाय ।। अभ्यच्यं गन्धयुष्पाद्यवित्णुम प्रीयत्तासिरि |} य्या दयात्स-
माप्तौ तु वासः काञ्चनपट्टिकास् ।। अक्षय्यं युखमःप्नोति घनं स घनदोपमम्
॥ ७४ ॥ यो गोपीचन्दनं द्याननित्यं वर्षासु मानवः ।। भ्रीपतिस्तस्य संवुष्टो |
भुक्ति सूक्ति ददाति च \! ७५ ।। समाप्तावपि तहयात्त॒ल परिमितं जुभम् ।। तदं (1
। वा तदद्धंवा सवस्त्रं च सदक्षिणम् ।\! ७६ ।। यस्तु सुप्ते हृषीकेशे प्रत्यहं तु ब्रता-
| न्विततः।। दद्याद् दक्षिणया साद्ध शकंरामथवा गुडम् !। ७७ ।। एवे व्रते तु सपुण
कुवेन्ुद्यापनं बुधः ।। प्रत्येकं तास्रपात्राणि पलाष्टकमितानि तु ॥ ७८ ॥ वित्त
॥७९ ॥ दल्िणाफल्वासोभिः प्रत्येकं संयुतानिच ।) सहं धान्यानि विप्रेभ्यः
भ्रीतिकरं यस्माद्रोगध्नं {पापनाशनम् ।। ८१ ॥। पुष्टिदंकीतिदं नृणां नित्यं सन्तान- `
कारकम् ।। सवेकामप्रदं स्वग्येमायुवदधेनमुत्तमम् ।। ८२ ।। तस्मादस्य प्रदानेन
कीर्तिरस्तु सदा मम । एवं त्रतं तु यः कुर्यात्तस्य पुण्यफलं श्यृणु ।। ८३ ।। गन्ध- `
। वैविद्यासंपन्नः सवंयोषित्प्ियो भवेत्।।राजापि लभते राज्यं पुत्रार्थी लभतेचुतान् ॥ `
( मासाञ ञ्छाकमूलफलादिकम् ।! ८५ |) नित्यं ददाति विप्रेभ्य शा
कुर्वाणद्चतुष्पलमितानि वा ।\ अष्टचत्वारि चैकं वा सकरापुरितनि च
श्रद्धा प्रतिपादयेत् ।॥ ८० ।। तास्रपात्रं सवस्त्रं च शकंराहेमसंयुतम् ॥ सुथै-
त्या यत्संभवेनरुप ।॥ `
सुखीभृत्वा चिरं कालं
(५७२) क ` बतराज | १ [एकादशी
तामा मब न ५
वि
मुक्ताफलानि यो इद्यानित्यं विप्राय सन्मतिः ।॥ अन्नवान्कीतिमाञ्छ्)मा-
ज्जायते वसुधाधिप ॥ ९४ ।। ताम्बूलदानं यः कुर्य्या नितेन्ियः \॥\
रव्तवस्त्दरयं दद्यात्समाण्तौ च सदक्षिणम् ।। ९५ ।\ महालावण्यमाप्नोति सवे- `
` रोगविवजितः ।\ मेधावी सुभगः प्राज्ञो रक्तकण्ठञ्च जायते ।। ९६ ।। गन्धव- 1
त्वमवाप्नोति स्वर्गलोकं च गच्छति ।। ताम्बूलं श्रीकरं भद्र ब्रह्मविष्णुशिवात्मकम् `
॥। ९७ ॥ अस्य प्रदानादब्रह्याद्याः धियं ददतु पुष्कलाम् ॥ चातुमसि `
प्रतिदिनं सुवासिन्यै द्विजाय च।। ९८ ॥ नारीवा पुरुषो वापि हद््रं
संप्रयच्छति ।\ लक्ष्मीमुद्िश्य गौरीं वा समाप्तौ राजतं नवम् \\! ९९ ।। हरिद्रा-
` पूरितं कृत्वा तत्पात्रं दक्षिणान्वितम् ।। प्रवद्याटूक्तिसंयुक्तं देवौ मे प्रीयतामिति
॥ १००॥ भ्रा सह् सुखं भुक्ते नारी नार्या तथा पुमान् ।। सौभाग्यमक्षयं धान्यं
धनयुत्रसमु्चतिम् \\ १ ।\ संप्राप्य र्पलावण्ये देवी लोकं महीयते ।। उमामहेश-
` मुदिश््य चातुर्मास्ये दिने दिने ।1 २ \\ सम्पूज्य विप्रमिथुनं तस्मं यश्च स्वशक्तित
9
दद्यात् सदक्षिणं हेम उमेशः प्रीयतामिति ।! ३ ।1 उमेराप्रतिमां हमीं ददयादृद्यापने ।
11 पञ्चोपचारेः सम्पुज्य धेन्वा च वृषभेण च । ४ ।। भोजयेदपि मिष्टान्नं
चानपायिनीम् ।। ७ ॥ फल्दानस्य माहात्म्यान्मोदतं नन्दनं वनं ।। पुष्यदानब्रते >. ५
` चपि स्वणंपष्पादि दापयेत् ।। ८ । स सौभाग्यंपरं प्राप्य गन्धरवेपदमाप्नुयात् ।॥ ` .
व्रतानि | हिन्दीटीकासहित (५७३)
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क \। सवेपापविशुद्धात्मा याति ब्रह्म सनातनम् ।। १८ ।। एकान्तरोपवासे तु सीरा- ४ (८
ण्यष्टो प्रदापयेत् ।! वस््रकाञ्चनयुक्तानि बलोवदंय॒तानि च ।। १९ ।। अनड्-
` द्यसंयुक्तं त्रद्खलं कर्षणक्षमम् ।। सर्वोपस्करसंयुकतं ददामि प्रीतये हरे
` ॥ १२० ।\ कज्ञाकमूलफलर्वापि चातुर्मास्यं नयेन्नरः ।! समाप्तौ गोप्रदानेन स
` गच्छद्विष्णुमन्दिरम् ।\ २१ ।। पयोव्रती तथाप्नोति ब्रह्मलोकं सनातनम् ।। व्रतान्ते
च तथा दद्याद्गामेकां च पयस्विनीम् ।\ २२ \\ नित्यं रम्भापलाश्ञे चयेभुक्ते `
तु ऋतुद्रये ।\ वस्त्रयुग्मं च कास्यं च शक्त्या दत्त्वा सुखी भवेत् \! २३।। कास्यं
। ब्रह्मा शिवो लक्ष्मीः कांस्यमेव विभावसुः ।\ कास्यं विष्णुमयं यस्मादतः शान्ति `
प्रयच्छ मे ।। २४।। नित्यं पलाशभोजी चेत्तेलाभ्यद्धविर्वाजतः ॥ स निहन्त्य-
तिपापानि तूलराशिमिवानलः ।। २५ ।! ब्रह्यघ्नदच सुरापःच बालघातकरश्च
यः । असत्यवादिनो ये च स्त्रीघातित्रतघातकाः ।।! २६ ।\ अगम्यागामिनश्चैव
४ ` विघवागामिनस्तथा 1! चाण्डालीगामिनर्चैव विप्रस्त्रीगामिनस्तथा ।॥ २७ ॥ `
४ बष्टिपलर्यतम् ।। २८ ।! सवत्सां गां च वेदद्यात्सालडकारां पयस्विनीम् ।। अल-
` कृताय विदुषे सुवस्त्राय सुवेषिणं \। २९ ।\ भूमो विलीप्य यो भुक्त देवं नारायणं
स्मरन् ।। दद्यादृभूमि यथाशक्ति "कृष्यां बहुजलान्विताम् ।। १३० ॥। आरोग्य
#॥ १),
पुत्रसंपन्नो राजा भवति धार्मिकः ।। शत्रोभयं न लभते विष्णुलोकं स गच्छति ।॥ `
॥ ३१ ।) अयाचिते त्वनड्वाहं सहिरण्यं सचन्दनम् ।। षड़सं भोजनं दद्यात्स
(५७४) # व्रतराजं 4
संदा ब्रती |¦ वर्बासु विष्णलम्यच्यं वैष्णवीं जभते गतिम् ।। ४२।। समाप्तौ
कांस्यपात्रं च सुवर्णेन समन्वितम् ॥ तैठेन परितं कृत्वा ब्राह्मणाय निवेदयेत् `
1 ४३1 वाषिकांह्व व मासाजञ्छाकानि परिवजयेत् ।। ब्रतान्ते हरिमुदिद्य `
पात्रं राजतमेव हि ।\४४।। वस्त्रेण वेष्टितं क्षकं ददाकेन प्रपूरितम् ।। समभ्यच्यै
` यथाहाक्त्या ब्राह्मणान्वेदपारगान् ।\ ४५ ।। तेभ्यो दच्ाहुक्षिणया व्रतसंमूतिहेतवे ।। `
शिबसायुज्यमाप्नोति प्रसादाच्छूलपाणिनः ।। ४९ ।! गोधूमवजेनं कृत्वा भोजन- `
व्रतमाचरेत् ।। कार्तिके स्वर्णगोधूमान् वस्व दत्वाऽवमेधक्ृत् ।। ४७ ।। गोधूमाः
सर्वजन्तूनां बल्पुष्टिविवद्ध॑नाः ।\ मुख्या हव्यकव्येषु तस्मान्मे ददतु धियम्
॥४८ ॥। आषादादिचवुर्मासःन्वन्ताकं वर्जयेश्टरः ।। कारवेल्लफलं वापि तथालाबं
` पटोलकम् ।। ४९ । यद्यत्फलं प्रियतरं तच्चापि परिवजयेत् ।। चातुमस्ि ततो
वृत्ते रोप्याण्येतानि कारयेत् ।\ १५० \! मध्ये विद्रुमयुक्तानि ह्यचंयित्वा तु शक्तितः `
॥ दद्याहक्षिणया सादं ज्राह्यणायातिभक्तितः ।) ५१ ।। अभिष्टं देवमुदिक्य `
, . देवो मे प्रीयतामिति ।\ स दीघेमायुरासोग्यं पुत्रपो्रान्सुरूपताम् । ५२ ॥
` अक्षय्यां सन्तति कीति लब्ध्वा स्वगे महीयते \\ श्रावणे वजयेच्छाकं दधि भादर- |
तथा ।\ ५.३ ।। दुग्धमाश्वयुजे मासि कातिक द्विदलं त्यजेत् ।। चत्वायतानि ` |
नित्यानि चातुराश्रमवतिनाम् ।\ ५४ ।। कष्माण्डंराजमाषांर्च मूलकं गञ्जनं
तथा 1! करमदं चेक्षुदण्डं चातुर्मास्ये त्यजश्रेरः ।\ ५५ ।। मसूरं बहुबीजं च वृन्ताकं |
चेव वजेयेत् ।। नित्थान्पेतएनि विप्रेन्द्र त्रतान्याहू्मनीषिणः ।। ५६ ॥। विकशषेषा-
दरदो धात्रीमलाबुं चिल्चि्णीं त्यजेत् \। बाषिका्चतुरो मासान्प्रसुप्ते च जनार्दने `
।। ५७ ।॥। मजञ्वखदट्वादिश्यनं वजये-द्वितभान्चरः ।। अनृतौ वजये्धार्यामितौ `
गच्छन्न दुष्यति ।\५८। सधुवल्टीं च शिग्र च चातुर्मास्ये त्यजेच्वरः ।। व॒न्ताकं `
च कलिद्धु च बिल्वोदुम्बरभिस्सटाः ।! ५९ ।। उदरे यस्य जीयन्ते तस्य दूरतरो
हरिः ।। उपवासं तथा नक्तमेकभवतमयाचितम् ।। १६० ।। अराक्तस्तु यथाकुर्या- ` `
यंप्रातरखण्डितम् ।। स्नानपूजादिकं यस्तु स नरो हरिलोकभाक् । ६१ `
रो विष्णोर्गान्धर्वं लोकमाप्नुयात् ।। सधूत्यागी भवेद्राजा पुरुषो गुड- `
५ व्रतानि. क हिन्दीदीकासहित १
॥ ६६ ।। ताम्बल्वजेनाद्रोगी सद्योमुक्तामयो भवेत् \! पाटाभ्यङ्खयरित्यागच्छि- `
रोऽभ्यद्धस्य पाथिव ।। ६७ ।। दीप्तिमान्दीप्तकरणो यक्द्रव्यपति्भवेत् \। दधि-
दग्धपरित्यागी गोलोकं लभते नरः ।। ६८ ।। इन्द्रलोकसवःप्नोति स्थालोपाक- `
विवजेनात्।। एकान्तरोपवासेन ब्रह्मलोके महीयते । ६९ ।। चतरो वाषिकान्लासा- `
र 4 साच्चरोमाणि धारयेत् ।! कल्पस्थायी भवेद्राजन्स नरो नात्र संचयः ।। १७० व न ८
` नमो नारायणायेति जपित्वानन्तकं फलम् ।! विष्णुपादाऽ्बुजस्यदर्त्कृत्यकृत्यो `
1 भवेच्चरः । ७१।। लक्षप्रदक्षिणाभि्यैः सेवते हरिमव्ययम् ।। हंसयूक्तविमानेन `
स याति देष्णवीं पुरीम् 1! ७२ ।। चरिरात्रभोजनत्यागान्मोदते दिवि देववत् ।॥
परान्नवजनाद्राजन्देवो वे मानुषो भवेत् ।। ७३ ।\ प्राजापत्यं चरे वै चातुर्मा-
स्ये त्रतं नरः ।) मुच्यते पातकैः सवंस्त्रिरविधैनत्रि संशयः ।। ७४ ।\ तप्तकरच्छ ति
कृच्छाभ्यां यः क्षिपेच्छयनं हरेः \। स याति परमं स्थानं पुनरावृत्ति वजितम् ।\७५।
चान्द्रायणेन यो राजन्क्षपेन्मासचतुष्टयम् ।। दिव्यदेहो भवेत्सोऽथ शिवलोकं ` `
च गच्छति ।\ ७६ । चातुर्मास्य नरो यो वे त्यजेदल्नादिभक्षणम् ।। स गच्छढरि- `
। सायुज्यं न भूयस्तु प्रजायते ।। ७७ ।। भिक्षाभोजी नरो यो हि सं भवेहेदपारगः ।
। पयोव्रतेन यो राजन्क्षिपेन्मासचतुष्टयम् ।! ७८।। तस्य वंशसमृच्छेदः कदाचिघ्लो-
पपद्यते ।। पञ्चगव्याशनः पाथं चान्द्रायणफलं लभेत् । ७९ ।। दिनत्रयं जलत्या- `
गाल रोगेरभिभूयते ।\ एवमादत्रतः पाथं तुष्टिसायाति केक्षवः ।\ १८० ।\ `
0 श दुगधान्धिवौचिङ्ञयने भगवाननन्तो यस्मिन्दिने स्वपिति चाथ विबध्यते च।) | 1
तस्मिन्चनन्यमनसामुपवासभाजां पुंसां ददाति च गति गर्डासनोऽसौ ।१८१ ।} र ध
श्री भविष्यपुराणे विष्णोः शयन्येकादञ्ीमाहात्म्यं संपुणेम्
अथ आषाढ शुक्ला एकादश्ीकी कथा--युधिष्ठिरजी
(५५५)
(4 धिष्ठिरजी बोस कि, है केटराव ! आषाढ शुकषलपश्षको ` `
। एकादङीका क्या नाम ओर क्या विधि है ? उस दिन किस देवताको पुजा होती है ! इसका आप वर्णन कीजिये
। 11) कृष्णजी बोले कि, हे रानन् ! ब्रह्माने महात्मा नारदको जिस आ्चर्थकारिणी कथाका उपदेश `
| दिया था वही में आज तुम्हुं कहताहूं ।\२। नारदजौ ब्रह्माजीसे बोले कि, विष्णुभगवानूके आराधनके लिप
आषादशुक्ला एकादक्षीका क्या नाम है ? इसका आप प्रसन्न होकर कथन कीजिये ॥\२। ब्रह्माजी बोले कि, `
लयुगमें प्राणियोका हि ५ करनेवाले है वा लडाई आपको ज्यादाप्यारो
५६
7
(५७६) व्रतराज , `... [एकाद्कन ^
पणं थौ \ उस राजाके कोषमें अन्यायसे उपाजित किथा हुआ द्रव्य नहीं था ।\११।। उसको इसप्रकार राज्य
करते हुए अनेक वषं बौतगये परन्तु कभी पापकमेके ककनेसे ।\१२। उसके राज्यम तीन वषं प्त वृष्टि |
न हुई, इससे उसकी प्रजा भूख प्याससे व्याकुल होगई ॥\१३।। धनधान्यके अभावसे उसकी प्रजा स्वाहा =
स्वधा ओर वषट्कार तथा वेदाध्ययनसे रहित हो रही थी \।१४।। सब प्रजाने राजाके अगे जागर निवेदन
किया ओर कहा कि, महाराज ! आप इस प्रजाहितकारौ वचनको सुनिये \\ १५ ।। विद्रानलोग पुराणोसे
भनारा ्ञब्दका अथं आप अर्थात् जर कहते हे । जल भगवान्का स्थान है; इसल्यि भगवानृक्षा नास नारा- = |
` यणः है \। १६ ॥ सर्वव्यापौ भगवान् विष्णु पजन्य अर्थात् मेघरूप हँ । वही वृष्टि करते हे । वृष्टिसे अन्न तथा `
भन्नसे प्रजा उत्पन्न होती है \। १७ ।\ उसके अभावसे प्रजाका विनान्ञ होता है । इसल्यि हे कुरशरेष्ठ ! एषा `
` यत्न करो जिससे प्रजाका योगक्षेम हो ।। १८ ।\ राजाने कहा कि, आप लोगोने सत्य कहा है \ मिथ्याभाषण `
नहीं किया! अन्न ब्रह्मका स्वरूप है ओर अन्नहीके अस्दर सब कुछ स्थिर होता है \\ १९।। अन्नसे भूत उत्पन्न |
होतेह । अन्नहीसे सब जगत् रहता है । यहं सब बात बडे बडे पुरा्ोमे वर्णन की है ।\ २० ॥ राजाओके दोषसे `
प्रजां पीड़ा होती है पर मे विचार करके भौ अपने किये हुए दोषको नहीं जानता ।१२९।। तो भी प्रजकि |
`हितके बास्ते यत्न करूगा इस प्रकार विचार कर वह कुछ सेना छे ।! २२ ।। ब्राह्मणको नमस्कार कर जंगलमं
५ चला गया ओर मृख्य मुख्य तपस्वी मृनियोके आश्रमम श्रमण करने लगा ।\ २३ )\ उसने ब्रह्यपुत्र अंभगिरस- | ५ ष । -
नामके ऋषिका दोन क्रिया, जो दूसरे ब्रह्माकी भांति तेजसे सब दिशाओंको प्रकारित कर रहे थे 1\ २४॥ `
` उनको देखकर राजा प्रसन्न हो धोडेसे उतर पडा । हाय जोडकर उनके चरणोमं प्रणाम किया ॥। २५ ।।
भुनिजीने स्वस्तिवाचन पूर्वके उसका अभिनरदन करिया ओर राज्यके सप्तांगका कुश्लक्षेम पुछा \1 २६1!
` राजानं अपना कुल बताकर मुनिसे अनामय पा इसके बाद मुनिने राजाके जआगमनका कारण पुखा ।। २७।। ।
मुनिादलजीको अपने आनेका कारण निवेदन किया घमविष्ि
जाका पालन करते हए भी मेरे राज्यमें अनावृष्टिका इुःख है ओर इसका कारण कुछभी भेरी सम्म नहीं
आता \\ २८ ।! महाराज ! इस संश्यको दूर करनेके वास्ते मँ आप के निकट आया हं । आप योगक्षेमके मके ५
विधानसे प्रजाके इस दुःखको शान्ति कीजिये ।\ २९ ।। ऋषिजी घोले कि, हे राजन् ! यह सब युगोसे उत्तम `
कृतयुग है ! इसमें ब्राह्मण प्रधान वणं है । ओर चतुरपाद धमं है ।\ ३० ।। इस युगमें बराह्यणके अतिरिक्त ओर `
` कोई तपस्या नहीं कर सकता पर तुम्हारे राज्यम हे राजन् ! एक शुद्र तप करता है । ३१।। उसके इस अकमेसे
वर्षा नहीं होती । आप उसके वधका यत्न कीजिये जिससे दोष छान्त हौजाय ।\ ३२ ॥। राजाने कहा कि, `
महाराज ! मे उस निरपराध तप करते हृए व्यव्तिको नहीं मारना चाहता किन्तु इस दौषके नाके बस्ति
` कोई धर्मका उचित उपदेडा दीजिये \। ३३ 1 ऋषिजी बोरे करि, राजन् ! यदि एसीही बात है तो आप आषाढ `
` शुक्लामे विख्यात “पव्या' नामकी एकादह्ीका ब्रत कीजिये ।। ३४ \\ उसके त्रतके प्रभावसे आपके राज्यमे
अवश्यही सुवृष्ट होगी । यह् सब उपद्रवोको नाह्ञ करनेवाली तथा सब सिद्धियोको देनेवाली है ।। ३५.॥ हे `
.. ॥ क कंसिक ||
व्रतानि 1: त त | 4 | हिन्दीटीकासहित ध | ( ५७७ )
जी बोले कि, हे श्रीकृष्णजौ महाराज ! इस दिन आपके इस शायन व्रतको ओर चातुर्मास संबन्धौ व्रतको किस `
भ्रकार करना चाहिये ? यह जप कृपाकर वणेन कीजिए ।\३।। श्रीकृष्णजी बोले कि, हे अर्जुन सुनो भै तुमह
गोविन्दहायनन्रतका तथा चातुर्मासमे किए जानेवाले दूसरे त्रतोका भी उपदेश करता हँ ।! ४ ।। आषा
भासके शुक्लपक्नमं जब कि, सूयं ककंरारिपर हो एकादशौके दिन भगवान् जगन्नाथको स्थापित करे \ ५१ `
ओर सूथके तुलाराशिपर चले जानेके बाद विष्णुभगवान्क्े आषाढ शुक्ला एकादक्ीके दिन उपवासं कर ।\६।। `
` चातुर्मास्यके ब्रतोको आरंभ करनेका नियम भी करे । शंख, चक्र, गदाधारी विष्णुकी प्रतिमाको विराजमान `
. करे 1} ७ 11 है युधिष्ठिर ! सुन्दर हवेत पलंगपर पीताम्बर ओर सितवस्त्रधारी भगवानकौ सुन्दर प्रतिमाको ` `
` तकरियोके साथ विराजमान करे ।\ ८ ।\ इतिहास पुराण ओर वेदपारगामी ब्राह्मण दही, दूध, घी, श्रहद ओर `
भिभीके जले स्नान करावे ।। ९ ।। हे पांडव ! बहिया धूप, दीप ओर गन्धसे एवम् उत्तम पुष्पोसे बरवार `
` प्ते त्वयि" इस मन्त्रसे पुजनकरे कि, जगत्के स्वामौ आपके सोनेपर यह् संसार सोयासा होजताहै । यदि `
आप उठजाते हे तो यह् सब चर ओर अचर युत संसार प्रबुद्ध होजाता है।।१०।।११।।दइस प्रकार हे युधिष्ठिर! `
उस प्रतिमाकंा पूजन कर उसके आगे हाथ जोड यह निवेदन करे ॥ १२॥\ कि, है प्रभो ! देवप्रबोधकेचार
महिनोतक मे पवित्र निथमोका ग्रहण करूंगा, इसलिए आप उन्हें निविष्न पुरा कर दीजिए ।१३।) इसप्रकार `
विनीत हो शुद्ध हृदयसे भगवानूकी प्रार्थना करफे मेरा भक्त चाहे स्त्री हो या पुरुष हो धमके वास्ते ब्रत्को
धारण करे ।। १४ 1 दंतधावन करनेके बाद इस नियमोको ग्रहण करे । भगवान् विष्णु ब्रत प्रारंभ करनेके
पांच समय कहे ह ।। १५ ।! एकादशी, दादी पुणिसा ओौर अष्टमी तथा ककंकी संक्रांति इन दिनके अन्दर 1 । ्
` यथाविधि पूजन करके व्रतका प्रारंभ करे ।। १६ ।। यह चार श्रकारक ग्रहण किया हुमा यह चातुमसि ब्रत ` (1
पुरुष पवित्र हो या अपवित्र एक भी ब्रत करे तो बे सब पापोसे भुवत होजाते हं ॥ १९ 1} जो लोग प्रतिवषं `
अक्षय भोग प्राप्त करता है मौर बह विष्णुके
हरिका स्मरण करके इस न्न॑तको करते हे वे अन्तम अत्यन्त तेजस्वौ विमानके हारा ले जामे जाकर ।। २०
विष्णुलोकमें प्रलयपर्यत आनन्द करते हे । उन सब करनेवारोके पृथक् पथक् फलोका श्रवण करो ॥ २१११ `
` जो उत्तमपुरुष देवाल्यमें सदाही जाकर उसकी शुद्धि, सिचाई ओर गोबरसे किपाई कर रंगवल्ली जआद्षि ` |
सुन्दर श्युगार करता है \ २२ ।1 इस प्रकार सावधानीसे जो चौमासे भर ्रतानुष्ठान करता रहताहै,समाप्तिके `
दिन यथा शक्ति ब्राह्मणको भोजन कराता है !। २३ ।! बह सात जन्मके अन्दर सत्यधमंसेवी होता है ।! `
दहसे, दूषसे, घौ, शहद ओर मिश्चौसे 1! २४ ।। विधिपूर्वेक स्नान कराकर भगवान्कौ पूजा करे । इसप्रकार `
"जो मनुष्य चातुर्मास्यके इस व्रतका, हे राजन् ! अनुष्ठान करता है वह दिष्णुभगवान्के सारूप्यको पाकर
अक्षय सुख भोग करता है ।। २५ ।। जो राजा अपनी यथा शक्ति भूमि मौर सुवणेका दान देता है भौर ब्राह्मण ^
कै लिए ओर देवताके निमित्त फलम् लके साथ दक्षिणाभेंट करता है ।\ २६ । वह् स्वगं दुसरे इन्द्रकी भाति- |
। लोकमे निवास करता है इसमे कोई सन्देह नहीं है ।\ २७ \\ |
कात्तिक शुक्ला द्वादक्ीके दिन समाप्त करिया जाता है ।\ १७ ।\ चातुर्मास्ये वरते प्रारभ्भको तिथिमें गुर्शुक्रके
क्षश्चव ओर मोढच्यका तथा तिथियोके घटने बढनेका पहलेही विचार न कर लेना चाहिए 11 १८ पास्त्रीया = |
ध संयुक्त सुवणका कमल अर्पण करे तथा जो गन्ध, पुष्य, मक्षतादिसे भगवान् मर ब्राह्मण ` |
(५७८); . .,. ` -ब्रतराज.... [ एकादशी- `
< ५ (अ 19
प्व न मनमि (५४
उसे जगाकर रखता है \\ ३४ \! समाप्तिमं दीपक ओर वस्त्र ओर सोना दान करता है वह् निश्चयही विष्णु =
लोककोप्राप्त करताहै ओर यहां तेजस्वीहोता है ।। ३५ ।\ जो मनुष्य श्रद्धाभक्तिके साथ विष्णुचरणामृत = `
` . धान करता है उसे विष्णुलोककी प्राप्ति होती है । वो फिर इस संसारमं जन्म नहीं लेता ॥ ३६ \\ जो मनुष्य `
ˆ १०८ गायत्नीका जप न्निकालमें भगवान्के मंदिर मे करता है उसे कभी पाप नहीं लगता ।। ३७ ।। जो मनुष्य _
` नित्य पुराण कथाका श्रवण करताहै ओर जो धमंदास्त्र सुनताहै सुवणेके साथ पुस्तकका दान करता हे ॥। ३८।। ५
वह् मनुष्य, पुण्यवान्, धनवान्, भोगवान्, सच्चा, पवित्र, ज्ञानवान्प्रसिद्ध, बहूतसे चेलोबाला ओर धर्मात्मा `
होता है ।। ३९ +! हिवजौका या विष्णुका नाममात्रके मन्त्रको धारणकर समाप्तिके समय सुवणेकी बनीहुई =
भगवानृकी मूर्तिका दान करता है \! ४० ।। वह॒ मनुष्य पुण्यवान् सच्चा ओर गणी होता है, जो नित्यकर्मको ` `
, करनेके बाद सूयं मगवान्को अघ्यं देता है ।\ ४१।। ओर सूर्यमण्डलस्थित जनार्देन भगवानृका ध्यान करताहै, `
समाप्तिके समय सुवर्णं, रवतवस्त्र तथा गोदान करता है \। ४२ 11 बह सदा आरोग्य, दीर्घायु, कीति, लक्ष्मी `:
` ओर बर प्राप्त करता है, जो मन् ष्य चातुर्मासके अन्दर प्रतिदिन भक्तिसे १०८ या २८ व्याहति सहित गायत्रीके `
मन्त्रसे तिल होम करता है । एवं समाप्तिके समय जो बुद्धिमान् ब्राह्यणके लिये तिख्पातच्र प्रदान करताहै बह `
मनुष्य मन, वचन ओर शरीरके संचित पापोसे शीध्रही मुक्त हो जाता है ।। ४३-४५ ।\ जो मनुष्य बराबर
` चातुर्मास्यके अन्दर अन्नका होम करता है बह कभी रोगपीडित नही होता तथा उसे उत्तम सत्ततिका लभ
होता है ।\ ४६ ।। समाप्तिके समय घृतका कुस्म ओर सुवर्णं वस्त्रसहित प्रदान करे तो उसे आरोग्य, सौभाग्य `
ओर कान्तिका लाभे होता है ।। ४७ ।। उसके शत्रुका नज होता है । सब पा्पोका क्षय होता है जो मनुष्य
` अस्वत्थं वृक्षकौ सेवा करता है ।\ ४८ ।। जो विष्णुभक्त हो ब्रतके अन्तमं वस्त्रदान करे तथा ब्राह्मणको सुवणं ¦
भेट करे तो वहु कभी रोगौ नही होता \\ ४९ ।\ जो सनुष्य विष्णुप्रीति करानेवाली पवित्र तुलसीको समर्पण
रे तो उसके सब पापोका नाक होकर विष्णु लोककी प्राप्ति होती है \\ ५० \1 है पांडव ! विष्णुके हेतु `
ह्यणोको भोजन करावे । जो मनुष्य भगवानके सो जाने पर अमृतोत्पन्ना दूर्वाको (त्वं दूते" इस संत्रसे
;का शषिरमं धारण करता है तथा त्रतकौ समाप्तिपर स्वणं निर्मित दूरवाको ।\ ५१।। \\ ५२ ।। दक्षिणाके
साथ हे सूतव्रत ! यथाशाखा' संत्रसे दे ( त्वंदूदे यह् ओर यथाशाखा यह २९९ पृष्ठम गये ) उसका कु
भी जशुभ नहीं होता एवं सब पपोसे छूट जाता है । ५३ ।) ५४ ।\ वह सब्र भोगोको भोगकर स्वगंलोकमे
प्रतिष्ठित होता है । जो मनृष्य भगवानूके ओर शिवके गुणगानको ।। ५५ ॥। प्रतिदिन उनके निकट करताहै
बह जागरणके फलका भागी होता है, चातुर्मास्यके त्रतीको चाहिये कि, भगवान्के लियि एक उत्तम घण्टा `
चढावें ।\! ५६ ।। कि, है जगत्की अधौहवरि { है सरस्वती ! हे मूर्व॑ताको मिटानेवालो ! हे साक्षात् ब्रह्मकी
कलत्ररूपे ! आपकी स्तुतियां विष्णु ओर रद्र करते रहते हँ ।! ५७ ।\ है सु्दर मुखवाली ! गुरुकी अवज्ञसे “
तथा अनाध्यायोके अध्यनसे एवम् मेरे अवैध अध्ययनसे जो जाड उत्पन्न हो उसे दूर करिये ॥ ५८ ॥ हि
लोको पवित्र करनेवाली ब्रह्माणी ! तु घण्टाके दानसे प्रसन्न होती है ! जो मन्य हररोज ब्राह्मणोके चरणोका
चरणामुत लेता है ।\५९।१चातुरमस्यमे ब्राह्मणको मेरा स्वरूय मानकर वो मन, वाणी ओर शरीरके किये हुए `
पापोसे मुक्त होजाता है । ६० ।। जो मनुष्य समाप्तिपर एक जोडा गौ अथवा एकही दष देनेनाली गौको दान
करे, तो वहं कभी व्याधिपीडित नही होता तथा उसकी लक्ष्म मौर आयुकौ वृद्धि होती है ।। ६१1 हे राजे ! `
यदि इसको देनेमे भी मसमथं हौ तो उसको एक जोडा वस्ब्रही देना चाहिये । जो मनुष्य सर्वं देवतारूस्वय
विद्वान् ब्राह्मणको प्रणाम करता ह \1 ६२ ।। बह सफल होकर निष्पाप होजाता है । तथा जो समाप्तिपर
रतानि 1 | हिन्दीटीकासहित त
अरुण रंगकौसी चमकनी सूतिको ब्राह्मणको अर्पण करे \। ६८ ।\ जो दो ऋतुञओके अन्दर शिवजीकी प्रस्तके
| (५७९) `
चयि रोज चांदीका या ताश्नका दान करे ।। ६९ ।1 तो वह् शिवजीके भवत एवं बडे सुन्दर पूत्रोको पावेगा जर
समाप्तिपर सत्तम चांदीका पात्र शहदसे भरकर दे ।\ ७० \। तथा तारका पात्र देना हो तो गृडसे भरकर दे \ |
एवं भगवानुके सो जानेपर अपनी शक्तिके अनृ सार एक जोडा वस्त्र ओर तिलके साथ सुवर्णका दान दे तो वह्
सब पापोसे मुक्त होकर इस जन्ममं उत्तम भोग भोगकर अन्तमें रिवजीके धाममें पहुचे ।। ७१।।७२॥ `
वविष्णुमं प्रीयताभिति' मृद्चपर विष्णुभगवान् प्रसन्न हौ, इस मंत्रसे गन्ध पुष्पादिसे चचितकर ब्राह्मणको वस्त्र- `
दान चातुर्मास्यं करे \\! ७३ ।\ ओर समाप्तिपर रय्या, वस्त्र तथा सुवणं करे तो अक्षय सुख तथा कुबेरके
समान धन प्राप्तं करता है ।! ७४ \\ वर्षऋतुमं नित्य जो मनुष्य गोपीचन्दन देता है, भगवान् उसपर प्रसन्न
उससेभी आधा तुलादान करे । दक्षिणासहित वस्त्र दे \! ७६ ।। जो ब्रती पुरुष भगवान्के शयनकालमे दक्षिणा- `
सहित सव्कर ओर गुड दान करे । ७७ 1 तथा समाप्त होनेपर उद्यापन करे प्रत्येक ब्राह्मणको तास्रका माठ
आठ पलका एक एक पात्र दे \\ ७८ ।। अथवा कृपणता न कर पाव पाव भरकाही दे जो संख्याम ४८ हो तथा ` 1
श्क्करसे पुणं हों 11 ७९ ।। प्रत्येक पात्रके साथ दक्षिणा ओर वस्त्र हों जौर उनके साथ श्रद्धासे दियाहुभ अन्न
भी हो, यह सब श्रद्धापूवक ब्राह्मणको देना चाहिये \\ ८० ।\ इसी प्रकार तास्रका पात्रभौ वस्त्र, शक्कर `
तथा सुवणके साथ दे तौ वह् सूर्ये प्रीति करानेवाला रोग नाश्चक ओर पापप्रणाक्ञक होता है ।। ८१ ।) यहे सदा
पुष्टिकीति, सन्तान एवं समस्त इच्छाओंकौ पुति, स्वगं ओर आयुको अच्छा बढानेवाला है 1! ८२ ।। इसल्यि
इसके प्रदान करनेसे मेरी सदा कीति हो, यह् उच्चारणकर जो व्रतको करता है उसका पुण्यफल सुनो ॥ ८३11 `
। चह मनुष्य गन्धव विद्यायुक्तं एवं कामिनौ भ्रिय होता है । राजा राज्यको जौर सन्तानार्थी सन्तानको पाताहै `
। : ॥८४।। धनार्थो घनको जौर निष्काम मोक्षको पाता है । जो चार मासतक शाक, मूल, फल आदि दायाशक्ति =
नित्य ब्ाह्यणोको देता रहे तथा व्रतके अन्तमं यथा्चक्ति दक्षिणाके साथ दो वस्त्र देता है वह चिर, कालपु `
राजयोगी होता है । सब देवोके प्यारे एवं सभी मनुष्योको तृप्ति करनेवाले क्षाकको देता हूं इससे देवादिक `
सदा मंगल करे ! जो देव शयनकी दोनो ऋतुजोमें रोज ।। ८५-८७ ।। किसी सुशील ब्राह्मणके सिये सूरयको १.
प्रीतिके निमित्त कटत्रयमिदं' यानौ ये तीनों कटसब प्राणियोके रोगोको नष्ट करते हं इस कारण इसके दानसे ( । ५ ॥
। स्येदेव प्रसन्न होजाय, इस मन्त्रसे सोठ, मरिच, पीपल इन तीनों चौजोको दक्षिणा जौर वस्त्रके साथदेताहैः
( ५ एवं इसप्रकार व्रतकौ समाप्तिमें उद्यापन करता है ओर उसमे सुवर्णंकी सोठ, मरिच, पौपल बनवाकर दक्षिणा ५
वस्त्रके साथ किसी
इच्छामोसे पूणं हो अंतमं स्वगे प्राप्त करता है ।\ ९३ ।। जो
हे राजन् ! अन्नवान् कौतिमान् भौर श्रीमान् होता
गो नित्य ब्राह्यणके लिये सच्चे मोतौका दान करताहै `
होता है ।। ९४।। जो जितेन्द्रिय स्वयं तांबूल छोडकर दूसरों `
॥ ५ को तांबल दान करता है ओर समाप्तिपर दक्षिणासहित लालवस्त्रका दान करता है ।। ९५ । तो वहबडा
| न्दर एवं सर्व॑रोगरहित, बुद्धिमान, पण्डित ओर सुकण्ठ होता ह \! ९६ ।) गन्धवेषनेको पाकर अन्तमं स्वगं |
1 तवती कवासिं शिवजीका रूप है ।। ९७ ॥। इसकेदेनेसे |
1) ५१९. त 4 .[ खादशी-
| रक्षापुवेक प्राप्त होता है सब सुखोको भोगकर अन्तमं िवपुरमें चल जाता है \ जो मनुष्य चौमासेमे निराल्स `
होकर फलदान करे ।। १०५।६\ १०६ ।\ तथा समाप्तिके समय ब्राह्य्णोको चांदीका दानकर बह सब मनो-
रथोको तथा उत्तम न भिटनेवाली सन्ततिको पाकर ।। १०७ ।\ उस फलदानके माहात्म्यसे नंदनवनमें आनंद `
करता है । यदि किसीने पुष्पदान व्रतं किया हो तो उसे सुवणंपुष्पका दान करना चाहिये ।\ ८ \। वहस
* सौभाग्य पाकर गंधव पदको प्राप्त करता है । भगवानूके शयन करनेषर चातुर्मास्यमें निराल्स होकर! ९।॥ =
नित्य बामन भगवानूके उदेश्यसे ब्राह्मणको दही, अन्न तथा स्वादिष्ट षडरस भोजन करवे अथवा उनकोदे `
तथा एकादज्लीके दिन भोजन न करे ।। १० ।। एसे भोजनका दान करे तथा ग्रहण आदिमेभी दान करे अपनी `
, रजके दान करनेकी सामथ्यं न हो तो शक्तिके अनुसार पांच पर्वोमिं ।। ११ ।। यानौ भूताष्टमी, अमावस्या, =
` पणिमा, रविववार ओर शुक्रवार इनमें भोजनका दानकरे ।\ १२ ।। ओर इस प्रकार करके समाप्तम यथा- = `
शक्ति भूमिका दान करे तथा भूमिदानकौ अ्चव्तिमें सिगरी हुई मौका दान करे 1} १३ ।। ओर उसकीभी
असामथ्यमे वस्त्र था सुवणेसहित पादुकाका दान करे तो अक्षय अन्न ओर पुत्र पौत्र आदि संपत्तिकी प्राप्ति
होती है ।। १४।। उसे स्थिर भवितता लाभ होकर वैकुष्ठकौ प्राप्ति होती है ! जो मनष्य नित्यौ दूध देनेवाली
अलंकृत सुन्दर गौका दान करे ।\ १६ ।! बडे तथा दक्षिणके साय तो बह सर्वज्ञानी होता है । वह क्रिसी `
इसरेका पराधीन न होकर ब्रह्मलोकमे चला जाता है ।। १६।। वह अपने पितरोसहित अक्षय सुखको पाताहै।
जो मनुष्य वषमे चौमासेके अन्दर प्राजापत्य ब्रतको करता है ।। १७ ।! तथा समाप्तिपर एक जोडा गौका
इन करके ब्राह्मणको भोजन कराता है वह सब पापोसे रहित होकर सनातन ब्रह्मकी प्राप्ति करता है ।\ १८ `
` एकांतरका उपवास करनेपर आठ हल, सुवणं वस्त्र सहित वेर्छोसे दान करे ।। १९ ।। जौर मनमें भावना करे
कि, चलाने योग्य हृलको ओर सब सामग्रौ सहित दो वेलोको भगवान्की ्रीतिके लिये दान करता हं ।। २० ॥ |
मनुष्य शाक, म् फलसे चातुर्मास्यका व्रत करे ओर समाप्तिपर गोदान करे तो बह वेकुण्ठमे चला जाता `
२१ \। केवल दूधमात्रसे ब्रत करनेवाला मनुष्य भौ सनातन ब्रह्मलोकको जाता है । तथा ब्रतातमें जो
ष्यं दध देनेवाली गौको देता है ।\२२।। रोज दोनों ऋतुओमिं केला ओर पला के पत्रमे भोजन करता है `
तथा वस्त्र ओौर कांसौके पात्रोका दान करता है बह सुखौ होता है ।। २३ ।\ ओर दान देती वार भावनाकरे
` कि, कांसी ब्रह्मा, कांसीश्िव है, कासी ही लक्ष्मी ओर सूर्यं है जर कांसीही विष्णु है, इसल््यि वह मुक्ने शान्ति = `
` दें ॥॥२४।। जो मनुष्य नित्य ही तैलाभ्यंगको छोडकर पालाश पत्रमे भोजन करे वहु रूईको अग्निकी भति `
अपने पापोको नष्ट करता है \। २५ ॥। ब्रह्महत्या करनेवाला, शराबी, बालहत्या करनेवाला, असत्यवादी, `
स्त्रीघाती,व्रतघाती \। २६ ।। अगम्यागामी, विधवागामी, चांडालीगामी जौर ब्राह्मणस्त्रीगामौ आदि ।\ २७॥। `
॥ २८ ॥ महापापी मनुष्य भी इस ब्रतके प्रभावसे पापरहित हते हैः समाप्तिपर चौसठ पलका कास्ययात्र
` सवत्सा श्युगार कौ हुई दघ देनेवाली गौ जो कोई विद्वान् ब्राह्मण को दे } २९।। एवं जो मनुष्य नारायणका `
स्मरण करके पुथ्वौको लीपकर भोजन करे भौर यथाराव्ति बहुजला उर्वरा भूमिका दान करे ।! १३० ।। बह `
ारोग्यवान, पुत्रवान् जौर धर्मात्मा राजा होता है \ उसे शत्रुओंका भय नहीं होता तथा वैकुण्ठमे जाता है
. ॥ ३१.॥ जो मनूष्य, सुवर्णं, चन्दन, षड़सभोजनसहित बेलक्रा अयाचित दान करता है वह् वेकुण्ठमें चला `
जात ६ २।। जो भगवान् के शयन करने पर रातमं व्रत करता है ओर अन्मे ब्राह्मणोको भोजन कराता `
परवल, इनका त्याग करे ।। ४९ 11 तथा ओर अप्रिय फलोको छोड दे ओर चातुमास्यका व्रत करे एवं उसके `
वषमे चार महीने तक त्याग करे ।! ५७ }! भक्तिवान् मनुष्य खाट या पलंग आदिपर सोना छोड दे, ऋतुके `
सिवा स्त्रौकात्याग करे, ऋतु गमन करनेपर उसे कोई दोष नहीं लगता ।\ ५८ ।। मधुवल्ली ओर सहजनका `
चौमासमे त्याग करे । जिसके पेटम बेगन, तरबूज, बील, ग् खर, भिस्सटा जीणं होते हं उससे हरि भगवान् इर `
करे बह हरिलोकमे चला जाता है ।। ६१ ।\ विष्णुके गौतवाद्यमे तत्पर रहकर गन्धव
न्ना
जाता है ।। १४० ।\ जो अच्छे जौ या चावलेका भोजन करे वह् पुत्र पौत्र आदिके साथ शिवलोकरे प्रतिष्ठितं `
होता है.\। ४१॥। तैलाभ्यंगको छोड जो विष्णुभक्तं सदा ब्रत करके वषम विष्णु भगवानकी पूजा करे तो वहं
वैष्णवी गतिको प्राप्त करता है ।\ ४२1 समाप्ति पर सुवणं सहित कास्यपात्रको तेलसे भरकर ब्राह्मणको
दान करे । ४३ ।। तथा वषमे चार मासतक शाकका त्याग करे । ओर त्रतांतमे हरिभगवान्के निमित्त दश॒
` क्षाकसहित एक चांदीका पात्र वस्तरसे ठककर वेदपारग ब्राह्मणोका यथाकति पुजन कर व्रत सम्पूणं होनेके
लिये दक्िणास्हित उनको दान करे तो वह् शंकरकी कृयासे शिवसायुज्यको प्राप्त करताहै 1! ४६ (जोगेहको
छोड भोजन करे ओर कातिकी परणमापर सुबणेके गेहूं बनाकर वस्त्रके साथ दान करे तो उसे अश्वमेधयन्नका `
फल मिलता है ।! ४७ ।। सब प्राणियोको गेहं बल, पुष्ट प्रदान् करता है ओर हव्यकव्यमें मुख्य है इसल्यिवे `
मुञ्चे लक्ष्मी प्रदान करं यह दान करनेका मन्त्र है \। ४८ ।! आषाढे आदि चार महीनेतक बेगन, करेला, तूमा, `
समाप्त होनेपर उन छोडी हई वस्तुको चांदीकी बनावे ।। १५० ।। बीचमें मृगा रखे ओर ब्राह्यणोको यथाशषविति `
` भक्तिपूवेक पुजकर दक्लिणासहित दानं करे ।! ५१ ।। तथा देतीवार अपने इष्टदेवका स्मरण कर देवोमे प्रीय- `
ताम् मेरा इष्टदेव मुञ्चपर प्रसन्न हो" का उच्चारण करे तो वहं दीर्घायु, आरोग्य, पुत्रपौत्र सौन्दथं ।। ५२ `
अक्षय कौत्ति ओर सन्तानको पाकर स्वगमे प्रतिष्ठित होता है ॥। भ्रावणमें शाक मौर भादोमे दही । ५३।॥
आदरिवनमें दूय, ओर कातिकमें दाल इन चारों चीजोको नित्यही चारो आश्रमवालोको छोडदेना चाहिये ! `
तथा चातुर्मासमें कूष्मांड, उडद, मूली, गाजर, करौदा, ईख मसर, बेगन इन सब चौजोको हे राजे ! नित्यही `
छोड देनी चाहिये ।1 ५४-५६ ।। विश्षेषकर भगवान्के चार मासके शयन कालम बेर, तुरई, ओर इमखीकौ `
कि १
` रहते हैँ । उपवासं रात्रि उपवास एकबार भोजन अथवा अयाचित भोजन ये करे ।। ५९ ।! १६० ॥ यदि <
क्षव्तिन हो तो इनमेसे किसी एकको यथावति करे ! तथा प्रातःकाल वा सायंकाल स्नान करके रोज पूजन `
` श्हुदको त्यागकर राजा होता है ओर गुडको त्यागकर पुत्रपौत्रादिवधिनौ दीर्घायु सन्तानको पाताहै ।\६२॥
हि-राजन् ! तेलका त्याग करनेसे सुंदर होता है ।\ ६३ ।। कौसुभतेलका त्याग करनेसे शतनाम होताहै ।! =
मधूकतेलकेत्याग से सौभाग्यफलका लाभ होता है ।। ६४ ।। कडवी, तिक्त, खटा, मीठा, कषाय भौर नमकौन = `
रसोको छोडकर कभी बदसुरती ओर दर्गन्धिको नहीं पराप्त करता ।। ६५ ।। पुष्प आदिके मोगत्यागसे स्वरम
विद्याधर होता है । योगाम्यासी ब्रह्मपदवीको पाता है ।\ ६६ \। ताबलका त्यागकरने पर रोगी रोगसे 1 ध ५,
८ ५. कं भ्रात करता है \। ६७-६९।। जो च न क
न कार्यां वे नैमिषे न च पुष्करे ।\ ९1 तत्फलं समवाप्नोति यत्फलं विष्णुपूजनात्।। ¦
प्रुजनात् ।। गोदावर्या गुरौ सिहं व्यतीपाते च गण्डके ।। ११।। न तत्फलमवाप्नोि
(५८२) `... ~ ब्रतराज [ एकादज्ञी
र्ता
थ
न ४ ॥
चम रहता है बह वेद पारग होता है एवं जो केवल दरुधमाजसे इन चारो महीनोको निर्वाह करे \\ ७८ ।\ ८ |
उसके वंश्का कभी नाही नहीं होता । है अर्जुन ! पञ्चगव्यका सेवन करनेसे चाद्रायणका फल मिर्ताहै `
1७९1) तीन दिन जलका त्याग करनेसे कभी रोगी नहीं होता \ हे अर्जुन ! इस प्रकारके व्रतोसे भगवान् `
कैव परम प्रसन्न होते हे \। १८० ॥॥ दुग्ध समुद्रके अन्दर शयन करनेवाे अनन्त भगवान् जिस दिन सोते ओर `
उठते हें उस दिन अनन्य भकतिपूवेक उपवासं करनेवाले मनुष्योको गरुडासन भगवान् शुभगति प्रदानं करते
है ।। ८१1) यह श्री भविष्यपुराणकी कही हई विष्णुश्षयनी एकादश्ीके माहात्म्यकौ कथा पुरी हुई \\
८ अथ श्रावण्कृष्णेकादसीकथा 1
युधिष्ठिर उवाच ।\ आषाढशुक्लपक्षे तु यदेवशयनत्रतम् \} तन्मया श्रुतपूर्वं `
हि पुराणे बहुविस्तरम् । १ ।। श्रावणे कृष्णपक्ष तु किनामेकाद्ली भवेत् ।॥ `
एतत्कथय गोविन्द वासुदेव नमोऽस्तु ते ।! २ \ श्रीकृष्ण उवाच ।\ श्यणु राजन्
प्रवक्ष्यामि व्रतं पापप्रणाह्ञनम् \} नारदाय पुरा राजन् पृच्छते च पितामहः \\३।॥
यदुक्तवांस्तात तदहं ते वदामि च ।\ नारद उवाच ।\ भगवञ्छोतुमिच्छामि
देवः को विधिस्तस्याः ¶कि पुण्यं कथय प्रभो \\ ५।। इति तस्य वचः शरुत्वा ब्रह्या
वचनमब्रवीत् ।। ब्रह्मोवाच ।। णु नारद ते वच्मि लोकानां हितकाम्यया \ ६ ।।
| 0 श्रावणेकादशौ कृष्णा कामिकति व्च नाप्त । चस्याः शबणयाज्ण बजपथषपल ४
लभेत् ।\ ७।। तस्यां यः परजयेदेवं शङ्कचक्रगदाधरम् ।। ध्रोधराख्यं हरि विष्णुं |
माधवं मधुसूदनम् ।\! ८ \\ यजते ध्यायतेऽथो वे तस्य पुण्यफल श्युणु ।\ न गद्खायां
| केदारे च कुरुक्षेत्रे राहुग्रस्ते दिवाकरे ।। १०! न तत्फलमवाप्नोति यत्फलं कृष्ण- `
यत्फलं कृष्णयूजनात् ।। ससागरवनोपेतां यो ददाति वसुन्धराम् ।! १२ ॥ कामिका-
ब्रतकारी च ह्यभो समफलौ स्मृतो ।\ प्रसूयमानां यो धेनुं दद्यात्सोपस्करां नरः
11 १३ 1) तत्फलं समवाप्नोति कामिकात्रतकारकः ।। श्रावणे श्रीधरं देवं पूज `
< -दतानि 1. हिन्दीटीकासहित (५८३ }
। स
गताः \\ तस्मात्सवेप्रयत्नेन कर्तव्या नियतात्मभिः ।! २१ ।। तुलसीग्रभवैः पत्ररथ ` ४
नरः पुजयेद्धरिम् ।\ न व स लिप्यते पापेः पद्यपत्रमिवाम्भसा ।। २२।। सुवणेभार- `
मेक तु रजतं च "चतुगुणम् ।। तत्फलं समवाप्नोति तुलसीदलपजनात् ।! २२३ ।\
द रत्नमोक्तिकवेहुयेप्रवालादिभिर चितः ।। न तुष्यति तथा विष्णुस्तुलसीपजनाद्यथा
म् तुलसीमञ्जरीभिस्तु पूजितो यन करव: ।। जआजन्सक्रतपापस्य तन
संमाजिता ल्पिः ।। २५ ।। या दृष्टा निखिलाघसंघशमनी स्पृष्टा वपुः पावनी `
रोगाणामभिवन्दिता निरसिनी सिक्तान्तकचासिनी ।। प्रत्यासत्तिविधायिनी भग-
बतः कृष्णस्य संरोपिता न्यस्ता तच्चरणं विमुक्तिफलदा तस्ये तुलस्यै नमः ।
॥२६।। दीपं ददाति यो मर्त्यो दिवारात्रौ हररोदनं ।। तस्य पुण्यस्य संख्यानं चित्र- `
गप्तोऽपि वेत्ति न \। २७ ।} कृष्णाग्रे दीपको यस्य ज्वल्देकादज्लीदिने ॥ पितर-
स्तस्य तृप्यन्ति अमृतेन दिवि स्थिताः ।\ २८ 1! धृतेन दीपं प्रज्वाल्य तिलतेखेन `
वाः पुनः ।\ प्रयाति सूयेलोकेऽसौ दीपकोटिङतैवृतः ।! २९ \\ अयं तवाग्रे कथितः `
कामिकामहिमा मया ।। अतो नरः प्रकत॑व्या सवेपातकहारिणी ।\ ३० ॥\ ब्ह्य- |
हत्यापहरणो म्र.णहत्याविनाश्िनी ।\ त्रिदिवस्थानदात्री च महापुण्यफलप्रदा `
॥ ३१ ।) श्रुत्वा माहात्म्यमेतस्या नरः श्रद्धासमन्वितः ।। विष्णुलोकमवाप्नोति `
सवेषापेः प्रमुच्यते ।। २२ ।। इति श्रीब्रह्यवेवतेपुराणे श्रावणङृष्णेकाददयाः कामि- `
काया माहात्म्यं समाप्तम् ।। ध 4
| श्रावणङ्कष्ण एकादशीकी कथा-युधिष्ठिरजी बोले कि, महाराज ! आषादशषुक्ला एकादकीके पुराणोक्त `
श्चयनब्रतका वणेन मेने विस्तारके साथ सुनं लिया ।\ १ ।। अब श्रावणके कृष्णपक्षमें किस नामक एकाद्ली
हौतीहै? हे गोविन्द ! इसको आय वणेन कौजिषएु ! आपको नमस्कार है ।। २1\ श्रीकृष्णजी महाराज बोरे |
कि हे राजन् ! सुनो में तुम्हं पापनाशकं ब्रतका वर्णन करता हूं, जिसको पहले ब्रह्माजीने पुखते हृषए नारद |
ऋषिको उपदेडा दिया था \1 ३ \। नारदजौ बोले कि, हे भगवन् कमलासन ! मे आपसे सुना चाहता हुं ।\४॥ |
` .. है प्रभो! श्रावणके कृष्णपक्षे किस नामको एकादशी होती है उसको विधि ओर परण्यफल क्याहोताहै ! षह |
` कथन कीजिए 1 ५।) उसके यह वचन सुनकर ब्रह्माजीने कहा कि, है नारद ! लोकहितकी बुद्धिसेमेतवुम्हं |
५ कहता हूं ।\ ६ । कि, भावणको म कृष्णएकादशीका नामं क्रामिका' है, जिसके सुननेसेही वाजपेयक्तका फल 1
करे \\ १४ । तो उससे सब देवता, गंधे, नाग ओर किन्नर पुजित हो जाते हें । इस लिये सब तरहसे इस दिन ` |
हरि भगवान्को \! १५ ।। पापसे उरनेवाे पुपुरषोको यथाशक्ति पजना चाहिये ! संसार समुद्रमे पापर्पी `
` कीचके अन्दर फसनेवाले मनृष्योका ।\ १६ ।। उद्धार करनेमें इससे अधिक उत्तम पापहारिणौ जौर कोई
५ दूसरी पवित्र एकादशी नहीं है ।। १७ ।। इस प्रकार स्वयं भगवान् हरिने है नारद ! इसका वणेन पहले किया (५
था, विलेषकर अध्यात्मविच्यामें रत रहनेवारे पंडितोको जो फल मिलता है 1\ १८ ।। इस कामिकके ब्रते `
-उससेभी बहुत अधिक फल मिलजाता है \। कामिकाके ब्रतको करनेवाला मनुष्य रातमे जागरण करे \ १९॥॥
बह कभी भयंकर यमराजको वा दुरगतिको नहीं देवता \ ओर न कभी कुयोनिको.पाताहै ।\ २०\\ इस कामि-
काके व्रतसेही योगी लेग कंवट्य पा चके हे \ इस च्थिे इसको बड प्रयत्नसे करना चाहिये ।\! २१ ।\ निसप्रकार `
` कमलके पत्ते पानसे लिप्त नहीं होते उसी श्रकार बह मनुष्य भी जो तुलसीदलसे भगवान्की पूजा करे कभी ` 1
॥ पापो लिप्त नहीं होता ॥। २२ ।। एक भार सोना ओर चार भार चांदीके देनेसे जो फल होता है वही फल ` |
` भेगवान्पर तुरुसीदल चढानेसे होता है ।। २३ \\ रत्नोसे मोती, वेद्यं ओर प्रवाल आदिसे प्रजे जानेपर `:
` भगवान् उतने प्रसन्न नहीं होते जितने कि, तुलसीके दलके पजनेसे होते हँ \\ २४१ निसने भगवान्की तुलसी, `
इले पुजा की उसने अपने जन्मकी पाप लिपिका संमार्जन कर किया ।। २५1) जिसके दर्नसे पाप नष्टो, `
` स्यशं करनेसे कषरीरको पवित्र करे, नमस्कार करनेसे रोगोका नाज करे, सीचनेपर यमराजको भगावे, लगानेपर `
भगवानृके निकट सम्बन्ध स्थापित करे ओर भगवानके चरणोमे रखनेपर मोक्षफलको दे; उस तुल्सीको
नमस्कार है ॥। २६।१ जो दिनरात भगवानूके समीप दीपक घरे उसके पुण्यकौ संख्या तो चित्रगुप्तभौ नही `
५ जानता 11 २७ ।। भगवानूके आगे जिसका दीपकं एकादशीके दिन जलता हो तो उसके दिवम रहनेवाले पितर ` ॥
` लोग अमृतसे तृप्त होते हं 1 २८ \। घीसे वा तेलसे दीयक जलाकर जो दान करे बह सधं लोकम कोटिकोटि |
दौपकोके साथ जाता है 1! २९1} यह् महिमा मेने तुम्हारे सामने कामिकाके व्रतकौ वर्णन की है । इस ल्यि
इसको पापोका नाज्ञ करनेके वास्ते सब मनुष्योको करनी चाहिये \ ३० 1! यहं ब्रह्महत्या हरनेवाखी, चूण
हत्याको नाह्च करनेवालो, स्वगेमे स्थान देनेवालो जौर महापुण्य फलको देनेवाल है ।\ ३१1) शरद्धासहितं ` |
मनुष्य इसके माहात्म्यको सुन करके विष्णुलोके चलाजाता है एवम् सब पापोसे भौ छूटजाता है ।\३२।॥ `
यह श्रब्रह्मवैवतंपुराणकौ कही हई श्नावणशुक्लाकी कामिका एकाददीको कथा पुरी हुई । 11
ध 1 अथश्रावणञ्गुरुकादज्नीकथा “~
युधिष्ठिर उवाच ।। श्रावणस्य सिते पक्षे किनामकादशी भवेत् ।। कथयस्व
प्रसादेन ममाग्रे मधुसुदन ।। १ । श्ीकृष्ण उवाच ।। श्प्णुष्वावहितो राजन् कथां |
` पापहरां पराम् ।! यस्याः श्रवणमात्रेण वाजपेयफलं लभेत् ।। २ ॥! द्वापरस्य
व्रतानि] त १ इहन्दीरीकासहित (५८)
ह धमेयुक्ते दिजोत्तमाः ।। कस्मान्मम गृहे पुत्रो न जातस्तद्विचार्यताम् ।\ १० ।। इति
वाक्यं दिजाः श्रुत्वा समजाः सपुरोहिताः ।! मन्त्रयित्वा नपहितं जग्सुस्ते
गहनं वनम् ।। ११ ।! इतस्ततश्च पश्यन्तश्चाश्रमानृषिसेवितान् ।! नुपर्तहितमि- `
च्छन्तो ददृशुमुनिसत्तमम् ।\ १२ ।\ तप्य मानं तपो घोरं चिदानन्दं निरामयम् ॥।
निराहारं जितात्मानं नितक्रोधं सनातनम् ।\ १२३ \। रोमञ्चं घममतत्त्वज्ञ सवे-
कश्ास्वरविक्ञारदम् । दीघ्थुषं महात्मानमनेकन्रह्यसंमितम् ।। १४।। कल्पे गते `
` यस्येकस्मिन्चेकं जोम विक्षीयंते । अतो लोमश्नामानं च्रिकालन्नं महामुनिम् ॥।
॥ १५ ।। तं दृष्ट्वा हषिताः सवे आजग्मुस्तस्य सन्निधिम् ।। यथान्यायं यथाहं ते
नमहचक्रूर्यथोदितम् ।। १६ ।! विनयावनता सवे ऊनचुश्चेैव परस्परम् ।। अस्म- `
। इाग्यवन्ञादेव प्राप्तोऽयं मुनिसत्तमः ।। १७ । तास्तथा प्रणतानदुष्ट्वा ह्य.बाच `
भ॒निसत्तमः ।। लोमश उवाच ।\ किमथेमिह संप्राप्ताः कथयध्वं च कारणम्
॥ १८ ॥। मह्ञंनाह्वादगिरा भवन्तः स्तुवते किमु ।। असंशयं करिष्यामि भवतां
यद्धितं भवेत् ।\ १९ । परोपकृतये जन्म मादृशानां न संशयः । जना जचुः ।॥ `
श्रयतामभिधास्यामो वयमागमसकारणम् । २० ।। संरायच्छदनार्थायथ तव सल्ि-
| धिमागताः \। पद्मयोनेः परतरस्त्वत्तः श्रेष्ठो न विद्यते \ २१।। अतः कार्यवज्ञा-
त््राप्ताः समीपं भवतो वयम् ।! महीजिन्नाम राजासौ पत्रहीनोऽस्ति साप्रतम् ` 9 ॥
॥\ २२।। वयं तस्य प्रजा ब्रह्मन् पुत्रवत्तेन पालिताः ।। तं पुत्ररहितं दृष्ट्वा तस्य॒ `
दुःखेन दुःखिताः ॥। २३ ।। तपः कतुमिहायाता माति कृत्वा तु नैष्ठिकीम् ।\ तस्य॒ `
भाग्यवह्ादृष्टस्त्वमस्माभिदिजोत्तम ।॥ २४ ।। महतां दश्नेनव कायसिदधिभेवे- `
ब्णाम् ।। उपदेशं वद मुने राज्ञः पुत्रो यथा भवेत् ।\ २५ ।\ इति तेषां वच ५ 4
। शरुत्वा मुहूर्त ध्यानमास्थितः ।। प्रत्युवाच मुनिर्ञत्वा तस्य जन्म पुरातनम् ॥ २६ `
1 रोमश उवाच ।) पुवेजन्मनि वेहयोऽयं धनहीनो नृशसकृत् ।! वाणिः यकमनिर [रतो
ग्रामाद् ग्रामान्तरं भमन् ।। २७ ।। ज्येष्ठे मासि सिते पक्ष दवादशीदिवसे 1
मध्याह्धे द्युमणौ प्राप्ते ग्रामसीम्नति तुषाकुलः ।। २८ ।। रम्यं जलाशयं दृष्ट्वा `
जलपाने मनो दधौ ।! श सवत्सा च धेनुस्तत्र समागता ।। २९ ५. । तृषातुरा
(१८; "र, 3 ्रतराजःः- "` [- एकादशो
प्रजग्मुः स्वगृहान् सवे हरषेत्छुल्लविलोचनाः ।। श्रावणं तु.समासाच स्मृत्वा लोम-
भाषितम् ।\! ३६ ॥ राज्ञा सह व्रतं चक्रुः सवे श्रद्धासमन्विताः ।। दादीदिवसे `
` पुण्यं ददुन. पतये जनाः ।। ३७ ॥ दत्तं पुष्ये तु सा राज्ञी गभेमाधत्त शोभनम् ॥
` प्राप्ते प्रसवकाले सा सुषुवे पुत्रमूजितम् ॥। ३८ ।। एवमेषा नुपशचेष्ठ पुत्रदानाम
विश्रुता ।। कर्तव्या सुखभिच्छड्रिह लोके परत्र च \! ३९ ॥। भुत्वा माहात््य- `
मेतस्याः सरदेषापैः प्रमुच्यते \। इह पुत्रसुखं प्राप्य परत्र स्वर्गेति लभेत् ॥ ४०।॥ |
इति श्रीभविष्योत्तरपुराणे पुत्रशख्यश्रावणशुक्लंकादज्ञीमाहात्म्यं समाप्तम् ॥।
अथं श्रावणलुक्ला एकादन्लीकी कथा-युधिष्ठिरजी बीले करि, है मधुसूदन ! श्रावणके शुक्लपक्षमे ५
५ ४
` किस नाभकी एकादशी होती है ? इस्रको आप प्रसन्नतासे किये ।1 १ ।! ्रीकङृष्णजौ महाराज बोले कि, है `¦
राजन् ! इसकी पापहारिणी कथाका श्रवण करो, जिसके सुननेहौसे बाजपेयज्ञका फल प्राप्त होताहै \\२॥
` दपरयुगमें माहिष्मतीयुरीके अंदर परे महीजित् नामक राजा अपने राज्यकौ पालना करताथा।३)॥ ।
किन्तु उसका पुत्रहीन राज्य उसके लिये सुख नहीं था । क्योकि, पुत्रहीन व्यक्तिको इस लोकमे ओर परलोकमे `
दोनों ही जगह सुख नहीं है \।४।\ इस राजाक्रो पुत्र प्राप्तिके उद्योगमं बहुतसा समय व्यतीत हेगया पर सवे- ` |
धमक साथ पृथ्वीका विजय किया ओर पुत्रके समान प्यारे बन्धुओंको भौ दृष्टता करनेपर दण्ड दिया है
+ शिष्टोका आदर किया है । इस प्रकार धमंपुवेक अपने उचित रास्ते पर चलनेपर भी हे ब्राह्मणो !
उन्हं देवते ही सब प्रसन्न होकर उनके समीप चरे आये, जसे करनो चाहिए जिसके कि, वो योग्यथे, `
` सुखको देनेवाला पुच उत्पन्न न हुभा \। ५ ।। उस राजाने अपनेको बड़ी अवस्थामें देखकर चिन्तके साथ |
' सभाम वेठकर प्रजाके बौचमे यह वचन कटे ।। ६ ।) कि, हे लोगो ! मेने इस जन्ममें कोई पाप नहीं किया तथा
कोषं कभी अन्यायका घन नहीं जमा किया }1 ७ ।। ब्राह्मणका माल तथा देवसम्पत्ति मने कभी नहीली \
फरको देनेवाखी कभी अमानतमें खयानत भी नहीं की ।\ ८ \ पुत्रकौ भांति प्रजाका पालन कियाहै
रमे पुत्र क्यों नहं उत्पन्च हु ? इसका विचार करो ।! १० ॥ प्रजा ओर पुरोहितके साथ ब्राह्मणोने `
राजाके इन वचनोको सुन आयसम सलाह करके गहुनवनमें यात्रा की ।! ११ ।। राजाका भला चाहते हृए, `
उन्ह् होने इधर उधर ऋषियोके आश्रमोकी तलाश कौ । ओर नपतिके हितके उदेश्यसे प्रेरित हो एक मुनिराजको ध
भी देखलिया ।! १२ ।\ जो घोर तपश्चर्यामें मरन था \ चिदानन्द ब्रह्मका ध्यान करनेके कारण उसीमें लीन था,
निरामय था, निराहार था, आत्माको उसने जीत रखा था । रोध भी उसके पास नही भटकने पाता था । सदा `
अक्षुण्ण स्थायी रहनेवाला था \\ १३ ।\ उसका नाम लोम था । तच्वके जाननेवाले थे, सब जञस्त्रोमे परम-
प्रवीण थे, महात्मा भे तथा अनेक ब्रह्माओंकी संमिलित आयसे भौ बडी इनकी आयु थी ।। १४ ।\ एक कल्पसे ‰ .
नका एकही लोम गिरता है, इसी कारण इनका लोमहा नाम है । ये तीनों कालके जाननेवाठे महामुनि थे। `
वरतानि । ` हिन्दीदीकासहित | (५८). |
। ह, इसकिए महाराज ! आप एेसा उपदे दीलिए, जिससे राजा पुत्रवान् हो ।। २५। एसे उनके वचन सुनकर `
मुनिराजने ध्यानपूवक विचार किया ओर उसङे युरवंजन्मके हालको जानकर इरः प्रकार वणेन किया ।} २९
लोम बोले कि, पुरवेजन्ममें यह धनहीन वेय था, जो अत्याचार करता था । प्रामग्राममे घूमकर वाणिज्य- `
वत्ति करता रहता था ।} २७ \\ ज्येष्ठ महीनेके शुक्लपक्कौ एकादशीके दिन मध्याह्धके समय वहु प्यासा
हयेकर किसी ग्रामकौ सीमामें पहुंचा }} २८ 11 उसने उस जगहं किसी सुन्दर जलादायको देखक्रर जल पीनेकी
इच्छा की, वहाँ हालहीको व्याई हुड एकं सवत्सा भौ भौ आ पहुंची 1। २९ ।। चह् गर्मासि पीडित तथा प्याससे
आक्रुल होकर उसके जलको पीने लगी । पतु उसको पौते हृषु देवकर उसे बन्द कर स्वयं उस जल्को पौगया `
॥३०।।उसौ कर्मके फलसे राजा पुत्रहीन हुजा है ओर पुवेजन्मफे पुण्ये अकटक उसे राज्य भिलाहै ३१)
लोगो कहा कि, महाराज ! पुराणोसे सुना रते हँ कि, पुण्य करनेसे पापका क्षय होता है । इसलिए किसी
पुण्यका उपदेश दीजिए, जिससे राजाके पापका नाञ्च हौ ।। ३२ ।\ जिससे कि, महाराजकी कृपसे रजके _ `
` पुत्र उत्पन्न हौ । लोमरने कहा कि, श्रावण शुक्लपक्षे पुत्रदा तासकी एकादशी तिथि विख्यात है \। ३३ 1! ध
हे खगो 1 तुम लोग उसका विधिपुर्ेक ठीक ठीक शास्वोक्त रीतिसे जागरणे साथ त्रतकरो | ३४॥
` उसका उत्तम पुण्य तुम लोग राजाको देदो । एेस। करनेपर निद्चयही राजाके पुत्र होगा ।! ३५ ।। मुनिराजके
इन वचनोको सुनकर हर्षसे उछछलते हए लिलते नेत्रोवाले वे खोग उन्हे प्रणामकरके अपने अपने घर चकगये `
` भावणके आजानेपर लोमकशके वाएक्योको याद कर ।। ३६ ।! उन सब लो्गोने शद्धाके साथ राजासहित ब्रत (
` किया ओर उस एकादशीका पुण्यफल हादलीके दिन राजाको दे दिया \। २७ 1) पुण्यदान करनेपर उसी समय `
` रानीको सुन्दर गभं हुआ ओर प्रसव कालके आनेपर उसने तेजस्वी पुत्र उत्पन्नकिया ।। ३८ ॥ इसल्एि है = `
राजन् ! इसका पुत्रदा नाम विख्यात ह । दोनों लोकोके वासते सूखाभिलाषौ मनुष्योंको यह करनी ही चाहिए `
॥३९। सका माहात्म्यसुनं पापोति चट जाता हैःतथा इस जन्मभे पुत्रसुखको प्राप्तकर अन्तमें स्वगेको चलाजाता `
है।१४०।।यह् श्री भविष्योत्तरपुराणका कहा हुआ पुत्रदा नामक श्रावण शुक्ला एकादशौका माहात्म्यपुरा हुआ ।। ध
अथ भारद्रपदकृष्णेकादक्षीकथा
युधिष्ठिर उवाच ॥ भाद्रस्य कृष्णपक्षे तु किनामेकादज्ञी भवेत् ॥ एत॒
स्षच्छाम्यहुं श्रोतुं कथयस्व जनादन ।। १ ।) श्रीकृष्ण उवाच ।। ग्यृणुष्वकमना `
` राजन् कथयिष्यामि विस्तरात् ।\! अजेति नाम्ना विख्याता स्वेपापप्रणािनौ `
॥\२॥ पूजयित्वा हुषौकेशं व्रतं तस्याः करोति यः ।। पापानि तस्य नश्यन्ति 4
श्रवणादपि ।। २ ।। नातः परतरा राजंल्लोकटयदहितावहा । सत्यमुक्तं मया `
८ 4 ह्यतन्नासत्य > भाषितं प्रभ ।ा हरिदिचन्द्र इति ख्यातो बभूवे नपति | त् र रा \\ | | (
चक्रवर्तो सत्यसन्धः समस्ताया भुवः पतिः ।\ ५ ।। ८ कस्या
ष्टो बभूव सः ।। विक्रीय वनितां पुत्रं स चकारात्मविः
, 9
नदयन्ति व्रतस्य `
स्यापि कर्मणो योग वि राज्य ` |
यम् ।। ६ \ पुतल्कसस्य `
ष य राजे मृतचेलापहारकः !॥ `
व्रतराज [एकादक्षी- `
॥ १२ ।! श्रुत्वा नुपतिवाक्यानि गौतमो विस्मयान्वितः ।। उपदेह नृपतये `
१ य मुनिर्ददौ ।॥। १३ ॥ मासि भाद्रपदे राजन् कृष्णपक्षे तु शोभना ॥ एका- `
ˆ / आख्याता आजानास्नातिपुण्यदा ।\ १४ ।! तस्याः कुर व्रतं राजन्पापनाशो `
†,, ते ।\ तव भाग्यवक्ञादेषा समप्तमेऽह्भि समागता ।। १५ ।। उपवासपरो `
॥ जरौ जागरणं कुर \\ एवं तस्या ब्रत चीणं सवेपापक्षयो भवेत् । १६। तव॒
६२, वेण चागतोऽहं नृपोत्तम ।\ इत्येवं कथयित्वातु मुनिरन्तरधीयत !\ १७।॥
`, यं नुषः शरुत्वा चकार व्रतमुत्तमम् ।। कृते तस्मिन्तरते राज्ञः पापस्यान्तोऽ-
द? , [त् ।। १८ ।। श्रूयतां राजशा्दंल प्रभावोऽस्य व्रतस्य च ।। यद्दुःखं बहुभि- `
र ¶ृव्यं ततक्षयो भवेत् ।\ १९ ।। निस्तीणं दुःखो राजासीद्त्रतस्यास्य प्रभावतः `
चि, स
ह समायोगं पुत्रजीवनमाप सः ।\ २० ।\ देवदुन्दुभयो नेदुः पुष्पवषेम- |
एकादश्याः प्रभावेण प्राप्तं राज्यमकण्टकम् \ २१ ।। स्वर्गं लेभेहरि-
: सपरिच्छदः।।ईद्ग्विधं वरतं राजन् ये कर्वन्ति द्विजोत्तमाः! २२।। स्वपा
स्त्रदिवं यान्तितं ध्रुवम्\।पठनाच्छवणाद्राजच्चदवमेधफलं भवेत्।\२३।। `
दण्डपुराण भाद्रपदङृष्णाया जजानास्न्या एकादश्या माहात्स्य समाप्तम् :
भाद्रपद कृष्णा एकादश्ीकी कथा-~युधिष्ठिरजौ बोरे कि, है भगवन् ! मेद्रपद कृर्णपक्षकी
क्या नाम है ? मे यह् सुनना चाहता हूं, इसका आप कृपा कर वर्णन कीजिए 11१ +! श्रीकृष्ण
कि, है राजन् ! ध्यान देकर सुनो मे विस्तारके साथ कहता ह! उस विख्यात एकादल्ीका
हैजो सब पापों का नाश करतौ है ।। २\\ हरि भगवान्की परजा करके वा इसकी कथाको `
उसके व्रतको करता है उसके सब पाप नष्ट हौ जाते हे \\ ३ ।। में तुम्हे सत्य कहता हूं कि, इससे `
ओर परजन्मके हित करनेके लिए ओर इसस कोई एकादशी नहीं है ।\४।। पहले हरिक्चन्द्र
चक्रवत समस्त पथ्वीके अधिपति सत्य प्रतिज्ञ राजा थे 11 ५ ।! किसौ कर्मके फलसे उसने
अपने स्त्री पुत्रका तथा अपने आपका विक्रय कर डाला \\ ६ ।! वह् पुण्यात्मा राजा सत्य-
कारण चांडाखका दास होकर शववस्त्रको लेनेका काम करनेवाला ।! ७ । तो हुमा किन्तु
वत नहं हज ओर इस प्रकार सत्यको निभाते हए उसे अनेक वषं बौतगये ।\ ८ \। तब उसे
चिन्ता उत्पन्न हुई ओर विचार किया कि, इसके प्रतीकारके लिये मृष्षे क्या करना ओरं
। इस प्रकार चितासमुद्रमे डवे ¦ हए आतुर राजाको जानकर कोड सुनि उसके पास ५
व्रतानि) | हिन्दीटीकासहित , “ ". (५६९)
दीर्घायु हई ।\ २० ।\ देवताओके घर बाजे बजने लगे । स्वर्गसेपुषपवृष्टौ हई, इस एकादवीके प्रभाव से उदे ५
अकंटक राज्यकौ प्राप्ति हुईं ।! २१।। राजा हरिङ्चन्द्र अपनी प्रजाके साथ सब सामभ्रीसहित स्वर्भमे चलां
गया । इस प्रकारके व्रतको हे राजन् ! जो द्विजोत्तम करते हैँ ।। २२ ।। वे सब पापोसे मुक्त होकर अन्तमे `
=. स्वर्मकी यात्राकरते हे । तथा इसके पठने ओर सुननेसे अहवमेधका फल प्राप्त होता है ।। २३ ।\ यहं श्रीब्रह्या- ` 4
¢) ण्डपुराणका कहा हुजा भाद्रपदङ्कष्ण अजाः नाम्नी एकादशौका माहात्म्य परा हा ॥\
` । अथ भ्रपदशुक्लकाद्ल्ीकथां ,. *. : “५ |
युधिष्ठिर उवाच ।। नभस्य सितपक्षे तु किनामकादश्ी भवेत् ।। को देवः *
को विधिस्तस्याः कि पुण्यं च वदस्व नः ।। १ ।। श्रीकृष्ण उवाच ।। कथयामि
` महापुण्यां स्वगेमोक्षप्रदायिनीम् ॥ वामनेकादशीं राजन्सर्वपापहरां पराम् ।॥
॥२।। इमामेव जयन्त्याख्यां प्राहुरेकादज्ञीं नृप ।। यस्यां श्रवणमात्रेण सवपाप-
क्षयो भवेत् ।\ ३ ।। पापिनां पापदमनं जयन्तीब्रतमुत्तमम् ।। नातः परतरा राजन्न ` 1
वै मोक्षप्रदायिनी ।॥ ४।। एतस्मात्कारणाद्राजन्कर्तव्या गतिमिच्छता ।। वेष्णवै-
मंम भक्तेस्तु मनुजैम॑त्परायणेः ।। ५।। नमभस्ये वामनो यैस्तु पजितस्तैजेगन्रयम् !! `
`. पुजितं नात्र सन्देहस्तं यान्ति हरिसन्निधिम् ।\ ६ \\ वामनः पूजितो येन कमलः । ५,
कमलेक्षणः ।। नभस्यसितपक्षे तु जयन्त्येकादश्ञीदिने ।\ ७ ।\ तेनाचितं जगत्सवं
त्रयो देवाः सनातनाः \\ एतस्मात्कारणाद्राजन्कतव्यो हरिवासरः ।\ ८ 1। अस्मि-
।॥ ९ ।) तस्मादेनां जनाः स्वे वदन्ति परिवतिनीम् \। युधिष्ठिर उवाच । संशयो- `
ऽस्ति महान्मह्यं श्रूयतां च जनादन ।। १० ।। कथं सुप्तोऽचि देवेश कथं यास्यद्ध- `
वर्तनम् । किमर्थं देवदेवेश बलिबेदस्त्वयासुरः । ११ । संतुष्टाः पृथिवीदेवाः
| किमकुवेज्जनादेन ।। को विधिः ¶क व्रतं चेव चातुर्मास्यमुपासताम् \\ १२ । त्वयि
दानव वः वं वंमासीच्चतायुगे नृप।! १४ ।। अपुजयच्च मां नित्यं म क ी मत्परायणः ।। `
जपस्तु विविधः सूक्तेर्यजते मां स नित्यज्ः।। १५ ॥। द्विजानां पू नित्यं यज्ञक
कृते न कर्तव्यं किञ्चिदस्ति जगन्रये ।। अस्यां प्रसुप्तो भगवानेत्यद्धपरिवतेनम् `
न | व्रत्य [एकादशी
कथम् ।। २१ ।। एतत्कथय देवेश मह्यं भक्ताय विस्तरात् ॥! श्रीकृष्ण उवाच ।\ `
मयाऽलीकेन स बलतः प्रथितो बटुरूपिणा ।। २२ ।\ पदत्रयमितां भूमि देहिमे `
` भुवनत्रयम् ।। दत्तं भवति ते रालच्चात्र कार्या विचारणा ।\ २३ \\ इत्युक्तश्च मया `
राजा दत्तर्वास्त्रिपदां भूवम् ।! संकल्पमात्राटिवषे देहस्त्रेविक्रमः परम् ।। २४
„ भूलोके तु कृतौ पादौ भुवैरकिं तु जानुनी \\ स्वलकि तु कटि न्यस्य महर्लेकं तथो
दरम् !! २५ ।! जनलोके तु हृदयं तपोलोके च कण्ठकम् ।! सत्यलोके मुखं स्थाप्य
` उत्तमाद्धः तथोध्वेतः"।! २६ ।। चन्द्रसयेग्रहार्चव भगणो योगसंयुतः ।। सेन््रह्चव
तदा देवा नागाः शेषादयः परे ।। २७ ।। अस्तुवर दसंभूतेः सुक्तश्च विविधेस्तु =
माम \) करे गृहीत्वा तु बलिमन्रुवं वचनं तदा ।\ २८ ।। एकन पूरितापृथ्वी द्वितीयेन `
त्रिविष्टपम् ।। तृतीयस्य तु पादस्य स्थानं देहि ममानघ ।! २९ ।। एवमुक्ते मया
सोऽपि मस्तके दत्तवान्बलिः ।\ ततो वं मस्तके ह्येकं पदं दत्तं मया तदा ।। ३० ।।
क्षिप्तो रसातले राजन्दानवो मम पूजकः ।\ विनयावनतं दष्ट्वा प्रसन्नोऽस्मि जना- ।
देनः।\ ३१।। बले वसामि सततं सच्चिधौ तव मानद ।। इत्यवोचं
वेरोर्चानि तदा ।\ ३२ \ नभस्यशरुक्लयक्षे तु परिवतिनि वासरे ।! ममेका तत्र॒ `
भूतिश्च बलमाश्रित्य तिष्ठति ।\३३।। टितीया शेषपृष्ठे वे क्षीरान्धौ सागरोत्तमे।! `
सुप्ता भवति भो भूप यावच्चायाति कातिकी ।\३४।। एतस्मात्कारद्राणाजन्कत- `
` व्येषा प्रयत्नतः \ एकादशी महापुण्या पवित्रा पापहारिणी \! ३५ ।। अस्यां प्रसुप्तो `
भगवानेत्यङ्खपरिवतंनम् ।। एतस्यां पजयेरेवं चलोक्यस्य पितामहम् ।। ३६ ॥
दधिदान प्रकतेव्यं रोप्यतण्डुलसंयुतम् ।। रात्रौ जागरणं कृत्वा मुक्तो भवति मानवः `
॥ ३७ \} एवं यः कुरुते राजसेकाद्श्या व्रतं शुभम् ।। सवेयापहरं चैव भुविति मुक्ति `
प्रदायकम् ।\ ३८ ।\ स देवलोकं संप्राप्य भ्राजते चन्रमा यथा ।! श्यणुयाचेव `
यो मत्यं; कथां पापहरां पराम् । अदवमेधसहस्रस्य फलं प्राप्नोति मानवः ॥३९। `
तश्र परिवतिनीनामेकादहया माहात्म्यं समाप्तम् `
कि, हे भगवन् ! भादवेके शुद्लपक्षमे आने-
` बदलनेके दिन मेरी एकर्माति बलिका
तानि] ______ दवीटीकाहिति (५९१)
फिर कुछ करना बाकी नहीं रह जाता, क्योकि इसदिन शयन करते हुए भगवान् अपनी करवट बदलते है
}\ ९ \। इसल्ि इसको लोकं परिवतिनीभौ कहते हं । युधिष्ठिरौ बके कि, हे भगवन् जनादन ! मस्ने बडा
संशय है उसको सुनिये ।\! १० ।। हे देवदेव ! आपने क्यों शयन किया ओर करवट बदली आर क्यो आपने
बलि असुरको पकडा है ? ।\ ११ \\ चातुर्मास्यके त्रत करनेवाले को इसकी विधिका वणेन करो ह जनादन
` ब्राह्मणोने सतुष्टहोकर क्या किया सोभ कहो ।\ १२ ॥ हे प्रभो ! आपके सोजानेपर मनृष्य कया करते हें ?
इसको आप विस्तारसे कहकर मेरा संशय दूर करो \\ १३ \। श्रीकृष्णजी जोक कि, है राजन् ! अप इदपापः `
हारिणी कथाका श्रवण करो, चेतायुगमें बलिनामक एक पवित्र दानव हुआ था ।1१४}। वह मेरा भक्तमेरी
भक्तिमं परायण होकर अनेक जपतपोसे मेरी नित्य अचंना करता था \\! १५ ।\ सदा ब्रह्मणोका पूजन करने- ।
वाला तथा नित्यही यज्ञकमकरो करनेवाला था कितु इन्दरके टेषसे उसने देवस्मेकभी जौत चथा ।\ १६
जब उस महात्माने मेरे दिये हए इस देवलोकको भौ जीतलिया तब सव देवताओंने मिलकर सलाह की कि, `
।\ १७ ।\ भगवान् के पास हम सब लोगोको यह् सूचित करनेके लिये जाना चाहिये । तब देव ओर ऋषिर्योको `
साथ लेकर इन्द्र मुह प्रभुके पास आया ।\ १८ \। उस पुथ्वीपर जाकर इन्द्रने करसे स्तुति की तथा बृहस्पति `
वा अन्य देवताओके साथ मेरी अनेकबार पूजा कौ ।। १९ ।। तब मेने पञ्चम वामन रूपसे अवतार लिया! `
जो बहुत भयंकर तथा ब्रह्मांडरूपीही था ।1 २० ।\ तवसे सत्यवादी उसको मुह्य बालके जीत किया यह बात `
प्रसिद्ध हुई ।। युधिष्ठिरजी बोले कि महाराज ! आपने वामन रूप धरकर किस प्रकार उसं असुरको जीता `
॥। २१॥।। हे देवे ! इसको आप विस्तारसे मुद्ध भक्तको वणन करिये । भ्रीकृष्णजी बोरे करि, उख बक्ति क
` मेने बालकका सूय धारण करके यह् मिथ्या प्रार्थना कौ \। २२॥) किं, हे राजन् ! अषप बडे दानीहइसचल्ि
, आप मृन्ने तीनकदम भूमिका दान करो उससे तीनों लोक विये हौ जायेगे इसमे विचार न करियेगा ।। २३।॥ `
` इतना सुनकर उसने मूते त्रिपदा भूमिका दान किया । मेरा च्रिविक्रम शरीर संकल्प मात्रहीते बने लगा
॥ २४ ॥। मूलोकमे चरण, भुवर्त्मोकमे गोडे ओर स्वर्लोके कटिको रखकर महर्लोकमे उदर धारण क्या
॥ २५।1 जनलोक में हृद्य, तपोलोकमें कठ, सत्यलोकमं मूख, स्थापित कर ऊपरकौ ओर शिर क्वि ।॥
॥ २६।। चाँद, सूरय, सारे ग्रह तारागण, इन्द्र, देव शेषादिक नाग ।। २७ ।। इन सवने अनेक प्रकारक वैदिक ` 1
स्तुतियोसे मुश्चे मगवान्को अनेको प्राथनाएुं कं । तव मेने बलिका हाथ पकडकरं यह् कहा ।\ २८ ॥ कि, `
राजन् ! एक पैरसे मैने पुण्वी ओर दूसरेसे अपरके लोक रोके 1 हे अनघ ! अब तुम तीसरी कदम भूमिके `
वास्तेमुक्षे ओर स्थान दो ।\ २९ ।! यह सुन राजा बलिने मेरे तीसरे पेरकी भूमिकी जगह अपना मस्तक अमे
कर दिया । तब भेने उसके मस्तकपर एक पेर रक्ा । ३० ।। हे राजन् ! उस मेरे भक्त दानवको मेनेषा- =
` तालमें फेंक दिया, तोभी उसे विनीत जानकर बहुत प्रसन्न हुमा \\ ३१ । तब उस भानके देनेवाल वैरोचनि `
बलिको मेने कहा कि, है बले ! मं तुम्हारे निकर निवास करूंगा ।! ३२ ।! भाद्रशुक्ला एकादज्ञीके करवट
1 कमू्ति बलिका आश्रय लेकर विराजमान होती है ?।। ३३ ।। दूसरी मृति, क्षौीरसमुब्रमं
क्ञेषके पृष्ठपर होतो है । है राजन् ! जो कात्तिकी पूणिमातक कयन करती हई रहती है ।। ३४ ।! इसल्यि `
ह राजन् ! महापुण्य पवित्रा ओर पापहारिणी इस एकादश्षीका व्रत करना चाहिये ।। ३५ \\ इस दिन सोते
५ ; हृएं भगवान् अपना अंगपरिवसन करत ह इस दिन चिलोकीपति भगवान्का पमन करे \\ ३६ ।। चांदीजौर
( चाबलके साथ दहीका दानं करे,रातमे जागरण करं तो बह मनुष्य मुक्त हो जाता है ।। ३७ \। इस प्रकार
गो इसकी पापनाशिनी कथाका श्रवण करता है वह मनुष्य
(५९२) 4 ब्रतराज [ एकादल्ली-
इन्दिरानाम नामतः \। तध्या ब्रतप्रभावेण महापापं प्रणयति ।\ २।। अधोयोनि-
गतानां च पित्णां गत्तिदायथिनी । भ्युणुष्वाव्हितो राएजन्क्या पापहरा परम् | ५
॥ ३ ।\ यस्याः श्रवणमात्रेण वाजपेयफलं लभेत् ॥। पुरा कृतयुगे राजा बभूव `
रिपुसूदन इन्द्रसेन इति स्यातः पुरीं माहिष्मतीं प्रति ॥ सराज्यं
पालयामास धमेण यश्सान्वितः \\ ५ ।। पुत्रपौत्रसमायुक्तो धनधान्यसमन्वितः ।॥ `
माहिष्मत्यधिपो राजा विष्णुभवितिपरायणः ।\ ६ ।। जपन् गोविन्दनामानि मुक्ति- `
इदानि नराधिपः ।। ध्यानेन कालं नयति नित्यमध्यात््मचिन्तकः ।\ ७ ।! एकस्मिन् `
दिवसे राजनि सुखासीने सदोगते ।। अवतीर्यागमद्धीमानम्बराच्चारदो मुनिः! ८1! `
तमागतममि्रक्ष्य प्रत्युत्थाय कृताञ्जलिः ।! पूजयित्वार्घविधिना चासने संन्यवेक्न॒ `
यत् ।\ ९ ।। सुखोपविष्टः सः मुनिः प्रत्युवाच नृपोत्तमम् ।। कुश्चलं तव राजेन्र- `
सप्तस्वद्खेषु वतते !। १० ।। धमं मतिवेतते ते विष्णुभक्ितिरतिस्तथा ।\ इति वाक्यं
तु देवष श्रुत्वा राजा तमब्रवीत् ।। ११ राजोवाच । त्वत्प्रसादान्मुनिश्रेष्ठ `
सर्वत्र कुशलं मम ।\ अद्य करतुक्रियाः सर्वाः सफलास्तव दलनात् \। १२ ५! प्रसादं
कुरु विप्रषे ब्रूह्यागमनकारणम् ।\ इति राज्ञो वचः श्रुत्वा देवधिर्वाक्यमब्रवीत् `
प्राप्तो यमलोकं द्विजोत्तम ।\ १४ । शमने्नाचितो भक्त्या उपविष्टो वरासने ।
धर्मेज्ञीलः सत्यवांस्तु भास्कार समुपासते \। १५ ।। बहुपुण्यप्रकर्ता च ब्रत वेकल्य- `
दोषतः ।! सभायां श्राद्धदेवस्य मया दृष्टः पिता तव ।\! १६ ।! कथितस्तेन संदेशस्तं
निबोध जनेश्वर ।। इन्द्रसेन इति स्यातो राजा माहिष्मतौप्रभुः ।\ १७ ।\ तस्याग्रे `
४ ४ ^ ८11 ध; ४ क (11 01144. र १ र ५ 6 ण
ग्राम्चिलाग्रे तु श्राद्धं कृत्वा यथाविधि ।! भोजयित्वा द्विजाचज्छद्ान्दक्षिणामभिः
सुपूजितान् ।\ २८ \। पितृशेषं समाध्राय गवे ददयाद्विचक्षणः ।! पजयित्वा हषीकेलं
पग॑धादिभिस्तथा ।1 २९ ॥! रात्रौ जागरणं कुयत्किंज्ञवस्य समीपतः ।! तत
प्रभातसमये सप्राप्ते हादश्लीदिने ।\ ३० ।। अचेयित्वा हरि भक्त्या भोजयित्वा `
` द्विजानथ ।। बन्धुदौहित्रपु्रादयेः स्वयं भुञ्जीत वाग्यतः ।! ३१ ।। अनेन विधिना `
राजन्कुर ब्रतमतन्द्रितः । विष्णुलोकं प्रयास्यन्ति पितरस्तव भपते । ३२ ॥ ` ||
इत्युक्त्वा नुर्पात राजन् मुनिरन्तरधीयत ।। यथोक्तविधिना राजा चकार ब्रत- ` ||
मुत्तमम् ।। ३३ ।! अन्तःपुरेण सहितः पुत्रभृत्यसमन्वितः ॥ कृते व्रते तु कौन्तेय `
` पृष्पवृष्टिरभूदिवः ।! ३४ । तत्पिता गरुडारूढो जगाम हरिमन्दिरम् ॥। इन्द्रस
नोऽपि राजिः कृत्वा राजमकण्टकम् ।। ३५ ।। राज्ये निवेदय तनयं जगाम विदिवं
स्वयम् 1) इन्दिरातव्रतमाहास्म्यं तवाम्रे कथितं मया ।। ३६ ॥ पठनाच्छ्वणाच्चास्य `
सवेपापः प्रमुच्यते ।। भुक्त्वेह निखिलान्भोगान्विष्णुलोके वसेच्चिरम् ।। ३७ ॥
` इति ध्रीब्रह्मववतपुराणे आशिविनकृष्णेकादह्या इन्दिरानाम्न्या माहात्म्यं समाप्तम् ।॥
कृष्णपक्षको एकादङ्रीका नाम ओर विधि क्या है ? इसका मेरे आगे वर्णेन करिये ।1 १ ॥। श्रीकृष्णजी बोले
कि हे युधिष्ठिर ! आदिवनके दरृष्णपक्षकी एकाददीका नाम इन्दिरा है जिसके व्रतसे महापापभी नष्ट होते `
ह \\२) है रजन् ! इसकी पापनाशिनी कथाको सावधान होकर सुनो, जिसके प्रभाव्से
अधोगतिको प्राप्त भौ पितुगण श्ुभगति प्राप्त करते ह \\ २३ ।! जिसके श्ररग मात्र से बाजपेययज्ञकां फल `
भिलता है, पहले सतयुगमं रिपुओंका मारनेवाखा एक राजा था ।} ४ ।\ वह् अपनी माहिष्मती पुरीमं इन्द्- ` ॥ |
सेनके नामसे विख्यात था । वह अपने राज्यको धमं ओर यङसे पालन करता था ।! ५.11 बहु माहिष्मती-
परीका राजा पुत्र, पौत्र, घन धान्यसे सम्पच्च ओर विष्णु भक्तिमें लीन रहता था ॥\ ९ ।\ हे राजन् ! वह॒ र
भगवान् के मुदित देनेवाले नामोका जाप करते हुए अध्यात्मचिन्ताके ध्यानम अपना समय विताता था ` :
५ ७॥ एक दिनि सभके अंदर सुखे बैठे हए राजाके सम्मुख आकाञसे उतरकर मुनि नारदी
` आ पधारे \\! ८ ।) उनके अवेपर राजाने उठ हाथ जोडकर अधं विधिसे पूजन कर आसनपर बिठा. `
द्वा ।॥ ९ ॥ आरामसे बैठ जानेपर मुनिने रानासे पुछा कि, हे राजेन्द्र ! आपके सप्तांगमं कुशल तो है `
॥ १० ॥ हि राजन् ! जपकरौ धमं प्रीति मौर विष्णुमे भक्ति तो है ? नारदजीके ये बचन सुन, राजाने `
। | ` उत्तर दिया कि, हे देवष | आपकी कृषासे यहां सब कशल हे । आज आपके द्ंनसे
4 : ह ग्यह् ॥) १.१. ~१२ \\ है ऋषिराज प]
। देवने उत्तर दिया ।। १३ । नारदजौ बोले
राज ! आप अपने यहां पधारनेका कारण कृषाकरके बताइये, यह् सुन॒ `
रे कि, है राजन् ! आप मेरी क | ४ आश्चयं
नसे मेरे समस्त यज्ञ सफल `
४1 त्रतराज ` [एकादशी
राका त्रत करके स्वरगमें भेज दे । ह राजन् एसा सुनकर में तुम्हरे पास आया हं ।\१९।। पिताकी शुभस्वमे- `
`. गतिके वास्ते ह राजन् ! आप इन्दिराके ब्रतको करो, जिसके प्रभावसे वुम्हारे पिता स्वगं मे चले जायेगे
` ॥ २० ॥। राजाने कहा कि, है भगवन् ! उस इन्दिरा व्रतको किंस पक्षमं ओर तिथिमं करना चाहिये ।ये
सब बातं एवं उसकी विधि कृपाकर मुद्षसे वर्णन करिये 1! २१ ॥! नारदजी बोले कि, हे राजन् ! मे इसकी
शुभ विधिको तुम्हें कहता हं कि, आश्विन कृष्णपक्षको दज्ञसौके दिन प्रातःकाल श्रद्धायुक्त मनसे स्नान करे! `
॥ ओर मध्याह्ं समयमे जलके बाहर स्नान करे \ २२।। २३ ॥। श्नद्धाके साथ पितरोका श्राद्ध करे ।। एक समय 1
` भोजन कर रातमें मूमिपर शयन करे ।। २४ ॥। दूसरे दिन एकादशीके प्रातःकालमे मुखधोकर दन्तधावन :
करे । २५ ।। भक्तिभावसे उपवास करनेका, नियम धारण करे कि, मे आज निराहार रहकर सब भोगोसे
द्र रहुंगा 1\ २६ ।\ मं कल भोजन करूगा, इद्नल्यि हे भगवन् ! आपमेरौ रक्षा करोः मं आपकेशरणह,
एसा नियम करके मध्याह्व के समयसे ।। २७ ।। शालिग्रासकी शिलाके आगे विधिपुवेक श्राद्ध करे, पुज्यब्राह्म-
णको दक्षिणा देकर भोजन करावे ¦! २८ ।। पितृश्तेषको सृचघकर गौको खिलावे । धूप, गन्ध आदिसे भगवानृकी `
परजा करे ।। २९ ॥ रातमें भगवान् के समीप जागरण करे ओर द्वादशके दिन प्रातःकाल ।\ ३० ।। भक्तिसे
भगवान् का पुजन ओर ब्राह्मणोको भोजन करावे । पे चुपहोकर बन्धुबान्धवोके साथ स्वयं भोजन करे `
॥ ३१५) इस रीति से है राजन् ! विधिपूर्वकं इस ब्रतको करनेसे तुम्हारे पितर लोग विष्णुलोकमं निवास
करेगे ।\३२।। हे राजन् ! इस प्रकार कहकरे मुनि अन्तर्ध्यान हो गये । राजाने बताई हई विधि रनौ |
ओर नौकर आदिके साथ उस उत्तम व्रतको किया । हे युधिष्ठिर ! इस ब्रतके करनेपर उस राजापर स्वगसे
` पष्पवृष्टि हुई ।\ ३३ ।\ ३४ १} उसका पिता गरुडपर चढकर वेकुण्ठमे च्म गया ओर राजा इन्द्रसेन भी
घमंसे निष्कटक राज्यकरः अपने राज्यभारको ल्डकेपर रख स्वयं भौ स्वर्भमे चला गया । यह इन्दिराका
माहात्म्य तुम्हारे सामने वणेन कर दिया ।\ ३५ ।\ ३६ ।! उसके पठने ओर सुननेसे सब पपोसे छट जाता
। इस लोकम सब भोगो को भोगकर अन्तमं विष्णुलोकमे चिरकालतक निवास करता है ।\ ३७ ।।! यह्
श्री ब्रह्मवबतेपुराणका कहा हुमा आष्िविनकृष्णा इन्दिरा नामक एकारश्ीका माहात्म्य पुरा हु \। ध ॑
५ अथ आदिवनशुक्टंकादसीकथा ¢
| युधिष्ठिर उवाच ।। कथयस्व प्रसादेन भगवन् मधुसुदन ।। इषस्य शुक्लपक्षे ( |
( ^ तु किनामेकाद्ली भवेत् !। १ ।\ श्चक्रष्ण उवाच \\ श्यणु राजेन्दर वक्ष्यामि माहास्स्यं
पापनाशनम् ।\ शुक्लपक्षे चाहवयुजि भवेदकादशी तु या ।। २ ॥\ पाल्ाञ्कुलेति `
विरुयाता सवंपापहरा परा ।\ पदयनाभाभिधानं तु युजयेत्रत्त मानवः ।\ ३ ।\ `
भिीष्टफलग्ातप्य स्वर्गमोक्षप्रदं नृणाम् ।। तपस्तप्त्वा नरस्तीव्रं चिरं सुनियते- `
जम् ।। कृत्वापि बहुः पापं `
तानि 1 हिन्वीटीकासहित (द्म) |
14: 11 ॥ ५
0 न
` षोडक्नीम् \। एकादीसमं वुष्यं किचिल्लोके न विद्यते \। ११।। नेदृशं पावनं पकिवि- = ।
त्रिषु लोकेषु विद्यते \। यादृशं प्यनाभस्य दिनं पातकहानिदम् ।। १२ ।\ तावत्पा- `
पानि तिष्ठन्ति देहेऽस्मिन् मनुजाधिप ।॥ यावन्नोपोष्यते भक्त्या पद्यनाभदिनं `
शुभस् ।। व्याजेनोपोषितमपि न द्शेयति भास्करिम् ।। १३ । स्वगेमोक्षप्रदा
हेषा शरीरारोग्यदायिनी ।! घुकलत्रप्रदा ह्येषा धनधान्यप्रदायिनी ।न
गद्धान गया राजन्न काज्ञीन च पुष्करम् ।\ न चापि कौरवं क्षेत्रं पुण्यं भपहररोद-
नात् ॥ १५ ।। रात्रौ जागरणं करत्वा समुपोष्य हरेदिनम् ।\ अनायासेन भूपाल
प्राप्यते वैष्णवं पदम् ।! १६।। ददा वै मातृके पक्षे दक राजेनद्र पेतृके ।। प्रियाया ||
दश्च पक्षे तु पुरुषानुद्धरे्रः । १७ ।\ चतुर्भजा दिव्यरूपा नागारिकृतकेतनाः।॥ `
स्रग्विणः पीतवस्त्राह्च प्रयान्ति हरिमन्दिरम् ।! १८ \\ बालत्वे यौवने चेव बद्ध-
त्वेऽपि नृपोत्तम ।\ उपोष्य द्वादशीं नूनं तेति पापोऽपि दुर्गतिम् ।१११९ ।\.पाज्ञा- `
इकुन्ञामुपोष्येव आस्विने चासितेतरे ।। सवंपापविनिम्क्तो हरिलोकं स गच्छति
` ॥ २० ॥\ दत्त्वा हेमतिलान् भूमि गमन्नमुदकं तथा ।।! उपानदस््रच्छन्रादिन
पतयति यमं नरः ।॥ २९१ । यस्य पुण्यविहीनानि दिनान्यपगतानि चस
लोहकारभस्त्रेव इवसश्षपि न जीवति ।। २२ ।॥ अवन्ध्यं दिवसं कुर्यादरिद्रोऽपि `
न॒पोत्तम ।\! समाचरन्यथाहशक्ति स्नानदानादिकाः क्रियाः ।\ २३५) तडागा-
राससोधानां सत्राणीं पुण्वकमणाम् ।। कर्तारो नव परयन्ति धीरास्तां यमयातनाम्
` । ॥ २४ ॥\ दीर्घायुषो धनाढयाइच कुलीना रोगर्बजिताः \! दृश्यन्ते मानवा लोके
पृण्यकर्तारि ईद्श्ञाः ।\ २५ 11 किमत्र बहुनोक्तेन यान्त्यधमंण दुर्गतिम् ।। आरोहन्ति `
दिवं धमनत्रि कार्या विचारणा ।\ २६।। इति ते कथितं राजन् यत्पृष्टोऽहं त्वयानघ।।!
पाशशाउकुश्षाया माहात्म्यं किमन्यच्छ ोतुमिच्छसि ।! २७ ।। इति श्रोब्रह्याण्डपुराणे
` आश्टिवनशुक्लेकादशयाः पालाञ्करुशाख्याया माहात्म्यं सम्पुणंम् ।।
1 दशीका क्या नाम ओर क्या विधि है ? इसको आप कृपाकर वर्णनकरिे । १ ॥। श्रीड्ष्णजौ (
राजेन! आरिविन शुक्लयक्षमें जो पाषनाशिनौ एकादशौ होती है, उसके माहात्म्यको सुनिये 11 २।\ उसका
अथ आदिवन शुक्ला एकादरीकी कथा-युधिष्ठिरजी बोले कि, हे भगवन् ! आरन शुक्लपक्षककी एका- `
{4 ५ | विख्यात पाञ्चांकुशा' नाम है जो सब पापोको हरता है । उस दिन पद्मनाभे भगवानकी पूजा करे \1३।. ५ ॥
` उससे ओक धूति होती होती है, जितेन्द्रिय नरको चिरघोर
| तपको करनेपर जो फल प्राप्त होता है वह फल भगवानृको नमस्कार करनेसे ही हौ जाता है । मसे अनक `
को नमस्कार करके घोर नरकमे नहँ जाता !
जी बोरे फि, य॑ 1
(५९९॥ बरतराज [एकादशौ-
बाली वस्तु त्रिलोकौमे कोई नहीं है । जैसा कि, पद्यनाभ भगवान् का पापनाक्क यहं दिन है ।! १२ ॥ है
राजन् ! पाप तव तक ही देहम रहं सकते हं, जवतक कि, पद्यनाभक इस शुभदिन उपवास नहीं कियाजा
सकता । यदि भूलकर या कपटसे भी उपवास करलिया जाय तो फिर यमराजके दरशन नहीं होते ॥ १३१ `
यह् स्वगं ओर मोक्षको देनेवाली ज्रीरके आरोग्यको बढानेवाखी, सु्दर स्त्री ओर धनधान्य को देनेवाली `
है १ १४।। गंगा, गया, पुष्कर, कुरक्षेत्र ओर काशीती्थं भो इस हरिदिनके समान पवित्र नही है \। १५१ ` ५
है राजन् ! हरिवासरको रातके समय जागरण उपवास करे, तो उसे सहजहीमे विष्णुलोककी प्राप्तिहो `
` जाती है \\ १६ 1 माताके दश पीदीके ओर पिताके ददा पीदीके तथा स्त्रीके दश पीठीके पुरूषोका वह पापसे `
उद्धार करता है \\ १७ ।। वे छोग चतुर्भुजतथा दिव्यरूप धारण करके गरुडकी सवारीसे पीतांबर धारणकर
व हरिलोकम चर जात ह ।! १८ हे राजन् ! बाल्य, यौवन वा वार्धंक्य किसी भी अवस्थां इसका उपवासं | ) ४
किया जाय तो पापौभौ दुगतिको प्राप्त नहीं होता ।। १९ ॥ आदिवन कृष्णपक्षकी पारशाकुशाका उपवास ¦
करके सब पापोसे मुक्त होकर विष्णुलोकमे चलाजाता है ।} २० \ सुवर्णके तिल, भूमि, गौ , अन्न, जूती, `
वस्त्र ओर छत्र आदिका दान करके कभौ यमराजको नहं देता \! २१ ।\ जिस मनुष्यको पप करते हुए `
दिन बौतगये हें बह लोहारकी धोकनीकरे समान सस सेकर व्यथंही जीता है ।। २२ ।। स्नान, दान आदि पष्य ¦
क्मेसि दरिद्रभी मनुष्य अपने दिनको साथक करे ।। २३ ।। ताछाव, महल, धर्मशाला तथा यज्ञ आदि पण्य `
` कामोकि करनेवाले लोग कभी यमयातना नहीं पाते ।! २४ ।। एसे पुण्यके करनेवाले लोग दीर्घायु, धनी, `
कुलीन खथा नौरोग देखे जाते हे ।। २५ ।। अधिक विस्तारसे क्या प्रयोजन है ? थोडेही मे यह् समन्ना चाहिये
+. कि, धर्मसे स्वगं ओर पापसे नरकमें वसते हे । इस बातमें किसी तरहके सन्देहका विचारही न करना चाहिये 1.
1) .२६)}) है राजन् ! तुम्हारे प्रह्न करनेपर मेने यह पादांकुक्षाका माहात्म्य वणेन किया है अब ओर ष्या
| सुनना चाहते हो ।\ २७ 1! यह श्रीब्रह्माण्डपुराणका कहा हा आदिवन शुक्ला पाशांकुशा नामकी एका-
दीका माहात्म्य पूरा हमा \॥\ ` | 1
ध अथं कातिककृष्णैकाव्यीकया ~
र युधिष्ठिर उवाच )\ कथयस्व प्रसादेन मम स्नेहाज्जनादेन \\ कर्तिकस्या-
सिते पक्षे किनामेकादस्ली भवेत् ।\ १ ।। श्रीकृष्ण उवाच ।। श्रूयतां राज्ादल
` कथयामि तवाग्रतः ।\ कातिके कृष्णपक्षे तु रमानाम्नी सुद्योभना ।। २।। एकाक्छी `
समाख्याता महापापहरा परा ।। अस्याः प्रसङ्धतो राजन् माहात्म्यं प्रवदामि ते `
।॥ ३ ।। मुचुकुन्द इति ख्यातो बभूव नुपतिः पुरा ।। देवेन्द्रेण समं यस्य मित्रत्वम- `
` भवन्मुप ।\ ४ ।\ यमेन वरुणेनेव कुबेरण समं तथा ।\ विभीषणेन चतस्य सखित्व ।
वत्सह ।। ५ ।। विष्णुभक्तः सत्यसन्धो बभूव नृपतिः सदा ।\ तस्येव ल्ासतो
राज्यं निहतकण्टकम् ।। ६ । बभूव दुहिता गेहे चन्द्रभागा सरिदरा ।॥ `
रतानि] हिन्दीटीकासदहित = (५९७)
[9 न ५
मन व
भोक्तव्यं नापि केनचित् ।! गजेर्वेस्तथा चोष्टैरन्येः पञ्ुभिरेव च ।! १२
तृणमन्नं तथा वारि न भोक्तव्यं हरेदिने ॥ मानवेहच कुतः कान्त भुज्यते हरि- `
वासरे \। १४ ।\ यदि त्वं भोक्ष्यसे कान्त ततो गेहात्प्रयास्यताम् ।। एवं विचार्यं
मनसा सुदढ मानस कुर ।। १५ ।। शोभन उवाच ।। सत्यमेतत्त्वया चोक्तं करिष्ये-
` ऽहुमुपोषणम् ।। द॑वेन विहितं यद्र तत्तथेव भविष्यति ।! १६ ।। इति दिष्टे मति ` ।
कृत्वा चकार वऋतमुत्तमम् ।। कषुत्तृषायीडिततनुः स बभूवातिदुःखितः ।! १७ ॥ ||
एवं व्याकुलित तस्मिच्नादित्योऽस्तमगाद्गिरिम् ।! वैष्णवानां नराणां सा निता `
हषविर्वधिनी \\ १८ ।। हरिपजारतानां च जागरासक्तचेतसाम् ।। बभूव नपक्ादृल | ।
श्ञोभनस्यातिदुःसहा \\ १९ ।। रवेरुदयवेलायां शोभनः पञ्चतां गतः ।! दाहुया- `
` मास राजा तं राजयोग्यैदच दारुभिः ।। २० ॥। चन्द्रभागा नात्मदेहं ददाह पितृवारिता `
॥ इत्वौध्वेदेहिकं तस्य तस्थौ जनकवेश्मनि ।। २१।। शोभनेन नुपशचेष्ठ रमात्रत-
प्रभावतः ।। प्राप्तं देवपुरं रम्यं मन्दराचलसाननि ।२२ ।। अनत्तममना धष्यम- `
संस्येयगुणान्वितम् ।! हेमस्तम्भमयेः सौधे रत्नवदू्यमण्डितः ।। २३ ।। स्फारिकै- `
` विविधाकाररोविचित्रेरुपश्ोभितम् सिहासनसमारूढः सुरवेतच्छत्रचामरः
। ॥ २४॥ किरीटकुण्डलयुतो हार केयूर भूषितः ।। स्तूयमानश्च गन्धर्वेरप्सरोगण- `
` सेवितः ।। २५ ।\ शोभाः शोभते तत्र देवराडपरोयथा ।। सोमरा्मेति विख्यातो `
मुचुकुन्दपुरे बसन् ।। २६ ॥। तीथेयात्राप्रसङ्धेन भ्रमन् विप्रोददज्ं तम् ।। नृपजामातरं `
| ज्ञात्वा तत्समीपं जगाम सः \। २७ ।। जासनादुत्थितः शीघ्रं नम श्चक्रे द्विजोत्तमम्
॥ चकार कुशलप्ररनंर्वशुरस्य नृषश्य च ।। कान्तायाश्चन््रभागायास्तथैव नगरस्य `
च ।! २८ ।\ सोमशर्मोवाच ।! कुशलं वतते राजजञ्छवशुरस्य गृहे तव । चन्द्रभागा
। कुशलिनी सर्वतः कुशल पुरे ।\ २९ ॥। स्ववृतं कथ्यतां राजच्राह्चर्यं परमं मम ।॥ `
पुरं विचित्रं रुचिरं न दृष्टं केनचित्ववचित् ।। ३० ।। एतदाचक्ष्व नुपते कुतः प्राप्त `
मिदंत्वया ।। शोभन उवाच \! कातिकस्यासिते पक्षे नाम्ना चैकादस्ली
॥ ३२ ॥ द्विजेन्द्र उवाच ।। कथमध्रुवमेतद्धि दि कथं हि भवति ध्रवम् ।। तत्तवं कथय
सशी रमा।३१। `
तामुपोष्य मया प्राप्तं द्विजेन््रपुरमध्रुवम् \। भ्रुवं भवति येनेव तत्कुरुष्व द्विजोत्तम `
1} स्वपापवितनिमक्तो
(धद). व्रत्राज. [एकावली
मोवाच ।। प्रत्यक्लं पुत्रि ते कान्तो मया दृष्टो महावने ।\ ३७ \। देवतुल्यमनाधुष्यं
दृष्टं तस्य पुरं मया ।। अध्रुवं तेन तत्पोक्तं ध्रुवं भवति तत्करं ।\ ३८ ।। चन्द्रभागो- `
बाच ।\ तत्र मां नय विप्रषं पतिदशनलालसाम् \। अत्सनो ब्रतपुण्येन करिष्यामि
पुरं ध्रुवम् ।! ३९ \! आवयोहिज संयोगो थथा भवति तत्कर ।। प्राप्यते हि मह-
पुण्यं कृतं योगे विमुक्तयोः ।। ४० ।। इति शरुत्वा सहं तया सोमन्ञर्मा जगामह ।॥ `
आश्चमं वामदेवस्य मन्दराचलसन्निधौ ।\ ४१ ।! वामदेवोऽ्पणोत्सर्वं वुत्तन्तं `
कथितं तयोः । अभ्यषिञ्चच्चन्द्रभागां वेदसन्त्र॑रथोज्ज्वलाम् ।। ४२।। ऋषिम- ॥
न्त्रप्रभावेण विष्णुवा्रसेवनात् \) दिव्यदेहा बभूवासौ दिव्यां गतिमवापह।। ४।। `
पत्युः समीपभगमत्प्रहषोत्पुल्ललोचना ।। सहषंः श्ोभनोऽतीव दष्ट्वा कान्तां
समागताम् ।\ ४२४ ।\ समाहूय स्वके वामे पादवं तां संन्यवेशयत् ।। सा चोवाचप्रियं
अष्टवर्षाधिका जाता यदाहं पितवेदमनि ।\ ४६ ।। मया ततः प्रभति च कृतमे- `
कादशीव्रतम् ॥। यथोक्तविधिसंयुक्तं श्रद्धायुक्तेन चेतसा ।\ ४७ \) तेन पुण्यप्रभा-
` वेण भविष्यति पुरं ध्रुवम् \। सवेकामसमुद्धं च यावदाभूतसंप्लवम् \! ४८! एवं
सा नृपशादूर रमते पतिना सह् ! । दिव्यभोगा दिव्यरूपा दिव्याभरणभूषिता) ४९।।
शोभनोऽपि तया साद्धं रमते दिव्यविग्रहः ।\ रमान्रतग्रभावेण मन्दराचलसानुनि
1 ५० ।) चिन्तामणिसमा ह्येषा कामधेनुसमाथवा। रमाभिधाना नृपते तवाग्रे
कथिता मया \\ ५१ ।। ईदश च व्रतं राजन् ये कुर्वन्ति नरोत्तमाः ।। 'ब्रह्महत्यादि- `
पापानि नां यान्ति न संजयः \। ५२)। एकादहया रमाख्याया माहात्म्यं श्ुणयच्चरः `
0 नस्क्तो विष्णुलोके महीयते ।! ५३ ।! इतिश्रीब्र ° कातिककृष्णाया
रमाख्याया माहात्म्यम् ।! ; < (
1 । `: भथ का्तिककृष्णा एकादस्ीको कथा-युधिष्ठिरजी बोले कि, है भगवन् ! कात्तिक कष्णपक्षमें कौनसी |
` एकादशी होती है ? इसको आप मेरे स्नेहसे कषाकरके किये ।। १ । श्रीकृष्णजी बोले कि, हे राजेन्द्र ! ¦
कात्तिकके |
! इसके प्रसंगागत माहात्म्यकोभौ मे तुमह कहता हं ।। ३ ॥। पहले मुचकुंदनामका |
र मित्रता रखनेवाा राजा हुभा था ।\ ४ । उसको मित्रता न॒ केवल इनद्रसेही थी पर यम, वरुण,
। । सु्लोभना पुत्री है! वह आष जानते हौ हँ उसको जाकर यह सब वृत्तान्त कहो तो यह ध्रुव फल हो जायगा =
वरतानि} . हिन्दीटीकासहित ` (५९९)
मूचे क्या उपाय करना चाहिये ! ? जिससे मृक्षे दुःख न हो प्रा्णोकी रक्षा हो जाय ।\ १२ \ चद्रभागाने
उत्तर दिया कि, हे प्रभो ! मेरे पिताके घरमे किसको भौ मोजन नहीं करना चाहिये । यहाँ तक कि, मेरे `
पिताके राज्य में हाथी, घोडे, ऊट तथा अन्यप्रुओकोभी 1} १२ ।। घास, न्न , या पानी नहीं दिया जाता \
तब हे पते । मनुष्य तो कंसे इस एकादजीके दिन भोजन कर सकता ह ? \। १४ ।। यदि है पते 111 आन.
भोजन करनाही चाहते हं तो चरसे बाहर चरे जादे । एसी बात शोचकर नको दृढे कर लीजिये ।\ १५।। _
` ऋ्लोभनने कहा कि, हे ध्रिये ! ठुनने जो कहा बह सब सुना, मभौ आज उपवास करूंगा ! जो होनहार हो बह
होगा सो देखाजायगा ।। १६ \) इस प्रकार भाग्यपर छोडकर उसने व्रत किया \ भूख, प्याससे व्याकुरु होकर
वह बडा दुःखी हुञा ।। १७ ।। इस प्रकार घबडाते हुए उस दिन उपे सुय अस्त हो गया । वेष्णवोकि आनन्दको `
बहानेवाली रातका आगम हृजा ।। १८ ।। वह रात हरिपुजनपरायग मनुष्योको जागरण करनेमे आनन्द `
` बढानेवाली थौ पर उस शोभनके वस्ते दुःखकारिणीही साबित हुई ।\ १९ ॥। सूर्योदय होने के समयही उस `
कोभनकी मत्य् होगई । राजाने राजकुम्रारके दाहयोग्य उत्तसकाष्ठसे उसका दाह करादिया } २० ।। चन्- `
भागानेभी अपने पिताके मना करनेसे आत्मसमपण नहीं किया । पताके घरमे उसका भ्राद्धकमं किया गया ।
चन्द्रभागा पितकेही घरपर रही \ पिति अवरोधसे सती नहीं हुई ।। २१ ॥1 हे राजन् ! उस लोभनने उस १
रमके ब्रतक्ते प्रभावसे मंदरा्चलके शिखरपर एक उत्तम देवनगर प्राप्त किया ।! २२ \) जो बहुत बहिया ॥
किसौसे भी न दबायेजानेवाला असंख्य सुवबणनिसित खंभोसे बना हुआ अमित सोधोवाला तथा रत्नोसे जडा- `
हआ एवं वैड्ग्योतस पूणं मंडित था ।\ २३ ।। बहपर सफेद चेंवरोमे दुलते हुए अनेक प्रकारकी स्फटिक मणि-
योसे बनेहृए सिहासनपर जा बेठा, जिसपर इवेतछत्र ओर चामर दुल रहे थे ।\ २४ ।\ कानोमें कुंडल ओर `
क्िरपर सुकूट धारण क्रिये था । गन्धर्वगण उसकी स्तुति करने लग रहे थे मौर अप्सरायें सेवा करती थौ (१
॥\२५॥॥ उस जगह वह॒ शोभन राजा दूसरे इन्द्रौ तरह जञोभा पाने र्गा । एक सोमश्मकि नामसे विख्यात
भच॒करंद नामक नगरम निवास करता था ।! २६ । एक दिन तीर्थयात्रा प्रसंगमे उस् ब्राह्मणने उस राजे `
जँवाईके वहीं दलन किये जौर उसको अपने राजाका जामाता जान समीप दलागया 1! २७ ॥\ उसमे आसनसे `
` ज्ञीघ्रही उठकर उस उत्तम ब्राहाणके किये नमस्कारकौ अपने इवसुर राजाके घरके कुशल प्रश्न किये तथा 1
अपनी स्री चन्द्रभागा ओर नगरे भौ राजी खुशीके समाचार पुषे ।। २८ ।। सोमशर्माने कहा कि, है राजन्! = ॥
। . आपके इवयुरके घरमे सब कुशल हें । भौर आपकी पत्नौ चन्द्रभागामभी आनंदमं हं ओर नगरमेभौ सब तरहसे = `
। कक्षल है \। २९ हे राजन् ! आप अपना समाच्रार कहिए मृ बडा आ्चयं है कि, एेसी विचित्र ओर सुंदर ` `
` नगरी कहीं ॥
` ज्ञोभनने उत्तर दिया कि, हे द्विजेन ! का्तिक ष्णपक्षको रमा नामको एकादसीके उपवाससे मेने यह `
विनाह्ञी पुर प्राप्त कियाहै | ओर जिससे स्थिर पुण्यका भोग भिले वेसा यत्न करो ८ ३१-रेराद्विजे-
न्ने कहा कि, महाराज 1 ध्रुव ओर अध्रुव किस प्रकार होता है ? इसका भाष वर्णन करो । मे उसी तरह `
करगा इसमे कठ न होगा ।\ ३३ 1। कोभनने कहा कि, मेने यहं त्रत विना धद्धाके किया जिससे अध्रुव फल `
किसीने भी नहीं देखी है ।! ३० 11 हे नृपते ! आप इसको कहिये कि, यह् सब कहा से
मिला है ।। अब जिस कर्मत ध्रुव फलकी प्राप्ति होती है उसको सुनो ॥\ ३४ ॥। मुचुकुन्द राजाकी चन्द्रभागा ` ६
ब्राह्मणे यह सबं हाल उस चन्द्रभागाको कहं दिया विस्मयते आवें
दिया । उसने बड़ विः
॥ हे ब्राह्मण ! आप सब ये प्रत्यक्ष को ४६ बात कहते ह या र 1
(६९०) ५ ६५. -[ एकादक्ली- |
साथ चल दिया \ वहु उसको मन्दराचलके निकट वामदेवे स्थान पर ले गया ।\ ४१।। वामदेव ऋषिने 1
उन दोनोका हार सुनकर उज्वल चन्द्रभागाका अपने पवित्र बेदमन्तोके अभिमन्त्रित जलसे अभिषेक किया
॥*४२।। ऋषिके सन्त्र प्रभावसे ओर एकादशीके उपवाससे वह दिव्यदेह धारण कर दिव्यगतिको प्रप्त हुई `
11 ४३ । बहु हर्षसे नेको खिलाती हयौ अपने पतिके पास गयी ओर शोभनभौ अपनी प्रेयसी कन्ताको
देखकर बहुत प्रसन्न हुआ ।! ४४ ।। उसने अपने निकट बुलाकर वाईगोदमें बिठाया चन्द्रभागाने तब हृषके `
मारे थह प्रियवचन उसको कहे ।। ४५ ।। कि, है कान्त ! मेरे वचन सुनिए जो पुण्य मेरेमं है जब मंपितके `
घरमे आठ व्षसे अधिक बडी हुई 11 ४६ ।। तबसे जो मेने पुण्य किया है ओर जो मेने एकाद्शीके ब्रतविधि-
पवेक श्रद्धाल् चित्तसे किये हे \\ ४७ ।। उस श्रद्धा, भक्ति ओर पुण्यके प्रभावसे आपका यहं नगर जौर उसकौ
सब प्रकारक समृद्धि प्रख्यपर्यत स्थिर रहेगी।।४८।।हे राजशार्दल ! इस प्रकार वह् अपने पतिके साथ दिव्य- = `
रूप दिव्य भोग ओर दिव्य आभरणादि सामानसे नित्य रमण करने लगी \\ ४९ \। शोभनभौ रमकेब्रतके
प्रभावसे दिव्यरूप धारण करके मन्दराचलके क्िखरपर चन्द्रभागाके साथ आनन्द करता रहा ।1 ५० ॥ है ¦ `
नृपते ! चिन्तामणि ओर कामधेनुके समान यह रमानामकी एकादही है । इसका वणन तुम्हारे सामने मेने
कर दिया है ।। ५१।। है राजन् ! एसे व्रतको जो उत्तम लोग करते हँ उनके ब्रह्महत्यादिक महापापभी नष्ट =
हो जाते हें ।। ५२ ।1 यह भी ब्रह्मवेवतं पुराणका कहा हज कार्तिक कृष्णा रमा नासकी एकाक्शीका माहात्म्य
सम्पूणं हमा \'
स अथ कातिकशुक्लेकादरीकथा
# सुबुद्धीनां भ्यणुष्व मुनिसत्तम \1 १।। तावद्गजंति विप्रन्र गङ्धा भागीरथी क्षितौ ।।
यावन्नायाति पापघ्नी कार्तिके हरिबोधिनी ।! २।। तावद्गर्जन्ति तीर्थानि ह्या-
समुद्रं सरांसि च ।। यावत्प्रबोधिनी विष्णोस्तिथिर्नायाति कातिकी ।! ३ 1 अदव- `
। ५ मेधसहस्राणि राजसुयरतानि च ।! एकेनेवोपवासेन प्रबोधिन्यां लभेन्नरः ।॥
।} ४ ।। नारद उवाच ।। एकभक्ते च कि पुष्यं कि पुण्यं नक्तभोजने \। उपवासे च `
पुण्यं तन्मे बूहि पितामह ।। ५ । ब्रह्मोवाच ।। एकभक्तेन जन्मोत्थं
4 द्विजनुभेवम् ।\ सप्तजन्मभवं पापमुपवासेन नह्यति ।। ६ ।। यह् लंभं यदप्राप्यं `
त्रैलोक्ये न तु गोचरम् ।1 तदप्यप्राथितं पुत्रं ददाति हरिबोधिनी ।। ७ ॥ मेरमन्द- ध
नक्तेन `
वरतानि] ` हिन्दीटीकासहित (६०१)
25
व श
जनामरन०१५०४१०४०५४०
दुवः ।। १५।। कृत्वा तु पातकं घोरं ब्रह्महत्यादिकं नरः ।। कृत्वा तु जागरं विष्णो-
धातपापो भवेन्मुनं ।! १६ ॥। इषप्राप्यं यत्फलं विप्रेरश्वमेधादिभिमंखेः ॥। प्राप्यते `
` तत्युखेनैव प्रबोधिन्यां तु जागरात् ।\ १७ ।\ आगप्लृत्य सर्वतीर्थेषु दत्वा गाः काञ्चनं
महीम् ।\ न तत्फलमवाप्नोति यत्कृत्वा जागरं हरेः ५ १८।। जातः स एवं सुक्रती
कुलं तेनैव पावितम् ।। कातिके मुनिशार्दूल कृता येन प्रबोधिनी यानि . |
कानि च तीर्थानि त्रैलोक्ये संभवन्ति च ।। तानि तस्य गृहे सम्यग्यः करोति प्रबो ८ |
धिनीम् \\ २० ।। सवंढृत्यं परित्यज्य तुष्टचर्थं चक्रपाणिनः ।! उपोष्येकाद्शीं ||
रम्यां कार्तिके हरिबोधिनीम् ।। २१।। सन्ञानीसचयोगी च स तपस्वीजिते-
नियः ।। विष्णुप्रियतसरा दह्ेषा धमंसारस्य दायिनी ।। २२ ।। सकृदेनामपोष्येव
मक्तिभाक्च भवेन्चरः ।। प्रबोधिनीमपोषित्वा न गभ विहते नरः ।। २३। कर्मणा
मनसा वाचा पापं यत्समुपाजितम् ।। तत्क्षालयति गोविन्दः प्रबोधिन्यां तु जागरात्
।। २४ ।। स्नानं दानं जपो होमः समृद्िश्य जनादनम् ।। नरेयेत् क्रियते वत्स
प्रबोधिन्यां तदक्षयम् ।।२५। व्रतेनानेन देवेशं परितोष्य जनादेनम् ।। विराजय- `
` न्दिज्ः सर्वाः प्रयाति भवनं हरेः ।। २६ ॥ बाल्ये यच्चाजितं वत्स यौवने वार्धके `
तथा ।। श्तजन्मकृतं पापं स्वल्पं वा यदि वा बहु ।। २७ ।। तत्क्षालयति गोविन्दो
ह्यस्यामर्म्याचतो मुने ।। चन्द्रसर्योपरागे च यत्फलं परिकोतितम् ।। तत्सह `
गुणं प्रोक्तं प्रबोधिन्यां तु जागरात् ॥ २८ ।! जन्मप्रभूति यत्पुण्यं नरेणासादितं `
भवेत् ।\ वथा भवति तत्सर्वमङृते कातिकत्रते ।। २९ । अकृत्वा नियमं विष्णोः
कार्तिकं यः क्षिपेन्नरः।। जन्माजितस्य पुण्यस्य फलं नाप्नोति नारद ॥३०।। तस्मा-
त्वया प्रयत्नेन देवदेवो जनादन: ।। उपासनीयो विप्रन सवंकामफलप्रदः ।\ २१
परान्नं वर्जयेचयस्तु कार्तिके विष्णुतत्परः ।। अवर्यं च नरो वत्स चान्द्रायणफलं
| लभेत् ।\ ३२ ।। न तथा तुष्यते यज्ञन दाने्मुनिसत्तम ॥। यथा शास्त्रकथालपैः
॥ । कातिक् मधुसूदनः |: म ३ |} य कुवन्ति १, त कचा विष्णोयं भगण्वन्ति समाहिता ५
1 इलोकाद्धं गेकार्ट इ रलखोकमेकं ए कार्तिके गोरातं फलम्।1 २४।।न्न्रस लगभबुद्धच वा
५१.4८ ५ 4 ४ + | ५५
चीर्णेन येन भगवन्यादशं फलमाप्तयात् ।\ नारदस्य वचः श्रुत्वा ब्रह्मा वचनमब्र- `
वीत् \\ ४० \\ ब्रह्मोवाच 1 ब्राह्मे मुहूतं चोत्थाय दयेकादहयां हिजोत्तम ।। स्नानं
चैव प्रकर्तव्यं दन्तधावनपुवेकम् ।\ ४१।। नद्यां तडागे कूपे वा वाप्यां गेहे तथवच ।\
` नियसा्थें महाभाग इमं मन्त्रमुदीरयेत् ।। ४२ ॥। एकादश्यां निराहारः स्थित्वा- =
ऽहनि परे ह्यहम् ।\ भोक्ष्यामि पुण्डरीकश्च ज्ञरणं मे भवाच्युत ।! ४३ ।! गृहीत्वा-
नेन नियमं देवदेवं च चक्रिणम् ।! संपूज्य भक्त्या तुष्टात्मा ह्य पवासं समाचरेत् `
\ ४४ ॥। रात्रौ जागरणं कुयहिवदेवस्य सच्चिधौ ।। गीतं नृत्यं च वाद्यं च तथा `
कृष्णकथां मुने ।! ४५ ।। बहूपुष्पबहुफलः कपरागुरुकुकुमः ।। हरेः पुजा विधा-
तव्या कार्तिक्यां बोधवासरे ।\ ४६ \! वित्तक्षाष्ठ्यं न कर्तव्यं संप्राप्ते हरिवासरे ।।!
फलेर्नानाविधेडिन्येः प्रबोधिन्यां तु भक्तितः ।। ४७ ।। शङ्कतोयं समादाय ह्यर्धो
` देयो जनार्दने ।। यत्फलं सवंतीरथेषु सर्वदानेषु यत्फलम् ।। ४८ ।। तत्फलं कोटि-
गुणितं दत्तेऽघं बोधवासरे ।\ अगस्त्य कुसुमेदवं पुजयेदयो जनादंनम् ।\ ४९ ।। देवे-
` न्द्रोऽपि तदग्रे च करोति करसंपुटम् ।\ न तत्करोति विप्रन तपसा तोषितो हरिः
॥ ५० ।! यत् करोति हृषीकेशो मुनिपुष्येरलङ्कृतः ।। बिल्वपत्रैश्च ये कृष्णं
चिवदंन ।। ५१ ।। पूजयन्ति महाभवत्या मुवितस्तेषां मयोदिता ।
तुलसीदलपुष्पेये पुजयन्ति जनार्दनम् ।। ५२ ।। कातिके स दहेत्तेषां पापं जन्मा-
दवम् ।\ दृष्टा स्पृष्टाथवः। ध्याता कोतिता नमिता स्तुता ।! ५३ ।। रोपिता
सेचिता नित्यं पुजिता तुलसी शुभा ।\ नवधा सेचिता भक्त्या कार्तिके येिनिदिने
॥ ५४ ।\ युगकोटिसहस्राणि ते वसन्ति हरेगृहे ॥। रोपिता तुलसी येस्तु वद्धेते `
वसुधातले । ५५ ।। कुले तेषां तु ये जाता ये भविष्यन्ति ये गताः।! आकल्पयुग- `
साहस्रं तेषां वासो हरेगृहे ।\ ५६ ।। कदम्बकुयुमेर्देवं येऽर्चयन्ति जनार्दनम् ।। `
तेषां यमाल्यो नेव प्रसादाच्चक्रपाणिनः ।\५७।। दृष्ट्वा कदम्बकुसु मं प्रीतो
भवति केशवः ।। कि पुनः पूजितो विप्र सवेकामप्रदो हरिः ।! ५८ । यःपुनः पाटला- `
पुष्पः कातिके गरुडध्वजम् ।\ अचंयेत्परया भक्त्या मुक्तिभागी भवेद्धिसः ।\ ५९ ।। `
` बकुलाशोककुसुमेयेऽचेयन्ति जगत्पतिम् । विद्मोकास्ते भविष्यन्ति यावच्चन््र-
दिवाकरौ । ६० ॥ येऽ्चंयन्ति जगन्नाथं करवीरैः सितासितैः ।। तेषां सदा तु `
विप्र प्रीतो भवति कंशवः ।। ६१ ।। मञ्जरीं सहकारस्य केशवोपरि ये नराः \\
यच्छन्ति ते महाभागा गोकोटिफलभागिनः ।! ६२ ॥। दूरवीकुरेहरेयेस्तु पूजाकाले
प्रयच्छति ।! पूजाफलं शतगुणं णं स सम्यगाप्नोति मानवः ।। ६३ ।! शमीपत्रेस्तु ये देवं
वरतानि 1 हिन्दीटीकासहित (६०३)
५ ६५ ।\ सुब्णकेतकोपुष्पं यो ददाति जनादेने ।\ कोटिजन्माजितं पापं दहते `
गरुडध्वजः ।\ ६६ ।। कुकुमारुणवर्णां च गन्धाढ्यं शतपच्रिकाम् ।! यो ददाति ` |
` जगन्नाथे इवेतदरीपालये वसेत् ।\ ६७ ।\ एवं संपुज्य रात्रौ च केशवं भुक्तिमुक्तिदम् |
प्रातरुत्थाय च ब्रह्मन् गत्वा तु सजलं नदीम् ।\ ६८ ।। तन्र स्नात्वा जपित्वा च `
करत्वा पौर्वाह्हिकौः क्रियाः \। गृहुं गत्वा च संपूज्यः केशवो विधिवन्नरः । ६९
व्रतस्य पूरणार्थाय ब्राह्यणान्भोजयेत्युधीः ।। क्षमापयेत्युवचसा भक्तियुक्तेन चेतसा `
॥\७०।। गुरपूजा ततः कार्या भोजनाच्छादनादिभिः ।। दक्षिणा गैश्च दातव्या - ।
वुष्टयथं चक्रपाणिनः ।\ ७१ ।! भूयसी चेव दातव्या ज्नाह्यणेभ्यः प्रयत्नतः 1 ¦
नियमञ्चेव सन्त्याज्यो ब्राह्मणाग्रे प्रयत्नतः \। ७२ ।। कथयित्वा दविजभ्यस्तु द्या. `
च्छक्त्या च दक्षिणास् ।\ नक्तभोजी नरो राजन् ब्राह्मणान् भोजयेच्छभान् ।।७३
अयाचिते बलोवदं सहिरण्यं प्रदापयेत् ।) अमांसाक्षी नरो यस्तु प्रददेद्गां सदक्षि- `
णाम् । ७४ ।। धात्रीस्नायी नरो ददयाहुधि माक्षिकमेव च ।। फलानां नियमे
राजन् फलदानं समाचरेत् ।\ ७५ ।। तेलस्थाने घृतं देयं व॒तस्थाने पयः स्मतम् ।!
धान्यानां नियमे राजन् दीयन्ते शाकितण्डुलाः ।॥ ७६ ।॥। दादू शयने शय्यां `
सतृलां सपरिच्छदाम् ।\ पत्रभोजी नरो दद्याद्धूाजनं घतसंय॒तम् ।।! ७७।। मौने
घण्टां तिलांश्चेव सहिरण्यं प्रदापयेत् ।। धारणे तु स्वकेञ्चानामादक्लं दापयेद्बधः
॥ ७८ ।! उपानह प्रदातव्यावुपानत्परिवजनात् ।। लवणस्य च सन्त्यागे शकरां च॒
1 प्रदापयेत् \\ ७९ ।! नित्यं दीपप्रदो यस्तु विष्णोर्वा विबुधालय ।! सदीपं रत :
ताम काञ्चनं वा वश्ायुतम् । ८० ` ।! प्रदद्याद्विष्णुभक्ताय व्रतसंपू्िहेतवे ।॥ `
एकान्तरोपवासे तु कुम्भानष्टौ प्रदापयेत् ।। ८१ ॥\ .सवस्त्रान्काञ्चनोपेतान् तान् ५
सर्वान् सालकृताञ्छुभान् ।\ यथोक्तकरणे
करणे शकितिर्यदि न स्यात्तदा मने । ८२
द्विजवाक्यं स्मृतं राजन् संपरणबरतसिद्धिदम् ।। नत्वा विसजयेद्परास्ततो भुञ्जीत च | |
स्वयम् \। ८३ ।। यत्त्यक्तं चतुरो माघ्तान् समाप्ति तस्य चाचरेत् । एवं य आचरे- `
त्पा्थं सोऽनन्तफमाप्नुयात् ।। ८४ ।\ अवसाने तु राजेन्द्र वासुदेवपुरं ब्रजेत् ।॥ `
चञ्चाविघ्तं समाप्यैवं चातर्माच्यवतं नप ।। ८५ ।। स भवेत्कतन्रत्यस्त न पनर्मानिषो `
तव तक ही गजेना करते हुं जब तक कि, कातिकमासकी पापनाशकं विष्णुतियि प्रबोधिनी नहीं जती ।
श्रबोधिनीके एकही उपवाससे उत्तम साधक को सहस्रो अद्वमेधका ओर संकडों राजसुययज्ञका फल प्राप्त =
` होता है।\३।१४।।नारदजी बोरे कि, एकमक्तमं क्या एवं नक्त भोजनमे क्या पुण्य है तथा उपवासमे क्यापुण्य `
है ?हे पितामह ! यह् मृक्ने समन्नाकर कहिए ।\५॥। ब्रह्याजी बोले कि, एक भक्तसे एकं जन्मका एवम् नक्तसे `
दो जन्मका तथा उपवाससे सात जन्मका पाप नष्ट होता हे ।। ६ ।। यह हरिबोधिनी एकादसौ एसे पुत्रको
देतो है, जो दुलभ हो, जो किसी तरह भी न मिल स्के, जो कि, तीनों लोकों गोचर नहो । ७ ॥मेरुजौर |
भंदराचलके बराबर भी जो उग्र पाप हो वे सब एकही उपवाससे दण्ध हो जाते हं 1 ८ \ पिर सहलो जन्मोसे
दष्कमे इकट्ठे किए है, प्रबोधिनीका जागरण तुखुराक्षिकी तरह जला देता है ।\ ९ ॥ जो स्वभाव्से ही प्रबो- `
` धिनीका विधिपूरवेक उपवास करता है । हे मुनिशार्दूल ! उसे यथोक्त फल भिलता है ।\ १० ।\ जो मनुष्य `
थोडा भी सुकृतविधिके साथ करता है, हे मुनिभेष्ठ ! उसको वह् मेरुके बराबरहो जाताहै ।\ १११जो
मनुष्य विधिके साथ मेरके बराबर भी पुण्य करता है, हे नारद ! उस धर्मका बह अणुमात्र भी फल नहीं
पाता । १२॥।। जो मनृष्य मनोव्तिद्रारा प्रबोधिनौके ब्रत करनेको शोचते हँ, उनके पहिके सौ जन्मकेकिए, |
` पापनष्ट हो जाते हं \\ १३ ॥। प्रबोधिनौकी रातको जो मनुष्य जागरण करता है, बह भूत भविष्य ओर वतं-
भान दशा हजार कुलोको शीघ्रही विष्णुलोकको के जाता है ।। १४ ।। पहिले किए हृए कमेसि प्राप्त हुए नार- `
` .. कीय दुःखोसे मुक्त हुए एवं भूषणादिकोसे सजं हुए पितरलोग प्रसघ्चतके साथ विष्णुलोकमं चले जते ह
1 १५.) मनुष्य ब्रह्महत्या आदिके घोर पातकोको भौ करके हरिवासरमं जागरण करकेहि मुने ! सबपापो-
५ भगवानृकी कृषासे घो डालते हे ।\ १६ ।\ जिस फएलको ब्राह्मण अदवमेध आदि यज्ञोसे भी प्रप्त नहीं `
कते वह् प्रबोधिनी एकादक्षीके दिन जागरण मात्रसे सुखपुरवक पा लिया जाता है ।\ १७ ॥ सब तीर्थो
स्नान ओर अनेकों गऊ5 तथा कांचन ओर सही का दान करनेसे फल नहीं भिल सकता जो करि; इस हरि-
दिवसमें जागरण करनेसे मिलता है }\ १८ ।। जिसने कार्तिक मासमे प्रबोधिनी एकादशीके दिन उपवास
हे मुनिशार्दूल ! वही एक इस धरातलपर पुण्यात्मा उत्पन्न हुमा है, ओर उसनेही अपना कुल पवित्र
५ केया है \ जो मनुष्य विधिवत् प्रबोधिनी एकादस्ीका ब्रत करता है । उसके घरमे ध्रिलोकीभरके सब तीर्थं `
आकर निवासं किया करते है ।\ १९ ।। । २० ।। सब मनुष्योका कत्तव्य है कि वे सब कत्तव्य कम्मेका परि- ५
` . त्याग करके चक्रपाणि भगवान्की प्रसन्नताके लिए कातिकमें हरिप्रबोधिनौके दिन उपवास करे, वही एक
. ज्ञानी योगौ, तपस्वी ओर नितेन्दिय है, जिसने दिष्णु भगवानकी परम प्रिया, धम्मं के सार देनेवाली प्रबो- `
धिनी एकादशीका ब्रत किया है । जो मनुष्य जन्मभरमें एकबारभौ प्रबोधिनी एकादशीके दिन उपवास करता `
` हैः बह सोक्षभाक् होता है, वह फिर कभीभी गर्भवासका क्लेशभाक् नहीं होता है ।। २१ ।।२३।प्रबोधिनी `
एकादशीके दिन जागरण करनेसे गोविद भगवान् मनुष्यकरे कायिक, मानसिक ओर वाचनिक समस्त पापो- `
ति | ॥\ २४ ।\ हे चत्सं ! जो मनुष्य भगवान् पुरुषोत्तम देवदेवकती पोतिका उदवेश लेकर प्रबोधिनौ
गदशीके दिन स्नान, दान, जप मौर होम करते है" बह उनका किया हभ सुकृत अक्षय होता है ।\ २५।॥ `
प १ प किया हो हे मुने ! उन सब पापोकं प्त तो
गोविन्दान् अपने कि ॥ नकके पूजनसे संतुष्ट होकर दुर करते हँ । चन्द्र या सुयंग्रहणके प ह णके के समय काशो कुरशषेत्रा
दितीर्थोमि दानादि करनेसे जो पुण्यफलकौ प्राप्ति होती है, उससे सहस्रगणी प्रबोधिनी एः ध एतावती (दत अप
रसे फल प्राप्ति है ॥। २७।। ।२८। ओर एक वारभौ जिसने परवोधिनी एकादक्गीके दिन उपवास न
अवदय करनाचाहिए् । अर्थात् मगवान्के पुजन कर ं
` म +4 ४.१ ~ ‰ | र १९? ` .& 1 1 1144 1.1 | । ५५०५५ | 4
` करी सेवामें तत्पर रहता हुभा जो नर का्तिकमासमे परात्नभक्षण नहीं करता है, उसो चारायण वरत करनेका = `
फल जवर्य प्राप्त हौ जाता है ।। ३२ ।\ है मुनिसत्तम ! कातिकमासमे भगवान् सधृभुदनदेवी कथायोक्े `
` श्रवण कीतनादिसे जेसी प्रसन्नता होती है, वसी प्रस्ता न यज्ञोसे ओर न दानोसे ही होती है ।\ ३२३ । जो
विद्वान् कातिकमासमं विष्णु भगवान्कौ कथाका कौतंन करते ह मौर जो श्रद्धा भवत समाहित होकर उस
कथाका आधा श्लोकं या एक इलोक भी सुनते हँ उनको सौ गोदानका फल प्राप्त होता है \। ३४ 11 ओर हि
मुनिशादुरू ! जो मनुष्य कतिक मासमे अपने स्वर्गादि सुखोके लिए या धनादिकों के लोभके वमे पडकर
भी भगवान्कौ कथाका श्रवण कौतेन करता है, वहु अपने हात कुलखोका उद्धार करता है ।\ ३५ ६ जो नर
` नियमपुवेक एवं कात्तिकमासमें विरोषरूपसे भगवत्कथाका श्रवण करता है वह सहर गोदानका फलभागी `
होता है ।\ ३६ \! प्रबोधिनी एकादश्लौके दिन जो मनुष्य भगवान् कौ कथा करता है, हे मुने ! वह सप्तदरीपा ` ह
अर्थात् समस्त पुथिवीके दान करनेके फलको प्राप्त होता है \। ३७ ।1 हे मुनिशार्दूल ! जो मनुष्य मगवान्की |
कथाका श्रवण करके अपनी श्चवितिके अनुसार कथा कहनेवाले कथावेत्ता विद्वानृका पूजन कंरते हं, उनको
अक्षय वेकुण्ठलोक-प्राप्त होते हू ।\ ३८ ।। एसे जब भगवान् ब्रह्माजीने कह, तब ब्रह्याजीके इन वचनोको
श सुनकर नारदमुनि फिर बोले कि, हे स्वामिन् ! हे सुरोत्तम ! एकादज्ञीके दिन जिस प्रकारके ब्रत करनेसे ५
जैसाफल मिलता है, उस विधिका आप कथन करो । नारद मुनिने जब एेसी प्राथना कौ, उसे सुनकर ब्रह्माजीने
. उत्तर दिया । २३९ 11 ४० ॥ है द्विजोत्तम ! एकादश्ीके दिन ब्राह्ममुहतमे शय्यासे उठकर मलमूत्रादि
क्रिया करे, फिर दन्तधावन करके नदी, तला, कूप, वापी या इनमें पूवं पूर्वके अभावमें उत्तर उत्तरम एव्
सबके अभावमे अपने घर पर ही शुद्ध जलसे स्नानकरे, ब्रतकरनेकानियम पालन करनेके छिए ˆ एकादश्यां |
इस वक्ष्यमाण मन्त्रका उच्चारण करे ।। ४१।। ४२ ।। इसका यह अथं है कि, हे पुण्डरीकाक्ष ! है अच्युत | .
ध भें आज एकादस्लीके दिन निराहार रंगा ओर दूसरे दिन भोजन करूंगा । अतः इस मेरे नियमको आप निभावे। _ 1
क्योकि, मे जापको शरण हूं ।। ४३ \। इस प्रकार .नियम (सडकल्प) करके देवदेव चक्रपःणि भगवान्का ` |
भक्तिसे पजन करे, फिर चित्तको प्रसन्न रखाता हुमा उपवास करे ।। ४४ ॥ है मुने ! भगवान् कै स्थानम
| ` रा्रिभर जागरण करे । गान, नाच, वादय तथा भगवत्कथाका कतेन करे ।! ४५ । कातिकमे प्रबोधिनी . ^
एकादज्ञीके दिन भगवान्का पुजन, बहुतसे पुष्प फल, कपुर, अगर तथा केसर, चन्दन आदिसे करना चाहिये।। `
किन्तु प्रबोधिनीके दिन भगवान् का पुजन जब करे, उस समयमे धन रहते हृए पणता न करे, अपने वभवा = `
१ ` नूसार सामग्री मंगवाकर हरिका पूजन करे \ इस परम पवित्रं दिनम भगवान् के नानाव्रिध दिव्य फलोका `
( भोग भक्तिभावसे ऊगाना चाहिये ।! ४६ \} ।\४७ ।। जब पूजन करे, तब शंखमं जल भरके भगवान् जनार्दनको . `
अर्धदान करे \ समस्त तीरथोकि सेवनसे जो पुण्यफल उपाजित किया हो, तथा जो जो दान करके फल लभ
` किया है \। ४८ ।1 बहु सब पुष्य प्रबोधिनी एकादक्ीके दिन अधंदान करने से कोटि
` जो मनुष्य अगस्त्यके पुष्पोसे जनादन भगवान् का पूजन करे ।\ ४९ ।\ उसके सम्मुखमे क देवराजभी `
अञ्जलि बांधकर प्रणाम करता है, अर्थात् अपना दासभाव स्वौकार करता है, अगस्त्य पुष्योसे पूजन करने
है, है विपे ! उस उपकारको तपञ्चयसि प्रसन्न किये हृए भौ नहीं र
गुणा अधिकहोजाताहै।! `
१. (1. ` ^, | ` भारत | | 2
. , चप न व १ थः म 2 तै ( ५. | ना 1
पाणा न +~ ~
स्थानम जाकर रहना, चक्रपाणि जनादनकी प्रसन्नतासे नहीं होता है ।\ ५७ ।। कदम्बपुष्पको देखकर भौ `
केडावदेव प्रसन्न होते है । फिर कदम्बके पुष्पोसे पजनपर प्रसघ्हुए हरि सब अभिरषिताथं पूणं करे, इसमे
` सन्देह करना ही व्यर्थं है \\५८।। मनुष्य पाटलके पुष्पो काततिकमे गरडध्वजदेवकी परमभक्तिसे पूजा करता `
है, बहु मुक्तिभागी होता है ही ।। ५९ ।\ जो नर मौलसरी एवम् अश्लोकके पुष्पोसे जगदीहवरका पूजन करते
है, बे चन्द्र सुय जबतकं प्रकारा करेगे, तवतक शोकभागी नहीं होते हँ ।\ ६० ॥\ हे विग्र ! जो मनुष्य सुफेद `
था काले करवीरके पुष्पोसे जगन्नाथभगवानृकौ आराधना करते हः उनके ऊपर केडावं सदेव सन्तुष्ट रहते ` `
है ।\ ६१।) जो नर सुगन्धिवाल मामकी सञ्जरीको भगवान्के उपर चटाते ह, बे परमभष्यल्ाखी हें ओर
कोटिगोदानके फरूभागी होते हैँ 1 ६२ । जो मनृष्य पुज समय नारायणके ऊपर कोमल दूवकि अंकुर `
सर्मापित करता है" बह मन्ष्य पुजन करनेके शतगुणित फलका ठीकठीक भागी होता है ।। ६द।1 है नारद!
जो मनुष्य शमीपत्रोसे आनन्दकारौ भगवान्का पजन करते हँ, उन्होने अत्यन्त भयडकर भौ यमराजकी
` धुरीके जानेवाले रस्तेके भयते छकरा पालिया \\ ६४ ।। ओर जो नित्य वर्षाकाले देवाधिदेवका चस्पाके
पुष्पोसे पूजन करते हे. वे बारबार जन्मनेके जालमे फिर कभीभी नहीं पडते हँ ।। ६५ ॥ जो मनुष्य जनादेन `
भगवान् के ऊपर सुवणके समान उज्वर केतकीके पुष्पौका सम्पण करता है, उसके कोटि जन्मोमे भौ कयि
पापोको गर्डध्वज देव दग्ध कर देते हैँ ।! ६९६ ।1 केसरके समान अरुण (लाल) आकारवाली सुगन्धित श्त ``
पत्निका (कमलिनी) को जगन्नाथजी पर सम्पण करता है, वह इवेतद्वीपवाले भगवान्के दिव्यधाममे निवास `
करता है \\६७ ।। एसे प्रबोधिनौ एकादज्ीके दिनरातमें भोग (संसारिक सुखसम्पत्ति) ओर मुक्ति (पार-
भमा्थिक सुखयम्पतति } के देनेवाले केडावका पूजन करते हे, हे ब्रह्मन् ! दूसरे दिन प्रातःकाख उठकर जल्पुणं `
नदीके तटपर पहुंचकर \! ६८ ।। जो उसके जलम स्नान करते हे, फिर स्नानोत्तर गायत्नीका जय करके `
पूर्वाह्लेचित इसरे तर्पणादि कम्मोको करते है, पे उनको अपने घरपर जाकर शास्त्रकी विधिके अनुसार `
भगवान् नारायणका पजन करना चाहिये ।। ६९।। किये ब्रतकौ साङ्कतया पु्णताके लिये विद्रानका कते्य
\ है कि, वह फिर ब्राह्मणोको भोजन करावे । सुमधुर वचनो एवं भक्ति पुर्णचित्तसे उन् ब्राह्यणोसे अपने पापोकी
. निवृत्तिके लिये क्षमा प्राथेना करे 1७० ।। पौ भोजन कराकर तथा वस्त्र भूषणादिकं से सुसज्जित करके
` आचार्यका पूजन कंरे, चक्रपाणि भगवान्की प्रसन्नताके लिये दक्षिणा ओर गौका प्रदान करे 1७१} फिर `
. अभ्यागत एवं दुसरे दुसरे उस समयके उपस्थित ब्राह्यणोको भूयसी दक्षिणा अवदयहौ अपनी शक्तिके अनुरूप
दे) फिर त्रत करनेकाजो नियम धारण किया था, उस नियमकाब्राह्यणोके सम्मुख बैठकर विसजेन करे
` ५७२) एवं कहे कि, मेने जो ब्रत करनेका नियम किया था वहु अबतक निभाया, अब भै उसका विसर्जन ` ¦
, । | करना चाहता हु फिर शक्तिके अनृरूप ब्राह्यणोके लिये दक्षिणा ३ ! हे राजन् ! नक्त भोजीको चाहिये कि, `
9 व्रतानि ॥ि ^. 1ट^्वबदारकासाहूत (६०७)
इस प्रकारका त्रती व्रतके अन्तमं आठ कुंभं का दान करे ॥ ८१ ॥। ओर उनके साय वस्र सुवणं ओर अलंकार `
भौ देवे । है सूने ! यदि यथोक्त दानदि करनेकी शक्ति न हो तो वह व्रतकी साद्खतया यत्कि लि \॥८२।॥ |
ज्र ह्यणसे कहावे, अर्थात् ^ तुम्हारा व्रत पुणं हो गया एसे वचन ब्राह्मणसे बुलावे । क्योकि, एसे समयमे `
` ब्राह्मणके वचन ही (आशौर्वाद ही ) सिद्धि करनेवाले होते हे । फिर ब्राह्मणको प्रणाम करे, उन्हे विरसजत ` |
करके भाप भोजन करे ।\ ८३ ।। जिसने आषा शुक्ला देवहययनी एकादशीसे कार्तिक शुक्ला एकाददीतक |
वर्बातके चारमहीने पन्त बस्तु जो छोडी हो, उसकी समाप्ति इस प्रबोधिनीके ही दिन करे । हे पार्थ ! जो
` , . मन्ष्य पूर्वोक्त रौतिसे ब्रताचरण करता है उसको अनन्त फल मिलता है ।। ८ ४ ।। शरीर परित्याग करने- `
पर वैकुण्ठ लोक चला जाता ह । है राजन् जिसने चार मास पर्यन्त निविध्न त्रत निभाया है । 11 ८५ ।। वह् |
कृतच्रत्य हौ गया, उसे फिर किसी यज्ञादि करनेकौ आक्यकता नहीं ।वह फिर मनुष्य योनिमं नही आता ||
हैः किन्तु स्वगमं ही देवता होकर आनन्द भोगता है । ह महीपाल ! जो हमने विधि कही है उसके अनृसार ||
ब्रत करनेसे ब्रत परिपुणं हो जाता है ।\ ८६ ।। त्रतानुष्ठानकी विधिम विकलता करनेसे अन्धाओरकोढी |
। ` होता है \ ह राजन् ! जो तुमने यहाँ व्रतको विधि पुछी थौ, वह सब विधि मेने वुम्हं कहदौ इस विधिकेभौ
। पठन जौर भरवणसे गौके देने का फल प्राप्त होता है ।। ८७ \\ यह् श्रीस्कन्दपुराण का कहा हमा कातिकं शुक्ला ५५
एकादशीके व्रतका माहात्म्य समाप्त हुमा ।॥ `
| | अथाधिकक्लुक्लकादश्लीकथा 1
युधिष्ठिर उवाच ।। मल्ि्ट्चस्य मासस्य का वा एकाद भवेत् ॥ कि `
नाम को चिधिस्तस्याः कथयस्व जनादन ।। १ ।। श्रीकृष्ण उवाच ।\ मलमासस्य _
या पुष्या प्रोक्ता नाम्ना च पद्विनी \! सोपोषिता प्रयत्नेन पदयनाभपुरं नयेत् ॥२। `
. मलमासे महापुण्या कीतिता कल्मषापहा ।। तस्याः फलं कथयितुं न शक्तरचतुरा-
ननः ।॥ ३ ।। नारदाय पुरा प्रोक्तं विधिना व्रतमृत्तमम् \! पदिन्याः पापरारिध्नं ` |
भुक्तिमुक्तिफलप्रदम् ।।! ४ ।। श्रुत्वा वाक्यं मुरारेस्तु प्रोवाचातिमुदान्वितः ।\
। युधिष्ठिरो जगन्नाथं विधि पप्रच्छ धमवित् । ५ ।। श्रुत्वा राज्ञस्तु वचनमुवाच ॥ |
म
मधुसुदनः ।। श्युणु 'राजन्म्रवक्ष्यामि मुनीनामप्यगोचरम् ।! ६ ।। दजमीदिवसे प्राप्ते `
। व्रतारम्भो विधीयते ।\ कास्यं मासं मसुराश्च चणकान्कोद्रवांस्तथा ।। ७ । शाकं `
। मधु परान्नं च दशम्यामष्ट वजंयेत् ।। हविष्यान्नं च भुञ्जीत अक्षारलवणं तथा ।।
। ॥<८1! भ॒मिश्ञायी बरह्मचारी भवेच्च दहामीदिने ।। एकादगीदिनेप्राप्ते प्रातर्त्थाय
सादरम् ।। ९ ।। विधाय चमलोत्सगं न कुर्यादिन्तधावनम् 1।
कृत्वा द्वादह्गण्डषा-
दये शुभे तीथं स्नानाय प्रब्रजेत्सुघीः ।॥
। न क, # 4 ~` ०.५१. र ` {` 9 ११444
|
॥1 १५ ॥ देवदेव जगन्नाथ जङखचक्रगदाधर ।। देहि विष्णो ममानुज्ञां तव तीर्थाव- `
गाहने ।। १६ ।\ वारुणांश्च जपेन्मन्त्रान् स्नानं कुर्याद्विधानतः । गङ्धादितीर्थं
संस्मृत्य यत्र कुत्र जलाशयं \\ १७ \\ पडचात्संमाजेयेदगाचरं विधिना नृपसत्तम ।॥ `
परिधायाहतं वायः शुक्लं शुचि ह्यखण्डितम् ।। १८ ।। सन्ध्यामुपास्य विधिना
तपयित्वा पितन्सुरान् ।। हरेमन्दिरमागम्य पुजयेत्कमलापतिम् ।। १९ ।। स्व्णेमा- |
षञ्रतं देवं राधिकासहितं हरिम् ।। पार्वत्या सहितं शम्भुं परूजयेष्टिधिपूवेकम् ।॥
॥ २० ।\ धान्योपरि न्यसेत्कुम्भं ताम्र मृन्मयभेव वा ।\ दिव्यवस्त्रसमायुक्तं
दिव्यगन्धानुवासितम् ।२१।। तस्योपरि न्यसेत् पात्रं ताम्र रौप्यं हिरण्यमयम् ।॥ (`
तस्मिन्संस्थापयेहेवं विधिना पुजयेत्ततः ।\ २२ ॥\ संस्नाप्य सलिलैः श्रेष्टेगेन्धधूपा-
धिवासितेः \। चन्दनागुरुकर्ूरेः पजयेहेवमीदवरम् \। २३ ।। नानाकुसुमकस्तूरी- `
कुडकुमेन सिताम्बुजेः \। तत्कालजातेः कुसुमः पूजयेत्परमेहवरम् \\ २४ ।। नवेचये-
| विविधैः शक्त्या तथा नीराजनादिभिः ।। धूपेदीपेः कपृरेः परजयेत्केशवं शिवम्
` ॥ २५ ।\ नृत्यं गीतं तदग्रे तु करर्याद्धूष्तिपुरःसरम् ।। 'नालपेत्पतितान्पापांस्तस्मिन्न-
हनि न स्पु्ञेत् । २६ ।। नानृतं हि वदेद्वाक्यं सत्यपूतं वचो वदेत् ।। रजस्वलां न॒
स्पृशेच्च न निन्देदब्राह्मणं गुरुम् ।\ २७ ।) पुराणं पुरतो विष्णोः श्युणुयात्सह
वैष्णवः ।॥ नजला सा प्रकर्तव्या या च शुक्ले मलिम्लृचे ।॥ २८
जलपानेन वा कुर्याद् दुग्घाहारेण नान्यथा ।। रात्रौ जागरणं वुर्याद्गीतवादित्र-
संयतम् ।। २९ ।। प्रहरे प्रहरे पूजा कार्या विष्णोः हिवस्य च ।, प्रथमे प्रहर दद्या- `
च्नारिकलाधंमुत्तमम् ।! ३० ।! द्वितीये भ्रीफलश्चेव तृतीये बीजपुरकंः ।! चतुथं-
` द्ितीये वाजपेयस्य ततीये हयमेघजम् ।! ३२ ।। चतुथे राजसूयस्य जाग्रतो जायते `
फलम् ।। नातः परतरं पुण्यं नातः परतरा मखाः ।। ३३ । नातः परतरा विद्या `
: परतरं तपः ।! पृथिव्यां यानि तीर्थानि कषेत्राण्यायतनानि च ।! ३४ । तेन ¦
दृष्टानि येनाकारि हरेव्॑तम् ।\ एवं जागरणं कुर्याद्यावत्सूर्योदयो भवेत् `
दये शुभे तीथं गत्वा स्नानं समाचरेत् ॥! स्नात्वा चागत्य भवनं
; ब्रतानि।- `: .. . रहिन्दीटीकासटितः. .. : ` ` (६०९).
मम् ।॥ ४० ॥। अत्र तं कथयिष्यामि कथामेकां मनोरमाम | नारदाय पुलस्त्येन
विस्तरेण निवेदिताम् ।। ४१ ।। कातेवीर्येण कारायां निक्षिप्तं वीक्ष्य रावणम् \\ `
विमोचितः पुलस्त्येन याचयित्वा महीपतिम् \\ ४२।। तदाश्चर्यं तदा श्रत्वा नारदो
दिव्यद्शनः ।। पप्रच्छ च यथाभक्त्या पुलस्त्यं मुनिपुद्धवम् ।(४३।। नारद उवाच
दशाननेन विजिताः सवं देवाः सवासवाः ।¦ कातवीर्येण विनिताः कथं रणवि-
` श्ञारदः ।। ४४ ।। नारदस्य वचः शरुत्वा पुलस्त्यो मुनिरब्रवीत् ।। पुलस्त्य उवाच! `
५ भ्वृणु वत्स प्रवक्ष्यामि कातवीयसमुदूवम् ।। ४५ ।। पुरा चरताय॒गं राजन्माहिष्मत्यां 1 |
( ` बृहत्तरः ।। हंहयानां कुलं जातः कृतवीर्यो महीपति : ॥ ४६।। सहं प्रमदास्तस्य `
नृपस्य प्राणवल्लभाः ॥। न तासां तनयं काचिल्लेभे राज्यधुरन्धरम् ।॥ ४७ ॥
यजन् देवान्ितृन्सिद्धान््रतिपूज्य महत्तरान् । कुर्वस्तदुदितं सवं कन्धवांस्तनयं न॒ `
सः\\ ४८ ॥ सुतं विना तवा राज्यं न सुखाय महीपतेः । क्षधितस्य यथाभोगान `
। व । वन्ति युखब्रदाः ।। ४९।। विचायं चित्ते नपतिस्तपस्तप्तं मनो दधे ।। तपसैव 6
सदा सिद्धिर्जायते मनसेप्विता ।! ५० ।। इत्युक्त्वा स हि धर्मात्मा चीरवासा जटा-
धरः ।\ तपस्तप्तुं गतः सद्यो गृहे न्यस्य सुमन्तिणम् ।। ५१ ।। निगेतं नूर्पात वीक्ष्य `
` पद्मिनी प्रमदोत्तमा ।। हरिद्चन््रस्य तनया तपस्तप्तुकृतोद्यमम् ।! ५२! भूषणारि
परित्यज्य चीरमेकं समाश्नयत् ।\ जगाम पतिना सद्धं पर्वते गन्धमादने ।। ५३ ।\ `
` भत्वा तत्र तवस्तप वर्बाणामयुतं नपः ।।! न केभेऽथापि तनय ध्यायन्देवं गदाधरम्
॥ प४ ।\ अस्थिस्नायुमयं कान्तं दृष्ट्वा सा प्रमदोत्तमा ।। अनसूयां महासाध्वी `
पप्रच्छ विनयान्ति ।। ५५ ।। भुः प्रतपतः साध्वि वर्षाणामयुतं गतम् ॥ तथापि
` नप्रस्नोऽभूत्केशवः कष्टनाशनः ।! ५६ ।। व्रतं मम महाभागे कथयस्व यथातथम् `
१ येन प्रसन्नो भगवान्भविष्यति सदा मयि
महत्तरः ।। शरुत्वा तस्यास्तु वचनं पतिव्रतपरायणा ।। ५८ ।। तदा प्रोवाच `
ये ।। ५७।।येन जायेत मे पुत्रश्चक्रव्ती `
चद९९॥ ८. ५ ५ वः । दकदशा.
मम भर्तुं हत्तरम् ।! ६६ ।! पदिन्या स्तद्टचः शरुत्वा प्रत्युवाच जनादेनः । यथा `
मलिम्लुचो मासो नान्यो मे प्रीतिदायकः ।। ६७ ।! तन्मध्यकादक्ली रम्या मम
प्रीतिविवद्धंनी ।। सा त्वयोपोषिता चुभ्ब्. यथोक्तविधिना शुभे ।\ ६८ ।\ तेनत्वया
प्रसन्नोऽहं कृतोऽस्मि सुभगानने ।। तव भत्तुः प्रदास्यामि वरं थन्मनसेप्सितम्
।\ ६९ ।। इत्युक्त्वा नूर्पाति प्राहु विष्णुविहर्वातिनाल्ञनः.\! वरं वरय राजेन्द्र यत्ते `
मनसि कांक्षितम् ।। ७० ।। सन्तोषितोऽहुं प्रियया तव सिद्धिचिकीषेया ॥। श्रुत्वा = `
तद्रचनं विष्णोः प्रसन्नो नपसत्तमः ।\ ७१ ।। वने सुतं महाबाहुं सवंलोकनमस्करैतम्।।
न देवेमनुषेनगि्देत्यदानवराक्षसैः ।। ७२ । जेतुं शक्यो जगच्राथ विना त्वां `
मधुसूदन \। इत्युक्तो भगवान् बाढमित्युक्त्वान्तरधीयत् ।\ ७३ ।। नृपोऽपि सूप्रस- `
च्रात्मा हृष्टः पुष्टः प्रियायुतः ।। समायात् स्वपुरं रम्यं नरनारीसनोरमम् । ७४।॥
स पद्यां सुतं ठेभे कार्तवीर्यं महाबलम् ।\ न तेन सदृशः कच्च्रिषु लोकेषु
मानवः।। ७५ ।। तस्मात्परानितः संख्ये रावणो दश्कन्धरः ।। न तं जेतुं समर्थोऽस्ति
चिषु लोकेषु कल्चन ।\७६।१चिना नारायणं देवं चक्रपाणि गदाधरम् ॥ न त्वया `
विस्मयः कार्यो रावणस्य पराजये ।। ७७ ।। मलिम्लुचप्रसादेन पद्िन्याश्चाप्युपो- `
षणात् \\ दत्तो देवाधिदेवेन कातवीर्य महाबलः ।! ७८ ॥। इत्युक्त्वा प्रययौ च्विप्रः `
`. . भ्रसन्नेन,न्तरात्मना ।} श्रीकृष्ण उवाच \। एतत्ते सर्वसमाख्यातं यत्पृष्टोऽहं त्वयानघ `
` ॥ ७९ \। मलिस्लृचस्य मासस्य शुक्छाया व्रतमुत्तमम् \} ये करिष्यन्ति मनुजास्ते
` यास्यन्ति हरेः पदम् ।! ८० ।! त्वमेवं कुर राजेन्द्र यदि चेष्टमभीप्ससि ।! केशवस्य `
वचः श्रुत्वा धममराजोऽति्हषितः ।\ ८ १।। चक्र व्रतं विधानेन बन्धुभिः परिवारितः।! `
सूत उवाच ।। एतत्ते सवेमाख्यातं यत्पृष्टोऽहं पुरा द्विज ।\ पुण्यं पवित्रं परमं कि `
` भूयः श्रोतुमिच्छसि ।। ८२ ।। एवंविधं येऽपि त्रतं मनुष्या भक्त्या करिष्यन्ति मलि-
` स्लृचस्य 1! उपोष्य शरुक्लामतिसौख्यदात्रीमेकादसशीं तं मुवि धन्यधन्याः ।\ ८३ ॥\ `
। श्रोष्यन्ति ये तस्य विधि समग्रं तेऽप्यदांभाजो मनुजा भवन्ति ।। ये वं पठिष
| भ) {न्त ॑
॥ समग्रां ते वे गमिष्यन्ति हररोनिवासम् ।। ८४ ।। इत्यधिकमासस्य शुक्लकाद- `
हादी आती है क ५ म बरतकी कथाका निरूपण करते है-राजा य॒धि- `
जनादन ! मलमासकतौ एकदस काया नाम है भौर उस तकौ
ते कहा ठि ५ मलमासमे जो (शुक्ला) पदिनी एकादशी `
व क "च
बूत प्रसन्न हुये । उस धरस्॑ र्जाने जगन्नाथ श्रीकृष्णचन्द्र मगवानूसे पद्धिनी एकादशे व्रत करनेको विधि `
पी ।\ ५. १। श्नीकृष्यचद्द्र राजा युधिठिरके वचनको सुनकर बोलते कि, है राजन् ! पदििनौ एकादश्तौङे
` अनुष्ठानकौ विधि मुनियोकोमी मालूम नहीं है पर तुम्हारे व्यि जाज उस गुप्त विधिका कथन कग \\ ६1}
दहामीके दिनही से त्रतारम्भ करना, कास्य पात्रमें भोजनादि, मांसभक्षण, मसूर या चणोकी दालके पर्थ,
कोद्रव (कोद) ।। ७ \! शाक, मधु (सहत, या सदिरापान) ओर दूसरेके धरका अन्न दश्ञमोके दिनमी सेवन `
स करे केवल हूर्विष्य अच्क पदाथं खाय, क्षार तथा लवण का सेवन त करे \। ८ ।) दलामौके दिनभी भूमिर `
क्षयन करे ब्रह्मचय्यं रक्खे अर्थात् स्त्रीसङ्खादिका परित्याग करे, फिर एकादशीके दिन प्रातःकाल प्रसश्नतासे
उठकर ।\ ९ ।। मलत्याग करे. काष्ठ से दन्तधावन न करके केवल बाहर कुल्छे ही करे एसे पवित्र हकर `
[चित्तकी वृत्तिको भगवानूके चरणोमे लगाकर समाहित रखता हभ \।१०।। वह सुधी ( बद्धिमान् ) स्तन `
करनेके लिये सूर्योदयके ससय पवित्र तौर्थके तटपर पधार ।। जानेके समय गोबर, शद्धमत्तिका, तिल, कृश ` ५
॥ ११ ।! जौर आंवलोका चरा केकर जाय ! फिर आंवलोके चरेको ती्थनलमें गेरकर विधिवत स्नानकरे, `
् उस स्तानके पहिले अयने शरीरयर तौथेकौ पवित्र मृत्तिकाका लेप करे, उसका मन्त्र यह है कि, हे मृत्तिके!
श्तभुजावाले श्रीवराहुम्ति कृष्म नारायणने तुम्हारा उद्धार । १२ ॥। ब्रह्माजीने प्रदान एवं कदयपनन्दन
भगवान् वामदेवने अभिमन्त्रण किया है, इसे तुम मुञ्लेभौ भगवत्पुजन करनेका अधिकारी कयो, मे तुम्हरे
लिये प्रणाम करता हूं ।\ १३ ।। फिर गोबरका रेव करे ओर “सर्वोषधि" ईस मन्त्रको पठे । इसका यह् अथं ५
है कि, सब प्रकारकी दिव्य ओषधियोके सेवनसे उत्यत्च हुमा एवम् यौके गर्भे रहा हा ओर पुथ्वीको पवित्र
करनेवाखा यह् गोबर मुषे भी पवित्र करे ।। १४।। फिर आवे गावे भौर ^ ब्रह्मष्ठीवन इस मन््रकौ =
पटे, इसका यह् अथं है कि, बरह्माजीके जीवनसे उत्पन्न होनेवाखे समस्त जगत् के पवित्र करनेवाले अवले = `
अङ्खसे च्गकर मृक्षे निमेल एवं पवित्र करें । मेरा तुम्हारे लिए नमस्कार है ।\१५।। एसे ओंवले ८
लगाकर तीथं जलमें प्रवेदा करनेके लिए भगवानृकी प्रार्थना करे, है-देवोके भी देव ! है जगन्नाथ)
है शक्डत्चक्र एवं गदाके धारण करनेवाले है विष्णो ! जाप मुक्षे अपने तीथं प्रवेश कर स्तननं
1 करनेको आज्ञा प्रदान करो ।\१६।। फिर “हिरण्यश्युद्धः वरुणं प्रपद्ये इत्यादि वरुणके मन्त्रोको
पदकर निधिवत् स्नान करे । ओर है नृपसत्तम ! जो को जिः किसी जलाक्चयमें जव स्नान `
` करना चाहे तब वह प्रथम उस जलहायमं गङ्धादि तीर्थोका स्मरण करे ॥१७।। पीछे हे ४
नृपसत्तम ! विधिवत् अपने श्रीरको सम्माजित करे ! स्नान करनेके पदचात् अहत शुद्ध
सफेद ओर अखण्डित वस्त्रको धारणं करे ।१८।। फिर विधिवत् सन्धमोपासन करे । तदनन्तर
देवि पितृजनोका तेण करे, पीछे मंदिरमें आकर भगवान् लक्ष्मीपतिका पजन करे ॥१९।। `
ओर एक मासेभर राधा ओर धरङरष्णचन्द्रकी तथा पावती ओौर महादेवजोकी प्रतिमा बनवाकर `
: विधिपूर्वकं इनका पुजन करे ।॥२०।। धान्राक्षिपर तास्र या मृत्तिकाके ही कललका स्थापन करके उसके
कष्ठभागको सुन्दर वस्त्रसे परिवेष्ठित केरे । उसमें दिव्य सुगन्धित सर्वाषधि 1
1 । 1 उसके ऊपर तांबे का या चादीका अथवा सुवर्णका पात्र स्थापित करे 1 उसं परात्रके ऊपर राधासहित त श्रीङृष्ण ४ 4
दिको छोडकर ॥२१।॥ = `
[0 सा , [कद्व
` एकादक्षीका त्रत है, बह निर्जल करे ।२८।। यदि तृषाके कारण पान किये विना रहा भ जाय तो जल या `
= इग्धका पान करे, पर ओर किसीभी पदार्थका सेवन न करे । गान वाद्यवादनादि पु्वेक रात्रिम जागरण `
करे ॥॥२९।। एक एक प्रहर बीतनेपर विष्णु ओर शंकरका पूजन करना चाहिये । पिरे प्रहरक यूनां `
` नारियलोका अघंदान करे ।।३०। इूसरे प्रहरक पूजाम श्रीफलोका अधंदान करे तीसरे प्रहरकी पूजामे `
बिजोरोका अघं दे, एवम् चतुथं प्रहुरमें नारंगी या सुपारी विक्ेषरूपसे चढावे \\२१।। पहिले प्रहरमे अग्ि- `
ष्टोम यन्नका, दूसरे प्रहरमे वाजपेय यज्ञका, तृतीय प्रहरे अहवमेध यज्ञका ।३२।) ओर चतुथं प्रहरमे
` जागरण करनेसे राजसुययज्ञका फल मिलता है । इस पदिनी एकादकशीके ब्रतसे बढकर पवित्र न कोई पुण्या- `
` नुष्ठानदहैः न यज्ञ है ३३१) न विद्या (ब्रह्मज्ञान) है, ओर न तपही है । पृथिवीपर जितने तीथ, क्षेत्र एवं `
दिव्य स्थान हँ उन सभी तौथेमिं ।\३४।। उसने स्नान करलिये ओर उन क्षे्नादिकोका दक्षनभी उसमे `
करलिया जिसने विष्णुभगवान्की प्रसन्नता करनेवाले पदिनी एकादसीका व्रत किया है । एसे पद्विनी ध
` एकादशौके दिन रात्रिम प्रहर प्रहरपर राधाकृष्ण तथा गौरीहांकरका पूजन करता हुजा जबतक सूर्योदय `
नहो तबतक जागरण करे ।\३५।। फिर सूर्योदय हीनेषर पवित्र तीर्थके तटपर जाकर उसके जलमं विधि- `
पुरवक स्नान करे, पौ अपने घरपर आकर परमेदवरका पुजन करे ।३६। पूर्वोक्त विधिसे सदाचारी `
` ब्रह्यणोको भोजन करावे, जो कल्ला आदि पुजाकी सामग्री एवं जो सुवर्णादिकों कौ मूति हे ॥।३७।। उसका `
पजन करके ब्राह्यणके तिवये विधिवत्प्रदान करे । जो मनुष्य भूमण्डलमें एसे व्रतका अनुष्ठान करताहे ।\३८। `
उसकाही जन्म सफल है, उसेही मुवित मिरतौ है । हे अनघ ! जो तुमने मलमासम शुक्लपक्षकी एकादज्ञीके `
ब्रतके विधानादि पे थे, वे सब मेने कहदिये ।\३९।। हे नृपनन्दन ! जो प्रेमपूवेक पदिनी एकादशौका पवित्र `
ब्रत करता हैः उसने सब ब्रत कर लिये ।\४०।। दस प्रसद्धमें मे तुम्हारे लिये एक मनोहर कथा कहता हुं,
| पहिले पुलस्त्यजीने नारदमुनिको विस्तृतरूपसे सुनायी थौ ।(४१।। जब कार्तवौरयने रावणको कारागारमे
५ मनि दसं अदु \। वतान्त्को सुनकर लड आदरसे मनिवर पुलस्त्यसे पूछखन ल्ग 1४३} कि दशानन रावणन
इन्द्रादि सहित सभी देवता जीत लिये थे, फिर एसे संग्राम विजयो रावणको कातंवीयने कंसे जीता? ।*४४।। `
नारदमुनिने जब एेसा प्रदन क्रिया तब उस प्रदनको सुनकर पुलस्त्य मुनिने उत्तर दिया कि, है वत्सं ! पिके `
`: तुम कातेवौयं जैसे उत्पन्न हृभा है उस वृत्तान्तको सुनो ।\४५।। पूर्वं त्रतायुगमे माहिष्मती नगरीका अत्यन्त `
`. भ्रातापौ. राजा कृतवौयं, हैहय नामसे प्रसिद्ध क्षत्रिय वंशम उत्पन्न हु ।\४६।। प्राणे समान पियारी
एक हजार युवती रानियां थं पर उनमें किसौभौ रानीके गभेसे एकभी पुत्र उत्यन्न नहीं हुमा था जो राज्यके
। भारको धारण करता ।\४७\। तब वह कृतवीयं राजा देवताओंका यजन, एवं पित्, सिद्ध मौर बडे बडे
महात्मार्ओका विधिवत् पुजन तथा उनकी आज्ञान् सार सब प्रकारके ओर ओर दानादि पुण्यानुष्ठान करता
उसे पुत्रका लाम् न हभ ।*४८।। जैसे भूखे प्राणीको ओर ओौर पदाथं केसेहौ उत्तम हो, पर भोजनके
मनोरम नहीं लगते, एसेही पुत्रके लिये लालायित उस कृतवीयं राजाको पुत्रके मिलते विन!
वर मागनेको कहा । तब प्रसश्च होकर स्तुति कौ
ब्रतानि] दिनदोटीकासहित (६१३)
| दूसरोके कष्टोको दूर करनेवाल दयानिधि नारायण प्रसन्न नहीं हए ।५६॥। इसलिए ह महामे ! आप 1
मेरे लिए किसी उत्तम त्रतका उपदेज्ञ करिये जिसके करनेसे मुद्षपर भगवान् अवर्यही प्रसन्न हौ जाय ।\५७।। `
` मेरे गभसे एेसा पुत्र उत्पन्न हो, जो बडा प्रतापक्ाखी चक्रवर्तौ राजा बने एसे जब पदडिनौ रानीने प्रार्थना की
तब पतिव्रतके पालनमं परायणा अनुसुयाजी ।१५८।। प्रसन्न होकर कमलके समान विशार नेत्रवाली `
पदिनीसे बोलीं कि हे सुभे ! हे सुमुखि ! प्रायः बत्तीस मास बीतनेपर बारह मासोसे अधिक एक मास
आया करता है" उसे मलमास कहते हँ ।\५९।। उस मासमे दौ एकादज्ञी आती हं \ एकका नाम पव्मिनी,
दूसरीका नाम परमा है ।\६०।। उन दोनो एकादशियोमं
५ योमेः अपने नगरवासियोके साथ विधिवत् उपवास `
करो, उससे तुम्हारे उपर नारायण बहुत जल्दी प्रसन्न हो जायेगे ! अभिलषित पुत्रका प्रदान करेगे ।६१। `
, है नुप! फिर मेने जेसी विधि तुम्हारे लिए कही थी, वही कर्दमनम्दिनी अनसुयाजीने उस पञ्िनी रानीसे ` 1
| ध कही ।\६२।। पद्चिनौ रानीने अनसूयाजीकी कही हयौ त्रत विधिको अच्छी तरह सुनकर पुतरप्राप्तिके किए ` ५ 1
ब्रतानृष्ठान किया ।६२।। एकादज्ञौके दिन जल्पान भौर अन्नाहार नहीं किया, रात्रिम जागरण, गन ओर ` |
नत्य किये ।\६४।। एसे जब उसका वहु त्रत पणं हुआ, तब नारायण आप प्रसन्न होकर गर्डपर चठ क्ट ` |
वहां ा पधार ओौर बोरे कि, हे शोभने ! तुम वर मांगो ॥\६५
० मेरे पतिकी जो बडीभारी अभिलाषा है उसे अप पुणं कर ।\६६।। जनादन भगवान् पद्य नीके वर बचरनोक
कियाहै ।\६८।। है सुभगे सुंदरमुखि ! उस बरतने
षुम्हारे पतिके नकौ अभिलाषा है, उसे सें पूणं
भगवान् एसे कहं कर राजा कृतवी्ंसे श ठे कि,
एसा पुत्र दो, जिसकी लम्बौ सुजा हो, सब रोग नि जिसको
८ मापके विना
नान देवता, न मनष्य,न नाग न देत्य
६५ एसे जब प्रसन्न होकर जगषिधाता नारायणने `
फिर उसने प्रसन्नतासे मंदहासके साथ प्राथेनाकौकि,
` (६१४) 4 [ एकादरी- `
` उस महासौस्यदाधिनी एकादशीके बरतप्रभावसे मन्ष्यलोकमें अत्यन्त धन्य धन्य होगे ।\८३।। जो इस ब्रत्कौ `
` संम्पुणे विधिको सुने, बे भी उस त्रतके फलांशको प्राप्त होगे । एवं जो इस सम्पुणं कथाको पदेगे, वे भगवानके ` ।
: पदको प्राग्त होगे ॥\८४।\ यह् अधिक मासकी शुक्ला एकादज्लीके व्रतकी कथाका निरूपण समाप्त हमा ॥ = `
अथाधिकमासकृष्णेकादक्ीकथा
युधिष्ठिर उवाच ।\ मलिस्लुचस्य मासस्य कृष्णा का कथ्यते विभो ॥। कि `
नामं को विधिस्तस्याः कथयस्व जगत्पते ।\ १ ।। श्रीकृष्ण उवाच ।। परमेति
समाख्याता पवित्रा पापहारिका ।\ भुव्तिमुवितघ्रदा नृणां स्त्रीणां चापि युधिष्ठिर `
॥ २ ॥। पूर्वोक्तविधिना कार्या कृष्णापि भुवि मानवः ।। संपुज्य परया भक्त्या `
` नाम्ना देवं नरोत्तम ।। ३ ।। अत्र ते कथयिष्यामि कथामेतां मनोरमाम् ।। काम्पि-
ल्यनगरे जातां मुनीनामग्रतः श्रुताम् ।। ४ ।। आसीदद्विजवरः कचत्सुमेधानाम `
धार्मिकः \। तस्य पत्नी पवित्राख्या पातिव्रत्यपरायणा ।। ५।। कमणा केनचिद्िप्रो `
धनधान्यविर्वाजतः ।। न क्वापि लभते भिक्षां याचन्नपि नरान्बहुन् ॥ ६।। न
क ~
भोज्यं लभते तादृडन वस्रं नैव मण्डनम् \। 'ूपयौवनमाधूर्या नारी श्ुभरूषते पतिम् `
॥॥ ७।। अर्तिथि भोजयित्वा सा क्षुधितापि स्वयं गृहे ।। तिष्ठत्येव विहालाक्षी `
लानमुखपडःकजा ।\ ८ ।। नभर्तारं क्वचिदपि नास्त्यन्नमिति भाषते ।। विलोक्य
भाया सुदतीं कर्षतीं स्वकङेवरम् ।। ९ ।! विचार्यं ब्राह्यणश्िचत्ते भार्यायाः प्रेम
बन्धनम् \। निन्दन्भाग्यं स्वकं खिच्ः प्रोचे वाक्यं प्रियंवदाम्} १० \1 कान्ते करोमि
कि कायं न मया लभ्यते घनम् ।! याचामि च नरान्भव्यान्न यच्छन्ति च मे धनम् `
` ॥ ११॥\ कि करो
गृहकार्यं न सिद्धयति ।। १२।। देह्याज्ञां परदेशाय गच्छामि धनलब्धये ।। यस्मि-
न्देशे च यत्प्राप्यं भोग्यं तत्रैव लभ्यते ।। १३।। उद्यमेन विना सिद्धिः कर्मणां नोप श
कि करोमि क्व गच्छामि तन्मे कथय शोभने ।। विना धनेन सुश्रोणि `
.- ब्रत्तानिः हन्दीटीकासदहित (६१५)
५ : महामुन् 1 ९९॥ त माता न पिता राता न इवश्नूः इवक्रुरो जनः\। तं सत्कुर्वन्ति 1 ८
केऽपिस्त्र स्वजनादच परे कुतः ॥। २३ ।। भर्त्रा वियुक्तां निन्दन्ति दुभगेति वदन्ति =
च \! तस्मादत्र स्थिरो भृत्वा विहरस्व यथासुखम् ।। २४ भवतो भाग्ययोगेन `
। प्राप्तिशचात्र भविष्यति ।। शरुत्वा तस्यास्तु वचनं स्थितस्तत्र विचक्षणः ।। २५ ।। ५
तावत्तत्र समायातः कौण्डिन्यो मुनिसत्तमः ।। दष्ट्वा समागतं हृष्टः सुमेधा द्िज- `
सत्तमः।। २६ ।। सभायेः सहसोत्थाय ननाम शिरसाऽसकृत् ।। धन्योऽप्यनुगृही- `
। तोऽस्मि सफलं जीवितं मम ।२७।। यददष्टोसि महाभाग्यादित्य॒वाच मृनीहवरम् ।॥ | ६
। दत्वा सुविष्टरं तस्मै पुजथामास तं द्विजम् ।। २८ ।। भोजयित्वा विधानेन पप्रच्छ ।
प्रमदोत्तमा ।। ` विद्न्केन प्रकारेण दारिच्छस्य क्षयो भवेत् ॥ २९ ॥। विना दत्तं |
कथं कभ्येद्धनं विद्या कुटुंबिनी ।। मां मे भर्ता परित्यज्य गन्तुकामोऽद्च वतते ॥। ३०।। ` |
अन्यदेशं परील्लोकान्याचितुं परयत्तने ।। संप्राथ्यं तु मया विद्ठन् हैतुवाक्यंमंह रेः
॥३१॥। नादत्तं लभ्यतं किल्नविदित्यक्त्वा स निवारितः ।\ मम भाग्यान्म॒नीन्राद्य `
॥ ` त्वमत्र समागतः । ३२।। दारिद्रयं त्वल्मसादान्म शीघ्र नश्यत्यस्तशयम ।\ कनी ग~ । ॥ |
| पायेन विपे दारिच्छं नश्यति धवम् ।। २३२३. कथयस्त कृपासिन्धो वरत तीर्थं 1
` तपादिकम् ।। शरुत्वा तस्याः सु्ीलाया भाषितं मुनिपृद्खवः ।\ ३४ ॥ प्रोवाच `
प्रवरं चित्ते विचायं ब्रतम॒त्तमम् \\ सवेपापोघशमनं दूःखदारिष्यनाह्ननम् ।! ३५।। `
` फलग्रदा ।। ३६ \\ तस्यामुपोषणं कृत्वा धनधान्ययुतो भवेत् ।। विधि ना जागरः `
ध 4 साक गीत श वादित्रसंयतम् ।। ३७ ।। धनदेन यदाचीरणं व्रतमेतत्सुशोभनम् ।\ तदा `
८ ४: ह ।। ३८ ।। हरिश्चन्द्रेण च कृतं परा
॥ पुनः प्राप्ता प्रिया तेन राज्य निहतकण्टकम् ।\! ३९ ।! तस्मात्व ; विशालाक्षि `
६१६]; 4, : -क्रतराजः. ,: ,. . [पकादसी- ।
घतपात्न तु यो दद्यात्स्नात्वा पञ्चदिनं नरः ।! ४८ ।! स भुक्त्वा विपुलान्मोगान्स्- ` (|
लोके महीयते ।। ब्रहमचर्येण यस्तषठेहिनानां पञ्चकं नरः ॥। ४९. भुनक्ति = ¦
स स्वर्गभोगान्स्वर्वेदयाभिः समं मुदा ।! एवंविधं ब्रतं साध्वि कुर त्वं पतिनाशुभे
॥ ५०.॥ घनधान्ययुता भूत्वा स्वर्गं यास्यसि सुव्रते ।। इत्युक्ता सा व्रतं चक्रे कौण्डि-
न्थेन यथोदितम् \। ५१ ।। भर्त्रा समं भावयुता स्नात्वा मासि मलिम्लुचे ।। पञ्च. |
रात्रव्रते पूवे पराया; प्रियसंयुता ।\ ५२ \) सापहयद्राजभवनादाथान्तं नृपनन्दनम्।॥
स इत्वा नव्यभवनं भव्यवस्तुसमन्वितम् ।। ५३ । वासयामास विधिना विधिना
प्रेरितः स्वयम् ।। दत्त्वा ग्रामं वुल्लिकरं ब्राह्मणाय सुमेधसे । ५४ ।! प्रसन्नस्तपसा `
राजा तं स्तुत्वा स्वगृहं ययौ ।। मलिम्ट्ृचस्य मासस्य पराख्यायाः परादरात् ।\ ५५।। `
उपोषणात्स कृष्णायाः पञ्चरात्रवरतेन च ।! सर्वपापविनिर्मक्तः स्वसोख्यसम- `
` न्वितः।। ५६ ।\ भुक्त्वा भोगान्स्त्रिया साद्धेमन्ते विष्णुपुरं ययौ ।। श्रीकृष्ण उवाच।! `
पञ्चरात्रभवं पुण्यं मया वक्तुं न शक्यते ।। ५७ ।। तथापि किच्चिद्क्ष्यामियेन
चीणं परात्रतम् \) स्नातानि पुष्कराद्यानि गद्धाद्याः सरितस्तथा ।\ ५८ । धेनु-
मुख्यानि दानानि तेन चीर्णानि सर्वेथा ।। गयाश्राद्धं कृतं तेन पितरः परितोषिताः
॥ ५९ ॥ व्रतानि तेन चीर्णानि वब्रतखण्डोदितानि वै ।। द्विपदां ब्राह्मणः श्रेष्ठो
गौर्वरिष्ठा चतुस्पदाम्।! ६० ।। देवानां वासवः श्रेष्ठस्तथा मासो सलिम्ल्चः ।।
` मलिम्ट्चे पञ्चरात्रं महापापहरं स्मृतम् ।। ६१ ।। पञ्चरात्रे च परमा पिन `
पापञोषिणी ।\ सेकाप्यशक्तेः कतेव्याऽवह्यं भक्त्या विचक्षणैः 1६२ । मानुषं `
जनुरासाद्य न स्नातो येमलिम्ल्चः । ते जन्मघातिनो नूनं नोपोष्य हरिवासरे `
५ ६३ ।\ योनी खरमाडर्चतुरशीतिलक्षाणि मानवः । प्राप्यते मानुषं जन्म `
दुर्लभं पुण्यसञ्चयेः ।\ ६४ ।। तस्मात्कार्यं प्रयत्नेन परमाया ब्रतं शुभम् ।। श्रीकृष्ण `
तं सवेमाख्यातं यत्पृष्टोऽहं त्वयानघ ।\ ६५ ।। मकिम्लृचस्य मासस्य ८
ब्रतानि ] | ` हिन्दीटीकासहित ` (६१७)
` स्वधरमनिष्ठ द्विजोत्तम हुजा था, उसक्तौ पत्नीका नाम पवित्रा था \ वह परम पतिव्रता थौ ।\५)\ पर उसका ¢
पति किसी दुष्टकमंके कारण धन धान्ये हीन होगया था । वह् ब्राह्मण जब कभी भिक्षे व्थिजाताथा, `
तब उसे बहुतसे पुरुषोसे भिश्ला मांगनेपर भी कु नहीं मिलता था ।1६॥ न वेसा भोज्य पदार्थं ही मिलता
था जिसे उनका उदरही भरे ! न वस्त्र ससा मिलता था, निवसे उन दोनोके अङ्खोका अच्छादन भी होसके \
एेसे जब्र अन्न वस्त्रकीही चिन्ता सदा रहती थौ, तब आभृषणोके मिरनेकी चर्वा ही कंस? फिरभीरूप, =
` यौवन ओर गृणोके गौरवसे मधुरा पवित्रा नासकी ब्राह्मणी अयने पतितौ जुभषा करती ही रहती थौ \\७1\
कोई उसके घरपर अतिथि आता था, तो आप उसे पहिले भोजन कराती थीः ! माप अच्नके अवशिष्टन `
रहुनेपर अपने घरमं भूखौही रहती, किन्तु वह विश्ञालनेत्रा सुन्दरी जराभी अपने मुलकमकल्को म्लान न `
करती थी ।\८।। पतिकोभी कभी एसे नहीं कहती थो कि, आज खनके जिए घरमे कुछ अन्न नहीं है । सुधर्म्मा `
ब्राह्मण उस सुन्दर दन्तोवारीस्त्रीको दुबलाती हुई देकर ।)९।\ मनमें उस्तते प्रेमबन्धनकौ ओर दृष्टि ५
भेर फिर खिन्न हौकर अपने मन्द भाग्यकी निन्दा कर प्रिय वचन बोरुनेबाली ब्राह्मणीसे बोला कि, हे कन्ते! = `
मृञ्ञे क्या करना चाहिए? मे अच्छे अच्छे लोगोके यहां जाकर भिक्षावृत्तिभौ करता हुं, परवे मौ मुक्षेकुछ
, नहीं देते ॥१०-११।। अतः मृक्षको कहीसेभी कुछ नहीं मिलता । अब मै क्या केह, कहां जाऊं ? हैश्लोभने।
इससे जो कुछ उपाय तुक्षको उत्तम मालूम पडता हो, उसे मेरे लिए बता दो । हे युश्चोणि ! बिना षनके
धरका कोई भी कायं नहीं चटता ।\१२।। अतः आप मुञ्चको घन कमाकर कानके लिए परदे जानेकी `
अनमति दे दीजिए लिसदेशमे जिसको जो मिलनेवाला र होता है वह् वहीं जानेपर उसी तरह मिल्ताहै
| ॥१३।। उद्यम किए बिना कोई भी कायं सिदध नहीं होता, इसलिए विदान् लोग शुभ उदयमकीही स्वेया = `
प्रशंसा किया करते हः उसेही अच्छा बताया करते हैँ ।।१४\। पतिके कहे बचनोको सुनतेही उसके नेत्रौमे
जलभर आया, न्रतासे शिर नमा अञ्जलि जोडकर वहं विलालनयनोवाली बुद्धिमती ब्राह्मणी बोलो
कि, हे प्रभो ! आपसे अधिक में अच्छा जानती भी नहीं हः फिर भी आपने मक्षे आज्ञादीहै, इससे मे कु
कहती हूं । अच्छा हौ या बुरा हो वह् सब हितेषियोको उसे अवश्य एवं सब कालोमें भी कह देना चाहिए ॥१५॥ = `
॥१६। जो कोई जो कुछ पूर्वेजन्ममे जिस किसके लिए देता है, वहं उतनाही उसमे जिस किसी भी देम `
जानेपर दुसरे जन्ममे प्राप्त कर लेता है ! यदि पूरवंजन्ममे कुछ दान न किया हो तो वहु कदाचित् सुमेर पवेतपर
भौ पहुंच जाय, पर उसे वहांपर भी कुछ नहीं मिल सकता ।\१७।। इसलिए पहिले जन्ममे जो विद्या दीह, `
जोधन दियाहै, जो पृथिवी दी है, वही इस जन्ममें फिर उसे मिलती है ।\१८।। विघाताने जो जिसके कुछ ||
४ 1 ललाटमें लिख दिया, उसीके अनुसार उसे भिलता है, पूरवजन्ममें दिये बिना दूसरे जन्ममे कहंभी फिरे, उसे
, तो यही निरूचय कर रखा है कि, पुवेजन्ममे दिये विना धन. विद्या ओर स्त्री किसीभौ तरह नहीं मिल्ती ! ` `
आज मेरे पति सेरा परित्याग करके जानेको समुखत हैँ ।\३०।। उनका यह अभिप्राय है कि, मेँ देशान्तरे
किसी अच्छे शहर जाऊं, वहां उदार सज्जनोसे धन ममाग् पर मेने बहुत बडे बड़े कारण बताकर यही
रहनेकी प्राना की है, इससे वे सकगथे हे ।\३१।। सेने यही कहकर उन रोका है कि हे प्रभो ! बिनादिवा
अव्य कहींभी नहीं मिलता । हे मुनिराज ! अब आप मेरे अच्छे भाग्योसे यहांही पधार अये है ३२।।अतः
। ग समञ्चती हं कि, आपकी प्रसच्चतासे मेरे घरकी दरिद्रता अवद्य जल्दीही नष्ट हो जायगी ! हे विप्र ॥
आष उसे बते जिस उयायसे कि, दरिद्रता अवदय नष्ट हौती है \३३।1 हे कृपासिन्धो ! आप ब्रत, तीथं `
ओर तय आदि कोई भी जो दारिद्रयका नाशक ष्टौ उसेही बतावें जिघको कर 1 मुनिने सुन्दर स्वमादवाली
पित्रा चामक ब्राह्यणीके वचनोको सुनकर ।\३४।। अपने मनम अच्छीतरह् शोच विचारके समस्त पाप- 1
पुण्यके शान्तकर एवं दुःख ओर दारिद्र्के अन्तक एकं उत्तम त्रतका उयदेश्च किया ।\२५।। कौण्डिन्य `
मुनिने कसा कि, मलिस्लृचमासमे कृष्णपक्षकी विष्णुतिथि एकादञ्ञौ "परमा नामसे विख्यात है, वह इस `
` लोकं भोग एवं परलोकमें मोक्ष देती है ।\३६।। उस दिन उपवास करनेसे मनुष्य धनधान्यसे सम्पन्न होता =
है । पहिले कुबेरने इसी परमा एकादक्षीके दिन विधिपुर्वक उपवास कर रात्रिम गान, वाद्य ओर जागरण `
किया था, तब उस्पर महादेवजीने प्रसन्न हौकर उसे धनाध्यक्ष बना दिया ।।३७।। ।\३८।। जिसने प्रिया
ओर पुत्रभी बेच दिया था उसं राजा हरि्चन्द्रनेभी यही व्रत किया था, इसके करनेषर फिर उसको स्त्री _
(५ । पुत्र ओर निष्कण्टक राज्य भिलगये ।\३९।। इससे है विश्ालल्षि है भद्रे ! वुमभी सस्त्रोक्त विधिसे जाग `
रणूर्वक इसी ब्रतको करो\४०॥1 हे पाण्डव ! कौण्डिन्य मुनिने यह् कहकर उस त्रतकी बिधि भी बतादी
पीछे उसे पोच रात्रिका शुभ व्रतभी बतादिया ।\४१।। जिसक्ते केवल अनुष्ठानसे मनुष्योको इस लोकम
1 भोग ओर परलोकमें मोक्ष प्राप्त होता है । परमा एकादशीके दिन प्रातःकाल पुर्वाह्लोचित स्नान सन्ध्यो
पासनादि कमं करके ।४२।। पञ्चराच्र ब्रतको करनेके लिये क्ञषितिके अनुसार उत्तम उत्तम नियम करे
जी प्रातःकाल स्नान करके निराहार पूवक पांच दिनतक नियमसे रहे ॥१४२।। वह् अपने पिता मता ओर `
श्रिया समेत बेकरुष्ठयदको प्राप्त होता है जो एकाद्षीसे पूणिमातक पांचदिन एक दफेहौ भोजनकरके रहै
` तते ।॥\४४।। वहु सब पापोसे छटके स्वगलोकमें प्रतिष्ठालाभ करता है \ जो मनुष्य प्रतिदिन प्रातःस्नान `
करता हा पांच दिन उत्तर कर्मनिष्ठ ब्राह्मणको भोजन करावे \\ ४५ ।} बह समस्त देव असुर
दानव ओर मनुष्योसे पूणं भुवनमण्डलको भोजन कराकर तृप्त करचुका । जिसने ब्राह्मणके लिये सुमधुर
` जलपुणे कलाका प्रदान करिया है \\४६।। उसने समस्त चराचरोसे पूणं ब्रह्माण्डका राज्य प्रदान करदिया । ^
विद्वान् ब्राह्मणको को । तिरपरूणं पात्रका जो दान करता ह ।\४७।। है साध्वि ! वहं जितने तिर हो उतनेही वर्षो-
निवास स: करेगा । पांच दिनपर्यन्तं प्रातःकाल नित्यस्नान करता हुआ जो मनुष्य घुतपुणेकल्ल ध
अ
७
जानि] ` हिलरीकासहित (९१९) |
| ॥ राजा युधिष्ठिरसे बोङे कि, सं पञ्चरात्रतके पुण्यकौ महिमाका वणेन नहीं केर सक्ता ।\५७।। पिर भी कुछ ॥ | ;
कहता हृ" जिसने यहं व्रत किया ह उसने सब पृष्करादि तीथे, गङ्धयदि दिल्यनदियोम स्नान कर ववि ।\५८॥1 `
भौ आदिरकोको दानभी सरवेथा उसने कर लिये, गयाश्नादध करके अपने पितुगणकी तृप्तिभी अच्छी तरहुसे
`. करली ।\५९।। ब्रतखण्डम त्रतोके प्रसद्धमे शस््रकारोने जो जो व्रत कहे है बे सब व्रत भी उसने करल्यि, `
| ` अर्थात् इस पञ्चरात्र व्रतान् ष्ठानसेही यह सब फल मिल जाता है । जैने दो चरणवालोमे ब्राह्मण, चार- `
चरर्ोवालोमें गौ \\६०।। देवतांस इन्द्र शरेष्ठ है, वेसेहौ महीनोमे अधिकमहीना भी श्रेष्ठ है । पंचरात्रके ६
ब्रतसें पद्यिनी पापोकी परम नाक है ।\६१।। पर जो चतुर अरव्त हो उन्हुं इमे अवद्य करना चाहिय `
` ॥६२।। मनुष्य जन्म लेकर जिन्होने अधिकमासमें स्नान नहीं किया वे एकादकीके व्रतको न करके जन्म॒
घाती ह ।\६३॥ चौरासी राल॒योनियोमे भ्रमते मते प्ले पुष्योसे बडी कए्निताके साथ मनुष्येह॒ = `
भिल्ता है ।१६४।१ इस कारण प्रयत्नके साथ परमाका पवित्र त्रत करना चाहिए । श्रीकृष्ण भगावान् बोले `
कि, हे निष्पाप | जो जपने मुञ्चे पूछा था, वो सब मने तुम्हं कह दिया है ।\६५1। ओर मलमासको परमा `
ष एकादलशौका शुभ ब्रत भौ कह्दिया है है नृप ! एकाग्र चित्त होकर करिये ।॥६६।। जो सच्ची भवतिके साथ
शुभ विधिसे परमाके शुभे व्रतको मलमासमे करते हं वे स्वरसे इदद्रके समान वैभवको भोगकर भगवानके `
, नित्य धामको चरे जाते ह \\ ६७ । यह अधिकमासकी कृष्ण परमा एकाददीके व्रतका माहात्म्य पः १
क हमा 11 इसके साथ एकादक्लीके माहात्म्यमो परे होतेह । = `
अथ द्वादशीव्रतानि लिख्यन्ते ॥
५6 | . दमनोत्सव 4.
` तत्रं चेवशुक्ठद्वादश्यां दमनोत्सवः-द्वादश्यां चजमासस्य शुक्लायां दमनो-
त्सवः ।! बौधायनादिभिः प्रोक्तः कर्तव्यः प्रतिवत्सरम् ।! इति रामाच॑नचन्दि- _ `
कोक्तेः ।। ऊजं व्रतं मधौ दोलां श्रावणे तन्तुषुजनम् ।। चत्रे च दमनारोपसकुर्वाणो `
व्रजत्यधः ।। इति तत्रैव पाद्यवचनाच्च ।! इदं शुक्रास्तादावपि कार्यम् 1 उपाकर्मो- `
` त्सर्ननं च पविभ्रं दमनापंणम् \! ईशानस्य बार विष्णोः शयनं परिवर्तनम् ॥
च गुरोमौढयेऽपौति विनिङचयः !! इति वृदधगार्यवचनात् । इति `
(६२०) ८ 4 : ज्र्तराजः. ` ` -. ५०2. . ' .[ हादक्ची~
होता है 1! क्योकि, रामार्चन चन्दिकामं चल्खा हृजा है कि चत्र. शुक्ला दादज्ञी के दिनि ४
दमनोत्सव प्रति वषं करना चाषिए ! एसा बौधायनादिकोने कहा है! (दमन या दमनक `
` अशोके फलका नाम है \) पद्मपुराणने छिखा हुआ है कि, कातिकमें ब्रत, चंत्रमं दोला ` ओर भ्रावणमें `
` तन्तुपूजन, (पविन्ररेपण ) एवं चेतरस दमनोत्सव इनको न करके अधःपतन होता है । यह रामाचेनचन्दिकामे `
लिखा है \ इसको शुक्के अस्तादिकोमे भौ करना चाहिए, क्योकि, वृद्ध गाग्यंकां वचन है कि--उपाक्मं `
` (आावणौ) उत्सजेन (वेदका उत्सजञेन) पवित्रारोपण, दमनोत्सव, ईशानको बलि, शयनौ, परिबततिनी `
` . नको गर मौर श॒क्रके अस्तादिकमं भी करना चाहिये, यह् निश्चय है । इति चंत्रलुक्ला दादशीका विधान ।\ `
ध ८६ वेराखशुक्लद्रादक्षी | १ 1
क वेशाखशुक्लद्वाद्छयां योगविशेषो हेमाद्रौ--पञ्चाननस्थो गुरुमूमिपुत्रो मेषे
रविः स्याद्यदि शुक्लपक्षे ।\ पाशाभिधाना करभेण युक्ता तिधिव्यतीपात इतीह
योगः ।। अस्मिस्तु गोभूमिहि्रण्यवस्त्रदानेन सवं परिहाय पापम् \! सुरत्वमिन््रत्व-
मनामयत्वंमर््याधिपत्यं लभते मनुष्यः ।\ पञ्चाननः सिहरा्तिः ।। पाशाभिधना
त्िधिद्रादेशी 1! करभो हस्तः \। इति वेकशाखशुक्लद्रादस्ी ॥ 1
वैज्ञाखश्ुक्ला ्ादल्ली--हेमाद्रिने इसमें योग विशेषं कहा है कि, वंशाख शुक्ला द्वादशके दिन सिहके `
` गुरू जौर मंगल हौ मेषके रवि एवं पाशा हस्तनक्षतरसे युक्त हो तो इसमे व्यतीपात योग होगा । इस योगम `
` गो, भूमि, सोना, वस्त्र इनका दान करनेसे सब पापोको परित्याग करके मनुष्य देवपना, इन्द्रपना, निरोगता
६ राजापनेकीप्राप्ति करता है । पंचानन सिहराक्षिको कहते हं पाानामकी तिथि द्वादन्ञी है । करभनाम
हस्तनक्षत्रका है । इति वंशाख शुक्ला दल्ली \! 4
4 | आषादशुक्छद्ादक्षी 1
` ` ` आषादढलुक्लद्वादडयामनुराधायोगरहितायां पारणं कुर्यात् ॥ तथा च:
` देमाढौ भविष्ये-आभाका सतपक्षेषु मेत्रश्रवणरेवती ॥। संगमे नह भोक्तव्यं
द्वादश दादश्ीहंरेत् ।॥। अस्याथंः--आषाढभाद्रकातिकशुक्लद्रादशीष्वनुराधाश्नवः ५
-पूजाकौ पूणं कर दीजिये । दस मंते पीछे फिर मूलर्मतरसे दैवपर चडा दे पीक दुसरे गौणदेवंकि स्थि स्पे `
( उसी देवताके अंगमूत हैँ उन्हं उन्हीके मंत्रोसि देकर प्राथेना करे । पीछे मणि ओौर विद्रमोकौ मालाओं एवम्
-एवं बल्यः । तदुक्तं विष्णुधम--मेत्राद्यपादे स्वपतीह विष्णः पौष्णान्त्यपादे `
प्रतिबोधमेति ।। श्रुतेश्च मध्ये परिवतमेति सुप्तिप्रबोधपरिव्तनमभेव वर्ज्यः ॥ `
इत्याषाद्युक्लद्रादक्षी ।॥ ` 4. (1
आषाढ शुक्लाद्रादक्लीके दिन पारणा हेमाद्रिने भविष्य पुराणसे लेकर लिखी है कि, अनुराधाक्े योगसे ~
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५ ` | निषेध ह । दूसरे पादोका नहीं है । ( निर कार इसके वचनको निभं ल मानते ह ) यह् आषाढ शुक्ला भः ॥ । । ६ । । ।
` द्वादश्लीके दिनकी पारणाका निणेय समाप्त हुजा ।! | 0
इ अथ श्रावणशुक्लद्रादव्यां दधित्रतम्
विष्णोः पवित्रारोपणमुक्तं हेमाद्रौ विष्णुरहस्ये
क्तानि. : `. -: . हुन्टकासंहितं ९0]
रहित आषाढ शुक्ला द्वाद्शीके दिन पारणा करनी चाहिए, इसका प्रमाण वाक्य यह है कि, आ.भा.का.
इनके शुक्लपक्षोमें मत्र, भ्रवण जौर रेवतीके संगममे भोजन न करना चाहिए, क्योकि इसमें भोजन करनेपे
` बारह द्वादशियोको नष्ट करता है । जा. भा. का--ग्रन्यकार अथं करते हे कि अषाढ, भाद्रपद ओर कात्तिकिकी ध
शुक्ला द्वादशियोमं क्रमसे अनुराधा, श्रवग ओर रेवतीके योगम पारणा न करनी चाहिए । यद्यपि उक्त
वचनमें इतनीही बात कही गयी है पर तो भी अनुराधाका प्रथम चरणही वजेनीय है यह विष्णुधर्मे लिखा `
` हा है कि, अनुराधाके पहिले चरणमें विष्णु भगवान् सोते हैँ तथा रेवतीके अन्तिम चरणमे जागते हँ । `
। श्रवणके मध्यमं करवट बदलते हूं । इस कराण सोने जागने ओर करवट बदलनेके समयका ही भोजनम
अत्र तक्रादीनां त्वनिषेधः ।। तत्र दधिव्यवहाराभावात् ॥ अत्रेव द्वादश्यां |
. --श्रावणस्य सिते पक्षे ककंटस्थे
दिवाकरे ।1 ादक्ष्यां वासुदेवाय पवित्रारोपणं स्मतम् ।। दादहयां श्रावणे वापि
` पञ्चम्यामथवा द्विज ।\ अनुक्लेषु कर्तव्यं पञ्चददयामथापि वा ।। गौणकालमाह `
शुक्रास्त कर्तव्यमिति नारदः ।। हेमरोप्यतामक्षोमेः सूत्रैः कोशेयपदाजेः ॥ कुलेः
काशेश्च कापसिर्ब्रह्मण्या कितः शुभेः ।। कत्वा त्रिगुणितं सूत्रं त्रिगुणीकृत्य `
श्लोधयेत् ।\ तत्रोत्तमं पवित्रं तु षष्ट्या सह॒ शतस्त्रिभिः \। सप्तत्या सहितं द्वाभ्यां
` हताभ्यां मध्यमं स्मृतम् ।। साशीतिना शतेनैव कनिष्ठं तत्समाचरेत् ।
रामाचनचन्द्रिकायाम् पवित्रारोपणं विष्नाच्छावणे न भविष्यति ।! कातिक्यवधि
( ६ ९ . ) , ॥ ॥ 1 र प ष् | # "1 ~. ४ | ए ५
| ` ॥ ४ त प 2४
॥ यतय --------------------------------- 1 ५ प प प न क #
"न प { | ध
दधिव्रत---श्रावणशकला द्राददीके दिन हेता है इसमें तक्र आदिकाः निषेध नहीं है क्योकि, इसमं `
दहीका व्यवहार नहीं होता । पवि्ारोपणभी इस हादशषीके दिन विष्णुरहुस्यम कहा है जिसे कि, हैमाद्रिने
उद्धत किया है कि, श्रावण शुक्लपक्षे ककंटपर सूय्येकेरहते भगवानके लिए पवित्रारोपणकहागया है, हे
ष्िज, ! श्रावणलुक्ला या भावणनक्षत्रयुकत दराद्शौ वा पञ्चमीकेदिन अथवा पंद्रसकेदिन सवबकेअनुकूर रहत
` पविन्नारोपण करना चाहिए । गौगकाल भी रामार्च॑न चन्विकामं कहा है कि, यदि विष्नोके कारण पवित्रा
सपण श्रावणमे न किया जा सके तो कातिकी तक शुक्रास्तमें भी कर देना चाहिए, एेसा नारदजीका वचन
| ५. है । सोने, चाँदी, तामे क्षौम, रेम, पद्मज, कुल, कालच, कपास इनके ब्राह्मणीके हाथसे तयार किये हए
भ्रुतको तिल्लर करके फिर भी उसकी तीन लर करके शोधन करे, ३६० का उत्तम पित्र होता है २७० का ,
9 मध्यम् होता है, १८० का कनिष्ठ होता ह एवं साघारण पवित्र तीन सुत्रोका पवित्र होता है, इसी तरह
र सौ गांठका उत्तम, पचासका मध्यम एवम् ३६ गाँठका कनिष्ठ होता है । कोई कोई मुनि एेसा भौ कहते `
हैक, छत्तौस चौवीत ओर बत्तीस या एवं चौवीस, बारह ओर आठ गाठोकौ संख्या होती है । शिव पवित्रतो ५
तहां ही जञैवागममें कहा है कि, इक्यःसी, अडतीस अथवा पचासका बराबरकी गाठोका तथा बराबरके
बीचका करना चाहिये । यह बारह आठ वा चार अंगुल लंबा अथवा छिगकौ बराबर लंबा हौ । यहं पवित्रा-
रोपण नित्य है क्योकि वहीं यह कहा है किं जो विधिङ्के साय पवित्रारोपण नहीं करता, हे मुनिसत्तम ! उसको `.
सालभरकी पूजा व्यथं हो जाती है इस कारण विष्णुषरायण परम भकतोंको उचित है कि प्रतिवषं भगवान्के `
ऊषर पवित्राको चढावें । यह् भ्रीश्रावणशञुक्ला हादशशौकी विष्णु भगवान् पर पवित्रा चढानेकी विधि पूरी
अथ भाद्रपदङ्नद्धद्रादक्षी
` घुतादयो विकारास्तु ग्राह्या एव \!
ग्राह्यं स्यादितिचेन्न; तत्र वाचनिकनिषेधसत््वात् ।! तदाहापराकं शङ्खः
` अस्यां द्वादहयां दुग्धत्रतसंकल्पः ।। दुग्धत्रते तु पायसादिकं वर्ज्यम् ।। दधि-
नन्वेवं सन्धिन्यादिक्ञीरनिषेधेपि दध्यादि
क्षीराणि यान्यभक््याणि तद्विकाराश्षने बुधः ।॥ सप्तरात्रव्रतं कुर्यत्प्रियत्नेन समा- `
| हितः ॥ इति ॥ व्रतम् -गोमूत्रयावकम् ।। भाद्रशुक्लद्वादषयां ्रवणयोगरहितायां `
पारणंकरर्यात् ।! “आभाकासितपक्षेषु ” इति दिवोदासोदाहूतवचनात् ॥। उपोष्य
कादशं मोहात्पारणं श्रवणे यदि ।। करोति हन्ति तत्पुण्यं द्वादश्रादज्ञीभवम् ।॥ `
इति तत्रैव स्कान्दाच्च \} अस्य तत्रैव प्रतिप्रसवः ।। माकंण्डेयः- विषेण महीपाल
श्रवणं वदधते
दे 11 तिथिक्षये न भोक्तव्यं दादलीं लडघयेन्नहि।।यदा त्वपरि
~ व शकम ना विभज्य मध्यविज्नतिघटिकायोगं त्यक्त्वा पारणं कार्यम्।! { `
दुक्तं विष्णुधमं-“शरुतेदच मध्ये परिवर्तमेति, “सुप्तिप्रबोधपरिवर्तनमेव वर्ज्यम् “
क्रचितु चतुर्था विभज्य मध्य पाद्यं बज्यंमित्याहुः ।। अत्रेव विष्णुप- `
त्वं इयात् ॥। लभा विण संपूज्य प्राये ।\ मंजु तिथिततवे
` द्राजा विह्वश्रवणवासरे ।\ इहमेव श्रवणद्वादज्ञी ।। तत्रैकाद्यां दादशीश्रवण- =
। योगे सैवोपोष्या, विष्णुषपुङ्कलविज्ञेषयोगात् ।। द्वादज्ञीश्रवणस्प॒ष्टा स्पेदेकादहौ `
। यदि ।\ सर एव केष्णवो योगो विष्णुश्युङ्कलसंज्नितः ।। तस्मिन्ुपोष्यविधिवन्नरः `
। संक्षीणकल्मषः ॥। प्राप्नोत्यनुत्तमां सिद्ध पुनरावृत्तिदुलंभाम्।। इतिमात्स्योक्तेः!\! `
| विष्णुधर्मेऽपि-एकादशी हादशौ च विष्ण्वक्षमपि तत्र चेत् ।॥। तद्विष्णु्णङ्खलं नाम॒ `
| विष्णुसायुज्यज्ृडूवेत् ।। इति ।। संस्पृष्येकादज्लीं राजन्दरादक्लीं यदि संस्पृशेत् ।॥ `
श्रवणं ज्योतिषां भेष्ठ ब्रह्महत्यां व्यपोहति ।। इतिनारदीयाच्च ।। दिनद्वये दवादशी- `
| श्रवणेयोगेपि पर्वा ।। एकाददयां श्रवणयोगाभावेपि तदिनावच्छेदेन भ्रवणस्पष्ट- `
। द्वादक्ञीयोगादेव विष्णुष्णुद्कलम् इति हेमाद्रिमतम् ।! नि्णयाम्ते तु-भवणद्रादशी-
योग एवं विष्णुश्वुङ्कलं नान्यथेति यदा निक्लीथानन्तरं सूर्योदयावधि द्विकलामात्र-
मपि श्रवणक्षं पदापि पूर्वेव । दिवोदासीये तु राघ्ेः प्रथमयामे ध्रवणयोगे पूर्वा |
तुभ्यमर्ध्यं प्रयच्छामि बाल्वामनरूपिणे ।। नमः कमलकिञ्जल्कपीतनिमल्वाससे `
` अन्यथोत्तरेत्युक्तम् ।। इयं च बुधवासरेऽतिप्रहस्ता ।। यदा तु एकादक्षी श्रवणयुता `
| न द्राद्ली तदा एकाद्छ्यामेव व्रतम् ।! अक्तस्त्वेकाद्यां गोणोपवासं कृत्वा `
| द्वादल्लीमुपवसेत् ।। इदं तरतं कास्यसमिति गौडाः ।! नित्यमिति दाक्षिणत्याः \॥
पारणं तूभयान्ते अन्यतरान्ते वा कुर्यात् \! अथ ब्रतविधि ।! अग्निपुराणे -मत्रेय `
| उवाच ।।! विधानं श्वणु राजेन्द्र यथा दृष्टं मनीषिभिः \} यथोक्तं नियमं कुयदिकाद- `
श्यामुपोषितः ।\ दन्तान् संशोध्य यत्तेन वाग्यतो नियतेन्द्रियः ।। श्रवणद्ादक्षीयोगे
समुपोष्य जनादंनम् ।! अर्चयित्वा विधानेन त्वहं भोक्ष्येयपरेऽहनि ।। नदीनां सद्धमे
् ३ ` स्नाथादचंयेदत्र वामनम् ।! सोवणं वस्त्रसयक्तं हादशाड्गलमुच्छितम् ॥\ पीत-
। वस्त्रः शुभैवेष्टय भृङ्धारं नित्रणं नवम् ।। हिरण्मयेन पात्रेण अध्यंपात्रं प्रकल्पयेत्!
क्तं सहिरण्यं सचन्दनम् ।\ नमस्ते पद्यनाभाय नमस्ते जल्ायिने । `
क
र |, 0
वामनः प्रतिगृ्यति बामनोऽ हं ददामि ते ।। वामनं सवेतो भद्रं हविजाय प्रति-
पादये ।\ जलधेन्ं तथा दद्याच्छत्रं चेव तु पादुके \। सहिरण्यानि वस्त्राणि वृषं धनु
तथा नप \! यत्किल्चिहीयते तत्र तदानन्त्याय कल्पते \} श्रवणदादज्ञीयोगे संपूज्य `
गरुडध्वजम् ।। दत्त्वा दानं हिजातिभ्यो वियोगे 8 पारणं ततः ।। सिंहस्थिते तु
मातेण्डे ्रवणस्थे निज्ञाकरे ।। श्रवणद्रादश्ौः ज्ञेया न स्याद्भूद्रपदाद्तं ।। दशम्य-
कादौ यत्र सा नोपोष्या भवेत्तिथिः \। श्रवणेन तु संयुक्ता सा शुभा सवकामदा ।
पारणं तिथिवृद्धौ तु द्वादश्यामुडुसंक्षयात् ।\ वृद्धौ कु्यत्रियोददयां तत्र दोषो न॒
विद्यते ।! इत्येषा कथिता राजन् द्वादन्ञी श्रवणेन या ।। कतेव्या सा प्रयत्नेन इहा-
मूत्रं फलप्रदा ।॥ इत्यग्निपुराणोक्तं श्रवणद्रादज्लीव्रतम् । अथ विष्णुध्मोक्तिं
विधानान्तरम् ।। परशुराम उवाच ।। उवपवासासमर्थानां कि स्यादेकमुपोषणम्
महाफलं महादेव तन्ममाचक्ष्व पृच्छतः ।। महादेव उवाच । या राम श्रवणोपा
` हादी महतौ तु सा ।। तस्यामुपोषितः स्नातः पूजयित्वा जनादंनम् ।। प्राप्नोत्य-
यत्नाद्धमंन्न दादशदादशीफलम् ।। दध्योदनयुतं तस्यां जलपुणं घट हिजे।। वस््र-
संवेष्टितं दत्त्वा छत्रोपानहमेव च \\ न दुर्गतिमवाप्नोति गतिमर््यां च विन्दति ॥ `
क्षय्यं स्थानमाप्नोति नात्र कार्या विचारणा ।। श्रवणद्वादशीयोगे बुधवारो भवेद्यदि
अत्यन्तमहती नाम द्ाद्शी सा प्रकोतिता ।। स्नानं जप्यं तथा दानं होमः श्रादं
सुरार्चनम् ।। सर्वेमक्षय्यमाप्नोति तस्यां भृगुकुलोदह ।\ तस्सिम्िने तथा स्नातो
यत्र क्वचन सद्धम ।\ स गद्खास्नानजं राम फल प्राप्नोत्यसंशयम् ।\ श्रवणे सद्धमाः
स्वं परतुष्टिप्रदाः सदा विेषाद्द्रादलीयुक्ता बुधयुक्ता विशेषतः ।। यथेव `
दक्ष वी | क्ता बुधश्रवणसंयुता ।। तृतीया च तथा प्रोक्ता सवंकामफलगघ्रदा ।। क 1
५ फलम् 11 इति हेमाद्रौ भविष्योक्तं विधानान्तरम् ।। अथ विष्णुरहर
भक्तिरतोऽपि सन् \। इति विष्णुरहस्योकतं
८ | कि { ११५. #। ५९ कष "ब ६ ष. ह
भैः ।। पृष्पाज्जाल ततो दत्त्वा सन्त्रमेतमुदीरयेत् ।! नमो नमस्ते गोविन्द बुधश्नर-
बणसं्ञक ।। अघौघसंक्षयं कृत्वा सर्वसौख्यप्रदो भव । अनन्तरं बराह्मणे तु वेववेदा- `
पारगे ।\ पुराणज्ञे विशेषेण विधिवत्संप्रदापयेद् ।! प्रीयतां देवदेवेशो मम नित्यं `
जनादन ।। अनेनेव विधानेन नद्यां स्त्री वा नरोत्तमः ।। सर्वं निवेतयेत्सम्यगेक-
धोक्तं विधानान्तरम् ।। अथ कथा--श्रीकृष्ण
। । उवाच ।। अव्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।। महत्यरण्ये यद्वृत्तं भूमिपाल `
। श्यृणुष्व तत् ।। १ । देशो 'दाज्ञाणेको नाम तस्य भागे तु पश्चिम ।। अस्ति ५
५ परोक्तं विधा- |
नान्तरम् \ द्वादशयामुपवासोऽत्र ्रयोदश्यां तु पारणम् ।। निषिद्धमपि कतेव्यमि- |
त्याज्ञा पारमेश्वरी ।। बुधश्रवणसंयुक्ता सेव चेदृद्रादशी भवेत् ।। अतीव महती `
तस्यां सवं कृतमिहाक्षयम् ।। दादहि श्रवणोपेता यदा भवति भारत ॥\ सद्धमे `
` सरितां स्नात्वा गङ्धादिस्नानजं फलम् । सोपवासःसमाप्नोति नान्न कार्ण
विचारणा । जलपूर्णं तदा कुम्भं स्थापयित्वा विचक्षणः । पञ्चरत्नसमोपेतं
सोपवीतं 'सवस्त्रकम् ।\ तस्योपरि स्थापयित्वा लक्ष्म्या सह जनादेनम् ।\ यथाग- . |
क्त्या स्वर्णमयं शङ्करा _्विभूषितस् \\ स्नापयित्वा विधानेन सितचन्दनर्चाचतम्।। `
सितवस्त्रयुगच्छन्नं छत्ोपानद्युगान्वितम् ।। ओं नमो वासुदेवाय शिरः संपूजयेत्ततः |
॥ श्रीधराय मुखं तद्द् वेकुण्ठाय "हुदम्जकम् ।। नमः श्रीपतये नेत्रे मजो स्वस्त्रि- |
धारिणे ।! व्यापकाय नमः कुक्षी कशवायोदरं नमः ।। त्रेलोक्यजनकायेति मेद्
संपूनयेद्धरेः ।। सर्वाधिपतये जद्धे पादो सर्वात्मने नमः ।। अनेन विधिना राजन्
पुष्पधुषैः समर्चयेत् ।\ ततस्तस्याग्रतो देयं नैवेद्यं धृतपाचितम् ।। मोदकांश्च नवान् `
कुम्भाञ्छक्त्या दद्याच्च दक्षिणाम् ।\ एवं संपुज्य गोविन्दं जागरं तत्र कारयत् ।! `
प्रभाते विमले स्नात्वां संयुज्य गरुडध्वजम् ।! पुष्पधूपादिनेवेचेः फलैवस्त्ैः सुशो- `
तरसा मुगा सकतसज्ख ए
्तास्मिस्तथाविषे देले कषिचहेववशाद्बणिक् ।। हरिदत्त इति च्यातो वणिक् धर्मोप- `
८५4. नतस्मज व [` छद््वाकः ,
समम् ।} उत्कान्तजीविता राजन् दह्यन्ते विहगोत्तसाः ।} ८ ।। उत्ष्टृत्यो्प्लृत्य
ताः ।! सैकवेष्वेव नह्यन्ति जलः संकतसंतुबत् ।\ ९ ।\
जीवकः ।। १० ।। निजसार्थपरि भ्रष्टः प्रविष्टो मर्जाङ्कले ।। दृष्टवान्मलिनान् `
रूक्षान्िर्मासान् भीमदरशनान् ।। ११ ।। बशभ्रामोभान्तहूदयः कुत्तषाश्चसर्कारित
॥ क्व ग्रामः क्व जनः ववाह क्व यास्यामि 'किमाचरे ।\ १२ 1 जथ प्रेतान् दद-
रक्ासौ श्ुत्तषाव्याकुलन्द्रियान् ॥। कषुरक्षामाल्लंम्बवृषणालिमीसांदच सकीकसान् =
॥ १३ ।। स्नायु बद्ास्थिचरणान्धावमानानितस्ततः ।\ बणिक् सोऽपि तदाश्चयं
दृष्ट्वा भयमुपागतः ।। १४ भीतभीतस्तु तैः साद्धं जगाम पथि वञ्चयन् ।! `
ततो गत्वा पिशाचास्ते न्यग्रोधं महदाश्चयम् \। १५ ।। रीतच्छायं सुविस्तीर्णं तत्र
ते समुपाविशन् ।। निविष्टेषु ततस्तेषु एकदेशे स्थितो बणिक् ।। १६ ॥ प्रेतस्कन्ध-
समारूढमेक विकरतदहेनम् ।। ददे बहुभिः प्रेतः समन्तात्परिवारितम् ।। १७ ।।.
आगच्छमानमन्यश्रं स्तुत्तिश्ञव्दपुरःसरम् ।। प्रेतस्कन्धान्महीं गत्वा तस्यान्तिकिम्-
पागमत् ।! १८ ।। सोभिवाद् वणिक्शरेष्टसिदं वचनमब्रवीत् ।। अस्मिन् घोरतम _
देशे प्रवेशो भवतः कथम् ।। १९ ।\ तमुवाच वणिक् धीमान् सा्थभरष्टस्यमे वने॥ `
1 प्रवेशो | देवयोगेन पुतवेकमकृतन तु ।। २० \। तृषा मं बाधतेऽत्यथ क्षुदभरमोऽय भक्तं
तथा ॥ प्राणाः कण्ठमनुप्राप्ता वचनं नहयतीव मे ।। २१ ।। अन्नोपायं न पहयामि `
जौवेयं येन केनचित् ¦ श्रीकृष्ण उवाच ।! इत्येवमुक्तः प्रेतस्तु वणिजं वाक्यमब्रवीत् `
॥ २२ ॥। पुन्नागमिममाधित्य प्रतीक्षस्व मुहूतंकम् ।। कृतातिथ्यो मया पदचाद्ग- `
मिष्यसि यथासुखम् ।\ २३ । एवमुक्तस्तथा चक्रे स बणिक् तृषयादितः ।। मध्या- `
ह्वसमये प्राप्ते ततस्तं देशमागता ।। २४ ।॥! पुच्रागवृक्षच्छीतोदा वारिधानी `
।। दध्यो गोदनसुयुक्तेन बद्धंमानेन संयुता ।। २५ । अवतीयं ततः सोग्र ध
९१1१. | | । २१९ = { = {घ 1 हूत ४ ( ९ ६ \9 )
"~ 3 पमा द (म 3 प व भ नः < = ४
न त ---------- यायय प
४ 2. व ध ॥
भीमकुश्चथः ।\ ३२ 1) अपरं च कथं त्वेतदवाप्तं बा परिक्षयम् ।! हस्तावलम्बक
कस्त्वं संप्राप्तो निजे बने ।! ३३ ॥\ त॒प्त्चासि कथं ग्रासमात्रेणेव भवानपि ।॥\ ` ५ ॥
कथमस्य सुघोरायां मरभूम्यां सु्ीतलः ।। ३४ \। तदेतं संशयं छिन्धि परं कौत्ू-
हलं मम \\ एवसुक्छः स्बणिजो प्रेतो वचनमब्रवीत् ।। ३५ ।। पिश्ाच्पतिरवाच !! `
ग्पृणु मद्र प्रवक्ष्यामि दृष्छृतंकमं चात्मनः ।। जाकरेनगरे रम्ये अहमासं सुदर्मतिः `.
१ कालोऽतीतोबहुमम।। शाकले नगरे रम्ये नास्तकिस्य `
दुरात्मनः ।। ३७ ।। धनलोभात्तथा तत्रं कदाचितप्रमदेरिता ।! न दत्ता भिक्षवे `
भिक्षा तृषातेस्य जलं न च.।। प्रातिवेश्यस्तु तत्रासीदबराह्यणो गुणवान्मम ।
| श्रवणद्वादरपैयोगे सासि भाद्रपदे तथा । ३९ \\ स कदाचिन्मया साद्धं वापीं नाम ` (८
नदीं ययो ।। तस्यास्तु सङद्कमः पुण्यो यत्रासीच्चन्द्रभागया ।। ४० ।। चन्द्रभागा
सोमसुता तापौ चेवाकंनन्दिनी ।। तयोः शीतोष्णसलिले सद्धमे सुमनोहरे ।। ४१। `
` तत्तीथवरमासादय प्रातिवेश्यः स मे द्विजः ।! श्रवणद्वादशी योगे 'स्नातद्चेवोपवास- `
` त् ।। ४२ ॥। चान््रभागस्य तोयस्य वारिधान्यो नवा दढा: ।! दध्योदनयुतैः `
सादं संपूरणवद्धमानकेः ।। ४३ ।। छत्रोपानद्युगं वस्त्र प्रतिमां विधिवद्धरेः ॥ प्रददौ
` विप्रमुख्याय रहस्यज्ञो महामुनिः ।। ४४ ।। वित्तसंरक्षणार्थाय तस्यापिचततोमया।।!
सौपवासेन दत्ता वे वारिधानी सुशोभना ।\ ४५ ।। चन्द्रभागास्थविप्राय दध्योदन- `
युता तदा ।। एतच्कृत्वा गृह प्राप्तस्ततः कालेन केनचित् ।। ४६ ।। पञ्चत्वमहमा- `
| ` साद्य नास्तिक्यात्प्रततां गतः ।। अस्यामटव्यां घोरायां तच्च दृष्टं त्वयाऽनघ ॥ `
| ॥ ४७ ।1 श्रवणद्वादशीयोगे त्ता या सा मया द्विजे ।। दध्योदनयुता ताबद्ारि- `
| धानी मनोहरा ।\ ४८ ।\ सेयं मध्याह्नसमये दिवसे दिवसे मम ।\ उपतिष्ठति `
वेश्येह यथादृष्टं त्वयाऽनघ ।} ४९ ।! उपवासफलठेनैव जानिस्मरणमस्ति मे ।॥
दधिभक्तप्रदानेन जल्गन्नं चाक्षयं मम ।। ५० ।। ब्रह्मस्वहारिणस्त्वेते पापाः प्रेत- = `
| त्वमागता: ।। परदाररताः केचित्स्वामिद्रोहुरताः परे ।। ५१ ॥ मित्रदमोहुरता ५
| केचिहेशेर्भस्मस्तु सुदारुणे । ममेते मृत्यतां प्राप्ता अच्नपानकृतेऽनघ । ५२ ।॥ `
५
३६।। वणिक्छक्तः पुरा भर
(न
गयाक्चीपं ततौ गत्वा श्राद्ध कुर महामते ।। एकमेकम- `
५ ५९ ।। एवं संभाषमाणोऽपौ तप्तजाम्बूनदप्रभः 11
४ भिकः १ त्राणि संगृह्य प्रयातः स हिमाल्यम् ।\ ६१ ।। तत्र प्राप्य
ध नं ¶ धनभारसुपादाय गयाशाषवहट यथा|| ६२९
निधि गत्वा विनिक्षिप्य स्वक गु
५ प्रेतानां ऋमहस्त् चक्र शाड दिनेदिनं
मे \। यस्य यस्य यथा राद स करोति दिने |
॥ ) त स तस्य तदा स्वप्ने ददोयत्यात्मनस्तनुम् ॥' जरवीति च महा- `
ध ति नध \। ६४।। प्रतभावमिम त्यक्त्वा प्राप्तोऽस्मि परमां गतिम्
: ततस्तु ते विमानस्था ऊचुरच बणिजं तथा ।\ ६५ ।। त्वया हि तारिताः सवं कि-
० [वयापे । प्रयामः स्वर्गति सव इदानीं त्वत्प्रसादतः ।। ६६ ।! साधुसद्धो
नहि वृथा कदाचिदपि जायते ।! एवमुक्त्वा गताः सव विमानः सूयंसलिभः ।। १ \.
दिव्यरूपधराः सर्वे द्योतयन्तो दिह दिक्च ।। स कृत्वा धनलाभेन प्रेतानां सद्गति
बणिकं ।! ६८ ।\ जगाम स्वगृहं ततर मा
। पुजयित्वा जनादंनम् ।। ४ ९ ।। दान दत्त्वा
सद्धमे द्मे च महानद्यो प्रतिवषमतन््रितः ॥ ७०
भागतः ।। अवापपरमं स्थान दुलभ सममा
नद्यः पायसकदंमाः ।। शीतलामलपानीया
मासाद्य वणिडमहात्मा भ्रतप्तजा
स्वगे सुरेमे मुदितः सदव ।। ७२ ।'
दध्योदनं शस्तमुपवासः परो विधि
गाधिना । एतेकचान्यद्च रः
युता भवणेन साधं सा वे जये
[थ
~ कमितौ गतः \। ६० ॥! स्वेत प्रेतनाथे वे प्रभावात्स
स भाद्रे युधिष्ठिर । श्रवणद्वादशी योगे
विप्रेभ्यः सोपवासो नितेच्ियः ॥
।। चकार विधिवदानं ततो दृष्टान्त-
पानवेः ।। ७१ ॥ यत्र कामफला वृक्षा
पुष्करि ५ करिण्यो मनोरमाः ।। ७२ ।। तदेश्च- `
म्बनदभषिताद्धः ।! कल्पं समग्रं सुरघुन्दरीभिः `
बधश्रवणसंयुक्ता द्वादशी सवकामदाः \। दानं
।| ७४ ॥। सगरेण क कुत्स्थेन धृन्धुमारेण `
जेनर कामदा द्वाद्ञी कृता ।\ ७५।। या ाद्क्ी बुध- ५ |
त कथिता मुनिभिनेभस्ये । तामादरेण समुपोष्य `
प्राप्नोति सिद्धिमणिसादिगुणोपपच्नाम् ।। ७६ ।! इति हेमाद्रौ `
सम्व -कथा।। अस्यामेव वामनजयन्तीद्रतम् ।। हेमाद्रौ भविष्ये. `
क नि
= भिरि = ९ श्रोणायां श्रवणद्वादद्या मृहू तेऽभिजिति परभुरित्यादिना श्रीमद्भागवते श्रवण |
नै ॥ द्राददयास्ते विधिः प्रोक्तः श्नवणेन युधिष्ठिर ॥। सव पाप
हेमद्रावित्यादिना शिखितकथायां एकादशी यदा च स्याच्छ्- = `
रोषेननैकाद या रं वामनोत्यत्तिः प्रतीयतेतथापि कथारंमे `
(रताः "ल. ~ प्टदलम्कसिहत्र. -. = न (९२९).
[र
( ` दैत्यो बलिर्नाम महाबलः ।। तेन देवगणाः सवे त्याजिताः सुरमन्दिरम् ॥ ४॥। त्वं `
| गतिः सवेदेवानां शीघ्र कष्टात्समुद्धर ।। देत्यं जहि महाबाहो बलि बलवतां वरम्
| । बभूव देत्यानां देवतास्तोषमागमन् ।। १५. ।! जातकादीञ्छुभकरान्संस्का रान्स्वय
। प्र्षमनः सर्वसौख्यप्रदायकः ।! १।। एकादशी यदा सा स्याच्छवणेन समन्विता |! `
| विनया सा तिधिः प्रोक्ताः ब्रतिनामभयप्रदा ।। २।। पुरा देवगणेः सर्वेः समवेतेवै- `
| राथिभिः 1 वरदः प्रथितो विष्णुरिन्रार्यनिलसंयुतैः ।। ३ । बल्वानलितो
| ॥ ष् \ त्वा विष्णुस्तदा वाक्यं देवानां करुणोदयम् ।॥ उवाच वाक्यं वाक्यज्ञो
। देवानां हितकाम्यया ।। ६ ।! विष्णुरुवाच ।। जाने चिरोचनसुतं बलि त्रैलोक्य `
। कण्टकम् ।\ तपसा भावितात्मानं शान्तं दान्तं जितेन्द्रियम् ।! ७ ।'मद्धक्तं मद्गत- `
। प्राणं सत्यसन्धं महाबलम् \ प्रजापतिसमं स्वात्मप्रनानां प्रियकारकम् ॥ ८।॥ `
| न गुणास्तस्य शक्यन्ते वक्तुं केनापि भूतले ।) अवयं तपसोपेतेभोक्तिव्यं तपसः `
| फलम् ।! ९ ॥\ तपसोऽन्तस्तु बहुना कालेनास्य भविष्यति ।। यदा विजयदं दैत्यं `
। ज्ञास्ये कालेन केनचित् ।। १० ।। समाहृत्य धियं तस्य तदा दास्ये दिवौकसाम् ॥ `
` अदित्तिमौ पुरा देवा अजयत्पुत्रगृद्धिनी \। ११ ।। तस्था मनीषितं कायं मयाव्दयं
| सुरोत्तमाः ।। तस्यां संभूय युष्माकं कार्यं संपादयाम्यहम् ।! १२ । कृष्ण उवाच `
। अथ काले बहुतिथे 'सादितिगुिणीभवेत्' ।। सुषुवे नवमे मासि पुत्रं सा वासनं
हरिम् । १३ ॥। वस्वपादं ह्लस्वकायं महाशिरसमभकम् ।। पाणिपादोदरकृशं `
` ्वस्वजद्खोर्कन्धरम् ।\ १४ । दृष्टवा तु वामनं जातमदितिर्मोदमापवं ।\ भयं
वय- `
| मेव हि ।! चकार कश्यपो धीमान् प्रनापतिसमम्वितः ॥ १६ ।॥ आबद्धमेखलो `
दण्डी जटी यज्ञोपवीतवान् ।! कुशचर्माजिनधरकमण्डलुविभूषितः ।! १७ । बले- र ध
` स्थितो ह्यहम् ।1 १९ ।। दत्ता दत्ता तव मया बलिः प्राह द्विजोत्तमम् ।\ ततो व धः घ- ए
ोऽनन्तविक्रमः ॥॥ २० ।। पादौ भूमौ प्रतिष्ठाप्य शिरसावृत्य
1 देकौाल्लोकौाललारे ब्रह्मणः पदम् ।२१।॥। न ततीयं पदं
प प 1
देवो लोकपालानुवाच ह॒ \1 स्वानि धिष्ण्यानि गच्छध्वं तिष्ठध्वं विगतज्वराः ।।
॥ २६ ॥ देवेनोक्ता गता देवा प्रहृष्टाः पूज्य वामनम् \। देवः कृत्वा जगत्कायं |
तत्रैवान्तरधीयत ।। २७ ।! एतत्सर्वं समभवदेकादद्यां नराधिप ।! तेनेष्टा देव-
देवस्य सर्वथा विजया तिथिः ।१२८।। एषेव फाल्गुनमासि पुष्यंण सहिता नृप
` विनया प्रोच्यते सद्डः कोटिकोटिगुणोत्तरा ।। २९।\ एकोद्दयां सोपवासो रात्रौ
` संपूजयेद्धरिम् । कुर्यात्पाच्नं तु सौवर्णं रोप्य वा दारूवंदाजम् \। २० ।। सौवण वासनं
कुर्थात्स्ववित्तस्यान्सारलः ।! क्षिखाकमण्डल्धरं छत्रयज्ञोपवीतिनम् ।! ३१ ।!
आच्छाद्य पात्रं वासोभिरहतः फलसंयुतम् ॥ मागण चमणा नद्धं मक्त्या वा
शक्त्यपेक्षया ।।! ३२ ।। तिलाढकेन संपूरणं प्रस्थेन कुडवेन वा ।\ अलाभे यवगोधूम
शुभैः शुक्ठतिलेस्तथा ।। ३२ ।। तस्मिन् गन्धेःपुष्पफलेः कालोत्थरचेयेद्धरिम् 1
नानाविधैश्च नैवेच्भक्ष्यभोज्य्गुडोदनेः ।। ३४ ।। मत्स्यं कूम वराहं च नारसिंहं `
च वामनम् ।। रामं रामं तथा कृष्णं बौद्धं कल्क समचेयेत् । ३५ ।\ पादाद्यकंक-
५. भद्धषु शीषन्तिं पूजयेत्ततः । एभिर्म॑न््रपदराजञ्छद्धया गरुडध्वजम् ।। ३६ ।। `
उद्यापनं ततः कुर्याद्द्ादशेवेत्सरस्तथा ।। सौवर्णी राजतीं ताम्रं मूति कृत्वा चतुभु-
जाम् ।! ३७ \। हादषश्यास्तु दिने प्रप्ते गुरुमभ्यच्यं हाक्तितः ।! सदाचाररतं पाथं
बेदवेदाद्धपारगम् ।\! ३८ ।। अस्मदीयं व्रतं विप्र विष्णुवासरसंभवम् ।। संपुर्ण `
तु भवेद्येन तत्कुरुष्व द्विजोत्तम ।। ३९ \\ तस्याग्रे नियमः कार्यो दन्तधावनपूर्वकम् `
स्नानं कृत्वा मन्त्रपर्व, नचादौ विमले जले ॥\ ४० ।। तर्पयित्वा पि तृन्देवान्पुजये- `
न्मधुसुदनम् ।। देवं संपूज्य विधिवद्रात्रौ जागरणं चरेत् ।। ४१ ।। ततः प्रभातसमये `
स्नात्वाचार्यादिभिः सह।! वामनं पुजयेत्पराण्बद्धोमं कुर्याद्विधानतः । ४२
मन्त्रेणेदं॒विष्णुरिति समिदाज्यतित्रौदनेः । प्रतिद्रव्यं सहस्रं वा शतमष्टोत्तरं `
हनत् ।॥। ४३ ॥। ब्राह्मणान् भोजयित्वा तु द्वादल्ष्टब्रती नृप ॥। प्रतिमां च तथा
षेनुमाचार्याय निवेदयेत् ।! ४४।१ एवं कृते तु राजेन्द्रः गाः कृष्णा ादशाष्ट
टवा! ॥ ।
1 ० षट् चतस्रोऽथवा देया एकावापि पयस्विनी ।। ४५ ।। वामनः प्रति ह्ाति ।
“ १ ददाति च वासनस्तारकोभाभ्ांः वामनाय नम्ये नमः ।। ४६ ।
त्था सम्पजयेद्राजन्स्वत्ेष विधिः `
व्रतानि] हिन्दीटीकासहित ` (६३१)
समाख्याता द्वादशी श्रवणान्विता ॥ सगरेण ककुतस्थेन धृन्धुमारेण गाधिना ।॥ = `
एतेक््वान्येश्च राजेनद्र कृता वे दादी तिथिः ।। ५१।। इति भौहेमाद्रौ भविष्योत्तर- `
पराणे वामनद्रादशीब्रतकथा सम्पूर्णा \। अथ वामनपूजा ।। मम इह जन्मनि `
` जन्मान्तरे च कृतदोषप्रायशचित्ता्थं पुत्रपौत्रा्यभिवृद्धचर्थं वामनजयन्तीनत्रतमहं `
` करिष्ये, तदङ्खतया विहितं षोडशोपचारर्वामनपुजनं करिष्ये \! धृत्वा जलमयं `
रूपं देवदेवस्य चक्रिणः ।। बह्याण्डमुदरे थस्य महाभतेरधिष्ठितम् ॥ मायावी `
` वामनः श्रीश्च च जायातु जगत्पति; \। आवाहनम् । अजेयाय महेशाय जलजा- `
` स्याथ शंसिनें \\ नमस्ते केशवानन्त वासुदेव नमोऽस्तु ते ।! ध्यानम् ।। कमण्डल्- `
` क्विखाधारी कुन्जरूपोऽसि वामन ।। छत्रदण्डधरो देव पाच गृह्ण नमोऽस्तुते ।॥ `
पाद्यम् ।\ सहस्रशीर्षा त्वं देव श्रवणक्षसमन्वितः । अर्यं गहाण देवेश रमया
` सहितो हरे ।। अध्यस् ।\ कमण्डलुस्थितं चार शुद्धं गङ्धोदकं मया ।। देवेशाचमनार्थं `
| तदाहृतं प्रतिगृह्यताम् ।! आचमनीयम् ।।! ॐ जलजोपमदेहाय जल्जास्याय
। दाद्भिने ।। जलराशिस्वरूपाय नमस्ते पुरुषोत्तम ।। स्नानम् ।। महाहवरिपुस्कन्ध- `
| धृतचक्राय चक्रिणे ।। नमः कमलकिञ्जल्कपीतनिर्म॑ल्वाससे ।। वस्त्रम् ।\ श्रीखण्ड- `
| चन्दनं दि० । चन्दनम् ।। महिलिकाश्ञतपत्रं च जातीपुष्पं सुगन्धकम् । चम्पकं `
। जलजं चेव पुष्यं गृह्ण नमोऽस्तु ते ॥। पुष्यम् ।। अथाङ्खपूना ॥ मत्स्याय नमः `
। पादौ पूजयामि ।। कूर्माय ° जानुनी ° \! वराहष्य० गुह्यम् ° । नुसिहाय० नाभिम्० `
| बामनाय० उरः० ! रामाय० भृजौ° । परशुरामाय ° कणी ० । कृष्णाय
| बौद्धाय० नेत्रे० । कल्किने° शिरः पुज० । धूपोऽयं देव देवेश श्ाद्भुचकरगदा चत कद दा एवाव धर । ॥ 1
। अच्युतानन्त गोविन्द वासुदेव नमोऽस्तु |
। काक्षमेव च ।1 त्वमेव ज्योतिषां ज्योतिर्दोपोभ्य प्रतिगृह्यताम् ॥। दीपम् ।\ अन्नं `
८ चुविधं स्वा० नैवेद्यम् \} आचमनम् ।\ करोद्रतेनम् । क फलम् न ।। ताम्बूलम् ।।
= न
(६३२) त व्रतराज कि [ द्राददी- |
नीचछछत्रोपानत्संयुक्तं शिक्यममुकदा्मणे ब्राह्मणाय तुभ्यमहं संप्रददे इति दद्यात् ।॥ `
इति वायनम् \। इति वामनपुजा समाप्ता ।॥ `
५ शुद्ध दादश्षी--भाद्रषदकी जो हौ, दरुग्धव्रत उसमें होता है उसमें ही दुग्धत्रतका संकल्प किया जाताहै ।!
- दुग्धके व्रत (त्याग) मे खीर आदि इुग्धके वे पदाथ जिनमें कि दधका वही रूप बना हो उनका तो त्याग `
कहा है, पर दधि घृत आदि उन विकारोका तो ग्रहणी होता है जे कि प्रकृतिसे गुणन्तरमं परिणाम पाचके
ह इस पर शंका करते हं कि यदि एसा मानोगे कि प्रकृतिके ग्रहुणसें उसके गृणान्तरमें परिणत हृए विकार _
ग्रहणन होगे तौ ग्यावन गायके दरधके निषेधमें एसे दूधके आपके गृहीत विकार दधि आदिका ्रहणहोजायगा, `
` इसका उत्तर देते हं कि जंसे ग्यावन, मायके दरुधका निषेध किया है उसी तरह उसके दधके विकारोकाभी
उसी वचनसे विषेध फिया गया है इस कारण उसके विकारोकाभी ग्रहण न हौगा । यही अपरकंमं शङ्खका `
कचन है कि, जिन दूधोको अभक्ष्य कहा है उनके विकारोके भक्षण कर उेनेपर प्रयत्न पूर्वेक एकाग्रचित्त `
ही सात रात ब्रत करना चाहिये । यहां गोमूच्रका पान ओर यावकाच्चका भोजन त्रत कहाता है । भेष्रपद `
श्रुक्लाद्रादन्ञीमें पारणा तो उसीमं करे जिसमेकि श्रवणकायोग न हो, क्योकि दिवोदासौयका वचन मिल्ता है
कि जो आषाढ, भाद्रपद-का्तिक इनके शुक्ल पक्षम अनुराधा श्रवण ओर रेवतीके योगमें पारणा न करनी
चाहिये । (इसका विशेष विचार आषाठकी द्वादलीमे किया हे) यह् वहांही स्कन्दपुराणमेका वचन भौ लिखा
` हआ मिलता है कि जो एकाद्शीका ब्रत करके श्रवणमें पारणा करता है वह् बारह दादशियोके पुण्योको
नष्टकर डालता है, इस वाक्यका अयनाद भी वहां ही लिखा हभ दहै कहे महीपाल ! यदिविदेषकरके
शवण बढता हो तो भी पारणाके किए दरादक्षीका कंन न करना चाहिए । क्योकि भवणके साथ दादी `
` जीचली गयी या पारणाका समयन रहेगा तो फिर भोजन नही किया जा सकता । इस कारण उसीमे भोजन = `
करल यदि पूरवोक्ति स्थितिहो तो यह् माकंण्डेयका वचन् है । कंसे श्रवण युतामें भौ भोजन करले इसपर विक्ञेष `
. कहते हँ कि जब श्रवण योग न जानेवाला हो उस समय श्रवणके तीन भाग करके बीचकी २० घटिकाओंका `
` त्याग करके पारणा कर लेनी चाहिए । यही विष्णुधममं भी कटा है कि श्रवणके बौचमं तो करवट तेह
तथा सुप्तिप्रबोध ओर परिवतेनका समयही त्याग करने योग्य है इससे श्रवणके प्रथमभागका निषेध नहीं `
` इञा (यही पक्ष ब्रतराज कारको अभीष्ट है क्योकि, इस पक्षपर वे निर्णय सिन्धुकौ तरह केचिततु' नहीं कहते) `
पर कोई तो श्रवणके चार भाग करके बीचके दो पादोको जनीय कहते हँ (यह पक्ष ब्रतराजको अभीष्ट `
नहीं है इसीलिए यें केचित् करके इसे लिख रहे हें यहां निणयकारने भी कह दिया है कि इसका मूल चिन्तनीय `
` ` ह \) विष्णुके परिवतनका उत्सव भौ इसीमं होता है । सन्ध्याके समय विष्णु भगवान्की पुना करके उनकी `
`. श्रा्थना करनी चाहिए } मन्त्र तो तिथितच्वमें कहा है फि, है वासुदेव ! हे जगत्नाथ ! आपकी यह द्वादशौ =
प्राप्त हो गयी । हे माधव ! करवट बदलिए ओर सुखपूवक नींद लीनिए \\ शक्त (या शकरकी ध्वजाका उत्थापन = `
इसी दिन होता है, एसा जपराकंम मगंका वचन है कि भाद्रपद शुद्धा द्रादजलीके दिन राजा इन्दर (याउसकी- `
कहते हे, एकादकीमे मे दसी श्रवणयुक्ता द्वादज्लो हो तो उसौमे उपवास करना चाहिए, क्योकि, यह् विष्णुश्ुलल- ` ५
एक योग विहोष हैः यही माल्स्यषुराणमं लिखा हज है कि, श्नवणसे छूई हुई द्वादशी यदि एकादशौका
यह् विष्णुभ्ुखल्नामक वेष्णव योग होता है । इसमें उपवासकरनेसे मनुष्यनिष्पाप होजाता ` `
^. विष्णुण्ुखर होता है अन्यथा नहीं होता । हेमाद्रि मौर निर्णयाम्तके विष्ण्डुदल योगका विचार करके
` श्वण लक्षत हो तो भो, पूर्वाक्राही ग्रहण होता ह । दिवोदासीय ग्रन्थमें लिलता हमा है कि, रालके पहिले पहरमे
व्रतानि] क = ` हिन्दीटीकासहित ` स (६३३) `
` विष्णुश्ुखल योग होजाता है । निणेयामृतमे तो-्रवण भौर दादौ दोनोंकाही एकादल्ीमे योग हो तो ` ्
फिर पूवकि ग्रहणपर जते हं कि, आधीरातसे लेकर जबतक सुग्यं भगवान् न निकले तबतक दो कला मात्रभी
श्रक्ण योग हो तो पूर्वा, नही तो उत्तराका ग्रहण करना चाहिये । थह योग बुधवारके दिन पडजाय तो “
अत्यान्तही श्रेष्ठ है, यदि एकादशी श्रवण नक्षत्रसे युक्त हो वादश न हौ तो एकादस्लीके दिनही ब्रत करना
चाहिये । यदि शक्ति न हो तो एकादशीके दिन गौण उपवास करके हादशीमे उपवास करणेना चाहिये । गौड
८
। इसे काम्यत्रत बताते है किन्तु दाक्षिणात्य इसे नित्य माभते हैँ । पारणा तो तिथि ओर नक्षत्र दोनोके अन्तमं `
करनी चाहिये । नहीं तो एककेही अन्तमं पारणा करल । बरतविधि-अभ्नि पुराणम मैत्रेय जौका वचन है |
कि, है राजेन्दर ¦ जसा कि, बुद्धिमानोने समाधिमे देखा है उस विधानको ध्यानपूर्वकं 'सुन, एकादक्षीके दिनि `
उपवास करके कहै हुए नियम करे । सावधानीके साथ दंतोकौ शुद्धि करके मौनी ओर नितेन्धिय श्रवण
८ ओर हादक्ीके योगमें विधिपुरवेक उपवास करके जनादंनका विधिपू्वक देवपूजन कर दूसरे दिन भोजन ` |
करूगा एसा संकल्य करे । नदियोके संगममं स्नान करे, सोनेके वैधं बने हुए सवर्त्र वामन भगवानृका पुजन `
करे । नवीन बारह अगुल ऊचे बिना एूटे स्वणं पात्रको वस्त्रोसे संयुक्त कर पीतं वस्त्रसे वेष्टित करदे, गेनेके
| पात्रसे अध्यंदान करे । दधि, चन्दन, अक्षत, फल ओर सुवणंभौ उसमें रहना चाहिये \ हे पदमनाभ ! तेरे ल्यि
| ४ । करताह। कमलकी पीठी केशरकी तरहुके स्वच्छ पीतवस्त्र धारण करनेवाले एवं बडे भारी वैरियोकी 1
(1 गर्दनोके किये चक्रधारण करनेवाले चक्तीके लिये नमस्कार है । शाङ्कघनुष, नन्दन तख्वार, पाचजन्य शख
` नमः है । इस प्रकार मनुष्य चिधिपुरवेक माता ओर वन्दनादिकोंसे पूजन करके जलशायी भगवानूके
` नमस्कार है, हे जलम शयन करनेवाले तुके नमः है । बार वासन स्प धारम करनवाल तक्ष म अध्यन . |
1 | भौर कमलको हप्यम् लिये हए वामनके लिये नमस्कार है । यज्ञरूप, यज्हवर; यज्ञके उपकरण रूप एवम् | ,
0 । ८ स्वयंही बयहं | यज्ञके भोगनेवारे तथा फलके देनेवाले वामनके लिये वारंवार नमस्कार है देवोके अधिपति देव |
एवम् सब देवोके उत्पादक तथा सबके स्वामी वामनदेवके विये वारंवार नसस्कार है । मत्स्य, कूम, वराह, , `
नरसिंह, राम, परशुराम, बलराम, रूप धारण करनेवाले वामनके लिये नमस्कार है । तुङ्ञेश्रीषरकेल्यि |
1 ` रातको जागरण करना चाहिये । जलमय रूप धारण करके स्थित हए देवदेव जिस चक्रीके उदरमे महद् ५
भूतोसे अधिष्ठित यह ब्रह्माण्ड है वो मायावी लक्ष्मीपति जगतके स्वामी वामन यहां भेरी रक्षा करे । इस `
(ददे) ` व्रतराजन [ दाव्सी-
भरा हुमा घडा वस््रसे वेष्टित करके छतरी भौर जूतोके साथ ब्राह्मणको दे दे । उसकी दुर्गेति नहीं होती ! वहं
श्ेष्ठ गतिको पाता है उसे अक्षय स्थान मिलता है इसमें विचार न करना चाहिये । भवण ओर बारहके योगम `
यदि बुधवार भौ पडा हुआ दहौ तो इसे बड़ी भारी बडी कहा गया ह । हे भृगु वंशमं जन्म लेनेवार ! इसमं
क किया हुमा स्नान, जप, होम, दान, देवपुजन सब अक्षय होजाता है । हे राम ! वो उस दिन किसी भी जगह
`, स्नानकरे उसे संगमे गंगास्नानका फल मिलता है इसमें संज्ञय नहीं है । श्रवणमें जितने भौ संगमहोवं
परम तुष्टिके देनेवाले ह \ वितेष करे श्रवण ओर द्ादश्षीका योग है यदि इनमें बुधका थोग हो जाय तो
ध ओर भी विशेष हजाता है । जसे कि श्रवण ओर बुधसे युवत द्राक्सी कही है, उसी तरह तृतीया भीषएसी 1
सन कामोके फलको देनेवाली कही है । हे घर्म ! जैसी तृतीया कहौ है उसौ तरह पंदरस भी इन योगोकी श्रेष्ठ
ह \ यह् श्री विष्गुधमौत्तरका कहा हुमा खरा विधान पुरा हुआ ।। ब्रह्यवेवर्तेका कहा हुमा इसरा विधान--
भेद्रपद या फालत्मुनमं जो शुद्धा एवं श्रचणसे संयुक्ता दादी हो बो संगसममं विजया कही गयी है । इसमे
दध्योदनके साथ बारिका कुंभ दे वामन भगवानुको यूज कभी भौ प्रेत नहीं बनता उसके वंशका उद्धारकर `
लिया वहु पितृचणसे दटगया जिसने भद्रपदे उक्त तिथि वार आदिको संगमभे स्नान करके वामनका `
पुजन कर दि, वो परम स्थानम पहुचकर विष्णु भगवान्का सायुज्य पाता है । यह् अह्यवेवतंपुराणका कहा
| द हुमा विधानान्तर पररा हुमा ।। भविष्यपुराणका कंहा हुमा विधनान्तर--युधिष्ठिरजी बोरे, कि हे पुरुषोत्तम !
जो पुरुष उपवासके लिय न समथं हौ उसके लिये जो सरवश्ेष्ठ द्वादशी हो उसे किये । श्वीकृष्णजी बोडे कि,
भद्रपद महीनाके शुक्ल पक्षम श्रवणसे युक्त दादश हौ वह सब कामोके देनेवाली परम पवि होती है उसके
उपत्रासमें महाफल होता है \ हवादश्षीमे व्रतकर नदिथोके संगममें स्नान करके बारह द्वादशियोका फल पानाता ` ह
है \ यह् भविष्यपुराणका कथित एवं हेमाद्रि संगृहीत विधानान्तर परा हञा ॥ विष्णु रहस्यका कहा हुभा ८
विधानान्तर~--द्वादशीमं उपवासं ओर इसमें जयोदशीके दिन पारणा जो कि, निषिद्ध है वहेभी करनी
चाहिये, यह परमेरवरकौ आल्ञा है । यदि वही द्वाद बुष ओर श्रवणसे संयुक्त हो तो अत्यन्त ही बडीहै ! =
उसमे जो कुछ दिया जाता है बहु अक्षय है । हे भारत ! यदि श्रवणसे युक्त द्वादशी हो तो नदियोके संगममे
स्वान करके गद्खास्नानका फल भिर जाता है ! यदि उपवास किया हुभा हो, इस कथनमें विचारकी आवश्यकता `
नहीं है । बुद्धिमान् जलके भरे हुये कुंभको स्थापित करके उसमें पञ्चरत्न डाल वस्त्र ओर उपवीत रलकर `
` उसके ऊपर विधिपूर्वकं लक्ष्मीसहित जनादेनकी स्थापना करके एवम् सोनेके ही शंख ओर शाङ्खं धनुषसे
` विभूषित करके विधिपूर्वकं स्नान ओर चन्दन चढा सफेद वस्त्र उढा छत्र ओर खड़ाऊं चढा पीछे वासुदेव `
भेगवान्को नमस्कार इससे शिर; श्नौधरके लियेन° इससे मुख; वेकुण्ठके लिये न° इससे हदयकमल; श्रीपतिके `
` लिये न° इससे ने; संपुणं अस्त्र धारण करनेवाकेके लिये न° इससे भज; व्यापकके लिये न० इससे कुशि; =
केशवके लिये न° इससे उदरः; त्रेलोक्यके जनकंके लि° इससे भगवान्का गुप्त अंग; सबके अधिपतिकेलि० `
इससे जधा, सर्वात्मके लिये न इससे पाद, है राजन् ! पुष्प, धूष ओर दीपोसे पुजने चाहिये । पीछे धोका
बनाया हुआ नैवेद्य सामने रखना चाहिए । मोदक नये कुम्भ ओर शक्तिके अनुसार दक्षिणाभी देनौ चाहिये, ` `
स प्रकार पुजाकरके वहांही जागरण करावे प्रातः उठ स्नानादिसे निवृत्त हो गरुडध्वज भगवानृकी पुना
कि, हे बुवश्नवण नामवाले गोविन्द ! तेरे लिए वारंवार नमस्कार है । मेरे पापोके की:
सब सुका 9 1 देनेवाला होजा । इसके बाद वेदवेदान्तोके जाननेवाले पुराणज्ञ ब्राह्मणको विशेष `
करनी चाहिये । सुन्दर पुष्य धूपादिक, नैवेद्य फल ओर वस्त्रोके पीछे पुष्पांजलि देकर इस मंत्रको बोलना `
| ५ नि | | न | हिन्द री टीकां | , तं । स { ट्त ठ ।
। (1 ट श ४ 11 ध
५ ध खदिर, पलाश, करीर ओर पील अथवा हे पाथं ! बडे जडे दृढ काँटोके वक्ष हे,
जहां कहींही गन्धके प्रणियोसे आकीणं भूमि दीखती है वह सूर्यके किरगोसे संतप्त शष्क ओर तण रहित
जीवं जीवित रहते ह । ६।। है राजन् ! न वहां फनी एवं न उपल तथा न वादल ही हे । आसमानमें पक्षी
। | ५ ` ॥२६।।! दध्योदन ॥ ओर पानीसे बनियंकी तप्ति होगई, उसी समय प्यास गई, उष्रेग शन्त हआ ।)
(4)
उनसे बो ठका हुजा है।1४11 `
५ है ।)५॥ कहीं कहीं तौ उस्म याग जलती हुई सौ दीलती है, क्मंगति बड़ बलवान है, इतने परभी उसमे
उडतेतो कभी ही दौखते हं 1\७1। है राजन् ! उसके गहन जंगम छोटे छोटे बच्चोके याथ उत्तम उत्तम `
। प्ली प्यासक्े मारे मरणासन्न दीखते है।\८।।'्याससे मृण रेतौको पानी मान वेगसे उछलते कदते हृएरेतीमे _
। ही फिरते फिरते उसीमं नष्ट होजाते हैँ जेसे-पानीसे रेतीका पुल नष्ट होजाता है ।\९।\ उस एसे देवामे `
| दैवका मारा कोई वैष्य जिसका नाम हरिदत्त ओर वाणिज्ये ¶ जारा करता था ।१०।। अयने सायसे विद्ध ,
| इकर मरुजांगल देशम प्रविष्ट होगया, वहां उसे सखे सुले बरे मलिन जीव दीखे \। ११।। हृदयम भ्रान्ति
होगयौ भूख प्यासका सतायाहुजा इधर उधर घूमने ल्या कि, यहां वस्ती कहां है, आदमी कहां है, मे कहां `
ह कहां जाऊ, क्या करू? ।\१२।। वहां उसने उसी दशाम भूख प्याससे व्याकुल, एवं भखसे दुबले, हां `
निकरी हुई, सुखे, बडे बड वृषणोवाल प्रेत देखे ।\१३।} उनके पे रोमं तांतसे हड्यां बंधी हुई थीं इर उधर
घुमते फिरते थे वो बनिया इस आइचर्थको देखकर उर गया ॥\१४।। उरता उरता हुआ उनके साय उनको `
वंचित करता हुमा चलने रगा वहासि चलकर वे पिज्ञाच एक बड़े भारी न्यग्नोधके पास पहुचे ॥।१५।॥ `
| उसकी छाया शौतल थौ वो विस्तृत था वे उसके नीचे बैठ गये वह् बनियां भी एक ओर बैठ गया ॥१६।॥
| । एकं बडा विकराल प्रेत किसी प्रेते कन्धे पर चढा हु जिसे कि, चारो ओरसे परेत घेरे हुए थे,देखा ॥१७।। |
(| ` जो श्ान्तिुरनेक आरहा था, स्तुतियां होती जाती थीं, प्रेतके कन्धेसे उतरकर उसके पास आया ।१८।। त
। उसने उस शरेष्ठ वैदयका अभिवादन करके ये वचन कहे कि, आप इस घोर प्रदेशमे कंसे चले आये? ॥१९।। ध
वह बुद्धिमान् बनिया बोला किं, पहिले कमेकि कारण देवयोगसे संगसे बिद्छुडकर इस चनमे चला आया ।\२०।
मूक्षेप्यास सता रही है भूखके मारे श्रम हो रहा हैः प्राण कण्ठमे आ रहे हैवाणौ नष्ट हो रहीहै।।रश५मे `
| . एसा कोई उपाय नहीं देवता, जिससे मेरी जिन्दगी बचे । श्रीकृष्णजी बोरे कि, इतना कहनेपरप्रेत बनियास = ` {
। बोला कि।।२२। इस पुन्लागका आश्रय लेकर एक मुहृतं प्रतौ्षाकर मे आतिथ्य करूंगा । पौ सुलपु्ंक ` 1
। चले जाओगे ।\२२।। वहं प्यासका मारा इतना कहनेपर वेसेही करनेरुगा मध्याह्नकाले फिर वो उसी ` ५
| देकामे आगया ।॥२४।। पुल्ागवृक्षसे एक सुन्दर ठण्ड पानीको देनेवाली वारिधानौ तथा दध्योदन समेत वर्धमा- `
| नके साथ ।२५।। उतरकर जो कि, अतिथि बनियाँ भा प्यासा था 1 उसे दध्योदन ओर पानी देनेलगा `
स 0
न वः
(436. | ब्रतसाज् (र ` [द्वाद्ी-
गिनि
0 1 4226 प व 1
ध
# कनिना
ङ म न विनि
हारयाल ब्राह्मण श्रवण ओर द्वादकीके योगम स्नान करके नहाया।\४२।। दध्योदनसे भरे हए सकोरोके साथ
चन्द्रभागके पानीसे भरी हई नई मजबत वारिधानी ।।४२।। छत्र, जूती, जोडा, दो वस्त्र ओर भगवानृकी
प्रतिमा किसी श्रेष्ठ ब्राह्मणके लियेदो क्योकि, वो विचारकील एवं रहस्योका जाननेवाला था (1४४। सैनेभी `
ध उसके साय ब्रत किया था एवं उसके धनको बजानेके लिये कुछ तो उसकी थीं हीं कुड अपने सुन्वरवारिधानी
र दे दीं \\४५।1 तथा चन््रभागाके ब्राह्मणके लिये दध्योदनके साथ सकोरा भौ दिये । इस कामको करके कुछ
समयके बाद घरको चरे अये 1\४६।} मरकर नास्तिकताके कारण इस घोर वनमें प्रेत बन गया, जिसे `
~; है निष्पाप ! तुम देख रहे हौ ।\४७।।शवण इादल्लीके योगम जो मने ब्राह्मणको उध्योदनके सकोरोके `
साथ सुन्दर वारिधानी दी थी ।\४८।। यह प्रतिदिन मध्याह्लके समय रोज मेरे लिये आजातौ है जसाकि, .
ह निष्पाप वैक्य ! तुने अभी देवा है !। ४९) उपवासके फलसे सुञचे पूर्वेजन्मका स्मरण है दधि अन्न ओर
जाकर खजाना राप्तं करोगे ।\५८।} है महामते !
पानोके दानसे येभी मेरे अश्चय है ।५०।। ये सब ब्राह्यणके धनको हरनेवाङे पापी हें इसी कारण प्रेत बनं |
हं इनमे कुछ परदारके व्यभिचारी हुं तथा कुछ एक् स्वामीके साथ निरंतर वेर करनेवाले हे ॥५१॥। कुछ
निरंतर सित्रदमोह करनेवाले है; ये सब इस घोर देशम प्रेत बने हँ तथा अन्नकी खातिर मेरे दास बन गये `
हं \५२।। सनातन परमात्मा विष्णु भगवान् अक्षय ह उनका उदक्च केकर जो दिया जाता है बह अक्नय होजाता
है ।\५३। उसी अक्षय अन्नसे ये वारंवार तृप्त किये जाते ह इसीसे तृप्त रहते हँ पर प्रेतपनेके कारण इनका `
दुरबलपना कभी नहीं जाता ।।५४।। मे स्वयंही पधार हृए तुञ्च अतिथिको । आज पूनकर प्रेतभावसे छट
ध गया अब परम गतिको जाता हूं\\५५। किन्तु मेरे बिना ये सब इस घोर वनमे कर्मप्राप्त प्रेतयोनिकी कठोर ` |
पीडाको अनुभव करगे ।\५६। है महाभाग मेरे अनुग्रहुकौ कमनासे या मुद्चपर कृपा करके आप इनमे _
नाम गोत्र मालूम करलं ।\५७।। ये बिचारे आपके पास सिलसिखेवार बैठे हे । तुम हिमाल्यपर ` |
इसके बाद आप गयातीथं जाकर एक एकके उदेकशषसे `
विधिपूर्वकं बिना कष्ट उटाये श्राद्ध करे ।\५९।।एसे कहता हभ वो तपाये ए सोनेके समान चमकने ल्या, `
बिमानपर बेठकर वहसे स्वगं चसा गया ।\६०।। प्रेतनाथके स्वगं चले जानेषर वर्य उसके प्रभावसे एक `
| कके नाम गोत्र पूखकर
` छेकर गयाती्थके वडको पहुंचा ।।६२।। प्रतिदिन कमसे प्रेतोका
कर हिमालय चला आया ।\६१।। वहसि खजाना खा अपने घरमे पटक बहुतसा वन॒ `
का श्राद्धे करने लगा । जिस जिस दिन निसजिस `
प्रेतका वहू बनिया श्राद्ध करता था ।\६२।। वह वहु उसी उसीदिन स्वप्नसे अपना श्षरीरः दिखाकर कहता . ॥
थाक्ि, हे निष्पाप! है महाभाग ! तेरौ कपास । ।६४॥ मे इस प्रेतभावको छोडकर परम गतिको प्राप्त ` ्
होगयाहूं । जब उन सब प्रतोका श्राद्ध क्म पुरा होगया तो वे सब विमानपर बैठकर बनियसि बोले कि।६५। `
हि शरेष्ठ वेय ! तूने हम सबको पापस तार दिया, इस समय हम सब तेरी कृपासे स्वगेको चङे जा रहै हँ ।1६६॥ `
॥ . कभी भो अहात्मामोका संग व्यथे नहीं होता, एेसा 1 कुः कहकर वे
के योगम जनादेनको दत इको मे पुजे ।\६९।। ब्राह गोन हि ल्यि दान दे।
हो महानवियोके संगमपर ।\७०।। विधिपुवेक दान करके
५ ब्रह्याके पदको
~ : रतानि. : ~... . "< हिन्दीदीकारसहित `. ` - (ददो
(9
॥
|
बामन जयन्तीव्रत--भौ इसीमं होता है यह हेमाद्रिने भविष्योत्तरसे संगृहीत किया है । श्रीष्कष्ण ` |
भगवान् बोले कि, है युधिष्ठिर ! मेने भवणयुता द्वादक्षीकी विधि तुन्ञे कहदी, यह सब पापोकी नारक `
तथा सब सुखकी देनेवाली है \ १।। जब एकादद्ची श्रवणसे युक्त हो तो उसे विजया कहते हं यह् व्रतियोके ` |
भभय देनेवालौ है ।।२।। पहिल वर चाहनेवाखे इकटठे हए सव इन्द्र, वायु, अग्नि, अनिल आदि देवोने बर
देनेवाले विष्णुसे प्राथेना को ।३।। कि, नही जीताजानेवाला, महाबली बलिनामकत दैत्यने सभी देवगणोसि
` ेवोके धर चुट दिये हं \। ४ ।\ आपह सब देवताओकी गति है, मतः श्नीघ्रही कष्टसे उद्धार करिये, है महा- `
बाहो ! बल्वानोमे शरेष्ठ जो बलि है उसे मार दो \\ ५।। विष्णु भगवान् करुणाके उत्पच्च करनेवाके देवोके `
` एसे वचन सुन उनका आशय समसन देवोकी हितेच्छासे बोले । ६ 1 में तीनों लोकों के कंटक विरोचन सुत॒ `
बलिको जानता हूं बो परम तपस्वी श्रान्त दान्त, जितेन्द्रिय ।। ७ । मेरा भक्त, मेरेमें प्राणोको धारण किये `
हए, दुढप्रतिज्न, महाबल, प्रजापातिके समान अपनी प्रजाका हितकारक है ।\ ८ ।। भतल्पर उसके गणोको `
कोई नहीं कह सकता जो तपस्वी होता है उसे अवश्यही तपका फल मिलेगा ।! ९ ।! इसके तवका अन्ततो `
तौ बहुत कालसे होगा; कु कालके बाद विजयके देनेवाले देत्यको देखंगा ।॥ १० ।। उस समयमे उसकौ
भीक लेकर देवोंको देद्ंगा पुत्र इच्छकी अदितिने परिक मेरा बडा यजन किया है ।\! ११।। ह सुरश्रेष्ठो { ` | ध | र 9
उसकी मनोकामना मुश्षे अवर्यही पूरौ करनी है । उसमें होकर भे आपके कारययेको करेगा ।। १२ । इसके |
1 कुछ दिन बीते अदिति गभिणी हो गहै, उसने नो्वेमासं भगवान् वामनको पदा किया ।। १३ \ पाद, काय 0 |
छोटे, पर श्षिरबडा, था, बालस्वरूप था हाथ पर ओर उदर बहुतही छोटा था जंघा उरु ओर क्न्धराभीषोटी ।
. थीं ।। १४ ॥ पदा हूए वामनको देख अदितिको बडौ प्रसन्नता हुई, दैत्य उरे भर देवताओंको सन्तोष हृ `
॥ १५ ॥ ब्रह्माजीके साथ कर्यपजीने स्वयंही पवित्र जातकादिकं संस्कार कराद्यि ॥। १६ । संस्कारा
नन्तर वामन भगवान् मेखला बंध, धारण कर जटा बना, यज्ञोपवीत कुक्च मगचमं धारण कर कमण्डल् `
` हाथमे लिये ।। १७ ।। जल्वान् बलिके डे भारी यज्ञम जा उपस्थित हृष, वामन वेष यज्ञ करनेवाले बलिको `
देखकर बोक्ते ।। १८ । है यजमान ! में याचक हूं मुषे भूमि दौज्यि, वो तीन मेरे पेड होमे उसमें दूंगा!
प १९॥ द्विजोत्तम वामनसे बलिबोला कि, आपको दे दी २ फिर जिसके विक्रमका जन्तही नहीं है ठेावह
। वामन बढने गा ॥ २० ॥। पैर भूमिमें रल शिरसे रौदसीको ढक नाभिे स्वर्गादि लोकोको ओर ल्लावसे `
1 पदको.\\ २१।। रोका जब तीसरे पदको जगह न मिली तो बलि बोले कि, क्या दू यह मुने बताद्ये? `
` सिद्ध ओर देवि इस बडे भारी आर्चर्यको देखा ।। २२ ॥। प्रस हो साधु ! साधु! ! इसप्रकारदेवेशकी `
। प्रशंसा करने लगे । इसके बाद वामन सब दैत्यगणोको
। अपनी सेना ओर अनुयायियों
गि एवं तीनों भूवनोको जीतकर ।१ २३ ।! बलिसे
| ल्तिबोलेकि `
(4 यियों के साथ पाताल चले जाभो, वहाँ भे तेरी रक्षा करूंगा, वहीं तुम चाहे हुए भोगों ।
| को भोगकर ।। २४।। इस इन्द्रके पीछे तुमह इन्द्र बनोगे एसा कहुनेपर बलि वामनको
८ को नमस्कार करकेचला |
शया \ २५.।। देव बकिको छो दष छोडकर लोकपालोसे बोरे कि, तुम श्रान्त होकर अपने२ स्थानोको कि 0
` मनः; है पुरुषोत्तम
4
भाजन
व
पूर्वक पुजनेके येही नाम मंच होने चाहिये \\ ३६ ।। बारह बरसोक पीछे उद्यापनं करे । सोने, चान्दी या ताबेको
चतुर्भृजी मति बना \। ३७ ।\ दादौ का दिन आजानेयर शक्ति के अनुसार , है पाथं ! सदयाचारमं लगे रहने- `
बाले वेदवेदाद्धोके जानकार गुरुका एूजन करे ।\ ३८ ॥ कि, है विप्र ! विष्णुके वासरमं हौनेवाला हमारा
रत जिसं तरह पुरा हो ह दिजोत्तम ! वह करिये ॥ ३९ ।। गरक ही अभे नियम करे, तुन करके नदी आव्कि #
विमल जलम संत्रोसे स्नानं कर ।\ ४० ।। देव ओर पितरोका तर्पण करके मधुसुदनका पुजन करे, देवकी _
चिधिषूर्वेक पूजा करके रातको जागरण करे 1 ४१ ।। प्रभात काल में जाचायेकि साथ स्नान करके वासन- `
को पुजे फिर विषिपूर्वक हवन करे \। ४२।, “म् इदं विष्ण यह् पुजनका संतर है । समिध, आज्य, तिर्ओर
ओदन ये. हव्यद्रन्य हे । प्रतिद्रव्यं एक हजार या १०८ आहुतियाँ हों ।\ ४३ ।। है राजन् ! व्रती बारहया
आढ ब्राह्मणोको भोजन करके प्रतिमा ओर धेनु जाचाथके लिये दे \\ ४४11 है राजेन ! इस विधिके करनेपर ¦
तौ बारह आठ,छवा चार कृष्ण गऊ देनी चाहिये \\ ४५ ।। वा एकह दुध देनेकालो गॐ ही वामनही
छेता है एवं वामनही देता ह हेम तुम दोनोका वामनही तारक है वामनके किए बारबार नमस्कार है ।॥ ४६१ र
है राजन् ! सब जगहकी यही विधि है कि, प्रत्येक ब्राह्मणको कुम्भ दलिणा वस्त्र ओर चन्दनसे शक्तिके
अनुसार पुजन करे \\ ४७ ॥ ब्रह्यणोको भोजन कराके पीछे आय भौ मौन हो भोजन करे । हे ब्रह्मन् ! इस `
प्रकार त्रत करने पर जो पुष्य होता है उसे जानो ।\! ४८ ।। हाथी, घोडा, रथ, पदाति इनका दाता भोक्ता
` ओर भत्सर रहिते होता है । रूष सोभग्यसे सम्पन्न पायरहित नीतिमान् होता है ।1 ४९ ।। पुत्र ओर पौत्रो-
से धिर हुमा सौ वषं तक जीता है । यह् मने आपके लिए एकादशीका फल कहुदिया ।! ५० ।। श्रवण युता | ८
हाद्शी पहले कह दी ह । सागर, ककुत्स्थ, धुन्धुमार ओर गाधि तथा है राजेन ? ! दूसरोने भी यह् दादज्ञी-
` तिथि कौ ह\। ५९।। यहं शरीहेमान्द्िमं कही हुई भविष्यपुराणकी दवादज्लीकी कथा पूरी हुई ॥ पुना-मेरे
जिस देवदेव वक्रीके उदरमे जलमय रूप धरकर महाभूतो केद्वारा ब्रह्माण्ड स्थित है बो मायावी भील एवं ५
इख जन्म ओर जन्मान्तर के लिए दोषेोके प्रायरचित के लिए तथा पज्र ओर पौत्रोको वृद्धिके लिए वामन-
जयन्तीका ब्रत मे करूगा तथा उसके अद्ध होनेके कारण कहे गए षोडशोयचारसे वामन का पूजन भी कंगा। `
जगत्का स्वामी वामन यहां जा जाय; इससे आवाहन; अजेय, महैव, जल्जास्य ओर शंसीके किए `
नमस्कारहै, हि केडाव ! हे अनंत ! हे वासुदेव ! तेरे लिए नमस्कार है, इससे ध्यान; हे वामन `
तुम कमण्डलु छत्र दण्ड ओर शिखाको धारणक हुये बौनेहो, है देव ! पाद्य ग्रहण करिये, तेरे `
लिए नमस्कार हैः इससे पाद्य; ह देव ! तुम अनेको क्षिरवाले हो, आप श्रवण नक्षत्रसे समन्वित रहते `
५ 1 हो, है देवेश हरे ! रमाके साथे अध्य ग्रहण करिये, इससे अर्ध्यं, अह्यकमंडटका अथवा कमण्डलमे शुद्ध | |
सन्दर गंगोदक रखा हभ है । है दवे ! मे आपके आचमनके लिए लाया हूं आप ग्रहण करिये, इससे आच = `
षोत्तम ! जलजके समाने देहुबाके तथा जलजकेसे मुखव्रारे शङ्खधारी जलराकशिस्वरूय तुन्न ५
` नमस्कार है, इससे स्नान; बडे भारी युद्धं वैरियायोके कन्धपर चलानेवाले चक्रके धारण करनेवाले चक्रके ` `
लिए नमस्कार है, जो कि कमलके किजल्कके समान पीत वसन पहिनता है, इससे वस्त्र, श्रीखण्डचन्दन' = `
मल्लिका" इससे धृष्य समपंण करना चाहिये \। अद्धगूजा-भोम् यहं प्रत्येक नाम मन्त्रके आदिमे होना चाहिए! = `
नाममन्त्रे जिस अंगकी पुजा आये उससे उस अंगपर अक्षतादि चढा देना चहिये ! मतस्यके लिये ५ (५
॥ ; 0 2 अ; दः ५ 9 । "२ 6, ॥ | |
४ ७ मअ वीति न £ र प (णको ^ ;
णान ५ ; 0 0 1094 श ५ ॥
1 ; |
# ८.31 ॥ 4
अनेकों क्कि घोर बन्धनोको कारनेवाले जलशायी सथुरावासौ सधुसुदनको नमस्कार कश्तः ह । 1
। विक्रम तुकं ओर तेरे बामनरूपको नमस्कार है ! बलिके गाधनेवालोको नमस्कार है । है वासुदेव ! तेरे किए |
| नमस्कार है । शिक्यदानसंकल्प-किए द्वादशके व्रतके अद्धके रूपमे कहे गये, शरीवामनकौ प्रतिके स्मि दध्योदन ` |
चारिधानी छत्र ओर जूतोके जोडोके साथ शिक्यदान करूंगा; एसा संकल्यकर ब्राह्मण पूजन करे । पीछे हे
। विभो ! दध्योदन मौर वारिधानीके साथ तथा छत्र ओर जूतोके साथ हिक्यको, ब्राह्मणके लिये देता है,
| | इस म॑त्रको पकर पीछे दध्योदन, वारिधानी छत्र जौर उपानहौ के साथ इस लिक्यको असमृकनामके तुच ` (|
1 ८ ब्ाह्मणके लिए मं देता ह यहं कहकर ददे) सह् वायका देना पुरा हंजा) इसके साथ ही सामन्त पुजा क |
| ^“ तमात होती है १. 0 ५५
( | सुंरूपंदरादक्षीव्रतम्
| अथ पौषक्रृष्णदादतयां सुरूपद्रादशीन्नतम् । गरजैरदेशे प्रसिद्धम् \। तत्कथा-
उमोवाच ।। 'भगवन्प्रष्टुमिच्छामि प्रसादं कुर मे प्रभो ।। कथितव्यं प्रसादेन यद्यस्ति `
मयि सौहृदम् ।\ १ ।। व्रतेन केन चीर्णेन विरूपत्वं प्रणर्यति ।। सौभाग्यमतुलं चैव॒ |
प्राप्यते कस्य प्युजनात् ।\ २ ।। तन्मेकथय देवेश परमाभीष्टदायकम् ।! ईइवर |
उवाच ।। श्रूयतां परमं गृह्य व्रतं पापहर शुभम् ।। ३ । सुरूपाष्ादह्ी नाम महा- ।
` पातकनाक्लिनी ।\ सुरूपदायिनी चव तथा सौभाग्यर्वधिनी ।} ४ ।। कुल्वृद्धिकरी
` चैव स्वैसौख्यप्रदायिनी ।। तां श्यणुष्व प्रयत्नेन कथ्यमानां मयाऽनघे ।\ ५। पुरा |
` वै द्वापरस्यान्ते विष्णुर्देत्यनिषूदनः ।। अवतीर्णो मत्य॑लोके वसुदेवकुले किल ॥६।॥
नेनोढा रविमणी नाम भीष्मकस्य सुता पुरा ।\ अत्यन्तरूपसुभगा पतिब्रतपरा- = `
यणा \। ७।। न हि तस्या विना कृष्णः स्तोकमुद्रहते सुखम् ।। शवश्रूश्वशुरयोश्चापि |
। पादवन्दनतत्परा ।\ ८ ।\ केनापि कममंदोषेण कुपितां कृष्णमातरम् ।। न प्रसादयति ` |
। क्षिप्रमिति ज्ञात्वा तु देवकी ।। ९ ।। कृष्णं प्रोवाच कुपिता यदि ते जननी ह्यहम् ॥ `
। ततस्त्वया हि वैवाह्या कुरूपा निगुणाधिका ।। १० ।। मद्वाक्यमन्यथा कतु नारहसि = |
त्वं कुलोद्रह ।। कृष्ण उवाच ।। अपापां रुविमणीं त्यक्तुमुत्सहेऽहं कथं शुभाम् = `
` ॥ ११1 यः परित्यजते भार्यामविव्लवशरीरिणीम् ।। स प्राप्नोति हि 'न्दत्वं |
दौर्भाग्यं साय्तपौरषम् ।। १२ ।। विरूपत्वमवाप्नो (1 प्नोति न सुखं (ध चिन्वते कवर चित् ॥। ५.
न ------ ~ ------------- --~ - न -----=-~ --- ---- - ---- -=- =
(६४०) (क -- : ५ व्रत॒राज 7 [ द्रादरी-
पूजितः परया भक्त्या अर्ध्यं जग्राह नारदः \! उपविष्टो यथान्यायं पयपृच्छदनाम-
यम् ।! १९।। नारद उवाच ।। कि त्वं खेदं करोषीत्थं किमु्ेगस्य कारणम् `
कि न सिद्धयति तेऽ भीष्टं त्यजेद्रेगं यदूत्तम ।\ २० ।। कृष्ण उवाच ॥। मात्रा
नियक्तो देवर्षे परिणेतं द्विजोत्तमा ।। कन्यामटाहयिष्यामि कुरूपां कस्यचितप्रभो
` ॥ २१। यथा सातुनियोगोऽत्र कृतो भवति सत्कृतिः ।। नारद उवाच ।। श्रूयता- `
मभिधास्यामि पूरववृत्तान्तमादरात् ।! २२ 1) लक्ष्मीयुक्तः पुरा नाथ. कीडमानो `
हि नन्दने ।। तत्रागमत्स भगवान्दर्वासा ऋषिसत्तमः ।। २३ ॥ 'जभ्युत्थानादि-
विधिना सत्कृतं ज्ञानम्तिनः । प्रेष्यवीभत्सरूपं तं देव्या हास्यं कृतं तदा ॥ २४ `
स कोपेन महातेजा वैदवानरसमप्रभः ।। शशाप लक्ष्मीं दुर्वासा मुनिः क्रोधेन संयुतः `
२५ ॥। हसितोऽहं तवया मुग्धे आत्मनो रूपमीक्ष्य च ।। विरूपा भव दुव॒त्ते कि `
न ज्ञातो ह्यहं त्वया ।। २६ ।। इत्युक्तया तया देव्या यथाह्ञक्त्या प्रसादितः ।॥ `
प्रसन्नो जगदे वाक्यं मच्छापो नान्यथा भवेत् ।। २७ ।। जन्मान्तरेणास्य फलं भवि-
ष्यति विरूपता ।। सेयं मत्येऽवतीौर्णा हि गोपकस्य गृहे शुभा ।। २८ ।। सत्यभामा
विरूपाक्षी विरूपदडाना तथा ।। क्णेनासातिविकृता संजाता तत्प्रभावतः २९ `
घा?
णिपादकटिग्रीवं सर्वं वैरूप्यलक्षणम् ।। त्र गच्छ महाप्राज्ञ स तेकन्यां प्रदास्यति `
॥\ ३० ।} कृष्ण उवाच ।\ विरूपवदनां ब्रह्मन्कथं दरक्ष्यामि नित्यजञः ।\ कां निवृति `
गमिष्यामि तां विवाह्य कुरुपिणीम् ।। ३१ ।। नारद उवाच ।। तस्या एव प्रसादेन `
रुक्मिण्या यदुनन्दन ।। उत्तमं प्राप्नुयाद्रपं सोभाग्य परमं सुखम् ।। ३२ ।\ माताहि `
ताबन्मान्या हि धमेकामाथेभिच्छता ।। एवं भविष्यति तव सम्बन्धो विहितः सुरैः `
` ॥३३।। त्वया च नान्यथा कायं गुरुणां वचनं महत् ।। माता गरूतरा भमेरिति `
वेदेषु गीयते ।। ३४ १। ईहवर
ईइवर उवाच ।। एवमुक्त्वा महादेवि नारदस्त्रिदिवं गतः! `
`. कृष्णोऽपि मातरं प्राह वैवाह्यं हि विधीयताम् ।! ३५ ।।६ विवाहिता च सा तेन ` ५
` वेदोक्तविधिना तत । आनीय स्वगृहं मातुदशयामास तां वधूम् ।! ३९ ।। पवया- `
इत्युक्त्वा वीक्ष्य तां कृष्णः प्रणिपत्य च मातरम् ।। जगाम देवकार्याणां
सया भामा परिणीता शुचिव्रता निवृति परमां गच्छ प्रसादसुमुखी भव ।\३७।
बाच ।। तवाहं भगिनीभद्रे कृष्णेनोढास्मि भामेति सत्यभामेति त नमामि |
तोति: हिन्दीीकासहित (६४१)
उवाच प्रस्तुतं वाक्यं भव्तियुक्तं शुभावहम् ॥ 'अम्बाहं दरष्टमिच्छामि सपत्नी `
` कृष्णवेल्लमास् ।। ४२ ।। मम दशयं शीध्रं तां प्रसादः सुविधीयताम् ।) देवक्यु-
वाच ।। इवश्नूह्यह ते सुभगे ममापि वचनं कुर ।। ४३।। ूर्वमाचरितं सुभ्र : सुरूपा-
द्वादशीव्रतम् ।। संप्रयच्छसि चेत्तस्य दशेनं ते भविष्यति ।। ४४ ।। रुकिमण्यवाच |!
कष्टेन क्रियते धर्मो व्रतं चापि सुदुष्करम् ।! कथं तस्यै प्रयच्छामि फलं देवः सुद्- ` `
कभस् ।\ ४५ ।। दवक्युवाच ।। अधे प्रदीयतामस्ये तद्धंमथवा पुनः \। पञ्चमांशो- `
थवा षष्ठः षोडहांशचोऽथवा त्वया ।। ४६ ।। रक्मिण्युवाच । सुरूपाद्रादशीपुष्यं `
` तिलाद्धमपिः नत्वहं ।! {क पुनः षोडच्ान्तं तु सपत्न्ये दृष्टचेतसे !। ४७ ।॥ एवम्* `
| क्त्वा जगामाशु मन्दिरं स्वं शुभेक्षणा ।! पुनः पप्रच्छकृष्णं सा प्रणिपातेन वे रुषा |
| ॥४८।। देवा पृच्छामि ते स्वं ननु तुष्टोऽसि मे प्रभो ।। कथं पदयामि तामद्य `
। नबोढां कृष्णवल्लभाम् ।! ४९ ।। श्रीकृष्ण उवाच ॥। दल्ञशिष्ये ह्यहं सुभ विरूपां तां `
सुमध्यमे ।! विरूपश्नवणाक्षीं तां कुरूपां विङृताननाम् ।\५०।। स्वदृष्टवेचित्यकृतं `
| रूपा्त्र न संशयः ।\ इत्युक्त्वा रुकिमिणीं कृष्णः सत्यभामां तदाब्रवीत् ।। ५१॥ `
| प्राथेयाथ प्रियां सुभ्रःसुरूपाद्राद्ञी व्रतम् । तिलादपि हि षष्ठांशं देहि मेसेविका- |
स्म्यहुम् ।! ५२ ।\ ईवर उवाच ।। सा गता तत्सकाज्ञं तु पिधाय हारमादरात् \॥\
| उवाच रक्मिणीं सा तु सत्यभामा शुचिव्रता ।! ५३ ।! एकामप्याहुति देवौ देहि
| भीष्मकनन्दिनि ।\ अर्धरहति वा मे देहि यद्यस्ति मयि सौहृदम् 11 ५४ ॥ रुकिमिण्यु-
| बाच ।। कोऽयं मतिभ्रमस्ते वे सुरूपाद्रादशीव्रते ।। तिलाहति प्रयच्छामि उद्धादय. `
। ५ कपाटकम् ।\ ५५ ।। इत्युक्त्वा त्वरितं स्नात्वा ददौ ह्येकं तिलाहृतिम् ।\ तस्यां
, (९५९)... तरतराज | ० दादशी-
पतितं शुचिमौनमवस्थितः ।। तस्य कृत्वाहुतीनां तु शतमष्टोत्तरं तिलैः \। ६४ \\
प्रतीक्षेद्द्राक्शीं कृष्णामुपवासपरायणः ।। स्नात्वा नद्यां तडागे वा विष्णुमवाथ
चिन्तयेत् ।। ६५ ।। सौवर्णं तु हरि कृत्वा रौप्यं वापि स्वङ्ञक्ितितः ।। तिलपात्रोपरि
स्थाप्यकुम्भे विष्णुं प्रपुजयेत्।।६६।।इति संपूज्य विधिवत्पुष्यधूेःसुदीपकंः।। नैवेद्यं
सतिलं दद्यात्फलानि विविधानि च ।। ६७ ।! नमः परमन्चान्ताय विरूपाक्ष नमो- `
स्तुत ।! सर्वकल्मषनाशणय गृहाणार्घ्यं नमोस्तु तं ।। ६८ ।।! एव सयूज्य द्व्य
कू्यद्धोमं समाहितः ।! उदिश्य देवं लक्ष्मीशं ह्योमयेद्गोमयाहृतीः ।। ६९ ।। शत- ॥
अष्टाधिकं चव तिलान्व्याहूतिसंयुतान् ।। सहलश्ीषमिन्त्रेण हदि ध्यात्वाजनादनम्
.॥। ७० ॥। लक्ष्मीयुक्तं च मेघाभं शङ्कचक्रगदाधरम् ।। होमान्ते कारयेच्छादं
णवं द्विजसत्तमैः ।। ७१ ।। दत्त्वा च भोजनं तेभ्यः कृत्वा चैव प्रदक्षिणम् ।॥ `
कथाश्रवणसंयुक्तं जागृयात्तु ततो निचि ।\ ७२।। तं कुम्भं वेष्णवं सूति विप्राय
भ्रतिपादयेत् ।! मन्त्रहीनं, क्रियाहीनं सर्वं तत्र क्षमापयेत् ।॥७३।। ईहवर उवाच) `
एवं यः कुरुते देवि सुरूपाष्रादशीव्रतम् ।। नरो वा यदि वा नारी तत्र पुण्यं श्यणुष्व
मे ।1 ७४ ।। दौर्भाग्यं तस्य नशयेत अपि जन्महाताजितम् । अपि धूमस्य संपर्को
जायते कारणान्तरात् ।। ७५ ।। तस्यापि न भवेद् दुःखं वेरूप्यं जन्मजन्मनि \\ `
पतिना न वियोगः स्यान्रष्टेः सह वियोगिता ।\! ७६ ।। जायते गोच्रवृद्धिदच कीति- `
भान् जायते भुवि ।\ जातिस्मरणमाप्नोति पदं निर्वाणमाप्नुयात् ।\ ७७।। पठ्य- `
` भानमिदं भक्त्या थः णोति समाहितः 1) पुण्यमाप्नोति सततं स्वगंलोके महीयते
॥७८ ।। इति श्रीभविष्योत्तरपुराणे सुरूपा्ादशीब्रतकथा संपूर्णा ।\ इति द्ाक्शी-
व्रतानि समाप्तानि ।।
| सुरूपदवादशौ ब्रत-पौष दृष्ण द्वादङीके दिन होता है, सह गुजर देवाने प्रसिद्ध है । कथा-उमा बोलीं कि,
है भगवन् । मे पुना चाहती हं किः; है प्रभो ? मुक्चपर कृषा करिए, यदि आपका मुह्लमे परम है तो प्रसन्नतासे `
` . किये ।। १।1 कि, किस त्रेतके करने से विरूपपना नष्ट हो जायया, किसके पूजनसे अतु सोभाग्यकौ प्राप्ति ` ।
ध हो जायगौ ? ?।।२ ।। हे दवेश्च ! उस परम अभौष्टके देनेवाले वरत को सुनने कहिये । ईबवर बोले कि, पापोके = `
नाञ्च करनेवाले परम गुह्छव्रतको सुनो 1 ३ ॥। महापापोको नष्ट करनेवालो सुरूपा द्वादशी है, वह अच्छे
रूपको देती है तथा सौभाग्यकरे बडानेवाली है ।। ४ \। कल्को बढानेवाली तथा सब `
ता 1 १ स 6
वि क 1 ६11 अने रयत
सुखोको देनेवाल है । |
ह
अल्वथान करिये,
५ प
[ ४ # ५ ८ १ ध 2६4४ ८
निष्पाप हारौ रोली अपनी स्त्रीका परित्याग कर देता ह उसे मन्दपना मिरुता है तथा सात पुरुषोतकं ्र्भा- ` `
ग्यभौ उत पराप्त हौता है । १२। उरे कुरूप मिता है कभौसुख नहीं मिलता । कोई बीमारी पंदा हो जाती है
संसार मे प्राण धारियोके बीच उसकी बुराई होती है ।। १३ ।\ हे देवि ! यह मे जानता ह, फिर बता कि 1
कंसे मं तेरी कही मान् ? यहु युन देकोजौ बोली किं, यह् निश्चय समन्न कि सभी देव ओर तीर्थम \ १४1
माता सबसे बडी है एसा कोन हीगा जो हे पुत्र ! उसके वाक्य को न भाने । मेरे वादयको पुराकरनेमेञआप
कँसे पापी हौ जागे \। १५. ॥\ है यदुनन्दन ! माता प्रजी जातीहै, स्त्रीकौ पुजा नहीं होती यह् सुन कृष्णजी `
कोले कि मे अपने प्राणोसे भौ प्यारी डरपोसिनी प्राणघनकी स्वामिनौ रुदिमणीको न छोड सकंगा \। १६.1३...
इसके बाद माताको एकदम मौन साधे देख कृष्णक यह चिन्ता हुई किं यह् कंसे सुखी हो ।। १७ ॥। इसी अव- १
सरपर भगवान् नारदऋषि एकदम चलते आये एवं कृष्णको देख बडे ही विस्मित हृए । १८ ।\ मगवानने
बड़ी भविति से पुजा की, नारदजीने अर्ध्यं रहण किया जसा बैठना चाहिए बैठकर कुशल पुने लगे ।। १९ 1\
| कि, बताये तो सही, आज इतने उद्वभ्न कोहो, कयो लिन्च हो आपका चाहा हृभा वया सिद्ध नहीं होता १ = `
हि यद्रत्तम ! उद्वेग परित्यागकर ।। २० ।1 है द्विजोत्तम । हे देवष ! माताने मृद्ञे विवाहकी आक्ञा दीहै,हे `
प्रभो ! सें किसौकी कुरूपा कन्याको व्याहूंगा ।। २१ \\ यहाँ माताका नियोग करके सत्कृती हो जाताहै यह `
` सुन नारदजी बोरे कि एक पुराना इतिहास कहता हं आप आदर पूर्वक सुने ।\ २२।} आप पहिके लक्ष्मीजौको
साथ लिए हुए बागमं खे रहे ये वहा मनिराज दुर्वासा चरे अये ।\ २३ \\ ज्ञान मतिने उठमे आदिसे दर्बा-
साका सत्कारकर दिया पर उनका बुरा रूप देलक्षर देवीने हास्य क्रिया ।\२४।\ वौ महा तेजस्वी क्रोषसे आगके `
` स्मान जलने लगे ओर क्रोधके वेगसे लक्ष्मीजीको शाप दे डाला 1! २५॥ कि ए मुग्धे ! तूने अपना रूपदेख- =
। करमेरीहंसीकीहै। ए दुवृत्ते! कुरूपा हो क्या में तुके मालूम नहीं हा ॥। २६॥! ठेसा कहने परदेवोने `
यथाराक्ति उन्हे प्रसन्न किया उससे प्रसत्त होकर दर्वासाने कहा कि, मेरा शाप अन्यथा नहीं हो सकता ।।२७॥ = `
` मेरे श्चापका फल विरूपता तुमह किसी सरे जन्ममें मिलेगी, वही लक्ष्मी अब इस मत्यंखोकमे गोपक वम
अवतरी है 11 २८ ।। उसका नाम सत्यभामा है मखं ठेढक भेडी हे देखनेमे भौ सुन्दर नहीं है । नाक ओर करान `
भी चिङृत हं वह् उस शापके प्रभावसे एसी हो ही गयी है ।\ २९ ।। हाथ पैर, कमर, ग्रीवा सब कुरूप ।है `
महाप्राज्ञ! वहाँ जा वो आपको कन्या देगा ।। ३० \। ष्ण बोले कि, है भगवन् ! मे रोज कंसे उस कुह्पाको
देख सकुगा एवम् उस कुरूपाको व्याहकर सुनने वया आनन्द आवेगा ? ॥। ३१ ॥ है यदुनन्दन ! उसकेही `
स्करिमणीके प्रसादसे उत्तम रूप सौभाग्य ओर परम सुख मिलेगा ।। ३२ ।। धर्मं अथं ओर कामके चाहनेवाकेको `
भाता अवश्यहौ मान्य है, आपका संबंध देवतान इस प्रकार कहा है ।! ३३ ॥। गुरओके आदरणीय वचनोको |
1 दोमे कहा गया है कि, माता भूमिसे भी गुर है ।\ ३४ ।। शिवजी बोल किहे महादेवि ! = `
से कहकर नारदजौ त्रिदिव चलेगये । कृष्णने भी मातासे कहा कि, विवाह की तैयारी करिये ।\३५॥। कृ |
बैदिकविधिसे उसे व्याह लिया अपने घर खाकर उस वधूको माताके लिये |
किमादेख ? अब मैने सदाचारिणी व्याहली आप आनन्द भानिये, कृषा करिये ॥\ ३७ 1 ठेसा कहकर = |
माताको प्रणाम करके महाबलम्ाहीली वहु देवकार्यं करनेके लिए चल दधे ॥ ३८
दिला दिया ॥
| रे देखकर लः र देवमाता एकदम दुखी हो त गयी कि कि; १ एेसी विकृत विरूपको कंसेचिपार्ॐगौ
॥३६।क्हा |
64, "न 1... [ दाद्यी-
आधे बराबर भौ नहीं दे सकती, दुष्टचेता सपत्नीके चिये सोलह हिस्सा तो बडी बात है \। ४७ ।। इस
भ्रकार कहु कर वह् अच्छे नयनोवालौ अपने मकान चली गई, फिर उसने तस्रताके साथ करोधपूरवक छृष्णसे
` भूखा 11 ४८ 1} यदि आप मुद्लपर प्रसन्न हे तो मे आपसे पुती हूं कि, मे आपकी नयी प्यारीको कंसे देव
सर्कगी |} ४९ ।। श्रीकृष्ण बो कि, हे सुन्दर भोवाली अच्छी कमर कौ ! भें उस कुरूपाको दिखा दगा, वो
विरूपा है उसके कान आंख सव विरूप मुख वित है नितान्त कुल्प है ।\ ५० ॥ अपने अपने पापपुण्योसे
सकूपादिकों कौ विचित्रता होती है इसमें सन्देह नहीं है । एेसा रक्मिणीको कहकर सत्यभामसे बोलेकि `
॥ ५१ ॥ मेरी प्यारी सुन्दरीसे सुरूपद्वादशी ब्रतका तिलकाभी छटा भाग मगल । कि, मे तेरीसेविकाहुं
मुशषेदेदे।\ ५२॥) ईदवर बोले कि, रुकिमणौ तो आदरपूर्वकं सत्यभामाको देखने जयौ पर दरवाजा बन्दकर `
च्या मौर कहा कि ।! ५३ \। हे भीष्मकनन्दिनि ! हे देवि ! जो मृञ्चपर प्रेम है तो आधी आहृतिकाही पुण्य `
देदे।1 ५२ ।) रुविमणी बोली कि, तेरा युरूपा द्वादश्लीके विषयमे क्या म हो गया है ? मं तिखाहुति देती
हं किवाड सोर दे ।। ५५ । एसा कह स्नान करके एक तिलको आहूति देदी; उसके देतेही कुरूपा भामा `
अधिक सुन्वरी हो गयी ।\ ५६ ।१ उसे देखतेही रुक्मिणीको बडा विस्मय हु ओर सत्यासे पुने लगी कि,
पु कौन भौर कंसे आई है ? \। ५७ ।। सत्यभामा बोली कि, मं तेरी बहिन हु" कृष्णने मुञ्चे धर्म॑से विवाहाहै, |
सत्यभामा, मेरा नाम हैः मं तेरे चरणोमे प्रणाम करती हं ।। ५८ ।} ये वचन सुनकर विस्मयके मारे रुक्मिणीकौ `
आं चोड गयीं कुछभी न बोलसकौ वयोकरि,वह् अत्यन्त विस्मित हो गई थौ।\\५९।\ उसी समय आकाशवाणी `
हई कि, तेरेही दानके प्रभावसे सत्यायुरूपा हो गई है ।\ ६० \ सुरूपाहरादरीका पुण्य देवताओंकोभी दुर्लभ
` है \ उमा बोली कि, सुरूपाद्रादकौ किस विधिते कैसे करनौ चाहिये ? यह् कहिे ! ६१ ॥ नियम, हौम- = ।
` दान भी किये, यह् का सुक्र हौनी चाहिये । ईइवर नोल कि, पौषमासके आनेपर जब पुष्य नक्षत्र हो य ८
। ४ ध 1 ६२ ।\ उस रतम स्यतात्मा रहकर विष्णभगवान्का ध्यान करे, इवेत ग या एक रंगकी हौ उसका. ` ध
गोमय ले ।। ६२ ।} वह मोमय भूमिम न भिर गया हौ उसे मौन होकर ठे उसमें तिल मिला उस्केएकसौ
माठ पिण्ड होने चाहिये ।\ ६४ ।। कृष्णा द्राददीकी प्रतीक्षा करे, उपवासपरायण हो, नदी वा तगडागमे स्नान `
करके विष्णुका ही चिन्तन करे ।! ६५ ।। शवित् के अनुसार सोने वा चांदीकी भगवानृकी सूति, तिल्यात्रषर `
रखकर कुम्भपर पुजन करे ।। ६६ \\ इस प्रकार विधिपूर्वेक पुष्प धूप ओर दीपोसे पुज, तिल समेत नवेचदे
` तथा अनेक तरहके फल भेट चढावे 1} ६७ 11 हे विरूपाश्च! परम शान्त तुञ्चको नमस्कार है, सब कल्मषोंको |
नष्ट करनेके लिये अध्य ग्रहण कर, तेरे लिये नमस्कार है ।! ६८ !\ इस प्रकार देवेदाका पूजन करके एकाग्र ` |
चित्तसे हवन करे 1 एवं लक्ष्मीजञ देवका उद्देश लेकर गोमयकी आहुति दे \\ ६९ । बह एक सौ जान्होनी `
चाहिये तिमी हो, आहतिके समय व्याहूतियोका भी प्रयोग हो, भं सहषर्षा' इससे हो, देतीवार हृदयम `
भगवानृका ध्यान करे ।\ ७० ।। कि, मेघके से शयाम हेशंख चक्र ओर गदाधारण किये हुये हैःपासमे रक्ष्मीजी ` 1
वराजमान् हं, होमके अन्तमे ब्राह्मणों को चाहिये कि, वैष्णव श्राद्ध हौ ।\ ७१ ।। उनके ल्यि भोजनदेःप्रव- = = |
करके कथा सुनता हुमा रातमे जागरण करे ।) ७२ ।। उस कुम्भ ओर भगवानूकी मूतिको ब्राह्मणके |
मै हीन ओर क्रिया हीनकी क्षमा मोग ।।
कृत्वा तत पजा प्रकल्पयत् । ११॥ कुलु मागुरुकस्तूरीसिन्दरेरष्टगन्धकं ह.
चंपकं शतपत्रैश्च यूथिकाभिऋत्दवैः ।! १२ ॥ प्रीवासूत्रेण दूर्वाभिः पूजयित्वा 1
| द | ५ विधानत : ।। अध्यण्ः वारिशद्धेन उत्तरोययगेन च | १३॥ भौ श्रीफलद्रा ॥ फो द्राक्षादा धि + इ. |
अर्ध्यं गृहाण देवेशि ममोपरि कषां कुर ।। कृत्वेह
व्रतानि) (त हिन्दौटीकासहित
अथ अयोदरशीव्रतानििख्यन्ते
जयापावतीव्रतम
आषादशुक्लच्रयोदह्यां जयापार्वतीत्रतं भविष्योत्तरपुराणे- भीलकष्मीरुवाच '
देवदेव जगन्नाथ भुक्तिमुक्तिप्रदायक ।! कथयस्व प्रसादेन लोकानां हितकाम्यया
॥ १॥ नारीणां तु व्रतं देव अवेधव्यकरं शुभम् ।\ आचीर्णं यच नारीणामखण्ड- `
फलदं भवेत्!।२।।्रीभगवानवाच ।।सत्यमक्तं त्वया देवि न चमिथ्या त्वयोदितम् ।। `
तदृव्रतं कथयिष्यामि नाख्यातं कस्यचितपुरा ।। ३ ।। अकथ्यं परमं गुह्यं पवित्रं
` पापनाशनम् ।। येन चीन नारीणामवेधव्यं प्रनायते ॥। ४ ।। आषाढे च प्रकर्तव्यं
शुक्लपक्षे त्रयोदी । गृह्णीयात्नियमं तत्र दन्तधावनपुवेकम् ।। ५।॥ आय्- `
बलं यज्ञो वचेः प्रजाः पञ्युवसुनि च ।। ब्रह्प्रन्ां च मेधां च त्व॑नो दहि वनस्पते! ६।॥ `
इन्तधावनमन््रः ।। नियभात्फलमाप्नोति निष्कलं नियमं विना ।। तस्मात्कार्यं
` भयत्नेन त्तं नियमपूर्वकम् ।। ७ ।। एकभवतं व्रतं चेव करिष्येऽहं मुदाधना ॥। क
` स्वादहीनेन धान्येन मम पापं व्यपोहतु ।। ८ । नियममन्त्रः \। उमामहेश्वरौ
काया सुबणरजतादिभिः ।। अथवा मुन्मयौ कायौ व्वृष स्कन्धोपरि स्थितौ 0...
॥ ९ ।\ गोष्ठे देवालये वापि तथा ब्राह्मणवेहमनि ।! स्थापयेदरेदमन्त्रेण प्रतिष्ठां `
तत्र कारयेत् ॥। १० ।। तददिने दन्तकाष्ठं हि यौधिकं च वरानने ॥ स्नानकादि तत
त्तमात् ।। १५ ॥ श्नीमहालक्षमीरुवाच ।। अच्युताय नमस्तु म्यं भुर रुषा कि ५ पिणे।
ब्रताध्यक्षमहाप्राज्न त्वं वद्धक्षयकारक : ॥॥ १६ ।॥। कथ 9 क न ब्रतानाः ` |
मुत्तमं व्रतम् । केन चादौ पुरा चीर्णं मर्त्यलोके कथं गतम् ।। १७
(4) ` ब्रतरांन [त्रयोदशी-
तेन दःखेन क्षीणौ जातौ शरीरतः ।! एकदा श्ुभकाले तु नारदो गृहमागतः ।! २३ 11 '
अध्यंपाद्यादिकं कत्वा कथां 'चक्रऽमुना सह ।} वामन उवाच।। नारद त्वमुषिदश्ेष्ठः
स्वज्ञानपरायणः ।। २४ 11 कथयस्व प्रसादेन कथं दुःखं प्रशाम्यति ।। दानेन केन॒ `
देवें व्रतेन नियमेन च ।। २५! तीर्थेन च मुनिशेष्ठ सन्तानं मे कथं भवेत् ।॥
नारद उवाच \! श्यणु विप्र प्रवक्ष्यामि सन्तानं ते भविष्यति | २६ ।\ वनस्य
दक्षिणे पावे बिल्वय॒थस्य मध्यतः ।। भवानीसहितः शूली लिद्धरूपेण तिष्ठति
` ॥ २७ ॥ सपयी कुरु तस्याशु तुष्टो दास्यति सन्ततिम् ।। अपूज्यं लिद्धमभ्यच्यं
` सन्तति लभते नरः \\ २८ ।। इत्युक्त्वा नारदः स्वगे गतो वं मुनिपुद्धवः । वन-
मध्ये गतौ हरौ तु दस्पतीपुत्रकांक्षिणौ ।\२९।। बिल्वमध्ये ततो दुष्ट्वा शिवलिद्खं
` पुरातनम् ।। बिल्वपत्रश्च जीणेच पिहितं सवेतस्ततः ।। ३० ।। विहाय बिल्वं
पत्राणि संमागं चोपलेपनम् \। पञ्चामृतेन प्रक्षाल्य पूजां चक्रं मनोरमाम् ।१३१।।
नित्यं नियम संयुक्तोऽपुजयत् परमेद्वरम् ।! पञ्चाब्दं पुलितस्तेन पावतीसहितो `
हरः ।\ ३२॥। एकदा तु गतः सोऽथ पुष्पार्थं ब्राह्मणोत्तमः ।। कुसुमं गृह्यते यावत्ता- `
द्दृष्टः स पल्चगैः ।। ३३ ।! पतितस्तदरने घोरे सिहव्याघ्रसमाकुले ।। त्रिसुहूर्तं
प्रतीक्ष्याथ तद्धार्याचिन्तयद्ध.दि ।। ३४ ।! कि कारणं भवेदत्र कथं नायाति मे
पतिः ।। रुदती श्ोकसंयुक्ता वनमध्ये सगता सती ।\ ३५ ।। आगता तत्र यत्रास्ते
भर्ता च पतितो भुवि \! भर्तारं पतितं दृष्ट्वा तदा मोहमुपागमत् ।। ३९ ।! तत्य- `
शचाच्चेतनायुक्ता साऽस्मरद्वनदेवताम् ॥! पार्वती तु समायाता यत्र तिष्ठति ब्राह्य-
णी ।\ ३७ ।! आक्रन्दमानां तां दृष्ट्वा पार्वती वरदाभवत् ।। सुधां सुभगहस्तेन =
` विप्रवक्र विमुञ्चति ।। ३८ ॥! उत्थितो ब्राह्मणस्तत्र निशीथे निद्रितो यथा \
ततस्तच्चरणोौ गृह्य दम्पती विनयाम्वितौ ।। ३९ ।। पार्वत्याः पूजनं भक्त्या चक्रतु
मुदान्वितौ ।। पावत्युवाच ॥। त्वत्युननादहं प्रीता वरं बरय सुव्रते ॥ ४०॥ `
ब्राह्मण्युवाच ।। त्वत्प्रसादेन शद्राणि मया रब्धं च वाञ्छितम् ।। सन्तानं चैवमे
नास्ति एतद् खं च मे.हृदि ।। ४१ ।। पा्वत्युवाच ।। रतं कर विधानेन मम नाम्ना `
च विश्रुतम् 1! जयायुक्तेनासुभगे त्रैलोक्य पावनं परम् \। ४२।। भक्त्या जयापावं-
तीति आषाढे चारुलोचने \। स्वादहीनेन चाचरेन रवणेन विना तथा 11 ४३।॥ `
.. "वरतानि्.];..... | हन्दीटीकासहित । (६४७)
पञ्चाब्दं तण्डुलः कायमिक्षुरसविर्वाजतम् ।! ४६ ।। मुद्गैः कार्यं पञ्चवर्ष याव- ` ध
द्ायनविश्शतिः।\अब्दे तु विकशषतितमे व्रतोद्यापनमाचरेत् ।४७।।दम्पत्योः परिधानं
हि द्या-इ.षणयपूवेकम् ।। भोजनं च युवासिन्ये तृतीयायां यथोदितम् ॥\ ४८
वि्ञतिप्रथमाद्रषत्स्विस्य वित्तानुसारतः ।! पञ्चके पञ्चके देयं परिधानं च
भोजनम् ।। ४९ ।! नानारसः समायुक्तं घूतखण्डससन्वितम् ।। सभतकाये वातव्यं
भोज्यं सौभाग्यहेतवे ।। ५० ।। कुड कुमं कज्जलं चैवमब्दे अब्दे स्वशाविततः ।। `
रात्रौ जागरणं कुर्यादखण्डफलदं भवेत् |! ५ ॥) व्रतेन तु विना नारी विधवा
जन्मजन्मनि ।।! शोचन्ती दुःखसंयुक्ता न च सोभाग्यभागभवेत् ।। ५२ ॥ नारी
तु सुत्रतेदनिः पतिभक्त्याततः परम् \। सौभाग्यमतुलं याति पतिसन्तोषदा यतः ।॥ `
५ |} ५३ ।) एवमुक्त्वा व्रतमिदंतत्रैवान्तरधीयत ।। पक्चाद्गहं समागत्य दम्पती च॒ `
` मुदान्वितौ ।! ५४ ।। पुर्वोक्तिन विधानेन कुर्वाते व्रतमुत्तमम् ।\ तदब्रतस्य प्रभावेण `
प्राप्तं पुत्रसुखं तयोः ।। ५५ ।। दम्पतिभ्यां विशेषण अवेधन्यपरं सुखम् । भुक्तवा `
विविधान्मोगानन्ते प्राप्तं रिवाल्यम् ।\ ५६ ।। एवे व्रत या कुरुते नस्ाभर्वा |
५ वियुज्यते ॥ कूलत्रय समुद्धत्य सप्राप्य शिवमन्दिरम् ।॥। ५७ |, साल्निध्यसुख- | |
मासाद्य शिवलोके महीयते ।।! कथां श्रुत्वा विधानेन स्वपापास्प्रमुच्यते ।\ ५८ ॥
इति भ्रीभविष्योत्तरपुराणे जयापावेतीत्रतं संपुणेम् ।। इदं तु गृजरदेश्षे गजेराचार- ४ |
4: ॥ प्राप्तम | (9 ।
जरयोदसीत्रतानि
। अब जयोदश्शीके त्रत लिखे जाते हैँ । जयापावंतीव्रत-आषा शुक्ला त्रयोदक्षीके दिन होताहै, यहं
भविष्योततर पुराण मे लिखा है । श्र लकष्मौजी बोलीं कि, हे देवदेव ! है जगमाय ! है भोग ओर मोक्षके =
दाता! संसारके कल्याणके लिये प्रसत होकर कहिये \। १ ॥ हे देव ! स्त्र्योको सदा सुहाग करनेवालाश्ुभ
5 ८ बतं जो करनेपर अखण्ड एल दे ।\ २। श्री भगवान् बोर कि हैदेवि तुमन सत्य कहा है वट नहीं कठा 1. ॥
में उस व्रतको कर्हुंगा जो कि, आजनक मने किसीको नहीं कहा है \। ३ ॥। वो परम गोयनीय किससे भी क्
५ सायक नहीं है, पवित्र है, पापोंका नष्ट करनेवाला है । जिसके करनेषर स्वियोको कशी वैबष्यकी परोप्ि . |
1 ध नही हीं होती ।\४। इसे आषाठ सकल ज्रयोदश्ीके दिन करना चाहिये । दतुन करके नियमग्रहण करे ।५।\ जयु- 1 |
बलम् यह् दातुनका मन्त्र है ।॥६।\ नियमसे फल मिलता है, विना नियमके निष्फल है, इस कारण नियमधू- ` ¦ 1
| नके साथ त्रत करना चाहिये ।। ७ ।! हौन धानसे एकभव ह्णा. ~
। ˆ ५
ओर श्षयके करनेवाले ह \\१६।। आप कृपा करके सब ब्रतोमे जो शरेष्ठन्रत हौ उसे किये, वो पहिले किसने
किया मत्यंत्लेकमे कंसे गया? ।\१७।1 है जगदीदवर ! यह संब प्रयत्न पुवेक सुनने कहिये \ भरी भगवान् बोले |
~ कि भे पावतीकी इस कथाको कहता \। १८।। जिसको सुनकर असंशय सव पापोसे मुक्त होजता है । पहले
. कृतयुगमें एक सुन्दर कौडिन्यनगर था ।\१९।। उसमें वेदे तत््वका जाननेवाला ,सत्य जौर शौचम रत `
-रहुनेवाला गुणवान् एवं शीलसंपन्न वामन नामका ब्राह्मण था ।\२०\। उसकी रूप ओर सबलक्षणोसे युक्त
सत्यानामकी प्यारी स्त्री थी, उस वेदवेत्ताके धनाढथ घरमे सब सम्पत्तियं थीं ।\२१। पर पहिले कर्मके
फल्से को सन्तान नहीं थी, नियुत्रीका जन्य घर शमश्षानके बराबर है ।\२२ इसी दलसे व दोनों दुबरु होये \
एक दिनं अच्छे समयमे नारदजी घर चके अये \\२३।। स्त्रीके याथ उसने नारदलीके अध्ये पाच आदिके ५५
किये पौरे बोरा कि, हे नारद ! आप सब ज्ञानोमिं भरपूर श्रेष्ठ ऋषि हैँ ।।२४।। कृषा करके कहिये, दुःखकी
निवृत्ति कैसे हो ? हे देवे ! वहु दान, ब्रत, नियम कौनसा है? ११२५ या कोई तीथं हो हे मूनिशेठ !
मेरे सन्नान कंसे हो? यह् सुन नारदजी बोले कि, हे वि ! कहता हं तेरे सम्तान होगी ॥२६।। बनके दक्षिणो _ ¦
नाकेपर बिल्वके युथके बीच भवानीके साथ शिवजी लिगरूपसे विराजते है ।\२७।) उनकी सेवा कर वहं
` जल्दीही प्रसन्न होकर सन्तन देदेगे क्यों कि, अप्य िगकी भी पुना करके मनुष्य सन्तति पालेता है ।\२८॥ `
किया, पार्वतीजं
आपको कृपासे मक्षे वांछिति
॥1४१।। पा्रेतीजी बोलो
रेखा कहकर म॒निपुंगव नारद स्वमैको चङे गये, वे दोनों पुत्र चाहनेवार दंपति अपने घर चर आये ।॥२९।। `
उक्त विल्बके बीचमे उन्होने एक प्राचीन शिवलिग देखा. जो बिल्सपत्रके सुखेय्तौसे चारो ओर ठका `
भा था ।३०।। बिल्बपत्रोको श्नाडी ओर शीपा, पंचामृतसे धीकर सुन्दर पजा कौ ॥\२१।। रोजही नियमधू्वेक `
शिवजीको पजने र्गा, पार्वती सहित शिवजीको पाच वरस पूजा को ।\३२।) एक दिन बह उत्तमब्राह्मण
पष्प लनं गया, जबतक फूल तोडता था कि, इतमेमे ही सापने काटलिया ।३ ३।।बह् उसी वनम गिरयाजो `
सिहं ओर बघेरोसे धिरा हुजा न था । तीन मुहूतेतक प्रतीक्षा करके उसकी भाय्यति मनम सोचा कि,क्या
` कारण हृभा मेरा पति क्यों नहीं आया, वह अत्यन्त शोकसे व्याकु होकर रोती रोती उसी बनमं पहुंच 1
१३४-३५१ वो वहांही पहंचौ जहां कि, पति भूमिपर पडा हुआ था उसे पडाहुज देखकर बेहोक्ष होगई ` ध
` ॥1३६)।इसके बाद जब उसे होशषहुजा तो वनदेवताको याद किया जहां वो ब्राह्मणौ थी बहांही वनदेवता पारवै- ५ |
` तीजीचली आयीं ।\३७।। रोती हई उसे देखकर पावंतीजी वर देने लगी तथा सुन्दर हाथसे ब्राह्मणके मुखम `
अमृत डाल दिया ।\३८॥। जैसे सोता आधीरातको तिलमिलाकर उठता है उसौ तरह ब्राह्मण उठ बैठा । विनख्र॒ ` 0
` दंपतिने पवेतीजोके चरण पकडे एवं नन्मे परिप्लृत होकर ।१३९।। भक्तिपूर्वेक पार्वतौजीका पुजन ` 1.
14. 4...
भावके साथ विना नमकके स्वाद हीन
र दिन व्रतका प्रारंभ करके तृतीयाके दिन पुरा कर देना
।४५।। पांच वषेतक विना नामके यि न्त करे । विना, मीठे चाः
जी बोली कि, ह सुत्रते ! वर मांग, मे तेरे पूजनसे प्रस हं ।४०।। ब्राह्मणी बोली कि, हेरद्राणि। 4.
१ भिलगया है । मेरे हदयभं सिफं इतना ही दख है कि, मेरे कोई सन्तान नहीं है = `
॑ कि, मेरे जया नामके प्रसिद्ध ब्रतको विधानके साथ कर । हे सुभगे ! वोव्रततीनौ 1
खोकोमि परम पव्रित्र है ।४२।। जया पावेतीको कहते है । हे चार्लोचने ! यह आषाढमे होता है भव्ति ` ८
भा १ अन्नसे 1\४२।। यहं दृढ ब्रत करना चाहिये । पांच दिन बही खाना चाहिये! `` `
भारभ करके कृष्णपक्षे समाप्ति करनौ चाहिये यावनाल (एक भोज्य विशेषे) प्रयत्न पुर्वकं पांच च ¢
। तत्या
रमेत् । ज्रयोददयां प्रभाते तु समुत्थाय शुचिर्भवेत् ॥। १० ।। गृह्णीयान्नियमं पूर्व॑ `
. व्रतीनि). 0. हिन्दीटीकासहित ` : "द: 1
५ ॥ ध ह नहं इल होकर सोचती रहती है बहू सौभाग्यवाखौ नहीं होती 1 ।५२।। पतिषी भर्वित ओर भ संतोष $ | | |
' दैनेते एवं अच्छे बरतो भौर दानोसे अतु सौभाग्यको पालेती है ।।५३।। इस व्रतो वहां कहकर वहाकौ = `
| ` वहांही अन्तर्धान होगई । पीछ वें दोनों दंयती आनन्दके साथ अपने घर आशये ।\५४।। पूवं कहे हुए विधानके ।
| ~ साथ उत्तमं व्रत किया इस ब्रतके प्रभावसे पुत्रसुख मिला ।\५५।\ दोनों दंपतियोको सुख एवं भार्य्याको `
नि सौभाग्य मिला अनेक तरह्के भोगोको भोगकर शिवलोक चलेगये ।।५६।। इसप्रकार जो इस ब्रतको करतौ क
। ` है, वह् पतिते कभी भी वियुक्त नहं होती, अपनेका पतिका ओर माताका तीनों कुलक उद्धार करके
। ; ॑ । शिवलोकम पर्टुच । ५.७ सानिध्य ओर सुखे प्राप्त्ष्र उथीशं प्रतिष्ठित होजाती त्ष । इस कथाको विधि. । । | = । | 1
। ५ । पुलक सुनकर भी सब पापोसे चट जाता है ।\५८।। सहु भी भतिष्योत्तर पुराणका कहा हभ जयापार्वतीका ग | : 4 | | र
। ब्रत पुराहुजा\\ यह् तो गुजर देशम आचारसे प्राप्त है । वही इपकामृलहै)। ` |
गोति रात्रब्रतम
ष स न = व
अथ भाद्रपदशुक्लत्रयोद्छयां गोत्रिरात्व्रत है मादौ" भविष्योत्तरे-युधिष्ठिर |
उवाच ।\ भगवंस्त्वत्प्रसादेन बहूनि सुत्रतानि मे ।। श्रुतानि बहूपुण्यानि कृतानि |
, मधुसुदन ।। १ ।। सर्वपापहराणि स्युः सर्वेकामप्रदानिच ।। साप्रतं भरोतुमिच्छामि |
। व्रतानामुत्तमं व्रतम् ।\२।। किञ्चिदयोग्यं व्रतं बरूहि यदि तुष्टोसि माधव।यत्कृत्वा |
सर्वपपेभ्यो नरो नारी प्रमुच्यते ।। ३ ॥ भीकृष्ण उवाच ।। कथयामि नृपधेष्ठ |
व्रतानामुत्तमं व्रतम् ।\ यच्च कस्यचिदाख्यातं तच्छृणुष्व नृपोत्तम । ४ ॥ थान्यान् |
कामान्वाञ्छयति लभर्तास्तांस्तथव च ।। तत्क्षणादेव मुच्यन्ते नरा नार्य॑क्व |
, सर्वषः ।॥\ ५ ।। प्रभोर्भगवतोः राजन् कामधेनोः प्रसादतः 1! सौभाग्यं सन्तति `
। लक्ष्मीं प्राप्नोति सुखमुत्तमम् ।। ९६ 11 युधिष्ठिर उवाच ।। यदि तुष्टोऽसि भगवन् ।
व्रतस्यास्य विधि शुभम् \। बूहि मे देवदेवेश करोमि त्वत्प्रसादतः । ७।। के मन्त्रा |
केनमस्कारा देवतार्थं प्रकीतिताः ।! कि दानं मन्त्रम्यं च कथयस्वसुरोत्तमा । `
| ॥८ ॥\ श्रीकृष्ण उवाच ।! नारदेन पुरा राजन् यदुक्तं सगरादिषु ॥ स्मारितं ` |
( राजज्छणुष्वेकमना व्रतम् ।! ९ ।। मासि भाद्रपदे शुक्ले जयोद्यां समा- `
` उन्तधावनपुर्वकम् ।! आचच्योदकमाराय इमं मन्त्रमुदीरयेत् ।। ११।। गोतरिरात्र त्र ति ् (|
योपवासकरणे मम ।\ शरणं भव देवि त्वं नमस्ते धेनुरूपिणि
(६५०) क व्रतराज [ चयोदशी-
कृत्वा दिनन्रयं पाथं प्रीतये विनिवेदयेत्" ।। धेनुपुजां ततः कुयज्जिलधारा प्रदक्षिणाम्
॥ १८ ।। पुरा दत्वा तु मुकुटं कुण्डलं कुङ्कुमं तथा ।\ अन्नाच्छादनगन्धादिदिव्य-
, दिन्यिपृष्पे स दीपकंः ।। १९ ।। अहोराच्रभवं किञ््विद्घुतदीपं दिनत्रयम् ॥
अर्घ्यदानं ततः कुर्या्नारिकेलादिभिः फठेः ।। २० ॥। अध्येमन््रः- पञ्च गावः
सम॒त्प्ला मथ्यमाने महोदधौ ।। तासां मध्ये तु था नन्दा तस्यं धेन्व नमो नम
॥२१॥ प्रदक्षिणीकृता येन धेनुर्मा्गानुसारिणी ।। प्रदक्षिणीकृता तेन सप्तद्रीपा
वसुंधरा ।! २२।। गावो ममाग्रतः सन्तु गावो मं सन्तु पृष्ठतः ।। गावा मे हृदये
सन्तु गवां मध्ये वसाम्यहम् ।\ २२३ ।। आरातिकं सनेववेद्यं गीतवाद्यमहत्सवः ।
कुडकुमं कलं सूत्रं धेन्व दद्याद्विचक्षणः ।। २४ ।। एवं सपुज्य तां धेनुः सम्यक्
भक्त्या दिनत्रयम् \। यवांश्च यवसं चैव चारयेत्पाययेदपः ।\ २५।। गोमयादाग-
तेर्धातेः कृयत्तिरेव पारणम् ।\ षेन्वग्रे जागरं कूर्यात्सिवेपापप्रणाशनम् ।! २६ ।।
निविधान्मुच्यते पापात्प्रहुरार्धंन पाण्डव ।। तस्योत्तरं कृतात्पापात्प्रहराधन म॒च्यतं
+ २७ ॥ चत्वारि बेणुपात्राणि पूरयित्वा प्रदापयेत् । नारिकेलास्रकदलीद्राक्षा-
खजूरदाडिमंः ।। २८ ॥। शुभेविरूढंः सिदूरवेस्त्रकुड्कुमकज्जलेः ।। प्रथमे बीज- `
पूराढयं ह्ितीये दाडिमं श्रुभम् \\ २९ \\ तृतीये नारिकंलं च दद्यादघ्यं दिनत्र- |
यम् ।। करकास्तु त्रयो देया हविष्यान्नेन पूरिताः \\ ३० ॥! खक्ष्मीनाराथणं देवं `
ब्राह्मणं भार्यया सह।।पुजयेत्कुसुमेवस्त्रहेम सूतरेयुधिष्ठिर।।३१।।द॑पत्योर्भोजनं देयं
धेनुभक्त्या दिनत्रयम् ।। पारणे गौरिणीः विप्रानिष्टान्बधृहच भोजयेत् । ३२।॥ `
गुरुरूपाय तां धेनुं दिजाय प्रतिपादयेत् ।। सुकुडकुमां सवत्सां च घण्टामुकुटभूषि- `
(४ ताम् । ३३ ।। गीतवाद्त्रनत्यादिज्ञान्तिपाठपुरःसरम् ।। यायाद्िप्रगहं या वत्प्रा- `
स्य वै ।। ३४ ।! एवं या कुर्ते पाथं गोनिराचर बरतोत्तमम् ॥। दुलभ तु `
सदा स्त्रीणां नराणां नृपसत्तम ।! ३५ ।। अदवमेधसहस्राणि वाजपेयशतानिच- `
कृत्वा यत्फलमाप्नोति गोत्रिरात्रत्रते कृते ।। ३६९ ।। प्रभासे च कुरक्षे्रे चन्द्रसुयेग्रह `
तथा । हेमभारशतं दत्वा फलं तत्प्रापनुयान्नप ।। ३७ ।। धेनुदानं च यः कुर्यात्सवस्त्रं `
। सागराम्बरसयुक्ता दत्ता तेन वसुन्धरा । ३८ । एवं यः कुर्ते
नतरृतात्पापात्रि्विधान्मुच्यते नरः ॥ ३९ ।॥ `
~ = न
म
म
क न ~न
इस व्रतका प्रारम्भ करे, उस दिन प्रातःकाल उठकर
कर पानी लेकर इस सन््रको बोले 1 ११।। कि इस
हि षेसुरूपिणि देदि ! परे किषएु नमस्कार है \\१२
अनसार लक्ष्मीनारायण सोनेके होने चाहिए \\१३
-स्रतानि1 हि्दीटीकासहित (६५१)
पणमेव च \। त्रतस्यास्य प्रभवेण गोलोके च महीयते 1 ४३ ।। कौ्तिदं धनदं चैव॒ `
चैव सौभाग्यकरणं व्रतम् \! जायुरारोग्यकरणं सर्वपापप्रणाशनम् ।! ४४ ॥ एत. `
स्मात्कारणाद्राजन् सभायस्तवं कुरु व्रतम् ।। राज्यं वा यदि सत्कोति नित्यं प्राप्तु
मिहेच्छसि ।। ४५ ।। तच्छ्रुत्वा पाण्डवश्रेष्ठो त्रतं चक्रे समाहितः ।। व्रतस्यास्य `
प्रभावेण लब्धं राज्यमकण्टकम् ।। ४६ ।। इति हेमाद्रौ भविष्ये गोच्िरात्र व्रतम् ॥ `
इदं च स्कान्द आर्विनशुक्लत्रयोदश्यामुक्तम् \! ॥ (0
. मोत्रिराघ्र्रतम्--भाद्रपद शुक्लात्रथोदकषिके दिन होता है । इसे हेमाष्रिमे भविष्य पुराणते कहा है । `
` युधिष्ठिरजी बोरे कि, है भगवान् ! मधुसुदन ! अपकौ कृपासे बहुतसे अच्छे त्रत मेने सुने हे बहृतसे पुण्य-
श्राली त्रतकिये भौ हं ।\१।। ये भलेही सब कामको देनेवाले तथा सख षापोके हरनेवारेभी हं पर अब मे |
सबन्नतोमं जो श्रेष्ठव्रत हौ उसे सुनना चाहता हूं ।\२\\ है साधव ! यदि आप प्रसश्च हैं तो कोई योग्यब्रत `
कंहं दीजिये । जिसे करके स्त्री हो वा पुरुष हो, सब पायोपे छट जाय ।\३।। श्रीकृष्ण बोले कि, हि नृप श्रेष्ठ ! |
सब व्रतोमेसे भेष्ठ ब्रतको कहता हुं ! आजतक किसीसे भी नहीं कहागया उसे अ सनं ।\४।। निन जिन `
कामोको चाहता है उन उन कामको उसी तरह पयेगा उसी समय स्त्री हो वा पुरुष हो सव पापोसे छट `
जाते हें ।\५।। है राजन् } उन्हं कामोको पूरा करनेवाले लक्ष्मीनारायण भगवान्की प्रसतन्नतासे सौभाग्य
उत्तम सुख, सन्तति ओर लक्ष्मीकी प्राप्ति होती है ।\६। युधिष्ठिरजी बोले कि, हे भगवन् ! यदिञाप
. भुन्षपर प्रसन्न हों तो इस व्रतकी पवित्र विधि किये ! है देवदेवेश! मेजपकी कृपासे इस व्रतको करूगा =
` | 11७1 उसके मन्त्र. कौनसे हें ? तथा देवताके लिये कौनसी नमस्कार कहीगयौ है? दान मन्त्र ओर अध्येक्या
दहै? हे सुरोत्तम ! किये ।\८।। श्रीकृष्णजी बोले क्रि, नारदनीने जो सगर आदिकोको कहा था । षने
` उसकी याद दिला दी । है राजन् ! सावधान होकर उस व्रतको सुनो ।)९।! भाद्रपद शुक्ला ्रयोदशीके दिन
ठकर हाचि हो ।१०।। दतुन करके नियम ग्रहण करे, आचमन `
ोत्रिरात्रव्रतको मेरे उपवास करनेमे मेरी ज्ञरणहो, `
॥। महादेव लक्ष्मीनारायण प्रभु प्रसन्न हो, अपनी शवि शक्तिके तके | 1
वा न ५
सश्च करे \\१५।। हे लक्ष्मीकान्तं ! हे जगन्नाथ ! र मे छ 1
२६।। दे पाण्डव ! आधे पटर भी जागरण
(वर) तरल [योल
तीनों पापोसे मुक्त हौजाता है । उससे अगाडी आधे पह्रके जागरणमं सब पायोसे छट जाता है ।।२७।
` चार वांसके पात्र भरकर दे, नारियल, आम, कदली, द्राक्षा, खज् र, अनार ।\२८। अच्छे, विरूढ, सिन्दूर,
` वस्त्र, कुंकुम, कज्जल इनसे भरे । पहिले दिन बीजपुर दूसरेदिन अच्छा दाडिम ।\२९।। ओर तीसरे दिन
नारियलका अघ्यं दे। हविष्यान्नसे भरे हए तीन करवे देने चाहिए \\२३०\। हे युधिष्ठिर ! देव लक्ष्मीनारायणको
अथवा सपत्नीक ब्राह्यणकोही लक्ष्मीनारायण मानकर फूल वस्त्र ओर सोनेके सतोसे पूजे ।३१।। गोकी `
भवित्से दम्पतियोको तीन दिन भोजन दे । पारणके दिन गौ, सुवासिनी ब्राह्मण ओर बन्धुगण सबको भोजन
` करावे ।\३२।। गुर रूपी ब्राह्मणके लिए उस धेनुको देदे कुंकुम लगाबे घंटा जौर मुकुटसे विभूषित करे, वहू
गो बडा समेत हौनी चाहिए ।\३३।) गीत, बाजे, नुत्य जौर शान्तिपाठ भी होना चाहिए । जबतक कि,
वह् ब्राह्मण घर जाय । इससे उसके फलकी प्राप्ति होती है ।1२३४1। हे पाथं ! जो कि, इस प्रकार उत्तम
इस गोत्रिरात्रत्रतको करता है उसे उत्तम फलकी प्राप्ति होती है । हे राजाओमें श्रेष्ठ ! यह् स्त्री ओर पुरुषोके
धुरुषोके लिए सदा दुलभ है ।\२५।। सहस्र अश्वमेध ओर सौ वाजपेय करके जो फल पाता है बही गोत्िराच्रब्रत `
करके पाजाता है ।\३६।। है राजन् ! प्रभास क्षेत्र ओर कुर कषेत्रम सुयके ग्रहणके समय सोनेके सौ भारदेकर
जो फल होता है, बह इस व्रतके करनेसे होता है ।\३७\। सब कामनाओके देनेवाले सवस्त्र धेनुदानको जिसने `
` किया है उसने समद्र सहित सारौ भूमिका दान करदिया ।३८।। हे पाथं ! जो तीन राततक इत उत्तम `
च्रतको करता है वह् दूसरे जन्मके किए हये तौनों तरहके पापोसे मुक्त होजाता है ॥३९॥। हे नराधिप ! स्त्री `
` कभभ पतिके दुखको नहीं देखती, उसे बेटा नातियोका सुख होता है । इसमें संशय नहीं है ।(४०।१ वह॒ |
स्त्री इूसरे जन्ममें भौ वधव्यको नहीं देखती, निपुत्रीको पुत्र तथा निघनको धन मिलता है ।।४१। शरीर |
ओर मनके कमेसि जो पाप इकट्ठे किए भे वे सब गोत्निरात्रत्रतसे अवदयही नष्ट होजाते हैँ प४२।। यहां `
अनेक तरहके भोग ओर पूरी आयुको भोगकर इसी त्रतके प्रभावसे गोलोकमें चला जाता है ॥४३। यह |
। सिटानेवाला है ।\४४।। है राजन् ! इस कारण आप स्त्ीसहित त्रत करिये । जो तुम्हारी यह इच्छाहो `
| किमुन राज्य मौर कीति सदाके किए मिल जायं ।\४५।। यह सुनकर उसेष्ठ पाण्डवने एकाग्रचित्तसे व्रत
किया । इस ब्रतके प्रभाससे निष्कटकं राज्य मिक्गया ।।४६।। यह भविष्यपुराणसे हेमाद्रिका संगृहीत गोत्रि |
( ` रातिब्रत है । यही स्कन्द पुराणम आदिन शुक्ला जयोदहीमें कहा है
1 अथ गुजराचारग्राप्तं गोत्रिरात्रत्रतम् ।! युधिष्ठिर उवाच ।। येन लक्ष्मीश्च ` |
सकला नराणां भवने भवेत्।\सन्ततिरवदधते स्त्रीणांत दव्रतं बद मे प्रभो 11 १। श्रीकृष्ण `
क्रियमाणेन सवं `
\\ २।। गोच्रिरात्रमिति ख्यातं नुस्नीणां फलदायकम् 11 वाच्छितं `
॥ भ्यृणु राजन् प्रवक्ष्यामि ब्रतानामुत्तमं त्रतम् । येन वे
तेषां २ र चेतसि वर्तते ॥ ३ ।। युधिष्ठिर
क +
न
~ - =
स उवाच ।। कीदशं तद्व्रतं देव `
::.. अतानि.) ` हिन्दीदीकासदहित (६५३)
लान् ॥। पुत्रार्थं च सपत्नीको बसिष्ठस्याश्नमं ययौ ।। ८ ।1 पल्यन् हि पथि कल्याणं `
सारसः कृततोरणम् ।। सरोऽरण्यान्यनेकानि मार्गेषु फलितानि वे ।! ९1 राज्ञा `
महिष्या सहितो रथारूढः सवाहनः ।। संध्यायां योगिनस्तस्य महषः प्रापदाश्नमम् |
।। १० ।\ सार्थ च समाद्य बाहान्विश्रामयेत्यथ ।। रथादुत्तीयं च म॒नेराश्चमं `
भायया ययौ ।\ ११ ।\ स्थितं कर्मणि संध्यायां दिलीपो दद्श्ने गरम् ।। अरुन्धत्या
` सहासीनं सावत्यिव पितामहम् \\ १२ \। तौ प्रणम्य गुरं तत्र मनिपत्तीं विशेषतः! `
` स्थिते तस्य समीपे तु प्रीतावानन्द पूरितौ ।\ १२३ ।। दिलीपं च तदात्य्थं धर्मज्ञं `
लोकपालकम् ।! प्रच्छ कुशलं राज्ये वसुधायादच व मुनिः ।। १४ । दिलीप
` उवाच ।\ कुशलं मे सवा देव स्थिते त्वयि गरौ सति ॥ सुराणां च मनुष्याणां
` विपत्तौ रक्षिता भवान् ।। १५ ।। ्विक्षयो मम कान्तायामपत्यं किन जायते ।॥ `
कितु कायं धरित्या मं निराशाः पितरो मम।। १६॥।। तथा कुर मनिशेष्ठपुत्रौ
भेवति मे यथा ।। राज्ञां विपदि प्राप्तायां त्वदायत्तं सुखं , मुने 1! १७ ॥ यदेति
कथितं राज्ञा म॒नये वै युधिष्ठिर ।! तदा मनिः क्षणं तस्थौ ध्यानस्तिमितलोचनः ५
॥ १८ ॥\ कारणं संतते राज्ञो मुनिदृष्ट्वा समाधिना ।। ` पड्चान्न्यवेदयत्तस्मे
दिलीपाय प्रयत्नतः ।\ १९ ।। वसिष्ठ उवाच ।। पूर्वं वज्रारिमाराघ्य वसुधां गच्छता = `
त्वया ।। कल्पमूरे च तिष्ठन्ती कामधेनुनं वन्दिता । २० ।। जातस्तस्यास्तदा॒ = `
कोपो दत्तस्ते शाप ईदृशः ।। न बन्दिताहं भवता साम्प्रतं 'यदि भूमिप । २१॥ `
भविष्यति न ते पूत्रस्तच्छापो न भरुतस्त्वया ।। न॒पुजयेचः पूज्यानां वन्चानां यो |
न बन्दतं । २२। न जायते तु कल्याणं पातकंरेव लिप्यते ।! दिलीप उवाच ।॥
कृतो मयापराधोऽयं करोमि किमहं सुने ।।२३।। सन्ततिर्नायते येन तद्व्रतं वदमे `
भ्रमो।।वसिष्ठ उवाच।।अन्येर्नानाविधैः ुण्येस्तपोभिनं. प दुःसहेः। २४।।न जायेततु
सन्तानं गोत्रिरा्नबरतं विना।।सपत्नौकः सवत्सां मे धेनुं राजन् फलप्रदाम् २५।। `
` आराधयेकाग्रमना गोत्रिरात्रव्रतं कुर ।। यावदित्थं दिलीपस्य मुनिना कथितं ब्रतम्। = `
1
0
च नेवेद्यं कारयेद्य वसंय॒तम् ।\ एजयित्वा प्रयत्नेन ददयादध्यं विधानतः \\ ३२ ।।
गावो मे अग्रतः सन्तु गावो मं सन्तु पृष्ठतः ।। गावो मं हृदये सन्तु गवां मध्यं `
वसाम्यहम् ।! ३३ ।। पञ्च गावः समृत्पन्ना मथ्यमाने महोदधौ 1\ तासां मध्ये तु
या नन्दा तस्य धेन्व नमोनमः ।। ३४ ।। इति पूजासंत्रः ।। सनारिकलकृष्माण्ड- `
मातुलिद्धः सदाडिमम् ।। गोच्रिराच्रत्रतार्थाय सफलं च करे धृतम् ।! स्वं कामप्रद
देवि गृहाणार्घ्यं नमोऽस्तु ते ।! ३५ ।! इत्यरघ्य॑मन्त्रः ।\ वस्त्रयुग्मं विधानेन दद्या- `
द्वासांसि दक्षिणाम् ।\ सपत्नीकाय गुरवे स्वशक्त्या च व्रती नरः \। ३६ ।1 दिनानि
ब्रतिभिस्त्रीणि श्रोतव्या च कथा शुभा \। नितक्रोधैस्ततः सर्वः स्त्रीभिर्वा पुरुषैरपि `
॥। ३७ ।। एवं सम्पुज्य धेनुं वे लक्ष्मीयुक्तं तु केशवम् ।\ चतुर्थे दिवसे प्राप्ते ततो `
धेनुं विसजयेत् ।! ३८ ।। ततो धेनुं सवत्सां तु मन्त्रेणानेन पाथिव 1! दद्याद्विप्राय
विदुषे शास्तरज्ञाय च धर्मिणे ।\ ३९ ।\ परिपूर्णं व्रतं कृत्वा दत्त्वा कामानभीष्षि- `
तान् ।\ विप्राय त्वं मया दत्ता मातरगच्छ यथासुखम् ।\ ४० ।। इति दमनमन्त्रः
+ सवदानानि देयानि स्वहक्त्या ब्रतिभि्नरेः ।। विविधेभ्यो दिजेस्यहच दक्षिणां ध
चं स्वशवितितः ।\ ४१ ।। वित्त्ाठ्यमकरर्वाणो दापयेच्च ततो नरः ।। गृहं याव
` दुब्रजेतपष्ठे गीतनृत्यपुरःसरम् ।! ४२ ।। गोपालानां च पाथेयं दद्याद्र घेनुतुष्टये `
यवा ये चारिता नित्यं फलननिाविधेः सह ।। ४३ ।\ मुक्ता वे कामधेन्वा च सह॒ `
वै गोमयेन तु । पारणं तेः प्रकतेव्यं स्वे रिष्टजनेः सह ।\ ४४ ।। सपत्नीकाय `
गुरवे दद्याच्चाच्रं सदक्षिणम् ।\ भ्नीकृष्ण उवाच ।। मद्रे मासि सिते पक्षे ्रयोद्छयां `
| नराधिप ।। ४५ ।। एवमाराधयन्धेन्ं दिलीपो भक्तितत्परः ।। यथोक्तेन विधानेन | ५ |
प्रभातं सुरभि पुनः ।\ ४६ ।। सुपूजितां बनं गन्तुं मुमोच त्वरितं शुचिः ।\ आसायं
चारयित्वा तामाययौ पुनराश्रमे ।\४७।। सुदक्षिणाकृताच तु विधिद्बरिपूर्वकम्
मुमोचतां चारयितुं द्वितीयाः
तीयदिवसे पुनः । ४८ ।! अनुयातस्ततो धेनु त॒तीये दिवसे
गोरूपधरामिवोदधिपयोधराम् ।! ४९ \! रताभिकच ततो राजा `
पततस्तदा ।\ जयङानद न्वं भचवतं पक्षिणः सुन्दराननान् ।॥ ५० ।\ दृष्ट्वा
व्रतानि 1 हिन्दीटीकासहित ` (६५५)
धनुष्यारोपयन्बाणं चित्रन्यस्त इव स्थितः ।! हस्तस्य निक्चलत्वेन कोध स्तस्य `
व्यवर्धंत । ५७ ।! विस्मयं प्रापयन् सिह राजानं वे युधिष्ठिर ।! मानवस्य शिरा `
` म्राह दृष्टत्वेन गवि स्थितः ।\ ५८ ।\ सिह उवाच ।! बाणः प्रयुक्तो मवता वथा `
मयि भविष्यति ।। ततः कष्टेन महता श्रमं मा कुरु सर्वथा ।। ५९ ।। न' मारुतस्य `
वेगोऽपि पवेतोन्मूलने क्षमः ।। ज्ञायते न महाराज केबलानोकहे किमु ॥ ६० ॥ `
महेद्वरस्य मां राजन्नाम्नाः कुम्भोदरेण तु ।\ सेवकानां च सर्वेषां । मुख्यं जानीहि `
` भूमिप |! ६१ ।\ विलोकयेमं पुरतो देवदारुमहाद्रमम् ।। सिक्तः स्नेहेन भूपाल `
क्षिवयाच सुतः कृतः ।। ६२ ।। कदाचिदागतो हस्ती भग्नस्तेन महादूमः ।। तस्य (१ । 4
| संरक्षणार्थाय नियुक्तोऽहं शिवेन तु ।। ६३ ।। कृत्वा शिवेन सिहत्वमुक्तोऽहं जीव
भोजने ।\ तर्हीयं खल गौ राजन्भक्षया मे समुपागता ।! ६४ ।। त्यक्त्वा लज्जां
। निवर्तस्व भक्तोऽस्ति गुरवे भवान् ।। आपत्काल इदं वृत्तं भवेच्छस्त्रभृतो यदि ।॥ `
| ६५ ।। दोषो न जायते तस्य यशो राजल गच्छति ।। शरुत्वा गिरं च सिंहस्य राजा
। चेनमुवाच ह॒ ।। ६६ ।! ईहइवरेण समो वेत्ति गुरः सिह भवानपि ।! समीपाच्च `
। कथं याति बम घेनुरगरोरियम् ।! ६७ ।। प्रसीदःभश्न मे देहं धेनु मञ्च सवत्सकाम् ।।
भविष्यति जनन्याश्च वत्सो मागं विलोकयन् ।! ६८ ।। सिहेन तु दिलीपाय कथितं `
वैतदा पुनः\। स्तोकेन हेतुना पाथं कान्तं छत्रं च सत्कृतम् ।\ ६९ ॥। सर्वस्य जगतो `
राज्यं वपुरेतश्नवं वयः ।! त्यक्तुमिच्छसि वा राजन् मृखेस्त्वमीदुशः कथम् ॥\७०। `
ददासि च कथं प्राणान्प्रजापालनतत्परः \\ जीवच्च कि महाराज मुनेः कोपमपास्यसि `
॥७१।। ततो रक्षय देहं स्वं राज्यं च कुर भूमिप ।। यावच्चोवाच सिंहोऽसौ
नगेनानृगता" गिरम् 11 ७२ ।। दिलीपोऽपि तदा पाथं वाणीमेतामुवाचह ।\ धेन्वा `
निरीक्षितक्चेव भूमिपो दीननेत्रया ।\! ७३ ।। कि नो राज्येन मे सह विषये जीवनेन `
यरोगतं
।। यञ्ञोगतं च मे सरव यदि धेनुं ग्रसिष्यसि ।। ७४ । एवमुक्त्वा ततद
|
न ८ रतरा. --.- -- . . .[ त्रयोद्ली.
भवता कृतम् ।। ८० ।। भविष्यति च ते दक्षः पुत्रः पौरुषविग्रहः । अन्येऽपि ये
करिष्यन्ति गो्रिराच्नव्रतं मस ।\ ८१।। तेषां कामं च दास्यामि मनसीष्टं न संशय
11 इत्युक्त्वा चक्ति धेनुवेसिष्ठस्याश्चमं प्रति ।\ ८२ ।! बालि संगृह्य विधिवद्यया-
वाशु सुदक्षिणा ।! पूजां कृत्वा विधानेन राजपत्नी विज्ञेषतः ।। ८३ ।! प्रदक्षिणात्रयं
कृत्वा चलिता ब युधिष्ठिर ।! आश्चमं चं ततो गत्वा दिलीपोऽसौ पुनस्तदा !॥! `
॥ ८४ ॥ गुरोरग्रे च तत्सवं वृत्तान्तमवदत्पुनः ।। नन्दित च तदा पाथं दम्पती `
तौ सुकोमलौ ।! ८५ \! पारणं च ततः कृत्वा प्रस्थितौ नगरं प्रति ॥ हृताक्ञं च॒ `
नमस्कृत्य होतारं गां तथेव च ।} ८६ 1! आगतष््च ततो राजा अयोध्यानगरं `
पुनः. \\ राज्ञा तेन कशा द्धेनराज्यमारोपितं भुजे ।। ८७ ।। दिनैः कतिपयैरेव
। गोच्रिरातरप्रभावतः । राज्यं च करर्वतस्तस्य सुषुवे महिषी सुतम् । ८८ ॥ प्रभाते `
समुहतं च सुभगं रघुसंज्ञकम् ।। रम्यजातं तदा सवं सञ्जाता निमंला दिक्ञाः।॥
॥ ८९ ।\ राजा ददौ ब्राह्मणेभ्यो गचव वस्त्रसंयुता ।! मृदद्धस्य स्वनरिव्ये रम्यं `
जातं पुरं महत् \\ ९०, प्रजाः सर्वास्तदा पाथं वदन्ति स्म पुनः पुनः ।। गोत्रिरात्र-
प्रभावाच्च राज्ञः पुत्रो बभूव ह॒ ।। ९१ ।। पुरन्दरस्य जेता च महाधमषरायणः ।॥
दशां जेता च यज्ञस्य कर्ता सोऽपि युधिष्ठिर ।\ ९२ ।। तदाप्रभृति लोकेस्मिल्लोका `
(1 कुवन्ति | ` तदृब्रतम् ।1 दवेः सवः कृतं तत्तत्सवंकामाथसिद्धये । ९३।। सर्वाभिर्देव- ` ` |
पत्नोभिः कृतं च व्रतम् त्तमम् ।\ गोत्रिरात्रत्रतं पुण्यं विधानेन फलप्रदम् ।\ ९४।। `
2 कार्याणि सुखं चेव प्रबद्धेते ।। ९६ ।\ कतेव्यं पुत्रकामेन गोत्रिरात्रव्रतं शुभम् । `
तपोभि्दुष्करेः किञ्चिदजञस्तीर्थेगेयादिभिः ।। न भवेच्च फलं ताद्ग्यादृग््रत- `
विधानतः ।। ९७ । कुर्वन्ति ये व्रतमिदं जगति प्रसिद्धं पापापहं सकलचिन्तिति- `
कामदं च ।\ आरुह्य चेव तु विमानमनुत्तमं ते स्वं प्रयान्ति यमतो हि भयं विहाय ॥
। इति गोत्निरात्रव्रतम् ।। अथोद्यापानम् --युधिष्ठिर उवाच ।\ कथयस्व
[जता हिन्दीटीकासदहित
(६५७)
॥ विरूढवस्त्रपक्वान्तर्नारिकेलादिभिः "कलेः ।। विलेपनेश्च पष्पैरच धपेदीपिस्तथो- `
| त्तमः ।। पञ्चामुतश्च नव्यः पूजयद्विधिपुवेकम् ।। ७ ॥ लक्ष्मीनारायण देवं गां
| 1. ॥ सवत्सां विश्षेषतः ।। रात्रौ जागरणं करत्वा गीतवादितिनिःस्वनः । ८ । वतः
प्रभातसमये होमं कुर्याच्च ववेष्णवेः ।आचार्यं वरयेत्तत्र बेदवेदाद्खपारगम् ॥
॥ ९।। तदाज्ञया च कतव्य साधुकम प्रयत्नतः ।। तिलो गावः प्रदातव्याएकावापि
| पाचितम् \\ तेनानेन प्रकर्तव्यं देहस्य परिपालनम्
` सवत्सका ।। १० ।। बहुदोगध्नी सुशीला च तरुणी च सुशोभना ।। दम्पती पुजयेच्चैव `
| वस्त्रराभरणेः शुभः ।॥ ११ । शय्यां सोपस्करां दद्यात्यानपात्रं कमण्डलृम् ।! `
| चामरं घृतपात्रं च तिलपात्रं सदक्षिणम् ।। १२ ।। पात्राणि च सुवर्णानि भोज्या `
। गव्येन वै द्विजाः ।। एवं धेनुं च विप्राय दत्त्वा च पृष्ठतो ब्रजेत् ।। १३ पदेषदे-
। अवमेधस्य फलं प्राप्नोत्यसंशायम् ।। अथान्यानि च दानानि ददयाष्धिपरभ्य एव च ।॥
। ॥ १४ \1 भूयसीं दक्षिणां दद्याद्ब्रतसम्पुतिहेतवे । गोपारेभ्यः प्रदातव्यं इष्कु- `
। ल्यादि च कम्बलम् ।। ११५ । सर्व क्षमापयित्वा तु पारणं च ततत्चरेत् ।\ अनाथे-
व्याधियुवतश्च सीदद्डिश्च कुटुम्बकं: ॥। १६ ॥। गवा भक्षितमन्नं यद् गषेन परि- `
रिपालनम् ।\ १७ । शक्त्यभावे दविजालुजं न ८
तेषां सवं मनोरथाः । आशु सिद्धचन्त्यसन्देहं तेषां लोकारच शाइवता )
1. इहि त ४ श्रीभविष्य पुराणे गोत्रिरात्रव्रतोद्यापनं सम्पणम् ।।
अब गुजरातियोके आचारसे प्राप्त गोत्रिरात्रव्रत र कहते हे -मुधिष्ठिरजी बोले ति कि
कियेसे मन् ष्योके घरमे सदा लक्ष्मी रहे तथा स्त्रियोके
रथं समेत परम योगी महषि वासिष्ठजीके आश्वममं सामके सभय उपस्थित हुजा ।\१०।। सारथिसे कहा कि,
धचघोडोको विश्राम कराबो । आप र्थसे उतरकर स्त्री समेत मुनिके आश्रमम चला गया ।\११।1 दिलीपने
` ` गुरुको अरुन्धतीके साथ सन्ध्याम बेडा देखा ! वे एसे शोभित होते ये जसे सावित्रीके साथ ब्रह्माजी रोभित
होते हों ।\१२।। दिलीय ओर उनकी पत्नी दोनों गुरुको तथा विशेष करे अरन्धतीको प्रणाम करके आनन्दसे ` १
भरे हृए कौ तरह प्रसन्न हो उसकेही समीप बैठ गये \१२। वसिष्ठजीने उस समय लोकोके पालक धर्मे
जाननेचारते दिलीपंसे राज्य ओर वसुधाकी कुशल पदी ।\१४।। दिलीप बोले कि, है देव { जब आप गुर | ।
` भौज्द हे तो मेरी सदाह कुशल हे । सुर ओर सनुष्य दोनोकोही विपत्ति (अनावृष्टि चोरी जादि) से बचाने-
बाले आप है १५ मुञ्चे यही सन्देह है कि, मेरी स्त्रीके पुत्र क्यो नहीं होता, मुञ्चे मूमिसि क्या केना है? `
जो मेरे पितरही निरा है तो ।१६।1 हे मुने ! सूर्यवंज्ी विपन्न राजाओंका सुखी होना अपके हाय है, ` ४
हि म॒निशमष्ठ ! वो करिये जिसे मुके पुत्रकी प्राप्ति हो ।\१७।। हे युधिष्ठिर ! जब राजाने यह् कहा तब मुनि ॥
एक क्षण ध्यानम दृष्टि स्थिर करके बेठ गये ।\१८।} मुनिन समाधि राजाकी सन्ततिका कारण देखा
पीछे प्रयत्नके साथ दिलीपको कहदिया ।। १९।।कि, पहि इन्द्रकौ आराधना करके, आते हए तुन कल्प-
बुक्षकी जडम बेटी हए कामधेनुकी वन्दना नहीं कौ ।\२०।) उससमय उसे ऋोध हुमा तब उसने यह शप `
पापोसे लिप्त होता है । दिलीप बोले कि, हे मुने ! मेने यह अपराध किया है पर अब मे क्या करू । २३! `
दिया कि, (तुमने मेरी वन्दना नहीं की इस कारण है राजन् ! ।\२१।। तेरे पुत्र न होगा' पर तुमने नहीं सुना, (
पूज्योकी पजा तथा वन्खोकी बन्दन नहु करता ।\२२।\ उसका कल्याण नहीं होता किन्तु उल्टा ओर ˆ `
| | हे प्रभो ! जिससे सन्तान हो वो ब्रत मुक कहिं । वसिष्ठ गेले शि है राजन । वृसरे अनेक तरहके ुण्योसे | 1
र तपो ।\२४)१ सन्तानं नहीं पैदा होती बिना गोत्रिरात्र व्रते हे राजन् † सपत्नीक तुम शुभ | ८
चर ५ ८ देनेवाल दै, क्षीर समुद्रसे पेदा हई है, का्मोकी देनेवारी है पाटलरंसकी है, सब देवता कान ओर शरीरम ४
संपुणं चन्द्रमाकी कलाओंको धारण करनेवाली कल्याणकारी पुणमाही है ।२७। हि राजन् ! `
भा भाद्रपद मासके गुकलयक्षमे त्रयोदशषीके दिन प्रातः भक्िपरवंक नियम करे ।२८।। हे गो ! मे तेरे गोत्रिरत्र ` ८
` , शरैतकैे तीनदिन उपवास करके चौथे दिन भोजन करूगा मुञ्चे सौभाग्य दे ।२९।। यह् नियमका संत्रहै।)
इसके बाद मण्डलपर शुम मुखी गङको गन्ध, दीय, तगर, शतपत्र, चंपक ।\३०।। ओर अनेक तरहके फल
गि ही शक्तिके अनुसार पुष्य धूपोसे भौ पुन दे ।\३१।। यव सहित हविष्या्चका नैवेद्य कराते प्रयत्नके `
साथ पूनकर विधानसे अध्य दे ।३२। भावोमे' इससे तथा 'पञ्चगावः' इससे पुनाकरे ।३३।।३४।। (1
। गोतरिरात्र बरत के लिये नारिकेल, कूषपाण्ड, मातुलिद्ध, अनार ये फरसहित हाथपर रखे है, है सव कामको `
देनेवाल देवि ! अघ्यं ग्रहृण करः तेरे लिये नमस्कार है ।\३५।। यह अध्येका मंत्र है । शक्तिके अनुसार `
पवित्र कथा सुननौ चाहिये वे स्त्री पुरुष शात होने चाहिये ।।२७।। इसप्रकार लक्ष्मीनारायण `
वस्त्र, चसत्र ओर दक्षिणा सपत्नीक गुरुके लिए व्रती पुरुषको देना चाहिए ।\ ३६) तीन दिनतक ` ५
व्रतानि हिन्दीटीकासहित ` ': (६५९)
श्रीकृष्णजी बोल कि है राजन् ! भद्रपद शुक्ल जयोददीके दिन ।1४५।। भवितसे तत्पर होकर दिलीपने इस
प्रकार गञकी आराधना कौ । कटे हुए विधानके अनसार फिर प्रातः कालके समय सुरमिको ।४्द्॥ पूजा. ` ¢
करके पविन्न हौ वन जानके किए छोड दौ, सामतक चराकर फिर आश्नममें ले आया ॥।४७॥ दूसरे दिन `
दिलीपं की स्त्री सुदक्षिणाने गऊकौ पुजा करके बलि दे वन चरनेको छोड दिया ।॥४८। तीसरे दिनि फिर |
उसी तरह चारों सुंदर समुद्रोके स्तनोंवाली गोरूप धारिणी भूमिकी तरह रह सुक्ोभित उस सुरभिके पीछे |
चले ।*४९।। वृक्षोकी लताएं राजापर पुष्पवर्षा रहीं थी । जय छब्द उच्चारण करनेवाले पक्षियोके सुन्दर
मुखोको ॥\५०।। देखकर वनदेवियोके मुखारविन्दसे गाया हभ अपना यज्ञ सुना । इससे राजा एकदम प्रसन्न
हो मया \५१।। उस सुन्दर वनम चिरकाल तक, षेनुसे राजा ओर राजासे घेन परम शोभाकोपा रहैथे
।१५२।। उस दिन मुनिकी धेनू राजके भावको देखनेके लिए हे राजन् ! हिमाल्यकौ गुफामे प्रविष्ट होगा
।५३।) मुनिषेनुने अपनी मायाका भयंकर सिह वना लिया, राजाने देखा कि, सिह षेनुको सींचे क्िएिजा |
रहाहै 1)५४\ षेनु घोर विकाप करती जा रही है, धनुषधारी दिलीपने उसे चृटाना प्रारम्भ किया ॥\५५। |
राजाको श्लोक ओर क्रोध दोनों हुए बध्य सिंहके मारनेके किए हाथोमेतीर लिया ।\५६।। धनुषपर तौरको |
चढा चित्र लिखेकी तरह रह गया हाथके निर्चल हौ जानेके कारण उसका क्रोध बढनेखगा ॥५७। हे युधिष्ठिर ` |
विस्मय प्राप्त करता हमा वह॒ सिह दृष्ट भाववाकेकौ तरह गपर स्थित होकर मन्ष्यकी बाणीसे
| राजते |
बोला ।\५८।। कि, मुक्चपर छोडा हुजा आपका तीर व्यथं होगा, इस कारण आपको किसी तरहभौ बडे
, ` भारी परिथमका कष्ट न करना चाहिए ।।५९।। चाहे कितने भी जोरसे हवः क्यों न चे पर पर्वतको जड `
उखाडकर नहीं फक सकती । हे महाराज ! आप सुन्नको एेसाही न समक्षे ।।६०। हे भूमिके पालमेवारे राजन्
` ` ` भुभ्ने महादेवजीके सव सेवकोने मुख्य कुम्भोदर समभ्मिये ।\६१।। अपने सामने देवदासके वक्चको देखो
टसे पावेतीजीने प्रेमसे सीचा है तथां पुत्र बनाया है \\६२।। एक दिन हाथी चखा आया उसने इस बडे भारी
वुक्षको तोड डाला, श्िवने उससे इसकी रक्षा करनेके लिए मूद्ने नियुक्त कर दिया है ।\६३।। श्रिवने मुभ
सिह करके जीवभौजन कौ आज्ञा दे दी है हे राजन् ! यह गौ मेरा भक्ष्य है जो फि, यहां भपही चरी आयौ
| ` है ।\६४।। लज्जा छोडकर लोट जाओ आप गुरके भक्त हँ ! शास्तरवेत्ता्ओंका यह आपत्तिकालका हाल है `
। इसमे नतो दोष होगा न यद्य ही नष्ट होगा \ सिंहकौ वाते सुनकर राजा बोला कि ।६५-६६।। हे हि! =
आपभौ गुरुको ईदवरके समान. मानते हो, मेरे गुरुक यह गाय समीपसे कंसे जाती है ।\६७।। आप प्रसन्न `
{द}. ~इकराज 4 व्ोवधीि
छेकः पाके साथ पुजा करके तीन प्रदक्षिणा कर हे युधिष्ठिर ! वह् भी चलदी पीछे दिरीपने आश्रमम
जाकर ।८२-८४।) गुरुके सामने सब कहानी कह सुनाई उस समय कोमलस्वभावके वे दंपती परम प्रसन्न `
` हए ।1८५॥। पारणा करके अयने नगरको अग्नहोता ओर गङके नमस्कार करके चल दिये ॥८६।॥ फिर `
अयोध्या नगर आगये, उस दुबरे राजाने राज्य करना प्रारंभ करदिया 11८७11 राजाके शासन कार्यम व्यस्त `
॥ रहते हए भी गोचरिरात्रत्रतके प्रभावसे राजमहिषीने शोभन पुत्र जना ॥\८८।। उस समय सुन्दर प्रभात
था, सब कुछ सुन्दरही दीखरहा था दिशाएं निर्मल हौ रही थीं उस सुतका नाम रघु था ॥८९। राजाने |
वस्त्रोके साथ बहुतसी गऊएं ब्राह्मणोको दी मदंगके सुरीले श्दसे बडा सारा नगर सुन्दर ल्ग रहा
| ८ था-११९०॥। हे पाथं ! उस समय प्रजा आपसमे कहरही थी की, गोतरिरात्रवरतके प्रभावसे राजके पुत्र जा `
है ।\९१।। चह सदा धर्मसं रगा रहनेवाला इन्द्रके समान तेजस्वी हुजा, दिगाएुं जीतीं एवं है युधिष्ठिर उसने
अनेकों यज्ञ किये ।\९२।। उसी दिनसे लेकर सभी सुयोग्य लोग इस ब्रतको करते हेः सब काम ओर अर्थोकी
सिद्धिके लिये देवताओंनेभी इस व्रतकोकिया था ॥।९३।। सब देवपत्ियोने उस उत्तम ्रतको किया है । `
८ पवित्र गोत्निरात्रव्रत विधानके साथ करनेसे फलका देनेवाला होता है ।९४।। हे युधिष्ठिर महाराज ! आप `
| इस गोत्रिरात्रब्रतको करता है उसके सब काम सिद्ध होते हे वह सुखको पाता है ।॥९६।। जिसे पुत्रकौ इच्छा ` (
भक्त्िूर्वक इस व्रतको करे ! भाद्रपद मासमे बछरे सहित गऊकी आराधना कर \९५।। जो इस प्रकार
हो उसे गोत्रिरात्व्रत करना चाहिये, जो ष्कर तप तथा गया आदिक तीथे ओर यज्ञोसे फल सिद्ध नहीं `
होता वहं इस गोत्रिरात्रव्रतसे होजाता है ।।९७।। पापोके नाह करनेवारे मनोकामनाओंको पुरौ करने- `
जाते हे ।\९८।} यह गोनिरात्र बरत पुरा हआ ।। उद्यापन-युधिष्ठिरजी बोले कि, ह कृष्ण ! परम पुष्यके `
श्ीकृष्णजौ बोले कि, सब व्रतोकी सिदधिके लिये गोरिरात्रब्रतकी उद्यान विधि कहता हुं, चौये वर्षके `
बनावे ।\५॥। उन्हेनये
नैवेयोसे 7
जिसके विधिपूर्ेक कियेसे उस ब्रतका फल मिल जाता है ्
जिससे वह अच्छा लगे ।\४।१ पूर्णपात्रके साथ तांबेका कलद बनावे, एकमाष सुव्णके लक्ष्मी नारायण ` ५
ये दो पतसे कपडे उढावे पांच वांसके पात्र बनावे उन्हं सोभाग्य द्रव्येके साथ ॥६।॥
विरूढ व, ४ ध । पके फल, अच्च ओर नारियल आदिक फल, उत्तम विकेपन, धप, दीप, पंचामत ओर मैवेयोसि ५.
चाहवे : ० गऊ भयवा एक व गऊः देनी चाहिये ।११०।। जो हृत दूष दे सुशक हो `
लक्ष्मीनारायण भगवान् ओौर बछडेवाली गरक विदोषरूपसे पुज, रातको जागरण `
जाननेवाले : 1च र आाचार्यका वरण करे ।।९।) उसको आलाके अनसार प्रयत्नपूवेक भली ; ५ 1 भांति `
कतत... (दुहाग
ण मतन मन
|: | | ` .उनको स्वर्गादिक लोक सदाके लिये हु ।\२१।। थह श्रौ भविष्यपुराणका कहा हज गोत्निरात्रव्रतका उद्यापन न | | | ए
1 पराहभा १ - ८
(1 . -दषोकतरिरात्वतम्
। अथ चैत्रशुक्लत्रयोददयामलोकन्रिरात्रत्रतं भविष्ये ॥ सा च पूर्वा ग्राह्या ॥ |
तत्र 'त्रयोक््ी तिथिः पूर्वा सिता" इति दीपिकोक्तेः ।\ अथ कथा ।\ श्रीकृष्ण ` _ |
| उवाच ॥1 श्यृणु राजन्पुरावृत्तमयोध्यायां व्रतं शुभम् ।\ वसिष्ठेन मुनीन्द्रेण सीतायै `
। यन्निवेदितम् ॥ १ ।। विधाय रावणवधं यदा रामः पुरेऽम्यगात् ।। तदादेवी `
| प्रणम्याथ वसिष्ठं वाक्यमब्रवीत् ।\ २1) सीतोवाच) भगवन्दण्डकारण्याद्रावणेन `
हृता पुरा ।॥ न पञ्यामि तदा कंल्चिदात्मीयं विकलेन्दरिया ।॥ ३ ॥ लडकायां `
॥४। उक्तं त्रिजटया तत्र वात्य हेत्वथसंयुतम् ।। अशोकस्य व्रतं कृत्वा विशोका
| त्वं भविष्यसि ।\ ५ 1। तथेत्युक्तं मया ब्रहमन्यथोक्तं त्रिजटावचः ॥\ ततः प्रभूव्यहं `
| शह्वदशोकव्रतमारभम् ।। ६ ।। तेन व्रतप्रभावेण हनूमान्पवनात्मजः ।। शतयोजन- `
विस्तीर्ण तीर्त्वा सागरमागतः)\७।।मया दृष्टःकपिशेष्ठः साभिज्ञानो महाबलः ।। `
पुनश्च कुरी यातो दग्ध्वा लडकां महाबलः ।। ८ ।1 त ब्रत
। न य महातरोः ।। ब्रतराजग्रभावेण नामयोऽभून्महाहरिः ।। ९ ।! ततः
रीनिषेचि पेवि 'तम् ।। १२ ।। वसिष्ठ उवाच ।॥। एवमेतज्जनकजे ० नके थः
वक्ष्यसि सुव्रते ।। १३ ।॥ अदोकस्य प्रभावेण रामो दृष्टः पुन
क नपर ५ [ त्रथोदज्ली- `
क्वापि प्रनष्टं तं विप्र न जानेऽहं प्रियं पतिम् ।\ २१।। एतस्मात् कारणाद्ब्न-
हयस्तप उग्रं समाधिता । यथापुर्ननिजं राज्यं देवेदद्रः प्राप्नुयादिति ।॥ २२॥
क्व तिष्ठति मुने ब्रूहि सुरराट् शत्रुतापनः ।! प्रसादं कुर मे देव संयोगं येन चाप्नु-
` याम् ।। २३ ।। वाचस्पतिरवाच ।! ्युणु पौलोमि देवेन्द्रो यथा नष्टो भयातुरः ।॥
मानसाम्भसि संभतपडकजान्तरमाधित ।। २४ ।। वृत्रहत्याप्रभवेण उद्वेगं गुर- `
माधितः ।। अभिभूतमिष्वापश्यत्ततोप्सु निलयंगतः ।। २५ ।। कामं तपःप्रसङ्धेन
सर्व प्राप्स्यसि सूत्रते !। बहुकारेप्ितं यस्मात्तपसा लभ्यते फलम्! २६ ।। स्त्रीणां
ष्टकर् हकं त्रत प्रोवतं स्वयभवा ।! साविज्याः पच्छसानायास्तत्तवे कर्तमिहा- ५
हंसि ।॥ २७ । अशोकव्रतमित्येवं नाम्ना ख्यातं त्रिविष्टपे । येन चीर्णेन वै
सद्यो नारी दुःखं न संस्मरेत् ।\ २८ ।। हरः स्वयं वसन्नस्मिन्वृक्षराजं तु नन्दने ॥\
अस्मिस्तुष्टे हरस्तुष्ट इति जानामि निदिचतम् ।। २९ ।1 शच्युवाच ।॥। पुल्लागनाग- `
बकुलचंपका
काद्यान्महीरुहान् \\ परित्यज्य कथं चान्यान्हरोर्मन्कृतसंनिधिः ।॥ `
1\ ३० ।\ वाचस्पतिरुवाच ।। हरेण निर्मितः पुव्मंशोकोयं कृपालुना । लोको-
¦ त्वं विधिमस्य सर्व॑म् 1! ३२ \\ वाचस्पतिरुवाच ।! आरभ्य तद्व्रतं कार्य
पकारकरणे ततोऽयं श्िववल्लभः ।। ३१ ।\ वसिष्ठ उवाच ।। निर्माय वृक्षप्रवरं `
णस भ भक्त्याचयित्वा विधिमस्य विप्रम् ।! पप्रच्छ देवी पुनराह विपो देवि
{तिव नं समुपोषणम् ।। त्रिरात्रं देवि विख्यातमह्ोकतर्मृलके ।। ३२३ ।! कायं
नारीभिरमलं मनोवाक्कायकमेभिः \। ततः प्रदक्षिणा देया अष्टोत्तरहातैः फलैः `
॥ ३४ + नालिकेरेश्च खर्जूरेगोस्तनीभिदिनेदिने \। मंत्रेणनेन मनसा ध्यात्वा
` नित्य सदाशिवम् ।\! ३५ ।! अशोक शोकापनुद सर्वकामफलप्रद ।। व्रतेनानेन `
चीर्णेन यथोक्तफलदो भव ।। ३६ ।। ततस्ततीये दिवसे सम्यगम्यच्यं भामिनि
धव्यं नाप्तुयान्नारी पुत्रसौख्ययता भवेत् ।।! ३८ ।\ वसिष्ठ `
तं वंरापात्राणि कारयेत् ।। ३७ ।। अनेकनेव विधाननेन या कूर्या-
प्] मुखाच्छरत्वा हची च॑क्रे व्रतं शभम् ।। शास्नोक्तविरि व्तविधिना सीते 1
तथेन्द्र!
(व्रतानि । हिन्दीटीकासहित ` (६६२)
| 1 .: % अन्लोकवृश् तिष्ठन्ति सवे दवा युधिष्ठिर ।\। पट्लवषु च शालासु शिवाया सर्व- ५ ५ ॥
` देवताः \\ ४४ ।\ अक्षोकसछ्निधौ रामः पुननीयः सलक्ष्मणः ।! सीतया सहितो `
राजन्विष्णोरंशो यतो मत ।। ४५ \। पृथडमन््रेः पृथग्वस्त्ररश्लोकाल्या यथाक्रमम्!\! `
पृज्याक्च भरत श्रेष्ठ पुराणोक्तविधानतः ।! ४६ ।। अरोकवक्षानिहिताः शिवाद्या `
ये सुरोत्तमाः ।। अह्लोकपजनेनाश्ु तुष्टास्ते मे भवन्त्विह ।। ४७ । गौर्या लक्ष्या = ।
९ ण्या अरन्धत्या च सीतया \। त्वं समाराधितः पुवंमशोक फलदो भव॒ `
॥ ४८ ।। अन्नोकवाटिकामध्यें सीतया त्वं प्रसादितः ।! अरोक फलसंपच्च गृहा- `
` णार््यं कृतं मया ।। ४९ ।\ रावणस्य वधार्थाय उत्प्षस्त्वं महीतले ॥ विष्णोरंशो- `
ऽसि देवेश गृहाणार्घ्यं नमोऽस्तु ते ।! ५० ।\ दशावतारग्रहणं करोषि त्वं प्रभावतः।
गृहाणार्ध्यं मया दत्तं सीतालक्ष्मणसंयुत ।। ५१ ।। तात भक्तयुन्मुखं वीरं बनं
योऽनुययौ तदा ।। तं लक्ष्मीवद्धनं गौरं लक्ष्मणं पुजयाम्यहम् । ५२ ॥ अवनी
तलसंभते सीते सर्वाद्धसुन्दरि ।। गहाणाध्यं मया दत्तं पूजां जनकनन्दिनि ।। ५३ ।। ८.१ |
। लक्ष्मीस्त्वं स्वदेवस्य 'विश्णोरसि महीतले ।। अवतीर्णा मथा दत्तं गृहाणाघ्यं नमो- `
स्तुते । ५४॥ एवं संपूज्य विधिना सर्वशोकविनाशनम् ।। सर्वेपाप प्रहामनं
सर्वकीतिविद्धंनम् \\ ५५ ।। अपुत्रया पुरा पाथं पार्वत्या मन्दराचले।। अशोकः
` श्ोकशमनः पुत्रत्वे परिकल्पितः । ५६ ।। जातकर्मादिकं तस्य ह्यलोकस्य महा- `
| तरोः ।1 कारितं विधिवत्तत्र तेन वृक्षो नगोत्तमः ।! ५७ ।। या व्रतं कुर्ते नारौ
। पुराणोक्तविधानतः । अश्लोकस्य प्रसादेन सर्वान्कामानवाप्तुयात् ।॥ ५८ ।॥ `
अवेधव्ययुता सा तु लक्ष्मीसात्निध्यमाप्तुयात् ।! सर्वोपहारात्रजेन्र ब्राह्मणाय `
। निवेदयेत् ।॥ ५९ । कथामपि समाकण्यं यः कुर्यादद्िजतर्पणम् ।। व्रतस्य फल-~
। माप्नोति सोऽत्रतोपि न संशयः ।। ६० ।। युधिष्ठिर उवाच ।। विरेषं ब्रूहि मे `
न
~
प्क तरः ~: ~ चकादक्षा
रेष्ठ शोको नह्यति तत्क्षणात् ।! ६८ ।! पित॒मातुपतीनां वे हव्शुराणां `
`, तथेव च ।। अश्नोक त्वं लोकहरां भव सर्वत्र नः कुले ।। ६९ ।\ अल्नोककलिकात्चाष्टौ
` ये पिबन्ति च हस्ते} चेतरे शुक्लत्रयोदयां न ते शोकसवाप्तुयुः \\ ७० ।। त्वाम- `
वाजपेयफलं भेत् ।। इति श्रीभेविष्ये अह्ोकत्रयोदीन्रतम् \!
॥ अजञोक त्रिरात्रबरत-चेत्र शुक्लात्रयोदशीके दिन होता है, यह भविष्यपुराणमे लखा हुजाहै । इसे = ।
` पूर्वा ग्रहण करनी चाहिये, क्योकि, दीपिकाका कथन है कि, त्रयोदल्ली तिथि शुक्ला पूर्वा जौर कृष्णा उत्तरा = `
ली जाती ह । जहां से ्रयोद्षौ हँ बहांहीका यह विचार है । अथ कथा-ीङ्ृष्णजी बोले कि, हे राजन् !
पुरानो बात सुन । मुनीन्द्र बसिष्ठजीने जिस तरह इस व्रतको सीताजीके ल्यि कहा था ।\१।1 रावणको
भारकरं जब राम घर आयं उस समय सीताजीने प्रणाम करके वसिष्ठजीसे कहा ।)२\) किह महाराज!
जब दण्डकारण्यसे मुके रावणने हर लिया था उस समय व्याकुल हुई मून्षे कोड अपना न दीखा ॥३। मक्षे
, रावेण लकाम केगया वहांपर मे दका महीने रही । बडी भारी चिन्तासे ग्रसीहुई अशोकवृक्षके नीचे पडी
रहती थी ।\४।। वहां त्रिजटाने साध्य ओर हैतुके साथ कहा कि, अशोककेव्रतको करके आप श्लोक रहितं |
` होजा्येगी \\५)। जैसा त्रिजटने कहा था हे महाराज, ! मेने स्वीकार करक्या, उसी विनसे लेकर मैने |
त्रत करना ला प्रारंभ करदिया ।६।1 उसौ ब्रतके प्रभावसे पवनतनय हनुमान् सौ योजन लम्बे समुद्रको लांघकर ` |
जलाकर कुंशलतापुबेकं चला गया ।\८।। उस दिनसे सुश्षे अगोकंद्रतका निदचय होगया, इसौ व्रतराजके ` ;
५ दति न प्रभावसे बह दन कष्टरहित हना एव उसका भी बडा नाम इअ ।\९)। इसके कुछ ही दिनके पौर मेरे
श्लोक हराभीष्ट मधुमाससमुःडूवम् ।। पिबामि शोकसंतप्तो मामशोकं सदा कुसं 1
॥ ७१ ॥\ हस्तक्षं च बुधोपेता चत्रलुक्लत्रयोदसी ॥,! प्रातस्तु विधिवत्स्नात्वा `
------------------------~-
---
~
वरतानि 4..." हिन्दीटीकासहित ` ५ (६९५)
पानम छिप गया है ।\२५।। है पतित्रते ! तु इच्छानुसार तप कर, बहुत समयका चाहा हृजा फल दस तपसेहौ `
मिलता है ।\२६१। स्त्रियोके कार्योको करनेवाला एक ब्रत ब्रह्माजीने कहा था जब कि, इनसे सावित्री ` |
धुदा थाक्यातु करना चाहती है \\२७।। इसे स्वणमें अश्ञोक ब्रत कहा करते है, जिसके करनेसेस्व्ीदुर्खोका ।
` स्मरण भी नहीं करती ।\२८।। भगवान् शिव बक्षराज इस अशोकपरं रहा करते हे जब यह प्रसन्न हौज ` |
हैः तो शिव प्रसन्न होजाते हँ । यह् निक्चय बात है ॥।२९।। शचौ बोली कि, पुन्नाग, नाग, बकुल ओर चम्पक `
आदिकोको छोडकर शिबने अश्लोकमे ही क्यो सन्निधि कौ ? ३० बहुस्यति बोले कि, संसारके कल्याणके |
किए दयाल शिवजीने इसे बनाया था इस कारण यह क्षिवजौकः प्यारा है \।३ १1 वसिष्ठ बोले कि, अजोकका
वृक्ष लगवाकर उसे विधिपू्वेक भ्रणामकर पुजन किया फिर शचीन इस व्रतकौ विधि पुछी ओर बुहस्पतिजीने ` $
सब बता दी ।\३२। कि, इस ब्रतका आरम्भ करके तीन दिन उपवास करना चाहिए, इसे अशोक्के मूलम |
किया जाता है, इससे अशोकत्रिरात्र कहते हँ ।।३२।। इसे स्त्िथोको इस शु व्रत्को मन वाणौ ओर अन्तः
7, करणसे करना चाहिए फिर प्रदक्षिणा कर लेनी चाहिए । एकसो आठ फलोसे 11३४। एवं नारियल खजर ` ध ४
ओर दाखोसे प्रतिदिन निम्न मन्त्से नित्य सदा शिवका ध्यान करे ।३५।। कि, है अश्लोक ! आप हमारे |
शोकको हर कर, है सब कामोके देनेवारू !. आप इस व्रतके कर छेनेपर कहे हुए फलको देनेवाला होजाय
॥३६।। इसके बाद हे भामिनि ! तीसरे दिन वृषसमेत महादेवको भलीभांति पूजकर वासके पत्र तैयार `
कराये ।)३७\। इस विधानसे इस शरेष्ठ व्रतको करना चाहिये, इसको करनेवाली स्त्री विधवा नहीं होती तथा
प्के सुखको देखती है ।\३८।। वसिष्ठौ बोले कि, बृहस्पतिजोके मुखसे सुनकर शचौने शस्तरकी कही
इई विधिसे इस शुभकारी व्रतको भक्तिसे किया । है सीते ! उसे इन्द्र मिल गया ।३९।। वह वुत्रहत्यासे `
भौ चछूट गया इसमें विचार न करना । इस कारण आपभी अपनी मनोकामनाकौ पुतिके लिएव्रतकर 1४०॥ = |
` देवि! तेरे करनेपर यह बरत प्रसिद्ध होजायगा, श्चीकृष्णजी बोले कि, सीताजीने वसिष्ठजीके वचन सुनकर `
अ्षोकके श्रेष्ठ व्रतको ।४१।। भगवान् रामकी आता लेकर अयोध्यां किया । व्रतके करनेपर सीताजी
` . इखरहित होगई ।*४२।। युधिष्ठिरजी पुने लगे किः हे देव ! आपने अोककी पूजा तो विधिपुवंक कह |
दी 1 पर यह बताइये कि, व्रतकी संपुणेताके लिए उसमें किस देवताकी पुजा स्त्रियां किया करती हे ।\४३॥ `
| श्रीढृष्णजौ बोले कि, है युधिष्ठिर ! अशोक वृक्षपर सब देवता विराजते ह, उसके शाखा ओर पल्लर्वोषर `
क्षिवसे लेकर सब देनता निवासं करते हे ।।४४।। भगवान् राम, विष्णु भगवान्के अंश है इस कारण उशोककी `
संनिधिमं सीता ओर लक्ष्मण सहित भगवान् रामको पूजना चाहिये ॥५४५।। है भरतश्रेष्ठ ! पथक् सत्र . `
ओर पथक् वस्त्रोसि पुराणके कहे हुए विधानके अनुसार करमपूवेक अशोकपर रहनेवाले देवताओंका ९ वताओंका पूजन `
करना चाहिए ।\४६।। अशोकके वुक्षपर जो रिव आदिकसुरभेष्ठ ‹ मेष्ठ मेरे इस अहोकं
पजनसे प्रसन्न होजायं ।\४७।। हे अशोक ! गौरी, लक्ष्मी, इन्द्राणी पहिः
की है, तुम फल देनेवार होजाओ \\४८।। जशोकवाटिकाके म = बीच तुञ्षे सताने प्रसन्न किया न वः
[९ = , "वता [ववग ।
हे रजेनद्रं ! सब उपहारोको ब्राह्मणके लिए देदे ।॥५९।। जो विना व्रत रहा हुआ भी मनुष्य इस कथाको
सुनकर ब्राह्मणोकी तृप्ति करता है वहं भी उसका फल पाजाता है । इसमे सन्देह नहीं है ।\६०।। युधिष्ठिरजी 1
` बोलते कि, हे देव । अकोकके पजनके विषयमे विशेषताएं बताइये । है कृष्ण ! जिस तरह पूजने पर सब फल
मिलाय \\६१।। श्रीङृष्णजी बो कि, हे राजन् ! मनुष्य, देव ओर गन्धर्वोकौ जिन स्त्रियो पुत्रोकी `
बंद्धिके लिए यह व्रत किया है वहु बताता हुं \\६२।। अच्रिकौ पत्नौ अनसुया, अरुन्धती, देवकी, सीता, ची, =
. द्रौपदी, सत्यभामा ।\६३।। दमयन्ती ओर सावित्रीने इस श्रेष्ठ ब्रतको किया है । हे पाथिव ! पहिलेजसे
अशोकं पूजा है उसे यथावत् सुनिये \\६४।। चांदीका अहतेक तथा सोनेके हिव तथा राम लक्ष्मण ओरः |
सौताजी सोनेकी बनावे ।६५।। है नृप सत्तम ! पिले कहे हृए अनेको मन्बोसे शुभ पल्ल्वोसे वटे हुये अज्ञोक |.
वक्षको पुज ।\६६ निपजे बदे सावित सातो धानोपे, अच्छे गणक, मोदक, टिव्य ऋतुफर, अनार नारियल | | ८ ५.
॥1६७॥। तथा पुष्प आदिक एवं सुन्दर धूप, दीय ओर ने वेदयति पुजे । हे पाण्डव ! उसीसमय शोक नष्ट होजाता `
. है पिता, माता, पति ओर इवशरुर, इनके शोकोको, है अशोक अप दुर करं एवं हमारे कुलम स्वत्रहों ॥६८।१
` ॥॥६९।। चत्र शुक्ला त्रयोदक्षीको हस्त नक्षत्रम जो आठ अश्लोककी कलि्योको पीते हें बे श्लोक नहीं पाते
न ॥\७०॥ हे शिवके प्यारे अश्लोक ! चेतरस उत्पन्न होनेवाले तुस, शोक सन्तप्त मं पिये जाता हुं सदा मुभे श्रोक् ` | :
रहित करना।\७१।।हस्त नक्षत्र जौर बुधवारी जो चेत्र शुक्लात्रयोदशी हो तो प्रातःकार विधिपूर्वक स्तानकरके ` ८ ॥
` काजपेयके यके फलको पाता है ।\७२।। यह भरौभचिष्यपुराणका कहा हुआ अशोक चयोद्शौका ब्रत. पुराहुजा ।॥। |
महावारुणीयोग
वारुण ध र महावारुण जौर महामहावारुणी त्रयोदशी पुरी हई ।।
~ त कत
~ < = <
अथ चेत्रकृष्णत्रयोदश्यां महावारुणी संल्को योगः ।। तदुक्तं वाचस्पति- |
निबन्धे-वारणेन समायुक्ता मधौ कृष्णा त्रयोद्की ।! गङ्धायां यदि लभ्येत सूर्य॑. ‰ |
हहातेः समा ।। शनिवारसमायुक्ता सा महावारुणी स्मृता \\ गङ्कायां यदि ¦
म्येत कोटिक्सूयग्रहाधिका \। शुभयोगसमायुक्ता शनौ शतभिषा यदि ।। महा-
महेति विख्याता च्रिकोटिकुलमुद्धरेत् ।। कल्पतरौ ब्राह्ये-मधौ कष्णत्रयोद्यां |
हानौ शतभिषा यदि 1! वारुणीति समाख्याता शुभ तु महती स्मृता ।! इति वारुणी `
यदि तभिषा 1 नक्षत्र ओर शनिवार हो तो “वारुणी” कही जाती है एवं शुभमे महावारुणी
ध पुण्यमारण्यस्यं च पूजने \\ १३ \\ वन्यच्छतगृणं पुण्यं लिद्धं वै पर्व॑ते स्थितम् ।} `
पलायितान् दृष्ट्वा हन्यमानान्सुरेभृशम् ।। वृत्रः कोपरपराविष्टो देवान्योद्ध मथा- ` :
ययौ ।। २ ।। कालाग्निरूपसवुशं रूपं कृत्वा महाजवम् । व्यवद्ध॑त् महातेजारोदसी ` ॥
पूर्याल्व । ३ ।। तं दृष्ट्वा भयवित्रस्ता देवाः शक्रपुरोगमाः \\ कर्तव्यं नाभ्यपयन्त = `
तदा गुरुरुवाच ह्।।! ४ ।! गुरुरुवाच ।तपसा सुमहोग्रेण व्रतेन नियमेनच।\ अजेयो
भ्यं महातेजा वृत्रः शत्रुविनाशनः ।। ५ ।। आराधयति तं देवं पुज्यं श्डकरमव्य-
यम् ।\ व्रतेन विधि युक्तेन वृत्रं जेष्यथ मा चिरम् ।६।। देवा उचुः गुरो (केन॒
विधानेन कोदृकषेन व्रतेन च ।। आराधनीयो गौरील्लो ह्यस्माभि्जेयकामुकेः।! ७।॥
तद्वदस्व सुराचायं त्वं हि नः परमा गतिः \। गृरुरुवाच ।। कातिकादिष मासेष ` 1
मन्दवारे त्रयोदशी ।। ८ । विशेषाच्छुक्ल्पक्षेषु स्वेकामकरी शुभा ।॥
तस्यां प्रदोषसमये लिङ्गरूपी सदालिवः ।। ९ ।} पूजनीयो हि देवेन सर्वकाम
समृद्धये ।। स्नात्वा मध्याह्न समयं तिलामलकसंयुतम् ।! १० ॥ शिवस्य चाचेनं
कुर्याद्गन्धयुष्पफलादिभिः ।। पदचात्प्रदोषसमये स्थावरं लिद्धमर्चयेत् ॥११॥
स्वयंभुस्थापितं वापि पौरुषेमयपोरुषम् ।\ जने वा विजने वापि अरण्ये वा तपोवने
। १२ ॥। ग्रामाद्रहिः स्थितं लिङ्धः ग्राम्याच्छतगुणं स्मृतम् ।॥ बाह्याच्छतगुणं
च्चायुतं पुण्यं तपोवनसमाधितम् ।।१४।। काश्यादिसंस्थितं लि द्धं पुजितं
चच्छतग्“। पुण्यं गङ्धायां स्यादनन्तकम् ।\ पञ्चपिण्डाननुद्धत्य न स्नायात्परः ष |
स्यादनन्तकम् ।। एवं विशेषं लिङ्धानां तीर्थानां निपुणो भ॒श्ञम् ।। १५ ।। ज्ञात्वा च |
शिवपूजाया विधि शम्भु प्रपुजयेत् ।) कूपवापीतडागेषु देवखातनदीषु च ॥१६।
^
` ष्टाय शिष्टाय परमात्मने ।। वेक्गीताय गुप्ताय वेदगह्याय वे नमः ॥\ २७ |
दीर्घाय दीघेरूपाय दीर्घार्थाय मृडाय च ।! नमो जगत्प्रतिष्ठाय व्योमरूपाय वं ` ध
नमः ।} २८ ।! ग्वंकृत्युमहा दित्यं अन्धकार सुभेदिनें ।। नीललोहित शुक्लाय `
` चण्डमुण्डप्रियाय.च ।। २९।। भक्तिप्रियाय देवाय ज्ञाताभ्ज्ञाता व्ययाय च ।। महे- `
ज्ञाय नमस्तुभ्यं महादेव हराय च ।। ३० ॥! चरिनेत्राय च्रिदेवाय बेदाङ्कायनमो `
नमः । अर्थाय अ्थेरूपाय परमार्थाय वे नमः ।\ ३१ ।। विहवरूपाय विह्वाय
विहवनाथाय वे नमः ।। शडः कराय च कालाय कालावयवरूपिणे ।। ३२ ।। अरू- `
` पाय विरूपाय सुक्ष्मासृष्ष्माय वे नमः ।। इमशानवासिने तुभ्यं नमस्ते कृत्तिवाससे, `
॥ ३३ ॥ शञजाडकशेखरायेव रुद्रभूमिध्रयाय च ।। दुर्गाय दुगेषाराय दुर्गावयवसा- `
` क्षिणे । ३४ ।। लिङ्करूपाय लिङ्काय लिङ्धानां पतये नमः ।। नमः प्रभावरूपाथ `
` श्रणवार्थाय वे नमः ।। ३५ ।) नमो नमः कारण कारणाय मत्युञ्जयायात्मभव-
` स्वरूपिणे \। त्रियंबकायासितकण्ठभर्गगौरीपते मद्धलहेतवे नमः । ३६ \। नाम्ना |
शतं महेशस्य उच्चार्य व्रतिना सदा ॥। प्रदक्षिणा नमस्कारा एतत्संख्या प्रयत्नतः
॥\ करा समः र शंकरस्य च ।! एतद्व्रतं मयादिष्टं तव हकर `
मते ।\३८।। शीर कुर महाभाग प्चाचुद्धं कुर प्रभो ।। शम्भोः प्रसादात्स्वेते
भविष्यति जयादिकम् 1} ३९ ।। हकर उवाच । वृत्रः कदा महेशानं समाराधयदा- `
दरात् ।। कथं च स वरं प्राप्तः पुरा कदचाभवदृद्िज ।। ४० ।। गुरुरुवाच वृत्रो `
ह्ययं महातेजास्तपस्वौ तपसा पुरा ।। शिवं प्रसादयामास पर्वते गन्धमादने ४१।। `
पत 11 वसन्ति च महषयः । तस्माच्चत्नरथं 1
५५५ न ।।४३।। तस्य दत्तं शिवेनव यानं च परमाद्भतम् । कामदं `
कणीयुक्तं सिद्धचारणसंयुतम् ।\! ४४ 1) गन्धवेरप्सरोयक्षैः किन्नरेरुपलोभि- `
ततस्तेनव यानेन पृथिवों पयटन्पुरा ।! ४५ । तथा गिरीन्स रीन्समु मद्र ह्च `
व्रतानि - हिन्दीटीकासहित = (९
प
॥ ५० ।\ शिव उवाच ।\ मम रोकापवादक्च सर्वेषां न भवेद्यथा !\ भक्षितं `
कालकूटं मं सवषामपि दुजयम् ।। ५१ ।।लोकातीतं च मे वृत्तं तथाप्युपहसत्यसौ
| ततश्चित्ररथं देवी गिरिजा वाक्यमब्रवीत् ।! ५२ ।। कथं दुरात्मनानेन शडकर- १
इचोपहासितः ।\ मया सहेव मन्वात्मन्नीक्षसे कमणः फलम् ।। ५३ ।। साधूनां
समचित्तानामुपहासं करोति थः ।! देवो वाप्यथवा मत्यः स विज्ञेयोऽधमाधमः ।\ `
` ५४॥।) एते मुनीनद्राह्च महानुभावास्तथा देते ऋषयो वेदगर्भा: ।। तथेव स्वे `
सनकादयो ह्यमी अज्ञाननाश्ाच्छिवमर्चयन्ति ।। ५५ ।। रे मूढ सर्वेष जनेष्वभिन्न- . `
` स्त्वमेव चेकोऽसि परो न कङ्चन।। "तस्मादतिप्रौढतरं नरं त्वां संशिक्षये नैवकर्या `
` यथा त्वम् ।। ५६ ।। अस्मात्पत विमानात्वं दैत्यो भूत्वासु दुमंते । मम श्यापेन `
` दग्धस्त्वं गच्छाद्य च महीतलम् ।। ५७ ।। एवं शप्तस्तदा देव्या भवान्या राजसत्तमः `
राजा चित्ररथः सद्यः पपात सहसा दिवः ।। ५८ ।! आसुरीं योनिमापन्नो वुत्रो `
नाम्नाऽभवत्तदा ॥ तपसा परमेणव त्वष्ट्रा संयोजितः कमात् ॥ ५९ ॥ तपसा
बरूहि प्रदोषस्य च मेऽधुना । ६३ ।। गुरुरवाच । कातिके `
सम्पूर्णातु ९ भवेद्या सा समग्रव्रतसिद्धये।। ६९ ।
शोभितं तथा ।\ ६७ ।। रौप्यपात्रं ततः कृत्वा वुं
अशक्तो मून्मयं 1 वंशपात्रमथापि ठ
(६७०) ^. `: ब्तुराज्- | त्रयोदशो.
स्वेशान्तिप्रदो भव ।\ ७२ ।। आसनम् ।। पादं च ते मया दत्तं पुष्पगन्धसमन्वितम् `
गृहाण देवदेवश्च प्रसन्नो वरदो भव 11 ७३ 1! पाद्यम् 1 ताख्पान्रस्थितं तोयं फल- ` |
गन्धादिसंयतम् ।। अघ्यं गृहाण देवेश मया दत्तं हि भक्तितः ।! ७४ ।। अघ्यम् ।
क्लीतलं निमंलं तोयं कपरेण सुवासितम् ।। आचम्यतां सुरश्रेष्ठ मया दत्त हि भक्तितः
॥ ७५ ।। आचमनीयम् ।\ पञ्चामतेन स्नपनं तत्तन्सत्त्रहच कारयत् ।\ ७६ \ `
` गोक्षीरधामन्देवेहा गोक्षीरेण मया कृतम् ।। स्नपनं देवदेवेश गहाण परमेश्वर ।॥ `
॥ ७७ ॥। दुरघस्नानम् ।। दध्ना चेव मया देव स्वपनं क्रियते तव! गृहाण भक्त्या `
दत्तं मे सुप्रसन्नो भवाव्यय ।! ७८ \। दधिस्नानम् ।\ सर्पिषा देवदेवेश स्नपनं क्रियते `
मया ।। उमाकान्त गृहाणेदं श्रद्धया सुरसत्तम ।। ७९ 1! घ॒तस्नानम् ।! इदं मधु `
मया दत्तं तव तुष्टयथेमेव च गहाण शम्भो त्वं भक्त्या मम जान्तिप्रदो भव ।८०।
मधुस्नानम् ।। सितया देवदेवश्च स्नपनं क्रियते मया \। गृहाण ज्ञम्भो मे भक्त्या `
सुप्रसन्नो भव प्रभो ।। ८१ ।\ शकंरास्नानम् ।। कावेरी नर्मदा वेणी तुद्खभद्रा
` स्तानाय श्वद्धया जलम् । ८२ ।! स्नानम् ।\ एतद
म् ।। गृहाण त्वं सुरश्रष्ठ मम वासःश्रदो भव ।\ ८३ ।। वस्त्रम् 1! यज्ञोपवीतं (
वण मया दत्त च शङ्कर ।। गृहाण परया तुष्टया तुष्टिदो भव सव॑दा ॥ ८४।।
ग्धा च यमुना चेव ताभ्यः स्नानार्थमाहतम् ।\ गृहाण त्वमुमाकान्त `
पवीतम् ।। सुगन्धं चन्दनं दिव्यं मया दत्तं तव प्रभो ।। भक्त्या परमया शम्भो ` ।
क श बिल्बपत्राणि पूजार्थं स्वीकुरु त्वमुमापते
ते ।। ८६ । पुष्पम् ।\ धूपं विषिष्टं `
परमं सवीषधिविजुम्भितम् ।। गृहाण परमेश्ञान ममोपरि दयां कुरु ।॥ ८७ ॥ `
व्रतानि; ५ हिन्दोटीकासहित (६७१)
= =-= ~ ~ ----------=~-+-----
` चरेत् ।\९९।। गीतवादित्रनुत्यादेगुहे वा देवतालये ।। वितानमण्डपं १
वर्णे: समन्वितम् ।! १०० ॥! प्रभातायां तु श्वय नद्यादौ विमले जले । स्नात्वा
पुनःसमभ्यच्ये जुहुयात्पायसेन च ।। ९ ।। (उमया सहितं रुद्रं पृथगष्टोत्तरं हुनेत् ॥ `
` मोौरीभिमायमंत्रेण त्यंबकेण च शंकरम् ।! ( आचार्यं च सपत्नीकं वस््राच्डकार- `
चन्दनः ।। तोषयित्वा शुच दान्तं गां दद्याच्च पयस्विनीम् ।! २ ।। ब्राह्मणान्
भोजयेत् पश्चाहक्षिणाभिः प्रतोषयेत् ।। दीनाना्थांश्च संतप्यं ह्यच्छिद्रं वाच्येत्ततः `
॥॥ ३ ॥ न्ध्वानुन्ञां ब्राह्मणेभ्यो बन्धुभिः सहितः शुचिः । हदि स्मरच्छिवं
भक्त्या भुञ्जीत नियतो ब्रती ।। ४ ।\ अनेनैव विधानेन कु्यदुदयापने विधिम् ।॥
एवं यः कुरुते भक्त्या प्रदोषव्रतमुत्तमम् ।! ५ ।। हानिवारेण संयुक्तं सोचापनर्विधि = `
। नरः ।॥ आयुरारोग्यमेश्वर्यपुत्रपोत्रसमन्वितः ।। ६ ।) शत्रून् विजयते नित्यं
` म्रसादाच्छंकरस्य च ।। तस्मात्त्वमपि देवेन्द्र पुजयस्व सदाशिवम् ॥ एवं प्रदो-
` षविधिना युद्धे वृत्रं विजेष्यसि ।! ७ ।। एवं निरम्य गुरुणा कथितं तदानीमिन्द्रोप्यः
| नेन विधिना गिरिजं प्रपुज्य ।\ लोकं प्रसन्तमिव देत्यपति प्रवृद्धं तं तत्क्षणादगमय- `
| तक्षयमीातुष्टया । १०८ ।। इति स्कन्दपुराणे, केदारखण्डे शनिप्रदोषव्रतकथा `
| संपूर्णा! मदनरत्ने स्कान्दे प्रकारान्तरम् ।। देव्युवाच ।\ देव केन विधानेन प्रदोष- `
1
|
\:
` नीलकण्ठाय शम्भवे ।। अमृतेशायशर्वाय महादेवाय ते नमः ।। ९७ 1\ नमस्कारान् `
सेवंतिकाबकरुलचंपकपाटलान्जैः पुन्नागजातिकरवीररसालपुष्पैः । बित्वप्रवाल- `
वुलसीदलमालतौभिस्त्वां पुजयामि जगदीश्वर मे प्रसीद ।\ ९८ ॥। संत्रपुष्पम् \\ `
` निपत्य दण्डवद्ध् मो प्रणम्य च पुनः पुनः ।। क्षमापयित्वा देवें रात्रौ जा रणं `
कुर्या्नाना-
(६७२) 11 [तरयादश्ा-~
व्यंबकाय० त्रिपुरुषाय० चिपुरान्तकाय० चरिकाग्निकालायथ० कालाग्निः
इद्राय० नीलकण्ठाय स्वेदवराय नमः ।\ १६ ।1 पञ्चामृतेन सस्नपनमाभि-
` म॑नत्रः प्रपुजयेत् \। दधिभक्तेन नैवेद्यं पक्वान्नेवतसंयुतम् ।। दत्वा सुमुखवासं च॒ `
तालं करमुकादिकम् ।\ समरपंयेदष्टदिक्षु दीपानाज्यसमन्वितान् ।। यथा भवान्स-
भस्तानां पदानां पापमोचकः ।\ तथा व्रतेन संतुष्टः पुत्रं देहि सुलक्षणम् ।\ ऋण-
रोगादिदारिद्रयपापक्षुदपमत्यवः ।} भय्ोकमनस्तापा नह्यन्तु मम सवेदा ।॥
पृथिव्यां यानि तीर्थानि सागरान्तानि यानि च ।। अण्डमाध्ित्य तिष्ठन्ति प्रदोषे
गोवुषस्य तु ।। स्पृष्ट्वा तु वृषणौ तस्य श्युद्धमध्ये विलोक्य च ।। पृच्छ च ककुदं
चेव सवेपपेः प्रमुच्यते ।। निवेदं कमंजातं च ददयाद्ित्तानुसारतः ॥\ दल्लिणा
ब्राह्मणेभ्यश्च ततो मौनं विसजंयेत् ।। एवं संवत्सरं कुर्यात्रियोदरयामिदं व्रतम् ॥ `
अथवा मन्दवारेण युक्ता एवं त्रयोदज्ञी ।! य्चतुविर्चति कुर्यादथोक्तफलमाप्नु- ५ ४
चात् ।। इति मदनरत्नोक्तं प्रकारान्तरम् \।
शनिभ्रदोष व्रत--स्कन्दपुराणममे कहा सया है (कातिक या श्नावणकी शनिवारी त्रथोद्शीके दिन `
५ पूर्वा परा जया ग्रहण करनी चाहिये । यदि उसको प्रदोष व्याप्ति हो तो) लोमन्न बोले कि, प स
त भगेहुए दंत्योको देखकर वृत्र अत्यन्त कऋोधित
होकर युद्ध करनेके लिये मेदानमं आया ॥२।। उस `
देक देत्योके साय महायुदध होते हृषु इन्रन, पानीके फनसे बलो नमुचिको सार दिया ॥१॥।दर्वोकी `
परते हए बढाना प्रारंभ किया ।\३। उसे देल इन्द्रादिक सब देव अत्यन्त भयभौत होकर किकतंव्य विमूढ `
होगये तब उनसे बृ हस्पतिजी नोर ।\४।। कि, वेरियोका नाश करनेवाला तेजस्वी वीर वृत्र, उग्रतप ओर
नियमव्रतोसे किसीभी तरह जीता नहीं जासकता ।\५।\ उसने विषिपू्ेक दिवकी जाराधना कौहै, तुम
जोर कि, कातिकादिक मासोमं
` परम पुज्य अव्यय श्वंकर सगवान्कौ विधिपुर्वक व्रतसे आराधना करो थोडेही समयम वृचको जीत लोगे `
| 1६ 1 देव बोले कि, हे गरो ! किस विधानसे एवं कंसे त्रतसे \ जय चाहनेवाले हमं मौरीक्षको आराधना ` 1 |
करनी चाहिये ? हे सुरानां ! यह हमे बता दौनिये वयोम मपह ।\७॥ हमारी परमगति ह यह सुन =
मे शनिवारी त्रयोदशो हो ।\८।। वहभौ विशेष करके शुक्त्पक्षमे होतो `
पब कामोके करनेवाली एवं परम शुभ है । उसमें प्रदोषके समय शिव लिग ।।९।1 पूजना चाहिये, हे इन्र
ससे सब काम पूरे होते हे मध्याह्वके समय तिल ओर आमखेके साथ स्नान करके ।1१०।। गन्धपुष्प ओौर `
हिन्दीटीकासहित |
। त्प सौ वा बत्तौस्रही दौपक दे, सहादेवजीके संतोदके लिये ये दीपक घीके होने चाहिये ।\ १९1 अनेक तरहके `
। , फल, धूप नैवेद्य एवं सोलह उपचारोसे लिगरूपी सदाक्षिव ।॥२०\। प्रदोषके समय मनुष्योको, सारे कामोंक्ी = `:
` सिदधिके ल्म पूजने चाहिये । जिसे क्र, स्तुतियां अति ही प्यारी हैँ बह ख सौ नामोसे स्तुति करने योग्व॒ `
` हि ।॥।२१।। रद्र, भीम, नीलकंठ, वेधा, कपर्दो, सुरेश, व्योमकेश ।\२२।। वषध्वज, सोम, सोमनाथ, दिगम्बर, ` |
भग, उमाका्त, कदि \\२३।} तपोमय, व्यास, शिपिविष्ट, व्यालप्रिय, व्याल, व्यालपति, महीधर, व्याघ्र,
पशुपति, त्रिपुरान्तक, सिह शद्ल, कव ।२४-२५।) मित, अमित, नाथ, सिद्ध , परमेष्ठी, कामन्तक, `
बुद्ध, बुद्धिपति \\२६। कपोत, विशिष्ट, परमात्मा, वेदगीत, गुप्त, वेदगुह्य ।।२७।। दीघं, दीधेरूप, दीर्घाय, `
मृड, जगत्प्रतिष्ठ, व्योमरूप, ।\२८।} गर्वंङृत, सुमह, आदित्य, अन्धकारसुभेदी, नीललोहित, गुक्ल, चण्ड,
मुण्डप्रिय \\२९।} मक्तिभ्रिय,देव, लात अज्ञात, अव्यय, महेक्ष,महादेव, हुर।)३०।।त्रिनेत्र, तरिमेवबेदाद्ध, अर्थ, = _
अ्थरूप, परमां \\३१।। विश्वरूप, चिव, विक्वनाथ, शंकर काल, कालावयव रूवी, \।३२।१ अरूप, विहय, = `
` सूक्ष्ासुक्ष्म, इ्मद्ानवासी, कृत्तिवासा ।।३२३।। शश्ाडकशेखर, रद्रभूमिश्चय, दुग, दुगेपर, दुर्गावयव, सक्षी.
. | \॥1३४।। छिगरूप, लिग, लिगपति, प्रभार्प, प्रणवार्थं ।\३५।। कारण कारण, मृत्युञ्जय, आत्मभवस्वल्पी, _
. च्रियंबक, असितकंठ, भर्ग, गौरीपति, मंगल हेतु ।३६।। थे िवजीके सो नाम हँ । एक एक नामके साथ `
। @ लिये नमस्कार' लगा देना चाहिये । जैसे रद्रनाम है इसके साथ उक्त वाक्य लगा देसे स्के लि `
। नमस्कार एेसा होजाता है \ (इनमेसने बहूतसे नामोका निर्वचन कोश्च आदिने किया है । अधिक कच्िनेसे
। अनावदयक विस्तार बढता है ।) इन सो नामोको सदा करना चाहिये । एवम् सावधानीके साथप्रदक्षिणा. = |
भी सौही होनी चाहिये ।\३७।। ये शिवकी प्रस्नताके लिये प्रदोषके समय होनी चाहिये । हे परमबुद्धिमान = |
इन्द्र! यह ब्रत मैने तुमे बतादिया है ॥।३८।। हे महाभाग ! पहिले इस ब्रतको करके पीछे युद्ध कर, भगवान
क्षिवके प्रसादसे तेरी जोत आदि सब होजा्येगी ॥।३९।। इन्द्र बोला कि, वृत्रने शिवकी आराधना कंसे की, . |
कैसे वरदान मिला एवं पहि वो कौन था ? ।४०।। गुर बोले कि, परम तपस्वी यह् वृत्र पहिले तपसे गन्ध- `
{4 मादन पर्वतपर क्षिवको प्रसन्न करने लगा \\४१।) यह् पहिल चित्ररथ नामका राजा था! चित्ररथका वन ` 1 “|
| जोकि, हे इन्दर! तेरीयुरीके समीप है, एेसा तु ससक्न ॥॥४२।। इस बनमें परम तेजस्वी महाभाग महष रहते `
1 हं 1 इस कारण परम मंग लोका देनेवाला वो वन चेत्ररथक्े नामसे प्रसिद्ध है।।४३।। उसे शिवजीने सिद्ध
| ओर चारणोसे संयुक्त किकिणौ लगौ हुई इच्छानुसार गमन करनेवाला आ्चर्यकारी एक विमान दिया था |
| (५६) जो गन्धरव,अप्सर, यक्ष ओर किन्नरोसे सुशोभित था कुछ दिन बाद उसी विमानसे पृथिवी परिक्रमा |
करता हुमा ।\४५।। अनेक तरहके पवत, समद्र ओर द्वीपोके उपर विचरता हभ वो महान् चित्ररथ राजा
| ४द६। कैलासं चला आया वहां उसने बडा आर्च देखा किं, गिवजौकी सामे सब गण केठे हुए है तया = _ |
पावंतीजी आधे शरीरमें लगौ हई है, एेसी हालतमें शिवजी भी बैठे हृए हे ।(४७।। राजाने उस सममे कपुरके = `
समान वेत, कमल्केसे नेद्रोवाके, जटाधारी, चन्दरमाकौ कलासे विभूषित, शिरपर गंगा घारण क्ये हृद् = `
` क्िवजीको को, द देवीसे आधे अंगको शोभित .हुएु देखा ।।४८।। राजा हंसकर रिवजीसे न्यायपूर्वकं बोला कि, =
क
सत्रीका आलिगन णित करतेहुए ही सभाम वेढे ।४९। इन वचनोंको सुन सवके = `
(६७४) ४ रतरा [ त्रयोद्ी-
: भृखं ! सबोमं तुम्ही एक बुद्धिमान है, दसस कोई नहीं है, इस कारण अत्यन्त चतुर तुस्े मं वहं सिखाऊगी
जिससे फिर कभी एसा न करे ।\५६।। हे दुमंते ! तु मेरे शापसे दग्ध होकर इस विमानसे भिर, दत्यहो
` भृमिपर जा ।\५७।। इस प्रकार चित्ररथको दुर्गाका शाप हज, वहु तपस्वी एकदम दिवसे गिरा ॥५८।।
आसुरी योनिको प्राप्तं होकर वृत्र होगया, कमः परम तपसे उसे त्वष्टाने संयुक्त क्या है ।\५९।\ तप
ब्रह्मचथ्यं ओर शिवजीकी आराधनासे बह बली जीता जा सकता है, दूसरी तरह नहीं ।\६०।। आसुर भावै '
` कारण उसने अगयून्य व्रतको क्रिया है, इसकारण पीछे जीता जा सकेगा ।\६१।। इस कारण हे महाबाहौ `
इद्र । इस पवित्र त्रतको करके वृच्रको मारलेगे इसमें सन्देह नहीं है ॥\६२।। गुरुके वचनं सुनकर इन्द्रबोलाकि, `
है गुरो । इस प्रदोषन्रतकी मुके उद्यापन विधि कटिए् ।\६३।} गुर बोले कि, कात्तिक या श्रावणकी शनिवारी
योदल्ली संपुणं हो तौ बह सारे ब्रतकौ विद्धिके लिए उपयुक्त है \।६४।। चांदीका वृष बनाये, उसको जीनभी `
चांदीकी हो, उसपर उमापति तीन नंत्रोवाके देवको स्थापित करे ।६५।। पांच मृख हो, दह मनाए हो,
आघेभंग मं गिरिजादेवी सुशोभित हो, प्रतिमा सोनेको हौ, तांबेके कुम्भ जलसे शोभित हों ।\६६।\ वह्
कम्भ पञ्चरत्न ओर फलोके साथ हो, पांच पल्लवोसे शोभित हो, सुगंधित चन्दनसे सिधत ओर ज्ोभित
ह् }11६७।४चदीका पात्र कुस्भपर रखना चाहि ये, यदि ज्ञक्तिं न होतो मिटरीकाकूमस्भ ओर वांसका पात्र होना
चाहिए ।६८।। भरे हुए सकोरे को रख शक्तिके अनसार बनाई हुई सोने की प्रतिमाको उसपर वैध प्रतिष्ठित
करके वस्त्रमाला ओर आभूषगोसे भूषित करके ।।६९।। विधिपू्वक पुजकर रातमें जागरण करे, पहिल
. श्रद्धाके साथ फूलोको मंडपिका अनाकरके हे सुव्रत ! पहिले इस मन्त्रसे आवाहन करे ।७०।। हे उमाकान्त !
. है दीनोपर प्यार करनेवाले ! जब तक थह ब्रत पुरा हौ तबतकं इस स्थानपर स्थिर हो जा \७१।। यह् आवाहन `
1 है उमाकान्त ! बैठते ही आनंद देनेवाखे निमे इस आसनपर विराज जाइये, है-जानंदस्य ! इस `
समय सब शन्तियोके देनेवारे होजाभो ।\७२।। इससे आसन दे सेने गन्ध पुष्पोके साथ भव्तिपु्वंक पायय `
दिया है, हे देवदेवेश ! ग्रहण करिए ओर प्रसन्न हजिये \\७३।\ इससे पाद्य दे । फल ओर गन्धे युक्त, ताम्बेके ``
पात्रमे पानी रला है । हे देवे ! मेने भक्तिसे अथं दिया है रहण करिये ।\७४।। इससे अघ्यं दे । है सुरश्रेष्ठ ! = `
कपुर सुगंषित किया शीतल निर्मल नौर मेने भवितिसे रख दिया है आचमन कीजिए ।।७५।। इससे आचमन
करावे । भिन्न भिन्न विधानके मन्तरोसे पञ्चामृतसे स्नान करावे ।)७६।। वे मन्त्र ये हे कि हे गोक्षीरघामन् `
देवेश । गौके क्षीरसे मेने आपके स्नानकौ तैयारी कौ है, हे परमेहवर ? आप स्नान करे; इस मन््से दधसे `
` स्नात करावे ।७७।। मे आपका भवितसे दहीसे स्नान कराता हूं, अव्यय आप इसे ग्रहण करें एवं प्रस्नहो `
॥७८।। इससे दहीका स्नान करावे । हे सुरश्रेष्ठ उमाकान्त ? मे श्रद्धा भक्तिसे आपको घीसे न्हवाता हं `
` आप ग्रहण करिये ।\७९।। इससे घृतस्नान करावे । है प्रभो ! आपकी तुष्टिके लिए यह मधुमेनेदियाहैहे
९1१ ! इसे आप रहण करके म॒मे शान्ति देनेवाले ही ।\८०।। इस मन्त्रसे मधुस्नान इस मन््रसे मध,सिताया `
लिए ° शद्धासे से ला लाया हुभा जल, हे हमाकान्त ! स्नानको ग्रहण करिये ।*८२।।इससे स्नान करावे । सुन्दर `
उत्तरीय | 3 ओर कत्त सतन आपके किए दिये हः इन्ह् महण करिये एवं मक्षे वस्ते देनेवाखे बन जाइये ।८३।। _ ॥ ५
य तर ~ क~ ~" -न = ~ ~ - ~
रतानि 1 [व हिन्दीटीकासहित ` क ९७५) ध
होये \\९०।। इससे बीचमं पानीय दे । पीछे पीने के लिए उत्तम पानौ लाया गया है, है सब लोके निवार
करनेवाे उमाकान्त \ ग्रहण करिएु ।\९१।। इससे उत्तरापोकश्षन करावे । कपुर, एला, ल्वङ्क मौर सुपारी
जिसमे पडी हुई ह, एेसा पान मेने भक्तिसे तयार किया है है गिरिजाप्रिय । ग्रहण करिये ।\९२।। इससे
पान दे । इदं फलं ।\९३।।' इससे फल दे । हिरण्यगर्भं ।९४।। इससे दक्षिणा दे । अच्छी बत्ती ओर घी
जिनमे पडाहुजा है, एसी दीपवाली मेने दी है 1 इस आरतीके प्रदानसे म्॒ने तेज देनेवाले होजाञो ।\९५))
इससे आतिक्य देना चाहिये । यानि कानि च ।\९६।।' इसये प्रदक्षिणाकरे तुश्च म॒त्युजय, सद्र, नीलकंट,
शम्भु, जमृतेशान, शवं, नहा देवक किए नमस्कार ह ।\९७।। इससे नमस्कार समपंणकरे । सेवन्तिका, बकुल, = `
चंपक पाटल, कमल, पुंनाग, जाती, करवीर, रसाल, बिल्व, प्रबाल, तुलसीदल ओर मालतीसे मे तुम्हें पूजता
हं है जगदीश्वर ! मुञ्लपर प्रसन्न हौजा ।\९८।। इससे संत्रयुष्य समर्वण करना चाहिये । दण्डकी तरह भूमिम _
“ बारबार भिरकर देवेश्षसे क्षमापन कराकर रातमें जागरण करना प्रारंभ करदे ।९९।। वा घरमे बादेवमंदिरमे `
माने बजाने ओर नाचनेके साथ होना चाहिये, होमके लिये मंडप बनावे उसका अनेक वर्गोका वितान होना `
चाहिये \\१००।। एकदम प्रातः नदी आदिके निर्मल पानीमें स्नान करके पजा करे खौरसे हवन करे ।१०१।। ध
उमासहितं उद्रको १०८ हूति दे "गौरीमिमाय"' इससे उमाको एवं “ओं त्यम्बकेण” इसते शंकरको दे,
सुचिदान्त सयत्नौक आचा्यको वस्त्र अलंकार ओर चन्दनसे तुष्ट करके दूध देनेवाली गञ दे ।१०२।।
पीछे ब्राह्मण भोजन करा दक्षिणासे प्रसन्न करे, दीन ओर अनाथोको तुप्त करके व्रत पुरा हौ एेसा कहलये
। ॥\१०३॥। ब्राह्यणोसे आज्ञा लेकर पवित्र हो भाइयोके साय हुदयमें शंकरका भकितिपुवेक ध्यान करता हुजा = `
0 ब्रती नियमपूर्वकं भोजन करे ।१०४।। इसी विधित उद्यापनं करना चाहिये । जो इस प्रकार भक्ति सथ
उत्तम प्रदोष व्रतं करता है ।।०५।। जिसमेकी शनिवार हो तथा उसीमें उयापन विधि करताहै वह
` -आयुञारोम्य, पुत्र जौर पौत्रो समन्वित होकर।।१०६।।शिवजीकी कृपासे सदाहौ वैरियोपर विजयहापिर `
{| करताहै। इस कारण हे देवेन! तुम भौ सदाक्षिवका पूजन करो इस प्रकार आप प्रदोषकौ त्रत विधिक्रे |
| काये करनेसे युद्धमे वुत्रको जीत लोगे ।\१०७॥। गुरुने इस प्रकार प्रदोषत्रत कहा इन््रने इसे करे विध्से =
शिवजीका पुजन किया \ जो एसा मालूम होता था कि, लोकोको प्रस जायगा एसे बडे हुए वत्रको क्षण मत्रमे |
भार दिया यह् क्षिवजीकाही प्रसाद था ।१०८।) यहु स्कन्दपुराणके केदारण्डकी कही हुई हानिप्रदोषके |
| व्रतको कथा पुरौ हुई 1) प्रकारान्तरसे प्रदोषत्रत--स्कन्दपुर
| कि हे देव ! सन्तानकी वुद्धिके विये स्त्रौ पुरुषोको हये?
| शिवजी बोकते कि, जब शुक्ला तथोद्ी शनिवारी हो संम्तानफलकी वृद्धिके ल्य उसमे ब्रतक्रना = `
` चाहिये! ऋण मोचनके लिये मंगल्वारी करनी चाहिये ! सोभाग्य सत्री ओर समृदिके च्वि शुक्रसारी `
।. करनी चाहिये । आरोग्यताके लिये रविवारौ करनौ चाहिये । हे शंकर ! एक व्षेतक प्रत्येक पक्षको |
। ्रयोदकलीके दिन प्रदोषमं शिवभुलन करफे भोजन कलग, प्रातःकाल इसं मंत्रे ब्रत संक्ल्यकरना = `
| चाहिये \ जब स्यं लाल होने लगे उत्त समय स्नान नियम किया हृभा व्रती, पुजा स्थानमे जाकर प्रदोषे `
५
न्दपुराणसे मदनरत्ने लिखा है) देबीबोली `
कि श्रेष्ठ प्रदोष व्रत किस विधाने करना चाहिये?
(६७६) `. ब्रतरज् । [ त्रयोदसी-
बाद मौनको छोड़ दे । इस प्रकार एक सालतक इस व्रतको करे अथवा जिस दिन शनिवार त्रयोदशी हौ
इस प्रकार जो चौबीस व्रत करे उसे कहा हुभा फल मिलता है । यह मदनरत्नका कहा हुआ प्रकारन्तरसे ` |
हानि प्रदोषत्रतपुराहुजा)। | |
१ | अथ श्रदोषन्रतम्
सुत उवाच ।। काचिच्च विप्रवनिता सपुत्रा दुःखकशिता ।! चाण्डिल्यस्य |
` मृखाच्छरत्वा प्रदोषे शिवपूजनम् ।\ १ ।। तं प्रणम्याथ पप्रच्छ रिवपुजार्विधि
ऋमात् । २। शाण्डिल्य उवाच ।॥ पक्षद्रये त्रयोदश्यां निराहारो
भवेहिवा । घटित्रयादस्तमयाप्पू्वं स्नानं समाचरेत् \\ ३ ॥। शुक्लाम्बरधरो
` भूत्वावाग्यतो नियमान्वितः ।! कृतसन्ध्याजपविधिः शिवपूजां समारभेत् ।॥ ४।॥ `
` देवस्य पुरतः सम्यगुपक्प्यनवाम्भसा ।। विधाय मण्डपं रम्यं धौतवस्त्रादि- `
भवंतम् ।॥ । ५।॥ वितानाचैरलक्ृत्य फलपुष्पनवाञ्कुरेः ।॥ विचित्रं `
पदममुल्लिख्य वणेपञ्चकसंयुतम् \। ६ ।\ तत्रोपविश्य तु लुभ सूपविष्टः स्थिरासने।।
सम्यक्सम्पादिताशेषपुजोपकरणः शुचिः ।! ७ ।! आगमोक्तेन मन्त्रेण पीठ-
भामन्त्रयेत्सुधीः । ततः कृत्वात्मश्ुद्धि च॒ भूतशुद्धचादिक क्रमात् ॥ ८।॥
प्राणायाम त्रयं कुर्य्रीजमनतरैः सबिन्दुके।।मातृका न्यस्य विधिवद्धचात्वा तांदेवतां
पराम् !! ९ वामभागे गुरं नत्वा दक्षिणे गणपं जयेत् ।॥ अंसोरुयुग्मे धर्मादी-
न्यस्य नाभौ च पाषवयोः ।। १० ।अधर्मादीननन्तादीन् हदि पौठमनुं न्यसेत् ।\ 1
आधारशक्तिमारम्य ज्ञानात्मानमनुक्रमात् ।\ ११ ।\ उक्तक्रमेण विन्यस्य. हृदयं, ` ठ |
साधुभाविते ।। नवहक्तिमये रम्ये ध्यायेदेवमुमापतिम् । १२ ।। चनद्रकोटि-
प्रतीका त्रिनेत्रं चनद्रभूषणम् ।\ आपिङ्कलजटाजुटं रत्नमौकिविराजितम् \। १३
नीलम्रीवमुदाराङ्खं नानाहारोषन्ञोभितम् ।\ वरदाभयहस्तं च हरिणं च परइ्व-
1 चम् ् ॥ १४ ।। दधानं नागवल्यं के राङ्खदभूषणम् ।\ व्याघधचरममपरीधानं रत्न-
सिंहासने स्थितम् ।। १५ ।। ध्वात्वा तद्वाम भागे च गिरिजां भक्तवत्सलाम् ॥
स्वज्जपाध्रसूनाभामुदयाकंसमप्रभाम् ।। १६ ।। विचयुत्कञ्जनिभां तन्वीं मनो- `
नयननन्दिनीम् ।\ बालन्दुञञेखरां स्निग्धां नीलाकुञ्चितकुन्तलाम् ।१७। भद्ध
घातरुचिरनीलालकविराजिताम् । मणिकुण्डलविद्योतसुखमण्डलविभ्रमाम् ।॥ `
1। नवकुंकुमपडकाभां कपोलतलदर्पणाम् ।। मधुरस्मितविभ्राजदरुणाधर- `
रत्नसिहासनारूढां स्राजपरिच्छदाम् । एवं ध्वात्वा महादेवं देवी च गिरिजां ¦
शुभाम् । २३ ॥। न्यासकरमेण सम्युज्य देवं गन्धादिभिः कमात् ॥। पञ्चभिद्रहाभिः `
कुर्यत्प्रोक्तस्थानेषु वा हृदि \! २४ \। पृथक् पुष्पाञ्जलि देहे मखेन च हदि त्रयम्
॥ पुनः स्वयं शिवो भूत्वा मूलमन्त्रेण साधकः । २५।। ततः सम्पजयेहेवं बाह्यपीठे `
पुनः मात् ।\ सङ्कल्पं प्रवदेत्तत् पजारम्भे समाहितः ।\ २६।। कृताञ्जव्पुटो
भूत्वा चिन्तये दि शडःकरम् ।। ऋणपातकौर्भाग्यदारिद्रविनिवत्तये ।\ २७
अशेषाघविनाश्चाय प्रसीद मम शंकर ।! दुःखशोकाग्निसंतप्तं संसारभयपीडितम्
॥ २८ ॥। बहुरोगाकुलं दीनं बाहि भां वषवाहन ।। आगच्छ देवदेवेश महादेवाभयं- `
कर ।। २९ ।। गृहाण सह् पावत्या त्वं च पूजां मया कृताम् ।! इति संकल्प्य विधि-
` वद्राह्यपुजांसमाचरेत् । ३० ।। गुरं गणपति चेव यजेत्सन्यापसव्ययोः । क्षत्रेश- `
मीश्चकोणे तु यजेदरास्तो््याति क्रमात् ।। ३१।। वाग्देवीं च यजे्रत्त त्तः कात्यायनीं `
यजेत् ।। धमं ज्ञानं सवेराग्यमइवयं च नमोऽन्तकेः ।। ३२॥।। स्वरेरीक्ादिकोणेष॒
0 पीठपादेष्वनुक्रमात् ।\ आभ्यां बिन्दुविसर्गाभ्यामधर्मादीन्प्रपजयेत् ॥ इरे ।॥ `
गाच्ररूपां चतुदिक्षु मध्येऽनन्तं सतारकम् ¦ सत्वादित्रिगुणांस्तन्तुरूपान् पीठे `
। तु विन्यसेत् | ३४ ।\ अत उरध्वच्छदेमायालक्षम्यौ देव्या शिवेन च । तदन्ते `
चाम्बुजं भूयः सकलं मण्डलोत्तमम् ।। ३५।। यत्र केसरकिञ्चल्कव्याप्त तच्राक्षरेः
अमात् \। जात्मत्रयमथास्यच्य मध्य सण्डपमादरात् ।२६। वामां ज्यष्ठांच
गौरीं च भावाथ दिक्षु पूजयेत् ।। वामाद्या नवरक्तीश्च नवस्वरय॒ता यजेत॒ `
५ ३७ ॥ हदि बीजत्रयाद्यश्च पीठमन्त्रेण चार्चयेत् ।। आवृत्तिः प्रथमाद्खंस्तु ` ।
भि,
ञ्चभिर्मतिपंक्तिभिः ।॥ ३८ ।। त्रिंशद्धम्तिगिहचा्रनिधिदटयसमन्विते
अनन्ताः पराद्यान्यामातृभिदच वृषादिभिः ।! ३९ ॥ सिद्धिभिक्चाणिमाद्या-
. भिरिन््रादेश्व तदायुधेः ।। वृषभक्षेत्रचण्डेडा दुर्गाश्च स्कन्दनन्दिनौ
` गणेकशसेन्यपौ चैव स्वस्वलक्षणलक्षितौ ।। अणिमा महिमा चैव गरिमा र्धिमा `
तथा ।॥ ४१।। ईशित्वं च वरित्वं च प्राप्तिः प्राकाम्यमेव च ।। अष्टशवर्याण् |
नौ ।१ ४०॥ |
दी तरतराज ` [त्रयादश्ा- `
पुनराचमनं दत्त्वा स्नानमन्त्रः प्रकल्पयेत् ।।४८।। वासान्ते चोपवौतं च भूषणानि ¦
निवेदयेत् । गन्धमष्टङ्कसंयुक्तं सुपूतं विनिवेदयेत् ।। ४९ ।\ ततद्च बिल्वम- `
न्दारकह्वारसरसीरुहम् ॥! धत्तूर कणकारं च द्रोणपुष्पं च मल्लिकाम्
11५० । अपामार्गं च तुलसीमाधवीचम्पकादिकम् ।। बृहतीकरवीराणि
यथालब्धानि भामिनि ।! ५१ ।! निवेद्यत्सुगन्धीनि माल्यानि विविधानि च
धूपं कालागुरूत्पन्नं दीपं च विमलं शुभम् ।! ५२ ।। अथ पायसनवेद्यं सवृतं सोप-
दशकम् ।। मोदकापूपसंयुक्तं शकंरागुडसंयुतम् ।। ५३ ।। मधुरां. दधियुतं जल-
पानसमन्वितस् ।! तेनैव हविषा बहौ जुहुयान्मन्त्रभाविते ।। ५४ ।। आगमोक्तेन `
विधिना गुरुवाक्यनियन्त्रितः । नेवेद्यं शम्भवे भूयो दत्वा ताम्बलसुत्तमम् ।\ `
॥५५।। फलं नीराजनं दिव्यं छत्रं दर्पणमुत्तमम् ।! समर्पयित्वा विधिवन्मन्त्रे
` वैँदिकतान्त्रिकंः ।। ५६ ।) यदयज्ञक्तः स्वयं निःस्वोयथाविभवमचंयेत् । भक्त्या `
दत्तेन गौरीशः पुष्पमात्रेण तुष्यति ।! ५७ ।! अथाद्धभतान्सकलान् गणेश्ादीन्
प्रपूजयेत् ।। स्तवेर्नानाविधेः स्तुत्वा साष्टाङ्खं प्रणमेद्बुधः ।। ५८ ।। ततः प्रदक्षिणी-
य वृषचण्डेरवरादिकान् । पुजां समप्यं विधिवत्परार्थयेद् गिरिजापतिम् ॥॥५९। `
। देव जगन्नाथ जय शडःकर शाइवत् ।\! जय सवेसुराध्यक्ष जय सवंसुराचित।६०।।
स्ेगुणातीत जय सवंवरप्रदं ।1 जय नित्य निराधार जय विदवंभराव्यय ।
जय विहवेकवन्घेश जय नागेन्द्रभूषण ।\ ६१ ।। जय गौरीपते हम्भो जय नित्य
` संसारसागरोत्तारण
निरञ्जन ।। जय नाथ कृपासिन्धो जय भक्तातिभञ्जन ।।,६२ ।। जय दुस्तार- `
संसारसागरोत्तारण प्रभो । प्रसीद मे महादेव संसारादद्य विद्यत । ६३ ।\ |
व सवेपापश्षयं कृत्वा रक्ष मां परमेश्वर ॥। महादारिद्रच मग्नस्य महापापहतस्य च॒ `
महाशोक + कनिविष्टस्य महारोगातुरस्य च ।\ ऋणभारपरीतस्य दह्यमानस्य `
‰» ५, १५
कर्मा ग्रहेः प्रपीडयमानस्य प्रसीद मम॒ शडकर ।। दरिद्रः प्राथयेहेवं
प॒जानते काप) ६६ \। अभाग्य वापि राजा वा प्रा्थयेहेवमीकवरम् ।॥ `
युः सदारोग्यं कोावृद्धि्बलोद्चतिः \\ ९६७ ।। ममास्तु नित्यमानन्दः प्रसा- `
न्तु प्रसीदन्तु न्त न्तु ममप्रजाः।। ६८ ।! नयन्तु `
~; ` ब्र्तीति।-:. न हुन्दीदीकार्साहूत # | (६७९) (1
द्िनाशयेत् ।॥ ७२ \\ ब्रह्महत्यादिपापानां पुराणेषु स्मृतिष्वपि ।। प्रायषिचत्तानि . `
दृष्टानि श्िवद्रव्यहारिणाम् ।\ ७३ ।\ बहुनात्र किमुक्तेन शतोकार्थेन ब्रवीम्यहम्! `
ब्रह्महत्याशतं वापि शिवपूजा विनाशयेत् ।। ७४ ।। मया कथितमेतत्ते प्रदोषे
शिवपुजनम् ।। रहस्य सबजन्तूनामत्रास्त्येव न संशयः ।।! ७५ ।। एताभ्यासपि
य
पुत्राभ्यां शिवपूजा विधीयताम् । अतः संबत्सरादेव परां सिद्धिमवाप्स्यथ ॥
दितं करुणात्मना ।\ अथ
हिननन्दनः ॥ त्याह |
॥ ७६।। इति च्ाण्डिल्यवचनमाकण्यं द्विजभामिनी ।। ताभ्यां तु सह बालाभ्यां ` छ
प्रणनाम मुनेः पदे ।! ७७।। सत्युवाच ।\ अहमद्य कृतार्थास्मि तव देनमात्रतः।॥। ` |
` एतौ कुमारो भगवस्त्वामेव शरणं गतौ ।। ७८ ।। एष मे तनयो ब्रह्मञ्छृचिव्रत॒
इतीरितः ।! एव राजसुतो नाम्ना धर्मपुत्रः कृतो मया ।\ ७९ ।। एतावहं च भगव- ¦
न्भवच्चरणकिडकराः ।। समृद्ध रास्मिन् पतितान् घोरे दारिद्र सागरे ८०।
इति प्रपच्ना शरणं दिजाद्चना तस्याथ वाक्येरमतोपमानेः ।। उपादिदेशापि तयाः `
५ ८ कुमारयोमुनिः हिवाराधनमन््रविद्याम् ।। ८१ ।! अथोपदिष्टो मुनिना कुमारो
ब्राह्मणी च सा 1! तं प्रणम्य समामन्त्य जगमुस्ते शिवमन्दिरात् \॥\ ८२ ॥ ततः
प्रभृति तौ बालौ मुनिवर्योपदेशतः । प्रदोषे पार्वतीशस्य पूजां चक्रतुरञ्जसा `
५ ॥ ८३ ।। एवं पुजयतोदेवं दिजराजकुमारयो ॥ सुखेनैव व्यतीयाय `
तथोर्मासचतुष्टयम् ।\ ८४ ।। कदाचिद्राजयुत्रेण विनासौ द्विजनन्दन \। स्नातुं
गतो नदीतीरे चचार बहुलील्या । ८५ ।। तत्र नि्रनिष्पातनिभिन्ने वप्रकरदमे।॥॥ `
। | निधानकलकं स्थलं प्रस्फुरन्तं ददश ह ।। ८६ ।\ तं दृष्ट्वा सहसागत्य हषकौतु- `
` कविह्वलः ।\ देवोपपन्नं मन्वानो गृहीत्वा शिरसा दधौ ।! ८७ ।। ससंभ्रमं समानीय `
निधानकलशं बलात् ।\ निधाय भवनस्यान्तर्मातरं समभाषत ।! ८८ ।\.मातमात- |
रिमं पहय प्रसादं गिरिजापतेः \! निधानं कुम्भरूपेण दं
` सां विस्मिता साध्वी समाहुय नृपात्मजम् ।\ ८९ ।। स्वपुत्रं प्रतिनन्द्याह मानयन्तौ
क्षिवाचेनम् । शृणुतां मे वचः पुत्रौ निधानकलशीमिमाम् ।। समं विभज्य गृह्णीतं `
मम शासनगौरवाद् ।। ९० ।। इति मातुवचः श्रुत्वा तुतोष `
"1 4 + त्रर्तराज ` ~ . { त्रयीर्दश्लीः
. दृष्ट्वा द्विजात्मजो दूरादुवाच नृपनन्दनम् ।\ ९७ ।। इतः परं न गन्तव्यं विहर-
न्त्यग्रतः स्त्रियः \! स्त्रीसंविधानं विबुधास्त्यजन्ति विमलाराया । एताः `
कैतवधारिण्यो घनयौवनदुमंदाः ।\ मोहयन्त्यो जनं दष्ट्वा वाचानुनयकोविदाः
॥\ ९९ ।) अतः परित्यजेतस्त्रीणां सर्वि सहभाषणम् ।। निजधर्मरतो विदान्
ब्रह्मचारी विक्ञेषतः \। १०० ।! अतोऽहं नोत्सहे गन्तं कीडास्थानं मगीदल्ाम्।॥।
इत्यक्त्वा द्विजयुत्रस्तु निवृत्तो दूरतः स्थितः \\ १ ।\ अथासौ राजपुत्रस्तु कौतुका-
विष्टमानसः ।। तासां विहारपदवीमेक एवाभयो ययौ ।। २ ।। तत्र गन्धर्वकन्यानां `
मध्ये त्वेका वराद्धना ।\ दृष्ट्वायान्तं राजयुत्रं चिन्तयामास चेतसा \\ ३ । अहो
` -कोयमुदाराद्धो युवा सर्वाद्धसुस्दरः ।! मत्तमातङ्कगमनो लावण्यामृतवारिधिः `
॥ ४॥ लीलालोलाविक्ालाक्षो मधुरस्मितपेशलः ।। मदनोपमरूपश्रीः सूकु- `
माराद्लक्षणः ।! ५ 1} इत्याश्च्ययुता बाला द्ुरादृष्ट्वा नृपात्मजम् ।। सर्वाः
सलीः समालोक्य वचनं चेदमब्रवीत् ।। ६ ।। इतोऽप्यद्ररे हे सख्यो वनमस्त्येक- `
सत्तमम् ।\ विचित्र चंपकाश्लोकपुतच्नगवबकुलर्युतम् ।। ७ ।1 तत्र गत्वा तरुन्सर्वा्प्र- `
सिच्य कुचुमोत्तरान् ।। भवन्त्य: पुनरायान्तु तावत्तिष्ठाम्यहं त्विह ।॥ ८। ध
संपत्त्या परिभूततिलोत्तमाम् ।\९१०।। राजपुत्रः समागम्यकौतुकोत्फुल्ललोचनः।। `
इत्यादिष्टः सखलीवर्गो जगामापि वनान्तरम् ।! सापि गन्धर्वजा तस्थौ न्यस्तदृणि च | त
नृपात्सन । ९ ।।ता समालोक्यं तन्वद्धीं नवयोवनशालिनीम 1 बाला स्वरूप घतस्य. ` ध ५
अवाप दैवयोगेन मदनस्य शरव्यथाम् ।। ११ ।\ गन्धवेतनया सापि प्राप्ताय नृप- `
सूनवे ।। उत्थाय तरसा तस्से प्रददौ पल्लवासनम् ।\ १२ ।\ कृतोषचारमासीनं `
तमासाद्य सुमध्यमा ।। पप्रच्छ तद्रूपगुणेध्वेस्तवीर्याकुलेन््रिया ।। १२ ।! कस्त्वं `
कमलपत्राक्ष कस्मादेकषदिहागतः ।} कस्य पुत्र इति प्रेम्णा पृष्टः स्वं न्यवेदयत् `
॥१४।। बिदभे रा त जतनयं विध्वस्तपितृमातृकम् । शरुभिद्च हतस्थानमात्मानं `
ता हन्दीरयोकासा स ट्त | ( ६ ट १ ) व 2
< (१911) 1 ४ { ५
> 11 न प
~~~ ------- -----~~~__~_~_~~_~~~~~--- 4 1 ध 1
इति संभाष्य तेनाशु परेम्णा गम्धवेकन्यका ।। मुक्ताहारं ददौ तस्मे स्वक्चान्तर `
भूषणम् ।। २३ ।\ तमादायाद्भुतं हारं स तस्याः परमाकुलः ।। गृढहषपरासिक्ता = `
मिदमाह नृपात्मजः ।। २४ ।। सत्यमुक्तं त्वया भीर तथाप्येकं वदाम्यहम् \, त्यक्त. =
` राज्यस्य निःस्वस्य कथं भे भवसि श्रिया ।। २५ ।। या त्वं पितमती बाल विक्ष्य
-पितृ्षासनम् ।। स्वच्छन्दा चरणं करतु मूढे त्वं कथमहंसि ।।२६।। इति तस्य वचः `
श्रुत्वा तं प्रत्याह शुचिस्मिता ।\ अस्तु नाम तथेवाहंकरिष्ये पदय कौतुकम् ॥ २७।॥ `
गच्छस्व भवनं कान्त परश्वः प्रातरेव तु ।\ आगच्छ पुनरत्रैव कार्यमस्ति चनो
मृषा ॥२८।। इत्युक्त्वा तं नुपं कान्तं सा सद्धतसलीजना ।। अपाक्रमत चा्वेङ्ीस = `
चापि नृपनन्दन: ।। २९ ।! स समभ्येत्य हर्षेण द्विजयुत्रस्य सन्निधिम् । सवं- `
माख्याय तेनैव सार्धं स्वभवनं ययौ ।! ३० । तां च विप्रसतीं भूयो हषेयित्वा =
1 ` नृपात्मजः ।। पररवो द्विजयपुत्रेण साधं तस्मिन्वने ययो ।। ३१।। स तया पुवेनिदि- 0
ष्टं स्थानं प्राप्य नपात्मजः ।! गन्धवेराजमद्राक्षीद्दुहिजा च समन्वितम् ।॥ ३२।॥
स गन्धर्वेपतिः प्राप्तावभिनन्य कुमारकौ ।! उपवेहयासने रम्ये राजपुत्रमभाषत = `
| ॥ ३३ ।। गन्धव उवाच ।! राजेच््रपुत्र पूवद्युः कलसं गतवानहम् । तत्राप्य ॥
महादेवं पार्वत्या सहितं विभुम् ।\३४।। आहूय मां स देवेशः सर्वेषां त्रिदिवौकसाम्! `
स्निधावाह् भगवान् करुणामृतवारिधिः ।। २३५ ।। धमगुप्ताह्वयः कश्चिद्रान-
पुत्रोऽस्ति भूतले ।\ अकिञ्चनो ष्टराज्यो हतबन्धुश्च शत्रुभिः ॥३६॥ स॒
बालो गरुवाक्येन मदर्चायां रतः सदा । अद्य तत्पितरः सवं मां प्राप्तास्तत्प्रभावतः `
॥ ३७ ।\ तस्यं त्वमपि साहाय्यं करु गन्धव सत्तम ।\ यथा स निजराज्यस्थो हत॒
शत्रुभविष्यति ।। ३८ ।। इत्याज्प्तोहऽमीशेन संप्राप्य निजमन्दिरम् ।। अनया च
दुहित्रा च बहुक्लोऽर्यथितस्तथा । ३९। ज्ञत्वेमं सकलं शम्भोनियोगं
करुणात्मनः ।! आदायेमां दुहितरं प्राप्तोस्मीदं वनान्तरम् ।! ४०।। अत एनां
‹ प्रयच्छामि कन्यामंशुमतीं तव ।। हत्वा शच्रन्स्वराष्टरे त्वां स्थापयामि शिवाज्ञया `
~ ॥ ४१।। तस्मिन् पुरे त्वमनया भुक्त्वा भोगान्यथोचितान् ।\ दशवशषसहखरान्ते `
गन्तासि गिरिज्लालयम् ।\ ४२।। तत्रापि मम कन्येयं त्वमेव प्रतिपत्स्यते ।। अनेनव
व म९।य८्७ज् ५ ४. श „५ | नष दश्षा~
[1
अभेद्यां सर्वंजन्त्नां श्वित च रिपुमदिनीम् ।। ४८ ।। दुहितरः परिचर्यार्थं दासीनां
च सहस्रकम् । ददो ` प्रीतमनास्तस्मं धनानि विविधानि च ॥४९।।
गन्धर्वसेन्यमत्युग्रं चतुरङ्खसमन्वितम् ।\ पुनश्च तत्सहायार्थं गन्धर्वाधिपतिदेदौ `
॥१५० ।} इत्थं राजञेन्रतनयः संप्राप्य ध्रियमुत्तमाम् ।। अभीष्टजायासहितो मुमुदे `
निजसम्पदा ।! ५१ ।। कारयित्वा स्वदुहितुविवाहं समयोचितम् ।। ययौ विमान- `
मारुह्य गन्धर्वाधिपर्तिदिवम् \\! ५२ ।1 धर्मगुप्तः कृतोद्वाहः सह गन्धर्वसेनया 11
निश्ेषितारातिवलः प्रविवेश निजं पुरम् ।। ५२३ ।। ततो ऽभिषिक्तः सचिवेर््ा- `
` ह्यणहच महोत्तमः ।! रर्त्नासहासनारुदश््चके राज्यमकण्टकम् ।! ५४ ।\ या विप्र- `
वनिता पूर्वं तमपुष्णात्स्वपुत्रवत् 1। सैव माताभवत्तस्य स भ्राता द्िजनन्दनः `
॥ ५५ ।\ गन्धर्वंतनया जाया विदर्भविषयेश्वरः।। आराध्य देवं गिरिषशं धमेगपष्तो
नृपोऽभवत् ।। ५६ ।\! एवमन्ये समाराध्य प्रदोषे गिरिजापतिम् ।\ लभन्तेऽभी-
प्सितान् कामान्देहान्ते तु परां गतिम् ।। ५७ ।। सृतं उवाच ।) एतन्महाव्रत पुण्यं
प्रदोषे श्ञङ्क राचेनम् ।। ध्मथिकाममोक्षाणां यदेतत्साधनं परम् ।\ ५८ 1 एत- `
च्छृणुयान्नित्यमास्यानं परमाद्भृतम् ।। प्रदोषे शिवपुजान्ते कथयेद्रा समाहितः `
॥ ५९ ।\ न भवेत्तस्य दारिद्रयं जन्मान्तर शतेष्वपि ।। ज्ञानेद्वयंसमायुक्तः सोऽत्ते
शि दुर्लभमिदं मनुजाः शरीरं कुर्वंन्त्यहोऽ्र ¦
परमेश्वरपादपुजाम्, ॥ धन्यास्त एव निजपुण्यजितच्रिलोकास्तेषां पदाम्बुजरजो `
भुवनं पुनाति ।\ ६१ ।। अस्योद्यापनं शनिप्रदोषवत् । इति श्रीस्कन्दपुराणे सोद्या- `
` -्षिवयपुरं ब्रजेत् ।\ १६० ।\ ये प्राप्य दुर्लभ
भुवं पुर
(0 पनं पक्षप्ररो षव्रतभ ।। | (1.
भदोषत्रत--सुतजो बोले कि कोड बेटेवाली ब्राह्यणो बडी दुखौ थो । उसने शण्डिल्यके मुखसे प्रदोषमें | | |
` शिव पूजन सुनकर ।\ ९1) पीछे उन्हं प्रणाम करके शिवको रमसे पजनेकौ विधि पुरी ।\२।1 शाण्डिल्य बोडे `
कि, दोनों पक्षोकी त्रयोदकषीके दिन दिनम निराहर रहे जब अस्त होनेमें तीन घडी रहजायं तो फिरस्नान `
ताजे पानीसे भल मां भति र लीषकर सुन्दर मंडप बना धौत वस्त्रादिकोसे ठक दे ।५।। बितानं आदिक पुष्प र.
ये अकूरोसे रोति ॑ र सजाकर उस जगह पांच रगोसे विचित्र पद्मछिसे ।६।। उसपर अच्छा जासन उाल्कर
८५ ऋ क न क. ८ 1 6
क्रत, ` {६१८८ कसाहत ध (६८३) ::
कि पुराणग्रन्थोमे बही पर्लवित हणा है किन्तु अजब य इतने भित्ररूपमे हो गया है कि दसका पहचानना `
भरी सवं साधारणके लिये कठिनसा हो गया है । प्रचलित मंत्ररास्त्रके भी अनेकों ग्रन्थ अौर अनेको आचाय ` ^ ५
. हैँ आजके उपासकोको सिवा इनके दूसरा कोई देवोपासनाका पथ ही नहीं है । इच्छा तो इसके साथ अथैके. ` |
भौ आसनादि विधानं को यहाँ उद्धृत करनेकी थी पर विस्तार भयसे उनको यहाँ न लिखकरकेवल मंब = `.
५ शास्त्र के ही विधा्नोको लिखते ह-देवाराधन करनेवालेको चाहिये कि, प्रातःकाक उठ गुरुका ध्यान करे, `
वधस्नानकरे पीछे नित्य कृत्य सन्ध्या आदिकं को शान्त चित्तसे करे । जिस जगह देव पुजन करना हो वहकि `
द्वारकी पुजा एवम् द्वारक गणपतिको पूजे द्वारपर पूजेजानेवाले दूसरोकी भी पूजा करके अ्च॑न म॑दिरमे अवे ।
क्षेत्र कीलन करे, इसका प्रकार भी मंत्रमहोदधि आदि मे लिखा हआ है । ? अपवित्रः पवित्रो वा' इसमे मंड- `
` पकी शुद्धि करे जहाँ आसन विछावे वहाँ कूम शोधन करे कूम के मुखपर वैध आसन विवे, पूवे या उत्तरकी `
ओर मुखं करके आसनपर बैठ जाय ।' पुथ्वी त्वया' इस मंत्र से आसनको शुद्ध करे क्षेत्र कीलनसे लेकर आसन |
शोधन तक सारे कृत्य पीठके आसंत्रणमे आगये ।। २।। भूतशुद्धि -कुंभक प्राणायाममे भावनासे कुंडलिनीको `
जगा प्रदीपकलिका जैसे जीवको सुपुम्नानाडीये ब्रह्मरन्ध्रे पहंाकर "हंसः सोऽहम्" इस म॑वसे जीवको ब्रह्मे `
` भिलदे । पादाग्रसे जानुतकं चतुष्कोण एवं वजरसे लाति सोनेकेसे, रंगका पृथ्वी मण्डले इसका ओम् कं
यह् बीज वै इसका स्मरण करे । जानृसे केकर नाभितक अर्धचन्द्राकार खेतवर्णका दो पश्मसि अंकित पानीका `
स्थान सोम मण्डल है उसका ओम् वं" यह् बीज है । नाभिसे लेकर हृदयतकं त्रिकोण एवं स्वस्तिके अंकित `
` ल्ालरंगका अग्नि मंडल है इसका ओम् रं' यह बीज है । हृदयसे लेकर श्रूतक छः बिन्दुओसे खाच्छ्ति, धूये-
कैसे र्गका वायु मण्डल है इसका ओम् यं' यह् नीज है । भ्रमध्यसे लेकर ब्रह्मरनध्रक फला हुआ स्वच्छ मनोहर त
१ ( है, मदिरा पीना हृदय है गुरुकी स्त्रीके साथ गमन ही उसकी कटि है, इन तीनों काम केरनेवालो 1
उसके पैर दहै, उपपातकही उसका माथा है, ठार तख्वार लि हुए, है, नीचेको मृख है यह असह्य है । भयम्, `
, | इस वायुबीजको बत्तीस या सोलहवार पकर पुरक प्राणायाम करता इजा पाप् परुषको
आकाश मंडल है इसका ओम् हं" यह बीज हँ । इन सबोका स्मरण करना चाहिये । फिर पाचों मण्डलोमं आठ 1
२कैक्रमसे चालीस पदार्थोको ओर याद करना चाहिये । भरूमंडलमे-पादेद्दरिय, गगन, घ्राण, गन्ध, ब्रह्मा, _ १
निव॒त्ति, समान, गन्तव्य देश, जक मण्डलमे-हस्तेन्दरिय, ग्रहण.ग्राह्य, रसना, रस, विष्णु, प्रतिष्ठ, दाक तेजो. `
मण्डलमे-वायु, विसगं, सिवजेनीय, चक्षू, रुप, हिव विद्या, ध्यान, वायु मण्डलमे-उपस्थ, आनन्दस्त्री, `
स्परन, स्पशे ईशान, शान्ति, पान , आकाल मण्डलमे- वाक्, वक्तव्य, वदन, श्रोत्र, शब्द, सदाशिव, शान्ति.
अतीत, प्राण, ये पदाथं याद करने चाहिये । इसके पीछे पहिले २ कार्यका उत्तर २ कारणम ल्यकरनाचाहिये। =
पृथिवी अप् तेज वायु, आकारा इनमें से पाँच गुणवाली भूमिको ओम् रुंफट्' इस मंत्रसे पानीमे, चारगुण- = `
. बार पानीको ओम् तं हं फट । इससे तेजमे; तीन गृणवाले तेजको ओम् र हुं फट्" इससे वायुमे; दोगुणवाके `
वायुको ओम् यं हूं फट्" इससे आकाशम; एक शब्द गुणवारे आकाशको ओम् हं हुं फट् इससे अहंकारमं; = `
(1 । अहंकारको महत्वम महत्तत्वको प्रकरृतिमं; मायाको आत्मामं ठ्य करदं), इह् प्रकार शुद्ध सच्चिन्मयं न गन्थः ८ ¦ 4 |
होकर पाप पुरुषको याद करे कि, काला अंगूठेके बराबर है जिसका रिर ब्रह्महत्याका है सोनेकी चोरीमुजाएं =
[का साचहीः.: ` --.|
आगते उसे जला दे । ओम् यं' इः
था वाईस वारं जप कर दक्षिणनाडीसे उस पाप पुरुषकी भस्म बाहिर फेद दे ! पाप पुरुषके साथ जो अपने
शोषे । ओम्र॑द्स _
त वायुबीजको सोलह `
(६८४) नतस्ज
ओर यणपतिजीका यजन करे । अंस ओर ॐर य॒गमोपर ध्म ज्ञान वैराग्य ओर एश्वर्य आदिका न्यास करके
नाभि ओर पामे ।१०।। अधमं, अन्नान, अवराग्य ओर अनंश्वय्यं आदिका तथा अनन्त पृथिवी आदिका `
भ्यास करे । हृदयपर पीठ मन्त्रोसे न्यास करना चाहिये आधारशक्तिसे लेकर मंत्रशास्तरके विधानके अनुसार `
मसे ज्ञानात्मातक स्यासहोना चाहिये । पी मंत्र गास्त्रके विधानप्रयुक्त भावनाओसे भावित किये जया
दला
` आदि नव शमित युक्त हृदयम उमायति देवका ध्यान करना चाहिये ॥११।। ।\१२।। कि, कोटि चन्द्रमाके `
समान चमकने त्रिनेत्रधारी दके भूषणवाले पिङ्खलरंगके जटाजूट एसम् मथेमे रत्न धारण कयि हुए =
॥*१३।। नीलकण्ठ सुन्दर शरीरवाकते अनेक हारोसे सुशोभित, वरद ओर अभय हस्त, हरिण, परश धारण ` ८
. किये हए ।\१४।। नागोके कड्रे पहिने, केयूर ओर अंगदोसे सुशोभित, व्याघ्रकी चमं धारण कयि हए जौर ४
रत्नोके िहासनपर बैठे हृए हँ ।\१५।। इस प्रकार शिवका ध्यानकर लेनेके बाद उनके वाम भागम भक्त- `
वत्सला गिरिजाका ध्यान करे कि, चमकते जयाके फूलके बराबर चमकनेवाली, उदयकालोन सूरंकौसी ।
भ्रभावलौ ।\१६।। बिजली भौर कंजके समान प्रकाडामान तन्वी, जिसे कि, देखतेही मन ओर नयन प्रसत `
होजाय । बाल चन्द्रमा जिसके शेखरमें है, प्रेममयी, नीरे मड हृए बालोवाली ।\१७।। लिसके नीले बालपर `
दर भोरे बैठे हुए है ! उसका मणिमय कुंडलोसे चमकते हूए मुखमण्डलका विश्रम है 1 १८।। नए ककुमको `
` कीचके समानं चमकना, जिसका कपोल तर है । जिसका लाल अधर प्लव मीठेस्मित्तसे शोभायमान है
॥१९॥। क्ञंखकेसे कण्ठवाली जिसकी कुचरूपी कमल्की कली उटो हुई हे, जो शिवा है, जिसके कि चारो
हाथ पाश्च, अंकुर, अभय ओौर अभीष्ट से सुज्ञोभित हे ।\२०।। जिनमें अनेकों रत्न ज्डेहुए हः एसे ककण
ओर अंगदोसे सुद्षोभित होरही है । त्रिवलीसे शोभायमान, सोनेकी काची गांठ है ।\२१।। माला ओर वस्त्र `
` छाल पहिने हुई है, दिव्य चन्दनसे चाचित है, जिसके चरण कमल दिक्पालोकी स्त्रियोकी मस्तिष्क चोरिसे ` |
` सुज्ञोभित है ।।२२॥ रत्नोके सिहासनपर बैठी दहै सपकि राजाके वस्त्रमोे है, इस प्रकार शुभ कारिणी `
महादेवी भिरिजाका ध्यान करे ।\२३।। पीठके न्यास कमसे गन्धादि उपचारोसे पूजे कहे हुए स्थानों अथवा `
हृदयम पांच मंत्रोसे, पृथक् पृ थक पुष्पांजलि करे देहे मूलमंजरसे करे एवं हयम तीनोसे करे । फिर इस ` ।
भकार साधक शिव होकर ।\२४--२५। पौरे बाहिर सिहासनपर करमसे देवकी पूना करे पुजाके प्रारंभमे
` एकाग्र चित्त होकर संकल्प करे ।२६।। हाथ जोडकर हृदयम शंकरका ध्यान करे ! ससे इउसके ऋण, `
पातक, दौर्भाग्य ओर दारिद्र्की निवृत्ति होजाती है ॥॥२७।। हे शंकर ! मेरे संपूणं पापोको नष्ट करनेके
लिए प्रसन्न होजाइये, दुख सोचरूपौ अग्निसे तपे हृए संसारके भयसे दुखी ।॥२८।। एवं बहुतसे रोगोसे आकुल `
` दीन मृश्च, हे नादियापर चठनेवाले ! मेरी रक्षाकरिये । है अभयके करनेवाले देवदेवोके स्वामी महादेव ! `
परथारिये ।२९।॥ आप पावंतीके साथ की हुई पुजाको ग्रहण करिये इस संकल्पको करके बाह्यपुना प्रारंभ `
` करदे ।\३०।। गर् ओर गणपतिका पुजन ऋमशः सव्य ओर अपसव्ये करना चाहिए क्षेत्रमे पूर्वादि दिक्लाओके
क्से इन्दरादिका, करमसे पूजन करे ।\३१।। इसके बाद वागृदेवौकी पुजा करके कात्यायनौकौ पूजा करे । `
^ “4
धर्मः लान, चराण्य, एवय इनके बीजसमेत नाममन्बोसे ईञानादिक कोणोके पौठपादोपर अनुकरमसे पूजे `
इन्हीं बिन्दुबीज आदिमे लगा ओर विसगनमः अन्तमं कणा अधर्मादिकोका ॥३२-३२।। चारो दिद्ाोमें |
पूजे एवम् = $ चमे प्रवण समेते अनन्तको तथा तन्तुरूपसत्वादि तीनोगुणोंको पीटपर पूजे ॥\३४।। इसके
रा सातवे त चि र ४ दिशाओं करे, वामा आदिक नौ शक्ति त नो: स्वरोकि
व्रतानि] -. ` ``. हिन्दीदीकासहितं . `: (६८५)
स
आदिक पांच भन्त्रोसे पहल मुनियोसे स्तुत इन्द्रादिक उमादिकं अद्खोसे युक्त उत्तरस ककार उमा चण्डीरवर व
आदिको पूजे । इस प्रकार आवरणसेयुक्त तेजोरूप सदाशिवका पजन करे ।।४०-४४-)) उमासहित =
क्षिवजीकौ पुजा उपचारोसे करे, सुप्रतिष्ठित श्ंखके पञ्चामृत ती्थसे ।\४५।। रद्र सूक्तोसे अभिषेक करे ।
एकाग्रचित्त हौकर वेदिक भन्त्रोसे जासन आदि उयचारोको करे ।४६।। दिव्य वस्त्रोके साथ सोनेका आसन
कल्पित करे, आठ गणोवाला अघ्यं तथा शद्ध पानीसे पादय करे ।४७।। उसीसे आमन करावे उस्म मधपकै `
दे । फिर आचमन देकर भन्त्रोसे स्नान करावे ।\४८।। वस्त्रोके पीछे उपवीत एवं भूषण दे परम सुगन्धित `
अष्टाङ्खः गन्ध दे 1\४९।। बिल्वपत्र, मम्वार, कलवार, कमल, घततूर, कणिकार, कपुर, द्रोणपुष्प, चमेली `
।1५०।। अपामा तुलसी, माधवी, चंपक, बहती, करवीर इनमंसे जो मिल जाय उसे चढावे \\५१।। अनेक
` तरहंकौ मात्यादिक{सुगन्धियोको चढावें काले अगरकी धूप तथा निसेल दीपक होना चाहिए ।१५२।} खीरका
` नैवेद्य जिसमे घी ओर चीनी पडी हई हो, जिसमें ल्डड्, पुआ, शक्कर ओर गुड होना चाहिए ।१५३।। जल्पान
बुरोके आराध्य ! तेरी जय हो, है सब-सुरोके पुन्य ! तेरी जय हो ।\६०॥ हे सव गुणोमे अतीत ! तेरी ` |
जयहो, है सब वरोके देनेवारे ! तेरी जय हो, है नागोके भूषणवारे विरववन्य ईडा ! तेरौ जयहो ।\६१।॥ |
गौरोपतिम्श् भोहे ! तेरी जय हो, है नित्य निरंजन { तेर जय हौ, है कृपासिन्धो ! तेरी जय हो हे भक्तोके = `
ओर दहिके साथ मीठा अच्च हो उसो हविसे मन्त्र भावित अग्निम हवन करे ।1५४।। शस्तरकौ कहौ हुई विधति |
गुरुके वाक्योसे नियंत्रित हुआ शम्भुके लिए नैवेद्य दे ! उत्तम पान ।५५।। फल, आरती, दिव्यछत्र, उत्तम॒ ` |
दर्पण, विधिपूर्वक वंदिक ओर तांत्रिक मन्त्रोसे दे ।।५६।। यदि अङाक्त हो धन पास नहो तोजोअपनीकशविति |
हौ, उसके अनुसार पुजा करे क्योकि, भक्तिपूवंक एकफूल चढानेसे भी शिवजी प्रसन्न होजाते हे इसके बाद |
` अंगभूत गरे आदिका पुजन करे । अनेकों स्तोत्रोसे स्तुति करके सष्टाद्धः प्रणाम करना चाहिये १।५७।। = |
॥५८1। इसके बाद प्रदक्षिणा करे । वष ओर चण्डेश्वर आदिकी विधिपू्वेक पूजाकरके गिरिजापतिकी
प्रार्थना करनी चाहिए ।।५९।। है जगत्के नाथ देव ! तेरी जय हो, है शरवत क्चकर ! तेरी जयहो ।हेसभी
दुखोको भिटानेवाे ! तेरी जय हो ।६२।। हे कठिनतासे तरनेवाले संसारके तारक ! तेरो जय होम `
संसारसे दुःखी हूं ! आप सुक्र प्रसन्न होजादये ॥\६३॥ हे परमेदवर ! सव पापको नष्ट करके मेरी रक्षा
| । ४ करिये महादारिद्रमं इब हुए तथा महापापोसं लग हए ॥ ६२४।। महा रोगेसि आतुर तथा महालोकिंत कजके | . |
भरसे दबे हए, अपने कर्मासि चलते हुए ॥६५। ग्रहोसे इली हए सुञ्चपर हे शंकर प्रस होजादये, दर्दर `
परजाके अन्तमं शिवकी
सदा आरोग्य, कोडकी वृद्धि, बलकी उच्चति मागे 1६७1 है शंकर ! आपकी कृपासे मुशे हमे 9
` हों मेरी प्रजा प्रसन्न हों वैरी मतके महे जायं ।\६८।। राज्यके चोर भिटजाये, मनुष्य सुखी हो जायं । दुभ्न्ि |
हो, इस प्रकार गिरिजापति
पापोको नष्ट करनेवाली सभी दरिद्रोको मिटानेवार । ५ ।) श्िवजीकी पजा है, सब जभीष्टोको
प्रार्थना करे ।६६।। अभाग्य हो चाहं राजा हो बह भौ देवकी प्राथना करे, बडी उमर, ` 9 ५
शाही नन्द |
जापति देवकौ आराधना करे ।७०।। ब्राह्मण भोजन करावे जर दक्षिणा दे, यह सब ` |
है, देवली |
0 ¦ गज तरह. एक शिविनि माल्यिको कद छोडकर 11७ २।। 1 £
पय य भायश्चित्त पूरम् ओर स्मृतियोमे देखेजाते ह, पर शिवक्े द्रन्यको चोरनेवारोके : 1 1
वा न ।\ अधिक कहनेमं क्या है ? मे आवे शलोकम ही कहेदेता हूं । सौ ब्रह्महत्या = . `
` ओंको भौ श्िवपुजा नष्ट करदेती है 1\७४।\ मेने तुमे व षका शिवपूजन कहदिया है \ य |
. छिपाहुमा है इसमें सन्देह नहीं है ॥७५।। इन दोनो पुतरोसे शिवपूजा करा, आजसे
८ (= ` ओर बेठनेके किए पल्लवोका
रा ~ ज < म † । । द श
+ ५ ^ ध ध ककत (कड प (अथ म दानि धनः ५: 0
1 ४ 0 (प क्कः क ९५ मि नन ध ८ ४ #
00 र ॥ {+ प 1 07 ५ ्
किनारे बहुतसे खेल खेलने रगा ।\८५।। प्रवाहके पतनसे भि हई सौ कौचमे बडा सारा घनका कलश
चमकता हुआ दीखा उसे देख आनन्द ओर कौतुक्ते आविष्ट हौ उसके पास आ, देवदत्त मानः
क्षिरपर उटाकर एकदम घर ऊ आया एवं घरके भीतर रखकर मासे बोला ॥\८७।।८८।। करि, है `
मातः} इस महादेवजीके प्रसादको देख, कृपालुने घटके रूपमे खजाना दिखा दिया है ब्राह्मणौ देखकर विस्मित = `
हुई एवं राजसृतको बुलाया ।\८९। शिव पूजाकी प्रसा करतो हुई अपने पुत्रको प्रशंसा करके बोली कि,ए `
बटो ! मेरे वचनोको युनो । मेरी आन्ञका मान करते हुए बँटकर खेले \\९०।। माताके वचन सुन शुचिव्रत
परा प्रसन्न हओ, पर हक्रक्ो पुजामं विहवासौ राजयुतं बोला \\९१।। किहेमां। यहु तो तेरे पुत्रके घुकृतसे ५ ध |
उसे भिला है में हिस्सा लेना नहीं चाहता ।\९२।। क्योकि जो अपने सुकृतसे पाता ह उसे जही भोगताहैकभी ॥
। क्षिवजी सुञ्चपर भी अवयही कृषा करेगे \\६२।। इस प्रकार भी शिवजीको वसेह पुजते हए उसी घरमे उन्हं
एकवषे बीत गया ।९४।। एकदिन राजकुमार ब्राह्मणके पुत्रके साथ वसन्तके दिनों वनम घमने गया ।\९५॥ = `
वे जब वनमें दूर पहुंचे तो उन्हुं सैकडोंही गन्धवं कन्याएं खेलती हुई भिलीं ।\९६।। ब्राह्मण कुमार किसी सुन्द- ५
रीको सुन्दर विहार करते हुए द्रूसरसे देखकर राजकुमारसे बोला ।\९७।। कि इसे जगाडी स्त्र्या खेल रही `
हः पवित्र पुरुष स्त्रियोके बीचमं नहीं चरते ।\९८।। ये धन यौवनकी मस्तानी कपटिन रंगीली बातें बनाने- `
बाल है, मनृष्योको शी घ्रही मोह ठेती हँ ।\९९।। इस कारण अपने धर्मम लगा रहनेवाला सुयोग्य पुरुष
स्त्रियोके साथ भाषण ओर सहवास छोड दे ब्रह्मचारीको तो विशेष करके त्यागना चाहिये ।।१००।। मतो
` इन मृगनयनियोके खेलक जगहमं न जाऊंगा एसा कहकर शुचित्रत तो दुर हो रह गया ॥१०१।। उनके
त्मासेको देखनेकौ इच्छावाला राजकुमार उनके खेलक जगह अकेला निर्भय होकर चला गया ॥१०२।॥ = `
उन सबौ गन्धवं कन्याओंके बोच एक प्रधान सुन्दरी उस ॒राजकुमारुको देखकर मनमं सोचने लगी ।\१०३१\ `
कि यह मत्तमतंगकीसौ चाल्वाला लावण्यरूपी अमृतका खजाना सर्वाग सुन्दर ।\१०४।। बड़ी-बड़ी आखोसे =. `
लीला पूर्वक देनेवाला, मन्दं हाससे शोभित, कामके समरूप ज्ोभावाला सुकुमार कौन है ॥१०५।। एसे `
अचरजके साथ वह बाला दूरसेही राजकुमारको देख, सब सखियोकी ओर देखकर बोली कि ।१०६।। यहासे `
4 थोडी द्रूरपर एक वन है । उसमं चपक, अश्लोकः, पुव्राग ओर बकुल अच्छे खिले हुए हं ॥१०७।। बहांजषपजकर `
उनके सब कूलोको तोड़कर आजायं तबतक में यहां बेट हं ।। १०८ ।। सखी वगेको आज्ञा -
मिलते ही दूसरे बनमं चलागया वहु अलबेली गन्धवं कन्या राजक्रुमारपर दृष्टि लगाकर बेठगई ।१०९।। 1
जिसने अपनी सुन्दरतासे तिलोत्तमाको भी परास्त कर दिया है एेसी करृशाङ्धी नये यौवनवाली कमतिन = ..
. को देखकर ।\११०।। आङ्चयेके मारे आखे चोड गई उसके पासं चला आया एवं देव योगसे कामे तौर `. `
छगनेके कष्टका अनुभव करने लगा ॥।१११।। गन्धर्वकन्या स्वतः प्राप्त हुए राजकुमारको देखकर एकदम `
उठी पल्लवोका आसन दे दिया ।\११२।। उपचारपूर्वक विठाया । इतने ही समयमे इस `
ओर गुणोसे उसका वीयं ध्वस्त होचुका था इद्रियां उसके सहवासको अकुला उठी थी
अचरज
आये है 8 किसके कुमार हं ? राजकुमारने भौ बडीही प्रीतिके साथ कहदिया ।॥११४।। कि | म ८
मेरेमांवाप वेकुण्ठ पधार गयं वेरिथोने मेरा राज्यले लिया, ११५ ष्िर राजक्रुसारन ु ‹ ॥ 4. (८ |
बामोर ! आप कौन किसको लडकी ओर किस कामको यहां आयीं है ।।११६।। ६
व्रतानि] हिन्दीकारदित (९८७) 1
लियं घबरा उठा, यह् देख वहं भीतरही भीतर आनंदसे ओर भी भीगगई तब वह राजकुमार बोला कि `
।२४।१ ए भीर ! तुमने सत्य कहा है तो भी मे तुमसे एक बात कहता हूं कि, न मेरे पास राज्य हैएवं न घन `
है, आप मेरी प्राणप्यारी केसे बनेगी ? ।\२५।। आपके पिता हं उनकी आज्ञा न मान ए मूर्खे ! कंते स्वच्छन्द
चलनेको तयार होतो है ॥\२६।। राजकुमारके वचन सुन मन्दहास करतौ हुई बोली कि, हो, तो भी मे क्म
। मेरे कारनामं देखना ।।२७।। हे प्यारे ? अब आप अपने घरजायें परसों प्रातःकाल आना यहां आपकी
। आव्यकता है मेरौ बात शूठ न समञ्मना ।२८।। ठेसा उस राजकुमारफो कहकर वह अनी सहेलियोमे `
| इकट्ठी हो गयी, बह राजकुमार भौ ।२९।। शुचिव्रतके पास पहुंच गया उसे अयने सब हाल बता दिए, `
। पीछे दोनों घर चले आये ।\३०।। अपना सब समाचार उस सतौ ब्राह्मणौसे कहकर उसे प्रसन्न किया फिर `
उस दिनके परसों द्विजकुमारको लेकर फिर -उसौबन मे पहुंचा १।३१।। जो इसने स्थान बताया था वह॒ `
, वहीं पहुंचा तो क्या देखता है कि, उसी पूत्रीको साथ लेकर गन्धरवैराज स्वयं उपस्थित है ॥३२।। उन्होने |
दोनों कुमारोका अभिनन्दन करके सुस्दर आसनयर बिठा राजकुमारों से कहा ।३३। कि, है राजकुमार ! |
मेने परसों कंलास जाकर गोरीशंकरके दन किये थे ।।३४।। करुणारूपौ सुधाके सागर शिवजौ महाराजने |
| सब देवताओके देखते देखते मुक्षको अपने पास बलाकर कहा किं, ।१३५।। म॒तल्पर कोई धर्मगृप्त नामका ` 1
अकिञ्चन राजश्रष्ट राजकुमार है जिसके परिवारको भौ वेरियोने समाप्त करदिया है ।।३६।। वह् बालक `
। मूरुके वाक्ये मेरी सेवामें सदाहौ ल्गारहता है, आपही आप उसफे सभी पूर्वज उसके प्रभावे म॒सेप्राप्त =
। हौ गषएु ।३७।। हे गन्धवेराज ! तुमभौ उसकौ सहायता करो जिसमे बह वैरियोको मारकर राजलेले ।॥३८।॥ `
श्िवजीकौ आज्ञा पा मे अपने घर चता आया वहां इसने मेरी बहुतसी ्रार्थनाएं की ॥३९॥ कश्िवजौकौ `
आज्ञा ओर इसके मनकी बात जान इस अनमं आया हूं ।४०।। इस अंशुमतीको तुम्हं देता हुएवंवेस्यिको .
भारकर जाके राज्यपरभी आपको बिठा दूंगा ।।४१।। वहां तुम इसके साथ दक्ष हनारवषं भोगोको भोगकर ` `
अन्तमं शिवलोक चले जाओगे ।।४२।। वहां भी मेरी यह क्डकी इसौ अपने देहसे आपके सायही रहेगौ \।४३।। @
एसा कहकर अपनी लडकौका व्याह कर दिया ।\४४।। दहेजमें बडे बडे स्वच्छ रत्नोके अनेकों भार, च्रमके `
समान चूडामणि, चमकते हार \४५।। दिव्य अलडकार वस्त्र, सोनेकके लवादमेके साथ अयुत हाथो नियुत `
। धोडे।(४६।। ओर हजारोही सोनेके बडे बडे रथ दिए, चारो ओर चलमेवाले आयुधोके साथ एक दिव्यघनुष्य |
1४७) जिसके कि, तीर खलास न हो ठेस तूणौर सहलो मंत्रास एवम् जिसे कोर काट न सके एेसीवेरियेके |
नाक्ञ करनेवाली शक्ति दी ।४८।। लडकीको सेवाके ल्ि हनारोही दासियां हीं । तथा प्रसन्न होकर ओर ` ` |
| । भौ बहुतसा धनं दिया ।४९। फिर भी राजकुमाकी सहायताके लिये गन्घर्वोकी चतुरंग सेनाः: |
| इसप्रकार वह॒ राजकुमार उत्तम श्रीको पा मनचाही स्त्रीके साथ अपनी संपत्तिते प्रसन्न हो ने? 4 गा - गं
~ ` त्रतराज [ त्रयोदी- `
अनद्खत्रयोदश्ीवब्रतम्
अथ मार्गशीषशुक्ल्रयोदश्यामन ङ्धत्रयोदक्पीब्रतम् ।। श्रीकृष्ण उवाच ॥ `
भ्युण् पार्थं व्रतं भेष्ठं नाम्नानङ्खत्रयीदल्ली । या शिवाय पुरा प्रोक्ता प्रसच्चेनेन्दु-
मौकिना ।। गोर्युवाच ।! पुरा सौभाग्यकरणी ख्यातानङ्कत्रयोदशी ।। तस्या व्रतं
महादेव भमापि कथय प्रभो ।। कस्मिन्मासे प्रकर्तव्यं संपु्णं च कथं भवेत् ।॥ पूज्यानि
कानि नामानि विधिना केन वै मृड 1 दुभंगानां च नारीणां सौभाग्यकरणं प्रभो
वन्ध्यानां पुच्रजनक धनधान्यविवधनम् \ एतद्व्रतं महादव प्रसादादक्तुमहसि।। `
ईइवर उवाच ।। कथयामि न संन्देदो सहापुष्यं महाफलस् ।। चीणन यन देवेशि `
सर्वं संपद्यते सुखम्।।नारीभिश्च नृभिश्चेव विधातव्यं प्रयत्नतः।। हेमन्ते हि ऋतौ `
प्राप्ते मासि मागंहिरे शुभे ।\ शुक्लपक्षे चयोददयामुपवासं तु कारयेत् ।॥ अङ्वत्थ-
त अ, य, फर
दन्तकाष्ठ च पुजा च मरुष्वेण तु ।। नारिङ्केणाच्यदानं च नवेद फणिकास्तथा ।॥
गन्धपुष्पस्तथा घूपरचेयेच्च यथाविधि ।। अक्षतह्च फलश््चेवं एकाग्रहूदयः स्थितः।! `
सम्यक् जितेन्द्रियो भूत्त्रा ह्यनङ्धः हृदि कल्पयेत् \\ पश्चात् प्रदक्षिणां कृत्वा अघ्यं
चेव निवेदयेत् ।\ नमस्कुर्यादनद्धं च मन्त्रेणानेन भामिनि ।\ नमोऽस्त्वनङ्खदेवाय
( स्वंसंधरि 1
पाताले मत्य॑ोके तथैव च ।। सर्वव्यापिन्ननङ्खः त्वं गृहाणार्घ्यं नमोऽस्तु ते ॥।
` सवेसंघनिवासिने ।। हूदयस्थाय नित्याय सुक्ष्माय परमेष्ठिने ।\ स्वगं चव तु 1
इत्यघ्यम् ।। पूजयत्स्वस्थचित्तेन प्रादयेन्मधु वे निक्ि । रम्भातुल्या भवेन्नारी `
सौभाग्यमतुलं लभेत् ।\ नश्यन्ति सवेयापानि ह्यन्यजन्मकृतानि च ।! लावण्यम-
तुलं चव रूपेक्वयंसमन्वितम् ।। अश्वमेधस्य यन्स्य फलं प्राप्नोति मानवः 1 `
पौषे शुक्लत्रयोदश्यामोदुम्बरं दन्तधावनम् । जातिपुष्यैः पूजनं स्याहाडिमोना- `
्यंमेव च ।! अल्ोकवतिकाः स्निग्धा नैवेद्यं च प्रकल्पयेत् ।\ उपोष्य पुजयेहेवं `
. भक्त्या नाटचेशवरं प्रिये ।। नाटयेहवराय शर्वाय ईहवराय नमो नमः ।। नमस्ते
भुवनेशाय गहाणाघ्यं नमो नमः ।। इत्य््यंम् ।। ब्रतस्थः स्वस्थचित्तेन चन्दन `
योदया
क पवासं च, कारयत् ।\ न्यग्रोधदन्तकाष्ठेन दन्तान् संगोधयेच्छचिः ।। कन्दपष्यं ¦
समभ्यच्यं अध्य च बीजपुरकः ।। नवेद शकं रां दद्याहेवो योगेइवरस्त तथा ।\ योगं ह भ:
` प्राशये्िशि ।\ सर्वेपापविशुद्धात्मा सौभाग्यमतुलं लभेत् \। माघशुक्लत्रयो
व्र॑तानि | ५. हिन्दीदीकासहित । (९८९)
मेवद वटका: प्रोक्ता विरवरूपं तु पूजयेत् ।। नमस्ते विश्वरूपाय स्वरूप पाय महा-
` त्मन ।। गृहाणाध्यं सया देवं विक्वरूप नमोऽस्तु ते ।। इत्यध्यंम् उमातुल्या |
भवेन्चारी कपर प्रादायेश्चिरि ।। वेक्षाखक्ञवखपक्चे त्वपामा्गं दन्तधावनम् ।। पूजा
। च मल्लिकापूुष्येः वजुराघ्यं तु दापयेत् ।। नैवेद्ये सक्तवः प्रोक्ता महारूपं तु पज-
यत् ।। महारूपाय नमस्तं सवंविज्ञानरूपिणे ।। गृहाणार्ध्यं मया दत्तं महारूपष
नमोऽस्तु ते ।। इत्यध्येम् ।। प्राशयेद्रात्रिसमये जातीफलमनुत्तमम् ।। ज्येष्ठे
चयोदश्यां निगुण्डीदन्तधावनम् । पुजा बकुलयुष्यैर्च श्रौफलेनाघध्यंकल्पना ।।
| ध नकद पण्डकान्दद्याल्लवद्धः प्राश्शयोलिलि \। प्रद्युम्नं पृजयेहेवं सर्वपापप्रणाशनम् ।। 1. ष ४
नमस्त पञुपतयं प्रद्युम्न'भवनेहवर ।। गृहाणाघ्यं मया दत्तं प्रद्युम्नं परमेश्वर ।॥
इत्ययम् ॥ सुवणशतदानस्य फलमष्टगुणं लभेत् ।। शुचिशुक्ले त्रयोदहयां नारिङ्धं | :
उन्तधावनम् ।। कदम्बः पजयंहेवं नारिकेलाध्यकल्पना ।। नैवेद्यं दधिभक्तं च
धतोयं च रात्नौ जागरणं चरेत ।। नमस्ते गिरिजानाथ नमस्ते भक्तिभावन ।\
गृहाणार्घ्यं मया दत्तं शूलापाणे नमोऽस्तु ते ॥ इत्यर््य॑म् ।। सोत्रामणेदच यज्ञस्य `
फलमष्टगुणं लभेत् ।। भद्रे शुक्लत्रयोदयां कंकोलं ६“टयावनम् ।\ अर्च॑येच्च-
` पूजयेच्च उमापतिम् ।। स्वस्थेन मनसा तत्र तिलतोय पिबे्निशि।। उमापते महा- `
बाहो कामदाहक ते नमः ।। गृहाणार्घ्यं मया दत्तं चन्द्रमौले नमोऽस्तु ते ।। इत्य- `
प्यम् ।। वाजपेयस्य यज्ञस्य फलं प्राप्नोति मानवः ।। श्रावणस्य सिते पक्षे त्रयो- `
` दयां शुभव्रतः ।\ कारञ्जं दन्तकाष्ठं च पदयपुष्ैस्तु पजनम् ।। रम्भाफलेनाघ्य- ` ५
दानं कुयत्प्रह्वंण चेतसा ।\ नबेद्यं पायसं दद्याच्छृलपाणि तु पूजयेत् ।। प्राहयेद्ग- `
कः पुष्पनवेद्यं धृतपुरिकाः ।। अर्ये पूगीफलं दद्यात् सद्योजातं तु पजयेत् । ६
९01. व्रतराजं ~ [त्रयोदश -: |
स्विनीम् ।। इवेतवस्त्रपरीधानां घण्टाभरणभूषिताम् ।। सुसुक्ष्मवस्त्रयुगलामाचार्याय `
निवेदयेत् \\ तथेव दक्षिणां दद्यादासनं चेव पादुके ।। छनं च मुद्रिकां चेव ककणं `
भूषणं शुभम् \। शय्या दिव्या प्रदेया तु तलाच्छादनसयुता ।। गृहोपस्कर संयुक्ता
भक्तिसंयुक्तचेतसा ।। तत्रोपवेद्य चाचाथमुपवासव्रती ततः ।। हस्तौ मूध्नि समा-
रोप्य प्रणिपत्य वचो वदेत् ।। भगवस्त्वत्प्रसादेन ब्रतसम्पूर्णता मम ।। एवमस्त्विति `
` . सं ब्ूयात्तव तुष्टौऽस्तु शंकरः ।। ईदवर उवाच ।! एवं कृत्वा प्रयत्नेन दम्पती चैव॒ `
पूजयेत् ।। तयोव भोजनं दद्याद् दम्पत्योः पारितोषिकम् ।! अनेन विधिना
वुष्याम्यह् युक्तस्त्ववानघे ।\ तेभ्यो दत्तं च यत्किञ्चिदक्षयं नात्र संशयः! जाचायं-
मग्रतः कृत्वा#तस्यादेज्ं तु कारयेत् ।। न ह्याचायेसमं तीर्थं न ह्याचार्येसमं तपः ॥
तस्याहं कायमास्थाय सवेसिद्ध नयेध वम् ।। तेनवाचायंदानेनसर्वं भवतिचाक्षयम् !\ `
एतद्व्रतं मम शष्ठ गुह्याद्गुह्यतरं परम् ।। राज्यमर्थान् सुतान्सिद्धिमवेघव्यं प्रय- `
च्छति \। रूपं धनं धाल्यमायुरारोग्यं च प्रदापयेत् ।। इष्टलाभं च सोभाग्य वधयेच्च `
वरानने । च्रयोदज्ञीव्रतान्नास्ति सोभाग्यकरणं परम् ।। इति भविष्ये अनद्धत्रयो-
दशीत्रतं सपणम् ।। इति त्रयोदशीव्रतानि समाप्तानि । . (+
| . अनंगत्रयोदशीवब्रत--श्री्रष्णजी बोले कि, हे अर्जुन ! मे एक शरेष्ठ व्रतः कहता हं उसका नाम
| अनंतत्रयःदगी त्रत है \ जिसे शिवजीने प्रसन्ने होकर गिरिजासे कहा था, गौरी बोली कि, है चित्र । पहिले
भापने सौभाग्यं करनेवाली. अनंगत्रयोदशौ कही थी, है महादेव 1 उसके व्रतको. मृ्मे बताइये, स उसे.
किस मासमे प्रारभ करके कच पुरा करे, उसमे कौनकोनसे नाम पुज्य हं शिवका पूजन कंसे करना चाहिये ? `
` दुभगा स्त्रियोका सोभाग्य करनेवाला तथा वन्ध्याओंको बेटा देनेवाला घन धान्यका बढनेवाला `
महादेव ! कृपा करके इस त्रतको कहिये । शिवजी बोरे कि, कहता हं यह महापुण्य फल्वाला है इसमे
: क्या सन्देह है इसके कियेसे सब सुख प्राप्त होजाते हं \ इसे स्त्रियों भौर पुरुषोको प्रयत्नके साथ करना चाहिये! `
` हमन्तछतुके भागंशिर महीनेमे शुक्ला योदश्ीके दिन उपवासं करे । अष््वत्थकी दतुन ओर मरुएके फूलेसे
` शजा, नारगोका अध्ये तथा फणीका नेवेद्य होना चहिये । एकाप्रचित्त हो अक्षत , फल, गन्ध, पुष्प ओर
धुपसे विधिपुवेक पूजन करना चाहिए ! जितेन्द्रय होकर अनंगको हृदयम कल्पना करे, पीछे प्रदक्षिणा करके
करे \ हे भामिनि ! इस भन्त्रसे अनंगको प्रणाम करे कि, सब संघोमें बसतेवारू हुदयके निवासी `
नमस्कार है जो अत्यन्त सूक्ष्म जर परमेष्ठी है । हे अनद्धः ! आप स्वगे पाताल तथा मत्यंलोकमें
सवम व्यापक हो आपके लिए नमस्कार है ! अघं ग्रहण करिये, इससे अघ्यं दे ! स्वस्थ चित्तसे पूजन करे, `
सातम ममु न त करावे, वह स्त्री रभके जराबर हो जाती है, उसे अतुल सौभाग्यकौ प्राप्ति हो
त होती है । उसके
जाता है । पौष शुक्ला त्रयोदश्लीके दिन उदुम्बरकी दातुन जातीके फूरोसे पु
` ब्रतानि। ` दिन्दीटीकासहित `
कात ! हे सुरेषवर ! हे हिमाख्य ! बीचमें निवास करनेवाले ! अष्थं ग्रहणकर तेरे लिये ननस्ाश््ैः है `
` महेश्वर ! अध्वर ग्रहण करिये । वह् स्त्री सीताके समान होजाती है पर रतमें ककोजका प्राच्चनकरनाचष्टिषि\
चंत्रशुक्लामं मत्लिकाकौ दातुन दमनसे पूजा तथा दाखका अघ्यं देना चाहिये, बडोका नैवेद्य तथा विश्व- `
` रूपको पूजा करनी चाहिए । स्वरूप महात्मा विष्वरूपके लिए नमस्कार है, हे विश्वल्पं ! तुभे नमश्ार
है, मेरे दिषु हए अघ्यं को ग्रहण करिए । इससे अधं दे, वह स्त्री उमा जैसी होजातौ है रातमें कपुर प्राशन
करना चाहिए । व॑ज्ञाख शुक्लामे अयामागंकी दुन, मल्लिकाके फूलसे पुजा तथा खजूरका अध्य दे । सक्तुओंका
नवेद तथा सहारूपका पूजन कहा है, सवं विज्ञानरूपी महारूपके लिए नमस्कार है, अध्य ग्रहण करिये, है
` महारूप ! तेरे लिए नमस्कार है । यहु अध्ये मन्त्र है, रातमें जातीफलका प्राक्नन करना चाहिए । व्येष्ठशुक्ला
अयोद्छीके दिन निगुडीका दांतुन करे बकुलके फलोसे पुजा तथा श्रौफलकौ अघ्यं कल्पना करनी चाहिए \ ` 1 |
भण्डकोका नैवेद्य तथा रातमें लवङ्खोका प्रान होता हे, स पायो नाक प्रयुम्तदेवकौ पूना होती है । हे `
अधिकधनवाले घरके स्वामिन. ¡ तुक्च पशुपतिके लिए नमस्कार है) हे प्रद्यम्न परमेष्वर ! भेरेदिएहृए
अरघ्यको ग्रहृण करिये । इससे अध्यं दे । सौ सुव्णके दानका अलगुना फल होता है । ज्येष्ठशरुक्छा त्रयोश््ौके
दिन नारगीकी दातुन कदम्बके फूल ओर नारियलका अर्ध्य॑तया दधिभक्तक नैवेद्य एवं उपायतिको पजा =
करे । स्वास्थमनसे तिका पानी पीना चाहिए । है उमापते ! है महाबाहो ! है कामदाहक ! तेरे लिए
` नमस्कार है । मेरे दिए हुए अघ्यं को ग्रहण कर, हे चन्द्रमौखे ! तेरे लिए नमस्कार है \ इसते अध्यंदेनाच्राहिथे। |
:, शह बाजपेययन्ञका फर पा जाता है । श्रावणशरुक्ला त्रथोदशीको करञ्जकी दतुन, कमलोसे पूजन `
तथा केलेका अध्यं एवं नस्रचित्तसे पायसका नवेद्य ३ शूख्याणिकी पूजा करे । सन्घ तोयका प्राक्षनतथारत्तक्ो ` ।
। | | ` ज्रम कर्मा चाहिये ॥ है गिरिजानाथः ! ह भकिल्तिभावन | तेरे लिए नमस्कार है, है क ख्पाणिं ! अषप : | १ |
८ भद्रपद शुक्लात्रयोदश्ीके दिन ककोलकी दांतुन करे; इसमे चम्यकफे फलोमे पूजा तया घृतकी पूरिथोका `
नैवेद्य होना चाहिए } पगीफलका अर्घं तथा सथयोजातकौ पूजा होनी चाहिए । पीछे स्वस्यमनहोकर रातको `
| अगरुकाप्राहनकरना चाहिये । त्रिदिवेश सद्ोजातके लिये नमस्कार ह मेरे दिये हुए अध्थंको ग्रहृण करि
ग्रहण कर, तेरे लिए नमस्कार है, इसमे अर्ध्यं देना चाहिये ।\ उये सौत्रामणियक्लसे अवगता फल होत्ाहे । ॥ ४
सद्योजात ! तरे लिये नमस्कार है, इससे अध्यं दै । वह् दज अश्वमेधोका फल पाजाता है । आष्िविनत्रयो- |
कौम कंकतीका दातुन करवीरक ष्लगेसे पूजा, कर्कटिका फलोका अष्ट > } रिदश्षाधिपतिका पूजन तया =
धोले मांडोका नैवेद्य होता है, देवको पुजा कर रातभं सोनेके पानीको पीना चाहिये । हे देवेश त्रिदशाधिप |
८: 1 है उमाकान्त ! हे महैदवर ! अप तीन तरहसे
से रूपवां हो, उसं अघ्येको ग्रहण करो
| \ इससे अध्यैदेतो |
कदंवकी दँतुन है लाल्कमलोसे पजन तथा कष्पाण्डका अघ्यं देना चाहिये । पुरियोंका नैवेद्य दे
पुजा करनी चाहिये । एकाग्रचित्त हौ, रातमं मदनफलका प्राशन होता है । तुक्षे पातौ सलप।णिं उ
ल्य नमस्कार है, हे महेलान जगदीज्ञ ! तेरे लिये नमस्कार है, अध्य ग्रहण करिये । इससे अध्ये दे ।
ले बजाने आदिके महोत्सवकि साथ जगारण करना चाहिथे । सोनेके वा चांँदीके अर्वनारसे अधेमे _
{६९२ ~... ५ व्रतरजिः-) - - -: - { कतुव्की'
अथ चतुर्दशी त्रतानि छिख्यन्ते
चैत्र गुक्छ चतुर्दशी
चैत्रदुक्लचतुदंशी पूर्वा ग्राह्या; ॥ निशि अमन्ति भूतानि शक्तयः शूल- `
` भृद्यतः ।। अतस्तत्र चतुदश्यां सत्यां तत्पजनं भवेत् ।\ इति ब्रह्यवेवर्तात् ।। मधोः `
श्रावणमासस्य शुक्छा या तु चतुदेशी ।\ सा रात्रिव्यापिनी ग्राह्या नान्या शुक्ला
कदाचन ।। इति हेमाद्रौ बौधायानोक्तेडच ।\ अस्यामेवचतुरददयां विशेषः स्मयते `
पृथ्वीचन्द्रोदये । पुलस्त्यः-चत्रशुक्लचतुदेशयां यः स्नायाच्छिवसच्चिधोौ ।। न प्रेतत्व~ ` ४
मवाप्नोति गद्धायान्तु विक्ञेषतः ।। इति च॑त्ररुक्ल्चतुदेशी ।॥
त चतुदेशीतव्रतानि „
चलुदेशीके ब्रत लिखे जाते हं । (इससे पहिले चतुदेश्षीके विषयमं कु निणय भी कहते ह । जब एक
| ह्य तौ उसके विषयमे तो कोई बखेडा ही नहीं होसकता, किन्तु जव दो हों उनमें इतना अवद्य विचारना पडता ` | ५
है कि, कौनसीको त्रत क्रिया जाय, इसपर कहते हं कि, कृष्णा पुर्व शुक्ला उत्तरा लो जाती है । उपनासमे = ` प
` तोदोनों पक्षोकी पराही लीजाती हे ठेसा मदनरत्ने कहा है) इसपर त्रतराजकार कहते हे किः चैन गुक्ला = ` `
॥))
ेनोका एकहौ सिद्धान्त है । पृण्वीचनद्ोदयगनयम पुलसत्यके `
8 ० के समीप स्नानकरके प्रेत नहीं बनता । यह चेतरशुक्ला चलुदंशीके कृत्य पूरे हृए ।। `
+ तृसिहचतुदशीव्रतम् |
चतुर्दशो तो पूर्वा लेना चाहे । इसपर वह् प्रमाण देते है किबरह्मधेवतमे छिखा है किराते भूत ओर शवितयोके ` ^
राजव्यापिनीकग ग्रह १ दूसरी शुकलाक ग्रहण `
चौदशको शिवके समीप, विकेषकरके गंगा किनारे = |
अथ वैजावशुक्लचतुरदेश्यां नासिहचतुदशीव्रतम् ।। तच्च प्रदोषव्यापिन्यां `
` कायम् ।। तदुक्तं नसिहपुराणे हेम्रौ -वेशाखे शुक्लपक्षे तु चतुदेदयां निशामुखे ।॥
मज्जन्मसम्भवं पुण्यं व्रतं पापप्रणाशनम् ।। वषं वषं च कतेव्यं मम सन्तुष्टिका
टकार-
णम् ५५६ ।। इति ॥। स्कान्देऽपि वैशाखस्य चतुदेबयां सोमवारऽनिलक्षके ।\ अवतारो “
नृसिंहस्य प्रदोषसमये द्विजाः ।। इति।।अनिलक्षम्-स्वाती ॥। ५९ दिनद्रये तद्व्याप्ता- `
बहु ।। एकदा तद्गृहे चासीन्म मन्कलिस्त्वया
व्रतानि]... दिन्दीटीकासहित (६९३)
काम्यं च ।। विज्ञाय महिनं यस्तु लंघयेत्यापकरृन्नरः ।! स याति नरकं घोरं यावच्चन््र- `
दिवाकरौ \) इति स्कान्दे उक्तत्वात् ।\ मम सन्तुष्टिकारणम् इति फलश्रवणाच्च !\
इति त्रतनिणयः ।\ अथ कथा-सूत उवाच ।। हिरण्यकशिपुं हत्वा देवदेवं जगद्-
गुरुम् ।। सुखासीनं च नहर शान्तकोपं रमापतिम् ।\ १ ।। प्रह्वादो ज्ञानिनां
श्रेष्ठः पालयन् राज्यमुत्तमम् ।। एकाकौ च तदुत्सङ्घः प्रियं वचनमन्नवीत् ॥२।
प्रह्लाद उवाच ।) नमस्ते भगवन्विष्णो नुसिहरूपिणे नमः ।। त्व डूक्तोऽह्ं सुरेलेकं `
` त्वां पएच्छामि तु तत्वतः ।२।। स्वामिस्त्वयिकममाभिन्चा भक्ति्जतिा त्वनेकधा ।।
कथं चते प्रियो जातः कारणं मे वद प्रभो \ ४ }। नुसिह् उवाच ।। कथयामि महा-
प्रान श्युणष्वेकाग्रमानसः 1) भक्तेयंत्कारणं वत्स भरियत्वस्य च कारणम् ।॥ ५।
पुजा काले ह्यभृष्वि्रः किञ्चित्तव नाप्यधीतवान् ।। नाम्ना त्वं वासुदेवो हि वेद्या- `
संसक्तमानसः ।1६।। तस्मिञ्जातु' न चैव त्वं चकर्थ सुकृतं कियत्॥। कृतवान्मद्ब्रतं
` प्रह्लाद उवाच ।) शरीनुसिहोच्यतां तावत्कस्य पुत्रद्च कि व्रतम् 1 ८ । वेदयायां
वर्तमानेन कथं तच्च कृतं मया ।) येन त्वस्प्रीतिमापन्नो वक्तुमहेसि साप्रतम् 1 ९।॥ `
नसिह उवाच ।! पुराऽवन्तीपुरे ह्यासीदूब्राह्मणो वेदपारगः ।) तस्यनाम सुमति
` बहुलोकेषु विश्रुतः ।! १० ।! नित्यहोमक्रियां ह्य- |
क्रियासु नियतं सर्वासु किर तत्परः ।।! ११ ।! अग्निष्टोमादिभियनेरिष्टाः स्वे
सुरोत्तमाः ।\ तस्य भार्या सुश्ीलाभूद्िख्याता भुवनत्रयं ।\ १२ ॥ पतिव्रता 5 |
चारा पतिभवितिपरायणा ।॥ जनिरेऽस्यां सुताः पञ्च तस्मादृद्विजवरात्तथा `
॥ १३।। सदाचारेषु विद्वांसः पितृभक्तिपरा
यां चेव विदधाति द्विजोत्तमः 11 ब्राह्म- `
|| तेषां मध्ये कनिष्ठसत्वं
वेवयास्खतितत्यरः 1\ १४।। तया निषेभ्यमानेन सुरापानं त्वया कृतम् ।\ सुद
त्वया" कृतम् ।। अज्ञानान्मद्त्रतं "जातं व्रतानामुत्तमं हि
1 चतुदश्ा-
मदून्रत वत्स त्र॑ली तु
॥* २४ ।
प्रह्लाद तेन ते भक्तिर्मयि जाता ह्यनुत्तमा ।। धूतेया च विलासिन्या
` ज्ञात्वा व्रतदिनं मम ।\२५।। कलहर्च कृतो येन मद्ब्रतं च कृतं भवेत् ।\सावेतया
त्वप्वस जाता भक्त्वा भोगाननेकशः ।! २६ ।। मक्ता कर्मविलीना तुत्वंप्रहुकाद `
विश्चस्वः माम् ।! कार्याथं च भवानास्ते मच्छरीरपुथक्तया ।\ २७ ॥\ विधाय
सर्वकार्याणि शीध् चेव गमिष्यसि । इदं ब्रतसवश्यं ये प्रकरिष्यन्ति मानवाः
॥ २८ ।! न तेषां पुनरावृत्तिर्मत्तः कल्पहतेरपि ।! अयुत्रौ लभते पुत्रान्म्क्तक्च `
ध सुक्चसः ।। २९ दरिद्री कमते लक्ष्मीं घनदस्यच यादौ ।। तेजःकामो लभेचेजो ८.
राज्येच्छ् राज्यमुत्तमम् ।\ ३० ।\ आयुःकामो लभेदायुरयाद्दं च श्िवस्य हि!
सत्रीणां व्रतमिदं साधुपुत्रदं भाग्यदं तथा ।\ ३१ \। अवैधब्यकरं तासां पुत्रोक- `
विनाशनम् ।। धनधान्यकरं चेव जातिश्ेष्ठयकरं शुभम् ।\ ३२ । सार्वंभौमसुखं |
तासां दिव्यं सौख्यं भवेत्ततः ।। स्त्रियो वा पुरुषाइ्चापि कुवन्ति व्रतमुत्तमम्
३३ ॥ तेभ्येऽहं प्रददे सौख्यं भुक्तिमुवितिसमग्वितम् ।! बहुनोक्तेन कि
चतुभिवेकेदच न लमेन्महिमावधिम् ।। ३५ ।। प्रह्राद उवाच ।। भगवंस्त्वतप्रसादेन `
व्रतस्यास्य फलं महत् ।।३४। मदूबरतस्य फलं वक्तु नाहं शाक्तो न शंकरः ॥। ब्रह्मा `
श्रुतं ब्रतमनुत्तमम् ।। व्रतस्यास्य फलं साधु त्वयि मे भक्तिकारणम् ॥ ३६ ॥ |
स्वामिञ्जातं विशेषेण त्वत्तः पापनिकृन्तनम् ।\ अधुना श्रोतुमिच्छामि व्रतस्यास्य `
विधि परम् ।। २७ ।। कस्मिन्मासे भवेदेतत्कस्मिन्वा तिथिवासरे ।।एतद्विस्तरतो `
ब्रहि त्वं सकलं ध प मो ।॥ ३९ ।। नृसिंह उवाच ।। साधुसाधु `
` विधि परम् ।! सवं कथयतो मेऽद्य त्वमेकाग्रमनाः श्यणु
क्लपक्षे तु चतुदेदयां समाचरेत् ।। मज्जन्मसंभवं पुण्यं बरदं
कनन ;
व्रता हिन्दीटीकासदहित (६९५)
कंस्य कलो युगे ।\ ४७ ।। तथा तथा प्रणहयन्ति सवे धर्मा न संशयः \। पएतदव्रत- ५ ॥ 1
प्रभावेणे मूव्तिः स्याद्दुरात्मनाम् ।\ ४८ ।\ विचार्यत्थं प्रकतेव्यं माधवे मासि
तद्ब्रतम् ।। नियमश्च प्रकर्तव्यो दन्तधावनपुवेकम् ।४९।। श्रीरनसिह महोग्रसत्वं
दयां कृत्वा ममोपरि ।! अद्याहं ते विधास्यामि व्रतं निविष्नतां नय ।} ५० ॥\
इति नियममन्त्रः \। त्रतस्थेन न कन्तेव्या सङ्कतिः पापिभिः सह ।! भिथ्यालापो न
कतव्य: समग्रफल
येत् \\ स्मर्तव्यं च महारूपं मने सकलं शुभे ।\ ५२ ।। ततो मध्याह्लवेलायां
कक्षिणा ।। ५१ ।। स्व्रीभिरदष्टेश्च आलापान्तरतस्थो नैव कार- `
नद्यादौ विमले जले ।! गृहे वा देवखाते वा तडागे विमले शुभे ।। ५३ ।! वेदिकेन `
चमंत्रेण स्नानं कृत्वा विचक्षणः ।। मृत्तिकागोमयेनेव तथा धात्रीफलेन च । ५४
तिलेश्च स्वपापध्नैः स्नानं कृत्वा महात्मभिः ।! परिधाय शुचिर्वासो नित्यकम `
समाचरेत् ।! ५५ ।। ततो गृहं समागत्य स्मरन् मां भक्तियोगतः ।। गोमयेन प्रलि-
प्याय कुर्यादष्टदलं शुभम् ।! ५६ ।! कलशं तत्र संस्थाप्य तान्न रत्नसमन्वितम् ।॥ `
तस्थोषरि न्यसेत् पात्रं वंशजं व्रीहिपुरितम् ।। ५७ ।। हसी तत्र च मन्मूतिः स्थाप्या
लक्ष्यास्तथव च ।। पलेन वा तदधन तदर्धाधिन वा पुनः ।\ ५८ ।। यथाशक्त्याथवा |
कार्या वित्तजञाठ्यविर्वाजतेः \\ पञ्चामृतेन संस्नाप्य पूजनं तु समाचरेत् ॥ ५९ `
ततो ब्राह्मणमाहूय तमाचार्यमलोलृषम् ।\ सदाचारसमायुक्तं शान्तं दान्तं जिते- `
न्रियम् । ६० । आचा्येवचनाद्धीमान् पूजां करर्या्यथाविधि ।\ मण्डपं कारयेत्तत्र `
पूष्पस्तजकश्लोभितम् ।\ ६१ 1 ऋतुकालोडूवः पुष्पैः पुश्नयेतस्वस्थमानसः ।। =`
उपचारः, षोडशभिर्मत्रेवंदो-दुवेस्तथा ।! ६२ ।। शुभः पौराणिकंमेन्तरः पुजनीयो
यथाविधि \) चन्दनं शोतल दिव्यं चन्द्रकडकुममिधितम् ।। ददामि तव तुष्ट 111
सि
सह परमेश्वर ।\ ६२ । चन्दनम्
धूं श्रीरनूसिह जगत्पते ।। तव तुष्टचे प्रदास्यामि सर्वदेव नमोस्तु ते ॥ ६५।॥ `
वं तेजस्तस्माहीपं ददामि ते \॥। श्रीनू
८ नम् ।। कालोडूवानि पुष्पाणि तुलस्यादीनिवै `
| प्रभो । सम्यक् गृहाण देवेडा लक्ष्म्या सह नमोस्तु ते।। ६४ ।। पुष्पाणि ।। कृष्णाग्रवे . |
` (६९६) ०. ` ‹ ततसज 2 3 [ चतुदे्ली-
` स्वनैः \। पुराण श्रवणादेव श्रोतव्याह्च कथाः चुभाः ।। ७० ॥ ततः प्रभात- `
समये स्नानं कृत्वा जितेन्धियः । पूर्वोक्तेन विधानेन पुजयेन्मां प्रयत्नतः ।\ ७१ ।।
वैष्णवान्प्रजयेन्मंत्रान् भदगरे स्वस्थमानसः \\ ततो दानानि देयानि वक्ष्यमाणानि
` चानघ ।। ७२ ।। पात्रेभ्यस्त॒ द्विजेभ्यो हि लोकद्रयनिगीषया ।\ सिंहः स्वणेमयो
देयो सम सन्तोषकारकः ।। ७२ ।। गोभूतिरहिरण्यानि देयानि च फल्प्सुभिः ॥ `
कथ्या सधलिका देया सप्तधान्यसमन्विता ।\७४।। अन्यानि च यथाहक्त्या देयानि `
, मम तुष्टये ।। वित्तक्षाठ्चं न कुवीत यथोक्तफलकांक्षया \) ७५ \) ब्राह्मणान्मोजये- =. `
क्त्या तेभ्यो दद्याच्च दल्लिणाम् \\ निधेनेनापि कर्तव्यं देय शक्त्यनुसारतः
। ७६ ।। स्वेषामेव वणनिामधिकारोऽस्ति मदत्रतें \। मद्ूक्तस्तु विशेषेण कतव्य |
मत्परायणैः \\७७।। तहंशञे न भवेददुःखं न दोषो मत्प्रसादतः ।\ महेशे ये नरा जाता
ये निष्पत्तिपरायणाः ।\ ७८ ।। तान् समुदढधर देवेश इस्तराइूवसागरात् ।। पातकाणे- `
, : व्रम्नहय व्याधिदु खाम्बवासिभिः ।। ७९ ॥ जीवस्तु परिथदस्य मोहद खगतस्य
मे।। करावलम्बनं देहि लेषश्षायिञ्जगत्पते \\ ८० ।। श्रीनृसिंह रमाकान्त भक्तानां `
हारादिकं सवेमाचार्याय निवेदयेत् ।॥। दक्षिणाभिस्तु संतोष्य ब्राह्मणास्तु विस
जयेत् ।८३।। मध्याहु तु सुसंयत्तो मुञ्जीत सह् बन्धुभिः । य इद श्यणुयाद्धुक्त्या `
भयनाशन ॥। क्षीराम्बुनिधिवासिस्त्वं चक्रपाणे जनादन ।\! ८१ ।। व्रतेनानेन देवेश ` ब
॥ भु वत् मुव्िप्रतो भव ।। एवं ब्राच्य ततो देवं चिघज्यं च यथाविधि 1} ८ २॥) उप ` ५
` ब्रतं पापपणाञ्चनम् \! तस्य श्रवणमात्रेण ब्रह्महत्या व्यपोहति ।॥। ८४ ॥ पवित्रं `
परमं गुह्यं कौतयेदस्तु सानवः ।\ सर्वान् कामानवाप्नोति कतस्यास्य फलं लभेत् ।॥
इति हेम्रौ नुसिहपुराणे नूसिहचतुदेशौब्रतकथा समाप्ता ॥ `
होता है । इस कारण उसे छोडदे.
करदिया है । इस कारण पराका हौ ग्रहण होता है, पर इसमे प्रदोष व्याप्ति मुख्य है । यदि .
व्रतानि]
त (६९७)
मिलनाय तो परम प्रशंसनीय है । इन योगोके विना भौ मेरा ब्रत पापनाश्चक ह मेरे व्रते सभी व्णकि ` .
स्मेगोका अधिकार है । संयोग पृथ्क्त्व म्थायसे यह् ब्रत नित्य भी है ओर कास्य भी है क्योकि स्कन्द्पुराणमं = |
चिखाहृंजहै कि जो मेरे विनको जानकरभी उसे धता है उपवास नहीं करता वहु पपी जबतक चाद
` श्रुरज हं तबतकं नरकमें जाता है । इसं वाक्यसे नित्य प्रतीत होता है तथा यह् बरत मेरी तुष्टिको करनेवाल
है यह फएलभी सुना जारहा है क्षि, उसवर भं नूसिह प्रसन्न होजाता हं । कथा--सरतजी बोले ककि, हिरण्यकश्य
` पुको भार कोधसे शान्त होजानेपर विराजमाने हए जगदगुरु परलगति रमायति 1१1! निह भगवदानृकोः
` उनकी गोदमं अकेला बेठा ज्ञानियोका शियेमणि प्रह्लाद बोला कि ।२।। हे भगवान् विष्णो ] तुन्न नाह
` रूपीके लिये नमस्कार है । हे सुरेशा ! मे जापाका भक्त हं मेँ एक आपको हो तत्व पुता हं ।।३।। है स्वामिन् !
अपम मेरी अनेकरतरहसे अभिन्न भवित हुई है, मेँ आपका प्यारा कैसे हो गया ? है प्रभो ! इसका कारण `
कष्टिये ।\ ४1 नुसिहजी बोल किं, हे महपराजञ ! में कहता हूं तू एकाग्रसनधे शुन । जो कि, भविति ओरप्रियत्वका =.
कारण है ।\५।\ पहिले तुम॒वासुदेवनामके ब्राह्मण वेदयागामी ओर अनक्षर थे \\६।। उस जन्मपें तुमने
ओर तो कोई ब्रत नहीं किया था पर किसी वेश्याकी संगतिकौ इच्छात मेरा एकुक्त किया था 11७1 हे निष्प
प
उसी वृतके प्रभावसे तेरी मृक्लमें भक्ति हो गई, यह सुन प्रह्लाद बोला कि, है श्रीनृसिंहं ! बतादये मेरे बायका ` ध
नाम क्या है बह त्रत क्या कंसा है ? ।८।। केश्यागामोपनेमे वेह व्रत केसे किया नि्षसे जापकौकृपाका भाजन |
` बनगयां ? यह् आप मृक्षो गताइये ।\९।। न् सिंह मोखे किं पहि अवन्तीनगरीमें एक वेद वेदान्तोका जाननेवाला
` क्रियाओमे तत्पर था ।\११।। उसने अग्निष्टोम आदिकोसे सब सुरोका यजन किया था उस जैसी ही प्रसि
` उसकी यु्ील स्त्री थी ।\१२।। बहु पतित्रता सदत्वारिणी ओर पतिकी भकितमें लगी रहुनेवाखी थौ, उसमे
उसने पांच पुत्र पैदा किए । १३१ चार तो सदाचारी ओर विदान् थे पर तुम सबसे छोटे थे वेश्यागामी `
णे ।\१४।। उस वेश्याके मने करनेयरभी तुम शराब पीते थे, चोरोकं साथ तुमने बहुत सोनाचोराथा।१५॥
| वित्मसिनौके साथ तुमने बडे बडे पाप किए, एकबार उसके घरमे तुम्हारी उसकी बडी ल्डाई हु १६
सुश्म्मा नामका ब्राह्मण था ।\१०।। चह प्रतिदिन अग्निहोत्र करता यः, ब्राह्मणोकी सभी = ` ।
उसी लढाई प्रभावसे तुमने यह ब्रत किया, किया अज्ञानसे था पर मेरा वह॒ उत्तम ब्रत किया गया पुरा
॥१७। जब वह् तुम्हे रातको न मिली तौ जागरणमी किया, इस व्रते प्रभावसे तेरे समानं उसकादरूसरा
1 1 प्यारा नहीं हुभा ।१८।। उसने भौ अनेकों भोगोको छोडकर रातमे जागरण किया । इस ब्रतसे स्व्गवासौ ८ (
` देवताभी प्रसन्न होजाते हं उसकी तो चखाई ही क्या ? ।।१९॥। सृष्टिक लिए पहिले ब्रह्माने यह श्रेष्ठ्रत॒ = `
। किया इसके भ्रभावसे वहं चराचर रचसका ।\२०।)त्रिपुरके मारनेक लिए शिवने इस किया, इसके माहात्म्यसे ड प्यते
किया इसीके प्रभ
बह त्रिपुरको मारसके 1२१} हे निपणप ! ओर भी बहुतसे
^ ` र इसी त्रतके प्रभावसे वे सब सिद्धि पागये बह वेश्याभौ मेरौ प्यारी हयी तीनों लोकोमे र वपूर्वक =
विचर व रो ।२३।। इस् प्रकार यह मेरा त्रत संसारम प्रसि है यही
द अतति ज ततौ चहं सथं ननित यौ
धर्ता विलाक्षिनोने मेरे ब्रतका दिन जान |
क्षसे 4९ से मेरा श्नतकर दिया वह वेश्या तो अनकों भोगोको भोगकर अप्सरा होगयौ `
(व 1 ता ४... | कुद
` पासकता । श्रह्वाद बोला कि, हे मगवन् ! आपको छृयासे ।॥३५।। यह उत्तम ब्रत सुनलिया इसी ब्रते `
मेरौ आमे भवित हई है ।३६।। इसीसे बढी है । हे स्वामिन् ! अब सें इस व्रतकी सवं भेष्ठ विधि सुनना
चाहता हूं ।३७।। हे देव ! यह विस्तारके साथ बताइये कि, यह कौनसे मास तिथि मौर वारमं होता है
॥३८\। जिस तरह समग्र फल मिल जाय हे प्रभो ! मेरेषर कृपा करके उन सारी विधियोको बतादीनिए ध
॥ ३९1 नुरसिह बोले किं, हे महाभाग ! दुम ठीक कहते हो मेँ इस ब्रतकी एक श्रेष्ठ विधिं कहता हू तुम `
सावधान होकर सुनो ।।४०।। वैशाख शुक्ल चौदशके दिन करे । मेरे जन्मका होनेनाला व्रत सब पापोकानाक्षक `
है ॥४१॥ भावभौर मनुरष्योको परम पवित्र यह वरत प्रतिवषं करना चाहिए । इसमे मेरी तुष्टि होती है
1॥1४२।। जिसके किएसे महात्मा मनुष्योको एकं हजार हादज्ीका फल प्राप्त होता है उसे मे कहता हु ४३।१ =
स्वातौ नक्षत्र, शनिवार, सिद्ध योग, वणिज करण इनके योगमे, पुष्य सौभाग्यके योगसे दैवयोगसे मिल्ताहै।
इन सक्के योगमे कोटि हत्यामोको नष्ट करता है ।\४४-४५।। इनमेसे किसीकाभी योग होतो भौ पापनाक्षक = = `
है! केवल मी मेरे दिनम इस उत्तम व्रततको कर लेना चाहिये ।\४६।। विना किए जबतक चाँद सुरज रहते
हैं तबततक नरक जाता है “जो जो कलियुगमे पापकी प्रवृत्ति बटेगी तो तो सभी घं नष्ट होते चके जारयेगे,
इसमें सन्देह नहीं है" पर इस व्रतके प्रभावसे दुष्टोके हृदयमे भी भक्ति होजायगी ।1४७-४८।। एेसाविचारकर =
माधव मासमे तो अवश्य करना चाहिए एवं दातुन करके नियमकरना चाहिये ।। ४९ । हे निह ¦ अप
बडे उग्रे । मेरे पर कृषा कररिथे, अब मेँ आपका ब्रत करतां \ उसे निविघ्नता के साथ पुरा कराइये।\५०।॥ = `
` यह् नियमका मंत्र है ! समग्र फल चाहनेवाठे ब्रतीको पापि्योका साथ न करना चाहिये । न सूठी बतही |
बनानी चाहिये ।\५१।। स्त्री ओर दष्टोसे बाते न करनी चाहिये \ इस मेरे पवित्र दिनमें केवल मेरेही ख्यको `
द आनी. चाहिये ।।५२।। इसके पीछे सध्याह्भके समय नदी त आदिके निमंल्पानीमं गृहः
; उसपर (ब्रीहि) गेहुओका भरा बासका पात्र रख दे ।\५७।। उसपर विधिपूरवंक सोनेकी $ मृति
हमें अथवा देवखात `
््मीजौके साथ स्थापित करे । एक पल आधे वा आधेके जाधेकी ।।५८।। अपनो शक्तिके अनुसाल कृपणता `
पूजन करे ।\६२।। पलित | पौराणिकं म्रोसेभी विधिपूवेक पूजा करनी चाहिये, (
९ प्रसन्नताके लिये कुकुम मिरा हभ दिव्य शीतल चंदन देता ह, इससे चन्दन
कालके पुष्प तथा तुलसी अदिश देता हू, है देवेश ! लक्ष्मीके साथ ग्रहुणकर तेरे ल्यि
से पुष्य दे | ।\६४।। है जगतपतं । श्रीनसिह् । काले अगर मिली हुई धूप आपकी ४ क! तुष्टिके ८ (
त्रतानति } | ह॒न्दीटीकासहित कासंहिः ॑ ७ ( ९९ } च
+ 010 0 14 त 0 + ॥ + ५ ^ + । षः कन (
1 (प 4 ४ ४ 9 + 9
(८ १ : 1 व ; ९ 1 41 (449 {
वाकं क से गो भू तिल ओर सोना देना चाहिये । सप्तधान्य ओर सईके वसतरोषहित शय्या देनी चाहिये (न ५
।1७४।। शक्तिके अनुसार ओर भी चीजे देनी चाहिये । कहे हुए फलको रेनेकी इच्छा हो तो कृषणतान करनी |
ध चाहिये ।\७५।\ ब्राह्मणोको भोजन कराकर उन्हं दक्षिणा देनी चाहिये, निधन भौ व्रतत करे । पर दान क्षक्तिके ` |
अनुसार दे ।1७६।। मेरे व्रतम सभी वर्णोका अधिकार है, मेरे उन अनन्य भक्तोको जो मेरेमे लगे हए हँ । उन
यह् त्त अवश्य करना चाहिये ।}७७।। मेरी कुपासे उनके वंशम कोई दोष नहीं होगा मेरे वंशम जो मनुष्य
आगयं वे तत्त्व प्रप्तिमं लग जायं \1७८।। हे देवेशे ! अप उनका संसार सागरे उद्धारकर देना, पातके
समुद्रम इवे हए व्याधि दुखहूपी पानीके बीचमं बसनेनाले ।७९।! जीबोसे दबायेगये मोह ओर दुखको _
प्राप्त हुये मृक्े हे शेषशायिन् ! हे जगत्के स्वामिन् । अपने हथका अवलंब देदीजिपे ।१८०।। हे श्रीनृसिंह {`
हे रमाकान्त ! हे मक्तोके भयोको नष्ट करनेवाले ! हे क्षीरसागरमें ब्सनेवाके ! हे हाथमे चक्रवाके ! है
जनादन ! ।८१।। हे देवे ! इश व्रतत्ते भुक्ति जौर मक्ता देनेत्राला होना । इपप्रकार प्रा्थनक्रविधि-
पूवेक देवका विजन कर दे | ८२।! आचायंके लिये समी उपहार आदिक देदे, दक्षिग पति सन्तुष्ट करके ब्राह्मणोका _
| १ संसजन व्र देना चाहिये {1८ ३।। मध्याह्लकालम सपरत हो कर वन्ये साय भोजन करे जो भकितपरवक | | ५
पापनाशकं इस ब्रतको सुनता है तो उसकी ब्रह्महत्या इसङे सुननेतेही इर होजाती है ।८४।। जो मनुष्य `
| इस पवित्र परम गोपनीय व्रतका भवम करता है, वो सब कामो प्राप्त होजाता है, इस ब्रतका उसे फठ
भिल्नाता है । यह नुसिह पुराणम हेमाद्िकी संग्रह कौ हुई चतुर्दशौके ब्रती कथा पुरी हई
4 अथ अनन्त चतुदंशीत्रत ४
- सा परा कार्या पजनकालव्यापित्वात् । अनन्तं पुजयेचस्तु प्रातःकाले |
पुजयंदिष्णुमव्ययम् ।\ '
` समाहितः । अनन्तां लभते सिद्ध चक्रपाणे प्रसादतः ।। इति ब्रह्मपुराणात् ।।
` तदभावे पूर्वां ।\ उभयदिने सूर्योदयनग्यापित्वे पूर्णायुक्तत्वेन परव ग्राह्या \1 भद्रे
सिते चतुदेशयामनन्तं पूजयेत्सुधीः ।। ह्वासेन
सेन स्वकर्माणि प्रातरेव हि पूजनम् ॥ =
श्ुक्लापि भाद्रपदस्था अनन्ताख्या चतुदेही ।\ उदयव्यापिनी ग्राह्या घरिकेकापि
५ या भवेत् ।\ ईप हेमाद्विः \। तस्मात्परवेति सवंसंमतम् }। अथ अनन्त न्तत्रतविधि ¦ ~ ८)
्रातनेद्यादिके स्नात्वा नित्यकमं समाप्य च । अनन्तं हृदये कृत्वा शुचिस्तत्र
1 1 समाहितः \।.मण्डलं सर्वतोभद्रं करत्वा कुम्भं तु विन्यसेत् ।। तत्र चाष्टदले पद्ये `
` करत्वा दभंमयं शेषं फणासप्तकमण्डितम् । अनन्तमच्युतं `
कृष्णमनिरुद्धं तु पद्मजम् ।। दैत्यारि पुण्डरीकाक्षं गोविन्दं गरुडध्वजम् ॥। कूर्म `
: {७९९ क (का
पूजयेत् ।। श्रीमदनत्रताद्धत्वेन श्रीयमुनापूजनं करिष्ये ।। तद्यथा-लोकपालस्तुतां `
देवीमन्द्रनीलसमु-डूवाम् ।\ यमुने त्वामहं ध्यायं सर्वकामाथंसिद्धये ।! ध्यानम् ॥ `
` . सरस्वति नमस्तुभ्यं सर्वकामप्रदायिनि ।। आगच्छ देवि यमुने ब्रतसंपूतिहेतवे ।॥ `
इमं मे गङ्धे° इत्यावाह्य ।। सिहासनसमारूढे देवशक्तिसमन्विते ।! सवेलक्षणसंपुणे `
यमनाये नमोस्तु ते ।। आसनम् ।। रद्रपादे नमस्तुभ्यं सवंलोकहितप्रिये ।। सवे-
पापप्रहमनि तरद्धि्ये नमोऽस्तु ते ।। पाद्यम् ।। गरुडपादे नमस्तुभ्यं गंकरप्रियभा- `
मिनि ।। सवेकामप्रदे देवि यमुने ते नमो नमः ।! अर्घ्यम् ।! विष्णुपादोडवे देवि `
सर्वाभरणभूषिते ।। कृष्णमूतं महादेवि ङष्णावेण्य नमोनमः ।। आचमनम् ।\ सवे-
पापहरे देवि चिहवस्य प्रियदरेने ।। सौभाग्यं यमुने देहियमनाये नमोस्तु ते । सध-
पकंम् ।। नन्दिपादे महादेवि शंकरा्धशरीरिणि ।\ सवंलोकहित देवि भीमरथ्ये `
नमोस्तु ते ।। पञ्चामृतस्नानम् ।। सिहपायोत्तमे देवि नारसिहसमप्रमे ।\ सवै- `
लक्षणसंपूर्णे भवनाशिनि ते नमः ।। शुद्धोदकस्नानम् ।
विष्णपादान्नसंभूते गङ्धे `
च्रिपथगामिनि । सर्वपापहरे देवि भागीरथ्य नमोस्तु ते ।। इवेतवस्त्रम् ।। च्यंब- =.
प° ॥। हरायै नामि प° ।। मन्मथ- स ५
- ` अ्रतोनि 4: दिन्दीटीकासहित = (७०१)
(65 9.40 [4 क "1 9 2 ५४ क, मदत १3. ४ वरणः
11 प 21
दीपकं देवि सर्वेहव्यप्रदायिनि ।। दीपम् ।। शकंरामधसंय॒क्तं दधिक्षीराज्यसंयु-
तम् ।। पक्वमन्नं मया दत्तं नेवं प्रतिगृह्यताम् ।। नैवेद्यम् ॥ पानीयं पावनं श्रेष्टं `
गङ्खादिसारद्द्धवम् ।। हस्तप्रक्षालनं देवि गृहाण मुखशोधनम् ।! हस्तप्रक्षाल- =
नम् ।। म्खप्रक्षालनम् ।। कपूरेण समायुक्तं यमुने चार चन्दनम् ।! स्मपितं मथा `
तुभ्यं करोदतनक कुरू ।। करोद्रतेनाथं चन्दनम् ।! इदं फलमिति फलम् ।। पुगीफल-
मिति ताम्बूलम् \। हिरण्यगर्भेति दक्षिणाम् ॥। त्रेलोक्यपावने गङ्धे अन्धकारविना- `
शिनि \\ पञ्चातिक्यं गृहाणेनदं विहवप्रीत्ये नमोस्तु ते ।। आतिक्यम् ।। केतकीजाति-
कूसुमेमेल्लिकामालतीभवेः ।! पुष्पाञ्जलिर्मया सत्तस्तव प्रीत्ये नमोस्तुते ।॥
` पुष्पाञ्जलिम् ।। यानि कानिचेति प्रदक्षिणाम् ।। अन्यथा क्रणं नास्तीति नम-
` स्कारम् ।\ सुरासुरेन््रादिकिरीटमौक्तिकं्युक्तं सदा यत्तव पादपंकजम् ।। परावरं `
पातु वरं सुमङ्कलं नमामि भक्त्या तव कामसिद्धये ।। भवानि च महालक्ष्मि स्वं- `
कामप्रवायिनि ।। व्रतं संपुणेतां यातु यसुनाये नमोऽस्तु ते ।! इति प्राथना।। इति
यमुनापुजा समाप्ता ।। यसुनाकलञ्ोपरि पूर्णपात्रं निधायस्योपरि सप्तफणा- `
युक्तं शेषं संस्थाप्य पुजयेत् ।॥ अथ ध्यानम्-ब्रह्याण्डाधारभूतं च यसुनान्तर- `
वासिनम् ।। फणासप्तसमायुक्तं ध्यायेऽनन्तं हरिग्रियम् ।। ध्यायामि ॥। शेषं सप्त- `
फणायुक्तं कालयपन्नगनायकम् ।। अनन्तशयनारथं त्वां भक्त्या ह्याबाहयाम्यहम् ।॥ `
` आवाहनम् ।\ नवनागकुलाधीडश शेषोद्धारक काश्यप ।। नानारतनसमायुक्तमासनं `
प्रतिगृह्यताम् ।\ आसनम् ।\ अनन्तप्रिय लेषे जगदाधारविग्रह ।। पाद्यं गृहाण
` भक्त्या त्वं काद्रवेय नमोऽस्तु ते ।। पाद्यम् ।। कश्यपानन्दजनक मुनिवन्दिति भो
प्रभो ।। अघ्यं गृहाण सर्वज्ञ सादरं शंकरप्रिय ।। अघ्यंम् ।! सहस्रफण सरूपेण वसु- `
` घोद्धारक प्रभो । गृहाणाचमनं देव पावनं च सुशीतलम् ।। आचमनम् । कुमार- `
रूपिणे तुभ्यं दधिमध्वाज्यसंयुतम् ।। सधुपकं प्रदास्यामि सपेराज त ्स्तुते।॥ `
(७०२) ॥ि ब्रतराजःः `. ` -[ चतुदश
गम्भीरनाभाय न० नाभि पूज० ।\ पवनाक्ञनाय० उदरं प० । उरगाय० हस्तौ `
प° । कालियाय० भुजौ एजयामि ।। कम्बुकण्ठाय न° कण्ठं पूजयामि ।। विषः
वक्राय न० वक्ख पूजयामि \ फणाभूषणाय० ललाटं पु० ॥} लक्ष्मणाय० किरः `
पूजयामि ।! अनन्तप्रियाय० सर्वाद्धं पूजयामि ।। इत्यङ्धपुजा ।। वनस्पति
11 साज्यं ।\ साज्यं च बति० ।! दीपम् \। नैवेद्य ग ० नेवेद्यम् ।! मध्ये पानी-
यम् ।\ करोदतेना्थे चन्दनम् ।। पूगीफलं ० ताम्बूलम् ।! इदं फलमति एलम् ।! `
हिरण्यगर्भेति दक्षिणाम् \) भ्ियेजात इति नीराज ० ॥! नानाकुसुमसंयुक्तंपष्पाज्ज- `
चिमिमं प्रभो ।। क्यपानन्दजनक सर्पे प्रतिगृह्यताम् ।! मन्त्रपुष्पम् ।। यानि `
भ्रदक्षिणाम् ।\ नमोऽस्त्वनन्ताय ० ।\ नमस्कारान् ।\ अनन्तकल्पोक्तफलं देहि मे `
त्वं महीधर ॥। त्वंपुनारहित्चाद़ं फलं प्राप्नोति मानवः ।, प्रार्थनाम् । इति `
शशेषपूजा ।। प्राग्ारे ।। दारभ्य ° नन्दाय ० सुनन्दायै धाच्ये चिघधाच्ये न° चिच्छ- `
क्त्ये० शंखनिधये न० ।! पद्मनिधये ।\ दक्षिणहारे ।! हारभिये० चंडायै° प्रचंडाये° `
५ ५ धाच्यै न° चिच्छक्त्ये° मायाशक्त्ये ° शंखनिधये ।। पद्मनिधये नमः पर्िम-
निधये० \। अथ पौठपुजा-मध्ये वास्तुपुरुषाय न० मण्ड्काय० कालाग्निर्राय न० `
जाधारशक्त्यं न° कूर्माय न° पुथिव्यं० अमृताणवाय० शइवेतद्रीपाय° कल्पवृक्षे-
र्थाय० अनेहवययि० स हस्रफणान्वितायानन्ताय ° सवंसतत्वाय०
धर्माय० अधर्माय ० ज्ञानाय ० वैराग्याय ० ध
रतानि ] = हिन्दीटीकासहित (७०३)
सिद्धयथं पञ्चदरप्रणवावृत्तीः करिष्ये ।। ॐ ॐ ।। १५ ।। रक्ताम्भोधिस्थपो० ` ` ॥
परा नः ।। अथानन्तपजा-ततस्तु मूलमन्त्रेण नमस
ध॒ जनातनम् ।। नवासन
` पल्ल्वाभासं पिङ्कल्दमभरुलोचनम् । पीताम्बरधरं देवं शंखचक्रगदाधरम् ॥ `
अलकृत् समुद्रस्थं विहवरूपं विचिन्तये ।। ध्यायाभि।।आगन्छानन्त देवेल तेजो
राच्ये जगत्पते ।। इमां मया कृतां पुजा गृहाण पुरषोत्तम ।। सहसरह्लौषत्यावाहुनम्
नानारत्नसमायुक्तं कार्तंस्वरविभूषितम् ।। आसनं देवदेवेश गृहाण पुरुषोत्तम ।॥ `
पुरुषएवेदमित्यासनम् ।। गङ्धादिसवे तीर्थेभ्यो मया प्रार्थनयाहृतम् ।। तोयमेत- `
त्सुखस्पशं पाद्याथ प्रतिगृह्यताम् ।। एतावानस्येति पाद्यम् ।। अनन्तानन्त देवेश
अनन्तफलदायक ।! अनन्तानन्तरूपोऽसि गृहाणाध्यं नमोऽस्तु ते ।। च्रिपा
त्यध्यंम् ।। गङ्खोदकं समानीतं सुवणंकलदो स्थितम् 1! आचम्यतां हषौकेश प्रसीद
पुरुषोत्तम ।! तस्माद्िरारेत्याचसनीयम् ।। अनन्तगृणरूपाय विदवरूपधराय च! `
` नमो महात्मदेवाय अनन्ताय नमोनमः ॥ यत्पुरुषेणेति स्नानम् ।। ततः पञ्चामृत- `
स्नानम् ।। सुरभेस्तु समुत्पन्नं देवानामपि दुलभम् ।\ पयो ददामि देवश्च स
भ्रतिगृह्यताम् । आप्यायस्वेति पयः स्नानम् ।। चनद्रमण्डलसंकादां सवेदेवप्रियं
हि यत् ।। ददामि दधि देवेश स्नानार्थं प्रति गृह्यताम् ।\ दधिकान्णो अकारिषम् । `
इति दधिस्नानम् ।। आज्यं सुराणामाहार आज्यं यज्ञ प्रतिष्ठितम् ।। आज्यं पवित्र
परमं स्नानार्थ० ।। घतं मिमिक्षे इति घतस्नानम् ।। सर्वोषधिसमत्पन्नं पीयुष-
सदशं मधु ।। स्नानाय ते मया दत्तं गृहाण परमेद्वर ॥ मधुवातेति मधु° ॥\ इक्षु |
दण्डात्समुद्ध.तां शकरां मधुरां शुभाम् ।। स्नानाय ते मया वत्तं गृहाण परमेद्वर । |
` स्वादुः पवस्वेति शकरास्नानम् ।। शुद्धोदकस्नानं
तिन
वकः तप्तकाञ्चनवर्णाभं कौदोयं च सुनिमितम् ।। वस्त्रं गृहाण देवे लक्ष्मी- |
ोदकस्नानं नाममन्त्रः ।। पुरुषसुक्तेन अभि-
"(७9४1 | ` त्रैतरयाज चतूदकश्ा-
8 प ४ स 1 { नः ` ` ` त
श्रीरामायण हदयं पू० । कृष्णाय ० मुखं पु° ¦! सहस्रशिरसे न° शिरः पू० 1\
श्रीमदनन्ताय० सर्वाद्धः प° \! अथावरणधुजा-अनन्तस्य दक्षिणपार्वं रमाय० ।। ` „
वामपाइवे भूम्यै ० ।\ इति प्रथमावरणम् ।। आवरणदेवतामाबाह्य हस्तं प्रक्षाल्य
गन्धपुष्पं तजंनीमध्यमाङ्ष्ठेध त्वा मध्ये शंखोदकं गृहीत्वा मन्वान्ते शंखोदकं `
भमो निक्लिप्य पुष्पं देवोपरि क्षिपेत् ।\ दयान्धे त्राहि संसारसर्पान्मां शरणागतम् ।\
भक्त्या समपेये तुभ्यं प्रथमावरणाचनम् ।\ इति मन्त्रमुच्चायं जलं त्यक्त्वा पुष्पं
देवोपरि न्यसेदिति ।॥। १ ।। पूर्वादिक्रमेण ।। क्ुदधोल्काय० महोल्काय० शतो- `
ल्काय० सहस्स्रोल्काय० दयाब्धे त्राहि ।\ इति द्वितीयावरणा्चनम् ।\ २।॥ |
` त्तथैव वासुदेवाय० संकर्षणाय ° प्रद्यम्नाय० अनिरुद्धाय ० दयाब्धे ्राहि० तृतीया-
बरणाचेनम् ।\ ३ ।। प्राच्यादिक्रमेण ।। केशवाय० नारायणाथ० माधवाय० `
गोविन्दाय० विष्णवे० मधुसूदनाय० चरिविक्रमाय० वामनाय० श्चीधराय० हृषौ- `
` को व कंश्ञाय० पद्मनाभाय ० दामोदराय० ।\ दयान्घे त्राहि ° ठतुर्थावरणाचेनम् ।। ४ ।
^ द दयान्धे ्ाहि° षष्ठं ह्यावरणाचेनम् ।। ६ ।। पूर्वादिक्मेण इनद्राय० अग्नये° `
. . श्ग्र निदऋतये° वरुणाय ° वायवे सोमाय० ईशानाय० ।! व्यान्धे ्रा०
5 र | ७ ।\ आग्नेय्यां शेषाय ० नैऋत्यां विष्णवे° वायव्यां विधये `
पतयं° दयान्धे त्राहि° अष्टमावरणाचनम् ।! ८ ।! आग्नेय्यां
१ कण `.
मातुम्य क ° चायव्यां दुर्गाय° ईदान्यां क्षेत्राधिपतये० ।1 ५ ॥।
चनम् ।॥ १३ ।। केशवादिचतुविशतिनामभिः संसज्य । वयान्धे जाहि० चतु. `
का म १८.11 मच: पनपुक्ा-हृष्णरयरः पलालपन्रःससपयगमिः
४ ब्रतान } ० ८ ध हिन्दीदीकासहित १
॥ विष्णवेऽ ओदम्बरप० । हस्य० अहवत्थप० । चम्भवे० भूद्खराजप० । ब्ह्णे० |
` जटाधारप० । भास्कराय ० अशोकप० । कोषाय० कपित्थप० । सर्वव्यापिने° वट- `
पत्रम् । ईदवराय आस्रप० । विहवरूपिणे० कदलीप० । महाकायाय० अपामागंप० =
सुष्टिकत्रे० करवीरप० । स्थितिकत्रं° पुच्चागप० । अनन्ताय नागवल्लीप० `
` ॥ १४।। अथ पुष्पापुजा-ॐ अनन्ताय ० पदयपुष्पं समपेयामि । विष्णवे जातीपुर
कशवाय० चम्पकपु° । अलत्यक्ताय० कहूुमलारपु० । सहसलरनिते० केतकीपु० । |
` अनन्तरूपिणे० बकुलपु° । इष्टाय ० हतपु० । विष्ठिष्टाय० पुत्रागपुष्पं० । शिष्टे- ` `
ष्टाय० करवीरपु° । शिखंडिने ° धत्तूरपु० । नहुषाय ७ कुन्दपु° । विष्वबाहुबे°
मल्लिकापु० । महीधराय० माल्तीपु° । अच्युताय० । गिरिर्काणकापु० । १४॥
` अथाष्टोत्तरज्ञतनामाभिः पूजयेत्. ।! अनन्तायनमः । अच्युताय० अद्भुतकमंणे `
` न° । अमितविक्रमाय० अपरानिताय० अखण्डाय° अग्निनेत्राय° अग्निवपुपे०
` अदृश्याय ० अत्निपुत्राय० ।\.१० ।! अनुकूलाय० अनशिने° अनघाय० अप्सुनि- `
` छयाय० अहरहाय० अष्टमूतेये० अनिरुदधाय० अनिधिष्टाय० अचञ्चलाय ०
` अन्दादिकाय० ।! २० ।। जचलरूपाय० अखिल्धराय० अब्यक्ताय० अनुरूयाय० `
` अभयंकराय० अक्षताय० अवपुषे० अयोनिजम्थ० अरविन्दाक्षाय० अल्ननवजि- `
` ताय । ३० ।। अधोक्षजाय अदितिपुत्राय० अम्बिकापतिपुवेजाय० अपस्मार- |
नारिने° अन्यायाय अनादिने न° अप्रमेयाय ० अघात्रवे० अमरारिघ्नाय० अनौ- `
` इवराय० ।\ ४० ।! अजाय० अघोराय ० अनादिनिधनाय० अमरप्रभवे० अग्राह्याय० ` 4
अक्ररौय० अनुत्तमाय० अरूपाय ० अहे न° अमोधादिपतये० ।\५०।।! अजाय० ०। 1
अक्षमाय० अमृताय ० अघोरवीर्याय० अव्यङ्गाय० _अविष्नाय० मतौष्ियाय० =
(९९ ~ क [चतुष्क ^^
योनये० \। १०० ।\ अवनीपतये० अवनीधराय० अनादिने ° आदित्याय०
अमृताय ° अपवगेप्रदाय ° अव्यक्ताय ० अनन्ताय ० ।। १०८ ।! इत्यष्टोत्तररतनाम- `
परजा ॥ दशाङ्धः गुग्गुलृद्भूते चन्दनागुरुसंयुतम् ।\ स्वेषासृत्तमं धूपं गृहाण सुर- `
भो € प
पूजित ।) यत्पुरुषंव्यदधुरिति धूपम् \ साज्यं च ब्तिसंयुवतं वहिना योजितं मया ॥ ` `
` दीपं गृहाण देवेश त्रैलोक्यतिमिरापह ।\ ब्राह्मणोऽस्येति दीपम् ।! अत्र चर्तुविधं 1
स्वादु पयोदधिघृतेर्युतम् ।\ नानाव्यञ्जनशोभाठचं नैवेचं प्रतिगु ० ।। चनद्रमामन०
नेवेद्यम् । नेवेद्यमध्ये पानीयम् ।\ उत्तरापोशनार्थं ते ददि तोयं सुवासितम् ।\
गृहाण सुमुखो भत्वा अनन्ताय नमोनमः 1! उत्तरापोकनम् ।! मुखभ्र० हस्तप्र° `
करोदरत्तनकं देव मया दत्तं हि भक्तितः ।! चारचन््रप्रभं दिव्यं गृहाण जगदीहवर \\! `
करोद्र्तनम् ।। इदं फलमिति फलम् ।। पूगीफलं महदिव्यं ।। ताम्बूलम् ।। हिरण्य- _ `
गर्भेति दक्षिणां ० यानि कानीति० ।।! नाभ्याञसी° प्रदक्षिणां ० ।। नमस्ते भग-
बन्भूयो नमस्ते धरणीधर । नमस्ते सर्वेनागेन्द्र नमस्ते मधुसूदन ।। सप्तास्येति `
। 9,
नमस्कारम् ।। नमस्ते देवदेवेश नमस्ते गरुडध्वज ।\ नमस्ते कमलाकान्त अनन्ताय `
सहरि सहि शिरसे नमः ।। नमोऽस्तु पद्मनाभाय नागानां पतये नमः ।। अनन्तः कामदः
कामानन्तो मे प्रयच्छतु 1} अनन्तो दोररूपेण पुत्रपौचरान्प्रवधतु ।\ इति प्राथ्यं
दोरकं गृहीत्वा \\ अथ दोरकबन्धनमन्त्रः-अनन्त संसारमहासमुद्रमग्नं समभ्युद्धर
वायुदेव ।। अनन्तरू्पे विनिथोजस्व ह्यनन्तसूत्राय नमो नमस्ते ।। इति बध्नीयात् `
अथ जीणंदोरकविसर्ज॑नमन्त्रः-नमः सर्वहितार्थाय जगदानन्दकारक ।। जीर्णदोर- `
ममुं देव विसूजेऽहं त्वदाज्ञया । इति विसृजेत् !। अथ वायनमन्त्रः-गृहाणेदं द्विज-
` श्रेष्ठ वायन दक्षिणायुतम् ।! त्वत्प्रसादा दहदेव मुच्ययं कमबन्धनात् \। प्रत्गिह्
जश्रेष्ठ अनन्तफल्दायक । पक्वान्नफलसयुक्तं दक्षिणाघूतसयुतम् ।। वायन `
वरतानि... हिन्ीरीकपििति . -.. : (७०
धन इति स्यातः समागच्छन्मखालयम् ।! ४ ।! दृष्ट्वा दुर्योधनस्तत्र प्राङ्णं `
जलसन्निभम् \\ ऊध्वं कृत्वा तु वस्त्राणि तत्रागच्छच्छनैः शनः ।} ५ ।\ स्मित
` व॑क्राञ्च तं दृष्ट्वा द्रौपद्यादिवराद्धनाः ।। दुर्योधनस्ततोगच्छञ्जलमध्ये पपात
ह ।\६।। पुनः सर्वे नुपाहचेव ऋषयदच तपोधनाः! उपहासं च चक्रस्ता द्रौपद्यादि- `
सुलोचना महाराजाधिराजोऽसौ सहाक्रोधपरायणः । विनिर्गतः स्वकं
मातुलन वृतो नृपः ।\ < ॥। तस्मिन्काल तु शकुनि प्रोवाच भधर वचः 4
मुञ्च राजन्महारोषं पुरतः काथं गौरवात् ।\ ९ ।! दयूतोपक्रमणेनेव स्वं राज्य-
` मवाप्स्यसि ।। गन्तुमुत्तिष्ठ राजेन सत्रस्य सदनं प्रति ।! १० ॥! तथेत्युक्त्वा
महाराजः समागच्छन्मखाल्यम् ।} विनिवृत्य मखं जग्मुनपाः स्वे स्वकं पुरम् ` `
॥ ११॥ ततो दुर्योधनो राजा समागत्य गजाह्वयम् ।\ आनीय पाण्डपुत्राश्च
दयतेनैव जिताः स्वे पाण्डवा वीतकल्मषाः ।\! १३ ।। ततोऽरण्यान्तरे गत्वा बतेन्ते `
ध्मभीमाजुनान्वरान् ।\ १२ ॥ दयूतारम्भं चाकुरुत स्वराज्यं प्राप्तास्ततः ॥ `
` वनचारिणः ।। ततो वृत्तान्तमाकण्यं भात॒भिः सह पाण्डवम् ।। १४ ॥ युधिष्ठिरं
द्रष्टुमनाः कृष्णोऽगाज्जगदीक्वरः \। सूत उवाच ।! अरण्ये वर्तमानास्ते पाण्डवा `
` दुःखकरशिताः ।। १५।। कृष्णं दृष्ट्वा महात्मानं प्रणिपत्य तमब्रवन् ।। युधिष्ठिर
उवाच ।। जह् दुःखीह सञ्जातो म्रातुभिः परिवारितः ।\ १६ 1! कथं मुक्तिवंदा-
स्माकमनन्ताद्दुःदसागरात् ।\ कं देवं पूजयिष्यामि राज्यं प्राप्स्याम्यनुत्तमम् = `
॥ १७ ।। अथवा कि ब्रतं कुथा त्वस्प्रसादपदुवेदधितम् ।। श्रीकृष्ण उवाच ।। अनन्त- =
व्रतमस्त्येकं सवेपापहरं गभम् ।१८।। सवेकामप्रदं नणां स्त्रीणां चेव युधिष्ठिर ।॥
शुक्लप ३ तरपक्षे चतुदंश्यां मासि भाद्रपदे भवेत् ।\ १९ ।। तस्यानृष्ठानमात्रेण सर्वं पापं न
म ऽनन्तसंज्ञो वे तथ्यं मे बरूहि केशव ॥ कख ४.
ह ¶ इत्यहं पा व मम च = निबोध तत् ।। २२। आदित्यादिग्रहात्मासौ 9
(७०) वत (नः [च्तुवंक्षी-
` इवरम् ।! विश्वरूपं महाकष्टं सुल्टिस
हारकारकम् ।। २७ ॥। प्रत्ययार्थं मया रूपं
फ़ाल्गुनाय प्रदशितम् ।। पूर्वमेव महाबाहो योगिष्येयमनृत्तमम् ॥ २८ ॥ विष्व `
` रूपमनन्तं च य
॥1 २९)
म ।। वसवो हादशादित्या रद्रा एकादश स्मृत
वष्छष्ः
समुदरादच पवेताः सरितो दरुमाः ॥ नक्षत्राणि दिको भूमिः `
पातालं भूभुवादिकम् ।॥ ३० ।॥ मा कुरुष्वात्र सन्देहं स्नेहं पाथं न सहयः ॥
` युधिष्ठिर उवाच ।! अनन्तव्रतमाहात्म्यं विधि वद विदां वर ।\३१। किपृुण्यं
कि फलं चास्य कि दानं कस्य पूजनम् !\ केन चादौ पुरा चीणं मत्यं केन प्रकाशितम् `
॥३२॥ एवं सविस्तरं सर्वं# बरह्यनन्तव्रतं मम ।। कृष्ण उवाच ।। आसीत्पुरा
` सुमन्तुरनाम वे द्विजः ।। ३३ ।। वसिष्ठगोत्रसंभूतः सुरूपां स भृगोः सुताम् ॥\ दीक्षा- ` 1
नाम्नीं चोपयेमे वेदोक्तविधिना नृप ।। ३४।। तस्याःकालेन सञ्जाता दृहितानन्त-
लक्षणा ।। शीलानाम्नी सुशीला सा वधते पितुवेदमनि ।! ३५ ॥! माताचतस्या
कालेन ज्वरदाहेन पीडिता ।\ विनष्टा सा नदीतीरे ययो स्वगं पतिव्रता ।। सुमन्तुस्तु
क शङ्धुपद्येहच अचेयन्ती त पुन
ततोऽन्यां वै धरमपुंसः सुतां पुनः \\ ३९ \1 उपयेमे विधानेन ककंशां नाम नामतः `
॥ ततः काले बहुगते कौमारवदावतिनी ।\४०।। एवं सा वधते शीला पितृवे- `
श्मनि मङ्गला ।। पित्रा दृष्टा तदा तेन स्तरीचिज्ञा यौवने स्थिता ।\ ४१ ॥ तां
` जतन 4. ` .: : 161८1 1 । हष व ७०५.
शायां समर पुत्तीयं सरित्तटे ।! ददशं शीला सा स्त्रीणां समूहं रक्तवाससाम् ।\ ५२
। व ॥ संस्थाप्यावश्यकं कतु गतः शिष्याननियुज्य वै \। ५१ ।। मध्याह्वं भोज्यवे- `
चतुदश्यामचयन्तं भक्त्या देवं जनादेनम् ।। उपगम्य शनः शीला पप्रच्छ स्त्रीकद- |
भ्यकम् ।। ५३ आर्याः किमेतन्मे ब्रूत किनाम व्रतमीदक्षम् ।! ता अचर्योषितस्तां `
तु ज्ञीलां शौलविभूषणाम् ।\ ५४ ।! अनन्तव्रतमेताद्धित्रतेऽनन्तस्तु पुज्यते ।। साऽ-
पूज्य ते ।। स्त्रिथऊचुः ।! शीले सदन्नप्रस्थस्य पुन्नाम्ना संस्कृतस्य च ।। ५६
त्करिष्ये व्रतमत्तमम् ।। ५५ ।। विधानं कीदशं तत्र कि दानं कोऽत्र 4
4 अर्थं विप्राय दातव्यमधेमात्मनि भोजनम् ।। शक्त्या च दक्षिणां दद्याद्वित्तन्ाठच्च-
, विर्वाजितः ।। ५७ ।। कतेव्यं च सरित्तीरं सदानन्तस्य पूजनम् ।। शेषं कुशमयं `
कृत्वा वंहापात्रे निधाय च ।! ५८ ।। स्नात्वानन्तं समम्यच्यं मण्डले दीपगन्धकंः | `
-शुदोरकम् ।। चतुदंशग्रन्थियुतं गन्धाद्यरचयच्छभः ।। ६० ।। ततस्तु दक्षिणे पुंसां १
` स्त्रीणां वामे करे न्यसेत् ।। ६१।। अनन्त संसारमहासमुदरमग्नं समभ्युद्धर वासुदेव ! ।
४ ञ्ज ५ अनन्त्य व्वनिस्नेडयस्वं ह्यनन्तसुत्राय नमो नमस्ते ।, ६२।} अनन दोरक बद्ध्वा ।
कथां श्रत्वा हरेरिमाम् ।! ध्वात्वा नारायणं देवमनन्तं विषवरूपिणम् ।। ६३ ।\
भुक्त्वा चान्ते ब्रजदरेदम भद्रे प्रोक्तं व्रतं तव ।। कृष्ण उवाच ।। एवमाकण्यं राजेनद्र | ¢
यमर्थं विप्राय दत्वा भुक्त्वा स्वयं ततः ।। ६५ । पुनजंगाम संहृष्टा गोरथेन
` स्वकं गृहम् ।\ भर्व सहैव शनकंः प्रत्ययस्ततक्षणादभूत् ।। ६६ ।। तेनानन्तत्रतेना
तव्रतेनास्य `
बभौ गोधनसंकुलम् ।। गहाश्चमं भिया जुष्टं धनधान्यसमन्वितम् ।। ६७ । आकुलं `
कुल लं र रम्यं सर्वंदातिथिपुजनः ।। सापि माणिक्यकाञ्चीभिमुक्ताहारविभूषिता `
देवाद्भनेव सम्पन्ना सावित्रौप्रतिमाभवत् ।\ (विचचार
चार गृहे भतुः समौपे `
.. ९. ४ ~ क 2 - | . ,... {~ ०.८.
साक्षें च्रोटितस्तदा ।\ कोऽनन्त इति मूढेन जल्पता पापकारिणा ।! ७३ । क्षिप्तो ,
ज्वालाकूले बह्नौ हाहाकृत्वा प्रधावती ।। ्ीला गृहीत्वा तत्सत्रं क्षीरमध्ये समा- `
क्षिपत् ।\ ७४ ।। तेन कर्मविपाकेन सा भीस्तस्य क्षयं गता ।! गोधनं तस्कर्नीतं `
गृहं दग्धं धनं गतम् !। ७५ ।। यथ्थेवागतं गेहे तत्तथेवं पुनर्गतम् ।\ स्वजनः कलहो
नित्यं बन्धुभिस्ताडनं तथा ।\ ७६ ।। अनन्ताक्षेपदोषेण दारिद्र पतितं गृहे 1
न कर्ठिचद्रदते लोकस्तेन सार्थं युधिष्ठिर ।। शरीरेणातिसन्तप्तौ
` मनसाप्यतिदुःखितः । निर्वेदं परमं प्राप्तः कौण्डिन्यः प्राह तां भरियाम् ॥ ७८।॥ `
कौण्डिन्य उवाच ।। शीले ममेदमुत्पन्नं सहसा शोककारणम् ।! येनातिदुःखमस्माकं
जातः सवं धनक्षयः ।। ७९ ।। स्वजनैः कलहो गेहे न कश्चिन्मां प्रभाषते । शरीरे `
नित्यसन्तापः खेदक्चेतसि दारुणः ।। ८० ।। जानासि दुर्नयः कोऽ कि कृत्वा
सुकृतं भवेत् ।। परत्युवाचाथ तं लीला सुक्ीला शीलसण्डना ।। ८१।। क्नीलोवा
| च्च ५ 1 ८.
प्रायोऽनन्तच्रताक्षेपपापसंभवजं फलम् ।) भविष्यति महाभागतद्थं यत्नमाचर `
॥ ८२ ।। एवमुक्तः स विर्प्रषिजेगाम मनसा हरिम् ।। निरवेदान्निजगामाथ कौण्डिन्यः
स स्य ममातीव दृखं चेतसि वतैते ।\ सोऽब्रवी इद्र नानन्तः क्वचिद्द्ष्टो न्या.
द्विज । ८८ ।! एवं निराकृतस्तेन स जगामाथ दुःखितः ।। क्व द्रकष्यामीति गच्छन् = `
सं गामपरयः त्सकाम् ।\ ८९ ।। वनमध्यं प्रधावन्तीमितःचेतश्च पाण्डव ।! ५ ५
५ र वेद्म्यहं द्विज ।। ततो व्रजन्ददग्र वृषभं शार स्थितम् । ९१६) ! द्ष्ट्वा प्रच्छ
गोस्वामिन्ननन्तो बीक्षितस्त्वया ।। वृषभस्तमृवाचेदं नानन्तो वीक्षितो य .
।९२। ततो व्रजन् ददश्शम रस्यं पुष्करिणीद्रयम् ।\ अन्योन्यः नल कल्लोलर्वोचि
क, "लक वतत्ः- , "५4.९1.
सरम् ।। पापोऽहं पापकर्माहुं पापात्मा पापसम्भवः ।॥ ५ ॥। त्राहि मां पुण्डरीकाक्ष `
पृच्छक्नष्टाश्ञस्तत्रैव निषसाद ह ।। कौण्डिन्यो विह्वलीभूतो निराशो जीविते नप `
1३९७ ॥। दीर्घमुष्णं च निःश्वस्य पपाते भुवि भारत ॥। प्राप्य सं्ञामनन्तेति जल्पन्च- =
त्थाय स दिजः ।। ९८ ॥। नूनं त्यक्ष्याम्यहं प्राणानिति संकल्प्य चेतसि ।\
यावदुद्रन्धनं वक्षे चक्रे तावद्युधिष्ठिर ।। ९९ ।! कृषयानन्तदेवोऽस्य प्रत्यक्षं सम~ |
. जायत ।। वृद्धब्राह्यणरूपेण इत एहीत्युवाच तम् ।। १०० ॥। प्रगृह्य दक्षिणे पाणौ |
गहायां प्रविवेश तम् ।! स्वां पुरीं दशेयामास दिन्यनारीनरयुताम् ।॥ १। `
तस्यां - निविष्टमात्मानं दिर्व्यासहासने शुभे । पाशवेस्थंखचक्राग्जगदागरुड- `
ज्ञोभितम् ।! २) दक्ेयामास विप्राय विक्वरूपमनन्तकम् ।। विभूतिभेदेश्चानन्ते
राजन्तममितौजसम् । ३ ।। कौस्तुभेन बनिराजन्तं वनमालाविभूषितम् ।॥ तं
दष्ट्वा देवदेवेशमनन्तमपराजितम् ।।! ४ ।! $वन्दमानोजगादोच्चर्जयश्षब्दपुरः ` |
सवपापहरो भव । अद्य मे सफलं जन्म जीवितं च सुजीवितम् ।। ६ ।। यत्तवाड- ` ५
शद्यव्जयुगले मन्मूर्धा भ्रमरायते ।! तच्छरत्वानन्तदेवेशः प्राह सुस्निग्धया शिरा = `
॥७॥। माभैस्त्वं बरूहि विग्र यत्ते मनसि वतेते \। कौण्डिन्य उवाच माया- `
(1 ॥ । भत्यवलिप्तेन नोरितोऽनन्तरोरकः ।। ८ \\ तेन पापविपाकेन भूतिस प्रलयं गता ।! 6
स्वजनैः कलहो गेहे न करचिनमां प्रभाषते \। ९ 1 निवेदाद्गमितोऽरण्ये तव दक्ञेन- `
काङ्क्षया । कृपया देवदेवेश त्वयात्मा सप्रदशितः । ११० ।। तस्य पापस्यमे
ˆ मेः हास्ति कारुण्याहक्तुमहंसि ।। श्रोकृष्ण उवाच ।} तच्छरत्वानन्तदेवेक्ञ उवाच ` ५ |
द्िजसत्तमम् ।। ११ । भक्त्या सन्तो?ि
` -उवाच ।। स्वगृहं गच्छ कौण्डिन्य मा विलम्बं
भक्त्या नव वर्षाणि पञ्च च \) सवेपापविद्युद्धात्मा प्राप्स्यसे सिद्धिमुत्तमाम्
षितो देवः कि न ददाद्युधिष्ठिर । अनन्त `
कुरु द्विज ।\ १२ ॥ चरानन्तव्रतं
॥१३\) पुत्रपौ्रान्समुत्पाद्य भुक्त्वा भोगान् यथेप्सितान् ।\ अन्ते मत्स्मरणं रो प्राप्य `
मामुपेष्यस्यसंशयम्, ।। १४।। जन्यं च ते वरं दश्च सरवलोकोपका पा रक
५
( = | ५ ं न ५ | गि । | | ॑ तम् । ॥ । । १ ६ : । । गच्छ | ते | | | | | |
(१ ब्रत [व्ण
, कोऽसौ वृद्धो द्विजोत्तमः \। अनन्त उवाच \! स चूतवृक्लो विप्रोऽसौ विद्यावेदविशारद :
॥ १२०।। विदा न दत्ता शिष्येभ्यस्तेनासौ तस्तां गतः ।! या गौवेसुन्धरा दृष्टा
ध ५ पूर्व सा बीजहारिणी ।। २१ । वृषो धर्मस्त्वया दृष्टः शाद्रले यः समास्थितः ॥ `
# इधर्माधमेव्यवस्यानंतच्च पुष्करिणीढयम्ः ।\२२।। ब्राह्मण्यो कचिदप्यास्तां भभि- ` <
स्थौ ते परस्यरम् \ धर्माधर्मादि यत्किञ््चित्ते निवेदयतो मिथः \\ २३ ॥ विप्राय `
न क्वचिहत्तमतिथौ दुबेलेऽपि वा । भिक्षा दत्ता न चाधिभ्यस्तेन पापेन कर्मणा `
॥ २४ 1} बीचिकल्लोलमालाभिगेच्छतस्ते परस्परम् \। खरः कोधस्त्वया दृष्टः `
कुञ्जरो मद उच्यते ।} २५. ।1 ब्राह्मणोऽसावनन्तोऽहं गुहा संसारगह्वरम् ।॥ ,
इ्युक्त्वा देवदेवेशस्तग्रैवान्तरधीयत \\ २६ ।। स्वप्नप्रायं तु तदृदष्ट्वा ततः स्वगु- `
हमागतः ।) कृत्वानन्तत्रतं सम्यक् नव वर्षाणि पञ्च च ।\ २७ ॥। मुक्त्वा सवेमन- `
न्तेन यथोक्तं पाण्डुनन्दन।। अन्ते च स्मरणं प्राप्य गतोऽनन्तपुरे द्विजः ।॥ २८॥ `
तथा त्वमपि राजष कथां श्पृण्वन् व्रतं कुरु ।। प्राप्स्यसे चिन्तितं सर्वंमनन्तस्य वचो `
यथा ।। २९ ॥ यद्रे चतुद वषे फलं प्रापतं द्विजन्मना ।। व्षेकेन तदाप्नोति कृत्वा `
साख्यानक ब्रतम् ।। १३० ।! एतत्ते कथितं भूप व्रतानामुत्तमं व्रतम् ।\ यत्कृत्वा `
यें ॥ तेऽपि पापविनिुक्ताः प्राप्स्यन्ति च हरेः पदम् । ३२ 1 संसारगह्वरगुहासु `
सुखं विहतु वाञ्च्छन्ति ये कुरुकुलोटव शुद्धसत्वाः \। संपूज्य च त्रिभुवनेरमनन्त- `
| र देवं बध्नन्ति दक्षिणकरे बरदोरकं ते ।। ३३ ।। इति अनन्तव्रतकथा समाप्ता ।! ` ध
१,५.९२ ने शुभे दिने ॥। चतुदशं तु वषं च स॒द्यमुयापनं मतम् ।॥।
कम् ।\ अष्टोत्तरशतं
| नाममन्त्रतः ।! प्रणवादिचतुथ्येन्तनमोन्तानन्तनामत
: क्तानि 1... हिन्दीटीकासदहित (७१३) _ `
प जे धान्यं यथारावित क्षिपेत्ततः !। सौवण राजतं वापि `
ताश्रजं वापि मृन्मयम् ।\ तस्योपरि न्यसेत्कुम्धभमव्रणं सुनवं ढम् \\ तरिमञ्जलं `
ुष्पफलपल्लवमृत्तिकाः ।। क्षित्वा रत्नं हिरण्यं च वस्त्रयुग्मेन देष्टयेत्
सौवर्णं राजतं तानं मृन्मयं वंशजं तथा ।। पात्रं तदपरि न्यस्य पटकलादिकं शुभम्! |
प्रसायं तदुपर्यष्टदलं सुचन्दनेन च ।। पद्यं विरच्य तन्मध्येऽनन्तमूति विधाय च !\
` पलेन वा तदर्धेन माषकेणापि वा कृताम् ।। सौवर्णो रमया युक्तां शङ्धुचक्रगदान्न- `
काम् ॥ आवाहनाद्ुपचारंः पूजयेत्सुसमाहितः ।॥ पञ्चामुतेन स्नपयेत्तत्च |
बसनटयम् ।। पटुकूलादिक पीतमपंथित्वाचयेद्त्रती ।। गन्धपुष्पधूपदीपनवेदयश्च |
फलादिभिः ॥। पुष्पैः संपुजयेदद्धान्यनन्तस्य च नामभिः ।। अनन्ताय नमः पादौ `
गुल्फौ संकर्षणाय च ।\ कालात्मने जानुनी च जघनं विकवरूपिणे ।। कटो वे विह्व- `
` षष्ट मेद् [
वै विहवसाक्षिणे ।! नाभि तु पद्मनाभाय हृद्यं परमात्मने ॥ कण्ठं `
श्रीकण्ठनाथाय बाहू सर्वास्त्रधारिणे ।। मुखं तु वाचस्पतये चक्षुषी कपिलाय च ।॥। `
ललाटे केदावायेति शिरः सर्वात्मने तथा । नमः पादौ पुजयामीत्येवमादि प्रपूयेत् ।।
. एवं संपुज्य विधिना रात्रौ जागरणं चरेत् ।। गोतवादित्रनृत्यादिपुराणश्रवणा- `
न्वितम् ।\ ततः प्रभातसमये स्नात्वाचार्यादिभिः सह ।। अनन्तं पूजयेतपरा्बज्जुहु-
| यापत्पश्चिमे ततः \। कुण्डे वा स्थण्डिले कुर्यादग्निस्थापनपुवेकम् ।। जाज्यभागान्त- =
। भावार्थः स्वगुह्योक्तविधानतः ।। ततोदवत्थसमिद्डिस्तदलाभेऽन्याभिरेव वा ।॥
दधिमध्वाज्यद्ग्धाक्तेस्तिर्वा पायसेन च ।। आज्येन च प्रतिद्रव्यमष्टोत्तरसहल्र- `
| ेत्तररातं वाष्टविशशति जुहयात्कमात् ।। अतोऽ्देवेति मत्रेण स्त्रीणां वे
मनतानतनामतः ।॥ नाममंस्च चहया्च- = `
8 द तुदेशभिरा (क रादरात् ।। ॐ अनन्ताय स्वाहा । ॐ कपिलाय० ३४१ षाय० : काला |
= स्यादिह लोके परत्र च ¦ गावो स॑ ४ 1
हव्ये सन्तु गवां मध्ये वसाम्यहुष् ।। सन्त्रमेतं समुच्चायं वस्त्रालकारभूषणेः ॥
` 1 ~ 49१ ~: । ^ ५;
तत्पत्नीं पूजयित्वाथ बह्छाभं तोषयत्ततः \} ऋत्विजः पजयित्वाथ तेभ्यो दद्याच्च
दक्षिणाम्. ।! चतुदेलेव कुम्भांइच पक्वान्नपरिपुरितान् ॥! वस्त्रोपवीते दद्याच्च `
अनन्तः प्रीयतामिति 1! मचार्थादीन्भोजयित्वा पर्णतां वाचयेत्ततः ।\ . अथानन्तं ` ^
` विसुञ्यापि गह्णीयादाल्लिषस्तत भदितयुक्तौ नमस्कृत्य बाह्यणास्तान्विस- ` 4
जयेत् ।। ततो हृष्टो अन्धुथतो भुञ्जीयात्षुसमाहितः ।\ एवं कृतेऽनन्तफक्दाता- `
नन्तो भवेन्नृणाम् ।। इति श्रीभविष्यं अनन्तत्रतोच्यायनं संपणेम् ।\ अथ नष्टदोरक- `
विधिः-युधिष्ठिर उवाच ।! अनन्तव्रतमाहा्म्यं कृत्स्नं कृष्ण त्वयोदितम् ॥
भगवन्दोररूपेण भाग्यदोऽसि महात्मनाम् ।। दोरं प्रमादतो नष्टं यदि ४ स्याष्िदितं
जनः ।॥ तदा कि करणीयं स्यादव्रतं लोक्ययावनस् । कष्ण उवच `
पुष्टं त्वया राजन् वक्ष्यामि नतनिष्कृतिम् ।\ दोरे नष्टे महान्दोषः प्रभवेद्बरति- १ | ध.
नामिहं 1 तस्मात्तदोषनाजं प्रायस्चित्तं विधीयते ।। गुरं प्रदक्षिणीकृत्य नमस्कृत्य `
समाहितः ।1 विज्ञाप्य दौरनाद्ं च कृत्वा दोरं ब्रती ततः । हव्यवाह प्रतिष्ठाप्य `
तस्मन्ध्यात्वारहार परम् ।। आज्यमरनावधिधित्य ददयाद्विभ्राय चासनम् । अष्टो
| तरशत हकत्वा मूलममंत्रेण वैष्णवम् ।। नास्मत्रेण तत्कृत्वा द्राद्शाक्षरसंयुतम्
कंशवादिसङृदढध .त्वा प्रायष्िचत्तं तु शक्तितः । पूर्णाहुति ततो हृत्वा होमल्ेष समा- `
पयेत् । व्रतच्छिद्रं जपच्छिद्रं यच्छिद्रतरतकमेणि !। वचनादृभूमिदेवानां सर्व सपुणतां `
` व्रजेत् ।। मन्त्रहीनं कियाहीनं भक्तिहीनं जनादन ।। यस्पुनितं मया देव परिपूर्णं तदस्तु `
ञआचायपः म ।! एवं शान्तिविरधि कृत्वा पुवेवद्त्रतमा-
। तस्र यः # वप्रयत्नेन प्रायङचत्तं चरेत्सुधीः \। इति भविष्ये नष्टदोरक्विि ध विधिः।। ह र.
यदि भात्तःकाऊमे चतुदेली न मिले तो पर्वाहौ ग्रहण करलेनी चाहिये । `
मध्याह्ं भोज्यवेलायाम्-मध्याह्वकालमे भोजनके समय” इस ५२ के कथाके इलोकसे `
अनन्त चतुदश कहते हैः। चाह एक घडीभौ हो पर
` अनिषध व › पद्यज, दैत्यारि, पुण्डरीकाक्ष, गोविन्द,
: पजन प्रारंभ किया था, केवल प्ुजतौ मिली \ इतनाही मिक्ता है, पर ब्रह्मवतंके उदाहतवचनमें साक्षात् `
` `भ्रातःकाल्का उल्कं मिलता है कि श्रोतःकाले समाहितः' इस कारण कारय्यकार प्रातर्व्यापिनौ चत्दश्ञीका ४ "र.
` ग्रहणही युक्त है ।) पहिले दिनं सूरयोदियव्यापिनी न होगी तो दूसरे दिन विना सूर्योदय व्याप्ति उसकी
`घडियां पुरी न होगी यदि पुरा एसी न हो पूवा हो तो उसमे त्रत हो, दोनोंहौी न हो तो पूवि हो ¦ (निय
सिम्ुकार कहते है कि, यदि दोनोंहीं दिन उदयकालमें तिथि रहै तो पू्वाकाही ग्रहण करना चाहिये क्योकि = `
इनमे पर्वा मध्याह्लकारूब्यापिनी मिल सकेपौ उत्तरा न मिल सकेगी किन्तु प्रातःकाली इस ब्रतका काम
काल माननेवाले ब्रतराजके यहां पराही उपयुक्त है । उसीका ग्रहण होगा कि, दोनों दिन ूर्योद्यव्यापिनी . |
- हो तो पराका ग्रहण करना चाहिये । इसमे दूसरा हेतु देते हँ कि, वहं पणमासे युक्त होगी इस कारण पराका `
` हीं ग्रहण करिये । यह् क्यो कहा ? इसपर विचार करते भविष्यका वचन सामने आता है कि, पूर्णमासीके
ध योगसं अनन्तं व्रत करे, निर्णय ०कारभौकायं काल व्यापिनी तिधिकषे विषयमे लिखगये हैकि,दोदिन तिथि ५
| -कार्यकालमें हौ तो युग्मवाक्यसे नि्णेय करले । उसमे लिखि ही है कि, चतुर्दज्ी ओर पुणिमक्रा योगहोतो ( 1
वह् तिथि लेलेनी चीहिये । } पराके ग्रहणम दूसरोकौ भौ संमति दिखाते हें । कि, माप्रपद शुक्ला चतुरेश्ीके
। त अनन्तक पूज है स्म भी सवं काम करे, पर सुजन प्रातःकाल होना अदय ! भ्पद शभ चोदक्षको ध |
उदयकालव्यापिनी लेना चाहिये यह हेम्न लिला है। = `
इत कारण पराहौ सवे संमतं है । (माधव ओर हेमाद्रि दोनोकी संमति अपने सायं दिखा दीं है । माधवको |
1 तौ नि९कारने आन्त कहा है ? पर हैमाद्विने इस विषयमे जिकर जः
था. आसनः {र ल आदिक कलक्षाराधनादिक सद कूम त |
भी नहीं कियाहै) दूसरे इसव्रतकोनतो
ब पुराणों निबन्धो ही २ कन्तु अपने निबन्धमं दूसरे निबन्धोका उतल्लेल देकर वे . |
लिख रहै हे). अनन्त ब्रतविधि-प्रातःकाल नदौ आदिमे स्नानकर नित्यकं समाप्त करके पवित्र एकाग्र `
` हो, हदयमें अनन्तका ध्यान करना चाहिये । सर्वतोभद्रमंडल बना उसपर कला रख दे, वहां अष्टदल कमल्पर `
-विष्ण्, भगवान्की पुजा करनी चाहिये, सात फनोका द्भका शेष बनाता चाहिये, अनन्त, अच्युत, कृष्ण, =
अनि गरुडध्वज, कूर्म, जलनिधि, विष्णु, यामन, जलशायी इन ` `
ले स्य स्थितो नर मध्ये माणाः ् छ
ए 9 ^ र. ५६ १ ४ (1 ॥ पदुस्कला- ५ ५.
बाली ! तुन्ने तरंगवारीके लिये नमस्कार है, इससे पाद्य; हे गरुडपदे ! हे श्ंकरक्ती प्यारी भामिनी 1 हे
सब कामोका देनेवालो यमुने ! तेरे लिये मनस्कार है, इससे अध्य, हे विष्णुके चरणोसे उत्पन्न होनेवालो
` सभीञभरणोसे, दौ हई कष्णमूते महादेवी ! तु स्च कृष्णवेणीके लिये वारंवार नमस्कार है, इस्थे आचमनः
है सबके पापोकी हरनेवालौ एवं सभौको त्रिय दीखनेवाली यमुने ! सौभाग्य दे, तुक्ने बारंबार नमस्कार `
है, इससे मधुपकं; हे नन्दिपादे ! हे महादेवि ! हि क्ंकरके आके शरीरवाखी ! हि सब लोकोको हितकारिणौ !
` हि देवि! दुस्षे मौमरथीके लिय नमस्कार है, इससे पंचामृतस्नान; है वसिहपादासन देवि ! हे नररसिहके `
स्मान चमकनेवाली ! हे सभौ लक्षणोसे संपुणं ! हे भवको नष्ट करनेवाली तेरेलिये नमस्कार दहै, `
इससे शध पानौसे स्नान; हे विष्णुभगवान्के चरणोसे पैदा होनेवाली तीन र स्तोसे जानेवाली ह
| सब वापोके हूरनेवालो ! तुके भागीरथीके किए नमस्कार है, इससे इवेतवस््र; हे किवको जराओति षदा | ध,
होनेवाली ! है गौतमके पापोको नाशक ! हे सात समुव्रोसे जानेवाली अथवा सप्त ल्त होकर समृत्रको
जानेवाली गोदावरि ! तेरे किए नमस्कार है, इससे कंचुकी; हे देवि । माणिक्यमुक्तावरि, ओर कौस्तुमको
एवं गोमेद, वेद्यं, सुपुष्पराग, वज्र ओर नोल मणिसे सुशोभित सुंदर आभरणोको ग्रहण करिथे इससे आभरण; `
चन्दन अगर, कस्तुरी, रोचन, कुंकुम ओर कयुरसे मिली हुई चघुगंधिको भक्तिते देता हूं इस
गन्ध, चन्द्रमा जेसे सफेद हल्दीसे रगे हए अक्षतोको, है सुर शेष्ठे शभे यमने तुक्षेदेता
ग्रहृण करिये, इससे अक्षत; शुभ मन्दार, भालती, जाति, केतकी, पाटलइन फूल
८ प वत्सलं यमुन † तेरा पूजन करतः हं, इससे पुष्य सममेण करे 1 अंगपूजा-चपलाके लिये नमस्कार
: भोको पूजता हूं } भक्तवत्सखाके लिये नमस्कार कटीको पुजता हु, हराके लिए नमस्कार नाभिको
हः ॥ सन्मथवासिनीके स्वयेनमस्कार गुह्यको पूजता हूं, अक्षानवासिनीके ° हवयको '
छ = 4 5 =
त क स
~ =: - क = ~>
#: .': . , ५ ५." ।
प्रत्येक नाममंत्रसे अक्षतादिक चढते जाना चाहिये । `
लाके ° ; अभीष्टोको देनेवालीके०, धात्रीके०; हरि- `
०; ¢ भागीरथीके 4 1; ¦ 1 # तुङ्काके० ‡ कृष्णावेणीके ० ‡ भवनाक्षिनीके०
सरस्वतीः ीके०; कावंरीके०; सिन्धुके०; गौतमौके०; गोमतोके०; गायत्रके०; गरुडाके के०;
कि०; चन्दरचूडाके०; सर्वेदवरीके०; महालक्ष्मीके० लिए नमस्कार है, हे सभीउपद्रव ओल पार्पौको
नादानेवाखी ! हे सब संपत्तियोके देनेवाली देवि ! तुक्च यमूनाके लिए नमस्कार है । यह नामपूजा पूरौ हुई ॥ `
दशाङ्को गुग्गुलोद्भूत °' इससे धूप; “धृतवति समयुक्तम्" इससे दीय; श्कंरामु० इससे नवे; पानीयं
सा जा भः णि
० इ इससे ताम्बूल; “हिरण्यगर्भं ० इससे दक्षिणा; त्रैलोक्य पावने इसमे आरती; `
हे कष्यपको आनन्द देनेवाले ! हे सर्वज्ञ शंकरे प्यारे प्रभो ! रध्यसादर ग्रहण करिये, इसे ष्यं; हे एक |
हजार फनवाले होकर वसुधाको धारणकरनेवाले प्रभो ! हे देव ! सुशीतल पवित्र आचमनको ग्रहण करिये, ` |
इससे आचमन; है सर्पराज ! तेरे लिए नमस्कार है, कुमारशूपौ त्ने दधि मु ओर आज्यके संयुक्त मधुपकं `
देता हं, इससे मधुपक ; इसके परे पञ्चामृतसे स्नान; गङ्धा आदिकं सभी पुण्यतीर्थोति तेरा आदरदुर्वक |
पभिषेक करतां हे बलभद्रके अवतारमं श्रीपतिके सला बननेवारे आनन्द दाता ! प्रसन्न जिए, इससे
स्नान; है दवेश्च ! ये दोकौशषेय वस्त्र मं प्रीतिसे देता हं हे पञ्नगाधीहा गर्डके बेरी ! तरे किए नमस्कार `
| ५ ह, इससे वस्त्र; गथा हजां सोनेका बनज सूत्र तया अनक रत्नोका जडा कंठ हार तयार है, हे स्वराज ! | ह |
तेरे लिए नमस्कारै, हसे यज्ञोपवीत; अनेकोरत्नोके जडाऊ ये दोनो कुण्डल ह ये दोनों ककण मीमणियोसे `
< जड रहे हे, र
रत्नोकी म् द्राडाली हई सोनेकी अंगठो है, सोनेका मुकुट है जिसमे सपेकि मुक्ता लगे हए हे, इससे ष
सब आभरण; "भीखण्डम्" इससे चन्दन; "अक्षतार्च' इससे अक्षत; करवीर ०” इसे पुष्प सम्पण करे | `
द्वितीयाका अधिकं वचनान्त करके रखा गया है, सबके आदिमे ओम" ओर अन्तमं नमः' लगाना
नाम संत्रोसे को गई है वे सब नाम चतुरथोके एकवचनान्त करके रखे है । एक अंगको एक तथा = ` ध
चाहिये ये सहुरूषादके रपादके लिये नमस्कार चरणोको पुजता हुं, गूढ गुल्फवालेके० गुल्फोको प०; हेमके जंवावाले- . व
कोलजंधार्भोको पु०, मन्द चरनेवालेको० जानुमोको पू०; पीत वस्त्रपहिनेवाकके° कटी पु०; गंभीर
नाभिवालेको० नाभिको० ४. पू०; पवनका भोजन करनेवालेको ० उदरकौ प°; उरषके हार्थोको पूर; कलि |
लक्ष्मणे शिरको पुऽ; अनः
कण्ठको पु०; मलम विषवाखेके० मुखक्ो पू० । फनोके आभूषणवलेके० = ` 4
अनन्तके व्यारेके लिये नमस्कार सर्वागको पूजताहूं\
४ यह ह ॐ अंगपूजा पूरी हुई ॥। बनस्यति० इससे धूप, साज्यं च वति० इसते दोय; नवेद गृह्य०" दे नैवे; `
मध्यमे पानीय; करोददनके लिये चन्दन; शूगीफलम्०" इससे सुपारी; ताम्बूल; दं फलम् इसमे फल; = `
ताम्बूल; "इवं फलम्' इससे फल, हिरण्यम ० इससे दक्षिणा; नियेजातः' इससे आरती; है प्रभो {
अनेकों एलोवाली यह पुष्पांजलि है, हे कदयपको आनन्द देनेवाले इसे ग्रहण कर, इससे मन्त्र पुष्प; यानि
` कानि इससे प्रदक्षिणा; "नमोऽस्त्वनन्ताय इससे नमस्कार; है महौषर ! तु अनन्त कल्पक कहे हुए फलक `
दे, श्योकि, आपकी बिना पूजा किये मनुष्य आधाही फल पाता है, इसते प्रार्थना समपण करे । यहं तोषज्ञीकी
#
श्रखनिषि, पद्मनिधि, इन सबके लिये पृथक् पुथक नमस्कार है । पस्चिमदवारयर दारी, बला, भ्रवः
सन्दा, षात्री, विधात्री, चिच्छनित, काडलनिभि पशमनिधि इन =
मायाशक्ति, शंखनिधि, पद्निधि, इन सबको १ पथक् पुथक् नम गरहै।
(७१८) ^ व्रतरा्ज (न, ध ~ चतुदंकशी~, ४ | |
1 ४
1 ~~न ~न व वन ए ५ श ~र तः = अ
विषय प्राण प्रतिष्ठा आदिमे कह चके हे ) अनन्तपुना ~ इसके. बाद मूलमंत्रसे जनादनको नमस्कार करे, `
नये आश्र पल्लवकी तरह चमकनेवारे, पिगल रंगके नेत्र ओर मृरेवाके पीताम्बर धारी हा्थोमे शंखच्क |
गदा लि हुए आभूषण पाहिने समुद्रे विराजमान विरवरूय भगवानूको याद करता ह, इसमे ध्यानः; हे. = `
देवेशि ! है तेजोराश् ! हि जगत्के स्वामिन् ! पधारिये, हे पुरुषोत्तम ! मेरी इस पूजाको ग्रहण करिये, इससे. `
“ज्ञोम् सहस्र हर्षा” इससे अवाहन; (नानारत्न समायुक्तम्" इससे “ओम् पुरुष एवेदम्" इससे आसन; .. `
"गंगादि सवं" इससे “होम् एतवानस्य” इससे पाद्य; है अनन्त फलके देनेवाल देवेशा अनन्त ! आप अनन्तं : `
सूप है, अघ्यं ग्रहण करिये, आपके लिये नमस्कार है । इससे “ओम् त्रिपादुध्वं" इससे अघ्यं शंगोदक' इससे = `
` . “मम् तस्माहिराड ०” इससे आचमन । अनन्त गृण ओर रूपवारे, विराद् महात्म देव श्री अनन्तके लिये. .
देवेशं † यह् देवताओंको भी दुलभ है । सुरभि उत्पद्च हुजा है आपके स्नानके लिये दूष देता हू, इनसे तथा याः |
“जोम् आप्यायस्व" इससे दधसे स्नान चन्द्रमाके मंडल्के समान धोला जो कि सभी देवतामोको प्यारा
लगता है एसा दधि देता हूं । हे देवेश ! स्नानके.लिये ग्रहण करिये, इससे “ओम् दधि क्राव्णो अकारिषम्" =
इससे दधिस्नान; आज्य,भी) देवताओंका आहार है ! आज्य यज्ञमें प्रतिष्ठित है आज्य परमः पवित्र 1
हि दवेश्च ! इसे स्नानके लिए ग्रहण करिये, इससे “ओम् धृतं मिमिक्षे" इससे घुतस्नान; सब जोषषिधोसेः `
पदा हुजा सुधाके समान मीठा हैः ह परमेश्वर ! आपके स्नानके चये मेने दिया है इसे ग्रहण कीजिये, इस्षे.
“ओम्. मधुवाता" इससे मधुस्नान; ईखके जाडसे पेदा हई श्रुभ मीठी सक्कर है, आयकरे नहानेके लिए देता. `
` हं है पस्मेशवर ! आप ग्रहण करिये; इससे “स्वादुः पवसु" इससे कंरास्नान; नाममन्त्रोसेः शुद्धः पनीसे
स्नानं करावे पुरुष सुक्तसे अभिषेक करे ।! हे लक्ष्मीजीके साथ विराजने वा देवेश ! तेरे लिप् नमस्त
॥ । है यह तपाय हृष सोनेके समान चमकनेवाला अच्छा बनाया हआ ` रेशमका कपडा है आप व ट्से ग्र गकि
लिये नमस्कार है भूम्ने भव्रसागरते बचा; है. .
यक्ेयनीतं ¦ परमं'' हेससे “तस्माद्यतात्" इससे उपवीत; ˆ `
> ~ =
इससे चन्दन; अक्षतार्च' इससे अक्षत; माल्या- 1 4
त्स्यने केलि लिए नमस्कार चरणोका पूजन करता हु, कूमके ° गृल्फोके पु%; वराहके० जानुओकोः ` `
हके र उरुओंको ध्०; वामनके० कटीको प्०; रामके० उदरको १०; श्रीरामकेर हूदयको पू०.:. |
के० मुखको प्०; अनेकों शिरवालेके० रको पू०, श्रीमान् अनन्तके० सर्वाङ्कको पूजता हं ।\ आवरण. `
--अनन्तके दक्षिण पादवेमें रमाके लिये नमस्कार । वाम पाठ्वेमे, भूमिके लिये नमस्कार, इनसे.पहिकले, `
आवरणकी पुजाकरे । आवरण देवताका आवाहनकर हाथ घो, गन्ध पुष्य तजनी मध्यमा ओर अंगृोसे
धरकर बीचमें शंखका पानौ ले मंतरके अन्तमे शंलके पानीको भूमिपर पटक्कर ककर पष्ोको
1 ॥ | (८ नांगवल्लीके ं
व्रतानि] हिन्दीटीकासहित
0" ( (0 १ ध
> ए रोमि तध
४ वारुणीके लिए; नंच्छेत्यमं गायत्रीके च; वायव्यम भारतीक लिए; ईशानमें गिरिजे लिए; अगाडी (| | .- ध.
` गरडके लिए; वाममं सुपुण्यके लिषएु नमस्कार है । दक्षिणम दयाव्वे त्राहि इसे छठ आवरणकी पूजाहोती = ।
है । पूवे आदिक दिशाजोके करमसे--ईन्दरके; अग्निक; यमके; विक्रतिके; वरणके; वायुके, सोमके,
ईशानके, लिए नमस्कार है दयाब्धे' इनसे साते य्वरणकी पुजा छरती चाहिये । अग्निकोणमे शेष;
नेऋेत्यकोणमें विष्णु, वायव्यकोणमं विधु, ईशाने प्रजापतिक्षे लिए नेसस्कार है । "दयान्े' इससे आष्वे
आवरणकी पूजा करनी चाहिये । अग्निभे गणपतिके, नैऋत्य कोणमें सप्त मातकाओके लिए, वायव्य
कोणमं दुगकि लिए, ईन कोणसं क्षेत्राधिपतिके लिए चसस्कार ह, 'दयान्धे' इससे नौवें अावरणकी पूजा
करनी चाहिए मध्यमे ब्रह्मके, भास्करके, शोषके, सवं व्यापीके, ईदवरके, विदवरूपके, महाकायके, सृष्टि- =
` कतकि `कृष्णके, हरिके, शिवके, स्थिति ओर संहार करनेवाले, अन्तकके लिए नमस्कार है, 'दयान्धे
इनसे दशवे आवरणकी पुजा करनी चाहिये । कौरी, वैकुण्ठ, महाबर, पुरुषोत्तम, अज, पद्मनाभ, मंगल,
हषीके, अनन्त, कपिल, शेष, संकषण, हलायुध तारक, सीरयणि, बखमद्रके लिए नमस्कार ‹ दयान्घे '
` इनसे ग्यारहवें ावरणकी पूजा करनी चाहिये । साधव, मधुसुदन, अच्युत, अनस्त, गोविन्द विजय, अपराजित |
कृष्णके लिए नमस्कार, दयाम्धे' इसंसे बारहवं आवरणकी पुजा होती है \ क्षीर सागरम सोनवाल, अच्युत, ` ।
` भूमिके आधार, लोकनाथ, फनकी मणियोसे विभूषित, एक हजार क्षिलावाले, उतनीही ज्वालावाक्के
। किए नमस्कार, “दयाव्ये' इनसे तेरहवे.आवरणकौ पूजा करनी चाहिए ! जसे आवरणोक्े नाम मत्से पूना = ` |
, कहु आये ह प्रत्येक नाम मत्रको लिखकर उसके साथ अन्तमे कै किए' नमस्कारः वसल्गायाहितोकिश्रत्येकः
` नामके साथ.अन्वित होता है जैसे माघवके लिए नमस्कार इत्यादि ! इसी तरह केशव आदि चौवीस् नासोसे |
पृथक् पुथक् पूजे । पौ दयाग्धे इस संत्रसे पूजा करे । यह चौदहवे आवरणकी पुजा पुर हुई ॥ मंतरपूजा- = |
` मृलमे सब चतु्थीविभवितके एकवचनान्त कृष्णाय' एसे रूपमे नाम रखे हए हैँ । जिन चीजोके पत्ते उनसे
चढाये जाते हें । वे हितीयाके एकवचनान्त पलाश्च पत्रम्" एसे रूपभे र्खे हुए है "समर्पयामि" समर्पण करता |
, यह् साथ लगा हु है । इस सबका मिलकर अथं होता है कि श्वीङ्गष्णके लिये नमस्कार, पलाशके पत्ते .
समपेण करता हूं । इसी तरह दूसरे वाक्योका भी अथं होता है वोभी एेसेही समना चहिये, विष्णुके लये ` |
` नमस्कार, उदुम्बरके पते चढाताहूं । हरिके ० अश्वत्थके पत्ते, शंभूके° गृद्धः राजके० ब्रह्के° जटाधारके. |
भास्करे; अश्लोकके; शेषके कपित्थके०; सर्वेव्यापीके० बडे; ईददरके० आमक; विदवरूपीके० |
कदलीके०, महाकायके० अयामार्गके° सुष्टिक्तकि० करवीरके०; स्थितिकतकि० पुल्नागके० अनन्तके० `
7 ल्लीके पत्तोको समपण करता ह या चडता हूं ।\ पुष्य पजा--इसी तरह पुष्प पूजा भी है । अनन्तके |
सिये नमस्कार, पद्मके फूलोको समर्पण करता हूं विष्णुके° जातिकरे° केश्चवक्ते° चंपकके०; अव्यक्तके०
^ कह्वारके० सहस्रनितके° केतकीके; अनन्तरूपके° बकुलके०; इष्टके° शतके ०; विश्िष्टके० पुल्नागके,
५ ४ | ५ महीधरके० मालतीके ० ग
क्षिष्टोके प्यारके० करवीरक श्षिलण्डीके० धूरके०; नहुषके० कु्दके०; विरवबाहुके० मल्लिकाके०; = |
५ अच्युतके ल्व गिरि्कणिकाके फल चढ़ाता हं \। एसौ जाठ नमते पुनन~मूलमं = |
एकसौ आठ भगवानुके नाम चतुर्थके एकवचनान्त जंसे अच्युत यह अच्युताय' इस जेषे स्मे रखे एह = |
(17 `
अतिसुन्दर, अमरभ्रिय, अष्टसिद्धिमद, अरविन्दभिय, अरविन्दो.डूव, अनय, अथं अक्षोभ्य, अर्चिष्मान् ।
अनेकमति, अनन्तब्रह्माण्डयति, अनन्तक्षयन, अमराधिपति, अनाधार, अनन्त नाम, अनन्तश्री, अक्षर, अमाय,
आशमस्थ; आश्रमातीत, अन्नाद, आत्मयोनि, अवनौपति, अवनीधर, अनादि आदित्य, अमृत, अपवगं- ।
` प्रव, अव्यक्त, अनन्त, ये एकसौ आठ भगवान्के नाम हैँ इनमेसे हरएकके साथ कि लि नमस्कारः लगा =
=
इना चाहिये, मूलका अथं हो जायगा! यह पहिले हौ कह चुके हँ एवं कितनी हौ जगह कहा जा चुका है । यह ` द
एकसौ आठ नाम भंत्रोसे पूना समाप्त हुई ।। व्ांगं गुग्गल्द्भुतम्' इससे “आं यत्पुरुषं व्यदधः” इसमे धुप; 8
श +
“साज्यं च" इससे “ओं ब्राह्मणोऽस्य इससे दीप; अन्नं चतुदिघम्' इससे “वन्द्रमा मनसः” इससे नैवेद्य; = `
बीचमें पानीय; उत्तरायोज्ञनके लिये सुगन्धित पानी देता हु, सुमुख होकर ग्रहण करिये । है अनन्त ! आपके `
लिये वारंवार नमस्कार है, इससे उत्तरापोशनः; मुखप्रक्नालनः; हस्तप्रक्षालन ; करोद्रतनकं" इससे करोदतन; | `
^इदं फलम्" इससे फल; धुगीफलम्' इसमे सुपारी पान; हिरण्यगभ०* इससे दक्षिणा; “यानिकानि |
तथा “ओम् नाभ्या आसीत्" इससे प्रदक्षिणा; हे भगवान् ! आपको वारंवार नमस्कार है । हे घरणीषर
तेरे लिये नमस्कार है, हे सर्वनागे्द्र ! हे मध् सुदन ! तुक्षको नमस्कार है, इससे “ओम् सप्तास्यासन्" इससे ¦
नमस्कार; “नमस्ते देव' इससे “ओम् यज्ञेन यज्ञम्" इससे संत्रपुष्पसमपेण करना चाहिये ॥ डोरेकी प्रा्थना- `
तञ्च अनन्तके लिये तथा सहस्र विरोवाले तेरे लिये नमस्कार है, पद्मनाभके लिये न० ! तथा नागोके स्वामीके `
चिये नमस्कार है । अनन्तकामोका दाता है वह मुञ्चे काम दे, अनन्त डोरा रूपसे पुत्र पौत्रोको बढकेफेसी
्रार्थनां करके डोर बंधना चाहिये डोरा बधनेका मंत्र-जिसका अन्त नहीं एेते संसारस्पी समुद्रम इवे |
| अनन्तसूत्रके लियं वारंवार नमस्कार है, इससे बांधना
` चाहिये । पुराने डोरेके विसजेन करनेका मंत्र-है संसारको आनन्द करनेवाले ! सबके हितेषौ तेरे ल्यि
हए मुशे हे वासुदेव ! बचा, अपने अनन्तरूपमें लगा वे, अनन्तसूत
छूट जा 1 । हे जनन्त फलके देनेवाले शष्ठ ब्राह्मण !
०४२ लिये राजसुय यजञका प्रारंभ करदिया ।\१।। अपने १: ५.
ष्णके साथ युधिष्ठिरजीनं अनेक रत्तोसे सुशोभित यज्ञाला बनाई । अनेकों मुक्ता ष 4
प्रतीत न होती थौ ।\२। ५ बड़ प्रयत्नसे यज्ञके लिये राजाओंको (४; णो इकट्ठा
स्वीकारकर, यह घीके पवकनन ओर फलों एवं दक्षिणाके
दिया है जप श्रेष्ठ ब्राह्मण हे । इससे मेरे ब्रतकी पूति होजायगी \ यह वायने देनेका मंत्र है । पुराने ` र ।
4
व्रतानि । हिन्दीटीकासदहित (७२१)
सागरे हम कंसे छट, किस देवको पजनेसे अयने शरेष्ठ राज्यको यासक्गा ? ।\ १७॥।। कया भे को$ ब्रत करू
ज आपकी कृपासे कल्याण ह्ये जाय ? यह् सुन शङ्ृष्ण बोकर कि, सब पापका नङ्क पवित्र एक अनन्त `
व्रेतदहैं \\ १८ हे युधिष्ठिर ! वह् स्त्री ओौर पुरशोके सब कारमोंको पुरा करनेवाला है, वह भाद्रपदशक्ल।
चौदसके दिन होता है ॥।१९।। उसके करने मात्रसे सब पाप नष्ट हो जाते है, यह् सुन युधिष्ठिरजो बोले ` ~
कि है विभो { आपने अनन्त यह क्या कहा \।२०\। क्या वह् जञेषनाग है अथवा तक्षक है, परमात्मा है था वह्
साक्षत् ब्रह्य है ।।२१।। किसका अनन्त नाम हैः हे केश्चव ! यहु सत्य बताइये । यह् सुन छृष्णजी बोलते कि,
है पाथं ! मे जनन्त हं जाप मेरे उस रूयको समक्षे ।\२२।। जो काल आदित्य आदि ग्रहरूप है जिसके कि,
करछाकाष्ठ मुहृत्तं दिन ओर राति शरीर है ।\२३।। पक्ष, मास, ऋतु, वषं ओर युग आदिको जिसकी व्यवस्था `
है बही काञ्च है, उसीको अनन्त मेने कहा है ।\२४।। बही काल रूप छृष्ण मे भूमिके भारको उतारने ओर
देत्यको भारनेके चलि प्रकट हुभा हः सज्जनोके वालन ल्य वपुदेवके कुलमें पेदाहृए मुके, आदि मध्य
ओर अन्त रहित कृष्ण विष्णु हरि, शिव ।\२५-२६।। वैकुण्ठ, भास्कर, सोम सर्वव्यापी, ईश्वर, विश्वकप, ` |
महाकाल ओर सृष्टि संहार ओर पालन करनेवाला जान ॥\२७।। पहिले विश्वासे लिये मेने अर्जुनको वह
= कूप दिखाया था, जो योगियोके ध्यान करने योग्य सवे श्रेष्ठ है ।\२८।। जो कि, विश्वरूप अनन्त है, जिस्षमे
चौदह इन्द्र, वसु, बारह आदित्य ओर ग्यारहीं रर हँ ।२९।। सातो ऋषि, समुद्र, पवत, सरितः द्रुम, नक्षत्र,
दिला, भूमि, पाताल ओर भूभूव आदिक ह \\२३०।। है युधिष्ठिर ! इसमे सन्देह न करिये, यह करने लायक =
है । युधिष्ठिरजी बोले छि, हे शरेष्ठ जानकर ! अनन्तके ब्रतका साहात्म्य ओर विधि कहिये ।३१।३ इसका
पुण्य फल, दान ओर यजन कौन है, पहर किसने किया, इस मनुष्य लोकम कंसे आया ? ।\३२।। यह् सब
अनन्तव्रतका विषय विश्तारके साथ कहिथे। श्रकृष्ण बोले कि, पहिले कृतयुगमे एक सुमन्तनामकावसिष्ठगो्ी `
` ब्राह्मण थाह राजन् ! उसने भृगुकौ दीक्षा नामक लडकीके साथ विवाह किया था ॥२३३।।२३४।1 उसस्त्रीसे |
4 ५८ कहा ।\४६।। कि, नमाईको ुनदर देन णः
घरमे माडया भी उल्लाड डाला ।\४
उसके एक अमित उच्च लक्षणोबाली सुरी नामको लडकी पैदा हो उसके ही घरपर बडी होने लगी \३५।। ` |
¦ कु काल बाद ल्डकौकौी मा ज्वरके दषस पीडित होकर नदीके ही किनारे अभर हो स्वगं चलौ गईव्योकि |
वह प्रतितव्रता थी ।\३६।। पीछे सुमन्तके धमं पुंसकी लडकौ क यक्ते साथं विधि पूर्वर दूसरा व्याह करचल्यिाः |
| ॥1३७\) उसके चरित्र अच्छे नहीं थे ककंश्ा चण्डी थी, नित्य ही लडाई करतौ थौ वह् जौरन्नीलादोनोघरके
काम करने लग गयं ॥३८।। भोति, खम्भ, दरवाजेके बाहिर एवं तोरण आदिमं नीले पीले कलेषौके
| रंगोसे चित्र काठ दिये ।\३९।। कुमारावस्थाके खेलोके वशम होकर उसने वारंवार शंपद्य मौर स्वत्तिकि ` |
। बनाये ।\४०।। मंगल रूपा वह् इस प्रकार पितके घरमे बढने लगी, कुछ दिन बाद पिताने उतेदेलाकिशरीर |
पर यौवनके चिह्लौका प्रादुर्भाव होगया है ।\४१।। उन्हं देवकर पिताने उसके योग्यवर देव मे इसेक्पिदू् ?
1 एसा विचार कर वह एकदम दुखी होगये ।\४२।। उसी समय परम वेदिक एवं धनो श्रीमा
स ४; वहां चरे आये ।।४३।। ओर बोले कि, परम् सुन्दरो तेरी कन्यके साथ मे शादी करना
निर नि न कौडिन्य ` ( ८
(9) व्रतराज ` [ चतुद
` भृक्षे बतादये कि, एेसा यह् कौनसा त्रत है ? वे बस शील भूषणा जीलसे बोलीं ।॥५४।} कि, अनन्तन्रतदहै, |
` इससं अनन्तकी पूजा होती है, श्लीला बोली कि, मं भौ इसं उत्तम ब्रतको कल्गी ॥।५५।। इसका विधान
दान क्या हैः किसकी पुजा होती. है ? स्त्रियां बोलीं कि, हे शीले ! कि एक प्रस्थ अच्छा अन्नहोना चाहिये, `
जो उसकी बस्तु बने इसका परिगका नाम हो, जसा कि, मोदक नाम है \\५६।।जाघा ब्राह्मणको निर्लेभ `
1 हो दी हुई दक्षिणा के साथ दे दे तथा आधा अपने खानेके लिए रखलें ।\५७।। लदीके किनारे दान सहित
. इस्तका पूजन् करना चाहिये, कुशओंका शेष बना वासके पात्रपर रखना चाहिये ।\५८।। स्नानकर मंडक्पर
दीप गन्धोसे तथः पुष्प धूप एवं अनेक तरहके पक्वानोके साथ तयार किये नैवेद्यसे अनन्तक पूजा करनी `
चाहिये ।५९।\ उसके आगे कुकुमका रंगा हुभा चौदह गांठोका डेरा रखकर पवित्र गन्ध आदिक्से उसकी
पुजा करे 1 इसके पीछे पुरुषके दाये तथा स्त्रीके बाये हाथमे उसे धना चाहिए ।६०-६१।। अनन्त संसार'
। | इससे उस डोराको हाथों बधकर भगवान्की इस कथाको सुन, विहवरूप सारयायण अनस्त भगवानक । ५ | ॑
ध्यान करके ।\६२-६३।) भोजन आचमन करे पौषे अपने घर चला जाय, है भद्रे ! मेने तुम्हु यह व्रतक्ह `
` दिया । श्रीकृष्ण बो कि, है राजन् ! प्रसन्न चित्तके साथ यह् सुन ।६४। शीलाने भौ हाथमे डोराबधिकर `
ब्रत किया जो पाथेव लाई थौ उसमेसे आधा ब्राह्मणके किए दिया था आधा अपने खाया ।६५।। पीषछबेलोके `
रथम बठकर प्रसन्नताके साथ मयपतिके अपने घर चली आई ! उसे थोडही समयमे पतिके साथमेही ब्रतपर `
चिष्वास हौोगया ।\६६।। इसी अनन्त त्रतके प्रभावसे उसके घरमे बडा भारी गोधन होगया । धनधान्यके ' `
साथ गृहाश्नम लक्ष्मीसे भरपुर होगया ॥\६७।! वह अतियि पुजनमें आकुल व्याकुल हई अच्छी ठगती थी 1
` एवं मुक्ता मानिक जडी हुई कोंदनी तथा मुक्ताहारोसे विभूषित रहा करती थौ ।\६८।। देवाद्धनाकौ तरह `
संपन्न तथा सावित्रिकी तरह सुञ्योभित हो रही थौ \ घरमे पतिक समीपही सुखल्पा होकर विचरा करती `
थौ ! एक दिन बेटी हूरईके हाथमे बेधा हुभा डोरा उस ब्राह्मणने देखा । यह देव वहं बोला कि, क्या यह मुद्चको . `
वम् करनेके लिये बधा है ? यह् डोरा क्यों घारण किया है ? यह सत्य बताइये । शीला बोली कि, जिसकी ``
कृपासे घन धान्य आदिक सभी संपत्तियां ।६९-७१।। मनुष्य पाते हें वही अनन्त मेने घारणकर राह, `
` श्लीकराके इस वचनोको सुन धन् मदान्ध उस ब्राह्मणने, है कौरव्य ! निन्दापुवेक कहा कि, क्या अनन्त अनन्त `
खगा रखा है ? अनन्त क्या होता है ? पीछे मूर्व॑ताके वडा हौ उसे तोड डाला \७२-७३)। एवं उस पापीने ` ५
` उसे घगधगाती आगमे डारदिया, शीला हाय हाय कहकर भगी एवं उस सुत्रको उशा इषम डारद्या =
1 ७४ 11 उसौ कमं विपाकसे वह दरिद्री होगया । गञ्एं डोर ल़गये। घर जल गया। | 1
तथा भाईयोतसे फटकार मिलने लगी ।। ७६ ।! अनन्तकी निन्दा करनेके कारण घरमे दारिद्व आगया `
` ` | है युधिष्ठिर ! अब उसके साथ कोई बातेभी नहीं करता था ।\७७॥। श्रोरसे सन्तप्त ओर मनसे दुखी रहा `
. करता था । परम वैराग्यको प्राप्त हो वह अपनी प्यारीसे बोला ।\७८।। कि हे शीले ! एकदम यह शञोकका 0
कारण कहासे पदा होगया, जिससे हमे दख ओर सब धनका नादा होगया है ।॥७९।। स्वजनोसे घरमे कलह `
रहता है । मुक्षसे कोई बातेभी नहीं करता । श्षरीरमं सन्ताप एवं चित्तम दारुण खेद रहता है ।८०। न जाने ) |
अनन्तकी त उपेक्षा करनेके कारण एेसा हुजा है । फिर सबकुछ हो जायगा । यदि प्रयत्न करेगे तो ।\८२।। `
1 कंहतेही मन को भगवानूके चरणोमे लग गया वैराग्य थाहौ कौण्डिन्य वनको चल दिये \८३।} वामु-
करल्िया । मनमें यही एक बात थौ कि, मे भगवान् महाप्रभु अनन्तको कबं `
कृषासे हुए एवं जिसकी निन्दा करनेसे सब धन चला गया, वही मुनने सख ओर दुख
ध्यानं करते हृए वनम विचरने लगे वहां पर एक बडा भारी आमका पेड
व्रतानि। हिन्दीटीकासहिति (७२३)
हे पाण्डवे ¦ वह वनम इधर उथर भग रही थी, कोडन्यनं पुछा किं, है धेनुके ! कहडाल, क्या तुचे अनन्तं `
भगवान्के कभी दन हुए ह ? ॥\९०।। मौ बली कि हे कौण्डिन्य ! मं अनन्तको नहीं जानती, इससे अगाडी `
चलनेपर हरी हरौ घासमं एक वृषभे देखा ।।९१।। उससे पुछाकि कि हे गौओके स्वामी ! क्या तुमने अनन्त
देखा है ? वृषभनें उत्तर दिया कि म॑ने अनन्त नहीं देखा ।\९२।\ अगाडी दो सुन्दर पुष्करिणी मिली, उन
दोनोकौ लहर आपससं मिल रहीं थीं \\९२।। कमल जर कह्ारोका उस्तपर छत्र बना हुआ था ! कुमुद
ओर उत्पलसे सुशोभित था उसमें चक्र हंस, भ्रमर, कारंडव, बक थे ।।९४।। उनसे कौण्डिन्यने पूछा कि
तुमने अनन्त देखा था षया ? वे बोलीं करि, हमने नहीं देखा ।\९५।। चलते चरते अगाडी हाथ ओर गदहा
मिला, उनसे पुछा उन्होने भी इनकार करदिया ।\९६।। पृष्ठते एते निरास हौ वहीं वेखगयाहे नृप !
उस समय कौँडिन्य जीवनसे निराह होगया था ।।९७।। ठंवा गरम् वास लेकर भमिपर गिर्गया \ जब
होक्न आया तो अनन्तं अनन्त कहता ही उठा ।\९८1} ओर विचार किया कि अब मं प्राण देदगाहिुधिष्ठिर
जवतकरं उसने गलेमे फांसी रुटकाई तबतक कृपाल अनन्त देव प्रत्यक्ष होगये 1 वृद्ध ब्राह्मणके स्पे उससे `
बोरे कि, यहांसे आभो ।।९९।। ।\१००।। दायां हाथ पकडकर गृफामं ले गये, दिव्य स्त्री पुरषवाली अपनी
पुरौ उसे दिखादी ।\९।। उसमे घसे हए दिरव्यासिष्टासनपर विराजमान शंख, चक्र, गदा, पश्च जौर गरडसे `
सुशोभितं ।।२।। विश्वकप अनन्तको दिलादिया जो क्रि, अनन्त विभूतियोके मेदसे विराजमान अमित मन |
अभित बलशाली ।\२३।। कौस्तरुभसे सुशोभितं एवं वनमालासे विभूषित इने देवेश अपयनित अनन्तको देवं
11४1) बन्दना करता हुभा जोरसे जयजयकार करके कहने लगा कि, “मे पापी हूं । पापकर्म करनेवाला हूं ।
पापरूप एवं पापसेही पदा हज हुं ।\१०५। हे पुण्डरीकाक्ष ! मेरी रक्षा कर, मेरे सब पापोका हरनेवाला
` बनना" आज मेरा जन्म सफल होगया । जीवम् सुजीवन् हौगया ॥१०६॥ आज आपके चरगोमे मेरा
भाथा भौरा बन गया है । यह धुन अनन्त देव प्रेममयी वाणीस बोलते \७॥ कि हे ब्राह्मणदेव ! उरोनजो
मनम द्ये सो कहडाल, कौण्डिन्य बोला कि, माया ओर भूतिके जभिमानमें जाकर मेने अपकांडोराछरोड
` डाला था1\८\। उसी पापके कारण मेरी विभूति नष्ट होगई । स्वजनोके साथ घरमे लडाई रहती हैःमेरे
` साथ कोई बातमी नहं करता ।९।। इसी दुलसे मे वनमे जपपक्ो देखनेके लिये चला जया । आपने कृपा = `
करके अपने दोन दे दि ।\११०।। वह जो आपके डोरा तोडनेका मुद्षसे पाप हुमा है उसकी श्ान्तिमन्ने
बता दीजिये! श्रीकृष्णजी बते यह् सुन अनन्त देव कौण्डिन्यसे बोले ।११।। क्योकि , है युधिष्ठिर ! भक्तिसे `
प्रसन्न किये हए देव बया नहीं दे सकते है ? अनन्त बोले कि, है द्विज ! आप अपने घर जाये देर न करे ।\१२।॥ `
` बहा भकितिके साथ चौदह व्ष॑तक अनन्तका रत करे, सब पापोको भिटाकर उत्तम सिद्ध प्राप्त कर सकोगे . `
॥१३। बेटा नाती पैदाकर चाहे हुए भोगोको भोग अन्तकालमें मेरा स्मरण करके निदचयही मुके पाजाओगे
` ॥\१४\) एक ओर में वुम्हु सब लोगोके कल्याणके लिये बर देता हूः इस कथाको मौर शीलाकी ब्रतकौ बातोको |
` ॥१५।। जो सनृष्य इस शुभ व्रतको करता हुआ करेगा वह् मनुष्य पपोसि छृटकर परम गतिको पाजायगा = |
` (१६) हे विप्र} जिस श्ीध्रतासे तुम घरसे अये थे, उसी तरह चले जाओ, यह् सुन कौण्डिन्य बोला कि, . |
हे स्वामिन् ! में पुता हं मुने उसी जातका बडा आरचयं है ।\१७।। जो कि, है जगतुके गुर ! मेने वनम `
धूमते हए देवा था वह आम्, गौ, वृषभ ।\१८।। एवं कमल उत्पल जर कल्लीरोते सुशोभित मनोहरवेदो `
. पूर्ष्क षकरि हाथो मौर ब्राह्मण कौन् थे ? अनन्त देव बोले कि, जो जाम बता
(७२८) त्रतराज [ चतुदशषी-
ह्येगये ।।२६।। यह् सब उस ब्राह्यणके लिये स्वप्नसा होगया सब कु देख अयने घर दला आया, उसनं
उतनेही वषं अनन्तके त्रतसे बिताए ।\२७।। जेसी अनन्त भगवानूकी आज्ञा थी उन्हं सब दातोको भोगकर `
` हे पाण्डनन्दन ! अन्तमें मेरे स्मरणको प्राप्त होकर अनन्तके पुरम चलागया १\२८।। है राजष ! जावमी |
कथा सुनते हृए त्रत करिये, आपकी इच्छा पूरी होजा्यगो जंसा कि, अनन्तं महाराजका व्रचन है ।\२९।।.
` जो फल उस ब्राह्मणको चौदह वर्षोमिं मिला था वही एल कथासहित त्रतके करनेखे एक वषम मिल जताहै ४
+१३०)) हे राजन् । मेने तुम्हे थह सर्वश्रेष्ठ त्रत सुना दिया है, इस त्रेतके करनेसे स पापो मुक्तं हौजाता
` ह" इसमं सन्देह नहीं हँ ।\ ३१।। जो कथा कहती हुईको सुनतं तथा पठत ह, वं सब पापो छर्षछर भगवातक्षे ८ | | ।
पदको पटच जाते हे ।\३२।। जो शुद्ध बुद्धिवाले मनुष्य संसारल्पी गहन गुते सुवपू्वेक विचरना चाहते `
हैं वे तीनों शोकोके अधिपति अनन्तदेवको पूनकर दायें हाथमे अनन्तका डरा बधिते हु 1३३} यहूश्री
अनन्त भगवान्के ब्रतकी कथा पुरी हुई ।। अन्तके व्रतका उद्यायन कहते है-युधिष्ठिर बोले कि, हैङृष्ण ! =
आपकी पासे मेने अनन्तका व्रत सुन लिया । अब आप मुञ्चे अनन्तके त्रतका उद्चापन बताइये । श्रीङकृष्णजौ = `
बोले कि, है पाण्डव ! सुन, भे अनन्तके ब्रतके उत्तम उद्यापनको कहता हूं जिसके कियेसे व्रत निश्चयही `
सफल हो जाय । आदि मध्य ओर अनन्तम व्रतका उद्यापनं होता है! जब चित्त वृत्ति ओर अच्छा-
अच्छासमय हौ उस समय दिन आौरलग्न अच्छी रहते उद्यान करे । चौदहवें वषेमं तो मुख्य उद्यायन होता
` अच्छे देशमेपवित्रही देद्य ओंकारका स्मरण कर उपवासका संकल्प करे, इसफे बाद नदीतडागपर जा
सब ओषधि, तिल कल्क ओर आमलोसे माजेनके साथ स्नान करे । किनारे या घरपर एक छोटासा सुन्दर
बानके उसमे विधिपु्ेक बैठकर देशाकारका स्मरण करे |
करावे । वेदके जाननेवाले सपत्नीक आचाय्यका वरण कर, ब्रह्मा सदस्य भौर चौदह ऋत्विज होने चाहिये ।
३ सबका वस्त्र अलंकार ओर जलपात्रोसे पूजन करना चाहिये । मंडपके बीच सर्वतोभद्र बना उपर
ब्रह्मादिक देवताओंका आवाहन करके उम्हं पुजना चाहिये । उसके बीचके कमलमें यथाशवित धान्य रखदे, `
त्रयोदशीके दिन एक भुवत आदिसे शरीर शुद्धि करे, इसके पी प्रातःकाल चतुदशीके दिन स्नान करसे ` ४
। गणेकाका पूजन करके बराहमणोसे पुण्याहवाचन = `
, उसपर सोने चांदी तांबे था मिट्टीके मजबूत साबित नये घडेको स्थापित करे, उसमे पानी भरदे, गन्ध, पुष्प, `
॑ (6 फल,पल्लव ओर मृत्तिकाको विधिपूर्वकं डाले रत्न ओर सोना डालकर दो वस्त्रो वेष्टित करदेसोने चांदी `
तबि सिटी या बांसके पातको उस पर रखकर उसपर अच्छा ऊनी कपडा रख दे, उसथर अष्टदलक्भल `
चन्दनसे बनाकर उसपर सूति विराजमान कर देना चाहिये, बह एक या आधे पर अथवा एक माषकौहोनी =
सोने की ण | हों ॑ गि । चाहिये ष [ ट ` भगवानकी मति ख -च्गद्ा ओर पद्य धारम् किए हद होनी चाहिये र | ध |
- रौ उपवासे एकाग्रचित्त होकर पुजन करना चाहिए । पञ्नचामृतमे स्नानं पीले ( | | ८ |
वाचस्यतिके० मुखको०; क? पि पेके° ने्ोको०; केदावके०. ललाटको०; सर्वात्मक लिए.
पुजता ५६ हुं ।' पादौपुजयामि चरणोको परजता हं यहसि लेकर शिरतक पूजे तथा बाको र
व्रतानि] हन्दाटाकासाहत (9
त्येकसे पृथक पृथक् हवन करना चाहिये । अनन्त, कपिल, शेष, कालान्मा, अहोरात्र, मास, अधमास, भ: ४
षडुतु, संवत्सर, परिवत्सर, उषस्, कल्म, काष्ठा, महुते ये नाम हँ । हवनं इन्हीके नाम मेत्रसे अते है! `
इसके काद स्विष्टकृत्से टेकर पुर्णपा्रतकं सेब काम करने चाहिये, भगवान् अनन्तका स्मरण करके पुरुष- ` 1
` सुक्तका जप करना चाहिये । हौमङे अन्तमं “ओम् विदवमित्सवनं सुतमिन्द्रो मदाय गच्छति वृत्रहा सामे
पीतये ।“ (सबही सोमरस निकार लिया है वृत्रका मारनेवाले इन्द्र सोमरस पीनेके किए एवं तुप्त होनेके `
लिए आये हँ । होम शेषको समाप्ति करके व्यायुषं करे ! भगवानृको युज आचाय्येको वस्त्र अलंकार
ओर भूषणोसे पूजे । धेन्कोभी वस्त्र ओर अलकारोसे सुशोभित सुशीला दूधवाली सोनेकी सींगकी चांदीके
` खुर ताबेकीपीट कासेकी दोहनी रत्नोकौ पं कंठमं निष्क एतं बछडेवाली गञके गौके मंत्रोसे पुजकर आचायेके `
` लिए दे दे ¦ गउओंके अंगोमे चौदह भुवन रहते है । इससे ओर उससे इस लोक ओर परलोकमे मेरा कल्याण `
हो, (गावोसे-कहुदके) इस मंचको कहकर वस्त्र अलकार भूषणोसे उनकी पत्नीको पूजकर आह्मणको
सन्तुष्टं करे । ऋत्विजोको पुजकर उन्हं दक्षिणा दे । पक्वान्नसे भरेहुए चौदह कुंभ वस्त्र ओर उपवीत दे, ३.
किं अनन्त भगवान् प्रसन्च हौ, चायं जादिकोको भोजन कराकर पृणंताका वाचन करावे, अनन्तका विसर्जन
कर आीर्कद ग्रहण करे, भक्तिभावके साथ ब्राह्मणोको नमस्कार करके उनका विसजेन करदे, इसके
बाद प्रसन्न ह्योकर उन्धु भादयोके साथ मोजन करे ! इस प्रकार अनन्तका व्रत करनेसे अनन्त भगवान् मनष्यो-
करा फर देनेवाले हौजाते हं । यह् श्री भविष्यपुराणका कहा हमा अनन्तके ब्रतका उद्यापन पुरा हआ |) नष्ट
दोरक विधि-युधिष्ठिरजी बोले कि, हे कृष्ण ! अनन्तके ब्रतका माहात्म्यं आपने मुने सुना दिया । आप `
राके रूपमे संञ्जनोके सौभाग्यं देनेवाले ह, यदि सनुष्यको मालूम होजाय कि, डोरा प्रमादसे नष्टहोगया
` हतौ उस समय तीनों लोकोको पित्र करनेवाला कौनसा व्रत करना चाहिये ? श्रीकृष्ण बोरे कि, है राजन् 0 |
1 ¢ तुमनं अच्छा पः म उसका प्रायचित बताता हुः व्रतियोको महादोषं लगता है डोरके नष्ट हौ जानेषर ध ||
इस कारण उस दोषकौ शान्तिकेलिये प्रायश्चितं करते है, मुरुकौ प्रदक्षिणा नमस्कार कर एकाग्र चित्तहो ` क | ||
मेराडोरा ट्ट गया है यह बता दूसरा तयारफर अग्निकी प्रतिष्टा करके उसमे मगवानूका ध्यान करके अग्निम =
. आज्यका अधिश्रयण करके ब्राह्मणको दक्षिणा दे मलसंत्रसे वैष्णव हविकौ १०८ आहुति देकर फिर वैष्णव ` ध
: हविको दादश अक्षरवाले मंत्रसे अभिमंत्रित कर नाम संत्से हवन करे फिर केशवादिकोसे एकवार हवन ||
` करे, इावितके अनुसार प्रायक्चित करे, पूर्णाहुति करके हवनको समाप्त करे फिर प्रार्थना करे कि, जोमेरे |
| ब्रतक्मे जो द्रत ओर जपके छिद्र हो, वे सब भदेवोके बचनोसे प्रे हौजायं हे जनादेन ! मेने जो मन्रक्रिया 1
ओर भक्तिसे हीन आपका पुजन कियाहै, है देवं ! आपकी कृपासे वो परिपुणं हौजाय ! हे नृपोत्तम |
पीछे दक्षिणाआदिसे अ्चा्यका पुजन करना चाहिये, इस प्रकार शान्तिविधिं करके फिर पहिलेकौ :
त्रत करना आरंभ करदे, प्रायकिचत्तके पीछे व्रतकरे । इस कारण स प्रयत्नसे भ्रायरिचित्त ३
| चाहिये । यहु श्री भविष्ययुराणकौ नष्ट डोरेकौ विधि पुरी हई \,
कदली त्रत निधि
(७२६) 7 - व्रतसज् ५ ५ [ चतुदशी-
°
रासारतां ज्ञात्वा कदली नन्दने स्थिता ।। शुक्लपक्षे चतुरदद्यां मासि भाद्रपदे
नप ।। देयमर्घ्यं वरस्वीभिः फलर्नानाविधेस्तथा \\ विरूढं: सप्तधान्येह्च दीपालो-
रक्तचन्दन ।। दधिदूर्वाक्षतवेस्त्रनेवेदोघतपाचितेः ।। जातीफल ः पुगफललवद्ध
चवाघ्यं तच्छणष्व नराधिप ।\ चिन्तये त्वां च कदलि कन्दलः कासदायिनि ।
शरीरारोग्यलावण्ये देहि देवि नसोऽस्तु ते ।\ इत्थं यः पुजयेद्रस्मां पुरुषो भक्तिमाच्चप
॥नारी बानग्निपाकाल्ा ब्णश्चि चतुरोऽपि वा ।\ तस्मिन्कुले न हि भवेत्काचिच्ारी
कुलाटनी ।। दुगेता दुभेगा व्यद्धी स्वैरिणी पापचारिणी ।। विलासिनी वा वुषली `
= पुनभूः पुनरेव सा ।। गणिका फरवारावा छलकमेकरी खला ।) भतृत्रताच्च चकिता
न कदाचित्प्रजायते \\ भवेत्सौभाग्यसोख्याढचा पुत्रपौत्रधियावता ।। आयुष्मती .
कीर्तिमती जीवेदषशतं भुवि ।। एतद्बरतं पुरा चीर्णं गायत्र्या स्वगेसंस्थया ।।
तथा गौर्या च कंलासे पौलोम्या नन्दने वने ।। व्वेतद्रीपे तथा लक्ष्म्या
राधया भुवि मण्डले \! अरुन्धत्या दारुवने स्वाहया मेरपरवते ।। सीतया चित्र- `
` कूटे च वेदवत्या हिमालये ।\ भानुमत्या कृतं पाथं नगरे नागसाह्वये ॥\ ्रेष्ठव्रतमिदं `
| | भद्र भद्र भाद्रपद सिते ।\ या करोतिनसा दुःखं कदाचिदभिभयते। उद्भित्कन्द- (1
नलम् ॥ गङ्गायास्तु समानीतं ृहाणाचमनोयः =
केदलोफलेः । तस्मिन्नहनि दातव्यं स्त्रीभौ रम्याभिरप्यलम् ।! मन्त्रेणानेन
|
ख्दलां कदलीं मनोज्ञां ये पुजयन्ति कुसुमाक्षतधूपदीषेः ।। तेषां गृहेषु न भवन्ति =
कदाचिदेव नार्यो ह्यनार्यचरिता विधवा विरूपाः ।। इति भविष्योक्तं कदलीव्रतम्।। `
गुजैराचारप्राप्तमुमामहेशवरसह्ितकदलीपुजनम् ।\ अथ गुजराचारप्रप्तं कार्तिक्यां `
माध्यां वेह्ाख्यां वा कदलीत्रतम् ।\ तत्र कदलीपुजनम् ।। मासपन्नादयुल्ल्ख्य मम `
पापनिर्मुक्तयुत्तमसिद्धिपुत्रपोत्रावेधव्येप्सितभोगधनधान्यप्राप्तये उमामहेहवर- `
सहितकदलीपुजनमहं करिष्ये, तथा कललाद्यचनं च करिष्ये 1 कदल्यागच्छ हे `
देवि सौभाग्यफलदायिनि ।। रूपं देहि जयं देहि यशो देहि सुनिरचितम् ।। आगच्छ
` वरदे दे देवि शडकरेण महदवरि करिष्यमाणं पुजां मे गहाणानुग्रहुं कुर ।। आवा- `
हनम् ।\ कार्तस्वरमयं दिव्यं नानामणिगणान्वितम् । अधितिष्ठ महादेवि `
हं पार्वति ति। ।! आसनम् ।। दूरवाक्षतादिभिर्युक्तं स्व्णपात्रे स्थितं जलम् ।॥
\ ५) । - र रतान ॥। 4, ई ८ ` 3 ५ इइ ५६३ ५५५९
कुडकुमाक्तं सुशोभनम् ।। गृहाणाच्छादनं देवि तथाच्छादय मां सदा ॥ वस्त्रम् ।॥ `
` उपवीतम् ।। कञ्चुकोमुपवस्त्रं च नानारत्नः समन्वितम् ।। गृहाण त्वं मया दत्तं 0
पार्वत्यै च नमोऽस्तु ते ।। कञ्चुकम् ।\ उपवस्त्रम् ।। गङ्कादिसर्वतीर्थेभ्यो मयानीतं `
सुनिर्मलम् ।! तोयमेतत्सुखस्पशं गृहाणाचमनीयकम् ।। अचामनीयम् ।। श्रीखण्डं |
` चन्दनं दिव्यं गन्धाढ्यं सुमनोहरम् ।। विखेपनं गृहाणेदं रु्राणीप्रियवल्लभे ।\
चन्दनम् ।\ अक्षताहच सुर ०\। अक्षतान् ।। हरित्रकुडकुमस् ।। सौभाग्यद्रव्याणि।\
` मालतीचम्पकादीनि शतपत्रादिकानि च ।। सुगन्धीनि गृहाण त्वं पूजार्थं सुमनांसि | `
च ।। पुष्पाणि । अगुरं गुग्गुलं धूपं दशाङ्घः सुमनोहरम् । गहाणेमं त॒प्तिकरं `
॥ ् छाणस्यं दयितं परम ।! धपम् ।! चक्षदं सवेलोकानां तिमिरस्य निवारणम् ।! < ८; | |
` आरतिक्यं कल्पितं भवत्या गृहाण परमेश्वरी ।। दीपम् ।! नानापक्वाच्नसंयुक्तं |
रसैः षड्भिः समन्वितम् ।। नैवेद्यं विविधं भक्त्या कल्पितं त्वं गहाण मे ।। नेवेयम्
1 कपूरंलालवङ्खादिनागवल्लीदलान्वितम् ॥) पगीफलसामायुक्तं ताम्बूल प्रतिगृह्य र |
ताम् । ताम्बलम् । इदं फलमिति फलम् ।। हिरण्यगर्भेति दक्षिणाम् 1 नीराज- |
` यामि देवेलि भक्तानां भयनाशिनि ।। देहि मे सवेसौभाग्यं शिवेन सहितेऽनघे ॥ ||
नीराजनम् ।। यानि कानि चेति प्रदक्षिणाम् ।\ आश्रये देवपत्नीनां पूजिते चभिया ||
स्वयम् ।\ सौभाग्यारोग्यमायुश्च देहि रम्भे नमोऽस्तु ते ।! नमस्कारम् । त्वमि- `
दराण्याः भ्रिया नित्यं श्डकरस्यातिवल्लभा ।। सतीनां कामदा पज्या कामान्मे |
` परिपूरय ॥। प्रानाम् ॥ कदल्यै कामदायिन्ये मेधायै ते नमोनमः ॥ रम्भायै |
भूति सारायै सवेसोख्यप्रदे नमः \) यथा यथा ते प्रसवो वधते कदलि ध्रुवम् ।॥ '
1.6 (५ तथा मनोरथानां मे प्रभवो वर्धते स्वयम् \! कदलीदानमन्त्रः ।। इति पूजनम् 6 |
।
(७२८) 1 ्राज ५ 1 [ चतुदंल्ी-
कूरष्वाश्ु सौभाग्यावाप्तये शुभम् ।! ९ ।। कृते यस्मिन्तरते देवि परं सोभाग्यमा-
प्स्यसि ।। इति श्रुत्वा वचो देवी रुक्मिणी मामभाषत ।\ १० ।। रम्भाव्रतं भवेत्को-
दक् को विधिः कस्य पूजनम् ।। केन चादौ पुरा चीर्णं मत्यं केन प्रकाशितम् । ११। ` ॥;
रुविमण्या भाषितं श्रुत्वा पुनरेवाहमल्वम् ।। रम्भात्रत्विधि वक्षे श्यृणु देवि =,
यथोदितम् ।! १२ ।\ गोचमेमात्रं संकल्प्य सवेतोभद्रमण्डलम् ।। लिखेत्सम्यक् 4:
पञ्चवर्णेनलपीतेैः सितासितः ।।१३।। ब्रह्माद्या देवतास्तत्र स्थापयित्वा प्रपूजयेत्! `
` कलशोपरि संस्थाप्य वैणवं पटलं शुभम् ।\ १४ ।! उमामहेश्वरौ तत्र म॒ल्संत्रेण ..
` पूजयेत् ।। अथवा स्वस्तिकं कृत्वा पद्यमष्टदलं तु वे ।\ १५ ।। ततः साग्रं सपर्णां `
च सम्यग्वत्तां सुशोभनाम् ।। समूलां कदलीं स्थाप्य पुजयेत्तां यथाविधि ।\ १६॥ `
उत्तमोदकमानीय सेचयेत्तां समाहितः ।। यथा रम्भे विवृद्धिस्ते शाखादीनां सदा `
भवेत् ।\ १७ ।\ तथा वधय मां देवि सेचनात्पावेवीप्रिये ।। संदा यथा ते प्रसवो `
४ घत प
वर्धेते कदलि ध्रुवम् ॥\ १८ । तथा मनोरथानां मे प्रभवो भवतु स्वयम् ।। एवं |
न्भोगान्सौभाग्यं विन्दते ध्रुवम् ॥ तस्मात्कुर विधानेन यथोक्तफलमाप्स्यसि
१ ।। इति श्रुत्वा विधानेन चकार व्रतम॒त्तमम् । अवाप सकल कामं मनसा
` संपुज्य विधिवःडूवितयुक्तेन चेतसा ।। १९ ॥। रात्रौ जागरणं कर्याद्गीतवादित्रनि- `
स्वनैः । एवं या कुरुतेनारी व्रतानामुत्तमं व्रतम् ।! २० । भुक्त्वा तु विविधा-
यदभीप्सितम् ।। २२ ।! अन्यच्च श्युण् राजेन्दर व्रतस्य फलम्त्तमम् ।। अत्याह्चयै- `
करं पुसां शृणुष्वावहितो भवान् ।२३।। चूते यदा जितः पूर्व कृष्णानीता सभां प्रति।।
दुःशासनेन दुष्टेन द्रौपदी मुक्तमूधेजा ।। २४ ।। आकृष्यमाणे वस्त्रे तु चित्ते माम- `
` स्मरे्तदा ।। तूर्णं तत्रागतो राजन् द्रौपदीरक्षणाय वे ।। २५ ।। अदह्योऽहं तु `
कृष्णायै व्रतं समुपदिष्टवान् ।। तदा कर्तृमराक्ये तु व्रतेऽस्मित्राजसत्तम ।। २६।\ `
रुविमण्याचरितं पुवं यदेतद्व्रतमुत्तमम् ।। तस्य पुण्यफलं दत्तं कृष्णाय राजसत्तम `
तत्कालमेव वस्त्राणां समुद्धिरभवत्पुरा ।। दुःशासनेन दुष्टेन आक्षिप्ते- ध ॥
` युम्मान्याहुय संयतः ।। वस्त्रालडकारगन्धाचचैः पुनयित्वा तु भोजयेत् ।। वायनानि `
व्रतानि | त हिन्दीटीकासहित (७२९)
तत्र पूजां समाचरेत् ।\ यदि लभ्येत कदली तामारोप्य प्रपूजयेत् ।। यावत्तस्यां फलं `
तावत्सिञ्चे्नीरेण भूषते\। फले युपक्व'जःतेषु पषचाद्विान् समाहयेत् ! प्रभते `
विमले स्नात्वा नद्यादौ विमले जले \। अहते वाससी गृ कृत्वा सन्ध्यादिकम च ।\ `
अरत्निमात्रं कृत्वा तु स्थण्डिलं वाग्यतः शुचिः ।। अग्नि संस्थाप्य विधिवत्तत्र
४ होमं समाचरेत् ।। शतमष्टोत्तरं विष्रान्तिलान्याहुतिभिस्तथा । एकाग्रचित्तः
हृष्टः कृती व्याहूतिभिः पृथक् \। कहादिदेवताम्यश्च नासम: प्थक्पथक् ।। `
आचायं च सपत्नीकं वस्त्राचेः पुजयेतः \। धेनुं पयस्विनीं वत्सच्वस्त्राल्डकार `
` भूषिताम्।।स्वे्द्धीं रौप्यखुरां कास्यदोहनिकायुतास्। ।तास्पृष्टीं रत्लपुच्छानिष्क `
` कण्ठीं सघण्टिकाम् ।। अभ्यच्ये वेद विदुषे जचार्थायं नवेदयेत्।\ पादृकोपानहौ छतच- = `
मल्डकारा ह्यनेकशः ।। यथाशक्ति प्रदेया वे रतस्य परिपूर्तये ।! दचात्ततश्च
कदलीं मन्त्रेणानेन भूमिप ।। कदल्य कामदायिन्यं मेधाय ते निमोनमः ।\ रम्भायं `
९ भूतिसाराय सवेसोख्यप्रदे नमः ।। इति कंदलीदानमन्त्रः ।। चतुविश्षत्षोडक्ञवा
च देयानि वंशपात्रस्तु शक्तितः ।। दद्याच्च दक्षिणां सम्यग्यथाविभवसारत
अन्येभ्योऽपि यथाश्ञव्ति दद्यादन्नं युसस्करृतम् ।। क्षमापयित्वा तात्राजन्तरतस्य परि+ |
पूणेताम् ।। वाचयित्वा यथान्यायभच्छिदरत्वं च भाषयेत् ।\ दीननाथान्प्तरप्याथ `
स्वयं भुञ्जीत वाग्यतः ।। एवं यः कुरुते राजन् कदलोत्रतमुत्तमम् ।। भुक्त्वा च
विविधान्भोगान्सोभाग्यं विन्दते धवम् \। तस्मात्कुर विधानेन यथोक्तफलमाप्स्य- _ ५ ६
सि।। एवंनारी नरो वापि यः कुर्यात्कदलीक्रतम् ।। सर्वान्कामान वाप्नोति स्वगं- ५
1. लोके महीयते ।। इति श्रीभविष्योत्तरे कदलीव्रतोद्यापनं सपुणम्
| कदलीब्रत--माद्रषद, कातकं, माघ, वेल इन महीनोकी शुक्ला चौदसके दिन होता है यह हिमा्रिने `
भविष्योत्तरसे लिखा है । इसे पूर्वाह्ह्यापिनी सेना चाहिये । रंभक्ते आरोपण करनेको विधि-अयने हासे ` |
` | केलाके वृक्षको लमा एक वषेतक पूजन करके फिर उसे पानीके चडेसे सींचे ! जबतकं उसवर एूल्फल न आये
। तबतकं बराबर पूजत रह, इसमे पिले पूरब ऽत्तरकौ ओरसे फरफूल गना अच्छा हे । दक्षिण या पञ्िमसे = |
आयतो हानि होती है ! यह केलाओके फलने फूखनेके सक्षण हं । कथा--भगवान् कृष्ण बोले किःहै पाथं ! =
` इसी दिन ब्रह्माजीकी सभाम देर्वाषिगणोके सामने देवरः
वर्ने परम कृषासे उत्तम यह कदलीत्रत कहा था, संसारके |
पहिले स्वर्गलोकमे देव कन्धवं किञ्नर अप्सरा मौर देवकन्या- |
(७३०) : < ---. . -क्रतराज [ चतुर्दशी- ्
जनत
चह् स्त्री पुरुष संन्यासी चारों वर्णोका कोरईभी हौ उसके कुलमं कोरईभौ व्यभिचारिणी नहीं होती । एवं दुर्गता,
` इभेगा, व्यङ्धी, स्वैरिणो, पापचारिणी, विलासिनौ, वृषली, पुनभ, गणिका, फेरवारावा, छल्के कार्मोकी ` `
करनेवाली, इष्टा, भतकि बरतसे विचलित ये कभीभी नहीं होती । सौभाग्य ओर सौख्यसे संपन पुत्र पौत्रोकी
क्लोभा आयु ओर कौतिवाली होकर सौवर्ष॑तक जौती है यह व्रत ब्रह्मलोकमे गायत्रीने, केलासपर गौरीने. `
नन्दनवनमें पुलोमीने, शवेतद्रौपपर लक्ष्मीने, भूमण्डलपर राधाने, दारुबनमेंअरुन्धतीनेमेर पवैतपर
स्वाहानेचित्रकूटपर सीताने, हिमाल्यपर वेदवतीने ओर भानुमतीने हस्तिनापुरमे किया था । भाद्रपद ` '
शुक्ला चौदसके दिन जो इस त्रतको करती है वह् कभी दुखसे अभिभूत नहीं होती जिसमें सुन्दर केके फूट `
रहे हं एसी मनोज्ञ कदलीको जो कुसुम अक्षत धूप ओर दीपोसे युजते हं उनके घरमं कभी स्तयां विधवा कुरूपा 4 | |
ओर दुश्चरित्रा नहीं होतीं 1 यह श्रौ भविष्यपुराणका कहा हुमा कदलीतव्रत पुरा हुमा ।1 गुजरातिोंके
` -आचारसे होनेवाला कदलीव्रत--कातिकौ माघी व वैश्ालीमे होता है, उसमं केलेका पुजन-सबसे पहिले = । +
भास पक्ष आदिका उल्लेखं करके कहना चाहिये कि, अपने सब पपोको नष्ट करने सिद्धि पुत्रपौत्रमवेधन्य, = `
चाहैहुए भोग ओर धनं धान्यकी प्राप्तिके लिये उमा ओर महेश्वरसहित कदलीका पूजन मे करता हूं । है
` सौभाग्य-फलके देनेवाली कदली देवि ! आज सुक्षे अवद्यही सूप, जय ओर यश्च दे हे महेश्वरी देवी !
शिवजी के साथ आजः; मेरी की हुई यूजाको ग्रहण कर मुञ्चवर कृपाकर । इनसे आवाहन कार्तस्वरमयं |
` इससे आसनः; दूर्वाक्षतादिभिः; इस मंत्रसे पाद्य; अघ्यंपात्रे' इस मत्से अध्य, कपूंरोररी०' इसमे आचमन;
शंगादि सर्वं तिर्थेभ्य; इससे स्नान, हे रंभे ! जैसे तेरी शाखा आदिक बढती है एेसेही हे पार्व॑तीकी प्यारी 1
इस पानीके रगानेे मुशे भी बढा इसे सेचन, वह कुकुमसे भीजा हुआ दिव्य सफेद वस्व्रहै, एते हौ हे देवि ! = `
+ आच्छ ~ {दन ग्रहणकर उसी तरह मृ्न भी दक; इसे वस्त्र उपवीत, कूचुकोमुपवस्त्र इससे कंचुकी; उपवस्त्र 9 र । क| | ।
गंगादि सर्व इस भृत्रसे आचमनीय, ‡ श्रीखण्ड चन्दनम दस मंत्रसे चन्दन; अक्षताश्च इसपे अत्त; ८ | | 1
हरदा दुंकुमम्' इससे सोभाग्य द्रव्य; "मालतो चंपकदीनि' इससे पुष्प; अगकं गुग्गुलुम्" इससे धूष; = `
५ चकलु सर्वलोकानाम् इससे दीप ‡ नानापक्वात्च सयुक्तम् इससे नवद ‡ कर्परेला इससे ताभ्बद ४ द्द १ ५ ॥ ध
४ ५ फते इससे फल; "हिरण्यगभं इससे दक्षिणा 2 नीराजयानि इससे नीराजन - यानि कान्ति पदक्षिणा ; ह | ^ +
देवपत्नियोके
के आश्रये ! हे स्वयं लक्ष्मीजीसे पुजित हू । हे देवि ! तेरे लिये नमस्कार है, मुके सौभाग्य, आरोग्य ` ४
ओर आयु ३, इससे नमस्कार; तु सतियोके कामोंको देनेवाली मेरे कामको पूराकर, इसे प्रार्थना; है कदलि ! | ।
तुष कामोके देनेवाली मेषाके लिये नमस्कार है, है सब सौख्योके देनेवाल ! तृन भूमिसारा रंभके ल्थि
नमस्कार है । हे कदि
ल ! जैसे जैसे तेरे कुला पूते ह उसी उसीतरहमेरेमनोरयभी बढते रहं, इसते कदलोका `
दान समपंण करना चाहिये । (पजनम जहाँ नहा यहं (:) चिह्घ लगाया है वहां सर्वत्र समर्षण०्जोडकेना =
चाहिये
विवात्मन् इवात्मन् ! है दीनोके देन्योको मिटानेवाङे \\ १।। आही हमारे एकबन्धु एवं सखा १ ५
आपके त प | ष ` रखाये हृए निभेय विचर रहं हे ।\२॥। में कुछ पुना चाहता हूं आप कृषा करके बताएं जिसे ८ | ५ 0
कल्याण है, हे भगवन न् उसे मुञ्चे बतादौजिये । कृष्णजी बोरे, कि, मे उस श्रषठ वरतको कहता हं
सुनिये (1५1) जिसको करके स्त्री सभी दु लोके | र
रतानि] = दिनदीटीकासहित (७३१) `
होजाओगी, यह सुनकर देवौ रुदिमणी मुञ्षसे बोली ।\१०।। कि, रंभाव्रत कंसे होता है, उसकी कया विधि
है कंसे एजन होतः है, पिके किसने किया है, मत्यलोकमें किसने प्रकाशित किया ।।११। रक्रिणीके वचन ` |
. धत्कत-म फिर बोला कि, मं रंभाव्रतकौ विधि कहता हू, आप मेसे कथाको यथावत सुने ॥१२।। गोचम॑ 1
मात्र { इसे पौछे बताते हं ) भूमि लीषकर सर्वतो भद्र मण्डलं नील पीत काला धोखा इत्यादि पांच स्पेस
बनावे ।\१३।। ब्रह्मादिक देवताओं को सर्वतोभद्रमंडलपर स्थापित करके पूजे, विधिपुरवेक स्थापित किये `
हुए कलश स्थापित करके उसपर विधिपुवेक अच्छा बाँसका पटर रखे ।\१८।। उद्टपर मलमंचसे उमा-महेश्वर
का पुजन करे अथवा स्वस्तिकं बना अष्टदल पद्ध काटमर अच्छी सावित सुन्दर पत्तों ओर जड समेत केलाको
स्थापित करके उसे विधिपूर्वं परजे ॥ १५।। १६ ।। एकाग्र चित्त हो उत्तम पानौसे उसे सीचे, फिर यथारेभे `
यहासे, भवतुस्वयम्' यहांतक बोले इस प्रकार भवितिभावके साय विधिपूरवेक पुजकर ।।१७-१९॥। गानेबजाने |
आदिक साथ रातमें जागरण करे ! इस्त प्रकार जो स्त्रियां इस ब्रतको करती है ।।२०।। वे अनेक प्रकारे |
भोगोको भोगकर सौभाग्यको प्रप्त होती हं इस कारण हे रकिमिणी ! विधानके साय उस व्रतो कर, कहे ~
हए फलको पाजायगी ।\२१।। रक्मिणीने भगवान् कृष्णसे सुनकर उत्तम ब्रत किया इसी ब्रते प्रभावे |
बह सब मन चाहे कामोको पागई ।।२२।। हे राजेन्द्र ! इस ब्रतका ओर द्रूसराभी उत्तम फल सुनले जिते `
सुनकर मनुष्योको आश्चयं होजाय, आप एकाग्र ह इस कारण मे कहता हूं ।\२३।। जब द्रोपदी ज्भामें जोत
गई तो सभाम लाई गई वहां दुष्ट दुः्ासनंने उसके बाल छोडे नहीं धे तो बाल पकडकरहौ लाई गयी `
क्िरके बार खुल गये थे ।\२४।। जब वस्त्र खीचा जानेलगा तो मनसे मेरा स्मरण किया । मेँ ीघ्रहीहैि |
राजन् ! द्रौपदीको बचाने पहुंच शया ।\२५।। पर मं दहा किसीको दीखता नहीं था मेने द्रौपदोको यहूव्रत |
` बताया था है राजसत्तम ! जव वह् न कर सकी ।२६।। तव सविमणीने अपने किए व्रतकोद्रौपदीको देदिया = ।
चा ॥२७।। उती ससय इष्ट शासन वस्व सीचता जाता था, तथा वत्र बढते जाते चे ॥२८॥ है भारत! ` |
अनेक रंगके वस्त्र वहाँ स्वतः उसी जगह आपह उत्पन्न होगये थे, पापी इुःलासन हार, वस्त्र खीचना। छोड `
` । अरत्निमात्र स्थंडिर
| बैठ गया ।\२९।। ह राजन् ! जबतक वह भक न गया तवतक जसे केलेसे केला निकलता चलता है उसी _ |
त कपडेके भोतरसे कपडा निकलता चलता था, एसा इस व्रतका प्रभाव हे, यद्यपि कटने लायक नहीं ध
हैतो भी मेने कहदिया है, आपभी विधिपूरवेक कराये । भपकेभी सब काम पुरे होजायगे, यह श्रीकदली- ` ५
: व्रतकी कथा पुरी हुई \। कदलीन्रतका उद्यापन--युधिष्ठिरजी पुने लगे कि, हे केशवं ! यह मुक्षे कतादये
कि, इस उत्तम व्रतको कौनसे तिथि मासोमे करना चाहिये एवं कदखीके अभावमें क्या करना चाहिये |
` श्रीकृष्ण बोले कि, कातिक माघ, वैश्लाख अथवा दुसरे किसौ पवित्र महीनामं पणिमाके पवित्र दिन तिथि- `
क्षथको छोड शुभ योगोमें एकाग्र चित्त हो करे । हे राजसत्तम ! जिस दशमे कदली न मिते वहांसोनेकी |
अच्छी कदली बनाकर पुजा प्रारंभ करदे, यदि कवली मिलजाय तो उसे लगाकर पूजा प्रारभ करदे । जबतक = `
उसके फलं न पके तबतक, है राजन् ! पवित्र पानीसे सचता रहे जब फल पकजायं तब ब्राह्मणको बवे
निल प्रभातमे नदी आदिके निर्मल जलम स्नानकर अहत वस्त्र धारण करके सन्ध्यावन्दन जादिक करे |
बना मौन हौ पवित्रताके साथ अग्निक स्थापनां करके होमका विधिपूर्वकं प्रारंभ । 9 (1
करदे । तिल ओर घौकी एकसौ आठ आहुति दे इसको एकाग्र ५ त चित्तवाला 7 रस तात्मा कर्ता व्याह
भीदे, दूखरोके लिएभी शक्तिके अनुसार अघर ओर दक्षिणा दे, क्षमापन करा व्रेतकी परिपूणंता कुल्व
न्यायके अनुसार अच्छिद्रत्वपनेकौ भावना करे, दीन ओर अनाथोको तृप्तं करके स्वयं पवित्रे एवं मोनी
हौकर भोजन करे, है राजन् ! जो इस प्रकार इस उत्तम कदली व्रदको करता है वह् अनेको भोगोको भोगकर
, सौभाग्यको प्राप्त होता है, इक कारण विधानपुवंकं करिये, कहा हृंजा फल अवदय मिलेगा । जो कोईस्त्री `
वा पुरुष ईसं प्रकार कदली ब्रत करते हं बे सब कारको प्रप्त होकर सोभाग्यको प्रप्त होतेह । यहश्री
भर्विष्यपुराणका कहा हजा कद्लीब्रतका उद्यान पुरा हज ॥ ` (^ +
4 ५ रकचतु्दशी व्रतम् |
अथ पौणिमान्तमासेन का्तिककृष्णचतुरदशी नरकचतुद॑सी ।। तस्यां तिल- `
। १ तैलेन स्नानम्क्तं भविष्ये-कातिकस्यःसिते पक्षे चतुदेदयां विधृदये ।! अवश्यमेव `
| कार्तिकस्य सितेतरे \\ पक्षे प्रत्यूषसमये स्नानं कुर्यत्परियत्नतः ।। इति निणेयदीपि- `
. कोक्तः पवेदिनें अभ्यद्धः कायः । परदिन एदेत्थन्ये ।। दिनदय चतुदहयभवे तु
चतुदेश्यां चतुथेयासे स्नानमिति दिवोदासनिबन्धे । स्मृतिदपेणेऽपि-चतुदंशी
याहवयुजस्य कृष्णा स्वात्युक्षयुक्ता हि मवेत्प्रभाते ।। स्नानं समभ्यच्यं नरस्तु
क्षयं याति चतुर्दशी ।। रात्रिशेषे त्वनावास्या तदाभ्यद्धै त्रयोदशी ।! इति च्तुथै-
। अमावस्याचतुदश्योः प्रदोषे दीपदानतः ।॥ `
न्धिकारेभ्यो मुच्यते कातकं नरः ।॥ तथा ब्राह्मे -ततः प्रदोषसमये
यं सुगन्धतेलेन च विघ्रयुक्तः \! तले लक्ष्मीजर ग्धा दीपावत्याहचतुदशीम् ।
॥ त शषः ।। ्रात्ः स्नानलुय् कूर्या्मलोकं स् परयतीति ब्रह्मोक्ते तथा
कृष्णचतुदेह्यामारिवनेऽर्कोदयःत्पुरा । यामिन्याः पद्चिमे यामे तलाभ्यद्धो
विशिष्यते ।। मृगाडःकोदय वेलायां त्रयोदश्यां यदा भवेत् ।। दें वा मङ्खलं स्नानं `
` दुःख्ोकभयप्रदम् ।। इति कालादशें उयोदशीनिषेधाच्च \। त्रयोदज्ी यदा प्रातः
प 1. प व ८ ; क 5
1 स ः ष ४1 क्ष त न
श्यामाश्ििनेऽ्कोदयात्पुरा ।। यामिन्याः पश्चिमे यामे तेलाभ्यद्धो विशिष्यते \\ `
चतुदेश्यादिदिनत्रयविधानम् ।। बारुखित्था ऊचुः ।। पु्व॑विदचतुदे्यामाश्िविनस्य ५
` सितेतरे । पक्षे प्रत्यूषसमयं स्नानं कूुयत्प्ियत्नतः ।। अरंणोदयतोऽन्यन्र रिक्तायां `
` स्नाति यो नरः । तस्याब्दिकमवो घर्मो नष्यत्येव न संशयः ॥ तथा कृष्णचतुदे- `
यदा चतुदेक्ली न स्यादिदि चेद्विधूदये ।। दिनद्ये भवेद्वापि तडा पूर्वैव गृह्यते \\ ` श
। बलात्काराद्धठद्रापि शिष्टत्वान्न करोति चेद् ।। तैलाभ्यङ्धं चतुदेहयां सैरवं नरकं `
व्रजेत् ।। तैलं लक्ष्मीज॑रे ग्धा दौपावल्याषचतुदशीम् ।। जपामागेमथो तुम्बीं `
र स्युः प्रत्येकं च नमोऽन्विततः ।। एकंकेन तिलमिश्रान् दद्यास्तीनुदकाञ्जलीन् ।। ५.
, प्रपुन्नाटमथापरम् ।। भामयेत्स्नानमध्ये तु नरकस्य क्षयाय वे ।! दिनत्रयं त्रिवारं
च पठित्वा मन्त्रमुत्तसम् । सितालोष्टसमायुक्तं सकण्टकदलान्वितम् । हर `
पापमपामागं आआाम्यमाणः पुनःपुनः ।1 इष्टबन्धुजनेः सारधमेवं स्नानं समाचरेत् ॥ `
` ततो मद्धलवासांसि परिधायात्मभूषणम् ।! छृत्वा च तिरक दत्वा कातिकस्नान-
माचरेत् ।\ स्नानांगतयेणं कृत्वा यमं सन्त्॑येत्ततः ।॥ यमाय धर्मराजाय मृत्यवे
` चान्तकाय च ।। वैवस्वताय कालाय सर्वभूतक्षयाय च ।। ओदुम्बराय दध्नाय '
नीलाय परमेष्ठिने \। वृकोदराय चित्राय चित्रगुप्ताय ते नमः ।। चतुदेशेते मंत्राः |
यज्ञोपवीतिना कार्य प्राचीनावीतिना तथा ।। देवत्वं च पितृत्वं च यमस्यास्ति
| द्िरूपता ।। जीवत्यितापि कुरवौत तर्पणं यमभीष्मयोः ॥। नरकाय प्रदातव्यो दीपः
संपूज्य देवताः ।। अत्रेव लक्ष्मीकामस्य विधिः स्नाने मयोच्यते ।। इषे भूते च दक्षं |
च का्तिकश्रथमे दिने ।। यदा स्वाती तदाभ्यद्धस्नानं कुर्याष्ठिधूदये ।। उर्जशुक्ल- = |
द्वितीयायां यदिः स्वाती भवेत्तदा ।\ मानवो मंगलस्नायी नैव लक्ष्या वियुज्यते! |
| दीषे्नीराजनादच्र सैषा दीपावलिः स्मृता 1) इन्दक्षयेऽपि संक्रान्तौ रवौपाते दिनक्षये।। ` ५
(छद). वयल [चतुव
दानं ये मुवि कुवन्ति मानवाः \। तेषां गृहे तव स्त्ीयं सदा तिष्ठतु सुस्थिरा \\ मम
राज्ये गृहे येषामन्धकारः.पतिष्यति ।\ अखक्ष्मीसहितस्तेषामन्धकारोऽस्तु्स्वेदा 1 =
चतुदंश्यां तु ये दीपाच्नरकाय ददन्ति च \ तेषां पितृगणाः सवे नरके निवसन्तिन
11 बलिराज्यं समासाद्य येनं दीपावलिः कृता ।! तेषां गृहे कथं दीपाः प्रज्वलिष्यन्ति =
केशव ।! बलिराज्ये तु ये लोका लोकानुत्साहकारिणः ।। तेषां गृहे सदा ज्ञोकः `
पतेदिति न संशयः ।! चतुर्दशीत्रये राज्यं बलेरस्त्वित्ययोजयत् \) पुरा वामनरूपेण `
भ्राथयित्वा धरामिमाम् ।\ ददावतिथिरिन््राय बालि पातालवासिनम् \) कृत्वा
` दैत्यपतेदेततं हरिणा तदिन त्रथम् \\ तस्मान्महोत्सवं चात्र स्वेथेव हि कारयेत् ।॥ `
महारात्रिः सम्त्पन्ना चतुदेश्यां मुनीदवराः ।\ अतस्तदृत्सवः कायः चक्तिपुजापरा-
यणेः।। बकिराज्यं समासाद्य यक्षगन्धवेकिच् राः \। ओषध्यदच पिशाचाश्च मन्त्राश्च `
मणयस्तथा ।\ सवे एव प्रहुष्यन्ति नृत्यन्ति च निशामुखे ।। तत्तन्मन्त्रार्च |
` सिदढधचन्ति बलिराज्ये न संशयः ।1 बलिराज्यं समासाद्य यथा लोकाः सुहषिताः।॥
तथा तहिनमध्येऽपि जनाः स्रहषिता भृशम् ।। तुलासंस्थे सहस्रांशौ प्रदोषे भूतह- `
षयोः \। उल्काहस्ता नराः कुर्युः पितृणां सा्गदशेनम् ।। नरकस्थास्तु ये प्रेतास्तेऽपि `
ब्रतात्सदा \\ पद्रयन्त्ये व न सन्देहः कार्योऽत्र मुनिपुद्कवाः ।\ आद्विनस्यासिते `
स द्खवा
इति श्रीसनत्कुभारसंहितायां काततिकमाहात्म्ये नरकचतुदं्यादिदिनत्रयविधानं |
संपूणेम् ।! इति नरक्चतुदेशी !! अ 11
` ~` नरकचतुदेशी-पौणिमान्त मासके हिसाबसे कर्तिक कृष्ण चतुरदेडीको कहते हे । भविष्ययुराणने कहा = `
है कि,उसमें तिलके तैलसे स्नान करे । कातिककृष्णा चतुरकलीके दित चंद्रमाके उद्यमे नरक्से डरने बाले
. को अक्यही तिलके तेलसे स्नान करना चाहिये! यदि दो दिन चन्द्रौदयके समय चतुर्दशी रहै तो कात्तिक
शुक्ला पुवेविद्धा चतुरदकके दिन प्रयत्नयूरवेकं प्रस्यृषके सभय स्नान करना चाहिये,दस नि्णयदीपिकाके कथनसे `
पूवं दिनही उबटन करना चाहिए । परदिनही अभ्यद्ध करना चाहिए । एेसाभौ कोई कहते है । इसमे ब्रतराजकौ `
संमति नहीं मालूम होती । यदि दोनोही दिन चन्द्रोदये चतुदश न हो तो चतु्दशीके चौथे पहरमं स्तन `
करना चाहिए. यह दिवोदासके निबन्धमे लिखा ह॒ है । एवं स्मृतिदर्पणमे भी लिखा है । कवार कृष्णा `
चतुदश स्वातिनक्षत्रसे युक्तहो तो मनुष्योको स्नान उबटन करना चाहिए तथा सुगन्धित तैल लगाने चहिये! `
ीपावलीकी चतुदेशीको प्राप्त हो तेलमे लक्ष्मी तथा जलम मंगाजी रहती है, क्योकि, मूलम "चतुदंशीम्' ` |
तीयान्ते पाठ है उसका प्राप्यके साथ संबन्धः है ! जो मनुष्य प्रातःस्नान करताहै वहयमलोककोनही `
हयपुराणमेंलिखा हज है ! आद्िविनङृष्णा चतुर्दशौको सूरय्योदयसे पहिले रातके पिके पहरमे
होना चाहिये जयोदहीमें अथवा अमावसमं चन्द्रोदयके समय मंगलस्नान हौ तो बह दुख शोक ओर `
वि व्रतानि] ` ` हिन्दीटीकासहित ` (७३५) ॥
क्षयतिथिमें भी कातिकमे इनमें स्वातीनक्ञत्रका योग हो तो उस समय दीपावली होती है । (अमानत मानका
पि मासका कृष्णश्च पुणिमान्त मानक दूसरे मासका होता है इस हिसाबसे आदिन कृष्णको काति ` 2 । ५1
कष्ण समन्षना चाहिये । इस तरह नरक चतुदंशीके उदाहृते वाक्योमे स्ैत्र आश्िवनके स्थानमे पोणिनान्त = `
मासमानका कातिके समञ्षना चाहिये ।) मदनरतनने ब्रह्मपुराणसे लेकर इसमें स्नान विशेष कहा है कि,
नरकनाशके लिये अपामार्गे, तुम्बी, प्रयुल्ञाट इनको स्नानके बीचमें फिराना चाहिये । शिरे ऊपर अपामाभेके
पत्ते फिराना चाहिये, इसके पीछे तपण धर्मराजके नामसे करना चाहिये, कातिककौ अमावास्या ओर `
` चौददाके दिन प्रदोषके समय दीपदान करनेसे यमके मार्गके अन्धकारमे मुवत होजाता है । यही ब्रह्मपुराणमे `
च्लि हृजा है किः इसके बाद प्रदोषके समय ब्रह्मादिष्णं ओर शिवजीके मंदिरमे एवं घरोमे प्राकार, बाग
वापी गली, घरके बगौचे घोडे हाथी बंधनकी जगह इन सवमे दीपक जलाने चाहिये । लिगपुराणमे विकेषता `
लिली हुई है कि. परतचतुदंशीके दिन तपोधन शव वा इूसरोको भोजन करा शिवलोके प्रतिष्ठित होता है 1
` उन्हं दान देकर यमलोक नहीं जाता । इसमें रातको भोजनभी कहा है कि, क्िवकी प्रसन्नतके ल्यिजो |
` नरक चतुदंशीके दिन नक्त भोजन करता है उसे बह पुण्य मिलता है जो सौ यजो से भौ न मिलसक्े, शिवारातिकि |
दिन किगपूजा करके अक्षय भोगोको प्राप्त होकर शिवजीके सायुज्यको पाता है । नरकचतुदंञ्ञौ आदि तीन
` दिनके विधान सनत्कुमारसंहिताके कहे हुए कहे जाते ह--वारखिल्य बो कि, आवन (कार्तिक) कृष्ण |
चतुदंशीके दिन प्रत्यूषमें श्रयत्नके साथ स्नानं करे ! अरुणोकयसे अतिरिवत रिक्तामें जो मनष्य स्नान करता
५ है उसका एक सालका किया धमं नष्ट होजाता है इसमं सन्देह नहीं है । आर्विन कृष्ण चौदशके दिन सूर्य्यो |
दयसे पहिले एवं रातके पिछले पहूरमे तेलका उबटन होना चाहिये यादि दो, दिन भी चनद्रोदयके समय ` | ष
` चतुदेज्ञीनहौ अथवा दोनोंही दिन हो तौ पूवाकाही ग्रहण होता है, जबरदस्ती हठसे वा बडप्यनसे जो चतु्दशीके
उक्त समयमे तलका उबटन नहीं करता वह रौरवनरकमें जाता है, दिवाखीकी चतुरदरी कौ प्राप्तौ होजानेपर |
। तैलमें लक्ष्मी जलमें गंगाजौ निवास करतो है । अपामार्ग, तुम्बो, ्रपु्ाट (फुभाड) इनको स्तानके बीचमें
फिराके इससे नरकका नाडा होता है । तीनदिन उत्तम मंत्रको बोलता हुभा, कंकडी ठेले समेत एवं कदर ` 4
पत्तोके साथ हे अपामा ! तुम वारंवार फिराये हए मेरे पापोको हरो !इष्टं ओर बन्धुओके साथ इसप्रकार |
स्नान करे! इसके पीछे मांगलीक वस्त्र भषण पहिन कर, तिलक करके कातिकका स्नान कर स्नानका अंग- ` 1
` शूप तर्पण करके पौषे यमका तर्पण करना चाहिये ! तुञ्च यम, धर्मराज, मृत्यु, अन्तक, वैवस्वत, काल, स्वं भूत- `
| क्षय ओदुम्बर, दध्न, नील, परमेष्ठी, वुकोदर, चित्र, चित्रगुप्तके लिये नमस्कार, हैःये कथित चौदह नामोके `
नाम संत्रहै,प्रत्येकको चतुर्ौविभव्तिका एकवचनान्त करके आदिमं ओम् ओर अतप नमः लगाना चाहिये, = `
एक एक नामम॑त्रसे तिकतोदककौ तीन तोन अंजिलियां देनी चाहिये । यजञोपवोतौ तथाप्राचोना वौती होकर
करना चाहिये, क्योकि यमदेव देव भी हे ओर पितर भी यम हे दोनोही रूप हे, जिसका पिता जिदाहो उसको
भौ थम ओर भीष्मका तर्पण करना चाहिये । देवताजोका पुजन करके नरकके ल्य दीपक देना चाहिये, `
इसीमे लक्ष्मी चाहनेवाले स्नानकी विधि ने कहता हूं आदिवन (कालिक) छृष्णचौदक्ष अमावस मौर शुक्ला = `
्रतिषत् इनमें जब स्वाती नक्षत्र हो तब ही अभ्यद्धः स्नान करना चाहिये, यदि कार्तिक शुक्ला द्वितीयके
३ नहीं होता, यहां दीपो ॥ में ध द होनेसे दीपा
(०३) ् ताराज [ चतुदेश्ली
आपने इन तपाली इस कारणं ,तीन दिमोभे सुश्च बलिका राज्य हो मेरे राज्ये तीन दिन जो मनुष्यदीवक
करेगे उनके घरमे आपकी स्त्ीलक्ष्मी सदः स्थिर रहै ¦ मेरे राज्यम जिनके घर अन्धकार रहेगा, जलक्ष्ीके | । <
` साथ उनके घरमे सदा अन्धकार रहे ! जो चतुर्दरीके दिन नरक्के लिये दीपौका दान करेगे उन्केसभौ |
पितर लोग कभौ नरकमें न रहगेबलिके राज्यको पा जिन्हने दीपावलि नहीं कौ, हेकेशव उलकेन
धरमेः दौपक कंसे जलेगे ? तीन दिनबल्के रलम जो मनुष्य उत्साह नहीं करते उनके घरमे सशाशोक |
रहता है इसमे सम्देह नहीं है ! इन तीनदिन लिका राञ्य रहे । पहिले जो अतिथि वामनकूयसे बल्सि == |
मांगकर इस भूमिको इनदरके लिय दे दिग्ादलिको पाताले लाकर भगवानके येतीन दिन द्धि, इस कारण = |
इनमे अवदयही महौत्सव करना चाहिये । हे मृनिक्वरो ! चतुर्दशी महारात्रि है इसमे दाक्तिके उपासकोको
शक्तिकी पजा करनी चाहिये, बलिके राज्थके दिनोमं ओषधि, पिशाचः मंत्र, मणि ये सबही प्ररोषके |
समय राजौ हो हौ नाचने लगते हँ ! उन उनके मंत्रभी सिद्ध हो जाता है इसमे भौ सन्देहं नहीं है । बल्कि = |
४ | राज्यको देख जसे लोक हर्षित एह उसी तरह से माननेवारेभी हषित हतं । सु््थंके तुला राशिपर रहते, । 1
चौदह अमाचसके दिन प्रदोष कालम हाथमे जरती मसा केनेसे पिवरोको मागे दीखताहे। हे म॒निपंगब्यी! |
ओ प्रेत नरकसे भौ पडे हुए हं बेभौदसं दिनके व्रत विधानसे अपना मागं देख लेते हं इसमें सन्देह
महीं । जार्िविनद्ृष्णयन्नकौ चौदससे रेकरतीन् तिधयां, दीपदान अदि कार््योमिं मध्याह्वव्यापिनी छेनी
चाहिये ! यदि संवग (सूर्योदयके छःघडीकेषीछे बारह घडीतक ) कालस पहिले ये तिथियों हौ तो दीपदान | ॥
का्येमिं जदिषुवंसंयुक्त करनौ चाहिये । भनौसनत्छुमारसंहितके कहे हए कातिक महात्म्यमे नरकचतुर्दशी |
आदिके तीन दिनों करा विधान पुय हुजा ।! तथा नरक चतुरदेशौ भी पुरौ हई \\
८ वेकुर्चतु्दक्षी
शुक्लपक्षे चतुदयामरुणोदयसम्भवे ।! महादेवतिथौ ब्रह्य मुहृते मणिकणिके ।! `
स्नात्वा वि्वेहवरो देव्या विश्वेश्वरमपुनयत् ।। संक्षेप ज्योतिषस्तस्य प्रतिष्ठाख्यं `
तदाकरोत् ।। स्वयमेव तदात्मानं चरन्पाज्ुपतत्रतम् ।। ततः प्रभाते विमले कृत्वा
पूजां महा ताम् \। दण्डपाणेमंहानाम्नि वनेऽस्मिन्करृतपारणः। श्रीसद्धूवानीसदनं
4 प्रविश्येदमनुत्तसम् । इति सनन्कुमारसंहितोक्ते अथ कथा-वाल्खिल्या `
~ य
` त्तानि] हिन्दीटीकासहित = (७३७) ।
इवराः ।। पुण्डरीकाक्ष इत्येवं मां वदन्ति मूनीहवराः ।। १० । नेत्रं मे पद्मसदशं
पद्माथें त्वपेयाम्यहम् ।। इति नि्िचत्य मनसि दत्वा तजेनिकां स तु ।\११।ने्र-
` मध्यात्तदुत्पाटचय सहादेवस्तु पूजितः ।। ततो महश्वरस्तुष्टो वाक्यमेतद्वाच ह॒ `
॥ १२॥\ महादेव उवाच ।। त्वत्समो नास्ति मड्धक्तस्त्रैलक्ये सचराचरे \\ राज्यं `
दत्तं तचरिलोक्यास्ते भव त्वं लोकपालकः ।! १२३ ।। अन्यद्ररय भद्रं ते वरं यन्पनसे- `
प्सितम् ।\! अवह्यमेव दास्यामि नात्रं कार्या विचारणा ।। १४ । मद्धूक्तितु
समालम्ब्य ये द्विष्यन्ति जनादेनम् ।। ते मद्रेष्या नरा विष्णो व्रजेयु्नरकं ध्रुवम् `
॥ १५ ।\ विष्णुरुवाच ।। चरलोक्यरक्षाकरणं ममादिष्टं महेश्वर ॥। दुमदाञ्च `
महासत्वा देत्या मार्याः कथं मया ।। १६ ।\ शिव उवाच । एतत्सुद््ानं चक्र `
सवेदेत्यनिङ्ृन्तनम् ।) गहाण भगवन्विष्णो मया तुभ्यं निवेदितम् 4} १७ ।। अनेन `
हेमलबाख्ये मासि श्रीमति कातिके ।। शुक्लपक्ष चतुददयामरुणा [भ्य द |
९ 1 महादेवतिथो बाय महतं मणि्काणके ॥ सनात्वा वेदवर लिङ्गं |
वेजातिभिः !। २२॥। उपवासं दिवा कुर्यात्सा
यमन्यथा निष्फलं भवेत् ।\ २३ ।\ बट ह्या ् 1
ध ।। २४ ।! सहस्रकमलेविष्णुरादौ येः पूजितो नरः ।। पश्चाच्छिवः पुजितदचेज्जीव- `
ध न्मुक्तास्त एवं हि ।। २५ ।। साय स्नल्वा प्ल्चनद बिन्दुमाधवमचेयेत् ( सहल हरं |
(७३८) ` वतर = [ चतुदेज्ञी- ` |
. सत्य मेतद्रचो मम \। एवं तस्मे वर दत्त्वाथास्तर्धानं ययो शिवः \\ ३६ ।\ तस्मात्स- |
` वेष्रयत्तेन पुज्यो हरिहराव॒भौ \। प्राप्ते कलयुगे घोरे कश्लौचाचारविर्वाजते ।\ ३७। `,
।\ ३७ ।\ तच्वसंख्येवषरतेगतेदवो महेद्वरः \\ वाराणसीस्थलिद्धानि पातलेस
हि नेष्यति ।! ३८ \\ ततो द्विगुणवषस्तु गद्धा वाराणसी तथा \। भविष्यति च `
सादृश्यात्त॑तो वे सुमुनीहवराः ।। ३९ ।! अर्न्ताहिता यदा काक्ञी भविष्यति तदा
मुने ।) नाशस्तु लिद्धचिह्वानां निष्प्रभाः सकला {जनाः । ४० ।। चतुदेशाब्दं `
दभिन्ं महामारीसमुधवः ।\ गोवधदचापि सवत्र मृत्तिका भस्मसन्निभा ।। ४१।
गद्धोत्तया तु था धारा पते्धगीरथाश्रमे ।। हरिद्राराच्च वायव्ये तस्या लोपो
भविष्यति ।\ ४२ ।! भागीरथ्यां गतायां तु मकंटीतन्तुसल्निभाः ।। भविष्यन्ति |
जले कीटास्तोयं नीलीनिभं तथा ।\ ४३ ।1 चतुवेषंसहसरस्तु लैलस्थाः सवेदेवतः।!
र त्यक्त्वा गमिष्यन्ति मानसं च सरोवरम् ।\ ४४ ।। गतेषु सर्वदेवेषु राजानो `
धयविच्युताः ।\ पापिष्ठाइच दुराचारा अनीतिपरिपीडिताः \। ४५ ।। कलेरयुत- `
भविष्यन्ति यदा खग ।॥। श्रौतमार्गस्य लोपो हि भविष्यति न संशयः
दा लोका भविष्यन्ति मदयपानपरायणाः ।! स्वल्पायुषः स्वल्पभाग्या
प भ; प क
नानारोगश्च पीडिताः ।1 ४७ ।। द्वित्रास्तु दक्षिणे देशे वेदज्ञाः संभवन्ति च ।) ~
\\ विना यो हरिपुजां तु कुरयादु्रस्य चार्चनम् \\ ३५ ।\ वृथा तस्य भवेत्पूजा ` ॑ |
| |
वैकुण्ठचतुरदशीव्रतम्--का्तिक शुक्ला चतुर्दीको होता है, इसे अरुणोदयव्यापिनी लेनी चाहिये । `
नणय सिन्धकारने कहा है कि, इसे विष्णुपुजामं रात्निव्यापिनी लेना चाहिये । यदि दो दिन एेसीही हो `
प्रदोषसे निहीथतक रहनेवाखी ऊेनी चाहिये \ यदि विद्वेह्वर भगवान्की प्रसन्नताके लिये उपवास `
आदि किये जाये तो अरुणोदयन्यापिनी लेनी चाहिये ।) उपवासं तो पहिले दिन करना चाहिये क्योकि
सनत्कुमारसंहितामे लिखा हुमा है कि, हैमलम्बनामक वषेके कातिकमासकौ शुक्ला चतुरदशीमे अरुणोदयक्रे
मय महादेवजीकी १९ तिथिमें मणिकणिकाके घाटपर विक्वेहवर विष्णुने स्नान करके देवीसहित चिदवेदवरका `
1, उस समय आपने मात्मस्वरूप पादयुपति ब्रतकरते हए ज्योतिके संक्षेपके स्मे उसकी प्रतिष्ठा `
क्तानि] हिन्दीदीकासहित (७३९) |
पनत भूल गया हुं 1\६।\ कभी यह सोचते कि नामही भूल गया हूं कभौ विचारते कि, कमलोमेही मा `
| हं अन्तमं यही सोचा कि में नाम नहीं भूला ॥\७।\ मनम कहने लगे कि, मेने एक सहल कमलोसे पुजनेका = ।
संकल्प क्ियाथाकि फिर में एक कम एक हनारसे कंसे पुन् ।८।! यदि मे लेने जाता हं तो आसनकाभंग ` ` |
होता है इस प्रकार उष्टि्न होकर विचारने लगे कि, अब मेँ क्या करूं ॥\९।} हे मुनिवरो ! उनके मनमे `
एक विचार जाया कि, मुञ्षे मननशील जन पुण्डरी कक्ष कहते हे ।१०।। मेरे नेत्र कमलके समान है इनमेसे `
एक कमलके बदले चढा दूंगा एसा विचार त्जनिका दे ।११।। नेत्र उवाडा पीछे महादेवजी पर चढादिया `
क इससे हिव प्रसन्न होकर बोरे कि ।\१२।। इन चर अचरवाले तीनों लोकोमं तेरे समान मेरा दूसराकोई
| . भक्त नहीं है, मेने आपको तीनों लोकोका राज्य देदिया आष लोकके पालक हो जामो ।\१३।। आका ` त ध ध.
9 कल्याण हो । ओर जो जापके मनम हौ उसेभी मांग लोजिये । मे जवर्यही देदृगा इसमें विचार करनेकी |
` जरूरत नहीं है \\ १४1! मेरी भक्तिको लेकर जो धिष्णुसे वैर करते हे वे मेरे भी द्वेषी हँ बे जन निष्चयही नरक
जार्येगे । १५।। विष्ण् भगवान् बोले कि, मुञ्चे आपने तीनों रोकोकी रक्षाकरनेका आदेश्च दिया है, हे महेश्वर ! ध
मेद महासत्व दैत्योको में कंसे मारूगा ? ।\१६। रिव बोरे कि, यह सुदरनचक्र है सब दैत्योको काट `
4 - दालेगा हे भगवन् विष्णो { में आपको वहं देता हूं आप इसे ग्रहण करिये ।\ १७।। इसीसे आप सब देत्योका `
। कतल करं । सुदशंन चक्रको भगवानके लिये देकर फिर क्षिवजी' बोले ।१८।॥ हिमलम्ब्र वषं कार्तिक शुक्ल ` `
चतुदंशीके. अरुणोदयके समय ।\१९।। महादेवजौकी तिथिके माह्यमृहूतमे कालीम मणिकर्णिका घाटपर |
स्नाने करके वंकुण्ठसे आ विदवेदवर {लिगका एकहजार कमलम पूजा था । इस कारण यह् तिथि मेरी ५
` होगी सब लोकोमे इसका नाम वैकण्ठचतुरदेशी होगा ।\२०-२१। हे विष्णो ! मेरे वचन सुन ओर
देता हूं सबको पहिली रात्रिम आपकौ पूजा करनी चाहिये उपवासक्े दिन सायंकालको आपका अर्चन करना
चाहिये, मेरा जचेनं इसके पीछे नहीं हो तो उसका मृष्षे पुजनाही व्यथं है ।१२२-२३। आपकी पूजाम
रान्निव्यापिनी चतुर्दक्ौ लेनी चाहिये एवं अरुणोदयके समयम शिवपूजा करनौ चाहिये ।।२४। एक हजार
. कमलोसे विष्णुका पुजनकरके जिन्होने शिवाचेन किया है वे मनुष्य जोवन्मुक्तं हु ।\२५।। सायंकाक्के खमय ५.
1.८ पं पंचनदसे स्नान करके बिन्दुमाधव का पजन करना चाहिये । पं विष्णु जिन्दं माधव सुन्दर एक हजार कमलेसे = `
। सहस्र नामसे पूजने चाहिये ।२६।\ मणिकणिकामे स्नान करे सहस्नासोसिपुष्पोसे विदापुजन हना चापे! = |
एसा करनेवाले जीवन्मुक्त होते हे ।(२७।। विष्णुकांचीमे स्नानकरके इस अनंत तथा स्द्रकाचौमे २ क रकैः |
णका पूजन करना चाहिये, रेतोदकसे स्नान करके फेदारेशका अचंन करना चाहिये ।३०।। यहां ही
` प्रयोजनवालोका प्रयोजन हो जाता है \! इसमं सन्देह नहीं है ।यदि जलपनद्म नं मिले ¡ ते स्थलपव्पसि पजन
होना चाहिये ३११ यर कै वेणीमाधवको पूजे ! पीठे जाह्लवौमे स
मा इवेतयद्मोसि शिवको भून ह है विष्णो
[ चतुदंरी- ५ | त
८ तनतु तुकि | व बराबर गंगाजीमें कीडे पड़ जायंगे पानी नीला होजायगा ।\४२।। चार हजार वषं पीले १
प्रचैतोके सब. देव सत्वछोड कर मानसरोवरपर चरेजायंगे ।! ४४ \! सब देवोके चलेजानेषर राजालोग धम
हीन होजायंगे ॥। वे पापी दुराचारी ओर अनीतिकरनेवाक होगे \\! ४५ ।\ जब कचियुगको दशहूनार वषं
¢ सीत त नाथय उस अम्य है भरड ] श्रौत भागक लोप ह जायगा, रसम सन्देहही नहीं ह |} ४ ६ ।। उस समय । | ८ ॥
| मनुष्य शराबी होजा्येगे, छोटे भाग्य तथा थोडी आयु एवं अनेकों रोगोसे पीडित होगे ।! ४७ ।। उस समय
: ` दो तीन ब्राह्मण दक्षिण देकामं वेदके जाननेवाले रहेंगे । शाककर्ता उन्हं लाकर धमकी स्थापना करेगा 1! ४८॥ ` ध (८
( यह् भौीसनत्कुमारसंहितामं कहे हृए कातिकमाहात्म्यमं वकुण्ठ चतुदेशीको कथा पूरी हई । ` .
शिवरनि व्रतम्
५ अथ अमान्तमासेन माघकृष्णचतुदेहयां शिवरान्निव्रतम् ।! तच्चाधरात्र-
व्यापिन्यां कायम् ।1. तदुक्तं नारदसंहितायाम् -अधंरात्रयुता यत्र माघढ़ृष्णच-
वुदेशौ ॥। क्िवरात्रिव्रतं तत्र सोऽहवमेधफलं लभेत् ।। ईजान संहितायामपि- `
माघकृष्णचतुदेदयामाविदेवो महानिशि ।। शिवर्भल्गमभृत्त्र कोटिसूयंसमप्रभम् ।॥ `
व्यापिनी ग्राह्या धिवरात्रिव्रते तिथिः ।। माघकृष्णत्वं चात्रामान्तमासपर- `
॥ अत एव चतुदश्यां तु कृष्णायां फाल्गुने श्िवपुजनम् \\ तामुपोष्य प्रयत्नेन
न्परिवजयेत् ।। इति सुमन्तुवचने पौणिमान्तमासोऽप्युक्तः ।! महानिशा ।
वययोगिन ४ ोगिन्यामाचरे्तद्व्रतं व्रती ।। इति कामिकाशिवरात्रिः ।। शिवरहस्ये स्मृत्य- `
न्तरादिवचनाच्च ।! न च पुर्वेदिनऽधिकन्याप्तिवशात् पूवेवेति शडकयम् \1 एतस्य `
वति: ए.
ग्रह्यत्युक्तम्, तच्च समञ्जसम् । निशादये चतुदेशयां पूर्वा त्याज्या परा शुभा ।॥
`इति माधवाचुदाहतकामिकवचनविरोधात् ।। न च पूरवेविद्धाविधायकानामृत्तर- `
विद्धानिषेधकानां विषयालाभ इति शडक्यम् ।! प्रदोष व्याप्तिलाभाच्च !॥ `
माघासिते भूतदिनं हि राजन्मुपैति योगं यदि पञ्चदश्याः ।। जयाघ्रयुक्तां नतु `
जातु कुर्याच्छिवस्य रात्र प्रियकृच्छिवस्य ।। इति हेमाग्रिमाधवादयुदाहृतपुराण-
वचनादपि परव ।। अस्मिन् व्रते उपवास जागरणपुजानां फलसम्बन्धात् त्रयमपि `
प्रधानम् ।\ तथा च नागरखण्डेडपवासप्रभावेण बलादपि च जागरात् ।। श्िवरात्र- `
` स्तथा तस्या लिगस्यापि प्रपूजया \। अक्षयाल्लंभते कामाञ्छिवसायुज्यमाण्नूयात् \ `
इति । इदं च व्रतं संयोगपुथक्त्वन्यायेन नित्यं काम्यं च ॥ परात्परतरं नास्ति `
` कशिवरात्निः परात्परा ।। न पूजयति भक्तेशं श्रं ्रिभुवने्वरम् ।। जन्तु्जन्मसहस्रेष 0
युज्यते नात्र संशयः ।। इति स्कान्दे अकरणे प्रत्यवायधरुतेनित्यम् ।। शिवं च
परनयित्वा यो जागति च चतुदेशम् । मातुः पयोधररसं न पिबेच्च कदाचन ।॥
इति तत्रैव फलश्रुतेः काम्यमिति ।। पारणं चेत्रदव्रते स्कान्दे तिथिमध्ये तन्ते
चोक्तम् ।\ उपोषणं चतुर्दश्यां चतुरदेश्यां तु पारणम् ।\ कृतेः सूकृतलक्षेदच लभ्यते 1 ०
| न्तीहं भूतायां पारणे कृते ।। तिथ्यन्ते पारणं कुर्याष्धिना श्षिवचतुरदशीम् ।\ त त
कृष्णाष्टमी स्कन्दषष्ठौ लिवरात्रिस्तथेव च ।। एताःपूवेयुताः कार्यास्तिथ्यन्ते पारणं
` भवेत् \! इति ।\ अनयोविरुद्वचनयोव्येवस्थेवं माधवेनोक्ता यामत्रयोध्वेगामिन्यां `
भ्रातरेव हि पारणम् ।। इति वचनाद्यासत्रयमध्ये चतुदशीसमाप्तौ तिण्यन्ते तद्-
त्तरगामित्वे तु प्रातस्तिथिमध्ये एवेति तिथिमध्यकालो मुख्यस्तदन्त्यकालो गं न.
उत्तरभावित्वादित्याहुः ।। केचित्तु, शक्तस्तिथ्यन्ते अहाक्तस्तिथिमध्ये एवेत्युच्ुः ` ॥
6४२) = ब्रतराज [ चतुदंली-
गृहाण देवेश भक्ति मे ह्यचलां कुर ।। च्रिपादरध्वतयर्घ्यम् ।। कर्षृरोहीरसुरभि
क्ञीतलं विमलं जलम् । गङ्खायास्तु समानीतं गृहाणाचमनीयकम् ।\ तस्माद्विरा- `
` छेत्याचमनीयम् ।। मन्दाकिन्याः समानीतं हेमास्भोरुहवासितम् \। स्नागाय ते `
मया भक्त्या नीरं स्वीक्रियतां विभो ।। यत्पुरुषेणेति स्नानम् ।। वस्त्रं सुक्ष्मं दु कूलं ¦
-च देवानामपि दुरंभम् ।1 गृहाण त्वमुमाकान्त प्रसच्नो भव सवदा \ तं यज्ञमिति
` -वस्त्रम् ।! यज्ञोपवीतं सहजं ब्रह्मणा निमितं पुरा \ आयुष्यं ब्रह्मवर्च॑स्कमुपवीतं `
गृहाण मे ।\ तस्माचजञात्सवेत्युपवीतम् ।। श्रीखण्डं चन्दनं दिव्यम्० \। तस्माचज्ञा- = `
त्सबेहुतऋ० ॥ गन्धम् । माल्यादीनि० ॥ तस्माद्छ्वेति पुष्पम् ।॥ `
वनश्यतिरसोड तो० ॥\ यत्पुरुषम् ° ।। धूपम् ।। साज्यचं वतिखयक्तं वद्धिना ६ ४ ए... 4
योजितं मया ।\ दीपं गृहाण देवे त्रैलोक्यतिमिरापहं ॥! ब्राह्मणोस्येति दीपम् ।॥ ।
नैवेद्यं गृह्यताम्० ।\ चन्द्रमा मनस इति नेवेद्यम् ।! पुगीफलमिति ताम्बलम् ।॥ `
` हिरण्यगर्भेति दक्षिणाम् ।\ चक्षदं सर्वलोकानां तिमिरस्य निवारणम् ।। आतिक्यं |
ल्पितं भक्त्या गृहाण परमेइवर \। नीराजनम् ।। फलेन फलितम्० ॥। फलम् ॥
यानि कानि च पापानि ब्रह्महत्यासमानि च ।। तानि तानि विनश्यन्ति प्रदक्षिण- `
दे ।\ नाभ्या आसीदिति प्रदक्षिणाम् \। मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भवितहीनं सुरेहवर\। `
यत्पूजितं मया देव परिपूर्णं तदस्तु मे ।। सप्तास्यासन्निति नमस्कारम् \\ सद्योजात. `
मिति वामदेवायेति वा ।। यज्ञेन यज्ञमिति मन्त्रपुष्पाञ्जलिम् ।\ यस्य स्मृत्येति `
थना । अथं कएलोत्तरे पुजाविधानम्-स्कन्द उवाच । एवं विधानं भूतेश `
धर्मसर्वस्वं शिवरात्रौ शिवाचेनम् ॥ त्रते येन विधानेन स्वर्गः पुण्येन कर्मणा ।। 0
कृत्वा स्नानं शुचिर्भूत्वा धौतवस्त्रसमन्वितः । स्थापयेहेव देवें मन्र्वेदसम्टूवैः।। `
तः पुजा प्रकर्तव्या पूर्वोक्तविधिना ततः।। नमो यज्ञ जगन्नाथ नमस्तेस्त्रिदिनेश्वर \
ण महतां महे प्रथमां पदे ।। प्रथमग्रहरपुजा ।। पूर्वे नन्दीमहाकालौ `
६. कता 4. हृन्दीटीकासहित अ (७४८३)
वेश्च दभ्यं पवतीपते ॥। मां वै राहि महादेव गृहाणाष्यं नमोऽस्तुते ॥। तृतीये ॥॥ = `
किन जानासि देवेशा तावदक्ति प्रयच्छ मे।। स्वपादाग्रतले देव दास्यं देहि जगत्पते।। `
| चतुथं ।। इति कालोत्तरे लिवपुजा समाप्ता ॥ अथ कथा-सुत उवाच । कैलास- `
चलिखरासीनं देवदेवं जगद्गुरम् ।\ पञ्चवक्तं दशभुजं त्रिनेत्रं श्रलपाणिनम् । १११... |
पिनाकल्लोभितकरं खद्धखेटकधारिणम् ।! कपाल्खटवांगधरं नीलकं ्ठसक्रोभितम त
॥.२॥) भस्माङ्गं व्याललोभाढचमस्थिमालाविभूषितम् । नीलजीमूतसडकाशषं `
सयंकोटिसमप्रभम् । ३ ।। कीडन्तं च शिवं तत्र गणैश्च परिवारितम् ।! विसन्य 9
` देवताः सर्वास्तिष्ठन्तं परमेश्वरम् ।। ४ ।\ तं दृष्ट्वा देवदेवेशं प्रहुस्योत्फल्ललोच- ` ^
नम् ।\ पावेती परिपप्रच्छ विनयावनता स्थिता ।\ ५ । पारवत्यवाच ।! कथयस्व
प्रसादेन यद्गोप्यं व्रतमुत्तमम् ॥। शरुतास्त्वयोक्ता देवेश व्रतानां नि्णयाः शुभाः `
॥५६॥ तथा वे`दानधर्माज्चि तोथध्मस्त्वियोदिताः ।। नास्ति मे निश्वयो ` ध
` ्पान्ताहुं च पुनः पुनः ।। ७ ।। तस्माद्रदस्व मे देव ह्येकं निःसंशयं व्रतम् ।। ब्रताना- |
मत्तमं देव भुकतमुनितप्रदायकम् \\ ८ ॥। तदहं भोतुमिच्छामि कथयस्व मम॒ |
` प्रभो । ईङ्वर उवाच ।। भ्यृणु देवि ्रवश्यामि व्रतानामुत्तमं व्रतम् ।\ ९ । यन्न ५१
कस्यचिदाख्यातं रहस्यं मुवितदायकम् \। येनैव कथ्यमानेन यमोऽपि विलयं बरनेत जेत् `
11 १०।1 तदहं कथयिष्यामि श्यृणष्वैकमनाः प्रिये ।। माघमासे कृष्णपक्षे अमायुक्ता `
चतुद! ११।।दिवरात्रिस्तु सा ज्ञेया सदेयजोत्तमोत्तमा।। दानयजञस्तपोभिश्चत्रतै-
शच विविधैरपि ।।१२।। न तौथस्तवेष्य यत्पण्यं शिवरातरितः।।जिवरात्रिसमं |
` नास्ति व्रतानामुत्तमं व्रतम् ।! १३ ।। ज्ञानतोऽज्ञानतो वापि कत्वा मोक्षमवाप्तुयात्॥। `
मृतास्ते नियं यान्ति येरेषा न कृता क्वचित् ॥ १४।। कृता येिरयं त्यकत्वा
गतास्ते शिवसन्निधौ ।। सर्वमद्खलकीला च सर्वामंगलनाश्िनी ।। १५ सुक्ति- `
। मुवितप्रदा चैषा सत्यं सत्यं वरानने ॥\ देव्युवाच ।। कथं यमपुरं तयक्त्वा िवलोके `
ब्रजे्लरः ।\ १६ ।। एतन्मे महदाङ्चर्य प्रत्यक्ष कुर शडकर । शडकर उवाच ।! `
श्यृणु देवि यथावृत्तां कथां पौराणिकीं शुभाम् ।\ १७ ।। यमशासनहन्तरीं च धिव
स्थानप्रदायिनीम् ।। कदिचदासीत्पुरा देवि निश्वादो जीवघातक प्रत्यन्त. `
देरावासौ च भूधरासन्नकेतनः \\ सीमान्ते स सदा तिष्ठन्कुटुम्बपरिपालकः ।
तन्वा पीनो धनुर्धारी इयामांगः कृष्णकञ्चुकः ।
च्छन्स ठ क वनोहेदो जनहासं चकार सः ।! शिवशिव किमेतद्रे कुवन्ति नगरे जनाः
४ धः | २४ ।1 वनेचराधिरीक्षं स्तु चतुर्दिक्षु इतस्ततः \1 पदं च पदमा्गं च अन्विष्यन्मू- `
। लि निरा क राश्ञो खुञ्धको यावत्तावदस्तं गतो रविः ।। २७ ।। चिन्तयित्वा जलोपान्ते ` 9
जागरं जीवघातनम् \\ संविधास्याम्यहं रात्रौ निचितं मम जीवनम् !\ २८ ।॥ `
तडागसंक्िधौ गत्वा तत्तीरे जालिमध्यतः ।\ आश्रमं कतुमारेभे आत्मनो गुप्ति `
कारणात् ।\ २९ ।। जालिमध्ये मरहाखिगं स्थितं स्वायंभुवं शुभम् ।। बिल्ववक्षो “
जालिमध्ये च संस्थितः ।\ ३० ।। गहीत्वा तस्य पर्णानि मार्गशदढचर्थ- `
गभंसंयुता ता | ॥ | ३४ 1! यौवनस्था सुरूपा चस्तनपीना सुखोभना ।! निरीक्षन्ती दिकः
भृक्ामुत्फुल्ललोचना ट ल चना ।\ ३५ ।! लृन्धकेनापि सा दुष्टा बाणगोचरमागता ॥\
मक्षिपत् ।। क्षिप्तानि दक्षिणे भागे निपेतुकिगमूधनि ।। ३१।। तस्य गन्धं समासाद्य `
` परिपीडितः । ३७ ।। एतस्मिन्नन्तरे
े हा १ रण्या खन्धकस्तदा ।! लृन्धक्स्तु स्वरूपेण कन्तान्त इव तिष्ठति ।॥ ३८
तु तस्य सन्धानं यमदंष्टरासमप्रभम् ।। मृगी सा दिव्यया वाचा लु्धकं
व महाबाहो किमर्थं मांहनिष्यसि । ४० ।। शिव उवाच ।। तस्यास्तद्रचनं `
लुब्धकः प्राह तां मृगीम् ॥ लुब्धक उवाच ।। समातृकं ५ कुटुंबं मेक्षुधया
1
भर्ता विदवेश्च दानवेन्द्रो
1 ४६ ।। आस्र पवमहू रस्भा स्वग शक्रस्य चाप्सराः ।। अनस्तरूपलावष्या सोभा- | | ¢ ।
ग्येनचगविता ।\४७।। सौभाग्यमदपुष्टाद्धो दानवो बरुगवितः । मयेव च वतो
भर्ता हिरण्याक्षो महाचुरः ॥ ४८ ।। तेन साधं मया मुक्तं चिरकालं यथेष्ितम् !!
एवं कालो गतो व्याध क्रीडन्त्या मेऽसुरेण च ।। ४९ ।। एकदा प्रक्षितं नत्यं शडक-
रस्य गताग्रतः।। यावद्गच्छाम्यहं तत्र तावन्मां शङ्करोऽब्रवीत् ।\ ५० ।\ क्व गता = `
| त्वं वरारोहे केन वा सद्धता जुभे ।। कि वा सौभाग्यगर्बेण नायाता मम मन्दिरम् ५
५५१ ।। सत्यं कथय शीघ्रंत्वंनोवाज्ञापं ददामि ते ।। श्ापभीत्या मयातत्र ।
` सत्यमुक्तं शिवाग्रतः ।। ५२ ।। श्यणुदेव प्रवक्ष्यामि शापानुग्रहुकारक ।। ममास्ति
। द्रो महाबलः ।\ ५३ ।। तेन साधं मया देव कोडितं निजमन्दिरे।!
तेनाहं नागमं शीघ्रं सृष्टिसंहारकारक ।। ५४ ।। रदरस्तद्रचनं श्रुत्वा सकोपो वाक्य
मब्रवीत् ।। मृगः कामातुरो नित्यं हिरण्याक्षो भविष्यति ।। ५५ ।। त्वं मृगी तस्य 1
निजे ति
॥ तस्मात्त्वं निजेले देशे तृणाहारा भविष्यसि ।। दादशाब्दानि भो:
भविता ज्ञाप एष ते ।\ ५७ } परस्परस्य शोकेन शापान्तोऽपि भविष्यति
` अनुग्रहः पुनस्त्वेष शङ्करेण कृतः स्वयम् ।। ५८ ।। कदाचिद्धि व्याधवरो
` हाबने ॥ ६० ।\ तेन दुःखमनुप्राप्ता मांसमेदोविवजिता ।। गर्भाक्रान्ता विशे म न |
त कष्या ष
आयास्यति मृगी त्वन्या मागणानेन रुग्धक ।\६२।। पीना यौवनसंपन्ना बहुमां
मदोद्धता ता ॥\ भोजनं सकुटुम्बस्य तया सद्यो भविष्यति
चेति निचितम् ।। ६१ । सकृट्म्बस्य ते नूनं भोजनं न भविष्यति ॥ `
भार्या वै भविष्यसि न संद्रायः ।। त्यथत्वा स्वगं तथा देवान्दानवं भोक्तुमिच्छसि `
[त ९ ~ "4 कुव ८
भत्वा तु यो व्याच वेद्रष्टोऽभिजायते ।\! ७१ ।। स्वाध्यायसंध्यारहितः सत्य- `
शशौचविर्वजितः \\ अविक्रेयाणां विक्रेता अयाज्यानां च याजकः ।\ ७२।। तस्य
पापेन लिप्यामि यद्यहं नागमं पुनः ।! दुष्टबुद्धौ तु यत्पापं धूते वा ग्रामकण्टके ।\
॥ ७३ ।\ नास्तिके च विल्लीले च परदारते तथा \। वेदविक्रयणे चैव शवसुतक-
` भोजने ।\७४।। तेन पापेन च्प्यामि यद्यहं नागमं पुनः \\ मृतश्शय्याप्रतिग्राहे
माता पित्नोरपारके ।\ ७५ ।! तेन पापेन च्प्यामि यदि नायामि तेऽन्तिकम् !\ `
दानं दातुं प्रवृत्तस्य योऽन्तरायकरो नरः ।\! ७६ 1\ तेन पापेन लिप्यामि यदि `
नायामि ते गृहम् \\ देवद्रव्यं गुरुद्रव्यं ब्रह्मदरव्यं हरेत्तु यः\\७७।।तेन पापेन ल्प्यामि |
यदि नायामि ते गृहम् ।। दीपं दीपेन यः दुर्यात्पादं पादेन धावयेत् ।\ ७८ तेन॒
पपन लिप्यामि यदि नायामि ते गृहम् ।! भर्तारं स्वामिनं मित्रमात्मानं बालमेव |
च \\७९।। गां विप्रं च गुरं नारीं यो मारयति दुर्मतिः \ तेन पापेन ल्प्यामि |
यदि नायामि ते गृहम् ।! ८० 1! अवेष्णवेचयत्पापं यत्पापं दाम्मिके जने ।\ अनिते- |
नायामि
1 प ब्रा
9
न्दरेषु यत्पापं परदोषानुकीतने ।। ८१ ।। कृतघ्ने च कर्ये च परदाररते तथा ।! |
सदाचारविहीने च परपीडाप्रदायके ।\ ८२ ।! परपेशुन्ययुक्ते च कन्याविक्रय-
४६ ६ ॥1 हैतुके बकवत्तौ च कूटस्षयप्रदे तथा ।! ८२३ ।\ एतेषां पातकं मह्यं `
ब्रह्महत्याया पित॒मातवधे तथा ।।! ८४ ॥। तेनं १
समदृष्टया
सक्रहस्वा तु यः कन्यां हितीयाय प्रयच्छति ।। ८७ ।! तेन पापेन क्ष्यामि
क्कप्यामि यदि नायामि ते गृहम् ।। पतिनिन्दापरो नित्यं वेदा
नाम् \ ८५ ।। तेन पापेन लिप्यामि यदि नायासि ते गृहम् ॥। द्विभायैः पुरुषो यस्तु `
समदृष्टया न परयति ।। ८६ ।! तस्य पपेन किप्यामि यदि नायामि ते गृहम् ।॥
` नायामि ते गृहम् ।। कथायां कथ्यमानायामन्तरं कुरुते नरः ।\८८।। तस्य पापेन `
क्िप्यामि यदि निन्दापरो हियः `
` ॥ ८९ ॥\ तस्य पापेन क्प्यामि यदि नायामि ते गृहम् ।\ यस्य संग्रहणो भार्या
` ब्राह्मणौ च विशेषतः ।। ९० । तस्य पापेन लिप्यामि यदि नायामि ते गृहम् ।॥
“६ ५ व्रतानि ‡. . हिन्दीटीकासहित (७७) `
तस्या मुवितिप्रभावेण लिद्धर
` बाच ।। धनुधैरवर
। यापि प्रपूजनात् ॥ ९६ ॥ मुक्तोऽसौ पातकैः सर्वै `
` स्ततक्षणाल्नात्र संशयः ।! द्ितीये प्रहरे प्राप्ते मध्यरात्रे वरानने ।। ९७ ।\ तस्मिन्नेव
क्षणे प्राप्ता कामार्ता मृगसुन्दरी । संत्रस्ता भयसंविग्ना पतिमन्वेष्यतीमुहुः
। ॥ ९८ ॥। जालिमध्ये स्थितेनाथ दुष्टा सा लुब्धकेन तु ।। पुनवुक्षस्य पत्राणित्रोट- `
चित्वाकरेणतु।। ९९ । क्षिप्तानि दक्षिणे भगे लिद्धोपरिदिदृक्षया । तस्या
५ वधार्थं तेनाथो बाणो धनुषि सन्धितः । १०० ।। तिष्टस्तश्रकखित्तेन कुट्म्बार्थं 1 |
` जिघांसया ।। निरीक्ष्य लुब्धको यावद्राणं तस्यां विभुञ्चति ।। १।। तावन्मृग्यास |
सन्दृष्टो दृष्ट्वा तं विह्वलाभवत् ।। अदैव भगिनी मे हि टृब्धकेन विनाशिता |
॥२।। मम कि जीवितव्येन तस्या दुःखेन पीडिता । वरो मृत्युन शोको वै दृष्ट्वा `
व्याधं विशेषतः ।। ३ ।। एवं सञ्चिन्त्य हरिणो लुब्धकं वाक्यमव्रबौत् ।॥ हरिण्यु- |
र व्याधं सवंजीवनिक्रन्तन ।\ ४ ।। देहि मे वचनं चक पहचात््वं `
नपातय ।। आयाता हरिणी चेका मार्गेणानेन लुब्धक ।। ५।। समायाता
च ॥। ७ ।। अथवान्या समायाता या तया कथिता पुरा ।। एवं सञ्चिन्त्य मनसा
बा नैव सुत्यं कथय सुव्रत । तच्छ त्वा लुन्धकस्तत्र विस्मितः क्षणमेक्षत ॥६।। `
८ (+. (न्तु यादृशी वाणी अस्याऽचेवं तु तादश्षी ।। सेवेयमागता सनं प्रतिज्ञापालनाय ॥ ~
खुब्धको वाक्यमब्रवीत् ।। ८ ।। लुग्धक उवाच ।। श्यृणु त्वं सुनि मे वाक्यं गतासा
निजमन्दिरम् ॥ त्वां दत्त्वा मम नूनं हि सा भवेत्सत्यवागपि ।! ९ ।। अहोरात्रं
कृतं कष्टं कुटुम्बाथे मया मुगि ।\ अधुना त्वां हनिष्यामि देवतास्मरणं कुर) ११०। |
` व्याधोक्तं वचनं श्रुत्वा हरिणी दुःखिता भृशम् ।! व्याधं प्राह रदित्वावै मामां |
व्याध निपातय ।\ ११1) तेजो बलं तथा सर्वं निदेग्धं विरहाग्निना ।\ अहं च॒ |
इ्बेला नूनं मेदो मांसविवजिता ।! १२ ।\ केवलं पापभाक् त्वं हि मम प्राणविमो- `
ीनगौराङ्घो मृगो ह्यत्रागमिष्यति ॥ १४ तं
ठे कृटम्बस्य पर तुप्तिनूनं भविष्यति । जथवां त्वद्गृहं प्रातरागमिष्यामि
कि करोमीत्यचिन्तयत् ।।सञ्चिन्त्य लुब्धकः
(७४६) 3 नत राज १2 [ चतुदंदी-~
तदा }\ जलं पीत्वा तु बहुशो गता सद्यो यथागतम् ।। १२० ।। जालिमध्ये स्थित-
स्यास्य द्वितीयः प्रहरो गतः ।। ब्रोरित्वा विल्वपत्राणि पुनदवे न्ययोजयत् । २१।॥
पी तोऽतीव हीतेन क्षुधया गहचिन्तया ।! क्िवश्िवेति जल्पन्वे न निद्रासुपक्ब्ध- ` |
वान् ।! २२ \\ कृतं क्षिवा्चंनं तेन तृतीये प्रहरेऽपि च ॥। वीक्षते स्म दिशः सर्वा
जीवनार्थं वरानने 11 २३ 11 लुब्धकेनाथ दृष्टोऽसौ हरिणङ्चञ्चलेक्षणः।। विलोक- `
यन्दिशः सर्वा मार्गमाणो
गो मृगीपदम् ।। २४ ।! सोभण्यबलदर्पाढ्यो सदनोन्सत्त-
पीवरः ।! तं दृष्ट्वा बाणमाङ्ृष्य ह्याकर्णं तुष्टमानसः ।\ २५ ।। बाणं मुञ्चति `
यावद्रे तावदृष्टो मृगेण तु ।\ कालरूपं तु तं दृष्ट्वा मृगर्चिन्तितिवान् भृषम्
॥ २६ ।। निरिचिं भविता मृत्युर्गोचरेऽस्य गतो यतः । भार्या प्राणसमा मेश `
व्याधेनेह निपातिता ।\ २७ ।\ तया विरहितस्याद्य ननं म॒व्युर्भविष्यति । हाहा `
कालकृतं पापं यद्धार्यादुःलमागता ।।! २८ ।। भार्यया न समं सौख्यं गृहेपि च
वनेपि च ।) तया विना न धर्मोस्ति नाथेकामौ विशेषतः ।। २९ ।। वृक्षमूलेऽपि `
` दयिता यत्र तिष्ठति तद्गृहम् ।! प्रसादोऽपि तया हीनः कान्तारादतिरिच्यते। `
॥१३०।। धमंकासाथकायेषु भार्या पुंसः सहायिनी ।! विदेशे च गतस्यापि सैव `
वहवासकारिणी ।\! ३१ ।! नास्ति भार्यासमो बन्धुर्नास्ति भार्यासमं सुखम् ॥। `
स्ति भार्यासमं लोके नरस्यातंस्य भेषजम् ।। ३२ ।! यस्य भार्या गृहे नास्ति
साध्वी च प्रियवादिनी ।। अरण्यं तेन गन्तव्यं यथारण्यं तथा गृहम् ।। ३३ ॥ ` =
एका प्राणसमा मेऽभूद्दवितीया प्राणदा मम ।। भार्याविरहितस्याद्य जीवितं मम॒ `
निष्फलम् ।! ३४ ।। इत्येवं चिन्तयित्वा तु लुब्धकं वाक्यमन्रवीत् ।। मृग उवाचं ।। `
श्ण व्याध नरश्रेष्ठ ह्यामिषाहारभोजन ।! २५ ।। यत्ते पृच्छाम्यहं वीर तत्सत्यं `
बरद मे प्रभो \। आगतं हरिणीयुग्मं कन मागण तद्गतम् ।\ ३६ ।। त्वया विनाशितं `
वाथ सत्यं क मय मेऽधुना ।। तस्य तदचनं श्ुत्वा कुब्धको विस्मयं गतः ।\ ३७।।! `
¢ व्रतानि) हिन्दीटीकासहित ` -; 1 {७५९} |
तत्करोमि न चान्यथा ।! ४४ ॥। प्रभाते त्वद्गृहं नूनमागमिष्यामि निद्चतम् । भार्या |
ऋतुमती मेऽद्य कामार्ताप्यधुना भृशम् ।! ४५।। गत्वा गृहेऽ थ भुक्त्वा तामपच्छच `
च सुहज्जनान् ।! शपथरागमिष्यामि गृहं ते नात्र संशयः ।॥ ४६। न महेहेसत्य
` सुडमांसं यत्त्वं भोक्तुमभीप्ससि ।। तद्वृथा मरणं मेऽस्माद्यदि मां त्वं हनिष्यसि `
। ॥ ४७ ॥) तन्मृगस्य वचः भुत्वा व्याधो वचनमब्रवीत् ।! लुब्धक उवाच ।\ असत्यं |
। भाषसे धृतं प्रतारयसि मां वृथा ।॥ ४८ ।॥। ज्ञातो मृत्युः स्फुटं यत्र तन्न गच्छति `
` कोऽल्पधीः \\ व्याधस्य वचनं श्रुत्वा हरिणो वाक्यमब्रवीत् ।। ४९।) हपथे- `
रागमिष्यामि यथा ते प्रत्ययो भवेत् ।। व्याध उवाच ।। मग त्वं रपथान्त्रूहि विक्वासो `
` मे भवेद्यथा ।। १५ ।। यथा हि प्रेषयामि त्वां स्वगृहं प्रति कामुक ।! मृग उवाच ।॥ `
भर्तारं वञ्चयेद्या स्त्री स्वामिनं वञ्चयेन्चरः ।\५१।। मित्रं च वञ्चयेदयस्तु गुररोहं `
यः 1! विषमं तु रसं दद्यात्प्रेमभेदं करोति यः ।। ५२ ॥। मेदयेद्यस्तडागानि `
दं पातयेत्तथा ।। प्रवासशौलो यो विप्रः ्यविक्रयकारकः ।। ५२३ ।। सन्ध्या-
स्तानविहीनदच वेदशास्त्रविवजितः ।! मद्यपाः स्त्रीषु रक्ता ये परनिन्दारताश्च `
ये + ५४ ।\ परस्त्री सेवका विप्राः परयेशून्यसुचका श्रान्नभोजिनो ये
भार्यायुत्रास्त्यजन्ति ये 1 ५५ ।\ बेदनिन्दापरा ये च वेद्शास्त्राथनिन्दकाः ॥
` तेषां वे पातकं मह्यं यदि नायामि ते गृहम् ।। ५६ । भार्या संग्रहणी यस्य ब्रतशौचः
| विर्बजिता \\ सर्बाह्ली सर्वविक्रेता ह्िजानामपि निन्दकः ।॥ ५७ ॥ च्रिषु वर्णेषु `
| शुश्रूषां यः द्रो न करोति वे ।! विप्रवाक्यं परित्यज्य पाखण्डाभिरतः सदा ।५८।१! `
=-= ऋ
| ब्रह्मच्यैरताः शूद्रा ये च पाखण्डसंश्रिताः ।। तेषां वे पातकं मह्यं यदि नायामिते
गृहम् म् । ५९ ।\ तिलांस्तल घृतं क्षोद्रं लवणं सगुडं तथा ।\ लोहं < षः क्षादिकं
(अ) अवत [षी
एतस्य पातकं मह्यं यदि नायामि ते गृहम् \\ यः परेत्स्वरहीनं च लक्षणेन विवजितम् `
॥ ६९ ।\ रण्यां पर्यटमानस्तु बेदानुद्गिरयेततु यः ।। विप्रस्य पठतो यस्य श्टृणोति `
यदि चान्त्यजः ।! १७० ।! बेरोपजीवको विप्रोऽतिलोभाच्छदरभोजनः ।\ तस्य
पापेन लिप्यामि यदि नायामि ते गृहम्।। ७१ ।। शदराच्ेषु च ये सक्ताः शरव्रसंपकं- `
दूषिताः ।\ तेषां पापेन लिप्यामि यदि नायामि तें गृहम् ।। ७२ \। लेखकरचित्र- `
कर्ता च वेदयो नक्षत्रसुचकः ।! क्टकर्ता द्विजो यडच तस्य पापस्य भागहम् । ७३।॥ `
कूटसाक्षी मृषावादी परद्रव्यस्य तस्करः ।\ परदाराभिगामी च तथा विह्वास- `
घातकः ।। ७४ \। द्रव्ये द्रव्यं विनिक्षिप्य पानकटं समाधितः ।। वेर्यारताः सदा यं : | 1
च दानदातुनिवारकाः ।। ७५ ।। भर्तारमर्थहीनं च कुरूपं व्याधिपीडितम् (यान `
पूजयते नारी रूपयोवनगविता ।। ७६ ।। एकादज्ञीं तथा माघे कृष्णे शिवचतु्द॑श्ीम्\। `
पूर्वविद्धां प्रकुर्वन्ति तेषां पापस्य भागहम् ।। ७७ ।\ अथ कि बहुनोक्तेन भो लृ्धक `
तवाग्रतः !। यदि नायामि ते गेहं ममासत्यं भवेत्तदा ।। ७८ ।। तेन वाक्येन संतुष्टो . `
व्याधो वं बौतकल्मषः ।। संहृत्य धनुषो बाणं मृगो मुक्तो गृहं प्रति ।\ ७९ ।\ जल `
पीत्वा तु हरिणः प्रविष्टो गहनं प्रति ।! गतोऽसौ तेन मार्गेण गतं येन मृगीद्रयम् `
१८० ।। लुब्धकेन तदा तत्र जालिमध्ये स्थितेन हि \। प्रत्यूषे बिल्त्रपत्राणि `
टयित्वोज्द्ितानि वे ।\ ८१ \) शिवशषिवेति जल्पन्वे ह्याशु यातो निजाश्चमम् ।
अथोदिते सू्ेबिम्बे अकामाज्जागरे कृतं ।। ८२ ।। पापान्मुक्तोप्यसौ सद्यः शिव- `
पूजाप्रभावतः।। यावदिशो निरीक्षेत निराशो भोजनं प्रति।।८३।\ तावच्छिशुवृता `
चान्या मृगी तत्र समागता ।\ दृष्ट्वा मूर्गौ तदा व्याधो बाणं धनुषि योजयन
\\ य वत्प्रोवाच तं मृगी ।\ मा बाणान्मुञ्च धर्मात्मि- `
धमं र मुञ्च सुव्रत ।\ ८५ ।\ अहं न वध्या सर्वेषामिति लास्तर्वि! 9४ (9
7 चः धमेमुत्सृज्य मां हनिष्यसि मानद १८७ । बोः क
व्रतानि] हिन्दीटीकासहित [भध |
स्वगृहं प्रति ।\ ९३ । सर्वेषां वचनं ध्यायन्मुगाणां सत्यवादिनाम् ।। एतेषां घातको 1
नित्यमहं यास्यामि कां गतिम् ।। ९४ ।। एवं चिन्तयता गेहे दृष्टाः ्षुधितबालकाः। |
नाचनं मासं गृहे तस्य भोजनं येन जायते ।। ९५ ।। निरामिषं तु तं दुष्ट्वा निराश्ास्ते- |
भवस्तदा ॥। व्याधोपि च तदा तत्र तेषां वाक्यानि संस्मरन् । ९६ ।\ न भोजनं |
। च निद्रां च भते विस्मयान्वितः । आगमिष्यन्ति ते नूनं शपथेरतियन्त्रिताः ॥
। ॥ ९७ ।। न तानहं वधिष्यामि सतां त्रतमनुस्मरन् ।। लुब्धकेन तदा मुक्तो हरिणः |
| शपथः कृतः ।। ९८ \। स्वमाश्रमं तु संप्राप्तो यत्र तद्धरिणीहयम् ।! सद्यः प्रसृतासा ` | |
। चेका द्वितीया रतिलालसा ।। ९९ ।। तृतीयापि समायाता बालकेबहुभिवता ।॥
सर्वाः समेता एकत्र मरणे कृतनिश्चयाः ।। २०० ॥ परस्परं प्रजत्पन्त्यो लुन्ध- |
कस्य विचेष्टितम् ।। सार्तंवां हरिणीं भुक्त्वा ९.
कतकृत्योऽभवत्ताभिस्ततो वाक्यमथाब्रवीत् व्यं प्राण
` रक्षणम् ।\ २।। व्याघ्वादृद्धिपाल्लुब्धकेभ्यो ब बालकानां प्रयत्नतः ।। अहमत्र समा-
यातः श्ञपथेरतियन्त्ितः ।। ३ ।। अस्या ऋतुप्रदानाय पुनः सन्तानहेतवे ।। ऋतुमतीं `
तुयो भाया न भुडवते मोहसंवतः।\ ४ । भूणहा संतु विज्ञेयस्तस्य जन्म निरकर्थम्
| 3 ।
। स्वगंसौख्यप्रदायिका ।\ अपुत्रस्य गतिर्नास्ति इह लोके परत्र च ।। ६ ।। येन केना- र
। प्युपायेन पुत्रमुत्पाव्यत्युमान् ।\ मया च तत्र गन्तव्यं यत्र व्याधस्य मन्दिरम् ।1७।॥ `
अपि दरव्ययुत म तारी बहुपुत्रसुहद्वृता ।\ सा शोच्या बन्धुवगंस्य पति
(७५२) दा. 4 [ चतुदशी-
भवेत् ।। तदन्तिकं च स
धस्य मन्दिरम् ।\ १८।। एकतस्तु कृतं रश्लन्कुटम्बस्यक्षयो
। मम सत्यं क्षयं ब्रजेत् ।\ १९ ।\ वरं पुत्रस्य मरणं
आत्सनस्तथा ।\ सत्ये त्यक्ते नरो नित्यमाकल्पं रौरवं त्रजेत् \\ २२० ।
तस्मात्सत्यं पालनीयं नरैः भेयोथिभिः सदा ।! सत्येन धायेते पृथ्वी सत्येन तपते `
रविः । २१।। सत्येन वायवो वान्ति सत्येन वर्धते परम् \\ एवं सच्न्िन्त्य हरिणी
धर्मान् हदि मनोरमान् ।॥ २२ ॥ ताभिः सहेव शनकैः क्षणात्तस्याश्चमं ययौ ।॥ `
तस्मिन्सरसि स स्नात्वा कम॑न्यासं चकार ह । २३ ।। तल्लिद्घं प्रणिपत्याश्चु हदि
ध्यायन्सदाशिवम् ।। भ्यं पानं परित्यज्य मेथुनं भोगमेव च ।! २४ ।। कामं क्रोधं `
तथा लोभं मायां मोक्षविनारिनीम् ।। वन्दयित्वा तु तं देवं लृब्धकाभिमृखं ययौ
॥ २५ ॥) तस्य भार्याश्च पुत्राह्च मरणे कृतनिञचयाः ।। अनहानं व्रतं गृह्य पृष्ठ- `
` कगनाः समाययुः ।! २६ 11 भार्यापुत्रैः परिवृतो मृगस्तं देशमागमत् ।! क्षुधितेर्बाल-
कर्युक्तो लुब्धको यत्र तिष्ठति ।। २७ ।! मृगस्तं देकशमागत्य कुट॒म्बेन समन्वितः! `
पाल्यन्स न्स्ववाक्यानि' लुब्धकं वाक्यमब्रवीत् ।। २८ ॥! मृग उवाच ।। हन्या मां 4
याध पश्चाद्धार्याः कमेण तु । बालकानि ततः पडचाद्धन्यतां मा विलम्बय ट ८
१ 1 हृन्दाटाकासहिति (3 » (७५३) 1 |
| ॥ ४१ ।\ जाकारात्पुष्पवृष्ष्टस्तु पपात सुमनोहरा । तदा दूतः समायातो | | ५ ||
। विमानं गृह्य शोभनम् ।\ ४२ 1) देवदतं उवाच ।। अहो व्याध महासत्त्व सवेसत्व- `
। क्षयडकर ।। विमानमिदमारुह सदेहः स्वगंमाविज्ञ ।।! ४३ ।। हिवरातरिप्रभावेण `
। पातकं ते क्षयं गतम् ।। उपवासस्तु सञ्जातो निक्षि जागरणं कृतम् । ४४ `
| भार्यापुत्रसमन्वितः ।। ४६ ।। भारयात्रितयसंयक्तो नक्षत्रपदमाप्नहि ।\ तव नाम्ना
यामे यामे कृता पुजा अज्ञानेन शिवस्य च ।। स्वेपापविनिर्मृक्तो गच्छ त्वं स्र- । ६
मन्दिरम् । ४५ ।। विमानं च समारुह्य सद्यः लिवपदं ब्रज ।। मृगराज महासत्व `
| तुतद्वृक्षं लोकं स्यातं भविष्यति \\४७)। एत च्छरत्वा तु वचनं लृन्धकोभ्यमृग- |
। स्तथा ।। विमानानि समारुह्य नाक्षत्रं पदमागताः ।। ४८ ।। हरिणीद्रयमन्वेनं `
। पृष्ठतो मृगमेव च।। तारात्रितयसंयुक्तं मृगीषं तदृच्यते।(४९।।बालकट्वितयं तृतीया |
पृष्ठतो म॒गी \\ पृष्ठतस्तत्र संप्राप्ता मगरीर्षस्य सच्धिधौ ।। २५० ।। मगराड `
। दष्यतेऽद्यापि ऋक्षं व्योमगसुत्तमम् ।। उपवासं करिष्यन्ति जागरेण समन्वितम् `
| ॥ ५१ ॥ यथोक्त्ास्त्रमार्गेण तेषां मोक्षो त संशयः ।। शिवरात्रिसमं नास्ति `
। व्रतं पापक्षयावहम् ।। यत्कृत्वा सवेपापेभ्यो मुच्यते नात्र संरायः ॥ ५२ ।। अहवमेध- व
सहल्नाणि वाजपेयज्ञतानि च ॥। प्राप्नोति तत्फलं स्वं नान्न कार्या विचारणा ।॥ `
॥ २५२\। इति श्रीलिद्धपुरा ० उमाम० संवादे शिवरात्रिव्रतकथा ।। अथोद्यापनम्
स्कन्द उवाच ।। व्रतस्योद्यापनं कमं कथं कायं च मानवः \\ को विधिः कानि
द्रव्याणि कथयस्व मम प्रभो ।\ ईश्वर उव+च ।। श्यृणु षण्मुख यत्नेन लोकानां `
हितकाम्यया ।। उद्यापनर्विधि चव कथयामि तवाग्रतः ।। यदा सञ्जायते चित्तं 1
(७4४, १ । ; { चतुष्
५ सगणं चैव पुजयित्वा सहवरम् ।\ पुराणस्तोच्रपाठ्दच रात्रिशेषं नयंद्बुधः \\ ततः `
प्रभातसमये करत्वा सन्ध्यादिकाः करियाः ।। पुनः पूजां प्रकुर्बौत ततो हीमं समाचरत्।! `
त्लत्रीहियवे्चैव पायसान्नेन भक्तितः ।। ज्यम्बकमिति सन्त्रेण नमः शम्भवे
५.5 चति च गौरीमिमायमन्त्रेण हातमष्टोत्तरं पथक् होमं कुर्याच्च
मतिमान्बिल्वपतरस्त नामभिः ॥ अजेकपादहिरबध्यो भवः शवं उमापतिः ।॥
रुद्रः पशुपति : शम्भुवंरदः शिव ईहवरः ।। महादेवो हरो भीमो नामान्येव चतुदश! `
एतैर्हौमः प्रकर्तव्यः कुम्मदानेऽपि तान् स्मरेत् ।। पूर्णत ततो हृत्वा कमशेषं
समापयेत् ।। भोज्यं क्षलापयेहेवमेभिर्नामपदेः पथक् \! प्रतिमां कुम्भसहितामाचार्या `
यथि निवेदयेत् ।। शस्भौ प्रसीद देवेश सवेशोकेहवर प्रभो ।\ तव सपत्रदानेन मम॒ `
सन्तु मनोस्थाः ।\ आचार्य पजयेन््क्त्या वस्त्राल्डकारभषणंः ।\ सवस्त्रां गां ततो
` उद्यादत्रतसम्पुतिहेतवे \। अन्येभ्योऽपि यथाशक्त्या ब्राह्मणेभ्यो हि दक्षिणाम् ।। ` ५.
चतुद प्रदातव्या विप्रेभ्यो जलप्रिताः । कुम्भा यज्ञोपवीतानि वस्त्राणि च
पृथक् पृथक् ॥। सुस॒क्ष्माणि च वस्त्राणि शय्यां सोपस्करां तथा ।। द्रादक्व तुगा ४
दद्यात्परिधानादिकं तथा ।। अथवा दक्षिणामेव प्रदद्या्तष्टये द्विजान् ।। ब्रतमेत-
त्छृतं यन्मे पूणं वापुणंमेव च ।। स्वं सम्पुणंतां यातु प्रसादाद्धूवतां मम ।। इति
सप्राथ्यं तान्विप्रान्प्रणम्य च पुनः पुनः ।। ततश्च स्वजनः सार्धं स्वयं भुञ्जीत
सूत्रती ।\ इति श्चस्कंदपुराणे कालोत्तरे शिवरात्रित्रतोद्यापनं सम्पुणेम् \। इति
चतुदश व्रतानि समाप्तानि\ ५
ध शिवरात्िव्रत-अमान्तमानसे माघकृष्णा चतुर्दशी तथा पुणमान्त मानसे फाल्गुनङृष्णा चतुदेशीके `
` दिनि होता है । इसे अर्धरात्रव्यापिनी चौदशमें करना चाहिये । चाहें एते पूर्वा हौ चाहं परा हो जो अधरात्र
५ व्यापिनी हो उही लेना चाहिये । यही नारदसंहितामे कहागया है कि, जिसदिनमाघ (फाल्युन) कृष्णा
चतुदेशी आधीरातके ।
(इसमे तीन पक्त हं एक तो चतु्दशीको प्रदोषव्यापिन दूसरा निक्लीथ व्यापिनी एवं तीसरी उभयः
व्यापिनो लेता है । इनमें व्रतराजकारका मुख प्न निशीथव्यापिनीको ही ग्रहण करनेका ह यही निर्णयसिन्वु
साय योग रखती हो उस दिन जो क्विवरात्रव्रत करताहै वंह अनन्तं फलकोपाता है !
` व्रतानि ` हिन्दीदीकासहित ज
किन्तु त्रतराजकार इस स्थितिमें भी यानी पूवक दिन अधिक प्रदोषव्याप्ति रहतेभौ पराकाही ग्रहण करते
अपनी पुष्टिम स्कन्दपुराणके प्रमाणभी विये हे.)
ईैशानसंहितामेभी लिखा हुआ है कि, माघ (फाल्गुन) कृष्ण चतुदंशीके दिन आदिदेव महादेव महा ६
` रातमं कोटि सूर्यके समान प्रकाशवाले शिर्वाल्गरूपी हो गये थे ! इस कारण शिवरात्रक्े बतकी तिथि उस `
समय व्यापिनी ग्रहृण करनी चाहिये माघल्ृष्ण अमान्तमासके हिसाबसे लिखा है जिसका पूणिमातक मास
माननेवारोके यहां फाल्गुनकृष्णा चतुदश होजाता है इसल्यि हौ लिखा है । कि, फाल्गुन कृष्णा चतुेशीके `
दिनि क्लिवपूजन होता है इसक्रा ब्रत करके विषर्योका त्याग करे सुमन्तुके इस वचनम पोणिमान्तमासकामी |
` हिसाब कहा है । महानिशा तो रातके विच प्रकी दो घटिका जो निक्रीय (अर्वरत्र) कहा जाताहैवहौ |
दै 1 इसी कारण अधेरात्रशब्दका भी वही अथं है यानी दूसरे पहरफौ अन्त्यकी एक घड़ी तथा तीसरे पहुरके = `
आदिकी एक घडी ये दोनों मिलकर निशीथ कहलातीं है । यदि दो दिन निरीयव्यापिनी हो वा दोनोंही `
दिनिनहौ तो (बा एक देश वा कात्स््यसे एेसी हो) तो पराही लीजायगी क्योकि पराकीदी प्रदोष व्याप्ति | ध
मिलेगी, पूर्वक नहीं भिर सकती (पर हेमाद्रि यहां पूर्वाका ग्रहण करते हं सो निर्भूल है) ककि यदि दोनों
निशाओमें चतुर्दशी हो तो पूर्वाका त्याग होना चाहिये पर शुभ है । वदि आदित्ये अघ्वमयसार्मेजो `
चतुदश हौ तो उस रातको शिवरात्र कहते हैँ बही स्वश्ेष्ठ है । जब त्रयोदी सु्यास्तके लगभग रहे पीठे `
` चतुदशी जाजाय जागरणके लिये रातम पुरी चतुदशौ हौ वहं शिवरात्र है । शिवरात्रभे चतुदेशौ प्रदेषनि० ने
व्यापिनी लेनी चाहिये. क्योकि, रातमें जागरण होता है इसौ कारण इसमे उपोषण होताहै । (हउ |
# प्रदोषको रातका उपलक्षण माना है) जो कि, अहोरात्रका व्रत एक तिथिमे गया हे व्रतीको उभय योगिनी |
ए १. £ तिथिं ५ ्रतको करना चाहिय ॥ यह् कामिका शिवरात्ति है एसा क्षिं रहस्यम सपटपन्तर आदिक ं | | ध; व
बचनोसे लिखा है । पहि दिन अधिक व्याम्तसे पहिलेही दिन शिवरात्रि हो, यह शंका नहीं कर्के वानो
1; पहिले दिन अधिक व्याप्तिके कारण पूर्वाही ग्रहण हो एसी लंका नहीं करसकते क्योकि, इसकोमी “बहुतोका `
| सधरमीपना होगा” इस न्याये पर दिनके विघायकं वाक्य नावे नही जासक्त, प्य निवन किये हृष्
बचनोसे इस पूरचाके विधायक न्यायवचनकाही बाध होजायगः । पू्वदिन निश्नीय तया पर दित प्रदोष हो 1
तो ूर्वाकाही ग्रहण होया. क्योकि, पद्मपुराणमे लिखा है कि, अ्धरात्रसे पिके जया (त्रथोद्का) योगहौ 4
तो दविवकी प्यारी क्िवरान्नि पुव विद्धाहौ करनी चाहिये ।स्कनदपुराणमे भी किला है कि, डते डे पापोंशोभी = `
५ ८ निष्कृति पू्वेविद्धा है पर अमावस युक्ता दिवरात्र करनेम नहीं देखी जाती, यहं जमावश्यके योगको निन्वा = `
५ (ती है । कालतत्वविवेचनमें जो यह् नवीनोसि कहागया है कि, दो दिन निञ्ीयन्याप्तिमेही पुवेविद्धके विघायक,
: उत्तर विद्धाके
द्धाके निषेधकं वाक्य सावकाश हं इसं कारण एसे स्थलमेही पूर्वाकिा ब्रहुण करना चाहिये यह कहना
1 | त्थाभम सयक. वथा परय शभ है इसके कै साथ विरोध होगा तै यदि यह कहो किः फिर पुव |
त (८५६) ध 1 "-कतरन्न - . [ चतुद्ला-
कारण नित्यभी है । कि जो शिवका पुजन करके चतुर्दश्ीको जागरण करता है बो मातके दूषका रस फिर ` 1
, कभीभी नहीं लेता यहं फल सुना जाता है इस कारण काम्य भी है ।\ पारण तो इस व्रतम तिथिके बच ओर
ततिथिके अन्तमे कह है, स्कन्दने चतुदेशीमे उपवास ओर चतुदशीमेही पारणा के हुए लाखों चुकृतोति मिल ` ४:
जाय तो मिलजाय ।ब्रह्माण्डके भीतर जितने तीथं हँ वे सन चौदसमे पारणा कियेसे होजाते हं शिव चतुदेशीको
छोडकर तिथिके अन्तमं पारणा करनी चाहिये । कृष्णाष्टमी, स्कन्दषष्ठी, शिवरात्रि इनको तब करे जब किए = `
ूरवयुत हो तिथिके अन्तमें पारणा हनौ चाहिये । ये दोनों स्कन्दपुराणकेही परस्पर विरुढ वचन हं । माधवन
`. इन वचनोकी यह व्यवस्था कौ है कि, तीन पह्रसे अधिक समयतक रहे तो प्रातःकाल पारणा करनी चाहिये
इस बचनसे तीन पहरके बीचमेही चतुदंशी पूरी होजाय तो उसके अन्तमं तथा इनसे अधिक समयतक जाय |
` तो तिथिके बीच प्रातःकालही पारणा करनी चाहिये । तिथिके बीचमं पारणाका काल मुख्य तथा अन्त्यकाकाल ` ध
गौण हे, क्योकि, उत्तरभावी है, एसा कहते है । कोई समथ हो तो तिथिके अन्तमे तथा असमर्थं हो तो बीचमे
पारणा कर ल एेसा कहते हे । अन्तमं पारणा करनेवाले वाक्यम शिवरात्रिकाग्रहण तो धूर्वविद्धाके विधानके
लिए है । वास्तविक सिद्धान्त तो यह है कि, वह चतुर्दशी अस्तमथपर्यन्त व्यापिनी हो तो दूसरे दिन दिनमेही
पारणा करे तो वह् दोषी नहीं होता ! क्िवराचरिके प्रकरणम कहे हए कालादर्शादिके उत्क्खित वचनोसे
दिनं तिधिकौ समाप्ति हो सो अन्तमे, नहीं तो उसके बीचमेही पारणा होनी चाहिये यह पारणाका नणय
है । (निषेयसिन्धु तो तिथिके मध्यमे पारणा करना उत्तम मानते हँ एवं एेसाही शिष्टाचार बताते हँ! पर |
माधवादि तीन पहरसे पूवं समाप्ति हौ तो अन्तमं तथा अधिक हौ तो तिथिके बीचमं पारणा करने कहते हं!
धर्मसिन्धुकार यहां यह कहते हे कि, चतुर्दशी इतनी हो करि, नित्यकमं आदि पारणा होसके तो उसीमेकरे पर॒ `
` निसेःदक्षंजआदि श्राद्ध करना हो बह तिथिके अन्तम पारणा करे संकट हो तो जलसे पारणा करल्नी चाहिए ।!
व्रतराजका सिद्धान्त ऊपर काही जाचुका है) व्रतविधि-मासयक्ष आदिका उल्लेख करके कहे कि, मेरे पाप `
नाच्च ओर अक्षय मोक्षे ओर भोगोकी प्राप्तिके किए दिवरात्रिकात्रतमेकरता हूं एेसा संकल्प करके षोडश `
` . उपच्रारोसे शिवपूजा करे । पुजा-हे देवदेव ! मत्य॑लोकके हितकी इच्छसे आजाइये मे विधाने पूजंगा
जिए, इससे तथा सहस्र शीर्षा” इससे आवाहन समर्पण करे, हे प्राज्ञ ! जनेक रलत्नोसे भूषित निम॑ल
५ 1 ् (व सोनेका अच्छा आसन ग्रहण करिये आपयादुकासनकरे, इससे “पुरुष एवेदम्" इससे आसन; शगंगादिसवे- `
` . तीर्थेभ्यः" इससे “एतावानस्य इससे पाद्य; "गंधोदकेन' इससे ““ननिपादूध्वं' इसमे अध्ये; क्पूरोशीर'
. इससे “तस्माद्विराड्' इसमे आचमन; "मन्दाकिन्याः समानीतम्" इससे “यत्पुरुषेण” इससे स्नान; वस्वरघु-
| सूष््मम्' इससे “तं ज्ञम्” इससे वस्त्र; 'यज्ञोतवीतम्' इससे “तस्माद्यज्ञात् इसमे उपवीत; श्नीलंड चन्दनम्"
`. इससे “तस्माचज्नात्' इससे गन्ध, माल्यादीनि" इससे “तस्माददवा” इससे पुष्य, "वनस्पतिरसो द्भूत' इससे
सहितम् तम् वम इससे इससे फल, यायनि कानि' इससे “नाभ्या आसौ" इससे प्रदक्षिणा, भंजहीनं क्रिया- (
इससे नमस्कार, सद्योजातम्' इससे "वामदेवाय" इससे “यज्ञेन यनम्" इससे `
व्रतानि!
(७९4७). . ~.
शक्तिके अनुसार पूजा इकट्ढो कौ है आपग्रहण करिये, यह दूसरे पहरकौ पुजा हई 1 हे शंकर! मे संसारके `
भयबन्धनरूप अनेकों पाशोसे बन्धा हंभा हुं, मोहजालमेपडेहुए् एसे मेरा उद्धार करिये, यह् तीसरे पहरकौी ` 1
ना पूर ।। चोय पहर पूना पहिले परक तरह होती है ।। सव पापक हरनेवलेवानतिवक्े लिए् = `
तमस्कार है । शिवरान्निमे मे अध्यं देरहाहुं, आप श्रहणकरिये, यह पहिले प्रकारका अयमत्र है \ हे पावतीके `
| पते! दख ओर दाखप्यके भावसे मे जलरहा हुं । हे महादेव ! मेरीरक्षाकर अघ्यं ग्रहृण करियेतिरे लिए नम- ` 4
स्कार है, यह सरे पहरका अध्यं मंत्र हुआ } है देवेशा ! आय क्या नहीं जानते ? आप जपनौ मक्तिजौर अपे `
चरणौका दास्य दे दे, यह् तीसरे प्रका अष्यं मंत्र है \ पहिलेके जैसाही चौथा है ! यह् उ्तरकाल्कौ दिवयुना = `
पुरी हई ।\ कथा-मुतजी बोले कि कंलासके शिखरपर देवदेव जगद्गृरं हिवज विराजमान धे वे कसेकैठे `
थे ? इसपर कहते है कि, पांचमुख, दामुज, तीन नेर शूलपाणि ।। १ ॥। हाथमे पिनाक धन्षव्यि हृएखङ्ध
ओर खेटक धारण कियेहुए कपाल ओर खदट्बाङ्क वियेहुए नीलेकंठवाङे सब ओरसे सुन्दर ॥ २ । शिरे
भस्म स्पोकि आभषण नीबहल्केसे शरौरवाले कोटिसुय्यके समानघ्रकाहामान एवं जपने गणोसे धिरे खेलं `
ध हए ततथा सब देवताओंको छोडकर अके बैटेहुएु परमेश्वर ।। ३ ।। ४ ।। देव देवेश कमलकौतरह् िक्तनेत्रो- = ` ५.1
बाले शिवको देखकर अत्यन्त नस्रताके साथ बैटीहूई पावंतीने पुा ॥। ५ ।। कि, है महाराज कृषाकरके कोई `
` उत्तम गोप्यत्रत कह दीजिये है देवेश ! आपके कहेहुए मेने व्रतोके अच्छे निर्णय सुने ॥। ६ उसी तरह तीथ
ओर दनोके घम भौ सुनादिये, है देव ; ! मुन्ने अबतक निश्चय नहीं है, मे वारंबार श्रान्त रहती हूं 11७1} =
इसकारण हे देव ! मृज्ञे एक एसा व्रत किये जिसमे सन्देह हीन हो जो सबमें उत्तम तथा भुवितिमुक्रितिकि छ
देनेवाला हो ।\ ८1 हे प्रभो ! सृक्षेकहिये म उत सुनना चाहती हूं । शिवजी बोले किः, देवि ! भे तुके ब्रतोका = `
उत्तम व्रत कहता हूं ।\ ९ । जो मुवितका दाता है, उसे आजतक मेने किसी सेभौ नहीं कहा जिसके कहनेषर ध
यमकाभी विलय होजाता ।\ १० ॥। हे प्रिये ! एकाग्रचित्त होकर सुन \ माघ (फाल्गुन) मासके कृष्णामा- = `
युक्ता चतुदश ।। ११।। हो वह शिवरात्र है सव यज्ञोसे उत्तम है ! दान, यज्ञ, तप ओर अनेकतरक्केत्रत ।\ १२१ =
ओर तीथसि भौ बह पुण्य नहीं हो सकता जो कि, शिवरातसे होता है । क्षिवरातके बराबर कोई भीव्रतोमं
उत्तमन्रत नहीं है ।\ १३ ।। ज्ञान वा अज्ञान किसी तरह भौ करके तो मोक्ष पाजाता है । जिन्होने क्षिवरात्रिका` `
| व्रत नहीं किया वे मरकर निश्वयही निरयजाते हँ ।। १४ । जिन्होंने
| है, हे बरानने ! मे सत्यकहता हूं इसमे सन्देह नहीं है ! देवी बोक्ौ कि, यमपुरको छोडकर मनुष्य दिवसलोकमे
। ८ ` एक पुरानी कथा सुनाता हूं । हे देवि ! सावधान होकर सुन ।। १७ 11 यह यमके शासनके मिटनिवाली तथा =
समीप चलेगये, यह सनौ अमंगलोकौ नाशक एवं सवं मंगजौला है ।। १५ । यह् भुक्ति मुितकौ `
१६ । यह मेरे मनमें भारी अचरज है इसे आप सिद्ध करदीजिये । शिवजी
इसे करल्या वे निरयको त्यागकंर ` `
मध्यसे आश्म करना प्रारंभ किया जिससे कि, वह॒ अपनेको छिपा सके ।! २९ ।! जालके बीच एक पवित्र
` शिर्वाखिग आगया था एवं एक बडा दिव्य बिल्ववक्च भी उसीके बीच्मे था \\ ३० ।। उसने रास्ता साफ करनेके ५
` के लिये बिल्वके पत्ते उठाये तथा दक्षिण भागमें पटके वे सब लिगके ऊपर पडे ।। ३१ ॥। ह वरानने ! उसकी
सुगन्धिको भौ जो कोई सूघ तो शरघातके भयसे बह मृग खडा नहीं रहता था \\ ३२ \। दिनभर तो स्का ५ .
र्हा इस कारण भोजन न हभा मृगोको देते २ रोतको नौदभौ नहीं आयौ ।\ ३३ ।। इसका पहला पहरतो `
॥ जाछिके बीचमें बीत गया । उसं समय एक गभिणी हिरिणौ पानके लिये आयौ ।। ३४ ।। वहं सुन्दरी युवती
मोटे २ स्तनोवाली चारों दिशाओंको देख. रही थौ नेच खुले हए थे 1 ३५ ।। लुम्धकने देखा कि, यह मेरे ` ॥
` निजञानेके नीचे आगई है उसने एकाग्र चिनत्तसे बाण सन्धान किया ।। ३६ 11 उसने पत्ते तोडकर शिवपर फेंके `
४ ये शीते नौद न छेकर दिव २ कहकर लोगोक हंसी कौ थौ ।\ ३७ ।। इसी बीचमे हिरणीने शिकारीको ` ।
देखा कि, मेरे कारकौ तरह ठहरा हुआ है ।। ३८ ।! उसका तीर सन्धान यमरदष्टाकी तरह चमकता था, मृगी
दिन्यवाणीसे चब्धकसे बोली ।\ ३९॥।। कि, हे सब जीवोके मारनेवारे सहान्याध ! स्थिर हौ जा, यह तो बता
कि हे महाबाहौ ! मुञ्चे मारेगा क्यों \। ४० ।! शिवजी बोले कि, मृगौके वचनसुनकर लृन्धक उससे बोला ध
कि, माता सहित मेरा कुदुम्ब एकदम भूखसे दुखी होरहा है \\ ४१ ॥ मेरे घरमे धन है नहीं । है शोभने!
इस कारण मे तुञ्े मारता हूं । सुतजी बोले कि, याको पुजाके प्रभाव तया जागरण ओर उपोषणसे ॥\४२॥। |
. बहु पापौ लुब्धक अपने चौथाई पापोसे छूट गया था । उसने देखा कि, मृगौ मनुष्यकी तरह बोलती है ।। ४३ ।।'
तब बह लुब्धक उससे निसंदेह धर्मके वचन बोत्वा कि, मेने उत्तम मध्यम ओर अधम सभीतरहके जोव मारे `
ह 11४४) परश्वायदोको एेसौ बाणी कभी नहीं सुनी, तू कौनसे देशम उत्यन्न हुई है ? कासे यहां आई है ?
11४ १1 यहु प्रयत्नके साथ सुना दे यह् मेरे मनमे बडा आद्चयं है । मृगी बोली कि, है लृब्धक ! तुश्रेष्ठहै
म तुस्ने सब सुनाती हूं । ४६ ।। पहिले में स्वम इनदरकी रंभा नामक अप्सरा थी 1 मेरे रप ओर लावण्यका `
ठिकाना नही था \ अपने सौभाग्ये सदा गवित रहा करती थौ ।\ ४७ ॥। मेने सौभाग्यक्े मदसे चूर हा `
। बलके गर्वो दानव हिरण्याक्षको अपना पति बनाया था ।। ४८ । मेने उसके साथ यथेष्टा भोग भोगे, इस
' तरह उस असुरके साथ खेल करते २ मेरा बहुतसा समय बोत गया 1 ४९ ।। मे दिन एक नाच देलनेके लिए `
शिवजीके सामनेसे चरो गयी मेरे फिर चहां पटुंचतेही श्िवजीने मुद्से युच्ा कि, ।! ५० ।! हे वरारोहे ! ` (
तू कहां चलौ गई, किससे जाकर मिली थौ, क्था सोभाग्यके घमंडसे मेरे मंदिरमें नहीं आई ? । ५१ ।। सत्य `
कह दे नहीं तो लुन शाप दे डाग, पके उरसे मेने श्िवजीके आगे सत्य २ कहा !। ५२ ।। कि हे देव ! हे ध
(५ ५ २ ओर अन ग्रह करनेवाले ! सुन मे सत्यकहती हं । हे विश्वेह ! मेरा पति महाबली दानवेन है \। ५३ ।।
मे उसके साथ अपनेघर खेती रहं गई । हे सृष्टिक संहार करनेवाले ! इसौसे मे वहां जल्दी नही आ सकीथी
८ , 1 ५४ ।\ ये वचन सुन शिवजी करोधित होकर बोरे. कि, बह् हिरण्याक्न कामातुर मग होजाय 1 ५५।। त् |
1 ॥ मरी बनकर उसकी स्त्री हो इसम् सन्देह नहीं है क्योकि तु स्वग व्मेडकरं दनव गे ठ | भोगनकी इच्छां करतीं ।
॥\८५।। ८६ ।1 उस पापस लिप्त होर
किर दूसरे के साथ बिवाह दे उस पापस लिप्त होऊं जो
उस पापसे
` पुराणोके अ्थोसि रहित, मूख, पाखण्डी
आतो, जोस्त्री मौर पुत्रको छोडकर अकेला:
-छडकीको योग्यवरफे लिये नहीं देता ।! ९४ ।। उस
` बचर्नोको सुनकर लुब्धक परमं प्रसन्नहुमा ।।
। छोड़ने ओर लिगके पुजनेसे वह् पपोष चूटगया इसमे सन्देह
| उसी समय एकं कामसे व्याकुल हई सुन्दर मृगौ
व्रतानि] क हिन्दीटीकासहित ` (७५९)
यदि कोई जीव नाया र तु भी जाती है तो मेरे भूखे दुटुंबकौ क्यागति होगी ? \\ ९७ ॥ प्रातः त्ने मेरे ` ।
घर आनाहोगा अब त् सौगन्द खाकर जा जिससे मुस्े विष्वास होजाय ।\६८।। पृथवि वायु ओर आदित्यं
सत्यसे ठहरे रहते हें दोनो लोकोके चाहनेवाकेको सत्यका पालन करना चाहिए ।॥ ६९ \ इस कारण आप |
सत्यसे अपने धर जा सकती हं उसके उनवचनोको सुनकर गर्भातं वह सग ।\ ७०1) व्याधके आगे बारंबार . = `
प्रतिज्ञा करके बोली कि जो ब्राह्मण वेदविहीन होकर ।! ७१ \\ स्वाध्याय सन्ध्या ओर शोचसे रहित होता |
है तथा केचनेके योग्योको बेचता तथा यज्लबहिष्कृतोको यज्ञ करावा है मे उसके पापसे लिप्त हरं जो फिर |
वापिसंन आऊंतीो दुष्ट बुद्धि धूतं ओर ग्राम कंटकमे जो पाप होता है \\ ७२ \\ 11 ७३ 11 नास्तिक, दुराचारी
व्यभिचारी, वेद बेचनेवारे ओर वके सूतकमं भोजन करनेवारेको जो पाप होता है ।। ७४ ॥। उसपापसे `
लिप्ठ होऊं जौ फिर सं वबाधिस न अङ तो । मृतककी शय्यके छने तथा माता पिताकी पालना न् करनेमें `
जोपषाप होता है उस पायसे लिप्त होऊं जो फिर न आं तो जो दान देनेवाकेके बीचमे अन्तरायकरताहै `
।\ ७५ ।। ७६ ।। मं उसके पायसे लिप्त हौ जो न पास्जाऊ तो । देव ग् रूब्रह्म इनके द्रव्यको जो हरताहै
।} ७७ ।} उसके पापस लिप्त हों जो तेरे घर न जाओ तो । जो दीपकसे दीपक जोरता ओर परोपि परोको ।
धोता है ।। ७८ ।। उस पापसे लिप्त होड जो तेरे घर न आऊ तो । भर्ता, स्वामी, मित्र आत्मा, बालक 1 ७९! |
गॐ, विप्र, गुर, स्त्री इनको जो सारता है मे उस पापसे लिप्त होऊं जो तेरे घर न आऊ तो \\ ८० 1! अवैष्णव,
दंभी, कामी, परनिन्दक ।\ ८१ ।! कृतघ्न कदे, परदाररत, सदाचारहीन, दूसरेको दृख देनेवाले \\ ८२ ॥ `
परपिद्यनी, कन्यावेचा, हेतुसे बगलाकी वृत्ति रखनेवाके, कटसाक्ष्य करनेवाले \1 ८२ ।। इनमे जो पाप होता है
वही पाय मृश्चेहो यदि में तेरे घर न आं तो । ब्रह्महत्यामे जो पाप तथा मातापितके मारनेमे जो होताहै श ।
` ॥८४ ।। उस पायसे किप्त हों जो तेरे घर न आं तो, जिसके दो स्त्रियां हो किन्तु उनमें विषय दृष्टि करे . ` |
तेरे
च्प्ति हों जो तेरे घर न आऊंतौ,जो पति
जो तेरे घर न आऊ तो, एक बार कन्याकीं किसीके साथसगाईकरके
रेघर न आओॐ, तो, कथा बेचतेमे जो अन्तरकरताहैमे
५ पति ओर वेदकी रोज निन्दा करे ॥। ८७-८९ ॥ उपाय
चल््व होऊंजो न आऊ तो! जो घरीकरे विशेष करके ब्राह्मणीको घरी व्याह \\ ९० ।) उक्त पापसे लिप्त |
होड जो तेरे घर न आऊ तो, प्रेतशनाद्के खानेवार बहुयाजक पतित ।। ९१ ।। असत्के शास्त्रम निपुण = `
डी, असद् व्यापारी ब्राह्मण, इनको जो पाप होता है वह मृक्षेहो यदिन, |
खाता है \) ९२।\ ९३ 1। एवे जो मूलं अपनौजच्छी ` |
पापसे लिप्त होऊं जो तेरे घर न आतो । मृगीके इन. |
सन्धानको छोडकर हरिणीको छोडरिया उसके
न करना । है वरानने सरे पहर ।। ९६।। ९७ ॥। (
(७९०) | ब्रतराजञ ` [ चतुदेशी-
कारण बह सच्ची भौ है \\ १०९ \ हे म॒गी मैने आज परिवारके लिये दिनभर कष्ट उठाया था, अवमे तुके '
भारूगा तु अपने देवताओंका स्मरणं कर ।\! ११० ।! व्याधके वचन सुनकर हरिणी एकदम दुखी होगई ओर
-रोकर व्याधसे बोली कि, हे व्याध ! मुञ्चे मारदे \। १११ ।। विरहकी अग्निने मेरा तेज ओौर बल नष्ट कर
: दिया हैः न मृक्षमें मांसरहा है न मेदाही रह गया है ।। ११२ ॥। सुज्ञ मारकर वाली जपपपौहीहौगिःमे `
जानसे जागी आपका भोजनभी न होगा । ११२ ।\ परमतेजस्वी बलवान् मोटा तजा गौराङ्ग मृग यहां `
आयगा ॥। ११४।। उसे मारनेसे तुम्हारे कुदुम्बकी तृप्ति हौ जायगी, अथवा मं ही तेरे घर प्रातःकाल आजाङ्गी
इसतरह शिवा्च॑न करदिया, जौविकाके लिये सब दिक्ाओंको देखने लगा ॥ १२३ ।\ उसने फिर चंचल ` ५
उसकी बात सुनकर टृष्धक विचारनेरगा किं क्या करू ? पीठे उस दुबली श्ोकातुरा मृगौसे बोला \! ११५ = `
1 ५ कि, है महाम्य ! सत्य कट् जिससे मञ्चे विवासं हो जाय दुखंको सताई मगीने उसके वचन सुनकर ।\ ११६ ।। ॥ 4 (1 “
` व्याधके अगे बार २ सत्यप्रतिज्ञा की कि, जो क्षत्रिय होकर जंगेमेदानसे भागे \। ११७ ।। उस पायसे कप्त
हेमं जो मेँ तेरे घर न आऊ तो, जो बाप तडागोको तोडडादें ।। ११८ ।\ जो सब गौओंकी बला रूपमे `
ओर स्थानको तोडडाङे उन्हे जो पापहोताहै वौ मुञ्नेहो यदिमेंतेरेधरन जाञऊतो।। ११९ ॥। यहुसुनकर `
(१ ८ व्याधे मृगौ छोड दी, वहं बहतसा पानौ पीकर निधरसे आई थौ उधरको चलदी ।\ १२० ।। जास्कि बीचमे ।
रहते दूसरा पहर बीत गया फिर उसने बिल्वपत्र तोडकर उसौतरह देवर चढ़ादिये \। १२१।।बो व्याघज्ीत `
ओर भखसे पीडित था, घरक चिन्तालगी हुई थी, क्िवश्िवजयते हृए नींद न आई । १२२ ॥ तीसरे पहरभी
॥ ` नयनोका हरिण देखा जो कि, मुगीका रास्ता देखरहा था, वो चारों ओर म॒गीका मागदेखं रहा था ।। १२४॥. 0
उसे सौभाग्य ओर बलका अभिमान चढा हुमा था। कामका उन्मानी. खासामोटा था व्याध देखकर बडा `
. होते \\ २९१, चाहं स्त्री पेडकी जडम भी बैठ जाय वही घर है, विना जायाके महल भी बनके बराबर है 1
प्रसन्न हुमा भौर कानतक धन् घ ताना ।। २५ ।\ बाण छोडनाही चाहता था कि, मृगने देख लिया उसे अषना ॥
कालं जान सोचने लगा ।\ २६ ।} किं, अवश्यही मे इसके हाथसे मारा जाऊंगा, मेरी प्राणप्रिया मार्या व्याधके
हाथसे मारी गई ।। २७ ।! उसका विरही में अवक्यही मरूगा. हाहा समयके पाप, मेरी स्त्री दुख पाईं ।\ २८
| ॥ भायि बराबर न घरमेही सुख है, एवं न बनमेहौी सुख है । उसके विना धमं अथं ओर काम कुछ भी नहीं 1
1 १३० ॥\ धमं अथं ओर कामके का्योमिं मनुष्यकी सहाय स्त्री ही हुजा करतौ है । विदेवामे गये हृए का वहौ
विश्वास करनेवाली है !। ३१ ॥\ भायि बराबर कोई बन्धु नही है, न सुखही है, दुखी मनुष्यकी दवा स्त्रीके
बराबर कोई भौ नहीं है ।। ३२ ।। जिसके घर प्रियवादिनौ साध्वी स्त्री नहीं है, उसे वनमे चलेजाना चाहिये
कयोकरि, उसे जैसा बन वैसाही धर है \। ३३ ।\ एक मेरे प्राणके बराबर थी तो{दूसरी प्राणदाता थी, स्ी विरही `
मेरा, जीनाही निष्फल हे \। ३४ ।। इस प्रकार सोचकर लुब्धके बोला कि, ए मास भोगी सुयोग्य व्याष !
। ३५ तुस पृष वो मृन्ने सत्य बतादे, दो हरिणी आई थी, के कौनसे रस्तसे गई हं ? ।! ३६1) अथवा _
दीजिधे । उसके बचर्नोकौ सुनकर लृन्वकको बडा विस्मय हुभा ।। ३७) कि, |
लुल्धक : बोला ।। २८ ।।किवे दोनों तो |
भ्रतारणा करता है ।। ४८! जहां यह पता हौ कि, मारा जागा, वहाँ कौन म॒खं जायगा ? व्याधके इन वचनोको `
ध ध ५ प्रेसको तुडाता है ।\ ५२) तडागको भेदता तथा प्रसादको गिराता है, जो ब्राह्मण बाहिर रहकर कय विक्रय ४ | 4 4
करता है ।। ५३ ॥ सन्ध्या ओौर स्नानसे रहित, वेदशास्त्रसे विहीन, शराबी स्त्रियोके प्रेमी दसरेकौ बुराई = `
करनेवाङे ।! ५४ 1! दूसरेकी स्त्रियोकी सेवा करनेवाले बाह्मण, दूसरेकी स्नियोकी बुराई करनेवासे, शद्रके =
करे, ब्राह्मणोके वचनोको छोड पाखण्डमे लगा रहे । ५८ ।\ जो श्र ब्रह्मचयमें रत तथा पाखण्डमे लगे रहै = `
इन्हंजो पाप होता है, बह पाप मुस्ने हो, जो तेरे घर न आय तो ।\ ५९ ॥। तिल, तेल, घत, शहद, क्वण, गड, = `
॥ | ध सपेक्ट, चित्रातक फल ।\ ६१ ।। इनको जो ब्राह्मण बेचता है, उसे जो पाय होता, वह मून्हो जोमं तेरे घर ष
न ञाऊंतो ! जादित्य, विष्णु, ईशान, गणाध्यक्ष, पावती ।\ ६२ ।। उन्हं छोड जो मूखं दूसरेको पुजताहै,
उसके पापसे लिप्त हों जो में तेरे घर न आऊ \\ ६२ 1\ जो गोको परसे छए तथा सूर्योदयमे सोवे अकेला मीढा
श्रतानि1 हिन्दीटीकासदित (७६१) |
भरता व्यथही हौगा ।\ ४७ ।। सृगके वचन सुनकर व्याध बोला कि, हे धृरतं ! तु शूठ बोलता है मेरी वथा ५1
सुनकर हरिण बोला ।। ४९।। में उन शपथोसे आजाऊंगा, जिनसे कि, तुमं विष्वास होजाय । यह सुन व्याध `
बोला किं, आप उन हपरथोको करे । जिनसे मुके विश्वास होजाय ।! १५० 1) है कामुक ! मृक्षे विश्वासहो `
जायगा, तो मं तुम्हु तुम्हारे घर भेजद्गा । मृग बोला कि, जो स्त्री भर्ताकी बचना करे एवं जो मनष्यस्वामीकौ `
बंचना करे ।\ ५१।। जौ कि भित्रकी बंचना तथा गुरुषे द्रोह करता है, एकपंक्तिमे विषम परोसता हे, किसीके `
अन्नको खानेवाले, स्त्री ओर पुत्रके त्यागी ।। १५५ \! वेद वेदशास्त्रके अथं इनके निन्दक, इन सवबकोजोपाप ५
होता है, बह पाप मृक्षे हो यदिमे तेरे घर न आऊ तो ।-५६ ।। जिसके घरमे घरी स्त्री तथाजोगौचगौर
व्रतसे विहीन हो, सर्वान्न भोजी सबका बेचनेवाला ब्राह्यणोका निन्दक ।। ५७ ।। जो शूद्र तीनों वर्णोकीसेवान =
. सब रोह, लाक्षा आदिक अनेक तरहके रंग ।। १६० । मद, मांस, विष, दुग्ध, नील, वृषभ, मीन, क्षौर, ` ४
खावे, मे उसके पापका भागी होड ।। ६४ \\ माता पिताका पोषण न करनेवाला तथा अपने किए भोजन `
बनानेवाला कन्यके धनसे जीविका करनेवाला, देव जौर ब्राह्मणोका निन्दक ॥। ६५ ।। गोग्रास्, हन्तकार, `
५ अतिन पूजन जो गृहस्थौ नहीं, करते, सबका पाप मुक्ते हो ॥। ६६ ।। वुन्ताक, पटोल, कलग, तुम्बी, मूकः, ५ १
८ लशुन, कन्द, कुसुभ, काल्षाक ।। ६७ 11 जो मूखं इनको खाता है, जिसकी कि, शुद्धि सौ चान्दायणोसि भी ` (
सकती ।\ ६८ \। उसका पाप मुश्षे लगे यदि मं तेरे घर न आऊ तो । जो स्वरहीन लक्षणहीन वेद पठता ५
५ है \। ६९ ।\ एवं गलियोमे फिरता हुमा वेद बोलता है, जो ब्राह्मण हो वेद पाठ करे तथा उसके वेदको अन्त्यज 2
ने ॥५७०॥ वेदे
रन भां तो ।\ ७१॥ जो भूदा संसक्त तवा यके सपक इषित
जौ तेरे घर न आऊंतो\\ ७२ जो ब्राह्मण रेखक, चित्रकार
से जौविका तथा आतंलोभसे शूद्रके. यहां भोजन करे, मे उसके 0 ५ हों नो तेरे
है, मेंउसके पापका भागौ होय 11 ७२ 1 शूठ गवाही देनेवाला, सूठा, चोर, पिच व्यभिचारं र री,। ६ ,ि वि शव विष्वासधाती \७४। `
(७६२) , - ब्रतराजः : ० | (| चतुदेशी-
प
॥ तो तिनि वि वि पपि निति
००
वाला, रोगी \\ ८६ ।\ इनको न सारना चाहिये ओर तो क्या बच्चोसे धिरीहुई मृगीभी मारने योग्य नहीं है
यदि घर्मका त्यागकरके मसे मारनाही चाहते हौ तो ए मानके देनेवाले ।\ ८७ ।\ बाठकंको अपनी सखिथोके द
` पास अपने घरपर छोडकर प्रतिज्ञासे फिर आजाऊंगौ ए व्याध ! मेरे वचन सुन ।। ८८ ॥\ जो अपने पतिको = `
छोड पर पतिमें सदा रत रहे, मे उसके पासे लिप्त होऊं जौ तेरे घर न आङ तो ।\ ८९ ।\ जो मनुष्य मोहम `
फंसकर मद्य, मांस, विष, दग्ध, नीली, कुंभफल इनको बेचे \} १९० ।! उनके पापसे लिप्त हों जोतेरेघरन ॥
` जाऊं तो, हे श्रेष्ठ व्याध ! जो तुम्हारे सामने पहिले सोगन्द कौ थं ।। ९१ ।। वह सब अनभीहंजो्मेनञाऊं `
` तौ । उसके इन वचनोको सुनकर व्याधको बडा विस्मय हा ।! ९२1! वह मृगी व्याधसे छट कर अपनेघर `
आई तथा व्याध भौ उस वनको छोडकर धरको चल दिया \। ९३ ।। सत्यवादी सब मृगजनोके वचनोको याद = `
करता हुभा कहने लगा कि, मेँ इनके मारनेवाला किस गतिको जाऊंमा।\९४।।इधर यह् चिन्ता थी घरमे बाक्क `
भूखे दीख रह थे । उनके खानेके लिये घरमे अन्न मांस कुखभी नहीं था ॥! ९५ ॥ वे उसे विना मांच ल्यि
आयाहुभ देखकर सब निराज्ञ होगये व्याधभौ उनके वाक्योको याद करके।।९६।।न तो नीदही लेका एवं न
भोजनही करसका अचरजमं धिरा रहा कि" वे सब प्रतिज्ञामे बेधेहुएु अव्य आयेगे ।! ९७ ॥। मे सज्जनोके `
ब्रतको याद करके उन्हं कभी न मारूगा । इधर हिरण प्रतिज्ञा करके कन्धकसे छटकर । ९८ ।\ अपने उस ` ६
आश्रमे भया जहां कि, उसकी दौ हिरिणि्याँ थीं एकने तो हालहौ बच्चे दिये थे तथा दूसरी सहवास चाहरही
` थीं ।1९९।1 तीसरीभी बहुतसे बालरकोको लिये हृएु जपहुंची सब एक जगह इकटटी हुं सबने मरनेका निक्चवय |
किया 1 २००।। षे सब आपसमं क्लिकारीकी बातें कर रहीं थीं । सहवासकी इच्छकी सुरूपा, ऋतुप्रप्त = `
हिरणीको भोग ।\ १ ।। हिरण छृतढ़ृत्य होगया ओर बोला कि, आप यहां रहकर अपने प्राणोको रक्षा करना `
11 २ ।\ सावधानीके साथ व्याघ्र गज भौर श्िकारियोसे बच्चोको बचाना, मे तो यहां सोगन्दोसे बन्धा `
आया हूं 11 ३ 1! कि, चलकर ऋतुदान दे जाऊं जिससे फिर सन्तान हो । व्थोकि, जो मूख अपनी ऋतुमती
स्त्रोसे भोग नहीं करता ।। ४ ।। वह भरूणहा है उसका जीनाही वृथा है । सन्ताने स्वगं ओर यहां सदा कीति
लेनं " मेही ८6.५१४...
सात है ।\ ५.।। एसी स्वगंसौस्य देनेवाठी सन्ततिको यत्नसे पालना चाहिये क्यों कि, निपुत्रकी इस ओर परलोक
दोनोमंही गति नहीं है \\ ६ ।\ इस कारण किसीभौ उपायतते पुत्र पदा करे, मेँ तो वहां पहुचृंगा जहां कि,
व्याघका घर है \। ७ ।) सत्यका पालन करना चाहिये क्योकि, सत्यम धम रहता हे । यह सुन उसकी स्त्रियां ` ।
~ इलौ होकर बोीं ।\ ८ ।। कि, हे शरेष्ठ मृग ; हमभौ तेरे साथ आवेगी हे प्यारे ! हम आपका कोर्दभी विप्रिय
याद नहीं करतीं ।। ९ । आपने हमे विकसित पुष्पोवाल बनोमे, नदियोके संगमपर, पवंतोकौ कन्दराओंमे `
येणेष्ट रमण कराया ह ।\ २१० ।\ आयके बिना हमारा जौनाभौ व्यथं है क्योकि, पतिहीन स्त्रियोके जीने `
. क्या फायदा है ।\ ११।। श्राता, सुत, पिता, सात ये भित आनन्दके देनेवाले हे किन्तु पति अमित आनन्दके `
देनेवाला है एसे पतिको कौन नहीं पुजेगौ \। १२।। चाहु घनौ हो बहुतसे बेटे भाई हों किन्तु पतिहीन कलांगनां `
। बन्धुवगकी केवल चिन्ताका विषयही है ।। १३ ।। वैधव्यके बराबर स्त्रियोको ओर कोई दुख नहीं है ! वे स्तिय
प ओर कोई दुख नही है । षे स्त्रियां ४४ † धन्य हं मंकी सिः ५५४
भगराज ! अपनेस्त्री पु्रोके
व्रतानि]. हिन्दीटीकासहित `
उस सरमं स्नान करके कर्म्मोका त्याग किया } थानी संन्यास ठे खया ।\ २३ \। उस्र लिगको प्रणाम ओरं
(७६३)
हंदयमं शिवका ध्यान करके भक्ष्य, पान, मैथुन, भोग, काम कोध, लोभ, एवं मोक्षका नाज करनेवाली माया = `
इनका त्यागकर देवकी वन्दना करके लुब्धकके पास गया ।। २४ । २५ उसके स्त्री-पुत्र मरने का निश्चय करके `
अनशन त्रत छे, उसकी पीठसे रुगे चरे जये ।। २६ ।। भार्य्या ओर पुत्रके साथ सृग उस दशमे आया जहा भूखे
बालवच्चोके साथ लुञ्ध रहता था \\ २७ ।। धर्मे वाक्योका पालन करता हु स्त्री बच्चोके साथ व्याधे
पास आ बोला कि।। २८ \1 हे व्याध ! पहिले मृज्ञे मार पीडे मेरौ स्तिधोको मारना इसके पीठे बाल्कोको `
मारना इसमें देर न कर ।1 २९ ।\ क्यों कि, तुम्हारे तो मृण भक्ष्य है तुम्हे इसमे कया दोष है, हम सत्यसे पक्त्र
` होकर स्वगं चरु जायगे इसमं सन्देह नहीं है ।\ २३० ॥। कुटुम्ब सहित तेरे प्राणोक्ता पालन होगा ! इन वचनोको `
घन ल्न्धक अपनी बुराई करक हिरणसे बोला । ३१ ।। कि, ओ महासत्व मग ! अपने आश्रम जा, मृञञे 1
` मांसकौ आवश्यकता नहीं है, जो होना होगा सो होगा \} ३२ ।। जीवोके मारने बोधने जर डरनेमे पावही पाप
हैमं परिवारके ल्यि कभी पाप न करंगा ।\२३३।। हे मृगोत्तम ! आयने मृन्ने उत्तम ॒धर्मोका उपदेश दियाहै,
इस कारण तु मेरा गुरं है । हे मृगश्रेष्ठ ! आप अपने कुटुम्बके साथ अपने स्थानयर पधारे ।३४।। सत्य . `
0, ध्मेका आश्रय च्या है अस्त्रोका त्याग करदिया, व्याधके वचन सुनकर हिरन फिर बोला कि, ॥३५।
में तो कमम्मोका त्याग करके तेरे पास आया हूं मुञ्चे शीध्रही मारदे तुक्षे पाप न होगा ।२३६॥। मेने पहिले ` ॥
` वुक्षे वचन दिये थे उनसे बंधाहुओ आया हू" मेने ओर मेरे कुटुम्बने भपने जोवनका लोभ छोड दिया है ।\२३७॥ ॥
` यं वचन सुन कृन्धक बोला कि, तु मेरा भाई, गुरु, रक्षक, माता, पिता ओर सुहूत् सब कुछ है ।\२३८१\
मेने अस्त्र ओर माया जादिक बल दोनोंका त्याग करदिया है, हि मृग ! किसकी स्त्री, किसके बेटे, किसका `
` कुटुम्ब है \।२३९।। अपने कर्मं आप भोगने पडते है, है मृग ! तु सुलसे चलाना, यह् कहकर उसने एकदम `
धनुषके टूककरडाठे, तौर तोड डादे ।२४०।। मृगकी प्रदक्षिणा नमस्कार करके क्षमा मांगी इस बीचमे
आकाशम दुन्दुभि बजनेलगे ।।२४१।। आकाशसे सुन्दर पुष्प वृष्टि होने लगी उस समय एक देवदूत सुन्दर `
` विमान लेकर चा आया \\४२॥ कि, हे जगके लिय भयंकर बने हुए महासत्व व्याघ ! इस विमानर |
बैठकर देह समेत स्वगं चला जा \\२४३।1 हिवरातिके प्रभावसे तेरे पातक मिट गये, उपवासभौ अपने |
आप होगया, रातमे जागरण भी तूने कर लिया ।२४४।। पहर पहर कौ पूना तुने अज्ञान पूर्वक की तु सब |
„४ पापोसे छट गया है अब शिवके स्थानं चला जा ।\२४५।। इस विमानपर बढ क्षिवलोक पहुंच । हे महासत्व
के साथ ।\२४६।। तीनों स्त्रियोसहित नक्षत्रके पदको पाजा तेरेही नामे
संसारम प्रसिद्ध होगा ॥\२४७।। मृग ओर व्याधे इन वचनोको सुन अपने अपने विमानयपर बेठगये भौर ।
1 -नक्षत्रकी पदवी पाई ।\२४८।। इस मृगके पीछे दोनो
0 है 1(२४९।१ दो बालक अगाडी तथा पीछे तीसरी मृगी मृगके समीप 1 है ॥२५०।। बहु मृगरद् ५
| आकाशमे उत्तम नक्षत्र बना दिख रहा है । जो मनुष्य शास्त्रकौ बताई हुई रतिसे जागरणके साय उपवास
मृगो लगीहूई हं इन तीनोसे युक्त मुगशोष
ई दुसरा पापनाबक
मै बह नक्षत्र
षेबोलाजाता `
(७६४).- ८ 5 1 ्रेतराज द 1 ४ प्णिमा- ¢
सर्वत्र उज्वर करे, पौरे विधिपुवेक पदित्र आचायं ओर ऋत्विजोका वरण करना चाहिये, वे ब्राह्मण शिवरूप `
है, उनका भी चन्दन ओर पुष्ोसे पजन करना चाहिये, उनही ब्राह्यणोकी आल्ञा केकर नमसन्त्रसे शिवपूजा `
ओर ब्राह्मणोकी पूजा करे \ एक द्रौण तण्ड्लोका केलास बनावे, उसके ऊपर साबित कलक पानीसे भरके |
रखे, वह् मजबत एवं सोने, चाँदी, ताबा या मिका होना चाहिये, उसे दो वस्त्र ल्येटकर बिल्व पत्रोसे
` पूज देना चाहिये, कुंभके ऊपर उमासहित श्षिवजौको स्थापित करे, सोनेका अथवा चांदीका सुन्दर वृषभ |
` बना, सोने चादीके अलंकारोसे अलंकृत करके पूजे, पल आधे पल वां आधेके आधे पलक मूति बनी होनी
चाहिये, बह उमामहेक्ष्वरकी हो, उसे वृषभपर विराजमान करे, गण जौर उमासहिते महेक्वरको पूज कर
` पुराण ओर स्तोत्र पाठोसे रात्रि पूरी करे, प्रभातसे समय सन्ध्यावन्दन करके पूजा करे पीछे होम प्रारभ `
करे । भक्तिपुरवेक तिल, ब्रीहि ओर यव तथा लौरका शाकल्य हो, “यम्बकं” इस मन्त्रसे तथा नमः शंभवे
इस मत्रसे तथा “गौरी मिमाय" इस मन्त्रसे पथक् एक सौ आठ आहुति दे, नाम मन्त्रोसे बिल्वपत्रोसे हवन ८. |
करे । आज एकपाद, अहिनुध्न्य, भव, शवे, उमापति, सद्र, पश् पति, शंभु, वरद, शिव, ईइवर, महादेव, हरः `
भीम ये चौदह नाम हं इनसे होम करे । कुम्भदानमें भी इनका स्मरण करे । इसके बाद पूर्णाहुति देकर कमं-
` शेषको पुरा करे । इन् नाम पदोसे पृथङ् पुथक् देससे भोज्यका क्षमापन करावे । कूभसहित प्रतिमाको
` आचा्येके लिए देदे। हे देवेश ! हे सवलोके ! हे प्रभो { आप प्रसन्न हो, आपका रूप देनेसे मेरे मनोरथं
` शूरे होजायें । वस्त्र, अलंकार ओर आभूषणोसे आव्वर्यका पूजन करे । व्रती पु्तिके किए वस्त्र उढाकर `
गाय दे, दूसरे ब्राह्मणको भी हक्तिके अनुसार दक्षिणा दे । चौदह पानीके भरे घडे उपवीत ओर वस्त्र पथक् = `
` पथक् ब्राह्यणोको देने चाहिए, महौन कयडे ओर मय सामानके शय्या दे, बारह गाय ओर परिधान जाद्कि | |
दे, अथवा ब्राह्मणोकी वुष्ठिके किए दक्षिणाही दे ओर कहे कि, यहं मेरा व्रत पुरा हो बा अधूराहोवासब |
आपकी कृषासे पुरा होजाय, एसी प्राथना करे एवं उन्हं वारंवार प्रणाम करे । पीक स्वजनोके साथ अपि
` भोजन करे । यह श्रीस्कन्दपुराणका कहा हुआ उत्तर कालका उद्यापन पूरा हुभा ।! इसके साधी चौदसके
ब्रत भी पुरे होते हे \\ ध ४ तानि |
। अथ प्रूणिमात्रतानिखिख्यन्ते
1 पनि 1
0 पौणेमासो सामान्यनिर्णयात्यरंव ।॥ अत्र विदेषो निणेयामृते `
_ ब्राह्यो-मन्देऽके वा गुरौ वापि वारेष्वेतेषु चेत्रिका । तच्राह्वमेधजं पुण्यं स्तनान- `
चत्री ॥ चित्ायता चेत्स्याच्चिनवस्वप्रदराननसोभाग्यमाप्नोतीति 0
॥. | रगे वस्त्र देनेसे सोभाग्यकी प्राप्ति होती दै । ब्राह्मपुराणमें लिखा है कि, यदि चेननिका, शनि रवि ओरं ॥
^ ॥ (6 विक्षेषकरके दमनके इजा होनी चाहिये । यह् स्वादि तिथि है जो मन्वादि तिथियोने वितां (५ ॥ त |
कही गई है बह सब इसमे भौ समस्षलेनौ चाहिए । यह चेत्रकौ पूणिमापुरी हुई । वेशाखीपणमा--के विषयमे `
इनं स्नान डानसे रहित न जानं दे । (क्या दान करे इसमे जाबाछिका वचन अपराकंका दिया हुआ निणेयमे 1
न ` . उन घडोपर सोनेके तिल रखकर जो पाच वा सात ब्रा्मणोंको देता है उसकी ब्रहमहत्या हुरहोजातीहै) `
मुनिश्रेष्ठ सावित्रीव्रतमुत्तमम् । इति ब्रह्मवेवर्ताद् । ज्येष्ठे मासि सितेपक्षे `
५ 1. पूणिमायां तथा व्रतम् ।\ चीणं ब्रत महाभक्त्या कथितं ते मयानधे ।! इति स्कान्द- `
` भविष्ययोः ।। दाक्षिणात्याश्चतदेवाचरन्ति। । पाहचात्यादयस्तु अमावास्याया-
` भाचरन्ति ॥ तच्चोक्तं निणेयामृते भविष्ये-अमायां च तथा ज्येष्ठे वटमूले महा- `
सप्तीम् ।। त्रिरात्रोपोषिता नारी विधिनानेन पुजयेत् \\ अशक्तौ तु त्रयोददयां नक्तं
दिभिस्तु भाप्रषवपौणेमास्यामिदमुक्तम् ।। तत्तु नेदानीं प्रचरति ।। यदा त्वष्टाद्छा
` धटिका चतुर्दशी तदा परंव-पू्वविद्धेव सावित्रीव्रते पञ्चदशी तिथिः ।॥ नाड्यो-
शष्टादञ्च भूतस्य तत्र कुर्यात्परेहनि ।! इति माधवोक्तेः ।। वस्तुतस्तु भूतविद्धानिषेध `
एव भूतोष्टादशशनाडी { 9 1
= व्रतानि । (न हिन्दीरीकासहित (४९५) ` । |
^-^
गुरुवारी हो तो उसमं स्नान श्राद्ध करनेसे अहवमेध य्लका फल होता है । इसमे वायवीये स देवोकी म 4 । |
पुजा दमनकसे क्िखी है--कि साल भरकी कौ हुई पुजाकौ सफलताके लिए सब देवको दमनसे (त्थ
भविष्ये कु विश्लेष कहा है कि, वैडालो, कातिकौ भर माघी ये पूणिमा तिथि अत्य शरेष्ठ ह हे पाडुनदन = `
रखा है कि बनाया हृभा अन्न जर पानौ भरे घडे वैशाखीमे धर्मराजके उदकषसे देनेसे गोदानका फल पाताहै `
वटसावित्रीब्रतम् ५. 0
अथ ज्येष्ठशुक्लपौणमास्याममायां वा वटसावित्रीत्रतमुक्तम् । अत्र पूणिमा- `
मावाध्ये पुवेविद्धे ग्राह्य ।। भूतविद्धा न कर्तव्या अमावास्या च पणमा ।। वनयित्वा
` कुर्याज्जितेन्द्रिया ।) अयाचितं चतुदहयाममायां समुपोषणम् ।। इति ॥ हेमान्या- `
सावित्रीब्रतेऽष्टाददानाडीवेधदोषकल्पनायां निषेधान्तरकल्यनागौरवं स्यात् ।। अथ `
ए १ व्रतविधिः । भविष्ये-ज्येष्ठ मासि त्रयोददयां दन्तधावनपुवंकम् ।! दन्तकाष्ठं
(७दद्] , 4, -. ज्तसज {पणित
=+ सा ५
~ धः
ज जा ज
मासि सिते पक्षे पूणिमायां तथा व्रतम् ।\ चीरणं पुरा महाभक्त्या कथितं ते मयानघ ।।
इति 1। सधवा विधवा वापि सपुत्रा पत्र्वजिता \\ भतुरायुविवृडच्थं कुर्यददरतमिदं
शुभम् ।\ ज्येष्ठे मासे तु संप्राप्ते पौणमास्यां पतिता ।। स्नात्वा चैव शुचिर्भूत्वा |
` नियमं कारयेत्ततः ।\ अथ पूजाविधिः ।। वटसमीपे गत्वा आचम्य मासपन्नाद्ू- `
ट्किख्य
` मम भर्तुः पुत्राणां चायुरारोग्यप्राप्तये जन्मजन्मनि अवेधव्यप्राप्तये च॒ `
` सावित्रीत्रतमं करिष्ये इति संकल्प्य-बटसूले स्थितो ब्रह्मा वटमध्ये जनादेनः 1
बटाग्रे तु शिवो देवः सावित्री वटसंध्रिता । बट सिञ्चामिते मूलं सलिलरमृतोपम `
॥ सूत्रेण वेष्टयेूक्त्या गन्धपुष्पाक्षतः श्युभेः ।! नमो वटाय सावित्रये भ्रामयेच्च `
` प्रदक्षिणम् ।। सावित्रीं च वटं सम्यगेभिर्मतरेः प्रपूजयेत् ।\ एवं विधि बहिः कृत्वा `
सम्यग्वे गृहमागता ।। हरिद्राचन्दनेनेव गृहमध्ये लिखेद्रटम् ।\ तत्रोपविकय सङ्कल्प्य ¦
ह पुजा कार्या प्रयत्नतः ।\ इति वटं संपुज्य सावित्रीपजा कार्था ।। तिथ्यादि संकौत्यं ध
मम जन्मजन्मनि अवेधव्यप्राप्तये भतुहिविराथुरारोग्यसंपदादिकामनया साचित्री-
` ब्रतमहं करिष्ये इति संकल्प्य नियमं कुर्यात् ।\ नियममन्वः धरिरात्रं लंघयित्वा तु =
` चतुर्थे दिवसे त्वहम् ।। चन्दरायाच्यं प्रदत्वा च पूजयित्वा तु तां सतीम् \। मिष्टान्नानि `
यथाशक्त्या भोजयित्वा द्विजोत्तमान् ।। भोक्ष्येऽहं तु जगद्धात्रि निविघ्नं कुरुमे
` शुभे ।। इति ।\! अथ पुजा-ततो भूमि स्पृष्ट्वा कलां निधाय पञ्चपल्लवसप्त- `
` मृत्तिकाहिरण्ययवान्कुस्भे निक्षिप्य तदुपरि वंशहपात्रं निधाय तस्योपरि समप्तधान्यानि |
पुथक्स्थाप्यानि ।} ततुपरि वस्त्रं वस्त्रोपरि द्वात्रिशड्ढब्बुकपरिमितां वाट्का- |
भ्रतिमां ब्रह्मणा सह् संस्थाप्य पूजयेत् ।\ पद्यपत्रासनस्थश्च ब्रह्मा का्ंक्चतुरमुखः।। `
सावित्री तस्य कतेव्या वामोत्सङ्खगता तथा \\ आदित्यवर्णा धर्मज्ञा साक्षमालाकरा `
६ \ ब्रह्मणा सहितां देवीं सावित्रीं लोकमातरम् ।! सत्यव्रतं च॒
` सावित्रीं यमं चावाहयारः ॐ म्यहम् \! आवाहनम् \। ब्रह्मणा सह सावित्रि सत्यवत्सहित ¦
¦ त भक्त्या दत्तं धर्मराज सावित्रि प्रतिगृह्यताम् \। पाद्यम् ।॥ `
हृतं तोयं फल पुष्पसमन्वितम् ।। अर्ध्यं गृहाण सावित्रि ४४ मम सत्यव्रत ५
हुन्दोटाकासहिति = (७६७) |
भक्त्या दत्तं प्रगृह्यताम् ।। वस्त्रम् । सावित्रि सत्यवत्कान्ते धर्मराज सुरेषवर ।॥ `
साविन्री ब्रह्मणा साधंमुपव्मैतं प्रगृह्यताम् ।। उपवीतम् ।। भूषणानि च दिव्यानि | ४ ॥
मुक्ताहारयुतानि च ।। त्वद्थमुपक्लृप्तानि गृहाण श्ुभलोचने ॥ भूषणानि ॥ `
कुकरुमागुरुकपूरकस्तूरीरोचनायुतम् ।\ चन्दनं ते मया दत्तं साविच्नि प्रतिगृह्यताम् \\ `
चन्दनम् । अन्षताइच सुरश्रष्ठ कुकुमाक्ताः सु्लोभनाः ।। मया निवेदिता भक्त्या
गृहाण परमेश्वरि ।। अक्षतान् ।। हरिद्रकुकुमं चैव सिन्दूरं कञ्जलान्वितम् ॥ `
` सौभाग्यद्रव्यसंयुक्तं सावित्रि प्रतिगृह्यताम् ।! सौमाग्यद्रव्यम् ।। माल्यादीनि सुग-
न्धीनि मालत्यादीनि वे प्रभो ।। मयाहूतानि पु° ॥ पुष्पाणि ।। अश्याङ्धपूना- `
` सावित्र्य नमः पादौ पुनयामि ।। प्रसावित्ये० जंघे पू० 1} कमर्पत्राक्ष्ये० कटीपु०।॥
भूतधारिण्यं० उदरं प० गायत्रयै० कण्ठं पु० ।। ब्रह्मणः प्रियाये° मुखं प० ।॥ `
सौभाग्यदाच्य० शिरः पु० ।। अथ ब्रह्मसत्यपुजा- धात्रे नमः पादौ पु° ॥ विधात्रे `
जंघे प° । ष्टे न° उरू प° । प्रनापतये० मेद् पु० । परमेष्ठिने० कटी पू०।
` अग्निरूपाय० नाभि पु ॥। पद्मनाभाय० हद्यं पूजयामि । वेधसे न° बाह पु०।
विघये० कण्ठं पु० ।। हिरण्यगर्भाय ० मुखं पु० ।। ब्रह्मणे न° क्लिर०ः पु० । विष्णवे
न° सर्वद्धं पु० । देवदुमरसोदभृतः कालागुरुसमन्वितः ।। आध्रेयः सर्वदेवानां
धूपोऽयं प्रतिगृह्यताम् ।\ धूपम् ।। चक्षुदं सर्वलोकानां तिमिरस्य निवारणम् ।।
आतिक्यं कल्पितं भक्त्या गृहाण परमेश्वरि ।। दीपम् । अन्नं चतुविघं स्वादु रसेः
षड्भिः समन्वितम् ।\ मया निवेदितं भक्त्या नैवेद्यं प्रतिगृह्यताम् ।। नैवेद्यम् ।॥
र स पानीयम् ।। उत्तरापोशनम् ।। मुखप्रक्षालनम् ।। इदं फलमिति फलम् र ।पुगी
सुशोभने द भने ।। मया दत्ता च पुजेयं त्वं गृहाण नमोस्तु ते \। पुष्पा-
यात् ।। ॐकार देवि सवद क :खनिवारिणी ॥ वेद-
शि गी, स ४ 40 ५1 |
स्तथाऽस्माकं भूयाज्जन्मनि जन्मनि ॥। इति प्रार्थना ।! सुवासिन्यस्ततः पुज्य `
दिवसे दिवसे गते ।। सिन्दररं कुडकूमं चैव ताम्बूलं च पवित्रकम् ।। तथा दद्याच्च `
पाणि भक्ष्यं भोज्यादिकं सदा ।! माहात्म्यं चेव सावित्र्याः श्रोतव्यं मुनिसत्तम ।॥ ` |
पुराणश्रवणं कार्यं सतीनां चरितं शुभम् ।\ ततो त्रतपुजासाङ्ध तासिद्धचर्थं ब्राह्म- ` ।
णाय वायनप्रदानमहं करिष्ये ।\ फलं वस्त्रसमायुक्तं सौभाग्यद्रव्यसंयुतम् ।। वंशापात्रं
निधायादै ब्राह्मणाय निवेदयेत् ।॥ उपायनमिदं तुभ्यं ब्रतसंपुतिहेतवे ।। वायनं _
` द्विजवर्याय
सहिरण्यं ददाम्यहम् ।) इति वायनम् ।। इति वटसाविन्नीपूननं समाप्तम् `
11 अथं कथा ।1 सनत्कुमार उवाच ।। कुलस्त्रीणां व्रतं देव महाभाग्यं तथेव च \ `
अवेधव्यकरं स्त्रीणां पुत्रपोत्रप्रदायकम् ।! १ ।) ईकवर उवाच ।} आसीन्मदरेषु
धर्मात्मा ज्ञानी परमर्घामिकः ।! नाम्ना चाह्वपतिर्वोरो वेदबेदाद्धः पारगः \\ २}
॥ २।। अनपत्यो
ग महाबाहुः सर्वेश्वयंसमन्वितः ।। सपत्नीकस्तपस्तपे समाराधयते `
नृपः । ३ ।\ सावित्रीं च प्रसावित्रीं जपन्नास्ते महामनाः ।। जुहोति चेव सावित्रीं
भक्त्या परमया युतः \! ततस्तुष्टा तु सावित्री सा देवी द्विजसत्तम् ।। सविग्रहवती `
देवी तस्य दरशेनमागता ॥। ५ ।\ मूर्भुवः+स्वरवन्त्येषा साक्षसुत्र, कमण्डलुःतं तु
ष्ट्वा जगहन्द्यां सावित्रीं च द्विजोत्तम ।। ६ ॥। प्रणिपत्य नृपो भक्त्या प्रहृष्टेनान्त- `
रात्मना \) त्वं दृष्ट्वा पतितं भूमौ तुष्टा देवी जगाद ह ।\ ७ ।\ साचत्युवाच ॥
तुष्टाऽहं तव राजेन्द्र बरं वरय सुब्रत ।! एवमुक्तस्तया राजा प्रसन्नां तामुवाच ह ।॥ `
॥ ८ ॥\ अनपत्यो ह्यहं देवि पुत्रमिच्छामि शोभनम् ।। नान्यं वृणोमि सावित्रि
` पुत्रमेव जगन्मये । ९ ।! अन्यदस्ति समग्रं मे क्षितौ यच्चापि दुलभम् ॥! प्रसादात्तव `
देवेशि तत्सर्वं विद्यते गृहे ।। १० ।। एवमुक्ता तु सा देवी प्रत्युवाच नराधिपम्! `
सावित्रयुवाच ॥ र ` त पुत्रस्ते नास्ति राजेन्द्र कन्यका ते भविष्यति ।। ११ ।। कुल्द्रयतु
कि 1 व १ त 9.
मनः प्रह्वादनकरं शीलेनाभिजनेन च \। २० \ इत्युक्त्वा तां च राजेन्द्रो वद्धामात्य ४ (4
सहव च ।। वस्त्रालडकारसहितां धनरत्नः समन्विताम् ।! २१ विसुस्यचक्षणं `
तत्र यावत्तिष्ठति भूमिपः ।। तावत्तत्र समागच्छन्नारद्ये भगवानषि २३.४५... :. |
अपूजयत्ततो राजा अध्येपादयेन तं मुनिम् ।। आसने च युखासीनः' पुजितस्तन `
~ - भशन) पूजयित्वा मुनि राजा प्रोवाचेदं द्विजोत्तमम् ।। पावितोष्टं
त्वया विप्र दश्चेनेनाद्य नारद ।\ २४ ।। यावदेवं बदेद्राजा तावत्सा कमलेक्षणा ।॥
आश्रमादागता देवी बृद्धामात्येः समन्विता ।। २५ \\ अभिवाद्य पितुः पादौ ववन्दे
स मुनि ततः \\ नारदेन तु दष्टा सा दष्ट्वा प्रोवाच भूमिपम् ।। २६ ॥ कन्यां च ` (८
। देवगभभिं किमर्थं न प्रयच्छसि \\ वराय त्वं महाबाहो बरयोग्या हि सुन्दरीम्. `
| = ॥ २७ ।। एवमुक्तस्तदा तेन मुनिना नृपसत्तम \} उवाच तं मुनि वाक्यमनेनार्थेन = `
| प्रेषिता ।। २८ ॥ आगतेयं विशालाक्षी मया संप्रेषिता सती ।॥ अनया च वृतो
| भर्ता पृच्छ त्वं मुनिसत्तम ।। २९ ।। सा पृष्टा तेन मुनिना तस्मे चाचष्ट भामिनी ॥
साविन्युवाच \) आश्रमे सत्यवान्नाम द्युमत्सेनयुतो मुने । ३० 1) भः त्वेन
विग्रवृतोऽसौ राजनन्दनः ।। नारद उवाच । कष्टं कृतं महाराज दुहित्रा
सुव्रत ।\! ३१ ।। अजानन्त्या वृतो भर्ता गुणवानिति विश्रुतः ।\ सत्यं वदत्यस्प्र
| पिता सत्यं माता प्रभाषते ।॥ ३२ \! स्वयं सत्यं प्रभाषेत सत्यवानिति तेन सः! `
| तथा चाहवाः प्रियास्तस्य अद्वेः क्रीडति मृन्मये: । ३३ ।। चित्रेऽपि विलिख-
| त्यहवािचत्राह्वस्तेन चोच्यते ।। रूपवान्गुणवां श्चैव सर्वजञास्त्रविश्नारदः ।\ ३१
न तस्य सद्क्षो लोके विद्यते चेह मानवः । सर्वगुणैश्च संपन्नो १ रत्नेरिव महा
(७७०) 1 व्रतराज [पूणिमा- `
मम क क
मत्त्वा त्वया तात यत्कैतेन्यं वदस्व तत् \ नारद उवाच ।। स्थिरा बुद्धिहच राजेनद्र
साक्त्रियाः सत्यवान्प्रति' ।\ ४३ ।। त्वरयस्व विवाहाय भर््रा सह कुर त्विमाम् ।॥
ईइवर उवाच \। निर्चितां तु मति ज्ञात्वा स्थिरां बुद्ध च निक्वलाम् । ४४1\
सावित्रयाह्च महाराजः प्रतस्थेऽसौ वनं प्रति \। गृहीत्वा तु धनं राजा चयुमत्सेनस्य
सन्निधौ ।} ४५।। स्वल्पानुगो माहाराजो वृद्धा मात्येः समन्वितः ।! नारदस्तु ततः `
खे वे तत्रैवान्तरधीयत \! ४६ ।\ स गत्वा राजशार्दूलो द्युमत्सेनेन संगतः ।। वृद्ध- `
इचान्धक्च राजासौ वृक्षमूलमुपाधितः ।। ४७ ।। सावित्यह्वपती राजा पादौ
जग्राह वीयेवान् ।। स्वनाम च समृच्चायं तस्थो तस्य समीपतः ।1 ४८।। उवाच
राजा तं भूपं किमागमनका
मागमनकारणम् ।। पूजयित्वाध्यंदानेन वन्यमूलफलैकचसः ॥४९।। `
ततः पप्रच्छ कुश्षलं स राजा मुनिसत्तम ।। अहवपतिरुवाच ।। कुश्चलं दश्षेनेनाद्य `
तव राजन्ममाद्य वे ।\ ।! ५० ।। दुहिता मम सावित्री तव पुत्रमभीष्सति ।\भर्तरं
राजज्ञादृल प्राप्नोत्वियमनिन्दिता ।। ५१ ।! मनसा कांक्षितं, पुवं भर्तारमनया `
विभो ।! आवयोहचैव सम्बन्धो भवत्वद्य ममेप्सितिः ।। ५२ ।। द्युमत्सेन उवाच ।
थ वृद्धतचान्धञ्च राजेन्द्र फलमलाशनो नप ।। राज्याच्च्यतह्च मं पुत्रो वन्येनाद्य
` जीवति ।\ ५३ ।\ सा कथं सहते दुःखं दुहिता तव कानने ।\ अनभिज्ञा च दुःला- `
नामित्यहं नाभिकाक्षये ।\ ५४ ।\ अङ्वपतिरुवाच ।। अनया च वृतो भर्ता जानन्त्या `
` राजसत्तम ।\ अनेन सहवासस्ते तव पुत्रेण मानद ।। ५५ ॥। स्व्गतुल्यो महाराज `
भविष्यति न संचयः ।। एव मुक्तस्तदा तेन राज्ञा रार्जापिसत्तमः ।। ५६ ।। तथेति र
१ ५७ \। अभिवाद्य द्युमत्सेनं जगाम नगरं प्रति ।। सावित्री तु पति लब्ध्वा इन्र 1
प्राप्य शचौ यथा ।! ५८ ।। सत्यवानपि ब्रह्मषं तया पल्न्याभिनन्दितः ।\ क्रीडते
तदनोदेशे पौलोम्या स वानिव१। ५९ ।। नारदस्य च तद्ाक्यं हदये तु मनस्विनी \।
तस्यास्य च भामिनी ।। ६० \! गणयिन्ती! दिनान्येव न लेभे `
व्रतानि] हिन्दीकारहित {9 1
॥ सुश्रोणि पृच्छस्व पितरो मम ।! ताभ्यां प्रस्थापिता गच्छ मया सह् श
पअ ++
। ॥ ६७ ॥। एवमुक्ता तदा तन भर्जासा कमलेक्षणा ।। इवभरवशरयोः पादावभि- द
। वाद्येदमन्रवीत् ।। ६८ ।\ वनं द्रष्टुमभीच्छेयमान्ना मह्यं प्रदीयताम् ।। भरना सह॒ `
। बनं गन्तुमेतत्त्वरयते मनः ।। ६९ ।। तस्यास्तद्वचनं भत्वा य॒मत्सेनोऽ्रवीदिदम् !\ `
| ब्रतं कृतं त्वया भद्रे पारणं कुर सव्रते ।\ ७० ।। पारणान्ते ततो भीर वनं गन्त
। त्वमर्हसि ।। साविव्युवाच ॥। नियमङ्च कृतोऽस्माभ्भौ रात्रौ चन्रोदये सति ।॥ `
॥७१।। जाते मया प्रकतेव्यम् भोजनं तात मे श्यृणु ।! वनददनकासोऽस्ति
सह ममाद्य ।। ७२ ।। न मे तत्रं भवेद्ग्लानि भेरा सह॒ नराधिप । इत्युक्तस्तु `
तया राजा चयुमत्सेनो महीपतिः !\ ७३ ।! यत्तेऽभिलषितं,युत्रि तत्कुरुष्व सुमध्यमे ।॥॥ `
। नमस्कृत्वा तु सावित्री इवशनं च इवशुरं तथा ।॥ ७४ ॥ सहिता सा जगामाथ
| तेन सत्यत्रता मुने । विश्लोकयन्ती भर्तारं प्राप्तकालं मनस्विनी ।\७५॥ वनं च॒ `
फलितं दुष्ट्वा पुष्यितदरुमसंकुलम् ।। दरुमाणां चैव नामानि मृगाणां चेव भामिनी `
॥ ७६ ।। पश्यन्ती मृगयूथानि हृदयेन प्रवेपती ।। तत्र गत्वा सत्यवान्वे फलान्यादाय (|
` सत्वरम् ।! ७७ ।। काष्ठानि च समादाय बबन्ध भारकं तदा ।। कठिनं पूरयामास
कृत्वा वृक्षाल्वम्बनम् । ७८ । वटवृक्षस्य सा साध्वी उपविष्टा महासती ।॥
` काष्ठं पाटयतस्तस्य जाता शिरसि वेदना ।। ७९ ।। ग्लानिदच महती जाता गात्राणां `
वेषथुस्तदा \\ आगत्य वृक्षसामीप्यं सावित्रीमिदमन्रवीत् । ८० ।। मम गात्रेऽति- `
कम्पञ्च जाता शिरसि वेदना ।\ कण्टकंभिदयते भद्रे शिरो मे शूलसंमितेः ।।
(७७२) ५. त्रतरज 4 | पूणिमा- 2
तोऽसि स्वयं प्रभो ।। इत्यक्तः वित्राजस्तां भगवान्स्वचिकीषितम् ।\ ८८ ।
यथावत्सर्वेमास्यातुं तत्प्रियार्थं प्रचक्रमे ।\ अयं च ध्मसंयुक्तो रूपवान् गुणसागरः `
11. ८९ ।! नार्हो मत्पुरुषेनंतुमतोऽस्मि स्वयमागतः ।। ततः सत्यवतः कायात् =
पाशबद्धं वक्लंगतम् ।! ९० । अंगुष्ठमात्रं पुरषं निश्चकषं यमो बलात् ।+" ततः `
संमुद्धतप्राणं गतश्वासं हतप्रभम् ।! ९१ । निविचेष्टं शरीरं तदभूवाभ्रियदरेनम् \
यमस्तु तं ततो बद्ध्वा प्रयातो दक्लिणामुखः ।९२।। सावित्री चापि दुःखार्ता यम-
भेवान्वगच्छत ।\ नियमव्रतसंसिद्धा महाभाग पतित्रता ।\ ९२३ ।\ यम उवाच ॥
निवतं गच्छ सावित्रि कुरुष्वास्यौध्वैदेहिकम् ।। कृतं भर्तस्त्वयानृण्यं यावद्गम्यं गतं
त्वया ।\९४।। साविच्युवाच \। यत्र मे नीयते भर्ता स्वयं वा यत्र गच्छति ।\ मयापि
तत्र गन्तव्यमेष धमः सनातनः ।\ ९५ ।। तपसा गुरुभक्त्या च मतुस्नेहादब्रतेन च ।।
तव चव प्रसादेन न मे प्रतिहता गतिः \\ ९६ ।। प्राहुः साप्तपदं मेनं बुधास्तत्वाथे- `
ह 8 :॥\ मित्रतां च पुरस्कृत्य किञ््िदरक््यामि तच्छृणु।। ९७ ।। ना'नात्मवन्तस्तु `
श्ल रि मवोपलक्षय निवतं गच्छस्व न ते श्रमो भवेत् ।। २ \। साविच्युवाच ।। कुतः
भतृ समीपतो हि मे यतो हि भ्रा मम सा गतिर्ध्रुवा ।। यतः पति नेष्यसि
सुरेश भूयस्च वचो निबोध मे ।। ३ \। सतां सक्ृत्सङ्गतमीप्सितं परं
। व्रतानि] हिन्दीटीकासहित र ; काण | ण रः
। न तें श्रमो भवेत् \\ ७ ।। साविन्युवाच ।! प्रजा- `
स्त्वयैता नियमेन संयता नियम्य चेता नयसे निकामया, । ततो यमत्वं तवदव `
विश्रुतं निबोध चेमां गिरमीरितां मया । ८ ॥ अद्रोहः स्व॑भतेषु कर्मणा भनसा `
गिरा ।\ अनाग्रह्च दानं च सतां धर्मः सनातनः ।। ९ ।। एवं प्रायश्चं लोकोऽयं `
॥ । मनुष्याशक्तिपेशलाः ।\ सन्तस्त्वेवाप्यमित्रेषु वयां प्राप्तेषु कुवते ।! ११०१! ` ध
। यम उवाच ।\ पिपासितस्येव भवेद्यथा पयस्तथा त्वया वाक्यमिदं, समीरितम्! `
: विना पुनः सत्यवतोऽस्य जीवितं वरं वृणीष्वेह शुभे यदीच्छसि ।। ११ ॥ सावत्ु- `
` वाच ।\ ममानपत्यः पुथिवीपतिःपिता भवेत्पितुः पुत्रशतं तथौरसम् ॥ कुलस्य
सन्तानकरं च य्धूवेतृतीयमेतद्रयामि ते वरम् । १२ ।। यम उवाच ॥। कुलस्य `
। सन्तानकरं युवचंसं शतं सुतानां पितुरस्तु ते शुभे ।! कृतेन कामेन नराधिपात्मजे `
| निवर्त दरं हि पथस्त्वमागता ।! १३ ।\ साविच्युवाच ।। न दूरमेतन्मम भतृंस- `
। चिधौ मनो हि मे दूरतरं प्रधावति ॥ अथ व्रजन्नेव गिरं समुचतां' मयोच्यमानां `
श्युणु भूय एव च ।\ १४ \) विवस्वतस्त्वं तनयः प्रतापवांस्ततो हि वैवस्वत उच्यसे `
बधैः \ समेन धर्मेण चरन्ति ताः प्रजास्ततस्तवेहेवर धर्मरानता ।। १५ ॥
आत्मन्यपि न विर्वासस्तथा भवति नः सु खय । स ।। तस्मात्सत्सु विशेषेण भ (६ म
मया नपात्मजे निवर्त गच्छत्व
| विशेषेण विश्वासं कुरुते जनः ।। १७ । यम उवाच ।। उदाहृतं ते वचनं यदद्धने `
| शुभं न तादृक् त्वदृते श्रुतं मया ।। अनेन तुष्टोऽस्मि विनास्य जीवितं वरं चतुर्थं `
वरयस्व गच्छ च ।। १८ ।। साविच्युवाच ।। ममात्मजं सत्यवतस्तथौरसं भवेदुभा- `
५. -[पृणिमा+ |
पुरुषेषु मोघो ते न चाप्य नयति नापि मानः 11 यस्मादेतसनियतं सत्सु नित्यं
स्मात्सन्तो रक्षितारो भवन्ति ॥। २४ ।। यम उवाच ।। यथा यथा भाषसि धर्म- `
संहितं मनोऽनुकूलं सुपदं महार्थवत् ।। तथातथा मे त्वयि भक्तिरुत्तमा वरं वृणी- ` `
` ष्वाप्रतिमं पतिव्रते ।। २५।। साविन्युवाच \! न प्तेऽपवेः सुकृताद्िना कृतस्तथा `
` यथान्येषु वरेषु मानद । वरं वुणे जीवतु सत्यवानयं यथा मुता ह्येवमहं पति विना
11 २६॥ न कामये भर्तृविनाकृता सुखं न कामये भतु विनाकृता दिवम् 11 न कामये `
` भतृविना कृता भियं न भतु हीना व्यवसा'मि जीवितुम् 1२७ ॥। वरातिसगेः शत `
पुत्रता मम त्वयेव दत्तो, ह्वियते च मे पतिः ।। वरं वणे जोवतु सत्यवानयं तवेव
सत्यं वचनं भविष्यति ।। २८ । माकंण्डेय उवाच ।। तथेत्युक्त्वा तु तं पां मुक्त्वा `
वैव त वैवस्वतो यम ।। धममेराजः प्रह ष्टात्मा सावित्रीमिदमब्रवीत् ॥॥२९ । एष भद्रे `
भया मुक्तो भर्ता ते कुलनन्दिनि ।। अरोगस्तव नेयव्च सिद्धार्थं स भविष्यति!
स्वप्नो वरारोह भामिनि ।। ३२ ।। तत्सवं कथितं तस्या यदत्तं `
सर्वमेव तत् ।। तया च कथितः सवैः संवादङ्च यमेन हि ।। ३३ ।॥ अस्तंगते ततः `
प गुमत्सेनो युम सेनो महीपतिः ।। पुत्रस्यागमनाकाक्षी इतश्चेतश्च धावति ।। ३४ ।। ४ 0
५ बः ह ॥ (९ ५ ।। एवं स विविधं कोकन्सपत्नीको महीपतिः ।। चकार दुखं संतप्तः ५ इ
प न सकृत् ।।३६।। अकस्मादेव राजेन्द्रो लब्धचक्षु्बेभूव ह ।। तद्द्ष्ट्वा
परमाञ्चयं चशुः्राप्त द्विजोत्तमाः । ३७ ।। सान्त्वपुर्वं तदा वाक्यमृचचुस्ते `
` भकम् ।\ चक्षुःपराप्त्या महाराज सूचितं ते महीपते ।। ३८ ॥। पत्रेण च॒ `
1 ¢ तो भवति यथा अन्येषु वरेषु भर्तुषु मद
४. आवांविनेत्य्थंः । ५ स्थित इतिसेष
व्रतानि] ` हिन्दी
मे भर्ता तेन कालव्यतिक्रमः ।। ४३ ।! सत्यवानुवाच । अस्याः
जानासि कारणं बरर्वाणनि \! वृद्धस्य चक्षुषः प्राप्तेः इवश्ुरस्य शुभानने ।! ४२।।. ५.
साविव्युवाच \\ न जानामि मुनिभरेष्ठाङ्चक्षुषः प्राप्तिकारणम् ।\ चिरं सुष्तस्त॒ `
दृश्यते कारणं न च ।। तत्सर्वं विदयते विप्राः साविष्यास्तपसः फलम् ।\ ४४
व्रतस्यैव तु माहात्म्यं दृष्टमेतन्मयाऽ धुना ।। ईइवर उवाच ।! एवं तु वदतस्तस्य `
तदा सत्यव्रतो मुने 1\ ४५ ।। पौराः समागतास्तस्य ह्याचस्य॒नपर्तेहितम् ।। ,पौरा- `
उचुः ।\ येन राज्यं बलाद्राजन् ह तं कूरेण मंत्रिण । ४६ ।\ अमात्येन हतः
सोऽपि इतीव वयमागताः ।। उत्तिष्ठ राजकार्दल स्वं राज्यं पाल्य प्रभो ।। ४७-॥ `
अभिषिच्यस्व राजेनद्र पुरे मन्त्रिपुरोहितैः: ।। ईइवर उवाच ।। तच्छृत्वा राजननर्दलः `
स्वपुरं जनसंवृतः ।। ४८ ॥! पितृपैतामहं राज्यं संप्राप्य मुदमन्वभत् ।! सावित्री
सत्यवांइ्चेव परां मुदमवापतुः ।! ४९ ।। जनयामास पुत्राणां शतं सा बाहृक्षालिनाम् |
ब्रतस्यव तु माहात्म्यात्तस्याः पितुरजायतं ।॥ १५०।। पुत्राणां च शतं ब्रह्मन् `
प्रसन्नाच्च यमात्तथा \। एतत्ते कथितं सर्वं
युर्जीवते भर्ता व्रतस्यास्य प्रभावतः ।। कर्तव्यं
| सर्वनारीभिरवेधव्यफलप्रदम् ॥ `
` ॥। ५२ ।। सनत्कुमार उवाच ।! विधानं ब्रूहि देवे व्रतस्यास्य च ज्यंबक ।। क्रियते
विधिना केन स्त्रीभिस्त्रिुरसुदन \। ५३ ।। ईइवर उवाच ।। वर्षकं नियमं कृत्वा
एकभक्तन मानद ।। नक्ताहारण वा ध विप्र
` चरिदिनं लंघयित्वा च चतुर्थे दिवसे शुभे ॥ ध ‹ य चन्द्र
व्रतमाहात््यमत्तमम् ।। ५१ ॥)क्षीणा- `
(५७६) पतर ..[ वृणि - `
प त्रसन्ध्यं देवि भताना
सदा । ६५ \
नि न्दता त्वं जगन्मये !\ मया दत्तामिमां
` परजां प्रतिगृह्ण नमोऽस्तु ते ।। ६६ ॥। सावित्र तवं प्रसावित्री दविधाभूतासि क्षोभने ।। `
जगत्रयस्थिता देवि त्रिसन्ध्यं च तथानघ ।! ६७ ॥। शरेष्ठे देवि त्रिलोके चत्रेताग्नौ `
त्वं महेश्वरि \। व्यापितः सकलो लोकक्वातो भां पाहि स्व॑दा ।! ६८ ।। सूपं देहि `:
यजो देहि सौभाग्यं देहि मे शुभे ।। पुत्रान्देहि धनं देहि सवेदा जन्मजन्मसु ।\ ६९
यथा तेनं चियोगोस्ति भर््रा सह युरेहवरि ।\ तथा मम महाभागे कुर त्वं जन्मजन्मनि
1. १७० 1 एवे संमूजयेहेवीं कमलासनसंस्थिताम् \} एवं दिनत्रयं नीत्वा चतुर्थेहनि `
सत्तम ।\ ७१ ।। मिथुनानि च संभोज्य षोडशेव द्विजोत्तम ।\ पुजयेद्रसत्रदानेश्च `
भूषणेश्च दहिजोत्तम ।\ ७२ ।। अचचयित्वा तथाचायं सपत्नीकं युसंमतम् ।। तस्मे `
संकल्पितं सव हेमसावित्रिसय॒तम् ।। ७२ 1! सत्त्रेणामेन दातव्यं हिजमख्याय 1
५ सावित्री जगतः पिता ।\ मया दत्ता च सावित्री ब्राह्मण प्रतिगृह्यताम् ।। ७५ ।। `
-अवेधव्यं च मे नित्यं भूयाज्जन्मनिजन्मनि
सहं ॥\ तत्रैव च चिरं कालं भुक्ते भोगाननुत्तमान्
# मान् ।1 १७६ ।। इति बटसावित्रीक कथा ह |
यं करिष्यति (ल ति \ भर््रासा सहिता साध्वी समस्त
धुख भाग्भवेत् ।। धमराज उवाच ।। गौरी प्रमुग्धा मुग्धा वा अपुत्रा पतिवजिता ।॥! `
सुव्रत ।। सावित्रीं कल्पविदुषे प्रणिपत्य तथा सुने 11 ७४ \! सावित्री जगतां माता
मनि ।। मृता च वसते रोके ब्रह्मणः पतिना `
| व्रतानि } (08 0 हेन्दी दीव
? ५ येत् पलादूध्वं यथाल्ञक्त्या रथं रौप्यमयं शुभम् ।। काष्ठभारं कुटरं च पिटं चेव 1
` सुविस्तृतम् ।। धममराजं नारदं च तत्रैव परिकल्पयेत् ।। वटमूले प्रकुर्वीत मण्डलं `
# ह
गोमयेन हि ।। संस्थाप्य तत्र सावित्रीं चतुष्कोपरि शोधनाम् ।॥ एवं च मिथने `
त कृत्वा पुजर्यद्गतमत्सरा ।। पञ्चासृतन स्नपनं गन्धयपुष्पोदकन च ।। चस्दसामर्- ` |
कपूरमाल्यवस्त्रविभूषणेः ।\ पीतपिष्टेन पद्यं च चन्दनेनाथवा लिखेत् ।\ देवी `
सम्पुनयेततत्र मन्त्रेरेभिविधानतः । नमः साविव्यै पादौ तु प्रसाविव्ये तु जानुनी ॥\
` कटि कमल्पत्राक्ष्यं उदरं भूतधारिष्य' ।! गायच्ये च नमः कण्ठे लिरसि ब्रह्मणः
प्रिये ।। अथ ब्रह्यसत्यवतोः\। पाद्यौ धात्रे नमः पृज्याव्रू ज्येष्ठाय वे नमः!
| परमेष्ठिनं च वे मेदमग्निरूपाय वे कटी ।। वेधसे चोदरं पूज्य पदानाभाय वे हृदि।॥।
कण्ठ तु विधये पुज्य हेमगर्भाय वे मुखम् ।। ब्रह्मणे वै शिरः पुन्य सर्वद्धः विष्णवे `
नमः ।। अभ्यच्यवं कमेणवं शास्तौोकक्तविि
(क तविधिना शुभम् ।} ततो रजतपात्रेण अर्घ्यं
` ददयादृदयोरपि ।\ साविच्रयघ्येमन्वः ~ ओडकारपुर्व
1 डकारपू्वेकं देवि वीणापुस्तकधारिणी । `
देवमातनेमस्तुभ्यमवेधव्यं प्रयच्छ मे।\पतिः ५
¢ तत्रते महाभागे वह्धिजाते शुचिस्मिते ॥
दृढव्रते दृदमते भतुश्च प्रियवादिनि ।। अवध्यं च सौभाग्यं देहि त्वं मम सुव्रते
पत्रान्पौ्राश्च सौख्यं च गृहाणाघ्य नमो नमः चत्यवतोर
अथ यमस्याव्यमन्तरः-त्वं कमेसाक्षी लोकानां शुभाशुभविवेककृत् ।। वैवस्वत देवर व |
। | गृहाणाघ्यं धर्मराज नमोऽस्तु ते ॥ धमराजः पितृपतिः साक्नीभूतोऽसि जन्तुषु ।
(द व्रता पणभा |
कुर्वीति गीतवादिन्रमङ्कलैः ।! सुवासिन्यस्ततः पज्या दिवसे दिवसे शुभः ।! सिन्दूरं
कुंकुमं चेव ताम्बुलं च सुपुगकम् \। तथा दद्याच्च शूर्पाणि भक्ष्यं सौभाग्यमष्टकम् 1
` संतिष्ठेच्च दिवारात्रौ कामक्रोधविर्वाजता ।\ दिनत्रयेऽपि कतेव्यमेवमर्ध्यादिपून- `
नम् ।\ ततश्चतुरथदिवसे यत्कार्थं तच्छृणुष्व मे ।। मिथुनानि चतुविशत्षोडहा `
` द्वादशाष्ट वा ।। पुजयेद्स््रगोदानेर्भूषणाच्छादनासनेः \\ अथवा गुरुमेकं च व्रतस्य `
विधिकारकम् ।॥। स्वेलक्षणसंपच्ं सवेशास्त्राथेपारगम् ।। वेदविद्याव्रतस्नातं `
शान्तं च विजितेन्द्रियम् ।! सपत्नीकं समभ्यर्च्य वस्त्राल्डकारवेष्टनेः ।\ शय्यां
सोपस्करा दद्याद्गृहं चेवातिञ्लोधनम् ।। अाक्तस्तु यथाशक्त्या स्तोकं स्तोकं च `
कल्पयेत् ।। सौवर्णी प्रतिमां तत्र पतिनासह दापयेत् ।। दानमन्तरः-साविनि त्वं
यथा देवि चतुर्वंषेहातायुषम् ।1 सत्यवन्तं पति प्राप्ता मया दत्ता तथा कूर सावित्री `
-जगतां माता सावित्री जगतः पिता \\ मया स्ता च सावित्री ब्राह्मण प्रतिगृह्यताम्!
प्रतिग्रहुमन्त्रः।। मया गृहीता सावित्री त्वया दत्ता सुशोभने ।। यावच्चन्द्रह्च सूयेहच
सह भर््ा सुखौ भव । गुरं च गुरुपत्नीं च ततो भक्त्या क्षमापयेत् \\ यन्मया कृत-
.. क &. .
वैकल्यं ब्रतेस्मिन्दुरधिष्ठितम् \। तत्सवं पूणेतां यातु युवयोरचेनेन तु ।\ बटसेचन- `
मन्त्र ष ~ धर्मराजो यमो घाता नीलः कालान्तकोऽव्ययः ।। वेवस्वतल्चित्नगुप्तो दध्नो
` वसाम्येव तस्माद्यत्नेन सेचयेत् ।। न्यग्रोधस्य समीपे तु गृहे वा स्थण्डिलेऽपिवा।।
| ` साचित्याहचेव मन्त्रेण घुतहोमं तु कारयेत् । पायसं जुहया-इक्त्या घतेन सह |
भामिनि \। व्याहृत्या चेव मन्त्रेण तिलत्रीहियवांस्तथा \\ होमान्ते दक्षिणां द्चा-
इत्विजःच क्षमापयेत् \। भुञ्जीत वासरान्ते+तु नक्ते शान्ता तपस्विनी ।। अर्ध्य
दद्यादरन्धत्यै दृष्ट्वा चेव प्रणम्य च }! अरुन्धति नमस्तेऽस्तु वसिष्टस्य प्रिये . ।
शुभे ।। स्वदेवनमस्कायें पतिव्रते नमोऽस्तु ते ।। अध्यंमेतन्मया दत्तं फएलयपुष्पस 5६ पुष्पसम- = `
षि 1:
शुक्ला पुणिमाके दिन यह् ब्रत भक्तियुवेक पुरा किया, है निष्पाप ! यह मेने त्हं सुना भी दियाहै । दक्षिण `
। दैक्षके वासौ तो एेलाकरते भौ ह किन्तु पश्चिम आदिदेशके वासौ जन अमामे इस व्रतको करते है । हौ `
निणेयामुतमं भविष्य पुराणको केकर कहाभी है कि ज्येष्ठ अमामें वडके मलम महासती सावित्रीको तीन
रात उपवास करके इस विधिसे पूजे । यदि तीन-दिन उपवास करनेकौ षवित न हो तो जितेन्दिय होकर 1
चरयोदक्लीको नक्त, चतुदेशीको अयाचिते तथा अमामे उपवास करले । हेमाद्रि आदिने तो इते भाद्रपद पुणिमक्ते `
दिन कहा ह \ उसका इसत समय प्रचार नहं है जब अठारह घटिका चतुदश हो तब पराही टौ जातीहै, `
क्योकि माघवने कहा है किं सावित्रौके व्रतम पञ्चदशीतिधि पू्वेविद्धा लेनी चाहिये, यदि अढारह धडी `
1, चतुदश हो तो पर दिन ब्रत करे \ वास्तवमं देखो तो चतुदंशीविद्धाका निषेषही है, क्योकि “चतुदश अलारह॒ - ।
षटिकाञोसे अभिली तिथिको दूषितकर देतौ है" यह वाक्य खाधवसे विधिरूयसे ही प्रवत्त होताहै। यदि `
एसा न मानोगे तो सावित्रीके ब्रतमें अठारहनाडीके वेधदोषकी कल्पना करनेमे दूसरे निषेधोकी कल्पना `
करनेका गौरवहौ होगा । व्रतविधि--भविष्यपुराणमं किल है कि, श्येष्ठको त्रयोदज्ञोके दिनदातुनके `
` भमयद्ंतुनकरे वहं सौधा सफेद चारअंग् लका जातौ का होना चाहिए इसके वियेसे ब्रते विघ्न दूर हो जाते `
दहः इससे सदा महानदी क्चरना वा तडागमं स्नान करना चाहिए, विशेष करके पुणिमामें सरो मृत्तिका `
। : ` ओर जलसे स्नान करे, तिल ओर आलोको पानौ मिली चूरीसे सावधानीके साथ वालोको साककरे, `
` स्नान श्ञौचपुवेक बहुतसे पानौसे वटको सींचे, भक्ति पूर्वक सूत्रसे वेष्टित करे, शुभगन्ध पुष्प ओर अक्षतोसे `
। भजे “वैनस्वतके चिए नमस्कार” इनसे प्रदक्षिणां करे, वृद्धिमे, क्षयमे, रोगमे, ऋतुमती होनेमे, ब्राह्मणे `
हाथसे कराने ही अच्छा होता है । इस व्रतको त्रयोदशीसे आरंभ करके पूरणिमाप्यन्त करना चाहिष् \ `
यही स्कल्द ओर भविष्य पुराणम लिला हुआहै कि, ज्येष्ठ शुक्ल द्ादक्ञोके प्रदोषका तोन राके ब्रतके `
उहेश्यसे उस रातमें स्थिर होजाय, यहां प्रारंभ करके अन्तम उपसंहार क्रिया है कि, ज्येष्ठश्ुक्ला पुणिमाके
दिन यह व्रत भवितिपुवेक पुरा किया, हे निष्पाप ¡ यह मेने तुम्हं सुना दिया है । सधवा विधवा अपुत्रा अथवा सपुत्रा
कोई भी हो, भर्ताकी आयुकौ वृद्धिके चयि इस पवित्र व्रतको करे, ज्येष्ठपुणिमाके दिन पतितव्रताको चाहिये `
किं स्नान करके पवित्र होकर पीक नियस करे ।। पुजावि?ि
न क
त
धि-वटके समीप जा आचमन करे मासपक्ष आदिको `
` कहे पीछे बो कि मेरे पति ओर पु्रोकी आयु आरोग्य प्राप्तिके लिथे एवं जन्मजन्ममें सौभए्यक्ी प्राप्तिकि `
लिये सावित्रीब्रत में करती हूं । ए संकल्प करना चाहिये । वटके मूलमे ब्रह्मा, मध्यमे जनार्दन, अग्रभागपर = `
शिवदेव तथा सावित्री वटके आधित है । हे बट ! मँ तेरी जडमे सुधाके समान पानौ छगाती हु, भक्तिपूवेक
न
(७०) 1. -ब्रसज 1. "पूणः
= यिति यिति
हुं तथा भक्तिसे देरही हं आप ग्रहण करिये, इससे घाद्य; में भवितसे लाई हुं इस पानीमें फल पुष्प भिके `
हए हेः है सत्यत्रतकी प्यारी सावित्री ! इस अ्यंको ग्रहग करिये, इससे अघ्यं; चित्तको प्रसच्च करदेनेवाली `
सुगन्धि इसमे भिलीहुई है तथा स्वभावसेभी शीचल ओर सुगन्धित है । हे सावित्री ! बह्यके साथ
` आचमनं करिये, इससे आचमन; “वयो दधि घुत्तम्” इससे पंचामृत स्नान; मं पानी लायी हूं । ह ॥ |
` ब्रह्माकी प्यारी सावित्री ! तथा ह सत्यवान् ओर यमके साथ विराजती हई राजकुमारी साविन्नी 1 मे मन्दा-
किनका पानी लाई हं इते स्नानके लिये ग्रहण कल्ये, इससे स्नान; कपास बनेहृए दो महीन कंयडे है ।
। ` हे सत्यवान्की प्यारी सावित्री ! भे भविति साथ दे रहीं हं आप ग्रहण कल्यि, इससे वस्व; है सत्यद्रतकी `
पत्नि सावित्री ! ह साथ विराजी हुई बर्यपत्नी साविघ्री ! हे सुरेश्वर धर्मराज ! आय उपवीत ग्रहणं करे, इससे = `
` उपवीत; भुक्ता सहित दिव्य भूषण आपके व्ये, है चुभ लोचनं ! आपके लिये तयार कयि हैः इससे
` भूषणः; कुकुसागर' इससे सावित्रीके नाम पूवक चन्दन; अक्षता्च' इससे अक्षत; हरिद्र कुकुमम्' इससे ``
सौभाग्य द्रव्य; माल्यादीनि सुगन्भीनि' इसते पुष्प सम्पण करना चाहिये \ अंगपुजा-सावित्रीके सख्यि
नमस्कार चरगोको पनती हं ; प्रसावित्रीके, जंधोकोभु०; कमलके पत्ते नेत्रवालीके० कटीको पु,
भूतधारिणौके० उदरको पु०; गाथत्रीके कंठगो पू०; ब्रह्माकी प्यारीके० मुखको पू०; सौभाग्यके देनेवालीके० | |
लिरको पुजती हूं ।। ब्रह्मा ओर सत्यवान्को पूजा-धाताके चयि नमस्कार चरणोको पूजती हृ; विघाताके० `
र । जंघीको पु०; संष्टाके० ऊरूको पूर: प्रजायत्तिके० मेदंको पर०, परमेष्ठीके० कटीको पुऽ, ण
` नाभिको पुर; पदानाभकेर हूदयको पू०; वेधाके° बाहुओको पू०; ` ° कंठोको प°; हि
सुतको पु०; ब्रह्माके० शिरको पूर; ५ विष्णुके० स्
` अघ्यं दे। हे सुव्रते ! मृते सुहाग, पुत्र, पौत्र जौर सौख्य
अग्निहूपकेऽ ५९ ध
य दे, इसे अध्येको ग्रहण कर तेरे लिये नमस्कार है, `
॥ ध. इससे तीसरा अघ्यं दे \ आप सदा प्रियभाषिणी ब्रह्मगायत्री सावित्री हे ! इस कारण सत्यदवारा दुखरूपौ `
६ इण्वीरूप ह, चन्द्र मंडलमें प्रभाभी आपह बनीहुई = `
मेरा उद्धार करं । जो मेने सौ जन्मे दुष्कृत किये |
न
देता था 11४11 है द्विजसत्तम ! इससे सावित्री देवी प्रसत हो, रूपधारण कर उसके दृष्टिगोचर हई ।॥५१॥। = `
। भूः भुवः ओर स्वः के तेजवाली अक्ष सूत्र जर कमण्डलु लिेहृए अथवा इन तीनों चीजे महाव्याहृतियोकी = `
, उक्त तीनों लेकर तौनोको दिखानेवालो थी, राजाने उस जगद्वन्द्य सावित्रीको देखकर ।1६।। प्रसन्न चित्तके `
` साथ भक्तिभावसे प्रणाम किया, राजाको दण्डकी तरह भूमिपर पडा देखकर देवी प्रसन्न होकर बोली 11७! = `
कि, है राजेन्द्र ! मे परम प्रसन्न हूं वर मांगिये यह सुन राजा प्रसच्न हो बोला ८11 कि, हे देवि ! मेरेकोई =`
` सन्तति नहं है अच्छा पुत्र चाहता हूं । हे जगन्मये सावित्री ! मे सिवा पुत्रके ओर कुछ नहीं सागता ॥९1\
( जो भूमिपर दुलभ पदाथं है वह सब मेरे घरमे हं ¦ है देवेशि ! आपकी वाते मेरे घरमे सव मौज है ।\१०\ १
राजाके इस प्रकार कहनेपर देवी राजसे बोलो कि, है राजन् ! तुम्हारे पुत्र नही है एक कल्या होजायगी =. `
` ॥1१९१}) वह अपने ओर अपने पति दोनोके कुलोका उद्धार करदेगी ! जो मेरा नाम है है राजशार्दूल ! उसकाभी `
वही नाम होगा ।। १२।। है मनिश्रेष्ठ तना कहकर देवी अन्तर्धान हयेगई ।राजा परम प्रसन्न होगया
॥११३॥\ करक दिन बौतनेपर रानी गभवती होगई पूरे दिन बीत जानेषर प्रसव किया।\१४।।सावित्रीजपी
थी, प्रसन्न हौ सावित्रीने वर दिया था। इस कारण नवजात कन्याका नाम सावित्री ही रखागया ।१५१॥
| वहं कमलनयनौ देवी जेसी चमकती थी । जेसे अम्बरमें प्रतिदिन चाँवकौ कराएं बढती ह, उसी तरद् बढती `
। थी 11१६।\ बहू ब्रह्याकौ सावित्री थी, बडे बड़े नयनोवाली लक्ष्मी हयी, हेमगभेकीसी उसकौ चमक देखकर `
. राजाको बडी चिन्ता हुई ।। १७।। उसके समान कोई सुन्दर नहीं था । उसके तेजके आगे उसके मागनेका `
` कोई साहस नहीं करता था } उसके रूप ओर तेजके मारे सब राजा सुकगये थे ।।१८।। एक दिन राजाने
बुल्ाकर उस कमलनयनी लडकीसे कहा कर, है पुरिके ! तेरे विवाहका समय आगया, पर तुभे कोईर्मागं
आप एक क्षणमात्रही बेठा था कि, इतनेमे वहां अपने जाप नारदजी आ उपस्थित हुए ।\२१-२२।। राजानं
अध्यपा्यसे मुनिराजका पन्न करके आसनयपर विराजमानं किया ।\२३।। पूजा त्य समाप्त करके
भृनिराजसे राजा बोला कि, हे नारद आपके दर्शने में पवित्र होगया हूं । आपने मुके पवित्र कर दिया ।\२४॥ |
ढे मंत्रियोके साथ आश्चमते कमलनयनी सावित्री आ उपस्थित हई # र
(७८२) ल -वरतसजः - " " ; {पूणमा.
4 त्रं भी विचक्तित नहीं होगी \ सगुण, निर्गृण, मखं, पंडित ।४१।। दीर्घायु अथवा अल्पायु चाहे कुर भी हौ क
` पर बही मेरा पति होगा । चाहे इन्द्रही क्यो न भिरे पर म दूसरेको न वर्गौ ।\४२।। यह जानकर अषपजे
करना चाहो, सो कीजिए कहिए । नारदनी बोले कि, है राजेनद्र ! सत्यवान्के प्रति साबित्रीकौ स्थिरमति `
है \*४३।\ आप इसका विवाह करके इसे शी्ही पतिके साथ कर दे शिवजी बोले कि, स्थिर निदचल बुद्धि. |
बाली अचल उसे जानकर ।४४।। राजा धन ओौर सावित्रीको साथ लेकर वनम द्युमत्सेनके पास पहुंचा
एवं मिला साय कु अन्थायी ओर बुड्ढे मंत्री थे नारद् तो वहीं अन्तर्धान होगये वह् वृद्ध एवं अंधा था. त
पेडकी जडे बैठा हुञा था ।४५-४७)। सावित्रौ ओर अवपतिने उसका चरण स्पे करिया, वे अपनानाम `
बोलकर समीप खड होगये ।\४८।। दयुमत्सेनने आने का कारण पुछा, एवं बनके मल फलोसे अघ्यंदान दिया `
॥४९।। जब अद्वपतिसे कुशल समाचार पु तब अरवपतिने कहा कि, आपके द्छेनमात्रसे मेरा कुशल
` ` होगया है ।\५०।। मेरी सावित्री नमाकौ पुत्री आपके पुत्रको चाहती है, यह् निष्पाप आपके पुत्रको अपना
पति बनाले ।\५१।। इसने अपनेसे आपके पुत्रको अपना पति बनाया है ! मेरा आपका संबन्ध हो, यह मेँ |
चाहता हं ।\५२।। ्ुमत्सेन बोला कि, में बढा ओर नेत्र हीन ह, हे राजन् ! मेरा भोजन फल मूल है, रज्यसे ध |
च्युत हू मेरा पुत्रभी बनकी वस्तुजसि ही निर्वाह करता है \\५३ जापकी पुत्री वनके कष्टोको कंसे उठवेगी ?
-यह दुःखोको क्या जानं ? इस कारण मं नहीं चाहता ।\५४।। अवति बो कि, मेरी पृत्रीने यह सब जानं #
ध इसे वरा है, है मानके देनेवारे ! आपके पुत्रका सहवास ।\५५।। इसे स्वर्गके समान होगा, इसमें सन्देह
नहीं ह । राजाके एसा कहनेषर उस राजषिने ।।५६।। कहा कि, अच्छी बात है, पौरे उन दोनोका
राना
करा दिया एवं अनेक प्रकारका धन दिया, पीछे ।\५७।। अद्वपति चुमत्सेनका अभिवादनकरके अपनी ` |
राजधानी चखा आया । सत्यवान को पा सावित्री उसी तरह प्रसन्न हुई, जसे कि, इन्द्रको पाकर शची प्रसन्न
है ५८1} हे ब्रह्मषं ! सत्यवान् भी उसे पत्तीके रूपमे पा परम प्रसन्न हआ, वहं वनमें इस प्रकार
चरणों चर ट वन्दना की । सुव्रत सत्यवान् एक मजबत कटार हाथमे लेकर ।\६३।। वन जनेके चिये ध ८
उससे सावित्री बोखी कि, ।।६४।। आप इस समय वन न जाये, यदि जाना ही चाहते हैः तो `
नहीं देखा, मं चन देखना `
चाहती च हूं । हे स्वामिन् ! कृपा करिये ।\६६।। सत्यवान् बोला कि, हे सुश्रोणि 1 मे स्वतंत्र नहीं हू, मेरे ` ॥
माबापोसे पु, यदि ये भेदं तो हे सुन्दर मन्द हास करनेवाली ! मेरे साथ चलो आ ।1६७।। पतिके
कहूनेपर शुरोकं चरणोमं प्रणाम करके बोली ।६८।। कि, मँ वन देखना चाहती
मचा चाहिये, भेरा मन भर्तकि साथ वन देखनेकी जल्दी कर रहा है ।\६९।। यह सुन दयुमत्सेन बोला कि, ५
हू" मृक्े आज्ञा
व्रतानि} :.: . :.. \ हिन्वीरीकारहित `. (७८३)
। उससे बड़ी भारी म्लानिं उत्यच्च हुई । शरीर कायने लगा, वृक्षके पास आकर साविद्रीसे बोला १\८०।। कि, `
। भेराश्षरौर काप रहा है, मेरे ्िरमं ददं है । हे कल्याणि ! मेरे क्षिरमे शूलकेसे कटे चुभ रहे हं ।\८१।। ` |
| ् | हे सुत्रते सुश्रोणि ! मं तेरी गोदमं सोना चाहताहूं वहु अपने पर भरोसा रखनेवाली उसके मौतके समयको ` ` 1 ॥
। जानती थौ ।८२।। जान गई कि, मौत आ प्टुंची, वहीं बैठगई । सत्यवान् भौ उसको गोदीमें शिर रखकर `
` सोगया ।\८२।! उस समय वहां एकं कृष्ण पिगल पुरुष आ उपस्थित हा, उसका शरीर तेजसे प्रकाशमान = `
हरहा था । सावित्रीसे कहने लगा कि, इसे छोड दे 11 ८४।। वाक्यका मतलब समन्ननेवाली सावित्री उससे
| बोली करि, आप दुनियांको उरा देनेवाले कौन हँ ? मुके कोई भी पुरुष नहीं उरा सकता । ८५) यहसुन॒ = `
। लोकभयंकर यम बोला कि, ह वरारोहे ! तेरे पतिकी आयु समाप्त होगई ।\८६।। मे इसे बांषकर लेनाऊ, `
| यह मेरी इच्छा है \ यह मुन सावित्रो बोली कि, मेने तो यह सुना है कि, भयके दूत लेनेको भते है ॥८७।। = `
| | । है प्रभो { आप इसे लेनेके लिय केसे आये ? यम अपनी चेष्टा कहुनेलगा ॥८८।। कि यह सत्यवान् धर्मात्मा | 1 ष
। . रूपवान ओर गुणोका खजाना है ।\८९।। वह् मेरे पुरूषोका लेजाने लायक नहीं है । इस कारण में स्वयम्
८ ही जागया हुं । इसके पीछे सत्यवानृके शरीरसे पासे बधे इस कारणवकामें अये हुए अंगृष्टमात्र पुरुषको
| यमने बलपुर्वेक खीचि किया ।\९०।। ।\९१।\ इसके पीछे निष्प्राण निर्वास, प्रभारहित, बुरा चेष्टा रहित
| क्षरीर होगया, यम उसे बँधिकरं दक्षिण दिश्ाको चला दिया ।९२।। इख सावित्रीभी यमके पौषे चली,
क्यों कि, वह् नियम ओर ब्रतोसे सिद्ध पदवी पाचुकी थी दूसरे महाभाग पतिब्रता थी ॥९३।१ यम उसे पीठे
॥ भतीहुई देखकर बोला कि, जा इसका अन्त्येष्टि संस्कार कर, तुने पतिके प्रति जो अपना कतव्य था वहं 1
५५ पूरा किया, जहांतक जाया जासकता है तहतक गई ।९४॥ सावित्री बोली कि, जहां जो मेरे पतिको लेजाय
चा जहां मेरा पति स्वयं जाय, मे भी वहां जाऊं यहु सनातन धरम है ।९५।1 तप, गुरभक्ति पतिप्रेभ ओर | (५
आपकी कृपासे भें कही रुक नही सकती ।\९६।। तत्वके जाननेवाके विद्ठानोने सात पंडपर मित्रता कही है
कारण में गुरुकुल वास ओर सन्यास नहीं चाहती, इस गाहसथ्य धमेकोहं
यम बोले कि, आपके इन वाक्योके एक एक वणं तथा स्वरों व्यंग्य पदायं भराहुभा है, मै इससे परम प्रसन्न `
न ं है, वह् आपकी कृषासे नेत्र पाकर बलवान् होजाय एवं सू्यके समानं तेजसः ५ हो
हे अनिन्दिते ! जो तु मांगतौ है वही ८५ देता हं, जो तु बाहतौ है वहौ होगा, भषको
इया करते देखे जाते हें \\९१०।। यस बोला--जेसे प्यासेको पानी, उसी तरह आपके वचन मुक्ते लगते है, ` `
सत्यवान्को जीवनके विना जो अच्छा लगे सो मौँग रे \११।। साविघ्री बोली किः मेरे निषपुत्री पितके `
सौ ओरस कुलवर्धक पुत्र हो, यह मेरा तीसरा बर है \\१२।) यह चुन यस बोले कि, तुम्हारे पिताके कुल `
, वधक शुभ लक्षणवाले सौ पुत्र हों, हे नृषनन्दिनि ! जो चाहती थी वहु मसिलगया अब बापिस जा, क्योकि, `
बहुत इर आई हें \\१३।। सावित्री ओली कि, पतिके साने तो सुखे कुभो दुर नहीं है, क्योकिःमेरामन `
तो पत्तिके पास बहत दूरतक पहुंचता है चलते चलते मुक्षे कुख बात याड अआगई है उसेमी सुन लीजिये ॥\१४।}
आप भादित्यके प्रतापी पुत्र है, इस कारण आपको विद्रान् पुरुष वैवस्वत कहते हँ, भापका वर्तावं प्रजाके
सथ समान भावे है, इस कारण आपको धमराज कहते हं ।\ १५।। जसा अपनेपरभौ विद्वास नहीं होता =
जेसा कि, बन्जनोमें हुमा करता है, इस कारण स्ज्जनोपर सबका प्रेम होता है ।\१६।। सब प्राणी ्रेमसे
विद्वासं करते हं इस कारण सनज्जनोमें विश्वास होजाता है ।\१७।। यम बोला कि, है अंगने ! जो तुमने `
सुनाया है एेसा मेनं कभी नहीं सुना, मे इस तेरे वचनसे प्रसन्न हुजा हृं विना इसके जीवनके जो चाहे सो मांग `
` ले ॥१८।। सावित्री बोली कि, मेरे पुत्र सत्यवानूसेही जौरस पुत्र हो, दोनोसे बलवीय्यंश्ञाली सौ सुतोका `
परिवार हो कहं मे चौथा वर मांगती हं ॥।१९।। यम बोला कि, है अबले! तुके जर सत्यवानसे सौ ओर =
` पुत्रोका प्रीतिव.र कुल होगा, आप दर आगई हँ वायिस जायं, क्यो परिश्रम करती है ? \\१२०\ सावित्रो
बोली कि सज्जनोंकौ सदा धर्मे ही वृद्धि रहती है; न तो उसमे सज्जन दुली होते है एवं न सीवते ही हं
सज्जनोका सनज्जनोसे साथ कभौ व्यथं नही होता न उन्हं उनसे भय ही होता है ।।२१।। सन्तही संत्य
५ ` सूर्यको चत्र रहे है, तपसे पृशथ्वीको धारण कर रहे हँ, हे राजन् { सत्यही मूत भव्यकौ गति है, सज्जनोकेर्व किवी. ` `
परस्परकी अपेक्षा नहीं रखते १\२३।। सज्जनोकी गे कृषा कभी व्यथं नहीं जाती, न उनके साथमे
क्षमे अधिकाधिक भवित होती जाती है, अतः हे पतिव्रते ! भौर वर मांग ॥॥२५। सावित्री बोली |
सज्जन दुली नहीं होते ॥२२।। सज्जनोंका यह सदाकाही व्यवहार है, सज्जन दूसरेका प्रयोजन करते ५
मैने आपसे पुत्र दाम्पत्य योगके विनाके नहीं मगि हे, न मेने यही मांगा है कि, किसी दुसरौ रीतिसे पत्र `
गर्जाय इस कारण आप मुषे यही वरदान दं कि, मेरा पतिजो जाय, क्योकि, पतिके विना मं भरी हुई हू ।\२६।। ` छ
पतिके विना कौ गई सुख, स्वे, षी ओर जीवन कुछमी नही चाहती ।\२७। आपने मुशे सौ पुत्रका वर॒ `
प्त होगा, सावित्री त वट टके पास चलो आई सत्यवान्का शिर गोदीमं रखकर बेठ गई ।।२३१।। हे ब्रह्मन् ! `
न् चेतन्य होकर बोला कि, हे वरारोहे ! हे भामिनि ! मेने अभी एक स्वप्न देखा ।३२॥) इसके `
जो ला संव सत्यवान ने कह सुनाया, सावित्रीनेभीः जो यमसे बात हुई थींवें सब कह सुनाई | ध
न - र.
(;
(
५
1
(|
॥
८ तति). हिन्दीटीकासहित ५ ` (9५)
` 1४२) सावित्रौ बोलो कि, हे श्रेष्ठ मुनियो ! मे चक्प्राप्तिके वास्तविक कारणक नहीं जानती, मेरे पति `
-चिरकालके लिए सोगये थे इस कारण देर होगई \\४३।। सत्यवान् बोला कि, हे विभो ! इस सावित्रे `
भरभावसे सब होगया ओर कोई कारण नहीं दौलता, यह सब सावित्रीके तपकाही फल है ।\४४। नं `
सावित्रीके त्रतकाही यह माहात्म्य देखा है । हिवज कहने लगे कि, सत्यवान् यह कहही रहा था कि, इतनेमे `
उसकी राजद्यानीके प्रधान पूरुष आकर बोले कर, जिस दृष्ट मंत्रीने आपका राज्य बल पूर्वक छीन ल्या =`
भा ॥१४५-१४६।। बह भी अपने संत्रीके हाथसे मारागया इसकारण हमआपके पासआये है कि, ह यथ
। शार्दूल ! अपने राज्यकी पालन करं चलं ।।४७।। हे रजेन ! आप मंत्री ओर पुरोहितेकि द्वारा राज्याभिषेक `
करायें, राजा यह सुन उन लोगोके साथ अपने नगरमे पहुंचा ।\४८।) अपने कुलकमानुगत राज्यको पाकर `
परम प्रसन्न हभ, सावित्री सत्यवान भी परम प्रसन्न हुए ।\४९।। इसी ब्रतके माहात्म्यसे उसने सौ बलवान् `
पत्र पैदा किये एवं उसके पिताके हौ परम बलक्ञाली सोपुत्र उत्पन्न हए, जैसा कि उसने यमराजते वरपाया `
था । हे ब्रह्मन् ! यह हमने इस व्रतका उत्तम माहात्म्य सुना दिया ।१५०-१५१।। इस ब्रते प्रभावे `
| बीतौ आयुका पति भौ जीवित रहा आता है, इस सौभाग्य देनेवाले व्रतको समी स्व्ियोको करना चाहिये `
५२} यह सुन सनत्कुमार बो कि, है देवेश त्यंबक ! इस व्रतका विधान बतादये कि, हे पुरसुदन ! स्त्रि `
| 0 बनावे ।\१६०।। पिटक आर कुठार चादीके हो, ब्रह्मकौ प्यारी सावित्री देवोको ऋतुफलोसे पूजे ।\६ (१ ॥
| ध ॥ हरि्रासे रंगे हुए कठसूत्रोसे पुज, सतियोके कंठसुत्र तीन दिनतक देता रहै ।६२। प्रति दित पर्कान्न ५ 7 | ॥
(७८६) _ ४ व्रतराज न [ पणिमा- `
भविष्यषुराणको लेकर लिला है । धर्मराजे वर सेनेके पीछे सावित्रौ बोलो रि, हे देव ! जो स्तौ मेरे बरतको `
भक्तिसे करे, चह साध्वी पततिके साथ स्वर्गं भोगे । ध्मेराज बोले कि, गौरी, मुग्धा, प्रमुग्धा, अपुत्रा ओर
पतिरहिता, सधवा, सपुत्रा जो भमी कोरईस्तरी ही इस पवित्र ब्रतको करे, ज्येष्ठकी पणिमके दिनिजो
पतित्रता स्नान कर पवित्र हो बहुतसे पानौसे वटको सीचे भक्तिपूवेक अच्छे गन्ध पुष्प जर अक्षतोसे पूज
सूत्र खेटे, तथा “वैवस्वत यमके लिये नमस्कार" इससे प्रदक्षिणा करे, रातमे नक्त करे, एकवषं तक एकाग्र
होकर कर, प्रतिपक्ष वटकी पूना करे । इस विधानसे इस उत्तम ब्रतको करना चाहिय । इससे सब मनोरथोकी ` ।
। भ्राप्ति होकर अन्तमे सरके साथ प्रसत होती है ! यह श्रीस्कन्दपुराणका कहा हुमा बटसावित्रीका ब्रत पूरा = `
` हृजा ।॥ जथ उद्यापन--फिर ज्येष्ठ मासमे ह्वाद्छीके दिन नक्त भोजन करे, दतुन करके स्नान करे, पौडे
नियम करे कि, तीन रात पूरीकर चौथी रातको चन्द्रमाको अध्य देकर सावित्रीकी पुजा करके यथादाविति `
भिष्टास्नसे ब्राह्मणोको भोजन करा भोजन करूणा, हि शुभे ! संसारके धारण करनेवाली { उस मेरे ब्रतको |
निक्घ्न पूरा करदीजिये, यह नियमका मंत्र है । बांसके पारमे एक प्रस्थ वाल् भरे । एक प्रस्थक्रा सम्तघान्य- त
` भय वंशपात्र होना चाहिये । दो वस््रोके ऊपर अ्ह्याके साथ साविघ्रीको विराजमान करे, उन दोनोकौ सुवणेकीो
भूति बनवाये । तीन रात ब्रत करे ! जब तक तीन दिन पूरे न हों न्यग्रोधके नीचे रहना चाहिये । सोनेकौ
` साविन्नी सत्यवानुके साथ बनावे, सोनेके पलंगपर आरोपित करके रथपर बिठावे \ वह् रथ अपनी शक्तिके
अनुस्रार एक पल चांदीका होना चाहिये \ काठका भार, कुठार, एक बड़ी पिट, धर्मराज ओर
९ नारदं वहाही । | ध
अनायः वटके मूलम एक मंडल गोसयः ० बनावे । | अ सुस्द्र साविन्नीको 1 विर जमा ष रे । इस प्रकार न
ताके लिये नमस्कार, चरणोको पूनती हं; च्येष्ठके `
मेदूको पु० (^ अग्निरूपके० कटिको पु०; वेधके० उदरको
चदीके पात्रसे 9 र अघ्यं दे 1 सावित्रीको अघ्यं देनेका भन्त्र-जिसके सबसे पहि ओकार है, जो वीणा जोर पुस्तक `
१ मगेके० मुखको पु०; ब्रह्मके० शिरकोपु०; `
विष्णुके लिये नमस्कार, सर्वागको युजतौ हं । इस प्रकार शास्त्रकी कहीहई विधिसे पुजे ! इसके पीड दोनोको =
ध
स
बरतानि। हिन्दीदीकासहित
मः ता
1. ३ देवि सावित्री ! जसे मप चार सौ वषेकौ आयेवाले गुणी पतिको प्राप्त हई है उती तरह मृते भौ मेरे पतिको `
करदे । (सावित्री इन दोनों रललोकोंका अर्थं करचुके) । मंगलीक गानों वानोके साथ वहा जागरण करना ` ।
चाहिये प्रतिदिन पवित्र सुवासिनि्योका पूजन होना चाहिये । सिन्दु, कुम, पान, सुषारी, सूप, भक्षवओौर = `
1 । सौभाग्याष्टक् दे \ रातदिन कामकोधका त्याग करके रही अबि, तीनों विन इसी प्रकार अर्घ पूजा आदिकं ` ५
करनी चाहिए । इसके बाद चौथे दिनका जो भी कुछ कृत्य है, उसे सुनिये, चौबीस, सोलह वा बारह अथवा ` ५५
आठ मिथुनोका पुजन करे ! अथव वरतकी विधि करनेवाले, स्थं लक्षण संपन, सव शास््रोके जाननेवारेविध्ि- `
पूरवैकादेद पडे हुए, जितेन्द्रिय, शान्त, सपत्नीक अदः वस्त्र अलंकार ओर श्िरोबेष्टनते पुने । उपक्तरण `
। . सहित श्ञय्या भौर सुन्दरधर दे, यदि सामथ्यं न हो तो जसा बन सक्ते वेसा करः सोमेकी प्रतिमाका दान ॥
। - पतिके साथ करे । प्रतिमाके दानका मन्त्र--हे सावित्री ! जंसे आप चारसौ वर्षकौ आयुवाले सत्यवानको
प्राप्त हुई है, उसौ तरह आप सृञ्े भौ कर दे } जगतकी मां वाप तुम्ही सावित्री है, हे ह्मण मेदी दीह `
साविन्नीको ग्रहण कर । परतिग्रह्का मन्तर--सु्ोभने ! आने सावित्री दी ओर मेने सावित्री ठे छो जबतक `
ये चाँद सुरज हं तबतक पतिके साथ सुखी हो । इसके पीछे गुरुपत्नी तथा गुरुक क्षमापन करना चहिये
कि, जो इस त्रतमे मुक्षसे कोई वरुटि होगई हो वह आपके पूननघे पुरी होजाय । वर्सेवन मन््र--धर्मराज, ` ५
` यम, घाताभनील, कालान्तक, अव्यय, वैवस्वत, वित्रु्त, दध्न, मृत्य, क्षय, वर इन बारह नामोत प्रतिमासं ५
` एक एकसे वट सचना चाहिये, मं न्यग्ोधरपर रहता हं । इस कारण उते प्रयत्नसे सीचे, न्यमरोषके समीप `
५ अथवा घरपर स्थण्डिलमे सावित्नीके मन्त्रते घृत होम करे । है भामिनि ! धृतके साथभवितपूवक पायसं
(७८८) ८: परतयालज ४ [ पूरणिमा-
मया सु्लीतलं तोयं गृहाण पुरुषोत्तम \\ यत्पुरुषेणेति स्नानम् ।।! वस्त्रयुग्मं समा- `
नीतं पटुसुत्रेण निमितम् ।! सुवणंखचितं दिव्यं गृहाण त्वं सुरेहवर ।। तंयज्ञमिति
वस्त्रम् \\ कार्पासितन्तुभि्युक्तं ब्रह्मणा निमितं पुरा ।। अनेकरत्नखचितस्पनीतं ८.
गहाण भोः । तस्माद्ज्ञादिति यज्ञोपवीतम् ।। चन्दनं मल्योद्भूतं कस्तू्येगुर `
भ ६
संयुतम् ।
^ ५
कर्परेण च संयुक्तं स्वीकूरष्वानुरेपनम् ।! तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतमिति- `
गन्धम् । शतपत्रेहच कलह्वारेदचम्पकंमल्लिकादिभिः ।। तुलस्या युक्तपुष्पेश््च `
` ह्यचंये पुरुषोत्तम ।। तस्मादहवेति पुष्पम् ।\ दश्ाङ्धः गुग्गुलोद्भूतं सुगन्धि च
मनोहरम् ।। कृष्णागुरुसमायुक्तं धूपं देव गृहाण मे ।\ यत्पुरुषं व्यदधुरिति धूपम् ।॥\ `
साज्यं च वतिसंयुक्तं बह्धिना योजितं मया ।। दीपं गृहाण देवेश त्रेलोक्यतिमिरा- `
पह \। ब्राह्मणोरे
गर्भेति दक्षिणाम् \ यानि कानि च० नाभ्या आसीदिति प्रदक्षिणा । नमोऽस्त्वन रौ 1
॥ मेति दीपम् \\ अन्नं चतुविधम्° चन्द्रमा मनसेति नवेचेम् ।। आचम- `
नीयं करोटतेनम् ।। इदं फलमिति फलम् ।। पुगोफलमिति ताम्बूलम् ।! हिरण्य `
चतुव फल फलप्रदम् ।। सर्वरोगप्रशमनं विष्णुसारूप्यमुक्ततिदम् ।। १ ।\ नारीणामथवा `
पृं भुक्तिमुक्ति फलप्रदम् । ब्रूहि चेदस्ति देवषं कृपां कृत्वा ममोपरि । २।॥
त व्रतमुत्तमम् ।\ ३ ।। कर्तुः सिद्धिकरं दिव्यं विख्यातं भुवनत्रये ।। सनत्कुमार
च । भगवन्भूतभव्येश सवेशास्त्रवि्ञारद ।। ४ ।\ तद्व्रतं ब्रूहि मे 3 ५ ब्रह्मन्कथ
[ ` भतत 4 व | 1९१५८ कसति
| | पूरिकादिभिः ।। ११ ।) पञ्चमे परमाच्नस्तु तुस सम्यग्वे पूजयेद्व्रती ।\ अत्रेवोदाहर-
| न्तीममितिहासं पुरातनम् ।\१२। ऋषीणां पृच्छमानानां सूतेनोकतं (म |
| ऋषय उचुः ।। केन चादौ पुरा चीणं मत्यं केन प्रकाशितम् ।॥ १३ ॥ कथामदयापते `
। तस्य कि फलं सुत कथ्यताम् ।। सूत उवाच ।'पुरा शक्रोऽमरावत्यां देवदानवक््िरेः `
| ॥ १४! सुद्ररादित्ययक्षाद्यगन्धरवववेसुभिः सह ।। रम्भा नृत्यं समारेभे कीडालोभेन
। विह्लला ।\ १५ ।। एवं नृत्ये क्रियमाणे चरुटितं वा्मण्डलम् ॥। क्षणमात्रं विचार्याथ
| धमेराजस्तमुक्तवान् ।\ १६ ।\ यम उवाच ।। जन्ममध्ये व्रतं येश्च न कृतं प्राणि- `
| भिः क्वचित् ।! तच्चमस्नायुभिः शक्र कर्तव्यं छादनं ढके । १७ ।। नारदेन श्रुतं `
। तच्च जगाद यदुनन्दनम् ।\ स्वचेयित्वा तु तं कृष्णो वचनं चेदमब्रवीत् ।॥। १८।॥ ` 1.
| कष्ण उवाच ।! सर्वेलोकन्ञ देवष भुवनेषु चरन् सदा ।! आचर्य वद देवष यद्यस्ति ^
. श्ुभदायकम् ।। १९ ।। नारद उवाच ॥। शरुतं मयाऽमरावत्यामाचयं मंसि तदि ॥
तत्र सवं समायाताः सुरा इन्द्राश्चतु्दंश ॥। २० ॥ रद्रा एकादा तथा आदित्या
दादल्ापि च । वसवोऽष्टौ तथा नागा यक्षराक्षसपच्नगाः ।! २१९ ॥ रम्भयाच
समारब्धे नत्यं शक्रस्य पयतः \। बरटितं चमं वाद्यानामन्वंस्तस्य साधनम् ।
२२ ॥ यमः प्राह तथा दतान्सुभद्रा हयत्रतास्ति भोः ॥ तामानयध्वं तच्चमं
छ कैः
वाद्ययोग्यं सदास्त्विति \। २३ \\ तच्छ्रुत्वा तु मया भीत्या सवं त्वयि निवेदितम् ।।
सुत उवाच ।! इति नारदवाक्यं तु शरुत्वा कृष्णस्त्वरान्वितः ।! २४ ।। सुभद्राया
ए 1 ब्रतराज् ` -.: `“: [ पृणिमा- `
चक्रिरे रतम् \\ सनत्कुमार उवाच ।\ भो भो नारद देवष सवशास्त्र'वि्ारद)।
३४ \। ज्ञीघ्रं बरष्टि सले पद्यव्रतस्थोद्यापने विधिम् ।! नारद उवाच (घुण
[1
` तु पञ्चमं वषं व्रतस्योद्यापनं
भवेत् । ३५ ।। श्रीकृष्णप्रतिमा कार्या सुवणस्य `
पलेन वै ।। पुल्पमण्डपिका कार्या चतुर्ढारसुश्ोभना ।! ३६ ।। तन्मध्ये पुजये-ूक्त्या `
रमया सहितं हरिम् ।। त्र्यास्तरहात्ततो विप्रान् वृत्वा होमं समाचरेत् \\ ३७ ॥!
| अतो देवेतिभन्त्रेम जुहू
॥ ३८ \\ ब्राह्मणांइच सपत्नीकान् भोजयेत्पुनयेत्तथा \\ एवं यः कुरुते विप्र तस्य
ुहया्तिलयध्यसम् ।\ रक्तवस्त्रयुतां घेनुमाचार्याय निवेदयेत्
` श्रीरचला भवेत् ।\ ३९ \\ यं यं चिन्तयते कामं तं तं प्राप्नोत्यसंश्शयम् ।\ अन्ते `
विष्णुपदं गच्छेत्सवेपापविर्वाजतः ।} ४० ।। इति भविष्योत्तरपुराणें गोपद्यव्रत-
कथोद्यापनं सम्पुणंम्
५ गोदयव्रत--आषादर्पणिमाके दिन होता है ! पूजा-तपाये हए सोने कौस चमकवाले, शंक चक्र गदा = `
. पद्म लिये हुए महाकाय, चतुर्भुज, गरूडके ऊपर विराजान, देव, यक्ष, गन्धव, किन्नर, मुनिगण इनसे सुशोभित -
इए भगवान् का ध्यान करके यजन करना चाहिये, इससे ध्यान, भक्तोके अभय देनेवाले
५ हं जो कि, चिकने कोमल बालोवाल ह, इससे “सहस्रशीर्षा इससे आवाहन; शयुवणंमणिभि र इर्ते व धर ए
एवेदं” इससे आसनः; 'पादोद्क' इसते “एतावानस्य” इससे पादय; आठ दरव्योके साय सोनेके पात्रमे जच्छ `
देव! हे जगन्नाथ ! हे प्रतिक्लाके परिपालन करनेवाले ! ह गोपदोसे रक्षा करनेवाले !
` पानी रला हज है, हे भक्तोके अभय करनेवाले हे जगत्पते ! अष्यं ग्रहण कचिये तेरे किए नमस्कार है इससे 1 |
तस्मादर्या” इससे पुष्य; “द्ाङ्धम्' इससे “यत्पुरुषं " इससे दप; 'साज्य च .बतिसंयुक्तम् `
इससे बरह्मणो हयणोऽस्य' इससे दीप; “भस चतुचिधम्' इससे “चन्द्रमा मनसः” इससे नैवेद्य ; आचमनीय; . ४ ५
करोतन; दं फलम्' इससे फल; शुगी फलम्" इससे ताम्बूल; “हिरण्यगर्भः इससे दक्षिणा; यानि `
। _ कानि' इससे “नाभ्या आसीत् प्रदक्षिणा; “ नमोस्त्वनन्ताय' इससे “सप्तास्यासन् इससे नमस्कार; है `
` रहण कर, इससे “यनेन यज्ञम्” इसे पुष्पांजलि; प्रतिववेके कहे हुए वायनेके मंत्रसे वायन, नः [कि :
परमाच कांसके पात्रके साथ दिया है, हे विप्र | आपकी कृषासे व्रतके फलको पाजाड) एवं 'मत्रहीनम् 1 ध ध
` अघ्यं प्रदक्षिणा ओर प्रणाम करना चाहिये, र र लक्ष्मोसमेत ध , जगतूके गुर वालङृष्णका उह केकर -11९।। = `
` भस्ध आदिक उपचारोसे शक्तिके अनुसार पूजे, इसके पीछे ब्राह्मणोंको पुजे, कमलोको संख्यके बराबर
अन्नका रन करे ।।१०।। पहि वषं बडे, दूसरे वषं पुज, तीसरे वषं शालिका पिसा अन्न, चौथे वरं पूरी ¢
11११॥ पांचवे वषं लीरसे पज । इसौ विषयमे एक पुराना इतिहास कहा करते हे ॥१२॥ सब ऋषिर्योने `
सतजीसे पुछा था वहां म॑ भौ बंठा था सुतजीने कहा मैने भी सुना ऋषि बोले कि, इसे किसने किया भत्यलोकमे `
किस तरह प्रकट हुजा है ? ।।१३।। इसका उद्यापन कंसे तथा क्या फल होता है ? सूत बोले कि-पहिे `
इन्द्र अपनी अमरावतीपुरीमे देव, खनव, किर ।\१४।। रद्र, आदित्य, यक्षादिक, सर्वै, किर, वमु
, इनके साथ विराजमान था, रंभाने नाचना आरम्भ किया, किन्तु कौडाके लोभसे विह्वल होगरई ।१५।॥} = `
भ श्षो इस प्रकार नाचनेपर बजा एट गया, थोडी देर श्लोचकर धर्मराज बोला ।१६।। जिसने उपने `
जन्ममं व्रत न क्रिया हो हे सक्र ¦ उसकी चामते ठोलकको मढना चाहिये ।१७॥ नारदजीने सुन ल्यिा, `
षट कृष्णसे कह दिया ङष्णजीने नारदजीकी पूजा करके कहा कि ।१८।। है देवं ! आप सब लोकीका =
` हाल जानते हः आपने तीनों लोकोमें भ्रमण करके जो आश्चयं देवा हो उते मृन्ञे बतादीनिए जो कि, शुभ `
- दायक हो ।\१९।। नारद बोले कि, मेने अमरावतीमं धमेसभामं आश्चयं सूना है वहां सब देवता अपे षे,
कहां चौदहों इन््रथे ।\२०।। ग्यारह रुदर, बारह आदित्य, आलो वसु, नाग, यक्ष, राक्षस, पत्नग, सब उपस्थितं
। थे \॥२१। रंभा नाच रही थौ उसके नाचते नाचते बाजे फट गये उस समय उसका साधन यह् कहा ॥२२।॥ `
| थम नोला कि, है दूतो ! घुभद्राने कोई व्रत नहीं किया है उसे लाओ उसकी चामसे वाजे मठे जायंगे ।२३॥
: इसी डरसे मेने आपके पास आकर संब कहदिया है । सुतजौ बोले कि, नारदजौके वचन सुनकर कृष्ण शोध्ही
॥२४।। सुभद्राके घर पहुंचे, सुभद्राने पुजा कौ, पीछे आप उससे बोरे कि, है भद्रे ! मुके यह् सन्देह दै कि,
आपने कोई ब्रत किया वा नहीं ।\२५।।-सुभद्रा बोली कि, हे ष्ण ! मेने सभौ त्रत विये हँ इसमें सन्देह
नहँ है, नहीं तो भे आपकी बहिन तथा अजुंनकौ स्त्री कभी नहीं होती ।।२६।। हे जगतके स्वामी ष्ण
न
1 ` पीठे यमदूत आशये ।\२९।। बोले कि, हि भद्रे ! आपके | चर्मसे अमरावतीके बाजोको र मेढानेके गमे व लिव लिय र; यमनं
` आज्ञा दी है अतएव उसे सेने हमं आये हं \\२०।। दूतोके ५. सुन चुभद्रा बोली कि, मेने व्रत करियादः
दुत उसके घरको सादर देखने लगे ।1३१।। किं, घरमे कमरलोका ठेर लगाहुभा है, बख्डावालो गऊ मौजूद
प 141. [पूणवा
कि ध म 4 ¢ प द ध छ 1 9 ॥ ५ +
भ [ त 1 नि ००।०।।।०।।०।।ििििििििििििििििििििििििििि
व्लिस्य ममेहजन्मजन्मन्तरयस्य सवेपायक्षयार्थं पुत्रपोत्रलक्ष्मीवृद्धये सौभाग्य बु- `
दद्रा अवेधव्यसपत्नीनाक्ाय कोकिलारूपगौरी प्रीत्यथं कोकिलाव्रतं करिष्ये ॥
इति संकल्प्य ।। आषाढपौर्णमास्यां तु संध्याकाले ह्य. पस्थिते ।। संकल्पयेन्मासमेकं `
श्रावणे प्रत्यहं ह्यहम् ।! स्नानं करिष्ये नियमाद्ब्रह्यचयं स्थिता सती! `
भोक्ष्यामि नक्तं भृश्य्यां करिष्ये प्राणिनां दयाम् ।\ इत्युक्त्वा-स्नानं करोमि `
. १५.
` देवेशि कोकिल
प्राप्तये तव ।। जलेऽस्मिन्पावने पुण्ये सवेदेवजलादये ।। इति
मन्त्रेण ।। तिलामल्कल्केन सर्वैषधिजलेन च ॥ वचापिष्टेन वा चाष्टावष्टौ `
दिनानि प्रत्येकं तिलामलकपिष्टेन सर्वोषधि युक्तेन च षटदिनान्येवं रमेण मासा-
५ वधि स्नायात् ।\ एवं प्रतिदिनं स्नात्वा रवि ध्यात्वा ।। आदित्य भास्कर रवे अकं (
सूयं दिवाकर ॥ प्रभाकर नमस्तुभ्यं गृहाणार्ध्यं नमोऽस्तु ते ।! इति मन्त्रेण तस्मा `
अघ्यं ददात् ।। ततः स्वपक्षं रौष्यपादां मोक्तिकनेत्रां प्रवालमुखीं रत्नपुष्ठां `
चूतचस्पकवृक्षस्थां पक्िरूपिणीं कोकिलां री
रक्तनेत्रं प्रवालमुखपङकजाम् ।! कस्तूरीव्णसंयुक्तामुत्पच्चां नन्दने वने \\ चूत- `
कृत्वा पूजयेत् ।। तद्यथा-स्वणपन्नां ध
हाणेदं मया दत्तं कोकिले भ्रिय्वधिनि 1! आसनम् ।! तिलस्नेहे तिलमुखे तिल- `
ख्ये तिलगप्रिये ।! सौभाग्यं धनपुत्रार्च देहि मे कोकिले नमः ।। तिलपुष्पफलयुक्तं `
पाद्यं मे प्रतिगृह्यताम् ।! पाद्यम् ।\ रत्नचस्पकपुष्पशच पीतचन्दनसयुतम् ।॥ `
५ ५ ब स्थितं तोयं गृहाणाघ्यं नमोऽस्तु ते ।। अर्घ्यम् ।। निमेलं सलिल गाद्धं
किले पक्षिरूपिणि ।। वासितं च सुगन्धेन गृहाणाचमनीयकम् । आचमनीयम् ६ स ॥ 11 ॥ |
कतात् 4. ~ 1१९८।११।६९ ।हत = (५९२)}.:
{1 कम् ।। हरिद्रां कुकुमं चैव सिन्दूरं कज्जलान्वितम् ।॥ `
` सौभाग्यद्रव्यसंयुक्तं गृहाण परमेइवरी ।। सौभाग्यद्रव्यम् 1! करवीरैरनातिकुसूसे० =
पुष्पाणि \} वनस्पतिरसो० धूपम् \। साज्यं चेति दीपम् ।। शकंराखण्डखाद्यानि `
।. दधिक्षीरघुतानि च ।! आहारार्थं मया दत्तं नैवेद्यं प्रतिगृह्यताम् ॥ नैवेचम् ।॥ `
। पाटलोक्ञीरकपूरसुरभि स्वादु शीतलम् । तोयमेतत्सुखस्पशं कोकिले प्रतिगृह्यताम् `
| ॥ आचमनीयम् ।\! चन्दनागुरुकर्पूरकस्तूरीकेशराम्वितम् ।। करोद्वर्तनकं देवि
| गृह्यतां हरवल्लभे ।\ करो्र्तनम् ।! कूष्माण्डं नारिकेरं च पनसं कदलीफलम् ।।
। जम्बीरं मातुलिद्धं च फलं गृह्ण नमोऽस्तु ते ।॥। पुगीफलमिति ताबूलम् ॥ हिरण्य- `
। गर्मेति दक्षिणाम् ।। कोकिले कृष्णवर्णे त्वं सदा वससि कानने । भवानि हरकान्तासि `
कोकिलाये नमो नमः ।। नीराजनम् ।। पूजिता परया भक्त्या कोकिला गिरिकश-
| भरिया ।! पूष्वर्नानाविधेः श्रष्ठेवरदास्तु सदा मम ।! पुष्पाञ्जलिम् । यानि कानि
। च० प्रदक्षिणाम् ।\ नमो देव्यै° नमस्कारम् ।! कोकिलारूपधारिण्यै जगन्मत्रे `
` नमोऽस्तु ते \\ शरणागतदीनांश्च त्राहि देवि सदाम्बि के ।। गन्धपुष्पाक्षतेयुक्तं
। अरसीद हरवल्लमे \ अलक्तकम् ।। ह
2
देवे क,
तोयं हेमफलान्वितम् \\ अर्घ्यं गृहाण देवेशि वाञ्छिताथं
सिते पक्षे मेघवणं हरिप्रिये ।। कोकिले कोकिः केतव
कोकिलां रः रं कृत्वा विप्राय दद्यात् \। देवि च॑त्ररथोत्पन्न तय अचित
पुजितासि त्वं कोकिले हरवल्लभे ।। कोकिले कलकण्ठासि माधवे मधुरस्वर
वसन्ते देवि गच्छ त्वं देवानां नन्दने वने ।। इति विसजंनम् ।। इति कोकरिलापू
८ ६ ५ : -. . ततय ० [ पणिमा-~ 4
विनि = तायत
~~~~-----~--------------------
॥
इति ।! ईवरेण विना सम्यग् दष्ट्वा सर्वान्सिमागतान् ।। ९ ।! शिखां संस्प्य `
पाणिभ्यां ननतं कलहुभ्रियः. ।! ज्ञात्वा कलहमूलं च तत केलासमाययो ।\ १० ॥ _
सर्वाघनाशन स्थान कलासरशिखरे स्थितम् ।। तत्र दृष्ट्वा समासीनं गोरीसहित- `
` शङ्करम् ।। ११ \! कृताञ्जलिपुटो भूत्वा प्रणिपत्य मुनिः स्थितः ।\ ईइवरस्त- `
म्वाचाथ निःश्वसन्तमनेकधा ।। १२ ।\ किमागसनङ्त्यं ते मदीयसदनं प्रति ।॥
इवासोच्छवासेन संयुक्तस्तन्मे ब्रूहि द्विजोत्तम । १२ ॥\ ईहवरस्य वचः श्रुत्व
क्षिखां संस्पृश्य पाणिना \। दुःखयुक्त इवोवाच नारदः कलहप्रियः \ १४ | |
नारद उवाच ।। यश्चिमित्तं महादेव मत्यलोकात्समागतः ।। त्वदन्तिकं दुःखयुक्त- = ।
स्तच्छृणुष्व जगत्पते ।\ १५ ।। दक्चयज्ञमहं द्रष्ट्मदयदेवात्समागतः ।। तत्र यज्ञे
स्थिताः सवे दक्ष जामातरः प्रभो ।। १६ ।। दृष्ट्वा तांश्च न तन्मध्ये दृष्टस्त्रि- |
द 4 भुवनदवरः ।। तवावज्ञा कृता तेन दक्तणापुष्यकमणा ।। १७ ।। तेन निः्वास- छ
संयुक्त जागतोऽस्मि तवान्तिकम् ।\ ईरवरेण विना किच्चिद्र्मकायं न सिद्धचति `
॥ १८ \! अतोऽस्य विफलः स्वैः प्रयासः स्वमखं भ्रति ।। तस्य तद्भाषितं भुतव `
न स्मि ईहवरो जगदीह्वरः ।॥ `
` न तन्मिथ्येत्यचिन्तयत् 11 १९ ।। सक्रोधस्तु तदा जात ई
तष्ठन्तीं दवारि तां दक्षो न ददा महासतीम्।
जीवितव्यं
तिष्ठन्तौ यदा दक्षो न प्यति ।। २४।। तदेवं चिन्तितं गौर्या
देवास्तदधाय विनिययुः ।। ३३ ।! क्षणात्परानितास्तेन विद्रता्च दिको दक ।॥ `
अनुद्रुत तान्सोऽपि पुष्यो दन्तानयातयत् ।। ३४ ।। भगस्य नेत्रे नासां च सर-
| स्वत्या न्यु कन्तयत् ।। एवं विद्राव्य तान्सर्वाञ्छिरो दक्षस्य चिच्छिदे! ३५।\ `
त्वेवं यज्ञघातं स आजगाम श्िवान्तिकम् ।। नमस्कृत्य पुरस्तस्थौ कृतं कायमिति `
ब्रुवन् ।। ३६।। तथाष्यज्ञान्तः कोयोऽस्य ज्ञात्वेति ज्ञानचक्षुषा ।। प्रसादयितुमी- `
क्ानं ब्रह्मविष्ण् समीयतु नमस्करतस्वतस्ताम्यां प्रस
बभाषे तं प्रणिपत्य सदारिवम् ।\ ४६ । कथं यास्यामि तियक्त्वं भूतले च `
स्थितिः कथम् ।! अन्यथा नैव भविता शाप एष त्वयोदितः ।। ४७ ॥ कोकिला | 1
मधुरालापा भवेयं नन्दने वने ।। कोकिलानां स्वरो रूपं स्त्रीणां रूपं पतिष्रतम्
॥ ४८ ॥ विद्यारूपं कुरूपाणां क्षमारूपं तपस्विनाम् ।। अचिरादेव च पुनः
(७९५)
1 सन्नोऽभूत्सदाशिवः।॥ `
` नारदस्तुम्बुरुढचव गीतं: शिवमतोषयत् ।\ ३८ ।! प्रसन्नं वीक्ष्य तं विप्रः शिखां
संस्पुश्य पाणिनः ।। ननतं नारदस्तत्र तोषयन्नधिकं शिवम् । ३९ ।। एतस्मिन्नन्तरे
ब्रह्मा विष्णुश्च प्रमथाधिषम् ।\ व्यजिन्नपत्तं दक्षादीन् कृपादृष्ट्या विलोक्य | `
॥ ४० ॥ कृत्ताङ्खान्कुर पूर्णाद्धान्मृतान्सञ्जीवयं प्रभो ।। विलोकितस्ते देवेन
कृपादृष्ट्या च वं तदा ।\! ४१ ।। पुषादयश्व साद्धा वे अभूवंस्तत्प्रसादतः ।॥ `
उत्थितः पादयोरमूलं ययौ दक्षः पिनाकिना ।। ४२ ।। अपराधं क्षमस्वेति शि +
त्वत्पमसादात्कर
५ 4 4 [- पूणम
विधवा भवेत् ।\ ५७ । कूर त्वमेतत्कल्याणि की्तिमाले व्रतोत्तमम् ।। कोतिमा- ।
त्मेवाच ।! कथमाराध्यते देवी कोकिलारूपधारिणी ।। ५८ ॥। विधानं ब्रूहि तषि `
म्यहम् ।। वसिष्ठ उवाच ।! कोकिलाव्रतमाहात्स्यं विधानं च
वदामि ते ।\ ५९ ।। श्यणु देवि प्रयत्नेन मंत्रः पोराणिकेयुतम् \! मलमासे त्वति- `
५१९
कान्तं
„थ
वि
ते गुद्धाषाढे समागते \\६०।। आषाढचां पौणमास्यां तु संध्याकाले हृयुपस्थिते\। `
येन्मासमेक शावणप्रभृति ह्यहम्।\६१।।स्नानं करिष्ये नित्यच ब्रह्मचयं स्थिता `
` सती \\ मोक्ष्ये नक्तं च भशय्यं करिष्ये प्राणिनां दयाम् ।1 ६२ 1! सौभाग्यधन- `
धान्यादिप्राप्तये शिवतुष्टये ।। इति संकल्प्य विप्राग्रे नारी विप्रेभ्य एव च ।॥
॥ ६३ \ प्राप्यानुसां तु संपाद्य सामग्रीं सकलामपि ।, प्रत्य॒षे च प्रतिदिनं दन्त- `
धावनपुवेकम् ।। ६४ ।\ नद्यां गत्वाथवा वाप्यां तडागं गिरिनिञ्नरे । स्नानं करोमि
देवेशि कोकिले प्रीतये तव ।। ६५ ।! जलेऽस्मिन् पावने पुण्ये सवैदेवकुलाश्रये ।॥ `
कृत्वा त्रतौ देवि सुगन्धामल्कंस्तिलः ।। ६६ ।। दिनाष्टकं ततः प्चान्स-
॥ ५ नानं ष
` स्तात्वा ध्वात्वा रवि तस्मै दद्यादध्यं प्रयत्नतः । ६८ ।\ आदित्य भास्कर रवे `
अकं सूयं दिवाकर ।। प्रभाकर नमस्तुभ्यं गृहाणाध्यं नमोऽस्तु ते ।! ६९ ।। सूरयाष्यं
मस्त ।\ कारयेत्कोकिलां देवीं सोवर्णी सवंकामदाम् ।। रौप्यं चरणयोहचैव नेत्र- `
` उपवासस्तु तदिन ।\ ८१ ।। कोकिल कृष्णवणे त्वं सदा वासो वनेष ते । सौभाग्य- `
मतुलं देहि गृहाणार्ध्यं नमोऽस्तु ते ।॥ ८२ ।। वसन्ते च समुत्पत्रे विन्ध्यपव॑तवा `
सिनि ।\ गच्छगच्छ महादुगे स्वस्थाने नन्दने बने ।। ८३ ।। विसजेनमन्त्रः । रूपं
` देहि धनं देहि सवेसौख्यं च देहि मे ।। पुत्रान् देहि यज्ञो देहि सौभाग्यं देहि संपदः
| ॥ ८४ ।। इत्युक्त्वा च ततः पठचाद्रविष्यान्नेन सुव्रती ।! नक्तभोजी भवेद्राक्ञि `
यावन्मासः समाप्यते ।। ८५ ।। मासान्ते ताञ्रपात्रे तु कोकिलां स्व्णनिमिताम् ।॥ `
। वस्त्रधान्यगुडेयुक्तां श्रावण्यां वे सकुण्डलाम् ।\ ८६ ।! वद्यात्सदक्षिणां चापि दैव्ने `
| वा पुरोहिते ।\ एवमाषाढमासस्य दविध्ये समुपस्थिते । ८७ ॥ सधवा विधवा `
| वापिया नारी कोकिलात्रतम् 1) करोति सप्तजन्मानि सौभाग्यं लमतेतुसा॥८८॥
| 1. मृता गौरीपुरं याति विमानेनाकंतेजसा ॥। श्रीभगवानुवाच ।! एतद्व्रतं वसिष्ठेन `
( त मुनिना कथितं पुरा ।। ८९।\ तथा कृतं तु तत्पाथं समस्तं कौतिमाल्या ।। =
न
तं पुराप्सरोभिङ्च ऋषिपत्नीभिरादरात् ।। अहल्यया च सा पूर्ंमचिता बाप- `
मुक्तये ।\ ९३ ।\ अरन्धत्यापि सा स्नात्वा पुनिता कोकिला नृप ।। सीतया पूजिता
|;
+
म त सापि सवेकामाथसिद्धये ।। ९४ ।। गौतस्यां दण्डकारण्ये स्नानं कृत्वा यथाविधि ।\
ट (७९८ ) | 4 ^ र श । | ध [ पणिमा- `
मेकभक्तं दन्तधावनपूर्वकम् ।। उयवाक्षस्य नियमं कृत्वः व्रतपराथणा \। तृतीया 1
२ प पथ
पुण्यफलदा मध्याह्लं समुपोषिता ।। उपकतिप्य इुचौ देशे मण्डलं तत्र कारयेत् ॥। `
अष्टदलं लिखेत्पद्यं चतुष्कोणं च भद्रकम् । कलां वारिपूर्णं च पञ्च `
॥ रत्नस
प्रस्थेनकेन पूरयेत् ।। तदभावे तद्धन कुडढेनाथ नारद ।। ऊर्णपिटुयुगं कृष्णवर्णं
न्वितस ।। तस्योपरि न्यसेत्ाच्रं शर्षदन्धकविहाति ।। प्रत्येक सप्तधान्यानां `
दद्याच्च शव्तितः ।। तस्योपरि न्यसेहेवीं कोकिलाप्रतिमां तथा ।\ अच्र गन्धप्रदानं
च धूपदीपप्रदानकम् ।। नेवेद्यं मोदकान्दद्यात्पक्वाचं घतसंयुतम् ।! अर्घ्यं चैव `
प्रदातव्यं ताम्बलं फलमुत्तमम् \। रात्रौ जागरणं कायं वायनृत्यप्रभूतकम् \। पूजयि-
` त्वेकचित्तेन फलं प्राप्नोति चाक्षयम् ।। प्रभाते विमले तीथं स्नानं कृत्वा विधानतः।। `
परुजयेद्विधिवदेवीं होमं कुर्यात्तथा द्विज ।\ तिलचस्पकपुष्पेहच तण्डुलघुतपायसेः ।। `
अष्टोत्तरशतं हुत्वा दुर्गामन्त्रश्च वादकः ।। कोकिलाप्रीतयेब्ह्यन्व्याहतीनां
शतत्रयम् >८ \, ब्राह्यणान्भोजयेत्पहचात्तपत्नीकांरच पञ्च च ।। अशक्तो ह्येकयुग्मं
च भोजयेच्च तथा ग्रम् । चजिस्त्रीभ्यह्च प्रदातव्यं चारिका पञ्चक तथा ।॥
गां कृष्णां च सवत्सकाम् \\ उपानहौ तथा शय्यां चामरं छत्रमेव च ।। मुद्रीकां
मोदकांङ्च ससुत्रांस्व वंशापाजसमन्वितान् ।। कृष्णवस्त्रसमायुक्तान्पक्वान्नेन प्रपू-
रितान् ।। सर्वोपस्करसंय॒क्तांस्त्रिस्त्रीस्यक्च प्रदापयेत् ।। आचाय पूजयेद्भक्त्या
च चन्दनं कुसुमानि च ।\ सवं दयाददिजेन्राय सपत्नीकाय नारद! दापये- `
द्िधिवत्सरव ब्राह्मणाय कुटुम्बिने ।। व्रतोपदिष्टदानं च भोजनं च सदक्षिणम् ।॥ `
ततो भुञ्जीत नेवेदयं पुत्रपौत्रैः सभन्विता ।। देवि चैत्ररथोत्यत्रे विन्ध्यपवेतवारि पः तव बा
शति 1. हिनदीटीकासहित = ` (दो `
1
` पालीसे बचके पिष्टसे. भाठ आठ दिनमे प्तयेकसे तित ओर आमलेके भीगे चू्णसे जिसमेकी सव ओषधि =.
६. ध पडोहुई हो उससे ६ दिन, इस प्रकार एकं मास्तक स्नान करे, इय प्रकार प्रतिदिनं स्नान करके सूय्येका ध्यानं ध ॥ | ष
करे, है आदित्य ! है भास्कर ! हे रवे है अकं ! हे दिवाकर ! है प्रभाकर { आपके ल्य नमस्कार हैः ए
् ईस मंतरसे प्रतिदिन अष्यं देना चाहिये \ इसके बाद सोनेके पख, चांदीके पैर मोतीके नेत्र, प्रवालका मख नौर ` `
र्त्नोको पौठवाली आम या चंपकपर बैठी हई, पृष्टस्वरवालो कोकिलारूपधारिणो पार्वतीका ध्यान करे. `
त र इससे ध्यान; है कोकिले देवि ! आजा वांछित फल दे आप नन्दनवनके चंपक द्रमपर वही हुई खेलती 1 ।
है, इससे आवाहन, है निष्पाप ! आपका आसन क्षौम वस्तरसे बना हुमा है । हे भियवधिनी कोकिले ! मेरे दिये `
| ८ । ` हए आसनको ग्रहुणकर, इससे आसनः; हे तिलस्नेहे है तिलमृखे । हे तिरसौस्ये 1 है तिलभ्रिये ! सोभाग्य | | ५.
ओर धन ओर पुत्रको दे तेरे लिये नमस्कार है, हे प्रियवधिनि कोकिठे ! तेरे लिये नमस्कार है, तिल्ष्प = `
(1 भिला हा पाद्य ग्रहण कर, इससे पाद्; रत्न ओर चंपकके फलो ओर पीले चन्दन मिला हभ पानी सोने
. । पात्रमं रखा है आप ग्रहण कर, इससे अच्यं है पक्षिरूपिणी कोकिले ! उत्तम सुगन्धिसे सुगन्धित गंगाका
निमेल पानी रखा हुञा है, इस आचमनौयको ग्रहण करिये, इससे आचमनीय; है कोके ! पय, दधि, ` 1
| मधु, शकरा ओर घत ये पाचों अनत स्नानके लिये रखे हए हं, आप स्वीकार करं, इससे पंचामत स्नान; ` 4 0
। भन्दाकिनीजलम्' इससे स्नान; भुकं तन्तुमयम्' इससे वत्र; "कंचुकं च' इससे कंचुक; हरिद्रा रजतम्" =
| इससे कंठसूत्र; "यानि रत्नानि' इससे भूषणः श्रीखण्डम्' इससे चन्दन; भक्षतार्च' इससे अक्षतः कुंकुमालक्त- =`
। | कम् इससे अलक्तकः; हरिद्रा कुंकुमम्' इससे सौभाग्य द्रव्यं; करवीरः इसने पुष्य; वनस्पतिरसो `
। इससे धूप; (साज्यं च' इससे दीप; शकराखण्ड' इससे नैवे; “पाटलोशील' इससे आचमनीय; "चन्दना `
गुर" इससे करोदरतेन; कुष्माण्डम्' इससे फल; रुगोफलम्' इसमे तास्बूल; "हिरण्यगभ' इसते वक्षिणा;
` है कालेरंगकौ कोयरू ! आप सदा वनम वसती हे । आय शिवकी प्यारी पतनी भवानी हे । एसी तुक्च कोकिलाके
लये नमस्कार है, इससे नीराजन; मेने शिवकी प्यारी कोकिल्छाका पुजन भक्तिपुवंक अनेक तरहक शरेष्ठ
4 एसे किया है, बहू कोकिलया नुक्षे वरदान देनेवाखी होजाय, इससे पुष्पांजलि यानि कानि! इसे प्रदक्षिगा; ५
। नमो देव्यै इससे नमस्कार 'कोकिलारूपधारिण्ये' इससे, ‹ गंघ पुष्पाक्षते्यकक्तम्' इसमे, आषाढस्य सिते =“
पक्षे इन मंत्नोसे फिर अघ्यं, तिल स्नेहै" ससे, सूयं देहि' इससे प्राथना समषघेण करना चाहिये । ब्रतके ८ |
अन्तमं सोने अथवा तिलके चू नकौ कोयल बनके ब्राह्मणक लिये दान करे । हे चिव्ररथमें उत्यन्न होनेवाली `
है विन्ध्यपवेतपर बसनेवाखी है हरकी प्यारो कोयल ! तेरा अर्चन पुजन यथेष्ट किया गया है । है मीठे
री है । उसमें श्ात्रुध्ननामक रधुवंडी राजा था ॥।२।, 1 तमाल
पो जतय 1 पणा
प आया हूं । उसे सुनिये ।।१५।। भै देवात् दक्षका यज्ञ देखने चा गया उस यन्मे दक्षके सज जमाई बेठे
।१६।} पर बहुं आप मृते देखनेको न मिक उसपापीने यह् आपका अनादर किया है \\१७।। उसीको `
। आहू खता हुञा आपके पास आया हूं क्योकि, चिना ईङवरके कोई भी ध्मकायं पुरा नहीं होता ।\१८॥।
क्रा यज्ञश्रम व्य्थही है । नारदके वचन चुन खद्रने विचारा किं, इसका कथन मिथ्या नही है ।१९।। उस
पय जगदीहवर ईदवरको कोधं हेमा नारदके वचन सुन गौरीने पाथना की कि, ।२०।। हे देव ! उसके
तको विष्वं करमेके चिए मे जायेगी यद्यपि शिवजीने मते की पर कोधसे चलदीं ।\२१।। किं, ह जगदीड ! `
पको नमस्कार ह नारदजीके साथ गणपतिको संग लेकर पिताके घर जाती हूं \\२२\। यज्ञके लिए पावती |
भके द्वारे आई पर अग्निम वसोर्धारा देखकर रञ्जित हगई ।१२३।। रपर खडी दक्षकी दृष्टिं न आई _
हासतौ पार्वेतीको खड कुछ समय बीत गया पर दक्षन न देखा \\२४।\ तो विचारा कि, मेरी जिन्दगी व्यथं
क्टपट कुंडके पास भगी एवं घोर शाप देकर अग्निम गिरगई; गणेशषनें यह देखा पाह ओर परलु संभाला
२५।। अत्यन्त क्रोधित होकर कृ तो पाश्से बांध लिए कुछ एक देदगण परसासे काटडाले ॥1२६-२७।\!
ल्फे कहुनेपर सब देवता युके किए चरे, गणपति ओर देवताञोमें घोर युद्ध होने च्गा ।\२८।) यहु
ब नारदने कैलास आ श्िवजीसे सब हाल कह दिया ।\२९॥। क्षिवजीने क्रोघसे जराएं फटकारी जिससे
ल लाल नेर्नोका बडा विकट एक पुरुष उत्यन्न होगया ।\१३०। वह॒ हाथ जोडकर शिवजीसे बोलाक्ि, `
स्वामिन् ! आज्ञा दीजिए उसका नामं वीरभद्र रखकर आन्ञा दी कि ।३१।। हे वीर ! दक्षकी यज्ञका =
ध्वंस करनेकेलिष
ए शीप्रही चला जा 1 वीरभद्र दिवजीकी आज्ञा पा सब प्रमथोको साय लेकर ।३२।॥
भूमि आया । ऋत्विजोको अग्निम पटकं दिया जब इन्द्रादिकं देव उसे मारनेके लिए अये ।देरे५तो
सनं क्षणमात्रम् सबकोजनीतलिया निससे वे चारों दिश्लाओंमे भाग गये । पुषा नहीं भागा । उक्ते दंत | | 0 ॥
॥\३४। भगके नेत्र एवं सरस्वतीकी नाक उडादी, इस प्रकार सबको भगाकर दक्षकाक्िर = `
३५।। वीरभद्र यज्ञ विध्वंस करके शिवजीके पास जाकर बोला किं? महाराज दक्षका यज्ञ, `
ध्वंसं करके आगया हं ।॥३६।। पिर भी जब शिवजीका क्रोध शंत न हा तो उन्हं प्रसन्न करनेके चयि =
ह्याविष्णु चरेआये।) ३७1 ।उनके नमस्कार करनेपर प्रस होगये नारद ओर तुम्बुरने गीतोसे प्रसत्त क्रिया =
गे मरे हं उन्हं जिला दीजिए, जब उनको कृपादष्टिसे देखा तो ।*४१।। उनकी कृपासात्रसे ९ 4; ^
ष षाञ र आदिकं अच्छे होगये । दक्ष उठकर किवजौके चरणों गिरगयां ।\४२।। बोला कि, मेरे अवराध क्षमा 1 ध
यनि पाकर | ८
योनिम जाऊ, केसे भूतल्पर `
वालो कोयल बनुगी क्योकि
(अ वर्ता | । हिन्दौटीकासां ५ कि.
(1 . ब्रतका प्रचार हा । मोहके वस होकर जो स्त्र इसे नही करती बह विधवा होजाती है \\५७\। हे कल्याणि. `
` किमे पुरे सावनमास ।\६१।।स्नान करूगी ब्रह्मचारिणी रमो, नक्तमोजन सुक्षयन ओर प्राणि्ोपर दवा. ` ५
|. संकल्प करके ब्राह्मणोकी आज्ञा केकर सब सामग्मो इकट्ठी करके प्रति दिन दतिन करे ।\६३-६४
, ग्रहृण करिये ॥।६९।। यह सूर््यको अध्य नेनेका मंज
पाद्यः. है भुक्तिमुक्तिको देनेवाल कलकटठी ९४ शिवे शिवे ! तिल पुष्प ओर जन्नत मिला हुभा अध्य ब्रहुण्ः
कर, तेरे ल्व नमस्कार है \\७६।। इससे अध्य; हे मेघकरसे
ताम्बूल, जक्षत, प, दीप; ।\७८।१ इस भकार भावम
। | 1 ¦ | कौतिमाले तुभ भी इस व्रतको करो ? कौतिसालछा बोरी छि, कोकिलाश्पधधारिणी देवकी कषे आराधना | | . | | | | ।
होती है ?।।५८।।अाप उसका विधान कटहिये । आपकी कृयासे भे इस ब्रतको पुरा करगौ । यह् सुन वरिष्ठौ `
- बोरे कि,.कोकिलात्रतका माहात्म्य ओौर विधान में क्हुगा ।\५९।। हे देवि ! पौराणिकमस््ोके साथसुन, = `
मलसासके बीत जानेपर शुद्ध आषाढके आते ही ।\६०।। अषाढ पौर्णमासी सामके समय संकल्प करे
| ` करूगी \६२॥ इससे शिवजी प्रसन्न होकर म्स्ने सोभाग्य, धन ओर धान्य देणे । इस प्रकार ब्राह्मगोके जगे `
| पर्वेतकाक्षरना, तडाग, वापौ या नदीमें है देवेि कोकिरे ! तेरी प्रस्तके ल्मिस्नानक्रतौहुं ९५ छि
| स्नानविधि-पूर्वोक्त पवित्रपानीमे तिल ओर आमलोके भीगे चूनसे उबटना करके आठ दिनतक सर्वोष- = `
भिस, आठ दिन तक बचाके पिष्टसे छः दिन सब ओषधि भिक तिल ओर आमलेके भगे चूनसे उबटन करे = |
| स्नान करे) यदि यहं इच्छा हो कि, पुरा फल मिले \ रविकाध्यान करके उसको अध्ये देना चाहिये ॥१६६-६८॥
| है आदित्य! हे भास्कर! हे रवे! है अकं! है सूच्यं ! हे दिवाकर ! हे प्रभाकर ! तेरे ल्यि नमस्कार;ःअध्यैः `
। 1 है । सोनेकी कोयल हो जिसके चरण चोदके तत्र; | 1 | <
मोतियोके \\*७०। पुच्छमे पाच रत्न तथा आसके पेडपर बैठी हुई बनावे अथवा तिलकौ पिठीकौ बना.डे
। १७१५५ उसे तांबेके पात्रमें रखकर पूज ले ¦ अपने धने अनसार सोलहो उपचारोसे पूजे उन्हेभौ बतात =
हं ॥*७२।। कोकिलारूप घाररिणी देवौका आवाहन करती हूं । यहां आ; ह सुत्रते ! मु्लपरं कृपाकर ।\७३।।: = `
इससे आवाहन; आप आमपर बेटी नन्दन वनमें विचरती हे + हे कोकिले देवि ! आइये, मुपे बाज्छित दीजिये `
॥\७२४।। इससे आसनः हे तिर्यग्योनिमें हुई कल्की श्ञंकरकी प्यारी कोयल ! पाद्य ग्रहण कर ११७५। इसमे (9
॥ घकेसे रंगकी कोकिले देवि ! आषाढ शुक्लामे मै स्नानीय `
पानी दे रहा हूं" आच ग्रहण करं ।\७७।। इससे स्नानीय समपेण दरं । प्रतिदिन. एक कठसूत्र देः कूकुमः पुष्प `
वणीतक पुजा करे पछ शुभ सोनेकी कोकिलाका विसर्जन
0
स
कै दुंढनेके लिये दमयन्तोनेभी पुजा था । ९५१1 रक्मिगीने भौ स्नान करके शिवा कौकिलाका पूजन क्रिया |
। इस ब्रतके प्रभावसे उसे विष्णु पति मिलगये । इसं बातमं सन्देह नहीं है \\९६।। कुचेला, मलिना, दीना, `
रका काम करनेवाली, वन्ध्या, फाकवन्धालिवत्सा, मतवत्ता९७ये सव इस व्रतके प्रभावसे उत्तम फल पाजाती _
१, आरोग्य, एेदवय्ये, युख, वृद्धि, यज्ञ, प्रजा ।\९८।। हे नुप ! इस व्रतको तीन वार करे ।९९॥। तीसरेके
नमे वध उयापन करे, एकसे द्रव्य दसरेसे पुत्र तौसरेसे निहचयही सौभाग्य पाता है सौभाग्य, सुन्दर रूप
पब पदार्थं स्त्िथोको मिलजाता ह ।\१००।1 यह् वाराहुशणका कहा हुम कोकिलात्रत पुरा हुजा ॥\
॥पन-हे प्रभो ! उद्यायनकी विधि किये जिसके जानने मात्रसे सौभाग्य प्राप्त हौजाता है । ब्रतपरायण
गष करके पुणंमासके दिन उपवासका निरस करके मध्याल्लफे समय पवित्र जगहुमं लीयकर मण्डप बनावे ।
वा उसमें न करसके तो द्वितीयके दिन एकभक्त करके दन्तधावनयपुरवेक पुण्यफल देनी वाली त॒तीयाको
पब काम करे, विधिपुवेक अष्टदल कमल ओर चवुष्कोणभद्र लिखे, पांचो रत्न डालकर पानीका भेराक्डा
१ उसपर विधिपुर्वक पात्र रखे, इक्कीस सुप एक एक प्रस्थ सप्तघान्यसे भरकर रखे, अभावमे है नारद ! `
धा प्रस्थ वा कुंड कुड्प उनमें रखे, शक्तिके अनुसार ऊर्णाकि दो पटूवस्त्र काले रगक्ते दे, उसके ऊपर कोकिला ` `
की प्रतिमा विराजमान करे, गन्ध, धूप, दीप दे । मोदकोका नवेद घृतके पक्काच्चके साथ दे, उत्तमपानका
यं दे, रातमें बहुतसे गानों बजानोके साथ जागरण होना चाहिये, एकाग्रचित्तसे पजकर अक्षय फल पाता =
फिर निर्मल प्रभातमें स्नान करके देवीका विधिपूर्वकं पुजन करना चाहिये, हवन हौ, पांच सपत्नीक `
ह्यणोको भोजन करावे, यदि शक्ति नहो तौ दो को हो निमा दे, कृष्णवस्चर, मोदक, सूत्र जौर पक्के `
देकर भोजन करावे, दक्षिणा दे, पीठे जाप मी
देनेबाल्मी नि
सपत्नीकं आचाय्येको दे, उन्हें व्रलफा उयदिष्ट दान दें
साथ नवेद मोजन करे, फे विन्ध्यवासिनि !. हि चंत्ररथोत्पन्ने ! हे सज कामोको ३
५. ध
# एसी कोकिला बनावे) जो इस प्रकार इस उत्तम त्रत को करती
वेश पान्नोके साथ तीन स्त्रयोको पांच पांच घारिका देनी चाहिये ओर भी सब सामान हो, आचार्ययका क
केतपू्वेक पुजन करे । सवत्सा ष्णा गाय, जूती, शय्या, चामर, छत्र, मृद्रिका, दो कणवेष्टन, चन्दन कुसुम `
कालौ ! है
मेने आपकी विधिपुर्वक पुजा करदी है अब आप पधारे, (कारथेत् इनका अथं कर चुके `
करती हे वो पुत्र, धान्य, घन ओर स्वं सौभाग्य `
प्त करलेती है तया महामायाकौ छसे उसे महाफल भिरा है । यह शरोवराहपुरागका कहा हृभा कोकिला. =
ं त्वोत हेतो भविष्
(युधिष्ठिर `
रक्षाबन्धविधानं मे म किञ किल्न्चित्कथय केडाव \। दुष्टग्रेतपिशाचानां येना-
॥\ श्रीकृष्ण उवाच ।। श्युणु पाण्डवशा्द
| व्रतानि | वि हिन्दीटीकासहित 31 @
। सुमहान् भथेत् ।\ तयोः संवदतोरेवं शची प्राहु सुरेश्वरम् ।\ ८ ।। अद्य भृतदितं . `“
| देव प्रातः पवं भविष्यति ।। अहं रक्षां विधास्यामि येनाजेयो भविष्यसि ।!९।
। इत्युक्त्वा पौर्णमास्यां सा पौलोमी कृतमद्धल्ा ।। बबन्ध दक्षिणे पाणौ रक्नापोट- `
| कलिकां ततः ॥ १० ॥ बद्धरक्षस्ततः शक्तः कृतस्वतस्ययनो द्विजैः ॥ आरुह्यैरावतं
| नागं निजंगाम सुरारिहा \\! ११ । दुद्राव दानवानीकं क्षणात्काल इव प्रजाः ॥! ५ वि
। शक्रस्तु विजयीभूत्वा पुनरेव जगन्रये ।\ १२ ॥ एष प्रभावो रक्षायाः कथितस्ते
। युधिष्ठिर \) जयदः सुखदश्चेव पुत्रारोग्यधनप्रदः ।\ १३ ।। युधिष्ठिर उवाच ।! ध छि
। कियते केन विधिना रक्नाबन्धः सुरोत्तमः \। कस्मिस्तिथौ करा देव ह
तत्य क्तु „ॐ १.५५ ५, 2 1, "4 ॥..-..
। बहर्थाः श्यृण्वत नः तः कथाः ।\ १५।। कृष्ण उवा व च ।। संप्राप्ते श्रावणे मासि पौणमास्यां
| दिनोदये ।। स्नानं कुर्वीत मतिमाङच्छरूतिस्नृतिविधानतः \। १६ ।। ततो देवान्पि-
` हचैव तपेयेत्परमाम्भसा ।! उपाकर्मादि चेवोक्तम म तमषीणां चव तपणम् ।\ १७।। र ८
५ त तन्तुग्रथितां स्थापयेाजनोपरि।\ २० ॥ कार्या गृहस्य रक्षा गोमयरविते ५ ध 1
सुवत्त : ।।॥ दूर्वा णंकस हतश्च चत्रदरितोपा (1 ५ त + दामनाय । २१॥। उपलिप्ते
सेत्कुम्भम् । पौठस्योपरि निविलेदरानामात्ये्युतश्च सुमुहतं
गृहदेशे दत्तचतुष्के न्यः
८०४) व 1 दतरा :.[ वणिम: ^
{4 ५; (0
धष्ठिर जोने पुछा कि, है केशव ! सु रक्षाविधान बताइये, जिसके करनेसे मनुष्य मूत प्रेत जौर पिक्ञचोसे
[डर होजाता है ।\१।। बह सब रोगोका नाक तथा सब अनयुभोका नष्ट करनेवाला है, जिसे एकवार कर
करक्षाबत्धन---भावणकी पौणिमासीका रक्षाबन्धन होता है यहु हेमाद्रिने भविष्यसे केकर लाह). ।
नेसे एकवषतक रक्षा रहती है ।॥२।। भरीकृष्णजौ बोले कि, है पाण्डवश्ावृंल ! एक पुराना इतिहासं कहता न ५
जो कि, इन्द्रौ जीते ह्ये इन्द्राणौने किया था 1३) पहिके बारह वर्षतक देव ओर असुरोमे संग्राम ` ॥ ( |
आ । उसमे असुरोने देवताओके साथ इन्द्रको जीत छिया था ।\४।। बृहस्पतिजीको बुलाकर इन्द्र बोखा "1 (
के उसने आक्रान्त हुआ मे न तो भागही सकता हूं एवं न ठहरही सकते हुं ।\५।। मेरी यह् गति है कि, युद्ध क (| ५
हं पडे जो होना है सो होगा । यह् सुन बृहस्पतिजी बोर कि ।६।। हे इन्द्र ! कोधका त्याग कर, यह समय
इका नहीं है, क्योकि दे कालसे विहौन कार्यं सफल नहीं होते ।\७।। वे किए दूषित होकर अनथ पेदा ` | 0 |
#रले है, वे दोनों बातेही कर रहै थे कि शची इन्द्रसे बोखी ।\८11 कि हे देव ! आज भूत (चतुर्दशी ) दिन | १ | ।
स लं 2 त करके क ` वक्षिण हाथमे रक्षा पोटली बंधी ! इन्धने क रक्षाबन्धनं ध क ध 8.
ॐ एेरावतहाः हा ती र चठकर युद्धे लिए चलदिा॥\१०-११।। दानवो सेना उसे देवकर एते डरी `
र किया ! ब्राह्यणोने मंगलाचरण किया नि य र ५
, | (५ १ स कब हो ? यह मुशे बताइये ।\ १४ ४. 4
न्यो भप विचित्र विचित्र सुनाते हे तयो त्यो मेरौ तुप्ति नहीं होती इच्छा बढतीही चली न ५ (
पराह ।
व्रतानि 1 1हन्दटाकासाहत (८०१) ~ कुः
` विधानके अनुसार स्नान करना चाहिये ।\१६।। अच्छे पानीसे देव ओर पितरोका तेण करे, उपाकम+आंि ं दि ५ ८
करके ऋषि्योका त्पेण कर 1 १७।। ये कम ब्राह्मणोके साथ वेदका उदेश लेकर शक्तिके अनसार करने `
चाहिये प
चाहिये \ शुद्र स्नान दान विनामन्तरके करे क्योकि, वेहौ उन्हुं अच्छे है \\ १८।। इसके बाद का न | ४ + ८
अच्छी रक्षा पोटली बनवावे, उसमें अक्षत सफेद सरसों ओर सोना होना चाहिये ।१९। सूती वा उनी
रगे साफ वस्त्रमं रगे डोरेसे गुथ हरईको वस्त्रपर रख दे ।\२०।। गोबरके बनाये अच्छे मण्डलसे घरक रक्षा `
। . करे, उसमे चित्र, दूर्वा, वणक सामिल होने चाहिये, इससे इरितका नान होता है ।।२१।। चि घरमे चौक्पर `
` घट स्थापित करे मत्रियोके साथ राजा अच्छे मुहूत्तेमं चौकपर बेठजाय ।र२।धवैश्याएं पास वेशीहोधष्वनएं | छ
हरा रही हो, मंगलके शब्द का उच्चारण हरहा हो, उस समयपर सब विष्नोको शान्त करनेवाला रक्ष ®
बन्धन करे, पहिले सम्माननीय भूदेवोको वस्ते पुजे इसके पीछे पुरोहित मन्त्रसे रक्षाबन्धन करे ।॥२२-२४।। `
` रक्षाबन्धनका मन्ब--जिस रक्षासे महाबली दानवेन बली राजा बांधा था तुते मे उसीसे
से बाषताहं। ` ४1
रक्षे ! तुम हर तरह अचर रहना ॥\२५।। ब्राह्मणों को पुजकर, बराह्मण, क्षत्रिय, वेश्य ओर श्र तथाद्रूसरे = `
` जोग रक्षाबन्धन करे \\२६।। जो इस विधिसे रक्षाबन्धन करता है बह एक वषं भर निर्दोष सुखौ रहता है
॥\२७।} रक्षाबन्धनका निषिद्धकाल भद्रा है । इसमें रक्नाबन्धन न होना चाहिये । क्योकि, संग्रह ग्रन्थे ॥
लिखा है कि, भद्रासें श्रावणी ओर फाल्गुनो ये दोनों न होनी चाहिये ; भद्रा श्रावणी किए जानेषर राजाको
भारती ह, होती मामको जातौ है यह भविष्यषुराणका
~ 1 उमामहेंरवरव्रतकथा 1
2 र भद्रपदपौणमास्याम् उमामहेऽ्वरव्रतं शिवरहस्ये ।। राजोवाच ।। भगवै-
का कहा हुजा रक्षाबन्धन ओर यौर्मोमासी का त्रत त ५
+ उपाकमे-विधिपूवेक वेदाध्यनयके प्रारंभका नाम है, विधिपुवं क छोडा आ वेदका अध्ययन इसी र
अवसर शुरू कियाजाता है, जिन दिनोमे वेदाध्ययनका त्याग रहता है उन दिनों मं वेदके अंग पठाये जाया ् ६
शुक्छे .पौणेमास्यां प्रयत्नतः ।। २ ।। तद्व्रतं काथेमननघर्ब्रह्मणाद्येविधानतः ।॥
भद्रश्ुक्छचतुदेशयां प्रातः स्नात्वा विधानतः ।! ३ \। शिवं संपूज्य विधिवच्छेवान- |
प्यतियत्नतः ।। शिवं ध्वात्वा जगद्रन्यं सोमं सोमार्धशेखरम् ।। ४ । कृताञ्जलि- `
पुटो अत्वा सन्वसेतं पर्चरः ।। इवः करिष्यं व्रतं यः नादुमामाहेश्वराभि घम् ॥।. | ॥ | .
१।५ \\ आज्ञां देहि महादेव सोम सोमाधश्ेखर ।! इति विज्ञाप्य वें देवं पुनः सम्पुज्य `
यत्नतः ।। ६ ।। मध्याह्ेऽपि महादेवमचयेचियतो ब्रती ।। ततो देवानृषीन्तर्वान- | ॥
भ्यच्यं विधिवच्ुप ।} ७ ।। हविष्याशी शिवं सायं पुजयेद्िधिपूवेकम् । निद्रां
कार्या यथायोगं महादेवस्य सच्चिधौ \\ ८ । उत्थाय पश्चिमे यामे महादेवं ततः `
स्मरेत् \\ ततः शौचारिक स्वं निवेत्यं प्रीतमानसः ।। ९ ।! स्नानं कुर्याद्यथायोगं | `
यथाजासतरं यथाक्रमम् ।। परिधाय ततो वस्त्रं क्षालितं शुभमक्षतम् ।। १० ॥। उद्धूलनं
ततः कारय त्रिपुण्ड च यथाक्रमम् ।। दराक्षधारणं कार्य सन्ध्या कार्या ततः परम् | `
॥ ११ ॥ ततः श्षिवाचंनं कार्थं बिल्वपत्रादिभिनेरेः ।! ततो होमोऽपि कतेव्यः
यथंमावरात् ।\ १२ \\ ततः परंनियमनं प्रणमेत्सोममव्ययम् ।\ समग्रन्थि- `
मनोहरम् ५ ।। १५ \। पलादूनं न कतेव्यं
त्मम् ।\ अधिकं चेद्यथाहाव्ति कर्तेव्यमतियत्नतः ।॥ १६ ॥ सौवर्णे
1 न श्नो वा मुन्मयोकनवः ।) सप्पादनीयो यत्नेन प्रयतेत्रेततत्परेः ।। = | `
। ततः. सं सदभेपिञ्जूले वस्त्रयुर्माचते शुभे ।\ पुथक्पुथक् स्थापनीयं कलशे `
1. टिन्वदोकासाहत . : ` ~. ८७ ~. 1
ऊध्वेकशं विरूपाक्षं विदवरूयं चिदात्मकम् ॥। निष्कलं निर्गुणं शान्तं `
निरवद्यं निरञ्जनम् ॥ २८ ॥ अप्रमेयं जगत्सुष्टिस्थिति संहारकारणम् ।। = |
विद्वबाहुं विश्वपादं विश्वासं वि्वसंभवम् ॥ २९ विश्वं
दाराथणाराध्यमक्षरं परमं पदम् ।॥ विदवतः परमं नित्यं विर्वस्येदम- ह
^नामयम्-\\३० ।। एवं ध्वात्वा महादेवं सवेदेवोत्तमोत्तमम् ॥ ध्यायेत्ततःपरं
भमौरीमादिविद्यासनामयाम् ।। ३१ ।। लक्ष्मीसेवितपादान्जा रचीसेवितपाद्- ®
काम् ।। सरस्वत्यादिभिनित्यं स्त्यमानपदाम्बुजाम् \! २३२ ।। अधरोष्ठाधरीभूत-
पक्वबिस्बफलामुमाम् । मुखकाम्तिकलोपेतां पू्णचन्दरामनामयाम् । ३२३ ॥
` तिरस्कृतालिमालां तामल्कावलिभिः सदा ।॥ पीनवक्षोजनिरधूतचक्रवाकवरा-
नाम् ।\ ३४ ।। नित्यं तिरस्कृताम्भोजां नयनाभ्यामनिन्दिताम् ।। सीमन्त घ- _
क्कृताशेषकाममल्लामहनिम् ।। ३५।। स्म कुटीधिक्कृताच्चषररावापामनक्रलम्। =
बाहुनाल्करोद्भ्तहेमपद्यां विलासिनीम् ।। ३६ ।। रोमावलीतिरोभूतभ्रमद्ूमर- ५
नाक्िकाम् \। नाभिरन्धतिरोभूतजलावर्तासुवर्तुलाम् \! २७ ।) उत्तमोरतिरोभूत- `
रम्भास्तम्भां शुभावहाम् ।। पादयुग्मप्रभाकान्तिनिजितारुणपडकनाम् ।! ३८ ॥ `
ब्रह्मन््ोपेन्रजननीं महेार्थाङ्गभागिनीम् ।। महेशादिलष्टवामाङ्खं बरदाभयदां
सदा ।\ ३९ ।। प्रसन्नवदनां शान्तां स्मितपूर्वाभिभाषिणीम् ।। पुणचन्रदक्लाढ्यां =
~ नानाभरणभूषिताम् ।। ४० ।। स्तूयमानां सदा देवे्यनेदनिद्च कोट्किः । एवं
ध्यात्वा ततः सम्यगपचारान्प्रकल्पयेत् ।॥ ४१ ।! तत् पुष्पाणि संगृह्य `
शिवमावाहयच्छिवाम् ।। महादेवदयासिन्धो विष्णुब्रह्मादिवन्दिता ।} आवाहयामि
^ देवं त्वां परसीद परमेहवरि ।। ४२ । लक्षम्यादिदेववनितापरिसेवितपादुके पादकं ८
अवाहयामि देवि त्वां प्रसीद परमेकवरि ।॥ ४२ ।। गृहाण सोम विवात्मन्नासनं `
रत्ननिर्मितम् ।। अनन्ता 4 सन विशवेडा करुणासागर प्रभो ।। ४४।। उम सोमवरा रा | ५
(८०८) 2 व्रतराज ^ 011
श्ुद्धोदकस्नान स्वीकुरुष्व सुरोत्तम ।। प्रसीद परमं भक्तं पाहि मां करुणानिधे \\५४। =:
शिव शुद्धोदकस्नानं स्वीकुरुष्व शिवप्रिये ।\ प्रसीद देवि दीनं त्वं पाहि मां श्रणा- `
गतम् ।\ ५५ ।। सोत्तरीये गृहाणे दुकूलमिदमुत्तमम् ।। पाहि मां च कृपासिन्धो
-करुणाकर दाडःकर ।\ ५६ ।! सोत्तरीय गहाणेदं दुकूलं शङ्करप्रिय ।, प्रसीद पाहि `
मां दीनमनन्यज्ञरणं शिवे । ५७ ।। उपवीतं गृहाणेश शम्भो सर्बामरोत्तम ॥ `
उपवीत गृहाणाम्ब शिवसंशिलष्टविग्रहे ।। ५८ ।। गृहाण चन्दनं दिव्यं गन्धाढेयन
` विराजितम् ।! प्रसीद पावंतीनाथ शरणागतवत्सल ।। ५९ ।। गहाण चन्वनदेवि `
चन्द्रभागविराजितम् ।। विष्व विश्वात्मिके पाहि विष्वनाथप्रिय सदा । ६० ॥ `
-गृहाणाभरणानीक्षं त्वं स्वनिगमाश्रय । विष्वाभरण विदवेशरत्नाभरणभूषित
11 ६१ ॥। गृहाणाभरणान्यम्ब स्वौभरणभूषित ।। सवेप्रिये जगढन् जगदानन्ददे `
श्वे ।\ ६२ ।! गहाण विल्वपत्राणि सपुष्पाणि महेश्वर ।। सुगन्धीनि भवानीक्ष
| चः ठ कु, कुसु म्रिये ।\ ६३ ।। गृहाण बिल्वपत्राणि सामोदानि शिवप्रिय ।। सुगन्धं ुग- न्धः मै
लक्ष्मीदवादिसेविते ते ं । ६६ ।। साज्यं त्रिवतिसंयुक्त
शव णानन्तसूर्याणग्निचन्दरप्रभु नमोऽस्तु ते ।\ ६७ ।\ सज्य `
तसं त्िर्वातसंयुक्तं दीपमौशानवल्लभे ।। गृहाण चन्द्रसूर्याग्निमण्डलाधिकसुप्रभे ॥६८॥ `
शम्भो गोधृतसंयुक्तं परमान्नं मनोहरम् ।। सहकंरं गरहाणाम्ब परमाच्नप्रदायिनी ` | म
प्रदे देवि शिवभूषितविग्रह ।। ७१ । नीराजनं गृहाणेश बहुदीपविराजितम् । ५ ,((
(९ क प्रकाशितदिगन्तर ।। ७२ ।। नीराजनं गृहाणाम्ब सूर्यनीरा
तप्रभे ।। प्रभापुररितस्वाद्धे मङ्कले मद्धेलास्पदे ।} ७३ । शम्भो गृहाण ताम्बल- `
रसंयुतम् ।। प्रसीद भगवज्छम्भो सर्वज्ञामितविक्रम । ७४ ॥ शिवि `
ूलमेलाकपुपरसंयुतम् ।। प्रसोद सस्मिते देवि सोमालिद्धितविग्रहे `
/ 12
0 ४८०९) ~. -. £
1 यथाक्रमम् । आवहस्तीति मन्त्रस्तु भवान्याः परिकौतितः ।1 ८० । अथाङ्खपना- |
। कपदिने नमः कपर पुजयामि ।। भाललोचनाय० भालं प° ।। सोमसूर्यागनिलोच- |
नाय० नेत्रत्रयं ।। सुश्नोत्राय० श्रोत्रे पू०। घ्राणगन्धाय० घ्राणं पू० ॥ स्मति- `
इन्ताय० दन्तान्यु० ! भश्रुतिजिह्वाय० जिह्वां पु° ॥ सुकपोलाय० कपोलौ पू \ |
ज्ञानोष्ठाय० ओष्ठौ पु० । नौलकण्ठाय० कण्टं। भूरि वक्षसे वक्षः० । हरिण्यबाहवे०
` बहु° । विहवोदराय० उदरं ० । विहवोरवे० ऊरू० । विहवजङ्खाय० जङ्केप० |
विष्वपादाय० पादौ पू० । विष्ट्वनखाय० नखान् प्० । स्वत्मिकाय० सर्वाङ्धं पून- `
` यामि।। अथ शक्त्यङ्खपुजा-क्िवाये ° क्षिरः पू० । पुथुवेण्ये ° वेणीं प° । सोमन्तरानि-
। ताये° सीमन्तं पु०।। क् ङकुमभालाये ° भाल पू० । सोमसूर्याग्नि लोचनायेण्नेत्रेषु०
श्रुति श्नोत्राये° श्रोत्रे पु० । गन्धप्रियाये° घ्राणं पु० । सुभगकपोलाये° कपोल पु० | 1
। कुडमलदन्तायै० दन्तान् प° । विद्याजिह्वायै° जिह्वां पु० । बिम्बोष्ठाये
ओष्ठौ पु० । वृत्तकण्ठाये० कण्ठं० पू० । पृथुलकुचाये० कुचो पु० विक्वगर्भा यै०
` उदरं पू० । श्युभकटयै० कटी पू ! दिव्योर्देज्ञाये० ऊरू पु० । वृत्त जघाये० जंघे
घू० ।। लक्ष्मीसेवित पादुकायं० 1! पाद प° । महेह्वरप्रियाय० नखान्पु० । शोभ- `
नविग्रहाये° सर्वाङ्धं पूनयामि ।। अद्धयुजां समाप्यैवं दोरकं चेव पूजयेत् ॥। प्रत्येकं
` ग्रन्थिषु स्वच्छः स्वच्छेबिल्वदलादिभिः ।। ८१ । प्रथमग्रन्थिमारभ्य नमः सोमे- `
` तिमन््रतः ।। यथाक्रमेण संपुज्य ततो धार्यं हि दोरकम् ॥ ८२ ॥। तत्रोपचाराः
सर्वेऽपि तेन मन्त्रेण सादरम् ।। ब्रतिभियंत्नतः कार्याः कुडमाडिकतदोरक ।\६८३।। `
ततः पञ्चदक्षप्रस्था गोधूमास्तण्डुलाश्च वा ॥। उपायनार्थमानेयाः शुद्धाः कौगादि-
बजिताः ।! ८४ ।! यद्वा पञ्चदशाज्याक्ता गोधूमापुषमण्डकाः ।। ततः शिवेक
` श्षरणाः शेवाः शिवन्रतप्रियाः । ८५ ।। पूजनीयाः प्रयत्नेन . गन्ध'
` मात् ।\ ततः सवस्त्रकलां शिवयोः प्रतिमाद्रयम् ।। ८६ ।\'
(८१०) ~~ क । ` 1... 14
हैमी कार्या साधषड्भिः प्रतिमा च पलः शुभा ।। ९५।। तद्धेनाथवा कार्या तद्धे-
नाथवां मप ।\! रजतेनाथवा कार्या यथोक्तपलमानतः ।! ९६ ।। संपादनीयाः
कुम्भाह्चहमाः पञ्चदश्ोत्तमाः ।\ अथवा राजताः कार्या यद्रा तास्मया नृप ।!
1 ९७ ।\ भद्रश्ुक्लचतुदेशयां वा ब्राह्मणयपुद्धवाः ।। निमत्रणौया यत्नेन प्रातः
सप्तदज्लोत्तमाः ।\ ९८ ।! ततो गृहं वितानाद्यरलक़ृत्य प्रयत्नतः ।। स्वस्तिकादे- `
` रलकुर्याच्छिवस्थानं शुभावहम् ।\ ९९ ।! ततः सायं प्रयत्नेन तस्मिज्छङकर- `
मन्दिरे ।! पुजनीयाः प्रयत्नेन हिवयोःश्रतिमाः शुभाः ।\ १०० ॥ पूर्वोक्तेन
विधानेन मन्व्रेस्तेरेव साधनः ।। रात्रौ जागरणं कार्थं सोपवासं प्रयत्नतः ।\ १।। `
ऋत्विग्भिः सह सोत्साहं पयोमात्राशनेन वा ।\ रात्रौ शिवकथा: ्राव्याकुश्रोतव्या
` यत्नतो नुप ।। २ ।\ कर्तैव्या यत्नतो रात्रौ पजा यामचतुष्टये ।\ ततः स्थेयं प्रयत्नेन `
स्नात्वा शडकरसंनिधौ \। ३ ॥\ पूजनीयः प्रयत्नेन शिवोिवशिखामणिः \\ चतु- `
रं ततः कायं कुण्डमष्टदलान्वितम् ।! ४ ।। कटिदध्नं प्रान्तदेकञे हस्तद्रयससन्वि- =`
तम् ।! तत्र र्बाह्नुप्रतिष्ठाप्य विधिवद्गृह्यमागेतः ।\ ५ ।। साज्येन परमाच्चेन हसः
7यस्ततः परम् ।! पञ््चावशति साहस्र नमः सोमेति मन्त्रतः ।\ ६ । कार्यो वा
) राजन्नमः पूरव स्वमन््रतः ।। ततः पूर्णाहुति कृत्वा होवान्सम्पूजयेत्ततः।\७।। `
बल्वपत्रेः पुष्पमाल्येभेस्मना च यथाक्रमम् ।! एकंकस्मे प्रदातव्यं शिवयोः प्रति- `
` माद्रयस् ।\ ८ ।। कलशोऽपि प्रदातव्यस्ततो वस्त्रह्यान्वितः । आचार्याय प्रदातव्यं
` सुबणरतमादरात् ।। ९ ।\ ततो यत्नेन शेवेन्रा भोजनीयाः कृतव्रतः ।\ सुवासि- `
` न्योऽपि रेवानां भोजनीयाः प्रयत्नतः ।! ११० ।। ततो देयाः स्वशक्त्या च भोजि- `
0
भ्य रच दल्िणा 1 ततश्च स्वेकरत कसं शिवाय विनिवेदयेत | ११ ।। उद्यापनं
३ दः ं काम्भो मयतदधुना प्रभो ।। इदं सम्पूणेतां यातु त्वत्प्रसादान्महेक्वर ।। १२।॥
मन्त्रहीनं भवितहीनं शक्ति श ५ तहीनमुमापते ।\ कृतं कमं भवत्वद्य त्वप्रत्सादात्फलघ्रदम् `
= य व ~ 1
८ | ` दष्ट्वा दुर्वासा मुनिसत्तमः ।\ विल्वमालां ददौ तस्मै श्डकरेण सर्मपिताम ।॥ ` ष |
| ॥ १२० ॥ गृहीत्वा बिल्वमालां तां हरिगमनसंभरमात् ।। शिरसा पूजनीयं तां = `
गरुडे स विनिक्षिपत् ।\ २१ ।। ततस्तं तादृषं दृष्ट्वा दुर्वासा बोध मूच्छितः।॥ = `
हरि श््याप बहुधा धिग्जन्मेति च संवदन् ।। २२।। मया श्िवापिता दत्ताः
माला तुभ्यमघापहा \\ सा कथं गरुडस्कन्धे विनिक्षिप्ता त्वया हरे ।। २३१ गवेस्य |,
मूलभूतेयं लक्ष्मीस्तवं विनश्यतु ।\ लक्ष्मीः पततु दुग्धाब्धौ गरुडोऽपि विनश्यतु 4.
| ॥ २४ ॥\ वैकुण्ठस्याधिकारोपि तव यातु ममाज्ञया ॥ निस्तेजस्कोऽवनीपृष्ठे = `
सञ्चराद्यावधि ध्रुवम् ।! २५ ।। इत्यक्त्वा स तु दुर्वासा ययौ लोकान्तरं नृप ॥
` ततः पपात दुग्धाब्धौ लक्ष्मौदिष्णुमनोहरा ।! २६ ।। ततोऽतिदुःखितो विष्णुः , `
प्रल्यन्वनमाध्ितः ।\ उवास विपिने घोरे स्वकृतं कमं संस्मरन् ॥ २७ ॥ ततः ।
कंदाचिद्भूषा मया तत्र गतं पुरा \। तडा ममामतं दृष्ट्वा पूजयामास मां हरि ह् | १...
करुणानिधिरव्ययः ।\ इदमेव व्रतं चीर्णमिन्दरेणापि हतौजसा ।। ३२ ।। तेन प्राप्त- र
स्ततः स्वगे: स्वगंभोगच लारवतः \। ब्रह्मणापि पुरा चीणंमिदमेव व्रतं नृप ।। ३३।। `
नष्टा बागीहवरी तेन संप्राप्ता दुलंभापि सा ।। मुनिभिह्च पुरा चीरणं ब्रतमेत- `
मक्षभि चरणान्मुक्तिः प्राप्ता मुनीहवरः ।। इदं व्रतं `
४५ ।। सूययिन्दराय चन्द्र व 1 य य मयत
दायकम् ।। ४६ ।! कदयपादिमुनिभ्यर्च `
दम ।! ४७ ।। भष
वतं साद्ध वाणीप्राप्त्यथेमादरात् ।
व्रतम् ।। तेश्च चीर्णं व्रतमिदं स्वंसौभाग्यदा
कथितं व्रतमुत्तमम् ।। तैर्च चीर्णं वरतं सम्यग्भुक्तिमुक्तिप
व्रतानि सन्त्येव बहुनि विविधानि च ॥। त त
। ४८ ।। भवानपि कुर प्रीत्या भूपाल व्रतम तसन् ।।
तिः भवितितः ।। ४९ ।। तस्य सर्वर्थसम्पत्तिभेवत्येव न संहाय ।
इत्येदरचनं शुत्वा स राजा प्रीतमानसः ।। ५० ।। सपुत्रः पूजय
युद्धम् । ततो धमेब्तं चैवमुषदिदय स गोतमः ।\ ५१ ।। पूनः समद व
स्वाश्रमं प्रति संययोौ ।। राजा सपुत्रस्तद्ाक्यादिदं माहेकवराभिधम् ।। नत त ५
स ' स्मपूताः ।। ते मामुपेत्य विगताणिलदु
नत्यम् ।\१५३।। इति श्िवरहस्य उमामहरवरव्रत
टिके प्रसिद्धम् ॥
उमाहेववरल- भद्द भणमा दिन होता है इते सिवरहस्यनं कहा
मं शरेष्ठ है, मे एक एेसा त्रत पुना चाहतः
।१।। गौतम बोकते कि, उमामहश्वर नामका एक उत्त शत है उषे
परयत्नप्क ।२।। निष्पाप ब्राहमणो बिधानके साथ करावे भ्रपद शुक्ला चतुदशीके
विधिपूर्वकः स्नान करके ।।३।। निधिुवक प्रयते साय श्िवका पुजन करके प्रयत्नके
ोमाधदोलरयुत शिवका ध्यान करे ।\४।। पी हथ जोडकर इस
महैव महेश्वर नामक ब्रतको कर करूंगा 1।५\। है सोमके अधं शेखरवाले महादेव
विज्ञापन करके फिर प्रयत्नके साय पूजे, मध्याह्लके समयम भौ न्ती महादेवकः
सौर वपियोका विभिपहपूलनं करे ॥६- ०।।
शिवकरे समीप विधिपुवक नींद से ।\८।। रातक्ते पठ्चिमी पहरमं उठकर फिर महादेवको
तमं व्रतं नास्त्येव सवथा
इदं वरतं ह्िवक्षेत्रे यःकरि- `
। शिव उवाच।
-जयामास गौतमं लेव-
ब: सम्पूजितो रान्ना
।। ५२ ॥। यं मामनन्यहूश्या सकलामर श ` ५, प त | |
सोदच्यापन सम्पुणम् ॥
राजानोलाकि,आप
हं जिस एकके साङ्ध करलेनेपर सब कार्मोको पाजा- `
यद शुक्छापुणिमके दिनि
कि दिन प्रातःकाल `
साथ जगद्रन्य उमा
मरको पडे कि, यत्नके साथ उमा- “
देव ! मृते जला दौजिए इसभ्रकार = `
का पूजन करे, इसके बाद देव `
हविष्यालनका भोजन करके विभिपू्क सायंकालमं पूज, = `
कोयादं करे इसके
क्रमसे जेसे स्नान करना चाहिय वेसेही करे, पीछे धुले हए ८ |
-ग्बलन करे पी विड लागावे, स्रा पहिनकरसन्ध्या `
9: क्षिवजीकी भरसंञ्ताके लिये आदर पुवक् हवन करे ५ ५ (1
भः तयार करे ।१२-१३॥। षन्दरह॒ `
व्रतानि
शद्राक्षकौ माला पहिने, मन्द मन्द हसते रहनेवाके, स्वयं आधाररहित एवं सब जगत्के आधार, जिसकी ` `
विष्णु ओर शिवादि वन्दना किया करते हं ।। २४।\ ।।२५।। जिसके कि, लाल चरण कमलोपर विष्ण भगवानक्े = `
नेत्र शोभा बढा रहा है, एसे सब हनद्ोसे रहित, जिसके बराबरका कोई नहीं है जिसकी देवता बन्दना करते = `
` रहते ह \\२६।। एवं सबसे उत्तम, आदि-अन्त रहित, सब देवोसे पूजित, सत्य, शुद्ध, परब्रह्म, कृष्णापिगल `
, रगके पुरुष \1२७।। उच कैरशोवार, विरूपाक्ष, विक्वरूप, चिदात्मक, निष्कल, शान्त, निरव, निरंजन
॥।२८\ जप्रमेय, संसारकी उत्पत्ति स्थिति ओर प्र्य करनेवाले, सब मौर बाहू पाद ओर अक्षवाले, विहवके `
क “ ॥ व कर्ता, विव, नारायणके आराध्य, अश्र, वरमपद, विदहवसे परम, विहिवके स्वामी आमयरहित ।२९।१ ¦ 1
| ॥३०\। शिवजी हें । इस प्रकार शिवजीका ध्यान करके पीछे आदिविद्या अनामया गौरीका |
| का ध्यान करना 4.
। चाहिये ।\३१। जिनके लक्ष्मी चरण ओौर शची पादुका सेवन करती है तथाः सरस्वती चरणोकौ स्तुती ` (0
करती रहती है ।\३२)) पकेहुएु विम्बाफलकौ तरह जिसका नीचेका अधर ओष्ठ रहता है, निसकी मुख
(1 । कान्तिके सामने पुणंचन्द्र परास्त होता है, जहां कोई व्याधि नहीं है ॥२३।। घुंघरारे कारे कारे बालोने ध {८ । | | |
| काले काले भारोकौ कतारको भौ मात करदिया है, उरोजोसे चक्वाकको भी परास्त कर दिया है, परम.
५ ४ 1 सुन्दरी ।1२४।) सदाही कमल्को मात देनेवाली वष्टि य॒ता, सीमान्ते कामके भालोको. धिक्कारनेवाती । ।
। ` जिसने भुङुटिसे कामके सारे तीर हरादिये ह, हाथोके नालसे सुवणं कमलको परास्त करन बालौ विल
| ५३५१३६१ सेमावलीसे च् मतेहुएु भरमरकौ नालीको मात देनेवारी ।\२७।1 उत्तम जाघोमि केके स्तंबको `
| भात देनेवारौ दोनों चरणोको कान्तिसे अरुणको परास्त करनेवालो ।)३८।। ब्रह्मा इन्द्र ओः मौर उपेन््रोकी `
| ` -जननौ, महेकाके अर्धभागकौ भागीदार, महेदाके आये अंगसे लगकर विराजती हुई सदा वर ओर अभयके य क
न र सं एसी गौरी महारानी है । इस प्रकार ध्यान करके उपचारोकी कल्पना करे ।४१।) पुष्प लेकर शिव ओर र |
4 । ५ शिवका आवाहन करे कि, हे महादेव ! हे व्यासिन्धो ! हे ब्रह्मा ओर विष्णु आदिके वंदित { हैवेवेड.।
` प्रसन्न हुजिये । मे आपका आवाहन करता हं ।\४२।। आपके चरणपाूकाओंको ककम आदिक देवस्त्रियां `
` , सेवन करती रहती है । हे देवी ! में तेरा आवाहन करता हं { मुश्चपर प्रसन्न हजिये ।\४३।) हे विश्वात्मन्! = `
स म
है सब अभिष्टोके देनेवाले ! गन्ध, पुष्य ओर अक्षतोके
( ८ १४) | २ 7 क व्रेतराञं + १ व 1 पूणिमा- |
सहित ुकूलको ग्रहृण करिये । मे सिवा आपके द्रूसरेकौ शरण नहीं हं, हे शिवे ! मेरी रक्षा, करिये, प्रसन्न
हृजिए् ।\५७।। हे सब अमरोसे उत्तस शंभो ! उपवीत ग्रहृण करिये, हे शिवसे लगे हुए शरीरवाली शिवे !
उपवीते ग्रहण करिए ।\५८। इस सुगन्धित मिले हए दिव्य चन्दनक्ो ग्रहण करिए ! है पावेतीनएथ ! है `
श्ञरणागतोपर प्यार करनेवारे ! प्रसच्च होनाइये ।॥५९।। हे देवि ! चन्द्रभागसे शोभायमान चन्दनको
श्रहण करिये, ह विह्वनाथकी प्यारी विददात्मिके ! विशवकी रक्षा कर ।\६०।। है ईश ! अप विरवके
अभिरण हे, आप सदा रत्नोसे भ् षित रहनेवाले ह आप सब निगसोके आश्रय हे, है विद्वके आभरण { इन `
आभरणोको ग्रहण करिये ।\६१।। हे सबकी प्यारी सभी अभूषणोसे सजीहुई संसारको अनन्द देनेवाली ` `
सबकी वन्दनीय अंबे ! आभरण ग्रहण करिये १६२ हे मदेवर ! बिहवयत्ः पुष्य समेत ग्रहण करि, हे
भवानीके ईश ! ये बडे लुराबदार हे एवं आपको खुशशनृदार कुसुमादलि प्थारी है ।६३।। हे शिवकीष्यारो !
सुगन्धित पुष्पको ग्रहण करिये क्योकि आप तो सुगंधित बिल्ब ओर मन्दारकौ मालाञोसे सिगरी रहती
हो ॥६४1! दशाद्धम्' ।\६५।। इसमे श्िवको तथा दशाद्धम्' ।\६६।। इससे पावंतोको धूप दे, साज्यम् 1
इससे शिव तथा 'साज्यम्' 1! इससे शिवाको दोपक सम्ेण करे ।\६८।। हे शंभो ! गञ्के घुतमे स्कर
पडा हु यह शरेष्ठ परमान्न तयार है है परमाच्के देनेवाली ग्रहण करिये ।\६९। है शंभो ! सुगंधित आच-
मनीय ग्रहण करिये, हिवापते ! आप तो स्वतः शद्ध एवं आचमन किए हुए हे ।\७०॥1 हे शिवे ! इस सुगंधित =
आचमनोयको ग्रहण करिये, आप शुद्ध है एवं शुकी देनेवाली हैँ भपका विग्रह शिबजीसे भूषित हे ॥७१।॥ = `
{ बहूतसे दीपोसि विराजमान इस नीराजनको ग्रहण करिये ! अपं स्वप्रकाञ् हं प्रकाश हीजपकोजात्मा
नी प्रभासे सुर्यको प्रकाशित करनेवाली हे अबे ! नीराजन ग्रहण कर । आपका सबक्षरीरही ८
है लब मंयलोकौ स्यान तथा सर्वमंगल दाता है \\७३।। हे शंमो ! एला कपूर जौर सुपारी ` `
न ग्रहण करिये । है सर्वज्ञ ! है अमित पुरुषाथेवाले ! है भगवान् शंभो ! प्रसन्न होनादये 11७४1 =
दलायचौ सुपारी मौर कपूर पडा हुमा पान ग्रहण करिये । है सोमसे संशिकष्ट विग्रहवाली हंसम्खी `
स हुजिए न \॥७५।। हे परमेशान ! हे सब दुःखोके नाशक ईडा ! रत्नोवाठे छत्र चामरदर्पणजओौर `
ोमाय' इस मंत्र व पूर्वोक्त भौ यजन करना चाहिये यथव यथाक्रम इस मंत्रको बोखना चाहिये । तथा व ५
आवहन्ती यह संतर १ कहा है ।८०।। “जोम् आवहन्ती पोष्या वा्य्याणि चित्रं केतु कृणुते `
र स्वतः देतौ है ! आप सबसे अधिक ज्ञानवाली हँ, इस कारण चाहने योग्य ज्ञान दे देती `
; होनेवाली मायाही इसकौ यत्कथंचित् उपमा हो सकती है, तेजस्वी देवोमे जो स्वथं _ ६
भंगपूजा--कयदौके किष नमस्कारं कपदेको पुनता हु, भाललोचनके लिए =
ह सब हे कि, सोमसूय्यं भौर अग्निके नेत्रवालेके तीनों नेत्रोको पु
~ =
धि
रतानि ] = दिन्दीटीकासदित न (५)
मोटे कुचोबारीके° कुचोको; विदवगभकि० उदरको० शुभ कटिवालीके० कटिको दिव्य ऊर देशवालीक्षे० ` ८
| (५ ध | | उरुको० 2 भिलोजाघोबालीके जाधोको 93 जिसकी जती लक्मीजी सेक्ती ह उक्षण चरणोको० 4 महेक्वरकी | 4 | 1
प्यारीके° नखोको० । सुन्दर विग्रहवालीके लिये नमस्कार सर्वागको पूजता हं । अंग पूजाको समाप्त करके ` न
डोरेको पुज प्रत्येक ग्रन्थिपर स्वच्छ स्वच्छ दलोसे पुजा करे ।।८१।। नमः सोमाय इस मंत्रते पहिली ग्रन्ते = `
प्रारंभे करे, यथाक्रम पूजकर पीछे डोरा धारण करना चाहिये, \।८२।) इसके बाद इसौ मंते सब उयचार ` -
कूंकुमसे रंगे डोरेपर व्रतियोको सावधानताके साथ करनेचाहिये ।८३।। कीटादिरहित शुद्ध पाच प्रस्थ ` ध
गोधूम वा तण्डुल उपायनके लिये लावे अथवा गहुके १५ पु आमाडे घौके चुचेमा लावे, इसके बादशिव- = `
ब्रतके प्यारे अनन्यभक्त शोवोका गन्ध्य पुष्पादिसे रमसे पुजन करे, वस्त्र कलक सहित शिवजी दोनों प्रतिमा ` ५
` ॥८४-८६।) प्रयत्नपूर्वक सुवणेके फलके साथ किसी शेवको दे ३ पहिले भेट देकर पौछेयेदे।८७।। ` ४
उपायनका संत्रभी कहते है “शिव ओर उमा देते छेते हँ वेह हम तुम दोनेके दोनों नगतेके तारकहैः `
उन दोनोकेही लिय वारंवार नमस्कार है" इस मं्रको बोलकर दान दे ।\८८-८९। इसके पीछे शिवभक्त ` ८ ( |
शैव ओर घुवासिनियोको सावधानीसे भोजन करावे, पीछे आप मोन हो भोजन करे ।९०।। जो जये हए ।
अतिथि दरवाजेपर पहुचे हुए हों उनको भौ भोजन करावे इस प्रकार इस त्रतको हरसाल करे ।\९१।। सावधान ` (4
ब्राह्मणोसि कहे हुए कमसे विधिपुरवेक नियमके साथ इस ब्रतको करावे ।\९२। ह राजन् ! यह तरत परम् (८
पवित्र सब्र अभीष्ठोका देनेवाला साक्षात् शिवरूपही है ।। इस प्रकार सोलह ववं बीतजानेपर उद्यायन करे `
| ॥९३।) उद्यापनकी विधि रमसे कहता हं सुनो, भाद्रपद पूणिमाके दिन प्ेमसे अतियत्नके साय व्रतकं उद्यापनं =
करना चाहिये करनेसे पिले धन इका करके, साडे छःपलकी सोनेकीप्रतिमा बनावे ।\९४।।९५।। शक्ति ८.
नहो तो सवातीन वा इसके भौ आधेकी बनाले सोनेकौ न बनसके तो चां दीकी ही बनाले ।\९६। हे राजन् !
प्रह सोने चांदी ताबा वा मिटे कुंभ बनवा ले ।\९७।। भाद्रपद शुक्ला चतुरदशीके प्रातःकाल, प्रयत्नके `
साथ सत्रह् ब्राह्मण श्रेष्ठ हब न्योतने चाहिये ।\९८।। वितान आदिते घर तथा स्वस्तिक वन्दनवार वगैरह
| इसे जानन्ददायक हिवस्थानको सुद्ोभित करे ।1९९।। इसके बाद सायंकालके समय भगवान् शंकरके `
| मंदिरं प्रयत्नके साथ उन्हे पुज, तथा उमा पार्वतीकी सुन्दर मूरिको ।१००।। पहिले कहे ४६ वाध
इन्हीं मन््रोसे पूजे, वनोके साथ
केवल इध पौकर जागरण करे तथा क्िवजौकी कथा सुने ओर सुनावे ।॥२।। रामे ्रयत्वके साथ चार पहर
पूजा करे पीछे स्नान करके शंकरके पास प्रयत्नके साथ बैठे ।॥३।\ सब देवोमे परम प्रतिष्ठित जो ध
५ = 3 == ~ ट स न न 3८ ५ & ४ स
ज र व त व ध ~ त ~ .
(०९९) = ऋतन [शषा
पास पहुचे ।\१९।। भगवान्के दोन करके शंकरी दुई एक विल्वमए्ला उनके भेट कर दी । १२०१
भगवान्को कहीं जरूरी जाना था । इस कारण शिरसे पूजनीय मालाको गरुडपर डाल दिया ।\२११1 एसा
` दैख दुर्वासा क्रोधसे मूच्छित होगये, तुम्हारे जन्मको धिक्कार है एेसौ बहुतसी बातं कहकर शाप देदिया
1२२) मेने वुम्हं पापोके नाञ्च करनेवाली मारा दौ थौ, हे हरे ! यह तौ बता कि, तुने अपनी सवारी गर्डके
उपर कैसे ालदी ॥२३।। इस अभिमानका कारण लक्ष्मी है, सो नष्ट होजाय, बह क्षीरसमुद्रमे भिरे, तथा |
` ` गरुडभं
भी इधर उधर होजाय ॥२४।। आपका वेकुष्ठका अधिकार भौ चलाजाय, माजसे तु निस्तेज हौ वन वन
भटकता फिर ।\२५। हे राजन् ! एसा श्षाय देकर दुर्वासा तो दूसरे लोकम चे गये । उसी समय बिष्णु
भगवान्की सुन्दर लक्ष्मी, क्षीर सागरमें गिरगई ।२६।\ इसके बाद विष्णु भी रोहृएु बनमे चले गये एवम्
` अषने कर्मोको याद करतेहुए् वनम वसने रगे ।२७।। कभौ वह् बहा मुश्चे मिलगये उन्होने मेरा पूजन सत्कार `
` किया ।\२८॥। मेरे आगे आखोमे आसू भरकर हाथ जोऽकर अपनी लक्ष्मीके नाश होनेका कारण कहा ॥\२९॥।
है राजन् ! जब उन्होने मृर्षसे पुछा तो मेने दुःखी हुए विष्णुके लिये इस शिव व्रतको जादर पूवकं कहदिया ` र
॥१३०। उन्होने शी ्रही शवदधापूवेक इसे कर डाला । इससे पावेतीपति भगवान् शिव प्रसन्न होगये।३१।। |
` उस करुणाके लजानेने न नष्ट होनेवाली लक्ष्मी जर गरुड हरिको देदिया । निस्तेज हुए इन्द्रनेभी इस व्रतको `
किया था ३२) इससे उसे सदके लिय स्वभे भिल गया हे राजन् ! इस त्रतको ब्रह्माजौने भी कियाथा `
॥ ३३।। इससे उसे नष्ट हुई इभा वागीहवरी भिलगई, मोक्षके इच्छक मृनियोने भी पिके इसी ब्रतको ` ् न
किया ० । था 1 २४\। इसीके कियेसे मुनीरवरोको मुक्ति मिल गई । जो इस व्रतको प्रयत्तके साथ करताहैवा `
रेणा ।॥३५।। उसे सौभाग्य संपत्ति होगी इसमें सन्देह
9 , भोग ओर मोक्ष मिले \\३६।। जो सर्वाधिपत्य
देह नही है-जिसे यह इच्छा हो कि, तुक्चे नष्टं होनेवाके `
धित्य चाहे उसे इस ब्नतको करना चाहिये । पहिकेएकवेद `
केदान्तोको ज्ञाता श्लारद नामका ब्राह्मण या ।\२७।) उसने ओर वदयत नामके ब्राह्मणे मोक्षके व्ि इस `
ब्रतको किया था ।\३८।। जो कि, यह् व्रत सब फलोको देता है 1 इसके प्रभावसे उसे मोक्ष
निलगया ।\३९।। जिस जिस कामके उदशको केकर इस श्रेष्ठ ब्रतको कियाजाता हैः वह् वह उसे वदध
रूपसे मिलजाता है ।\ १४०।। इस् ब्रतको शिवने उमाको "उमाने कुमारको ।\४१।। कुमारने नन्विकेक्वरको, १ ८
उन्होन नि मी चाणोकी पापल लिये आदरे साथ किया था । ।४५।। सूर्य, चन्र, ओर इन्द्रके (| ५
ते इसे कहा । उन्होने भी सब सोभाग्यके देनेवाठे इस त्रतको फिया था ॥४६।। मेने क्यप जादि = `
लिये भी इसे कहा था उन्होने भी इसे किया ।१४७।। हे राजन् ! यच्यपि दुनियंमं बहुतसे ब्रत = `
व्रत जेसा कोई भौ त्रत नहीं है ॥४८।। इस कारण हे राजन् ! आप भी इसे प्रेमके साथ करे ।जो
शिवक्षेत्रमे भक्तिसे करेगा ।\४९।। उसके सब अर्थोकी सिद्धि होगी, इसमे सन्देह नही है किव बोले = `
यह त सुन राजा परम प्रसन्न हुभा ।\१५०।। परम दहौव गौतम ओर उनके पुत्र दोनोकी पुजाकी इसके `
पुजनाक्षक्रीडा
व क 4 ।
| व्रतानि}. | हिन्दीटीकासहित ( ८१७ ५ ) क 0
1 विति प प णण ६
¢ र ~~~ ~~~ 14. 4 ध ४
प्रधानत्वादरत्रिव्यापिन्येव कार्थ । स्कान्दअस्तिं कोजागर नाम (५
| व्रतानामुत्तमं व्रतम् ।। यत्कृत्वा समवाप्नोति लनुर्लोकाननुत्तमान् । पणमाह्व- `
| युनि मासे कौमुदी परिकौतिता ।। अथ क्था- ऋषय उचुः ।। कातिक्स्य उपा-
। खानि व्रतानि कथयन्तु नः ।! कृतेषु येषु भवति संपूर्णं का्तिकन्रतम् !! १।।वाल- `
| खिल्या ऊचुः ।।आदिवने शुक्छपक्षे तु भवेया चैव पूणिमा।।तद्रात्रौ पजनं कुर्या
। च्छियो जागृतिपूवेकम् ।
| चेष्टावलोकिनौ ।) तस्मे वित्तं प्रयच्छामि यो जागति महीतले ।! ४ । सवेथेव |
|
निशीथे वरदा लक्ष्मीः को जागर्तीति भाषिणी ॥ ३ ।। जगति ममते तस्यां लोक-
|
|
| ऋषय ऊचुः ।! वलितः प्रोच्यते कोऽसौ लब्धवाम्सय कुतो व्रतम् ॥! एतद्विस्तरतो |
ज्ञातीनां मुखदशने ।! धिगस्तु चेतदवि्ाया नि
बदति लोके तु न करोति पतीरितम् ॥। सडकत्पं स
॥ १२ ॥ विपरीतं करिष्यामि पावल्लक्ष्मीः प्रसीदति भतः पाषाणवबुद्धे त्वं
| ब्रूत वालखिल्यास्तपोधनाः 1\ ६ । वालसित्या अचुः ॥। ब्राह्मणा वकित नाम |
मागधः कुशसंभवः । नानाविद्यप्रवीणोऽसौ सन्ध्यास्नानपरायणः ॥ ७।॥
| ~ याचनं मरणं तुल्यं मन्यतेऽसौ द्विजोत्तमः । गृहागतं स गृह्ाति नान्यद्याचयतं
` क्वा नित्यं कलहकारिणी ।। मद्धगिन्यः स्वणे- =
ैप्यालडकारादिविभूषिताः ।\ ९ ॥ नानामाल्याम्बरधरा दरया देवाद्धना इव ॥
अहं दरिद्रस्य गृहे पतितास्मि दुरात्मनः ।। १० ॥ लज्जा मां वाधतेऽ्यन्तं
या निधनस्य कुलस्य च ।। ११ ॥ एवं
तपं एत्वानेकं यद्यभर्ता वदिष्यति
“ : {८१८} ` त्रतराज ध [ पूर्णिमा-
वैपरीत्येन भार्यां कार्य करिष्यति ।\ वकलितस्तु तथेत्युक्त्वा सायं भार्यामभाषत
॥। २३ ।\ अनथेकारके चण्डि परह्वः श्रादढधकं पितुः \\ न स्थापितं धनं यस्मान्मद्थ
वैस्तु पापिभिः ।॥ २४॥ तस्मान्न शीष पाकं त्वं कुर दृष्टे `
करोषि चेत् ।। ब्राह्मणा यं चूतकरा शौचाचारविर्बजिताः।। २५।। निमनत्यास्तं
त्वया भद्रे नोत्तमास्तु कदाचन ।। इति भतृवचः शरुत्वा संभारस्तु महान्तः ।\२६।।
निमंत्रितास्तु सद्विप्राः काले पाकः कृतस्तया । विपरीतेरेव वाक्यैः शराद्धं संपादित .
तथा ।। २७ ।। पिण्डदानं ततः त्वा भाय वचनमन्रवीत् \\ विस्मृत्य पिण्डान्नीत्वा
त्वं क्षिप गङ्धाजले शुभे ॥ २८ ।\ पिण्डान्नीतास्तथेत्युक्त्वा शौचक्पेव्यचिक्षिपत्
॥। तज्वज्ञात्वा वलितो दुःखी बभूवाकुलिताननः ।२९।। कोधादििनिययो गहात्स- 8
कल्पं कृतवानिति ।। लक्ष्मीयेदि प्रसन्ना स्यात्तदान्नं भक्षयाम्यहम् \\ ३० ।! ताव `
` ३8 ४ एको ध्म॑नदीतीरे वक्षवल्कलधारकः ।। भत्रि्हिनानि न्यवसदागता
तकन्वफलाहारो वनमध्ये 1साम्यहम् ।। इति संकल्प्य विघ्रः स॒ गहने निजने वने
:6ि षपुणिमा ।। ३२ ।! कालीयवंज्ञसम्भूता नागकन्याः सुलोचनाः ।। निवसन्त्यो
ते तस्मन्तरतं चक्रू रमाप्तये । ३३ ।\ इवेतीकृतं तु सुधया गृहं चनदरगुहोपमम् !\
मण्डलानि विचित्राणि नानापिष्टेः कृतानि च ।! ३४ । पञ्चामृतानि रत्नानि
1 द्पणाच्छादनानि च ।\ स्थापथित्वेन्दिरापूजा कृता ताभिः प्रयत्नतः \\ ३५ । `
एवं तु प्रथमो यामो बालाभिरनौत एवहि \!प्रारम्धं च ततो दतं वुं तास्तु न लेभिरे `
। ३६ ।। चतुभिस्तु विनाक्षाणां क्रीडनं नैव जायते ।। तस्मान्मृग्यस्तुरीयस्तु `
वचारयेवं वि वि विनिगेता ।\ ३७ ।। कन्यका तु नदीतीरे ददं वलितं द्विजम् \। ज्ञात्वा
॥ । , , ॥ ^
.. त्रतानि) हिन्दीरदीकासि |
| हन्वोटोकासहित (८१९)
ष ग ~~~ ताया ध ण 9
स ४ % वी #: 7. 1.
| ततः स्वीयं कलेवरम् ।! लापयिष्ये विनिश्चित्य ह्य पवीतं लाप सः\\ ४६।॥
` तार्भिजतं च तदपि शरीरं लापितं स्वकम् ।। ततोऽधरात्रे सञ्जाते लक्ष्मीनारा- `
यणावुभौ ।। ४७ ।। आगतौ लोकचरितं ्रष्टुं॑विप्रददर्तुः १। व्युपवीतं विकौपीनं
८ ष | ` चिन्तया विवज्ञीकृतम् ।\ ४८ ।। उवाच वचनं विष्ण ष्युण् त्वं पद्यलोचने \ तव॒ ह
। ब्रतकरो विघ्रः कथं जातः सचिन्तकः ।। ४९ ।। तस्मादेनं कुर क्षिप्रं लक्ष्मीबन्तं `
. सुखान्वितम् ।। इति विष्णुवचः श्रुत्वा पञ्चायासौ कटाल्ितः ।! ५० ।। बालाचित्त- `
` हरो जातस्तत्कालं मदनोपमः ।! ततः कामेन संविद्धास्तास्तिस्रो नागकन्यकाः `
॥ ५१ ॥। विघ्राय वचनं प्रोचुः श्युणु विप्र तपोधन ।। यद्यस्माभिनितस्त्वञ्चेःू- 9 न
` रतास्माकं वचाऽनुगः ।। ५२ ।\ वयं त्वया निजिताश्चे्ययेच्छसि तथा कुर ।\ इति `
` तद्रचनं शवुत्वा तथा मेने स च द्विजः ।\ ५२३ ॥! कौडनात्ताजिता : कन्या गान्धर्वेण ¦
` विवाहिताः । तासां रत्नानि ताश्चापि गृहीत्वा स्वगृहं ययौ \! ५४ ॥ प्राप्तं `
चण्डी तिरस्कारान्मयेदं भाग्यमुत्तमम् ।॥ तस्मात्संमानिता चण्डो सापि प्रीता
| बभूव ह ।! ५५ ।। चकार स्वामिनहचाज्ञामित्थं लक्ष्मीव्रतं त्विदम् ॥ बहुरात्नि-
। व्यापिनी या साच्र पुर्णा वि |
` तस्थितम् ।\ उपवासं प्रकुर्वीत दीपान्दयाच्च भक्तितः ।\ ५७ ।। लक्षं तदधमयुतं `
1 (८ सहस्रं शतमेव वा ।। घृतेन दीपयेदीपान् तिलतैलेन वा ब्रती ।१ ५८ ॥ रात्रौ `
शिष्यते । ५६९ ।! "तत्राराध्य महालक्ष्मीमिन््र
व्चेराव- `
(1. बरतराज [ पूणिमा- `
लक्ष्मीपूजन ओर पाशोका खे प्रधान है इस कारण इसमें रानि व्यापिनीही करनी चाहिये । (त्रतराजने
सामान्य रूपसे कहदिया कि, रात्रिव्यापिनी होनी चाहिये; कंसी राक्रिव्यापिनी हो इसके विषयमे जर्यासह्
कत्पद्रुमने लिखा है कि, प्रदोष ओर निक्षीथ दोनोमें व्याप्त रहनेवाखी यानी प्रदोष (सायंकाल ) तथा आधी
रातके समय मौजूद रहनेवालो हो । ये सब बतं रात्रि व्यापिनीके पेटमें आजाती हँ । ध्मसिन्धुमे लिखा है
` कि, यहु निक्ञीथव्यापिनी हौ यदि पहिले दिन मिक तो उसी दिन यदि दूसरे दिन भिरे तो इसरे दिन करना
` चाहिये । यदि दोनोही दिन निशीथव्यापिनी अथवा दोनोही दिन न हो तो पराकाही ग्रहण होगा । ज० कु°
` _ द्रुका० कहते है पहिले दिनकी निशीथव्याम्तिको छोडकर प्रदोषव्याप्तिकी पराही केखीजाती है, यह
कथित अक्रोकी व्यंजना लिखते हँ किन्तु धर्मसिन्धुकारने केचित्तु' कहकर इस पक्षसे अरुचि विखाद है । ` ` ,
जिन हैतुमोसि बर ने भादि पणिमा परालेली है उन्हीं हैतुओसे निणंयसिन्धुकारने भी पराही ली है ओरोनं
पराके ग्रहुणकी परिस्थितिका विचार करडाला है). स्कन्दपुराणमं किला हुजा है कि, एक सवे श्रेष्ठ ब्रत ` ध
कोजागर है जिसको करके साधारण प्राणीभी उत्तम छोकोको पाजाता है ! आस्विनमासकी पूणमाको
कौमुदी कहते हँ । कथा--ऋषिगण बोखे कि, कातिकके उपाङ्कव्रतोको किये जिनके क्येसे काक्का
ब्रत परा होजाता है ।।१। वालखिल्य बोरे कि, आदिवनके शुदलपक्षमे जो पणम हो उस रातमे जागरणके' 1
साथ, लक्ष्मीजीका पूजन करना चाहिये ।\२। नारियलके पानौको पीकर पासोका खे खेलना चाहिये,
` सातम वर देनेके ल्य लक्ष्मी दूती है कि, कौन जागता है ।\३।। बह संसारे मनुष्योंकी चेष्टा देखती `
हई घूमती है कि, जो जग रहा हो उसे धन दू ।\४।\ दरिद्रसे उरनेवाले सभी लोग इस व्रतको करे, इस व्रतके
प्रभावसे बल्तिभी ज्यादा धनी होगया था ।\५।} ऋषि बोले कि, कौन वलित, उसे कहांसे घन मिला
तपोधनोवालखिल्यो ! इसे विस्तारके साथ कहौ ॥\६।। वालखिल्य बोले कि, कुशसंभव मगध देशका एक
चिम्तासे उद्विग्न रहकर किसं
मे कंसे भाद्ध करू, मदे यह् चिन्ता है । गणपति बोला
` देना हे भत्रे ! उत्तम गं कोतो
वलितनामका ब्राह्मण था, वरह अनेक विद्याओंमें प्रवीण तथा सन्ध्यास्नानमे तत्पर रहता था 11७11 बह
हतौ फिरती थी, पर पतिके के को नहीं करती थौ, उसने संकल्प किया कि, जो पति कहेंगे ।\१२।। क ; +
जबतक धन न सानेगे विपरीतही करूगी । एकदिन बोल किह पत्थरकीसौ मोरी बुद्धिवारे पति देव ! राजकरे `
षा खातीही नही कभी खाने लगती तो बहुतसा लाजाती ।।१४।। कभी शिर ठोकने लगती, इस `
तरह पतिको बडा क्ले देती । मांगनेके दुखसे उरकर उस ब्राह्यणने उसके सभी स्त्रीचरित्र सहलिये ।\१५।॥ ` `
कुछभी नहीं कहा किन्तु जो मिलजाता था, उसौसे प्रसन्न रहता था, पर एकवार वह॒ भाद्धयक्षमे अत्यन्त =
भा 1 १६। कि, इस साल घरमे सब सामग्री है ! परन्तु यह मेरी स्त्री कुछ न करेगी ॥१७।॥
त दि किससे नही बोला । इतनेमे एक मित्र आगया ।1१८।\ बह बोला कि,हे वल्ति!
त्तमे चिन्ता क्यो है ? यदि शुन्ने बता ३ तो मे अपनी बुद्धि बरसे तेरी चिन्ता हटा ठृगा ॥१९।।२०॥ `
कि पक्षम मेरे पिताका श्राद्ध आगया है, घरमे सामानभी है, पर स्त्री उलटा करती है `
वरतानि 1 = हन्दीटीकासहित (८२९)
(~ बहु सब सीधा किया; इस तरह श्राद्ध संपन्न होगया \\२७।। पिण्डदान करके स्त्रीसे बोला कि, आप पिष्डोको `
। ` भूर गई इन्हे गंगाजीमे पटक आये ।।२८।॥ बलिताकी स्त्रे पिण्डोको उठाकर लौचके क्षमे पटकदिया |
| अह जान, बलितको बडा कष्ट हुआ ।२९।। क्रोधे आ घरसे निकलकर इस संकल्पसे चला कि, अवम
। लक्ष्मीक प्रसन्न होजानेपरही भोजनं करूगा ।\२३०।॥। तबतक कन्द मूल लाकर वन्ेही रहूंगा, वह गहन `
। निज॑न नमं \\३१।। अकेला वुक्षकीं वल्कल पहिनिकर धर्मनदीके किनारे तीस दिन रहा उसे इषकी पणिमा
| ४ अगर ।\३२।। वहां कालोयके वंलकी सुनयनी नाग कन्याएं उसी वनमें रहकर लक्ष्नीके किए व्रत कर रही
| थँ ।\३३।। अच्छे कपडे पहिनकर चन्द्रमाकौ तरह घरको सफेद बना रखा था ।२३४।। पञ्चामत, रतन,
|
|
` दर्पेण, आच्छादनकर उन्होने सावधानीके साथ लक्ष्मीकी पुजा कौ ।\३५।। पहिला पहरतो परजाम बिता `
( दिया फिर जञा खेलना प्रारभ क्रिया किन्तु उन्हं चौथा खिलाडी न मिला ।३६।। चारके विना जञा नही
। होता इसकारण सोच विचार कर चौथेको दूंढने चर दीं ॥।३७।। उन कन्याओंने नदीके किनारे वक्ति `
। ब्राह्मणको देखा मुखकी आकृतिसे जान किया कि, यह सज्जन है ।।३८।। उसे देख कन्याओने पृछाकि,आप
0 ` कौन हं ? आं लक्ष्मीको परम प्रसन्न करनेवाले जएको खेले ।\३९।। इस प्रकार उने वचनोको सुनकर 1
५ बतं
वलति बोला कि, दयूतसे रक्ष्मौ क्षय ओर धमेका नाल होता है ।\४०। वया मुग्धोकी तरह बोलती हैकि, `
| लक्ष्मी प्रसन्न होती, कन्या बोली किं, बोलते पंडितोकी तरह तथा कसं आपके मूखोकिमे हे ।।४१। इस मासकी `
(4 ` पणिमाके दिन जूृएसे लक्ष्मी प्रसन्न होती जूमा खेलकर लक्षमीके तमासे देलना \\४२।एसा कहकर उसे वहं
खेलनेके किए अपने मंदिर लगड भक्ष्यं आदि तथा नारियल्का पानौ देकर ।४२।। लक्ष्म प्रसन्नहो यह |
| करर ज्ञआ प्रारंभ किया, कन्याओने रत्न लगाये ब्राह्मणे ।।४४।\ दावपर अयनी कौपीन लगादी, उन्होने |
उसे जीत लिया, ब्राह्मण गस्सेमेआकर सोचने गा कि, व्याकर ।\४५।। अपना जनेऊ लगाकर पौरे अपने ।
` हारीरको लगा दृगा एेसा शोच जनेड रगा दिया ।।४६।) जब उन्होने जनेऊ जीतकल्िया तो अपना शरीर
लगा दिया । इसके माद आधौरातके समय लक्ष्मी नारायण दोनों ।\४७।। संसारके चरित्रको देखने आये
८ ध ५ नागकन्याएं बोली किं, ।५१।। हे तपोधन विप्र ' पक क
` हमारे अन॒क्ल चलो ।\५२।। क्योकि तूने भी हमं उ ५ जीत लिया
(८रर) 1 „वराक: [णा
५ च्रिपुरोत्सव | ५
अथ कातिकपौर्णमास्यां त्रिपुरोत्सवः ।। स च प्रदोषव्यापिन्यां कयः ॥
अथ कथा-वालखिल्या उचः ।। कातिक्यां पौणमायां तु कुय्चिपुरमुत्सवम् ।। `
दीपो देयोऽवक्यमेव सायंकाले शिवालये \\ १ ।। त्रिपुरो नाम देत्येन्रः प्रयागे तप॒
आस्थितः ।। लक्षव्षं ततस्तप्तं त्रैलोक्यं सचराचरम् ।\! २ ।! तत्तपस्तेजसा
कग्धुमारन्धे भुवनत्रये ।\ नानादेवाङ्कना देवेः प्रेषितास्तं विमोहितुम् ।॥\ ३ ॥
`. न तासां वशगः सोऽभुद्धषणेश्चापि घषितः ।! न कोधमोहलोभानां चहो देत्योऽ- `
स्यजायत ।\ ४ 1) वरं दातुं ययौ ब्रह्मा नारदादिभिरन्वितः \। ब्रह्मोवाच । वरं
वरय भद्रं ते सन्तुष्टोऽ्टं पितामहः ।\ ५ ॥ तपसस्तु फले सिद्धे कःक्लेशं कुरुते
जनः ॥। त्रिपुर. उवाच ।\ अमरं कुर मां ब्रह्यन्करोमि ह्यन्यथा तपः ।\ ६ ॥\ दतुं
शक्तोऽसि चेद्बरह्मन्यथा गच्छ सत्वरम् । ब्रह्मोवाच।।मयापि बाल मर्तंव्यमित-
रेषां तुका कथा \\ ७ ।। अवश्यं देहिनां मृत्युः संभाव्यं याचयस्व मे ।\ त्रिपुर
उवाच ।।! न मे सूत्युदेवतामभ्यो मनुष्येभ्यो निशाचरात् ।! ८ । नस्त्रीभ्यो नच
रं रोगेण ददनं वरमुत्तमम् ब्रह्मापि च तथेत्य
थेत्युक्त्वा सत्यलोकं जगाम सः । ९।॥
एनं लब्धं वरं ज्ञात्वा नानादेत्याः समाययः ।। तान्देत्यानागतान्दष्टवा आज्ञापयत `
दानवान्।\१०।।अस्मद्विरोधिनो देवा हन्तव्याः स्वं एव हि।नो
देवतानां सम ता
नो चयानि च रत्नानि
पतः । ११।। गृहीत्वा तानि सर्वाणि कवन्तूपायनं मम ।॥
इत्याज्ञां तस्य शिरसि कृत्वा ते सर्वराक्षसाः ।\ १२ ।। देवान्नागांश्च यक्षांश्च `
धत्वास्याग्रं ्यवंडयन् \¦ प्रणस्य सवदवास्ते† त्रिपुरं परं च व्यजिज्ञपन् ।। १३ ।। गृह्यतां 1
दैत्यराजेन्र यदस्माकं भविष्यति ।। वयं छत्व
॥। १४ 1 इति शनत्वा वचस्ते
चक्रे वश्याः सहर ।। १५ ।। एवं भास्करमृत्सुज्य सवे देवास्तदाज्ञया ।। चक्यं- द |
किमिदानीं निगद्यताम् ॥ २११ `
गता कि नु नारद । सया प्रस्थापिता *
त्रिपुर उवाच ।! सर्वस्थानेषु मे कीि
कृत्वा तु ते सेवां जीविष्यामो यथा तथा
चस्तेषामधिकाराच्च्युताः कृताः ।! तेषां स्त्रियः समानीय `
व्रतानि) हिल्दीटीकारहित (८२३)
. दैत्याः सवे एव इतस्ततः 1! २२ ॥! नारद उवाच ।। थो यत्र च गतो दैत्यो जातस्तत्र `
विभुः सहि ।\ तव नामन गृह्णाति वक्ति च स्वपराक्रमम् ।॥ २३१ इतिश्वत्वा
सूरने्वक्यं सद्य एव हि दारुणः ।। कोधस्तस्य महाञ्जातः कि कर्तव्यं मयाधुना = `
। ॥ २४ ॥। विश्वकर्माणमाहूय वाक्यमेतदुवाच ह । दीष कुर त्रिधातनां विदव-
। क्मेन् पुरत्रयम् ।। २५ ।) विमानतुल्यं यत्रेच्छा तत्र तच्च गमिष्यति ।! इतितस्य `
वचः श्रुत्वा त्वष्टापि च तथाकरोत् ।\ २६ । रूपत्रयं समास्थाय त्रिपुरेषु समा-
| शितः \} नारदस्य तु वाक्येन देत्या बन्दीकृतास्तदा । २७ ।! पुरेणेकेन पातके ` 1
रमते त्रिपुरासुरः \\ स्वर्गे चापि पुरेकेन धरण्यान्यटते पुरा ।२८॥। कांषचित्सन्ता- = `
उयत्थेवं संमारयति कानपि । ददाति केषां स्वामित्वं स्वेच्छाचारी महाबलः `
। ॥ २९ ।। तेनेत्थं पञ्चलक्षाणि सर्वलोका उपद्रताः \। तदा देवान्तमागम्य नारदो `
। वाक्यमब्रवीत् ।। ३० ।। नारद उवाच ।। पराक्रमं तु ते धिग्भो देवेन क्व गतास्ति
धीः ।। विचारयन्तु भो देवा वधाय श्रिपुरस्य च ।। ३१ ।। इत्थं मुनिवचः भत्वा
। सलज्जोऽभूदधोमुखः ।। पुनस्तं नारदः प्राह ब्रह्माणं शरणं ब्रन ॥। ३२ ॥ तत॒
उत्थाय देवेन्द्रो गृढो देवगणैः सह ।! नारदेन समायुक्तः सत्यलोकं जगाम स॒
। श्लासनात् ।। इतीन्द्रस्य वचः शरुत्वा ब्रह्मा सेनद्रो
।\ ३३ ।। तत्रापयत्स धातारमुवाच करणं वचः ।। इन्द्र उवाच ।\ घातरस्मद्गति- `
रस्ति हननीयास्त्वया वयम् ।\! ३४ ।! नासाग्रसथिताः प्राणास्त्रिपुरस्य तु
न्धो मनीदवरः।। ३५ । म्रक्तो वेकुण्ठ- `
| सगमद्यत्रास्ते मधुसूदनः \\ तत्र गत्वा महाविष्णु प्रणिपत्य स्थिताः सुराः।३६।
। अनुगृहीता दक्पातात्त ब्रह्मा वाक्यमब्रवीत् ।, ब्रह्मोवाच ।। भगवन्देवदेवेश देवा- `
| पत्तिरि विनाङान ।\ ३७ ।। त्रिपुरासुरनि्देग्धान् कि देवास्त्वमुपक्षसे ।। विष्णुरुवाच ।। ` ८
।
| ^ त्वयेव नारित ब्रह्मन् न् दत्ता नानाविधा : १ वराः |! २३८ ।। देवादिभ्यः कथं तस्य
ययुः ।। ४६ ।\ देवदेव महादेव दृष्टदेत्यनिबहण \। त्वामेव शरणं प्राप्तास्त्रिपुरेण
प्रपीडिताः.\\ ४७।। शिव उवाच ।। बरह्यंस्त्वया वरो दत्तो ह्य न्मत्तो सोभवत्ततः ।। `
भ्रददासि वरं कस्मात्पुनर्मारयसे कुतः ।\ ४८ ।! मदीयं नाशितं नव कस्माहध्यो
महासुरः ।। इति श्द्रवचः शरुत्वा हताश्चास्ते चुरास्तदा ।! ४९ ।! विषण्णास्तान्'
` सुरान् दष्ट्वा विष्णुवंचनमन्रवीत् \! विष्णुरुवाच ।\ त्वया प्रतिज्ञा लोकानां
पालनाय सदाक्गिव ।। ५० ।। कृतातस्त्वां समायाताः शरणं सवदेवताः ।! मया ५
नानाविधं दुःखं ्ियते तु सदाशिव ।। ५१ 1 एतहू खं मया शक्यमपनेतुं यतो
नहि ।। अतस्त्वां याचयाम्यद्य देवान्बन्धाद्विमोचय ।! ५२ ।) शिव उवाच 11 त्व
वाक्यं करिष्यामि सामग्री नास्ति मे हरे ।॥ सममापराधरहितं हनिष्यामि न दान-
घम् । ५२३ ।! विष्णुरुवाच ।। सामग्रीं हि करिष्यामि सं्रामार्थं सदाशिव ।॥
करिष्यति कथं दैत्यः शम्भोरन्यायमेव सः ।! ५४ ।! इति विष्णवचः श्रुत्वा हा
कष्टमिति चानरुवन् ॥ अत्रागतांश्च सोस्माग्हि श्यणुयाच्रिपुरासुरः । ५५ ॥
न विलम्बं मृतौ कुर्यात्किमिदानौं विधीयताम् । सुरान्म्लानमुखकन् दृष्ट्वा नारदो `
वाक्यमन्रवीत् ।! ५६ ।\ नारद उवाच ।। सामग्री क्रियतां श्ीघमायातित्रिपुरा-! |
जाता हयं ५ ततमाः ।! विधाता सारथिर्जातः पताका च दिवाकरः ।। ६१।। आतपत्रं
5
` च चनदरोऽभूद्गणेशाद्याः पदातयः ।\ ततो वेगात्समुत्पत्य नारदस्त्रिपुरं ययौ ॥\६२।॥
ष्ट्वा नारदमायान्तं सत्कारेरचंयच्च तम् ॥। सूने पुराणि मे प्य ह्यजेयानि `
सुरासुरेः ।। ६३ ॥। त्रैोक्ये चाधुना जातं त्वत्कृपातो यश्लो मम ।। इति तस्य वचः `
वा ललाटं कुटरयन्मुनिः ।। ६४ ।। तृष्णीमासीदधसित्वेतदवलोक्यासुरोऽब्रवीत् !॥ `
जिपुर उवाच ॥। किमथमीदृश्ौ चेष्टा मुनं चाद्य कृता त्वया ।! ६५ ॥ मद्धाग्य- 1
` तीनि]. हिन्दीटीकासहित
(८२५)
॥ ७० ।\ विह्ातिसप्तातकसहिता दीपवर्तयः ।। ददहीयं पौणमास्यां सर्वपापैः 0
प्रमुच्यतं ।\ ७१ । पौणमास्यां तु सन्ध्यायां कर्तव्यस्त्रेपुरोत्सवः \! दद्यादनेन `
` मन्त्रेण प्रदीपाश्च सुरालये ।! ७२ ।\ कीटा पतङ्धम मशषकाश्च वृक्षा जले स्थले `
ये विचरन्ति जीवाः । दृष्ट्वा प्रदीपं न च जन्मभागिनो भवम्ति नित्यं स्वपचा हि `
विप्राः ।1 ७३ \\ का्यंस्तस्मार््पौणसायां त्रिपुरस्य महोत्सवः ।। कात्तिकयां `
कृतिकायोगे यः कुर्यात्स्वाभिदज्ञेनम् ।। ७४ । सप्तजन्म भवेष्िमो धनाढ्यो वेद- `
पारगः ।\ कातिक्यां तु वृषोत्सगं कृत्वा नक्तं समाचरेत् ।। हेवं पदमवाप्नोति क
शिवव्रतमिदं स्मृतम् ।। ७५ ।। इति सनत्कुमारसंहितायां कार्तिक पौणमास्यां च
त्रिपुरोत्सवदीपदानं संपुर्णम् ।\
च्रिषुरोत्सव--कालिक पौणिमासीके दिन होता है, इसमे पूणम प्रदोषव्यापिनी लेनौ चाहिये क्योकि । |
इस उत्सवका विधान सायंकाले समयमे है मोर कार्ययकालव्यापिनी तिथि ग्रहण करनेका सिन्त है। = `
. कथा--बालखिल्य बोरे कि, कातिककी पणिमाके दिन त्निपुरोत्वल करे, सायंकालमे शिवजीके मन्दिरमे `
` दीपक जोडे \\१।। तरिषुरनामक दैत्य प्रयागमे तप करता था, उसने एक लाख वषं तप क्रिया जिससे तीनो `
लोक तपकर उसके तेजसे जलने रगे, उसे मोहनक तिये देवने अनेको देवांगनाएं भेजी ।२।।३। न उसके = `
वामे हुजा एवं न उरायेसे उरा, न कोध मोह जौर लोभके हौ वमे आया ।\४। नारदादिकोके साय ब्रह्माजी = ` |
उसे वर देने पचे, बोरे कि, मे ब्रह्य तेरे तपसे प्रसन्न होगयाहूं वर माँग ।\५॥। तपके फलकी सिद्धि मिल- ` |
जानेपर कौन वले करता है, बह सुन चिपुर बोला कि, मुन्ने अमर कर दीजिये नहीं तो फिर भी तपकरना = |
शुरू करता हूं ।\६।। यदि देनेकौ शक्ति है तो यहं वर दो नहीं तो जल्दी ही यहांसे चले जाओ } ब्रह्माजी ^ |
बोलेकि, हे बालक ! एक दिन मे भी भर जागा दूलरोकौ तो बात हौ क्या है।\७॥। श्रीरधारौ सब एकन |
एक दिन अवय मरते हे, उचित वर मोग, त्रिपुर बोला कि, मेरी सोत देवता, मनुष्य, निशाचर }\८\। (1
स्री जर रोग किसीसे भी न हो, एेसा ही होगा; यहं वर देकर ब्रह्माजौ सत्यलोकको चले गये ।\९॥। लब ~ |
` दैत्योको इस बातका पता रगा तो सब इराके पास आगये, उनको त्रिपुरने अन्ना दी ।\१०।। कि हमर |
विसेधी शच देवम हो ।॥ ११।। उन्हुं उनसे छीनकर
मेरी भैटकर दो, उसकी आतजञा मान वे राक्षस ।\१२।) देव, नाग ओर यक्षोको अगाडी घरंकरं तरिपुरके पास
` लेजाये, देव सब हाय जोडकर बो कि ।११३।। हे राजन् ! नो हमारे पास है उत्ते आप लेले, हम तो आपकी
(८२६ ) ५१ ब्रतराज क 1. ॥ ~ ५ पूणिमा~
चला जाय, स्वष्टाने वंसेही तीन पुर बनादिये ।२६।। वह तीन रूप धर कर तीनो पुरोमे रहने कगा, नारदके
वचनके अनुसार उस्ने सब देत्योको कंद करदिया \\२७।। बह एक पुरसे पाताल, एकमे स्वर्गं तथा एक्से
भूमिपर विचरता था \\२८।। वह स्वेच्छाचारी महाबली किसीको उराता धमकाता तो किसीको भारता
एवं किसीको राज ३ देता था ।\२९।। इस प्रक र पाँच लाख वषं उसने सथ लोकोंको तवाहं किया, उसं समय
देवोके पास आ नारदजीने कहा ।१३०।। कि, तुम्हारे पराक्मको धिक्कार है तुम्हारी बुद्धि कहां गई ? अरे
देवो ! त्रिपुरके मार डाखनेकी सोचौ ।\३१।। इन्द्र यह् सुन कञ्जाके भारे नीचा मृखकर बेठ गया; तब फिर
नारद बोखे कि, ब्रह्माजीकी शरण जमो ।\३२।। इन्दर उठ च्पचाप देवगणोके साथ नारदजीको साथ ङे
सत्यलोक चल दिया ।\३३।) वहां ब्रह्माको देखतेही करुण श्ब्दोमे बोखा कि, है ब्रह्मन् ! अब हमारी कोई `
गति नहीं है, जाप हे मारडाल्िये । ३४ नरिपुरके आातनसे नाकके आगे जान अगाई है, इद्रे वचन `
(. सुन ब्रह्माजो इन्द्र ओर मृनीदवरोको साथ ले ।३५।\ वकुण्ठ पहुचे जहां कि, मधुसुदन विराजा करतेहैः _
वहां पहुंच सव देवने भगवान्को दण्डवत्कौ भगवान्ने कृपादृष्टिसे उन्हे देवा, पीछे ब्रह्माजी बोले कि, हे क
भगवन् ! आप देवदेवोके ई हो, आपी हमारी विपत्तियोके नाक हो ।३६-२७।। त्रिपुरे जलाये हुए... |
देवताओंकी आय क्या उपेक्षा करते हैं ? विष्णुभगवान् बोले कि, तुमनेही दे्वोका सत्यानादा किया है, अनेक 1 |
तरहके वर दे डालते हौ \।३८।1 वह देवोसे कंसे मर कसता है, मेरे मनमे उसकी मौतका विचार नहीं आता = `
॥१३९।। कोई उपाय हौ तो, केसे कर, विष्णु भगवानूके वचन सुनकर सबकी बुद्धि कुण्ठित होगई ।\४०।।
` जबवे दुख न बोल सके तो नारदबाबा मोठे क्रि, मेँ उपाय बताता ह इखी न हों उसे करे।\४ १।। मेने सृष्टिके
` बौच एक एसा देला है जो न तो देव है ओर न मनुष्यही है ! न वहु राक्षस, दैत्य, भत, पिशाच ।\४२।। न 1
स्रौ, पुरुष, जड पंडित ही है, न उसके तात, मात, भगिनी ओर श्राता ही हँ ।४३। न उसके सन्तान हीह, = |
वहृहौ इसे मार देगा । ब्रह्माजी बोल उठे कि, कोई एेला है यह सत्य कहते हो वा शूठ कह रहै हो ॥४४।॥ ˆ `
ब्ह्माके बचन सुनकर भगवान् बोर कि, वह॒ तीनोलोकोका कर्ता वृषध्वज महादेव है ॥॥४५। हे ब्रह्मन्! `
उसे कसे भूल गये, वह तुम्हारा कार्य करेगा ! एेसा कहनेपर बे सब शिवजीकौ शरण पटुचे ।।४६।। है देवदेव ! |
है महादेव ! है दृष्टदेत्योके मारनेवाकत ! हम तिपुरके सताये हृएु जापको शरण अधे हैँ ।॥४७॥ शिवजी `
` बोले कि, है ब्रह्मन् ! आपने उसे बर दे दिया इससे बह उन्मत्त होगय। है, पहिले तौ वर दे देते हो,फिरमारनेकी
चिन्ताकरतेहौ सो क्यों ? ।।४८॥ क्या मेरा उसने विगाडा है जो भें उसे माहं ? ख्रके इन वचनोको सुनकर `
सब देव हतादा होगये ।\४९।। उन सुरोको दुली देख विष्णू बोले कि, है सदारिव ! जपने छोकोके पाल्नेकी `
अरतिज्ञा।\५०।\ कौ थी । इस कारण ये सथ देवगण आपकी श्ञरण आये हे, हे सदाकिव ! मे इनके अनेक ` `
। तहरके दुखोको भिटातां रहता हं ।।५१।। पर यह दख मेरे मिटानेका नहीं है । इस कारण जापको याचना ` छ
करताहं कि, देवको बन्दिसे चटा दीजिए ।\५२।। शिव बोले कि, मे आपको बातको तो पूरी कं परमेरे `
पास सामग्री नहँ है 1 सरे मेरे निरपराधक्ो मे मारं भ कँसे ? ।\५३॥। विष्णु भगवान् बोले कि,मेसब
सामग्री इकट्ठ कर दूंगा चह् दैत्य इसी तरह कंते अन्याय करेगा १।५४।। विष्णुकते वचन सुनकर देव बके ` ॥
कि, बडे कष्टका समय ह । यदि त्रिपुरासुरको हमारा पता होगया तो ॥५५। वह हमारे मारनेमे देरन `
करेगा, हम क्या करे, सुखे मुख हए देवताओं थे वचन सुनकर नारदजौ बो ॥५६।} कि, जल्दी तयारी
कीनिषए त्रिपुरासुर आ रहा है विष्णुको भगा देव कटेगा कि, ख कहां है ? ।५७॥। किव बोरे कि, मेते ` |
सकः ५ क्या बिगाडा ह ? जो मेरे यहां आयेगा ओर मुश्से युद्ध करेगा । यदि बह ठेस करेगा, तो मेयुद्ध `
क क 9 |
| कत ६६ सरन नारद यह चकर 8 रके ष के पास पहुचे
: है मुनिराज ! मेरे पुरोको देखिए इन्हे सुर असुर कोई
| {2 1 1 0 ^
व्रतानि) हि्दीटीकासहित . (<८२७) `
५ बोला कि, आपने इस समय एेसा क्यो किया ? ॥ ६५।। यदि मेरे भषटयके बराबर किसौका भाग्य हौ तो ध | ।
बतादीजिए्, नारद बोले कि, हे दैत्येन ! मे कलास पहुंचा "वहांका वैभव सुन ।६९॥। मे महदिवके एेव्वर्यको
क्या कहूं † उसक१ सौवां क्या लाखवां भाग भौ तेरा भाग्योदय नहीं है, नारदके वचन सुन उन्हं तो विदा ` 1
किया।\६७।।अाप असुरोकौ सेना लेकर कैलासपर चठ दिया,तीनदिनतक देवोके साथ घोर युद्ध किया॥॥६८।। = ।
पौ शिवजीने एकही बाणसे त्रिपुरको भारदिया, कातिककी पूणेमासीके दिन जब देवोने शिवकी प्राना ।
कौथी ।\६९।। उसी दिन देवोन शिवके लिए दीपक दिये थे \ इस कारण इस दिन दिवजीकी प्रसघ्नताके ` `
किए अवश्य दीपदान करे \७०\\ जौ शिवजीके लिए सातसौ बीस वत्तीका दीपक देता है वह सबपापेसि `
` षट जाता है ।\७१।। पुणेमासीके ससके समय च्रिपुरोत्सव करना चाहिए । देव मंदिरपर इस मन्त्रसे दीपे `
दे ।॥७२।) कौट, पतंग, मशकवृक्ष, जलचर, थल्चर ये सब दौपकको देखकर फिर दुबारा जन्म नहींर्ते
| तथा श्वपच भौ ब्राह्मण बन जाते हुं ।(७३।। इस कारण पूणिमाको त्रिपुरका उत्सव करना चाहिये । स्वामि- 1
कातिकके ददन-जो कातिककौ कृत्तिकाके योगम करता है ।\७४।। वहु सात जन्मतक वेदका जाननेवाला `
धनाढेय ब्राह्मण बन जाता है \ चुषोत्समं ~ जौ कतके करता है, नक्त व्रत करता है । बह शिवपद पाता
है क्योकि *यह् क्िवनव्रत ह ।\७५।। यहं श्री सनत्कुमारसंहिताका कहा हुमा पौणिमासीके दिन त्रिपुरोत्सव ` `
ओर दीपदान पुरा हुआ ॥. ^
0) ध अथ कातिकमासोद्यापनम् ` | 4
। बालखिल्या ऊचुः \\ अथोजंव्रतिनः सम्यगुद्यापनमिहोच्यते ।! कत उद्यापने
साद्ध व्रतं भवति निश्चितम् ।\ ऊजंशुक्लचतुदेश्यां कुयड्द्यापनं ब्रती \। तुलस्या
` उपरिष्टात्तु करर्यान्मण्डपिकां शुभाम् ।। तुल्सीमूल्देशे तु सवेतोभद्रमेव च ।
९ तस्योपरिष्टात्कलदां पञ्चरत्नसमन्वितम् ।। पूजयतत देवेशं सोवणं गवनुक्षया ।! | ५; |
रात्रौ जागरणं कुर्थाद्गीतवा्यादिमद्धलेः ।॥ ततस्तु पौणमास्यां वे सपत्नीकान्
दिजोत्तम तरिशन्मितानथेकं वा स्वशक्त्या विनिमन्त्रयेत् ।॥ अतोदेवा `
इति द्वाभ्यां होमयेत्तिल्पायसम् ।। ततो गां कपिलां दद्यात्पुजयेद्विधिवद्गुस्म् ।॥ `
॥ एवमुद्यापनं कृत्वा सम्यण्ब्रतफलं लभेत् ।। *परा तु पौणिमास्यत्र यात्रायां पुष्करं १...
॥ 4 ५ च ।। वभ्रान्दत्त्वा यतो विष्णुमेत्स्यरूपं 9 ¦ । हत उ प्त त श्य त न
। स दारिव्यमाप्त॒यात् ।। का क्य तक्यां गं क ं ह ततकायोगे यः कृयत्स्वामिदद्रनम् }। सप्तजन्म
६. - न व
(र) परतरा: ( पूणिमाहः
| कातिकमासका उद्यायन--बारुखिल्य बोले कि, अब कातिकमासके व्रतियोको उद्यापन कहते हं
उद्यापन करलेनेसे त्रत पुरा हौजाता है । कर्णतक शुक्ला चौथको उद्यापन करे, तुलसीके ऊपर एक सुन्दर `
` ण्डय बनादे, उसके मखदेशमे एक स्वतोफद्र लिखे, उसके ऊपर विधिपूर्वक कलन्ञ स्थापित करे, उसमे
पंचरत्न डाले, उसपर सोनेके भगवान्को गुरकौ आज्ञा लेकर पुज, मागलिकगाने बजानेके साथ रातको जाग- `
` रणं करे, पु्णमासीके दिन सपत्नीक तौस या एक ब्राह्मणको अपनी शक्तिके अनुसार न्योता दे । “अतोदेवा, `
` इंदविष्ण" दनं दो अंन्रीसे ति खौरका हवन करे, कपिलागऊ दे, गुहको विधिपुवेक पुजे, इस प्रकार उद्यापनं
करके ब्रतका फल पजाता है \ इस परणमासीमें पुष्करकौ यात्रा सर्वशेष्ठ है क्योकि, इस पणिमाको वर `
। . देकर भगवान् मत्स्य जनगये थे, उसमे दिया दान हवन जय सज अक्षय होनाता है, कातिककी पूर्णमासी
दिन् प्रदोष कालम विष्णु नौराजन करे, है राजन् ! वह दरिद्री नहीं हता जो कातिकमें इत्तिकानक्षत्रमे `
स्वामिकातिकके दक्ञेन कररता है वह वेदवेदान्तके जाननेवाला घनी ब्रह्मणः बन जातादहै\
कर्तिके महीनामे इन ब्रतोको करे, इस लोकम अपने शरीरको क्लेद देकर उत्तम फलका भागी होजाता
है । विष्णु भगवानृको सन्तुष्ट करनेवाछा कातिकके बराबर कोई भौ मास नहीं है, क्योकि थोडे क्लेश्से
विष्णुलोककी प्राप्ति कोई दूसरा नहीं करासकता । सनत्कुमार बोले कि" इस प्रकार नेमिषारण्यमें वार्खि-
व्रता
जन्मान्तरे च अखण्ड सौभाग्ययुत्रपोत्रप्राप्त्य्थ द्रात्रिल्ीपौणिमा व्रतं करिष्ये।।त्न
ल्योने सु््येके मुखसे सुनकर चऋषियोके लिये बह त्रत कहा ऋषिलोकं वाखखिल्योका अभिवादन करके
सूर्की स्तुतिां गातेहृए सूर्यके पास चले भये । यहे सब कातिकका उत्तम ब्रत कह दियागया है, जिसके `
` कियेसे उसौ समय मनुष्य सब पापोसे छूट जाता है । ह श्रीसनत्छमारसंहिताका कहा हुभा कातिक माहात्म्यमे
कातिक मासका उद्यापन पुरा हुमा ।! | |
इ | अथ द्रात्रिशीपौणिमाव्रतम्
तच्च सोकं बत्तिज्लीरपौणिमेत्युच्यते ।। मागंडीषसिते पक्षे पौणमास्यां शुचि- `
।1 प्रातः शुक्लतिलः स्नात्वा परिधायाम्बरं सती पजासम्भारमासाद्य `
पिष्टदौपं विधाय च ।। पुत्रसौभाग्यपराप्त्य्थं मध्याद्धे पुजयेच्छिवम् ॥ सा च `
मागंमीषेपौणिमा मध्याह्वन्यापिनी ग्राह्या ।। तिथ्यादि संकीत्यं ममेह जन्मनि
४ निविघ्नतासिद्धचथं गणपतियुजनं कल्श्ासयाधनं च करिष्ये ।। पञ्चवक्तं चिन्न 0
जटा ल खण्डेन्दुमण्डितम् ।। व्यालयज्ञोपवीतं च भक्तानां वरदं शिवम् ।। ध्यायामि
वै।। स्नानं तैः कुरु देवेश्च मम शारिः
` पनन (ननन); न~त
व्रतानि] हिन्दीटीकासहित (८२९) `
ष "~ 0. तातान
0 1.4
कुकु माक्तं सुरश्रेष्ठ क्षौमसुत्रविनिमितम् ।। उपवीतं मया दद भक्तया दत्तं प्रगृह्य- `
ताम् \\ उपवीतम् ।। काहमीरजेन संय॒क्तं कर्षरागरमिथितम् ।। कस्तरिकासमा- `
युक्तं चन्दनं प्रतिगृह्यताम् \। चन्दनम् ।। प्रक्षालिताश्च धौता तण्डुलादच श्िव- `
प्रियाः ॥। मया निवेदिता भक्त्या गृहाण जगदीकवर ॥! अक्षतान् ।। कमलैर्मा- `
लतीपुष्यहचम्पकर्जातिसम्मवः ।। बिल्वपत्रमहादेव करिष्ये तव पूजनम् । `
पुष्पाणि \\ द्लाद्धो गुगगुलूदभृतः सुगन्धिक्व मनोहरः ।! आघ्रेयतामयं धूपो
देवदेव दयानिधे ।। धूपम् ।\ कार्यासवतिभिर्यक्तं घताक्तं तिमिरापहम् \। भक्त्या ` |
समाहृतं दीपं गृहाण करुणानिधे ।। दीपम् । नैवेद्यं गृह्यतां देव भक्ति मे हचलां
कुर ।! ईप्सितं च वर देहि परत्र च परां गतिम् \ नैवेद्यम् ।। नेवेद्यमध्ये पानीयम्
। उत्तरापोदानम् ।।+मुखप्रक्षालनम् । पुगीफल्मिति ताम्बलम् ।। इदं फलमिति `
५ फलम् ।। ततो वक्ष्यमाणषोडदानामभिः पुजयेत् ।। ल्ंकराय चरिनेजाय कालरूपाय `
काम्भवे ।। महादेवाय सद्राय शर्वाय च म॒डाय च ।। ईइवराय शिवायेति भवेथ
। कपदिने । मृत्युञ्जयाय चोग्राय क्षितिकण्ठायशलिने ।\ तेजोमयं सलक्ष्मीकं देवा-
| . नामपि दुलभम् । हिरण्यं पार्वतीनाथ मया दत्तं प्रगृह्यताम् ।। दक्षिणाम् ।।
देवदेवेश चराचरजगद्गुरो ।। वुषध्वज महादेव त्रिनेत्राय नमो नमः \\ नीराजनम्
यानि कानि च पापानीति प्रदक्षिणाः ।। इमानि विल्वपत्राणि पुष्पाणि विविघानि `
| च ॥ मया दत्तानि विषेश गृहाण वरदो भव ।। पुष्पाञ्जलिम् ।। नमोस्त्वनन्त
नम्य
| सहल्रम्० नमस्कारम् ।। भवाय भवनाशाय महादेवाय धीमते ।। खराय नील- `
ह कण्ठाय शर्वाय च नमो नमः ।। ईज्ञानाय नमस्तुभ्यं पशूनां पतये नमः ।! गुण- `
। त्रयात्मने तुभ्यं गुणातीताय ते नमः । नमः प्रसीद देवेश सर्वकामांइच देहिमे ।॥।
| ५ त्वमेव शरणं नाथ क्षमस्य मथि जञंकर ।। प्रार्थनाम् ।! वायनं तु-उपाय
नमिदं
| ब्रतसपुतिहेतवे ।। वायनं द्विजवर्याय सहिरण्यं ददाम्यहम् ॥। वायनम् । अर ४.
1 क्रतराजः - "` -{पूणिसणन.
चन्द्रहासेन पालिता 1\ ५ ।। तत्रेवासीदद्विजः कषचिद्धनेक्वरेति नामतः ॥ तस्य
भार्या श्चुभाचारा नाम्ना रूपवती सती ।\ ६ ।। अनपत्यौ महाभागावुभौ तो
इःखितौ सदा ।। तन्नगरया द्विजः कश्चिद्योगारूढो द्विजो जटी ।\ ७ । भिक्षां चकार
सर्वज्ञतद्गहं चाप्यवजजयत् ।। तद्गृहे नैव भिक्षां स रूपवत्या *सर्मापिताम् ।\! ८।।
ययौ तटाकतीरं स भिक्षां प्रक्षालयत्सदा ।। धनेरवरेण तद्दृष्टं योगिना यत्कृतं तत
॥ ९ ॥। स्वभिक्चानादराल्वि्नो योगिनं तमृवाच ह ।। धनेहवर उवाच ।। भिन्नां
गृह्णासि स्वेषां गृहस्थानां द्विजोत्तम ।! १० \\ कदापि मद्गृहं विप्र नायासि वद `
कारणम् ।। योग्युवाच ।\ अपुत्रस्य गृहस्थस्य यदच्मुपमुज्यते ।\ ११ ।। पतितान्न- ` -"
समं तत्त॒ न भोक्तव्यं कदाचन ।। धनेश्वरश्च भरुत्वेतदात्मानं गहेयन्बहु । १२।॥ `
उवाच प्राज्जलिर्बरहि त्वमुपायं सुताप्तये ।\ धनधान्य समुद्धश्च पुत्रहीनस्त्वहं प्रभो ॥।
॥ १३ ॥ इत्युक्तोऽसौजटी प्राह गच्छाराधय चण्डिकाम् ।। तस्य तद्रचनं गेहं `
भाययि विनिवेद्य च॑ ।\ १४ ।\ तपसे निजेगामासौ चण्डयाराधनसाचरत् ।\
उपवासैः षोडशषमिः स्वप्ने चैवाह चण्डिका \। १५ ।! भो धनेदवर गच्छ त्वं तव॒ `
पुत्रो भविष्यति ।! स्वसामर््यवशादेया दीपा व पिष्टसंभवाः ।। १६ । एकंक- `
वदच दातव्याः षोडराद्रयर्पौणिमाः ।! इदं त्रतं स्वपल्न्ये त्वं कथयस्व यथास्थितम्
॥ १७ ॥ आारोहासयु त्वमास्रं वं फएलमादाय सत्वरम् \। स्वगृहं गच्छ भार्यायै
| देहि गर्भो भविष्यति ।। १८ ।\ ततः प्रभातसमये सहकारमयपश्यत ।। आरोदुं नैव (
शक्तः स चिन्ताव्याक्रुलमानसः ।। १९ ।। स्तुति चक्रे गणेशस्य दयां कुर दया-
निषे । मनोरथो ममेवास्तु त्वत्प्रसादाहया निधे ।। २० ।। इति स्तुत्वा गणेशं स॒ |
तत्परभावाढनेइवरः 1। शीघ्रं फलमुपादातुमा स्रमाररुहे ततः ॥। २१ ॥। त्रिवारमथ
आगत्य मकः कथरि ् यत्वा तद्धायपयि दत्तवान्फलम् ।। यदा तदा रूपवत्या भक्षितं गभ- र
देवदासेति हेन नामतः ।\ २४. ।। व्रतबन्धं ततहचकं विवाहं नाकरोच्च सः ।। मात्रा |
चाग्रहतः पृष्टः सोऽवदत्स्ेचेष्टितम् ।। २५ ।। त व ततस्तु त: देवथोगेन गेन स्
, `. ` व्रताति 1 `... ` हिन्ीदीकासहित. ` . (८३१); ~.
। सुतो यथा ।। साधं त्वनेन लग्नं वै करिष्यामि क्रमेण तु ।। ३१ ॥) इति नि्धायं
। मनसा प्राथयामास मातुलम् ।\ घटिकाद्रयपयन्तं देहि त्वं भगिनीसुतम् ।\ ३२ ॥ `
` नोत्सहे सततः शिशुः ।। तत उत्थाय सञ्चिन्त्य कस्य भार्या भवेदियम् ।\ ३५1 `
एकान्ते विजने स्थित्वा निःश्वासान्मुमुचे बहन् ।। सा बधृस्तं समागत्य पप्रच्छकिमिदं `
मातुल उवाच ॥ मधुपकं तथा कन्यादाने यद्यत्प्रदीयते 1 तदस्माकं ˆ र
यदि भवेत्तह्यसौ भवतां वरः ।\ ३३ ।। तथा भवतु तेनोवते विधिवेबाहिको-
भवत् \। पाणि स ग्राहयामास वरेण च यथाविधि ।\ ३४ । बध्वा साधं तया भोक्तुं `
। त्विति \। ३६।। कथयामास संकेतं वरपित्रा कृतं तु सः ।\ साब्रवीत् कथमेतत्स्या- `
। न्यथा ब्रह्मसूज्रतः ।। ३७ ।। त्वं मे पतिरहं पत्नी देवाग्निद्िजस्चिधौ ।। सोऽब्रवीत्
। . मा कुरष्वेदं ममायुः स्वल्पमेव च ।! ३८ \\ तच्छ त्वा दृढसंकल्पा सान्रवीत्तं पुनः
|
। पुनः \\ यथा तेऽपि गतिभूयात्सव महयं भवेदिति ।\३९।। उत्तिष्ठ भंक्ष्वमेनाथ `
|
क्षधितोऽसि न संशयः ।। ततः प्रीतस्तया सार्धं भक्तवान्स द्िजस्तया ।१४०।। ` ध
| अंगलीयं दद्धो तस्याः स्थानत्रयविभूषितम् ।। ऊचे रत्नमयीं मुद्रा गृहीत्वाप्यंशुकं
तथा । ४१ । इति संकेतकं त्वा स्थिरचित्ता भव प्रिये \। मूतिसञ्जीवने ज्ञातं `
` कुरु जात्यादिवाटिकाम् ।। ४२। मनोरमा ुष्पजातीसुगन्धिनवमल्लिकाः ॥
| सिञ्चसिञ्च प्रतिदिनं क्रीडां कुरु यथासुखम् 1! ४३ ।\ यस्मिन् दिनेतु मत्राण- `
विथोगस्तु भविष्यति ।\ तदा सपुष्पजातीनां प्राणत्यागो भविष्यति ध
१. नः स: = ीवितास्तास्तु यदाहं जीवितस्तदा ।! इति जानीहि भर त्वमित्युक्त्वा
५8 ग त क गन्तुमुद्यतः ।। ४५. ।। ततो बराहय मुहतं तु निजेगाम बरः पथि ।। अथ प्रभातसमये
ह । ४६ ।\ आकारिता च सा कन्याजबरवीन्नायं पतिमेम ॥ यदि `
14
1 ४१॥ . |
(ददरः ~ ध व्रतराजः ~... [ पूणिमा~-
अत्रान्तरेऽगमत्त्र भवान्या सह शंकरः ।। भवानी प्राथयामास दृष्ट्वावस्थां तु _
तस्य ताम् ।। ५४ ।। अस्य मात्रा कृतं पूवं द्ाच्रिस्ीव्रतमृत्तमम् ।\ तस्य प्रभावतो `
नाथो बालोऽयं जीवतां प्रभो ।\ ५५ ।} तथेव कृतवांस्तत्र भवानीप्रेमवत्सलः ।।
तदृब्रतस्य प्रभावेण मृत्युनापि निराक्रतः ।। ५६ ।। इतः काल प्रतीक्षन्ती वधस्तस्य `
सविस्मया । जात्यादिवाटिकां पर्वं पत्रपुष्पविवजिताम् ।\ ५७ \। पुनः सन्जीवितां `
दृष्ट्वा पितरं हषिताऽब्रवीत् । भतुयत्नं कुरुष्व त्वं जीवितस्य गवेषणे 1! ५८ ॥\!
गवेषितुं प्रववत्ते तत्तातो यावदेव तम् ।\ बालोऽपि जीवितस्तावत्काक्ञीतो निर- `
गात्तु सः ।\ ५९ ।। पुनस्तत्रैव संयातो यज्रोद्ाहोऽम
देवदत्तोऽनयद्गृहम् ॥। ६० ।! ततो जनपदाः स्वे इति ब्रयुः परस्परम् ।! जामाता
देवदत्तस्य अयमेव न संजयः ।। ६१ ।। बालया च तथा ज्ञातः सोऽयं संकेततो गतः \\ `
भवत्पुरा ।! ज्ञात्वा च परमप्रीत्या `
न प्रीत्या अचुस्ततः सवं साधुसाधु समन्वितम् ।\! ६२ ।। उत्साहो ह्यभवत्तत्र निज- ५
भासाथ तस्पुरात् । इवश्ुरेण तथा वध्वा मातुलेन समन्वितः ।\ ६३ \! ताव्चतु- `
स्तत्यितरो . भवत्पुत्रः समागतः ।। | तावूचतुः कुतोऽस्माकं दुभगानां तु `
पुत्रक ६४ ॥ कथितोत्येरपि जनेस्ततः संहृष्टमानसो ।। सुर्ह्धि-
न्धिवेः सर्वेरानयामासतुच्च तम् 11 ६५ ।\ ततो महोत्सवं कृत्वा ददतुबेहुदल्लि `
` णाम् ।\ एवं स पुत्रवाञ्जातो दरतरिश्लीब्रतसेवया ।। ६६ ।। याः कृर्वन्ति व्रतमिदं
`. विधवा न भवन्ति. ताः \\ जन्मजन्मनि सौभाष्यं प्राप्स्यन्ति च वचो मम । ९७ ।!
एतत्ते कथितं सवं पूत्रपौत्ररवधनम् ।! यं यं चिन्तयते कामं तं ते प्राप्नोति निदचि-
तम् । ६८ 1! यञ्ोदोवाच ।\ उद्यायनर्विधि बहि पणमायाः सूरेवर । भविततः
परुजनीयो वृषध्वज
७२ ।। जयेष्ठ
।\ उपचारः षोडल्भिरा रागमं नो उ क्तविध नतः `
कं दीपक कृत्वा मासिमासि च दापयेत् ।। एवं साध्यं वषं द्विमासा- `
रतानि 1 हिन्दीटीकासहित = (८३३) |
प लर विविधः जुभे: ।\ ७८ ॥
एवं पजा प्रकर्तव्या रात्रौ जागरणं चरेत् ॥
गीतनृत्यादिसंयुक्तं कथाश्रवणसंयुतम् ।! ७९ ।। ततः प्रभातसमये कृत्वा स्नाना- `
दिकाः क्रियाः ।। पूवेवदचंयेहेवं पहचाद्धोमं प्रकल्पयेत् ।। ८० ।। स्वगृह्योक्तवचिधा- `
नेन कृत्वाग्निस्थापनं बुधः ।। प्रारभेच्च ततो होमं पञ्चोक्षरमनुः स्मृतः।\ ८१॥ `
तिलयवस्तथाज्येन पृथगष्टोत्तरं शतम् ।। नमः क्षिवाय मन्त्रेण उमाया इति नामतः `
| ॥ ८२ । एवं समाप्य होमं आचार्यादीन्प्रपुजयेत् \ द्रात्रश्रन्धनैर्यक्तं वंडापात्रं `
( मनोरमम् ।८३।। दात्रिशड्र्महादीपे्दात्रिशद्ड्र्महाफलेः ।॥ मातुल्द्धिनारिकेले-
। . जेम्बीरेः खजुरीफलैः ।। ८४ ।। अकरोडर्दडिमेराघरेनारङ्कादिभिरेव च । ककंटया-
1 दिभिरन्येश्च ऋतुकालोद्धूवेः शुभैः ।॥ ८५ ।! दात्रि्षद्भिः फलैर्युक्तं सन्दीपं `
वस्त्रवेष्टितस् ।! ब्रहीणामुषरि स्थाप्य आचार्याय शुचिष्मते ।। वाणकं तब तुष
ददामि गिरिजापते ॥। ८६ ॥। दानमन्त्रः ।। महेशः प्रतिगृह्णाति महेशो वै.ददाति `:
च ।। महेशस्तारकोभाभ्यां महेशाय नमोनमः ।। ८७ ।। प्रतिग्रहुमन्त्रः \! द्रात्रि- `
{ शदब्राह्मणादचेव दात्रिश्योषितस्तथा ।। अन्यानपि ब्राह्मणांश्च भोजयेत् षड्सैः `
| सहं 1 ८८ ।! पुवत्सेन युतं धेनुमाचार्याय निवेदयेत् 1! परचाप्पूर्णाहति कृवा `
होमरोषं समापयेत् ।। ८९ ।। पदचाद्भुञ्जीत तच्छेषं यरेवन्राह्यणापितम् ।। इत्येवं `
` पुणिमायास्तु उद्यापनविधिः स्मतः ।! ९० ।। इत्येतत्कथितं सर्वं व्रतस्योद्यापने
| भया ।। याः कुर्वन्ति व्रतमिदं विधवा न भवन्ति ताः। ९१ ॥ इह भुक्त्वा तु `
| विपुलान्कामान्तर्वान् मनोगतान् ।। स्वर्गमन्ते गमिष्यन्ति कुल्कोटिकतेरपि `
[न वज (दुक (|
इससे नैवे; सैवेयके बीचमें पानीय; मखप्रक्षालन; श्ूगीफलम्' इससे ताम्बृल; “इदं फलम् इसे फल
समर्पण करे । सोलह नामोसे धुना-शंकर' चरिनत, कालरूप, शंभु, महादेव, इद्र, श्वे, मृड, ई्वर, रिव, `
भूतेश, कपर्दी, मृत्यंजय, उग्र, शितिकंठ, शूली, ये सोलहनाम हैँ \ इनमेसे प्रत्येकके साथ क लिये नमस्कार,
इतना लगा देनेसे भलके सब पदोका अथं होजाता है प्रत्येकसे शंकरपर अक्षतादि चढाने चाहिये ।\ शोभायुक्त `
तेजोमय जो कि, देवताओंकोभी दुलभ है, हे पारव॑तीनाथ ! बह हिरण्य मैने दिया है जाप ग्रहण करे इससे ` |
: दक्षिणा; श्रसीद देवदेवेश इससे नीराजन; यानि कानि चः इससे प्रदक्षिणा; “इमानि बिल्वपत्राणिः
इ ससे पुष्पांजलि, नमोस्त्वमन्ताय' इससे नमस्कार; भवके नाशक भवके लिये नमस्कार, धीमान् महादेवको
नमस्कार तथा रद्र, नीलकंठ शवं एवं पञशपति ईशानके छिये वारंवार नमस्कार है, तरिगुणात्सक एवं तीनो _
गुणसि अतीत तुद्य महादेवके लिये नमस्कार है । हे देवेश ! प्रसन्न हुजिये । सुनने सब काम दीने । मे आपकी ` ८
` शरण हूं । मृष क्षमा करिये इससे प्राथना; "वायन' इससे वायना; इस ब्रतकी सिद्धिके लियि पापनाहक `
सोनेको है वि्रन्र ! आपको देता हूं प्रहण करिये, इससे दक्षिणा; ह महात्मन् † अपने बृढे नांदियापर
. चेढकर केलास पधारिये हमने बुलाचिया सो क्षमा करना, प्रसन्न हो सुसुख हीना, इससे विसजंन समपेण करे ¦ . `
यह पूजाकी विधि पुरी हुई ।! कथा--यशोदाजी बोली कि, हे कृष्ण ! तुम सब देवो स्थिति ओर संहारके ५
` करनेवाले हौ कोई वास्तविकं रूपसे स्त्रियोके लिये अवेघव्य करनेवाला ब्रत हौ उसे मुन्ञे कहिये 11 १।। श्चीक्ष्णं
` बोरू कि, ठीक पृछा, स्त्रियोको सौभाग्य प्राप्तिके ल्य दातरि पूणिमाका बरत करना चाहिये ॥२॥ इस
क्रतके प्रभावसे स्त्रियोको सौभाग्य संपत्तिमिलजाती है, यह सुहाग करनेवाला तथा श्िवजीकी भीतिका `
कारण है ।\२॥) यशोदाजौ नोले.कि, कब ओर किसने इसे मृत्युलोकमे किया था, उसका विधान व्याहै
जिससे रिवजो प्रसन्न हो जायं ? ।\४1। श्रीकृष्ण बोले कि, भूमिसण्डल्यर परम प्रसिद्ध एक चन्बरहाससे `
पावित अनेक तरहुके रत्नौसे परिपुणं कांतिका नामकौ नगरी थी ।\५। वहा एक धनेश्वर नामक्ब्राह्मण
बसता था, उसकी सदाचारिणी रूपवती नासकी स्त्री थौ ।\६1) उन दोनोके कोई सन्तान नहीं थी । इस्सेवे `
` अत्यन्त इूली ये । उनकौ नगरीमं एक दिन कोई जटी योगी आगया 11७11 वह् सर्व॑ उस.घरको छोडकर `
| | भिक्षा करता था, उसने रूपवतीकी दीहुई भोख नहीं ली ।८॥) पौ मंगा किनारे जाकर भिक्षा पनीमे `
भ. भे
लित हृभा बह योगीसे बोला कर, हे द्विजोत्तम ! आप सब गृहस्थोकी
देवदास नामक पुत्र उतपन्न भा ॥॥२४। इसके बाद उसने व्रतकर लिया । उतका विवाहं नहीं किय स । आकिदि
आग्रह पूवक पछनेपर उसने सब कहदिया ॥२५। दैवयोगसे घनश्वेरको यह् वुद्धि हई कि, इसे काली विद्या `
। | { ^" क), त, शका ५ ४०७ ४११॥१९७१६.१६३9) [व च कः म ८ |
धोकर खालिया एक दिन योगौका यहं सब क्यं धनेदवरने देख लिया ।९।! अपनी भिक्षाके अनादरे = `
1 भिक्षाक्तेहं ।१०। परमेरेषरकी
कभोभी नहीं छेते इसका कारण क्या है ? यह् सुन योगौ बोला कि, जो निपुत्रीके घरकी भीख कलेताहै वहं `
परतितोके अल्नके बराबरको वस्तु लेता है क्योकि, उसे कभी न खाना चाहिये । धनेहवरने यह् सुन अपनी ` `
की दर ५ हाथ जोडकर बोला कि, आप पुत्रप्राप्तिका उपाय बतावें । मे धन धान्यसे `
वन = नन ` व (ण 2/6
व्रतानि ] ~ ५ - हिन्दीरीकासहितः ..:.: .. : {दको
किते दिन बीतगये, भागिनेयके साथ मातुल काली पहुंवगया, रात हमर । किसी प्रह्ये घर प्टुचकर् = `
विश्राम किया ।।२७।।२८।। उसदिन घरका स्वामि रडकीका विवाह करमेवषला था, तैख आदि चडाकर
घर निवेशन माडया' बनाया ।\२९।। लग्नके ससय चरको धनुर्बात होगया, तब वरे पिताने अपने परि.
बारवालोसे विचार किया ॥२३०।। अन्तम उसने निश्चय फिथां कि, यह कपटिक बालके मेरे पुत्र जैसा
ही सुन्दर है मं इसके साह लग्न कराऊंगा ।।३१।। उसके मामासे बोला क्रि, दो घडीके लिये अपने भानजेको `
मुदे देदो \\३२।\ मामा बोला कि, जो मधुपकं ओर कन्थादानसं दियाजाय वह हमे भिलजाय तो मेराभानजा `
आपकी बशातका दुलहा बन जायगा ।\३३।। वरे पिताकै स्वीकार कर खेनेपर उसमे अयना भानजा वर
बनानेको देदिया उसके साथ विधिपूवेक विवाह कृत्य पुरा हुमा ।\३४।। वहु पत्ीके साथ भोजन न करस्का ` `
एवं वारंवार विचारने लगा कि, थह किसको वधु होगी ।\३५।। एकान्त निजेन देशम बैठकर गरस श्वास
छोडने जगा, उस वधूनें जाकर उससे पुल कि, यह क्था बात है ।\२३६।। उसने सद बाते उस ल्डकीको
` बतादीं जो वरके पिता जौर उसके मामामं हुई थीं \ कन्था बोली कि, यहे ब्राह्मविवाहके व्रीत कंसेहोगा =
1१३७।\ देव द्विज ओर अग्निके साम ने में पत्नी ओर आप पति बने थे इखकारण मे आपकी ही पत्नी रहुगी।। = `
वहु बोला कि, एसा न करिये क्यो कि मेरी उमर बहृतही थोडी है ।\३८॥} वह् दढ विचारवाली बध् बोो |
कि, जो आपकी गति है वही मेरी भी होगी ।।३९। हे मेरे स्वामिन् ! उद्ये भोजन करिये आप नि्चयही `
भूखे ह, इसके बाद उस दविजने उसके साथ भोजन किया ।४०।\ पौ रत्नोकौ जडाठ तीन स्थानोमें विभूषित्त .
एक अंगृठी उसे दी । तथा एकवस्त्र दिया ।\४१।। ओर बोला कि, इसे ऊ संकेत समक्षक्रर स्थिर चित्त होजा, ` `
` भेरा मरण ओर जीवन जाननेके लिये एक पुष्पवाटिका वनाले ।।४२।। उसमे फलकी जाती, युगन्धिवाली = `
। नवमल्लिका लगा, उनमें रोज पानीक्गा ओर आनन्दके साय खेर कूद ।\४३।। जिसदिन जवने मह्गा = `
इस ब्रतके प्रभावसे उसका पीछा मोतने भी छोड
करतीथी । उसने देलाकि, उस वाटिकामे पत्र पुष्प
=
तबही वे एूल सूख जायेगे ।। ४४ ।। जब मे जीजाऊंगा तवही वे हरे हौजायेगे यह् निश्वय जानले,एेसा = ` ॥ |
। कहकर जानेको तयार हुजा ।*४५।। ब्रह्ममुहूतमें उठकर चकदिया । धरतःकखके समय वहां बाजे बजने
. खगे ।॥४६।) बह कन्या अपने पितासे बोली यह् मेरा पति नही है यदि है बतवे क्रि, मेनेदसेक्यादियाहै
५ ५ 11४७. मधुपक ओर कन्थादानमं जो मेने भषणारिक दिये ह वं लिया तथा रातमे मने इससे क्या गुप्त | ।
` बाते कौं उन्हुं भौ बतादे ।\४८।। कन्यके वचन सुनकर चर बोला, मं नहीं जानतः, पौरे लज्जित होकर
कहीं चखा गया ॥\४९॥) श्रीकृष्ण बोले कि, बहु बालक काशीमे यदने चला गया, कुठ दिन बीतनेपर कालके ` |
. .वह्मीभूत हुजा ।।५०।। रातको काला नाग उ खानेके लिये भाया ! उसके सोनेको जगहे चारो जोरसे विषकौ ` ५ |
८ ज्वालासे ठकगई ।\५१।। पर ब्रतराजके प्रभावसे उसे खा न सकः, क्योकि उसकी ममि पहिले दतरिकी । पणम 1 |
: ब्रत कररखा था ।।५२।। इसके पीछे मध्याह्वके समय स्वयं काल आया पीछे कालका बीघा वह् अर्घोदक |
-(आघेषानौ ) स नियुक्त किया ।\५३।। इसी बीच वहां पार्वतीजीके साथ शिवजी पहु गये । उसकी यहु = `
1 दरा देख पावैतीजी शिवसे बोलीं कि।\५४।।दइसकी माने पहिले दातिशी पूणिमा व्रत किया थाहेप्रभो 1
य सके प्रभावसे आप उस अनाथकरो जिला ।\५५।\ भवानीके प्रेमसे वत्सल शिवम उसे लिखादिया, | | ए ॥ | |
री छोड दिया ।॥५६।। उसकी वध् उसके काल्की प्रतीक्षा किया
कुछ भी नह रहे ह जिससे उसे बडा विस्मय हुमा।।५७।। 1
॥ ( ८३६ ) ५ वरतराज | ह [ पणिमा- “£ |
(प
कष भम भ,
भारईबन्धुओं लेकर उन लेने चरदिये \।६५।। उन्हे पुत्र जनका बडा भारी उत्सव किया, बहुतसी दल्िणाएं
आह्यणोको दीं \ इस प्रकार धनंजय द्वात्रिके ब्रतके प्रभावसे पुत्रवान् होगया ।।६६।। जो इस ब्रतको करती
है वे विधवा नहीं होती बह जन्म जन्म सौभाग्य पाती है यह् मेरा वचन है ।\६७।। यहं पुत्र पौ््रोका बढानेवाला
हैः इस व्रतके करनेसे जिस जिस वस्तुकी चाह होती है बह वस्तु उसे मिलजाती है यह निदिचित है ॥६८।
यहु दइाधिी पुणिमाके व्रतका विधान पुरा हुभा ।। उद्यापन विधि--यज्लोदाजी श्रीकृष्णजीसे बोली कि, `
है सुरेश्वर ! पुणिमाके उद्यापनकौ विधि कहिये म ब्रतकौ संपूणताके लियि भव्तिके साथ चुनना कहती हू
` ॥६९॥) श्रीकृष्ण बो कि, मा्मशीषे, माघ ओर वैश्षाखकी पुणिमाके दिन ब्रतका प्रारंभ करे पर भद्रपद
ओर पौषको छोड दे \\७०।। उमा सहित वृषध्वजको पूजे, शञास्त्रकी कहीहुई विधिके साथ सोल्हों उपचारोसे `
` ` पूजे ।\७१।। एक दीपक महीना महीनामं बढाता चले, इस श्रकार दो वषं आध महीना करे 1\७२।।ज्येष्ठकी
पूणिमाको उद्यापन करे, अथवा किसीभी पवित्र महीनाकौ पूणिमाको करे ।\७३।! चतुदंशीमे उपवास करे ` ४
रतम पुजन करे, जठ हाथका मंडप बनावे ।\७४।। उसके बीचमें मिटरीका वैध कलज्ञ रखे, उसपर वांसका `,
पात्र रखकर उसे वस्त्र से ढक दे ।\७५।। अपनी शक्तिके अनुसार एक या आधे पल सोनेकी प्रतिमा बनावे ष #
॥१७६।। उसमे गौरो शंकरकौ छबि पुरी आजानौ चाहिये । वृषभ सहित उस प्रतिमाको उस पात्रपर स्थापित. ¦
करदे 11७७)। पहिली कहीहुई विधिके अनुसार अच्छे पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य अनेक तरहके फल इनसे पूना `
करे ।1७८।। रातमें गाने बनाने ओर कथा सुननेके साथ जागरण करे ॥\७९॥) प्रातःकाल स्नानादि नित्य `
क्से निवृत्त हो पुजन करके हवन करे ।८०॥ अपने गृह्यसूतरके अनुसार अग्नि स्थायन करे, पीछे पंचाक्षर `
भंत्रसे होम करे ।।८१।। तिल यव ओर घीका ज्ञाकल्य एकसौ आठ आहुति दे, ओम् नमःशिवाय-शिवके ल्य `
नमस्कार ओम् उमाये नमः-उमाके लिये नमस्कार, इन मंत्ोसे आहूति दे ॥८२।! इस प्रकार होम समाप्त `
` करके आच्य्योका पुजन करे \ बत्तीस बन्धनोका सुन्दर बांसका ।
1 बासका पात्र होना चाहिये ।\८३।। बत्तीस बडे `
बडे दीपक, महाफल, मार्तालग, नारिकेल, जंबीर, खजुरीफल रीफल ।\८४।। अक्रोड दाडिम आस, नारंगी एवम्
५८ ओर \ बत्तीस फलके | ॥ एं द दीपकको ` 1
`. ब्रीहियोके ऊपर रखकर तेजस्वी आचा्ेके ल्मे दे कि, हे गिरिजापते ! आपको तुष्टिकेि ल्यिवायना
देता हं । यह दानका मन्त्र है ।\८६।। महादेव ही देतेलेते हे । दोनोके तारक भो महादेवही है । महादिवके
५.6 ८ वारंवार नमस्कार है ।८७।। यह प्रतिग्रहका मन्त्र है । बत्तौस ब्राह्मण वत्तीसही स्त्रियोके ओरभी
इसरे ब्राह्मणको छं रसोसे भोजन करावे ॥८८।! बचछडेके साथ गाय आचाययेको दे, पीछे पूर्णाहुति ` `
करे । हृएको आप भोजन करे । यह पूणिमाके उद्यापनकौ
आपको सूनादौ जो इस वरल करतो हें वे विधवा नहीं होतीं ।\९१॥। तथा अनेको
सब मनोकामना्जोको पा सौ कोटि कुलोके साथ अन्तमें स्वगं चली जातीहै
का कहाहुजा कृष्ण यशोदाके संवावका दवात्रिशी पूणिमाके व्रतका विधान `
तेन सा होलिका मुता ।। तत्र परणमा प्रदोषव्यापिनी भद्रारहिता ग्राह्या--तपरः स्य- ` 9
पौणमास्यां तु राजन्यां होलिकोत्सवः ।। न कर्तव्यो दिवा विष्ट्यां रिक्तायां प्रति. |
` सवा ।\ तस्यां भग्रामुखं त्यक्त्वा पज्या होली निशामुखे । इति नारदवचनात = ` ५
निज्ञागमे प्रुज्येत होलिका सर्वदा जनैः ।। न दिवा पूजयेडदु्ठां पूजिता दु-खदा
भवेत् ।
दीपिता होली राष्ट्ृभद्धं करोति वे ।। नगरस्य च नैवेष्टा तस्मात्तां परिवजयेत ।।
त ( इति न्रचनन पु्वोक्तिदूर्वासि प्रभृतिवचनेहच भव्राया होलिकादं ीपननिषेधात } 11. ध
यदा परदिने च प्रदोषस्पश्षभिवतो पुर्वदिने च प्रदोषे भद्रासहिता पौणंमासी. तदा
व्रतानि]
` (८३७)
तत्राग्नि विधिवहत्वा रश्षोघ्नै्मन््रविस्तरेः ।। तत किलकिलाशब्देस्तालदाब्दै- { |
मनोहरः ।। तर्माग्न त्रिः परिक्रम्य गायन्तु च हसन्तु च ।। जल्पन्तु स्वेच्छया लोका
` निःशंका यस्य यन्मतम्।।तेन शब्देन सा पापा होमेन च निराङृता!\ अटरा रटहा-
संडिम्भानां राक्षसी क्षयमेष्यति ।। दण्डाख्या राक्षसी । तत्रैव युधिष्ठिरं प्रति
चनम् ।। सवदुष्टापहो होमः सवेरोगोपन्ञान्तये ।\ क्रियतेऽस्यां जैः पाथं
पत्स्वपि,।। इति दर्बासोवचनात्।!तथाप्रतिपद्भतभद्रासु याचिता होलिका दिवा ।।
सवत्सर च तद्राष्टं पुरं दहति सा वरुतम् ।, प्रदोषव्यापिनी ग्राह्या पौणमा फाल्गनी
इति दिवोदासीयवचनाच्च ।। दिनद्वये प्रदोषव्याप्तौ तु परेव ।। भद्रायां
निज्लीचपयन्तं भद्रावसानसम्भवे पूवेदिन एव तदवसाने होलिकादौपनं कार्यम् ॥
निक्गीथोत्तरं भद्रासमाप्तौ तु भद्रामुखं त्यक्त्वा भद्रायामेव प्रदोषे का्थ॑म ।¦ दिना- (| ध ५ य
धत्परतो या स्यात्फाल्गुनी पौणिमा यदि ॥ रात्रौ भ्रावसाने तु होलिका तत्र `
दापयेत् !! राका यामदयादूध्वं चतुर्दश्यां यदा भवेत् ।। होलां भद्रावसाने तु
नि्ीथान्ते [न्तेऽपि + दीपयेत् ।। इति पुराणसमुच्चयादिवचनात् ।। भद्राया नति] विहितं तं कार्यं ` ॥ ८
होलिकायाःप्र |
पनयेच्च यथाविधि ।। योनिनाम्ना च मन ण महानद कारयेत् ॥ तव किलि =
परपुजनम् ।। गन्धयुष्धूपदीपेनेवियेदेट
विचयदेक्षिणाफलेः ।। होलां तु नामसमन्त्रेमण `
उत्तरादिने पूणम साधेयामत्रयमिता ततोऽधिका वा प्रतिपदहच वृद्धिस्तदा पण `
मोत्तरं प्रतिपदि होलिका कार्या, न तु पुवेदयुचिष्टिपुच्छे-साधेयामत्रयं पूर्णा द्वितीया- `
दिवसे यदा ।! प्रतिपहर्धमाना तु तदा सा होलिका मृता \। इति भविष्योक्तेः ॥\
यदा तत्तरदिने प्रदोषेकदेशव्यापिन्यस्ति पूर्वरात्रौ च भद्रारहित नेव कम्यते तदो-
त्रैव । यदा पर्वरत्रौ भद्रा व्याप्ता उत्तरे प्रदोषे च चन्द्रग्रहणं तदा तन्वं स्नात्व
कार्या-सर्वेषामेव वर्णानां सूतकं राहद्शेने \। स्नात्वा कर्माणि कुर्वत सूतकान्नं |
विवजेयेत् ।। फाल्गनो मलमासश्चेच्छद्धे मासि च होलिका ।। पूजामन्त्रस्तु- `
अभुक्पाभयसन्तरस्तैः कृता स्वं होलि बालिदलैः ।। अतस्त्वां पूजयिष्यामि भूते भूति- `
` प्रदाभव।। इति होलिकानि्णेयः \\ इति पणमाव्रतानि समाप्तानि ॥
1 होखोका उत्सव--फात्मनकी पूणिमाको होता है ! भविष्ययुराणमे युधिष्ठिरजीके प्रहनपर भीकृष्ण
`. चच्रजीने रधुके प्रति जो वसिष्ठजीके
कलगुन शवला पन्सके दिन
। „ उछलते कूदते हुए बालक योधाओकी तरह काठके ट् कंडे लेकर चकेजायं । सुखा काठ ओर उपलोका ऊंचा `
ढेर बनाया जाय, उसमें बहुतसे रक्षोघ्न मत्रे विधिके साथ अग्नि दीजाय। ` |
पटति तिमे उस्लेख भी किया है किन्तु उनकी संख्या पर्याप्तं
ग्निः ऋतुभिः समिद्धः स नो दिवा स रिषः पातु नक्तम् | १।।
बढनेवार बलवान् राक्ष्षोगे मारनेवाठे, परम प्रसिद्ध मित्र अग्तिको प्रदीप्त करता हूं इससे मुशे
जीके वचनं हँ उनका उदाहरण दिया है । वसिष्ठजी बोरे कि, हे राजन् ! छ '
दिन सव ममुष्योको अभय दे दीजिये । जिससे मनुष्य निःशंक होकर हंसं ओर विचरे, =
रक्षोघ्न न् मन्त्र--यज्ञादिक कटय तथा कर्मकाण्ड एवम् गह्यकरममे प्राय; आदे है पद्टतिकारोने अपनी |
नहीं भिर, वे वहां पाँच सात ही रखे मिक्तेहं ८.
यहां भनत्विस्तर'", यह लिखा मिक्ता है, इस कारण हम रक्षोघ्न मन््ोका कुछ उल्लेख करते है-- = , `
` ओम् रक्नोहणं वालिनमाजिघमि, मित्रं प्रथिष्ठ मुपयामिरमं । शिशानो . `
आनन्द मिलेगा 1 यज्ञोरे प्रदीप्त क्रियाः हथियार पैनाये खडा हमा अग्नि रात दिन हमारी हरप्रकारफे = _ |
आघातोसि रक्षा करे ।१६।
ओम् अयोदंष्ट्रो अचिषा यातुधानानुपस्प॒श्च जातवेदः समिद्धः । आजिह्वया
भरदेवान् रभस्व कन्यादो वष्टवापिधत्स्वास्न् ।। २॥
` - है जातवेदः ! आपकी डढे रोहेकी हँ आय प्रतीम्त हाकर अपनी ज्वालसे यातुधानोसे भुरसा ॐ र ध ५
अभिचार वार कमं करनेदालोकरो अपनी कराल जिह्वसे अच्छी तरह भुरसाओ, जो कच्चे मासके खानक
राक्षस हं उन्हे उराकर अपने मुखम गृम करदो ।\२।। ध 1 ^
श्च (जप 18.29.,.1
व्रतानि , हृन्दीटाकासाहुत (८३९):
हे अग्ने ! आप यातुधानकी त्वचा भेद डाक, हिसक अशनि अपनी ज्वालासे इसे मारडाले, है जातवेद ! `
इ सके पर्वोको काटडाल, ठरावने आप इन्दं उरादें तथा उनके दकडे टुकड उडादं \\४॥। |
ओम् यत्रेदानीं पश्यसि जातवेदः तिष्ठन्त मग्न उत वा चरन्तम् । उतान्त- |
` रिक्षे पतन्तं यातुधानं तमस्ताविध्य शर्वा शि्ान ।। ५ ॥
है जातवेद ! इस समय जिस जिस यातुधानको बेडा विचरता एसम् आकाशम उडता हुमा आप |
. देखे उसे एक दीजिये, वीध दीलिये तथा आप, पने हथियारवाठे हं ही मार डालिये ।\५।।
ओम् यननैरिषः संनभमाना अग्ने, वाचा शत्यां अशनिभिदिहानः । ताभि. |
विध्य हृदये यातुधानान् प्रतीचौ बाहून् परतिभङध्येषाम् ।। ६
हे अग्ने ! यज्ञसे इषु तथा वेदमन््रोसे उनके शल्यको सीधा करतेहृए अकानि्योसे ललाते हुए उनके `
हस्योको उसीसे छेद डालो, तथा इन राक्षसोके सीषेहाथोकोकाटदो ।।
क ओम् उतारश्धान् स्पृणुहि जातवेदः, उतारेभाणां ऋष्टिभिर्यातुधानान् ! `
अग्ने पूर्वो निजहि शोशुचान आमादः ध्िवंकास्तमदन्तु-एेनीः ।\ ७ ।।
0 हे प्रतिप्त हुए देव ! जो छोडनेकी प्राथना करने लम हो एवं जो करचुके हो उन सब यातुधानोको ` । | ५ ५ ध
अपनी लपटोसे जला दे, पिले उन्हं मारडाल फिर कच्चे मांसको खानेवालो चितकवरौ किविड्क उन्हं |
}1७\)
ध समिधा यविष्ठ नृचक्षसश्चक्षुषे रन्धयनम् ।। ८ ।।
॥ डाल, मनुष्योपर (7
४ ४ ओ गो भ तीश्णनाग्नं चक्षषा रक्ष यन्न प्राञ्चं वसुभ्यः च्रणय प्रचेतः । हिस (६ ॥
हे अग्ने ! यहां बतादे जो वह है जोकि 'यातुधान यहकरता है है समिधते वदेह ! उसे तु मथ क
र अनकपा करनेकी दष्टिसि इसे मार दो 11८} (
1 स क्षस्यभिशोदचानं मा त्वा दभन् यातुधाना नृचक्षः ।। ९ ॥!
` न डरायें ।\९॥ न 4 - ८
ओम् इह प्रतूहि यतमःसोऽअग्ने यो यातुधानो य इदं कृणोति । तमारभस्व ॥
(1 है. अग्ने ! तीक्ष्ण चक्ुसे सामनेकौ यज्ञको रक्षा कर है अहृष्ट ज्ञानवाल | इमे वसुदेवो लिए प्राप्त त ५
1 ` कर, रक्षसे मारनेबाले प्रदीप्त हए तुन्षे, मनुष्योंको खानेके किष खोजते फिरनेवाले यातुधान राक्षसम
(4 क न्रेत॒राज क) | [ पणिमा-
हे अग्ने ! आप यातुधानो हटानेवाले हो, जैसे राजा अयने मंतरियोके साथ सेना से हाथौपर चढकर `
अपने वैरियोपर चढजाता है उसी तरह आपभी अपनी बडी बडी ज्वमालाओंको तीलौबनाकर पुरुषाय दिला
शे एवम् अत्यन्त तपानेवारे तीरोसे राक्षसोके बंध टो ।
जम् तव भ्रमास आद्या पतन्ति अनस्यश धषता शोशुचानः । तपृष्यग्ने `
जुह्ला पतङ्धा नसंदितो विसुज विष्वगुल्काः ।\ ५
हे अगमे ! श्लीघ्रताके साथ चारों ओर घूमनेवाली आपकी ज्वाला रक्षसोपर गिर रही है \ अषप
स्र वासे प्रदीप्तं होचुके हो, राक्षसोको जला डालो । उडकर तपानेवारे राक्षसोको १ |
सब ओर अपनी लटोको छोडो ॥। -
जलामो ओर डराओ, `
ओम् प्रतिस्पद्लो विसृज, तणितमो भवापायुविशोऽस्याऽअदब्धः । यो नो `
दुरेऽअधशंसो योऽअन्त्यग्े मा किष्टे व्यथिरादधर्षोत् ।। द
प्रतिस्पर्धा करनेवाले को अपनी लटोसे जलाकर दूर फेंक दो जल्दी करो । हमारी इस प्रजाका
रक्षण करो किसीसे दबो मत, जो निन्दक दूर या जो समोप उपस्थित है, बह कोई भौ तकलोफदेकरन डरासके।। ध ॥
4 समिधान चक्रे नोचान् धक्ष्यतसन्न शुष्कम् \\
ओम् उदे तिष्ठ प्रत्यातन्ष्व न्यमित्ौ रऽभओषतात्तिग्महेते । यो नो अराति ` | ५
हे अग्ने ! सावधान हजिए्, अपनो ज्वालाका विस्तार केरिथे हहे पैने हरियारवाले ! वेरियोंको |
तोके चडे तीरोको उल्टाकर दे । दबाये या बिना दजाये किसी भौ प्रकारके वेरीको मार दें ।।
दानका निषेध र रता है, उस नीचको सुखे काठक तरह जलदे ।! `
हे क देव ! ऊंचे हो, जो वैरी हमारे उपर आरहे है उन्हं बध डाले दिव्य पुरषार्थोको प्रकट करे = 1 |
इसके बाद ताल शाब्द ओर सुन्दर किलकिला शब्दे तीन परिक्रमा करके गाये ओर हेते मनुष्य निशं ५
होकर बोले जो जिसके मनमं हो । उसश्षब्दसे तथा होमसेउसका निराकरण होगा, एवं दिम्भोके अटृहसते = ।
` राक्षसौ नाहाको प्राप्त होजायगी, वह पापिनी दुंडा नामकौ रक्षप्तौ थौ । उसी जगह युधिष्ठिरजीते ृष्णने ८
` कहाया कि अग्नि, जलानेकेबाद उसमें पुजके प्रव्यका प्रक्षय सब रोगो न्त करताहै, ृष्टोकोनल्ञकरता =
है, इसीलिए किया जात है । हे पायं ! इसीलिए इते होलिका कहते है । होलिकानि्णय--इत्ते यह भदा = ` |
रहित प्रदोषव्यापिनी लेनी चाहिये, क्योकि, दुर्वासाने कहा है कि, फालुन पौणिमासीङके दिन रातकोहोलीका `
। उत्सव होता है । उसे दिवां विष्ट (भद्रा) रिक्ता ओर प्रतिपद्ये न करना चाहिये । नारदजीकामी कथ = ;
` है कि, प्रतिपत् चौद्श ओर भद्रा दिन, होलिकाका पजन होनेते वह सालभरतक् रण्टृको जलती ररी
` है, सदा फल्गुनकी पूणिमाको प्रदोषभ्यापिनी लेनौ चाहिये ! इसमे भद्रके मुलको छोडकर प्रदोषे होलीका ` 1
हो होता है दढा दिनम
रह ल १ करना चाहिये । द्रामे `
क प्रतिषदामें होलिका होनी चाहिये, किन्तु पहिले दिन भेद्राकी पूछे न होनि चाहिये । यदि दरसरे दिन साडे ` “
. तीन प्रहर पूणिमा हो प्रतिपदाको वृद्धि हो तब होलिका होती है । यह् भविष्य पुराणमं लिखा हुजा है धरि:
५ | उत्तरदिन प्ररोषके एकदेशमं व्याप्तिहो ओर पूवेरात्रिमं भद्रारहित नभि तब उत्तराकाही ग्रहण (न होता ४8 अ ह
लो क मास होनेपर होर होती है ॥\ पूजा म॑न्--हे होलिके ! खूब पीनेवाली राकषसौके भयसे डरे हए ` १ |
(0 पराहृजा + इसीके साथ पणिमाके व्रत भी पूरे ९ होते ६ ट
तानि | ए हिन्दीटीकासहित ` (द्श् --
क्षगाडौ राका हो तो भद्राके अवसानमं निल्लीथके अन्तमं भी होली जला दे, यह पुराण समच्चयमे लिखा `
ह आ है । कहे हुए होलीक पुजनको भद्रामें भौ करे । गंघ, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, दक्षिणा ओर फलेमे = `
नाममंत्रसे होलीका विधिपुवेक पुजन करे । योनि नामके मंन्रसे जोरसे पूजन करे, किलकिल शब्दोसे आपसमे `
उच्चारण करे, योनिके मत्रणके साथ स्तरियोको श्रमं पेदा करदे, जो मनुष्य योनि नामके मंत्रको बोर्ताहै (3 |
उसे एक सालतक कोई पीडानहीं होती, सुखी रहता है ! यदि पुवं दिन प्रदोषकालमें पूणिमा न रहतीहौ अथवा `
उसके रहनेपर भद्राविना समय न मिलएवम् इूसरेदिन प्रतोषकालमे पूणिमा न हो तो भद्राकीयुच्छमे होरीमे | |
आगदेनौ चाहिये । यहीलल्लने कहा है कि, पुथ्वीके जितने भौ शुभ ओर अशभ समयहं वेसबभद्रकौ
षंछसें होते हे इसमे सन्देह नहीं है । यदि भद्राकी पूछ मध्यरात्रके भौ पीछे आये तो प्रदोषमेही होली जलनौ (@
चाहिये. कयोकि--ल्िखि हुजा है कि, यदि मध्यरात्रसे भी अगाडौ यदि भद्रा पुच्छ हो तो प्रदोषमे होरीमे ` | |
आग दे इससे सुख सोभाग्यकी प्राप्ति होतौ है । भ्र दोषसे मध्यरात्रतक होलिकाका पुजन शुभ है यह ल्वा
` है \ जब पूणिमा परदिन साढेतीन पहर या इससे भौ अधिक हो एवं प्रतिषदाकौ वृद्धि हो तो पुणिमके उत्तर ||
यदि पूर्वेरत्रिमे भद्रा व्याप्त हो उत्तर दिन प्रदोषमे चसद ग्रहण हो तब उसमे स्नान करके होली करे क्योकि = `
सब वर्णोको राहुके दशने सुतक है । स्नान करके कमं करे । सुतकके अघ्नका त्याग करे । फालुन मल्मासहो
ह ८ रै व पजता ह । हे भूते ¦ त् भूति देनेवाली होजा । यह् ए हौलीकता ५ ं | तिर्णय नि य ४ ( १
| तत्र भाद्रपदामावास्यायां कुशग्रहणम् हेमाद्रौ उक्तं हारीतेन-मासे नभ
भावास्या तस्यां दर्भोच्चयो मतः \! अयातयामास्ते दर्भा नियोज्या पुनः पुनः।। `
नभ :-श्रावणः ।। दर्ान्तिपक्षेणेदम् ।! मदनरत्ने तु-मासे नभस्येऽमावास्या
1 रच्चयो मतः ।। इति स्पष्टमेवोक्तम् ।।
{1 2 श्रतराज.: ~ [ अमावस्या
अभावास्यावरतानि
अमावसये व्रत लिखे जाते है \ कुश ग्रहण--भाप्रपद्कौ अमावसके दिन होता है । यह हैमाद्रिने हारीत
वचनोसे कषा है छि, श्रावण "भाद्रपद कर अमावस्याके दिन कुक्षोको चयन होता है अर्थात् उसमे कुश्च लेने
-चाहिये, वे कश पर्वत दोषको प्रा्ठनहीं हते है, तथा वारंवार वेदिक का्यमिं किए जासकते भी ह, दर्शान्त
सानको लेकर श्रावण रखदिया है जिसका पौणिसान्त भानस म्रपद अथं होता है । मदरत्तने तो भाष्रषद
अमावस पसे हई
॥ ५ पिठेरीत्रतम्
अत्रैव अमावास्यायां पिठोरीद्रतम् ।। मध्यदेके तु पोला इति प्रसिद्धम् ।
सा प्रदोषव्यापिनी ग्राह्या ।\ यदा पूवेरात्रौ प्रदोषन्याप्त्यभावस्तदा परा कार्था।
अथ ब्रतविधिः प्रातः कृत्यं नित्ये मास पश्ाद्युल्लिस्य मम इह जन्मनि जन्मान्तरे
सौभाग्यवन्न पौज्रफलावाप्त्यथं पिरोरीव्रतं करिष्ये उति संकल्प्य
काले स्नात्वा प्रदोषसमयं देवीं संपूज्य षोडलोपचारेः ब्राह्मणं बुवासिनीं
| सस्ध्य
ज्य परचात्स्वयं भूञ्जीत । इति विधिः ।। नमो देव्य इति मत्रेण घोष
वतते \\ २ ।॥\ श्रीधरस्य सुतो ज्येष्ठः शंकरो नाम नामतः ।। तस्य भार्या विदेहा
पिः र क्षि क्षेमं मम भवेत्कथम् ।! तच्छ्रत्वा सदयं
मासकी अमावसके दिन कुशोका चयन होता है यह स्पष्टहीकहा है । वह कुशोको ग्रहण करनेकी
पुजनं कुर्यात् \। अथ कथा-नद्राण्युवाच ।। अपुत्रा लभते पुत्रं परत्र च॒ `
फलम् ।) व्रतानां परमं शरेष्ठं कथय त्वं हि पाठेति । १ ॥। पवेत्युवाच । `
चीनः श्रीधरो विप्रो ह्यष्टपुत्नो धनेक्वरः ।। तस्य भार्या सुमित्रा च गृहधमण ^.
मृ तापत्याभवत्सदा ।\ ३ ।। श्रीधरस्य पितुः श्राद्धदिने सा च प्रसूयते ॥ दुःखयुक्ता `
सुमित्रा च विदेहां पथेतजयत् ।। ४ । तत्तजिता तु सा शध विदेहा निर्गता `
गृहात् ।\ गृहीत्वा तं सृतं वालमपश्यन्ती गति क्वचित् ॥ ५॥ दुःखयुक्ता बनं
` प्राप्ता मठमेकं ददतं सा ।\ सरिच्च प्रबला यत्र विदेहा तत्र सागता । ६।मठ- `
मध्ये स्थिता नारी पयन्ती च पुनः पुनः ॥। कृत्रेयमधुना प्राप्ता लक्षणान्विति ¦
` सुन्दरी । मठाधिषा विचा्ेवं विदेहामाह सत्वरम् ।। श्रोरिङ्खेयेक्षवेताठेर-
नकैः स्थायते शुभैः ।। ८ ।! त्वां ग्रसिष्यन्ति सकला गच्छ श्लौघ' यथागतम् ॥ = `
-विदेहोवाच ॥। दुःखयुक्तं च मामत्र अमन्तौं च वनान्तरे ।॥ ९ ।। मा ग्रसेयुकश्चव `
244"
'बद्त्सु ज्ञोटिङ्ेष्वथाकस्म्
पुरम् ॥\ आगता येन मार्गेण तेनैव पुनरेव हि ।। २६ ॥ इति वत्वा वरं तस्यै
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संस्थिता ।। १४ ।। क्षणेनेकन सोटिद्धा मठमध्ये समागताः । ज्ञात्वा मनष्यगन्धं `
च मठनारीमथानरुवन् ।। १५ ।। कुतो मनुष्यगन्धहच मटगेहं समाधितः }) एवं
च्छचिस्मिताः ।। १६ ।। निशमध्ये चतुःषष्टिदेव्य- |
स्तत्र समागताः 1! अनेकंर्च सहारत्नैः फलैर्नानाविधैरपि ।॥ १७ ।1 निविष्टां `
मठदेवीं तामचेयन्ति स्म भक्तितः ¦ रावणस्य तु मासस्य कृष्णपक्षे कुहतिथौ
१८ ।। यृजान्तेऽतिधिरत्रास्ति कोऽपीति ङवते स्म हि ।} तदहमस्मीत्युक्त्वा
` सा विदेहा प्रकटाभवत् ।\ १९ \) न्यवेदयत्ततो दुःखं योगिनीभ्यः स्वमाश् सा `
ममाशचित्वमापच्चं मातस बालको मतः ।।२०।। यष्मदग्रे तमादाय स्थिता- `
स्म्येवं हि बालकाः ।। जाताजाता घृता सप्त तेनाहूसतिदुःखिता ।। २१ ।। भाग्येन
सङ्का यूयं याचे युष्मत्प्रसादतः \\ मम मभङ्चि योगिन्यः सजीवा हि भवन्त्वितिः
॥ २२ ।।तस्यास्तह्चनं श्रुत्वा करुणापुणमानसाः।। तत्र स्थितं च नेवेचयं विदेहायै |
वतीये
शंकरस्य च वत्लभे ।\ २४ ।। पुच्रपोत्रयुता सौख्यमिह भुक्त्वा सुरालयं
५1
य ता।1:२ ३।।चतुषष्टिस्ततस्तुष्टा ददुस्तस्ये शुभं वरम् ।। भीधरस्य स्नुषेत्वं हि `
भविष्यसि शुभे त्वमस्मदरदानतः ।! २५ ॥! आर्वष्टयुत्रा जीवन्तु विदहे गम्यतां `
विदेहाप्येकदा प्राप्त त पिठोराख्यकुहूतिथौ ।\ ३ ५ ० ॥ द्विजमन्त्रादिनिषषिदुनुभीषट- `
मुगा्नीमङ्कलाचारम.दद्धन चन त्यगीतकंः । ३१ ॥' र अपूजयच्चतुः- `
(८४४) ५ + | [अमावास्या
।॥ ४० \\ महालक्ष्मी एकवीरा कालरात्री च पीठिका ॥। संपुज्य नासभिश्चतः
पराथयेदूक्तितत्परा . ।। ४१ ।। नमोऽस्तु वहचतुः षष्टिदेवीभ्यः शरणव्रजं ॥
पुत्र श्रीवद्धिकामाहं भक्त्या वः पूजिताः शुभाः ।*४२।।एवमिन्द्राणि कथितं पिटो-
राख्यं महाव्रतम् ।। भक्त्या दररवन्ति या नायः कृत-कृत्या भवन्ति ताः ॥ सुख-
सौभाग्यसंयुक्ताहचतुःषष्टिप्रसादतः । ४२ ॥ इति श्रीभविष्यपुराणे पिगेरी- ` 1
व्रतम् ।।
लेनी चाहिये ! यदि पहिले प्रदोषन्याप्त न' मिते तो दूसरे दिन करना । व्रतविधि--ग्रात काल नित्यकमे
करके मासपक्ष आदिका उल्लेख करके कहे कि, मेरे इस जन्म ओर दूसरे जन्मोमें सोभ्य, पुत्र पौत्रस्य
पिटोरीव्रत--इसी अमासवके दिन होता है, यह मध्यदेशषमें पोानामसे प्रसिद्ध है, इसे प्रदोषव्यापिनी ग |
फलकी प्राप्तिके लिए भें पिठोरीव्रत करूंगा, एेसा संकल्प करके सन्ध्याके समय स्नान करके प्रदोषके समय
` देवीका पूजन षोडकोपचारसे करके, ब्राहमण ओर सुवासिनौको भोजन कराकर पीछे आप भोजन करे यह॒ = ` ॥
ब्रतको विषि पुरी हुई ।\ नमो देव्यै इस मंत्रसे घोडा उपचारोसे पूजन करे । कथा--इन्द्राणोने परा कि,
| पारयतीली ! जिस परम शे्ठ ब्तके किये निपुत्रीको पुत्र तथा इस ओर पर लोकमें बडा भारी फल मिले ५
वातकफे लेकर चटी थी, ठिकाना कोद था नहीं दुखी हो
किये \\१॥ पावेतीजी बोरी कि, पहिले श्रीधर नामका एक धनी ब्राह्मण था उसके आठयुत्रथे । उसकी `
तामवाली स्ते गृहधर्मसे सुयुक्त रहा करतौ थौ ।\२।। उसके बड़े लडकेका नाम शंकर था, उसकी ` ६ | | |
५; इससे बह टपर वन चलती बनी वह इस
हो वन पहुंच गई, वही एक मठ देला; वहां
एक बडी नदी थी ।\५।1६।) बह मठमे बेठ गई वहाकि रोग उसे बार बार देखने लगे कि, यह समी लक्णोवाली |
सुन्दरी कहांसे आई ।\७।। मठके माल्िकोने आपसमे विचार करके जलदीही विदेहासे कह दिया कि, यहां बडे `
बडे विकराल यक्ष वेताल रहते है ।८।।बे सब तुक्चे खाजायेगे नहीं तो तु यहांसे चली जा, यह सुन विदेहा =
बोली कि, मे दुखोकी मारी बनवन भटकती फिरतीहूं ।\९।। हे पिङ्काक्षि ! वेभी तुके क्यो खये मेराकल्याण _ `
कंसे हो, यह् सुन मठकौ
स्त्री दयालु होकर बोली किं ।\१०।। यहां चौसठ योगिणी ओरदिव्य योगी आदिक `
` सत ह मस् पूजनेके लिए यहां आते ह, यदि उनसे प्राथना करोगी तो ।११।। वे तेरे कामको पूरा करदमे । ` 1 ५
है" बह कहकर प्रकट होजाना र
। बिल्वपत्रोमं छिपकर बैठ रही ।\१४।। थोडेही समयमे बे सब स्लोटिग मठ्के बौच आगये मनुष्यकी गन्ध = `
बालकोंको जिला देगे इस समय तुम बेलपत्नोमे छिप जाओ।।१२।।जब वे पु कि, कोई अतियिदहै तब
रोजाना ।\१३।। मठनारीके वचन सुनकर विदेहाको परम [विश्वास होगया एवं
पहिचानकर क बोठे ।९५।। घरमं मनुष्यकी गन्ध कहास आरही है ? वह् इस प्रकार कही रहै थे कि, सृन्दर ` 44:
` भन्दहासवालो ।\१६।। चौसठ योगिनी मध्यरात्रमं वहां आ उपस्थित हुई वे अनेकों महारत्न एवं तरह तरहके `
थी 11१ ।१ १८ पूजाके पीछे बोली कि, कोई अतिथि है क्या ? यह सुनकर “भे हु" यह कह् विदेहा प्रकट होगई 1.
इस कारण अत्यन्त दुखी
मढ्देवीको भवितिपुवेक पुजने लगी, उस दिन श्वावण (भाद्रपद) कृष्णा अमावस `
श व्रता 1 | हिन्दीटीकासहित | । ( ८४५ ) ।
॥*२६।) एसा बर दे योगिनी अलक्ष्य होगरई; उसी समय आलो बेटे उसके पास आगये ।\२७।। योगिनियोका
ध्यान करती हुई अपने नगर आ घर चली गई ॥२८।। श्रीधर, सुमित्रा ओर शंकर भाई लोगोके साथ, आठ `
धुत्रोसहित उसे आते देख, मंगल उत्सवोके साथ ।२९।। उसका सत्कार कर परम प्रसन्नहुए, विदेहान एक ` |
साथ पिठोरी अमावसके दिन।।३०।ब्राह्मणोके मंत्रपाठ, ठोलकं ओर नक्काडेकौ आवाज मृदंगकी नकार `
नाच गान ओर अनेक तरहक मंगलाचारके साथ ॥\३१।। भवितपूुवेक चौसठों योगिनियोका पूजन क्या! `
जिनके स्मरण मान्नसे स्त्री, पुत्र पौत्र जर धन पाजाती है तथा इन्द्राणीके बराबर युखीं होजाती है । उनके
नामोको सुन, दिव्ययोगी, महायोगो, सिद्धयोगी, गणेदवरी \\२३२।।२३३॥। प्रताक्षी, डाकिनी, काली, काल-
रात्रि, निशाचरी, कारी, रौद्रवेतारी, भृत्तली, भूतडंवरौ ।।३४।। उध्वेकेशी, विरूपाक्षी, शुष्काद्धी, नर-
भोजिनी, भद्रारी, वीरभद्रा, धृखराक्षी, कलहप्रिया ।३५।। राक्षसौ, घोरक्ताक्षी, विदवरूपा, भयंकरी, चंडिका
` वीरकौमारी, वाराही, मुंडधारिणी ।३६।। सासुरी, रोद्रग्रहणी, चक्री, ककाली, भुवनेक्वरी, ।३७।। खदट्-
बागी, दीघंलंबोष्टी, मालिनी मंत्रयोगिनौ, कालाग्निहिणी, चित्रिणी, कंकाली; भूवनेदवरी ।१३८॥ कटकी,
1 कोटिनी, रौद्री, यमदूत, गरालिनी, कोराक्षी, कामुकी, काकदृष्टि, अधोमुखी ।।१९।। मुंडग्रघारिणी, `
व्याघ्री, किकिनौ, प्रेतभाषिणी, कालरूपा, कामाक्षी उष्टिणी, योगपौठिका ।।४०।) महालक्ष्मी, एक्वौरा = `
कालरात्री, पीठिका ये चौसठ योगिनियां हे इन्हीं नामोसि भक्तिभावके साथ इनका पुजन करना चहिमे |
॥४१।। मे आष चौसठ देवियोकी शरणको प्राप्त हई हु" मेने पुत्र ओर लक्ष्मीकी वृद्धिकी इच्छसे भक्ति- |
पुवेक आपका पुजन किया है ।४२।। हे इन्द्राणि ! यह पिठोरी नामका महाव्रत आपको सुना दियाहैजो |
स्त्रियां इसे भक्तिपुवेक करगौ वे कृतकृत्य होजायेंगौ एवं चौसठ योगिनियोके प्रभावसे वे पुत्र पौत्रोसे युक्त `
" .( होजायेंगौ ।\४।। यह धी भविष्यपुराणका कहा हभ पिढोरीव्रत पुरा हुआ \!
| गजच्छाया छ
६ असावास्यां करान्विता ।। सा ज्ञेया कुञ्जरच्छाया इति बौधायनोऽब्रवीत् से |
स्थित, सति \। अत्र स्नान श्रद्धदानादि कुर्यात्।।दइति गजच्छाया! `
` बोषायनने ठेसा कहा है कि, हंसके करस्थित होनेर जो करयुता अमावस्या है उत गजच्छाया प सम त
` चाहिये । हस सुं तथा कर हस्त नक्षत्रका नाम है, यानी सूर्यं हस्त नक्षत्रपर हौ तब हस्त र अमावसको `
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य न 4 2 = ड
त
कि हस्त नक्षत्रपर सूयं हो तथा चान्द्र हस्त न ५) तरसेहौ अभ अभायेक्त |
(त
तुराज्जनात् ।\ ततः प्रदोषसमयं पजयेदिन्दिरां शुभाम् कुर्थाल्नानाविध-
वस्त्रैः स्वच्छं लक्ष्म्याश्च मण्डपम् ।। नानायुष्पैः पल्लवश्च चित्रेदचापि विचि- `
ध त्रितम् ।\ ४ \} तत्र संपजयेल्लक्ष्मीं देवांश्चापि प्रपुजयत् ।\ सम्पुज्या देवनार्योऽपि `
` बहुभिदचोपचारकेः ।। ५ ।। पादसंवाहनं कुर्याल्लक्षम्यादीनां तु भक्तितः ।\ अस्मिन्च-
. हनि सर्वेऽपि विष्णुना मोचिताः पुरा ।\ ६ ।\ बलिकारागृहाहेवा लक्ष्मीश्चापि `
विमोचिता ।॥ लक्ष्म्या सार्धं ततो देवा नीताः क्षीरोदधौ पुनः ।\ ७ ॥\ प्रसुप्त
` बहुभालं ते सुखं तस्मान्सुनीहवराः ।। रचनीया सूत्रगर्भाः पर्यकाइ्च सतूकिकिाः
{1 ८: - दुग्ध फनोपमेवेस्वेरास्तताहच यथादिषम स्वापयंत्तान्सुराल्लक्ष्मी ध. ॥
वेदघोषसमन्वितः ।। ९ ।! लक्ष्मीदैत्यभयान्मुक्ता सुखं सुप्ताम्बुजोदरे \! अतश्च `
विधिवत्कार्या तुष्टचे तु सुखसुप्तिका ॥\१०।। तदह्नि पद्हाय्यां यः पदयासौख्य- `
विवृद्धये ।। कुर्यात्तस्य गहं मुक्त्वा तत्पद्या क्वापि न व्रजेत् \\ ११ ।नकृ्वेन्ति
| नरा इन्थं लक्ष्म्या ये सुखसुप्तिकाम् ।! धनचिन्ताविहीनास्ते कथं रात्रौ स्वपन्ति
हि ।\ १२ ॥ तस्मात्सवेप्रयत्नेन लक्ष्मी सुस्वापयेच्नरः \! दुःलदारिद्पमनिमुक्तः `
स्वजातौ स्यात् प्रतिष्ठितः \। १३ ।। जातीपत्रलवङ्ख॑ला फलकपुरसंय॒तम् \\ पाच-
५ कम् | ।! १६ ।! भरामयेत्स्वस्य शिरसि सर्वारिष्टनिवारणम् ।\ दीपवृक्षास्तथा
` कार्याः शक्त्या देवगृहादिषु । १७ ।। चतुष्पथे श्मशाने च नदीपर्वतवेदमसु ।॥ `
श्षम्ठेषु गोष्ठेषु चत्वरेषु गृहेषु च ।। १८ ।। वस्त्रैः पुष्पैः शोभितव्या राजमार्गस्य `
। भूमयः । गृहेषु स्थापयेन्नानापववान्नानि फलानि च ।। १९ ॥ नागवल्लीदलादीनि . `
रचयित्वा च निक्षिपेत् ।। शोभां कुर्याद्राजमा्गे कमलेडच विशेषतः । २० ।॥ ।
तदभावे वरादीनां कृत्वा तानि च शोभयेत् । एवं पुरमलंकृत्य प्रदोषे तदनन्तरम् `
१ २१॥1 ब्राह्मगान्भोजयित्वादौ सम्भोज्य च बुभुक्ितान् । लडका पूपमण्डाद्येः `
शष्कुलीपुरिकादिकेः ।। २२ ॥। अलृतेन भोक्तव्यं नववस्त्रोपद्लोभिना ।। ततोऽ `
( (। पराह्समये घोषयेन्नगरे नृप ।। २३ ।। अद राज्यं बलेर्लोका यथेच्छं कीडय-
भ ५1 1 १. प
इभिक्षं वाथ जायते ।२६।। वालबोके राजक्षोकस्तेषां तुष्टौ नपे सुखम् ।॥ `
श्नम् ॥। यष्टिकादिकृतानरवान् यदा रोहन्ति बालकाः ।। २८ ।। तदा राज्ञो ज्ये | ॥ ॥
वाच्यः परराष्टूविमदंनम् ।! यदा क्रीडन्ति बालास्ते लिङ्खं धृत्वा करादिष
॥। २९ ॥ तदा प्रसिद्धनारीणां व्यभिचारः प्रजायते ।। अन्नं यदा गोपयन्ति कीडने `
बालका जलम् ।\ ३० \। दुभिक्षं वृष्टयभादद्च शीधमेव प्रजायते ।। एवं बाल- `
कृतां चेष्टां बुद्ध्वा चास्य फलं वदेत् ।\३१।। -लोकस्यापि पुरे रस्ये सुधाधवलि- (५
ताजिर \\ गीतवादित्रसंजुष्टे प्रज्वाकितसुदीपकं ।। ३२ । अन्योन्यप्रीतिसंयुक्ते `
| १ दत्त॒ तालनक जन ॥। ताम्बूलहूष्टहूदय कुडंकुमाक्षतचचिते |] २ २ दुकूल : ५
पटूवसननेषथ्यादिविभूषिते ।। मित्रस्व जनसम्बन्धिस्वगोत्रज्ञातिपुजिते ।३४।॥ `
बलिराज्ये प्रकर्तव्यं यद्यन्मनसि वतते ।\ आत्मनो थत्र सौख्याथेः परदुःखकरं च
` यत् ।। ३५ ।\ वाराद्धनादिगमनं स्पष्टास्पष्टादभक्षणम् ।। अन्याम्बरधतिषश्चापि
दयूतादयं च न दृष्यति । ३६ ।। एवं तु सर्वथा कार्यो बलिराज्ये महोत्सवः ।\ जीवः `
हिसासुरापानमगम्यागमनं तथा ।। ३७ ।। चौर्यं विह्वासघातर्च पञ्चेतानि . `
४ मुनीश्वरा {ह्वराः ॥। बलिराज्यं तु नरकदाराण्युक्तान्यतस्त्यजत् ।। ३८ ।। ततीऽधरसान्र-
समये स्वयं राजा व्रजेत्पुरम् ॥। अवलोकयितुं रम्यं पद्मामेव इानैः शनैः ।\ ३
` महता तयेघोषेण ज्वल {ड्हस्तदीपकः ।
१
हसम्यंशोभां सुखं पदयन् कृतरक्षेः स्वकं-
रेः ।। ४० ॥ बकिराज्यप्रमोदं च दृष्ट्वा स्वमृहमात्रजेत् । एवं गते निशीथे च॒ `
परनि न तदा विहाय पुरवेच ६ परेऽह्वि सुखरात्रिका ।। ) ये
बलिराज्य
ते प्रहष्टाभिरलक्ष्मीः स्वगृहाङ्कणात् ।। ४२ ।। (दण्डकंरजनौयोगे पेते दः
राज्यं
1
ोत्सवं नराः । न कुर्वम्त वृथा तेषां धर्माः स्यतत
सनतकुमारसंहितायां लक्ष्मो्रतम् बल्िराज्योत्सवस्च
(८४८) "1 व्रत॒राज [ अर्मववास्वा-~ -
वहधिया पकम बना उनपर सफेद वस्त्र बिठा यथायोग्य सबदेवोको उसयर सुखादे वेदपाठ होता चला नाय `
॥८।।९॥) लक्ष्मी दैत्योके भयसे छटकारा एकर कमलम सुखपुवंक सोई थीं । इस कारण सबको विधिपूवेक
शयनं करना चाहिये ।\१०।। उस दिन जो लक्ष्मीक युखके ल्य कमलोकी शय्या बनाता है, उसके घरको
छोडकर खक्ष्मी कही नहीं जाती \११।। जो इस प्रकार लक्ष्मीजी सुख सेज नहीं बिछाते वे पुरुष कभौ घनकी
चिन्ता विना नहीं सोते ।\१२।। इस कारण सब तरहसे कोशिका करके लक्ष्मीजीको अवश्य ही सुखसेजपर
ष पौढावे, वह दुख दारिद्रसे छटकर अपनी जातिमं प्रतिष्ठित हो जाता है ।\१३।। जातीपत्र, लवंग, एक्ाफल
ओर कपुर इनको गऊके दूषमें डालकर खो अनाले, उसमे खांड मितादे ।। १४।। उनके लड. बनाकर लक्ष्मीको
भेंटकरे ओर भौ देशकालके अनुसार चारों प्रकारके भक्ष्यादि ।\१५।। लक्ष्मीकोभेट करे जौर कहे कि,
लक्ष्मीजौ मुश्नपर प्रसन्न हो जाये, इसके बाद दौपदान करे उसके बाद जलती हुई मसालको ।\१६१\ अपने
क्षिरके ऊपर फिरावे इससे सभी अरष्टोका निवारण होता है । अपनौ शक्तिके अनुसार देवाल्योमें दीष- `
कके वृक्ष बनावे ॥१७।। चौराहे इमान, नदी, पचत, घर, वृक्षमृल, गोष्ठ, चबूतरा, गृह इन सबमे दीपक |
` जलाने चाहिये ।\१८।\ राजमागेकौ भुभिर्योको वस्त्र ओर पुष्पोसे सुदोभित करना चाहिये । घरोमे अनेक `
तरहके पक्वान्न ओर फलरखे ।\१९।। नागवल्लीके दलोकी माला बनाकर रखे, राजमागंमे विशेष करके
कमः कमलोकी शोभा करे ।\२०।। इसके अभावमं घर आदिकोकी शोभा करे ! इस प्रकार नगरको सजावे । इसके `
बाद प्रदोषके समय ।\२१।। लड. पूरी जलेबी अपूप ओर मंडोसे ब्राह्य्णोको भोजन करा भूखोको जिमाना `
. चाहिये ।\२२।। आप अपना श्यृद्धनर करके भोजन करे \ नये वस्त्र धारण करे, अयराह्ुके समय नगरमे `
`. विधोषित करे क्रि \\२३।। आज बलिका राज्य है हे मनुष्यो ! हे बालको ! खूब खेलो, यह् बलिने अल्ञदेदी `
दै, मश्रियोके साथ बालक्रोके खेलको देख उन्हे खेलनेका सामान देकर जुभ-अशुभ देखे ॥\२५।\॥
उनके जलाय हुए दीपक या अग्नि ज्वालाको न त्यागे तो महामारोका भय अथवा घोर अकाल होगा \२६॥\ `
लकोके शोकम राजशोकं हो, उनके प्रसन्न होनेपर मनुष्यको सुख होता है । बालकोकौ लडाई 1
` युद्ध हो } यदि बच्चे रोवे तो \\२७।\ अवरयही वषसे राष्ट्का विनाश होगा, यदि बा्क लकडीका घोडा डा ` ८
बनाकर उसपर चदे तो ।\२८।। पर राष्ट्का नाद एवं अपने राज्य कौ जौत होगी ! यदि बालक लिगकोहायर्मे `
खेटे तो। कुरोकी स्त्रियोका व्यभिचार होगा । यदि खेलते हुए बालक अन्नको पानीमे
1 ४, ॥ १ दुभिक्ष्य ओर वर्षाका अभाव शीघ्री हौ जाता है, इस प्रकार बाल्कोकी की हईचेष्टाको `
इसका फल मनुष्योसे कहे जिसमें आंगन सुधासे सफेद हौ रहै हे, गाने बजाने हो रहे हे दीपक जल रहै ॥
हंसे सु सुन्दर नगरम ।\३१।।३२। जिसमें मनुष्य आपसमें प्रेम कर रहे हः तालनक दे रहै है, पान चबाकरप्रफु- `
५ ल्लिति हृद्य हो रहे हः माथेमे कुंकुम ओर अक्षत लगाये हुए हे, जो कि दुकूल पटुवस्त्र ओर नेपथ्य आद्सि
` सुर शोभि सुशोभित र हैः भित्र स्वजन सम्बन्धित गोत्र ओर ज्ञातिसे पूजित हं ।\३३।।३४।। जो जो मनमेंहोसोबलि- `
अस्षो क
उपवासस्य नक्तस्य गौरीराप्रौतये मुदा ।। ६ ।। ईशार्घाद्धस्थिते देवि करिष्येऽहं
व्रतं तव ।\ पति पुत्रसुखावाप्ति देहि देवि नमोऽस्तु ते । ७ ॥ नियममन््र-
` ततो मध्याह्भसमये स्नात्वा नद्यादिषु व्रती ।! सूर्यायाघ्यं ततो दत्तवा ध्यात्वा ।
` गौरीहवरं हरम् ।। ८ ।। अहं देव व्रतमिदं कतुमिच्छामि शादवतम् ।। तवाज्ञया `
0 + 1 2 ५11 १ <
पेत
1 1
0 1 9 ४ ४ गः
। हौ जातं हु, इसमं सन्देहं वहीं है ।\४३।। यह् भरी सनत्कुमार संहिताका कहा हु
उस्सव संपूण हुआ । | क
क ` गौरीव्रतम् (1
अथ मागन्ञीषञअमावास्यायां गौरीतपोब्रतम् \\ सूत उवाच ।\ इन्द्राणी
` प्राञ्जलिभूत्वा स्वर्पाति वाक्यमब्रवीत् ।! एकं व्रतं समाचक्ष्व पुत्रपौत्रसुखप्रदम् `
।।\ १ । इति वाक्यं तदा श्रुत्वा हुचुव+च वचनं शचीम् ।! ्युणु चावद्धिः सकलं
यन्मया सुरतं कृतम् \\ २।। बृहस्पतेस्तु जनकः पृष्टः प्राहाङ्धिराः सुधीः ।। यदब्रतं `
कथयाम्यद्य सद्यः सुखकरं परम् ।1 पतिपुत्रसुखावाप्तिर्जायते जगति स्थिरा ।*३।॥ ¦
गौरीप्रीत्यथमेवादौ स्त्रीभि्यंत्करियते तपः ।। गौरीतप इति ख्यातं तस्मात्त दू्रत- `
मूत्तमम् ।! ४ ।। तस्मास्त्त्रिया तपोभि तोषणीया शिवप्रिया । आदौ मागेक्षिरे
भासि ह्यमावास्यादिनें शुभे । ५ ।! गृह्णीयाच्चियमं तत्र दन्तधावनपुवेकम् ।
संपजयेत्सुधीः । गोरीमभ्यचयेत्पहचाष्विधिना येन तं शृणु ।॥ १९ ॥ पावती तु
र रम कत्येव गुहं गिरिञ्ञवल्लभा । १२॥।॥
(८५० ) न तरतरज | [र [जनादन दः
दीपं स्थ प्र दद्लयेत् ।। यावत्कलकलादब्दं कुवैते बककाककाः ।! २२ 1 ताव `
त्पुरस्तात्कर्तव्यमिदमेवाश्दरात्प्रभो ।\ उत्तिष्ठन्ते यदि नगाद्विहद्धादचारुलोचने |
॥। २३1) तदाक्णनमाशरेण सौभाग्यं ब्रजति स्त्रियाः ।। अत एतद्त्रते नारी प्चा-
दुत्थापयेच्च तान् ।। २४! तिथिमेकां समाप्यैवं दंपतीः भोज्य हाव्तितः ।। परि- `
पिन्दरककमेः ।! सन्तोष्य समनुज्ञाप्य स्वयं भुञ्जीत बन्धुभिः ॥ २६ ॥\ एवं
८ | ` द्वितीये वषे च नन्दाद्याइचाचरेच्िथीः }। वर्षेवरषे क्रमादेवं द्वितीयादिषु चाचरेत्
॥२७॥। एवं षोडषवर्षाणि कृत्वेतद्त्रतस्त्तमम् ।। पटचादुद्यापनं कुर्यादुव्रतसपुति- ५ ४ ॥
हेतवे ॥ २८ ।। मा्मशीषेऽथ संप्राप्ते मासे गौरीहवरगप्रिये ।! पौणमास्यां दिने रस्ये
8 निमंत्रय
यथोक्तेन विधानेन पुष्पधूपादिभिस्तथा ।! ३० ।! सोहलोभिश्च कासारे पुषा
शः
दष्ट
कनकनिमिताम् \! ३२ ।\ दद्याद्धेनुं सवत्सां च दक्षिणां वस्त्रसंयुताम् ।\ अन्यान्य?
य व्डष्टदम्पतीन् ।। २९.) मध्याह्भैऽष्टदले पद्ध गौरीं नारीं समचयेत् ।॥
पश्व भामिनी ।॥ पायसेन धृतेनापि शकंरामोदकंस्तथा ।\ ३१ ॥ पूरयित्वा `
व्यष्टसंख्यान् धातुमृन्मयसंपुटान् ।। युग्मानि भोजयित्वा तु तेभ्यो दद्याद्यथाविधि
३२ । अलंकृत्य यथाक्षक्त्या गौरी.मे प्रीयतामिति । गुरवे दक्षिणोपेतां गौरीं ` |
यथा््त्या दद्याहानानि भामिनि \। ३४ ।1. यद्यदिष्टतमं लोकं तत्तद द्विजन्मने ।॥ `
चापल्यमायुषि ज्ञात्वा संपत्स्वपि च सुन्दरि ।\ ३५ ।! षोडल्ञाब्दव्रतमिदं कुर्था- |
[1
८ नोपलब्धम्
भोगान्ययाकामं मुत्वा स्वर्गमवाप््यात् ॥ ५१ ॥ इतयङ्खिरो- = ।
1. ~, 1६"५।८।१।६। ह् (८५१)
| गौ रोतपोरत-मारगशौषेक अमावस्याके दिन होता है, सुतजी बोले कि, इन्द्राणौ हय जोड़कर `
अपने पतिसे बोलौः कि, कोई पुत्र ओर पौत्रोके सुलको देनेवाले भेष्ठ व्रतको किये ।\१।। उरक एसे वचन `
सुन, इन्द्र बोला कि, हे सुन्दरि ! जो मेने सुरत किये हँ, उन सर्बोको सुन ।\२।। बहस्यतिके पुखनेपर उसके षिता `
| | | अंगिरानेजो त्रत कहा चथा उसी परमसुखकारकं व्रतको मं तुम्हं कहता ह । लि ससे संसारम पतिपुत्रकी प्राप्ति ` | ५ क „ {८
` स्थिर हो जाती है ॥\३॥ जिसे गौरीकौ प्रसन्नताके लिए स्त्रयां करती है, इस कारण उसे गौरोतप करते हैयह् = `
परम उत्तम व्रत है ।\४।। इस कारण तपटारा स्ति्योको शिवकौ प्राणप्यारीको प्रसन्न करना चाहिए,
भागंश्िर ममावस्याके पवित्र दिन ।\५॥। दातुम करके उपवास ओर नक्तका गौरीशकी प्रस्तके लिट
नियम ग्रहण करे ।\६।। कि, है भगवन् शिवके अधे शरीरम विराजनेवाली ! भें तेरा ब्रत करणी । उससेमन्ने `
| | । ५ पति पुत्रोका सुख दे तेरे लिए नमस्कार है १1७1} सह नियम मन्न है इसके पीक्त मध्याल्ुके समय नदी आदि- ९ ४ ।
५ पवित्र स्थलोमें स्तान करके सू्यको अध्य दे, गोरीहकरका ध्यान करगी ।\८।। है महादेवं आक्षी 4 ४ (
आल्ञासे मं इस सनातनत्रतको करना चाहती हं! जाप उसका निर्वाह करिये ।।९॥। इस प्रकार कहुकरसोल्हू- =
` वर्षके लिपु नियम ग्रहण करके घर जाकर उपचार तयार करे \\१०।। शिवमेदिरभें जाकर शिव पूजन करे, ``
लिस विधिसे गौरीपुजन होता है, उस विधिको सुनिये ।\११।। पा्व॑तौके लिए नमस्कार, चरणोको परूजती हुं, |
न (1 हेमवतीके० जानृओंको पू०; अम्बिकाके° जघाञंको ओको भिरिशवल्छभाके° गृह्यको }। १२।। गहरी नाभि- ॥ । ५ 1
: बालीके० नाभिको; अपणकि० उदरको; महादेवीके° हदयको०, भीकंठकौ कामिनीके° कंठ्कोरस्वाभि |
कात्तिककी माताके० ॥। १३।। मुलको०; लोकमोहिनौके ° ललाटको ०; मेनका माताकी कुकषिके रत्केक्िनिम- `
। 0 स्कारः लिरको पुजलती हू \। दक्षिणम गणेह तथा बायीं तरफ बाहून सहित स्कन्दको पुज, धृष, रीपआरितथा ८ । - । ५.
नैवेद्य दे, प्रदक्षिणां करके नमस्कार करे 1\ १४।।१५।। एलका अध्यं देकर महेक्वरी देवीका ध्यान करे । तबा, |
| मिष्या वासके पत्रमे आठ लरकी बत्ती डालकर उसे गौके शुद्ध घौसे भर द, सरय्योदय तक दीपक जलवे, उस .
रात्रिको जागरण भी करे ।\१६-१८।। ब्राह्मुहुतंमे उठकर दविजदंपतियोका पूजन करे, इसके पीछे दुर्भाः = `
` गका दलन एवं पापाग्निका शामन करनेवाला ।\१९।। पक्वान्न भौर गुडाच्से भरा हज, पूरे फलको देनेवाला, =
ऋतुफल, पुरी, तिल, तंड ल ।\२०।! ओर सौभाग्याष्टक ये तीन धातु जने हुए पात्रमे रखकर उसयर तीष्क ~
स्थापित करके तिथिनामसे भू ।॥२१।। सुवासिनौके वचनो अन् सार दीपकको सुर्के लिएदिला दे, जब ` |
चने! यदि वुक्षसे पक्षौ उठ ठाडे हं ॥२३।} तो उनके दम माः श्दमात्रसे
कारण स्तर ११ श थः पीछे उठाचे यानौ इनके उठनेसे पहिले
(८ 1 ~“ = जमाकर
उसका एदवयं निर्बाध तथा भतु तसौस्य होता है । इसमं संशय नहीं है \ मनुष्य जन्म दुलभ है, उसमं भी द्विज _
हीना महाकठिने है \\ ३८ । उसमें भौ सदा्दारी होना कठिन है । एेसे जो स्त्रौ इस उत्तम बरतको करती
है ।३९।। वह् माता पिता ओर पतिकी शुद्ध वंशता प्रप्तकर खेती हौ । मन जन्म जौर संपत्तियोकी निमर्ता | {
सिख जाती है \\४०।। शुभयति पुत्रवालौ होकर शुभ तेजको प्राप्तं करतौ है, इच्छानुसार यहकि भोगोको `
भोगकर अन्तमें स्वगं राप्तं करती है \\४१।। इस प्रकार बृहस्यतिजौसे सुनकर शचीने सनातन गौरोतयोत्र-
तको किया } वह् दस व्रतके प्रभावसे पति पूत्रके साथ अतुल सौख्य ओर सुलभ सुराज्य पा गई ।\४२१। यह
` गौरीतपोव्रत ^ व्रत पूरा हुमा 0 ( य - ५९ 4
इदमेव महाव्रतापरनामक मुक्तं हेमाद्रौ कालिकापुराणे ।\ निखाद उवाच \\
महा्रतमथौ वक्ष्ये येनारोहति तत्पदम् ॥। सुरासुरमुनीनां च दुलंभं तद्िधिष्यृणु\\ | ¦
` परचेण्याष्वयुजस्यान्ते पायसं च घुतप्लृतम् ॥। नक्त भुञ्जीत शुद्धात्मा ओदनं
चक्षवान्वितम् ५ ।\ आइवयुजस्यान्ते कातिके पर्वणिअमावस्यायाम् ।! कातिकान्ते- `
छः र ग्रहान् ।\ षोडशाष्टौ तदधं वा दम्पतीनां
वतम् म् ¦ १ ॥ तवाज्ञया महादेव तत्र॒ निवहणं कुर ।\ उक्त्वैवं नियमं गृह्न्व्षा `
डश खास्तु रयि # पारयिष्याम्यनुत्तमाः ।\ ततो मागेशिरे |
क्तमासाद्य दीपा्परज्वाल्य षोडशा ।। परुनाथं महादेवं भक्त्या नत्वा , `
६१८।८।१। ददत वा १८५१...
पञ्चगव्यं च हृष्टो भुञ्जोत वाग्यतः ।\ ्यत्किञ्न्चिदेतदुषिष्टं महादेवम्दीरयेत् ॥।
प्रारभेयं विधि कुर्याहरिद्रो वाप्यथेकवरः ।! वित्तसामथ्येतदचैव प्रतिमासं च तं
चरेत् ।। स्वल्पवित्तोऽथवा कञ्चित्पौषादौ का्तिकावधि ।। नक्तं ङत्वा त्वमा- `
वास्यां प्रागुक्तं विधिना ततः \। प्रतिपदामपोष्यवं पञ्चगव्यं पिदेच्छचिः ।
महादेवं स्मरन्साधं भक्त्या मुञ्जीत लिद्धिभिः ।। मासस्य कातिकस्यान्ते त्स्नं
भ्राग्विधिमाचरेत् ॥, प्रतिपदा हितीया च दे तिथी समुपोषयेत् ।। एवं पौषे तु ध.
संमाप्ते प्रतिपद्यक्तमाचरेत् ।! द्वितीयाब्दे हितीयां तपवसेत कातिकावधि ।\
आददीत तिथि चेकां मागंमासे तथा परम् ।! पु्वंवत्सन्त्यजेत्पौषे प्रत्यब्दं चव- | |
भाचरेतः 1! कृत्वेवं षोड वर्षे पौणमास्यां समदगमे ।। कात्तिक्यामदये इव्यर्थः ।
` पूवेवहेवमभ्यच्यं कृशानुं धाम्नि तपंयतेत् ।! "महादेवाय गां दयाहीललिताय द्विजाय 4८ |
च ।! हमश्पृगीं सवत्सां च सचण्टां कांस्यदोहनाम् ।। शिवव्रतधरान् विप्रात्सहा-
` चा्याइ्च षोडशा ।। सम्पूज्य हेमवस्त्रादै्यथाराक्त्या तु दक्षिणाम् । छत्रोपानह- `
` कुम्भाश्च दद्यात्तेभ्यः पृथक् पृथक् ।। भोजयेत्ताम्विसृज्येवं मिथुनानि च षोडश ।\ `
` ब्राह्मणांश्च यथाज्ञक्त्या भोजयेदेदपारगान् ।\ एवं महाव्रतं चेतद्ब्रह्मघ्नोऽप्यघ- `
` भर्षणम् ।। धन्यमायुः प्रदं नित्यं रूपसौभाग्यदं परम् ।। स्त्ौपुंसयोह्च निर्दिष्टं
व्रतमेतत्पुरातनम् ।। विधवयापि कर्तव्यं भवेदविधवा च या \! उपोष्य प्रतिमासं तु |
भुञ्जीत व्रतिभिः सह \\ एकट्ित्रिचतुभिर्वा सरवेष्वब्देषु शवितितः । जन्ते चान्ते
च वर्बाणां प्रारम्भविधिमाचरेत् । अथारन्धे तरते कश्चिदसमाप्ते मृतो भवेत् ।! . `
सोऽपि तत्फलमाप्नोति ब्रतारम्भ प्रभावतः ।! वाचकाः श्रावकाश्चेव श्रोतारो `
` ब्रतिनदच ये । भवन्ति पुण्यसंयुक्तास्तद्व्रताभिमुखादच ये ।। इति श्रीहेमाद्रौ `
1 महात्रत-इसीका दूसरा नाम है 1 यहं हेमाद्रिने कालिकापुराणसे कहा है । निलाद बोला कि, में
` महाव्रत करूगा जिससे उसके निर्यं
(५ आद्रवयजके अन्तमं अआनेवाले मास कातिकके पर्वे घौतसे ५५ स तौ नी हई पायसको
के पदको पा जाता है, यह सुर असुर ओर मुनिर्योको दुलभ है इसकी विधि सुनिये ८ ५ ` (
(८५४) ८ वतरन 4: `. [ अमावास्या
कर दीजिये, मे सोलह वषेतक इस नियमको ग्रहण करके श्रेष्ठ प्रतिपदा आदिको पारणा कल्गी } पौछ मा्-
शषीषं मासमे अमावस्याके दिन महादेवका स्मरण करके गुरुको पुछकर उपवास करे । शिव भक्त ,भस्म लगाने-
वाले सोलह वा आढ ब्राह्मण दपत्तियोको निमंत्रण दे देवे ! ओर नक्त॒ कालको प्राप्त होकर सोलह दीपक `
जलावे, बे सब भवितिपुवंक पदुनाथ महादेवके कर दे । पीछे घर आ पवित्र वस्त्रोको भूमियर बविछाकर निरा-
हार रहकर उसी पर शयन करे, सूर््यके उदय हते ही स्नानकर दीयकोंको ले, वेद्य ओर स्नानका सामन `
लेकर क्षिवमंदिरमें जाय, मंडय बनावे, दो वस्त्र, घटिका, धूप, ध्वजा ये सब देकर स्थान करावे, पलभर पच-
` गव्य, घुत्, मधु, दधि, पय, रस ओर खांड इनसे करमशः स्नान करावे, तिलके पानीसे स्नान कराकर पीरेगरम
` पानीसे स्नान कराना चाहिये, पोछे कपुर, अगर ओर चस्दनका हवन क्ष करना चाहिये, इस प्रकार भक्ति-
पर्वक पुजन करके हेम रख, घरको चला जाय यानी सोनेके एूलको भुजोपर रखकर चला जाय एसा हेमषद्वि । `
कहते हे । अनेक फलोसे पूजकर नैवेद्य दे दे, घर जाकर विधिके साथ अग्निस्थायन करके तिल घीकाह्ववर = |.
करे । त्रतीको उचित हे कि जोड़े ओर आचा्य॑को भोजन करावें, शक्तिके अनुसार सोना ओर वस्त्रोकादन |.
` दे इस प्रकार आचार्य्यादि सबका विसजन करके बन्धुजनोकेसाथ पिरे पंचगव्य पौकर मौनपूर्वक प्रस्हौ `
भोजन करे ¦ जो कु दिया है, वह् संब महादिवका उदे क्करही दिया जाता है । दरिद्र निधन सबकोप्रार-
` भम यही विधि करनी चाहिये, घनकौ स्थितिके अन् सार प्रतिमास इस त्रतको करे, यदि कोई मामूली जादमौ ` `
। हो तो शेषके आदिमे कातिकतक करे । अमावस्याके.दिन नक्त करके कही हुई विधिके अनुसार प्रतिपव्मे | `
उपवास करके पंचगव्य पीबे । महादेवका स्मरण करता हा दिवभक्तोके साथ भोजन करके ! कातिक-
८ अन्तके मासमे पिले कही हई पूरौ विधि करे, प्रतिपदा ओर द्वितीया दो दिन उपवास करे । इपर `
पौषके आजाने पर प्रतिषदासे नक्तं प्रारभे करदे, दूसरे वषं कातिकतक द्ितीयाका उपवास करे, मर्ण-
एक तिथि लेले, पहिलेकी, तरह पौषमे छोड दे, प्रति वं इसी तरह करे \ इस प्रकार सोलह वर्षभं |
` कातिकी समुद्गमभे, यानी कातिक्ौके उदयम पहिलेकौ तरह देवको पुज पूर्णाहुतितकरकर अग्निक `
मातमत समारोपिते महादेवी उदेत दोधत बाहाणे लिय, सोत सग, कपि दोहनी, == |
-पुरष दोनोके लिये कहा है विधवा ओर सुहागिन दोनोको यह् ब्रत करना चाहिये । प्रतिमास उपोषण
करके व्रतियोके साय भोजन करे । इस भ्रकार एक-दो-तीन-चार वा सब वर्षेमिं शवितके अनुसार अन्तअन्तमे
व } विधि करे, यदि व्रतके आरंभे करके विना समाप्त करिये मर जाय, तो वह मी इसङ़े फल्को ब्रते = |
` आरंभके प्रभावसे पा जाता है, वाचक, श्रावकः, भरोत, त्रतभक्त ओर व्रती सभीको पुण्य मिलताहै,य्श्रौ |
` पृजयेत् \! शान्ताकारमिरि ध्यानम् \! विद्वव्यापक विवे
प्रभानाथ सर्वव्यापिन् रमायते ।। आत्तनं कल्पितं भकः
~ . भतन 1 -- ~. ६१८ ८।नगसवहत ८८.९1
खदि ।\ भान्वन्तेऽवाथ मध्याह्भं पुण्यकालः स नान्यथा ।\ अत्रेवाइवत्थमूके विष्णु- `
पूजनम् ॥। तत्र संकल्पः-तिथ्यादि संकीत्यं अस्यां सोमवत्यमायां सकल्पापक्षयाथं `
पुत्रपौत्रा्यभिवृद्धय्थं जन्मजन्मन्यवेधन्यसन्ततिचिरजीवित परमसौभाण्य प्राप्ति `
कामोऽहमदवत्थम्ॐे लक्ष्मीसहितविष्णुपूजां तदङ्कतया विहितमदवत्थपजनं च `
करिष्ये । इति संकल्प्य अहवत्थमुदक सेचनपूर्वकं सूत्रेण वेष्टयित्वा तन्मूले विष्णं `
कुपया दीनवत्सल
मयोपपादितां पूजां गृहाणेमां हि माधव ।\ सहखशीषत्यावाहनम् ।! सूयेकोटि-
1 पुरुषएवेदमित्यासनम् | नारायण जगद्व्यापिञ्जगदानन्दकारक ।!विष्णुक्रान्तादि-
या गृहाण पुरुषोत्तम ।\
संयुक्तं गृह पाद्यं मयापितम् ।\ एतावानस्येति पाचम् ।। फलगन्धाक्षतेर्ुक्तं `
५ वुष्पपुगसमन्वितम् \\ अघ्यं गृहाण भगवन् विष्णो सदंफलप्रद ।। त्रिपाहूष्वे इत्य- ` |
र्यम् ॥ कपूरेलालवद्धाटचं शीतलं सलिलं प्रभो ॥। रमारमण कृष्ण त्वमाचाम्यं `
प्रतिगृह्यताम् । तस्माद्िराखेत्याचमनीयम् ।\ पञ्चामृतं मयानीतं पयो दधि कृतं `
मधु । शकरागृडसंयुक्तं स्नानाथं प्रतिगृह्यताम् ।! पञ्चामृतस्नानम् ।। गङ्ख ` |
कृष्णा गौतमी च कावेरी च शतह्वदा । ताभ्य आनीतमुदकं स्नानार्थं प्रतिगृह्य: |
0 ताम् ।\ यत्युरुषेणेति स्नानम् ।! पीतवासस्त्वटि
1 मया दत्तं सुद्ोभनम्
८ । भूषणानि महार्हाणि म् ताह हा
त्वयि विभो मया यत्समुपाहतम् ॥ `
नारायण जगत्पते ।। तस्माचजञेत्यु- `
{८ ~. ध व्रतराज ५ [ अमावास्या-
नोराजयिष्ये त्वां विष्णो कषां कुरु सम प्रभो \। नीराजनम् ।। सया कायन मनसा
वाचा जन्मदा्ताजितम् ॥। पापं प्रशमय श्च प्रदक्षिणपदेपदे ॥ नाभ्या आसीदिति
` भ्रदक्षिणा
रहित विष्टर श्रवसे नमः \\ सप्तास्येति नमस्कारम् ।\ आदिमध्यान्तरहित भक्ताना
निष्टदायक ।। पुष्पाञ्जलि मया त्तं गृहाण सुरपुजितं । यनेन यज्ञमिति पुष्पा- `
गस ।) व्यवताव्यक्तस्वरूपाय सृष्टिस्थित्यन्तकारिणे ।॥ आदिमध्यान्त-
डजलिम् ।। ततः अमाय नमः सोमायै नमः इति नाममन््राभ्याममासोमयोः
हर मे पापं वृक्षराज नमोऽस्तु ते ।। इति मन्तरेणादवत्थं सम्पुज्य ।। अमासोमब्रत- | `
¡ संपू्णफलहेतवे ।। वायनं द्विजवर्याय सहिरण्यं ददाम्यहम् ।। इति मन्तरेण `
वायनं इत्वा \\ यन्मया मनसा वाचा नियमात्युजनं कृतम् ।\ सव सम्पुणतां यातु ह
तद्विष्णोऽच प्रसादतः ।। इति प्राथयेत् \। ततो मू लतोन्न
` प्रतिप्रदक्षिणमेकंकफलादपणपूर्वकमष्टोत्तरशतं
४ उवाच । शरतल्पगतं भीष्ममुपगम्य
ऽस्माकं कुलक्षयः \\ न सन्ति भुवि भूपाला बालवृद्धातुरादृते ।। ३ ।! अव-
तोन्न० नमोनमः ।। इति मन्रेण `
(१०८) प्रदक्षिणाः कार्याः ॥
मपगस्य युधिष्ठिरः ।। कृतप्रणामो
हतं वचनमब्रवीत् !। १ 1} युधिष्ठिर उवाच \। हतेषु कुर्मुख्येषु भीम- ` ^.
वयं पञ्च वंशे भारतसंज्ञके \। एकातपच्रमपि च राज्यं मह्यं न रोचते ।\४।॥ `
ऽनिशम् \। ५। अदवत्यामास्वनिदेग्यो ह्य त्रागभेसंभवः ।। अतो मे द्विगुणं ध
11 किकरोमि क्व गच्छामि पितामहं वदाधुना ।॥ ( ॥
त्र तानि 1 हिन्दीटीकासहित (८4) |
` क््याभिः समलंकृता ।। अलकेव कुबेरस्य दाक्रस्येवामरावतो ॥। १६ ॥। तेजोवतीव ` |
रत्नाढचया पावकस्य महापुरी \। तत्र राजा रत्नसेनो बभूवामितविक्रः
। (
9 ¢ ^ „४
= व (
1 १७१...
। 1
॥ + {4}
तस्य राज्ये बसद्विप्रो देवस्वामीति विभरुतः ।। तस्य श्री रूपसंपन्ना नाम्ना घनवती ` |
द्युभा\\ १८ \। यथाथेनामधेया सा लक्ष्मीरिव सविग्रहा ।। तस्यां सञ्जनयामास
सप्तपुत्रान् गुणान्विताम् ।! १९ ।। एकां दृहितरं रम्यां नाम्ना गुणवतीं नुष ।
कृतदाराङ्च ते पुत्रा विहरन्ति यथासुखम् \\ २० ।। कन्या कुमारिका चासीदनुरूष- ` |
श्रिर्याथिनी ।! अत्रान्तरे दिजः करचि्क्ला्थं समुपागतः ।। २१।। दीप्यमानः
स्वतेजोभिम्तिमानिव पावकः ।। हारदेशमुपागत्य प्रयुयोजादिषं तदा ।। २२ ।। ¢ ध
देवस्वाभिस्नुषाः सप्त समुत्थाय ससंभ्रमम् ।। भि्तां प्रत्येकमानिन्यदंदस्तस्मे
द्विजन्सने ।\ २२३।। अवेधव्यािषः प्रादात्ताभ्यः सौभाग्यसंपदम् ।। ततो गुणवती ` । | ध |
मात्रा प्रहिता सह भिक्षया ।\ २४ ।। विप्राय भिन्नां प्रददौ कृत्वा पादाभिवन्द- `
नम् । आक्लिषं च ददौ विप्रः शुभे धमेवती भव ।! २५।। सा विलक्षा गुणवती `
श्रुत्वा प्रत्याययौ गृहम् ।\ मात्रे निवेदयामास आशिषं तेन योजिताम् ॥ २६।॥ |
ध ६ श्रुत्वा धनवती पुत्रीं करे धृत्वा समाययौ \! प्रणति कारयामास पुनस्तस्मे द्विज- ` 1
सचिन्ता प्रत्युवाच ह ।\ २८ ।। घनवत्युवाच ।। प्रसीद भगवन्विप्र वचनं मेऽवधा- `
` न्मनें ।। २७ । तथैवाक्िषमुच्चायं विप्रस्तामभ्यनन्दयत् ॥ श्रुत्वारिषं धनवती
रय ॥\ स्नुषाभ्यः प्रणताभ्यो मे त्वया दत्ता वराकिषः ।\ २९ ।। अवैधव्यकराः `
` पचर ुततसौभाग्यसाधकः ॥। सुताया प्रणतां मे बिपरीतं त्वयोदितम् ॥! ३० ।। = `
॥३१॥। द्विज उवाच ।। धन्यासि त्वं धनवति र्वा ति
८ ५ | अ मयाशीदुहितुस्तव । ३२
५: ॥ १ धर्माचरणमत्यथ कतंग्यमनया
(८५६); = स व्रतराज [अमावास्या `
तदा वैधन्यभजञ्जनम् \\ इत्य् क्त्वाबराह्मणोऽन्यत्र गतो, भिन्लाप्रतीक्षया ।\ ३९ \\
धनवत्यपि पुत्रेभ्यः प्रोवाच वचनं तरा।।धनवस्युवाच।\इयं दुरटंलिता पुत्रास्वसागुण-
वती लुभा।\४०\।सोमागमनमात्रेण भवेदेधव्यभजञ्जनम्।।अस्ति यस्य पितुभक्तर्मा-
तुवेचनगौरवम् ।। ४१।। स प्रयातु सह स्वल्ला सोमामानयितु दूतम् \\ पुत्रा ज्चुः)!
| ज्ञात सतस्तव स्वहन्त पुत्रीस्नेहवश्ं गतम । ४२ ।। यतो दे्ान्तर पच्रन्पस्था- | ध ।
पयसि दु्गमम् \। अन्तरे दुस्तरः सिन्धुः रतयोजनविस्तरः \\ ४३ ।। अशक्यं गमन .
तत्र न क्षमा गमने वयम् ।। देवस्वास्यवाच ।\ अपुत्रः सप्तभिः पुत्ररहं यास्यामि | ध छ
एव वादिनि |
सक्रोध देवस्वामिनि तत्क्षणे ।\ ४५ ।} शिवस्वामौ कनिष्ठस्तु पुत्र प्रोवाचसंमतः।।
तात मा वद चैवं त्वं रोषावेक्वशं गतः ॥ ४६! मयि तिष्ठति कः क्तो गन्तुं
सिंहलम् ।\ ४४ ।। अनायिष्यामि तां सोमां पुत्रीवैधव्यनाशिनीम् ।\
१. म ग गृहीत्वा शिशुभोजनम् ।। ५१।। क्रावकास्तुन वे गृधाद्धोजनं ४ |
भृशम् र॥। १९ प्छ ४ च्छ बालकान् गृधरहिचन्ताकुलितिमानसान् ।! ५२ ।। गृधराज ` र ५
मव र्य न दं मया ।। ५३
1 मीव किना
व्रताति ¦ ॥ हिन्दीदीकासहित ` ` (ष्पी
गुधाराजेन वेगिना ।\ ५९ ।\ †सिहलद्रीपमागत्य स्थितो सोमागहान्तिके 1 ततः
प्रत्यूषसमये संम॒ज्याद्धणमण्डलम् ।\! ६० 1। ठेपनं चक्रतुस्तस्या दिवसे दिव्ये `
श्भम् ।। एवं विदधतोस्तत्र पणेः संवत्सरो गतः ।। ६१ ।। स्तषा: पुत्रान् समाहेय
सोमा पप्रच्छ विस्मिता 1) माजनं लेपनं कोऽत्र करोति मस कथ्यताम् ।। ६२ ।
एकदवाथ जगदुःसवे +कृतमिदं न हि ।! ततः कंदाचिद्रजकौ निभृता संस्थिता
निक्षि \\ ददश ब्राह्मणीं कन्यां मार्जयन्त गृहाङ्कणम् ।। ६३ ।। लिम्पन्तमङ्कणं |
प्रातर््रातरं च शुचिव्रतम् ।। सोमा प्रच्छ तौ गत्वा कौ युवां कथ्यतां मम ।\६४॥ |
ऊचतुस्तौ तदा सोमासावां ब्राह्यणपुत्रको ।\ सोसोवाच ।\ दग्धास्मि बत नष्टास्मि
ब्राह्मणौ गृहमा्जक्यै ।। ६५ ।। कां गति बत यास्यामि पापादस्मादसंहयम् ।॥
पापजातिरहं ख्याता रजकी सवेथा द्विज \। ६६ ।। कथं त्वं ब्राह्मणोभूत्वा विरुद्धं
मे चिकीषेसि ।! शिवस्वाभ्युवाच \ एषा गुणवती नाम स्वसा मम सुमध्यमा
` ॥ ६७ ।\ अस्याः सप्तपदीमध्ये वेधव्यं संप्रपत्स्यते ।। तव साच्निध्यमात्रेण भवेहे- |
घन्यभजञ्जनम् ।\ ६८ \} अतो हेतोः सह स्वस्रा दासकमं करोमि ते । सोमोवाच ।॥ `
` अतःपरंन करतव्यं यास्यामि तव शासनात् ।\ ६९1 इत्युक्त्वा गृहमागत्य |
` स्नुषाभ्यः प्रत्युवाच ह । यः कष्िचिन्मम राज्येऽस्मिर्स्रियते मानवः क्वचित्
ष्टा धनवती हृष्टा पजामथाकरोत्।\ अत्रान्तरे शिवस्वामी तदा देशञान्तरात्स्वसुः `
॥ ७० ॥ तथैव रक्षणीयोऽसौ यावदागम्यते मया ।। कस्यचिद्रचनात्कोऽपि न॒
दग्धव्यः कथञ्चन ।\ ७१ । तेत्युत्वा स्नुषाभिः सा सोमा याता महाम्बुधिम् !\ `
पारमुत्तारयामास क्षणेन द्विजपुत्रकौ ।! ७२ !\ स्वयमाकाशमार्गेण सोत्ततार
महार्णवम् ॥) प्राप्तः काञ्चीषुरीं सवं निमेषोत्तत्प्रभावतः 1! ७३ \ सोमां
` ॥ ७४ ।\ सदृक्षं वरमानेतुं जगामोज्जयिनीं प्रति । आनिनाय वरं तत्र देवामंसुतं |
सुधीः । ७५ । ब्राह्मणं सद्रशर्माणं गुणिनं सदृशं स्वसुः 1 ततः सा रजकी सोमा |
पत् \। ७६ ।। सुलग्ने च सुनक्षत्रे देवस्वामी तु कन्यकाम् 1। ददौ
गुणवतीं गुणिने ण ।। ५७ ॥ ततो वैवाहिक्त्रहैयमाने
0१ ब्रतराज [अमावास्या
हरषसपूरणा पू्णेकामा स्वमन्दिरम् ॥। ८३ ॥। अत्रान्तरे गृहे तस्याः प्रथमं तनया `
मताः ।! पुनः स्वामी मृतस्तस्या जामाता च ततो मुतः ।\ ८४ ।! आगच्छन्त्या- `
स्तदा तस्याः सोमवारान्विता तिथिः । अमावास्या बभूवाथ;मृतसंजीवनी तिथिः
।॥\ ८५ ॥ सः ददं जलोपान्ते वृद्धां काञ्चिस्स्त्रियं तदा ।। तूलभारभराक्रान्तां `
ऋन्दमानां सुदुःखिताम् ।\ ८६ ॥! वृद्धोवाच ।\! अवतारय मे पुत्रि तूलभारं शिरः
एत-दारभराक्रान्तां कन्दमानां सुदुःखिताम् ।\ ८७ ।। सोमोवाच
८ अमावास्याद्य हे वृद्धे सोमवारयुता तिथिः \\ तूलकं न स्पुश्चाम्यद्य नियमोभ्यं मया
कृतः । ८८ ॥। पुनद यान्ती सा मूलभारवतीं स्त्रियम् ।। साप्युवाच ततः पुत्रि ` |
मूलभारो महानिति ।। ८९ ।\ अवतीय क्षणं तिष्ठ सद्धः यास्याम्यहं तव ।\ सोमो-
वाच ।। अद्य मूलं तथा तूलं न स्पुज्लामि कदाचन ।\९०।। " ततोऽवत्थतरं प्राप्य
।\ स्नात्वा विष्णं समम्यच्यं शकंराभिः प्रदक्षिणाम् ॥९१।
ष्टोत्तरं शतम् ।! भीष्म उवाच ।! यदा प्रदक्षि-
जीवितवन्तस्ते जामातृपतियुत्रकाः 1 नगरं `
माकीणं तद्गृहं च विशेषतः ।\ ९३ ।! अथ याता महाभागा सोमा स्वभवनं |
जीवितं वीक्ष्य भर्तारं पुत्राञ्जामातरं तथा ।! ९४ 1 अभिज्ञातान्समासाद्य ` |
कृतट् वाः पग्रच्छुस्तां तपस्विनीम् ।! ९५।। |
चु तुः ।। मृतास्ते तनया देवि पतिजामात्बान्धवाः ।। जीवितास्ते कथं देवि
च कथं वद ।। ९६ ।। सोमोवाच ।। गुणवत्यै मया दत्तं त्रतराजस्य पुण्य- `
। मृतास्ते तद्धिपाकेन पतिजामातपुत्रकाः ।। ९७ ।। तल्कं न मया स्पृष्टं |
च तथा स्नुषाः ।! अदइवत्थे विष्णुमभ्यच्यं कृतास्तत्र प्रदक्षिणाः ॥\ ९८ |
नदीतीरभवं शुभम्
सा चकार महाभागा तदेवाष्टो
णावतं कृतं शकरहस्तया ।\ ९२ 1! तदा जीविः
कृतकृत्यताम् 1 प्रणिपत्य स्नुषाः :
ककंराहस्तया तत्र कृतमष्टोत्तरं शतम् ।! जीवितास्तत्परभाबेण पतिजामातपुत्रकाः
सर्वाभिः क्रियतामद्य व्रतराजो विधानतः ।। भविष्यति न वेधव्यं सौभाग्यं `
संभविष्यति \। १०० ।। स्नुषास्ताः कारयामास तथा सोमा व्रतेदवरम् ।। भुक्त्वा `
तानि 1: हिन्दीटीकासहित = (८६१) |
व्यक्तस्वरूपाय सृुष्टिस्थित्यन्तकारिणे ।। आदिमध्यान्तहीनाय विष्टरश्रवसे नमः
॥ ७ ।\ इति विष्णुपुजामंत्रः ।। एवं संपूज्य गोविन्दं पीतवस्त्रा्षतैः फलैः |
` कुसुमेविविधेहचेव भक्ष्यभोज्येस्तथाविषैः \। ८ ।। अद्रवत्थपूजनं कायं प्रोक्तमत
पाण्डव ।। अहवत्थ हुतभुग्वास गोविन्दस्य सदाश्रय ।! अशेषं हर म पाप वृक्षराज
नमोऽस्तु ते ।\ ९ ।। अशवत्थपुजासंत्रः ।। मूलतो ब्रह्मरूपाय मध्यतो विष्णुरूपिणे \\ `
` अग्रत कल्िवरूपाय अहवत्थाय नमोनमः ।\ ११० \। प्रदक्षिणासन््रः ।\ एव पूजाविधि |
कत्वा ततः करर्यत्प्रदक्षिणाः ।। मौक्तिकैः काञ्चने रोपे रकंमंणिभिस्तथा
॥ ११ ॥ कास्यपात्ेस्तास्रपात्ेभे्षयपूर्णेः पृथक्पृथक् ।। गृहीत्वा मणं कायं |
भ्रादक्षिण्येन पिप्परे ।१२।। तावत्प्रदक्षिणं कायं यावदष्टोत्तरं शतम् ।। + स्मपितं `
८ चं यह् ्रव्यमपयेद्गुरवे शुभम् ।! १३ ।\ सुवासिन्यश्च संपूज्या सोमासन्तुष्टि-
हेतवे ।। दत्वा चान्नं तु विप्रेभ्यः स्वयं भुञ्जीत वाग्यतः ।\ १४ ।। एष त कथितो 4
भूष ब्रतराजविधिर्मया । द्रौपदीं च सुभद्रां च कारयस्व तथोत्तराम् ॥ १५ ॥ `
` उत्तरागर्भसंस्थस्तु जीवितं .लप्स्यतेऽचिरात् \ युधिष्ठिर उवाच ॥\ या स्वल्प- |
विभवा नारी काञ्चनाद्ेधिना कृता ।। १६ । सा कथं लभते पूरण त्रतराजफलं |
वद ॥। भीष्म उवाच ।। फलः पुष्पस्तथाभक्ष्यवस्त द्येरपि पाण्डव ॥ कुयत्परदक्षिणा- ८ ध
वतं सापि पूरणं लभेत्फलम् ।\१७।। व्रतमिदमखिलं नरेद्र विष्णोः भरुतमनया हि
चराकमस्त्वयापि ।! पतिसुतधनमिच्छती रन्ध्रा सपदि करोतु नचात्र 'चित्रमस्ति `
| ॥ १८ ॥ भीष्म उवाच \। श्पृणु पाथं प्रवक्ष्यामि -दयायनविधि शुभम् ।\ य विना `
न स्यादृव्रतराजस्य वै नृप ।१९।। कारयेत्सवेतोभद्रं तन्मध्ये कुम्भमुत्तमम् । `
वृक्षराजः सुवणंस्य पञ्चरत्नस्य वेदिका ।। १२० ।। तन्मूले प्रतिमां (वष्प विष्णोःसोवणीं `
च चतुर्भुजाम् ।। लक्षमीवाहनसंयुवतामामाषाच्च पलावधि ।\ २१ ।। उपचाररने- `
कश्च यथाविभववि पुष्पधुपेर्च दीपैश्च परितः स्थितः ।॥ २२ ।।
इचात्स्वयं भजञ्जीत वाग्यतः ।\ १२८ ।\ इतिश्चीभविष्योत्तरपुराणे सोमवत्यमा-
बास्याढ्तं सोद्यापनं सम्पुणम् ।। 1 ४
५ सोमवती अमावसका ब्रत-सोमवारी अमावसके ब्रतको कहते हँ, यही शंख कहते हैँ कि, अमावस
ओर सोमवारका योग जह -जहँ भिल जाय वहाँ हौ वहं श्रेष्ठ है क्योकि, तीर्थ, कपिलधार, गंगा, पुष्कर, ` `
एवं दिव्य अन्तरिक्ष ओर भूमिके जो सब तीर्थं है, सोमवारी दक्षं ( अमावस ) के दिन वहां ही रहते हं ? सोम-
बारी अमावस, रविवारी सप्तमी, मंगलावारो चतुर्थी बृधवरी अष्टमी ये चार तिथियाँ सूरयग्रहुणके बराबर
कहौ गर है, जो उसमे स्नान दान ओर श्राद्ध किया जाता बह सब अक्षय होता है तिथि ओर वासरकायोग
` यथाकाल मिल जाय, भानुके अन्त वा मध्याह्वमे वही पुण्यकाल है, अन्यथा नहु है । यहीं अदवत्थके मूलम
विष्णुके पुजनका मन्त्र है । इसका संकत्प-तिथि आदिको कहकर इस सोमवती अमावसके दिन सब पापोके
नष्ट करने तथा पूषत्र धौन्र आदिक अभिजनोकी वद्धिके चि तथा जन्या जनस अवेधव्य, सन्तान, चिरजीवः
` परमसौभाग्यं उनकी प्राप्तिकी कामनावाला में पौपल्के भूलमं रक्ष्मीसहित धिष्णुकी पूजा तथा उसके अंग-
रूपसे पसं अरः अदवत्थयुजन करूगा, एसा संकल्प करफे पीपलमें पानी रगा उसे सूत्रसे वेष्टित करके उसकेमृलमे
- विष्णुका पूजन करे, * शान्ताकारम्' इससे ध्यान; है विषवव्यापक ! हे विकेश ! हे छपाकरके दीनोपर `
. वात्सल्य लानेवाले ! है माधव ! मेरौ कौ हई पूजाको आपं ग्रहण करिये, इसमे तथा, “ सहस्ररीर्षा" इससे
आवाहन; है कोटिमूरयकी प्रभके नाथ ! हे सर्वव्यापिन् ! है लक्ष्मीके स्वामी ! मं मन्तिपू्वेक आसनदे रहा = `
पुरुषोत्तम ! आप ग्रहण करै, इससे “पुरुष एवेदम् ” इससे आसन; है संसारके आनन्द देनेवले ! है `
प्र त व्यापक नारायण { विष्णु क्रन्तासहित पाद्य ग्रहण करिये, इससे “ एतावानस्य ” इससे पाद्य; फल, ` 1
वानः; ` गङ्खा कृष्णा ' इससे “ यत्पुरुषेण ” इससे स्नान; ' पौतलासं ” इसते ^ तं यज्ञम् ! ” इससे वस्त्र 1
उपवीतं नियम् ' इससे ' तस्माद् यज्ञात ` इससे उपवीत; " भषगानि" इससे अलंकार । सल्याचरू = `
तस्साद्यज्नात्स श 0 त्सर्वहुतः इसपे गन्ध; अक्षतादच सुरश्रेष्ठ ' इससे अक्षतः; “ तुलसी जाति ' इसमे तस्मा = `
भासते लोकः इससे नौराजन; ˆ मया कायेन वाचा ' इसे “नाम्याजासीत् " इससे प्रदक्षिणा; ' व्यक्ता- 1
` व्यक्त इससे “ सप्तास्या " इससे नमस्कारः “ आदिमध्यान्तरहित" इससे “ यत्तेन यज्ञम् ” इससे पुष्पांजलि = `
समर्पण करे । इसके पौरे अमावस्याके लिये नमस्कार तथा सोमवारके लिये नमस्कार इन दोनों नाममन््रो्े `
ओर पुजा होनी चाहिये एसा शिष्टाचार है । इसके पौे है पोपल ! हे जग्नके वासस्थान ! ` = `
00. मेरे पापको पोको नष्ट कर्) है वृक्षराज ¡ तेरे लिए नमस्कार है, (५ मर्त्ये पीपलक्छीं । | ।
करनौ चाहिये । सोमवती अमावस ब्रतकी संपूतिके लिए धेषठ ब्राह्मणको सोनासहित वाया देता `
इससे प्राना करे, पीछे जो मूले ब्रह्मह्प, मध्यत विष्मु- `
व्रतानि ] ` | हिन्दीटीकासांहत | दद}.
।\४1। मृधे जीनाभी बुरा लगता है, बलकोश आदिन मेरी प्रीति नहीं है, वंचका नास देखकर मेरे हुदयमें रात-
दिन सन्ताप रहता है \\५\\ उत्तराकेगभसे पेदाहोनेवाला अदवत्थामके अस्त्रसे जल गया इत पिण्ड विच्छेदकोः `
देखकर मुषे दूना दख हो रहा है ।\६।। हे पितामह ! बतादये कि, मं क्या करूं कहां जां जिसमे चिरजीवि `
संतति मिल जाय ? ।\७\\ भौीष्मजी बोले कि, है राजन् ! सुन में एक सर्वोत्तम व्रत बताता हूं, निसकेकर- `
नेसे चिरजीविनी सन्तान मि जायगी ।\८\। जब अमावस सोमवारी हौ उसदिन अश्वत्थके पास आकरजना-
दैनका पूजन करे \।९॥। अदवत्थकौ एक सौ आठ प्रदक्षिणा करनी चाहिये । उतनेही रत्न, धातु, फलके
। ॥१०।। हि राजन् ! इस भगवान्के प्यारे व्रतराजको उत्तरासे कराये । उसक्ता गभ जी जायगा ।\११।। |
। एवं जगतुप्रसिद्ध गुणी पुत्र होगा \ पितामहके वचन सुनकर युधिष्ठिरजीौ बोले \\१२।1 उस व्रतराजको विस्ता- `
| । रके साथ कहिये; है विभो! किसने मृत्युलोकमे प्रकाकित किया एवं किसने कटा ।\१२।। भीष्मजी बोले कि १८
` एक भुवन प्रसिद्ध काची नासकी महापुरी है जो चदीके पव॑त जसे ऊचे ऊचे बड़े बड़े विशार महलेसे युशष- .
भित है \\१४।। सजेहृए नगरनिवासी स्त्री पुरुषोसे सुशोभित है ! उसमे चारों वणं अपने अपने कमेमिल्गे
| रहते हें ॥।१५।। रूप ओर चातुरीमें प्रवीण जो वेश्याए हँ उनसे शोभित है जेसी कि वुबेरकौ अलका, इच्रकीः = `
। अमरावती ।\१६।। अग्निकी तेजोवती पुरी है ! उसी तरह यहं रत्नसे मरी हुई परम पुरुषार्थो रत्नमेनकौ |
| सुन्दर पुरी थी \\१७।। उसके राज्यमें एक देवस्वामी नामका विद्वान ब्राह्मण रहता, उसकी रुपखावण्यवतौ |
धनवती नामकी स्त्री थी ।१८।1 जैसा नाम था वैसाही गुण था । वहं शरीर धारिणी लक्ष्मीही थौ । उस्केसत |
सात सुयोग्य बे ये।।१९।।गणवती नामकी. एक बेटी थौ, सब लडकोके विवाह कर दिये गये। वे सब आनन्द्से . |
४ ` विचरने लगे ।\२०।। गुणवती सुन्दर जौर पति लायक कुमारौ ख्डको थी, इसी बौचमें एक ब्राह्म भिक्षके |
चि आया \\२१।। वहु अपने तेजसे एेसा तप रहा था, भानौ अग्निही हों दरवाजेपर आकर आशीर्वाददेते |
छा \२२॥। देवस्वामीकी सातो पुत्रवधू संसश्रम उठी एवं प्रत्येके उसे अलग भिक्षा दी ।1२३॥ उसनेसजको = `
सौभाग्य संपत्तिके साथ जचल सुहागणी आश्ीर्वाददी । मने गुणवती को भी द्वारपर उसे भिक्षा देनेभेजा 11 २४। =. |
उसने चरण छकर भक्ता दी, उसने भौ आ्षर्वाद दिया कि, है पवित्रे ! जाप धर्मात्मा हो 1 २५ |
| षह कुछ बुरा आहीर्वाद था, गुणवती उसे गहरी निगाहसे देखकर अपने घर चली आई । जो उसने आशीर्वाद |
| . दिये भे वे सब माको सुना दिये \\२६।। धनवती सुन बेटीका हाथ पकड़कर उस तयस्वीके पासं आई फिर. =
| उसको प्रणाम उससे कराई ।\२७।। उसने उसी तरह आशीर्वाद देकर उसका अभिनन्दन किया फिर धनवती = `
` : . चिन्तित
त हो बोली \\२८।। कि, हे विप्रवर ! प्रसन्न हजिये मेरी बात समन्निये, मेरी पुत्रवधुओको तो तुमन ५
` अच्छे अच्छे आशीर्वाद दिये ।\२९।। वे सुहाग तथा पुर सुख सौभग्यके करनेवाकु थे, किन्तु प्रणाम करतौहृई `
। मेरी बेटीसेही क्यों विपरीत कहा \\३०।। किं भद्रे | धर्मवालो हो, है विप्रषं । क्या कारण है, जिसने अपने = `
| एसे आशीर्वाद दियं सो यथाथं बताइये ।\३१।। यह सुन द्विज बोखा कि, है धनवति ! तु धन्य है, तेरा उत्तम ।
| चरित्र भमंडलमे परसिद्ध हे मे जो आशिष दौ हं बहु यथायोग्य ही दी हे २३२॥ यहं सप्तदीपमं विवाहो `
| जायगी, इस क! धर्माचरणही करना चाहिये 11३३१) इसी कारण मने इसे आश्षीरवदि व्ये किमहे `
०
(८) . बरतराज `. ` (न न [अमावास्या
` इस्तर समुद्र पड़ता है ।\४३।\ वहां जाना कठिन है, हम वहां नह जा सकते 1 देवस्वामी बोला कि, यदपि
मेरे सात पुद्रहैः तो भौ मं विना बेटवाला ही हं । मे सिंहल जाऊंगा \)४४।। तरीके वैधव्यको भिटानेवाली
सोभाको से वहसि लागा । इस प्रकार देवस्वामी तो कोम आकर कहं रहा चा कि, उसी समय ॥४५१
छोटा लडका क्वावस्वामी बोला कि, भें बहिनको लेकर सिहल्द्ीप जाङंगा, आप क्रोम आकर इनन क्यों कह
उह 1४६1 में बैठा हूं तबतक आप क्यो जायय । दूसरेकी किसकी शाक्त हैः मं बहिनको लेकर सिहलीप जाता
हं \५७। एसा कहं बहिनको साथ के पिताको प्रणामकर आनन्द्के साथ पसिहलद्रीप च्ल दिया ।\४८॥) वह्
` कुछ हौ दिनों समूदरके किनारे पहुंच गया, समद्रक पार करनका श्रथत्न किया ।४९।। पास एक बड़ा न्यग्रो
` जका च हला उसके कोटरमे गदधराजके बारुक सुलपूवकः रह् रहे थे ॥\५०।। उन दोरनोने उस वृक्क नीवे |
दिन बिताया ¦ सामको बालकोके लिये भोजन कंकर मृंढ जाया ।५१।। पर बालकोने उसे भोजन न ` ।
लिया \ गृद्ध चिन्तित हो बालकोसे पुने रगा \\ ५२ ।\ कि ए बेटो ! तुम भूखे हौकर भी भोजन नरह कर रहै
५ हो? क्याबात है ? में आपके लायक कोमल मांस लाया हं \\५३। बालकं बोले कि, इस वृक्ष केनीचेदो
मनुय व हए ह । बिना उन जिमाये हम कंसे लाले ? ।\५४। यह सुन दयार हो ग्न उनके पास बहृचकर चकर
बोला ।\५५॥ किं आपका काम पूरा होगा, आप मुषे बता दे, मं हर तरह करूगा प्र जाप भोजन करे \\५द१। = `
. ` ब्राह्मण दौला वि सिहल हर जाना चाहता हू कि, वहां जाकर सोमाको ऊं आऊ जिससे बहिनक हेनका व्य
हो जाय, पर वह् समूद्रके पार है ।\५७॥ गृश्नराज बोलाकिः
एवं तिहल्द्रौपमे सोमाका घर भी दिखा दूंगा ।\५८१। इसके बाद रातबीते, सुं देवके उदय होने परः वेग
श्रराजने वे दोनो बहन भाई पार उतार दिये 1\५९11 ओर सिहलदरीषमे जाकर सोमके घरक पास गृध्रः
मण्डलको साफ करके ।।६०।।अतिदिन लीप दिया करते थे,
उन्हें एक वषं बीत गया ।\६१।) बेटा तथा बेटाजंकी
स प्रातःकालही वुमहं समुदरके पार उतार दगा ` 4
की स्तियोको बलाकर चकित हो सोमानेपुछाकि,इसं
लेपनको कौन करता है ? यह भक्षे बतादो ।\६२।॥ सबने एक साथ कहं दिया कि, हारः कियानहीहै
ने रातमेंसुचित हो बैठकर देखा कि, ब्राह्मणकी लडकी चरके आंगनको साफ कर रही है ॥\६३।॥
सोमाने माकर पा कि, आय कौन है ? यह हमे बताइथे ।\६४।\ वे बोले हम ब्राहमण बालक हं \ सोमा 9
आप मेरे चरका मार्जन करते है इससे मे तो जर गद नष्ट हो गई ।।६५। इस पापते न जाने मेरो 0
गति होणी ? क्योकि, है द्विज ! मे बुरौ जाती ह, भखिर धोनिन ही तो हु ।\६६।॥ जाप बराह्मण होकर
यह् उल्टा कयो करते हं ? सिवस्वामौ बोला करि, मेरी यह् गुणवती बहिन है । ६७।! यह् सम्तपदीमे विधवा 1 1
होगी वह तेरे सानिष्यमात्से मि जायगा ।\६८।१ इस कारण बहिनके सय तेरा दासक करता ह! सोमा
बोली कि, इसके आगाडी न करना, क्योकि भे तो आपके हुक्ममात्रसे चरी चलूंगी ।1६९।) एसा कह घर जा 4
बहृोसे बोली कि मरे इस राज्यमे जो ( मेरे घर भरका ) मनुष्य मर् जाय, जबतक सं न जाञ उतेउसी `
देना, किसके कहनेसे किसीको किसी तरह भौ मत जलाने देना ”।\७०।।७१॥ पतरवबुओकि ध
परकर लने ४ सोमा समय्रके किनारे आईं एवं क्षणमात्रे दोनोको पार उतार दिया 11७२१ स्वयंमी ध
1 मासे समुद्रको पार किया था । उसके प्रभावसे सब निमेषमात्रम कांची आगथे \७३\। घन- =
मन्न होकर उसकी पूजा को, इसी बौचमें शिवस्वामो उसको आज्ञासे बराबरका (
तरोसे दूढकर लानेके लिये चल दिया 11७४१ ओर उज्जयिनी पहुंचा ओर बहीसे गुणी रर = `
रशस्मा क म वर, बहिन जैसा `
` व्रतानि] हिन्दीटीकासहित (८६५) ।
घर चली आई ।८२।। इस तरह सोमा धोबिन मृत ब्राह्मणको जिला पुण काम प्रसन्न चित्त हौ अपने मन्दिर छ
चल दी \\८३।\ इसी बीचमे सोमाके घरपर पहिले लडकी, दूसरा स्वामी जर तीसरा जमाई सर गया ॥८४।। `
: आते हृषु उसे मृतकोको जिलाने वाली सोमवतौ अमावस्या उस समय हो गई ।\८५।। जलके पास किसौ बहू
स्त्रीको देखा, वह् तुलके भार बोक्चसे दबी हई ढखी रो रह थी ।।८६।। वद्धा बोली कि, बेटी ! मेरे शिरसे ` ५
इस तुर भारको उतार, मं इस भार के बोक्षसे दबौहूई दुख पाकर रो रही हूं ।\८७।। सोमा बोखी कि, आज सोम-
वती अमानस ह । मेरा नियम है कि, मं तुको नहीं छती ।।८८।। ये सब ब्रत विध्न थे वास्तवभे कुछ नही था\
अगाडी-सोमाको मृ भारसे दबी बुङ् मिरी बह भी बोली कि हे पुत्रि! मेरे शिरपर मूलका बड़ाभारी ` ५१ |
` बोञ्च है ।\८९।। थोड़ी देर ठहर मेरे शिरसे उतार दे, मे भी तेरे साथ चलूंगी । सोमा बोखी कि, मे मूल ओर ` |
। दुलको आज कदापि नहँ छू सकती ॥\९०। इसके वाड नदौ किनारे पौपलके वृक्षके पास पंच गई, सनानकर `
विष्णुकी पूजा करके ।\९१।} उस महाभागाने शयकंरासे एक सौ आठ प्रदक्षिणाएं कीं । भीष्पपितामह् बोले
| जब उसने शकरा हाथमें लिये ल्यि एक सौ आठवीं प्रदक्षिणा पुरी कौ उसौ समय वहां उसके भर्तापुत्र जर |
( |
| 1
जमाई तीनों जौ गये । नगर शोभासे पूणं तथा उसका घर तो विशेष रूपसे हो गया ।\९२।।९३। सोमाघर
स्विनीको सब बहुए प्रणाम करके पने लगीं ।\९५।। कि, है देवि ! आपके बेटे, पति ओर जमाई केसे मर गये `
सदा सुहाग रहेगा ।\१००।। इस व्रतराजको सोमानं बहुओसे
। आई उसे र्त, पुत्र, जमाई सब जीवित मिले ।।९४॥। वह जानकार थौ हौ उन्हं पा छ्ृतङृत्य हो गई उस तव ` ४
ओर कैसे जी गये ? यह् बताइये ।\९६।। सोमा बोली कि, मेने सोमवतौ अमावसका पुण्य गुणवतीकोदेदिया |
था। इस विपाकसे ये सब मर गये थे \\९७।। हे बहुमते ! न मेने तूलक छूभा ओर न मूलक ही छूजा ! अव- = `
त्थके नीचे विष्णुको पुजकर वहां हाथमे शकरा ले एक सौ आर प्रदक्षिणाएं कीं उसके प्रभावसे पतिजमारई ओर
, पूत्र तीनों जौ गये \९८।।९९\। अभीसे तुम सब इस ब्रतराजको विधियुवेक करो, इससे कभी वैधन्यनहोगा
कराया, पुत्रपौत्रोके साथ बहृतसे भोगोको भोगा =
।१।} उन सबके साथ सोमा विष्णुलोकको चली गई । हे पार्थं ! यह् मेने विस्तारके साथ तुम्हं सुनादिया ॥२॥ = |
युधिष्ठिरजी पूछने लगे कि, इसकी विधि ओौर माहात्म्य क्या है ? हे भीष्म ! इते स्त्री-पुरुष क्िसिकोकरना
चाहिये ? यह् विस्तारके साथ सुना दीजिये ।१२।। भीष्म बोले कि हे पाथं ! जब अमावस सोमवारीहो, यह |
पुण्यकाल देवताजोंको भौ दुलभ है ।॥४।। ब्रती प्रातः उठ जलादायमें मौन हो स्नान करें कौशेय वत्र पहने
` ॥1५।। हे कुरुनन्दन ! अवत्थके पास जाय उसके म्लमें मंतरोसे विष्णुपुजा करे ॥६\\ व्यक्त ओौर अव्यक्त = |
(८६६) ब्रतराजं [अमावास्या-
॥१२०॥ उसके मूलमे सोनेकी चतुर्भुज लक्ष्मी ओर गरुडके साथ माषसे लेकर पल्तकको भगवान्की सूति |
बनाले ! २१।। जैसा विभव हो उसके अनुसार अनेको उपचारोसे तथा चारों जोर रखे हृष पुष्प धूप दीपओौर `
नैवेदयोसे पूजे \\२२।। रातमें जागरण तथा प्रभातमें हवन करे । उसमं पीपलको समिध पायस ओर तिल हन्य
दन्य होना चाहिये, “ इदं विष्णु" इस मंत्रसे हवन करके पूर्णाहुति करे, आचाय्येको पूजकर उसे टू देनेवाली
` गाय दे \\२३।।२४॥। ब्राह्मण सदस्योकौ भी वस्त्र भूषण आदिसे पूजा हो, बारहो ऋत्विजोको जिमवे घी- (
खीरका भोजन करावे \२५।) उन्हुं उपवीत ओ वस्त्र दक्षिणाके साथ दे वण्डकौ तरह भूमिम प्रणम करके |
प्राथेना कर विसर्जन कर ३।२६।।इस प्रकार बारह वषमे अथवा आदिमे वा मध्यमं उसच्ापन करे, इसे अच्छी |
तरह करके ही ब्रतराजका फल मिरता है ।\२७।। दक्षिणासमेत सब पौठ आचायेको देदे, अच्छिद्रका वचन |
करके पीछे मोन होकर भोजन करे 1 १२८ 1 यह श्रौ भविष्यपुराणका कहा हु उद्यायनसहितसोमवती `
अमा वस्याका ब्रत पुरा हमा ।। (ध
अर्धोदयत्रतम्
ध अथ पौषामावास्यायामर्धोदयव्रतम् । अमाकंपात्रश्चवणेयुक्ता '्चेत्पौष- `
ध माघयोः ।! अर्धोदयः सं विनेयः कोटिसूयंग्रहैः समः ।। दिवैव योगः हस्तोऽयं
नतु रात्रौ कदाचन ।॥ इति मदनरत्नोराहूतमहाभारतवचनात् ।! अथ कथा- `
हेमारौ स्कन्दपुराणे !। अगस्त्य उवाच ।। भगवेसत्वत्प्रसादेन शरुतोयं ब्रतविस्तरः ।\ `
1 ।\ जीवितं प्राणिनां पुण्यं यदि चेद्रदसि `
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प्राप्यते विप्र व्रतेनानेन कुम्भज । अदवमेधायुत चेष्टमिष्टाप्तं च तैः कृतम् `
। ॥ ९ ॥ अर्घोदयं कृतं येस्तु विधिदृष्टेन कर्मणा । वाचि सत्यं गृहे लक्ष्मीः सन्तति `
। लोकेषु ` व तानामपांपतेः ।\ ११ ॥ वायो र कुबेरस्येशस्य लोकेषु सुकृती प्रभु
( विष्णुदेवते ।\ अर्धोदयं तदित्याहुः सहल्रा- `
॥ मैः समम् ।। ४ \! पुरा कृतं वसिष्ठेन जामदग्न्येन सुव्रत । सनकाचैर्मनु-
ष्येदच बहुभिबहुविद्युतेः ।! ५।। अन्यः सहसलंश्च कतं भुवि भेष्ठं तु कृम्भज ॥ `
दानानां यज्नतीर्थानां फलं येन कृतं भवेत् ।\६।। ससागरा धरा तेन सप्तद्रीपपसम- ५.
1 विवि
॥ १५.॥) सत्यलोकाधिपः साक्षी लोकानां पुरुषोऽव्ययः ।\ अर्धोदयप्रसादेनब्रह्म- = `
लोके वसेत्तु सः ।\ १९ ।। तथा मानेन विष्णुत्वं ब्रह्मा शद्रास्ततो भवेत् । शिवलेके
गणे: पुज्यो देवराजसमन्वितः \। १७ ।! वसेच्छक्रेण मनेन त्रतस्यास्य प्रभावतः।॥
1 ततो विष्णुस्वरूपेण अंलोक्याधिपतिभवेत् ।। १८ ।! शंखचक्रगदाधारी वनमाली १५६
| हरिः स्वयम् ॥। व्रतप्रभावाल्लक्ष्मीशो देवो नारायणो भवेत् ॥ १९।। अगस्त्य `
उवाच ।। स्कन्द केन विधानेन कर्तव्यं व्रतमुत्तमम् ।। अर्धोदयं मनुष्याणां जीवितं `
इुलंभं भुवि 11 २० \ स्कन्द उवाच । कृते कृतं वसिष्ठेन तरेतायां रघुणा कृतम्! `
` हापरे धमेराजेन कलौ पुर्णोदरेण च ।\ २१ ।। अन्येदेवमनुष्येद्च दैत्यश्च मुनि-
` सत्तम ।। कृतमर्धोदयं सम्यक् सर्वकामफलप्रदम् ।। २२ ।।! माघमासे कृष्णपक्षे `
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पञ्चदछयां र्वेदिने ।। वैष्णवेन तु ऋक्षेण व्यतीपाते सुदुलंभे।॥२३। . `
पूर्वाह्हं सद्धमे स्नात्वा शुचिर्भूत्वा समाहितः ॥ सर्वंपापविशुदधचर्थनियमस्थो |
भवेन्नरः ।\ २४ ।\ त्रिदेवत्यं व्रतं देवाः करिष्ये मुक्तिदं परम् ।। मवन्तु सन्निधौ |
। मेऽद्य त्रयो देवास्त्रयोऽनयः ।! २५ \\ इति नियमसंत्रः ।। ब्रह्मविष्णुमहेशानां |
सौवर्णपलसंख्यया।।कतेव्यार्चा तदर्धेन तद्धन द्विजोत्तम २६।।सार्धं शतत्रयं शम्भो-
द्रोणानां तिल्पर्बतः ।। -कतंव्यौ पर्वतौ विष्णुरुद्रयोः पूर्वसंस्यया ।! २७ ।। इभुरत्र |
` श्रह्या ।। हाय्यात्रयं ततःकर्याद्पस्करसमन्वितम् ।! देवतात्रमुदिदय कर्तव्यं भक्ति-
शक्तितः ।।२८॥।ब्रह्मविष्णुरिवप्रत्ये दातव्यं तु गवां त्रयम् \। हिरण्य भूमिधान्यादि- ` ५
दानं विभवसारतः ।\ २९ ।। दातव्यं भद्धयोपेतं बराह्मणेभ्यस्तु यत्नतः ॥। मध्याह्नं `
: (4९) ५ त्रतराज 1 0 2
मृकृन्दाय० जानुनी पु० । गोविन्दाय जघे प° । प्रदयुस्नाय० गृह्य पु० । पञ्चना-
भाय० नाभि पू । भुवनोदराय० उदरं पु० ! कौस्तुभवक्षसे° वक्षः प° । चतु*
` रभनाय० बाहू प° । विहवतोमुखाय० मुखं प° । सहस्रशिरसं देवायानन्ताय०
शिरः प्रं० । आदित्यचन्द्रनयन दिष्बाहो दैत्यसूदन । ।। पुजां दत्तां सया भक्त्या =
ˆ गृहाण करुणाकर । ३४।। इति विष्णुप्रा्थना 1\ महेश्वर महेशान नमस्ते धिपुरा-
न्तक \। जौमूत केशाय नमो नमस्ते वृषभध्वज ।। ३५ ।। ॐ। ईशानाय० पादौप०।
चन्दररेवराय० जंघे पू० । पशुपतये जानूनी पू० 1 हंकराय० ऊरू प° । उमा `
कान्ताय० गुदं प° । नीललोहिताय ० नाभि प° । कृत्तिवाससे° उदर प° । ` ५
नागयज्ञोपवीतिने° हृदयं ० पु० । 'भुजङ्कभूषणाय० बाह पू० \ नीलकण्ठाय० कण्ठं
ध पञ्चवक्ताय० मुखं प° । कर्यादिने° शिरः पूजयामि ।\ अन्धकारेऽप्रमेया- |
` त्मन्मो ` न लोकान्तकाय च ।! पूजामच्र कृतां भक्त्या गृहाण वुषभध्वज ।\ ३६! |
म सवरप्राथेना ।\ इति पुजाक्रमः प्रोक्तो ध
ये हूकत्या शः 7 वस्त्रोलकारभूषणेः ।\ ३७ ।! हस्तमात्रा कणेमात्रा पीठं छत्रं
तत्कालसम्भर्वे स | वैदिव्येः पुज्या देवा यथाक्रमम् ।४०।। `
व्रतमेतत्सुदुलभम् 11 । जीवितं प्राणिनामेतदनित्यं निश्चितं
न भमु *इणु यत्नतः ।। देवतात्रयमुदिष््य शास्त्र- `
ण र्वाह्भिस प्य र्मा भक्तित ततः : ॥। ४३ ।। ततो होमं प्रकुर्वत सहसरत्रय संमितम् ।॥\ `
य र श करार्चव होमद्रव्यं पथक् पथक्।। ४४।।ब्रह्मजज्ञानमत्रेण ब्रह्मणे च तिलान् _
^ ` ब्रतानिः। हिन्दीटीकासहित = (८६९)
धथादृष्टं करिमन्यन्परिपृच्छसि ।\ ४९।। इति श्रीस्कन्दपुराणे अर्धोदयत्रतं संपूर्णम् ।। =
इत्यमावास्यान्रतानि समाप्तानि ॥।
अर्धोदियव्रत-पौष अमावसको होता है इस विषयमे मदनरत्ने महाभारतका वचन दिया है कि, `
पौष भाघकी अमावस, रविवार, व्यतीपात ओर भवणसे युक्त हो तो उसे अर्धोद्य समस्लनः । वहु सभय कोटि
सूय्येग्रहणके पुष्यकालके बराबर है \ यह योग दिनमेही अच्छा है रातमें कभी भी अच्छा नहींहै।। कथा-
हैमाद्रिने स्कन्द पुराणके वचन दिये हं \। अगस्त्यजी बोले किं, म॑ने आपकी कृपासे बहुतसे ब्रत सुने स॒क्ने अर्धो- = `
` इदयको सुनादये जो कि, चराचरम दुलभ है \\१।\ यदि आप उसे कह देगे तो प्राणियोका पुष्य जीवितहो गया ` `
समञ्लुंगा कंसे करे ? कियेसे ष्या फल होता है ? हे षण्मुख ! यह बताइये ॥\२।। स्कन्दनी बोरे कि, सुनिये, `
यह् अर्धोदयनामका पुण्य योग है, यह सब कामना्ओंका देनेवाला तथा ति्ेग् मनुष्य मौर देवोको मिलना `
` कठिन है ।३। माघकी अमावसको व्यतीप्रात रविवार ओर विष्णु दैवत्य नक्षत्र हो तो अर्धोद्य कहाताहै,
` वो कोटिसुर्ंग्रहणके पुण्यकालोके बराबर है \\४\! हे सुत्रत ! इसे पहिले वसिष्ठ, जामदग्न्य ओर सनकादिकोने
किया था, सनकादिक तथा ओर भौ बड़े-बडे सुयोग्य विज्ञ पृरषोने इसे किया है ।॥५॥। हे कमज ! बओरभी |,
बड़े-बड़े हनारोही पुरषोने
ने इसे किया है । इसके कियेसे दान यन्न ओर तौर्थोका फल मिल जाता है ॥\६॥ जिसने 4 |
कर लिया उसने समुद्ोसहित सातोह्रीपवाली पृथ्वी सब भावसे दे दी ।\७॥। गंगा, गया, प्रयाग, तीनो |
` पुष्कर, मानसादिक पुण्य तीर्थोकि स्नानदानमें जो पुण्य हँ ।।८।। बह सब फल इस व्रतके कियेे मिल जाताहै, |
` उसने अयुत अहवमेध तथा इष्टापुतं कर लिया ।।९।! जिसने पूरी विधिसे अर्धोदय कर लिया । उसकौ वाणीम |
` सत्य, घरमे लक्ष्मी तथा सन्तान चिरंजीविनी होती है ॥\१०।। उसे आयु ओौर यज्ञ बड़ा भारो होता है ।येएल |
व्रतको करनेवालके लिये होते है । इन्द्र, अग्नि, यम, नैऋत्य, वरुण, वायु, कुबेर, ईश इनके लोकोमे बसताहै |
तथा लोकपालोका पूज्य होकर चांद सुरजके लोकम वसता है ॥।११।। ।\१२॥ कोटि गञ्के दान ओौरसब |
( थोके सेवन, अर्धोदयके पुण्यको सोलहवीं कलाको भौ नहीं पा सकते ॥\९३।1 वह भू, मुवः, स्वः, जन, तप, |
` इन सबोका ईंहवर है ।\१४।। जबतक चौदह इन्द्र रहते हं वह महर्खोकमें रहता है, इसके [बाद व्रतकर्ता पुरुष, `
हिरण्यगभेके सत्यलोकका स्वामी लोकोका साक्षी! अव्यय पुरुष, बनकर अर्धोदयके प्रभावसे ब्रह्मरोक्मे `
रहता है ॥\१५।।१६1। नियमके अनुसार ब्रह्मा विष्णु महेश होता है । शिवलोकमें शिवके गण उसे पुनते तथा |
देवराज पासही पड़ा रहता है \\ १७। इस त्रतके प्रभावसे शाक्त मानसे बसता है पीडे विष्णुकी सश्पतापाकर `
तीनों लोकोका अधिपरि
चः वसे स्वयं लक्ष्मीश्च लक्ष्मीनारायण देव हौ जाता है ( यह माहात्म्य रवण है इसका बडाईमे तात्पये है ) ।\१
पति हो जाता है ।१८।। शंख, चक्र, गदा ओर बनमाला धारण करता ह इस व्रतके
ता वि
बड़ाही कठिन है \२०। स्कन्द बो कि, कृतयुगमे वसिष्ठजीने, त्ेतामे रघुने, दापरभे धमराजने एवं `
(६७०) ~ ष ¢ व्रतराज ,. [अमावास्या `
1
दुन सत्य, परमेष्टो, विदवके रचनेवाले यज्ञ ओर देवोके पति देवके लिये नमस्कार है \।३१।। जोम ब्रह्मकेल्यि =, `
नमस्कार, चरणोंको पूजता हुं; हिरण्यगभेके° ऊरुओंको पु०; धाताके० जानुओंको पु; परमष्ठीके०रजंघा- |
ओको पू०; बेधाके° गुह्यको पु०; पदमो्ूवके° नाभिको पु०; हंसवाहनके०° कटीको पु०; शतानन्दके०
` ` वक्षस्थलको पु०; सावित्रीके पतिके° बाहुको पू०; ऋगवेदके० पूवेके मुखको प°; यजुवेदके° दक्षिण
भुखको पु०, सामवेदके० पश्चिम मुखको पू०; अथवेवेदके ° उत्तर मुखको पु०; कपिरके° कयोलोकोपू०;
चतु्वकके० शिरको पुनता हूं । इसके बार ब्राह्मणको लोकयालोकी पुजा उन्हीके मंत्रो करन चाहिये । है
हिरष्यगभं ! हे पुरुषप्रथान ! व्यव्तरूपक ! प्रसन्न हो पूजा ग्रहण करिये ! ह्यापके यलये नमस्कार है \\३२।।
यह् ब्रह्माकी प्राना पूरी हुई ।। विष्णुपुजा-ह नारायण ! हे जगच्नाथ ! हे गर्डश्वज ! है पीले वस्त्र धारण
करनेवाखे ! तेरे लिये नमस्कार है, है जनादेन ! तेरे लिये नमस्कार है \३३।। अनन्तके लिये नमस्कार, ~
चरणोको पूजता हूं; विषवरूपके० ऊरओोको पु०; मुकुन्दके° जानुओंको पु०; गोविन्दे जंधोको प°; `
` प्रद्ुम्नके० गुह्यको प°; पद्मनाभके० नाभिको पू०; भवनोदरके० उवरको प्रु; वक्षमं कौस्तुभवालेके°
` वक्षको पू०; चतुर्मुनके बाहुको पू०; विश्वतोमुखके० पू०; सहस्रो शिरोवाले अनन्त देवके लिये नमस्कार
` क्षिरको पूजत हूं । सुय चाँदके नयनवाले । दिाओकौ बाहुओंवाले ! देत्योके मारनेवाले ! हे करुणाकर । ^. |
भेरी भ्तिपवक पहिली दौ हुई पूजाको ग्रहण कर ।।३४।। यह विष्णुकी. प्राना है ।\ सवरपुा-हे महेदवर !
हि महेशान ! हे त्रिपुरान्तक ! तेरे चिये नमस्कार है । है वृषध्वज ! तुक्च जीमूतके शवाेके छे नमस्कार
है ।३५।। ईशानके त्वये नमस्कार, चरणोको पुजता हं; चन्दरलेलरके° जंधोको पु०; पशुपतिक्षे° जानु-
को प्०; शंकरके० अरओंको पु०; उमाकान्तके ° गुह्यको ए०; नीललोहितके हि । |
साके० नागके यज्ञोपवौतवालेके० हृदयको पु०; भुजंगभूषणके० बाहुओको पु०; नीलक्के°
प०; पंचवक्रके° मुखको प; कपदौके किये नमस्का
| कार शिरको पूजत हं । हे अन्धकारे ! है अप्रतेया- `
त्मन् ! तुश्च लोकान्तके लिये नमस्कार है : ।हे वृषभध्वज ! मेरौ भक्तिभावसे कौ गई पजाको ग्रहण करिथे
। यह् महेहवरकी प्राथना हुई ।। यहं पुजक्रम कहा गयः है ! इन मन्बोसे प्रयत्नके सघ्थ करना चहिये।
सार नो देवोका उदेश चकर करे \।४२। विष्णुरूप ओर हिवरूप तुद ब्रह्माके लिये नमस्कार है इस मंत्रे
भक्तिके साथ अग्निस्थापन करे ।(४३।। इसके वाद॒तीन हनार आहति तिल आज्य ओर शकंरसि ३ ।
तीनों देव ५ लिये वस्तुभेवसे भिश्न-भिन्न देनौ चाहिये ।\४४। “ब्रह्म जानम्" इस मंत्सेब्रह्मके लि तिलो
का हवन करे, “ इदं विष्णुः “ इस संत्तसे आज्य विष्णुके
से आज्य विष्णुके लिये तथा त्यम्बकम् “ इस म॑त्रते शकरा हिवके लपि
होमके अन्तमं दुष देनेवाल गाय दे । उसके साथ सोनेके सींग चाँदीके के सुर हों त तथा चण्डा : ट
। वता 4 हृन्दाटाकसहत = (८७१).
अथ मलमासव्रतानि लिख्यन्ते
श्रीरवाच ।। देवदेव जगच्लाथ भवितमक्तिप्रदायक । कथयस्व प्रसादेन
लोकानां हितकाम्यया ।। कथयन्ति सुनिशवष्ठाः कृष्णैपायनादयः । अदत्तं
नैव लभ्येत दत्तमेवोपतिष्ठते ।। यथा वन्ध्या गृहस्थस्य पतिवेशविनाकिनी ।\ ` |
तथा दानविहीनस्य जन्म सवेनिरथकम् .।। तथापि कथयन्तीह दवज्ञाः शास््रको- ५.
| विदाः \\ क्षौरं मौञ्जी विवाहुस्च त्तं काम्योपवासकम् ।! मलिम्लृचे सदा त्याज्यं ५
गृहस्थेन विक्लेषतः ।\ अधिमासे च संप्राप्ते कि कायं व्रतमुत्तमम् ।। क्स्योहशेन
. दातव्य {कि परत्र प्रदायकम् \। श्रीकृष्ण उवाच ।! श्युण् देवि महाभागं सर्वलोकस्य ८
हेतवे \\ स्वय दाता स्वय भोक्ता यो ददाति दिजातयें ।। नान्यो रातानभोक्ताच | 1
` इह लोके परत्र च ।। असंक्रान्त च मासे वै सामुदिय व्रतं चरेत् ।। अधिमासस्य `
देवोऽहं पुरुषोत्तमसंज्ञकः ।। स्नानं दानं जपं होमं स्वाध्यायं पितृतपेणम् ।। देवाचेन- ` |
भथान्यच्च ये कुवेन्ति मनुष्यजाः ।। अक्षय तःइवंत् सवं ममोहेशेन यत्कृतम् ।। ८ ॥
`मलमासो गतः शून्यो येषां देवि प्रमादतः ।। दारिन्छं पुत्रशोकं च पापपडकविग-
हितम् ।। मत्यंलोके भवेज्जन्म तेषां देवि न संयः ।। सुखं प्रदासि देवि त्वं यऽ्च- 1
पन्ति द्विजोत्तमान् ।। यदा मलिम्ठ्चो मासः प्राप्यते ,मानवैः भ्रिये ।। महोत्सद- `
स्तदा कार्यं आत्मनो हितकांक्षिभिः ।। इृष्णपक्षे चतुदेयांनवम्यां वा सुरेइवरि ॥ ` |
लिम्लृचे।।प श द्धि भ्रातरत्थाय कृत्वा पोौर्वाह्हिकी
स्म मरन् स्मरन ।! उपवासस्य नक्तस्य एक्भक्तस्य भार मरि तुः
शानम् ।\ यथालाभोपचारेण मासे चास्मिन्म- `
री क्रियाम् । गृह्णीयान्नियमं पचा `
(८७2) व्रतराज ५. [ मलमास
गृहाणाष्यमिमं देवा कृपां कृत्वा ममोपरि ।\ अ्यदानमंत्रः ।। स्वयम्भुवे नमस्तुभ्यं
ब्रह्मणेऽमितेजसे । नमोऽस्तु ते श्ियानन्तं द्यां कुर ममोपरि ।\ एवं संप्राथ्य | `
गोविन्दं पृजयेदब्रह्मणांस्ततः ।॥ सपत्नीकाञ्छचीन् स्नातंल्लक्ष्मीनारायणौ | `
स्मरन् \। परिधाप्य यथाशक्त्या वस्त्रेभूषणकुकुमेः ।। अलंकृत्य विधानेन मोजये- `
` दइतपायसेः \। द्राक्षाभिहव कपित्थेइच पनसैः कदलीफले: ।। नारिकेलंश्च नारिद्खः
कृष्माण्डर्दाडिमीफलेः ।! घतपक्वान्नरगोधूमेः शुभः सोहालिकवटः ।। क्ाकरवृत-
. परेश्च फणितेः खण्डमण्डकः । वृन्ताकककंटोलशाकः श्वृद्धवेरः समूल्कः ।॥ |
अन्येदच विविधैः ज्ञाकं रम्यपाकेः पुथक्पुथक् ।। भध्येभोज्येदचलेहयेश्च चोष्यः
पानीयकंस्तथा \\ तत्र चावसरं प्राप्य परिविष्य मृदु ब्रुवन् ।। इदं स्वादु इदं भोज्यं `
भवदर्थं निवेदितम् ।। याच्यतां रोचते यच्च यन्मया पाचितं ततः ।। घन्प्रोऽस्म्य- `
इति प्राथ्यं ततो विप्रान् दत्वा ताम्बल्द- `
क्षिणाम् 1 अन्यान्यपि च दानानि देयानि विविधानि च ।। वित्तशाठ्यं न कुर्वार- `
श्य मात्मनः ।\ विसजयेत् सपत्नीका
जीत बन्धुभिः सहं ।\ ३
लभेच्च | सा \। पुरुषोऽप्येवंविधो देवि यदि
ल्चम् 11 मलिम्ट्च राप्य न पूजितो यैः श्रीनाथदेवः परयेह भक्त्या ।\ `
(8 स्यात्त सुखं च संपत्पुत्रः सुहृत्स्वजनदचापि भार्या ।। इति भविष्यपुराणे
मलमा त । अथेतिहाससहितं तब्रतान्तरम् ॥। तत्रेव ।। युधिष्ठिर उवाच।। |.
कि कर्तव्यं च वि्रन्र गद्धास्नानं च दुलभम् ।! कथयस्व महाप्राज्ञ कृपया `
{ र ङ्गव ॥। २ ।। माकंण्डेय उवाच ।! मलमासस्तुमासानां मलिनः पापसंभव ।। `
स्य १५ पापविरुदढधयर्थं मलमासत्रतं कुर ।। ३ ।! प्रतिपत्तिथिमारभ्य अमावस्याव- `
नक्तेन ह्ये कभक्तेन वा नृप ।। ४ ।। एकस्य नियमं कृत्वा
संध्योपासनतर्पणे \। नित्यं हि सफलं श्राददानादिनियमव्रतम् \\ १४
` त्तानि] (हन्दायाकासाहत `. ८}
॥ ११॥।। माकंण्डेय उवाच ।। यस्मिन्मासे न संक्रान्ति संक्रान्तद्रयमेव वा ॥ `
मलमासक्तयौ ज्ञेयौ सवेधमविर्वजितौ ।\ १२ \! एवं संज्ञौ यदामासावेकस्मिन्वत्सरे `
क्वचित् \! उत्तरे देवकार्याणि पितृकार्याणि दक्षिणे ।\ १३ ।\ मल्मसे तुसप्रप्ते `
त्यादिपापानि नव्यन्ते तदुव्रतेन हि ।! माकंण्डेय उवाच।। णु धरमेभृतां श्रेष्ठ `
कौशिको नाम वं द्विजः । १५ ।। महातपा ध्यानरतः सत्यसन्धो जितेन्छिय
विष्णुभक्त सदा विप्रो बेदध्मपरायणः 1। १६ ।। तस्य सूनुमेहाकरो द्विजो मेत्रेय- `
५५
नामकः ।! कामान्धःस्वजनत्रासी साधदरेषकरोऽधमः ।। १७) अधर्मिष्ठः पापरतिः `
` लिवश्रीविष्णुनिन्दकः ।! मोत्रपीडाकरः पापो राहोरिव दिवाकरे ।॥ १८! `
दारुणो दारुणाचारः सर्वभूतविहिसकः ।। मद्यपानरतो मढो दस्युभिः सह सद्धतः
॥। १९ 1\ गते बहुतरे काले स तु राजन्यसत्तम ।। एकदा हयमारुह्य प्रयातो विपिनं
भ्रति ।\ २० । व्यवसाथिस्वरूपेण सौराष्ट्रं नगरोत्तमम् ।। भृत्येश्च सहितो विप्र-
वधं कृत्वा स्वकमभिर्घोरधनं च हूतवान्बहु ।। हाहा- |
` कारो महाञ्जातः सौराष्टृनगरे ततः ।\ २२) सर्वर्नागरिकेः पापो लोर्कोविनिहतो |
नप \। इत्थं स कृतवान्पायो मूढो विप्रकुलाधमः ।! २३ ॥! प्रतिषिद्धं च यत्क्मं |
` स्वहस्ततः ।। २१।। शस्त्र
` कृतं. तत्पापसञ्चयात् ।॥ भस्मीभूतं च तद्रष्टं ब्राह्मणस्य विधानतः ।! २४ ॥।
मैत्रेयाः स्वजनैः सार्धं बह्यहत्यादिदोषभाक्' ॥ तत्पापं च महच्छत्वा |
चागता यमडकिकराः \\ २५ ।। छिन्धि भिन्धि वचो घोरं ब्रुवाणा दण्डमुद्गरंः |
` अताडयंश्च तं मढं तालवृक्ष्षिातले ।! २६ ।। इत्थं चानेकदण्डांश्च कृत्वा प्वा- |
` यमालयम् ।! तैनीतोऽसौ पापरूपी यदा कौ्िकनन्दनः ।।२५७।। घोरे वै कृमिकुण्डे |
। च मेतरेयः स निपातितः ।। यमाज्ञया ततः पापं पञ्चद्टयसहुसकम् !\ २८ ॥। भुञ्जनव ।
प्रहत्योत्थं त ज्वलितस्तीत्रवद्धि ना ।! ४, इत्थं
(८७४) = त 1 [ चरणन त~
॥ ३६ ।\ स तदा मलमासस्य व्रतं चक्रे यथाविधि) । ब्रह्महत्याविनाशाय मलमास
` ब्रतोद्धवम् ।\ ३७ ।! दत्तं पुण्यं ततस्तेन कौशिकेन सुताय तत् । "दिव्यदेहस्तदा =
जातो ब्रह्मादीनामगोचरः ।! ३८ ।। मेत्रेयस्य महाराज ब्रतस्यास्य प्रसादतः ।\ `
= निष्पापर्च सुतो दृष्टः कौशिकेन द्विजन्मना ।। ३९ । प्रसादाच्च हरेः साक्षात्ततो `
धर्मभतां वर । युधिष्ठिर उवाच ।। कथं चाचरितं ब्रह्मन्मलमासत्रतं त्विदम्
॥ ४० ॥। तत्सर्वं बरहि मे विप्र सर्वलोकहिताय च ।\ माकंण्डेय उवाच ।\ अधिमासे
तु सम्प्राप्ते शुभे सूर्याधिदैवते ।। ४१ ।। पुष्येऽह्ध प्रातरुत्थाय कुर्यात्पौर्वाह्िकं
॥ । ^ ॥ ४ \ (क
क्रियाम् ।। गृहीत्वा नियमं पश्चाद्रासुदेवं हदि स्मरन् ।\४२।) प्रतिपत्तिथिमारभ्य क
मासमेकं जनार्दनम् ।! अ्चयेद्गन्धयुष्पाद्ेः पायसेन सर्सपिषा ।! ४३ ॥! विप्रास्तु
भोजयेत्यद्चाहक्षिणाभिद्च तोषयेत्।!एवं व्रतं मासमेकं कुर्यादानेधिचित्रकैः ॥४४।॥। =`
अन्ते भूतदिने प्राप्ते उपोष्य सुसमाहितः ।। त्रितरिशद्धमनिरतांस्ततो विप्रान्िम- |
न्त्रयेत् ।। ४५ ।। सपत्नीकान्सदाचारान् सुरूपांङ्च सुविद्यकान् ।! वेदाध्ययन- |`
६: सः पन्चान् कुलीनाञ्जञातिसस्भवान् ।\ ६ ।। | ठ न मध्या हववलाया कत्वा 1 माः
गिः क्रियाः ।! पुष्पमण्डपिकां कृत्वा विचित्रस्तोरणादिभिः \ ४७.
सुशोभित क ते रम्ये मण्डपे तू्यनादिते ।! सुलक्षणं कििखेत्सम्यकसर्वतोभद्रमण्डलम् ॥
बक्षिणम् । ५३ । नारायणं मधुरिपुमनिरुद्धं त्रिविक्रमम् ।। वासुदेवं जगद्योनि व ।
शेषतत्पगतं तथा ।। ५४ ।। संकर्षणं च प्रद्युम्नं देत्यारिं विद्वतोमुखम् ।। जनार्दनं `
व्रतानि ` . ˆ. `. ` 1हन्दाटकसिाहत. ` {८७५};
` द्र्नारिकेरेश्च फलेर्ननाविधेः शुभः ।। ६१ ।। पञ्चरत्नसमायुक्तं जाननी `
५६. स्थाप्य भतले ।। आरोप्य भाले हस्तो च श्रद्धाभक्तिसमस्वित ६२ \। देवदेवं ४ | |
महादेव प्रल्योत्यत्तिकारक ।! गृहाणार्ध्यं मया दत्तं कृपां कृत्वा ममोपरि । ६३ ॥
स्वयंभुवे नमस्तुभ्यं ब्रह्मणेऽमिततेजसे ।। नमो ऽस्तु ते प्रियानन्तं ब्राह्मणानां दयां
करु 11 ६४ ।। एवमेव जगच्नाथं गन्धपुष्पोपहारकंः । पूजयेत्परया भक्त्या चतुषु `
म्रहरेषु च \\ ६५ ।\ तथा जागरणं कुर्यत्कोतेनश्चवणादिभिः ।। ततः प्रभातसमये
` अमावास्यादिने नूप ।। ६६ ।। विष्णुं ' च पुजयेःडूक्त्या पश्चाद्धोमं समाचरेत् ।॥
` समित्तिलाज्यचरुणा पायसेन हुनेचुष ।\ ६७ ।! अतोदेदेति षट्केन अयुतं वा |
सहस्रकम् ॥। पूर्णाहुति ततः कृत्वा होमशेषं समापयेत् ।। ६८ ॥ गुरोः पुजां ततः |
कुर्याद्रसुभिः सप्तधान्यकेः ।! प्रदद्याद्धेनुसहितां प्रतिमां च तथा नृप । ६९ ।॥
` जयस्त्रिशादपुपांश्च कांस्यपात्रसमन्वितान् । प्रदद्याद्गुरवे राजन्धृतशकंरया सह॒
॥ ७०।। अधिमासे तु सम्प्राप्ते शुभे सूर्याधिदेवते ।। बरयस्तरिश्दपूपांश्च दानाहह्चि =
दिनेदिने ।\ ७१ ।) सुव्णेगुडसंयुक्तान् कांस्यपात्रे निधाय च ।। विष्णुप्ीत्यं प्रद- `
चयाच्च पुथ्वीदानफलं लभेत् ।! ७२ ॥\ नरकोत्तारणायेव घुतशकंरया युताः ।॥
च्रयस्त्िशदपूपाश्च सुवर्णेनापि संयुताः \\७३।। सदक्षिणा मया तुभ्यं कास्यपात्राणि
व
क न न ~ - ~
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सूर्यो मेः प्रीयतामिति ।। प्रीयन्तां देवदेवेशाब्रहमशम्भुजनादेनाः । ७५ । तेषां |
` प्रसादात्सकला मम सन्तु मनोरथाः ॥ गृहाण परमारेन कांस्यपात्रं प्रपूरितम् |
॥ ७६ ॥ सघृतं दीयसंयुक्तं प्रीतो भव दिवाकर ।। त्वया दत्तमिदं पात्रं परमान्नेन = `
परूरितम् ।\ ७७ ।। सघृतं परिगृह्लयमि प्रीयतां मे दिवाकरः ।। ऋत्विरभ्यो वाससी 1
दद्यात्र्यास्रशाच्च कुम्भकान् ।! ७८ ।। कास्यपात्रसमायुक्तानयूपान्धृतसंयुतान् ।। `
वटकः सह राजेन्द्र यथालञक्त्या च दक्षिणाम् ।। ७९ \। ब्राह्मणान्भोजयेत्यश्चाच्छ- |
कंराघृतपायसेः ।। नत्वा तु वाचयेत्तसतु सफलं चास्तु मे व्रतम् । ८० ॥। मलमासे |
(५०6) ^ ५ ब्रतराज 1 सल
` गुह्यतरं परम् । वाजपेयायुतफलं धोता वक्ता लभेद् धुवम् !। ८७ ।। इति श्रीभ- `
` विष्यपुराणे मलसासत्रतं सोद्यापनं सम्यु्णम् \!
मलमासव्रतानि ^
| मरुमासके ब्रत लिखे जाते ह~ लक्ष्मीजी बोली कि, है देव-देवं ! हे जगन्नाथ ! हे मुवितिमुक्तिके
देनेवाले ! कृषा करके कहिये । कृष्णद्वैपायन ( व्यास ) आदि मुनि कहते हे कि, बिना दिया नहीं मिलता सर्वत्र ` |
। द्या हुभा ही मिख्ता है । जैसे गृहस्थकी बन्ध्या पतिके वंशका ही नाच्च करती है उसी तरह दानहीनका जन्म ८
. व्यथेही है, तो भी श्ञस्त्रके जाननेवाखे जोतिषी कहा करते हँ कि, क्षौर मुण्डन मौजी ( जनेड ) विवाह ब्रत ` 1
ओर काम्य उपवासं ये सब मलमासमं गृहस्थको छोड देने चाहिये \! तब अधिक मासमे किस उत्तम ब्रतको करना
चाहिये ? किसके उदेशसे, दे जो दूसरे जन्मे काम आवे ? श्रीकृष्ण बोले कि, हे देवि ! सुन, हे महाभगे !
: मं सबके कल्याणके लिये कहता हुं । जो ब्राह्मणोको देता है वह आपही दाता तथा आपही भोक्ता है । इस लोक
वा परलोकमें दूसरा कोई दाता भोक्ता नहीं है, मासके असंक्रान्त होनेपर मेरा उश केकर ब्रत करे । मे पुरूषो- `
। | त्तम नामक हौ अधिमासका देव ही हं जो इस मासमे मेरे उदेशसे स्नान, दान, जप, होम, स्वाष्याय, पितृतपंण, `
रखनेवाले धुत ओर अध्ययनसे संपन्न, कुलीन ओर ज्ञातिमे प्रतिष्ठित हों । पीछे मध्याह्वके समय `
सनातन भगवानको लाक्षणिक कुंभपर स्थापित करके ,परम भक्तिपरवक सगोत्रिय ब्राह्मणोके `
उत्तम मन्त्रोसि मय भीष्म पिता महको पुजे 1 सुगन्धित चन्दन अनेक तरहके पुष्य, मिष्टान्न नैवे, धूप, = `
दिक् इनसे पूजे । अच्छे वस्त्रोको उदढावे । विङेषकरके वे पीतवस््र हो । घंटा मृदंग ओर शंखकौ ष्वनिके `
साथ कपुर अगर भौर चन्दनसे आरती करे । यदि ये न हों तो र्ईकौ बत्तीस ही आरती करके इससे अनन्त
फलः क १ प्राप्ति होती है, चन्दन अक्षत ओर पुष्योके साथ ताबेके पारमे पानौ रखकर भवितिसे अध्यं दे, अर्यं 1
` देतीबार ब्रह्मके साथ मेरा स्मरण करके इस भन्त्रको बोले कि, हे देवदेव । हे महादेव ! ह प्रच्य ओर उत्पत्ति `
५ 4 -करनेवालं ! है देव ! मेरे षर करपाकरके इस अध्यंको ग्रहण करिये, यह अध्यंदानका मन्व है । तुज स्वयंभूके `
` लिए नमस्कार तथा तुक्च अमिततेज ब्रह्मके लिए नमस्कार । हे अनन्त ! लक्ष्मीजोके साथ आप मन्न पर कृपा `
करे । इस प्रकार प्रार्थना करके गोविन्दको पूजे ! पौर लक्ष्मीनारायणका स्मरण करता हुमा पवित्र सपत्नीक `
्ाह्मणोका पूजन करे, उन्हे भक्तिके अनुसार कसतर, भूषण ओर कुंकुम देकर घी सीरका भोजन करवे,तथा = `
बराक्ला, कपित्य, पनस, कदलीफल, नारिकेल, नारिग, कूष्माण्ड, अनार, घौ कौ बनी गेहुकी चीज, सुहाली,
शकरा, धृत, पुर, फाणित, ण्ड, मण्डकः, बेगन, ककडीका साग, जड समेत श्फुगबेर एवं ओर भी अनेक `
तरहके शक तथा सुन्दर पाक एवं अलग-अलग भक्ष्य, भोज्य लह्य, चोष्य, पानीयल ये वस्तु मी ब्राह्मण भोज- `
म हनी चाहिये । उसीमं मोका देखकर परोसता हृ मधुस्वरसे कहे कि, यह स्वादिष्ट भोजन मेने आपके `
पार किया है मेने इसौ लियेही बनाया है जो अच्छा लगे सो मांग टीजिए ।:
क्तानि] द्दीटीकासहित (८७७)
भी इस तरह मलमासका त्रत करता है तो उसे भौ दारिद्रच ओर पत्र शोकादि नहीं देने पडते. मलमासमे `
जिन्होने परमभक्तिके साथ श्रीनाथ देवका पुजन नहीं किया, उन्हं सुल, संपति, पत्र, सुहत्, स्वजन ओौरस्त्री ` ध ॥
कंसे हौं ! यह् भविष्य पुराणका कहा हुमा मलमासका ब्रत पुरा हुआ ।। वहां ही इतिहाससहित भी मलमासका = `
ब्रतल्िखाहै उसे भी कहते हं । युधिष्ठिरजी बोले कि, हे मुने माकंण्डेय ! अधिमासका माहात्म्य कहिये जो
` उसमे जप यज्ञादिक पुण्य होते हों । है ऋषिसत्तम ! उन्हं भौ किये ।\१।। हे वित्रे ! क्या करना चाहिये ? `
क्या दुलभ गद्धस्नान करे ? हे महाप्राज्ञ ! कृपाकरके बतादीजिए् ।\ २ ।। माकंण्डेय बोले करि, मलमास तो `
` मसोमं मलिन है, पायसे उत्पच्च है, उसके पापकी शुद्धिके लिए मलमासका व्रत करिये 1३1} वह् प्रतिदासे `
लेकर अमावस तक होता है उपवास नक्त या भक्तका ।\४।। नियम करके प्रतिदिन दान दे, दक्षिणाओरघीके
। साथ अपूरपोका दान करे \।५।} अन्तम उद्यापन करे । भगवान् को पुज, चतुरदशीके दिन उपवास करे, सब पापस
| छट जाता है ।\६।। यदि दरिद्र हो तो व्यतीपात, द्वादशी, पौर्णमासौ, चतुदेक्ी, नवमी वा अष्टमीके दिनि
| शौकविनाशक इस त्रतको करना चाहिये, जो उपचार मिर जाय उनसे ही करले ।७।)८।। शनी सु्येकी प्रसन्न
। श्रावणके मलमासके आजानेषर ॥।१०।। पात्रमे रखकर दे तो वह दान सफल हो जाता है । युधिष्ठिरजी बोले `
द मलमासमें सन्ध्योपासन तपेण भाद्धदान नियमव्रत ये सब सफल होते हे ।। १४।। इसके त्रतसे ब्रह्महत्यादि क
सब पाप नष्ट हो जाते हें । माकंण्डेय बोते कि, ह धमेधारियोमे भेष्ठ! एक कौशिक नामकं ब्राह्मण था \ वह तप
ओर स्वाध्यायमें रत, सत्यवादी जितेन्द्रिय, विष्णुभक्त ओर वेदिकधमंमं लगां रहनेवाला था ।\१५।।१६॥
ताके किए घीके तेतीस अपूप दे, बहु सब पापोसे छट जाता है । ।\९।। जनार्दनकी प्रस्तके किए कातिकया ५
किः हे सर्वज्ञ मुनिसत्तम ! भलमास कंसे जाना जाय हे विप्र ! उस सरको विस्तारे साथ यथार्थल्पसेकहिवे ` ५
॥ ४ ॥\११।। माकंण्डेय बोरू किं, जिस मासम संक्रांति न हो अथवा दो सक्रांति हो उन्हुं मलमास र क्षयमास सम~ ४
क्षिय नि सि° कारने सिद्धान्त शिरोमणिका वाक्य रखा है कि, ' प्रायशोऽयं कुबेरेनदु-वर्षः क्वचिद् गोकु- = `
` भिश्च ` इससे अधिमास जल्दी जल्दी किन्तु क्षयमास १४९१ वर्षोमिं आता है वे सब धमति रहितहं १२१ |
यदि मल मास ओर क्षयमास एकही संवत्सरमें आजायं तो उत्तर भे देव कायं तथा दक्षिणने पितृकार्यं करे॥ १२१ = |
| उसका मेत्रेय नामक पुत्र बाह क्रूर था ! वह॒ कामान्ध, जयने जनको दुख देनेवाला, साभि द्वेष करनेवाला, ।
| अधम ।!१७।। अधर्मे लगा रहनेवाला, पापका प्रेमी, शिव श्रौ ौर विष्णुका निदक था गोत्रको पीडितकरने- |
५ वाला तो एेसा था जसे कि, सूर्यको पापी राहुं हौ ॥ १८ ॥ कठोर, कठोर ही करनेवाला, सब प्राणियोका
{ह्सिक हत क, शराबी, मूख एवं चोरोका साथ करनेवाला था । इन कामोको करते हुए उसे बहुत ९ तसे दिन बीत
रमे महा हाहाकार मच गया ।\१९-२२। सब नगरके निवासियोने मिलकर उसे मार दिया बराह्मण कुलक `
अधम उसने इस प्रकार पाय किएु थे ।\२३।। पर तो भौ जिर क्का निषेध है वहं भौ कमं नगरवासि
(व) वकारा [जवास
लिये कहता हूं । ब्रह्महत्या, सुरापान, स्तेय, गरुपत्नौके साथ गमन ।\३४।। तथा ओर भी कोटि जन्मके इकट्ठे
किये पापोको ब्रतके योगसे उसी समय नष्ट कर डालता है । उसके सब पप नष्ट हो जति हं । इसमे सन्देह
नहं है \ रेसेही कृष्णकी चरण सेवासे भी सब पाय मिट जाते हें \\ ३५।\ हे विप्र्र कोरिक ! उसीसे आप
ब्रह्यहत्याको तर जायंगे } माकंण्डेयजी बोकते कि, कौशिक महत्माने नारजौके वावर्योको सुनकर ।\ ३६ ।।
` विधिके साथ मलमासका श्रत किया, एवं उस् व्रतका पुण्य ब्रह्म हत्याके नाशके लिये पुत्रको देदिया जिससे बहु `
` दिव्य देह वाला हो मया \ जिसे कि, ब्रह्मादिक भौ नहीं देख सकते थं \\३७।।३८।। इस त्रतराज के प्रभाव्से ष
: कौशिकने अपने पुत्र मेत्रेयको निष्पाप देखा ।\३९।१ हे युधिष्ठिर { साक्षात् भगवानकौ कृपते वह एेसाहृजा _
था! युधिष्ठिरजी बोरे कि, हे ब्रह्मन् ! उसमे मल्मासका ब्रत कंसे करिया 1\४०।। संसारके कल्याणक लिये
। यह् मुने बता दीजिये, माकंण्डेय बोले कि, सुग्यं अधिदेववार सुभ अधिमासके आनेपर '1\४१।। पविच्र दिनम (8 4
` भ्रातःकरालं उठकर पर्बाह्भमं होनेवाली कियाओंको करे । पीछे वासुदेवका स्मरण करके नियम ग्रहण करे।\४२।। “ ९
प्रतिपदा तिथिसे लेकर एकमासतक गंध पुष्य आदिकोसे भगवान्का पुजन करे खोर ओर घीसे ॥(४२।। `
` आआह्यण भोजन करावे । दक्षिणासे सन्तुष्ट करे । एक मासतक विचित्र रानोके साथ ब्रत करे ! अन्तको चौद- ५
` सके दिन उपवास करके एकाग्र चित्त हो तेतीस धघमनिष्ठ ब्राह्यणोको भोजन करे 1\४४।।१४५।। वे सप-
ल्लीक, सदाचारी, सुरूप, सुविज्ञ, वेदवेत्ता, कुलीन ओर ज्ञातिमे प्रतिष्ठित होने चाहिये ॥\४६।१ मध्याह्के `
-मध्याह्वकी क्रियां करके विचित्र तोरणोसे पूरका मंडप बनादे।\४७।) उस् सुशोभित रम्य मण्डयषर ` ह
कब्दोके साथ सुन्वर सर्वतोभद्रमंडल ललना चाहिये
पंचरत्न डले, उसपर पात रखकर उसीपर देवका पूजन करे \४९।। पहिले स्वस्त्ययनकरके पूजाका भारभ `
। इन्हे र बोलता हआ हौ भवितपूर्वक दो पोत वस्त्र उढादे ।५४-५६।। विष्णु भगवान् लिये दो सुन्दर उष- ५
सुगन्धित चन्दन एवं अनेक तरहक एूल ।॥५७1। अनेक तरहके धूप दीष हों, इनसे विधिपुवक पूजे, `:
तच्छे शुभ फल तथा पंचरत होने चाहिये । जानुोको भूमियर टक तथा दोनों लु हा्ोको माथेषर र~ ८ ॥
कर हे सह देवदेव ! है महादेव! है रय ओर उत्पति
प्तक करनवाल । मेरे दयें हए अध्यको ग्रहण करिये | ( 4 ५ ४
एवं मुक्षपर कृषा करिये ।\६१-६३।\ अमित तेजवाले तुश्च स्वयंभू ब्रह्मकरे लिये नमस्कार है । हेब्राह्मणोकेष्यारे `
` अनन्त ६ तेरे लिये नमस्कार है तु मुद्षपर दयाकर ।\६४।। इसी तरह गन्घ पुष्प ओर उहारोसे परममक्तिके `` `
सराय चारों पहरोमे पूजे ।।६५।। कौतंन भ्रवण आदिसे रातमें जागरण करे ! इसके बाद प्रभातकाले अमा- = `
बास्याके दिनं भक्तिके साथ विष्णु भगवानका पूजन करे, पीछे होम र करे । समित्, तिल, आज्य, चर ओर पाय. ५
` त्र॑तानि।] | हिन्दीटीकासहित (८७९) `
व प्रसन्न हो जायें तथा देवदेवेश जो ब्रह्मा क्षिव ओर विष्णुभगवान् है बे भौ प्रस हो जाये ।\७५॥। उनकी `
| कृपासे मेरे सब मनोरथ सफल हो जाये, परमान्लसे भरेहृए कासेके पात्रको ग्रहणकर ॥\७९।। घृतसहित दीप `
` संयुक्त है । हे दिवाकर ! प्रसन्न हो ! आपने यह् परमान्नसे भराहुमा पात्र दिया है 1\७७1। सधुत्त्रहूणकरता
। हं । हे दिवाकर ! मुश्चयर प्रसन्न होजा, यहं दान लेनेका मंत्र है । ऋत्िजोके लि्यि दो दो वस्त्रदे, तथा तेतीसं = |
कुंभे ।1७८।} कास्यपात्र, अपुप, घत ओर बड़ों सहित दे तथा शक्तिके अनुसार दक्षिणाभी दे ।\७९1) घत `
` श्कंरा ओर पायससे ब्राह्मण भोजन करावे । उन्हूं नमस्कार करके अयने त्रतकी सफलता कहल्वावे ।८०।\ `
चाहे उसके पास कुक मी न हो तो भी मलमासमं द्वाद, पौणेमासी, क्षय व्यतीपात तथा ओर दूसरे भी पत्र |
| दिनं तेतीस अपुप घी सक्करके साथ देने चाहिये क्योकि, यह मासोके मलका मास है उसी पायख्पमल्सेयह् =
। बना है ।\८१।।८२।\ उस पापकौ क्ञान्तिकी लिये जो तेतीस अपुष देता ह, हे पाण्डव ! उन अपुोमें जितने `
| ` छिद्र होते है ।\८३।। उतने हजार वषं स्वगं लोकमें रहता है, हे भारत ! जो स्त्री मल्मासका वरत करतीहै `
| 1८४ व्ह दारिद्रचपुत्रशोक ओर वेधव्यको कभी नहीं पातौ, जो कोई इस प्राचीन धमं सर्वस्व उत्तमवब्रत्को `
| करता है वह ब्रह्यहत्या आदिके नष्ट करनेवाले वैष्णवयदको पाता है । जिन पापी मनष्योने मलमासकाव्रत `
। : नहीं किया बे सदाही
मलमासका ब्रत पूरा हु ¦ ।
विष्यः र भविष्यपुराणका कहा हुभा उद्यापनसहित मलमार 1
| ग्रमानसः । ४ \\ स्वस्तिकानि लिखित्वादोभैरङ्कवल्ल्यार्दि दिभिः
॥ पापी तथा उन्हूं पद-पद षर ब्रह्महत्या है ।1८५।।८६।। माकंण्डेय बोले करि, हे पाथं ! यह् ` । र
| परम गुह्य तरत मेने भापको सुना दिया है, इसके श्रोता वक्ता दोनोको अयुत वाजपेयका फल भिल्ताहै ॥८७।! = |
(८ क कतिशः कातिकयुणिमा णगमावधि ।} अथ कथा ॥ युधि- ।
` ष्ठिर उवाच ।। सर्वासां च तिथीनां च कथितानि व्रतानि मोः ।\ तथा च स्वस्तिकं |
नाम यत्त्वया कथितं प्रभो ।। १ ।। नैव तस्य विधानं तु कथितं, च सुरेश्वर को |
| विधिर्देवता का च कि दानं पूजनं कथम् ।\! २।। केनेदं हि पुराचीणं किंफलं |
| स्वस्तिकन्रते \! रीकृष्ण उवाच ।। साधु पृष्टं महाभाग लोकानां हितकाम्यया ॥३।!
1 येन चीर्णेन राजेन्द्र भूमिभूक् जायते नरः ।। स्वस्तिकस्य विधि राजज्चछृणुं ह्येका- |
(८८०) वत [स्वस्तिक
भूमिपो भवेत् ।। तत्कुखेऽपि दरिद्रत्वं नैव जायेत कहिचित् 1! १३ ।प्रयुतं स्वस्ति-
कानां तु विष्णवे ह्यपेयेद्यदि ॥। पुत्रपौत्रादिकं तस्य स्वस्तिमज्जायते ध्रुवम् ।\१४।।
न रोगातिरभवत्येव गोपालस्य प्रसादतः ।। नारी चेष्ठिधवा नेव पुरषो विधुरो न
हि \\ १५ ॥\ जायापत्यसमायुक्तो नात्र कार्या विचारणा ।\ नार
गेऽभिथवन्त्येन
स्वस्तिकैः पृजकं नरम् ।। १६ ।\ अथ स्वस्तिकलक्षं तुयदि कुर्यष्िचक्षणः ॥\ तस्य
` पुण्यफलं वकतुं कः शक्तो दिवि वा भुवि ।। १७ । आषाढे मासि राजेनद्र प्रथमा- `
` चरणं भवेत् ।। आश्िवने तु समाप्ते कर्तव्या स्वस्तिकारिणी ।। १८ ।। धनिना
वुत्तं विग्र गोदानाद्ुरःसरम् ।\ कतव्य फलसिद्ध्यर्थं नान्न कार्या विचारणा ।\
॥ १९॥। कृतं यदि दरिद्रेण शरभं स्वस्तिकलक्षकम् ।। कस्बलाद्ययासन दद्यादत्रत- _ ध ॥
सादृगुण्यसिद्धये \। २० 1! विभवे सति राजेन्द्र॒ हेम्ना रौप्येण वा कृतम् ।। स्वस्तिकं `
त्वासनं दद्ादव्रतसंपुतिरि
ण्वति मन्त्रेण 'तमेव परुजयेद्बुधः ।। ३३ 1 पठ -चामतेः
संपूतिसिद्धये ।\ २१) आदिताग्नेस्तु होमः स्यात्तदभावे द्िजा-
क्रति)
[व 941
2 । पुरिकामोदकाद्येऽच भोजयेद्दिजसत्तमान् 1. २३८ \। आचार्याय तु ता । ५ ८
` श्रद्धां प्रतिमां दापयेत्सुधीः ।। हस्तम ~
` पीतांबरेऽच संपुज्यं कोटियज्ञफलं लभेत् ।\ यथाहक्त्या तु क्वं त्रतमेतच्छभाव- 1
` हम् ।\ ४० \! वित्तशाठचमकरत्वा तु कोरियज्लफलप्रदम् ।) तस्मादद्य प्रकर्तव्यं |
| धमेकामाथंसिद्धये ।। ४१ ।। राजानो मित्रतां थान्ति शत्रवो यान्ति दासताम् \॥ `
; थ एवं कुरते भक्त्या विष्णुभवितपुरस्सरः । ४२ 1! तस्यानन्तफलं राजन् गदितं `
, बेवपारगेः \। स्वस्तिकव्रतमेतत्तु गङ्धास्नानफलगघ्रदम् । ४३ ।। रोगा नाभिमव-
| न्त्येव स्वस्तिकत्रतचारिणम् ।। स्त्रीभिरेव च कतैव्यं सर्वसोभाग्यसिद्धये ।। ४४।\ ८
। क्ञाण्डिल्या कृतमेवं तु रतं विष्णपरवुष्टये ।। सगरेण दिलीपेन दमयन्त्या तथेव च॒ `
। ॥४८॥) जादौ मासि प्रकतंव्यमन्ते चापि तथैव च ।। मासत्रये समाप्तिः स्याच्च- ` १
तुभिर्वां तथेव च ।\ ४६।। एकस्सिच्चपि मासे तु समाप्तिः कोरिष प्यदा1॥ `
य इदं ्पृणुया-डूक्त्या तस्यापि फलदं भवेत् ।\ ४७ ॥। नेदं कस्यापि व्याः भे सयेय यदी 1
स्तमा्ाकणेमात्ाकटिसूत्रादिभिः पुनः ।। ३९
कर कातिककौ षष्ठिरजौ
था स्वस्तिकब्रत भी आपने कह \।१।। पर हे सुरेदवर । आपने उसका = `
देवता तथा क्या दन जौर कंसे पुजन होताहै ? २१ इसे
॥ # +
६ ५
ध ध 0 ए श
10
(८८२) (1 व्रत राजं 1 सवक
र्डूमानहो तो बेटे बेोकी बहु होती हैः इसमे विचार न करना चाहिये । न इसे बैरी जीत सकते हं ।\१५।१ |
१६।। यदि एक लाख स्वस्तिकं 2े दे जो उसके पुण्यके `
दिये हों तो उस ब्रतकौ सगुणताकी सिद्धिके लिए कम्बल आदि-
सांत्रिक मस्त्रसे कहना चाहिये \\२७।\ मं फलके आनन्त्यके लिए उस मन्त्रको कहता हं । बह स्वस्ति- ` ५
ती ष, दी ।, ऋतुकं फूल, शतपत्र, कलहार इनसे परमेश्वरका पजन
9 1 ष करके दिव्य स्तो्रोके पाठ करे इसके बाद मौनी ओर जितेन्द्रिय होकरप्रद-
फिर ¢ व्रतकी पुतिके लिए तो गऊ दे, यदि गऊ न हों तो एक द्रोण यावक अन्न देदे।३७।। `
फठको भूमण्डल्पर कोई भी नहीं कहे सकता \1१७।
आषाढ़मासकी प्रतिपदासे लेकर आदिवन कर्ण पक्से समाप्ति कर देनी चाहिये ।\९८।। धनियोकोतोयह् `
ब्राह्मणोको गोदान देनं आदिके साथ करना चाहिये । इससे फल सिद होता है \ इसमे विचार न करना चाहिये `
| < ॥११९५। यदि दरिद्रने एक लाख स्वस्तिक बना
` काआसन दे ।\२०।। है राजेनद्र ! यदि विभव ले तो सोने वा चांदीका स्वस्तिक बना आसनके साथ उसे दे 1 1
इससे व्रतकौ पुति हो जाती है ।\२१।। यदि जाहिताग्निहो तो होम करे, इसके अभावमं ब्राह्मणोकी पजाकरे, =
हे राजन् ब्राह्मणोके तुत क्ियेसे ब्रत संपुणं हो जाता है ।१२२।। सोने चांदीके स्वस्तिकं बनाकर ब्रतकी संबु- =
` तिके लिए ब्राह्यणोके लिए दे दे ।।२३।। जसे बति विधानसे उत्तम पुण्य कहा है । उसी तरह् बेदके जाननेवाल 1
` स्वस्तिकका पुष्य कहते ह ।\२४। लक्ष स्वस्तिकोकी सिदधिके लिए होम कहता हूं" घीसे सने हए पायसे अपने
` सत्रके कहै हए विधानके अनुसार ।\२५।। दासे होम तथा द्ञांशसे तपण होता है ^ स्वस्त्ययनं तक्यम् ==
इमं मन्तरसे हवन होता है ।२६।। आहिताग्निके लिये होमका वेदिक मन्त्र होता है तथा जो आहिताग्नि नही 1
~ धय न
` परम् \\ स्नानार्थं च मया नीतं स्नानं कुरः जगत्पते ।। सलापकषस्ना० ।\.पयोद =
तिन मया च स्नपनं प्रीयतां परमेदवर ।। पञ्चा- `
तरतानि } ५ हिन्दीटीकासहित ` [८८३) |
अथ वाररतानि छिख्यन्ते
रक्विारे सूयत्रतम्
५ तत्रादौ रविवारेऽनुष्ठेयं सूर्य॑त्रतं मदनरत्ने सौरधर्मे ।\ अथपुजा मासपक्षा- |
` द्युल्लिख्य मम समस्त रोगनिरासार्थमायुष्यवृद्धचादिसकलकामनासिद्धचर्थ भीसू्े- |
नारायणप्रीत्यरथं सूयेब्रताद्धत्वेन विहितं सूरयपूजनमहं करिष्ये ॥। गणपति स्मरण- ।
पूवेकं. कलद्यादिपुजनं च करिष्ये \ तास्रपात्रे रक्तचन्दनेनाष्टदलं कृत्वा तत्र॒
देवं पुजयेत् \। तेजोरूपं सहस्रांशुं सप्ताहवरथगं वरम् ।। द्विभुजं वरदं पदयलाज्छनं |
` सर्वकामदम् ।\ ध्यानम् ।\ आगच्छ भगवन्सुयं मण्डले च स्थिरो भव ।\ यावत् `
५ पुजा समाप्येत तावत्त्वं सिधौ भव ।\ आवाहनम् \। हेमासनं महादिव्यं नानारत्न- ५ र
विभूषितम् ।\ दत्तं मे गृह्यतां देव दिवाकर नमोऽस्तु ते \\ आसनम् ।! गङ्काजलं
समानीतं (४ ी री परमं पावनं महत् ।\ पां गृहाण देवेश धामरूपनमोऽस्तु ते ।। पाम् \॥ |
सूये महाभूत ब्रह्मविष्णुस्वरूपिणे ।\ अघ्यंमञ्जलिना दत्तं गृहाण परमेहवर
प जातीपुष्येश्व वासितम् ।\ ताख्पात्रे स्थितं
(८८) :::“; रराज ४ [- सविवीरं
नारायणज्ञडकरात्मने० क्षिरः पण । तिमिरनाशिने° सर्बद्धिं पु ! दशष्धो
` गुगुलोद्भूतः कालागुरुसमन्वितः ।। आष्नेयः सवेदेवानां धूपोऽयं प्रतिगृह्यताम् `
॥ धूपम् !। कार्पासवतिकायक्तं गोघतेन समन्वितम् ।। दीपं गृहाण देवेश त्रेलोक्य- `
तिमिरापह \ दीपम् ।। पायसं घ॒तसंयुक्तं नानापववान्नसंयुतम् \। नैवेयं च मया `
` वत्तं शान तोयं मन्दाकिन्याः समा- `
ह्यतम् ।\ आचम्यतां जगन्नाथ मया दत्तं हि ह भविततः ।\ आचमनम् ।\ मलयाचल- `
८ संभूतं कप्रेण समन्वितम् ।\ करोद्रतनक चार गृह्यतां जगतः पते ।। करोटतनम् ॥ 1.
इदं फलं मया देव स्थापितं पुरतस्तव । तेन मे सफलावाप्तिभवेज्जन्मनि जन्मनि।!. `
फलम् ।॥ एलालवद्धकर्पूरखदिरेश्च सपुगकेः ।। नागवल्लीदले्युक्तं ताम्बूलं `
. ६५
क लाताम |) ताभ्विल्प | दक्षिणां काञ्चनीं च ॥
देव स्थापितां च तवाग्रतः! `
प्रबोधो यः क कः कर्मस ध क्षी: क भुवनस्य गोप्ता ।। कुष्ठाद्किव्याधि- |
भास्करो ( निहन्यात् हः श त् ।\ इति प्राना ।। अथ कथा ४ ध 1 ॥
चैत्रे भानु च संभज्य नैवे घृतपुरिकाः ।। दाडिमीफलमर््ये च परादयं दुग्धं पलत्रयम्
॥ २०॥ विप्राय भोजन दद्यास्सिष्टान्लं तु सदक्षिणम् ।\ व्ञाखे तपन प्रोक्तं मरक्तो ` 1
माषान्नं सघतं स्मृतम् ।! २१ ॥ अर्यं दात्त द्राक्षाभिः प्राशने गोमयं स्मतम् ।॥ `
1 कुर्यान्माषा्नदानं च सघृतं वे सदक्षिणम् ।। २२ ।।इन् ज्येष्ठे यजेद्राजच्वेये तु
~. श्र॑तानिः) | हिन्दीटीकासहित ` (८१).
विलिख्त पद्यं तु दादशारं सकणिकम् ।\ ११ \ ताञ्रप
त्रे तथा पद्यं रक्तचन्दन- `
वारिणा ॥। तत्र सपुजयदुव् दिननाथं सुरेश्वरम् ।। १२।। मापे मासे च ये राजच्विह्ञे- ` |
षास्ताज्छृणुष्व वे ।। मागंशञौषे यजेम्मत्रं नारिकेरा््यमुत्तमम् ।\ १३ ।। नैवेचैसत- `
ण्डुला दयाः साज्यारच गुडसयुताः ।। पत्र बयं तुलस्यास्तु प्रादय तिष्ेन्जितेन्ियः `
॥ ९४ ।। दद्याद्विप्राय भोज्यं तु दक्लिणासहितं नप ।। पौषे विष्णं समभ्यच्यं नैवे्ये `
कृसरं तथा । १५ ।\ बीजयपुरेण चेवाघ्यं घतं प्रायं पलत्रयम् ।\ क्दयादघतं 1
` विप्राय भोजनेन समन्वितम् \! १६ । माघे वरुणनामानं संयुज्य सतिलं गृडम् ॥\ |
भोजनं दक्षिणां वद्यान्नेवेद्यं कदलीफलम् ।। १७ ।॥। अर्ध्यं तेनैव दत्त्वा तुप्रश्या |
मुष्टित्रयं तिताः ।। फाल्गुने सूयेमभ्यच्यं नेवेचं सधतं दधि । १८ । अर्घ्यं जबीर- `
` सहितं दधि प्रायं पलत्रयम् ।॥ दधितण्डुलदानं च भोजने समुदाहृतम् ।\ १९।।
न भ,
समायुक्तं भोजन ब्राह्मणस्य तु ।\ आषादे छः रविभभ्यच्यं जातीचिपिटकं तथा ।।२४।।
. विप्राय भोजनं दद्यात्प्राशयेन्मरिचत्रयम् ।! ग्भास्ति श्रावणेऽभ्यच्यं नैवेद्ये १ ४२ सक्तु- `
श्यं जलाञ्जलित्रयम् ।२३।। दध्योदन `
¢ 1 पि
(८८६) 4 [रविवार- |.
॥ ३५ 1) पञ्चामृतेन स्नपयेदग्युत्तारणपुवेकम् \। प्रतिष्ठां च ततः कत्वा पूजां `
` वस्त्रेव कमण्डलमुपानहौ ।\ ३७ ।। वधनीत्रितयं तत्र स्थापयेहेवसचिधो ।\ संज्ञाया
वस्त्रयुग्मं च कौसुम्भं तु महीपते ।। ३८ ॥। प्रतिपत्रेषु संपुज्यः ससूर्यो दादशनामभिः।।\ ` | ॥
भित्रो विष्णुः सवरुणः सूर्यो भानुस्तथव च ।\ ३९ ।। तयनेनद्रो रविः पूज्यो गभस्तिः
ज्षमजुस्तथा ।। हिरण्यरेता दिनकृत्पूज्या एते प्रयत्नतः ।! ४० ॥ मध्ये सहस्ञ- `
ष्येट प. द
किरणः संपूज्य संया सहं ।! पूगीफलधूपदीपेनवेदयेवेस्त्रसंयुतेः ।! ४१
। | | नारिकरेण चेवाध्यं दद्याहबाय भवितितः ।। मंत्रेणानेन राजेनद्र व्रतस्य परिपतये ८
॥ ४२।। नमः सह्रकिरण सवंव्याधिविनालन । गृहाणाघ्यं मया वत्तं संज्ञया
सहितो रवं ।। ४३ ।\ आरातिकं ततः कुर्या्चमस्का
सरमस्कारप्रदक्षिणाः ।\ संकल्प्य च॒ `
बराह्मणान्भोजयेुक्त्या भिष्टासे्ढाद्क्ि
वतम् \\ ४५ ।। ततस्तु दक्षिणा देया |`
सः ५ सगादिभिः \ उपहारादि - तत्सर्वं गुरवे प्रतिपादयेत् । ४९६ ॥ गृहं `
तु समा 0 बन्धभिः सार्थं नत्वा देवं दिवाकरम् । एवं यः ` ॥
कर्तं म्य ो वि र अ ता 7ाठ्यविर्वाजतः ।\ ४९ । सूयंत्रतं ध
ह्मणो लभते विद्यां क्षत्रियो राज्यमाप्तुयात् ।। ५० ॥। दयः सर्माद्ध विपुलां `
बन्धनात् ।।यं यं चिन्तयते कामं तं तं प्राप्नो | ध वे धुवम् `
` ` घुय्यं ! त्क ब्रह्मा विष्ण मौर लिवके रपवालेके स्ये अंजल्िसि
वप्तुयात् ।। अपुत्रो रभते पुत्रं कुमारी लभते पतिम् । ५१ ।। रोगार्तो `
जत्रा 4 1: हिन्कीटीक्रासहितं ` (८८७).
| 4; ६ प (क र
(६ 1 1 4 ४
(र व म प ; 1 1 {द म (य ्ः
| ग्रहण कर । इससे पाच्च; “ गंगादिसवंतीर्थेभ्यः' इससे आचमनीय; गंगाजल अध्यन्तही परम पवित्रताकाकारण `
हैमं आपके स्नानके लिये लाया हूं हे जगत्पते ! आप स्नान करे । इससे स्नान, आचमनीय; ' पयोदधिघतेः' `
` इससे पंचामृत स्नान; ' गंगागोदावरी ' इससे पयस्नान; आचमननीय, ‹ रक्तपटयुगं ' इससे वस्त्र; हे कमल
` क्रो हाथमे रखनेवारे विहवरूप । तेरे लिये नमस्कार है, मे जापको उपवीत दे रहा हूं । हे दिवाकर ! ग्रहण
करिये । इससे उपवीत; “ कुंकुमागर " इससे गन्ध; रक्तोत्यलके साय जपा, कदंब भौर कुसुमे फल ह । है `
देव ! इन्ह ग्रहण करिये तथा सब कामोके देनेवाले हो जाइये । इससे पुष्प; जालचन्दन भिलेहुए सुन्दर अक्षत `
रखे हुए हं । मे दे रहा हं । है दिवाकर ! आय ग्रहण करिये । हे भास्कर { वर दीजिये । इससे अक्षत समर्पण
करे \ अंगयुजा-भीगेहुए अक्षत लेकर अंगपूजा करे । भित्रके लिये नमस्कार चरणोको पुजता हुं । रविके० = `
जंधोको पुर; सूय्यके° जानुओंको पु; खंगके० ऊरुजोंको पू०; पुषाके ० गुह्यको पु०; हिरण्यग्भेके० `
` कटिको प°; मरीचिके° नाभिको प°; आदित्यके ° जठरको प°; सविताके० हदयको पू०; अकंकेऽ स्तोको |
पु०; भास्करके कण्ठको पू०; अर्यमाके° स्कन्धोको पू०; प्रभाकरके° हाँथोको पु; अहस्करके०मुखको |
पु; अन्धके० नासिकाको पू०; संसारके एकमात्र नेत्रके० नेत्रोको पर०; सवितके कानोको प्रण; तोन
` तीनों गुणोके आत्मावाङे एवं तीनों गुणोके धारकके० ललाटको पु०; ब्रह्य विष्णु शकरकी आत्मके `
क्षिरको पू०; अन्धकारके नाशकके चले नमस्कार, सर्वाद्धको पुनता हं । दशाङ्घो गुग्गुले ' इससे धूष; |
` कार्पासवतिका ' इससे दीप; ‹ पायसं घृतसंयुक्तम् ` इससे वेवेद्य; ' कपरवासितम् ' इससे आचमन्; मल~ |
चल ' इससे करोद्रतैनक; * इदं फलम् ' इससे फलः; ‹ एलालवंग ' इससे ताम्बूल; ' दक्षिणां काञ्चनीम्! =
इससे दक्षिणा; कमल हाथमे रखनेवाक कमरोकी माला पहिननेवाले कमलनयन, भास्करे ल्यि वारंवार
नमस्कार है, इससे नमस्कार; चावस भरे हुए पात्रको ऊपर सोना रखकर दो लाल वस्त्रोकेसाथब्राह्म- = `
णको देदे, इससे वायना; जिसके उदय होनेसे संसारक प्रबोध हो जाता है, जो सवके कर्म्मोका साक्षीतथा ।
संसारका रक्षक है, जो कुष्ट आदिक व्याधियोको भी नष्ट कर देता है, बहु आदित्य मेरे दुरितोक्ो नष्ट करे,
। इसे प्रार्थना समपेण करदे ।। कथा-मान्धाता बोले कि, हे भगवन् ! आय सब जनियोमं शरेष्ठ हं अपङ्पाकर ` |
कहं । मे आपके मुखसे पापनादक व्रत सुनना चाहता हूं ।\१।। जो सब कामोका दाता एवं सभो अमंगलोका
"नाशक हो । उसमे पुजा ओर अध्यंदान नैवेद्य ओर प्रा्नभी हों \\२१। हे द्विज { यदि आप मुक्षपर प्रसन्नहै |
` . तो यहं कह डाले । वसिष्ठ बोले कि, हे राजन् ! सुन, मे परम गोप्य उत्तम व्रत करता हुं ।1३।\ जो मनुष्योकी `
सब का्मोका देनेवाला तथा कुष्ठ आदि व्याधियोका नाशक है । हे राजन् ! सु्यको प्रसन्न करनेवाला तथा = `
. ` भविति मुक्तिका देनेवाला है ।\४।। जिसके उदय होते ही सुरगण, मुनिसंघ, चारण, देव, दानव, यक्ष, जिसका |
` रातदिन पूजन करते रहते हँ 1५1 हे शरेष्ठ राजन् ! जिसके
` ब्रतको विस्तारके साथ कटंगा ।\६।। पूजा, अध्य प्राशन, नवेद्य, यथा्थरूपसे सुन । जो सब तीथोम पुण्य त
चैत्रे भानुकी पूज धीकी पूरियोका नेद; अनारका अध्य तथा तीन पर धका प्रान हौ ।२०।। ब्राह्म- =
णको दक्षिणासमेत मिष्टाश्नका भोजन हो, वेशाखमें तपनको पुजा घृत समेत माषके अन्नका नवे, ।\२१।६
` दाका अर्यं, गोमयका प्राहान हो, दक्षिणा ओर धौ समेत माषोके अन्चका दान हो ।\२२।। व्येष्ठ्मे इन््रकी
। पला, दि सक्तुका नैवे, सहकार ( अति सुगन्धित आम ) का अथ्यं तथा तीन अंजलि पानौका प्राशन होता
है ।१२३।। दध्योदनसे ब्राह्मण भोजन हो, आषाढमे रविकौ पूना जातीफलका
` उसकर ब्राह्मण भोजन एवम् तीन भिरचोका
। अध्य, चिपिटककानेवेच ॥२४।॥ `
का प्रा्ञन होता है । श्रावणमे गभस्तिकी पूजा, सतुञ पूरीकानैवेद्य
. 1\२५॥१ ्पुसी फलका अध्यंदान, तथा तीन मुट्ठी सत्तुजंका प्राशन होता ह \\२६।। ब्राह्मणको दक्षिणा सहिते
भोजन दे, भद्रपदमे यमकी पुजा, कष्माण्डका अर्ध्य, घीसमेत ओदनका नैवेद्य \\२७।। गोमूत्रका प्रान जौर
: ब्राह्मण भोजन होता है, आदरिवनमं हिरण्यरेताकी पुजा, शकंराका नैवेद्य ।\२८।\ अनारका अध्य तथातीन = ¦
पल खांडका प्राशन ओर परम भव्तिके साथ शाली शकंराका ब्राह्मण भोजन होता है ।२९। कातिकमं . `
हिवाक्ररका पुजन रंभा फलका अध्ये, पायसका नैके्य ओर प्राशन हो ।\३०।। पायससे ब्राह्मण भोजन तथा ` 1
. पातन ओर दक्षिणा दे, इस प्रकार बरतकी समाप्ति करे ।। उद्यापन पीछे करे ।\३ १।। आचा्यके धर जाकर उनके `
` चरण पकड़कर के कि, मे उद्यापन करूगा मेरे घर आप अवदय पप्रारिथेगा ।।३२।। एक माष सोनेक सुय्यं
मन्त्रे प्रयत्नके नः : सोय पर््ोपर पुने ।\४०।। बीचमें {५ में संज्ञके साथ सहस्त्र करिरणका पुजन करे, वह् पूजन युगी- `
प, प , नेवेद्य ओर बस्त्रोसि हो ।\४१।। हे राजेन्द्र ! भक्तिभावके इस मत्रसे नारिकेलकः अध्यं व्रतकौ
।॥४२।1 ‹ ह सहस्रकिरणं ! सब व्याधियोके नष्ट करनेवाले ! हे रवे ! संजञासहितमेरे दिये
1 करिये ॥४३१\ पौषे भरती नमस्कार ओर प्रदक्षिणा करनी चाहिये \ संकल्य करके स येके
श ४४ का रथ हो ।\३३।। बारह दलोका लाल तण्डलोका कवल नावे 1
रत्न. वहन्बदाकासाहवः- {६41
कलजशाराधनमासनविध्यादि कत्वा सूर्यं पूजयेत् 1! ताभ्रेण कारयेत्ीठं रथं |
रौप्यमयं तथा ।। भास्करं पूजयेत्तत्र सुवर्णेन तु कारितम् ।। अथ कथा-ऋषिरुवाच
शभम् ।! १11 स्कन्द उवाच -श्युणु विप्र गृह्यं तदादित्याराधनं परम् \। थत्कुतः
साम्बेन हसितस्तस्य सुतेन सहसा किल ।! क्रुद्धोऽपि मुनिशार्दूलः कोपं
गेषं संहृतवान्स्व- |
यम् ।। ६ ।। पूजितेन मयेदानों मन्युं कतुं कथं क्षमम् । स गत्वा नारदं प्राह साम्बेन = ।
हसितोऽस्मि भोः ।\ ७ ॥\ प्रहासं चरतः कां तस्य शिक्षापनं त्वया ।! इत्युक्तो
` नारदः प्रायाद्रारकां कृष्णसन्निधौ ।८।। स्वकं सेन्यं दशेयस्व मम देवकिनन्दन || `
देवयात्रामिषं कृत्वा हस्त्यह्वरथसंकुलम् ।! ९ । नारदेनैवमुक्तस्तु तथेव कृतवा- |
भगवञ्छोतुमिच्छामि ब्रतानामुत्तमं व्रतम् ।॥ स्वैरोगम्रह्ममनमाश्ादित्याभिधं ` |
स्वेकामानां संयुतिफलमाप्तुयात् ।\ २ ।। समुद्रतीरे विप्रे पुरी दारावतीशुमा।
वासुदेवं यदुश्रेष्ठ पुरा राज्यं प्रशासति । ३ । दुर्वासाः शडकरस्यांश्च जाजगामा- ५
` बलोककः ।। कृष्णेन पुजितः सोऽपि ह्यघ्येपाचसनादिभिः ।! ४ ।! भोजनं तस्य
` वै दत्तं यथाभिलषितं मुनेः ।\ संपूजितः स कृष्णेन यावद्गच्छत्यसौ मुनिः ।) ५ ।।
न्विभुः ।। दशशते तु बले प्राहः नात्र साम्बः प्रदृश्यते ।। १० ।\ मयेवानोयते शशं `
द्वारवात्यास्तवान्तिकम् ।\ गत्वेवमुक्तो मुनिना श्रेष्ठो जाम्बवतीसुतः ।\ ११।॥
परिग्रहा (६ | १२ ॥। नारदः प्राह कृष्णं तद्र. इचरित्रं तथानघ ।। कद्धेन शौरिणा
1 ः कुष । ध कुष्ठो भव नराधम ।। १२ ।। एवमुक्तस्तन पुत्रः कुष्टरोगातुरोऽभवत् ।।
(८९० ) र 0 व्रत सज श | रविवार-
प्रति ॥ २० ॥ यथाज्ञा विमलाः सर्वाः सूर्यभास्करभानुभिः ।। तथा्ाः सफला `
मह्यं कुर नित्यं ममाध्येतः ॥ २१ ॥ अ्यंमन््रः एवं तमचयेत्तावचयाबदरषं `
समाप्यते ।। समाप्ते तु व्रते वत्स कुयदुद्यापनं शुभम् \। २२ ।\ गोमयेनानुक्प्तियां
भूमौ मण्डलमाल्िखेत् ।! रक्तचन्दनरेखाभि
: कूंकुमेन विदेषतः ।\ २३ ।! तन्मध्ये `
` कारयेत्यदं द्वादशारं सकणिकम् \! सिन्दुरमूरितदलं जपाकुसुमशोभितम् \\ २४ `
तन्मध्ये स्थापयेत्कुम्भं प्रवालोकुरसंयुतम् । श्ालितण्डुलसम्मु्णं शकंराचन्दना- = ।
न्वितम् ।। ।। २५ ।। तस्योपरि न्यसेत्पात्रं तारं शक्त्या विनिसमितम् ।! सोवणं
भास्करं कृत्वा पद्महस्तं स्वशक्तितः 1\ २६ ।\ रक्तवस्त्रयुगोपेतं पात्रोपरि निवे `
शथेत् ।! पञ्चामृतेन संस्नाप्य रक्तचन्दनपुष्पकंः 1! २७ ॥। धूषैदीपिश्च नेवेचै
फलैः कालोधुवेस्तथा ।। पुजयेज्जगतामीहां यथाविभवसारतः ॥ २८ ।। अथा- |
यजथः ५ नधे विधातर्भवाब्धिपोताय. नमः |
भगवानने देविके कथनानसार अपनो चारी सेना दिखा
वाति हीरसि. (दष
` आशादित्यव्रत-यह अशष्िविनमासके पहिले रविवारसे प्रारंभ किया जाता है \ मासि पक्ष आदि कहू- ध ८
कर मेरे समस्त रोगोके नारके लिए जयुकौ वृद्धि आदि समी कामनाओंकी सिद्िके लिए बारहबरसयाएक `
बरसतक श्रीसुय्यं नारायणणक प्रसन्नताके व्यिं आहादित्यव्रतको सँ कंग, यह् संकल्प होना चाहिये, पौरे
कलराका आराधन ओर आसनको विधि आदि करके सुग्यंक पूजा करे । ताबेका सहासन चादीकारथञर `
` सोनेके सूर्यनारायण हो, भास्करका पुजन करे । कथा-ऋषि बोले कि, हे भगवन् { सब द्रतोके उत्तम ब्रतको `
सुनना चाहता हूं वहं सब रोगोका ज्ञामक आ्यादित्यका रत हौ ।\१।! स्कन्द बोले कि हे विप्रे । बहू परम `
` गोप्य है आदित्यका परम आराधन है जिसे करके मनुष्य सब कामनाओकत संपतिके फलको पा जाताहै ।\२।॥
समुद्रके किनारेसे पहली तरफ द्वारिका नामक पुरी थी, उसका ब्रयन्ध यदुश्रेष्ठ श्रीकृष्ण करते थे ॥३।। वहां `
ज्ेकरके अंश्चभूत दुर्वासा ऋषि देखनेको आ पहुचे, भगवान् कष्णने उनको पाद्यअध्यं आदिति पूजा कौ ।\४।। |
` उन्हुं इच्छानुसार भोजन कराय भग्वानूसे पुजित होकर जबतक बह जाते ही भे ।1५।। कि, उनका पुत्र साम्ब .
उन्हे देख एकदम हंस पडा, यह देख क्रोव अनेवर भौ दुर्वासाने अयने क्रोधको रोक लिया ।\६।। कि मेरो इन्होने `
शूजाकर दी अब में इनयर क्रोधं कंसे कर ? पर नारदजीसे आकर साम्बके हंसनेकी शिकायत करदी ।+७।! ` `
ओर कहा कि, आय उसे शिक्षा दिक्ताना, यह् सुन नारदजी दारकामे कृष्णजीके पास जये 11८ शरीकृष्णजीसे = `
बोले कि, हे देवकीनन्दन ! देवयात्राके बहाने मुषे जपने बहुतसे घोडे तथा रथ समेत सारी सेना दिलादे ९)! = |
7 दी, देखनेके बाद नारजी बोले कि, साम्बक्यो नहीं |
दीखरहाहै ।\१०।। मे अभी हवारकासे उसे यहां लाता हं ठेवा कहकर नारजीने, श्ृङ्खार करके कामके समान = |
चमकनेवाल्मा जाम्बवतीका सुयोग्य पुत्र साम्ब ला दिया, निस समय वह् लेने गये थे उस समय कृष्णपरगोपी- |
1 योकौ तरह भवितिभावके साथ परमात्मा मानकर परमप्रेम करनेवाली रानियां कृष्ण जेसेही कृष्णके योग्य- ५
`. पत्र साम्बको देवकर वात्सल्यते ओतप्रोत हो उसका आलिङ्खन ओर चुम्बन कर रहीरथी । साम्बभौषटे |
बच्चेकी तरह उनके पास उपस्थित था} पर नारद इस पराभवितके रहुस्यको न समक्न सके इस कारण उन्होने ` ॥ . |
| साम्बकौ सब बातं श्नीकष्ण चन्द्रसेकहदी, भगवान् कृष्णनेदुर्वासके कोधसेप्ररित होकर दुवक्यनोलकर कुष्टी |
` होनेका श्लाप दे दिया । ११।१३।। कहते हौ साम्ब ड कुष्ठी हौ गया, हाथ जोड प्रणामकर पिता श्रीकृष्णसे बोला ` | |
[ रुव्ार-
॥ सुवणरेताके० नाभिको पु०; अर्यमाके ० जठरको प°; दिवाकरके० हृदयको पू; तयनके० कंठको पु; ४
भानुके° स्कन्धोंको पु०; हंसके० हाथोको पु०; मित्रके ° सुखको पु०; रविके ° नासिकाको पुर; खगे °
नेको प° श्रीक्कष्णके० कानोको पू०; हिरण्यगभेके रलाटको पु०; आदित्यके िरको पु०; भास्करके ल्िं | ८ | | ध
नमस्कार सर्वाद्को पूजता हूं ।\ पापनाराके चिथ वारंवार नमस्कार है । सात चोड जते रथम चलनेवाले
1 ५ ॑ विप्रवात्म 1 ६९
के लिये नमस्कार है, हे विधातः । तुक्च सामः ऋग्, यनुके तेजके खजाने भव सागरे जहाज,सवि- `
` ताके लिये नमस्कार है ।।२९॥। यह सु्धंकी प्राथेना है । इस प्रकार सूण्येको पुजकर नक्षत भोजन करे, वस्त्रे `
आभरणो भाचाय्येका पुजन करे ।।३०।। कुंभ सोने समेत इस प्रतिमको आ्चायैकौ भेट करदे किसंसारके
दुखोमे पार करनेवारे भगवान् शिवं प्रसन्च ह जाये ।}३१।। पी अपुप ओर पायसे ब्राह्मण भोजन करव, । (५.1
(५ दादितरङे अन् सार दक्षिणाके साथ उन्हुं कभ दे।१३२\ जो कोई भरखेभाति इष उत्तम व्रतको करता है उतेबड़ा ।
भारी पुण्य होता है ।\३३।। उसके कोई रोग नहीं रहता ओर परम तेजस्वी तथा बेटे नातीवाला होताहै यहां | |
देव दुलभ भोगोको भोगकर ।।३४।। श्रोरके अन्तमः उत्तम पद पता है एवं इस लोकमें कुष्डजसे रोगेतेभी
छटकर परम सिद्धिको पा जाता है \३५।। किमसौ भौ जन्ममें उसकी आलाका भंग नही होताहि वत्स ! इस
` कारण तुम इस उत्तम ब्रतको अवदय करो ।\३६।। साम्ब पिता कृष्णति कहे हुए इन उत्तम वचनोको सुनव्रत |
नारायणः सरसिजासनसन्निविष्टः !।
हिरण्मयवपुध.तशङ्खचक्रः ।। इति
. पद्मासनाय ० जासनं ० । ग्रहपतये
५ ध
लोक्यान्धतमोहते
| करके उत्तम सिद्धिको पागया \\२७।\ जो कोई इस ब्रतको भक्तिपुवक सुनता या सुनाता है वे पवित्र दोनों £ ( 1 | |
तरे° अर््यः० । मित्राय० आचमनीयं ° । विदवतेजसे० र 4
` कुसुमावतीं तदा देवौ ह्य्.बाच मधुरं वचः ।! ८ ।। आगच्छ त्वं मया सार्धं करिए
भारते वर्षे पुण्ये च यमुनातटे ।। ऋषिपत्नीसम् ह्च व्रतं करत समागतः ।\ ५।। तत्र॒ ` |
गत्वा देवि श्टुणु प्रवदिष्यन्ति ताः शुभम् ।! शम्भोरननज्ञया देवी कंलासादागता |
भुवि ।! ६ ।\ यमुनां गन्तुकामा सा ददतौ कुसुमावतीम् ।। काञ्चिन्मार्गेऽतिदुःखेन |
च विपुत्रिकाम् ।\ ७ ।! विदेहवासिनीं दीनां पतिष्टां सुदुःखितम्
ष्यावः `
ब्युभं व्रतम् \\ पत्या च सह संयोगः पुत्रप्राप्तिभेविष्यति ।। ९ 1। धनप्राप्तिह्व
` बहुता छते दानफलब्रत ।। तया सह व्रतं ह्येतत्कतुं प्राप्ता शुचिस्मिता ।\ १०। |
तथेव च पतिभ्रष्टा पुत्रहीनास्मि दुःखिता ।। इत्यन्या ह्यवदहेवीं मया सह व्रतं `
कुर 1) ११॥।। तच्छरुवा तां गृहीत्वा तु ताभ्यां सार्थं जगाम ह ॥। पुण्यां च यमुनां
` भत्वा पुर्वाह्हि भानुवासरे ।। १२ ।। तत्र दृष्ट्वा तु सा देवी पप्रच्छ स्त्रीकदम्बकम् |
॥ इदं व्रतं किमेतन्मे वक्तव्यं तु ऋषिस्त्रियः ।\.१३ ।। स्तरिय ऊचुः \। पुष्यं व्रतमिदं |
नृणाम् ।॥ कन्यादानसह्नेभ्यो गोदानेभ्यस्त्ि- |
ण्यतिलादीनां दानेभ्योऽप्यधिकं शिवम् ।। सवेदानस्य `
0/6
(८९४) - .तरान्न 11
"म
भाघ
मेपरेपि (प
ग्निमाधाय गोमयेन
पायसं प्रतिमां वस्त्रं ब्राह्मणाय निवेदयेत् \ एवं कुर्यात्
॥ ४९. विघ्रायं 0 तत्फल ् कः दत्वा `
कम् 1\ ३१ । तैलाम्लल्वणक्षारं वजयित्वा तु भोजने ।\ बहुबीजफलं वन्यं शेषं ` च
` चैव तु भोजयेत् ।। ३२ । कन्दमूलफलाहारो विशेषेण फलप्रदः \\ नीवारधान्य- |
दध्यादिभोजनं वा व्रते स्मृतम् ! ३३ ।\ एवं कुर्याद्त्रतं सम्यक् प्रत्येकं भानुवासरे ।\ `
पमासे शक्लपक्षे सप्तम्या यावदन्तिकम् ।। ३४ ।! षष्ठ्यामुपोष्य विधिवत्स- `
प्तम्यामुदये रवेः । रवेरभ्यच्यं विधिवत्प्रतिमां वस्त्रसंयुताम् \\ ३५१) आचायेणा- `
रेपिते \! सघ॒तं परमान्नं च होमयेत्सोरमन्त्रतः।\ ३६ \॥ `
पञ्चवषं पञ्चधान्यं .
समप॑येत् ।। ३७ ।! पञ्चप्रस्थप्रमाणं च प्रथमे ब्रीहिमेव च ।। गोधूमां्च द्वितीये
ऽब्दे ततीय चणकास्तथा ।\ ३८ ।\ चतुर्थे तिलदानं च पञ्चमे माषकांस्तथा ।\ |
ज्रतानि + 9 9 अक: हुत्दयाटाकासाहूत क 9; [८1 .
बालेके० अध्य; भित्रके° आचमननीय; विइ्वतेजाके° पंचामृतस्नान; सविताके० शुद्धयानीका स्नान;
जगत्के पतिके° वस्त्र; त्रिमूतिके° यज्ञोपवीत; हरिके° गन्ध; सूयेके० अक्षत; भास्करके० पुष्प; अहर्प- |
तिके० धृष; अज्ञानके नष्ट करनेवाकेके°. दीप; लोकेशके० नैवेख; रविके० ताम्बल; भानके° दक्षिणा, |
पुषाके० फल; खगके० नीराजन; भास्करके० पुष्पांजलि; सर्वात्माके° प्रदक्षिणा; ह देवदेवेश! तुद्च वेद- `
भूत्तिके लिये नमस्कार, एवं कमल हाथमे चये हृएु तुक्च आदित्यके लिये बारंबार नमस्कार है, इसे प्रार्थना =
ओर नमस्कार; है दिवाकर { तेरे लिये नमस्कार है, है भास्कर ! पोको नष्टकर, हे ्रयीमय ! हे अकं! `
` है विश्वात्मन् ! अध्यं ग्रहण कर, तेरे लिये बारबार नमस्कार है, इससे बारह अध्यं सनर्षण करे । इसके पढे `
, ब्राह्म्णोका पूजन करे । यहं पूजा पूरी हुई । कथा-पितके घरमे रहतौ हुई कुन्तीने व्यास दवको देव भवित- = `
भावके साथ नमस्कार कर पाद्य अध्यं आचमनीय ।\१।। दे उनसे हाथ जोड्कर प्रार्थना किकी, हे महामुने! = |
पति, पुत्र, अच्च ओर मोक्षके चिये कोई ब्रत कहिये ।२।। भ्यास बोले कि, सुनिये दान फल नामक् एकसर्वो- |
` त्तमत्रत है । कैलासके शिखरयर पार्वेतीजीने ्िवजीसे कहा कि ।२३।। हे महाराज ! जो सब ब्रतोमें उत्तमहो |
उसब्रतको आप म्े सुनावे, रिव बोले कि, अच्छा पुछा, मे सवेशरेष्ठ व्रतको पानेकौ विधि कहता हं ॥\४।।
पण्यभूमि भारतवषंमं ऋषिपत्नियोका समूह यमुना किनारे ब्रत करनेके ल्य आय्य है ।\५।! है देवि ! वहां ध |
जाकर सुन वह उसे कहेगी, शिवकौ आज्ञासे देवी कंलाससे भारत वषेके लिि ।\६।। आई यमुना किनारे अने- `
की इच्छसे चली, मागम उन्हुं अत्यन्त क्लेशसे रोती
, साथ आजा, हम तुम दोनों पवित्र ब्रत करेगी } तेरा पतिके
० रोती हई निपुत्री कुसुमावती मिली 1\७।} वह् विदशर्मे रहती `
` थी; दीन थी पतिसे अष्टा थी ।\ अतएव अत्यन्त दरखी थौ उसे देख देवौ मीठे वचन बोली कि ।।८॥तुमेरे
तिके साथ संयोग सौर पुत्प्राप्ति हो जायगी 1 ९\1 दान |
व क न
(८९६) ध [ सोमवार
मिल गया । उमाका मान करती हुई सुमिजाको उत्तम पुत्र मिल गया ।\४१।। सब भाग्यवाली गौरी स्वरणं माधू-
फल हाथमे लेकर आई, मागेमं एक शरेष्ठ ब्राह्मण मिरु गया \\४२। ब्राह्मणको वह् फल देकर रिवपुर कंला-
सको चल दी । वह ब्राह्मण फलसहित धर आकर बड़ विस्मयम पड़ा ।\४३। क्योकि उसका घर उस समय +
` धनधान्यसे समृद्ध बहुतसो गौओसि समावृत्त एवं सब रत्नोसे भरा हभ था हं देव अपनी स्त्रीसेबोखा ष्ट) |
कि, तुमने सब संपत्तियोका देनेवाला कौनसा उत्तम कमं किया है ? यह सुन वह बोली कि, हे स्वामिन् ! आय |
जो फल लाये थे ।\४५।\ वह स्वणं माघूफल हे ! यह् आपको किसने विया ! यह तो बताइय, यह् सुन ब्रह्मण = |
| ` . ॥ कहुन रगा ।४६।) किं महादेवी पा्वतीनं कषा करे यहु एल म॒र्न दिया है स्री बोलि कि \\४७।। दरी घ्रही ध: ~ <
आप मेरे साथ कैलास चले ब्राह्मण स्त्रीके साय केलास चला आया \\४८।\ वहां भक्तिपूर्वेक प्वेतीजोको `
भ्रणाम करके पूछने लगा कि, हे देवि ! आपको यह फल कंसे मिला बतादीजिये ।*४९॥) यहु सुन देवन् सब ५
दानफलग्रत सुना दिया, सुनकर ब्राह्मणने घरं आ वह व्रत किया \\५०।। हे करन्ति ! अपको भौ यह दानफल-
| चाहिये, जो इस आख्यानको पठृते वा श्वद्धाके साथ सुनते हें वे सब पापोसे चूटकर परम गतिको ।
क न्ड + `
। ५ पाजतेहं। ।५१॥। यह् श्नीस्कन्दपुराणका कहा हु दान फञब्रत पूरा हुञा ॥
५ 1: सोमवार पूजाविधि
ध्यायेचतित्यं महेशं रजतगिरिनिभं
भ
३ प्रसन्नम् ।। पद्मासीनं `
व्रतानि ] हिन्दीटीकासहित | का | ८९७)
मुत्रच दुलभम् ।! १० ।1 उपोषितः शुचिर्भूत्वा सोमवारे जितेन्द्रियः ।\ वैदिकैकीकि- `
कै्ंत्रेविधिवत्पुजयेच्छिवम् ।। ११ ।। ब्रह्मचारी गृहस्थो वा कन्यावापि सभ्तैका `
विधवा वापि सपुज्य लभते वरमीप्सितम् ।।! १२ ।। अत्रापि कथयिष्यामि कथां `
श्रोतृमनोहराम् ।। श्रुत्वा मुक्ति प्रयात्येव भक्तिर्भवति शाम्भवी ।। १३ ।\ आर्या-
वत्तं नृपः कश्िचिदासीद्धर्मभृतां वरः ।! चित्रवमेति विस्यातो धर्मराजो दुरात्म- |
नाम् ।। १४।। स गोप्ता धर्मसेतूनां शास्ता दृष्पथगामिनाम् ।1 यष्टा समस्तयज्ञानां `
^ त्राता शरणमिच्छताम् ।। १५ ।\ कर्ता सकलपुण्यानां दाता सकलसंपदाम् ।\ जेता ११
सपत्नवृन्दानां भक्तः शिवमुकरन्दयोः ।। १६ ।। सोऽनुकलासु पत्नीषु पूत्रमेक न॒ `
र उब्धवान् \। चिरेण प्राथेयल्लभे कन्यामेकां वराननाम् 1! १७ ।। लब्ध्वा तनयां ` ५
मेने हिमवानिव पावेतीम् । आत्मानं देवसदृजं संपु्णं च मनोरथम् ॥ १८ ॥ `
स एकदा जातकलक्षणज्ञानाहूय सर्वाह्दिजवन्दमुख्यान् ।। कौत्हलेनाभिनिविष्ट- ४ क
चेताः पप्रच्छ कन्याजनने फलानि ।\ १९।। अथ तत्राब्रवीदेको बहुजनो दविजसत्तमः!) `
यन्तीव
८ १ | २३ ।। इत्युक्तवन्तं नृपतिधनेः
महूतेमभवद्राजा चिन्ताव्याकुल मानसः ।। २६ ।। अथ सर्वान् समुत्सुज्य य ब्राह्मणा ठ णाः
| ५ ५ न्ब्रह्मवत्सलः ।। सर्वं दैवकृतं मत्त्वा निश्चिन्तः पाथिवोऽभवत् ।! २७ ।\ सापि
। एषा सीमन्तिनी नाम्ना कन्या तव महीपते ।। २० ।! उमेव माङ्खल्यवती दम- `
यन्तीव रूपिणी \\ भारतीव कल्ाभिज्ञा लक्ष्मीरिव महागुणा ।! २१ ॥ सप्रजा `
` देवमातेव जानकीव धृतव्रता 11 रविप्रभेव सत्कान्तिहचन्दिकेव मनोरमा ॥ २२॥
दश्चवषेसहस्राणि सह भर्त्रा प्रमोदते ।\ प्रसुय तनयानष्टौ परं सुखमवाप्स्यति `¦
संपुज्य तं द्विजम् \। अवाप परमां प्रीति तदा- (
वं वैधव्यं प्रतिपत्स्यति ।। २५ ।। इत्याकण्ं वचस्तस्य वचनिर्वातनिषटुरम् ॥ = `
वेभव्यमात्मनो भावि शुभरावात्मसली- =
(८९८) (य समवा ५ 4 वतरा: [सोमकाः
पथक् कशिवक्शिवामन््रेरष्टोत्तरडतद्रयम्।।उद्यापनं विना यत्तु तद्व्रतं निष्फलं भवेत्
॥ ३६ ॥ ब्राह्मणान्भोजयित्वाथ शिवं सम्यक् प्रसादय ।\ पापक्षयोऽभिषेकण `
साम्राज्यं पीठपूजनात् ।। ३७।। गन्धदानाच्च सौभाग्यमायुरक्षतदानतः \\ भूष- `
दानेन सौगन्ध्यं कान्तिरदौपप्रदानतः ।। ३८ ॥। नेवेचेन महाभोगो लक्ष्मीस्ताम्बूल-
दानतः ।॥ धर्मार्थकाममोक्षादच नमस्कार प्रभावतः ।। ३९ ॥। -अष्टेकवर्यादि- `
सिद्धीनां जप एव हि कारणम् ।\ होमेन सर्वसौख्यानां समृद्धिरुपजायते ।\ ४० ।॥ ` (
सर्वेषामेव देवानां तुष्टिः संयमिभोजनात्। इत्थमा राधय शिवं स्मेमवारे शिवा- १५
मपि ।॥ ४१।। अत्यापदमपि प्राप्तां निस्तीयं सुभगा भव ।\ शिवपुजाप्रभावेण ` ^
तरिष्यसि महाभयात् । ४२ ।। इत्थं सीमम्तिनीं सम्यगनुरास्य मुनः सती ॥
ययौ सापि वरारोहा राजपुत्री तथाकरोत् ।। ४३ ।॥ दमयन्त्यां नलस्यासीदिद्- `
सेनाह्मयः सुतः \! तस्य चनद्राद्धदो नाम पुत्रोऽभूच्चन््रसंनिमः \! ४४ \\चिच्रवर्मां
नृपश्रेष्ठः समाहय नृपात्मजम् ।।! कल्यां सीमन्तिनों तस्मे प्रायच्छद्गुवनुज्ञया
।} ४९
५।। अभून्महोत्सवस्तत्र तस्या हय द्वाहकर्मणि ।\ यत्र सवेमहीक्ानां समुदायो
महानभूत् ।\ ४६ ।\ तस्याः पाणिग्रहं काले कृत्वा चन्द्राङ्खदः कृती । उवास |
कत्तिचिन्मासास्तत्रैव शवशुरालये ।\ ४७।\ एकदा यमुनां ततु स राजतनयो ययौ ॥ `
स्तटद्वये ।। पटयतां सर्वसैन्यानां प्रलापो दिवमस्पुदात् !। ४९ ।। तच्च सीमन्तिनी `
श्रुत्वा पपात भुवि मूच्छिता ।\ इन्द्रसेनोऽपि राजेन्द्रः पुत्रात सुदुःसहाम्' \॥५०॥
आबालवदधवनिताहचुक्रश्चः शोकविह्वलाः ।\ सा च सीमन्तिनी साध्वी भतेखोक
॥। ५१ ।! पित्रा निषिद्धा स्नेहेन वैधव्यं प्रत्यपद्यत ।। मुनिपल्न्योप्ष्टं
धत्सोमवारव्रतं शुभम् ।। ५२ । न तत्याज शभाचारा वेधव्यं प्राप्तवत्यपि \\ एवं
क ष
चतुदेशे वष दुःखं प्रप्य सुदारुणम् ।। ५३ ।। ध्यायन्त्या शिवपादान्जं बत्सरत्रयम- ५
वरतानि ] हिलवोटीकासहिति = (८९९)
को देक्ञः कथसागतः ।\! ६० ।। राजपुत्र उवाच ।। अस्ति भूमण्डले कषिचहेश्ौ .
निषधसंज्ञकः \! तस्याधिपोभवद्राजा नलो नाम महायज्ञाः 1 ६१ ।\ सपुण्य- ||
कीति: क्षितिपो दमयन्त्याः पतिः प्रभुः । तस्यासीदिन््रसेनाख्यः पुत्रस्तस्य महा- |
त्मनः | ६२ ।1 चनद्राङ्कदोऽस्मि नाम्नाहं नवोढः इवश्षुराल्ये \\ विहरन्यमुनातोये
` विमग्नो देवचोदितः 1! ६३ ॥! एताभिः पन्नगस्त्रीभिरानीतोऽस्मि तवान्तिकम् ।॥
दृष्ट्वाहं तव पादान्नं पुयेजंन्मान्तराजितैः ॥। ६४ ।\ अद्य धन्योऽस्मि धन्योऽस्मि = |
कृतार्थो पितरौ मम ।! तक्षक उवाच ।\ भो भो नरेन्रदायाद माभैषीर्धोरतां ब्रन |
11 ६५ ।\ सवेदेवेषु को देवो युष्माभिः पुज्यते सदा ।! राजपुत्र उवाच ।\योदेवः
सबेदेवेषु महादेव इति स्मृतः ।। ६६ ।। पुज्यते स हि विश्वात्मा शिवोऽस्माभिर- |
५ मापतिः ।\ इत्याकण्यं वचस्तस्य तक्षकः प्रीतमानसः ।\ ६७ ।\ जातभक्तिमंहादेवे . | ५
` राजपुत्रमभाषत ।! तक्षक उवाच ।। परितुष्टोऽस्मि भद्रं ते तव राजेन्रनन्दन |
॥ ६८ ।। इत्युक्त्वा बहुरत्नानि दिव्यान्याभरणानि च ॥ वाहनाय ददावश्व 1
` सति ।\ किमीदृशं गता बाल्ये दुःसहं शोकलक्षणम् ।। ७६ ॥' ति
् धर म ५ ४ गे्वना ५ वन - ना ¶ लंनल्निता स्वथभाश्यत तत्सखी सवंमनरवीत् तु ८
राक्षसं पचनगेहवरः ।। ६९ ॥ तस्सहाया्थमेकं च तथा स्वीयं कुमारकम् नियुज्य
। तक्षकः प्रीत्या गच्छेति विससजं तम् । ७० ।! ततद्चनदराद्धदः सवं संगृह्य विविधं `
धनम् । अदवं कामगमारुय ताभ्यां सह विनिर्ययौ \। ७१! ततो मृहूतेनोन्मन्न्य |
तस्मादेव नदीजलात् ।। विजहार तटे रम्ये दिव्यमारुह्य वाजिनम् ॥ ७२ ॥ |
अथास्मिन्समये तन्वी साच सीमन्तिनी सतौ ।। स्नातुं समाययौ तत्र सखीभिः |
परिवारिता ।\ ७३ । सा ददं नदीतीरे विहरन्तं नृपात्मजम् ।। रक्षसा नरसूपेण ।
नागपुत्रेण चान्वितम् ।\ ७४ ।। षुष्ट्वाऽवरहय तुरगाढ़ुषविष्टः सरित्तटे ॥। वद्वा
(९००). ४ < इतरा . . .: [ सोभवार~
अच्र कार्यो न सन्देहः शपामि क्लिवषादयोः ।। तावच्वया हदि स्थाप्यं प्रकाश्य न च
करत्रचित् ।। ८४ ।। लज्जानस्नमुलीं कणं शकंसान्यत्प्रयोजनम् । इमं वृत्तान्त- `
` माख्याहि त्वत्पित्रोः शोकतप्तयोः ।\ ८५ ।। इत्युक्त्वा्वं समारुह्य जगाम च नलं .
प्रति \\! सापि तदचनं श्रुत्वा सुभाधाराश्ताधिकम् ।। ८६ ।। एष एव पतिम `
स्याद्धा.वं नान्यो भविष्यति ।। परलोकादिहायातः कथमेष स्वरूपधुक् |! ८७.।} ` 4
मुनिपल््या यदुक्तं मे परमापद्गतापि च ।। व्रतमेतत्कुरुष्वेति तस्यवा फलमद्य मे
८८ ॥ नूनं तस्या वचः सत्यं को विद्यादीहवरेहितम् ।\ निमित्तानि च दृषयन्ते `
मद्धलानि दिनेदिने ।\ ८९ ।। प्रसन्ने पावंतीनाथे किमसाध्यं शरीरिणाम् ।\ इत्थं ध | ध
विमृश्य बहुधा सा पुनमुक्तसंशया ।। ९० ।। एवं चन्द्राद्दः पत्नीमवाप समये |
शुभे ।। ययौ स्वनगरीं भूयः इवश्ुरेणानुमोदितः।। ९१ ॥। इन्द्रसेनोऽपि नृपती राज्ये
। र स्थाप्य स्वमात्मजम् ।। तपसा शिवमाराध्य लेभे संयमिनां गतिम् ॥। ९२ ॥
यः पठच्छणयाइुक्त्या प्राप्नोति परमां
णे ं: सोमवारत्रतकथा 1रव्रतकथा समाप्ता ।\ अथोद्यापनम् ध
व्रतं शुभम् \\ श्रावणे कातिके ज्येष्ठे वैशाखे मागंशीषके ।। सुस्नातदच शुचिभूत्वा र (|
।। कामक्रोधादयहंकारदेषपेशन्यर्वाजतः ।। संपाद्य सर्वसंभा- '
तैः पुष्यः समाच्छकनं षवरत्रशच शोभितम् ।। = `
` प्विदन्यपस्िः तातत्यमोतदः 1 ॥ प्लवता
व्रतानि हन्दाटीकासाहित - ९०१)
च तन्त्रण ज्यस्बकम् च कारयत् ।) गोरीभिमायसमन्त्रेण अष्टोत्तरकरतहयम् ।\ पला- ` |
ज्ञानां समिग्डिहचि यवत्रीहि तिकाज्यकेः ॥। पूर्णाहति ततो दद्यात्कृत्वा स्विष्ट- |
कृदादिकम् ।\ होमान्ते च गुरं पुज्य सपत्नीकं समाहितः ।! प्रतिमां कुम्भसहिता- ५
चार्याय निवेदयेत् \। शम्भो प्रसीद देवेश सवैलोोकेश्वर प्रभो ।\ तव रूपप्रदानेन मम `
सन्तु मनोरथाः ।। प्रतिमादानमन्त्रः ।। यद्भक्त्या देवदेवेश मया व्रतमिदं कृतम् ।\ |
न्यूनं वाथ क्रियाहीनं परिपुणं तदस्तु मे ।\ भुञ्जीत सह धर्मात्मा शिषष्टेरिष्टे ` ^
स्वबन्धुभिः । अनेनव विधानेन य इदं व्रतमाचरेत् ।\ यं यं चिन्तयते कामंतं `
तं प्राप्नोति मानवः । इह लोके सुखी भयाद् क्त्वा भोगास्यथेप्सितान् । इति
सोमवारव्रतोदयापनं सम्पुणेम् \। अथ प्रकारान्तरेण सोमवारव्रतं लिस्यते ।। गन्धव `
उवाच ॥ कथं सोमत्रतं कार्यं विधानं तत्र कीदृशम् \॥। कस्मिन्काले तु कतंव्यं सवं `
विस्तरतो वद \\ गोष्पुद्ध उवाच ।\ साधुसाधु मह्वापराज्ञ सर्व॑भूतोपकारक ।। यन्न॒ `
` कस्यचिदाख्यातं तदद्य कथयामि ते ।। सवेरोगहरं दिव्यं सर्वसिद्धिप्रदायकम् !॥ `
` सोमवारव्रतं नाम सवेभूतोपकारकम् ।! सवंसिद्धिकरं नृणां सर्वकामफलप्रदम् ।॥ `
सर्वेषामेव विज्ञेयं वर्णानां शुभकारकम् ।\ नारीनरेः सदा कार्यं दष्टादष्टेफलोदयम्।! `
ब्रह्मविष्ण्वादिभिदेवेः कृतमेतन्महात्रतम् ।\ कृतं च सोमराजेन दक्षह्ापहतेन च ।॥ `
अभिमानयुतेनापि शम्भुभक्तिपरेण तु \! ततस्तुष्टो महादेवः सोमराजस्य भवितितः। `
तोनोक्तं यदि तुष्टोऽसि तिष्ठात्रस्थो निरन्तरम् ।। यावच्चन्द्रश्च सयह्च यावत्ति- `
` ष्ठन्ति भूधराः ।। तावन्मे स्थापितं किद्धमुमया सह तिष्ठतु ।। रोहिण्याः पतिरेवं
तु प्रार्थयित्वा महेश्वरम् । ततः शुद्धश्षरीरोऽसौ गगनस्थो विराजते ॥ ततःप्रभृति
ये केचित्कुर्वन्ति भुवि मानवाः ।। तेऽपि तत्पदमायान्ति विमला द्धाश्च सोमवत् ।॥ `
केम्बहुनोक्तेन विधानं तस्य कीर्तये ।। यस्मिन्कस्मिरचिन्मासे ( मासे च शु्लेसोमो
(९०२ ^ त 1 ~ ~
चात्र यजेहेवं रोद्रीशक्तिसमन्वितम् \! पूजयेज्जातिपुष्येश्च गोमूत्रं प्रयेति ॥ `
नैवेद्यं शु्रभक्षयं च फलं दाडिममेव च \। एवं कृते तृतीये तु कोटिकन्याप्रदो भवेत् ।॥ `
चतुथे सोमवारे तु अपामा्गसमुःटूवम् । दन्तकाष्ठं 'सेकशावितिसूत्तमं चम्पकंये-
जेत् \\ कदलीफलसंयुक्ता नैवे क्षीरहकंरा ।\ दध्नस्तु प्राशनं कृत्वा दभस्थो
जागया्िल्लि ।! एवं कृते चतुथं तुं यज्ञायुतफलं लभत् ।। पञ्चमं सोमवारेतु
` वश्नाश्वत्थसम् दवम् ।! दन्तकाष्ठं तरिमूति च सोमं" पदैः प्रपूजयेत् ।। नेवेद्ये कधि-
भक्तं स्यात्कूष्माण्डीफलसंयुतम् ।। घृतं प्राश्य शिवं ध्यायंस्तां निल्ामतिवाहयेत् \\ ¦
` एवं कृते पञ्चमे तु सप्तजन्मसमु-टूवेः 11 ब्रह्महत्यादिभिः सरवे्ुच्यते पापरारिभि।॥। `
ए सोमवारे पुनः षष्ठे जम्बूजं दन्तधावनम् \। तरिमूतिसहितं' रुद्रमचेयेत्करवीरकंः ॥ ५ =
नैवेयं च सखर्जुरीफलपायसमण्डकेः \। कुशोदकं तु सम्प्राद्य गीतैनुत्यस्तु जाग्- `
यात् \\ एवं कृते ततः षष्ठे षडब्दस्य फलं लभेत् ।\ सप्तमे सोमवारे च प्लक्षजं `
दन्तधावनम् ।। श्रीकण्ठं परूजयेदेवं पुष्पेबेकुलसम्भवेः ।। बलगप्रमथिनीयुक्तं नैवेयं |
पायसात्मकम् \) अरपयेत्परया भक्त्या नारिकेरसमन्वितम् । दुग्धं वे प्रायेद्रा्नौ |
शेषं पुवैवदाचरेत् \! सप्तसागरसयुक्तभूदानस्य च यत्फलम् ।। सोमवारे सप्तमे 4
कृते तत्फलमाप्नुयात् \) अष्टमे सोमवारेऽथ खादिरं दन्तधावनम् ।। सवंभूतदमं
धं पुजयेदे शिखण्डिनम् \\ सुगन्धकुसुमेक्चव फलर्नानाविधेरपि ।। नानाप्रकारं
नैवेद्यं भक्ष्यं भोज्यं प्रदापयेत् \! गोमयं भ्रारयेद्रात्रौ जागरं तत्र कारयेत् 1 एवं |
कृतेऽष्टमे सोमे सर्वेदानफलं लभेत् ।। दश्षभारसहस्राणि कुरकषत्े रविग्रह ।! विप्राय `
वेदविदुषे यद्वा फलमाप्नुयात् ।। तत्पुण्यं कोटिगुणितं सोमवारत्रते कते ।॥
गुगगुरधूपितं कृत्वा कोटिशो यत्फलं भवेत् ।\ तत्फलं तु भवेत्सम्यक् सोमवार- `
व्रते कृते \। सर्वेदवर्यसमायुक्तः शिवतुल्यपराक्रमः ।। रुद्रलोके वसेहीघं ब्रह्मणा सह॒ `
मोदते ।! सम्प्राप्ते नवमे वारे कूर्यद्द्यापनं श्रुभम् ।।! यथा विधेयं गन्धर्वं तथा `
वक्ष्यामि तेऽधुना ।। मण्डपं कारयेदिव्यं चतुारोपन्लोभितम् ॥ तन्मध्ये वेदिका-
मण्टादशाड्गुलगप्रमाणिकाम् 1। अष्टागुलोच्छितां कृत्वाः चतुरलरां तदन्तरे ॥
१ एकशक्तिसहितम् । २ उमाशवितर्सा
(1 | सोमवारके व्रत कहे जाते हँ ? सोमवारकी पूजाविधि-“ येभ्यो माता" इसे जकर "आगमार्थन्तु `
देवानाम् ' इससे घण्टानाद करके . अपसर्पन्तु ' इससे छोटिका मुद्रा कर अपसत्वोका अपसारणकरकेतीकष्ण- = |
दष्टा" इससे क्षेत्रपालकी प्रार्थना करके आचमन प्राणायाम करे । तिथि आदि कहकर, मेरे सारे कुटुम्ब ओर ||
क्षेम, स्थैर्यं, विजय, आय, आरोग्य ओर एेवर्थकी बद्धिके |
र ८२ ` ९४ ५ १५११८६१ | # । <०२ ) 6 १
गव्यं स्वयं प्राय पुराणपठनादिना ।। रात्रिं निनीय देवेशं प्रात संपूजयेत्पुनः ।! `
स्थण्डिलेऽग्नि प्रतिष्ठाप्य होमं कुर्याद्यथाविधि ॥ पालयक्नीभिः समिद्ध्श्चिर्सपिषा `
पायसेन च ।। तिलबरीहियवश्चेव मधुदूर्वाभिरेव च ॥। प्रतिद्रव्यं च सोमेशं हतेना- `
ष्टाधिकन च ।\ यजेत् ज्यम्बकमन्त्रेण चाप्यायस्देति मंत्रतः ।\ नमः शिवायेति तथा
तमील्लानं तथव च \ अभित्वा देव इति च कदुद्रायेति मंत्रतः ।! तत्पुस्षेतिमन्त्रेण ` ध
ऋतं सत्यमिति ऋ
कमात् ।। एवं यज्राममंत्रेरष्टौ देवाननुक्रमात् ।। पतिद्रव्यमनन्तादी- `
स्तैरेवाष्टाष्टसंखस्यया ।। निवत्ते होमतन्त्र ह्याचार्यं भूषणादिभिः ॥ संपूज्य |
` दत्त्वा गां पीठं व्रतसंपुतिहेतवे \ तथाष्टौ ब्राह्मणानन्यान् वस्त्रालंकारचन्दनैः ।। 1 |
संपूज्य कलद्ानष्टौ पक्वान्नपरिपूरितान् ॥ दक्षिणासहितान्दद्यान्मन््रेण तु
पृथक्पृथक् ।। पक्वाह्नपुरितं कुम्भं दक्षिणादिसमन्वितम् ।। गृहाण त्वं द्विजश्रेष्ठ
तब्रतसंपूतिहेतवे ।\ ब्राह्मणान् भोजयेत्यचात्स्वयं भुञ्जीत वाग्यतः ।। एवं कृते |
व्रते सम्यग्लभवे पुण्यमक्षयम् ।\ धनधान्यसमायुक्तः पुत्रदारैः समन्वितः ॥ नकुले |
` जायते तस्य दरिद्री दुःखितोऽपि वा ।\ अपुत्रो लभते पुत्रं बन्ध्या पुत्रवती भवेत् ।॥। `
काकवन्ध्या च या नारी मृतपुत्रा च दुभेगा 1! कन्याप्रसूस्तया कायं रोगिभिषश्च
विशेषतः ।\ एवं कृते विधाने तु देहपाते शिवं ब्रनेत् ।। कल्पकोटिसहल्ाणि कल्प.
कोरिज्ञतानि च ।। भुक्तेऽसौ विपुलान्भोगान् यावदाभूतसंप्लवम् ।! इत्येतत्कथितं १ |
मवारत्रतं कमात् \। इति श्रीस्कन्दपुरा ° अष्टसोमवारत्रतं संप्णेम् ।।
¦ भयम् द्रासे सुश्रोभित हँ प्रम प्रस, व्या घ्रचमं पहने
1 दके व्यि तथा उसामहेववरकी प्रीतिकि त्यिमेंचौदह ॥
: बषतक सोमवारका ब्रत करूंगा तथा उसके अंगरूपसे सोलह उपचारोसे उमामहेक्वरका पूजन करूगाएेसा `
संकल्प करे । सारे भयोके मिटानेवाले, वपर चांदका भूषण किये हुए पांच मुखवाके, तीन नेत्रघारी,चांदीके `
` पवेत किसी स्वच्छ चमकवाले, यत्नोके आभूषण पहिने हृए जिर
> हृए जिसके कि, चारो हाथ परशु, मृग तथा वर भौर | ८ | । | | | |
हिने, पद्मासीन, जिन्हं कि, चारो जोरसे भेष्ठ देव, दासोकी ` |
जी ५१ ह. ~ | | क 0.
(*"
# करस
` विषयवासना शान ४ सुखभोग देहके अस्तमं मुक्ति चाहते हँ उनको यही धमं कहा है ।\७।। लोकम
{ज्रौ नमिन स्वगं ओर अपवरगका हेतु है विरेष करके सोमवार ओर शरेष्ठ प्रदोषमं विदेष है ।\८।। श्रावण, =
मार्महीर्षमें पहिले सोमवारसे इस त्रतको उत्तम ग्रहण करना चाहिय `
वारको भी क्िवा्चन करते हं उन्हुं इस लोक ओर पर लोकम
ध ४ क्षिवपुजा धद्य
चैत्र वैशाख, कातिक ओर
4. सोम
वी क (न शा ।। १०। शुचिता ओर संयमके साथ सोमवारके दिन उपवासं करके बंदिक!
५ किक मंसि विथिके साय हिवका पुजन करे ।\ ११ ।। ब्रह्मचारी, गृहस्थ, कन्या, भतंमतो
विषवा कोई भौ पूनकर भः
५ < ` तं सुनतेही द्विवभकिति आओौर मु
का वह दृष्टेके लिये साक्षात्
1 । षाक सब यलोका याजक
१ दैरिथौके यमदायका
दाता सती के भी त्न हुमा
` थीं पर किस
० ठते मिली न भानो हि हेमवान्को पार्वती
1 ५ जन उयोतिषियों मेंभीचुनीदां जातकके जाननेवालोको बाकर कोौतुकसे कन्याके शुभा
4 ६१
ते ला ॥।१९।१ उन सवम जो एक विशेषज्ञ 4 था, वह् बोला कि, हे व आपको कल्याका सीम
< उमाकी तरह मांगलिक तथा क्मयन्तीको छी सके
नमक तरह महागुणवाकौ है ॥\२१\\ देवमाताकी
। „> भाकी तरह अच्छी कांतिवाली तथा चदनीकी
ध आठ सुयोग्य
वित ह्य जाती है \\१३।१ आ्य्यावर्तमं एक धर्मात्मा चित्र वर्मा नामक एक राजा
॥ ५५५ जोवहवे वषमे विधवा हो जायगी \\२५।। उसके 9
प: आया १॥२६।। पीछे ब्रह्मवत्सलने बराह्य
करते इसी. कारण उनके लिये शिवके पवित्र कमं करनाही काम घेनु है ।\६।!
ध्म॑राजही था ।\१४।। जो धर्मक मर्य्यादाजोका रक्षकं ओर उच्छंखलोका `
; ओर शरणागतोका पूरा रक्षक था ।।१५।। सभी पुण्योका कर्ता सब संपत्तिधोका + `
1 जीतनेवात्ा तथा किव ओर मुकुल्दका भक्त था ।।१६।। उसकी सभी पत्नी योग्य
चिरकाल, तक चाहनेके बाद एक युन्दर कन्या मिली ।\१७।। उसे वह कन्या
ती मिली हो । अपनेको देव तथा अपने सारे मनोरथ पूरे हुए मनने लगा =
नीषट वर पा सकता है ।।१२।। इस विषययं एक श्रवण सुन्दर कथा कहगा जिसे ५५ छ 1
तरह् उत्तम सन्ततिवाली, जानकीकौ तरह पवि- । ८:
की तरह मनोहर है ।\२२।। दल हजार वधं पतिके | `
४ कतो पैदा ` म सुख पावेगो ।२२।। उसका यह कथन राजाको अमृतसा `
साथ जीवः “नसे उसका आदर करके आप परम प्रसन्न हृ ।\२४।॥ एकं निभय धीर विद्वान् यह भीबोला
उसके वचर जसे कठोर वचनसुनकर दो घड़ी तो राजाचिन्तासे ¦
प्णोका तो विसर्जन कियाःओर भगवानकौ जो इच्छाहोती |
५. ता है यह सोचकर तिदिचन्त होगया \\२७।। बह बालिका सीमंतिनी भौ कमसे शेशवको पारकर गई
सोहत ¦ नेत होनेवाले वैधव्यको उसनेसुनछिया ।\२८।। जिससे एकदम दुखी हीकर विचारने खगौ `
पछ याज्ञवल्क्यजीकी पत्नौ सेत्रयीसेपुचा ।॥२९।। कि, हे मां ! मे भयभीत होकर तेरे चरणोमे = |
सौभाग्य करनेवाला कुछ उपाय बता दे ।\३०।१ इस प्रकार शरण आई हई उस रानकन्याते |
क्विवसहित भवानीके शरण जा ॥।३१।। सोमवारके दिन एकाग्रमनसे कषिवगौरीका पुजन ` ` `
, करना भलीभांति स्नान करके शुद्ध वस्त्र पहिनना ॥३२॥ भितभाषिणी ओर निद्चल |
ध युजा करे करे । एकं सालतक इस व्रतको करके उद्यापन करे ॥३३।। उमा शिवकी सोनेकी ध (
क्छ ५ ४ ६ ` ४ , =
भी पार करके सुभगा हौ जा, क्िवपुजाके प्रभावसे महाभयसे पार होजायगी ।(४२।। मैते इसप्रकार
सीमंत्तिनीको समक्षाकर चली गई ¦ राजयुत्रीने वेसाही किया \\४३।। नलकौ दमयन्तीमे इन््रसेना नामकी `
कस्या पैदा हई थी उसका चन्रके समान चनद्राङ्गद पुत्र हुमा था ।।४४।। गुर्की जल्ञासे चित्रवमंनि चनद्राङ्गद `
को बुला सौमंनिनीको उसे दे दिया ।४५।। उस विवाहे बड़ाभारी उत्सव हुमा, वहां सब राजा्ओका |
बडा भारौ समुदाय इकट्ठा हौगया ।।४६।। राजकुमार उस समय पाणिग्रहण करके करईमास ससुराल्मे `
रहा ।४७।। एक दिनि यमुना किनारेकौ शेरकरनेके किए नावमें बैठकर चला, नाव भवरमे आगई इस- `
` कारण मल्लाह समेत इब गयी ।।४८।। दोनों किनारोपर हाहाकार मच गया, सभी सेनाओके देवते देखते `
। ग्रलाप, आकाको गुंजारने लया ॥४९।। यह् सौमंतिनी चुन भूमिम मृच्छित हो गिरणर । राजा इसे `
भी दुःसह बातको सुनकर मूच्छित होगया ।\५०॥। बालकसे लेकर वृद्धतक सभी स्तिपा शोकरते व्याकुल `
हो होकर रो रही थी, साध्वी सीमंतिनीने भी पतिलोक जानेकी इच्छा कौ ।\५१।। पिताने प्रेमे रोक दिया
भतः विधवा होकर बेठगई, पर मुनिपत्नीने जो सोमवारके व्रतका उपदे वे रला था ।५२॥। विधवाहोने-
` परभी उस ब्रतको नहीं छोडा, इस प्रकार ज्योतिषीके कहे चौदहवे वषं मे घोर क्लेश पाकर भी ।॥५३।।शिब- ¦
. चर्णोका ध्यान करते करते तीन वषं बीत गये, उसका पति चन्द्राङ्धद यमनामे इब चका था जलक्रीडामे ल्गीहुई |
नागकन्याने नौचे डूबकर बहतः हभ वह् राजकुमार देवा ।५४।।५५।। जिते देख उन्हें बडा आचये हुमा} `
बह उसे नौचेही नौचे पाताल ठे गयीं, नागकन्या करके ले जाया गया वह् राजकुमार ॥५६।। वक्षकके ~.
अू.त.रमणीकपुरमं पहुंच गया, उसने देखा कि, यहं तो दसरा इन्द्रभवनही है ।\४७।। सहचरो नागकन्याओंने =,
चारोओरसे घेर रखा था, राजकुमारने उसे देखकर सभास्थलरमेही प्रणाम किया ।५८॥। हाय जोडकर `
` स्षामने खडा होगया, तेनके मारे आंखे चोडगई । महात्मा नागराज तक्षक भी उस सुन्दर राजपुत्रो देवकर `
एने ल्गा कि, तुम किसके लडके एवं कौन हौ किस देसे आये ही ।\५९।।६०। राजपुत्र बोला कि, भूमण्डल- `
देवोमं महादेव है ।\६६।। उसी विदवात्मा उमापति मे पुजा किया
। भें वुञ्षपर परम प्रसन्न हुमा हूं तेरा कल्याण हो ।।६८।। एेसा कहकर बहुतसे रत्न अ
चडनेके ल्यं घोडा जौर एक राक्षस दिया ।६९।। एवं उसकी सहायताके १ लिये
, ~ १. न्वस्ति .. ` , | (९०५)
है । बह पतित्रता दमयन्तीका पति था, उसका इन्द्रसेन नामक पुत्र था । मेँ उस महात्मा इन्द्रसेनका 1६२।॥ `
चन्द्राङ्खद नाक लडका हूं । मेने जभौ विवाह किया है, मै अपुनौ ससुरालमे यमुनाके पानीमे जेर करता हुमा `
दैवसे डूब गया ।\६३। इन नागकन्याओोने आपके पास ला दिया है । पूवेके किये पुष्योसे मापके दन हो `
गये ॥\६४।। मे आज अनेकवार धन्य हूं मेरे मा बाप कृताथ होगये । तक्षक बोला किः, राजकुमार ! डर न॒ `
| . धीरताको धारण कर ।\६५)। तुम सब देवोमं सदा कौनसे
1 देवकी पुजा किया करते हो ? राजकुमार बोला `
कि,जोदेद सब देवो यहसुन `
वः
वतरा. ` - [सोमवास्ः
( ९०६
व्यिं आई थी ।\८०।। चन्द्राद्धद प्यासैके श्ञोकका कारण सुनकर उसे अनेक तरहके वचनोसे आहवासन |
` दिया ।८१।। ओर बोला कि, ए सुन्दरि ! भने कही तरा पति देखा अवश्य द आप ब्रत करते करते थकगयीं
हें । इस कारण शीघ्रही जजायगा ।' ८२।। यह निश्चय है कि, बहं तख < कको दोही दिनमं मिरादेगा,
सँ तेरे पतिका मित्र हं यही कहनेके लि तेरे पासं जया ह ॥। ८३।। इसम् 1 ५
शपथ खाता ह, पर इस बातको तबतक तुम हृदयम रलन। कटुना नहीं ।\८ 1 ज्जासे नमेहुये मखवालीके ति
, कानमे ओर कुछ प्रथोजन कह कि वतान्तको तुम शोकसन्तप्त जपन् माता पेतासे कहना ।८५।। वहु कह
आय घोडेवर चटकर तलके प्रतिचला वहं भी सेकडों असती धारासे अधिक उसके वचन चुनकर ।\८६।१
विचारने कमी कि, यही मेरा स्वामी
चला आयां 1} ८७।) मृनिष्तीने जो सुद्षसे कह या कि, चोर जाप त भी इस ब्रतको करते रहना उत्तम
फल भिेगा आज मेने उसका फल पारि
मजोको कौन जानता है । मेँ रोज रोज मंगकके निभित्त
मनुष्योको असाध्य वया है ? इस तरहं बहुतसे
` अच्छे समथमें पस्नीको पाकर इवसुरसे अनुमोदित हं
भौ राज्यपर अपने ल्डकेको विठाकर तमसे दिवकणै
सीमन्तिनी भाय्यकि साथ चन्द्राङ्धद राजान दशहुनार
कल्या हई इस तरह शिवपुजन करके सीमन्तिनीको पति
कलया ई
५ भव करने छी । दस विचित्न आख्यानको सेने सुनादिया ४.०८ दिया है \ जो इसे भवितके साथ पदढेगा वा सुतेग
ग्तिको पावेमा ।।९४।।९५।। यहं शरीस्कन्दपरणकी कही
लया ।\८८।। कदाचिद् उस
तत तो देखती हं ॥८९।। पावतीनायके प्रसन्न होनेपर `
आराधना करके संयमियोकी गतिको पा गया ।\९२।। (८
वतक भोग भोगे ।\९३।। आठ पुत्र मौर एक सुन्दर `
पन--स्कल्द बोले कि, मनुष्योको त्रतका उद्यापन कंसे
तथा कौन द्र्य है ? ईववर बोलते कि, हे षण्सुलं ! साव
सन्देह न करना में शिवके चरणोकी
है दूरा नहीं हौ सकता, पर एसा र्पधारण करके परलोकसे कंसे `
के वचन सत्यही हौजायं क्योकि, उसको `
से सोच विचार करके निसंदेह हो गई ॥ ९० ॥ चन्राङ्गद ` ५
गकर अपनी नगरीको चलदिया ।१९१।। राजा इन्द्रसेन `` .. `
मिकगया । पीछे शिव लेक जा चिवका साक्लात्
की कही हई सोमवारे व्रतकौ कथा पूरी हर्द ॥ `
न्ते करना चाहिये ? हे प्रमो ! बताये क्िःक्या `
घान हो कर सुन । मे संसारके कल्याणकेल्यि
अवित हो वही इसका व्रतकालं बयोकि, इस जीवनका =
| स रे उद्यापनं की विधि सुनाता । जय धन्) शद्धा ओर भक्ति 1
द न ोमवारके व्रतको करे । श्रावणः कार्तिकः ज्येष्ठ वेश्षाख ओर सगश्षीषम ॑ ॥ | 4 (1
। क्या भरोसा है १ चौदह वर्षतक इस सो
५: नकर 4 कर पवित्र होकर दूर्वते वस्त्र वारण करे
भारो इक इकटछा करके सुन्दर मडल बनावे, उसे वस्त्र
। काम, रोष, अहंकार, द्वेश ओर वैशुन्यसे रहित होकर `
षपति आच्छादित करके पटवसवोयुशोभित = `
(करे दीपकोसे उज्ज्वल करे, उसके बीव दिव्य लिद्खतोभद्र लिखे, अथवा ८
रते, वह सोना चांदौ ताम्बा या महीक हो, ऋत्विन मौर `
फुलोसे उनका पूजन हिवरूप समक कर करे, उन ब्राह्मणोको आज्ञाहोनेपर ` `
रे । "नमं सल अन्तमे लगे हे शके नाममनत्रसे बराहमणोका भौ पुजन करे कुभपर उमासहितं 1 ।
‡ सोने वा चांदीके वुषभपर बिठा दे, फिर उन्हं एकाग्र चित्तसे पुजे । दो वस्त्रोपे . “
द, विल्वपत्रोसे पूजन
त्र था 'श्रौरीभिमायःः इस भन्त्रसे
करे, अपने गृह्यसत्रके कए विधानके अनुसार अग्नस्थापन करे । पीछे 4
स्वष्टछृत कृत मादिककरे होमके अन्तम सपत्नीक `
4
7 § ॥
(^
1.
|
+
1 र
#
भौरी 5 £ प
व्रतानि] हिन्दीटीकासहित ` ४ (९०७)
नासक एवं सन क्षिद्धियोका देनेवाल है, उसका नाम सोमवारव्रत है वह् सब प्राणियोका उपकारक है, मनष्योको `
स सिद्धि करनेदाला तथा सड कामोका देनेवाला है उसे सभौ वर्णोको जानना चाहिये । शुभ करनेवाला ` |
है । वह दृष्ट ओर अदृष्ट फलका देनेवाला है । उसे सभौ स्त्र पुरषोको करना चाये । ब्रह्मा विष्ण आदिक `
देवोने इस महाव्रतको क्या ह । दक्षके श्ापसे दबे हुए अभिमानी श्िवभवत सोमने भी इसे किया था,जितसे
शिव सोमराजपर प्रसन्न हए । तब सोमने कहा कि, यदि आप प्रसन्न हं तो यहां निरन्तर ठहर, जवबतक चाद
सुरज ओर पवत ठह्रे हए ह" तवतक मेरा स्थापित किया लिद्ध उमाके साथ विराज रहै, चन्द्रमा इसप्रकार
| प्राना करके शुद्ध शरीर हौ, आकाकमे विराजने लगे । उस दिनसे लेकर जो कोई भूभण्डलपर इस ब्रतको ` `
करते हँ बे भी उस पदो पाजाते ह मौर शुद्ध श्षरीरवाले होजाते हँ । इस विषयमे विशेष क्या कहे ? उसका `
` विधान कहते है--जिस किसी भौ माप्तके शुक्लपन्षमे सोमसार हो बीजपुरोसे दन्तलुद्धि करके स्नानकरे, `
` अपने धर्मक कैहुए कमं कर, फिर सुन्दर स्थानमें सुराकरहित नये युन्दर कलशको स्थापित गरे, उपर `
आमका पल्लव रखे, चन्दन चावे, इवेत वस्त्र उढावे, सब आभरणोसे विभूषित करे, उसपर विधिपुवेक पात्र ५
रखे, उसवर आधार शक्तिके साथ अनन्त' शिवको पञ्चाक्षर मन्त्रसे स्थापित करे, श्वेत पुष्प ओर वस्त्रे पूजे, ` `
अनेक तरहका भक्ष्य, भोज्य, फल, वौजयपुर ३, रातको चम्दनका प्रान करके सोवे, दभंकी शय्या हो उसपरशिबि =
` जीका ध्यान करे,पहिले सोमवारको एसा करनेसे कुष्ठनष्ट होजाते हे दूसरे सोमवारके दिन करंजकी दातुन करे, `
सूक्ष्म ज्येष्ठा शवितके साथ सृ्ष्म देवका पुजन करे, तीसरे सोमवारको वटक दातुन करे; जातीके फलते `
। रौद्री शदितके साथ श्रिव' का पजन करे, रातको गोमूत्रका प्राश्न करे, शुभ्रभक्ष्य ओर अनार फलहोनैवेय `
|, इस प्रकार तीसरे सोमवारको करनेसे कोटिकन्याओंका देनेवाल होजाता है । चौथे सोभवारको अपामागेकी ` 4 ५
दातुन, एक शक्तियुत शिवकी कमलोसे पूजा, कदली फलके साथ क्षीर ओर शकंराका नैवे हो, दधिका
प्राश्न ओर दभके जासनपर बेठकर रातको जागरण करे, इस प्रकार चौथे सोमवारको करनेपर अयुत य्ञका
` . . फल होता है \ पांचवें सोमवारको अदवत्थ वुक्षकौ दांतुन, उमा शव्तिसहित शिव" की कमलोसे पुजा, कृष्मा- = `
ण्डीके फलके साथ दधिभक्त नैवे, रातको घुतका प्रदान करे, केवल शिवका ध्यान करके उस रातको
| पार करे \ इस प्रकार पांचवें सोभवारके करमेपर सात जन्मके किये ब्रह्महत्यादिक सब पापसमुदायोते
` च्रृट जाता है । छठे सोमवारके दिन जाम॒नकी दातुन ,करवीरके फलोसे धमति शवितसहित श्र! का पूजन, ` `
चर्नुरैफल, पायस ओर पण्डकोका नैवेद्य करे ! रातको कुशोदका प्राशन ओर नृत्य गौत आदिसे जागरण `
प्राशन करे ! बाकी पहिलेकी |
बही मिल्जाता है । आठवें सोमवारको खरक दांतुन, अनेक तरहके फूल फलोसे
` करे, इस प्रकार करनेपर छः वषेके क्रिये सोमवारका फल होता है । सातवें सोमवारके दिन प्लक्षकी दातुन, `
बकुलके पुष्पे श्रीकण्ठ का पूजन, नारियल ओर बलघ्रमथिनीके साथ पायसका .न॑ वेद्य कर
गी तरह करे । इसके कियेसे सातो समुद्रसहित भूमिदान दान करनेसे जोफल मिल्ताहै ५.
{1 | । नाथकी पुजा, अनेक तर्के भक्ष्य भोज्य सहित नवे रातमे गोमयका प्राशन ओर जागरण करे, इस प्रकार `
होजाता है । रविके ग्रहणम दहनार भार सोना वेदवेत्ता ॥ ध
तवा = `
(९०८) व्रतराज 1. सोमवार
आवाहन करे, गन्ध, पुष्य, धूप, दीप, नैवेद्य, फल, दक्षिणा, ताम्बूल, दर्पण, छत्र इत्यादिक वस्तुओंको देवताकी
भट करे ! रातको पञ्चगव्यकः प्रान ओर धुराणोके पठनादिकोसे रात पूरी करके प्रातःकाल देवेशकौ `
फिर पूजा करे । स्थण्डिर्पर अग्निस्थापन करके विधिपुवेक हवन करे, पलाशकौ समिध सपि, पायस, तिल, |
त्रीहि, यव, मधु, दूर्वा, आलो द्रव्योसे क्रमल्लः सोमेश्लको एकसौ आठ आहूति दे, दरव्योके जठही मन्त्र ह त्यम्ब- |
कफम्" एक “आप्यायस्व दूसरा “नमःदिवाय'' तीसरा “तमीशानम्” चौथा “अभित्वादेव पांचा “कद्रू-
द्राय छठा “तत्पुरुषाय सातवाँ “ऋतं सत्यम्” आठ्वां ये आहुति देनेके मन्त्र हैँ । इसी तरह नामम॑त्रसे
` आटो उेवोमेसे प्रत्येककी एकसौ आठ आहूति दे ! होमकी समाप्तिपर भूषण आदिसे, आचारय्यका पुजन करे
तथा त्रतकी पुत्तिके चिएु गाय दे, इसी तरह आठ ब्राह्मणोको वस्त्रअलंकार ओर चन्दनसे पुजकर दक्षिणा
` समेत आठ कल पकवानके भरेहुएु जुदे जुदे मन्त्से दे कि ब्रतको पूर्तिके लिए पकवानसे भरे हृए घडेको `
दक्षिणा, समेत आपको देता हूं । हे शरेष्ठ द्विज ! ग्रहण करिये । ब्राह्मणोको भोजन कराकर मौन हौ भोजन
करे । इस तरह भली भांति त्रत करके अक्षय पुण्य पाजाता है, वह॒ धन धान्यवाला तथा पुत्र दारोते युक्त
हौीजाता है, उसके कुलम कोई भी दरिद्री गौर दुखौ नहीं होता, निपुत्रीको पुत्र तथा बन्ध्या पुत्रवाली होजाती `
हैः जोस्त्री काकवन्ध्या, मृतपुत्रा, दुर्भगा ओर कन्याप्रस हो वा रोगिणी हो उसे विशेष करके करना चहिये! ` ।
इस प्रकार विधानसे करनेपर देहपात होनेपर शिवको प्राप्त होजाता है, सहस्र कोटिकल्प तथासौ कोटि `
महाकल्प वहाँ मोग भोगता है । महाप्रल्यतक महाभोग भोग करता है यह् हमने कमधुर्वेकं सोमवारका
ब्रत कह दिया \। यह् शनीस्कन्वपुराणका कहा हभ अष्ट सोमवारका व्रत संपुणं हज 1 ८
4 एकभुक्तसोमवारत्रतं रिख्यते । ^
न्यदपि मे बरूहि येनाहं प्राप्नुयां पदम् । अव्यक्तं च॒
1 शिवे भ र्भा षि भक्तिपुत्रसौभाग्यसंपदः ।। नन्दिकेश्वर उवाच ।। सोमवारव्रतं पुण्यं कथ्यमानं
निबोध मे ।! श्रावणे चेत्रवेशाखे ज्येष्ठे वा मागेशीषके ।। प्रथमे सोमवारे च `
` गृह्णीयादद्रतमुत्तमम् ।। यदा श्वद्धा भवेत्कतुः सोमवारब्रतं प्रति ।! तदाचार्य `
पुरस्कृत्य श्रद्धाभक्तिसमन्वितः ।। सुस्नातरच शुचिभूत्वा शुक्लाम्बरधरो नरः ॥\ `
1्हुकारदरेषपञुन्यवजितः ।॥ आहरेच्छबेतयुष्पाणि मालतीकुसुमानि च॒
तद्यानि दिव्यानि चस्पकानि च तेस्तथा ।। कुन्दमन्दारजः पुष्य पुच्नागञत- `
11 जचयेदृमया साधं शंकर लोकशंकरम् ।। मलयाद्रिजधूपेन धूषयेत्पावेती- `
। कामिकनापि मन्त्रेणाव्यापकेन् महेश्वरम् ।! पुजयेन्मृलमन्त्रेण त्यम्बकेणा- =
पवा 1 > ॥ भवाय भेवनाश्राय महादेवाय धीमते ।। उग्राय चोग्रनालायश्वयि
य ~ ५;
[1
= व्रतानि] | हिन्दीरीकासहित ` (९०९)
` पात्या सह शंकरम् \! ते लभन्ते शक्षयोल्लोकान् पुनरावृत्तिदुलंभान् ॥ एक~ |
भक्तस्य यत्पुण्यं कथयामि समासतः । सप्तजन्माजितं पापमभेद्यं देवदानव: ।॥ |
विनश्यत्येकभक्तेन नात्र कार्या विचारणा ।। एवं संवत्सरं यावडक
् < व्रतसिदं व ध
चरेत् ।\ यस्मिन्मासे प्रारभते तस्मिन्मासि समापयेत् ।। उपवासेन चैवेदं समाचरति |
मानवः ।\ अखण्डं तत्परकु्बोत कृतं संपूणेतां नयेत् ।। खण्डत्रतप्रभावेण तत्सर्वं ¦
निष्फल भवेत। यदा चित्तं च वित्तं च जायते पुरुषस्य व \ तदवोसापनं कुर्यादृब्रत- _
| ` सम्पुतिहेतवे ।\ चलं वित्तं चलं चित्तं चल जीवितमेव च ।! एवं ज्ञात्वा प्रयत्नेन `
। घ्रतस्योद्यापनं चरेत् ।\! उमामहेश्वरौ हैमौ वषभेण समन्वितौ ।। यथारव्त्या `
। प्रकरतव्यौ वित्तशाठ्यं न कारयेत् ॥। मण्डलं कारयेदिव्यं यत्त लिद्धोद्धूवं शुभम् ।॥ |
। कलां पयसा पूर्णं शवेतवस्त्रसमन्वितम् । ताम्रपात्रं वेणुमयं कुम्भस्योपरि |
। विन्यसेत् ।\ स्थापयेन्मण्डले दिव्ये पञ्चपल्ल्वशोभितम् ।! तस्योपरि न्यसेदेव `
“ पूरवमन्त्रैविधानतः।। नानापुष्पैः फलैरिव्येरनानारत्नैः सुशोभनः ।। इवेतवस्त्रयुगेनैव `
पूजयेत्परमेश्वरम् ।! उपवीतं सोत्तरीयं भक्ष्याणि विविधानि च । धान्यानि
यान्यभीष्टानि तानि तानि प्रकल्पयेत् ।। शय्यां
अथ श्वेतानि पुष्पाणि देवस्योपरि विन्यसेत्
| स्वनैः । स्वगृह्योक्तविधानेन कृत्वाग्निस्थापनं थः ॥
| क्लिवमन्त्रेण वे ब्रती ।! पालाश्ीभिः स्मि
५ ततो होमं परकर्वाति
पमिद्डरिच जुहुयाच्छतमष्टकम् ।। आप्याय-
स्वेति मन्त्रेण पुषदाज्याहृतीः शुभाः ।\ यवत्रीहितिलाज्येन हुत्वा पूर्णाहुति चरेत् `
| ( ५६1 } = ( इ त्रत॒राज [ सोसमवार~
ज्ञभम् ।) तपे: श्रेष्ठ पुरा चीणंमास्तिकंधेम॑तत्परेः ।! इति पठति रहस्य चः.
श्युणोतीहु नित्यं त्वनुवदति हि मत्यः श्रद्धयान्यस्य यो वे ।। सकलकटुषहीनो वन्य = `
मानो गणाद्चैः िवविमर्विमानर्याति शेवं पुरं सः \ इति भरीस्कन्दपुराण एक~.
भुक्तसोमवारत्रतं सपुणेम् ।। अथ तदेव प्रकारान्तरेणोक्तम् ।\ भविष्ये-कंलासस्थं |
महादेवमपर्णासहितं शिवम् ।। पप्रच्छ प्रणतो भूत्वा किञ्चिद्गुह्यतम गुहः \'
महंशाखिल्देवेश सवभूतात्मक प्रभो ।। त्वत्मरसादान्मया पूवं विज्ञातं धमसाधनम् ।\ |
किञ्चिज्ज्ातव्यमस्त्यन्यत्वत्त एव मया प्रभो \\ यत्च दृष्ट शरुतं वापि तन्मे व्याख्यातु- |
मर्हसि !। कि दानं कि तपस्तीर्थं कि त्रतं वा महाफलम् ।। यस्मिन्कृते महाप्रोति-
वयोः स्यादुमेश्षयोः 11 तन्मे तवं पुत्रवात्सल्यात्सवेलोकहिताय च \ विशेषं ब्रूहि ।
देवश यज्ञात्वा स्यान्महत्सुखम् ।। इत्याकण्य वचस्तस्य प्रसन्नवदनो हरः \॥परि- |
८ ` ष्वज्य सूतं प्रीत्या प्रोवाचेदं वचस्तदा ।। शंकर उवाच ।। सम्यक् पृष्टं त्वया वत्स |
यस्मिन्छृते परा प्रीतिरावयोः स्यादुमे्योः ।\
वरः\।कौदृशां तद्व्रतं देव विधानं तस्य कीदृक्!
तिं प्नोति सावं नात्र संशयः | `
पत् | तं किरि कञ्चिदानं होमो जपस्तथा ॥। व्रतं वा प्रीतिदं स्कन्दह्य -मया ग |
प्रीतोऽस्मि वचसा तव ।\ अस्ति फिञ्चिद्त्रतं पुण्यं तन्मे कथयतः भ्पृणु। वेदसास्त्र- = ।
केदाग्राह्यं क उद्यापनविधानं च विस्तरेण वदस्व मे
शिवे उवाच ।\ मधो मास्यष्टमी शुद्धा चिवेन्दुकदिनसंयुता ।। तदा ग्राह्य तरतं ५
चेतददेन विधिना शुभम् ।। प्रातः कृष्णतिलेः स्नात्वा आचार्यसहितो व्रती ।\ `
बतानि 1... हिन्दीटीकासहित ` [९१... |
"7 १. 0 धी
सन्ध्यामुपास्य च ।। शिवालये हरर्वापि शुचौ देशेऽथवा गृहे !। अर्टागुलोच्छितां = |
वेदि वितस्तिद्रयसम्मिताम् ।। विचित्ररचनोपेतां पताकादयुतश्ोभिताम् \\ विचरं |
वििधवर्णेः फलराजिविराजिताम् ।! एवं प्रकल्पयेद विद्राबचतुरलां समन्ततः!
तस्यामष्टदल पद्यं तण्डुलः परिकल्पयेत ।। पद्यसध्ये नवीनं च धवल स्थापयंद्ध-
टम् ।। वाससा वेष्टितं पुणेमक्षतः परिपूरितम् ।! ततः कनकसभूतं मद्रपमुमथान्वि- ॥
तम् ।\ पञ्चामृतोढकंः स्नाप्य गन्धपुष्पाक्षतेजंलेः ।। गहीत्वा स्थापयत्कुम्भ ध्यायन्स =
५ दूपमीद्शम् ।! गणेशं मात्काश्चापि दुगा क्षेत्राधिपं तथा ।। समाहितमना कोणेष्वा- ध
ग्नेयादिषु विन्यसेत् ।। आचार्येण समं कुर्यान्मदाराधनमादरात् ॥ सोमेश्वर `
. प्रभूतिभिर्नमिभिश्च व्रती कमात् ।। श्यम्बकं च तथा गौरीभिमायेति जपेत् सुधीः ।॥। `
पञ्चाक्षर तथा सन्त्र पूर्वादिषु दरेष्वपि । मर्तयोऽष्टो मदीयाश्च पुजनीयो याः |
` रयत्नतः ।\ अनन्तसुक्ष्मौ च शिवोत्तमौ च त्रिमूतिर्द्रौ च तथैव पूज्यौ ।\ क्रमेण |
1 श्रीकण्ठशिखण्डिनौ च भक्त्या हिवाराधनतत्परेण 1 तद्रहिर्लोकिपालाह्च पज ए
५. । नीयाः प्रयत्नतः ।। विष्टरायपचाराहच दातव्या नाममन्त्रतः ।। बिल्वपत्राक् (क ५
पृष्पधूपदीपःसमचंयेत् ।\ मनोरमा विधातव्या पूजा वित्तानुसारतः \\ ततो वेदेर-
धोभूसौ सवेतोभद्रमण्डले ।। ब्रह्माद्या देवताः सर्वाः पजनीयाः प्रयत्नतः ।। त ती
` जागरणं कुर्याद्गीतवादिचनिःस्वनैः ।। पुराणेरितिहासेर्व रात्रिशेषं नयेद्त्रती ॥ `
अपरेद्युः कृतस्नानः प्रातः सन्ध्यामुपास्य च ।। पुनर्यागगृहं गत्वाह्य-पचारान््र- र
कल्पयेत् ।\ हवनाथे विधातव्यमुपलेपादिकं ततः ।। प्रतिष्ठाप्यानल सवमन्वाधा- `
नादि पुवेवत् ।। स्वगृह्यविधिना कार्यमाज्यभागान्तमेव च ।! अनादेशाहतीहत्वा `
। महाछरन्याहतिसंज्ञकाः।। होतव्याःसपिष ः॥ त्व सामासीति `
त्रेण हुनेदष्टोत्तरं शतत् ।। ततः स्विष्टकृतं हृत्वा ; ोमकेषं समाप |
। होमावसाने च गामरोगां पयस्विनीम् ध ॥ सवत्सां धवलां साध्वीं सवस्त्रां कास्य- `
न अ ५ ॥
7
(९१२) ध 1. त्रत रारज् क ४ [ सोमवार-
भुञ्जीयादयज्ञलेषं तद्वाग्यतो नियतः शुचिः । एवं कते महापुण्ये ब्रतस्योद्यापने `
पुरुषो वापि महेशस्य परं परछदम्।। अपुत्रो लभते पुत्रान्निधेनो घन- `
वान्भवेत् \ अविद्यो लभते विद्यामिति धरसंविदो विदुः \। पृथिव्यां यानि तीर्थानि
व्रतान्यन्यानि यानि तु । सोमवारव्रतस्यास्य कलां नाहंन्ति षोडशीम् ।। इति
क्भेनारी वा पुरं
| ^ भ्रीभविष्यपुराणे एकभुक्तसोमवारव्रतं संपूणेम् \।
५ एकभुक्त सोमवारका व्रत--नारद बोले फि, दूसराभी सुरे कहिये जिससे में पद पाज तथा शिवम
भक्ति हो एवम् दुसरोकोभी सौभाग्य संपतति मिले । नम्दिकेहवर बोरे कि, मे पवित्र सोभवारके ब्रतको कहता
ह भाप सुने । श्रावण चेत्र, वैशाख, ज्येष्ठ ओर मारगश्षीषमें पहिरे सोमवारको इस उत्तम ब्रतको ग्रहण करे
लब सोमवारके व्रत करनेको शद्धा हो तबहौी शद्धा भक्तिके साथ आचाय्येको अगाडी करके स्नान करे । `
पवित्र होय, इ्वेतवस्त्र धारण करे । काम, क्रोष, अहंकार, देष ओौर पैशुन्य दूर कर दे ! उवेतपुष्य, लावे, मालतोके `
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फूल दिव्यदवेत पदम, चंपक, कुन्द, मन्दार, पुन्नाग, शतपत्र इनके फल चढावें । संसारके आनन्द देनेवाके `
शंकरको पार्वतीके
शिवके लिये नमस्कार, सब कामोके देनेवाले वुस्च ईशानके
{ले नमस्कार, चरणोको पुनता ह; शंकरके लिये नमस्कार जार्धोको पुजता हं; श्षिवके० जानृभोको
मनोहर उपहारोते अपनी शवितके अनुसार पूजा । इनके
4 र्य किङतीभद्रमण्डल बनाये, 1
तीके साय पूजे । मल्याचलके घुपसे पार्वतीपतिको धूप दे । अव्यायक कामिक संत्रसे वा मलमन्त्र `
था श्रयंबकम्' इस मन्त्रसे शिवा्चन करे ।। भवके नाह करनेवाके भवके रिय नमस्कार धीमान् महादेवो `
ममस्कार, उग्रके नाशक उग्रके लिये नमस्कार, शि को मौलिमें रखनेवाले, नीलकंठ खर तथा भवहारी `
श लपाणिकेऽ गुल्फको०; शंभुके० ` कटीको०; स्वयंभूके° गुह्यको ०; महादेवके० नाभिमण्डल को०; `
विष्वभतकि० उवरको०; सवेतोमुखके० पाहर्वोको०; स्थाणुके° स्तनोको०; नीलकठ्के० कंठको; चरिने- `` `
अरफे० नेत्रको०: शशिभूषणके० मुकूुटको० ; देवाधिदेवके विये नमस्कार, सर्वाद्धको पुनाता हूं । इसप्रकार
पहा: पुण्य फलको सुनो, जो सोमवारके दिन प्रावेतीके `
करता है उसे अखंड करना चाहिये तथा करके संपुणं करना चाहिये । क्योकि, व्रतको खंडित करनेसे सब #ः ¢
निष्फल हो जाता है । उद्यापन जब सनुष्यका चित्त ओर वित्त दोनों हो तब उसे करना चाहिये इससे व्रतो `
पूति होजाती है, षन चित्त ओर जीवन सब चलायमान हँ । यह् जान प्रयत्नके साथ ब्रतक्रा उ्ायन करना `
वृषभपर चदेहुए् सोनेके उमामहेश्वर बनावे, यह शक्तिके अनुसार करे । कृपणता न होनी चाहिये! = `
नीसे भरा हआ श्वेत वस्त्र युत कलक स्थापन करे, उसपर ताम्बे या = 1
स कलक्षको दिव्य मण्डलयर रखे, पंचपल्लव डाले, उसपर देवको विराजमान करे, `
के लिये नमस्कार है \ अंगपुजा--देवाधिदेवके | |
.:जतानि} (९१३)
पठ तथा घंटा ओर आभरणसे विभूषित करे । उसे शिव सुक्र प्रस हो" यह कहकर दक्षिणा समेतदे। `
पीछे सुखग्य तेरह ब्राह्मणोको भोजन करावे । प्रत्येकको एक एक घटभी वासके पाजके साथ दे । पक्वान्न
फल ओर भक्ष्य दे । पूजित देव तथा उसके उपकरणोको आचार्यो प्रमाण करके दे । कि, आप॒ |
उयकरणोके साथ इस पीठको लेले, मेरा ब्रत पुरा हो कलिव मृन्षपर प्रसच्च हौ जाय । आचाय छेती- ` ।
` बार कहे ! कि, सं 'तौनो जगतोके गुरुदेव देवेशको लेता हं शान्ति हौ कल्याण हो, ब्रतका पूरा
. फल भिर । है देवदेव ! जौ मने यह् त्रत भक्तिके साथ किया है । वह न्यून वा क्रियाहीनभी है पर आपकी ` |
षास पररा होजाय 1 यहं प्रार्थना देव जोर आचाय दोनोतते करनी चाहिये । योग्य पुरुष ओर बान्धवोके |
स्थ भोजन करे! जौ कोई इस विधिसे इ व्रतो करताहै वहु जो चाहताहै सो पाजाताहै। देनेवाला
| चुखी तेजस्वी ओर तीनों लोकोमे प्रसिद्ध हयो जाता है \ बह विमानपर चढकर चन्द्रोकमे चला जाता छ.
| वहाँ सौ मनुतक रहता है \ इस पवित्र ब्रतको पहिले कृष्णजीने किया था, ओर फिर अनेको श्रेष्ठ राजाओं `
| तथा घ्मत्माओने इसे क्या है जो धद्धाके साथ इस रहस्यको रोज सुनता पठता ओर अनुवाद करताहै `
| | वह निष्पाप तथा गणादिकोसे वन्दनीय हो शिवके निर्मल विमानपर चठकर शिवलोक चला जाता है यही.
| स्कन्दपुराणका कहा हुमा एक भुक्त सोमवारका व्रत पुरा हुआ ॥! प्रकारान्तरसे यही व्रत--भविष्यमे कहा 0 ।
। ` दै \ कलासमें पा्वंतीसहित शिव विराजमान भे । गृहने नमस्कार प्रणाम करके कुछ गष्तवाते कों कि ह
| महेश, है सारे देवोके स्वामी ! हे सब भूतोकी आत्मावाले ! आपकी कृपासे मेने अनेक धमसाधन जान = `
| चये} पर आपसे अभौ ओर जानना बाकी है । जो मेनेन तो सुना हौ ओर न देखा हौ वह मृसचेसुनदे एसा
कौनसा दान, तप तीथं या महाफल है जिसके कियेसे मेरी आपके चरणोमें प्रीति हौजाय ? हे वेक ! आप
` पत्र प्रेममें ओत प्रोत हो संसारके कल्याणके लिये कह दीजिये जिससे मुशे सुखं हो । पृत्रके एेसे वचन सुनकर
लिवनं प्रस हो प्रेमपूवेक उनका आलिगन करके कहना प्रारंभ क्रिया करि, हे पुत्र ! तुमने अच्छा पा
वुम्हारे कचनोसे मं परम् सन्तुष्ट हुमा हूं । में एक पुण्य ब्रतको कहता हूं । तुम सुनो, व शास्त्र ओर पुराण ध
. सबका रहस्य है । भला तुमसे मेरा क्या गोपनीय है, तथा कौन ज्यादा प्यारा है वहं सोमवारका ब्रत है, `
उसका फल सब व्रतोसे अधिक है, जिसके कियेसे हम दोनों उसा ओरं शिवमे परम प्रेम हौ जायगा । उच्च `
कोटिके वक्ता स्कन्द यह् सुनकर बो कि है देव 1 वह् ब्रत केसा तथा उसका विधान व्याह ? कबग्रहूण `
किया जाय कब किया जाय क्या दान ओर क्या पूजन है ? मुञ्चे उद्यापनका विधान भी विस्तारे, साय किये |
| किव बोल कि, चेत्र शुद्धा अष्टमौ सोमवार आर्द्रा नकषत्रके दिन इस विधिसे करना चाहिये
. मय आर्चा्यके प्रातःकाल काले तिलोसे स्नान करके संकल्पके
वि ` लंनसे शोभित तथा चौकोर हो, उसथर तण्डरोसे अष्टदल कमल लिखे उस्सपर नवीन रेवेतघट स्थापित ५
करे बह वस्नरसे वेष्टित भरा तथा अक्षतोसे परिपू हो ! उसपर सोनेकी मेरी सूति स्थापित करे । पंचामृत
ओर पानीसे स्नाने करावे, गन्ध, पुष्य, अक्षत, पानीके साथ एसे मेरे रूपको स्थापित करे 1 गणेश, सातुका,
दुर्गा, क्षत्राधिप इसको अग्िकोणसे लेकर कोनोमेही स्थापित करदे । आचार्यके साथ सोमेश्वर आद्कि- |
. नामोसे रमहः मेरा आराधना आदरपूर्वकं करे । चरयस्बकम् ओर गौरीमिमाय" इन्हुं तथा पंचाक्षर मन््रको |
„` आदरके साथ जपे, पुर्वादिक दलोमे मेरी अणे मूतियोका रमसे पुजन करे, वे आटो अनन्त, सूक्ष्मः शिव,
उत्तम, निसू, खद, श्रीकण्ठ, शिखण्डो ये हँ । इन्हं शिवके आराधनमे तत्पर होकर भवितके साथ पुजे
. उसके बाहिर खोकपालोको सावधानीके साथ पूजे, विष्टर आदिक उपचार नाममन्त्रसे दे । बिल्वपत्र, अक्षत, |
। ` पुष्प, धूय, दीय इनसे पुज । धनके अनुसार सुन्दर पूजा करे । इसके बाद नीचेकी भूमिम स्वतोभद्रमंडल्पर . `
< ५ वेदोके मन्न्से सवथानीके साथ ब्रह्मादिक देका पजन करे । गाने बजानके साथ जागरण करे । बाकी `
रातको पुराणोके श्रवण आदिमे वितावे । दूसरे दिन स्नान सन्ध्या करके फिर यागधरभे जाकर. उपचषरोको ` `
| ८ ॥ करे हवनके लिथे उपप आदिक तयार करे, अन्वाधान आदिके साथ अग्तिश्थापन करे, अपने गृह्यसूत्रके 3 ः <
अनुसार आज्यभागान्त कमे करे, सहाव्याहृतिनामक अनादेहाकी आहति दे । ये आहति सर्य (घी) कौ `
` है घृतसहित पाथसकी आहुति दे वे “वं सोमासि" इस मन्त्रसे एकसौ आठ दे । “ओम् त्वं सोमासिधारयुषद्र `
, । ओयनष्ठो अध्वरे \ स्वं सुतो नुमादनो दधन्वान मत्सरिन्तमः \। है उमासहित शिब ! आप स्वयं सदा प्रसन्न = `
. एवं अपने भक्तोको भ्रसन्च करनेवाङे बलवान् तथा बलवान् बनानेवारू एवम् धारण करनेवाले हो जपको
चमे आहति दिये पौरे देनेवारे मनष्यको प्रसन्न करते हो पुष्ट करते हो । आपको पाकर मनुष्य सब दुखोसे
टः कर निरतिशय प्रस होजाता है 1“. पौ स्विष्टकृत् हवन करके होम शषको समाप्त करे । होमके
में दूध देनेवाली गाय चायको दे । वह् बछडवाली धोली हो, वस्त्र दे । कांसीकी दोहनी दे, साथमे
ष्ट करे \ पीछे सोलह ब्राह्मणोको अनेक तहरे
भोज्य पदापि भोजन करावे । पीछे उन्हुं इन नामोसे पूजे । सोमेश्वर, ईशान, शंकर, गिरिजाधव, महेश्च, =
दक्षिणा भी दे ओरभी वस्त्र आभरणोसे आचार्यको सन्तुष्ट
1 ध्व
न त शामित इनसे रमसे पूजे वस्त्रादि दे, कुष्डलादि पहिनावे; चन्दनव लेव करे, उन्हे करम फलके = ` |
कषमि ५ के अनुसार दक्षिणा दे, द॑पतियोका पुजन करे, शवितके अनुसार दूसरे भौ दंपतियोको
६. जरतीति 1; “` हिष्वीदीकिहित .. {११५}
` ऋणव्याधिचिनाज्ञाय धनसन्तानहेतवे \\ यन््ोपरिस्थं भौमं एजयेत् ।॥। तत्र यन््र- = `
प्रकार उक्तः संग्रहे-त्रिकोणं पू्वेमुदढत्य पञ्चधा विभजेत्ततः ।। तृतीयरेवां चिह्लः-
` भ्यां लाज्छयेत्समभागतः । आ्यरेखाग्रयुगलं तृतीयाचिह्वयोन्यंसेत् ।। दितीयागरे ¦
` समछरष्य तृतीयाचिह्वयोन्यंसेत् \। तृतीयरेखामध्ये तु चिलह्वयेत् समभागतः। ¦
वुर्था चिह्लहयेनाथ चरिभिरिचह्वस्तु पञ्चमीम् ।॥! तृतीयगे प्रकुर्वीत पञ्चभ्या-
` मध्यचिह्लगे ।।! तुर्याग्रे योजयेत्सम्यक् पञ्चम्याश्चिह्वयोदेयोः ।। ततीयरेवा `
` मध्यकात्पंचयाश्चिह्वयोटंयोः ।\ एवमेकाधिकं सम्यक्कोणानां विहतिभवेत् ॥ `
तृतीयातुर्ययोमेध्यत्रिकोणे तु समर्चयेत् ।। देवं तदग्रतो' मन्त्री त्रिकोणे दक्षिण-
कमात् ।। मद्धलाद्यांस्तारपूर्वा्नमोन्तानेकविशतिः ।\ एकविशतिकोष्ठेषु नाम-
` भन्त्रान्समालिखेत् ।। ततः पूजा प्रकर्तव्या पुत्रसम्पत्िहेतवे ।। पूजाप्रकारः ॥
तत्रादौ न्यासाः ।\ ॐ ह्वाअंगुष्चठाभ्यां नमः ॐ ह्लीं तर्जनीभ्यां ० ॐ ह्व. मध्य- = `
` माध्यां० ॐ छँ अनाभिकाभ्यां० ॐ हयौ कनिष्ठिकाभ्यां ॐ हःकरतल्कर- `
` पृष्ठाभ्यां ०ॐ हां हृदयाय ०ॐ ह्वीं शिरसे०ॐ हल. क्िखाये० ॐ हुं कवचाय हुं ॥
ॐ हौं नेत्रत्रयाय वौषद्।।ॐ हः अस्त्राय० फट् ।! ॐ खंखः इति दिग्बन्धः ॥
रक्तमाल्याम्बरधरः शबितशूलगदाधरः \) चतुर्भुजो मेषगमो वरदः स्याद्धराघुतः \।
ध्यानम् ।। एह्येहि भेगवन्भोम अद्धारक सहाप्रभो ।। त्वयि सवं समायात् त्रैलोक्यं
सचराचरम् ।। भौममावाहयिष्यामि तेजोमूति दुरासदम् ।।द्ररूपमनि्देर्यवक्र `
स्धिर्रभम् ।। अग्निमू्धङ्किरसो विरूपोङ्घारको गायत्नौ । मङ्गला क हने ४
॥ दन्तीष्ठजिह्लासु सवेकर्मावरोधकः ।\ हनौ मे लोहितः पातु लोहिताक्नच कण्ठके धकः \) हनौ मे लोहितः पातु लोहिताक्ष कण्ठके ।
(५ बरतराज ` [ मंगल्वार- `
धयोरुभयो रकषेत्सामगानां कृपाकरः ।। धरात्मजो भुजौ पातु कुजो रक्षेत्कर- `
द्वयम् ।। भौमो मे हृदयं पातु भूतिदस्तु तथोदरे ।! भूमिनन्दनो नाभौ तु गुह्येत्व-
्गारकोऽवतु ।\ ऊरू मम यमो रक्षेजजान्वो रोगापहारकः।\जंघयोवुं ष्टिकर्तां च |
अपहर्ता च गुल्फयोः ।\ पादागुष्ठौ च गुल्फौ च सर्वकामफलप्रदः ।। शक्तिमं |
` पू्व॑तो रकषेच्छूलं रक्षेच्च दक्षिणे ।। पश्चिमे च धनुः पातु उत्तरं च शरस्तथा ।\
ऊर्ध्व पिण्डाननः पातु अधस्तात्पुथिवी मम ।\ एवं न्यस्तशरीरोऽसौ चिन्तयेद्भूमि- ५
नन्दनम् ।। इति कवचं जपित्वा जपं कुर्यात्।।तदद्खतया “असूजमरुणवर्णं र्त- `
माल्याङ्करागं कनककमलमालामालिनं विहववन्द्म् ।। अतिलल्तिकराभ्यां बिश्रतं `
र इावितश्ले भजत धरणिसूनुं मद्धल मङ्कलानाम् " इति ध्यात्वा अग्निमूर्धा इति ` 1
मन्तरष्टोत्तरशतं जपेत् ।। अद्धारकाय विद्महे शक्तिहस्ताय धीमहि । तन्नो भौमः
प्रचोदयात् ।। इति गायत्री पठित्वा ततः स्तोत्रं पठेत् ।॥ मङ्कलो भूमिपुत्रश्च `
ऋणः हती ऋणहर्ता धनप्रदः ।। स्थिरासनो महाकायः सर्वकर्मावरोधकः 1\ लोहितो लोहिता- `
लः षिता च सकामलमरः।॥ =
पठेत त त् । ।। ऋणं न जायते तस्य सन्तानं वर्धते `
हित्वा ल्वा सुखी य <| ती: भवेत ।। इति स्तोत्रं पठेत ।। धरणीगभंसम्भतं विद॒त्कान्ति-
। कुमारं शवितिहस्तं च मङ्कलं प्रणमाम्यहम् ।\! इति नमस्व
वक्लेशमनस्तापा नश्यन्तु मम सवेदा ।। ऋणदुःखविनाहाय पुत्रसन्तानहेतवे
। कु स्कारः ।।
रेण रेखात्रयं कृत्वा ।। अंगारक महीपुत्र भगवन्भक्तवत्सल ॥। त्वां नम-
स्यामि मेऽङेषे ऋणुमाश्ु विनाशय ॥ ऋणरोगादिदारि्यपापश्द्रापमुत्यवः)। ८
व खास्तिसरो जन्मसमुःडधवाः ।! दुःखदोभाग्यनाहय सुखसन्तान-
कृतं रेखात्रयं वामपादेन माजयाम्यहम् ।! इति मन्त्रेस्तामाजयेत् ।॥
` ब्रतानि ` हिन्दीटीकासहित ` (९१७)
तिलगुडमिधितेनेरकाविशतिलडइ्.कान् गोधूमभवान्फलदक्षिणासहितान्वेदविदे द्चात्। |
दानमन्त्र-मङ्खलाय नमस्तुभ्यं सर्वमद्धलदायक ।) वायनेन च सन्तुष्टः कुरमे |
त्वं मनोरथान् ।\ देवस्यत्वेति मन्त्रेण मङ्कलः प्रीयतामिति दद्यात् ।! आवाहनं `
न जानामि० इति परुजनम् \। अथ कथा-सूत उवाच । पूजितो देवदैत्येस्तुमङ्खलो
मङ्खलप्रदः\\ गौतमेन पुरा पृष्टो लोहितागो महाग्रहः ।। ११॥ गौतम उवाच! ¦
` कथयस्व महाभाग गुं परूजनमुत्तमम् ॥! मन्त्रमाराधनं दानं सवेपायप्रणाशनम्
॥२॥ रूपं सुवणसंकाल्ञं वाहनायुधसंयुतम् 1 येन पूनितमात्रेण जायते सुख- `
मूत्तमम् ।! ३ ॥ धर्मार्थकाममोक्षाणां कालेनैव फलप्रदम् ।। सर्व॑पापप्रहामनं सवं- |
व्याधिविनाह्नम् \ ४ ।\ सवंसौभाग्यदं देवं धातुः पातकनाशनम् !। सवेयज्ञफलं `
। येन सवेकामफलग्रदम् ।\५\ तपसां जपदानानां फलं चेव तु लस्यते ।। तद्रतं ब्रूहि ` ।
। देव लोहितांग महाग्रह ।1 ६ ॥ यस्मिचनाराधिते मत्यः सवंसौभाग्यवान्भवेत् ।॥ |
मङ्गल उवाच ।्युणुविप्र महाभाग स्ेज् ऋषिसत्तम ।। ७ ॥। व्रतं च पुजन दानं |
` प्रख्यातं भुवनत्रये ।\ आसीत् पुवं हि स्व॑ज्ञो नन्दको ब्राह्मणोत्तमः ।\ ८ ।\ तस्य॒ |
भार्या सुनन्दा च नाम्ना ख्याता सुलोचना ।। तस्यापत्यं च सञ्जातं वृद्त्वान्न
कदाचन ।\ ९ \। तेनान्यस्य सुता पुण्या गृहीत्वा पोषिता धुवम् ।। ब्राह्मणस्य कुले
जाता चुरूपा गुणसंयुताः ।! १० ।। सवेलक्षणसम्पन्ना प्रयत्नेनेव गौतम ॥ पुरा `
` जनौ तया चाहमेकभावेन पुलितः ।।! ११ ।! सा पुत्रौ स्वगृहे नीत्वा ब्राह्मणेनेव `
` पालिता ।\ नित्थं हि खरवते तस्या अष्टाद्धं कनकं बहु ।। १२ ।। तत्सुवणेन विप्रो- `
ऽसौ घनाढयो मदर्गवतः ।\ कोटिकोरीहवरो जातो राजते भूमिमण्डले ।। १३ ।। ५
(~ बरतराज ` [ मंगख्वार~ `
` बाच ।। यदि तुष्टोऽसि मे देव तहि जीवतु मे पतिः \} मङ्धल उवाच ।\ अजरोऽप्य-
मरः प्राज्ञस्तव भर्ता भविष्यति ।। २३ ।\ अन्यं याच महासाध्वि वरं त्रिभुवनोत्त- `
मम् ।। ब्राह्यण्युवाच ।। यदि तुष्टोऽसि मे देव ग्रहाणामधिपेहवर \\ २४ ॥\ यत्वा.
स्मरन्ति देवेशं र्तचन्दनर्चचतम् \। रव्तयुष्यैश्च संपूज्य प्रत्यूषेभौमवासरे
॥ २५ ॥ बन्धनं व्याधिरोगाद्च कदाचिन्नोपजायताम् ।। न च सर्पाग्िशत्रुभ्यो |
भयं च स्वजनैः सह ।\ २६।) न वियोगो महीपुत्र भक्तानां सौख्यदो भव ।\ मङ्घल |
` उवाच ।। एकविज्ञतिभौ्मांश्च यो मइूक्तो |
चेन चतुदौपान्विते गृहे ।\ अरघ्येश्च. मद्कलेमन््रेवेदपौ राणिकोःडूवेः \। २८ 1 `
युवानं रक्तमनडवाहं सर्वोपस्करसंयुतम् ।! स्वशक्त्या भोजयेद्विप्रान् दातव्यं च
ˆ हिरण्यकम् ॥ २९ ॥\ तस्य वे ग्रहपीडा र ¡ च न भवेत्तु कदाचन ।! भूतवेतालदा- `
ब नामानि मण्डले पूजयेत्ततः ।। एकविशतिकोष्ठेषु चतुर्दोपान्वितेषु च ।। एक-
विश्तिकुर्माश्च स्थापयित्वा मद्ग्रतः ।। सौवर्णी प्रतिमां तत्र स्थापयेत्कलक्ो-
॥। रक्तवस्त्रेण संवेष्टच पुजयेतकुसुमेः शुभैः ।। अग्निूरधेतिमंत्रेण होमं खादिर-
` संभवे: \\ अष्टोत्तरशतं हृत्वा दिक्पालांश्च हुनेत्ततः।। अद्धपुज भ पूजा प्रकतव्या नाम-
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जितेन्द्रियः \\ २७।! एकाहारं सिता- `
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पड्चाद्गन्धादिनाचंयेत् ।! भोज्येकनिरश्ति विग्रान्द्यात्कुम्भात्सवस्त्रकान् 1} ध 1
` ` आचाय पूजयंत्पर्चादत्वा धनुं सवत्सकाम् ।। सवं निवेदयेत्पीटं गरे च ह॒चि- `
स्मितः ।। अचिरं याचयेत्तेभ्यः सवे चयुतं शुभम् ।। दत्वा दीनान्धकृपगान्स्वयं `
भुञ्जीत वाग्यतः । इति श्रीपद्पुराणे मङ्कलत्रतोद्यायनं संप्णेम् 1" 1
मगृखकारर््रतम्
५ अब मंगलवारका त्रत कजत है । संगलवारको अरुगोरयक्ते सकय अपामागेकी दाुनकरङे तिल 4 ॥ |
भौर आमलेकौ पिठीसे नदी आदि वा घरमे स्नान करके धृचहृएु लारवस्तर पहिनले उपरना भी लल्ह्ये । =
. इसके बाद ताबेके पात्रे रक्त, अक्षत, पुष्प, चन्दन डालकर “अग्निमूर्था" इस मन्वसे १०८ अर्य॑दे । पौरे = |
` धर आ, शुद्ध देशम गोबरसे भूमि लीयकर पुत्रार्था ओर धनार्थीको चाहिये करि, वे पत्नीके साय संगलकी ¦
पना करे । विधि-मास पश्च आदिका उल्लेख करके ऋण ओर व्याधिके नादके लिये तया पत्र ओरधनकी
। प्राप्तिके लिए मंगलवारका ब्रत करूंगा । उसके अद्धरूपसे संगलका प्ूजनभी कङ्गा, यह् संकल्प करके
~“ श्राथेना करे कि, हे देवश्च { अब में भक्तिके साथ आपका उत्तमव्रतं करूंगा जिससे ऋण व्यधि दरहोतथा . `
धन जरः सन्तानकी वृद्धि हो, यन्त्रके ऊपर भौमका पुजन करे ।। यन्त्रका आकार-संग्रह ग्रन्थे कहा है कि, `
सबसे पहिले धरिकोण यन्त्र बनावे । फिर उसमें चार लकीर खौचे जिससे उस त्रिकोण यन्त्रके पांच भाग `
` हो जा्येगे तीसरी रेखामें समभागके दो चिह्ककर दे जिससे उस रेखाके तीन भाग हौ जामे । पहिली रेखक `
दोनों किनारोसे केकर दो रेखाएं बनावे । ब बाई ओरकी दाई ओरकी तृतीयके चिह्वुमे तथा सरी दाई
यओरकी रेखाको बायी ओरके तृतीयके चिह्धमे मिखदे । इसी तरह् हितीयके भी दोनों नोकोक्ी दो रेवाओको
` तुतीयाके उसी स्थलमे लगावे । फिर तृतीयाके बौचमं एक चिह्वं करे । दो चिह्वं चौथी रेखामे करे तथा ४
पाचवीमें तीनचिह्व करे, तथातीघरीके दोनों नोकोकी दोरेलारएषांचवीं रेखाके बीचमे मिख्जायं तथाचोथी = `
लकीरके नोक, भिन्न भिच्च दो रेखाभके पांचवी रेखाके अलग बगल्के दो चिह्धोसे भिलायौ जाय तृतीय
` रेलाके बीचसे दोरेलाएं जाकर पांचवीं रेखाके दोनो चिन्दोसे मिल नायँ । तव ये इक्कीस कोष्टक तयार- |
ह्यनायंगे \ तीसरी आर
ग रेखाके बीचके त्रिकोणे पूजा करे, या वहां संसकी 'पुजा करे, मंगलादविकि
यंतरकौ पूजा करनी चाहिये । यद्यपि हमने गरन्थमें छिखौ निनी मे जित निकी स्प
करके सिख सकते ह लिख चुके हँ किन्तु फिर भी कुछ संदिरधं विषय समञ्चकर् उस यंत्रकोही यही १ लिखे
ध “~ (९२५). त ८ # व्रतराज ^ ६ ६ क | १ [ मंगल्वार~ ५.४
१ ओम् मङ्घलायनमः २ भृमिपुत्रायनमः ३ ओम् ऋणह्े नमः ४ ओम् धनप्रदाय नमः ५ ओम् स्थिराशनाय `
` नमः) ६ ओम् सहाकायायनसः ७ ओम् स्वकामविरोधकाय नमः ८ ओम् लोहिताय नमः ९ ओम् लोहितांगाय `
नमः १० ओम् सामगानां कृषा कराय नमः ११ ओम् धरात्मजाय नमः १२ ओम् कुजाय नमः १३ ओम
रक्ताय नमः १४ ओम् भूमिपुत्राय नमः १५ ओम् भूमिदाय नमः १६ ओम् अंगायकायनमः १७ ओम् यमाय १
नमः १८ ओम् स्वैरोगप्रहारिणे नमः १९ ओम् सूष्टिकत्रे नमः २० ओम् प्रहरे नमः २१ ओम् सवे कामफल- ४
प्रदाय नमः । यंच्रके अंक ओर नाम मंत्रोके लिखनेका क्रम एकह है इन्हीं अंकोके कोष्टकोमे कमकश्षःयेनाम- | |:
मंत्र किलने चाहिये \ पुना--सबसे पहिले न्यास करे यानी मूलमें जो न्यासके सत्र लिखे हँ उन संत्रोकोबोल्ता = |
: जाय ओर उन उन अङ्घोको छता जाय जो कि, मूलमें संत्रोमेही किख हँ । हाथकी पाचों उंगल्योका नाम
संस्कृतम कमसे अगुष्ट अंगृठा, तर्जनी अगूठेके पासकी उंगली मध्यमा बिचली, अनामिका चौथी उंगली
कनिष्ठिका सबसे छोटी अंगुली कही जाती है करतल हतेरी तथा पृष्ठहाथकौ पीठ कही जातीहै । हद = `
छाती, िर--खोपडी, हिखा--चोटी, कवच--भुजाए" नेत्रत्रय तीन नेत्र कहै जाते हैँ इन संस्कृत्के शब्दो
. बालेपदोसे इनका स्यं होता है । ये दोनों करन्यास ओर अद्धन्यास काते हे । अस्त्राय फट्" कहकर अपने |
` दोनों भर हाथ घमा ताली बनावे तथा ओम् खंखः कहकर चुटकी बजावे यह् दिग्बन्ध होगया । रक्तमाला ` । ।
` पहिने शक्ति्ूल ओर गदा हाथमे लिए हुए चतुर्भुजौ तथा मेढेकी सवारी रखनेवाले धरान्दन वर दिया करते `
है, इससे ध्यान; है अंगारक महाप्रभो भौम ! पधारिये, आपके आनेसे चराचरसमेत तौनों १ लेक आगये
--------------- ----- ~<
1 है । इस मंत्रसे अथवा धन समृद्धि देनेवाठे भगवान् मंगलके लिये नमस्कार । मंगलका अवाहन `
इसमे आवाहन करे । “अग्निमूर्धा' इस संत्रसे तथा “भम् अद्धारकाय विच्वहैशक्तहस्ताय धीमहि `
प्रचोदयात्” इस मंगलगायत्रीसे आसनसे ॐेकर पुष्पसम्पेण तककी पुजा करे । यंचे जिस `
मंत्रलिखे जाते है उन्हीं इक्कीस नाममंतरोसते उन उन कोष्ठोमे करमशः अंगोका पूजन `
\ अद्धपूजा--मंगलके लिये नमस्कार चरणोंको पूजाता हुं; भूमिपुत्रके° गुल्फोको प°; `
ओको ष ०; धन देनेवाले जानुओंको °: स्थिरासनके ० उरूओंको ०; महाकायके० कटीको०; ` ५,
१९ देनेवारे० हनुको०; भूमिनन्दनके० मुखको०; अंगारकके०० नासिकामोको ४ 7०; यसक्रे०° ,
कर्णकरो ०; सब रोगोकि नष्ट करनेवालेके° नेत्रोको०; वृष्टिके करनेवालेके० ऊलाटको०; वृष््टके हृतकि० `
२, सब क्के फ देनेवारेके लिये नमस्कार शिखाको पुजता हुं ।। इसके बाद धूपसे लेकर पुष्पांलितक `
॥ कि
व्रतानि] हल्दीटीकासहित (९२१) `
रक्षाकरे यहं अथं कर दिया है । इस प्रकार कवच करके जप करे, उसीके अद्धरूपसे--“अरुण राके, लाल
भाला पहिनेहए, लालही अंगराग दियेहुष, कनक कमलकौ मालाएं पहने हुए विश्वके वन्दनीय, अत्यन्त । `
कोमल हाथौमे शविति ओर शूल चि्येहुए, संगलोके कारण एसे भूमिनन्दनको भजो" इससे मगल्का ध्यान `
करे, “अभ्निमूर्धा" इस संत्रसे एकसौ आठ जप करे । भौम गायत्री पहिले कहके हे \ उसको पठकरस्तोत्र `
` पे 1 मंगलस्तोत्र-मंगल, भूमिपुत्र, ऋणहर्ता, धन्रद, स्थिरासनः; महाकाय, सर्वं कर्मावरोधक, लोहित, `
1 | लोहिताक्ष, सामगान्धं इृषाकर, धरात्मज, कुज, भौम, भूतिद, भूमिनन्दन, अंगारक, यम, सवं रोगापहारक, =`
बुष्ठिकर्ता, दृष्टि, अपहर्ता (सर्वकामफलप्रद, ये मंगलके नाम हे । जो रोज सावधानीके साय इन्हं पठता `
८ 1 है उसपर कष्ट नहीं होता, सदा सन्तानको वृद्धि हती है । सामके ससय इन इक्कीस नामोको पटकर सूपं | 1 । |
। ५ | | ओर धनवाला होजाता है दसन सम्देह् नहीं है 1} एकवार वा दो वार एकाम चित्त हे पटे इस प्रकार करनेपर ५ ध | ५ छ
ऋणको चुका सुखी हौजाता है । इस स्तोको पठे \ भूमिके गभसे होनेवाले बिजलीकौ कान्तिके समानप्रभा-
बाले ज्लक्ति हाथमे ल्य हए दुमार मंगलको वारंवार प्रणाम करता हू इससे नमस्कार करे । सरके अगारसे
तीन रेखा करके, हे भगवन अंगारक ! हे महीपुत्र ! हे भक्तवत्सल ! मे आपको नमस्कार करता हु,मेरा |
` ` समस्त च्छण नष्ट करिये, ऋण रोगादि, दारिद्रय, पाप, क्षुद्र, अपमृत्यु, भवके क्लेश, मनके तापयेभेरेसदा |
` नष्ट ह, ऋणके दुखको नष्ट करने तथा पुत्र ओर सन्तानके लिये जन्मसे होनेवालो तीनो असितरेखाओका
माजन करता हूं । जिसे इुःख ओर दौरभाग्यका नाह तथा सुख ओर सन्तान हो, क हई तीनों रेवाओंका ` ¦
` वाये पैरसे मार्जन कराता हूं, इन संत्रोसे रेखाओको माजन करे । प्राथना पीछे करे कि हे दुख मौर दारिद्रियके `
नाञ्च करनेवाले तुश्च ऋणनाहकके व्यि नमस्कार है, है धरणीके पत्र ! मुभे सुल ओर सौभाग्यका देनेवाला
बनज, है सबके कल्याणके करनेवाखे तुद्च ग्रहराजके लिये नमस्कार है, हे देवेश ! आपकी कृपासे सदा कल्याण
क्योकि, आप सदाही कल्याणके भाजन हँ, देव दानव, गन्धर्वे, यक्ष, रक्षस्, पन्नग ये सब सदाहीं पूणं
मनोरथ होकर कल्याणको पाते हे; हे भौम ! मुक्ञपर कृपा करिये, हे संगल्के देनेवाले ! सोभाग्यदे,जो
` चतुभुज बालकरुमार उज्जयनीमें उत्पन्न हुआ है उसोसे मं प्राथना कर रहा हुं । उसके ल्यि मेरी ये नमस्कारे `
भौ हैं । वह भरद्वाजके कुलम पदा हुआ है । श्ञक्ति शुर ओर गदा धारण करनेवाला है, यह पाथना करके `
। फिर स्तोत्र पढना चाहिये । वायनदान-तिल गुड भिरे हए गेहे इक्कीस लड् फल ओर दक्षिणकरे साथ `
` वेदके जाननेवाले ब्राह्ःण्फो दे, सब मंगलोके देनेवाले व्च मंगलके लिये नमस्कार है इस वायनेसे सन्तुष्ट `
, होकर भरे मनोरथोको पुरा करिये, “देवस्य त्वा ” इस संत्रको बोलकर करे कि, इस दानसे मंगल देव प्रसन्न
` हों पौ देदे । यह वायनेके दानका म्र है । आवाहनं न जानामि! क्षमा प्राथेना करे । यह मंगल्की पूजापुरी
` हई ।। कथा--सूतजी बोले करं मंगलके देनेवाल मंगल्की
लकौ जब देव ओर दैत्योने पूजा करली तौ उस लोहिताद्ध ` ध
महाग्रहसे गौतमने पूछा ।।१।। कि, है महाभाग ! गुह्यं उत्तम पूजन, मंज, आराधना ओर सब र पार्पोका
` (९२२) 1 | ‡ वतरा 1 (मगर्वार-
ध | उसका अष्टाङ्धः रोज ही बहुतसा सोना दिया करता था ।\१२।। उस सोनेसे वह ब्राह्मण धनाढय होगया छ
जिससे उसे बडा भारी मद ओर अभिमान होगया । वहं कोटि कोटीश्वर होकर भृमण्डलपर राजाकोतरहुं
रहने गा ।१३।\ नन्दकने उसे दश्च वर्षकौ होजानेके बाद देखा क्रि, लडकी व्याहके योग्य होगडं है । तब
` उसमे सोमेवर ब्र्यणके लिय दे दी ।\१४\। वेदकी कहौ हई विधिसे उसका विवाह करदिया । कृंख वषेकिं
` बाद जब वह् पुरौ जवान हौगई तो ।\१५।\ सोमेक्वर उसे ससुरालसे शुभ दिनम अपने घरको केकर चल
दिया । अपने देके रास्तेमे जाते जाते उसे रात होगई ।\१६। घोर कालो राते पर्वतके बीचके बनमे
। पहुचे । वहा नस्दन भी महारोभसे उपस्थित था \1१७।। अपने जमारईको मारनेके लिये चोर बनकर छिपा ` |
जा था \ उस निदेयने इधर उधर घूम उसे अकेला देखकर एकदम मार दिया 1} १८।। पतिको मरा देव 1 |
उसकी स्त्री शोके दुखी होगरई । है विप्रे ! उसने पतिके साथ मरनेका निश्चय किया ॥॥ १९1! अपने पति `
| ` तथा पतिमय विर्वको पद पद पर याद करके पतिकौ प्रदक्षिणां की ओर चितके बिलकुल समीप अ\\२०।। | ६ ५
उसमे प्रवेश करना चाहत ही थी कि, इससे मे पतिके स्मेकको चली जाऊंगी । उसी समय प्रसन्न हज मं `
1 वर देनेको उपस्थित हो उसे वर मांगनेके लिये प्रेरितं करने लगा ।२१।। कि, हे महाभगे । जौतेरे सनम
ह्ये सो वर मंगले, यह् सुन उस स्त्रीने मनसे पति मांगा ।\२२।। कि, हे देव ! यदि जाप मृन्लपर प्रसन्नहंतो
यह मेरा पति जीवित होजाय । यह सुन मंगल्देव बोले कि, तेरा पति अजर अमर ओर परम विदान होजायगा =
| ॥२३॥। इस्मेतोबातहौ क्या? हे साध्वि! ओर जो कोई तीनों लोकोमें उत्तमवरहोउसे मांग \बह
होजाता है ओर बेटा नातियोके साथ बढता है ! वहां ही यह् कहकर मंगलदेव दिव चले गये `
का देनेवाला त्रत मेने कह दिया है । जो इस त्रतको करेगे उन्हु कमी भी दरिद्रकौ पीडा
समन्नोकी कौ पूजा करे । उसके चारों ओर चार दीपकं रखे ¦ वहां इक्कीस घट रखे । कलसाके
ऊपर सोनेकीप्रतिमा स्थापित करे । उसे तालवस्नोमे
सैरकी समि हो \ एकसो आढ आहुति देकर दिवपारोको हति द 1 मेरे नाम मंत्रो
शक्र ९६. महाकालके ० वक्षको ०; सब सों १ कामोके रेनेवारके० खा न मो गे पण हितके = | ५६ हाथोको >.
आकाामे वृष्टिक
~ = = =
वेष्टितं करके पवित्र फूलोे पूजे, “ गिन इस `
| व्रतानि । \ हिन्दीटीकासहित ` (९२३) ~
है उसौ तरह संत्रीको भी अंगन्यासं ओर दि्बन्धदि इन्हीसे हो जाते है अथवा इसके दो भाग है एक भाग ` ४
तो “म बाहू भरपुजयेत्” यहां खतम हौता ह तथा दूसरा भाग “एवं संपूज्य चगिषु" यहां पुरा होता है) इस ` |
८ परकर अद्धोपर एुजकर पीर गन्धादिकसे चचित करे \२१। ब्रह्मणोको भोजन कराकर वस्त्रसहित कुंभ
` दे । पीछे आचायको एजे बछडेवाली गऊ दे सब पौठ गुरुको देदे । उनसे अच्छिद्र मागि वे सब अचिद्रकहदे
कि, आपका व्रत निर्दोष पुरा हुं \ दीन आँधरे ओर कृपणोको देकर आयमौन होकर भोजन करे ॥यह॒ =
. श्रीपद्यपुराणका कटुः हृञ्च संगलके ब्रतका उच्यापन पुरा हृजा \॥ : ॥ ^
अर व्रतराजेग्रन्थकारेण बुधबृहस्पतिवरयोत्रेतानि न किखितानि;
तथापि प्रकंरणक््ाजर्यासह कल्पदुमोक्तानोह लिख्यन्ते । तत्रादौ बुधवारत्रतम् । |
८.१ अथातः संप्रवक्ष्यामि रहस्यं ह्येतदुत्तमम् । येन लक्ष्मीधृतिस्तरुष्टि पुष्टिः
कान्तिश्च जायते ।\ विशाखासु बुधं गृह्य सप्तं नक्तान्यथाचरेत् । बुधं हेममयं कृत्वा `
स्थापितं कांस्यभाजने \\ शुक्लवस्त्रयुगच्छक्नं शुक्लमाल्यानुरषनम् । युडोदनोपहा-
न्तु ब्राह्मणाय निवेदयेत् \। बुध त्वं बोधजनो बोधदः सवेदा नृणाम् । तत्त्वावबोधं `
(क्र्तं सोमपुत्र नमोनमः ।। होमं घृततिलेः कुर््याद्बुधनास्ना च मन्त्रवित् । |
। समिघोऽष्टोत्तरशतमष्टा्विक्षतिरेव वा । होतव्या मधुसपिर्भ्या दध्ना चेव घृतेन `
च \\ बुधशान्तिरिति प्रोक्ता बुधवेकृतनाशनम् ! बुधदोषेषु कतेव्ये बुधल्ञान्तिकं
अब में एक उत्तम रहस्य कहता हूं जिससे लक्ष्मी, धृति, तुष्टि, पुष्टि ओर काति होजाती हं । विश्वा |
नक्षत्र बुधवारको ग्रहण करके सात नवतव्रत करे । सोनेका बुध बनाकर कासेके पात्रे रखे । दो सफेद वस्त्र
पहिनावे तथा इवेत माला ओर अनुरेषनभी श्वेतको \ गुडोदनका उपहार ब्राह्मणके निवेदन करदे । हे बुध !
भाप बुदधिके पैदा करनेवाले तथा मनुष्योकोः बोघ देनेवाले हो, है सोमयुत्र ! आप तत्वका अवबोध करते
। है । इस कारणं आपके किए वारंवार नमस्कार है । बुधके नामवाले “उद्बुध्यस्व इस मंज्से घृत तिल
पायसम होम कराये, अयामार्मकौ एकसौ आठ या अहाईस समिधा होनी चाहिये । मधु सर्पौ, दधि मौर पृत्के `
साथ हवन करना चाहिये \ यह बुधकौ शांति कही गई है । यह बुधकीौ विृतताको नष्ट करती है । बुधके
दोषोमे ब॒धके ्षातिके ओर पौष्टिक कमं करने चाहिये । “ओम् उद्बुध्यास्वाग्ने” यहं बुधका वैदिक मत्र
` है। तथा ओम् द्र द्रौ सः यह् तांत्रिक यंत्र है । वैदिकं सन्त्रसे हवन होना चाहिये ।। |
(९२४) 9 व्रतराज ` [सुक्रवार-
` स्वेपायहरं शिवम् । तुष्टिपुष्टिकरं नृणां गुरुवेकृतनारनम् । विषमस्थं गुरो
कार्य्या जीवल्लान्तियियं नृभिः ॥ ॥ =
अब हम एक उत्तम रहस्य कहते ह, जिससे लक्ष्मी धृति पुष्टि, तुष्टि ओर काति हो जातीहै \\
` बहुस्पति अनुराधा नक्षत्रम मवितिके साथ गुरुकी पूजा करे । पहिले कहे हुए योगम सात मासतक करे ।\सोनेके `
पात्रभे सोनेके बहस्पतिजीको स्थापित करके टो पीताम्बर उढावें । पौलाही उपवीत पहिनावे ।: पादुका, उपा-
। नह्, छव ओर कमण्डलृसे सुञ्लोभित करे ॥ पीत फूरोसे सुशोभित करके कुंकुमका लेय कर, तथा दिव्य सूप, = `
` दीप, फल, चन्दन, तण्डुल, खण्ड , खाद्य, उपहार इनमेसे पुजनेकौ वस्तुसे पुजकर अगाडी रखनेकी वस्तुको |
` ` अगाडी रख दे ।\ हे धमैशचास््रके तत््वको जाननेवाले ! हे ज्ञान जौर विज्ञानके पारदर्शी ! हे देवता्ओंकौ `
` आर्तिको नष्ट करनेवाले ! हे अचिन्त्य ! हे देवोके आचाय्यं ! आपको नमस्कार हौ ।। म॑त्रके जाननेवाला
गुरुके नामसे धृततिलोसे हवन करे । एक सौ आठ समिष, या अदृठाईस समिध होनी चाहिये वे मधु-सपोकि `
साधया दही वा घौके साथ हवन करनी चाहिये, सब शास्त्ोके प्रमाणके पीपयल्की समिधसमन्नना चाहिये!
यह् त्रत महापुण्य दायक सब पापोका हरनेवाला कल्याणकारी है, मन्ष्योंको तुष्टि पुष्टि करनेवाला तथा |
गुर्के दोषको शान्त करनेवाला है । जब गुरु विषम ( खषटृत्यादै” इत्यादिमे ) हो तो सनुष्योको बृहस्यतिकी : `
, शांति करने चाहिये । ओम् बृहस्पतेऽअतियदरयोऽअर्हाडचयमद्विभाति ऋतुमज्जनेषु; यहीदयंछवसञ्ऋत = `
प्रजाते तदस्मासु दरविणं धेहि चित्रम् 1" यह् वेदिकमंन है तथा बहस्पतयेनमः यह तांत्रिक यंत्र है । कहीकहीं
पिता चैव भः ४५ { जीवो महाबलः ।\ पंचविशि ववरधानि नामि पण्यानि श्ुभदानि च । ५
त्थाय या नित्यं कोतयेत् सुसमाहितः । विपरीतोऽपि भगवान् प्रीतस्त स्तत्र `
। गोसहस्र र तफल पुष्यं विष्णुवंचनमन्रवीत् ।! बहस्पतिः सुराचा्यं ॥
सुरासुरसुपूजितः \ अभीष्टफलदः श्रीमान् शुभग्रह नमोस्तु ते ॥। ५
ध सर्वदा, तृष्ट, सर्वाङ्खः, सवं पूजित, अक्रोधन, मुनिश्रेष्ठ, नीतिकर्ता, जगत्प्रिय, वितात्मा, विदवकर्ता, = `
योनि, अयोनिज, भूः, भुवः स्वः, पिता, भर्ता, जीव, महाबल, ये पच्चीस नाम पुण्यकेदेनेवाले एवं शुभ ` ` `
जो एकाग्र चित्तसे प्रातःकाल उठकर कहेगा उपर विपरीत हृषु मी बृहस्पति महाराज प्रसन्नहो `
जीय | नंदगोपके घरमे जो स्तोत्र विष्णुभगवान्ने कहा था जो उस गृरस्तोच्रको पदेगा वह् विरल होगः सगत ध र 1
| सन्देह नहौ है । वि्णुभगवान्ने यह भी कहा है दि, उसे एक हजार गजके त
स्वति क भगवान् देवकि भाव्यं तथा सुर भौर असुरोतेपुणित होते हँ
तानि]: हि्दीटीकासहित = (९२५)
` वरप्रदा ।\ आवाहनम् ।\ महेश्वरी महादेवि आसनं ते ददाम्यहम् ।। महदव
शिखिवाहन ।। पाद्य ददाम्यहं देवि वरदे वरलक्षणे ।! पाद्यम् ॥ तीर्थोदके्मह- `
दिव्यैः पापसंहारकारकैः ।। अर्घ्य गृहाण भो लक्षिम देवानामुपकारिणि ।\ अर्घ्यम्! =`
वेष्णवि विष्णुसंयुक्ते असंख्यायुधधारिणि ।। आचम्यतां देवयुज्ये बरदेऽघुरम- `
दिनी ।। आचमनम् ।। पदो पञ्चामृतैः शुद्धैः स्नपयिष्ये हरिप्रिये ।। बरदे शक्ति- `
` संभूतं वरदेवि वरप्रिये ।। पञ्चामृतस्नानम् ।! गंगाजलं समानीतं सुगर्धिद्रव्य- `
| संयुतम् ।। स्नानाथ तं मया दत्तं गृहाण परमेश्वरि ॥। स्नानम् ।। रजता्निसमं `
दिव्यं क्षीरसागरसचिभम् । चन्द्रप्रभासमं देवि वस्त्रं ते प्रददाम्यहम् ॥। वस्त्रम् ।॥। `
। मरगल्यमणिसंयुक्तं मुक्ताफलसमन्वितम् ।। ततं मंगलसूत्रं ते गृहाण सुरवल्लभे ।। `
। कण्ठसुत्रम् ।। सुव्णेभूषितं दिव्यं नानारत्नसुद्ोभितम् । त्रैलोक्यभषिते देवि `
| गृहाणाभरणं शुभम् ।। आभरणानि ।। रक्तगन्धं सुगन्धाठचमष्टगन्धसमनम्वि- `
तम् । दास्यामि देवि वरदे लक्ष्मीरदेवि प्रसीद मे ।। गन्धम् ।! हरिवरां कुंकुमं चैव॒ `
सिन्दूरं कज्जलान्वितम् ।। सौभाग्यद्रव्यसंयुक्तं गृहाण परमेश्वरि ।। सौभाग्य
द्रव्यम् ।! नानाविधानि पुष्पाणि नाना वणेयुतानि च ।। पुष्पाणि ते प्रयच्छामि
वासिन्ये° गुल्फौ प° \ पद्मालयाये° जंघे प० । भियै° जानुनी पू० । इन्दिराये
ऊरू पु० । हरिप्रियाये० नाभि प°
ग प, ०॥ क्षीरसागरजायं० ललाटं पु० । श्रीमहालक्षम्य° ज्ञिरः प° । ध्रीमहा-
दास्यामि । = मन्वितम्।। पतिगृह =
भक्त्या देवि वरप्रदे ।\ पुष्पाणि अथाङ्खमुजा-वरलक्षमयै० पादौ पु० । कमल- `
ऊर लोकधाच्यै० तनौ पु० । विधाच्ये० कण्ठं
प° घाच्य ° नासां पू० । सरस्वत्य ° मुखं पु° । पद्यनिधयं ° नेतरे पु० । माद्धत्याय० `
क! श्रीमहा-
( ॑ ( ६ ६ ) | । | | । [ र क्वा ४ | | | | | |
4 । ॥ ^ “ ५ । ॥
0 { 00 14 0 दि ०
4:4६; त
दलं देवि महादेवप्रियं सदा ।1 बिल्वपत्रं प्रयच्छामि पवित्रं ते सुनिर्मलम् ।। बिल्व `
पत्रम् ।) इह जन्मनि यत्पापं मम जन्मान्तरेषु च ।। निवारय सहादेवि लक्ष्मी- `
नरिायणप्रिये ॥\ प्रदक्षिणाः ।। कामोदरि नमस्तेऽस्तु नमस्तैलोकयनायिके ।) हरि-
कान्ते नमस्तेऽस्तु त्राहि मां दुःखसागरात् 1 नमस्कारः \ क्षौराणवसमुद्भूते कमले `
कमलालये ।! प्रयच्छ सर्वकामांश्च विष्णु वक्षःस्थलाल्ये ॥। व्रतससर्पणम् ।\ छत्रं
चामरमान्दोलं दत्त्वा व्यजनदरपणे ।। गीतवादत्रनुत्येश्च राजसम्माननेस्तथा ।॥ `
क्षमापय सुपचारः समभ्यच्यं महेकवरी ।। क्षमापनम् \।वरलक्ष्मीर्महादेवि सवेकाम- `
प्रदायिनि!) यन्मया च कृतं देवि परिपूर्णं कुरुष्व तत् । प्रार्थना \। एकधिक्नतिपक्वा- `
हयकंराचृतसंयुतम् ।। वायनं ते प्रयच्छामि इन्दिरा प्रीयतामिति ।} इन्दिरा प्रति- `
गृह्णाति इन्दिरा वै दादाति च।'इन्दिरा तारकोभाभ्यामिन्दिरायै नमोनमः ।1इति
वायनमन्त्रः \। पञ्च वायनकानेवं दद्याहृक्षिणया युतान् \ विप्राय चाथ यतये देव्यं
` तु ब्रह्मचारिणे \। सुवासिन्ये ततस्त्वेकं दापयेच्च यथाविधि । इति पूजा । अथ-
कथा-सूत उवाच ।। कैलासशिखरे रम्ये स्वेदेवनिषेविते \! गौर्या सह महादेवो
यत्नक्षेविनोदतः \! १ \ जितोऽसि त्वं मया चाह पावती परमेश्वरम् ।\ सोपि `
` नितेत्याह सुविवादस्तयोरभत् ।\ २।\ चित्रनेमिस्तदा पृष्टो मृषावादस
भाषत ।। तदा कोपसमाविष्टा गौरी शापं ददौ ततः ।\ ३ ।। कुष्टी भव मुषावा-
दिन् चि्रनेमिहेतथ्रभः । नानतेन समं पापं क्वापि दृष्टं श्रुतं सया ॥ ४ ।। च्रि-
नेमिमहाप्रा्ञः सत्यं बदति नो.भुवा \। प्रसादः करियतां देवि देवीमाह वृषध्वजः `
प्रसादसुमुखी तस्मै विशापं च जगाद सा ।। यदा सरोवरे रम्ये करिष्यन्ति `
शुचिव्रतम् ।! ६ ॥\ ततः स्वगणिकाः सवं यक्ष्यन्ति त्वां समाहिताः ।! तदा तव 1
पादित्युक्तः स पपात ह ।\७।। ततः कतिपयहोभिद्िचि्ननेमिः सरोवरे । ५ ५
॥ १ | । हिं ष । ् । ^. ५
.. - व्रतानि | | दीटीकासहित ~ > {९६४ ) ^
८ ५ "न । । द । 2 4
श विभि पत ४ व ल ~~ (त
तीर्थतोयः प्रपूरयेत् \\ १६ ।} फलानि च विनिलिष्य सुवर्ण प्रकषिपेत्ततः ।। पल्ल- `
. वांइच विनिक्षिप्य वस्त्रेणाच्छाद्य यत्नतः ।। १७ \! प्रतिमां स्थापयेत्तत्र पजयेच्च `
यथाविधि ।1 अनग््युत्तारणपूर्व तु शुद्धस्नानं यथाक्रमस् ।।१८।। पञ्चामृतेन स्नपनं `
कारयेन्मन्त्रतः सुधीः ।। अभिषेकं ततः कृत्वा देवीसुक्तेन वै ततः ।\ १९ \\ अष्ट- `
गन्धः समभ्यच्यं पल्लवश्च समचंयेत् । अहवत्थवटबित्वान्रमालतौदयाडि- `
` भास्तथा ।\ २० ।। एतेषां पत्राण्यादाय एकविहतिसंख्यया \। नामाविषैस्तथा `
। पुष्वैर्मालत्यादिसम् दवेः ।। २१ 11 धृपदीपे्महालक्ष्मौ पूजयेत् सर्वकामदाम् ।॥ `
| पायसेरभश्ष्यभोज्यैदच नानाव्यञ्जनसंयुतैः ।॥ २२ ॥ एर्काविशतिसंस्याकैरपूपैः `
पूजयेच्छिवाम् ।। निवे सूवदेग्ये तु वरं स वृणुयात्ततः ।। २३ ॥। नृत्यमीता- `
दिसहितो देवीं संप्राथयेच्छ्ियम् । रमां सरस्वतीं ध्यायच्छचीं च प्रियवादिनीम् |
॥ २४। एवं ब्रतर्विधि तस्मे कथयित्वा विधानतः \। पञ्चवायनकान् दत्वा `
कथां शृण्वीत यत्नतः \! २५ \! तथा मौनं गृहीत्वा तु पञ्चातिश्येन पूजयेत् ।॥ `
ब्रतंचकु्व॑ता गृह्य एकं पुगकलं तथा ।। २६ ॥। पर्णक चूणेरहितं चर्वेणीयंप्रयत्नतः।। = `
` चैलखण्डे दृढं बद्ध्वा प्रातः पदयेष्टिचक्षणः।\२७।)आरक्तं यदि जायेत कुर्यादुब्रतमनु- `
त्मम् ।! नोचेन्न तद्व्रतं कायं सर्वथा भूतिमिच्छता ।। २८ ।। अनेनैव विधानेन
ब्रतंगृह्ीत यत्नतः ।। अप्सरोभिः कतं सम्यग्ब्रतं सवेसमृदिदम् ।! २९ ।\ पूजाव- =
सानपयन्तं चित्रनेमिरलोकयत् ।। धुपधूमं समाघाय घृतदीपप्रभावतः 11 ३०।॥
गतकुष्ठः स्वर्णतेजाः शुचिस्तद्गतमानसः ।। अहं यत्नात् करिष्यामि व्रतं सवे-
। णर 0
` समद्धिदम् ।। ३१ 11 इत्युक्त्वा सवेदेवीस्तु कारयामास तस्क्षणात् ।\ सुवर्णनिमितां
=-=
न र
॥ 9
(८) 4 रतरा = [-चुत्रतरा ८
तव पादाम्बजं दष्टं बरलक्ष्मीप्रसादतः ।! महादेवस्ततः प्राह चिचर्नेमि शुचिव्रतम् `
॥ ४२। अद्यप्रभृति केलासे भुंक्ष्व भोगान् यथेप्सितान् । परचाद्गन्तासि वेकुण्ठं
बरस्यास्य प्रसादतः ।\ ४३ ।\ पावेत्यापि कृतं पूरव पुच्रलाभाथमेवच । रब्धद्च
षण्मुखो देव्या ब्रतराजप्रसादतः ।\ ४४ ।\ नन्दहच विक्रमादित्यो राज्यं प्रप्तौ `
महाव्रतौ \! नन्द कान्तया हीनः कान्तां रेभे सुलक्षणाम् ।\ ४५ । तथाच
व्रतं कृत्स्नं कृतं वै पुत्रहेतवे । पुत्रं प्रसुषुवे सा च तरेरोक्यभरणक्षमम् ।\ ४६
इह भुक्त्वा तु विपुलान्भोगान्वे सुमनोहरान् ।! तदाप्रभृति लोकेऽस्मिन् बरलक्ष्मी `
व्रतं श्लुभम् ।।४७।। व्रतं करोति या नारी नरो वापि शुचिव्रतः ।\ भुक्त्वा भोगांश्च `
विपुलानन्ते शिवपुरं ब्रजेत् । ४८ ।\ इत्याख्यातं मया विप्रा बरलक्ष्मीव्रतं शुभम्
॥ य इदं श्युणुयाच्चित्यं श्रावया समाहितः ।1 ४९।७४नं घान्यमवप्नोति वरल-
क्षमीप्रसादतः । ५० ।। इति श्रौभविष्योत्तरपुराणे श्रावणशुक्रवारे बरलक्ष्मीव्रतं `
संपुणेम् \' | 0
वरलक्ष्मीन्रतम्
` वरलक्ष्मीव्रत-शावणके शु्वारके दिन होता है पहिले उसकी पूजाविधि-कहते हः क्षीरसमुद्रसे उत्पत ॥ १.
इससे ध्यान; ब्राग, हंसपर चदीहुई अश्न मर कमण्डलु लिये हुई, विष्णुके तेजसे भी अधिका जो * नर
देनेवाल देवौ है बहु मेरी सदा रक्षा करे इससे आवाहन; है महेदवरौ ! हे महादेवि ! मं वुसने भासन देता ह,
पका बड़ा भारी एश्वय तथा ब्रह्माकी प्यारी हो इससे माससनः; है कुमारशक्तिसंपच्चे !
कौमारि ! है मोरपर चदनेवाखी ! हे वरलक्षणे ! ह बरके देनेवाली ! पाद्य देता हूं, इससे पाद्य; पापके
ं महार येको, हे देवोके उयकार करनेवाली ! ग्रहण कर, इससे अध्य;
रतेवाली ! हे बरोके देनेवालो ! हे देवपुज्ये देवि ! हे असंख्य आयुधोको हाथों रखनेवाली ! ५ ५
# प
शवितसंभूते ! हे वरग्रिये ! शुद्ध पंचामूतसे स्नान कराता हू, इससे पंचामृतस्नान, ' गंगाजलम् *
के पर्वेतके समान दिव्य तथा क्षीरसागरकौसी चमकवारा चाँदकी चांदनी जैसा वस्त्र,है `
देवि ! तुदञे देता हु, इससे वस्त्र; भांगल्यमणि' इससे मंगलसूत्र; ' सुव्णभूषितम् ' इससे आभरणः; ' रक्त
ग्धम् * इससे गन्ध; हरिद्र कुकुमम् " इससे सौमाग्यद्रव्य; * नानाविधानि इससे पुष्प सम्पण करे अंग- `
` लिये नमस्कार चरणोको पुजता हूं; कमल्वासिनीके० गुत्फों
ीरसागरसे पेदा होनेवाके० चलाटको०; श्रीमहालक्ष्मीके° कश्िरको ०;
लकष्मीके लिये फोको०; पद्मालयाके° |
नाद्खको °; भीक जाणुओंको °; इन्दिराके° ऊरुमोको; हरिकौ प्यारीके० नाभिको०; लोकधात्रीके० =
तोको०; विधान्नीके° कंठको ०; वात्रीके ० नासिकाको०; सरस्वतीके० मुखको; पद्यनिविके० नेत्रोको०; `
| करे, नैवेद्य चढ़ावे, पीछे वर मांगे ।२३।। सरस्वती < री ओर
| गानादिके साथे श्नीकी प्राथेना करे \\२४।\ उन स
व्रतानि] हिन्दीटीकासहित ` (९२९)
भहादेदि ! हे सब कामोके देनेवाली । जो मेने त्रत किया है बहु आवकी कृपासे पूरा हो जाय, इससे प्रार्थना
करे । घी सक्कं र“ इक्कीस पकवानोके साथ तुशे वायना देता हूं । इससे इन्दिरा मुञ्पर प्रसघ्र हो जाय; इन्दि-
। राही देती जौर कती है, हम तुम दोनोकी इस लोक ओर परलोककी इन्दिराही तारक है, इन्दिराके लिये नम- ४ #
` स्कार, यहं चध्यनेका मंत्र है । एसे पांच वायने दक्षिणाके साथ, ब्राह्मण यति, देवी ब्रह्मचारी ओर सुवासिनी
इनक विधिपूरवंक दे । यह पूजा पूरी हुई ।। कथा-सब देवोत सेवित केलासके शिखरपर महादेव गौरीके चाथ.
पाक्त खेल रहै थे\१\। वे दोनों एकं दुसरेसे कहने लगे कि, मेने तुम्हे जीत चछिया, यहूउनका एक विवादहो `
गयां ।।२६। चित्रनेभिसे पुछा तो बह शूठ बोला कि; शिवजीने । इससे गौरीने क्रोधमे आकर शापदेडाला कि `
11३11 हे शे ! तू कुष्टी होजा । चित्रनेमि हतप्रभ हो गया । पीछे धिव बोले कि, मेने ूठके बराबर कही मौ
पाप देखा सुना नहीं है परम बुद्धिमान् चित्रनेमि कभी सू नहीं बोलता सत्य कहता है, हे देवि ! आप इसपर
` कृषा करं ।४।)५।) दयाल होकर उसमे शाप मोह कहा कि, जब सुन्दर सरोवरपर पवित्र व्रत अप्तसराएं
` करेंगी तथा एकाग्रमनसे तुच्चे सब कुक करहेगौ उस समय तुम क्ञापसे मुक्त हो जाओगे ! इतना कहतेही चित्र- ` 1
` स्व्गेकी विलासिनियोको देखा ।\७।\ वे सब देवपुजनमें लगी हुई थौ, उन्हे प्रणाम करके पुने क्गाकि,है `
५ | महाभागो ! किसकी पूजा करतौ हो ओर क्या चाहती ह्ये ९।। मश्ष्या कद जिसका हां ओर वहां दोनो । | + ६ | |
जगह फल हौ आप एसा कोई त्रत कहे, एसा चि्नेमौने विलासिनियोसे पुछा! १०।। कि जिसके किथेतेमे
काम ओर समृद्धि देनेवाला दिव्य वरलक्ष्मीत्रत है, जब सुय्यं कक्कंट राशिपर हौ तथा श्रावणमासहो ।\१२।॥ = `
1... यना ओर यम्नाके योगमं या तुंगभद्रा नदीके किनारे उसी श्रावण मासके शुक्लयक्षके शुक्तवारके दिन संयमी ८ |
त ४ रुषो महालक्ष्मीका ब्रत करना चाहिये । चतुभज सोनेकी प्रतिमा बनावे ।\१३।।१२४\। रगवत्ली ओर ५: ॥
| तोरणोसे घरको सजाकर घरके पुवभागमें विशेष करके ईशानी दिलामं एक प्रस्य तण्डुल भूमिपर रखे । = `
| | ४ | पद्यपर् कलदा रख उसम तीथका पानी भरे ।\१ ५।।१६ .
1... , डालकर वस्त्रसे ठक दे ।\ १७।, अस्त्य॒त्तारण आदि संस्कारकी ठ 0
| पले } क्रमञ्चः शुद्ध स्नान ।\१८। तथा मंत्रोसे पंचामृतसे स्नान करावे, देवीसुक्तसे अभिषेक करे ।\१९।। ५
प | . ` अष्टगन्धसे पुजकर पल्लवोसे पूजे ग्र ॥
| . पत्ते खे ओर भी अनेक तरहक माख्ती आदिके पुष्प
वाः वाला एक युपःरी लेकर चणेरहित एक पत्तेको कं गि सावधा
काल देखे ।\२६।।२७।। यदि वे अच्छी तरह लाल
उसपर फल रखकर सोना दोर एवं पव पटल्व॒ `
रकी हुई प्रतिमाको विधियु्वेअ उसपरस्थापितकरके `
पायसं २२१ इक्कीस अपप इनसे शिवाका पूजन `
ओर प्यारा बोलनेवाली शचीका का ध्यान करते हृए नाच |
| (९३०) | | । | | ४ । ४ । नत र[जं 1 | शनिवार `
॥ ३९ ।\ वहां आदरके साथ देवेष आर देवीको प्रणाम किया । धावती चित्रनेमिसेबोली कि
हे चित्रनेमे ! अपने पुत्रकौ तरह तु मेरा पालनीय है \ यह तु सत्य समक्ष, चि्नेमी बोला कि, है हर-वल्लभे
1४०।१४१। बरलक्ष्मीकी कृषासे तेरे चरण देख सका ह, पवित्र व्रतवाले चित्रनेमिसे महादेवजी बोकेकि `
प४र्)) आजसे आप इस कैलासपर यथेष्ट भोग भोगे पौ इस व्रतके प्रभावसे वेङुष्ठ चले जाओगे ॥४३।। |.
. - पुत्रके लिये पहि पा्वतीने भौ इस ब्रतको किया था; इसके प्रभावसे उन्हं स्वासिकातिक पुत्र सिला ।\। ४४।।.
नन्दं मौर विक्रमादित्य इसत राज्य पा गये तथा स्त्री रहित नन्दको सुलक्षणं स्त्री मिल गईं ।1४५।। उसने भी
इस ब्रतको पुत्रसन्तानके लिये किया था । इससे उसने देसे पुत्रको पदा किया जो कि, तीनों लोकोका पालन =
कर सके ।[४६।। तथा यहं बडे-बडे सुन्दर भोगभोगे, उस दिनसे यह लक्ष्मत्रत प्रचलित हुभा 1४७ उत्त =|
दिनसे जो कोर स्त्री वा पुरुष इस उत्तम व्रतको करता है बह बड़े-बड़े भोगों को भोगकर उन्तसे शिवपुर चला
जाता है ।\४८॥) हे विप्रो ! यह मेने वर वक्ष्मीका ब्रत सुनादिया है \ जो कोई इसे एकाग्र होकरसुनेगाजौर `
1 | सुनावेभा ।\४९।। वह वरलक्ष्मीकौ कृपे लिवपुर चला जायगा 1५०) चह भविष्ययुराणका कह्हंजान्नावण |
शुक्रवारकेदिन होनेवाला बरलक्ष्मीत्रत परा हुमा |
9 शनिवारे शनेर्चरत्रतम् ` ~
अथ श्रावणमन्दवारे शनेक्चरव्रतम् ।\. अहवत्थमूरे वेदिकां कृत्वा तत्र
धनुराकार मण्डलं विलिख्य तत्र ङृष्णायसनि्ितां महिषासना द्विभुजां दण्डपाह्च- `
धरां शनै्चरम्तिं स्थापयित्वा पुजयेत् ।। तत्र संकल्य :-अद्येत्यादि मम प्रमस्तरोग-
` परिहारार्थं दृष्ट दरलत्तागतशनेश्चरपीडानिरासाथं शनेदचरपुजनं करिष्ये ।॥।
निविघ्नतासिदढधचर्थं गणपतिपजनं कल्शाराधनं च करिष्ये ।! इति संकल्प्य
गणपत्यादि प्रुजनं कृत्वा शनैश्चरंपूजयेत् ।\ तद्यथा-ङृष्णाङ्खाय० आवाहयामि ।
नीलाय० आसनं ° । इवेतकण्ठाय ° पाद्यं ° । नीलमयूखाय० अर्यं ° । नीलोत्पल० ` |
आचम० । नीलदेहाय० स्नानं ० कुल्जाय० पंचामृतस्नानम्० । शनेदचराय० =,
गोदकस्नान० । दीप्यमानजटाधराय० वस्त्रं । पुरुष गा्राय० यज्ञोपवीतं० । ।
गेम्णे० अलंकारान० । नित्याय० गन्धं० । नित्यधर्ताय० अक्षतान० ।
सदं ष य० पुष्पम्० । मन्दाय० धूषम० । निस्पुहाय० दौम्० । तामसाय० `:
ताम्ब म्बूल | लर म्बलम् ° मन्दगतये° दक्षिणाम् ० । ज्ञाननेत्राय० प्रदक्षिणाम्० । सूर्यपुच्राय० क
त्पलाय० आचमनम्० कृष्णवपुषे० करोद्र्तनम्० । दीधदेहाय० `
अताि] हिन्दीटीकासहित :“ `... (९३)
सह पाथिवः \\ मंत्रयामास किमिदं भयडकरमुपस्थितम् ।! ४ \! देहश्च नगर- `
भ्रामा भयभीतास्तदाभवन् ।! अब्ुवन्सवेलोकाहच क्षय एष समागतः ॥\ ५ ।\
आक्कुल च जगदृदृष्ट्वा पौरजानयदादिकम् ।, प्रपच्छ प्रयतो राजा वसिष्ठंमुनिसत्त-
मम् ।। ६ ।1 संविधानं किसस्यास्ति वद मां दविजसत्तम ।। वसिष्ठ उवाच ।। दूरे
` प्रजानां रक्षा च तस्सिन्भिचे कुतः प्रजाः 11 ७ ।) प्राजापत्यं स नक्षत्रं शनिर्यास्यति `
साप्रतम् ।। मन्ये योगमसाध्यं तु ब्रह्म्क्रादिभिः सुरः ।\ ८ ।। ततः संचिन्त्य मनसा
साहसं कृतवान्नृपः ।\ समादाय धनुदिव्यं दिव्यायुधसमन्वर्तम् ।। ९ ।। रथमारुह्य `
. वेगेन गतो नक्षत्रमण्डलम् ।। रोहिणीं पृष्ठतः कृत्वा राजा ददारथस्तदा ।। १०।॥ `
रथे च काञ्चने दिव्ये मणिरत्नविभूषिते ।। हंसवणेहंयेयुक्ते महाकेतुसमन्विते `
` ॥ ११॥ दीप्यमानो महारत्तैः केयुरमुकटोज्ज्वलः ।। व्यराजत महाका्ेष्ठितीय
इव भास्करः ।। १२ ।। आकणेयुरिते चापे संहारास्त्र न्ययोजयत् \\ कृत्तिकान्ते `
श्निः स्थित्वा प्रविक्षन्किल रोहिणीम् \! १३ 1! दष्ट्वा दशरथं चाग्रे सरोषं `
` श्रुकुदीमुखम् ।। संहारास्तरं च तद्दृष्ट्वा सुरासुरभयङ्करम् । १४ हसित्वा ` (
॥ त्धयात्सौरिरिदं वचनमब्रवीत् ।\ पौरुषं तव राजेन्द्र परं रिपुभयकरम् । १५ । |
देवासुरमनुष्याहच सिद्धविद्याधरोरगाः ।! सया विलोकिता राजन् भस्मसाच्च
भवन्ति ते।। १६।। तुष्टोऽहं तव राजेन्द्र तपसा पौरुषेण च !! वरं बृहि प्रदास्यामि
` यथेष्टं रघुनन्दन ।। १७ \। सरितः सागरा यावच्चदद्रा्को मेदिनी तथा ।\ रोहिणीं
भेदयित्वा तु न गन्तव्यं त्वया हाने ।। १८ ।\ याचितं तु मया सोरे नान्यमिच्छा-
दुरभिक्तं भविष्यति कदाचन ।! कौतिरेषा मदीया च त्रैलोक्यं तु > व्य पति ३२ २०
ततौ वरं च संप्राप्य हृष्टरोमा तु पाथिवः॥ व उपतस्थे धनुस्त्यक्त्वा भूत्वा चव
कृताञ्ज
उवाच १ नमः कृष्णाय नीलाय शितिकण्ठनिभाय च ।। २२।। न
1रदमथाकर ४ | त् | ।। दशस्य । |
लिः ।\ २१ ।\ भक्त्या दञ्ञरथः स्तोत्रं सौरो
| । ( ९३२) ५ ` रतराज ५ ध ध १ | दानिवार~-
दरमास्तथा ।! ३० ।! त्वया विलोकिताइचेव विनाशं यान्ति मूलतः । प्रसादं कुरु
मे सौरे वरार्थं त्वामुपागतः \\ ३१ । एवं स्तुतस्तवा सौरिग्रहराजो महाबलः ।\
अन्नवीच्च शुभं वाक्यं हृष्टरोमा स भास्करिः ।! ३२ ।\ शनिरुवाच ।। तुष्टोऽहं
तवं राजेन्द्र स्तवेनानेन सुव्रत ।! दास्यामि ते वरं भद्रं निश्चयाद्रघुवंश्षज ।\ ३१
दक्षरथ उवाच ।। अद्यप्रभूति पिगांक्न पीडा कार्या न ते मम ।। जगच्रये त्वया नाथ
पीडिते दुःखितो जनः ।। ३४ ।! तस्माज्जगच्यं देव रक्षणीयं त्वयानघ ।\ शनि- `
रुवाच ।! ग्रहाणामहमेको हि मदधीना ग्रहाः सदा ।। ३५ ।\ स्तवेन तवं तुष्टोऽहं `
पीडां न च करोम्यहम् ।। जगच्रयं महाराज दुःखितं न भवेत्सदा ।\ ३६ ।\ दशरथ
उवाच ।\ भगवन्केन विधिना त्वदीयाराधनं भवेत् ।। येन तुष्यसि पिद्धान्न तत्सवं
वक्तुमहेसि ।। ३७ ।\ उनेक्चर उवाच ।\ श्रावणे मन्दवारेषु दन्तधावनपुवंकम् ।॥ `
` स्नानं सुगन्धतेलेनः नित्यकर्म समाचरेत् ।! ३८ ।। शुचिर्भूत्वा शमीवक्षं गत्वा तत्रैव `
पूजयेत् ।! तदभावेऽथ राजेन्द्र गत्वाश्वत्थं प्रपुजयेत् \! ३९ ।। तत्र संपूज्य मां राजन् `
गन्धयुष्याक्षतादिभिः ।। धूषेदीपिह्च नेवेचैस्ताम्बुलघ्राथनादिभिः ।। ४० ।। वेष्ट
भ्रव पूर्ववदेवमचैयेत् ।। हामग्निरिति मन्त्रेण हुनेदष्टाधिकं शतम् ।॥ `
। कृसरान्नं तदन्ते च तेनेव बलिमुद्धरेत् \। कृष्णधेन्ं सवत्सां च दद्याद्थ
म् ।! ४७ ।। सप्त विप्रान् समभ्यच्यं गन्धपुष्पफलादिभिः ।। वस््ाणि
चैव यथाशक्त्या प्रदापयेत् ।। ४८ ।। तिलमाषविमिभाल्नभोजयेद्दिज- ` (
पीत पहिनाता
अक्षत०; सदात् ५
= कृष्णवयुके० करोदर्तेन० दी्धदेहके
पुत्रके नमस्कार, नमस्कारोका सम्पण करता
-बतीनिं 1. हन्दीटीकासहित (९३३)
ब्रह्मा शिवो हरिश्चेव सुनयः सनकादयः ॥ लक्ष्मी रमा च सावित्री
मुनिपत्न्यह्च वं जुभाः ।। ५५ ।! नृपा अन्ये मया सरवे स्थानशरष्टाश्च पौडिताः |! `
देशाच नगरग्रामा गजोष्टावथ वाजिनः ।। ५९ ॥ रोद्रदष्टया मया दष्टा नाश्चमा-
यान्ति तत्क्षणात् ।। ततो भया पीडितानां मनुष्याणां नराधिप ५७ 11 परिहतं
न शक्ताश्च ब्रह्म विष्णुमहेश्वराः।\ एतच्छ् त्वा शनैर्वाक्यं राजा परमहषितः ॥ `
॥\ ५८ \\ नत्वा प्रदक्षिणी कृत्य वरं प्राप्य पुरं यथौ ।\ गत्वा स्वनगरं राज्ञा पूजितो `
वै शनर्चरः ।\ ५९ ।\ श्रावणारिष् वारेष प्रसल्लोऽभच्छनेश्वरः ।। पथ्वीपतिर- `
| भूद्राजा ग्रहराजग्रसादतः ।। ६० ।॥ य इमं प्रातरत्थाय सौरिवारे सदार्चयेत् ।॥ `
तस्याभीष्ट्रदो मन्दो भविष्यति न संशयः ।! ६१ ॥ स्त्रिया वा पृरषेणापि कृतं `
येन श्चनित्रतम् ।। स मुक्तः सवेपपेभ्यः सर्वाभीष्टं लभेतक्षणात् ।। ६२ ब्राह्मणो `
बदसम्पुणेः क्षत्रियो राज्यमाप्तुयात् ।। वैश्यस्तु लभते वित्तं शूद्रः सुखमवाप्नृयात् `
॥ ६३ ।। कन्यार्थी ऊभते कामान् भोक्षार्थौ लभते गतिम् ।! मुच्यते सर्वपापेभ्यो
ग्रहलोकं स गच्छति ।। ६४ ।\ इति श्रीस्कन्दपुराणे ज्निवारत्रतकथा समाप्ता
इति वारव्रतानि ॥। 1.
५ शनैश्चरव्रत-श्ावण शनिवारको होता है, अश्वत्यकेमूलमें वेद बनाकर उसपर घनुषाकार मण्डल ` |
` लिलकर उस पर कगेहेकी बनी हुई सैसेपर चढ़ी हाथोमे दण्ड ओर पादा लिए हए दुभुजी हानैक्चरकौ सूति `
स्थापित करके पूजे । पूनाका संकल्प -आज एेसे-फेे समय एवं एेसे-फेसे स्थल आदिमे मेरेसरेरोगोकेपरि- |
हास्के लिये दृष्टि, उदर मौर पैरमे भाई हश शनेश्चरको पीडाको मिटानेके लिये शनैश्चरका पुनन में का! = `
| निविध्नताकी सिद्धिके लिये गणपतिका पुजन ओर कलहाका आराधना आदि भौ कग, यह संकल्यकरके `
गणपति आदिकी पुजा करके शनैश्चरकी पुजा करे । पुनाङ़ृष्णाङ्खके लिये नमस्कार इष्णाद्धका आवाहन = `
| करता हुः हे कृष्णाङ्खः ! यहां आ; यहां बैठ इसौ तरह सब समन्नना । पीछे ल्ल चुके है ¦ नीत्के ल्थिनम-
स्कार, आसन सम्पण करता हुः दवेत कंठके० चरणोको पाद्य; नील मुखके° अर्यः नीलोत्यलदल्के ° मुष- = |
शुद्धिके० आचमन; नील देहके ° शरीर की शुद्धिके० स्नान, कुञ्नके ० पंचासत स्नान; नेश्वरे लि =
` नमस्कार शुद्ध पानौका स्नान सम्पण करता हूं । दोप्यमान जटाघर के ० वस्त्र उढाता हूं; पुरुषन्रके °्यज्ञो- |
लिए गंधसुघाताहुं; नित्यधूर्तके
पहके° दीप० तामसके० नैवेद्य, नीलोत्पलके° जचमन्०; |
० ताम्बूल०;_ मंदगितके° दक्षिणा०; जाननेत्रके० भवक्षिणा; सुयै- = |
क
; स्थृखरोमाके० अलुकार धारण कराता हूं; नित्यके लिए
० पुष्य; भंदके भूत ०; निस्प
हं । एसे स्थले ( दीपं वञंयामि) एसे टुकड़े ल 7 दिया
(९३४) ` ब्रतराज [शनिवार-
कर राजाने वसिष्ठजीसे पुछा\1६।। है ऋषिराज ! इस समयका क्या कतव्य है वह मुसे बते । दुर रह्-
नेसेही प्रजाओंकी रक्षा रहं सकती है \ यदि बह टूट जायगा तो प्रजा कहां है \\७}\ अब शनि रोहिणीनश्षत्र-
पर जायगा ! इस योगको में बरह्मा इन्द्र आदि देवोसे भी असाध्य समक्षता हूं ।।८।। राजाने सोच विचारकर
साहसं किया ! दिव्य धन् ओर दिव्य आयुध ठेकर \\९॥ वेगवान् रथपर बैठकर नक्षत्र मण्डलम पहुंचा । राजा
. इश्षरथने रोहिणी अपने पौरे करी ।\१०।। उस समय राजा मणिरत्नोसे जडे हुए जिसमे हंसके रगके घोडे
जते हए एवं बड़ी-बड़ी ध्वजाएं जिसपर उडरही हँ, एसे दिव्य सोनेके रथम बैठे हृएु थे ।।११।। उज्वल केयूर
ओर मुकुट पहने हृषु थे, महारत्नोसे दीप रहै थे, महाकामे दूसरे सूयं जैसे विराजमान हौ रहै थे ।\१२।
. धनष कानतक खीच रखा था ! उसपर संहारास्त्र चढा रखा था । छृत्तिकाके अन्तमं शनि ठहरकर रोहिणीमे
। प्रविष्ट हुमा ।\१३।। तो क्या देखता है कि, कोधसे आखं चढ़ाये हुए वीरवर दशरथ अगाडीही रास्तेमे खड ध
हए ह एवम् उनके धनुषपर देव असुर दोनोके लिए भयंकर संहारा चढ़ा हअ देखा ॥ १४१) उसके भयसे
हे्षकर शनि देव बोले कि , हि राजेन्द्र ! तेरा पुरुषाथं एकदस व॑रिथोका उरा देनेवाला है 11 १५। है राजन् !
` देव, असुर, मनुष्य, सिदध, विद्याधर, उरग ये सब मेरे देलनेमात्रसे भस्म हो जाते हं ।\ १६।। पर हे राजे !
भे तेरे इस तप जओौर पौरुषसे परम प्रसन्न हुआ हूं । है रघुनन्दन ! मं बर दूगा जो इच्छा हौ तो मांग ऊ ।\१७\
यह् सुन दल्लरथजी बोरे कि, जबतक नदी, समुद्र, चांद, सुरज ओर जमीन है हे शने ! तबतक तुम रोहिणीको
` भेदकर न जाना \)१८।। हे सु्यपूत्र ! मे यही वर चाहता हूं, इस वरके सिवा दूसरा नहीं सांगता । जब श्निने `
स्वीकार कर लियाकि, एेसाही होगा तो राजा.कृतक्रत्य हौ गया ।\१९।। कि, अब कभी बारह वर्षका दुभिक्ष्य . `
नहोगा एवं यह् मेरा य तीनों लोगौमं सदा होता रहेगा ।\२०।। राजा वर पा परम हाषित हज रोमावली `
. खड़ी हो गई 1 धनुष रख हृष्य जोड़कर उपस्थान करने लगा \\२१।! भद्तिपुर्वक शनेश्चरजीका यह स्तो
दक्षरथजौोने किया था । दशरथकृत स्तोत्र-कृष्णके लिये नमस्कार; शितिकंठ निभके लिये नमस्कार ॥२२।॥ =
पुरुषगा्के० ; स्थूलरोमाके०; नीखमणि है ग्ीवामे जिसके उसके ०; नी उत्यलकी तरह चमकवाकके०; `
सदा भूखसे आते रहनेवा०; सदा अतृप्त रहनेवालेके० ; कालाग्निर्पके०; घोरके०; रौद्रके०; भीषणक्े० = |
करारीके०; सबका भक्षण करनेवालेके ०; तुक्ष बलीमुखके चिये नमस्कार ।२२-२५। हे सूर्यपुत्र ! तेरे `
|. किये नमस्कार हो, कादयपके ०; हे मन्दगते। तेरे लिये नमस्कार; हे कृष्णवर्णं ! तेरे लिये नमस्कारहै।२६।॥ = `
` तपसे द्ध देहवाेके०; सदा योगे लगे रहनेवाकके०; हे ाननेत्र ! तेरे लिये नमस्कार, काषयपके पुत्रके `
पतर तेरे लिये नमस्कार ।।२७॥ प्रसन्न हो उसी समय राज्य देते तथा रुष्ट होकर उसी समय ह्रक्तेहो,देव, `
असुर, सनुष्य, पशु, पक्षी ओर बड-बड़ सपि ।।२८। आपके देखने मात्रसेही सब जल्दी ही दीन बन जते, = `
अपनी वक्रदूष्टिसे देखते हं तो उसी समय इन्द्रादिक सब देव सप्तछषि ओर तारे श्रष्टहो जतेहै।! `
देहा, नगर, ग्राम, दीप, ब्रम आपके देखते ही जडसे मिट जाते हेः हे सूय्यदेव ! मुञ्षपर कृपाकर, मे वरमांगने `
या हूं ।२९-३१।। इस प्रकार राजाके स्तुति करनेपर महाबली ग्रहराज सु्येयुत्र परम प्रसन्न होकर शुभ `
वाक्य बोला कि ।३२।। है रजेन ! है सूत्रत ! मे तेरे स्तवसे परम प्रसन्न हओ हू मे अपने निक्चयसेहे रधु-
वंशराज ओर एक वर देता हूं ।\३३।। दज्रथ बो कि है पिङ्धलाक्षे ! आजसे आप मेरे तीनो लोकों पीडा ` `
इससे जोव बड़ दुखी होते ह ।३४।। है अनघ ! आपको तीनों जगर्तोकं
म करन, क्योकि, है नाथ ।
पडा न करूगा, हे महाराज ! इससे तोन जगत् कभी दुखी न ह
आपका वह आराधन किस विधिसे हो हे पिगाक्ष ! जिससे
चाहिये, शनि बोरे कि ग्रहोमे मँ एकही हं सब ग्रह मेरे अधीन हे ।३५॥ मे तुम्हारे स्तवसे प्रसन्न हं र ८
हग \\ ३६ ।। दशरथ बोले करि, हे भगवन् ! `
द; ग होते हे, वह सब बता दे \।३७।। शनै- = `
व्रतानि । ` हिन्दीटौकासहित (९३५)
वरण करे । सोनेका शमीवुक्ष हौ उसके अभावमं पौयलका हो ।\४३।। लोहैकौ भसेपर चदु हई मेरी प्रतिमा
बनावे, वहं द्विभुज लम्बी ओर पारादण्ड हाथोमे हो, आंखें पिगवणेकौ हो, मोरी हे, ग्रीवा इवेत हो सोनेक्े `
अरेवत्थ या क्ञमीके पत्तोपर सात काले वस्त्र लपेटे, उपवीतादिक द्रव्योसे पिकी तरह पूजे “ कमग्निं" इस `
मंत्रसे एक सौ जठ आहुति दे ।\४४-४६।। ओम् शमग्निरग्निभिः करत्, शंनस्तपतु सूयं: शंवातो बात्पर- `
पाऽजपस्त्िधः । सबके अग्रणी हानिदेव दूसरे शरेष्ठ देवोके साथ मेरा कल्याण करे, मेरे लिए सूर्यं सुखरूप तपे,
मेरे किए वायुभी शुद्ध एवं रोगका दर करनेवाला चले ।। अन्तमें छृसराच्कौ आहुति दे, उसीते बक्िकरे।
दूष देनेवाखी काली उच्छेवाली गङॐ दे ।४५७।। सात ब्रह्मणोको गन्ध, पुष्य, ओर फल आदिते पूजक व |
अनुसार वस्त्र ओर दक्षिणा दे ।(४८।। तिल ओर उडद मिक हए अचसे उत्तम ब्रह्मणोको भोजन करषवे \ ` ध
उनकी आशिष लेकर भाई बन्धुओके साथ भोजन करे ।४९।। वस्तो समेत प्रतिमाको आचाय्थके लिए ददे,
, हे राजेनद्र! इस प्रकारं करनेषर में सब अभीष्टोको देता हूं ।\५०।। हाथ जोड़कर आपके किए स्तोत्रको पठे, `
` है राजेन उसे सात जन्मतक दरिद्रता नहीं होती एेववर्यही होता है ॥\५१॥ बेटा नातौ होते हें पीर मोक्ष ८
घाजाताहै \ में उसपर प्रसन्न होकर गोचर, अष्टवं अथवा विषम रहता हञा भी पीड़ा नहीं करता, राजी `
न ^ । । होकर राज्य देता तथा ऋडढ हो तो श्लौ घ्रही राज्य को हर खेता हं \\५२।।५३॥। मेँ जन्मस्थ, दादशस्थ भौर । ध |
. अष्टमस्थानमें भौ होऊं तो भी श्रावण शनिवारके दिन पजाकर देनेसे सुख देनेवाखही होता हं ।\५४।। ब्रह्मा, `
शिव, हरि, मनि, सनकादिक, लक्ष्मी, उमा, सावित्री मौर पवित्र मूनिपल्नियां ।\५५।! तथा जौर भी द्रे ` ४ ५ |
इसरे राजा सब मेने स्थानश्रष्ट कर दिये, दुखी, किए, देश्ष, नगर, ग्राम, गज, ऊंट ओरघोडमेरीकूरदृष्टिकिे
देखनेमात्रसे उसी समय नाशको प्राप्त हये जाते हं । है राजन् ! इस कारण मेरे सताये हुओंको ।\५६।।५७\) 9 ॥ ¦ .
: ब्रह्मा विष्णु ओर महेश भी नहीं बचा सकते । शनि देवके वे वचन सुनकर राजा बडा प्रसत हुअ॥\\५८।४नम- = `
स्कार प्रदक्षिणा कर वरदान पा, अयोध्याको चल दिया ! वहां आकर शनिदेवकी युजा की ।1५९।ध्रावणा- = ` | |
दिकके निवारको विधिपु्ंक पूजनेसे शनिदेव प्रसस्र हुए वहं ्रहराजकी कृषासे पृथ्वीपति राजा हुभा १६०) = |
जो प्रातः इानिवारके दिन इसकी अर्चना करेगा मे उसे अभीष्ट दगा, इसमें सन्देह नहीं है ॥६१।स्त्रीवापुरुष
कोई भी शनिवारको व्रतको करके सब पापोंसे उसी समय छटकर अपने अभीष्टको पा जाता है ।\६२।
` ब्राह्मण वेदका पुणेज्ञान तथा क्षत्रियको राज्य मिल जाता है वेश्यको धन एवं शूद्रको सुख मिलता है ।६३। ` 4
` कन्याके चाहनेवालेको कल्या तथा पुतरार्थौको पुत्र, कामार्थोको काम एवं
` .. भिल्ती है एवं बहु सब पपोसे छटकर शनिके | सोकमे
६: शा शनिवारके त्रतको कथा पुरी हुई \! |
कमे चला नाता हे ।(६४॥ यह् भीस्कनुराणकी कही हई `
व | ९३६) | . . ज्रतरराज | | [ व्यतीपात-
तदा सोमोऽतिरुष्टश्च रवि कूरं व्यलोकयत् ।। ७ ।। आदित्योऽपि तदा रुष्टः
` क्रुधा सोमं व्यलोकयम् ।! उभयोष्टिसंपातात् करढयोः सोमसूर्ययोः ।\ ८ ॥
उद्यतास्योऽभवद्घोरः पुरुषः पिद्धलेक्षणः ।! दष्टौष्ठ दीधे दनो धुकुटीकुटि- `
लाननः।\ ९ ।। पिद्धलवमश्रुकेज्ान्तो लम्बश्च कोदरः ।। करालो दीघजि-
द्वश्च सूर्याग्नियमसधिभः।। १०।। अष्टनेत्रह्चतुरवक्रो भुजैरष्टादोयुंतः \। चैलोक्यं
भवितु प्राप्तो रवीन्दुभ्यां निवारितः।। ११ 1 सोऽपृच्छदथ सून क्षुधितो `
भक्षयामि किम् ।\ ञेलोक्यं भोक्तुकामोऽहं भवद्भ्यां विनिवारितः) १२ ॥
क्रोधक्षुधौ मां बाधेते पात्ये ते कुत्र ते मया ।। सोमसूर्या ऊचतुः । कोपदष्टेनौ `
विविधादतिपाताडवानभत् ।। १२ ।। व्यतीपातस्ततो नाम्ना भवान् भुवि भवि-
` ष्यति । सर्वेषामपि योगानां पतिस्त्वं भविता सदा ।। १४ \। तेषां सध्ये पुण्यतमो
भविष्यत्सि न संशयः । यस्मिन्काले त्वदुत्पत्तिः शुभं कमं न कारयेत् !\ १५।॥ |
स्नानदानादिकं किचित् कृतं चेवाक्नयं भवेत् ।। इति ताभ्यां वरो दत्तस्ततः प्रभृति `
योगराद् ।। १६ ।\ त्रिषु लोकंषु विख्यातोबहुपुण्यफलम्रदः ।! व्यतीपात महावीर
व्रैलोक्यव्यापक प्रभो ।\ १७ ।! त्वयिप्राप्ते नरः [किचिहातव्यं शुभकांक्षिरि
*- =
नमो बं पितर स
ष श ने छ र क निपात्यताम् (६.४८.५१ क भ ।
जनः ।। दत्तो भवद्धचामधना प्रसादः
क्रियतां मम ।। १९।। रवीन्द्र ऊचतुः \\ स्नानदानजपहोमूर्वकं यस्त्वदीयसमये श |
। सभ स तस्य पुण्यमिह ते प्रसादतोऽनन्तमस्तु सुत नो ह्यनुग्रहात् ।। २०
तत्काले तव विदधाति पूजनं यस्तस्येष्टं भवतु भवेत्स भद्ररूपः।। पुत्रायुर्धनसुल- `
कीतिपुष्टिरूपारोग्याद्यं गुणिजनवल्लभत्वपूर्वम् ।। २१ । धरण्युवाच \! अस्या्च- `
नर्विधि बूहि विस्तरेण जगद्गुरो ।। कृते तस्मिन्त्रते देव कि फलं प्राप्यते नरैः `
।॥ वराह उवाच ।। यस्माच्च कारणाद्भूमे व्यतीपातः स उच्चते) जिते
नाच्येते व्यतिपातः स विधिः श्रूयतामिह ।\ २४ । शुभे व्यतीपातदिनेऽव- ४ ५
दुक्तं च समासतः ।। २३ ।। विस्तरेणाचनफलं कथितुं केन शक्यते `
` ब्रतानि )
(९३७)
नमस्तेऽस्तु व्मतौपात सोमसुत प्रभो ॥ यहानारि कृतं किचित्तदनम्तमिहास्तु
सर्वेपापश्यो भवेत् \। २९ ।। यदि द्वितीये च दिने व्यतीपातो भवेन्नहि ।\ तदय
र्वोपवासस्तु तदद्यात्सकलं गुरोः \३०।। पारणं व्यतिपातान्तेत्रैवा कर्यातसंपराय
गोमयम् ।! अथकरिर
दश्वा उपवासं समचरत् ॥। कुयदिवं मासि मासि व्यतीपातांस्त्रयोदज्ञ ३२ `
चतुदेशं तु सप्राप्तं कुयादुच्ापनं बुधः \\ व्यतीपाताय स्वाहेति क्षीरवक्षसमिच्छतम्
वा पञ्चरत्नाठचं सुपुष्याक्षतमञ्जलिम् ।। प्रक्षिपेत्ततक्षणादेव `
न्दिने धात्रि व्यतीपातो भवेद्यदि । ३१।\ तत्रेवाह्धितदा `
३३ ।! आज्यक्षौरतिलानां च होतव्यं वै शतं हतम् \\ शकंरापूणेकुम्भेनसह `
चोपस्करेुताम् ।। प्रतिमां काञ्चनीं भक्त्या प्रदद्यादव्रतदेशिने ।\ ३४।। कन्दे `
व्यतीपातमहं महान्तं रवीन्दुसुनुं सकरेष्टलब्ध्ये ।। समस्तपापस्य ममक्लयो ऽस्तु
पुण्यस्य चानन्तफल ममास्तु ।। ३५ ।\ इति समीयं गुरं परिपुज्य तं कटककुण्डम `
कण्ठविभूषणेः \\ सकलमेव समाप्य यथोचितं तदुपलभ्य फल लभते महि ।।३६॥
गां वै पयस्विनीं दद्यत्सुवणेवरदक्षिणाम् ।! तस्मे शय्यां प्रदचाच्च सारदारुमयौ ` |
` वृढाम् ।। ३७ ।। उन्तफ््रवितानाढचां हेमपटररखंकृताम् ।। हंसत्लीप्रतिच्छन्नं ` ष
श्युभगण्डोपधानकाम् ।। ३८ ।॥ प्रच्छादनपटीयुक्तां धपगन्धाधिवासिताम् ॥ `
ताम्बूलं कुंकुमक्षोदं कपूरागुरुचन्दनम् ।\ ३९ ।! दीपकोपानहौ चतर प्रदद्याच्चाम-
रासन ।। देहान्ते सू्यलोकाय विमाने रत्नसन्निभः ।॥ ४० ॥। अप्सरोगणसंभोगे- `
गौतनृत्यविलासिभिः ।। गत्वा कल्पाबुंददातं मोदते त्रिदरछाचितः ।। ४९१ ।! तदन्ते
राजराजः स्यादूपसौभाग्यभाग्भवेत् ।। कीर्त्याय गुणपुत्रायुरारोग्यधनधान्यवान् `
॥ ४२॥\ प्रतापादिसहश्वययुक्तो भोगी बहृश्रुतः ।। जनसोभाग्यसंपन्नो यावज्ज- ¢
न्माष्टकायुतम् ।\ ४३ ।। दशे ददागुणं दानं तच्छतघ्नं दिनक्षये ।! हतध्नं तच्च
संक्रान्तौ शतघ्नं विषुवे ततः।\४४।। युगादौ तच्छतगणमयने तच्छताहतम्।। सोमग्रहे ८
` तच्छतध्नं तच्छतघ्नं रविग्रह ।\ असंख्येयं व्यती
;, ६.
पाते दानं वेदविदो विदुः।। ४५।
` उत्पत्तौ लक्षगुणं कोटिगुणं प्रमणनाडिकायां तु । अरुदगुणितं पतने जपदानाद्य- `
विक वि तिर्नाडी ¢ मणं त्वेकविक्षतिम् ॥। व्यतीपातस्य `
1 द 0 व्यतीपात ४. 1
श्युणोति वैतत्कथयति पयति कारयत्यवहयम् ।। रविशक्िदिवमाप्य सोऽपि
देवेिचिरसमयं परिपज्यमान आस्ते \\ ५१।। इति वराहपुराणोक्तं व्यतीपातव्रतम्।\
( व्यतीपातत्रत-युधिष्ठिरजौ बोले किः, ह देव ! आपके मुखसे मेन बहुतसे ब्रत सुन, जब जाप उद्या" =
` पन ओर फलके साथ व्यतौपातका व्रत कटहिये ।\१।। कृष्णजी बो कि, पहिले व्यास देवजीने अपने वंशके
चटानेवाठे शुकके लिए जो त्रत कहा था उसे मे कहता हं, हे राजसत्तम ! सुनिये ।\२\। शुक बोले कि है तात!
. ` व्यतीपातको पज्य लोग क्यो कहते हँ हे महामुने ! उसके कियेसे क्या फल होता है ? यह विस्तारके साथ
कषये \\३॥\ व्यास बोले कि पहिले भूमिने वाराहभगवान्से पुखा था उन्होने व्यतीपातका सारा त्रत सुनाया
था ।\४।। परलोकके हितके लिए उस द्रतको मे कहता हुं धरणी बोली कि, जो जपनं व्यतीपात कहा है उसका
ध स्वरूप क्या है, ।।५।। बह किसका पुत्र है क्यों पूज्य है पूजनेसे क्या फल होता है ? ्रीवराह बोरे कि, जब बृह्- `
स्पतिकी पत्नी *ताराको चन््रमानें पकड़ छिया 11 ६।। मित्रभावसे सुय्यने कहा कि, बहस्पतिकी दारको छोडदे
उस समय चनद्रमाने कुपित होकर सूर्यको देखा ।\७।। उस समय रविने भी कध होकर सोमको देखा । कूद
सौम सु्येके आपसके दृष्टिपातसे \\८।। मुख फाडा हुजा घोर पिगल नयनोका पुरुष उत्पन्न हुमा । वह ओष्ट
चवा रहा था, दांत बडे-बड़े थे ! भौए भौर मुख टेढा था ११९1 पिगल रंगकी मृ ओर बालको नौके थी
। ( लंबी भोए एवम् पेट कज्ञ था, वह् कराल बड़ी जौभका तथा सुय्यं अग्नि ओौर यमके बराबर था ।१०।। जठ
[वि ति
क
4 ५५.
# पुराणोमे एसी रहस्यमयी कथाएं प्रायः आजाया करती हं, उनके प्रचलित अथे नहीं तो अनथं- $
करके अपनी कुत्सित मनोवृत्तिका परिचय दिया करते ह । इस ब्रलराजमं भी कई स्थरोमं रे एसे प्रकरण न
अह् जिनका वहांही वास्तविक तात्पयं ह्म वेदसे मिला यिश्रखथं करके समञ्चाना आवश्यकथापर सवेत ॥ ५ |
ह्म एसा विस्तारके भयसे नहीं कर सकते हैँ इस प्रकरणम ताराका सोमसे हरण तथा उनके व्यि सू्ैचंद्र॒
माका विवाद देख रहां हुं जो प्रचक्िति अथंको देख पुराणोपर आक्षेप करते हुए वैदिक बनते हँ उन्हे हमयही ।
प्रकरण वेदमें भी दिखा देते है कि, अथर्ववेद अनृवाक चार सक्त १७ के अठारह म॑त्रोमे इसका प्रकरणञआया `
है तेऽवदन् प्रथमा ब्रह्य किल्बिषे कूपारः सलिलो मातरिद्वा, बीड्हेरास्तप उग्रै मयोभूरापोदेवीःप्रथमजा |
` ऋतस्य ।१।। सोमो राजा प्रथमो ब्रह्मजर्या पूनः प्रायच्छहृदणीयमानः । ब्राह्मणके अपराधमे आदित्य वरुण
क न ~ इ । र ॥ ८ "= ६ ॐ == ब ~ वि = सक ~~ . ~
वायु अग्नि, ओर सोम आपसमें क्रगडुने रुगे । क्योकि सोमराज (चन्रमा) मे निरंज्जहो ताराको पक्डल्यि |
कि एसा करनेसे सबका विस्तार बढ़ाना है एक भागवतका ही समन्वय. उस रीतिसे कर दीजिये | | द
था, ब्रह्मजायाका तारसेही तात्पयं है क्योकि “ यामाहृस्तारकेषा, जिसे तारा कहते हं । ^तेन जायामन्वविन्दत् ` `
बृहस्पतिः सौमेनतीतां जुह्वं न देवाः '" इम प्रयतनसे सोमकी ली हुई बृहस्पतिकी जाया बृहस्तिको इस तरह
मिकगयी जंसे विधिपूवेक किथा होम देवोको मि जाता है दस तरहं बुधकी उत्पत्ति आदि तथा चन््रवंशका `
उद्भव सव इससे सिद्ध हो जाता है जिसकिसीको इस विषयका विस्तार देखना तो हो हमारी इसी विषयकी `
पृस्तकाविकोमे मिल सकता दै यचपि पिले हमारी एेसी धारणा थी कि जहां कहीं संदिग्ध विषय बवे वहंकी `
| वेदसे माकर मिश्र वास्तविक अथं किया जाय पर हमारे वृद्ध पियूषपाणि पं परमान्दजीने हमे यही सम- ४
सवका दिग्दशंन हौ जायगा । इलाहावादसे प्रकारित होनेवाटी आधुनिक किसी वीसवीं सदीके ऋषिके मतके `
अनुयामि्योकी टीकामे इस प्रकरणक ब्रह्मविद्यापर रुगाया है उसके छिये यहां उनसे विवाद न कर यहां कहते `
` दसी तरह “वाचं दुहितरं तन्वीं प स्वय स्वयं स् मोत हसती रीं मनः
` चाये । विना पुरा समे चाँदपर
परही विद्ोष रूपसे ध्यान दियाहै।
र्र् ता || 0 त् | 1 | | | | हिन्दीटीकास | र ॐ | 29१ । ) ६ उ स हत । ) 4
4. 0 . ०4 र व व प
आंखे, चार मुंह तथा अठारह भुजाओं था, वह् तीनों लोकोको खाने दौड़ा किन्तु सूर्यं चनद्रमाने रोक `
दया ।\११।। उसने उन दोनो पु कि, मं भृखा हुं क्या खाऊ, में तनो लोकोको ला डालना चाहता था, `
आपने रोक दिया \\१२}। सृते कध अर भूख सता रही है, उन्हुं मे कहां पके ? यह सुन सोम सूयं बोले कि, ` ्
आप हम दोनोकौ अनेक तरहकी क्रोध दृष्टि हए हौ \\१३।। इस कारण आपका नाम व्यतीपात होगा, आप `
कदा सब योगौके पति होगे ।।१४।। तथा सद योगम अत्यन्त पुण्यरूप होगे इसमें सन्देह नहीं है जिस समय `
आपकी उत्पत्ति ह उस समय संगलकश्यं न रे६११५।। किन्तु उस् ससय जो कुछ स्नान आदि किया नाता है वह् `
सब अक्षय हौ जाता हं “ जौ यद्ित्र कथं करते हू हे व्यतियात ! वह तुच व्यतीपातके किए अच्छा है) तथा न
जो तरेमं पाप करते हं उनके अच्चको सकट कर जा । वहाही तेरा कोध पड़ना चाहिये, उशी आश्षयक पाठ
जरयाहं कल्पद्रपम रखा है ” यहु वर उदे भिर जथा उसी दिनसै यह योगोका राज व्यतीपात ।। १६।1 बहु
तसे पुण्यफल देनेवाला प्रसिद्ध हो गयः, हे व्यदीपत ! हे महावीरा प्रभो! हे तीनों लोगो व्यापक ! ।\ १७।।.
जब तू भनुष्योको मिल तो तुल्लमे कल्याण चाहुनेवालेको कुष दान अवश्य देना चाहिये । उनके विपे हुए `
दानको प्रसन्न हौकर खा, नह ते अपना कोध उनयर पटक ।\ १८! व्यतीपात बोला कि, मे अपने दोनों पिता-
ओको नमस्कार करता हं । आने मुके कोधके डलनेकौ जगह मौर भोजनदे दिया है अब ओर भी कृ्टकृपा = ` |
करिये \\१९॥। सथ्य चांड बोले कि, स्नान, दान, जप, होम, इनके साथ जो तेरा आराधन करे, है सुत ! यहं
१ हमारा तुक्च वर है कि, तेरी पासे उनका अनन्त फल ही जाय ।\२०।। जो आपक्छा उत सभय पजन करना ` ॑
वह् कल्याणरूप ही हौ जायसा । उसे पुत्र आयु, सुख, कौति, पुष्टि, रूप, आरोग्य ओर गुणौजनोकाष्यार आदि `
अनेक भव्य गृण हो जागे २१३! धरणी बोली कि, है जगद्गुरो ! इसके पूजनकी विधि कहियि, इसव्रतके `
करनेसे मनृष्योको क्था फल मिलता है ? ।\२२।। वराह गोले कि, हे भूमे ! निस कारणसे वह् व्यतीपात ` 5
भजसे है क्योकि व्यतीषातकौ अष्टादकञ (१८) भुजाभोको
कहा जाता है जो उसके पुजनसे फल होता है बह भी कह दिया गया है ॥२३।। विस्तारसे इके पुरे. अर्चन `
एलको कौन कह सकता हं पर जिस विधित व्यतीपातकी पजा होती ह उचे पुनिये ॥२४॥। व्यतीपाते बुभ- =
` दिनमें पंचगव्य श्िरमे लगाकर पौछे बड़ी नदीम स्नान करना चाहिये । पवमानसुक्तका जयने वाखा उपवास `
| करे, तथा हे व्यतीपात ! तेरे लिये नमस्कार है \*२५।) तबक पात्रसे ठके हुए सक्करके भरे घरपर सोनेके |
कमलके ऊपर सोनेकौ अष्टभुज नरके आकारकी सूति स्थापित करे ॥२६।। अष्टासुजका तात्पर्यं अष्टादज्ञ =
मोको उत्पत्तिके समय कहा है \ बाकौ नियोग वक्य
कि भगवद्गौतामे “ चत्वारो मनवस्तथा " इर्ते भये- =
` तेरे लिये नमस्कार है जो आयमें भे दान आदि ठ
समेत पुष्प ओर गक्षतोकी अंजलिका परक्ेप करे १
। दिन व्यतीपात ह तो पहिले दिनडपवास करे
1 । करके पारणा करे । हे धात्रि { यदि एकी दिनं
४१ 01५ क णात ज्वन्निर सत्री
5
वीप ॥ पातके अन्तमं गोमयकाप्र्नत |
॥ दिन दान ओर उपवास होना चाहिये) |
न 11 व्रतराज [व्यतीपात
कयुर, अग ओर चन्दन उपस्थित हों \ 1३९११ दीपक, उपानह् छत्र चामर, आसन दे, देहके अन्तमे सूयं ।
„ ` लोकके लिये रत्नजडे चमकीरे विमानोपर बैठकर ।\४०।। अप्सराजोके संभोगके साथ नृत्य देखता एवं
गानेबजाने सुनता हआ वहां पहुंचता है'देव उसकी सेवाएं करते हं तथा वहां एकसौ अर्बुद कल्प रहता है।\४१॥
` उसके अन्तमं राजराज एवं रूप सौभा्यकाला होता है । यकस्वौ एवं गण, पुत्र, आयु आरोग्य, धन ओर `
घान्यवाला ह्येता है ।*४२। प्रतापी, महाएेहवयेक्ञाखी, भोगी ओर बहुश्रुत होता है \ जन ओर सौभाग्यसे ए
संपन होता है, जबतक कि, वह आठ जन्मनहीं भोग लेता ।\*४३१। दान तारतम्य दशेमे सौगुना दान तथा
उसका सौगृना दिनक्षयमे उसका सोगुना संक्रान्तिके दिन उसका सौगुना विषुवत उसका सौगृना युगादिमे तथा = `
` उसका सौगुना अयनमें उसका भी सौगुना चद््ग्रहणमें उसका सौगुना रविग्रहणमे दान देनेसे फल्होताहैपर |
व्यतीपातमें दान देनेसे तो अनन्त संख्या दानक होती है! एसा दानके तारतम्य जाननेवारे वेदवेत्ताकहा करते `
है 1४६) ।४५॥) व्यतीपातके विभाग उत्पत्तिके ससय लाख गुना, भ्रमणमे कोटि गुणा एवं पतनकारमे दान = `
करनेसे अरब गृना फल होता है तथा पतितपर जपदान अक्षय हो जाता है ।॥४६।। बारईस घड़ी जन्मकालहै =
तथा इसके पीछे २१ घड़ी भ्रमणकाल है एवं सत्र घडीसे दशका पतन तथा ७ का पतितकाल है \\४७।।जो
व्यतीपातके सभय दान.किया जाता है उसे वारंवार रविसुथं देते रहते हे । बह सौअरब कल्प बता रहताहै `
है घटता नहीं ।॥४८।। इस कारण ह महि ! त् व्यतीपातकी पुजा कर । जो वुक्षे अनन्त पृुण्यकी इच्छाहोतो, `
जोत यह् चाहती हो कि, मे स्थिर ओर सवके धारण करनेवाली बनी रहं तो ।\४९॥ जो व्यतीपातके कालको `
गिनकर जानते ह उनके सब पापोको भानुचन्द्र नष्ट करते रहते हे ।\५०।। जो कोई इस व्यतीपातको च्खिते `
पढ़ते सुनते कहते कराते ओर देखते हे, बे सुं चन्द्रक लोक पहुंच चिरकालतक देवे पुजित होकर रहतेहे `
।\ यहु वराह पुराणका कहा हुजा व्यतीपातकातब्रतपुराहृजा।\ ` ` 4
0/1 अथ नारदीये व्यतीपातत्रतम् ५. ए
व युधिष्ठिर उवाच ।। येन ब्रतेन चीर्णेन न पदयेमशशासनम् ।। परिपच्छा- 1
म्यहं विप्र व्रतानामृत्तमं ब्रतम् ।) 1! १\) तद्व्रतं ब्रहि विप्रषें कृत्वा जगतिवे
ए क ~ त ल ॥ ठ
वनमध्ये चरन् राजा दृष्ट्वा तत्रेव सूकरम् ।। दग्धपावकटि चैव दण्ध- `
५ ोदरम् । ४) दृष्ट्वा तथाविधं तं तु कृपां चक्रं न॒पोत्तमः ।।\ केन कम-
विपाकेन ह्यवस्थां प्राप्तवानयम् ।। ५ ।। अहो कष्टमहोकष्टं सूकरेणोपभज्यते ।॥ `
पत्मन भोक्तव्यं कृतं कमं जुभाशुभम् ।। ६ ।। इत्येवं मनसि ध्वात्वा राजा तं ` ॥
हं सुकरम् ।\ इदृशी किमवस्था ते तन्मे बूहि च सुकर ।७।। तच्छ त्वा नपते-ः `
४ स सन्मुकरो मुहुः ।। स्मृत्वा पुरा कृतं करम प्रत्युवाच नपं प्रति ।। ८ ।! श
पते गृह मम ।\ आगतो चयन
( निराकृतीत्त्यन्तं र [3 ;॥ ? मुन - | स
(1 पिता च विज्ञेयो माता मन्वादयस्तथा ।। भगिनी दादी ज्ञेया व्यतीपातस्तुसं दर
ध 1111 क नयः ०१३ या ५
(4 20.54 न~ {2.4 ध - ५ 9 1; ४५ न वि 634; 8 प
[1 ४
१३ ।! तन्मेररूपं भवति प्राप्स्यसे त्वन्यजन्मनि ।\ कुपितेन मया तस्मै
निष्टुरा वाक् समीरिता ।। १४ ।! ततदच कुपितो विप्रो मम शापमथाददत् \\ `
आद्ाग्िद॑हते यद्रन्ममाद्धानि पृथक् पृथक् ।! १५।। तथेव तु तवाङ्कानि दावाग्निः
` पुरुषाधम ।। अरण्ये निजेल देशे निजने दरमर्वाजते ।। १६ ।। तत्र सकरयोनौ त्वम्- `
त्पन्नो दुःखमाप्नुहि ।! प्रसादितो मया पर्चात्पुनरण्युक्तवां स्तदा ।! १७ ॥}
1. उद्धरिष्यति राजात्वां सूकरत्वे दयापर इत्यक्त्वा च जगामाथ |
अन्यवेहयगृहुं प्रति ।! १८ ।। तेन जपेन वे राजन् सुरकरत्वमवाप्तवान् ।। अहं `
दुःखी च सञ्जातो विजने निजंले वने ।! १९ ।\ राजो वाच । केन त्वं मुच्यसे `
पापान्ममाचक्ष्वेह॒ सुकर ।\ येन शक्नोम्यहं कतुं तव शापस्य सश्षयम् \\ २०।
वराह उवाच ।\ शरूयतां मम राजेन्द्र मुक्तिः स्याद्येन कर्मणा ।। ग्यतीपातव्रतं नार
कृतं राजंस्त्वया पुरा ।! २१ ।। यथा माता सुतस्येह सवत्र सुखकारिणी ।! तथा .
व्रतमिदं राजघ्निह लोके परत्र च ।। २२ ॥ यथेवाभ्युदितः सूर्यो ह्रेष च तमो `
दहेत् ।। व्यतीपातस्तथेवेह सवेपापं व्यपोहति ।\२३।॥ #यथा विष्णुदेदातीह नर्णां
१. परमनिवतिम् ।। ददात्येवं न सन्देहस्तथा त्रतमिदं शुभम् ।\ २४ \ हतमिन्दुक्षये ` |
दानं सहसरं तु नु दिनक्षये ।! विषुवे शतसाहस्रं व्यतीपाते त्वनन्तकम् ॥\२५।८्रा-
` विशतिः समुपत्पत्तो श्रमणे चैकविडातिः ।॥ पतने दश्च नाड्यस्तु पतिते सप्तना- |
डिकाः॥।२६।।यत्फलं लक्षमुत्पत्तौ सखरमणे कोटिरुच्यते पतने ददाकोट्यस्तु पतिते
| दत्तमक्षयम्।।२७।। (आकृतिमच्छंना काष्ठा हेलवुल्याश्च नाडिकाः।। लक्षकोटच-
| बंद्गुणमनन्तं स्याद्यथाकरमम् ।। व्यतीपातविभागेषु दानमुक्तं नृपोत्तम ।! }) जमा |
(1 ( ॥ २८ ॥ पितर्यक्तं शतगणं सहस्र मातरि स्मतम् ॥, भगिन्यां दशसाहलं ५
दत्तमक्षय् ।। २९ ।॥ विधानं व्यतिपातस्य श्यृणु राजन् प्रयत्नतः
| फालने मागं वैशाखे श्रावणेऽथवा ।\३०।। व्यतीपातो दिने यस्मिन्नारभेतद्त्रत 1
(6) ब्रतराजं | [ व्यती ध चत
ण 4
त प | वायव ----------------------------~-~~ ~ ~ ~~~ ~~~ ~~ नः 2 त ५०
` वित्य्थः \! एवं संवत्सरस्यान्ते शदेवस्या्च तु कारयेत् ।॥३८।। शंखचक्रगदापर्णण
पद्महस्तं हिरण्मयम्। ।वस््रयुग्मेन संवेष्टच पूजयेद्भरडध्वजस् हेमदानंततः
कुर्याद्यथाविभवसारतः \। मंत्रेणानेन विधिवत्करे धृत्वा सुवणम् ।\४०।। नमस्तं-
स्तु व्यतीपात सोमसूरयसुत प्रभो ।\ दास्यामि दानं यत्किञ्चित्तदक्षय्यमिहास्तु
मे ।} ४८१) गञ्जामाच्रमपि स्वल्पं हेमं विप्रकररजपतस् ।। हमाद्विक्िखराकार-
मनन्तफलदं भवेत् ।! ४२ । इदं क्षेत्रं कुरकषेत्रं साश्वास्मारायणो द्विजः ।\ सुव- `
रण॑स्य च दानेन प्रीतो भूयाज्जनादेनः ।। ४२ ।। तव हस्तो व्यतीपातो वेधृतिह्चरणौ `
स्मतौ ।\ संक्रान्तिहः दयस्थानममा वे नाभिरुच्यते \\ ४४ ।। पृष्ठं च पणिमा पञ्च `
पर्वण्यिद्धानि पञ्च ते \। व्यतीपातदिने देव किञ्न्चि्प्रे सर्मपितम् ।। भवत्वनन्त- `
फलदं मम जन्मनि जन्मनि ।\ ४५ ।) एवं प्राथ्यं हृषीकं नत्वा चेव पुनःपुनः `
तत्सवं गुरवे ददयाच्छोत्रियाय कुटुम्बिने ।! ४६ ।! ब्रतोपदेष्टरेविप्राय पुराणज्ञाय 1
भक्तितः ।। ब्राह्मणान्भोजयित्वा तु ब्रतमेतत्समापयेत् \\ ४७ ।। सुकरउवाच ।॥
इदं व्रतं त्वया देव गृहीतं पूर्वजन्मनि ॥! स्वर्गापव्ंदं नृणामनन्तफलदं शुभम् `
॥\ ४८ ॥ तेनैवमुक्तो हर्यद्वः सुकरं वाक्यमन्नवीत् ।! मया कृतमिदं स्वं तत्फलं ते
ददाम्यहम् म्यह ह ।। ४९ \। एवमुक्त्वा नृपश्रेष्ठः सूकराय फलं ददो ।\ तत्क्ञणात्तेन पुण्येन `
~~~ ~ ~
8 र त तत्तमम् ।। इहरोकं च सुखदं स्वगमोक्षप्रदायकम् ।! ५२ \\ माकेण्डेय उवाच ॥ |
अतस्त्वं कुरु राजेन्द्र व्यतीपातन्नतोत्तमम् ।। स्वेयापक्षयकरं नृणां भवति सवेदा : ।
वाञ्छ् ोमानिह् चैव सुखी भवेत् ।। ५५ ।। इति नारदपुराणे व्यतौपातब्रतम् ।\ 9
जथ प्रका रान्तरणोद्यापनम् ।। कुयदिवं मासि मासि व्यतीपातास्रयोदज्ञ !। चतुदश ` | |
गणेशपुजनं कार्यं स्वस्तिवाचनमाचरेत् ।\ नान्दीमखास्ततोऽभ्यच्यं
वरतानि हिन्दीदीकासहित (९४३)
स्थापयेत्तत्र कुय्रह्याचयाबाहनं ततः ।। ततः परजां विनिवत्यं महासंभारविस्तरः।॥
अघ्यं चापि ततो देयं सुगन्धः कुसुमेजंठेः ।! गृहाणाध्यं व्यतीपात सोमसूरयसुत `
प्रभो ।! सप्तजन्मकृतं -पापं त्वत्प्रसादत्प्रणदयतु ॥। मंत्रेणानेन देवाय दद्यादर्घ्यं
समाहितः ।\ ऋचा सोमो धनुमिति होमं सोमाय कारयेत् ।। आषष्णेनेति मन्त्रेण
सूर्याय विधिवन्नरः ।! अदवत्थाकंसमिद्धक्च शतमष्टोत्तरं तथा \। इदं विष्णुरिति
मन्त्रेण होमः स्यात्पायसेन च ।। व्याहृतीनां फलहोम कुर्यादष्टोत्तरं शतम् ।। त्रयो-
दल ब्राह्मणांदच भोजयेल्लडडपायसेः।\ एवमाराधितान्विप्रान् दक्षिणाभिश्च तोष-
। राजन्वेधव्यं स्त्रौ न नाप्नुयात् । अकालम्त्युर्दारिद्रं शोको दुःखं न जायते
। संपूर्णम् ॥
येत् ।\ आचार्यं पजयेत्पञ्चाद्गां च दद्यात्पयस्विनीम् ।। इत्थं व्रतं तु यः कु्य्षिरो ` |
भक्तिसमन्वितः ।। कोटिजन्सकृतेः पपेर्मुच्यते नात्रं संशयः ।। अस्मिन्कृतं ब्रते
स्वंसौख्यमवाप्नोति व्यतीपातप्रसादतः ।। इति प्रकारान्तेरण व्यतीपातव्रतोद्यपनं `
नारदपुराणका कहा हओ व्यतीपातका व्रत-युधिष्ठिरजौ बोरे कि, है महाराज ! जिस बतके कियेसे 1
नरकन देले, हे विप्र ! एसा उत्तम ब्रत आपसे पूता हं १ हैवि्रषे ! सौ संसारपर कृषा करफे उस ब्रतको. = `
| सुना दीजिये । माकंण्डेय बोले कि, है राजन् ! सुन, यह ्रत पहिले ह्येश्वने किया था ॥॥२॥ उस्र राजाने इस `
| ` ब्रतको दुखी सुकरकेलिये दे दिया एक दिन राजा लिकार खेलने गया ।।२।। वनमं घूमते हए बही एक सुकर
| देखा उसके पैर कटि कंठं मुख ओर उदर जल गये थे ।\४।। उसे वैसा देवकर राजाने कृषा कौ जौर विचारा = |
| | कि, यह् किस कमंसे एेसा हयो गया है ? ।\५॥। बड़े कष्टकी बात है यह सुकरं बड़ी तकलीफ भोग रहाहै अपने ४. ।
| किये अच्छे बुरे कमं सबको भोगने पड़ते हं ।\६।। इस प्रकार मने विचार कर राजाने उस सुकरसे कहाक्र, `
न तरा यह हाल क्यों हुआ ? ए सुकर ! यह बता ।।७।। राजाके वचन सुनतेही शकर आहं उनं क्था पहिले 9
। किये कर्मोको याद करके राजासे बोला कि ।८!। ह राजन् ! मे पहिले जन्ममे घन बल्वाला वश्य था म॑ने |
| आश्मेधी ओर आभिततोको कभी कछ नहीं दिया ॥९॥। पुराण जौर श्रुतियोके कहै बहुतसे घमसुनेतोभौ
| भुन्न पापौसे कुछ भी अपना भला न हज ।१०॥ मे आ्ञामं बघा हुमा सदाह शुभ शस्तरसे रहित रहा जता = |
| था) मैने सदा पापहौ पाप किया, कभी पुष्य तो कियाही नही
।११।। एक दिन एक ब्राह्मण व्यतोपतकेदिन = |
| मेरे घर आया । उसने मांगा पर मेने कुछ न दिया ।\१२।। यही नहीं विन्तु मेने उसका बडी निष्टुर वचनोसि । ( ५
निराकरण किया! बह बोला कि, अरे खल ६ ` आज व्यतोपात है कुछ भी ३ ३ ।।१२। 1 बराबरतुक्े `
। दे दिया कि, जते भरे मगोकं
7
जन्ममे मिलेगा, मने कोधमं आकर उससे
कठोर वचन कहे १।१४।। इससे नाराज होकर ब्राह्मने शाप |
र को आशाग्नि अलग-अलग जला र है ५ १५।। उसी तरह तेरे ^
जके । जलहीन निजंन उजाड अरण्यम ।।१६।\ तुम सुकेरकी यो
[कोः -वरतराज 4: " [व्यतीपात `
दान सोौगृना तथा दिनक्षय ( संध्या ) मं हजार गुना एवं विषुवमें लाल गुना तथा न्यतौयातमे अनन्त गन
होता है, ।।२५।। बाईस घड़ीका उत्पत्ति, इवकौसका अरमण, दद्षका पतन तथा ७ घडीका पतित काल होता `
है ।\२६।॥ लाख गुना उत्यत्तिमे करोड गुना ्रमणमं, द्स करोड़ गुना पतनम तथा पतितमे अक्षय होता है
।।२७।। ( कोई वाईस घड़ीकौ आरति इवकौस घड़ीकी मृखना दज्ञको काष्ठा सतह चेल तुल्य हे । इनमे
` दिया दान रमसे लाख कोटि अरब ओर अनन्त गुना होता है ) अमा पिता तथा मन्वादिक माताए हे । बहनि
दादी है उनका भाई व्यतीपात है ।\२८।। पितामें सौगुना, मातामें सहल गुना, बहिनमे दस हजार गना एवं
` भार्ईमं दिया दान अक्षय होता है ।\२९॥ हं राजन् \ प्रयत्नकते सथ व्यतीपातका विधान सुन । माघ फाल्मनत `
` मागशीष, वैशाख ओर श्रावण इन महीनोमें ।३०।॥ निस व्यतीपाते दिन इस उत्तम व्रतको करे उसं दिनि
एकाग्रचित्त हो पवित्र होकर व्यतीपातके व्रतम वैठे ।\३१।। पंचगव्य, दिल ओर आवलोते एकीग्र चित्त हो
स्नान करे पीछे सब अथोकि साधनेवा इस व्यतीपात त्तका संकल्प करे ।\३२।\ वार नक्षत्र तिथि न
चन्द्रमा कुछ न देखे ! जब श्रद्धा हो तबही व्यतीयातका व्रत करने लग जाय ।\३३।। बहुतसे ब्रत एवं अनेको `
दानोसे क्या प्रयोजन है ? व्यतौपातके त्रतके सबका फल पा जाता है ।\३४।। मनसे यह निश्चय करके व्यती ८
, प्राता व्रत एक वषं तक कसे इससे सब पाप निवृत्त हो जायंगे ।।३५।। उस दिन वेद वेदाद्धोके जाननेवादे- `
॥ ब्राह्मणको बला तिलो ओर गृडसे भरे हुए चौड मूंहके पात्रको गुरुके लिये दे दे ।३६।। उसी तरहदूसरेओर
तौसरे व्यतीपातके दिन करना चाहिये, चोभे व्यतीपातसे रेकर सब व्यतीयातको घृतलहित पायस देना ॥
। ` चाहिये ।\२३७।। क्योकि उत्तरोत्तरका तात्पयं चौथेसे अगा डीके सभी व्यतीपातोसे है । इस प्रकार एक वषं ध 1
व्रत करके विष्णुभगवान्की पूजा करे ।३८।। सोनेकी मति हो, शंखचक्र गदा पदा हाथमे लिए ए श रह
दो वस्त्र उदा वे ।।३९।। पीछे अपनी शवितिके अनुसार सोनेका दान करे । सुव्णको हाथमे घरफर इस मंते `
थना करे कि ।\४०।। हे व्यतीपात ! तेरे किए नमस्कार है, जाप चाद सुय दोनोके पुत्र हे जो मे कुछ दान `
दे रहा हूं बह सब अक्षय हो जाय ।\४१।। कमसे कम रत्ती भर भी सोना ब्राह्मणको दियेसे सुभेरुके शिखरे
बराबर अनन्तफल देनेवाला हो जाता है ।।४२।। यह क्षेत्र कुरक्षेत्र है । यह ब्राह्मी नारायण है।इससोनेके
। दानसे जनार्दन प्रसन्न हो जाय ।।४३।। हे भगवन् ! आवका हाय व्यतीपात, वेधति चरण, संकरंति हृदय ओर
अमावास्या नाभि है ।४४।। पणिमां पीठ इस तरह तेरे पाच अङ्कः हँ । जो व्यतीपातके दिन ब्राह्मणको `
कछ भौ दिया है उसका मुशे जन्म जन्ममे अनन्त फल मिले ।(४५।। इस प्रकार प्रार्थना करके हृषकेशको बरार
र् नमस्कार कर चहु सब वेदपाटी कुटुम्बी गुरुके लिए दे दे ।४६। जो कि पुराणोके जाननेवाले ब्रतका `
उपदेष्टा हौ, पीछे ब्राह्मण भोजन कराकर इस व्रतको पुरा कर दे । सुकर बोला कि, है राजन् ! यहव्रत आपने `
जन्मभे किया था, यह् स्वगं ओर अपवगं देनेवाला तथा अनन्त फल देनेवाला है ।४७। ।।४८। उसके = `
हय्येश्वसकरसे बोला कि मेने जो व्यतीपातका त्रत किया था उसका फल तुन्ने देता 1.41
र. सुकरको फल दे दिया, उसी समय उस पुष्यके प्रतापसे वह् पापोसे छट गया ।। ५०॥ सूक ` ;
योनिसे छूटकारा पा गया । सब आभरणोसे भूषित हो गया \ एवं दिव्य विमानपर चढ़कर स्वं चला `
। इस लोकमे सुख देनेवाले एवं स्वगं ओर मोक्षफे दाता व्यतीपातको कोई भी ब्राह्मण नही जानता `
गार, गोष्ठ, अपम शाः मदिर रतरः पायक सग्धि
च
|
|
"7,
..
बत्] हिन्दीदीकासहित ` ~ ` ९५५)
गार, गोष्ठ, अपने शुद्ध मंदिर, इनम पुष्पकौ संडपिका बनावे । उसे पटृकलसे वेष्ट करे, उसे सुन्दर सवैतो- = ¦
भद्रमंडल बनावे \ उसके पूवम शकरासे भरे हुए धटकी स्थापना करे ! उसपर तांबे वास था मिहरीके पात्रको `
स्थापित करे । भक्तिसे शक्तिके अनुसार तौननिष्क सोनेकी.लक्ष्मीनारायण की सुन्दर प्रतिमा व्यतीपातकेसाय `
स्थापित करे वैदिक भंत्रोसे ब्रह्मादिकोका आवाहन करे । पीछे बड़े-बड़े संभारोसि पजा पुरी करे ; सूुगेधित `
एर मिले हृए, पासीनेसे अध्यं देना चाहिय कि, हे सोम पके पत्र व्यतीपात ! ध्यं ग्रहण करिये तेर लिढ नम = `
` स्कार है, तेरी पासे मेरे सात जन्मके किए पाय नष्ट हो जायं \ इस भंत्रसे एकाग्र चित्त हो देवके क्िएअध्यं ` |
द“ ओम्सोमोधेन्ं सोमोऽभर्वन्तमाशुं सोमो वीरं कर्मण्यं ददातिसादन्यंदिदथ्यं सभेयंपितृधवणं यो ददाशदस्मै! `
जोकि सोमकोही दे सोमउसे धेन, शीघ्रगामी घोडा कमे करनेवाला वीर गृह कार्यमे कुशल यज्ञ करनेवाला `
सभाक योग्य पिताका आल्ञाकारी पृत्रदेता है । इस मंत्रसे सोमके लिए हवन करे ! आकृष्णेन इससे विधि- ` |
पूर्वक सूर्ये किए आक ओर पीपल्की समिधोसे एक सो आठ आहृतियां दौ जाये “ इदविष्णु ” इस मंन्ते पाय- = `
सका होम हो, व्याहृतियोसे एक सौ भाठ आहुति फलोंकौ दे, जड. खीरसे तेरह बराह्मणोंको भोजन करावे, इस `
भ्रकार आराधित ब्राह्मणोको दक्षिणासे प्रसन्न करे, आचाय॑को पुजा करे । उन्हे दूध देनेवाली गाय दे,जो सनुष्य = `
` भवितिपर्वेक इस प्रकार उद्यापन करता ह उसके कोटिजन्मके किए पाय नष्ट हो जाते हे, इसमे सन्देह नही है
` जोस्त्री इस व्रतको कर लेती है वह् कभौ विषवा नहीं होती } इस व्रतके करनेवाठेको अकाल मत्य दारिद्र ` 1
न) र १ कनही कन्हं हता । वह् व्यतीपातकी कृपासे सब सुख पा जता है । भ्रकारान्तरसे कह गये व्यतीपाते ब्रतका ध |
| उद्यापन पुरा हज, ध | |
4 मासोपवासत्रतम 4
अथ आदिवनशुक्लंकादशीमारभ्य कातिकश्ुक्लेकादशीपर्यन्तं मासोपवास
{९४६} त्रेतराजं ५ ० 1
विप्राज्ञया ततः \। आद्विनस्थामले पक्षे एकादश्यामुपोषितः \। व्रतमेतत्तु गृह्णीया- `
द्यर्वात्रशहिनावधि ।! वासुदेवं समुद्दिश्य कातकं सकलं नरः ।। मासं चोपवसदस्तु
स मुक्तिफलभाग्भवेत् ।\ अच्युतस्यालये भक्त्या त्रिकालं कुसुमः शुभैः ।\ माल्ती-
न्दीवरः पक्षैः कमलैस्तु सुगन्धिभिः ॥। कुडकूमागुरकर्पूररीविल्िप्य च सुगन्धकेः 1
नैवेदैधूपदीपादयेरचेयेत्तु जनादनम् ।। मनसा कमणा वचा पूजयंद्गरुडध्वजम् ॥ |
कुर्यान्नरस्त्िषवणं महाभक्त्या जितेन्द्रियः \। नास्नामेव तथालापं विष्णोः कुर्यादह्- `
निन्यम् ।। भक्त्या विष्णोः स्तुतिर्वाच्या मृषावादं विवर्जयेत् ।। सवेसतत्वदजायुक्तः
शशान्तवृत्तिर्राहिसकः । सुप्तो वा आसनस्थो वा वासुदेवं प्रकीतेयेत् \। स्मृत्यालोकन- `
गन्धादिस्वा्रन्नपरिकीतंनम् ।\! अच्स्य वजयेत्सवं ग्रासानां चाभिकांक्लणम् । ध |
गा्राभ्यङ्खः क्षिरोभ्यङ्खं ताम्बूलं च विलेपनम् ।। त्रतस्थो वजंये्सर्वं यच्चान्यत्रं
` निराकृतम् ॥\ ब्रतस्थो न स्पु्होत्कचिद्धिकर्मस्थान्न चालपेत् \! देवतायतने तिष्ठे
` गृहस्थश्चरेद्त्रतम् ।\ कृत्वा मासोपवासं तु संयतात्मा जितेन्द्रियः ।। ततोऽचेयेन्महा- |
भक्त्या द्ादक्यां गरुडध्वजम् ।। पुजयेत्पुष्पमालाभिगंन्धधूपविलेपनेः ।। वस्रालंकार- |
` वाद्यैश्च तोषयेदच्युतं नरः ।। स्नापयेत्तु हारि भक्त्या तीथेचन्दनवारिभिः ॥ `
चन्दनेनानुकिप्ताद्धान् पुष्पधूषैरनेकश्लः \। वस्त्रदानादिभिश्चेव भोजयेच्च द्विजोत्त-
मान् \\ दद्याच्च दक्षिणां तेभ्यस्ताम्बूकादि च दापयेत् ।। क्षमापयित्वा विप्राश्च `
विसृजेश्चियतो ब्रती । एवं वित्तानुसारेण भक्तियुक्तेन चेतसा । कृत्वा मासोपवासं
तु+समभ्यच्यं जनादेनम् । भोजयित्वा द्विजांश्चैव विष्णुलोके महीयते ।। कत्वा `
मासोपः प त ६ | सम्यक् त्रिशदहानि च ।। निर्वापियेत्ततस्तान्वे विधना येन तच्छृणु ।\ ५
विशुढकुलचारित्रान्वष्णुपूजनतत्यरान् \। पुजयि विता विषान् च्यक
ान्सुधीः ।\ तावन्ति वस्त्रयुग्मानि आ। सना सनादिः य लन् १ ग-
` मह् ।। ब्रह्मोवाच ।।व्रतस्थं कितं दृष्ट्वा मुमूषु बा तपोधनम् \। क
अतन् ~. 1 ट९१। = 11६ {हत्
दिग्यं सुशय्यापरिकत्पितम् ।\! तेन विष्णुपदं याहि सदानन्दमनामयम् ।॥! ततो ` |
विसजयेदिभ्रान्प्रणिपत्यानुगस्य च ।! ततस्तु पुजये-दुक्त्या गुरं ज्ञानप्रदायकम्
तां शय्यां कल्पितां सम्यक् गरं व्रतसमापकम् ।। प्रणम्य शिरसा ज्ञान्तस्तस्मेच `
प्रतिपादयेत् \\ एवं पुज्य हरि विप्रान् गरं ्ञानप्रका्यकम् ।। कृत्वा मासोपवासांश्च ` ८
नरो विष्णुतनुं विशेत् ।। कृत्वा मासोपवासं वा निर्वेप्यि विधिवन्मुने । कुलानां
ऋतमुद्धत्य विष्णुलोकं ब्रजेन्नरः ।। नरो मासोपवासानां कर्ता पुण्यकृतां वरः ।\ |
पितुमातुकुलाभ्यां च समं विष्णुपुरं ब्रजेत् ।। नारी या विधवा जाता तथोक्तव्रत-. त
चारिणी ।। कृत्वा मासोपवासं च व्रजेद्विष्णुं सनातनम् ।\ नारद उवाच ॥\ सुदृष्कर- `
भिदं देव मूच्छग्लानिकरं परम् \! व्रतं मासोपवासाख्यं भवित जनयतेऽच्य॒ते ।॥ `
पीडितस्य मृशं देव मुमूष््ितिनस्तदा । त्यागो वातुग्रहौ वाथ कितु कार्यं पिता-
१ &५ भे
पायथित्वा युतं क्षीरं रक्षेहत्वा फलानि च ।\ अहोरात्रं च यो नित्यं ब्रतस्थं परि `
पालयेत् ।। पयो मूलं फलं दत्त्वा विष्णुलोकं व्रजेच्च सः।। एवं मासोपवासस्थमाख्दं `
प्राणसंशये ।। अत्रतघ्नगणेदिव्येः परीप्सेदब्राह्यणानज्ञया ।। नेते व्रतं विनिघ्नन्ति `
कृपया ब्राह्मणा- `
स्तस्य कुर्युः सम्यगनुग्रहुम् ।! अमृतं पाययेतक्षीरमिच्छमानंसकृचिशि \! यथेह न॒
८, वियस्येत पाणं ्षुत्पीडितो व्रती ।। अतिमूच्छान्वितं क्षीणं मुमूषु लुप्पीडितम्।। `
हविधि्रानुमोदितम् ।। क्षीरौषधं गुरोराज्ञा ह्यापो मूलं फलानि च .1। एवं कृत्वापि `
` व्रतं विष्णुर्दाता विष्णुत्रेती तथा ।। सवं विष्णुमयं जञात्वा व्रतस्थं क्षीणमुद्धरत् ।॥
यदा मुमूरषुरि नष्चेष्टः परिग्लानोऽतिर्मच्छितः।। तदा समद्धरेत क्नीणमिच्छन्तं विमुखं `
। स्थितम् ।। परिपास्य व्रती देहं व्रतशेषं समापयेत् ॥। यथोक्तं द्विगुणं तस्य फलं
८ ` विप्रमुखोदितम् ।। इन्द्रियाथेष्वसंसक्तः सदेव विमला मतिः ।। परितोषयतं
{5४८ 1 ~: -व¶ सकरपर: `
नरः ।! सर्वं विष्णुमयं ज्ञात्वा चरलोक्यं सचराचरम् ।। यस्य शान्ता मतिस्तेन॒=_
पूजितो गरुडध्वजः ।। विष्णुलोकमवएप्नोति चक्रपाणेः प्रसादतः 1! विधिर्मसोप- `
वासस्य यथावत्परिकौतितः ।। सुतस्नेहान्मुनिशरेष्ठ स्वंलोकहिताय च ।। कृत्वा
विष्ण्वचेनं भक्त्या नरो विष्णुपरीं ब्रजेत् ।\ नाभक्ताय प्रदातव्यं न देयं इष्टचेतसे `
इति श्रीविष्णुरहस्योक्तं मासोपवासन्रेतं सम्पूर्णम् ।, (0
ध मासोपवासव्रत-आश्िवन शुक्लाएकादशीसे केकर कतिक शुक्छा एकाक्छी तक होता है । इसे
1 ५ हैमाष्ठिनं विष्णुरहस्यसे लेकर लिखा है । नारूदजी बोरे कि हे भगवन ! भे यव व्रतम उत्तम मासोपवासव्रतक्ी (1
विधि सुनना चाहता हं । इसको किस रीतिसे प्रारंभ करना चाहिये जिस रीतिसे कि, पार पड़ जाय जैसे पहिले
श्रारम्भ करे जिस विधिसे समाप्त करे, जितना कि, करना चाहिये पितामह ! वह सब बताइये ! हे निष्पाष,
` हे सुरभेष्ठ ! इस त्रतकौ विस्तारके साथ कहिये ! ब्रह्मा बोले कि, है नारद ! अच्छा सबका हित करनेवाला
` पुछा जसा वह है सुनिये, मं कहता हं- जसे देवोमं विष्णु, तपनेवाङे रवि, पवतोमं मेर, पक्षियोमं गरुडः तीर्थमिं
गंगा, प्रजाओसें बराह्मण होता है उसी तरह सब व्रतोमे यह मासोपवास श्रेष्ठ है, तब ब्रतोमें जो पुण्य तथासब |
तीर्थम जो फल है तथा सब दानोमे जो पुण्य है वह मासोपवाससे मिल जाता हे । विधिपूरवेकं किये गये बहुतसौ
क हष क्षणावारे अग्निष्टोमादिक यज्ञोसे बह पुण्य नहीं मिसता जो इस मास भरके उसयवाससे मिल जताः ५
चाहिये । वासुदेवके उदशसे जो एकं भासतक उपवास करे वहं ५ ` म॒वितिका अधिकारी होता है । भगवानके मंदि- 1
शिरमं तेलकौ सालिस, पान, विलेपन तथा दूसरी भी छोडी हुई चौजे इनमेसे किसी कोभी ` 1
रषसि अति ही कर, यदि गृहस्य दत वतको चरे त वें मदिर रनतेनवियताके
र | स करक वादके दिन भगवानका दजन करे पुष्पमालाः, गन्ध, धूपः विलेपन, वस्त्र ५ । ५८ ५ |
अच्युतको ६ कर दे, चन्दनके पानौसे भक्तिपुवेक स्नान करावे, ब्राह्मण भोजन करव, `
न ---- 5 ~
प. शिरीषं
५ ५. चाहिये, उसे ब्राह्मणोके मुखते कहलवानेते दना त फल होता है ! जो इन्दियोमे संसक्त नहो है तथासदाही `
बुदि पवित्र है जो सदाही विष्णुभगवान्को प्रसन्न करते रहते है, उन जितेन्वियोको उपवासकी विशेष अवश्य |
कता ही नहीं हे । उन्हं बहुतसे तीथं स्नान होम ओर जपतपसे क्या लेना है, जिन्हने अपने हदये आपही घं १. ६
| इन्दरियगणको जीत तया
भगवानृका निरन्तर भक्त है । उसे कयो कण्ट करना चाहिये ? जो विषिके साय व्रत करता है, बह उस अव्यय
विष्णुपवको पा जाता है, जहास कि, फिर आनाही नहीं होता ! जो शुद्ध चित्तसे विष्णुभगवान्का स्मरणं कः
चये प्रार्थना करे कि, भें विष्णलोकको जाता हं \ पूजित ब्राह्मण कहे कि, हे नरश्रेष्ठ ! जाभो जा लिए
भगवानृके अनामय स्थानको जाजो, यह जो अपने सुशय्या बनाई है, यही विष्णुका विमान है ! इससे सदा- = ` |
` नन्दमय अनामय विष्णुपदको चला जा । पीछे बरती ब्राह्मणोको प्रणाम करके उनका विसर्जन कर दे । अपनी `
सीमातक उनके पौछ-पछ जाय, पौछ ज्ञानदायक गुरुका पूजन करे । उस शय्याको ` शास्त हो ब्रत समापक `
गुरुको क्िरसे प्रणाम करके दे दे । इस गुरुकौ परजा तथा मासोपवासं करके मनुष्य विष्णुके शरीरम प्रविष्ट |
हो जाता है । मासोपवासर कर तथा विधिके साथ उसे पुरा करके सौ कुलोका उद्धार करके विष्णुलोककोचख |
जाता है \ वह करनेवाला पुण्यात्माओंमे श्रेष्ठ पिता ओर माताके कुले साथ विष्गुपुरको चलाजाताहैजो `
स्त्री विधवा होकर विधिके साथ ब्रह्मचारिणौ रही हो, वहं मासोपवास करके सनातन विष्णुको पाजातीहै |
` नारदजौ बोले कि, हे देव ! यह बड़ा कठिन । मूर्च्छा तथा ग्लानि पैदा करनेवाला है यह मासोपवास् ब्रत
भगवानृकी भक्ति पेद करता है : हे पितामहं ! जो एकदम दुल हो गया हो अथवा मरतेकौ हारते आगया = `
हयो उपर त्पाग वा अनुग्रह् क्या करना चाहिये ? ब्रह्माजी बो कि, व्रतीको एकदम इल वा तपोधनकोमर- `
णासन्न देखे तो उसयर ब्राह्मण कृपा करे, यदि बहु रातम अमृत तुल्य दूध चाहे तो एकवार कच्चा तानादूष ` `
पिले जिससे बह न मरे, जिस भूखे त्रतीको मूर्छ आ गई हो तथा मरणासन्न हो गयाहो तो उतेभोराहृभा `
` इध पिकवें ओर फल दे, जो आप मूल ओर फल देकर दिन रात पालनं करे वह् विष्णुलोकको जाता है, इसी ` 1
"तरु मासोपवासका त्ती प्राण संशयम आजाय तो उसे ब्राह्मणोकी आलस त्रतके नष्ट न करनेवाङे गणोसे 1 (|
फे, क्योकि, ब्रा्मणोंके बनाये क्षीर, ओषध आप, मूल, फल ये हविरूप हं ।बरतको नष्ट नहीं करते, इते गुड्की = |
। क्षीर देकर भौ बतावे, इथं ओर पानौ भी पिलावे, पीछे व्रतकी समाप्ति करा दे । यहु विष्णुकः त्रत है\दताः `
, विष्णु तथा व्रती .भी विष्ण् है । सब कु विष्णुमय जानकर व्रतम नियेकत हुए क्षीण गुषको अवश्य बचावे 1
यदि वह मरणास्च मूच्छित तथा अच्छी तरह् ग्लानको पा जाय क्षीण हो जाय तथा सबसे विमुख हो हर तरह
त्रत पुरा ही करना चाहता हौ भौ उस त्रतीकौ देहकं
का पालन होना चाहिये । तथा शेष ब्रतकौ समप्ति करा
जीत लिया है, जो जितेन्द्रिय सदा शान्त एवं सभी प्राणियोके कल्याणमे लगा हभ है
(९५०) : 4, "ल व्रवुरीक. +: { वारणापार्गा
` धोत्पन्नदोषध्नं च सुखप्रदम् ॥ कुलवृद्धिकं चेव स्वेन्द्रियनियासकम् ।\ चातुमास्ये
५ तथा चादौ मासि कौन्तेय सुव्रतः ।! पुण्याहं कारयत्पूवमकादश्या शुभे दिने ¦
पचात्संकलत्प्य राजेन तदारभ्य तरतं चरेत् ।\आदौ मासि तथा चान्ते चातुमसि-
ष्वथापि वा \\ एकस्मिन्धारणं कार्यं पारणं च तथापरे \ उपवासो धारणं स्यात्पा- |
रणं भोजनं भवेत् ।\ पारणस्य दिने प्राप्ते सन््रमष्टाक्षरं जपेत् । अष्टोत्तरशतं
दद्यादर्घ्यान् देवाय तन्मनाः । समाप्ते मासि राजेन्द्र कू्यदद्यापनं बुधः \\ चातु-
` मस्यिव्रते चाथ मासे मासे तु कारयेत् 1) उपवासने प्राप्ते पुण्याहं कारपरेलुरा ।॥ `
आचार्यं बरयेत्पह्चादत्विजस्तु ततः परम् ।। कत्वा तु प्रतिमां शुद्धां लक्ष्मीनारः- `
ध पस्तुलसी- `
दलचम्पकः ।\ मालतीकेतकौभिदच मल्लिकाकुसुमेस्तथा ।! रात्रौ जागरणं कूर्या-
` त्पुराणपठनादिभिः \। प्रातःकाले समायाते ब्राह्मणांस्तु निमन्त्रयेत् । मासे मासे
` पञ्चदञ्च युधिष्ठिर शुचिव्रतान् ।! पदचात्स्नानादिकं कृत्वा देवपूजां समाचरेत्!
यस्य वै ।! स्थापयेदव्रणे कुम्भे पूजयेदूपचारकः ।! पञ्चामृतस्तथा पु
याथ तस्य पुण र भावतः \। जितेगन्द्रियस्ततो जातो ब्रह्मलोकादिकांश्चरन् ।॥! |
तस्मात्सवप्रयत्नेन करर्याद्धारणपारणम् ।। इन्द्रियाणां वलार्थाय
५ ४१ पौरजनैः समस्तैः पाण्डुनन्दनैः ।
विमुक्तः सवेपपेभ्यो वंशवुद्धिस्ततं
(न
पूर्णाः ॥ त ततो हृत्वा होमशेषं समापयेत्।।बराह्मणान्भोजयेतपश्चादाचर्यं पूजयेत्ततः ।॥ `
एवं कृत्वा महाभाग ब्रह्महत्यादिपातकंः ।\ मुच्यते नात्र सन्देहस्तस्मात्कुरं महा- `
व्रतम् ।\ सुग्रीवस्तु पुरा राजन् हत्वा वालिनमाहवे ।। रामादिष्टं ततः कृत्वा धारणा- ध | ध
थय स्वेपापापनुपत्तये ।॥ `
तमम् ।। कि दानस्तपसा कि वा नियमह्च ` १ ॥
“व्रतम् 1 हिन्दौटीकासहित
(९५१)
धारणापारणाव्रत-आषाढं शुक्ला एकादशीसे लेकर कार्तिक शुक्ला एकादशीतक होता है । भी- `
` कृष्णचन्द्रजौ बोले कि, है कौन्तेय { धारणापारणातब्रत कहता हूं यह भाई अशदिकोके मारनेके दोषका नाहा
करनेवाला तथा सुखका देनेवाला है । कुलको वृद्धि तथा सभी इन्दरियोको रोकनेवाला है ! हे कौन्तेय ! आषा- ` ति
मे सुत्रत शुक्ला एकादशीके दिन पुण्याह वाचन करावे । पीछे संकल्प करके व्रत करना प्रारंभ कर दे । चातु-
मस्ये आदिमसमं तथा अन्तमं धारण तथा पारण होता ह एकमं धारण तथा दसरेमे पारण होता है । उष- `
बासको धारण तथा भोजनको पारण कहते हं । पारणके विन अष्टाक्षर मंत्रका जय होना चाहिये । देवमेही
मन लगाकर एकं सौ आठ अध्यं दे, महीनाकौ समाप्तिमं है "राजेनद्र ! उद्यापन करे । चातुर्बास्यिके तरतम सहना ४ १
महीनामें करावे, उपवासका दिन आजानेपर पहिले पुण्याहवाचन करावे, आचाय्यका वरण करे ! पीछे ऋत्वि- = ` |
जका वरण करे । लक्षमीनारायणकौ शुद्ध प्रतिमा कर विधिषुर्वक करंभपर स्थापित करके उपचारोमेपुजे।
पंचामृत, पुष्प तुलसीदल, चंपक, मालती, केतकी, मल्लिका इनसे भौ युजे पुराणो घुनने जादिसे रातको `
जागरण करे । प्रातःकाल ब्राह्मणोको सिमंत्रण दे इसी तरह प्रत्येक मासमे पविन्न त्रतोवाले प्रहु बाह्मणोको
निमंत्रण ३ । पीछे स्नान आदिक करके देवपूजां प्रारंभ कर दे । अग्नि स्थापित करके बिधिपूवक हवन करे, `
^ निष् सीद“ इस मंतरसे ओर ओदनका हवन करे “ ओम् निषुसीद गणयते गणेषु त्वामाहुविप्रतमं कवीनाम् । =
` नऽऋते त्वत्क्रियते किचनारे महासकं मधवन् चित्रमचं ' है ग् णोके अधिपति विष्णुदेव ! आप अयने गर्णोमे
| अच्छी तरह विराजे, आपको क्रान्तदशियोमं भी अत्यन्त मेधावी कहा करते ह, सनुष्योमं आपके बिना कुछ
भी कमं नहीं किया जा सकता । है अधिप ! चाहके योग्य बड़े भारी पूज्य धनको हमं दे \\ “ ओम् अरायिकाणे ` । ष |
| 2 विकटे गिरि गच्छे सदान्वे, श्िरिविटस्य सत्वभिस्तेभिष्टवा चातयामसि ।)"“ हैन देनेवाली ! है दुभिक्च करने. ह | ८
५ इस नाम मंतरसे तुले नष्ट किये देते हं । इस : त संते
घुतोदनका हवन करना चाहिये, अष्टाक्षर मंत्रसे पायसका का
हवन करे, पूर्णाहुति करके हमको समाप्त करे । ब्राह्मणोको भोजनं कराके आचा््यको भोजन करावे । हे (1
हिमहाभाग! इसप्रकार करके ब्रह्महत्यादिकीसे छूट जायगा इसमं सन्देह नहीं है । इस कारण इस महाव्रतको `
करना चाहिए । हे राजन् ! सुग्रीवने भाई बालिको मार रामके उपवेशते यही धारणा पारणा व्रतक्ियाथा, |
बह उसौ समय अनेक पातकोके दोषसे छट गया । नारदने भी पहिले शूद्र जन्ममं ब्राह्मगोके उपदेश देत ९ कारणा
पारणाकौ थौ, होमा
` इस कारण सब प्रयत्नसे तू घारणापारणा व्रत कर, इसके क्िएसे इन्द्रिय वमे तथा सभी पाय राशियां नष्ट
ह्येतौ है। इस कारण हे राजेन ! इ व्रतको आप करं ओर दान, तप, नियम, बरत ओर यमों
~ चय तज. पकात्
अयने विषुवे चैव स्नानं कृत्वा यथाविधि ।, व्रतस्य नियमं कुर्याद्धचात्वा देवं दिवा- `,
करम् 1} करिष्यामि व्रतं देव त्व-इुक्तस्त्वत्परायणः ।। तत्र निघ्नो न मे भूयात्तवदेवं `
प्रसादतः ।। इत्युच्चाये लिखेत्पदयं कुकुमेनाष्टपत्रकम् ।! भास्करं पूवेपत्रेषु आग्नेये `
च तथा रविम् ।! विवस्वन्तं तथा याम्ये नैऋत्ये पुषणं तथा ।। आदित्यं वारणे
पत्रे वायव्ये तपनं तथा \। मा्तेण्डमिति कोबेर एेकञान्ये भानुमेव च ।\ एवं च क्रमशो- `
ऽभ्यच्यं विक्वात्मा मध्यदेशः ।! कृताञ्जलिपुटो भूत्वा अर्ध्यं दद्यात्समन्त्रकम् ।॥ `
कालात्मा सर्वदेवात्मा वेदात्मा विश्वतोमुखः ॥! व्याधिमुत्युजराशोकसंसारभय- '
नाशनः ।। इत्यर्यमन्त्रः \। पुष्पेधूषेः समभ्यच्ये शिरसा प्रणिपत्य च ।। रवि ध्यात्वा `
ततो दद्याद्वान्यप्रस्थं द्विजातये ।! प्रतिमासं पुनस्तदरत्पुज्यो देवः सहख्रयात् \1 एवं
सदा प्रदातव्यं धा्यप्रस्थं दिनातये।।एवं संवत्सरे पूर्णे कर्यादुद्यावनक्रियाम्।। अच्येपात्रं
हि सौवर्णं कारयेन्मण्डलं शुभम् ।! दिमुजं पजयेद्धान्ं रक्तवस्त्रयुगान्वितम् ।॥ `
` पयस्विनीम् ।\ रविरूपं द्विजं ध्यात्वा तस्म वेदविदे तथा \} विद्यापात्राय विध्राय |
` तत्सर्वं विनिवेदयेत् ।\ अग्निष्टोमसहस्राणां णां फल प्राप्नोति मानवः ।। सप्तजन्म- ` ८
लाणि धनधान्यसमन्वितः ।! निर्व्याधिर्नीरुजो धीम। च ` रूपवानभिजायते !
इति श्रीस्कन्दपुराणे धान्यसंक्रान्तिव्रतं सम्पु्णम् ।।
अब संकरतिके ब्रत कखे जाते हे । उनमें सवसे पहिले घान्य संक्रातिक। ब्रत लिते है । इसे हमा. `:
रने स्कन्दपुराणसे किला है । नंदिकेडवर बोले कि, में अब आपको धान्य संकरांतिकता व्रत कहता हु! हे राजन्!
जिसके किएसे ५ मनुष्य सब कामको पा जाता है । विषुवं मेष भर तुलाके संकांतिके अयने विधिघूर्वेकस्वान = `
उत्तरपर मातण्ड, ईशानपर भानुको पुजे । तथा कमलके बीचमे विश्वाटमाका पुजन करे १1 ॥ १ ॥ ध :
जोड़कर मन्त्रसे भध्यं दे कि, जिसकौ काल आत्मा है जो कि, सब दोवोकौ आत्मा है, जिके अनन्तनृब्र
व्याधि मृत्यू शोक ओर र संसारके भयके नष्ट करनं वाठ ह्, यह् अध्यंका (1
(1
रतानि 1 हिन्दीटीकासहित (९५३)
अथ, लवणसंक्रान्तिन्रतम
तरवः) नन्दिकहवर उवाच ।। अथातः संप्रवध्यामि लवण संक्रान्तिमत्त- ` ५
भाम् ।। सक्रान्तिवासरं प्राप्य स्नानं कृत्वा जुभे जले ।। वस्त्रालकारसंवीतो भव्ति- `
भावसमन्वितः ।। कुकुमेन लिखेत्पद्यमष्टपत्रं सकणिकम् ।। भास्करं पुन्येडक्त्या `
(1 यथोक्तक्रमयोगतः \ तदग्रे लवणं पात्रं सग्डं स्थापयेत्ततः! पजितस्त्वं यथाहक्त्या `
५ प्रसीद मम भास्कर ।। कवणं सग्डं पात्र ब्राह्मणाय निवेदयेत् ।। एवं संवत्सरे पर्णे ; + ।
भानु कुर्याद्धिरण्मयम् ।\ रक्तवस्तरेयुगच्छन्नं रक्तचन्दनर्चाचतम् ।। कमलं लवणं `
पात्रं धेन्वा साधं द्विजातये ।। प्रदद्याद्धूानुमुदिश्य विहवात्मा प्रीयतामिति । एवं
कृत्वा तु यत्पुण्यं प्राप्यते भुवि मानवः ।! तत्केन गदितुं शक्यं व्षकोरिहतैरपि ।॥ `
कवणाचलदानस्य फलं प्राप्नोति मानवः ।। सवंकामसमद्धात्मा विमानवरमध्यगः । ` ५
सूर्यलोकं वसेत् कल्पं पुज्यमानः सुरासुरेः ।॥ इति स्कन्दपुराणे लवणसंक्रान्ति- `:
संक्रंतिके दिन अच्छे पानीमं स्नान करे । वस्त्र अलंकार धारण करे ! करंकुमसे कणिका सहित आठ प॒ पत्तोका न 1
पत्र लिखे तथा भव्ति भावसे ही यथाक्रम आदित्यका पूजन करे । उसके अगाड़ लोनका पात्र गुडसमेत रख
ओर कहे कि, है भास्कर ! मेने अपनी शक्तिके अनुसार तेरा पुजन किया है, यह गड ओर लवणसे भरा पात्र
। ब्राह्मणको. देता हूं, इस तरह एक वषं करके सोनेका सूयं बनावे, दो लालवस्त्र पहिना लालचन्दनसे चित ` `
। करे, षेनूके साथ कमललवण ओर पात्र ब्राह्मणको सुयेके उषसे दे कि, इससे भगवान् सूयं सृक्षपर प्रस्नहो
। जायं । इस प्रकार करके जो पुण्य मनुष्योको मिलता है, उसे कोई कोटिव्षमं भ नहीं कह सकता वह ख्वणके
पवतके दानका फल पाता ह ! वह सब कामोंमे समृद्ध रहता है । सुर ओर असुर उसकौ सेवा करते रहतेहँ। =
`. भेष्ठ विमानं बा चिरकालतक् सूरग्य॑लोकमें बसता हैः ! यह श्रीस्कन्दपुराणका कहा हुआ लवण संक्रंतिका ` `
ब्रत परा हुमा ॥ 1. |
| ` ल्वणसंक्रंति ब्रत-भी वहीं लिखा है । नं दिकेडवर बोले कि, अब मं उत्तम लवण संक्रांति
अथ भोगसंक्रान्तित्रतम
तदयं पार [2 योषितस्तु ल त् समाह्वयत् ।। कुङ्कुम कज्जल चैव कुसु
(श) ब्रतसजः: ^." न्ति
भोगसंकान्ति वरेत-भौ वहीं लिखा हु है । नन्दिकेदवर बोले कि, मे' भोगसंक्रान्तिको कहता हूः
जोकि, सब लोकोको बदृानेवाली है, संक्रान्ति दिन स््र्थोको बुखावे, कुंकम, कज्जल, सिन्दूर, फूल तथा = `
र दूसरी सुगन्धित चीजे, पान, कपूर, फल ओर तण्डल उन्ह दे, भोग कौ साधक दूसरी भी वस्तु प्रसश्रतकेिसाथ ` `
दे दे \ युगल जोडोको विधिपुरवेक भोजन कराकर दो दो वस्त्र दे । सवत्सरके अन्तमं स्थका पूजन करके सप-
( त त्नीक आचा्यैके लिये दक्षिणा समेत गाय दे । जो इस प्रकार भोग संक्रान्तिको आदरके साथकरताहै, वहुसब `
। मनुष्योमे जन्म-जन्म सुखी रहता है । यह भोगसंक्रान्तिका व्रत पूरा हज । - | ¦
अथ रूपसंक्रारितिव्रतम्
ध तत्रैव ।। नंदिकेश्वर उवाच ।। अथान्यदपि ते वच्मि रूपसंक्रान्तिमुत्तमाम् !! ` |
संक्राम्तिवासरे स्नानं कूरयात्तिलेन वे सुधीः ।! हेम पात्रे घतयुते हिरण्येन समन्विते।। `
स्वरूपं वीक्ष्य तत् पात्रं ब्राह्मणाय निवेदयेत् ।! एकभक्तं ततः कृत्वा पुजयित्वा रवि `
ब्रती \\ त्रतान्ते काञ्चनं दद्याद् पूतधेनुसमन्वितम् ।। अह्वमेधसहस्राणां फल-
माप्नोति मानवः ।\ रूपयोवनसंपत्या आायुरारोग्यसंपदा ।। लक्ष्मीं च विपुलान्
भोगान् लभते नात्र संशय; ।! सर्वपापविनिर्मुक्तः स्वगेलोकं च गच्छति ।! इति `
रूपसंक्रान्तिः ।' |
रूपसंकरान्तित्रत-मी वहीं लिखा है । नम्दिकेदवर बोले कि, अब सें रूप संक्रान्तिके उत्तम व्रत्को
कहता हूं । इस दिन तेलसे स्नान करे, पारमे घी ओर सोना डालकर अपना रूप देखकर पातर ब्राह्मणको देदे,
क भक्तः करके सुर्यका पुजन केरे । व्रतके अन्तमें "धृत धेनुके साथ सोना दे वह सौ अस्वमेधोकाफलपा जाता
है । रूप, यौवन संपत्ति आयु, आरोग्य, लक्ष्मी जौर अनेक तरहके भोग मिलते हैँ । एवं सब पापोतेभुक्तहोकर |
स्वगं चला जाता है यह् रूप संक्रान्तिका त्रत पुरा हुआ । |
1 ०१०५००५० ०००१०० ५.०.५१ ना प न+
४ १ पात्रे घतं कृत्वेतिपाठः। ` 1 1
५ दनाधेसमयेऽतीते भज्यते नियमेन तत् । एकभक्तमिति प्रोक्तमतस्तत्स्यादिवैव हि । दिनके | ४ ¢
धं समय बीजनानेपर जो नियमपूवक भोजन किया जाता है, उसे एकभक्त कहते हँ । इस कारण यह् दिनम ४ 1
एक गन्धद्रव्यं तथा कपूरकी त्राण ज फरोके स्तन,
यह् घृत धेनुका स्वरूप होगा । एसा ही उसका बः
रतानि) हिल्दीटीकासहित (९५५) :
अथ तेजःसंकरान्तिबरतम्
` तत्रेव ।। नन्दिकेडवर उवाच \। अथान्यां संप्रवक्ष्यामि तेजःसंक्रान्तिसुत्त- `
माम् ।। सक्रान्तिवासरं प्राप्य स्नानं कृत्वा विचक्षणः \। शालितण्डलसंयक्तं क्रकं `
` कारयेच्छुभम् ।। दीपं संस्थाप्य तन्मध्ये ज्वलितं तु स्वतेजसा ।! तन्मुखे मोदकं
स्थाप्य ब्राह्मणाय निवेदयेत् ।! रावि संपुज्य यत्नेन अर्घ्यं दद्याषिचक्षणः \ एक-
भक्त च कतव्य यावत्संवत्सरं भवेत् । संवत्सरे तु संपुणं कुयद्द्यपनं बुधः ।॥ `
श्लोभनं दीपक कायं सुवणन तु नारद ।। तारस्य करकं कुर्याहीपं न्यस्य तथोपरि ।! `
` कपिला सह॒ दातन्या करकेण द्विजातये ।! सुवणंकोटिदानस्य फलं वं प्राप्यते- `
ऽनघ \\ तेजसादित्यसंका्ो वायोबेलमवाप्नुयात् । इति तेज.संकरान्तिः ।! `
(४ | तेजः संक्रान्तित्रत-मी वहीं लिखा हुभा है, नन्दिकेदबर बोकते कि, मे जब उत्तम तेज संक्रान्तिको ` । |
कहता हुं, संकरान्तिके दिन स्नान करे, कर्मे श्ञाखीके तण्डुल रखे, उसके बीचमं दीपकं रखे, अपने तेजसे `
जावे, उसके मुखमं लड्डू रखकर ब्राह्मणको दे दे। ( करकका कितनी जगह हमने लांडके ओक अथं कियाहै ! =
तथा कितनी ही जगह करए अथं किया है । प्रकरण जौर रुचके अनुसार समञ्चना चाहिये ) सूयक पूजा करके . (1
अध्य दे, जबतक वषं पूरान हौ, प्रत्येकको एक भक्त करना चाहिये, पौ उद्यापन करे । है नारद ! सोनेका = ।
भरुन्दर दीपक बनावे \ तांबेका करु बनाकर उसपर दीपक रख दे \ करएके साथ कपिला ब्राह्मणकोदे। =
. बहू कोटि सुवणं दानका एल सुयंकासा तेज तथा बयुक्ा बल पाता है । यह् तेजःसंक्रान्ति पुरी हुई ।।
तत्रैव ।। नन्दिकेश्वर उवाच ।! अथान्यां संप्रवक्ष्यामि सौभाग्यसंकरान्ति-
५. मू तमाम् म म् ।। श्युण् नारद यत्तेन धनेशवयप्रदायिनीम् ।। संक्रान्तिवासरे प्राप्ते स्नात्वा `
ˆ चैव शुचिव्रतः ।। पूरववडधानुमभ्यच्यं तथैव च सुवासिनीम् ।। सौभाग्या र 4 ॥
५ ( वस्त्रयु्स सयोषिते ।। विप्राय वेदविदुषे ष | अक्ता तत्पर्तिषादयेत । ठव ५ स कषये ह पणं 1 |
(९५६) ध व्रतराज स [ संक्रान्ति 1
` तुणराजं च निष्पावाइ्च सुशोभनाः ।\ धान्यक जीरक चव कौसुम्भं कुङ्कुमं तथा ।॥ `
` लवणं चाष्टमं तद्रत्सौभाग्याष्टकमुच्यते ।। पुष्करे च कुरक्षत्रे गोसहल्रफल लभेत् ।॥
सा प्रिया मत्यलोकेषु या करोति व्रतं त्विदम् ।। शंकरस्य यथा गौरी विष्णोलक्ष्मी-
यथा दिवि ।। मर्त्यलोके तथा सापि प्रियेण सह मोदते ।\ इति सोभाग्यसक्रान्तिः।॥ `
सौभाग्यसंकरंतिव्रत-भी वहीं कहा है ! नं दिकेडवर बोले कि अब हम उत्तम सौभाग्यसंकरंतिको कहते `
1 1 हे । हे नारद, सावधान हो सुन । यह् धन एेश्वयं देनेवाली है । संकांतिके दिन स्नान करके पवित्र हो पहिलेकौ `
। ` तरह सूरयेको पजा करे, सुहागिन स्त्रीको दौ वस्त्रोके साथ सौभाग्यष्टक देकर सब दान वेदवेत्ता ब्राह्मणको `
दे, एेक्षव, तृणराज, निष्पाप, धान्यक, जीरकः, कोसुभ, कुंकुम ओर लचण ये सब सौभार्याष्टकं कहातेहं।
` पुष्कर ओर कुरुकषेद्रमे देनेसे एक हजार गोदानका पुण्य होता है ! मनुष्यलोकमे वही प्यारी होती है \ जोइस
ब्रतको करती है, जैसे अपने-जपने दिव्य लोकम शेकरको गौरी तथा विष्णुको लक्ष्मी अपने पति उन्हौके साथ
आनन्द करती हँ इसे तरह मृद्युलोकमे वहं पतिके साथ आनन्द करती है । यह सौभाग्यसंक्रांतिक्ा ब्रत पुरा |
४ 1 अथ ताम्बूलसंक्रान्तित्रतम् = १ 1.
प्रकुर्वतः प्रकुर्वीत पुगप्रस्फोटनं तथा ।। मुखवासा-
दिचूर्णानां भाण्डानि विविधानि च ।। द्विजदाम्पत्यमावाह्य सर्वोपस्करसंयुतेः ॥ `
्रव्यस्तु पजयेडूक्त्या षड़सेर्भोजयेद्द्िजान् ।। उपकल्पितं तु यत्किचिद्ब्राह्मणाय `
निवेदयेत् ।\ एवं करोति या नारी ताम्बूलाख्यं व्रतोत्तमम् 1 भवरपुतरेदच पौत्रेहव - `
सकाति्रत-भो बहो लिला हाहे । ननदकदर बोले कि, अव म उत्तम ताम्बूल संकान्तिको =
विधान सौभाग्यसंकरान्ति ओर वान्यसंक्रान्तिकौ ही तरह है, ताम्बूल मौर चंदनादिक ब्राह्म- = `
। इस तरह एकः सार तक ब्राह्मणीको रातमं ताम्बूल दे अन्तर नं करे; साल्के बाद सोनेका कमल ` 4
पणेकोश ओर पुगफलका आलय बनावे, चूणेका भाण्ड तथा पुगका फोडनेकरा साधन एवं मुख `:
आदिके चरणके भाण्ड बनवाे । द्विज दंपत्तियोको बुखाकर सब ब: उपस्करके साय इन दरव्योसे उन्हं पूजे, =
नोनि अः कुछ तयार किया हो उस सबको नाहमणको लिये दे द जो स्त्री इस
्रकु रं त तथा पूगफलालयम् ।। पुणेभाण्डं न ¦ ह
| स्सनं |! उष धात्यसश्न्तवत् ।। एव सवत्स
$ 1 तेजोराशे शिर पू० । अरुणसारथये० सर्ब ९
2 [हणाय निवेदयेत ।। एवं संवत्सरे पणे
५; ब्रत्रान : ( हन्दाटाकसाहूत (९५७)
पर्वतं कृत्वा वस्त्रे रत्नैश्च भूषितम् । अयने चोत्तरे दाद्रित्ताठ्यं न कारयेत् ॥ `
` यंयं कामयते कामं तं त प्राप्नोति पुष्कलम् ।। सवेपापविनिर्मुक्तः सूर्यलोके मही `
थते \। इति मनोरथसक्रान्तिव्रतम् ।, |
मनोरथसंकान्तिवरत-भी वह लिला हुआ है । नन्दिकेदवर बोले कि, अब से मनोरथसंकरान्तिको `
कहता हं । जपनौ शक्तिके अनुसार गुडका भरा घड़ा वस्त्रके साथ संकान्तिके दिन कुटुम्बो ब्राह्मणकोदे,
बाकी सब ङृत्य धाल्यसंकान्तिकी तरह होना चाहिये। सालके पौरेउद्यापन करे, कृपणता न करे, गृडकापर्वेत =
बना वस्त्र रत्नोसे विभूषित करके उत्तरायणमें दान करे । वह् जो -जो चाहता है उसे बह सब मिल जाताहै!! = `
एवं सब पापोसे छृटकर विष्णुलोके चला जाता है । यह भीमनोरथसंकराग्निका त्रत पूरा हुआ ।!
अथाशोकसंक्रान्तिव्रतम `
तत्रव ।। नन्दिकंश्वर उवाच ।। अतःपरं प्रवक्ष्याम्यशोकसंक्रान्तिमुत्तमाम्।॥
अयने विषुवे चेव व्यतीपातो भवेद्यदि ।! एकभुक्तं नरः कूर्यात्तिलेः स्नानं तु
कारयेत् ।। काञ्चनं भास्करं कृत्वा यथाविभवहशव्तितः ।॥ स्नापयेत्पञ्चगव्येन `
` भन्धपुष्पस्तु पूजयेत् ।! सञ्छाद रक्तवस्त्राभ्यां तास्रपात्रे विधाय च ।। भास्कराय
नमः पादौ पूजयामि । रवये न° जंघे पु० । आदित्याय ० जानुनी पु० । दिवाकराय० `
ऊरू पु० । अर्यम्णे° कटी पु० । भानवे० उदरं० पु० । पृष्णे° बाहू पू० । मित्राय
स्तनो पु । विवस्वते० कण्ठं पू० । सहस्रांशवे
लांगवे० मुखं पु० । तमोहन्तरे° नेतरे पु,
रं पूजयामि । अघ्यं च पूर्वेवत्कायं `
1 पुणं काञ्चनेन दिवाकरम् । संपूज्य पश्च
कुसुम्यथाविभवसारतः ।\ धूपर्दपिश्च नेवेद्ये रक्तवस्त्रेण वेष्टितम् ।\ ततो होमं
८९4८) १ ` र्कतंरजं. 1 वि (न 1 सद्यतः
॥ सार बनाकर पद्म कुसुम, धष, दीप ओर नेवेद्यसे पज । लालवस्त्र उडढावं सु्थके संत्रसे होम करे, वस्त्र ओर ष ५
` अलकारके साय बारह कपिला गऊ दान करे ।यदि सामथ्यं नहो तो एक कपिला दे धनकालोभनकरेःभार्या
. पुत्रके साथ आयु, आरोग्य मौर एुदवयं होता हे \ यहं अशोकसंक्रान्तिव्रतपुराहंजा ।। |
1 ` अथ आयुः सक्रातित्रतम् - 4
र तत्रैव ।। नन्दिकेश्वर उवाच ।\ अथान्यां च प्रवक्ष्यामि जयुःसक्रान्ति-
` मुत्तमाम् ।। संक्रान्तिदिवसे स्नात्वा पूजयेच्च दिवाकरम् ।\ कस्ये क्षीर घृतं द्ा-
` त्सहिरण्यं स्वश्रविततः ।।मन्त्रद्चैव पुथग्दाने पूजा सेव" प्रकौतिता \। सुक्षीर सुर-
भीजात पौयुषसम सपियुक् । जायुरारोग्यमंदवयेमतो देहि द्विजापितम् ।\ अनेन
विधिना वर्षं सवं द्यादतन्द्रितः।।उद्यापनादिक सवं धान्यसक्रान्तिवडवेत्। एवं कृते
तु यत्पुण्यं शक्यं नेदं मयोदितम् ।! निर्व्याधिश्चेव दीर्घायुस्तेजस्वी कीतिमांस्तथा ।॥ `
अपमत्युभयं नास्ति जीवेच्च शरदां शतम् ।\ इति आयुःसंक्रान्तिः ।\ 1
आयुसंक्ान्तित्रत--भी वहीं निरूपण किया है । नन्दिकेदवर बोले कि मे जयुसंक्रान्तके उत्तम 5
ब्रतको त गे कहता हू, संक्रान्तिके दिन स्नान करके सुर्थको पूजे, कांसेके पात्रमे क्षीर ओर धुत भरकर अयनी शक्तिके `
` अनुसार सोना खकर दे, दानका संत्र अगिला है तथा पूजा पहिकेकौ तरहही करे \ दानमं्-अच्छी क्षौर `
` सुरभिसे उत्यन्न, सुधासम, सरसि मिलाहुजा है, तु ब्राह्मणको दिये पचे आयु आरोग्य ओर एश्वयं ३ । इसौ `
तरह निरालस होकर वषभर दे, इसके उद्यापन आदिक सब धान्यसंक्रान्तिकी तरह होता है" इस प्रकार `
करनेषर जो पुण्य होता है उसे भे कहनेकी शवित नहीं रखता, वह् व्याधिरहितं बडी उन्नका तेनस्वौ ओर
| त कीपिवाला होता हैः उसे अपमत्युका डर नहीं रहता सौवषं जीता है ! यह् आयुसंकरान्तिका ब्रत पुरा हुजा ॥ |
1 धनसंकरातिव्रतम् 1
तत्रैव ।। नन्दिकंड्वर उवाच ।। धनसंक्रान्तिमाहात्म्यं णु स्कन्द विधानतः ।\ ॥ |
यत्कृत्वा स्वेपापेभ्यो मुच्यते नात्र संशयः ।\ संक्रातिदिवसं प्राप्य शुचिभूत्वा समा-
कलां निरत्रेणं गुह्य वारिपुणं निधापयेत् ।। सुवणयुक्तं तं कृत्वा प्रतिमासं 1
विनिवेशयेत् जन्मनां रातसाहस्र ल
नयुक्तो भवेन्नरः \\ आयुरारोग्यसंपन्नः सूयलोकं महीयते ।! इति धनसंक्रान्तिः `
न 0 नन्दिकेदवर बो कि, हे स्कन्ध ! घनसं्तातिका माहार्य `
करके सबप पा से ४१८ है। इसमे सम्देह नहीं है । संक्तिके दिन स्नान ध्यान = `
येत् !1 गोदानं तत्र दातव्यमेवं संपूर्णतां ब्रजेत् ।। जन्म
व्रतानि} हिन्दीटीकासहित (९५९)
ताजा म = ध भ
पामान 1111
1 प्च ध ¢
अथ सवेसक्रान्त्यद्यापनं लिख्यते
। हेमाद्रौ मत्स्ये ।। नन्दिकेदवर उवाच । अथान्यदपि वक्ष्यामि संक्रात्यद्यपनं `
मुने \! विषुवे चायने चेव संक्रान्तिब्रतमाचरेत्।। प्वेद्युरेकभक्तेन दन्तधावनपूर्वकम्! `
संक्रान्तिवासरे प्राप्ते तिरः स्नानं समाचरेत् ।। रविसंक्रमणे भमो चन्दनेनाष्ट- 4 |
पत्रकम् ।} पदां सर्काणकं कुर्यात् तस्मित्नावहायेदरविम् ।! कणिकायां न्यसेदेवमा-
द्तत्यं पूवेतस्ततः' ।\ नमः सोमचिषे याम्ये नमो ऋडमण्डलाय चं ।। नमः सवित्रे
नैऋतये वारुणे तपनं बुधः ।\ वायव्ये सित्रनामानं विन्यसेत्तु यथाक्रमम् ।। मार्तण्ड- . `
व मुत्तरे विष्णुमीश्ान्ये पुजयत्कमात् ।, दिजाय सोदकं कुस्भं तिलपाजं हिरण्मयम् ।! ( +
कमलं तु यथाहक्त्या कारयित्वा निवेदयेत् ।। चन्दनोदकपुष्पेश्च देवायार्घ्यं निवे- `
, दयेत् ।! विश्वाय विहवरूपाय विह्वधाम्ने स्वयम्भुवे ।। नमोऽनन्त नमो धात्रे ऋक्- `
साम यजुषां पते ।। अनेन विधिना सवं मासि मासि समाचरेत् ।। वत्सरान्ते तथा `
कुर्यात् सूर्य द्वादशधा नरः ।\ संवत्सरान्ते वृतपायसेन सन्तप्यं बह द्विजपुङ्कवा |
। ृङ्गवाय ॥। हैमीं च दद्यात्पुथिवीमशेषां कृत्वाथ रौप्यामथवा सुता स्म् ॥ पेष्टीम- `
शक्तो ध ऽ्थ तिलौविधाय सौवणंसूर्येण समं प्रदद्यात् ।। न वित्तशाठ्यं पुरुषोऽत्र
न करे, रविके संक्रमणके समय भूमिम कणिकासहित अष्टदल कमल क्िलकर = |
पहिरेको तरह सूर्यं देवको कणिकाओमे स्थापितं करे, आग्नेय कोणते पना |
नमस्कार, नेतऋत्यमें सविताके `
।\ कुर्भान् पुन्रदिधेनु युक्तान् सद्रत्नहैरण्मयपद्यगर्भान् ।\ पयस्विनीः श्ीलव ५ 1
संकराति व्रता प्रारंभे करके, वर्षबाद इसीमे उद्यापन कि
` है क्योकि वषं यहीं पुरा होता है, घान्य ल्वण आदि संक्रांतियोका
. विशेषके कारण संज्ञाएं करदी गयीं
0 {
नमस्कार है इसविधिसे प्रत्येक # महीनामे सब करे, वत्सरे अम्तमे सनुष्य सुक द्वादशामूति बनावे ` ।
संवत्सरे अन्तमें घौ खीरसे अग्नि ओर ब्राह्मणको तृप्तकरे, रत्न ओर सोनेके पद्म पड़ हए बारह कुंभ तथा
` बारह गाये दे, वे दध देनेवाल सुशील हो, उनके साथ सोनेके सींग चांदीके खुर ताबेकी पीठ ओर वस्त्र दे,
यदि जञविति न हो तो सात अथवा चार कंसिकी दोहनी ओर मात्यांबरफे साथ दे । यदि यहभौ न होसके तो ` ^
एक कपिला गाय ही किसी श्वष्ठ ब्राह्मणको दे । शेष सहित सोने चांदी मिट वा तांबेकौ पुथ्वी बनाकर तिल
ओर सोनेके सू्ैके साथ ब्राह्मणको दे दे । इसमें घनका लोभ न करे, क्योकि किणएसे निरय होता है इसमं (1
सन्देह नहीं है । जबतक महेन आदि देव मेर आदि पर्वत तथा सप्तद्वीपवती पृथिवी रहैगी उतने समयतक हे
` नारद ! बह सारे गन्धर्वगणोसे, नाकलोकपर पुजा जाता है । वहांसे कभेक्षय होनेषर द्वीपपति खानदानी `
| । सुयोग्य राजा होता हे, सूष्टिके सखम ऊचे शरीरक्ा, सपत्नीक तथा बहुतसे पत्रीवाला होता है, वरी उसके ` |
` चरणोको छते रहते ह । यह सब संक्रातिके ब्रतोका उचापन पुराहुञा \\ = _ ध
(उद्यापन ओर धान्यसंक्रातिको देखकर हम इस निद्चयपर पहुंचे हें कि विषुवकी ही संकांतियोमं
0 ` धातुसे कितन् प्रत्यय ओर धातुको दीघं होकर संक्रंति पद बनता है यानी पहिली राशिको जिस पर कि,
याकतमूहूत्तं रथिनं गतस्तावदित्य
किया जाता है । इसी कारण इसमेही किया जाता भौ ` | ५
तियोका ब्रत इन्हीसे प्रारंभेहोताहै।येवानाडि `
हँ ; वास्तविक विभाजक नहीं हँ । सम् उपसं पुवेकं कमुपादविक्षेपेः = `
छोडकर जब वो दुसरी रा्िपर पहुंच जाता है तब संकरांति कहाती है । जब कि, बह रादी ` 4
अथ रवेधुतस्नापनम् | (
हेमाद्रौ भविष्ये-उत्तरे त्वयने प्राप्ते घृतप्रस्थेन यो रविम् ।! स्नापयित्वा `
ब्राह्मणेभ्यो यः प्रयच्छति मानवः ।। घृतधेनु तथा दद्याद्ब्राह्यणाय कुटुम्बिने \\ स्व- `
` पापविनिर्मुक्तः सूर्यलोके चिरं वसेत् \\ ततो भवति भूपालः प्रजानन्दविवधनः ।॥। `
दुति उदगयने घधतस्नापनम् ।\
| रविका धृतस्नान-हैमाद्रिमे भविष्यपुराणते लेकर कहा है कि, उत्तरायणके आजानेपर यानौमकर |
संक्रातिमं एकम्रस्थ घीसे सुग्यको स्नान करावे । पीछे उसे ब्राह्मणोको ३ दे, कुटुम्बी ब्राह्यणके लिए घुतधेनूक, `
|: . दान करे, वह॒ सब पापोसे चूटकर सूर्यैलोकको जाकर बहुत समयतक रहता है \ वहासि आकर प्रजाको `
| आनन्द देनेवाला राजा होता है । वह उत्तरायणमें सु्यका घतस्नान पुरा हुआ ॥
अथ मकरसंक्रान्तौ घतकम्बलदानमहिमा
शिवरहस्ये-माघे मासि महादेवे यः कुर्याद्घुतकम्बलम् ।! स भुक्त्वा सक- `
। लान्मोगानन्ते मोक्षं च विन्दति । नरा भूपतयो जाता घुतकम्बल्दानतः।। जाति- `
। स्मराक्च ते जाता मुक्ताश्चान्ते शिवाच॑काः ।! पुरा सुनागसं विप्रं जार्बालिभ्रुति- `
| . पारगम् ।। पप्रच्छ शूलकर्णाद्धो घमं दारिद्रनाज्ञकम् ।! सुनागा उवाच ।। असितायाः
` सिताया वा धेनोघेतमनत्तमम् ।। सम्पादनीयं यत्नेन घनोभूतं च शोभनम् ।
तदघतं तुल्योत्तीणं प्रस्थसार्धंशतत्रयम् ।\ महाकम्बलमेतद्धि घतस्य परिकीतितम् ।\
तदर्धं वा तदर्धं वा सायं नेयं हिवाल्ये । घ॒तनान्येन देवेशामभिषिच्य महेरवरम् ।।
ततो नीराजनं दत्त्वा देयः पुष्पाञ्जरि थ लस्ततः ॥ प्रदक्षिणानमस्कारान् ५ कृत्व त १.
| हदनन्तरम्॥ व पाक्ष जा ववा तसवेदेत् ॥ ततो जागरणं कुछ = =
(९६२) "१ ध व्रतराज [ संक्रान्ति-
॥ पूजन करे, आदरके साथ धूप, दीष, ओर नैवेद्य दे, पीछे आरती करके पुष्पांजलि सनर्येण करे, प्रदक्षिणा = |
नमस्कार करके शिवके पञ्चाक्षरमंत्रका जय करके शिवके निवेदन करदे, किवका स्मरकेग करते हए रतको `
ज्ञागरण करे, प्रातःकाल उदे, स्नान आदि करे, घृतसे सीचक्रर शिवजीका पुजन करे, भक्ष्य भोज्योके साथ =
क्षैवोको मोजन करावे पीडे अपने बन्धुओके साथ आदरसे भोजन करे, इसमे केरा दारिद्रय नष्ट होजायणा `
` अनेकों भोगोक भोगकर शिवलोकमं चस जायया । यह् मगर संक्रातिके दिन धृतकबलदानकौ विधि पुरी `
1 स अथ मकरसंक्रमणेः दधिमन्थनदानम् क
1 तष्टिधिः ।। मासपक्षाच्युर्लिख्य ममेह जन्मनि जन्मान्तरे च अखण्डितः `
सोौभाग्यपुत्नपौत्रधनधान्याभिवृद्धचयं श्रीसवितुसूयनारायणस्वरूपिणे ब्राह्मणाय `
इधिमन्थनदानं करिष्ये इति संकल्प्य तिलोदतंनपुवेक स्नात्वा शुचिवस्त्रं परिधय
` भाण्ड यश्चोदाङ्ष्णयोः सुवबणप्रतिमां संपूज्य प्राथयेत्-यशोदे त्वं महाभगेसुतंदेहि `
मनोरमम् ।। पुजतासि मया देवि दधिमन्थनभाजने ।। श्रीकृष्ण परमानन्द संसाराणं- `
` वतारक ॥। पुत्रं देहि मनोज्ञं च ऋणत्रयविमोक्षणस् ।। दानमन््रः-गृहाण त्वं हिन-
शरेष्ठ दधिमन्थनभाजनम् ।। नवनीतेन सहितं यश्लोदा सहितं हरिम् ।। प्रसादः `
यतां मह्य दानमाहात्म्ये कृषी =
सू्ंरूप नमोस्तु ते ।। इदं च ब्रह्माण्डपुराणेरङ्धद कषां
पतीतिहासपूवेकं दुर्वाससोपदिष्टम् ।\ तथाहि-ङ्प्युवाच 1 पीडिताहं दरिद्रेण
अपुत्रा च तपोधनं ।। तपसो भङ्कभीत्या च यत्नं नाचरते पतिः ।\ सम सवेस्वमेका `
गौः स्वल्पदोहा बयो महत् ।\ जीवनं मम तक्रेण ध्मेवार्ता गरीयसी ।। केनोपायेन `
भो ब्रह्मस्तन्मे बरूहि सुखं मम ।। दुर्वासा उवाच ।। देहि दानं च सुभगे येन पु्ण॑मनो- `
व्रतानि] हिन्दीटीकासहित (९६३)
वक्रं कबरविमलन्माक्ती निमेमन्थ ।। परिधीवस्त्रमासादच ययाचे जननीं हरिः
गृहित्वा दधथिमन्थानं न्यषेधत् प्रौतिमाबहन् 1 नानाखाचर्वारितोऽपि न च मुञ्चति
` माधवः ।! अंकमारुट्य तत्स्तन्यं पिबन्मुखं व्यलोकयत् ।\ एवं यशोदां कृष्णं च॒ ` `
ध्यायन्ती भक्तितत्परा \ विचित्रैः पट्क्लेश्च गन्धमाल्येविलेषतः ।। पजपित्वा `
प्राथयीत यशोदां पुत्रसंयुताम् ।। यशोदे त्वं महाभागे सुतं देहि मनोरमम् ।। पूजि-
` तासि मया देवि दधिसन्यनभाजने । भीष्ण परमानन्द संसारार्णवतारक । पुत्रं
+ १ देहि सनोज्ञं मे ऋणत्रयविमोक्षणम् ।, ब्राह्मण वेदवेत्तारमुपवेदय सुखावने ।। गन्ध- (1
माल्यैदच संपूज्य दानं तस्मे निवेदयेत् ।। गृहाण त्वं द्विजक्ेष्ठ दथिमन्थनभाजनम् ।1. = `
नवनीतेन सहितं यशोदासहितं हरिम् ।। प्रसादः क्रियतां मह्यं सूर्यरूप नमोऽस्तु `
। ते ॥ छृष्णप्रीतिकरं छयेतद्धनधान्यसमुद्धिदम् ।। दर्वाससोपदिष्टा सा द्रोणभार्या `
सुलोचना । मकरस्थे यदा सूयं तिलोद्रतेनयुर्वकम् ।। स्नात्वा च जाह्ववीतोये `
संमप्राथ्यं मुनिपुङ्खवम् \\ पूजयित्वा तु तस्मे वा अदददहूधिमन्थनम् । अश्वत्थामानं `
च सुतं दधिमन्थनदानतः।। कपी लेभे सुयज्समुणत्रयविमोक्षणम् ।\ मुक्ता दारिद्र- `
। त्सा बुभुजे भोगमुत्तमम् ।\ एवं पूर्व कृपी कृत्वा आनन्दं समपद्यत ।॥ एवं या
करते नारी वित्तशाठ्यविर्वाजता ।। सर्वान्कामनवाप्नोति सूर्यलोके महीयते ॥ `
इति श्रीब्रह्याण्डपुराणे मकरसंक्रान्तौ दधिमन्थनदानं सपुणेम् ।। |
मकर संकरंतिके दिन दधि मन्थनका दान--मास पक्ष आदिका उल्लेख करके कहे क्रि, मेरे देस जन्म॒ ` |
। ओर जन्मान्तरके दारिद्रयके नष्ट होजानेके लिये तथा अखण्डित सौभाग्य, पतर, पौत्र, धन ओर धान्यकी |
। वृद्धिकते लिये श्रीसूय्येनारायणके स्वरूपवाले ब्राह्मणको दधिमन्थन दान करता हूः इत संकल्पो करके |
। तिलके उदर्तनके साय स्नान करके, पित्र वस्त्र पहिनकर भाण्डषर यकोदाष्ृष्णको सोनेकी सूतिक पज्र |
| उसकी प्रार्थना करे ।\ हे महाभगे यशोदे ! तु मुषे अच्छा पुत्र द, हे देवि ! मेने तेरा दधीके मथनेके वतेनपर |
परनन कियादहै, हे श्रीकृष्ण ! है परमानन्द स्वरूप !. हे संसारल्पी समृद्रके पार करनेवाले ! मुहल सुन्दर `
पुत्र दे तथा तनो ऋणोको दुर कर ।। दानमंत्र--दै शष्ठ द्विज ! आप दहीके मथनेका पात्र ग्रहणं करे, यह् `
ध (९६४) 4 - . व्रतराजः ` ` [तांबूरदान-
` चीजें उसपर डालकर देवीका आवाहन करे । दण्डयर सुरय॑का आवाहनं करे आठ दीपक जेलावे । ल्ड्ड्ः
पृथक, लाज ओर ईखके दकडे तथा अनेक तरहके खाद्य पदाथ चारों जोर रख दे । अच्छी भुद्ुटिवाली यशोदाजी `
सूत्रसे बंधे हृए क्षौमवस्त्रको मोटे कटितट पर धारण कर रही हं पुत्र स्नेहसे जिनसे इध चुचा `
रहा है एसे स्तन, मथनेके लिये हाथ चलानेसे हाल लहे हं । रज्जूके सीचनेके श्रमसे सृजाओके ककण ओर |
श्ुडल हिल रहे हँ मुखपर पसीना आगया है कवरीसे नौचे गिरती हुई मालतीकौ मालाको बाघ रहीं हं, परिधीका
वस्रं पकडकर भगवानने मासे थाचना की, प्रेम करती हुई मानें दधिकी मथनी पकडकर उसे
`. रोक दिया, अनेक तहरके खाद्य देकर वैलाने परभी नहीं मानता, गोदीमं बेठे स्तन पीते हए मुख देखने
ओर लगा, इसी तरह भकतिमें तत्यर हौ यद्रोढा ृष्णका ध्यान करती हुई एसी ही पु्रसहिता यकशोदाको
विचित्र टक ओर गन्ध माल्यसे पूजकर प्रार्थना करे कि, है महाभाग य्रोदे ! सुनने सुन्दर पृत्रदे ।हैदेवि!
मे दहीके मथनेके बतनपर तेरा पूजन करूगी; (शरीषष्ण यहांसे विमोक्षणतक इसका अथं कस्वुके) वेद-
वेत्ता ब्राह्मणको आसनयपर बिठाकर गन्ध भाल्यसे पूज बह दान उसे दे दे \ (है गृहाणत्वं यहं कहचुके) यह |
कृष्ण भागवान्को प्रसन्न करनेवाला तधा धनधान्य ओर समृद्धिका देनेवाला है । सूनयनी द्रोणपत्नी को `
दुर्वासा ऋषिने उपदेशा देदिया । मकरके सूर्यम तिलोके उवटनके साथ गंगामं स्नान किया । मुनिराजको `
प्रार्थना करके दधिमन्थनं इनं देदिया इससे उसे यज्ास्वौ तीनों ऋ्णासे दूटनेवाला अ्वत्थासा पुत्र मिला वहं
दारिद्रके दृलसे मुक्त होगई तथा उसने बडे बडे उत्तम भोगोको भोगा, जसे पहिले कृपौ इस ब्रतको आनन्द
„ षाग, उसी तरह जो स्त्र निर्लोभि होकर इस व्रतको करेगी बह सब कामनाञको पाकर सूयखोकमें प्रतिष्ठति `
होमौ । यह श्रब्रह्मण्ड पुराणका कहा हआ मकर संक्रातिमें दधि मंयनका दान पूरहुजा ॥ = |
ध अथ ताबृखदानतव्रतम्, तदुद्यापनम् च
युधिष्ठिर उवाच ।\ ताम्बूलदानमाहात्म्यं
नमाहात्म्यं कथयस्व मम प्रभो । उद्यापन- `
1, श्रीकृष्ण उवाच ।। सर्वेषामेव दानानां ताम्बूलं
` चोत्तमं स्मृतम् ।। आनन्दो दीघेमायुष्यं सौमनस्यं च पुष्टितः ।\ सौभाग्यं च धना-
दिभ्यो विद्यालाभस्तथेव च ।॥ एतत्तु पञ्चकं राजन् ताम्बूलाल्लभ्यते नरैः! `
दात्रिशत्पत्रकैयुकतं पुगीफलसमन्वितम् । एलालवद्खकरपेर्ुवतं ताम्बूलमुच्यते ।॥ `
भं भवेद्वापि देयं द्िजवराय च।। द्विजाभावे सुवासिन्यै तदभावे कुमारिकाम्!
उद्यापनं प्रक्तेव्यं यथाविभवसारतः ।। शुभेऽद्धि मासे कर्तव्यमृकषे वैवाहिके ततः।॥ `
ञ्च" सप्त च सद्विप्रान् सपत्नीकान्परपुजयेत् ।, पुवंरात्रौ च सपुज्य लक्ष्मीनारा- `
चुभौ \\ उमामहेश्वरौ पुज्यौ सावित्रं ब्रह्मणा सह ॥ रति च पञ्चबाणं च॒ |
पूजयेच्च यथाविधि ।\ ऋद्धि सिद्ध विघ्नराजं लोकपालांश्च पजयेत् ।। ताम्बलो- `
पस्करास्तत्र देवतोत्तरतो न्यसेत् ॥ पुरुषोत्तमाय श्राङ्धंपाणये० गरुडध्वजाय० `
अनन्ताय० यज्पुरषाय० पुण्डरीकाश्षाय० ` 1 च वेदगर्भाय ० गोवर्धनाय० `
त्तम्] हिन्दीटीकासहित ` (९६५)
` संभवम् ।\ सवंशोभासमायुक्ता लोहजा पगभाजिका ।\ तेषां पुजा प्रकर्तव्या गन्ध-
` पुष्पादिभिस्तथा ।। पुर्णाहुति ततः कुर्थादुब्राह्मणान्भोजयेत्ततः ।। ताम्बलं चुष्ट्यो
` द्चादृब्राह्यणेभ्योऽतिभक्तितः\। मेधावी सुभगः प्राज्ञो दशेनीयइच जायते ।फठेन `
तुष्यते ब्रह्या पत्रेण भगवान् हरिः । चूणेमीहवरतप्त्यथं खदिरः कामतष्तये ।॥ `
कर्प्रेलालवङ्कादिजातीपत्रफलैस्तथा ।। इन्द्राद्या लोकपालाश्च सन्तुष्टाश्च भवन्ति
हि ॥ वारिदः सुखमाप्नोति राज्यं प्राप्नोति चान्नदः ॥\ दीपदङ्चकषुराप्नोति त्रयं `
ताम्बलदानव्रतं तदृद्यापनं च ।\
ताम्बलदान व्रत ओर उसका उद्यापन--युधिष्ठिरजी बोले कि, हे प्रभो ! म॒नने तास्बल्के दानका ` |
। माहारम्य कहिये तथा उसको उद्यापन विधि भौ कहिये, जिससे सब काम ओर अर्थकी सिद्धि हो। श्रहृष्णजी `
बोकते कि, सव दानोमें ताम्बूलका दान सबसे उत्तम है ! आनन्द, दीं आयुष्य पुष्ठिसे सौमनस्य, धनादिति
` सौभाग्य ओर विद्यालाभ ये पाचों ताम्बूलसे प्राप्त होजाते है । सुपारी सहित बत्तोस पत्तोके साथ एवंएला |
लवंग ओर कपूरसे युक्त ताम्बूल कहा है अथवा जंसा उपस्थित हो ब्राह्मणको देदे। ब्राह्मण न हो तो सुवासिनौको ` ८
तथा इसके भौ अभावमें कुमारीको दे । अपने विभवके अनुसार उद्यापन करे, विवाहके नक्षत्रम |
अच्छे दिनम करे, बारह सपत्नीक ब्राह्मणको निमन्त्रण वे, पूवं रात्रिम लक्ष्मीनारायण, उमा = |
। महेश्वर, सावित्री ब्रह्मा, रति काम, ऋद्धि सिद्धि सहित विध्नराज ओर लोकपालोको पुज, ताम्बूल ओर `
उपस्कर देवताके उत्तर स्थापित करे । पुरुषोत्तम, श्ाङ्गंपाणि, गरुडध्वज, अनन्त, यज्ञपुरुष, पुंडरीकाक्ष,
नित्य, वेदगर्भ, गोधन, सब्रह्मण्य, शौरि ओर ईकवर ये बारह नाम हे । इन कहै नाममन््रोवे पना मोरहवन =
होना चाहिये । घृत पायस अमृत (बिना गरम किया दूध) तिलोदन इन चौनोको प्रत्येके मत्से लिए प्त्येकके =`
अदह्ूाईस अद्राईस आहुति दे 1 पणं स्थायनपात्र ओर चूरणपात्र सोने चांदी पित्तल अथवा सौसेकाहोना चाहिये,
सभी ज्ञोभाञसे युक्त रोहेकी सरोती बनावे । गन्ध पुष्य आदिक उनकी पूजा करे । पूर्णाहुति करे ब्राह्मण `
भोजन करावे। जो भक्तिके साथ अच्छा ताम्बर ब्राह्मणोको
योग्य हो जाता है! फलसे ब्रह्मा, पत्रसे भगवान्
देता है बह बुद्धि मान् सुभग प्रात ओर देवने `
(1 हरि, चसे ईकवर तथा खैरसे कामदेव तृप्त होजाताहै)!
` कपूर, एला, छवंग जातीपत्र ओर फल इनसे इनद्रादिक लोकपाल प्रसन्न होजाते है । पानौका देनेवाला सुब, |
अन्चका दाता राज्य, पका क ग दाता चक्षु तथा ताम्बूलका दाता तौनोको पाता है । इस प्रकार विष्कि सयकर- |
: : - {९९६} ८ वरतराज [ प्रपान्दाण्वि-
जयं च विजयं चैव गदादीन्यायुधानि च \! मण्डपं तोरणेयुक्तं पटवस्त्रेण भूषितम् । ` ॥
सुवणेप्रतिमां कृत्वा घण्टां गरुडलाञ्छिताम् ।\ उपचारः षोडल्भिरचय्त्वा रमा- `
. पतिम् \} रात्रौ जागरणं कुर्याद्गीतवाद्यादिमङ्धलः ।। वुतेनाष्टात्तरसतं पावकं
हवनं चरेत् \ अतोदेवेति मन्त्रेण ब्राह्मणान्भोजयेत्ततः ।। पीठदानं ततः कुर्याद्घ-
ण्टादानं तथेव च ।! घण्टादानस्य माहात्म्यं वक्तं कन हि शक्यते ।\ दीधदानं ततः |
कुर्याद्ब्रतस्पूतिहेतवे।।इदं व्रतं मया पूवं कृतसुत्यत्तिहेतवे। तेन त्रतप्रभाबेण सृष्टचु- =
त्पत्तिर्मया कृता ।। कतेव्यं तु प्रयत्नेन सवंकामाथसिदधये \\ य इदं कुरुते वत्स स॒ `
सक्षान्मामकी तनुः \। इति श्नीब्र° पुराणे ब्रह्मनारदसंवादे मौनव्रतं तदु्यापनच ¦! |
(५ अथ मौनव्रतं तथा उसका उद्यापन--नारद बोले कि, हे बरह्मन ! मुके उत्तम मौनव्रतकहिये एवं
फलदान मौर उसका उद्यापनभौ बता दीजिए 1 ब्रह्मा बोले कि, है नारद् ! सावधान होकर सुन, है मुनिरा- _
` सत्तम! इसं मौनव्रतको चातुर्मास्यमं करे, जिसके करनेसे विष्णु संदिर मिल्जाता है उसकी विधि कहता हुं
मेरे मृखसे सुन, त्रतके मध्य आदि ओर अन्तमं उद्यायन--करे, इससे ब्रतको पुति होती है । स्नान ओौरनित्य
नियम करके जआादरके साथ संकल्प करे, स्व॑तोभद्रमण्डल बनाकर ,उसपर विष्णुकी पूना करे ! उक्ष पर |
` लक्ष्मीसहित नारायण तथः ब्रह्मा जादिक देवताओंका पूजन करे । इारपर पुण्य्ील, सुशील जय ओर |
विजयकीो पुजे गदादिक आयुधोको पना करे । तोरण सहित मण्डप बनावे, उसे पटु वस्त्रो सुशोभित करदे, |
-गरुडसे युक्त घंटा ओर सोनेकौ प्रतिमा बनावे सोरहोडपचारोसे रमापतिकी पूजाकरे गाने बजानेकेसाथ ` |
रातकोजागरण करे । घीसे एकसौ आठ आहूति “अतोदेवा इसमन्तरसे दे पीछे ब्राह्मणभोजन करावे, = |
धम अथं ओर कामकी सिद्धिकरे लिए प्रयत्नके साथ करना चाहिये । जो इस व्रतको करता है, बह साक्षात् । | |
1 | इते ९ षः भ
भेरा शरीर है) यहं श्री ब्रह्मपुराणका कटारा ब्रह्मा ओर नारदके संवादका मौनत्रत ओर उसका उद्यापन | 1
अथ प्रपादानविधानम ८ 1
युधिष्ठिर उवाच ।। कथं कुष्ण तरन्त्यत्र संसारगहुरा्नराः ।। स्वल्पेनैव ०
छु कालन खन तथा दानेन मे वद ।! कृष्ण उवाच ।। विधानमेकमतुलं स।भान्यं नर- ।
सेविताम् 1 ।\ प्रपादानस्यं राजेन्द्र कथ्यमानं श्युणुष्व तत् ।! यस्मिन्पथि जलं नास्ति ¦
नास्ति ग्रामः समौपगः।। प्रपा तच प्रकतेव्या सवं कामेप्सुभिनरेः।। माघमासेऽसिते |
॥ कृत्वा तु मण्डपं रम्यं चतुरं सुशोभितम् ॥ छाया `
6
1 कन्वश्विं०] ~ हिन्दीटीकासहित
णोदगकराणकाया्िनि पज ष पततत ४
णथणिजमीामककनाण कयाय कष तषेनानरतकृनया्भडनोव)
कल्पयेत् ।\ एवंविधा प्रपा प्रोक्ता विद्रदधुष्मकोविदेः ।। शिशूनां जननी य्त् `
` कषुततडाहरणे क्षमा ।। सर्वेषामपि वर्णानां प्रपा वे पोषणे क्षमा \। नन्दन्ति पितरस्तस्य `
तुष्यन्ति कुलदेवता: ।। स्तुवन्ति मनुजास्तं तु येनाध्वनि कता प्रषा \\ ऋतुकोट्दिते- `
यत्तु तत्पु |
| ण्यं लभते नरः \\ उद्यापनर्विध कुर्यात् प्रपादानमनृत्तमम् ।) तस्याःसर्वाणि `
पात्राणि नाह्यणाय निवेदयेत् \\ भोजयेच्च यथाशक्त्या ब्राह्मणांस्तोषयेत्ततः।॥
` प्रपामन्दिरदानेन कृतकृत्यो भवेन्नरः ।। दुभिक्षे ग्रासमात्राच्नं ग्रीष्मे बिन्दुसमं
जलम् \\ तत्तुल्यं कुलकण हयमेतत्ततोऽधिकम् \। एवंविधा प्रपा प्रोक्ता मुनि-
भिस्तत््वर्द्ञिभिः ।! राजन् बरा लघुर्वापि सवेकामविर्वाधनी ।। इति श्रीभविष्य-
पुराणे प्रपादानं सोद्यापनं सम्पुणम् ।। 1
व प्रपादान--युधिष्ठिरजी बोले कि, इस संस्ाररूपो गहासे थोडे समयमे दानसे मनष्य करते पार
होजाते हें ? यह मुञ्चे बताइये । कृष्ण बोलते कि, एक सामान्यसा अपं विधान है । मे प्रपादानका फल कहता ` ८
हहे राजेन ! सुन, जिस मार्गमे जल न हो तथा भ्राम भी नजदीक न हो, वहां सव कामनाभेकि बाहनेवादे |
` भनुर्ष्योको प्याऊ लगानी चाहिये ! माघमासके कृ्णमक्षमे विशेष करके शिवरात्र दिन चार हारका एक `
। न्दर सण्डप बनावे । ठ स्तम्भोसे शौतमयौ छाया करे । एक मुख या दो सुल हौ, जहां माका वाहृत्य |
योनी बहते मागं मिरते यां छूटते हो, वहां बनानी चाहिये । मजबूत मिरी वा ताबेके सुन्दर बडे बडेघट
। हो, जबतक वर्षात न आये तबतक उन वडोंको कभी लारी न होने दे, यवागूतकः व्यंजन शकंरापानक तथा `
सरे भी बहुत कुछ हों उनसे सजौ रखे तथा लवणयुक्त तक्र ओर ताम्बूल ये वस्तु भी अपनी शकते अनुसार `
रखे, नहीं तो केवल पानी ही रखे । ब्रह्म चिह्लसे रक्षित ब्राह्यणोक्षा पात्र अलग रखे । पहिले स्वस्तिकचन् =
1 कराकर पीर सब तयार करे । घर्मे जाननेवाले विहानोने इस तरह प्रपा कहौ है जसे मा बालककी भूलको 1
` हर लेती हैः उसौ तरह ्रपा भी सब वेकि पोषणमें समथं रहती है । उसके पितर प्रसन्न तया दरुच्देवता तुष्ट =
होनाते हे, उसकी मनुष्य प्रशंसा करते हँ । जिसने मार्गम प्रपा बना दी, वह् मनुष्य कौटि यजञका फएञ पानाता 1.1
है । यह अतिशेष्ठ प्रयादान ह \! उद्यापनकौ विधि--करे प्रपा (प्याऊ) के सब बरतनोको ब्राह्मणोके लिटि |
` इेदेतथाश्ञकितिके अनुसार ब्राह्मण भोजन करावे । प्रपा मंदिरके दानसे मनुष्य कृत्ृत्य हौजातां
ग्रास मात्र अन्न, शरौ्ममे बिनदुके बराबर पानके देनेमे जो पुष्य होता है, वह दो लाल यज्ञोभेभौ अधिक है
त्वदल्ौ सुनियोने एसी प्रपा बताई है । हें राजन् ! छोरी हो वा बड़ी सवे ।
(स तान = 1 लक्ाण्दीण्वि-
निमितं पद्मं देवाय विनिवेदयेत् ।। आचार्यं बरयेत्त्र वेदवेदाङ्खपारगम् ।\ ततो `
` होमः प्रकर्तव्यस्तिलाज्येः पायसेस्तथा ।\ अष्टोत्तरसहस्रं वा इतत्रयमथापि वा ।॥ `
` गायत्रीमन्त्रतो राजन्मूखमन्त्रेण वा ततः ।\ गोदानं च प्रकतेव्यं सूर्यस्थहरितुष्ट्ये।! `
ब्राह्मणान्भोजयेच्छक्त्या शकंराक्तपायसंः ।। तेभ्योऽपि दक्षिणां दद्याद्वित्तशाठ्च- `
विर्वाजितः।। प्रतिमां कलशं चेव पद्चं पूजादिकं तथा ।। अतोदेवेतिमन्त्रेण जचार्याय |
निवेदयेत् ।। प्रदक्षिणां नमस्कारं कुर्यान्मूरध्ति कृताञ्जलिः ।। श्रीकृष्ण उवाच |
एतत्ते ब्रतमाख्यातं स्त्रीणां कामफलाप्तयं ।। पुत्रपोत्रादिसन्तानवृद्धयर्थं कुरुनन्दन ।\ ` ।
या नारी कुरुते भक्त्या हरिस्तस्याः प्रसीदति ।। इति श्रौसौरपुराणे लक्षपद्व्रतं
सोद्यापनं सम्पुणेम् ॥ ग |
| लक्षपद्मविधि--ह कृष्ण ! कपा करके मुवितिदायक तथा दुःखनाडक पुत्र पौरका देनेवाला कोई |
छ ५५ शवष्ठ व्रत किये । श्रीकृष्णजौ बोरे फि, है राजन् ! सबतव्रतोसि बड त्रतको कहताहूं । वह स्तियोके सबदुःखेकषि `
` हरनेवाला तथा सब कामोको देनेवाला है । मुर जौर शुकके अस्तसेरहित अच्छे महीनेके शुक्लपक्षसे प्रयत्नक्े- = `
. साय रङ्खवल्लीसे लक्षयद् चिखना आरभे कर दे, श्वेत तण्डुले सुर्यमे रहनेवाकते जगदीदवरका पूजन करे!
्रतकी पूतिके फलके लिए समाप्तिमे उद्यापन---करे ! जिससे कि, त्रत पूरा होजाता है, इसे सावधानीके `
साथ सुन \ सोनेको सुयेको प्रतिमा बनावे, वेदीमे पदमसहित स्वरितक बनावे । उसपर कलक्षस्यापित करके
रक्तवस्त्रसे वेष्टित कर दे \ पञ्चामृतसे स्तान कराके देवकी दिव्य गन्ध, पुष्प, अक्षत जौर धूष दीपोत्े `
पुजा करे, सोनेका बनाया हुञा पद्म देवकी भेट करे । वेदवेदाङ्खोके जाननेवाँङे आचार्यका वरण करे । तिल ` |
भाज्य ओर पायससे होम करे ।\ गायत्रीमन्त्र या मूलमन्त्रसे एक हजार आठ वा तीनसौ आहुति ३ । सूर्यम
¦ हिरष्मय 0 पुरुष होकर रहनेवारे भगवानकी प्रसन्नताके लिए
ए गोदान करे । बराह्मणोको शकरा घी ओर पायते ` ।
. जिमावे, षनके लोभको छोडकर उन्हं दक्षिण दे । प्रतिमा कलह, पद्य ओर दूसरा सबपजाका सामान “अतो
देवाः इस मन्त्रसे आचाय्यंको देदे, हिरपर अंजलि करके प्रदक्षिणा ओर नमस्कार करे । श्रीकृष्ण बोलेकि,
मेने स्त्रियोको उत्तम फल पानेके लिए व्रत कहदिया है, हे कुख्नन्दन ! इससे पुत्र पौत्रादि सन्तानको `
द्वि होतीहै\ जोस्त्री इसे भवितके साथ करती है, भगवान् उसपर प्रसन्न होते हे । यह धीषौरषुरा- ` `
कहा हुमा लक्षिपद्मव्रत उद्यापनके साय पुरा हञा । | 1
` अथ लक्षादिदीपदानविधि 1)
स्कन्द उवाच ।। रद्रसंख्यान् शिवस्याग्रे दीपान्प्रत्यहमपयेत् ।। वषेमेकं तदधं `
षटयमथापि वा ।। लक्षसंख्यास्तदर्धान् वा द्विलक्षान्वा स्वशक्तितः ॥ दीप-
भाला यथादाक्तया कातिके शद्वयान्वितः ।। घृतेन ये प्रकुवेन्त तापय दवमित)
~ श पहुंचता है । दीपदानके प्रभावसे यहां ज्ञानी हीते हं सौककलो । जो रोज क
+." ईन्दंरविऽ०; ध हिन्वीरीकासहित ` = (44) ~
(8 कर्षमात्रसुवर्णेन तदरघर्धिन वा पुनः ।। प्रतिमां शंकरस्याथ उमया सहितस्य च
इ आचायं वरयत्तत्र अभिन्नं वेदपारगम् ।! कलं स्थापयेद्रा्रौ स्वक््तिवाचनप्व- ०
` कम् ।\ उमामहेश्वरं हैमं स्थापयेत् कलश्ोपरि ।। उपचारः षोडाभिः पजयेच्च `
पृथक् पुथक् ।! रात्रौ जागरणं कुयत्पुराणभ्रवणादिभिः ।। प्रातःस्नानं विधायाथ. ए
. होमक्मं समारभेत् ।। तिल्सपियंवैश्चापि चरुणा बिल्वपत्रकेः ।। आन्यप्लृतैश्च `
प्रत्येकं सद्योजातादिमन्त्रतः ।। शतमरष्टोत्तरं हूत्वा होमेषं समापयेत् ।! उमामहे `
वरं देवं पुजयेततु पुनत्रेती ।। प्रतिमां वस्त्रसहिताताचार्यय निवेदयेत् ।। सहिरण्यं
सवत्सां चा धेनुं दद्यातप्रयत्नतः ।। अनेन विधिना यस्तु ब्रतमेतत्सभाचरेत् ।। स॒ `
भुक्त्वा विपुलान्भोगान् शिवसायुज्यमाप्तुयात् ।! ब्राह्मणान् भोजयेत्पश्चाद्स््ा- `
कंकारभूषणैः । गुरोराज्ञां गृहीत्वा तु भुञ्जीयाद्रन्धुभिः सह ।। एवं यः कुरुते `
` मर्त्यो लक्षदीपादिदीपनम् ।\ नरो वाप्यथवा नारी सोऽदनुते पदमन्यम् ।! ज्ञानम्- 1
व्यद्यते तस्य संसारभयनाशनम् ॥ सर्वपापक्षयं याति जन्मजन्माजितं च थत् ।॥। `:
१ । बाल्ये वयसि यत्पापं यौवने वापि यत्कृतम् ।। वाधंकेऽपि कृतं पापं तत्सवं नक्यति ` ५
धवम् । स्वेपापविनिमुक्तो भुक्त्वा भोगान्महीतले ।। सर्वान्कामानवाप्याथं |
। सोऽ्नुते पदमव्ययम् ।। इति श्रीस्करदपुराणे लक्षादिदीपदानोद्यापनं सम्पूर्णम् ।॥ `
। |. लक्षादिदीपदानविधि--स्कंद बते कि, शिवके सामने इक्कीस दीपक रोज दो एक या आधे वर्षतक |
। जावे \ कातिकमं शक्तिके अनुसार धद्धपुवेक दो एक या आधीलाख दीपकोकी माला बनावे । जो |
। धृतके दीपक करते हँ उनके पुण्य सुनो । जितने समयतक उनके दीपक महादेवजीके सामने जलते हें उतने `
हनारयुग वह शिवलोकमे प्रतिष्ठित होता है, कुसुंभाके तेलके शिवाल्यमें दीपक दे तो वहं उस पुष्यसे केलासमे
वेदाङ्धंपा
त्मनः। गजाननस्य सन्तुष्टया द्रव्यं तदेते नु किम् । १० ।। इत्यार्चरयं महदद्ष्टुं `
( (९७०) | ४५९. . ब्रतराजु क । [ लक्षदूवा- ५.६
अथ श्लक्षदूर्वापजनविधि
(शस्सेन उवाच ।\ लक्ष पूजाविधि सम्यक् कथयस्व ममाग्रतः ।\ यं कृत्वा
प्राणिनः सवं भवन्ति सुखभागिनः ।! इन्द्र उवाच ॥। श्रावणे च चतुर््या तु भौमवारो `
यदा भवेत् । श्ुभेऽद्भि वासरे वापि पुजाकमं समारभेत् ।\) अथ दूर्वामाहात्म्यं `
गणेशषपुराणे उपासनाखण्डे-कौण्डिन्य उवाच ।। करसिमिश्चित्समये देवि वासनं `
गजाननम् ।। नारदो सुनिरभ्यागाद्द्ष्ुं तं बहुवासरः ।\ १।। साष्टाद्धं प्रणिपत्यैनं ` `
. ग्राह नः सार्थकं जनुः ।। यत्पुण्यनिचयंजतिं दहनं ते गजानन ।। २ ।। इत्युक्त्वा `
स्वाञ्जलि बदध्दवा तस्थौ तत्पुरतो मुनिः ।। धत्वा करण तत्पाणिमुपवेशयदासने
॥ ३ ॥ गजाननो महाभागो महाभागं महामुनिम् ।। नारदो भगवांस्तेन सन्तुष्टो
५ मुनिपुद्धवः ।। ४ ॥ उवाच तं गणाधीहामादचयं हृदि मेऽस्ति यत् ।। तच्िवेदितु-
` मायातो नत्वा त्वां पुनराव्रजं ।\ ५ ।। गजानन उवाच ।। किमाह्चय त्वया दृष्टं `
` हृदि कि तेऽभिवतेते ।॥ वद सर्वं विशेषेण ततो व्रज निजाश्रमम् । ६ ॥ नारद
उवाच ।\ मेधिके विषये देव जनको राजसत्तमः ।। अतिमानी वदान्यद्च वेद- `
वेदाद्धंपारगः ।\ ७ ।। अच्नदानरतो नित्यं ब्राह्मणान् पुजयत्यसो ।। नानाल्कार-
वासोभिदेक्षिणाभिरनेकशः ।! ८ ।\ दीनान्धकरपणेभ्यश्च बहुद्रव्यं ददात्यसौ ।\
याचकर्याचते यद्यत्ततत्तेन प्रदीयते \\ ९ \। तथापि न व्ययं याति द्रव्यं तस्य महा-
प्रयातस्तद्गृहानहम् । ब्रह्मा ज्ञानाभिमानेन उपहासं ममाकरोत् ।। ११ ।। अहं च `
गर्वादुवाचेत्थमहमीशो जगत्रये । अहं दाता च भोक्ता च पाता `
तर ८ १३ ।। मत्स्वरूपं {चिन नान्यहिद्ते तस्य ।। कर्ता च कारण
| पूजनविषि ॥ द हृन्दाराकासाहूत ` कनी (९७१)
ब यसय
` मिथिलां राजर्भाक्त परीक्षितुम् \\ कुत्सितं वेषमादाय स्व्॑लोऽपि समाययौ ।\ १९ ` ठ
` अनेकक्षतसंयुक्तं स्रवद्रक्तममद्धलम् !\ मक्िकानिचयाक्रान्तं रवहीनमिवातुरम् `
॥ २० \। गच्छन्तं तादृ दृष्ट्वा नरा नासानिरोधनम् \। कुर्वन्ति वाससा केचित् `
ष्ठीवनं च यथा तथा ।) २१ \ स्वलन्मूचन् पतन् गच्छल््भकावलिसंयुतः ।। नप- `
द्वारं समागम्य हारपालानुवाच सः \। २२ ॥। राज्ञे निवेचतां दुता अतिथि मां समा- `
` -गतम् \। ब्राह्मणं क्षुधितं वृदमिच्छाभोजनकांक्षिणम् ।) २३ ॥। ते तद्वाक्यं तथा-
` चख्युगेत्वा तं जनकं नपम् \\ आनीयतामिति प्राहु दूता रषु तु कौतुकम् ।\ २४।॥ `
असुकृस्वन्तं वृद्धं तं ब्राह्मणं श्रमवारिणम् ।\ तकंयामास जनक ईश्वरो रूपधृक् `
| नु किम् \। २५ ।। छलितुं मां समायातो यदि पुष्यं भवेन्मम ।\ समाधास्ये मनो 0
| | द्यस्य भविष्यं नान्यथा भवेत् ।। २६ ॥ इत्येवं चिन्तयत्येव जनकं नृपसत्तमे । 1
। प्रवेशितो द्वारपालर्बराह्मणः पयंदृर्यत ।। २७ ॥। ब्राह्मण उवाच । चनद्राशुधवलां ८
| कीति श्रुत्वा तेऽहं समागतः ।। देहि मे भोजनं राजन् क्षुधितस्य चिराद्भृश्षम् ।॥ `
| 1 २८ ।\ मम तृप्तिभेवेद्यावत्ताबदघं प्रदीयताम् ।। तव कतुरातं पुष्यं भविष्यति `
| नरेश्वर ।\! २९।। कौण्डिन्य उवाच \। इति वाचं निहाम्यासो गृहमध्ये निनायतम्! `
संपुज्य विधिवच्चेनं स्वाद्र्सुपवेषयत् ।\! ३० ।! एकग्रासेन सव स जग्रास द्विज
| सत्तमः । यावदच्नं स्थितं सिद्धं पर्याप्तमयुतस्य यत् ।! ३१ ॥ तदत्तं पुरतस्तस्य `
भक्षत तत्कषणेन सः 1 असंख्यातेषु पात्रेषु पक्तुं क्षिप्ताः सुतण्डुलाः ॥ ३२ ।॥ `
| आनीयतास्य पुरतोऽत्र सिद्धहचोदनोऽभवत् ।\ स भक्षयति सवं तं तत उचे जनो
| | नृपम् ।। ३३ ।\ राक्चसोऽयं भवेत्प्रायः किमर्थं नोयते बहु ।। राक्षसेभ्यः प्रदानेन `
| नं किंञ््चितपुण्यमाप्यते ।! ३४ ।। केचिदचुस्तरिभुवने भक्षितेऽप्यस्य नो भवेत्
५ तप्तिः परमिका राजन्धान्यमस्म प्रदीयताम् ५ | ८ ॥ १ ३ ^ ८ हतो ` धान्य
०
[ए | तदनः. - `, 5". त चदव |
सर्वोपस्कररहितं धातुपात्रविजितम् ।। ४३ ।\ इति भरीगणेश्ञपुराणे उत्तरखण्डे `
[न अध्यायः \\ ६५ कौण्डिन्य उवाच ।! धरयाभानत्रासनो तौ तु नभः त्राकार संयुतौ \।
दिगम्बरो स्वेधातुसंस्यशर्वाजतावुभौ ।\ १९ ।\ अयाचितभुजौ नित्यं जलेनेवा-
खिलाः क्रियाः ।। द्विजरूपधरोऽपयत् कुर्वाणौ सत्त्वशुद्धये \\ २ ॥। गृहं च मक्षिका- `
( पुञ्जै्मशकेरभितो वत्तम् ।। मृति च गणनाथस्य पूजितां पुष्पपल्लवंः ।\ ३
१ असभ्य
अनन्यभक्त्या ताभ्यां यत्तत्पराभ्यां ददशे सः ।। तावृचे श्रूयतां वाक्यं यन्मया प्रोच्यते-
` ऽनघौ ।। ४ । भिथिलाधिपतेः कोति भरुत्वाहं क्षुधितो भृशम् ।! तृप्तिकामः समा-
यातो न सतुप्ति समाकरोत् ।\ ५ ।\ कर्मणा दाम्भिकेनेव सतत्वं न परिरक्षयते ॥
` मम तृप्तिकरं किञ्चिद्गृहे चेदस्ति दीयताम् ।\ ६ \\ दम्पती ऊचतुः ।। चक्रवर्तो
नृपो योऽसौ तेन तृष्तिनं तें कृता ।। आवाभ्यां तु दरिद्राभ्यां कि देयं त॒प्तिकारकम्
॥ ७ ॥ नदीनदजलैर्योऽन्धिरसंखयरनापि पूयते । बिन्दुमात्रेण सहसा स कथं पूर्यते `
वद ।। ८ ॥। द्विज उवाच ।। भक्त्या दत्तं स्वल्पमपि बहूतुप्तिकरं मम ।। अभक्त्या
त्प्रदीयताम् ।। ११ ।। कौण्डिन्य उवाच । विरोचना ददौ तस्मे श्चत्वा वाक्यं
पायसा च नानापक्वान्षमेव च ।। व्यञ्जनानि च सर्वाणि लेह्यचोष्या
यच्च दम्भेन बहुदत्तं वृथा भवेत् ।} ९ 11 दम्पती ऊचतुः 11 आवयोनं गृहे किचिच्छ- `
पथस्तं दह्िजोत्तम ।! पुजाये गणनाथस्य प्रातदर्वाडकुराहुताः ।। १० ।! पूजितो `
गणनाथस्तस्तत एकोऽवशिष्यते ।। हिज उवाच ।\ भक्त्या दत्तः स एकोऽपि तप्तथे .
दूर्वाडकुरेऽखिलम् ।! गहीत्वा ब्राह्मणस्तं `
दर्वाडकुरे भवत्या दत्तं तेनाथ भक्षिते॥।
| पजनविधि ] हिन्दीटीकासि ४ टीकार्सा
` परमां ययौ ।। इति ते कथितः सम्यगाश्चये महिमा शुभः ।। २४ ।। दूर्वासम्पणभवः ॥
श्रवणात् सवेकामदः ।\ इतिहासमिमं भक्त्या ब्युण॒ते श्रावयेच्च थः \\ २५।। स॒ |
पूत्रधनकामाढ्यः परत्रेह च मोदते! गजानने लभति निष्कामो मुवितिमाप्नु- |
यात् \२६।। गणा ऊचुः 11 भरुत्वापीत्थमितिहासमाश्रया संशयं पुनः \। प्रदे हृदितं |
` ज्ञात्वा कौण्डिन्यो मुनिरन्रवीत् ।। २७! आशये श्यृणु मे वाक्यं संशयस्यापनत्तये ।। `
यद्रदामि हूदिस्थस्य मया ज्ञातस्य तेऽनघे ।। २८ ।\ एकं दूवाकुर गह्य गच्छ शीघ्रं
` बिडोजसम् ।। बदाशीवेचनं पुवं पदचाद्याचस्व काञ्चनम् ।1 २९ ॥ दुर्वक्रिरेण
तुलितं गृहीत्वा तदिहानय ।। न न्यूनं नाधिकं ग्राह्यं तस्य भारच्छभानने।\ ३०॥ `
| इति श्रीगणेशपुराणे षट्षष्ठितमोऽध्यायः ।! ६६ ।। आज्ञप्ता तेन मुनिना स्वामि- `
| प्रेताथसिद्धये ।\ एकं दूवाकुरं गृह्य क्षक्रसन्निधिमाययौ ।। १ । तमुवाचाश्रया
| ज्ञ देहि मे काञ्चनं शुभम् । याचितुं त्वां समायाता भतं बाक्यात्सुरेष्वर
| ॥२\\ इन्द्र उवाच! किमर्थं त्वमिहायाता यद्याज्ञ प्रेषिता भवेत् \ मया संपरषितं `
। स्यात्ते जातरूपं स्वशावितितः ।। ३ । आश्वयोवाच । दू्वकुरस्य तुल्या थन्दूवेत् `
` काञ्चनं सुर ।! तद्गृहीष्ये शचीभर्तनं न्यूनं न च वाधिकम् ।। ४ । इन्द्र उवाच ।॥ `
` इतैनां नय शीघ्य' त्वं कुबेरभवनं प्रति ।। स दास्यति सुवणं च द्वाकुरमितं शुभम्
॥ ५। गणा ऊचुः ।। आज्ञया देवराजस्य देवदूतस्तया सह ।! प्रायत्कुबेरभवन
शक्रस्य वचनात्तदा \\ ६।। अस्य दूवौकुरमितं जातरूपं प्रदीयताम् ।। इन्द्रेण प्रेषिता =
सां थ्वी मुनिपत्नी मया सह ।। ७ । प्रापिता भवनं तेभ्य यामि देव नमोऽस्तु
(९७२)
( ९७४ ) त 2. | ` बुतराज | [ लक्षदूर्वा च
। ८4; ५ प 4 नि ग 0 व
, तस्य धटमाररहे तदा ।। १७ ।\ न समा सापि तैनासीत्ततः सव पुरीं ददौ
घटमध्ये कूबेरोऽसौ न चो्वं जायतेऽकुरः ।। १८ !! भुत्वा दूतमुखादिन््ो गजा- `
रूढः समाययौ । स्वकीयद्रव्यसहितो धटमारुरहे स्वयम् । १९ 1 द्वकुरो `
न चोर्ध्वं स तथापि समजायत । अधोसुखो गतश्िचन्तां किमेतदिति चिन्तयन्
॥ २०॥। विष्णुं हृरं च सस्मार तत्रारोहणकाम्यया 1\ तत्रागतौ सनगरो धटमारहतां `
` तदा । २१ ।॥ तथापि नौध्वमगमत्तदा दूर्वाकुरः स्फुटम् ।। ततस्ते तत उक्तेः `
क्षिवविष्णुधनेहवराः \) २२।। बरुणेनद्राग्निमर्तो कोण्डिन्यमभिते ययुः ।। देवा
देवर्षयश्चापि सिद्रविदाधरोरगाः ।\ २३ 1 दिनान्ते समनुप्राप्ते स्वं नीडमिव
पक्षिणः \\ नमस्कृत्य मुनि सवं प्रोचुरद्िगनचेतसः ।\ २४ ।। सवे उचु।। वुजिनं `
विलयं यात दश्ञेनात्तव भो मुने ।। पुवेपुण्यभवादग्रे कल्याणं नो भविष्यति ।। २५ ५
तवं पल्न्याहूतं सतत्वं स्वेषामद्य नः स्फुटम् ।। महिमानं न जानीमो दूवाकुरसम्-
इवम् ॥ २६।। एकदूरवीकुरतलां त्रैलोक्यमपि नालभत् ।।गजाननशिरस्थस्य त्वया `
भक्त्यापितस्य च ।। २७ ।! जानीयान्महिमानं कः सम्यर्दूर्वाकुरस्य हि ।॥। गजा- = `
. भ्ेषकलानिधिह्च वरुणो नो चन्द्रमा ना्िव नो 1; त र ो वाच र मधिपो न चै
प क...
कभक्तस्य जपतस्तपतो भृशम् ।\ २८ ।! तवापि महिमान को जानीयात्सवं-
ण्नाद्धिरा माहात्म्यं परिवेद देव निगमैरज्ञातरूपस्य ते ।। ३० एवं संतोष्य `
; स्वे ते देवदेवं गजाननम् ।। सुनि च समनुज्ञाप्य ययुः स्वं स्वं निकेतनम् ॥। ३१ ।\ `
(1 अ श्रूयापि ष्व तत १ ततो ज्ञात्वा दूर्वामाहात्म्यसुत्तमम् ।} बिहवस्ता भत् वाक्ये सा दूर्बाभि र
=. ~ व
~ ~ =
= 2 र
| पूजनविधि। हिन्दीटीकासहित (९७५)
` स्मरणात्पापं त्रिविधं विलयं ब्रजेत् \\ तत्स्मृतौ स्मर्यते देवो थतः सोऽपि गजाननः `
१ इति चिन्तामणे: क्षेत्रे महिमा ्वाणितः स्क्टम् ।। श्रवणात् कीर्तनादचाना- `
` दृभुक्तिमुक्तिफलग्रदः ।।! ४२ । एतस्मात् कारणाद्यानं तयाणां प्रेषितं शुभम्! `
रास्मस्य मुखाहर्वा गता देवें वषस्य च ।\ ४३ ।। चाण्डाल्या कीतनाश्चाय त्वानीता `
तृणभारतः ।। वायुना प्रेरिता सापि गता दूर्वा गजानने ।! ४४।। यतस्तस्यश्रिया `
दर्वा सन्तुष्टोऽसौ विनायकः ।। निष्यापत्वत्रयाणां च सान्निध्यं दत्तवाध्निनम् `
, ४५ ।। गर्वासान्रण द्वया सन्तुष्टो जायते विभः ।। पसन तु भावाच्च | ।
` किपुन्मस्तकार्पणात् ।\ ४६ ।। ब्रह्मोवाच ।। इति दूतमुखा्रान्ना संभूतो महिमा `
| तदा ।। दूर्वाया मुनिभिः स्वेन दृष्टो न च संश्रुतः ।। ४७ ।। स्नात्वा दूर्वाङ्कुरान् `
| गृह्य पुपुजुस्तं विनायकम् ।\ सेवकाश्चापि दूर्वाभिरानर्चुः श्रीगजाननम् ॥ ४८।॥ |
। जासन् सें दिव्यदेहास्तेजसा सूयवचंसः ।! श्युण्वन्ता दिन्यवाद्यानां नानारावान् ` व ( |
| समंततः ।। ४९ ।। विमानवरमारूढा दिव्यवस्त्रानुकेपनाः ।। याता वैनायकं घाम
| केचिद्ूपं च धारिणः ।। ५० ।\ नरा नागरिकाः केचिदागतास्तं महोत्सवम् ॥। द्रष्टुं
। दूर्वाभिरान्चुरेकविश्षतिभिः पृथक् ।। ५१ ।! भुक्त्वा भोगांश्च ते सवं गाणेशं
४ भक्तेन कार्य दूर्वाभिरचंनम् ।। न करोति नरो यस्तु प्रमादात्ताभिरचंनम् ।\५३।\ |
| चाण्डालः स तु विज्ञेयो नरकान्प्रापनुयाद्रहुन् ।। न तन्मुखं निरीक्षेत कदाचिदपि |
( ध पापी शुद्धिमवाप्नुयात् ।। ५५ ।! अलाभे बहदूर्वाणामेकयैवाभिपुजयेत् । (लक्ष `
(, र ५ ।। ५६ \। ब्रह्मोवाच । इति नानाविधो राजन् महिमा कथित स्तव । सेतिहासस्वु
पूजयेद्यो गजानम्) ॥। तेनापि कोटिगुणिता कृता ' ८4 नान
र्वाणां भवणात्पापनादानः ।। ५७ ।\ नाख्येयो दुष्टबुद्धे प्रये पुत्रे निवेवयेत् ॥
(९७६) ५ व्रतराजः-" - -: -.: {कदू
ब्राह्मणैः सार्धं कृत्वा च स्वस्तिवाचनम् ॥ नान्दीश्राद्ध प्कुर्वीत लक्षपुजाविधौ
दिनः \॥ प्राणायामत्रयं कृत्वा देशकालौ स्मरेत्सुधीः ।। गजाननन चतुबाहु- `
मेकदन्तविपाटितम् ।} विधाय हेम्ना विष्नेशं हेम पीठासनस्थितम् \। तथा हेममयीं -
दूर्वा तदाधारार्थमादरात् ।। संस्थाप्य विष्नहर्तारं कलशं तास्रभाजनं ।। वेष्टितं
रक्तवस्त्रेण स्वेतोभद्रमण्डले ।। पुजयेदुक्तकुसुमेः शमोीदूर्वाभिरचयेत् ।। गन्धपुष्यद्च
धृषेश्च दीपेनेवेद्यमोदकंः ।। पर्चाद्गन्धाठचटूर्वामि रचैयेद्गणनायकम् ।। भक्त्या
नामसहस्रेण अथवा शतनामभिः \\ ससंख्या सकला पुजा संख्याहीना तु निष्फला ।। |
एवं संपुज्य विधिवत्युजान्ते होममारभेत् ।\ आचायं वरयेत्ुवंमूत्विजद्चेकविश्तिः।! ` ¦
गणानां त्वेति मन्त्रेण अयुतं होममाचरेत् ।। जथवा दूर्बमिन्त्रेण अयुतं तु समा- `
चरेत् ॥ दूर्वामन्वः-त्व दूवेऽमुतजन्मासि वम्दितासि सुरासुरैः ।। सौभाग्यं सन्तत =
` देहि सर्वेकायेकरी भव ।। यथाश्ाखप्रलाखाभिविस्तृतासि महीतले ।\ तथा ममापि
सन्तानं देहि त्वमजरामरम् ।\ सहस्रनामभिरहोमं स्वाहाकारसमन्वितेः ।\ मधुमि- `
श्वैस्तिलै्लजिः पृथुकंरिश्षुखण्डकेः । लडड्केः पायसान्नेन सक्तेन च कारयेत् ।॥ `
पूर्णाहुति ततः कृत्वा बलिदानं ततश्चरेत् ।। होमशेषं समाप्याथ ब्राह्मणान्भोजये- ` (
: ।\! आचार्यं पजयेत्पश्चाद्रस्त्रालंकारभषणेः !\ एवं मे ब्ह्मणादिष्टं व्रतं लोको-
पकारकम् ।। तदेतत्कथितं तेऽद्य कुरः पुत्रा्थमादरात् ।। य इदं श्युणुयाददुक्त्या वाज-
पेयफलं लभेत् ।\ इति लक्षदूर्वापुजनोद्यापनं संपुणेम् ॥ ८ 1
काल दूर्वासि पूलनेको विधि--शूरसेन बोकते कि, लाख दवस पूजने की विधि किये, जिससे सब `
मनुष्य सुखभागी होजाते हें \ इर बोला कि, श्रावणको चौथ जब मंगल्वारी हौ इस पवित्र दिनमें पुना-- = `
क्का प्रारंभ करे । दर्वा माहात्म्य--गणेशपुराणके उपासना खंडमं कहा है \ कौण्डिन्य बोले किःहेदेवि !
समय सुखपूर्वक विराजं हुए गणेदाजीको बहुत दिनों पे नारदजौ देखने चल अये ।\१।। प्रणाम `
| परूजनविधि-। हिन्दीटीकासहित ` (९७७)
| ह 11१४\। नारद बोरे कि, उनकौ एसी वातं सुनकर भें कुपित हौ बोला कि; ईदवरके शिवा मौर कोरईक्ती `
| हीह ।\ १५१1 है राजन् ! तू तौ यह् धम कपटसे करता है यह मे थोड़े ही समयमे भ्रत्यक्च दिला दगा ।१६।॥ 4
| है इभानन { इतना कहकर मं तेरे पास चला आया हुं । कौडिन्य बोले कि, सुनिके एेसे वचन सुनकर गणेश्च- |
। जीने मूनिक्ता सत्कार किया ।। १७।} अध्यं आदिक, दिव्य अलंकार, पुष्प ओर चन्दनमे पुजन किया \ पीले मुनि `
। आन्ञा लेकर विष्ण्के वेकरुंठलोकमे चङे गये ।\१८।। सर्वज्ञ गजानन भी राजाकी भक्ति दे खनके लिये मिथिला `
। चल दिये ।।१९।। उस समय गणेकजीनं जौ रूप धरा वह बड़ा ही दयनीय था; शरीरम अनेकों घावये \ जगह `
| | जगह बुरे राधिलोहुं निकल रहे थे, मख्लियां भिन-भिना रहौ थीं शंत मुखभे एक नहीं था ओर आतुरतारीख `
। पडता था \1२०।। उन्हं जाता हज देवकर मनुष्य इवास रोकते थे ! कोई कपडसे नाक उक्तेथेतो कोर्ईदेख- `
| कर थूकने लस जाते थे ।\२१।} गिरते-पडते मूत होते हुए चलते-वलते राजाके दरवाजेपर षटवे । ल्डकोकी `
| लैन पीके लगी हुई थौ ! बहा जाकर द्वारपालमैसे बोले ।।२२।। कि; हे दूतो! अधे हुए मुञ्च अतिथिको राजसे =
कहो कि, एक भूखा, खावेको इच्छा भोजन चाहनेवाला वृद्ध ब्राह्मण आ गया हे ।॥२२।। इतोने कौतुक देख-
| नैके ल्यि सब समाचार जनकको जा सुनाया ! जनकने कह दिया कि, लाओ ।२४।। रोहू जौर पसीना चुचाते `
` हए उस वृद्ध ब्राह्मणको देखकर जनकने विचार क्रिया कि, ठेस रूप धारण करके ईश्वरही चले अयेक्या?
| १२५।) मुञ्चे छलनेके लिये आये हें । यदि मेरा पुष्य हु तो में इनका समाधान. कर दुगा । होनहार तै |
| टलतीहौी नहीं ।\२६।। नृपश्रेष्ठ जनक तो इस विचारमेही रहै कि, इतनेमें द्वारपालो प्रविष्ट किया गया (१ |
| ब्राह्मण दीखा ११२७।। ब्राह्मण बोला कि, तेरी चनद्रमाकी किरणो जसौ विशुद्ध कौति सुनकर मै तेरे यहां चलाः `
| आहं । ह रानन् ! मं मूला हं । मुके सौ घही एकदम भोजन दे \२८।। मे जितनेपे तुष्त होऊं उतना अन्न = `
। ३ दीजिये, है नरवर ! तुस्ने सौ यजोका फल होगा ।।२९॥ कौडिन्य बोले कि; यह सुन वह उसेअपतेवर
` ऊ जये विधिपूर्वकं पुजा करके स्वादिष्ट अन्न परोसं दिया ।३०।। वह ब्राह्मण सबको एकही ्रासमे चटकर
गया 1 उनके यहां दा हजारका अन्न तयार था 1 वहु सब जेसे-जेसे उसके सामने आया वेसे-वेसे उसौ ट; पय
। चट करता यया । जगणित पात्रोमं तण्डुल सिद्ध होने रल दिये ।३१।।३२॥। जो-जो सिद्ध होताजाता था; `
| सब परोस जाते थे, वहं सब खाता जाता था \ यह् देख लोगवाग राजासे कहने लगे कि ।\२३॥ बहुधासंभवहै
| कि, यह् रक्षसहौ। व्यो इसे दे रहे हो ? राक्षसके दियेसे क्या पुण्य होता है ? २४ वे बोलेकिःतीनों
| लेकोंके लानेपर भौ इसकी पर तृप्ति न होगौ इसे धान्य दीजिए।३५।। घर ओर भूमिमे जो सेक्डो रामे = |
(९७८) = ब्रतराज [ लक्षदूर्वा-
टके कर्मसे सतत्वकी रक्षा नहीं होती, मेरी तुप्ति करनेवाला कुछ आपके घर है, वह मुशे दे दीजिए ।1६।} दंपती व.
` बोले कि, जब चक्रवर्ती राजा आपकी तुप्तिन कर सके हम दरिद्रोके पास क्या तृप्तिका सामन है ? 11७} `
यह तो बताइये कि, जो समद्र अनेको नद नदियोसे तृप्त नहीं होता वह एकदम एकं बृंद पानीसे कंसे भर जायगा
ध बता ? ।\८।। हिज बोखा कि, भवितके साथ थोड़ा सा भी मुने दे दिया जाय तो उससे मेरी बहूतसी तृप्तिह्ये
जाती है एवं बिना भवितिके कपटसे मृश बहुत भी देना नहीं के बराबरही है ।\९॥। बे दोनो बोले कि, हे ब्राह्मण !
तेरी शपथ है हमारे घर कुछ नहीं है । प्रातःकाल गणयतिकी पूजाके लिये दूर्वाकरुर लाये थे ? \\ १०।१गगपति- `
कौ पुज्ञा कर दी उससे एक बाकौ बचा है ।। हिज बोला कि भवितिसे दिया हुभा वह दूबका अंकुर भीमेरी
` तृप्तिके लिए होगा उसे ही दे दीजिए 11 ११। ब्राह्यणके वचन सुनकर विरोचनाने भवितिभावसे वह एकदूर्वा-
. कूर उठाकर उन्हुं दे दिया उससे वह् ब्रह्मण तृप्त हौ गया ।\ १२।। शखीका अच्च पायसका अन्न पक्वान्न तथा =
५ अनेक तरहके व्यंजन लह्य ओर चोष्य \\१२।। भक्तिपुवकं दिये उस एकं दुर्वक्िरमं सब हो गये, ब्राह्यणने उसे
लेकर बड़ ही प्रेमसे खाया ।।१४।। जब उसने वह् भक्तिके साथ दिया हुआ दुर्वाकूर खा लिया तो उससे प्रदीप्त
इभा जठरानल एकदम शान्त हो गया ।\१५।) उसौ क्षण उससे परम तृप्ति हो मई । तप्त हिजने प्रसन्नताके
साथ त्रि्िरसका आलिगन किया ।।१६।। उस समय गणेशाजौने बह कुत्सितहूप तो छोड दिया जौर चतु- ४
भुजी कमलनयन सूडके दण्डसे सुञ्लोभित ।\१७।। कमल परशु माला ओर दंत हाथमे च्यि हुए सुन्दर स्यसे
प्रकट हुए । है राजन् { श्षिरपर बेकीमती मुकुट रखा हृ था; कान कुंडलसे शोभायमान घे ।\१८।। दिव्य `
4 वस्त्र पहने दिव्य गन्ध लगाये हए थ, परस प्रसन्न ही दोनों दम्पतियोसे बोले ।\ १९१। कि जो-जो आप मनसे +
चाहं रहै हों वह वह सब मांगलो, वे बोल कि, हम जिस जन्ममं हों वहां आपकी दृढ भविति बनी रह ।\२०।।
अथवा इत दुस्तर संसारसागरसे मुविति दे दीजिये, आपके चरण कालोके सिवः हे इभानन ! ओर कु हमे `
कहना नहीं है ।\२१। कौडन्य बोले कि, गणेश्षनीने उनके एसे वचन सुनकर “ तथास्तु" कहा । फिर भक्त `
( त्रिशिरसका अर्गलगन करके अन्तर्धान हो गये ।२२।। इस कारण में इसे दूर्वा भार दिया करता हुं “जो असंख्य _
। ` भोजनसे भी तप्त नहीं हुंमा ।\२३)) वह् इनके अंकुरसे परम तृप्त हुजा था “हे जघ्रये ! जो उत्त महिमाहै
बहमन वं सुना दौ ॥२४।॥ यह तवक समरयणसे होनेवाल एवं सब कामोकि देनेवाल है । नो इस इतिहासो `
सुनते ओर सुनाते हें \\२५। वे पुत्र धन ओर काम पाते हें परलोकमे भौ जानम्द करते हे । निष्काम गगपति्मे
. भक्ति प्राप्तकरके मुदित पा जाता है ।\२६।) योगौ फिर बोरे कि, इस प्रकारके इतिहासको सुनकरभो अश्र- `
|. यके हदयम् संचय हृभा । उसे देल कोडिन्य मुनि बोले कि ।\२७।। हि अनवे जाभरये ! अपने संशयको नाह्ञ ` ५
करनेके लिय मेरे वाक्य सुन जो कि, मेने तेर मनका संदेह जान लिया है ॥\२८।। एक दबक। अंकुर केकर जल्दी. ` ५
५ सभा ५ 1 त
बोले कि, देवराजकौ आज्ञाते दूत उपे कू्ेरफे घः
रने मेरे साय आपके पास भेजा है इत अंकुर बराबर
इनदरके पास जा, पहिरे जारीर्वाद कहकर पौषे सोमा मांगना! ।२९।। दुबे अं्करफे बराबर तुलवा कर यहां | (1
कमा हे शुभानने ! इसके बोस कम ज्यादा न लाना ।३०।। यह् भी गणेशयुराणक्ा कहा हुआ उपासना ध |
7.1
बरावर न हंभा, तेलीकौ तराजूपर तौलनेसे भौ पुरा न पड़ा ॥१२। घट बांध उसपर सोना रवा तथा एक `
ओर दूबका अंकुर रखा तो भौ बराबर न हुआ पत्र नीचेही रहा ।१३।। दूसरी - दूसरी तरह भी उसके बरा- |
बर सोना तोला पर दूर्वकरके बराबर न हौ सका ।। १४।। बड़े पवेतकी तरह सब खजानेका द्रव्य उस्केम्ः- |
विलेमं चढ़ा दिया पर वह भी उस दूर्वाकुरके बराबर न हुभा ।\ १५11 पत्नीको बुला कुबेर कौतुके साथ बोल
कि, जाप अगाड़ी धटारोहण करर।\१६।।यदि बराबर न होगा तो मे अयने संत्वकी रक्षाकेलिये स्वयं चट् जाऊंगा
। पतित्रता उसकी आज्ञासे घट पर चढ़ गई ।\१७।। जब बराबर न् हुमा तो अपनी पुरी लगा दी, आपभीलग |
| गयावर बराबर न हा अंकुर ऊंचा न उठा १८।३ब् तके मुखे सुन हाथीपर चढ़कर आय चलाया, `
। अयने द्रन्यके साथ पलड़पर चठ गया पर अंकुर ऊंचा न हुमा । लट यह क्या है ? इसं चिन्तामे नीचा सुखकर
| | लिया ।\१९।।२०।। उसने तुलापर चहानेके लिये विष्णुभगवान् ओर शिवको याद किया । वे भी अपने-अपने `
अपने-अपने नगरके साथ आकर तुखापर चढ़ गये ।\२१।। पर फिर भी वह दूर्वाकरुर परिस्फुटञ्चान हुमा!
यहु देख वे सब उससे उतर आये ।\२२।\ वरुण, इन्द्र, अग्नि, मरत्, देव देवषिगण, सिद्ध, विद्याधर ओरनाग
सब इस तरहं चारो ओरसे कोडिन्यके पास पहुचे जैसे सामको पक्षौ अपने घोंसलोपर पहंचते है । उद्धिन हए `
ये सब मुनिको नमस्कार करके बोले कि, ।।२३।।२४।। आपके ददौनसे हमारे पाप नष्ट हो गये थह हमारे `
| पृष्योकाही फल है जो आपके देन हुए, अब आपके दशेनोसे मागाडी भौ कल्याण हौ होगा ।२५॥। आपकी. “^
। पत्नीने हम सबका सत्त्व हर लिया, यह् प्रत्यक्ष बात है । हम दूर्वाकु रकौ महिमा नहीं जानते ।।२६॥ एकदुर्व-
| रके बराबर त्रिलोकीको भी नहीं देवते जो कि, आपने भवितिभावके साथ गणे्जीके लिरपर चार्थी `
. ॥२७।। भलीभांति दूर्वाक्ुरकी महिमाको कौन जानता है ? गजाननके एकान्ति भक्त जपी तपी ॥२८। = `
` आपकी महिमाको कौन प्राणौ जान सकता है ? मुनिसे एसे कहकर गणपतिको पूजा । पीछे सपत्तीकमूनिकी ` ८
` पजा ओर स्तुति कौ पीठे सभी नाचने ओर गाने लगे ।\२९।! हे देव ! निगमोँसे अज्ञातरूप आपका माहात्म्य 1
५ बरह्मा, वर्णु, इन्द्र, मरत्, अग्नि, विवस्वान्, यम, अशेष, कलानिधि, शेष वरण, चन्द्रमा, आस्विनी कुमार
वागीश, गरुड, कुबेर ओर अंगिरा ये कोई भी विशेष
॥ ष ज्ञानवारे नहीं जानते ।।३०।। वे सब इस प्रकार यजा-
ननको संतुष्ट करके मुनिकौ आज्ञा खेकर अपने-अपने घर चरत गये ।(३१।। आश्रयाने भी दुर्वाङिरका उत्तम
| माहात्म्य जान लिया उसे पतिके वाक्यों विश्वास हौ गया, सहं भ दूर्करोतसे पूजने लगी ।\३२॥ सब दूबोसे ` 1
| सवं विष्नेश्वरको पुजकर सत्यवादी पति कौडिन्यके लिये भी प्रणाम किया ।३३।१ प्रसन्न हो, अपनी निन्दा
। करती हई बोली कि, मेरी बराबर कोई दुष्टा स्त्री न होगी, जो मेँ आपके वाक्यम मौ संशयमें ही रहो१।३४। = `
| | ६ हे धिशेषजञोके स्वामिन. हे विभो ! सब प्राणीमात्रपर दया करनेवारे आपने यह ठीक ही किया ।३५॥ हे प्रभो ।
५८ र जानकर \३७ |
देवने यह जानकर ।\३८।। परम् कृषासे आविष्ट हो, उन्हुं अपना धाम दे दिय र णे बोठे कि, दवी
| माहात्म्य वणन कर दिया है \।३९।) सारेको तो शिव हरिशेष कोई भी नहीं कह सकता क्योकि जि |
1. अतया = शि०प्र°वि०-
हए ।*४९।। दिव्य वस्त्र ओर अनुलेय किष श्रेष्ठ विमानपर चढ़ गये एवं चिद्रूपधारी हौ विनायकके धाममें
रहने लगे ॥\५०।। नगरनिवासौ जन भी उस उत्सवको देखने आये वे भी इक्कीस दरूबोसे पुथक्-पुथक् गणेदा-
` जीको पूजकर \।५१। अनेक भोगोको भोग गणेक्ञजीके रोक चले गये । उनके पुण्यपुंजसे विमान भी ऊपरको |
चखा गया \\५२।। इस कारण गणेक्षभक्तको दूर्वाओसे गणेशजीका पूजन करना चाहिये । जो मनुष्य प्रमाद- `
बडा हो दूर्वाओं से गणेशपुजन नहीं करतः ।।५३।। उसे चाण्डाल समञ्चिएु \ वह॒ बहूतसे नरकोको पाताहै \ `
सनुष्योको कभी उसका मृख भी त देखना चाहिए ।\५४।। जो दूर्बासि देवदेव गजाननको पूजता है उसके दशं- `
। नसे दूसरे पापी भी शुद्धि पा जाते हँ ।५५।१ ( यह फलश्रुति है, तथा बड़ाईमे ओर विघानसें तात्प्य है \ `
निन्होने बराह्मण म्रन्थोका अथं वाद देखा है उन्हं इससे कोई आहचयं नहीं हौ सकता ) यदि बहुतसी दूब न `
1 | नमिलेतो एकसे ही प्रज दे ( जो एक लाख दबसे गणपतिको पूज दे तो ) उसने कोटी मुनौ पूजा करदौ इसमं 1
| सन्देह नहीं है ।\५६।। ब्रह्मा बौला कि, है राजन् ! मेने दूबकी महिमा इतिसाहके साथ सुनादी जिसके कि, `
सुननेसे सब पापोका ना हो जाता है ।।५७।) इसे दृष्टबुद्धिको न कहना प्यारे पुत्रको देना । इन्द्र बोलाकि, `
ब्रह्माके मुखसे इस परम उत्तम व्याख्यानको सुनकर परम प्रसच्च होकर आनन्द सानने लगा तथा ब्रह्माजीको 0
` प्रणाम की चकित कृतवीयययंका पिता ब्रह्माजीकी आज्ञा ठे अपने स्थान चला गया ।\५८।।५९।। यह् श्रीगणेक्ञ॒= `
. पुराणके उपासनाखण्डका दूर्वामाहात्म्य पुरा हुजा इसके साथ पुराणका ६७ वा अभ्याय मी पुरम हृंजा ॥ `
। `उद्यापन-देकष-कालके अनुसार उद्यापन करे ! माघ, कार्तिक, भाद्र, आषाद्, श्रावण वा दूसरे पवित्र मासोमें इस
^ ` व्रतका प्रारंभ करे । दांतुनकंरके प्रातःस्नान करे \ धौतवस्त्र पहनकर नित्यकसं करे देवपुजागृह् अथवा देवा- ``
1 ` स्यको गोबरगेरू ओर सिहटीसे विधिके साथ लीपकर पांच ब्राह्मणोके साथ स्वस्तिवाचन करे" सोनेके गण-
करती है । इस प्रकार विधिपुवंक पुजा करके अन्तमं होम करे । आचा्यको पहि तथा पौरे इक्कीस षा
जोका वरण करे, “ गणानांत्वा " इस त्रस दजन हमार आहूति दे, अथवा दूर्वा नतरसे दे ३ । “त्वं दूर्वे ' यहांसे `
^ देहित्वमजरामरभ् ' यहांतक गणपतिके त्रतोमें कहे गये दूवकि मन्त्र हं ।\ स्वाहा अन्तम लगे सहसत नाम
मन्त्रे, मवु मिभित, तिल,लज, पु थक, ईखके ट्कडे लइ, पायस ओर घतसे होम हो । पूर्णाहुति करके बलि
गन्धः पुष्य, धूप, दीप, नवेद, मोदक इनस अचन करे । पीछे गन्धसे सनी हुई दूर्बासि गणपतिका अचंन भक्तिके
साय सहस्र वा सौ नासोसे करे । क्योकि, संख्यासहित पूजा सफल तथा बिना संख्याकी पूजा निष्फल हुमा
पति सोनेके आसनपर विराजमान करे । उसके आधारके लिये सोनेकी दूर्वा होनी चाहिये । एेसे गणपतिदेवको | | ^
ताम्बेके कल्प स्थापित करे । लाल कपड़ा उढ़ावे, सवेतोभद्रमंडलपर पूजे, बताये हुए पल शमी ओरद्र्वा , `
दान करे, होमशषेषको समाप्त करके पौछे ब्राह्मण भोजन करावे, वस्त्र अलंकार ओर मूषणोके साय आचार्यं `
ज्ातुमिच्छामस्तच्छृणुष्व महामते ।! ७ ।। त्वयोक्ता विविधा धर्मास्तथा नानाविधाः. `
` कथाः ।। व्रतानि च विचित्राणि मनोरथकराणि च ।! ८ ।! इदानीं वद देवस्यब्रतं `
परमपावनम् ।। यत्कृत्वा स्व॑सिद्धिः स्यान्नराणां वाञ्छितप्रदा ।\ ९ ।। सत उवाच! `
सम्यक् पुष्टमुषगणा बरत देवस्य चाद्भुतम् ।\ ममापि कथितुं हर्षो जायते नात्र
संशयः ।। १० ।। कृष्णेन धममराजाय कथितं तद्रदामि वः ।! युधिष्ठिर उवाच 1 ५ 4. |
धर्मा बहुविधाः प्रोक्तात्स्वयानन्तफलग्रदाः ।॥११।! इदानीं श्रोतुमिच्छामि ब्रतसंप `
त्करं शुभम् ।। श्रीकृष्ण उवाच ।। शृणु राजन्प्रवक्षयामि शिवस्य व्रतमुत्तमम्।।१२॥ `
लक्षप्रदक्षिणानाम यच्च लोके सुदुर्लभम् ।! ब्रह्मघ्नस्य सुरापस्य गुरुदाराव- = `
। | इ मरिन ।। १३।। अपात्रीकरणान्येवं संकरी (ली ) करणानि प्र || ग्रकीणकानि ५ ॥ |
| चरतोमलिनीकरणानि च ।1 १४ ।। भ्यातुपत्नीसुतादीनां गामिनः काममोहतः ।॥ `
। गुरो विहवासहीनस्य ब्रतश्रष्टस्य पापिनः ।। १५ ।। सन्ध्याकमेविहीनस्य जगद्- ` र
। भ्रुडमागेर्वातनः ।\ दासीवेदयासद्धिनदच चाण्डालीगामिनस्तथा । १६ । पर-
। स्वहारिणद्चापि देवद्रव्यापहारिणः । ब्राह्मणदरेषिणक्चापि वृत्तिच्छेदकरस्य च॒ `
॥ १७ ॥! रहस्यभेदकस्यापि रहस्यकृतपापिनः ।। ब्रह्मयललविहीनस्य दुःशस््रनिर- `
तस्य च | १८ ।। गुरुनिन्दादिश्नोतुरच
0) ध
हिन्दीटीकास?ि ल कासहित ` क (९८१)
क्च गुख्रव्यापहारिणः ।। सद्यः शुद्धिकरं
^
| ह्येतज्जानौहि त्वं युधिष्ठिर ।। १९ ।। ब्रह्महत्यादि पापानां प्रायष्चित्तं यदीच्छसि! `
लक्ष प्रदक्षिणानाम त्रतं कुरयान्महीयते ।। २० ।\ वधन स्वभूतीनां सदा विजय- `
। कारणम् ।। किमेभिबेहुभिर्वाकयैः कथितेश्च पुनः पुनः २१॥। दारिद्रनारानं पुण्यं `
[रि
^ 2 [९4९) बरतरान [प्रदक्षिणाविषिः-
कारयेत ।। निन्दां च गरलयास्त्राणां श्षिवधर्मरतात्मनाम् \! ३१ \! तीर्थल्िगतपो-
1 क्षणान्वितम् ।। अव्रणं सजलं कुम्भं तस्योपरि तु विन्यसेत् ।। ४४ ।\ सौवर्णं ७ |
राजतं तासं मृन्मयं वा स्वशक्तितः ।। तस्योपरि न्यसेत्पात्रं ताघ्रं वेणवमून्मयम् `
४५ ॥\ कुम्भोपरि न्यसेहेवमुमया सहितं
` निन्दां न कुर्यात्तु कदाचन ।। ब्रह्मह्यादिपायानां प्रायशिचित्तमिदं परम् ।\ ३२॥ `
` क्िर्बालिगे महादेवि ये कुवेन्ति प्रदक्षिणाः ।\ अनन्तकोटिगुणितं तेषां पुण्यं न |
संशयः 1) ३३ ।। क्िवापतेः प्रत्यहं च पूजा कार्या प्रयत्नतः \। उमे सम्यक्पुजनेः | ध | |
सिद्धिभेवति नान्यथा ।! ३४ \। एवं यः कुरुते मर्त्यो व्रतमेतत्युदुलंभम् ।\ यंयं
चिन्तयते कामं तंतं प्राप्नोत्यसंशयम् ।। २३५ ।! लक्षं समाप्य पहचात्तु कुयादुदापन । ॥ `
ब्रती ॥। ब्रतपु्त्ये तु विधिवच्छुभे मासे शुभे दिने ।। ३६ ।। देव्युवाच ।। ब्रतस्यो- `
ध ` श्यापनं कमं कथं कार्यं च मानवैः \\ को विधिः कानि द्रव्याणि कथयस्व मम प्रभो
॥ ३७ ।\ ईकवर उवाच । श्यणु भद्रे प्रयत्नेन लोकानां हितकाम्यया \। उद्यापन- |
विपि चैव कथयामि तवाग्रतः ।\! ३८ ।\ यदा संजायते वित्तं भक्तिः श्रद्धासम- |
न्विता \\ सएव व्रतकालश्च यतोऽनित्यं हि जीवितम् ।! ३९ ।\ कामक्रोधाहंकार-
देषपेशुन्यवजितः ।। संपाद्य सवंसंभारान्मण्डपं कारयेच्छुभम् ।\ ४० ॥! प्रातः
॥ ण स्नात्वा शुचिर्भूत्वा कुर्वेचुद्यापनं बुधः ।! मासं तिथ्यादि संकत्यं संकल्पं कार- |
। ४५।। हतं शिवम् ।\ तयोर्मुति स्वर्णमयी रिधाय
वृषभे स्थिताम् \\ ४६ 1\ ब्राह्मणं दक्षिणे भागे साविच्या सह सुप्रभम् ॥ को्ेर्या |
स्थापयेद्विष्णुं लक्ष्म्या सह गरत्मता ।। ४७ ।। महेशं स्थापयेन्मध्यें शिववृष- |
पजा विनिवत्यं महासंभारविस्तरेः ।। ४८ ।! परमान्नं च नेवेयं र 4 ।
` ` रिवेलक्ष.1 `. हिन्दटाकासांहूत (९८३)
व 0
मनोरथाः ।! ५६ 1! यद्भूक्त्या देवदेवेश मया व्रतमिदं कृतम् ।। न्य॒नं वाथ क्रिया `
हीनं परिपुणं तदस्तु मे ।! ५७ ।। अनेनैव विधानेन य इदं व्रतमाचरेत् । यंथं `
: चिन्तयतं कामं तं तं प्राप्नोति मानवः ।। ५८ ।। इह लोके सुखीभत्वा भक्त्वा `
भोगान् यथेप्सितान् ।\ अन्ते विमानमारुह्य शिवलोकं स॒गच्छति ॥ ५९ ॥ `
` सत उवाच ।! इति वः कथितं विप्राः शिवोक्तं व्रतमुत्तमम् ।। प्रदक्षिणात्मकं `
सम्यक्किमन्यच्छ्ोतुमिच्छत ।। ६० ।। इति श्रीस्कन्दपुराणे क्िवप्रदक्षिणा- ५
` ब्रतोद्यापनं सम्पु्णम् 11
. शिवजौकी लाख प्रदक्षिणाओंकी विधि-पहिकले नैमिषारण्यमें रहनेवाले सब शौनकादिकच्छषि ` _ ` |
` तथा सभौ ज्ास्त्रोके जाननेवारू महात्मा तीर्थयात्राके प्रसंगसे गंगाद्रारपर पहुचे वहां विधिके साथस्नानजप `
करके दक्षिणादी ।)१।।२।। जबतक बे अपने कृत्यसे निवृत्त होकर आनन्दके साथ थोडे वैठेथेकि, इतनेमे `
सभी शास्त्रोके पंडित सूतजौ उनकी दृष्टिमें आ गये ।\३।। उन्होने भौ वहां निष्पाप चान्त ऋषि मंडलीको `
केला, दण्डकी तरह मिमे प्रणाम कौ ऋषियोने भौ मुतजीका आदर सत्कारं किया ।1४। ऋषिथोने सूत- ` ॥
जौका बड़ा भारौ आतिथ्य किया तथा राजीखुरीकी पृची पीछे सुखयुरवेक बिठा सन्मानके साथ पुने को `
पुण्यतीरथेपर ४५
।\५।। ऋषि बोले कि, हे सुब्रत ! महाभाग सुत ! बहत दिनोमे दीव पडे; कौनसे देशम या किस पुण्यतीथपर =
आपने इतना समय व्यतीत किया \\६।। आपके देवतेही अद्भुत आनन्द तो हमे हो गया है, पर हे महामते! `
.. हम जिस विधिको जानना चाहते हैँ उसे सुनाइयें ।\७।। आपने अनेक तरहके धमं तथा अनेक तरहकी कथाएं
| कही हं" सनोरथोको पुरी करनेवाली बड़ी-बड़ी विचित्र व्रतचर्यया भी कही हं ।\८।। इसत समय देवदेवका परम `
` पवित्र ब्रत कहिये, जिसके कथेति मनुष्योको सब मनोकामना मिल जातौ ह ।1९।। सुततजौ बोले कि, है ऋषि
गणो ! अच्छा शिवजी महाराजका उत्तम त्रत पुखा, मुषे भी कहनेके व्मि हषं हो रहा है इसमें संदेह नहीं है
। ॥१९॥ कृष्णजीने जो धमेराजके लिये कहा था उसे मे आ रोगोको सुनता हं । युधिष्ठिरजी बोले कि, है ` |
` कृष्ण { आपने अनन्त फलके देनेवार बहुतसे धमं कहे हँ ।।११।। इस समय सब संपत्तियोके करनेवलेशुभ |
त्रतको सुनना चाहता हूं ! श्रीकृष्णजौ बोले कि, है राजन् ! सुनो, मं शिवका उत्तम ब्रत कहता हूं ॥१२।॥ `
उसका लक्ष प्रदक्षिणा नाम है । यह संसारमे कठिन है, बरह्हत्यारा, श्षराबी, गुरपत्नी गामी ।॥१३।। अपात्री- `
[त गससाज , | { प्रदाक्षणांवांघः-
| है \ श्रीमहादेव बोले कि, श्रावण, वेशाख, कतिक ओर साधम नियमके साथ ।1२६।। श्रद्धा ओर विधिषे ५८ | ध
हलिगकी प्रदक्षिणा करे, श्री देवी बोली कि लिगकी प्रदक्षिणामें कौन-कौन से नियम होते हें उन्हे 11२७१ है `
` देवेश ! है दयानिधे ! है विह्वनाथ ! सृक्ने सुना दीजिये ! हिव बोल कि, प्रतिग्रहे, परान्न, दु्रेको स्त्रीके
साथ भाषण \।२८। इसरेका घन लेना, प्रेमं बूटी बाते बोलना, असज्जन्, ओर पापिथोका संगइनकामोको `
न करे ॥२९।। क्योकि बुरे साथोसे मनुष्योको सब निध्फल हो जाता है । मेरे जौर विष्णुके नन्दक वैर करने- 2
* बारोके साथ न जाय ।\२०॥ परापवाद ओर दसरेकी बराई न करे शिवक्ते घर्मो ल्मे हृए गद ओर स्त्रो |
निन्दा न करे, ।॥३१॥। तौर्थके लिग जौर तकी निन्दा कभी न करे यह ब्रह्महत्या आदि पापोकः सर्वश्रेष्ठ प्राय-
क्तत है ।३२॥1 हे महादेवि ! शि्वलिगमें जो प्रदक्षिणा करता है, उन अनन्त कोटि गना पुण्य हेता है ! ` ॥
इसमे सन्देह नहीं है ।\ ३२३।1 शिवजीकी पूजा प्रयत्नके साथ करे । हे उमे ! अच्छी तरह पुना करनेसेहीखिद्ि
होती है । दूसरी तरह नहीं होती 1 २३४।। जो मनुष्य इस प्रकार इस दुर्लभ ब्रतको करता है उत निश्चयहीवे
काम मिल जाते हं जो उन्हं चाहता हे ।३५।। लक्षकौ समाप्ति करके पौ शुभे मास ओर शुभदिन् में विधि- | | | |
पूर्वक उद्यायन करे शुभ व्रतकी पूतिक लिये करे 1३६1 देवी पुने लगी कि, मनुष्योको ब्रतका उद्यापन कते `
` करना चाहिये, उसकी विधि क्या है ? द्रव्य कौन हं ?।\३७।। ईदवर बोले कि, हे भरे ! प्रयल्नके साथ सूत
संसारकी हितकामनाके लिये मे सुनाता हु मे उद्यायनकी विधि करता हूं ।1३८।\ जव शद्धा भवितिजर घन `
` हौ वही उद्यापनका समथ है क्योकि जोवनका क्या भरो है ? 11२९1} काम कोधादिक अहंकार , देष ओर `
` वैशुन्य इनको छोड़ सब सामानको इकट्ठा करके मंडप बनवावे ।\४०।। प्रातःस्तान करे । पवित्र हो उश्चापन `
करे तथा ग्यारह ऋत्विजोको भौ बरे \\४२।। देवागार जुद्ध गोष्ट अथवा अयते मंदिरमे फलकी मंड- `
र ५ कलदा स्थापित करे
करे \ मास तिथि आदि कहकर संकल्प करे ।४१।। पुण्याहवाचन करावे बेद-वेदान्तके जाननेवाले जचा्येका _
पिका नाव} उसे पटूकलसे वेष्टितं कर ।४३।। उसमं साक्ष णिक {लिगतो भद्रमण्डल अनदे, उपर अन्रण ८
करंभपर उमासहित शवक स्थापना करे सोनेकी मृति वृषभयर बैठ हई हो \४६।। दक्षिणम सावित्रीषहित `
` ब्रह्मा तथा उत्तरमे लक्ष्मी मौर गरुडे साय विष्णु मगवान्, बीचमें षिवा ओर वुषके साथ महैशको स्थाधित ` ¢
| | करे । पीछे बहुतसे संभारोकि विस्तारसे पुजा करे ।1४७।।४८।। भवतियुर्वेकं परमाल्का वेद्य देवको दे, उपवास ` । | ध
करे । रातको अच्छी कथाओके साथ आनन्दके साय जागरण करे ।(४९।। व्रभातमें जुदधयानीमे स्नान करके" `
पवित्र होजाय, मिटरीका स्थंडिल बनाकर अग्निमुख करे ॥।५०।। परदक्षिणाका द्ञवां हिस्सा हवन करावे, = `
हेवनका दश्वा हिस्सा तपण करे, त्पणका दशवां हिस्सा माजन करना चाहिषे । प्रदक्षिणाका सौं ध
वगायत्री वा लिवसरहलनाम हो ।५३।। पलाजञको तमिव, यव, त्रीहिःतित्रञौर `
विहीनानां नराणां चुलस्पदाम् ।। उपायं चेव मं बूहि युतसिद्धिः कथं भवेत् ॥\ `
अथर्वेण उवाच ।। पुरा ब्रह्मादयो देवाः सवे विष्णुं समाभिताः । अपच्छन्देव-
। विष्णुरुवाच ।\ अहमश्वत्थरूपेण संभवामि च भूतले ॥ तस्मात्सरवप्रथत्नेन कुरुध्वं `
तरुसेवनम् ।। तेन सर्वाणि भद्राणि भविष्यन्ति न संशयः ।। अथर्वण उवाच ।
विष्णुयदुक्तवास्तेभ्यस्तद्नतं ते वदाम्यहम् ।। न दाननं तपोभिक्च नाध्वरेभूरिद-
क्षिणेः । अहवस्थसेवनादन्यत् कलौ नास्त्यपरा क्रिया ।। तद्विधानं निमित्तानि `
संस्याक्लप्तिश्च पूजनम् ।। हवनं र्षणं विग्रभोजनं नियमं तथा । व्रताधिकारिण- `
स्तत्र विधानं च विशेषतः ।! एतत्सवं पिप्पलादिन् वक्ष्यामि तव सुव्रत ॥ दारुणो
-विविधोत्पातो दिव्यभौमान्तरिश्षजः ।। परचक्रभयं देहविष्लवो देशञविग्रहः ।॥ `
इुस्वप्नो दुनिमित्तं च संग्रामोऽड् तदशेनः।\ मारीभयं राजभयं तथा चौराग्निजं `
` भयम् ।। क्षयापस्मारकृष्ठाद्याः प्रमेहो विषमज्वरः ।। उदरं मूच्रङृच्छ च ग्रह `
| पीडास्तथेव च \! अन्ये चानुक्तरोगा ये व्रणरोगास्तथेव च ।! एतेषां च विनाक्ाय
कुर्याद्शवत्थसेवनम् ।। प्रातस्त्थाय नद्यादौ स्नात्वा सम्यक्कृतक्रियः ।। अहवत्थ-
| देशमाधित्य गोमयनोपलपयेत् ।। तमरवत्थलंकृत्य सूत्रेण गरिकादिना ।॥। पुजा
` चरेत् ।! आदावाराधयेद्िष्णुं ध्यानावाहनपूवेकम् ।। तथेव पिप्पलतरं नारायणमयं `
॥ पुवेकम् ।। तेनेव हवनं कुर्यात्तिपेणं वा नमस्क्रियाम् ।। उवेतवस्तरं सलक््माः ््मीकं |
` चिन्तयेत्पुरुषोत्तमम् ।। ततोऽधबत्थमभिमन्त्य ।। आरात्त इत्यस्याग्निका
पातित्वादग्नि्छेषिः
अश्वत्थ । | ` दन्दटाकार्साह्त `. (९८५)
८) 04 1170 (11
प (0 4 8 ५
| अथादवत्थप्रदक्लिणाविधि | |
पिष्पलाद्यवाच ।। भगवन् सवेधमन्न सवेशास््रविक्षारद ।, स्कीणां पत्र- `
देवश्ं राक्षसैः पीडिता वयम् ।\ कथं भवेच्च तच्छान्तिरस्माकं वद निष्चितम् । `
=
सम्पाद्य पुण्याहं वाचयेत्तथा ।। ऋत्विजां वरणं कृत्वा ततः पूजां समा- `
शण्डान्तः |
। वनस्पतिदेवता \। अनुष्टुपछन्दः। वनस्पत्यभिमन्त्रणे विनि- `
नरस्तुत्वारात्परशुरस्तु तं । ह निवाते त्वामिवषन्तु स्वस्ति
त 1 1 व । म्रदाल्लणावावः-
बुधं: ।। गणेशपुजनं स्वस्तिवाच्य नान्दीं च कारयेत् \\ आचायं वरयेत्पश्चात्सवं-
लक्षणसंयुतम् \ देवागारे तथा गोष्ठे अश्वत्थे स्वीयमन्दिरे \। पुष्पमण्डपिकां कृत्वा `
पटकलादिवेष्टिताम ॥ तन्मध्ये सवतोभद्र रचयल्लक्षणान्वितम् ।॥। तन्सध्ये ।
स्थापयेत्कुम्भं सजलं वस्त्रसंयुतम् \\ तस्योपरि न्थसेत्पात्रं तास्रमृन्मयवेणवम् \॥। `
अष्टपत्रान्वितं पद्यं कणकाभिः समन्वितम् ।। पञ्चक्ृष्णलकादूध्वं सुवणेपरि- `
निर्मिताम् ।\ कक्ष्मीनारायणीं मूत्तिमहवत्थेन समन्विताम् ।। स्थापयेत्पदयमध्ये तु छ
ब्रह्मा्यावाहनं ततः ।। ततः पूजां विनिवेत्यं महासम्भारविस्तरेः ॥\ परमान्नं च॒ `
नैवेद्यं भक्त्या देवाय दापयेत् ।॥ उपोष्य जागरं कुयद्रात्रौ सत्कथया मुदा ।॥ `
ततः प्रभातसमये स्नात्वा शुद्धे जले शुचिः ।! मृदा च स्थण्डिलं कायं कुर्यादग्निमुखं
ततः\ कृतलक्षदशांशेन हवनं कारयेद्न्नती । हवनस्य दशांशेन तपेणं कारयेत्तत्तः।॥। `
पुरुषसुक्तेन समितस्तिलाज्यं पायसं तथा ।\ स्वश्ाखोक्तेन विधिना जुहेया- `
` द्विष्णुतत्परः ।। उक्तः षोडशऋत्विग्भिः कुर्यद्धोमं यथाविधि ।! हवनस्य दशांशेन
` मिष्टान्नं भोजयेद्द्विजान् । ब्राह्मणानां स्वयं कुर्थाद्यथोक्तं
। थोक्तं नियमं तथा ।। असा- `
म्ये स्वयं कर्तु सर्वमन्येन कारयेत् \\ उक्तप्रमाणादधिकं फलं दशगुणं भवेत् ।॥ `
५ ८८ ततस्च^तुर्गुणं पीठं राजतं चतुरस्रकम् । उपरि द्रोणमधं वा तिलान् परिवनिः |
क्षिपेत् \ श्वेतवस्त्रेण सञ्छाद्य पू्वैवत्युजयेत्तरम्
| जयेत्तरम् ।। दरिद्राय सुशीलाय भोत्रियाय
कुटुम्बिने ।! उदङमुखाय विप्राय स्वयं पूरवेमुखस्थितः ।। सुबणवृक्षराजं च मन्त्रेण
शयेत् ।। इहं जन्मनि वान्यस्मिन्बाल्ययोवनवाधेकं । मनोवाक्कायजेदोषि- `
अदवत्थ ] हिन्दीटीकासहित = (९८७) |
तु पुरा सृष्टाः सवे देवाः सवासवाः । मित्वा सवे एवैते ब्रह्मणं वावयमन्रवन् `
सह ।\ ३ ।\ इतीन्द्रादिवचः भुत्वा सर्वदेवपुरोगमः । ब्रह्मा कंलासमगमघ्नाना- `
देवसमावत शिबह्वारं समासा देवाः सर्वेऽपि संस्थिताः ।॥ न दह्यते `
` द्वारपालः शिवहचाभ्यन्तरे स्थितः ।\ ५।। गन्तव्यं वा न गन्तन्यमस्माभिः शिव- `
९ संनिधौ ।। परावत्त्याथ वा स्वस्य स्थानं गन्तव्यमेव वा ।। ६ ।। एवं चिन्तयमाने- ४ ४
नैस्तेनारंदो मुनिसत्तमः ।! पुरो दृष्टो देववृनदेस्तमृचु प्रणताश्च ते ।॥ ७ ।॥ देवा `
1 अः 11 मुन वेदविदां श्रेष्ठ बूहि रत सुश्षोभनम् |} कि करोति महादेवो गन्तव्यं । ४ |
| वान वान्तरे ।। ८ ।। नारद उवाच ।। चन््रनारशदशायां तु देवाः संप्रस्थिता ` | १
। गृहात् ।\ तस्मात्कष्िचिन्महाविध्नो भवतां संभविष्यति ।॥ ९ । कि करोतिशिव- |
श्चेति प्रषनो ह्यन्ते तथा विधोः ।। तस्मात्संभोगकायं च वतते त्रिपुरान्तक ५.
| + १० । इन्द्र उवाच ।। सर्वेषामेव दुःखानां नाशकर्ता दिवस्पतिः ।। मय्यागते कथं
। नाशो देवतानां भविष्यति ।। ११ ॥। विभीषणाय देवानां वल्गनं कुरते मुनिः ॥ `
| , इतीन्द्रस्य वचः शरुत्वा व्याकुलोऽभून्मुनिस्तदा ।! १२ ।। कथं मह चनं सत्यं भरि क
| ` त्यद्य बच्रिणि ।। अद्य मद्वचनं सत्यं यदि ज्ञी भविष्यति ।। १३ ।) राधादामोवर- `
| मुदे करिष्ये व्रतम॒त्तमम् ।\ एवं सञ्चिन्त्य ।
| इन्द्रो विचारयन्देवेः किमिदानीं विधीयताम् ।\ ततो बजरी ह्य.वाचेदं वहनं मदचनं
| श्यृणु || १५ । गृहीत्वा विप्ररूपं त्वं शिवस्याध्यम्तरं वि ।। यदि प्रसङ्धोऽस्त्य |
स्माकं तदा वार्ता निगद्यताम् ।। १६ ।। यदि नास्ति प्रसद्धक्चेद्याचकत्वेन याचहि ।! |
| र अवध्यत्वादताड्यत्वाद्ध विकत्वेन तद्त्रन ।। १७।। इति देवेन्रवचनं श्रत्वा 1 बह्ल-
२ ।। अह्यन्सर्वाधिको ररः सवेवेदेषु पठ्यते ।। कतुं तदहृशेनं देव गच्छामो भवता
~ न 0 ॥ ¢ ध ८
४.
पविष्य- ६ |
चन्त्य मनसा तृष्णींभूतो मुनीइवरः ।। १४ ।
८९८८) 1. व्रत [ प्रदक्षिणाविधिः
` स्म्यहुम् ।\ २६।। भोगविच्छित्तये बह्निः परेषितो द्विजरूपकः।! जथवा किमनेनापि
कथनेन ममाम्बिके ।। २७ ।। जगन्मातासि देवि त्वं का ते स्यादुपहास्यता \। इति `
तस्य वचः श्रत्वा पार्वती करदधमानसा 1 २८ ।॥\ स्फुरदोष्ठा रक्तनेत्रा दृष्ट्वा तां |
नारदो ययौ ।। गत्वा देवानुवाचेदं सम्भोगाद्विरतो हरः ॥ २९ ।। आगम्यतां व- `
नार्थं '्ूरतोऽसौविलोकितः \\ बह्वुमुनेवंचः श्नुत्वा देवेन्द्रः सगणो ययौ ॥। ३०।।.
प्रणिपत्य महादेवं कृताञ्जलिपुटोऽभवत् ।। दृष्टा तथाविधं शक्रं पावेती वाक्यम-
ब्रवीत् ।। ३१।। अहल्याजार इष्टात्मन् सहस्रभग वासव ।॥ उपहासः कृतो मेऽ््य॒
फलं तत्समवाप्हि ।। ३२ । यावन्त्यः सन्ति देवानां ज्ञातयः सवं एव ते ।\ अजा-
नन्तः स्त्रीसुखानि शाखिनः सन्तु सस्त्रियः ।\ ३३ ।! इति देवीवचः श्रुत्वा `
कम्पिताः सवेदेवताः । ब्रह्माविष्णुमहेश्ाद्यस्तुष्टुवुजेगदम्बिकाम् ।\ ३४ ।। ततो
देवी प्रसन्चाभहेवेन्द्रं वाक्यमब्रवीत् ।\ देवां मदचनं मिथ्या च्रिकालेऽपि न जायते `
॥५ ३५ ।\ तस्मादेकांशतो वृक्ष यूयं सवं भवन्तु वे ।। इति देव्या वचः श्रुत्वा जाता
राधादामोदरो पुज्यो मन्दवारे च तत्तले । । :
उर्वश्यायप्सरो ८ सरोऽभवन् ।। ३८ 4 तस्मात्सवं- `
पिणौ ।। ४० ।। भावयित्वा सपत्नीकान् पटचाद्भुञ्जीत वाग्यता ॥ बन्ध्यापि `
कमते पुत्रमितरासां तु का कथा ।। ४१ ।) मूलतो ब्रह्मरूपाय मध्यतो विष्णु-
; सिवस्याय भदवतथाय नमोनमः । ४२।। विष्णोक्च प्रतिमाभावे `
णे शालपरामशिखासु
शन न केतव्या शनिवासरे ।\ अन्यवारेऽहवत्थसङ्खाह- `
सनत्कुमारसंहि (य त्कुमारसंहितायां कातिकमाहात्म्ये विष्णोरक्व- `
अख्वत्थ ] | हिन्दीटीकासहित [९८९१ (
वाली यज्ञस बया है ? सिवा जदवत्यके सेवनके कलिगुगमे कोई दुसरी करियाही नह है । उसका विधान,
संख्याक व्यवस्था, पुजन, हवन, तपण, विग्रभोजन, नियम, ब्रतके ह धिकार एवं दूसरे दूसरे विशेष विधान, ` ८
है पिष्पलादिन ! हे सुव्रत ! यह सब म तुमं सुनाये देता हं । दिवके भूमिके अन्तरिक्षे अनेकः तरहक घोर `
उत्पात, दुसरेके चक्का फल, देराविप्ठव, देशविग्रह, बुरे स्वप्न, बरे निमित्त, संग्राम, अद्ध तदशन, मारी
राज चोर ओर अग्निका भय, क्षयी मृगौ ओर कुष्ठ दिक, प्रमेह, विषमज्वर, उदरव्याधि, मृत्रकृच्छ, `
ग्रहपीडा, तथा जो रोग नहीं कहे गये हे, वे एवं व्रणके रोगे उन सबके विनादाके ल्य अद्वत्थका सेवन करे, 4
` भ्रातः नदी आदिमे स्नान करे, नित्य नियम करके अदवत्यकी जगह आक्र गोबरसे लिप, सत्र ओरमेर्ते
अश्वत्थको सुशोभित करे, पुजाके द्रव्योको इकङ्का करके पुण्याह वाचन करावे, ऋत्विजोका वरण करे ` |
पूजा प्रारभ करदे । ध्यान ओर आवाहनके साथ विष्णुकी आराधना करे, हे द्विज ! उसी तरह् नारायभमय
वृक्ष जो पीपल है उसे इवेतगन्ध, अक्षत्, पुष्य, धूप, दीप, नैवे, इनसे ्यानके साथ पुरुषसूक्तसे पूजे, उसमें
` ` हवन तर्पण ओर नमस्कार करे, इवेतवस्त्री लक्ष्मीसहित पुरुषोत्तमका चिन्तन करे. पौषे अरवत्थका अभिमेत्रण ` ध
करे, आरात्त' यह अग्निकाण्डके भीतर पडा हभ होनेके कारण इसके अग्नि ऋषि हैः वनस्यति देवता है `
अनुष्टुप छन्द ह वनस्पतिके अभिसंत्रणमं इसका विनियोग होता है । “तेरी अग्नि हमसे दूर रहे तथा तेरा `
परशु हमसे दररही रह, वायु रहित देशकालमे तेरे लिये चारों ओरसे वर्षाहो । है वनस्पते ! तेरीस्वस्तिहौो
है अश्वत्थ ! मेरे आंखके ओौर बाहु फरकने बुरेस्वप्न, बुरी चिन्ताएं तथा वैरिथोके भयकी शान्त करदे! |
पीछे प्रदक्षिणा करे वहं सब सफल होजाता है, एक दो तौन चार वा पांच लालतक कार्यका गौरव देखकर
भ्रदक्षिणा करे, बारह प्रदक्लिणाओसे तो कम होना हौ न चाहिये, ब्रह्मचारी, हविष्यान्नका भोजन करनेवाला
भूमियर सोनेवाला, जितेन्द्रिय, मौनी एवं ध्यानसे मन र्गकर पौपरुकी स्तुति पढे । विष्णुके सहस्रनाम
| पुरुषसुक्त ओर वि्ण॒सुक्त पटे, पवित्र दिन आदिमे इस प्रकार सब कुछ करे, प्रातः स्तान ओर पवित्र होकर `
। खानी एक लाख प्रदक्षिणा इसका दां दरा हजार
एपन करे \ गणेशपुजन स्वस्तिवाचन ओर नान्दीश्राद्ध करावे । सब लक्षणोवाे आचार्यका वरण करे `
देवमन्दिर, गोष्ट, अरइवत्थके नौचे अपने घर एूलोकी छोटीसी मण्डपी बना उसे पटुकूल आसि वेष्टित
कर दे। उसपर सुन्दर सवंतोभद्र मंडल बनावे, उसपर विधिपु्वंक जल ओर सस्त्रोके साथ पूणकल्श स्थापित `
. करे} उसपर मिटौका वा वांसका पात्र रखे । उसयर अष्टपत्र पद्य काणिकाके साथ चित्रित करे । उसपर बौचमं `
पचकस्णलके अधिककी सोनेकी बनी मूति अरवत्थके साथ स्थापित करे । पी ब्रह्मादिकोका आवाहन `
~ करे \\ बडी भारी तयारीके साथ पुजा पूरी करके भक्तिके साथ परमान्नका नैवेद्य देवकी भेट करे । उपवास.
|. पूर्वक प्रसन्नताके साथ कथा सुनते हुए जागरण करना चाहिये । प्रातःकाल शुद्ध जलमें स्नान करके भिटरीका `
५ ५ | । ४ स्थण्डिलं वना अगश्निपिख करे । कौ हई लक्ष प्रदक्षिणाका दक्लांश हवन तथा इसका दशकवा हिस्सा तपण करब ॥ ^ ८
विष्णका गक ¡ ध्यान करके पुरुषसुतसे समिध, तिल, आज्य ओर पायसका अयनी शाखाके विधानके अनुसार
कि कहे हुए नियमसे आप ही हीक करे । यदि अपनी षवित न हो तो दूसरोसे करवे ! =
१४. १) | ~ 11.
वहू अनेक तरहके भो्गोको भोगकर विष्णु मगवान्का सायुज्य पाता ह यह अधू.तसारका कहा हुमा प्रदक्षिणा 4
ब्रत उद्यपनसहित पुरा हुआ |
| अष््वत्थरूपसे विष्णका वट सूयसे शिवरका वथा पला स्वस ब्रह्मा आविर्भाव-- ऋषि बोले कि,
ब्रह्मा पलान्ञ, शंकर वट. ओर विष्ण अश्वत्थ कैसे हुए ? यह् हसे बता दीजिये 1 १।। बार्चिल्य बोडे कि,
` ब्रह्माके रचे सब इन्द्रादिक देव पहिल इकट्ठे ह ब्रह्माके पास गये ।\२। कि, है ब्रह्मन् ! वेदों सब देसे 1
` अधिक महादेव पढे जाते हें । हम आपके साथ उनके दर्शन करना चाहते हें ।\३।। इनद्रादिकोके वचन सुन
सब देवताओके साथ अग्रणी हो कैलास चलदिे ।।४।। शिवके दरवाजेषर जाकर सब खड होगये क्योकि,
| ध | ` हारपाल दीख नहीं रहा थां } शिवं भीतर बेटे थे ! ५।। हम क्िवके पासजायं था वानं जयं वापिस अधनं न
` स्थान चले जायं ।\६।। देव एस विचार कर रहे थे कि, भृनिश्वेष्ठ नारद दीख पड ¦ देव प्रणामकरके नारदजीषे =
बोले ।\७।1 कि, हे वेव्वेत्ताओमे सर्वश्रेष्ठ मुनिराज ! एक प्रहन बातादइये कि, भौतर महादेव क्या करते
हेः हम भीतर जायं वा नहीं ? ।\८।॥ नारद बोले कि, आप चन्द्रक्षयकी दामे घरसे चरे हौ इस कारण |
जापको कोई भारी विषघ्न होगा \\९। आपका यह् प्रहन भी कि, शिव द्या करते ह ? यह भी उस चन्दरसे
ही हमा है । इस कारण इस समय त्रिपुरान्तक संभोगकायेमे लगे हए हे ।\१०।। इन्द्र बोला कि; दिविका `
स्वामी सभी विष्नोका नाहाक है । मञ्च इत्द्रके आनेपर विषघ्न कैसे होगा ? \११,। देवोके डरनिके ल्यि
` मुनि हंसौ करते हे । इन्द्रके ये वचन सुनकर मुनि व्याकर होगये ।1१२।। कि, इन्द्रम मेरे कचन कँसे सत्य |
ध ` ह जो मेरे वचन जल्दी हौ सत्य होना तो ।।१२।। राधादामोदरकौ प्रसत्नताके लिये मे उत्तम त्रत करूंगा ५
मनम यह विचारकर मुनि चुष हौगये ।1१४। इन्द्रने देवोसे विचार क्रिया कि, अब क्या किया
शी तो हमारा भी सब समाचार उन्हँ ३ देना ।\ १६।। यदि प्रसंग न देखे तो भिखारी बनकर मांगना
भिक्षुकनतो ताडा जाता है एवं न माराही जाता है । इस कारण भिखारी बनकर घुसं ।\१७।। वद्धिने
` किवानं उसे देख छिया जिसने लज्जित होकर भोग छोड दिया । तुम कौन हो ? इसके उत्तरमे कहा कि,
भूखा भिखारी ब्राह्मण हं ।\१९। तथा बृढा अधरा जौर
इन अग्निस बोला कि, हे बह्व ! मेरे वचन सुन 11१५1 तु ब्राह्मणक रूप धरकर भीतर चला जा । यदि प्रसङ्ख प
देवेनरके बचन सुनकर वैसाही किया । भीतर जाकर क्या देखता है कि, ई शिवाके साथ संगत हे ।\१८।। ५
: दीन हं । मुञ्े भोजन दीजिये । इसमे सुभे नही
देखा एेसा जानकर पावतीने उसे भोजन कराया \\२०।। वह भी खा पौ समाचार कहनेके ल्यि बाहिर `
` ` चल्दिया, उसौ समय नारदजी छिपकर पावंतीजीके पासं अये ।२१।। ओर उनके चरणों शिर रखकर `
रोने लगे \ पावेतीजी बोखीं कि, ए बालक ! क्या हुभा बतातो सही ।२२।। मलाबुरा जेताहो तेसा वता, = ` :
प्रतीकार करूगी । नारद बोके कि, हंसोकी बात है । मेन बता सका ।२३। इद््रादिवेवोने
कौन करेगा, नारदके यै वचन सुन गौरीने फिर पछा ।\२४।} तबदोनों होमि आंख मीचकर `
, ॥२५।। आप दोनोका भोग देवताओंने देवक्या । पीछे उन्होने बराईको, ` `
भोगके विच्छेद करनेकै किये अग्नि भेजा था जो कि, भूल ब्राह्मण बनके अभी ` ८ (॥
दिया कि, शिव संभोगसे विरत होगये ।\२९।। मेने तो दररसेही लिवको देवाथा ` (
मौर सुनिकेवचन त इन्द्र देवोके साथ भीतर चल दिया \\ ३५
डा होगया इस तरह खड हए इन्दरको देल उसे पा्वतीजी ब लों `
[विश्प्र०वि०) हिन्दीटीकासहित (९९१) `
ओर दूसरी इसरी देव पत्नियां ठता होगडई, उरव॑श्लौ आदिकं अष्सराएं मालती आदिक पृष्यद्रम बनीं ।1३८।॥ `
इस कारण सभौ प्रयत्नके साथ अश्वत्थक परजा करे । स्त्री हो वा पुरुष हो लक्ष प्रदक्षिणा करे ॥\३९।॥ `
पीयलके नीचे शनिवारके दिन राधामाधवकौ परजा करे । राधा ओर दामोदरका स्वरूपमानकर द॑पतिर्योको
भोजन करावें । पीछे अपमोन हो भोजन करे । इससे वन्ध्याभी पुत्र पाजाती है, दूसरोकौ तो बातही ब्याहै `
॥४०।४१।। (मूलतो' यह कहुचुके ।\४२।।) विष्णुकौ मूतिके अभावमे अइ्वत्थके मलमें कीर्तनकरना. = `
चाहिये \ यही विष्णुका परम आराधना है ।\४३।। दो पैरवालोमेसे ब्राह्मणोभे, वक्षोमेसे पीपलमे तथा = `
किलाओोमेसे शालिग्राममं भगवान् सदा विराजते हँ ।\४४।। अरवत्थको पुजा ओर स्प शनिवारकेही दिनि `
करे । दुसरे वारको अदवत्थके छृनेसे मनुष्य दरिद्र होता है ॥\४५।। यह सनत्कुमार संहिताके कातिक माह- `
| त्म्यका विष्णुभगवान्को अख्वत्थ होनेका कारण तथा उसकी लाख प्रदक्षिणाओंका विधान पुराहुभा।॥ `
| ज्ञप्तुमिच्छामि वक्तुमहस्यशेषतः ।। अज्ञानादथवा ज्ञानात्प्रमादाच्च कृतानि भोः! `
| दायादवधपूर्वाणि कथं यान्ति क्षयं विभो ।। नारदं उवाच । यें लोकाः पापः |
| संयुक्ता धमधिमंविवजिताः ।। व्रतहीना ब्रतभ्रष्टा दुराचाराश्च कुत्सिताः \\ `
५ अथ विष्णुलकषप्रदक्षिणाविधिः =
युधिष्ठिर उवाच ॥ भगवन् देवदेवेड् स्वेविद्याविहारद । किचिद्ि- `
| । अग्निकार्येण रहिताः शास्त्रध्मबहिष्कृताः ।। नास्तिका भिन्नमर्यादा हैतुकाः |
` कितवाः शठाः । मातापित्रोविरुद्वा्च गरुदवदुरदरोहकाः ।। एतेषां निष्कृति तात
कृपया वद मेऽधुना ।! अज्ञानामिह जीवानां साधीनां त्वं सुहत्स्मृतः \\ अनाथनाथ `
| देवेश ह्यनाथास्तादृ्ा जनाः ।\ एतच .त्वा ततो ब्रह्मा हर्षादुत्फुल्ललोचनः ॥ |
| साधसाध्विति देवेशो वचनं चेदमब्रवीत् ।। ब्रह्मोवाच ।) कि वणेयामि साधूनां `
। माहात्म्यं च भवादृशाम् । हरेलेकिकनाथस्य करूणा मुक्तिदायिनी । ह ह्मि
। हत्यादपापेषु संकरीकरणेष् च \! जातिश्र शकरेष्वेवमभक्ष्यभक्षणेषु च ॥ हरिणा
(९९२) "4. तरतेः - [ वि०प्र्वि०-
उपवासः प्रकर्तव्यो ह्यधिवासनवासरे । सौवर्णीं प्रतिमां कृत्वा विष्णोरमित-
तेजसः \\ गरुडेन समायुक्तां स्थापयेत्कल्दोपरि ।\ आचार्यं वरयित्वा तु ऋत्वि-
` जष्टच निमन्त्रयेत् ।। ततश्च चिष्णुगायत्या तहशांशेन वाग्यतः ।। पायसं जुहुयाच्च
` द्रद्यतं तिलसर्पिषा ।। हृत्वा स्विष्टकृतं पचाहुयाहानान्यनेकशः ।। कार्पासं लवणं
चैव गामेकां च पयस्विनीम् \\ आचार्याय सपीठं तां प्रतिमां च निवेदयेत् ।\ `
ब्राह्मणान् मोजयेत्पः्चात्पञ्चविशतिसंख्यकान् ।\ इति ब्ह्यवचः श्रुत्वा नारदस्तु
तथाकरोत् ।। राजन् कुर त्वमप्येतन्मुच्यसे सदेपातकंः \। सूत उवाच ।। धर्मण च `
कृतं सर्वं मुनेश्च वचनाद्द्रतम् ।। तेनासावभवन्सुक्तो दायादवधपापतः \\ इति `
` श्रीभविष्यपुराणें विष्णुलक्षप्रदक्षिणाव्रतं सोद्यापनं संपुणंम्
विष्णभगवासृकी लाख प्रदक्षिणाोकौ .विधि--युधिष्ठिरजौ बोले कि, हे भगवन् ! हे देवदेवेडय !
` हे सब विद्याओकरि जाननेवाखे ! में कुछ जानना चाहता हँ आय सब सुनादें ! ज्ञान अथवा अन्नानसे कौ गई =.
हिस्सेयरोकौ हत्याका पाप कंसे नष्ट हौ ? इसमें पाय बहुत है हे शरेष्ठ मुनि ! यहं मुने सुनाइये । व्यास बोले १
कि, नारदजीने यही ब्रह्मजीसे पूखा थ बही मे वुम्हु सुनाता हू, हे प्रभो ! जो ला वार प्रदक्षिणा करनेकौ `
` बिषिहै उसे सुनिये । नारद बोले कि, जो मनुष्य पापी, घर्मं अधर्मे रहित, कतहीन, बरतश्नष्ट, दुराचारी, _ `
` बरे, अग्निकायंसे रहित, शास्त्रधरमसे बहिष्छृत, नास्तिक, सर्यादानष्ट करनेवाले, हैतुक कपटी, शट, मावापके `
विरुद गुरं ओर ससुरसे वेरकरनेवाले ह, उनके लिये कोई अच्छा प्रायश्चित्त कृषा करके बता दे \ क्योकि, `
बुद्धिमान् अन्न मनुष्योके आप सुहुदय कहे जते हं" आप अनाथोके नाथ ओर देवेश ही वसे प्राणी अनाथ
नहींतो क्या है ? इतना सुनते ही प्रसन्नताके मारे ब्रह्माके नेत्र खुलगयें । अच्छा अच्छा कहकर ब्रह्माजी 1
| बोले कि, आप जसे महात्माओंका क्या माहात्म्य वर्णन करं ? लोकनाथ मगवानृकौ करुणाहौ सुवित देनेवाली `
1 है । ब्रह्महत्यादिक पाप, संकलीकरण, जाति ज्ञकर जर अभक्ष्यमन्नषणपापका प्रायस्वित्त लक्ष प्रदक्लिण्णंही 1
हैः बहु सब पारपोको जडे काटनेवाली हँ तथा पापरूपी अन्धकारे ल्थि तो पापके इनका दावानल ही
है \ जब भगवान् योगनिद्रा लें उसदिनसे इस वरतको प्रारंभ करे पया प्रद्ोधिनौ एकादशीतक इस व्रतको 1
. . - वुष्लासन 1... .-हन्वादाक्रासहुतः. . `. {९९३}
अथ तुलसीलक्षप्रदक्षिणाविधि
ध नारद उवाच ।। रोप्यते येन विधिना तुलसी पुज्यते सदा ।। तदाचक्ष्व महा- `
दव ममानुग्रहुकारणात् ।\ महादेव उवाच ।। शुभे पक्षे श्रुभे बारे शुभे ऋक्षे श्चुभो- `
दयं 1 सवथा कंशवाथ तु रोपयेत्तृलसीं सुने ।! गृहस्याङ्कणमध्ये वा गृहस्यो- `
पवनेऽपि वा ।। शुचौ देशे च तुलसीमचंयेदद्धिमाच्चरः ।! मले च वेदिकां कर्थादाल- | |
` वालसमन्विताम् ॥। प्रातः सन्ध्याविधि कृत्वा स्नानपु्वं दिनेदिने ।। गायत्यष्टज्ञतं `
जप्त्वा तुलसीं पूजयेत्ततः ।। श्राडमुखोदडमुखो वापि स्थित्वा प्रयतमानसः ॥ ` |
` तत्रपुजा कम :-ध्यायेच्च तुलसीं देवीं श्यामां कमललोचनाम् ।। प्रसन्नपदावदनां 1
वराभयचतुभुजाम् ।। किरीटहारकेय् रकुण्डलादिविभूषणाम् ।॥ धघवलांदरक- `
। संयुक्तां पद्यासननिषेधिताम् ॥। ध्यानम् ।॥ देवि त्रैलोक्यजननि स्वेलोकंक- `
| पावनि ।\ आगच्छ भगवत्यत्र प्रसीद तुलसि प्रिये ।। आवाहनम् ।। सवेदेवमयेदेवि `
| सवेदा विष्णुवल्लभे ।। रम्यं स्वणंमयं दिव्यं गृहाणासनमव्यये ।। आसनम् ।! स्व- `
| देवमय देवि सर्वदेवनमस्कृते ।। दत्तं पाद्यं गृहाणेदं तुलसि त्वं प्रसीद मे! पादम् ।॥ `
| स्वेती्थमयाकारे सर्वागमनिषेविते । इदमर््यं गहाण त्वं देवि दैत्यान्तकप्रिये
र अर्ध्यम् ।} सवेलोकस्य रक्षार्थं विष्ण र सल्िधिकारिणी । गहाण तुलसि प्रीत्या
इदमाचमनीयकम् \। आचमनीयम् ।। गङ्धादिसवतीर्थेभ्यो मयानीतं शुभं जलम् \
| स्नानार्थं तुलसि स्वच्छं प्रीत्या तत्परतिगृह्यताम् ।! स्नानम् ।। क्षीरोदमथनोद्-
| -भूतचनद्रलक्ष्मीसहोदरे ।! गृह्यतां परिधानार्थमिदं क्षौमाम्बरं शुभे ॥ वस्त्रम् ॥
न न स स ~ - - +
प, ऋ. भ.
५ पुष्पं च नामतः ।। प्रसाद मम देवेरो कृपया परया मुदा
, मर स्५अ & ~ नेप{व्वम( {वच ९
तान् भोगानन्ते मोक्षमवाप्नुयात् \\ लक्षसंख्याङ्च कृत्वा वे तुलस्यार्च प्रदल्लिणाः।॥
अन्ते चोद्यापनं कू्यत्तिन सम्यक् फलं भवेत् \! उद्यापनं विना विप्र फलं नेव भवेत्क्व- `
चित् ।। तस्मात्स्वभ्रयत्नेन उद्यापनर्विधि श्डणु ।\ सौवर्णीं प्रतिमां विष्णोः शंखचक्र `
` गदान्विताम् ।। तुलस्यायतनं चैव कृर्यात्स्वणेविनि्मितम् ।! हेमादिरनिमिते कुम्भे ्
पूर्णपात्रसमन्विते ।। पुष्योदकेः पञ्चरत्नैः कुशटूर्वाप्रूरिते ।! न्यसेद्विष्णुं तुलस्या `
च लक्ष्म्या चैव समन्वितम् ।। पुजां पुरुषसूक्तेन कुर्यात्सवप्रयतनतः \\ उपचारैः `
षोडहशभिभक्तिभावसमन्वितः । रात्रौ जागरणं कुर्यात्पुराणवेदपाठनेः ।! वेष्ण-
वश्च प्रबन्धेक्च नृत्यवचस्तथैव च ।। ततः प्रातः समुत्थाय होमं कुयष्विधानतः । `
` वेष्णवेन तु मन्त्रेण तिलाज्येन विशेषतः ।। पायसेन धृताक्तेन अष्टोत्तरसहस्रकम् ।! `
आचार्याय सवत्सां गां दक्षिणावस््रसंयताम् ।। ब्राह्मणान् भोजयेत्यश्चात्सहल ॥
वाथ शवितितः । शतं वा भोजयेद्धीमानष्टाविक्तिमेव वा । तेभ्योपि दक्षिणां
ददयाहित्तशाठ्यं न कारयेत् \\ एवं यः कुरते सत्यंस्तस्य पुण्यफलं श्यृणु \\ अक्व- `
मेधसहस्रस्य वाजपेशतस्य च । यत्पुण्यं तल्लभेन्मर्त्यो नात्र कार्या विचारणा।। `
इदं रहस्यं परमं न वाच्यं यस्य कस्यचित् ।। विष्णुप्रीतिकरं यस्मात्तस्मात्सवं `
ब्रताधिकम् \ तुलसीप्रदक्षिणानां तु माहात्म्यं श्युणुयान्नरः ।। सकृ पठ्तेयोवे
स गच्छष्णवं पदम् 1} इति श्रीभविष्यपुराणे लक्षतुलसीभ्रदक्षिणात्रतं सोद्यापनं
बुलसीो लाख प्रदक्षिणाओकी विधि, नारदजी बोले कि, जिस विधिसे तुलसी रोपी जातौ है । है ह ८
महादेव ! भेरे पर कृपा होनेके कारण वह सब सुना दें । शुभ पक्ष, शुभ वार नक्षत्र ओर लनम सब तरह `
` भेगवानूके लिये घरके आंगन अथवा गृहके उपवनके पवित्र स्थलमें तुलसी लगा, उसे पूवं या उत्तरको मृ `
करके पुमे, मूलमें आल्वारके साथ वेदी बनावे । पूजाकम-- सोलह वषको आयुवाली, कमलनयनी, कमलकी `
तरह लिक्हुए सुखवाली चर ओर अभय मुद्रा युक्त चतुभज, किरी, हार, केषूर गौर कुण्डलादिकोसे सुशो- `
्वेतवस्त्र धारण किये हई, पद्मके आसनपर विराजी हुई देवि तुलसौका ध्यान करना चाहिये ( | इ इसे `
ग्राहय णाद] |
८ “(द्
. होजाती हँ । इसमें विदार करनेकौ बात तहीं है । वहं जिस जिस कामको चाहता है बह उसे मिरजाता `
है, स्थेष्ठ भोगोकः भोगकर अन्तम मोक्ष पाजाता है ! एक लाख वुलसौकी प्रदक्षिणा करके अन्तमे उद्यापनं `
करे जिससे अच्छा फल हौ \ क्योकि, है चिप्र ! उद्यापतके विना कभी भौ फल नहीं होता इसकारणसरवप्रयलरे |
साथ उद्यावनकी विधि सुन । शंख, चक, गदा, पद्य, धारण किये हृषु सोनेकौ विष्णुभगवानको प्रतिमा तथा ` 1
` वुलसौका मायतजभौ सोनेका हो, सोने आदिके बने पूणवात्रयुत कुभपर जो कि, पुण्य पानी, पञ्चरलकृक्न `
मौर दू्दसि भ्रपुरित हो, वुच्लौ जर लकष्मीके साय विष्णु भगवानको विराजमान करे । पुरुषशुक्तसे प्रयत्तके ` `
साथ एजः करे । भवितिभषसे सोलह उपचारोते रजा करे पुराण मौर वेदयाठके साथ रातमे जगारण `
` करैः वष्णवं प्रवन्धं तथा नाच वाद्यभी हौं । प्रातःकाल उल्कर विधित होम करे । विष्णुमं्ते घीसेसने
तिल आज्य ओर पायसक्ती एक हजार आठ आहति दे । वस्त्र ओौर दक्षिणके साय आचारयनो बच्डावाली = ` १
इषारे गाय दे 1 पौषे अपनी सवितिके अनुसार हजार सौ वा अद्ठाईस ब्राह्मणोको भोजन कराने । धनक्षा ` \
लोभ न करे, उन्हं शवितिके अनुसार दक्षिणाः दे । इसप्रकावजो मनृष्य करता है उसके पुष्यका फलसृुनथे। `
एके हजार अइवमेध ओर सौ वाजपेयसे जो पुण्य होता है बही भिल जाता है । इसमे विचार न करनाचहिये
इस परम रहुस्यको किससे न कहना चाहिये । यहं विष्णुभगवानको प्रसन्न करनेवाला है । इस कारण ` 1
सभौ वरतोसे अधिक है । जो कोई मनुष्य तुलसीप्रदक्षिणा माहात्यसुने वा एकवार पढे वह् वैष्णव |
पदको च्ला जाता है । चेह श्रौभविष्यपुराणका कहा हुमा वुलसीका लक्षप्रदक्षिणा ब्रत उद्यापनसहित पुरा
हज +... र 1 ५
न 1: ८.
अथं गोन्राह्यणाग्निहुनुमल्लक्षप्रदक्षिणाविधि
1 युधिष्ठिर उवाच ।\ भगवन् ज्ञानिनां श्रेष्ठ सर्ववि्ाविक्षारद ।। किञ्चिहि-
। जञप्तुमिच्छामि वक्तुमहस्यज्ेषतः ।। अज्ञानादथवा ज्ञानात्प्रमादाद्रा कृतानि हि.
| ` पापानि सुबहृन्यत्र विलयं यान्ति तद्रद ।! व्यास उवाच ।! लक्षप्रदक्षिणाः धा
। गोऽग्निद्धिजहनूमताम् ।। पृच्छते नारदायेति प्राह ब्रह्मा श्युण॒ष्व तत् ता `
ह् गेनाहच जन्तवः ।! तेषां पापविनाल्ा्थं प्रायश्रिचत्तं कथं भवेत ।। ब्रह
| कि वणेयामि साधूनां माहात्म्यं च भवादृशाम् ।। साधुसाधु 5
कार्याथसिद्धये ।। मनोजवं मारतुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठः
3 1 ५ | »दलणावाव
ततः प्रदक्षिणाः कार्या यावल्लक्षं भवेदब्रती ।1 भूमिदेव नमस्तुभ्यं, नमस्ते ब्रह्य- `
रूपिणे \! पूजितो देवदैत्यस्त्वमतः शाति प्रयच्छ मे ।। एवं हनूमते कार्यां भूतप्रेत
-विनारिने \\ षोडलेरुपचारेदच पूजयेद्रायुनन्दनम् ।\ ततः प्रदक्षिणाः कुयष्दात्म- `
। 1} वातात्मजं
वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये \\ एवं प्रदक्षिणावतं कुयदिवं प्रयत्नतः \॥\
भूतप्रेतपिन्लाचाद्या विनश्यन्ति न संशयः ।\ आदित्यादिग्रहाः सवं शन्ति यान्ति
श्जिवाज्ञया ।। उद्यापनं च सर्वासां कुर्यत्पुणंफलाप्तये ।\ उद्यापनविधानादे पुण्याहं `
वाचयेत्ततः \॥ आचार्यं वरयित्वा च प्रतिमाः स्व्णसंभवाः ।\ अव्रणं कल्खं पर्णं
स्थापयेन्मण्डले शुभे ।! विरच्य लिद्धतोभद्र पजयेदेवमञ्नसा ।। पायसं जुहुयात्तत्र `
तत्तन्मन्त्रविचक्षणः ।॥ अष्टोत्तरसहस्रं तु प्रायश्चित्तं चरेच्छभम् । मण्डलं `
दल्षिणायुक्तमाचार्याय निवेदयेत् ॥! ब्राह्मणान् भोजयेच्छक्त्या वित्तशाठ्विव- `
सायुज्यमाप्नुयुः ।। इति श्रीभविष्ये पुराणे विप्राग्निगोहनुमल्लक्षप्रदक्षिणाव्रतं ५ 1
सोद्यापनं संपुणेम् ॥' ८
हह उन जुम पो नर नल मसनल ? जह स, आप ज साच ५
अकि माहात्म्यका कंसे वेन करं ? बहुत अच्छा अच्छा अब में ुमहं उ्तमत्रत सुनाता हं 1-> ब्रह्महत्यादिकं ि ^
` मढा, मच्छ, सर, महिष इनकी हत्या ये पाप संकर करनेवाखे ह । जिनसे दान ` |
रुना, अयुक्त, वाणिज्य, ओौर शूद्र सेसा, अूठ बोलना ये सब पाप अपात्रीकरण यानी ५
लक्षवित्व-}
(९९७)
है । बह लक्ष प्रदक्षिणा है \ यह सब पापोको नष्ट करनेवाला है ! एवं कल्याण कारक है । विज्ञेष करके आषाड `
शुक्ला एकादश्लीके दिन दादक्षी या पौणमाको इस व्रतका प्रारंभ करना चाहिये । गर ओर गणेशको प्रणाम ` |
। करके देशकालको कट् संकल्प करे, पीछे तीनों अग्नियोको प्रमाण करके लक्ष प्रदक्षिणा करे, प्राण ओर दन्दियो- |
। को जीतकर मुखम मन्त्र कहै कि, गाहपत्यके लिए नमस्कार, दक्षिणाग्निके ल्यि नमस्कार, आहव- |
नीयके लिये नमस्कार तथा महाबेदीके लिये नमस्कार है । गञकौ प्रदक्षिणा--भी एक लाख करनी चाहिये, = |
विधिके साथ पहिठे गऊकी पुज उसे उत्तम नैवेद्य दे, तथा वारंवार नमस्कारं करता हआ प्रदक्षिणा करे |
` कि, गऊओके अद्धोमें चौदहों भवन रहते हे, इस कारण मेरा इस लोक ओर परलोक दोनो कल्याणहो, =
इसप्रकार प्रदक्षिणा करे, सब पापो छूट जाता है । विप्रप्रदक्षिणा--कमेष्ठी ब्राह्मणको विषिपू्वेक पुने, |
। षीके एक लाख प्रदक्षिणा करे, है भूदेव ! तेरे लिये नमस्कार है, हे ब्रह्मल्प ! तेरे लिये वार्रार नमस्कार |
| हैः देव आदि सभीने पुजा है इस कारण मे भी पुज रहा ह मे भी शान्ति दौजिये भूत प्रतविना्ली हनुमानूनीकौ ।
लक्ष प्रदक्षिणा ~ भी इसी तरह होनी चाहिये, सोलह उपचारोसे जे, अपने कारय्यकी सिदधिकेल्विलाक्ल `
` प्रदक्षिणा मंत्र बोलता हुआ करे कि, मनकेसे जववाले, वायुकेसे वेगवान् जितेन्द्रिय, बुद्धिमानोे भेष्ठ, वायु- = ।
पुत्र, वानरोके यूथोमें मुख्य, श्रीरामचन्द्रजीके दतकी
पाप, संकरीकरण, जाति भरंशकरः अभेक्ष्यभक्ष्यण इन सब पापका विष्णुभगवान्ने एकी प्रायश्रिचत्त बताया ` |
हतक श्षरण में हूं । उद्यायन - सबकाही करे, क्योकि,
उद्यापनेसही फलकी प्राप्ति होती है, उद्यापन विधानमे सबसे पहिले पुण्याहवाचन हो, आचा्येका चरणं .
करे, सोनेकी प्रतिमा बनावे, स्व॑तोभद्रमंडल बनावे, उसपर अ्रण (सोरी विनाका) कला स्थापन करे, |
उसपर देवको विराजमान करे, जिसका उद्यापन हो उसीके मंन्से पायसकौ आहति एक हनार आठ्दे, `
उसपर देवको विराजमान करे, जिसका उद्यापन हो उसीके मंत्रसे पायसकी आहुति एक हजार आठ ३
` दक्षिणा समेत मंडल आचाय्यैके लिये दे दे ॥ धनका लोभ छोडकर शक्तिके अनुसारं ब्राह्मण भोजन करावे
` जो इस त्रतको करते है वे निष्पाप होजाते हैँ बह यथेष्ट भागोको भोगकर अन्तमं सायुज्य पाजाता है ।\
| श्रीभविष्यपुराणका कहा हृभा विप्र अग्नि गौ ओर हनुमानकौ लाख प्रदक्षिणाका त्रत उद्यापनं सहित पुरा
4 अथ लक्ष बिल्वपत्रपुजा क
व्यासः उवाच ॥ पूवेजन्मनिभिल्लोऽसौ क आसीद्राक्षसोऽपि
शीलः कि समाचारस्तन्मभाचक्ष्व नाभिज ।\
॥ ८ ~^ ^ 8 [पत्रपूजा- १
तष्रदस्व मे \\ ब्रह्मोवाच \! परेषां दोषकथने दोषो यद्यपि वतेते \\ २ \ प्रहे
छते प्रवक्तव्यं याथार्थ्यं न तु मत्सरात् ।। विदभं देशे नगरं मोदाराख्यं बभूव॒
ह )। ३ । विख्यातं त्रिषु लोकेषु कुबेरनगरोपसम् ।! भीमो नामाभवद्व्याधो नगरे
मांसविक्रयी ।। ४ ।। स राज्यकार्यं कुरुते स्वथं भुक्ते वराद्धनाः \\ रष््टे श्वृणोति
यां रामां रम्यां सपतिकाशपि ।\ ५ ।। बलादानीय भुक्तोऽसौ कऋल्दतीं रुदतीसपि
वराद्धनानां कुरुते वेषं विषयकम्पटः ।\६।। तथोक्तं कुरुते नारी या तद्दृष्टिषथं `
` गता ।। तामालिगत्यसौ कामी चुम्बत्येवं भजत्यपि \\ ७ ।\ परद्रव्याणि गृहणाति `
धनानि स बलाल्युनः ।। सोऽपि तादृग्गुणो राजा इष्टवुद्धिरघे रतः \\ ८ ।\ एवं
दुराचाररतो न कन्यां न च मातरम् ।! न वजेयति संभोगे भगिनीमपि निधणः
1 ९। न ब्रह्महत्यां मनुते न स्ीबाल्वधं तथा । एवं पापसमाचारो पापस्य
“ परवरेताविव ।\\ १० ।\ आस्तामुभौ दुष्टबुद्धी राजामात्यो सुदुःसहौ ।\ न ब्राह्मणं
णो.
न सन्यासी तद्गृहे याति भिक्षितुम् ।।११।। नराष्टरसन्नाम' तयोगृह्णातिप्राक्न- `
` तोऽपि च ।। एकडा मृगयार्थं तौ यातौ च गहनं वनम् \\ १२ \) हतानि मुगय॒थानि `
महास्थानं पथि तौ पद्यतः स्म हं \} यस्मिन्विराजतें सूतिः छक्त्या सह॒ शिवस्य
८.१ पुत्रार्थं -कुवेता तपः ।। भक्त्या साक्षात्कृतो `
यत्रं इवदेवो
देवो ह्य मापति : ।। १५ ।1 पञ्चाक्षरेण मन्त्रेण ध्यायता बहुवासरम् ।\ `
ध ुरुषार्थाचतुि चतुथाः । स्मरणात्पुजनाच्चापि भवेयुर्नात्र संशयः ।। १८।। `
एवं वक्तष्ठवाक्येन सा परं भुवि पप्रथे ।। शिवस्य भजनेनास्य स्मरणेनाचैनेन च `
रामलक्ष्मणद्यनरुष्नभरतः सदृशाः युता जाता लकष विख्याताः 1
पक्षियुथान्यनेका : ।।! तानि प्रापय्य .नगरे अशहवारूटो स्वयं पुनः ।\ १३ ।, शिवस्य ५ । |
द्त्वा तस्मे वरान् देवः प्रपेदे वाच्छितान्यपि ।! १६ ।! ततो वसिष्ठहस्तेन तेनेयं
जञा शरस तिः ए: ।\२०॥ एव दष्ट्वा महारम्यं प्रासादं राजनिमितम् ।! उमा- च
लक्षविल्व-] हि्दीटीकासहित ` (९43...
, च \) कुण्डेऽवीचिरये पात्यो सहस्रं परिवत्सरान् \ २६ । एककस्मिन् कसेणेवं
कुण्डे भुक्ताघसञ्चयौ \। मृत्युलोके ततो ह्येतौ पात्येतां नीचयोनिषु । २७ ॥ `
अनयोः पुण्यलशोऽस्ति दूताः वृणुत मन्मुखात् ।। प्रसङ्घारदचितो दष्टो देव आभ्या-
` मुमापतिः \\ २८ ।! तेन पुण्येन तत्रतौ पापं व्यतितरिष्यतः । ए वमाकष्ये तद्वाक्यं `
` इतै्वध्वा हतौ दृढम् 11 २९ ॥! कुम्भीपाके शोणितोदे निरये रौरेऽपि तौ ॥ `
। निक्षिप्तौ कालकूट च कमः शतवत्सरान् ।॥ ३० ।! तामिस्रे चान्धतामित्रे
` पयश्ञोणित्करदैमे \\ कण्टकेश्च क्षताद्धौ तौ सन्तप्तौ तप्तवाष्लृके ।॥३१।।खादितौ `
किमिभिर्नोतौ भृशं शुनिमुखे ह्य भौ । असिपत्रवने घोरे ततो नीतावुभावपि `
॥ ३२ । यत्र शस्त्राभिघातेन वमे भिद्येत पापिनाम् ।। ततत्तप्तक्िलायां तौ ,
` निष्िष्टौ घनघाततः । ३२ ।। भुक्त्वा तु नरकानेवं दुःखितौ बहुवासरम् ।॥ न॒
दुःखं शक्यते वक्तुं शेषेणेतत्कदाचन ।। ३४ ।। एवं बहुसहस्राणि मुक्त्वा भोगान- |
नेकक्लः ।\ निस्तीणंभोगौ तौ पापलेषेण भुवमागतौ ।। ३५ ।। एको जातः काक- `
योनावुल्कोऽभूत्परोऽपि च ।\! तत एको दरदुरोऽभूदपरः सरटोऽभवत् ।\ ३६ ॥ `
तत एको विषधरोपरोऽभ॒द्वश्िचिकोऽपि च ।! तत्रापि कुरुतः पापं नानालोकः
विदशतः \! ३७ ।! शुनीमार्जारयोनौ तौ चातौ नकुलसूकरौ ।। वृकजम्बूकयोनं
तौ जातौ घोटकगदेभौ ।\ ३८ ॥ तत उष्टृगजौनातौ ततो नक्रमहाङ्षषौ ।\ ततो
व्याधमुगौ जातौ ततो वृषभकासरौ\\३९।।एवं नानायोनिगतौ जातौ तौ इवपचा
न्त्यजौ ।\ राक्षसीं भिल्लयोनि च ततचान्ते समीयतुः ।। ४० ।। पिद्धा्नो दुबुद्धि- `
रिति नाम्ना जातौ च भूतले ।। एकं पण्यं तयोरासीन्मृगयां सपतोः क्वचित्
॥ १ ।) ज्ञडकरस्य च नमनं दही ० च प्रदक्षिणा ।। अ्च॑नं बिल्वपत्रा
= = ~ ध `
॥ ४९ ॥ वैशाखे भावणे बोजे बिल्वपत्राचनं स्मृतम् ।1 दिनेदिने सहस्रेण अ्चैये- `
द्विल्वयत्रकेः ।। ५० ।। दाहाधिकमासंस्तु त्रिभिः कुर्यात्ततो व्रती ।} विधिनोद्या-
पनं सम्यगब्रतस्य परिपूतेये ।॥ ५१ । आहूय ब्राह्मणान् शुद्धान् युचन्रे च शुभे `
` दिने ।। देवागारेऽथवा गोष्ठे शुद्धे वा स्वीयमन्दिरं \! ५२ \ यत्र चोद्ापनं काय
मण्डपं तत्र कारयेत् ।! वेदिका तत्र कर्तव्या मण्डपे च सुश्योभने ।\ ५३ ।। गीत- `
वादित्रघोषेण ब्रह्मघोषेण भूयसा ।\ प्रविदय मण्डपे तस्मिन्नाचार्येण हिज: सह्
11 ५४ । मासतिथ्यादि संकीत्यं कुर्यात्स
स्वस्त्ययनं ततः ॥ पुण्याहवाचनं कायं- `
माचायेवरणं तथा 1! ५५ ।! दक्षं ब्राह्मणमाहूय वेदवेदाद्धपारगम् ॥ आचार्यं
बरयेत्पुवं तत एकादर्शात्वजः ।। ५६ ।। वस्त्रेणाच्छाद्य वेदीं तां तत्र स्तस्भविरा- `
निताम् ।। पुष्पमण्डपिकां कृत्वा पटूकूलादिवेष्ठिताम् ।। ५७ ।। तन्मध्ये किङ्धतो-
भद्रं रचयेत्लक्षणान्वितम् ॥। दुर्या्तण्डुलकेलासं त्रिकूटं तस्य चोपरि ।। ५८ ॥ . ५
्ि्रस्तोषयेदक्षिणादिभिः ।। ६८ ॥\ प यलि स र क ~
ल. वि. पत्रपूजा }] हिन्दीदीकासहित | (१००१) ४ त
करता (यानी मन्त्री) था सुन्दर स्तरियोका भोग करता था, जिसस्त्रीको बह सुन्दर समन्नता था चाहे बह `
(व ॥ पतिवालो भी क्यो न हौ \\५11 उस रोतौ कन्दन करती हुई कोभौ जबरदस्ती ककर भोगता था) वह् विषय ५
चपट सुन्दर स्त्रियोका वेष ना चिया करता था \\६।! जो स्त्री उसकी दष्टिमे आजाती वहु उसका कहना. ` .
मानती वह उस वेषमे उसका आखिगन चुंबन ओर सेवन करता थां ७11 बल्पु्वेक दूसरेके द्रव्यधनको `
-क्ेकेताथा। दुष्टबुद्धि राजाभी वेसाही पापी था \\८}} वहू इसतरह पापभे रत रहनेवाला, पयी, कल्या माता 1
| ओर बहिनको भी संभोगमं नहीं छोडता था न उसे दयाही आती थी \।९॥ ब्रह्महत्या मौर बालवधकोत्ो = |
| बह भानतेही नहीं थे, इसप्रकार वे पापी पापके पवेतकौ तरह \\१०। राजा ओर मन्त्री दोनों दु सह दुष्ट 0 | |
१ बुद्धि रहै, उसके घरपर ब्राह्मण ओर संन्यासौ कोरईदभौ मांगने नहीं जाता था ।११।। राज्यम कोई अच्छा
४... । आदमी उनका नासभी नहीं क्ता थाः एक् दिन दोनों शिकार खेलनेके लिये गहन वनमं घुसगये ।\१२।। ८ ॥
| उन्होने अनेकोही यूथ, पक्षियों ओर मृगोको मारे । उन सबको नगरम पहुंचा दोनों घोडेपर सवार हए चले ` 0
।॥ ॥१३।। मागमे शिवका महास्थान देख। जिसम कि, राितके साथ शिवजीकी महामूति विराजती थी ।१४॥ ८५८ 1 1
।॥ यहां दश्ञरथजीने पुत्रके लिये तप करते समय शिव मूरति स्थापितं कराई थो तथा भक्तिसे देवदेव उमापतिको ` ध
1 नगरे समान या \ उसनगरमे भीमनामकमांसका व्यापार करनेवाला व्याधं था \४\\ वह् स्वयं राज्यकार्यं 1
|
|
` प्रत्यक्षभौ कर किया था ॥१५। पञ्चाक्षर मंत्रको जयतेहुए बहुत दिनतक ष्यानकिया था । दिवजीने `
बरदेकर पदपदे मनोरथ पुरे कियेथे ।१६।। उससे वसिष्ठजीके हाथमे यह मूति स्थापित कराई थी । तथा `
बह संदिरभी उसी समयका बना हा थाः 11 १७1 शिवके कि, दजन स्मरण ओर पुजनसे सनुष्योके चारो
` तरहके पुरुषार्थ सिद्ध हो जाते हे इसमें सन्देह नहीं है ।\१८।। वसिष्ठजीके इस वाक्यसे बह ओर भी भूमंडल्पर. `
प्रसिद्ध होगया ।\१९।। इस शिवके भजन स्मरण जौर अचेनसे रास लक्ष्मण भरत जौर. शत्रुष्न जसे लोक
प्रसिद्ध सर्वज्ञवीर पुत्रदा हुए \२०॥ राजाके बनाये दडे सुन्दर मंदिरको देख उन दोनोने शिवपावंतीजीकी
॑ | पूजा की ।\२१।। विना छेदके कोमल कोमल बेलपत्र चाये तथा प्रदक्षिणा करके घर चले आये ॥२२
यही पुण्य उन्होने पापी पाप किया, पीछे राज्य करते हुए मरगये ॥२३।। यमके `
८ नें देवत् करिया, बाकी तो पाप कै
| इत पाकम बांधकर यमराजके पास ले आये, चित्रगुप्तसे बुलाकर अच्छा बुरा पृछा ।।२४।। चित्रगप्तने `
| यमसे कहा कि, इनका पुण्य तो लेदामात्रभी नही है पर पापोकी कोश संख्या नही है, यह सुन इवेति यमने `
। । कहा ।\२५।। कि हे दूतो इन्दं बाधो बधो नरकोमें पटक दो, अवीचि रयके कुण्डम एक हजार वषे पड़ रहने
दो ॥॥२६।। इस तरह प्रत्येकं कुण्डे पापको मुगाकर इन्हे मृत्युलोके नीच योनियोमे जन्म
| है दतो ! सुनो इनका पुण्य ठेहाभौ नहीं है इन्होने प्रसंगसे शिवके दशेन ओर पजन किया है ॥२
पृण्यसे ये वहां पापको पाकर जारयेगे, इतोने वचन सुनतेही उन्हे बधा ।\२९।। कंभीपाक, शोणितोद,
५ ४ रौरव, कालकूट इनमे सौ वर्षतक क्रमसे पटका ।३०।। तामिस्र व अन्धतामिलर, पूयदोणित, कदं
॥१५१९॥ ववरा् ^ 4 [शिवनाना- `
कारण यह उनका पुण्य अगाध था उसके प्रभावसे जसे उनकौ पापमुक्ति हुई उसे सुनिये ।\४३।। उनमें घूमता `
हा राक्षसं भीलको खानेके लिए आया, वहु बिल्वके वृक्षपर चदगया, उसके पत्ते पावती शिवके माथेपर `
1४५ पड, इससे दोनोके ऊपर प्रसन्न हुए शिवने उन्हं दिव्य देहदेकर अपने लोक पहुंचा दिया ।४५। =
मेने उनका पहिला जन्म ओर कर्मं तुम्हे सुना दिया, बिल्वपत्र चढानेसे दिव प्रसन्न होगये \\४६।\ यदि क्षिवजी- `
पर ल्ल बिल्वपत्र चावे तो वे प्रसन्न होजाते है, लक्ष्मी चाहनेवालोंको बिल्वपत्रसे पुजा करनी चाहिए `
।४७।। लाखेसे सं सिद्धि होजती है ! इसमें विचार न करना चाहिए, जिस कासंको मनुष्य चाहता है वह .
उसे पाजातःं है ।\४८।। है विग्न ! अब दिल्वपत्रोसे पजन कुमा, जिससे शिवम प्रीति होती तथा भिति |
| बढती है ।४९।। वैशाख, श्रावण ओर कािकमें बितल्वपत्रसे पुजन करना चाहिये वह् रोज एक हजारसे `
हौ ।\५०।। तीन माह ओर दशदिनतक छगातार यह ब्रत करे ! उद्यायन--इसके पी विविपुवंक होना चाहिए
जिसके कि, त्रत पूरा होना ।\५१।। अच्छे चन्द्रमा ओर अच्छे दिन शुद्ध ब्राह्मणोंको बुलवे देवगार शुद्ध,
, गोष्ठ वा अपने घर ।।५२)। जहां उद्यान करे मंडप बनावे, उसमें वेदी बनावे ॥\५३।\ गाने बजने ओर `
वेदपापुवेक आचायं जर दूसरे ब्राह्मणोके साथ मंडपे प्रवेश करे ।५४।। मास तिथि आदि कह संकल्प
करे, स्वस्तिवाचन ओर पुण्याहवाचन हो, आचा्यंका वरणं करे ।\५५।। वेदवेदांगोके जाननेवाठे दक्ष `
। ब्राह्मणको बुलाकर उसे श्चा बनावे, ग्यारह ऋत्विज वरण करे ।\५६।। वेदीको वस्तरसे
मंडपिका बनावे, उसे कुलयटू आदिसे वेष्टित करे \।५७।। उसपर विधिपुवेक ग तोभद्र रचे, उसरपर चावलोेका `
` कलास पतेत बनावे ।\५८।। उसपर मिह तांबेका शुभे कलल बनावे, उसे गंगा जलते ल्से भरे, पञ्चरत्न
दक्करसूलोकी `
५ डाल ।।५९।। पञ्च पल्लव जौर सोना चन्दन डाले, कलास ओर कलडको दो वस्त्रोसि वेष्टित कर दे ।।६०।। (^
प्रतिमा हो संत्रके साय करे ।६१।। सावित्रीसहित (
विष्णुको करे ॥।६२।। जो कुछ दद्रकल्यमं पुजन विधिम _ `
पुराणोके पाठते व्यतीत करे ।\६३।। प्रभात `
सार स्थण्डिल बनावे ॥।६४।। पय आण्य ओर तिल्से वहन
यत तामसे ।\६ | जिसके फि, पजाकी गई हो उसोसे दशांश हवन | (
हवनका होना चाहिए ।\६९।\ वह कुश जर तिलके पानौसे हो, यदि क्षव्तिनषहोतोएक. `
` आहौ आहुति देदे \\६७।। सोनेके बिल्वपत्रसे भिरिजापतिकी पुजा करे आचायं ओर ब्राह्म्णोकी `
^ प करे तथा दक्षिणामादिते सम्तुष्ट करे ।६८। सोनेके साथ दूष देनेवाली गाय द, वसत्रसहित प्रतिमा `
भक्ते साथ पठता है उसे महादेव विमल गति
„९ कलत ओर वस्त्र ।।६९।। देकर जगद्गुरु क्षमा मांगे, इस विधानसे जो लक्ष पुजा करता है ।\७०।१ वह॒ `
ह, ७१।1 यह् की स्कन्धपु त न्घपुराणका कहा हा लाख बेलपत्रोसे पुजनब्रत उद्यापन सहित पुरा हुआ ॥
पृजाविधि |
(१००३)
[०1 णम ०७०००५०७
माधवे वोजं विदध्याल्लक्षयुष्पिकाम् ।! एकेकं म॒लमन्तरेण रद्रमन्त्रेण वा पत! |: ` |
` अथवा सद्रसुक्तेन 'सहस्रेणाथवा ब्रती \। अपयेत्पावेतीनाथे नमो सराय वा जपन्!\
अनेनैव प्रकारेण लक्षपुजां समर्पयेत् ।1 ऋषय ऊचुः ।। यानि यानि च पुष्याणि `
विशिष्टानि शिवार्चने \\ तानि सर्वाणि भो ब्रह्मन् कथयस्व यथातथम् । लोमश `
उवाच ।! बाहंतं कणिकारं च करवीरं तिलस्य' च ।। बित्वपुष्पं च कल्हारमर्व `
( मन्दारमव च । लोत्पटं च कमलं कुमुद च दुगश्यम् ॥, मालती चम्पकं चेव `
तथा मोगरक श्लुभम् ।! तगरं शतपत्रं च सौवीरं मनिसंज्ञितम् ।। जाती पाटलकं ` ५ |
चेव पुागं च विक्षिष्यते ।। कदम्बं च कुसुम्भं च अशोकं बकुलं तथा ॥ पालाशं `
| ` कोरटं चैव मुकुलं धत्तुरं तथा । एतान्यन्यानि पुष्पाणि विरिष्टानि वाचने ।॥। `
| एतेषां लक्षपुजां वे यः करोति नरोत्तमः ।। भुक्त्वा भोगान् स विपुलान् शिवेन `
८: सह मोदते ।! आयुष्कामेन कतंन्यं चम्पकः पूजनं (५ | ५,
| कंपुष्यविशेषतः ।। पुत्रकामेन कतंव्यं बाहंतोः पुजनं महत् ।। करबीरर्जातिकृ तिक य १ 1 ध
ौवीरेस्तोषयेत्त् यः ॥ तस्थ विष्वं भवेद्रश्यं
५ तवगन्धर्वा वश्लीभवन्ति नान्यथा ।! पुत्रकामेन `
ननं महत् ॥। वि्ाकामेन कतेवयम , र
भागे उदीच्यां विष्णमेव च ।\ यदुक्तं सद्रकल्पे तु पजनं तच्च कारयेत् \! वेद-
श्ास्त्रपुराणेन रात्रौ जागरणं चरत् ।\ ततः प्रभातसमय नद्या स्नत्वा शुभ जल ॥
स्थण्डिलं कारयेत्रत्त स्वाशालोक्तविधानतः ।। हवनं सद्रमन्त्रेणपायसाज्यतिलैः
पृथक् !\ प्रारथयेच्छडकरं देवं विरिञ्चि विष्णुना सहा । सावित्री पावेतीं चैव॒
| लक्ष्मीं गणर्षाति त्था \ स्कन्दभेरवचामुण्डान्परिवारांस्ततोऽचंयेत् ।\ नवेदे- ५ ।
विविधैक्चैव तोष्येद्गिरिजापतिम् श्रेयः संपादनं कायेमाचायेपुजनं `
तथा ।। ऋत्विजः पुजयेत्पश्चादस्त्रालडकरणेः शुभैः 1! गोभूहिरण्यवस्तरादयस्तो- `
` षयेद्ब्राह्मणांस्ततः ।। अभिषेकं ततः कुरयत्पुराणभरुतिचोदितम् ।। ततः शिवालये
गत्वा सभार्योऽयो द्विजैः सह् ।। स्नानं पञ्चामुतेनेवाभिषेकं सद्रसूक्ततः ॥। पूजां `
सुवर्णपुष्येश्च ऋतुकालोडूवैस्तथा । कारयेत्तस्य लिद्धस्य स्वीयश्त्यनुसारतः।। `
“ | वस्नवुर्मत् चार्च्य दपती भोजयेत्ततः \\ परदक्िणानसस्कारान कृत्वा मध्ति ५.
कृताञ्जलिः \। क्षमापयेन्महादेवं सुहुमहुरतन्द्रितः ।\ महादेव जगलाथ भक्तानां 1६
कारयंकारक ।। त्वतप्रसादमहं याचे शीध्रं का्यभ्रदो भव 1 अनेनैव विधानेन लक्ष- `
१ र
नित्यं श्द्धाभवितिसमम्वितः \। तस्य देवो महादेवो ददाति विपुलां मतिम् ।\ इति `
स्कन्दपुराणे उत्तरलण्डे लक्षपूजोद्यापनं सपू्णम् ॥ ` र
पूजां करोति यः ।\ पुत्रपौत्रप्रपोतरेशच राज्यं प्राप्नोति शाश्वतम् ।.य इदं पठते `
। जह मा साता न
को कहनेवाला आपसे अधिक भौर कोई नहं है \ जप व्यासदेवको कृपासे सर्वज्ञ हँ लोमश. ( | ।
ब्राह्मणो ! पृथिवीसे केकर समुद्रतक जितने
| | ` विष्वं वहम हौजाते हं } इसमं विचार न करना चाहिये, उसके देव दानव ओर गन्धर्वं सब वशे होजाते
| है यहं शरूढो बात नहीं है } पृत्रकामौकौ धतुरेके एूलोसे पजन करना चाह \ संब काम ओर अर्थोकी सिद्धि = `
| करनेके लिए सबके फूलोसे भक्तिपु्वेक पूजन करे । भमुष्य जिस निस कामको चाहता है बहु उसे
मिल जाताहै लाख पुष्पोसे शिवजीका पूजन करदेनेपर शिवजी प्रसन्न हो जाते हँ । उद्यापन--कहता हुं `
। व्रतकी पुरतिके किए, पवित्र शुभे दिनमं ब्रह्मणोको बुलाकर जहां उद्यापन करना हो वहां वेदी बनवावे
| आचाय तथा दूसरे ब्राह्मणोके साथ गाने बजाने ओर वेदपाठ होते हृएही उसमें भ्रवेश करे ! वहां तिथि नक्षत्रके `
| शा संकल्प करे, स्वस्तिपाठ हौ, पुण्याहवाचन ओर आचार्यं वरण हो, वेदीपर सुन्दर स्वस्तिकं बनावे, `
| । उस्र चावलका त्रिकूट कंलास बनावे, उसपर तांबे या मिहीका कञ्ञल रखे, उसयर पंचपल्लव ओर पूणंपात्र॒ `
| ` रखे, कंलास ओौर कला दोनोको दो वस्त्रौसे वेष्टित कर दे ! उस कलशपर सोनेकी शिवपार्वतीजीकीौ सुन्दर `
। ` भूति बीचमें दक्षिण भागमें ब्रह्मा तथा उत्तरभागमें विष्णुकी स्थापित करे । हदरकल्पके विधानके अनुसार `
पजन करावे बेदसास्त्र ओर पुराणोसे रातमें जागरण करे । प्रभातमें नदीके पवित्र पानीमें स्नान करे । अपनी `
| शश्ाखाके विधानके अनुसार स्थंडिल करावे । रद्र संत्रसे पायस आज्य ओर तिलोसे पृथक यक् हवन करे । ,
पार्वती, दिव, सावित्री, ब्रह्मा, लक्ष्मीनारायण, गणक इनकी प्राथना करे, पीछे स्कन्ध भैरव ओर चामुण्डा ` क
| आदि परिवारोका पुजन करे, अनेक तरहके नैवेद्योसे गिरिजापतिको ओरञआचायं
` पूजन करे, वस्त्र ओर अलंकारोसे ऋत्विजोको तथा गौ भूमि ओर हिरण्य आदिसे ब्राह्मणको प्रसत करे। = `
| पराण ओर शरुतिरयोका कहा हंभा अभिषेक करे। पीछे स्त्रीसहित शिवमंदिर जाकर पंचामृतसे स्नान भौर
ख्रसुक्तसे अभिषेक होना चाहिये । अपनो शवितके अनुसार ऋतुकालके तथा सोनेके कलोसे शिवलिङ्ग `
पूजा करे, दो वस्त्रसे अर्च॑कर दंपतियोको भोजन करावे । प्रदक्षिणा ओर नमस्कार करे, हाथ
जोडकर शिरपर रखे वारंवार निरालस होकर महादेवजीसे क्षमापान करावे कि, हे महादेव ! है जगल्लाय
है मक्तोके कामोके करनेवाले ! ने आपका प्रसाद सांगता हूं आप शौघ्नही कायं देनेवाले हो नाद्ये । जं
इसी विधिके अनुसार लक्ष पुजा करता है बह बेटे, नाती ओर पोतियोके साय युक्त हो सदाके लिये राज्य
पाता है \ जो कोई इसे धद्धा भक्तिके साथ रोज पडता है उसे श्रौमहादेव अधिक मति देते हं । यह भीस्कन्द-
न ॥ अ, (1
„ नस्स्वजा. ` -- | | ९१९०९ सक्षु ~
। दवः ध प प ॥ प्र ० । षी
0 रि
विधायिनी भगवतः कृष्णस्य संरोपिता यस्यार्चा करणे विमुक्तिफलदा तस्ये
. तुलस्यै नमः \! कातिके मासि कुर्वीत माघे वा माधवे तथा ।। दिनेदिने सहस्रं
वु ह्यपयेत्तरसीच्छदान् ।। एवं "मासत्रयं कुर्यात्तित उद्यापनं चरेत् ।! वश्ञाखे माघ
अने वा कुर्यादुद्यापनं क्रमात् ।! यस्मिन्मासे प्रकतेव्यं दशने गुरशुक्रयोः । सुभे
` दिने चुभरक्षे च शुभलग्ने चुवासरे ।! आचार्यं वरयेदादो वेदवेदाङद्कपारगम् \
दान्तं शान्तं तथाऽसद्धं निःस्वकं ब्रह्मचारिणम् \\ विधिज्ञं तत््ववेत्तारं शुचिष्मन्तं
` तपस्विनम् ।! स्वगृह्योक्तेन मार्गेण पूर्वेद्युः स्वस्तिवाचनम् \\ सौवर्णी प्रतिमां
विष्णः शङ्कचक्रगदान्विताम् । वुलस्यायतनं चेव कुर्याद्धिमविनिमितम् ।। हेमा-
` दिनि्मितं कुर्भं पूर्णपात्रसमन्वितम् ।। पुण्योदकेः पञ्चरत्नेः कुशदूवप्रपुरितम् । `
तस्योपरि न्यसेष्टिष्णं लक्ष्मीतुलसिकान्वितम् । पूजां पुरषससुक्तेन कुर्याद्ब्न-
1 ह्यादिदेवताः ॥ उपचारः षोडशभिः पूजयेच्च व्रती तथा \। रात्रौ जागरणं
कुर्यत्पुराणश्नवणादिना ।। ततः प्रातः समुत्थाय होमं कुयष्विधानतः \। वैष्णवेन `
तु मन्त्रेण तिलाज्येन विशेषतः !। पायसेन धृताक्तेन हष्टोत्तरसहस्रकम् ॥ `
आचार्याय सवत्सां गां दक्षिणावस्त्रसंयुताम् ।। ब्राह्यणाम्भोजयेत्पश्चात्सहसरं बाथ `
शक्तित ५ तः ॥\ शतं वाष्टावि्लति च श्वद्धाभवितसमन्वितः ।! तेभ्योऽपि दक्षिणां
दद्याद्वि्त्ञाठय न कारयेत् \\ एवं यः कुर्ते मर्त्यो विष्णुसायुज्यमाव्रजेत् ।। विष्णु
प्रीति करं यस्मात्तस्मात्सरवव्रताधिकम् ।। तुलसीलक्षपुनोक्तं माहात्म्यं भ्यणुयान्नरः।। `
सङृद्धापि पठेन्नित्यं स गच्छ्ष्णवं पदम् ।\ होमभस्म समादाय रक्षणं त्वात्मन- `
चरेत् ।। ब्रह्मराक्षसभूतानि पिदाच ग्रहराल्लसाः ।\ पीडां तत्र न कुवन्ति होम-
। भस्म तु यत्र वे \\ सर्पादिबाधके प्राप्ते गभिण्याश्चाविनि्गमे \ भस्मप्रक्षेषमात्रेण `
सवं नदये धयं नृणाम् \। इति श्रीभविष्यपुराणे लक्षतुलसीव्रतं सोदयापनं संपुणम् ।। `
तुलसीलक्ष पुजाविधि--कहते हँ । उसमेभी सबसे पिके तुलसीके ग्रहणकौ विधि कहते है, देवैस्त्वभ्
प मत्से प्राथेना त करे | १ ध | इससे तुलसीके पत्र खेकर नं पछ विष्मभावानपर चदा
[क हुन्दाटाकासहित = ` (१००७) `
सौ तरह करके उद्यापनं करे, वैशाख, माघं वा कतिक क्रमसे उद्यापन करे । निस महीनेमे उथापनकरे;ः `
| ` उसमें गुर ओर शुक्रके दनम लुभ दिन ओर नक्षत्र शुभे लग्न ओर दिनम करे, वेद वेदागोके लाता आचार्थकां ` `
| वरण करे \ वह शन्त, दान्त, असंग, निःस्वकः, ब्रह्मचारी निधिका जानगेवाला, तत्वयेत्ता श्चि ओर तपस्वौ = .
हौ} अपने गृह्यसूत्रके विधानके अनुसार पहिले दिन करे । स्वस्ति वाचन करावे; शंख, चक्र गदा, पद्मल्यि `
। हए सोनेको विष्णुभगवानुकौ प्रतिमा बनावे, तुलसीका आयतनभी सोनेका हो, परणं पात्े साथ सोतेका `
| कभ हो । उसमें पवित्र पानौ भरा हो । पंचरत्न कुक्च ओर दब पडे हो, उसपर लक्ष्मीजौ ओर दुल्सीजीके `
| साथ विष्णुभगवान्को विराजमान करे । पुरुषसक्तसे पुजा कर, श्रह्मादिक देवोकौ सोलह उपचारो पूना `
| करे पुराणश्रवणं आदिसे रातर्मे जागरण करे । प्रातःकाल उठकर विषिपुवक होम करे, वैष्णवभत्रे तिल `
| भाज्यसे एवं विशेष करके घौसे भीगी पायससे एवं हार आठ आहुति दे । आचारययको दक्षिणा दोवस्न॒ `
भौर बडेवालो गाय दे \ अपनी शक्तिके अनुसार एक हजार ब्राह्मणको भोजन करावे, अथवा श्रद्धा भकतके = `
] साथ सौ वा अद्वाईस जिमा दे, उन्हभौ दक्षिणा दे, लोभ न करे, जो मनुष्य इस प्रकार करता है वह् विष्णु- = `
| भगवान्के सायुज्यको पाता है, यह् विष्णुभगवान्को प्रसन्न करनेवाला है" इस कारण सब व्रतोमे अधिक
है । वुलसीदलसे लक्षपुजाकेकहे माहातम्यको जो मनुष्य सुनता है अथवा रोज एकवारभी पढ के बह विष्ण. ` ६
| लोकको चला जाता है, होमकौ भस्म लेकर अपने शरीरकी रक्षा करे । ब्रह्मराक्षस, भूत, पिशाच, प्रह, राक्षप, `
हयम की भस्म रहतौ है वहां पीडा नहीं करते, स्वं आदिकौ बाधा तथा गभिणी आदिके प्रसवकाले भस्मके `
~ भ्रक्षेपमात्रसे मनुष्योका सब भय मिटजाता है । यह शरौभविष्यपुराणका कहा हृभा तुलसीव्रत उय्यापन
` पराहृजा\। |
4 अथ विष्णोरुक्षपुष्पपुजाविधि ८
ऋषय ऊचुः ।। यानि कानि च तीर्थानि पुण्यान्यायतनानि च ।। यदुषिश्य
च कार्याणि तत्सवं कथितं त्वया ।! इदानीं वद विष्णोहच लक्षपुष्पार्चनं मुने ॥
लोमश उवाच।। पुथिव्यां यानि तीर्थानि सागरान्तानि भो द्विजाः । माहात्म्यानि
| च सर्वाणि कथितानि मया पुरा ।! इदानीं वक्तुमिच्छामि पुष्परनानाविधैरहम्
| लक्षपुजां प्रवक्ष्यामि विष्णोरपिततेजसः ॥। पुष्पाणां लक्षपुजां तु कातिके
रत् १ से जो चे भाहि व केतशद्वासमन्वितः ।। यवूतो
4. 1 1 क ॥ ५4.114
` पारिजातैक्च पूजनम् ।! वह्लीकरणकामेन सौवीरस्तोषयद्धारिम् \! तस्य वश्ि. ` ,
भवेदयं नात्र कार्या विचारणा ।! देवदानवगन्धर्वा वहामायान्ति नान्यथा ॥
श्रीकामेन तु करव्यं केतकीपुजनं महत् ।\ एवं हि सर्वपष्पैश्च सर्वकार्याथेसिद्धये ॥
लक्षपुजां परकर्याच्च प्रसन्नोहि हरिभवेत् ।\ उद्यापनं यत्र काय मण्डपं तत्र कारयेत् `
` आहय ब्राह्मणान् सर्वान् सुनक्षत्रे शुभे दिने \\ वेदिका च प्रकर्तव्या मण्डपे तु जुभे `
दिने ।\ गीतवादित्रघोषेण